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समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि
मन शुद्धि गीतम
एक मन सुद्धि विन कोउ मुगति न जाइ ।
भाव तँ के जारि मस्तकि, भावइ तुं मुंड मुंडाई | २. | १ || भाव तू भूख तृषा सहि वन रहि, भावइ तूं तीरथ न्हाइ । भाव तँ साधु भेख धरि बहु परि, भाव तू भसम लगाई | ए | २ || भाव तँ पढि गुणि वेद पुराणा, भावइ तू भगत कहाई । समयसुंदर कहि साच कहूं सुण, ध्यान निरंजन ध्याइ | ए | ३ ||
कामिनी-विश्वास- निराकरण-गीतम्
(838)
रोग - सारङ्ग.
कामिनी का कहि कुण विसासा | का० । खि राचइ विरचइ खिण मांहे,
खि विनोद खिरा मेलै निसासा ॥ का ० ॥ १ ॥ बचाने अउर अउर चित अंतर,
अउर सु करइ हांसा । चंचल चित्त कूड अति कपटिनि,
मुग्ध लोग मृग बंधनि पासा || का० ||२|| धन जे साध तास संगति तजी.
जाइ रहे वन वासा | समयसुन्दर कहइ सील अखंडित,
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पाल ताके चरण कउ हूं दासा ॥ का ० || ३ ||
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