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ऋषि महत्व-पर प्रसंशा गीतम्
(४७३ )
अंतरंग वचार गीतम्
राग-भैरव कहउ किम तिण घरि हुयइ भलीवार,
को कहनी मानइ नहीं कार ॥१॥ क० ॥ पांच जन कुटुम्ब मिल्यउ परिवार,
जूजुइ मति जूजुयउ अधिकार ॥२॥ क०॥ आप संपा हुयइ एक लगार,
तउ जीव पामइ ख अपार ॥३॥ क०॥ समयसुन्दर कहइ स नर नारि,
अंतरंग छइ एह विचार ॥४॥क० ॥
ऋषि महत्व गीतम्
बइठि तखत्त हुकम्म करइ, परभाति जाणे पातसाह बड़ा; मध्याह्नसमइ हाथि ठूठइ लीयइ, भीख मांगइ फकीर ज्युं बारि खड़ा। न मर्द न जोरू लख्या नहीं जावत, मस्तक मुंडित कन फड़ा; अचरिज भया मोहि देख नहीं एहु,कुण दुकोण देखउ रिखड़ा ।१।३.। मध्याह्न समइ गज भिक्षा भमइ, लोक मष्टान्न पान द्यइ आगइ खड़ा; ध्रम आप तरइ तारइ अउरण कं, नमइ लोक खलक बड़ा लहुड़ा। दुख पाप जायइ मुख देखत ही, एहु खूब दुकाण भला रिखड़ा ।।
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