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श्री जिन सिंहसूरि गीतानि
(३८५)
मलइ आयउ भाद्रवउ, नोर भस्था नीवाणो जी। . गुहिर गंभीर ध्वनि गाजता, सहगुरु करिहि वखाणो जी ।। वखाण कल्प सिद्धांत वांचे, भविय राचइ मोरड़ा। अति सरस देसण सुणी हरखइ, जेम चंद चकोरड़ा ।। गोरड़ी मंगल गीत गावइ, कंठ कोकिल अभिनवउ । जिनसिंघसूरि मुणींद गातां, भलइ रे आयो भाद्रवउ ॥२॥
आस आसा सहू फली, निरमल सरवर नीरो जी। सहगुरु उपसम रस भरथा, सायर जेम गंभीरो जी॥ गंभीर सायर जेम सहगुरु, सकल गुणमणि सोह ए। अति रूप सुन्दर मुनि पुरंदर, भविय जण मण मोह ए॥ गुरु चंद्र नी परि झरइ अमृत, पूजतां परइ रली। सेवतां जिनसिंघ सूरि सहगुरु, आस मास आसा फलीं ॥३॥ काती गुरु चढती कला, प्रतपइ तेज दिणंदो जी। धरतियइ रे धान नीपना, जन मनि परमाणंदो जी॥ जन मनि परमाणंद प्रगट्यो, धरम ध्यान थया घणा । वलि परब दीवाली महोच्छव, रलिय रंग वधामणा ॥ चउमास चारे मास जिनसिंह सूरि संपद आगला। वीनवइ वाचक 'समयसुन्दर' काती गुरु चढती कला ॥४॥
आचारिज तुमे मन मोहियो, तुमे जगि मोहन वेली रे। सुन्दर रूप सुहामणो, वचन सुधारस केलि रे। पान
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