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दानसील तप भाव संवाद शतक
(५८६ )
इम बलभद्र प्रमुख बहु, तार्या तपसी जाव हो । सु.। समयसुन्दर प्रभु वीरजी, पहिलउ मुझ प्रस्ताव हो । सु.।११।त.।
सवेगाथा ५५
भाव कहइ तप तुं कीस्यं, छेड्यउ* करइ कषाय । पूरव कोडि तप तुं तप्यउ, खिण मांहि खेरू थाय ॥१॥ खंदक आचारिज प्रतई, तई बालाव्यउ देस । असुभ निपाणउ तुं करइ, क्षमा नहीं लवलेस ॥२॥ दीपायन रिषि दहव्यउ, संब प्रजूने साहि । तई तप क्रोध करी तिहां, कीधउ द्वारिका दाह ॥३॥ दानसील तप सांभलउ, म करउ जूठ गुमान । लोक सह बड़े साखि घइ, धरमइं भाव प्रधान ||४||
आप नपुंसक सहु त्रिरहे, यह व्याकरणी साखि । काम सरह नहीं को तुम्हे, भाव भणइ मो पाखि ॥५॥ रस विण कनकन नीपजइ, जल विण तरुवर वृद्धि । रसवती रस नहीं लवण विण,तिम मुझविण नहिं सिद्धि ॥६॥ मंत्र तंत्र मणि औषधि, देव धरम गुरु सेव । भाव बिना ते सवि वृथा, भाव फलइ नित मेव ॥७॥ दानसील तप जे तुम्हे, निज निज कह्या वृतांत । तिहां जउ भाव न हूंत हु, तउ को सिद्धि न जांत ।।८।। भाव कहइ मइ एकलइ, तार्या बहु नर नारि । सावधान थइ सांभलउ, नाम कहुँ निरधारि ॥६॥ *छोयेठ
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