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श्री
ऋषि गीतम्
( २७ )
मुझनइ प्रहार मिलइ नहीं, द्वारिका रिद्धि समृद्धो जी । साधना भगत जादव सहू, मुझ गुरु बाप प्रसिद्धो जी । ६ । ध. । सुणि ढंढण रिषि साधतु, भाखड़ श्री भगवंतो जी । कीधा करम न छूटिय, विण भोगव्यां नहीं तो जी । १० । ध. । पाछिल भवितु बांभण हुतउ, अधिकारी दुख दायो जी। पांचसइ हाली नह तई कीय, अन्न पाणी अंतरायो जी । ११ । ध. । ढंढण रिषि भइ हुँ हिब, पारकी लबधि आहारो जी। सु नहीं भमस्यु सदा, करमनउ करिस्यु संहारो जी | १२ | ध. । (२) ढाल बीजी - नेमि समीपइ रे संजम आदरचउ, एहनी. नरेसरू,
इस अवसर श्री कृष्ण
प्रसन करइ कर जोड़ो जी । द्वारह सहस मई कुण अधिक जती,
जेहनी नहिं कोई जोड़ो जी ॥ १ ॥ अढारह सहस मांहि अधिक ढंढण जती,
भाखइ श्री भगवंतो जी । सबल लाभ परीसउ जिरा साउ,
करिव करम नो तो जी || २ || अढा० ॥
बासुदेव प्रभु वांदि नइ चल्यउ, द्वारिका नगरी मारो जी ।
मारग मई ढंढरा मुनिवर मिल्यउ,
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गोचरी गयउ अणगारो जी || ३ || अढा ॥
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