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महोपाध्याय समयसुन्दर
( ८५ )
"लसरणाण-विनाण-सन्नाण-मेहं,
कलाभिः कलाभिर्युतात्मीयदेहम् । मणुगणं कलाकेलिरुवाणुगारं,
स्तुवे पार्श्वनाथं गुणश्रेणिसारम् ।१। सुत्रा जेण तुम्हाण वाणी सहेां,
गतं तस्य मिथ्तात्वमात्मीयमेयम् । कहं चंद ममिल्ल पीउसपाणं,
विषापोहकृत्ये भवेन्न प्रमाणम् ।२। लुहप्पायपंके रुहे जे अ भत्ता,
लभे ते सुखं नित्यमेकाग्रचित्ताः । कहं निष्फला कप्परुक्खस्स सेवा, भवेत्प्राणिनां भक्तिभाजां सदेवा ।३।
[पार्श्वनाथाष्टक कु० पृ० १८२] समसंस्कृत-प्राकृत की रचनायें साहित्य में नहीं के समान ही है। इस प्रकार की रचनाओं का प्रादुर्भाव आचार्य हरिभद्र की 'संसार दावा' स्तुति से होता है और विस्तार प्राचार्य जिनवल्लभ के 'भावारिवारण स्तोत्र' और 'प्रश्नोत्तर षष्ठिशतक' काव्य में । इस प्रकार की कवि की यह एक ही रचना है। केवल संस्कृत-प्राकृत मिश्र ही नहीं, हिन्दी और संस्कृत मिश्र कृति का भी चमत्कार देखिये:
"भलूँ आज भेट्यु, प्रभोः पादपद्म, फली आस मोरी, नितान्तं विपद्मम् ।
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