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________________ ( ३२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर गुरुणा पालितानाऽऽज्ञाऽर्हतोऽतोऽतिदुःखभागभूव । एषामहो ! गुरुदु:खी, लोकलज्जापि चेन्नहि ।१७।* पराधीनता यह भी एक जीवन का सत्य है कि मानव अपनी तारुण्यावस्था और प्रौढ़ावस्था में अपने विशद ज्ञान, अधिकार और प्रतिभा के बल पर सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होकर जीवित रहता है किन्तु, वही वृद्धावस्था में अपने मनको मारकर पुत्रों की इच्छानुसार चलने को बाधित हो जाता है। उसकी सारी योग्यता, प्रतिभा और स्वाभिमान का नामोनिशान भी मिट जाता है। देखिये कवि के जीवन को ही। घटना इस प्रकार है: प्राचार्य जिनसिंहसूरि के पश्चात् श्रीजिनराजसूरि । गण. नायक बने और जिनसागरसूरि आचार्य बने । जिनसागर* संभवतः यह 'दुःखित वचनं वादी हर्णनन्दन को लक्ष्य कर लिखा गया प्रतीत होता है। T आचार्य जिनराजसरि-बीकानेर निवासी बोहित्थिरा गोत्रीय श्रेष्टि धर्मसी के पुत्र थे । आपकी माता का नाम धारलदे था। आपका जन्म नाम राजसिंह था। सं० १६५६ मिगसर मुदि ३ को आपने आचार्य जिनसिहसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम था राजसमुद्र । आपको उपाध्याय पद स्वयं युगप्रधानजी ने सं० १६६८ में दिया था। प्रा० जिनसिंहसरि के स्वर्गवास होने पर आप सं० १६७४ वैशाख शुक्ला सप्तमी को मेड़ता में गणनायक आचार्य बने। इसका पट्टमहोत्सव मेड़ता निवासी चोपड़ा गोत्रीय सङ्घवी आसकरण ने किया था। अहमदाबाद निवासो सङ्घपति सोमजी कारित शत्रु आय की खरतर वसही में सं० १६७५ बैशाख शुक्ला १३ शुक्रवार को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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