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सत्यासी या दुष्काल वर्णन छत्तीसी
(५०७ )
कवि की आप बीती कथापछि आव्यउ मो पासि, तु आवतउ मई दीठउ; दुरबल कीधी देह, म करि काउ भोजन मीठउ। दूध दही घृतघोल, निपट जिमिवा न दीधा; शरीर गमाडि शक्ति, केई लंघण पणि कीधा । धर्मध्यान अधिका धर्या, गुरु दत्त गुणणउ पिण गुण्यउ; 'समयसुंदर' कहइ सत्यासीया,तुन हाक मारिनइ मई हण्यउ।१६। पाटण थकी पांगुरी, इहां अहमदाबाद आयउ; देखी माहरी देह, माच्छ गलबंध' गमायउ। गरढउ गीतारत्थ, गच्छ चउरासी चावउ; श्रावक न करी सार, पिण रहिस्यइ पछतावउ । श्रावक दोष न को सही, मत जांण उ वांक माहरउ । 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, ते दूषण सहु ताहरउ ॥२०॥
सहायकर्ता-दानी श्रावकसाबास शांतिदास, परघल अपणां गुरु पोष्या; पात्रा भरि भरपूर, साधनई घणा संतोष्या । उसा पाणि अांणि, वस्त्र पिण भला बहराव्या; सखर कीयो लघु शिष्य, गच्छ पिण गरुयडि पाया।
१ बंध. २ ऋतूत.
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