SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव प्रतिबोध गीतम् (४२१ ) माया मोह मांहि लपटाणउ, काई जमारउ खोबइ री जा.। समयसुन्दर कहति एक ध्रम, तेही सुख होवइ री जा.।२। जीव प्रतिबोध गीतम राग-प्रासाउरी रे जीव वखत लिख्या सुख लहियइ । भूरि झूरि काहे होत पांजर, दैव दीना दुख सहियई रे.।१। अइसउ नहीं कोऊ अंतरजामी, जिण आगलि दुख कहियइ। जोर नहीं परमेसर सेती, ज्यू राखइ त्यूँ रहियइ रे.।२। कुल की लाज प्रजाद मेटत कुण, जिम तिम करि निरवहियइ। समयसुंदर कहइ सुख कउ कारण, एक धरम सरदहिया ।रे.।३। जीव प्रतिबोध गीतम ढाल-कपूर हुवउ अति ऊजलो एहनी. जिवड़ा जाणे जिन धर्म सार, अवर सहु रे असार जि.। कुटुंब सहु को कारमुं रे, को केहनउ नवि होय । नरक पडतां प्राणिया तु नइ राखणहार कोय ।जि.।१। कूड़ कपट नवि कीजियई रे, पापे पिण्ड भराय । पहिले पुण्य न कीजियइ रे, तउ पछइ पछतावो थाय ।जि.।२। काया रोग समाकुली रे, खिण खिण तूटइ आयु । सनतकुमार तणी परइ रे, खिण मांहे खेरू थाय ।जि.।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy