________________
( १५२ )
समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि
ए पिंडस्थ पद रूपस्थ रूपातीत ध्यान हर री, ए मन भृङ्ग भजि भगवंत बहु पर दउर धारी। तूं०॥३६॥
१४ राग-सृहव संसार सागर दुख जल, निडवंत नर बोहित्थ । शुभ भाव समकित वासना, शिव सुख करण समस्थ॥४०॥ जिन प्रतिमा जिन सरीखी वंदनीक, भक्ति करउ निर्भीक । जि०। भगवती ज्ञाता प्रमुख मंइ, उपदिशि प्रतिमा एह । तो पण जे मानइ नहीं, मूढ पसु हवइ तेह ॥ जि० ॥४१॥
१५ राग--खंभायति जेसलमेरु जीराउलइ रे, नागद्रह करहेडइ रे । सइरोसइ संखेश्वरइ रे, गउड़ी दुख फेडरे ॥४२॥ तोरी जागती जगनायक, महिमा जगि घणी रे । तूं तो सुख संपति पूरण, सुरमणि रे॥४३॥ कलिकुड आबू अमीझरई रे, फलवधि पुर जोधाणइ रे । नारंगपुर पंचासरइ रे, खंभायति बरकाणइ रे ॥४४॥
१६ राग-कल्याण
जिनजी मेरउ मानव भव आज प्रमाण रे मेरो।मा०। दुत्रिभुवन पति थुव्यउ, जग भाण रे, भाव भमति आणंद, मन आण रे॥ मे० ॥४॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org