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दानसील तप भाव संवाद शतक
(५६१ )
निज अपराध खमावतो रे, मुंको मन थी मान । मृगावतो नई मई दीयं रे, निरमल केवलज्ञान ।११।सो.। मरुदेवी गज चडी मारगई रे, पेखी पुत्र नी रिद्धि । मुझ नइ मनमांहे धर्यउ रे, ततखिण पामी सिद्धि ।१२।सो.। वीर बांदण चाल्यउ मारगई रे, चांप्यउ चपल तुरंगि। ददुर नामहं देवता रे, तेह थयउ मझ संगि ।१३।सो.। प्रभु पाय पूजण नीसरी रे, दुर्गता नामइ नारि । काल-धरम विचि मई करी रे, पहुती सरग मझारि ।१४।सो.। काया सोभा कारमी रे, मुंक्यउ मन अभिमान । भरत आरीसा भवन मई रे, पाम्युं केवलज्ञान ।१शसो.।
आषाढ भूति कला निलउ रे, प्रगत्यउ भरत सरूप । नाटक करतां पामीयुं रे, केवलज्ञान अनूप ।१६।सो.। दीक्षा दिन काउसगि राउ, गयसुकमाल मसाणि । सोमिल सीम प्रजालीउं रे, सिद्धि गयउ सुह झाणि।१७सो.। गुणसागर थयउ केवली रे, सांभन्यउ पृथिवीचंद । पोतह केवल पामीयुं रे, सेव करइ सुरवृन्द ।१८सो.। इम अनंत मई ऊधयों रे, मुंक्या सिवपुर वासिं । समयसुन्दर प्रभु वीर जी रे, मुझ नइ प्रथम प्रकासि ।१६।सो.।
रतां पामा प्रगत्या केवलज्ञान ।।
वीर कहइ तुम्हे सांभलउ, दानसील तप भाव । निंदा छह अति पाडुई, धरम काम प्रस्तावि ॥१॥
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