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( ३६०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सुणि जिणचंद सूरि सुवखाणं,
जिम हम जैन धरम पहिछाणं ॥ १२ ॥ तब मंत्रीसर वेगि बुलाए,
आडंबर मोटइ गुरु आए। नर नारी मन रंगि वधाए,
पातिसाहि अकबर मनि भाए ॥१३॥
छंद गीता
आवतां आदर अधिक दिद्धत, पातिसाहि पर सिद्धमओ। लाहोर नयरि महा महोच्छव, सुजस श्री संघ लिद्धओ। श्री पूज्य आया हुया आणंद, जाणि जलधर वुटुओ। सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिदुओं ॥१४॥ प्रति दिवस अकबर साहि पुच्छइ, जैन धरम विचारओ। प्रति बूझवह गुरु मधुर वाणी, दया धरमह सारो ।। प्राणातिपातादिक महाव्रत, रात्रि भोजन बटुनो। सो गुरु श्री जिणचंद सरि, धन्न नयणे दिट्टओ ॥१५॥ रंजियउ अकबर साहि बगसइ, दिवस सात अमारि के। वलि मच्छ छोरे नगर खंभाइत्त दरिया वारि के । जो कियउ जुगह प्रधान पद दे, सबहि मई उक्टुिनो। सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिहश्रो॥१६॥
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