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(१८४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि
अथ चतुर्विंशति तीर्थङ्कर-गुरु नाम गर्भित
श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् वृषभ धुरन्धर उद्योतन वर, अजित विभो भुवि भुवन दिनेश्वर,
बद्धमान गुणसार । वामा सम्भव पार्श्वजिनेश्वर, सुजन दशा-ममिनन्दन शशिकर,
चन्द्र कमल पद चार ॥१॥ जय सुमति लता घन अभयदेव सूरीन्द्र । पद्म प्रभु कर नत वल्लभ भक्ति मुनीन्द्र ॥ वसु पाच विगत मद दत्त भविक जन भन्द्र ।
चन्द्र प्रभु यशसा सुन्दर तर जिन चन्द्र ॥२॥ सुविधिनाथ जिनपति मुदार मति शीतल वचनं । नौमि जिनेश्वर सूरि साधु कृत संस्तव रचनम् ॥ श्रेयासं भविक प्रतिबोध निपुणं निस्तन्द्र । श्री पार्श्व दे वासुपूज्य मानं जिनचन्द्रम् ॥३॥ बिमलभं कुशलाम्बुज-भास्कर प्रशमनं तत्पद्म दृशावरम् ॥ नमत धर्म-सुलब्धि-विराजितं
जिनमशान्ति मुचंद्रविणोज्झितम् ॥४॥ कुंथुरक्षाकरं विहितवृजिनोदयं, अरतिचिताहरं राजमांनासयम् । मल्लिका सहितभद्रासनस्थायिनं, स्मरत मुनिसुव्रतं चंद्रहृदयं
जिनम् ॥५॥
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