Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/012075/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवंदन ग्रंथ For Person Private Use Only mwww jainelibraryaru Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती माताजी एक दृष्टि में 0 जन्मस्थानः टिकैतनगर (बाराबंकी) उ०प्र० 0 जन्मतिथि: सन् १९३४ वि०स० १९९१ आसोज शु० १५ शरद पूर्णिमा 0 गृहस्थ नामः कु० मैना 0 माता का नाम श्रीमती मोहिनी देवी (आर्यिका रत्नमती माताजी) - पिता का नाम श्रेष्ठी श्री छोटलाल जैन (अग्रवाल जातीय गोयलगोत्र) 0 आजन्य ब्रह्मचर्य व्रत एवं गृहत्याग सन् १९५२ बाराबंकी में शरदपूर्णिमा के दिन आचार्य श्री देशभूषण जी से -अल्लिका दीक्षाः चैत्र कृष्ण १ वि०स० सन् १९५३ की महावीर जी में O आर्यिका दीक्षाः बैसाख कृष्णा २ सन् १९५६ माधोराजपुरा (राज.) में चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी की परंपरा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी के करकमलों से 0 कृतित्व अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, मूलाचार, कातंत्रव्याकरण आदि ग्रंथों के अनुवाद एवं १५० ग्रंथों की लेखिका हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण • ज्ञानज्योति का समग्र भारत वर्ष में ३ वर्ष तक प्रवर्तन आदि। Jain Educatoria Internatiocal ve Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का महकता १४१ वाँ पुष्प गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सानिध्य : परमपूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी संप्रेरिका : परम पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी निर्देशन : स्वस्तिश्री पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागरजी महाराज 'प्रधान संपादक) बाल ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन १. डा० लाल बहादुर शास्त्री, दिल्ली २. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ३. डा० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर ४. डा० श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत ___ * संपादक मण्डल * ५. डा० शेखर चंद, अहमदाबाद ६. पं० विमल कुमार सोरया, टीकमगढ़ ७. डा० अनुपम जैन, ब्यावरा ८. बाल ब्र० विद्युल्लता शहा, सोलापुर OF INDI प्रकाशक: दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर [मेरठ] उ०प्र० शरद पूर्णिमा-वीर निर्वाण संवत् २५१८ ११ अक्टूबर १९९२, रविवार प्रथम संस्करण ११०० प्रति मूल्य ५०१० लाइब्रेरी एडीसन ११० Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा संचालित वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला में दिगम्बर जैन आर्षमार्ग का पोषण करने वाले हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, आदि भाषाओं के न्याय, सिद्धान्त, अध्यात्म, भूगोलखगोल, व्याकरण आदि विषयों पर लघु एवं वृहद् ग्रन्थों का मूल एवं अनुवाद सहित प्रकाशन होता है। समय-समय पर धार्मिक लोकोपयोगी लघु पुस्तिकाएँ भी प्रकाशित होती रहती हैं। संस्थापिका व प्रेरणास्रोत : गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी समायोजन : आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी निर्देशक : पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी ग्रन्थमाला सम्पादक: बाल ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन (बी०ए०; शास्त्री) © सर्वाधिकार सुरक्षित मुद्रक : पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से ओतप्रोत -विजय जैन सूर्या प्रिन्टर्स, 7/33 अंसारी रोड, दरिया गंज नई दिल्ली-110002 दूरभाष : (011) 3279976 Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज Jain Educalona international For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jail Educationa International आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ हम सभी प्रतिदिन णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों का स्मरण करते हैं। इस पंचमकाल में इन पांच परमेष्ठियों में अहंत, सिद्ध दो परमेष्ठियों के दर्शन तो दुर्लभ ही हैं फिर भी शेष तीन परमेष्ठी आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं के दर्शन आज सुलभ हो रहे हैं। आज से ७०-८० वर्ष पूर्व तो इन परमेष्ठियों के दर्शन भी दुर्लभ थे, लेकिन इस बीसवीं सदी का परम सौभाग्य मानना चाहिये जो चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने इस भू पर जन्म लेकर मुनिमार्ग को प्रशस्त किया और अपनी आगमानुकूल निर्दोष चर्या के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि इस पंचमकाल में भी दिगंबर मुनि हो सकते हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की कृपा प्रसाद से वर्तमान में लगभग २०० दिगंबर मुनि विराजमान हैं जो कि चलते-फिरते तीर्थ के समान नगर-नगर में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। सौ वर्ष पूर्व के विद्वान् लोग तो मुनियों के वर्णन को केवल पुराणों, ग्रंथों में पढ़कर अपनी पुस्तकों में लिख गये कि दिगंबर मुनिराज की चर्या ऐसी होती है। लेकिन आज तो ये तीनों परमेष्ठी २८ मूलगुणों का पालन करते हुए आत्मसाधना में लगे हुये हैं। जिस प्रकार दिगंबर मुनिराज २८ मूलगुणों का पालन कर मोक्षमार्ग में अग्रसर हैं उसी प्रकार महिलाओं में आर्यिकाओं का स्थान है। गणिनी आर्यिकायें आचार्यों के समान पूज्य हैं एवं शिक्षा-दीक्षा देकर अपने संघों का संचालन कर सकती हैं। पहले भी किया था और आज भी उसी के अनुरूप आर्यिका संघ भारतवर्ष में यत्र-तत्र विचरण कर रहे हैं। आर्यिकायें २८ मूलगुणों का पालन करती हैं। मात्र अंतर इतना है कि मुनियों को खड़े होकर आहार लेना मूलगुण है, तो उसके स्थान पर आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना यही मूलगुण माना गया है। तथा मुनिजन नग्न दिगंबर रहते हैं यह उनका मूलगुण है, लेकिन आर्यिकाओं को एक श्वेत साड़ी पहनना यह मूलगुण माना गया है। इसलिये २८ मूलगुणों का पालन करती हुई आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती माना गया है। हमें यह लिखते हुये गौरव होता है कि जिस प्रकार इस शताब्दी के आचार्यों में धर्मप्रभावना एवं निर्दोष मुनिमार्ग का प्रणयन आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने किया उसी प्रकार आर्यिकाओं का पथप्रशस्त करने वाली, निर्दोष चर्या का पालन करने वाली तथा धर्म की प्रभावना करने वाली गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने कार्य किया है। आप इस शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी हैं। चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की शिष्या हैं। आपके द्वारा इस शताब्दी में जो कार्य हये हैं उन्हें आने वाली अनेक शताब्दियों तक जैन समाज भूल नहीं सकेगा। __ आपकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भगवान् महावीर स्वामी के पश्चात् विगत् २५०० वर्ष में जो कार्य किसी आर्यिका के द्वारा नहीं हुआ था वह कार्य आपने करके दिखाया, वह कार्य है ग्रंथ लेखन का । आज ग्रंथ भंडारों में जितना भी साहित्य उपलब्ध है वह आचार्यों द्वारा, भट्टारकों द्वारा एवं विद्वानों द्वारा लिखित प्राप्त होता है। लेकिन आर्यिकाओं द्वारा लिखित कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता था। इस शताब्दी में सर्वप्रथम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने लेखनी चलाई। उसके बाद तो परंपरा चल पड़ी है जिससे अन्य विदुषी आर्यिकायें भी इस मार्ग का अनुशरण करने लग गई हैं। पूजन विधानों में तो पूज्य माताजी ने समाज में एक क्रांति उत्पन्न कर दी है। आज जिधर देखो उधर इन्द्रध्वज विधान हो रहे हैं, कहीं कल्पद्रुम मंडल विधान हो रहा है, कहीं सर्वतोभद्र मंडल विधान का आयोजन और कहीं जम्बूद्वीप विधान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल रहा है। ये सब देन पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की है, जिन्होंने ऐसे सुन्दर-सुन्दर मंडल विधानों की रचना कर सारी समाज में भक्ति की गंगा प्रवाहित कर दी है। अष्टसहस्त्री जैसे ग्रंथों का अनुवाद, नियमसार की संस्कृत टीका, कातंत्र व्याकरण की हिन्दी टीका आदि विद्वानों के लिए भी दुरूह कार्यों को करके आपने आर्यिकाओं का जो गौरव बढ़ाया है वह अतुलनीय है । आपकी प्रेरणा से निर्मित हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना तो आज विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक धरोहर बन गई है, जिसे देखकर जैन एवं जैनैतर हजारों लाखों लोग नतमस्तक होते हैं। इन सभी कार्यों के द्वारा हम सभी विद्वानों में पूज्यमाताजी के प्रति अगाध श्रद्धा जाग्रत हुई है। इसलिये हम लोगों ने आपका सम्मान करने का बीड़ा उठाया और आज हम इस अभिनंदन ग्रंथ के द्वारा आपका सम्मान करने जा रहे हैं। लेकिन हम जानते हैं कि आपके सम्मान में एक नहीं यदि १०० अभिवंदन ग्रंथ भी प्रकाशित किये जायें तो भी कम हैं। क्योंकि आपके गुण व आपके कार्य महान् हैं। उन सभी गुणों का अभिवंदन करने में हम सक्षम ही नहीं हैं। यह ग्रंथ तो मात्र एक औपचारिकता है । वास्तव में आपकी लेखनी में सरस्वती का ऐसा निवास है जो भी लिखती हैं वह एक-दूसरे से बढ़कर सरस एवं हृदयग्राही हो रहा है। आपकी इस लेखनी ने हम सभी विद्वानों का मस्तक ऊँचा किया है। इसीलिये आपका अभिवंदन कर हम अपने को गौरवशाली मान रहे हैं। वैसे हम जानते हैं कि माताजी निंदा-स्तुति से परे हैं। आपकी कोई निंदा करे, प्रशंसा करे लेकिन आप सभी पर समभाव रखकर अपने ज्ञान ध्यान में लीन रहती हैं। इस अभिवंदन की बेला में हम यही कामना करते हैं कि हे माता! आप शतायु हों, स्वस्थ रहें एवं हम सभी को चिरकाल तक आपका आशीर्वाद एवं अमृतवाणी को सुनने, पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जिन लेखकों ने अपनी रचनायें भेजकर हमें सहयोग प्रदान किया है उनके प्रति हम आभार प्रदर्शित करते हैं । परम गुरुभक्त धर्मानुरागी श्री मनोजकुमार जैन — हस्तिनापुर, श्री नरेश बंसल जैन-दिल्ली एवं श्री राकेश कुमार जैन- मवाना का भी आभारी हूँ, जिन्होंने इस ग्रंथ के प्रकाशन में तन-मन-धन समर्पित कर अपनी गुरुभक्ति का परिचय दिया है। श्री अनिल कुमार जैन, कागजी, चावड़ी बाजार - दिल्ली तथा श्री विजय जैन, दरियागंज - दिल्ली के भी हम आभारी हैं, जिन्होंने ग्रंथ की फोटो टाइप सेटिंग करके तथा शीघ्र प्रकाशित करने में हमें सहयोग प्रदान किया है। इसके साथ ही इस सन्दर्भ में जिस किसी भी महानुभाव का जो भी हमें सहयोग प्राप्त हुआ है, परोक्ष से हम सभी का धन्यवाद करते हैं। अन्त में इस ग्रंथ के प्रकाशन में प्रूफ संशोधन में यदि किसी प्रकार की कोई त्रुटि रह गई हो या कोई भूल हुई हो उसके लिए हम अपने सभी पाठक बन्धुओं से क्षमाप्रार्थी हैं। १. डा० लाल बहादुर शास्त्री, दिल्ली २. डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ३. डा० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर ४. डा० श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत Jain Educationa International गुणानुरागी सम्पादक गण ब्रo रवीन्द्र कुमार जैन — हस्तिनापुर For Personal and Private Use Only ५. डा० शेखर चंद, अहमदाबाद ६. पं० विमल कुमार सोंरया, टीकमगढ़ ७. डा० अनुपम जैन, ब्यावरा ८. बाल ब्र० विद्युल्लता शहा, सोलापुर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक शीर्षक १. २. ३. ५. ६. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २९. ३०. ३१. ३२. ३३. मंगल आशीर्वाद मंगल आशीर्वाद मंगल आशीर्वाद माताजी को जिनगुण सम्पत्ति प्राप्त हो माताजी अभिनन्दनीय हैं मंगल कामना ज्ञानमती के ज्ञान की गंगा बहती रहे एक महान् नारी रत्न सर्वोच्च महिला रत्न हृदयोद्गार उत्कृष्ट वैराग्यभावना की स्वामिनी हार्दिक अभिनन्दन विनयांजलि आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ज्ञान की सरिता ज्ञानमती मातृवत्सला श्रद्धा के सुमन किस मुख से वर्णन करूँ? यह युग आर्यिकाओं का युग है आर्यिका श्री ज्ञानमती को बारम्बार प्रणाम है Paying Homage to Gyanmati Mataji प्रथम दर्शन ने जीवन बदला सम्यग्ज्ञान दीपिका श्री जगत् माता ( महामाता) निकटमोक्षगामी सादर वन्दनीय क्यों? संस्मरण निःस्वार्थ धर्मसेविका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी चिन्तनशील साधिका सौम्य, सरल, सादगी की प्रतिमूर्ति माता में गुण बहुत हैं। प्रथम आगमन वरदान बन गया सन्देश Jain Educationa International विषयानुक्रमणिका लेखक श्री विमलसागरजी महाराज श्री श्रेयांससागरजी महाराज श्री अभिनन्दनसागरजी महाराज श्री बाहुबलीजी महाराज श्री कुन्थुसागरजी महाराज श्री शान्तिसागरजी महाराज श्री करुणानंदिजी महाराज श्री भरतसागरजी महाराज श्री आनन्दसागरजी महाराज श्री श्रुतसागरजी महाराज श्री रयणसागरजी महाराज श्री विमलमुनिजी महाराज श्री ज्ञानमुनिजी महाराज आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी आर्यिका श्री आदिमती माताजी आर्यिका श्री अभयमती माताजी आर्यिका श्री शिवमती माताजी आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी आर्यिका श्री प्रशान्तमतीजी क्षुल्लक श्री चितसागरजी पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी क्षुल्लकरत्न श्री जयकीर्तिजी महाराज स्वस्ति श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक पट्टाचार्य महास्वामीजी पृष्ठ १ स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी क्षुल्लिका श्री शांतिमतीजी ४ क्षुल्लिका श्री श्रद्धामतीजी श्री बी. सत्यनारायण रेड्डी, राज्यपाल (उ.प्र.) ५ ७ १० ११ १२ Aryika Chandnamati Mataji १४ १४ आर्यिका चन्दनामती माताजी ऐलक श्री सुखसागरजी महाराज १६ क्षुल्लक श्री शीलसागरजी क्षुल्लक श्री शीतलसागरजी महाराज १६ १३ १३ १७ १७ 2017 १८ २२ श्री चारुकीर्ति भट्टारक स्वामीजी २२ २१ २३ २३ २३ २४ ३४. ३५. ३६. ३७. ३८. ३९. ४०. ४१. ४२. ४३. सन्देश ४४. सन्देश ४५. सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश ४९. सन्देश ४६. ४७. ४८. ५०. सन्देश ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश सन्देश ५७. ५८. ५९. ६०. सन्देश सन्देश संदेश संदेश विनयांजलि संदेश संदेश विनयांजलि संदेश संदेश For Personal and Private Use Only पी. वी. नरसिंहराव, प्रधानमंत्री, भारत डॉ. मुरली मनोहर जोशी, अध्यक्ष भाजपा कल्याणसिंह, मुख्यमंत्री (उ.प्र.) सुन्दरलाल पटवा, मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश शंकर राव चव्हाण, गृहमंत्री, भारत बलराम जाखड़, कृषिमंत्री, भारत विद्याचरण शुक्ल, जल संसाधन मंत्री, भारत एम. एम. जैकब, गृह एवं संसदीय कार्य राज्यमंत्री, भारत रामेश्वर ठाकुर, वित्त राज्यमंत्री (राजस्व), भारत सलमान खुर्शीद, वाणिज्य उपमंत्री, भारत रामलाल राही, उपगृहमंत्री, भारत एजाज रिजवी, मंत्री खाद्य एवं रसद, मुस्लिम वक्फ, (उ.प्र.) सुधीर कुमार बालियान, मंत्री सहकारिता (उ.प्र.) मस्तराम, विधान सभा, २५ 심심심심심심심심 २७ २८ २९ ३० ३० ३१ ३१ लखनऊ ब्रह्मदत्त द्विवेदी, राजस्व मंत्री (उ. प्र. ) प्रेमलता कटियार, मंत्री नगर विकास (उ.प्र.) जयन्त कुमार मलैया, राज्यमंत्री (स्वतन्त्र प्रभार) आवास एवं पर्यावरण, मध्यप्रदेश बलराम सिंह यादव, राज्यमंत्री ( स्वतन्त्र प्रभार) खान मंत्रालय, भारत ५३५ नारायण दत्त तिवारी, लखनऊ ७१९ कृष्ण स्वरूप वैश्य, राज्यमंत्री, पंचायती राज, क्षेत्रीय विकास एवं प्रांतीय विकास दल (उ.प्र.) ७१९ अजित सिंह, संसद सदस्य ३४ जे. के. जैन, भूतपूर्व संसद सदस्य ३४ डॉ. जे. के. जैन, मेम्बर, ऑफ पार्लियामेंट (राज्यसभा) विजया राजे सिंधिया ऋषिपाल सिंह यादव, सदस्य, विधान परिषद् (उ.प्र.) गोकलचंद मित्तल, चीफ जस्टिस, नयी दिल्ली रामचन्द्रन, आयुक्त, मेरठ मंडल, मेरठ ३२ ३२ ३३ ३३ ३५ ३५ ३६ ३६ ३७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२. ६१. संदेश जे.एस. मिश्र, जिलाधिकारी, मेरठ ६२. संदेश बी.बी.एल. सक्सेना, कुलपति, मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ ६३. विनयांजलि नेमीचन्द जैन ६४. ज्ञानपुञ्ज जयनारायण सिंह, थानाध्यक्ष, हस्तिनापुर ६५. विनयांजलि डालचन्द जैन, सागर (पूर्व सांसद) ६६. अजीम इंसान पद्मश्री हकीम सैफुद्दीन अहमद, मेरठ (सलाहकार स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार) ६७. विनयांजलि मिलापचन्द जैन, न्यायाधीश, दिल्ली ६८. अवर्णनीय व्यक्तित्व अक्षयकुमार जैन (भू.पू. सम्पादक), नवभारत टाइम्स, नयी दिल्ली ६९. मंगलकामना प्रो. सुरेश कुमार चौहान, कुलपति, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ७०. दिव्य व्यक्तित्व से मैं परिचित कल्याणमल लोढा, कलकत्ता ४१ . पूज्य माताजी एक प्रेरणास्रोत हैं महावीर सिंह त्यागी, जिलाध्यक्ष, भाजपा, मेरठ ४२ ७२. विनयांजलि नरेन्द्र कुमार जैन, कोषाध्यक्ष, प्रदेश परिषद्, भाजपा, मेरठ ७३. प्रतिभाशाली विदुषी माता ब्र. सूरजमल बाबाजी ७४. स्नेह से ज्ञान तक ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर चतर्मखी प्रतिभा की धनी माताजी डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, जबलपुर ७६. भारत-भूषण आर्यिकाश्री बालब्रह्मचारिणी श्री सुमतिबाईजी शहा, सोलापुर ७७. इस व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता ब. मालती शास्त्री, दिल्ली संस्मरण की माला महकती है ब्र. विद्युल्लता शहा, सोलापुर ज्योति स्तम्भ ब्र.कमलाबाई जैन ८०. माताजी के आशीर्वाद से जब मैं स्वस्थ हुई ब्र. चित्राबाईजी जैन समाज की अचल सम्पत्ति की संरक्षिका ब्र.क.प्रभा पाटनी ८२. कौन कहे नारी अबला? ब्र.कु. रेवती दोशी, अकलूज ८३. संस्कारों की जन्मदात्री ब्र. धर्मेन्द्र कुमार जैन, जबलपुर ५३ ८४. भारती सम तिमिर हरती ब, धरणेन्द्र कुमार जैन, जम्बूद्वीप ८५. गुणों की करण्ड बा.ब्र. मनोरमा शास्त्री, 'अवागढ़ अमर रहेगी इस धरती पर तेरी गौरव गाथा ब. सुन्दरबाई, मांगीतुंगीजी ८७. माताजी के चरणों में विनम्र विनयांजलि ब. उषा जैन, कसरावद 55. Vinayanjali to Mataji Km. Astha Jain ८९. धन्य मात सानिध्य तुम्हारा ब्र.क बीना जैन ९०. मेरी जीवन पद्धति बदल गयी डॉ. डी.सी. जैन, नयी दिल्ली ५७ माताजी द्वारा नये युग का प्रारम्भ डॉ. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली ५७ संस्मरण डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ९३. अद्वितीय प्रतिभा की धनी आर्यिकाजी डॉ. सुरेशचन्द्र अग्रवाल, मेरठ ६१ ९४. जैन गणित की विदुषी प्रो. एल.सी. जैन, जबलपुर ६१ विनयांजलि डॉ. शेखरचन्द जैन, अहमदाबाद ९६. सरस्वती की मूर्ति डॉ. दरबारीलाल कोठिया, बीना ६२ शतशः नमन् नरेन्द्र प्रकाश जैन, सम्पादक : जैन गजट ९८, स्मृतियाँ जो स्मृत रहेंगी। डॉ. सागरमल जैन, विदिशा ९९. प्रज्ञा और पुरुषार्थ की मूर्ति डॉ. श्रेयास कुमार जैन, बड़ौत १००. नमस्करणीय ज्ञानगरिमा डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर १०१. साकार अनन्वय अलंकार डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, अलीगढ़ १०२. माताजी का टोंक प्रवास दिव्य कीति-विस्तार के प्रारम्भिक क्षण डॉ. गंगाराम गर्ग, भरतपुर १०३, श्रेष्ठ धर्म प्रभावक साध्वी डॉ. सुभाषचन्द्र अक्कोले, महाराष्ट्र १०४. माताजी का व्यक्तित्व विरोध एवं परिहार के दृष्टिकोण में डॉ. दयाचन्द्रसागर १०५. दृढ़ संकल्प की साक्षात् प्रतिमूर्ति डॉ. अशोक कुमार जैन, पिलानी GGER ७० ७८. ७२ १०६. माताजी एक पावन तीर्थ हैं डॉ. गंगानन्द सिंह झा. विनोदपुर (बिहार) १०७. चलती-फिरती इनसाइक्लोपीडिया डॉ. अनुपम जैन, इन्दौर १०८, स्मृतियों के झरोखे से प्रो. पं. निहालचन्द जैन. बीना १०९. १०५ गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी एक भव्य व्यक्तित्व डॉ. मूलचन्द जैन शास्त्री, सनावद 990. Divine Lamp in Cosmos Dr. S.S. Lishk, Patiala १११. चिन्तनधारा का रूपान्तरण डॉ. राजेन्द्र कमार बंसल, अमलाई ११२. विलक्षण व्यक्तित्व डॉ. उदयचन्द्र जैन, सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी ११३. प्राचीन आचार्य परम्परा की संवाहिका डॉ. कमलेश कुमार जैन, वाराणसी ११४, प्रखर प्रतिभा की प्रतिमूर्ति डॉ. पुष्पलता जैन, नागपुर ११५. मातर वन्दे डॉ. प्रेमचन्द रांवका, महापुरा ११६. न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते डॉ. राधाचरण गुप्त, मेसरा ११७. न्यायविद् विदुषी आर्यिकारत्न डॉ. धर्मचन्द्र जैन, कुरुक्षेत्र ११८. यथा नाम तथा गुण डॉ. लालचन्द जैन, वैशाली ११९. विनयांजलि डॉ. विमलचन्द टोंग्या, इन्दौर १२०. जम्बूद्वीप रचना : गणिनी ७५ ७६ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी की ज्ञानमयी प्रस्तुति डॉ. स्नेह रानी जैन, सागर १२१. पूज्या माताजी की धवल कीर्ति पं. नाथूलाल जैन शास्त्री, इन्दौर १२२. गण गरिमा की प्रतिमूर्ति डॉ. शरदचन्द्र शास्त्री, अलीराजपुर १२३. श्रुत आराधिका सौ. शांतिदेवी शास्त्री, शिवपुरी १२४. श्रद्धा सुमन डॉ. सरोज जैन, दिल्ली १२५. अच्छा हुआ नारी हैं आप.... डॉ. नीलम जैन, देहरादून १२६. प्रणामांजलि सुनीता एवं शोभा शास्त्री, शिवपरी १२७. विनम्र विनयांजलि डॉ. अविनाश सिंघई, शिवपुरी ८० १२८. प्राणिमात्र के हित में संलग्न विदुषी नाथूराम जैन डोंगरीय, इन्दौर ८१ १२९. ज्ञान गंगा पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी पं. यतीन्द्र कुमार वैद्य, लखनादौन १३०. विनयांजलि नीरज जैन, सतना १३१. ज्ञान की प्रेरणा देने वाली पूज्य । आर्यिका ज्ञानमतीजी निर्मल जैन, सतना १३२. अद्भुत तपस्विनी के सानिध्य का एक लघु संस्मरण वैद्य धर्मचन्द जैन, इन्दौर १३३. पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी : ज्ञान की आगार राजीव प्रचडिया, अलीगढ़ १३४. जैन समाज के लिए एक प्रकाश स्तम्भ जिनेन्द्र कुमार, अहमदाबाद १३५. विदुषीरत्न माताजी राजकुमार जैन, दिल्ली १३६. वात्सल्य की जीवंत प्रतिमा प. पद्मचन्द्र जैन शास्त्री, पानीपत १३७. वात्सल्य मूर्ति माँ शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी १३८. विद्वानों की जननी : माता ज्ञानमती डॉ. सुशील जैन, मैनपुरी १३९. ओजस्वी वाणी की स्वामिनी पं. मल्लिनाथ जैन शास्त्री, मद्रास १४०. भ्रमण करती ज्ञानशाला पं. गुलाबचन्द्र जैन 'पुष्प', टीकमगढ़ १४१. तब वीणा के तार झनझना उठे 'ज्ञानमती' श्री गुणमाला पं. मोतीलाल मार्तण्ड, ऋषभदेव १४२. जिनवाणी की आराधिका पं. शिखरचन्द्र जैन, भिण्ड १४३. क्रियाकाण्ड-विषय में माताजी का मार्गदर्शन पं. फतहसागर, उदयपुर १४४. श्रुतकेवली : ज्ञानमती माताजी पं. जवाहरलाल शास्त्री, भीण्डर ९४ १४५. शिक्षण शिविर की याद पं. हेमचन्द जैन शास्त्री, अजमेर १४६. विनयांजलि पं. हेमचन्द जैन शास्त्री, अजमेर १४७. ज्ञानज्यात : एक अमर देन पं. सुधर्मचन्द जैन, तिवरी १४८. जय मातुश्री पं. जमुना प्रसाद जैन शास्त्री, कटनी १४९. कोटिशः नमन् और प्रणमन् डॉ. सुशील कुमार जैन, कुरावली १५०. शत-शत वन्दन पं. केशरीमल जैन, गंज बासौदा ९८ १५१. बीसवीं शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी पं. सुलतानसिंह जैन, बुलन्दशहर १५२. कोटि-कोटि नमन् डॉ. सोहनलाल देवोत, लोहारिया १५३. माँ ज्ञानमती को भुलाया नहीं जा सकता पं. पवन कुमार जैन 'चक्रेश', सागर १५४. चारों अनुयोगों को जानने वाली माता पं. महेन्द्र कुमार जैन, उदयपुर १५५. हमारी पथप्रदर्शिका : आर्यिका ज्ञानमती माताजी शैलेश डाह्याभाई कापड़िया, सूरत १५६. माताजी का चमत्कार पं. योगीराज फूलचन्द जैन, छतरपुर १०० १५७. इस युग की महान् साहित्यकार : ज्ञानमती माताजी पं. समतिचन्द शास्त्री, मोरेना १०१ १५८. दृढ़ता का द्वितीय नाम ज्ञानमती पं. नरेश जैन शास्त्री, जम्बूद्वीप १०२ १५९. विनम्र विनयांजलि. श्रेयांस कुमार जैन, हस्तिनानुर १०३ १६०. संस्मरण एवं विनयांजलि पं. गणेशीलाल जैन, आगरा १०३ १६१. ऐतिहासिक विभूति पं. कोमलचन्द्र जैन शास्त्री, लोहारिया १६२. सजीव सरस्वती पं. लक्ष्मीचन्द्र 'सरोज' जावरा १०४ १६३. साधनारत आदर्श आर्यिकारत्न पं. सत्यंधर कमार सेठी, उज्जैन १०५ १६४. सही अर्थों में ज्ञानमती हो तुम पं. सलतान सिंह जैन, शामली १०५ १६५. ज्ञान की अमर मूर्ति : आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी पं. कमल कुमार शास्त्री, टीकमगढ़ १६६. माताजी की बेजोड़ वक्तृत्व कला पं. अमृतलाल जैन शास्त्री, दमोह १०७ १६७. सहृदय वात्सल्य से समन्वित पं. जीवनलाल शास्त्री, ललितपुर १०७ १६८, एक अविस्मरणीय संस्मरण पं. भैयालाल शास्त्री, शिवपुरी १०८ १६९. यथार्थ में ज्ञानमूर्ति हैं ज्ञानमतीजी पं. बच्चूलाल जैन शास्त्री, कानपुर १७०. जब मैंने जम्बूद्वीप का प्रथम दर्शन किया पं. प्रवीण कुमार जैन शास्त्री, कुटेशरा १०९ १७१. साध्वी हो तो ऐसी पं. मिलापचन्द शास्त्री, जयपुर १०९ १७२. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी माताजी पं. रतनचन्द्र शास्त्री, सागर ११० १७३. त्याग और साधना की अनुपम गाथा पं. दरबारीलाल शास्त्री, ललितपुर ११० १७४. वात्सल्य मूर्ति पं. रतनचंद जैन शास्त्री, बामौर कलां १७५. जम्बूद्वीप और ज्ञानमती माताजी पं. लाडलीप्रसाद जैन 'नवीन', सवाईमाधोपुर १७६. आदर्श जीवन की एक उत्कृष्ट परिणति पं. बाबूलाल शास्त्री, महमूदाबाद ११२ १०६ १०८ __ १११ १११ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७. सारा जीवन दे दिया, ज्ञानज्योति के हेतु १७८. धर्म और संस्कृति प्रभावक १७९. संस्मरण १८०. Some Outstanding Virtues of Pujnia Aryikaratna Gyanamati Mataji १८१. Good Wishes १८२. साहित्य साधना को समर्पित १८३.. युग की महान् धरोहर १८४. हे अम्बे! हे ज्ञानमते! १८५. जिनशासन की महत्त्वपूर्ण सेविका १८६. अलौकिक कार्यों की प्रणेत्री १८७ श्रमण संस्कृति की उन्नयनकर्त्री १८८. अपनी धुन की पक्की १८९. मैं कभी भूल नहीं सकता - १९०. स्वर्णाक्षरों में रहेगा, अंकित नाम तुम्हारा १९१ इनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। १९२. संकल्प शक्ति की साधिका १९३. सरस्वती की प्रतिमूर्ति आर्यिका ज्ञानमति माताजी को मांगीलाल पहाड़े, हैदराबाद १९९. विनयांजलि २००. अभिवन्दन ग्रन्थ मात्र एक औपचारिकता है २०१. पृथ्वी की भाँति सहनशील माताजी २०२. विनयांजलि २०३. अग्रगण्य संयमाराधिका २०४. श्रद्धापूर्वक नमन् पं. सुमति प्रकाश जैन, कुरावली ११३ लक्ष्मीदेवी जैन, हस्तिनापुर श्रीमती गीता जैन, स्योहारा ११४ ११४ ११६ J. D. Dhanal, Kolhapur ११५ D. Veerendra Heggade, Dharmasthala साहू अशोक कुमार जैन ११६ रतनलाल जैन गंगवाल, दिल्ली अमरचन्द पहाड़िया, कलकत्ता ११६ ११७ २०५. जादुई व्यक्तित्व २०६. श्रावकों की मार्गदर्शिका ११७ निर्मल कुमार जैन (सेठी) जयचन्द डी. लोहाड़े, हैदराबाद ११८ बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर ११८ त्रिलोकचन्द कोठारी, फोटा ११९ ११९ १९४. अक्षयकीर्ति अर्जित की है। १९५. मंगलकामना १९६. सम्यक्ज्ञान की अजस्रधारा १९७. विनयांजलि रमेशचन्द जैन, दिल्ली १९८. बीसवीं सदी की महान् साधिका चक्रेश जैन, दिल्ली Jain Educationa International सुकुमारचन्द्र जैन, मेरठ शिखरचंद जैन, मेरठ जयनारायण जैन, मेरठ देवकुमार सिंह कासलीवाल, इन्दौर राजबहादुर सिंह, इन्दौर साहू रमेशचन्द जैन, नयी दिल्ली राजेन्द्र प्रसाद जैन कम्मोजी, दिल्ली २०७. पूज्य १०५ आदरणीय ज्ञानमती माताजी के प्रति विनयांजलि २०८. दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की मूर्ति २०९ विनयांजलि २१०. वात्सल्य भावना एवं मृदु स्वभाव की प्रतिमूर्ति २११. जिह्वा पर सरस्वती का निवास है ११९ १२० १२० १२१ १२१ १२२ स्वदेश भूषण जैन, दिल्ली हरखचन्द सरावगी, कलकत्ता गणेशीलाल रानीवाला, कोटा मदनलाल चांदवाड़, रामगंज मंडी १२५ निर्मलचन्द सोनी, अजमेर १२५ कैलाशचन्द जैन चौधरी, इन्दौर १२६ इन्दरचन्द चौधरी, सनावद पन्नालाल सेठी एवं परिवार, डीमापुर १२६ चन्द्रप्रभा मोदी, इन्दौर १२२ १२२ १२३ १२३ १२३ १२४ १२६ १२७ जिनेन्द्र प्रसाद जैन, नयी दिल्ली १२७ प्रेमचन्द जैन, नयी दिल्ली १२८ कैलाशचन्द जैन, नयी दिल्ली माणिकचन्द्रजी गाँधी, फलटण १२८ १२९ २१२. श्रद्धा और भावना की ज्योति : माता ज्ञानमतीजी २१३. कर्मठता की साक्षात् मूर्ति : पूज्या माताजी २१४. संत शिरोमणि नारी रत्न २१५. श्रद्धा सुमन २१६. विनयांजलि २१७. लगन की धनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी २१८. २१९. शुभकामना बचपन से ही संघर्षशील माताजी २२०. धन्य यहाँ की माटी है। २२१. वात्सल्यमूर्ति २२२. विनयांजलि २२३. गणिनी आर्यिकारत्न २४. Fountain of Gyan, २२५. Darshan and Charitrya अद्वितीय प्रतिभा २२६. सरिता बन गयी सागर २२७. सनावद चातुर्मास एक अमिट देन ताराचन्द्र प्रेमी, फिरोजपुर झिरका वैद्य शांतिप्रसाद जैन, दिल्ली मोतीचन्द कासलीवाल जौहरी, दिल्ली २२८. श्रद्धापूर्ण विनयांजलि २२९. अवतार प्रथम है बालसती का २३०. तत्त्व पारंगत आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी : २३१. माताजी की शिक्षण २४४. मन के अंधेरे प्रकाश में बदल गये सरदार चन्दुलाल शहा, बम्बई ताराचन्द एम. शाह., बम्बई For Personal and Private Use Only भगतराम जैन, दिल्ली रत्नकान्त फडे, सांगली कैलाशचन्द्र जैन, सर्राफ, टिकैतनगर प्रकाशचन्द जैन, टिकैतनगर अमरचन्द जैन, मेरठ तुमेरचन्द पाटनी, लखनऊ कन्हैयालाल जैन, लखनऊ २३८. माताजी के दर्शनार्थ मेरी हस्तिनापुर यात्रा २३९. जैन सिद्धान्त की निर्दोष पाठी २४०. साहस, त्याग तथा ज्ञान की आगार २४१. ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है २४२. ज्ञान की माता ज्ञानमती ने भागीरथ प्रयास किया २४३. बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय R.P. Patil राजकुमार सेठी, कलकत्ता धर्मचन्द मोदी, ब्यावर १२९ १३० महेन्द्र कुमार जैन, १३१ १३१ १३१ सतीश जैन, नयी दिल्ली जयकुमार जैन छाबड़ा, जयपुर १४१ व्यवस्था स्तुत्य है २३२. माताजी का सम्मान समाज का सम्मान हीरालाल रानीवाला, जयपुर १४२ २३३. माताजी का कृतज्ञ जैन समाज शांतिलाल बड़जात्या, अजमेर १४२ २३४. विनयांजलि नेमीचन्द बाकलीवाल, इन्दौर १४२ शिखरचन्द जैन, हापुड़ १४३ २३५. संयम की अनमोल शिक्षिका २३६. कथनी और करनी की संगम रूप ज्ञानमूर्ति २३७. सरस्वती की पर्याय माँ ज्ञानमती खतौली १३२ १३२ १३३ १३४ १३६ १३७ १३७ कैलाशचन्द्र चौधरी, सनावद १३९ सुरेश जैन, भोपाल १३९ प्रकाशचन्द जैन सर्राफ, सनावद १४० १३७ १३८ १३८ श्रीनिवास बड़जात्या, मद्रास १४३ सोहनलाल बगड़ा, विजयनगर १४४ मदनलाल बड़जात्या, गोहाटी १४४ मन्नालाल बाकलीवाल, इम्फाल १४५ डॉ. कैलाशचन्द जैन, दिल्ली १४५ हीरालाल जैन, गुजरात पवन कुमार जैन, सरधना मनोज कुमार जैन एवं मातेश्वरी श्रीमती आदर्श जैन, हस्तिनापुर १४० १४५ १४६ १४७ १४७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ १४९ १५१ CNCNC MAD २४५. चिरस्मरणीय माताजी के उपकार प्रकाशचन्द्र जैन पांड्या, कोटा १४८ २४६, पावन सानिध्य का सौभाग्य राकेश कुमार जैन, मवाना १४८ २४७. जैन वाङ्मय की अद्भुत सृजका अजित प्रसाद जैन, लखनऊ २४८. शास्त्रों की महानतम ज्ञाता डॉ. सूरजमल गणेशलाल जैन, मांगीतुंगी १५० २४९. आप एक भवावतारी हैं । नवनिधिराय जैन, सरधना १५० २५०. अनुपम रत्न दीपक कुमार जैन, सरधना १५० २५१. आर्य परम्परा की प्रचारिका नन्दलाल टोंग्या, इन्दौर २५२. माताजी की ज्ञानज्योति सदैव प्रज्वलित रहे विनोद हर्ष, अहमदाबाद २५३. विनयांजलि उत्तमचन्द निर्की, कोटा १५२ २५४. महान् विभूति उदयभान जैन, भरतपुर १५३ २५५. ज्ञानमती माताजी : एक अनूठा व्यक्तित्व प्रमोद कुमार जैन, सरधना १५३ २५६. नारी जाति का गौरव सुमेरचन्द जैन, जबलपुर १५४ २५७. त्याग एवं साधना की मर्ति माँ ज्ञानमती हकीम आदीश्वर प्रसाद जैन, सरधना १५४ २५८, ओजस्वी वाणी की स्वामिनी महावीर प्रसाद जैन, मोहनीदेवी जैन, लालासवाला १५४ २५९. अगाध ज्ञान से परिपूर्ण चौधरी सुमेरमल जैन, अजमेर १५५ २६०. विनयांजलि कपूरचन्द बड़जात्या, फुलेरा। १५५ २६१. माताजी का ऋणी जैन समाज प्रद्यमन कमार अमरचन्द्र जैन, टिकैतनगर १५५ २६२. माताजी की नमनीय तपाराधना जयचन्द बाकलीवाल, मद्रास १५६ २६३. आदर्श नारी का अभिनन्दन सेठ नाथूलाल जैन, लोहारिया , १५६ २६४. कृतज्ञांजलि विजयलाल जैन, लखनऊ १५६ २६५. आर्यिकाओं में अग्रणी पोपटलाल कालीदास कोठारी, १५६ २६६. महान् एवं पवित्र आत्मा हुलासचन्द जैन (सेठी), गौहाटी १५७ २६७. सरस्वती की प्रतिमूर्ति तारादेवी कासलीवाल, जयपुर १५७ २६८. नारी जाति की शोभा शशिकला जैन, जयपुर १५७ २६९. शांति की मेघदूती : माताजी कंवरीलाल तेजराज बोहरा, आनन्दपुर कालू १५७ २७०. माताजी का चिरस्मरणीय उपकार श्रीचंद जैन, सनावद १५८ २७१. मृदुभाषिणी माताजी नेमीचन्द्र चाँदवाड़, झालरापाटन १५८ २७२. साहस और विद्वत्ता की मूर्ति राजेन्द्र कुमार जैन, मेरठ १५८ २७३. चिर स्मृतियाँ श्रीमती जैनमती जैन, बाराबंकी १५९ २७४. माताजी के दर्शन का चमत्कार ललित सरावगी, फरविसगंज १५९ २७५. कुशल आर्चीटेक्ट कैलाशचन्द्र जैन, मेरठ १६० २७६. जैन समाज की चेतना चमनलाल जैन, खतौली १६० २७७. धन्य मात तेरा जीवन कु. किरणमाला जैन, टिकैतनगर १६१ २७८. परोपकार : माताजी के जीवन की सार्थकता धूलचन्द्र जैन, चावंड १६१ २७९. जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका जम्बूकमार जैन सर्राफ, टिकैतनगर १६२ २८०. बच्चे-बच्चे की परिचिता माताजी कु. नमिता जैन, दरियाबाद १६२ २८१. शब्दाञ्जलि अर्पित करता हूँ सुशील जैन, मोदीनगर १६३ २८२. अनमोल शिक्षाओं की प्रदात्री पुष्पेन्द्र जैन, दिल्ली १६३ २८३. गुरु गुण लिखें न जायें कलम से सौ. शोभा एवं शरदचन्द पहाड़े, श्रीरामपुर २८४, चारित्रमूर्ति ज्ञानमती माताजी अरविन्द कुमार जैन, मेरठ १६४ २८५ कलिकाल की शारदा श्रीमती कमलेश जैन, मेरठ १६५ २८६. एक अनुभव-एक प्रश्न कैलाशचन्द जैन, मुजफ्फरनगर १६५ २८७. मैना से ज्ञानमती तक की संक्षिप्त यात्रा आनन्द प्रकाश जैन, दिल्ली १६५ २८८, सूर्य के समान तेजस्वी माँ को मेरा शत-शत वन्दन संजय कुमार जैन, विजय कुमार जैन, कानपुर १६६ २८९. सच्ची माता देवेन्द्र जैन, जबलपुर १६७ २९०. नारी आदर्श की गौरव प्रदात्री रमेश कुमार जैन, मयी दिल्ली १६८ २९१. धन्य हो गयी माँ को पाकर श्रीमती विमला जैन, नयी दिल्ली १६८ २९२. शत-शत वन्दन पुरुषोत्तमदास जैन, जगाधरी १६९ २९३. नसीब अपना-अपना कुमुदनी देवी जैन, कानपुर १७० २९४. पर्वतीय दृढ़ता का प्रतीक सौ. कामनी जैन, दरियाबाद १७० २९५. अपूर्व साध्वी आनन्द प्रकाश जैन, फरीदाबाद १७१ २९६. शब्दातीत व्यक्तित्व की धनी महावीर प्रसाद जैन, हिसार १७१ २९७. विनयांजलि श्रीमती सुशीला सालगिया, इन्दौर १७१ २९८. बीसवीं सदी की महानतम विभूति कु. सारिका जैन, मवाना १७२ २९९. नारी से नारायणी बनी ज्ञानमती मात शातिदेवी जैन, लखनऊ १७२ ३००. ममतामयी माँ ज्ञानमती अजीत टोंग्या, गुणवंत टोंग्या, बड़नगर ३०१. ज्ञानमती माँ के चरणों में वन्दन शत-शत बार है श्रीमती देवी, बहाराइच १७३ ३०२. माताजी युगों तक स्मरणीय रहेंगी रतनलाल जैन, मेरठ १७४ ३०३. समाज का अपूर्व रत्न कपूरचन्द जैन, गौहाटी १७४ ३०४. आध्यात्मिक उज्ज्वलता की प्रतीक कर्मचन्द जैन, दिल्ली __ १७५ ३०५. विश्व का कल्याण होगा राय देवेन्द्र प्रसाद जैन, गोरखपुर १७५ ३०६. अपूर्व क्रांति का सूत्रपात्र किया सुबोध कुमार जैन, आरा १७५ ३०७. जीवन के उच्चतम शिखर पर वीरेन्द्र कुमार जैन, रायबरेली १७६ ३०८, त्याग, स्नेह एवं करुणा की प्रतिमूर्ति आर्यिका ज्ञानमती विजेन्द्र कुमार जैन, शाहदरा १७६ ३०९. परमपूज्य माताजी के अभिनन्दन ग्रन्थ हेतु प्रभात जैन, चित्रा जैन, फरीदाबाद १७७ ३१०. बात ऐसे बनी श्रीमती निशा जैन, सारंगपुर १७८ ३११. परहित में संलग्न श्रीमती संतोष कुमारी जैन, नागौर १७९ ३१२. ज्ञानमती माताजी मेरी इष्ट देवी वासुदेवपाल, गोहाटी १७९ ३१३. वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा पं. बाबूलाल फागुल्ल, वाराणसी १७९ ३१४. साक्षात् कल्पवृक्ष हैं माताजी अनिल कुमार जैन, दिल्ली १८० ३१५. १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती मातुः स्तुतिः आर्यिका श्री जिनमती माताजी १८१ १७३ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६. पूज्य श्री गणिनी ज्ञानमतीजी की स्तुति (अक आर्यिका अभयमती आर्यिका चन्दनामती ३१७. जाने मर्ति में कुरु ३१८. पूज्य ज्ञानमती आर्यिका स्तुतिः डॉ. दामोदर शास्त्री, दिल्ली ३१९. स्तुतिपरकं काव्यम् मंगलाभिधानम् ३२०. विनयांजलि ३२१. प्रसूनांजलिः ३२२. हस्तिनापुर क्षेत्रस्य जम्बूदीपस्य प्रेरिकाम् श्रीज्ञानमत्यार्यिकाम् प्रति श्रद्धा सुमनानि ३२३. विनयांजलि: ३२४. आर्यिकारत्न ज्ञानमती मातुः स्तवनम् ३२५. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती स्तुतिः ३२६. पुनातु पृष्ठं दुरितांजनेभ्यः ३२७. स्तुति ३२८. पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की पूजन ३२९. पूज्यगणिनी आर्यिका माता महाविदुषी ज्ञानमतीमातुः पूजांजलिः ३३०. अथ जैनार्यिका - सुसाध्वीज्ञानमती- -पूजा ३३१. णाणमदीए णाण- पूजा ३३२. पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजीं चे पूजन ३३३. पू. ज्ञानमती माताजीं ची आरती ३३४. चारित्रशिरोमणि श्री ज्ञानमती अष्टक ३३५. वन्दन गीत ३३६. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की जय हो ३३७. अविस्मरणीय क्षण ३३८. श्रीमात के दरश से आनन्द आज छाया ३३९. शाप को वरदान तुमने कर दिया ३४०. श्री ज्ञानमती माताजी ३४१. ज्ञानमति हे तुम्हें नमन् ३४२. ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ३४३. मेरी चिन्तन धारा ३४४. ज्ञानमति माताजी का देखो चमत्कार ३४५. हे ज्ञानमूर्ति माँ वन्दन है ३४६. उनको मेरा अभिवन्दन है Jain Educationa International कमल कुमार जैन गोइल्ल, कलकत्ता प्रकाशचन्द जैन, दिल्ली डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी, वाराणसी महेन्द्र कुमार 'महेश' डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर', नागपुर गणेशीलाल जैन, आगरा एम.पी. चन्द्रराज शास्त्री, भिडी शिवचरन लाल जैन, मैनपुरी आर्यिका अभयमतीजी आर्यिका चन्दनामती सौ. शोभना शहा, अकलूज सौ. शोभना शहा, अकलूज श्री आर्यिका अभयमती क्षु. . शीलसागर महाराज ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर बा. ब्र. कौशल द्रौपदीबाई जैन, आरा ब्र. कैलाशवतीजी, सरधना क्यामुद्दीन मुज्तर नगीनवी, मेरठ जबलपुर डॉ. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली १९६ प्रकाशचन्द्र जैन, दिल्ली डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर शशि प्रभा जैन शशांक, आरा फूलचन्द जैन 'मधुर', सागर १८१ १८२ १८३ बी. एस. जैन, फिरोजाबाद लालचन्द्र जैन, टिकैतनगर बा.ब्र. मनोरमा जैन शास्त्री १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १८९ १९० १९१ १९२ १९३ १९८ २०२ २०५ २०८ २०९ २१० २११ २११ २१३ २१३ २१४ २१४ २१५ २१७ २१७ २१८ २१९ ३४७. बन्दना - अभिवन्दना है ३४८. गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की अवतार हैं ३४९. ज्ञानमती बन ज्ञानमती वह ज्ञान किरण फैलाती है ३५०. आर्यिका ज्ञानमती ३५१. चलती-फिरती यूनिवर्सिटी ३५२. बाल ब्रह्ममय जीवन आपका, जीवन ज्योति जगाता है। ३५३. वन्दे मातरम् ३५४. शत शत बार प्रणाम ३५५. मुझको चैन मिलती है ३५६. जयवन्त हो माँ... ३५७. आदर भरा प्रणाम है ३५८. शत-शत वन्दन अभिनन्दन है ३५९. ज्ञानमती माताजी तुमको मेरा बारंबार प्रणाम ३६०. हो ज्ञानमती का जयकारा ३६१. तव चरणधूलि भी चन्दन है ३६२. भजन ३६३. जय हो माता ज्ञानमती ३६४. मंगल दीप जलायें ३६५. आरति है सुखकार ३६६. भजन ३६७. जय गणिनी माँ ज्ञानमती तब चरणन कोटि प्रणाम है ३६८. मेरा कोटि नमन है। ३६९. तुम कौन हो ? ३७०. माँ के चरणों में ३७४. पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को कोटिक बार नमन है! ३७५. जय जम्बूद्वीप जय ज्ञानमती ३७६. तुमको मैं प्रणाम करूँ ३७७. भजन ३७८. भजन प्रो. पं. निहालचन्द जैन, बीना २१९ हास्य कवि हजारीलाल जैन 'काका',' सकरार वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल, जयपुर वीरेन्द्र प्रसाद जैन, एटा सुभाषचन्द जैन, टिकैतनगर For Personal and Private Use Only ३७९ पूज्य ज्ञानमती माताजी शतायु हों ३८०. ज्ञानांजलि अनूपचन्द न्यायतीर्थ, जयपुर पं. लाडली प्रसाद जैन, सवाई माधोपुर ३७१. अभिनन्दन है, शत-शत अभिनन्दन ! प्रेमचन्द जैन, महमूदाबाद ३७२. आरती ज्ञानमती माताजी की युवा परिषद्, बिजौलिया ३७३. स्नेहिल पुष्प चढ़ाते हैं पं. बाबूलाल शास्त्री, महमूदाबाद पं. कमल कुमार जैन गोइल्ल, कलकत्ता २२३ प्रवीणचन्द्र जैन, जम्बूद्वीप २२४ ताराचन्द जैन शास्त्री, रेवाड़ी २२५ श्रीमती राजबाला जैन, सरधना २२५ सुरेन्द सागर प्रचंडिया, कुरावली २२६ डॉ. एम. एन. पाठक, भोपाल २२७ पं. बाबूलाल जैन फणीश, ऊन २२८ डॉ. शेखर जैन, अहमदाबाद जयप्रकाश जैन, दरियाबाद कु. इन्दू जैन, टिकैतनगर अरिजय कुमार जैन, दरियाबाद कु. तमन्ना जैन, विजयनगर अनंजय कुमार जैन, दरियाबाद वर्द्धमान कुमार जैन सोरया, टीकमगढ़ श्रीमती गजरादेवी सोंरया, टीकमगढ़ सरधना दिनेश जैन, बालकवि कमलेश जैन, डिकौली २२० २२१ २२१ २२२ सतीशचन्द जैन, सरधना महेन्द्र कुमार जैन 'नीलम', दिल्ली २३० २३१ २३२ २३३ २३३ २३४ २३५ २३५ २३६ २३६ २३७ २३७ २३८ २३९ २३९ २४० २४१ वैद्यरत्न कवि दामोदर 'चन्द्र', धुवारा पवन कुमार शास्त्री, मुरैना श्रीमती कपूरी देवी, महमूदाबाद २४३ अकलंक कुमार जैन, टिकैतनगर २४३ श्रीमती त्रिशला जैन शास्त्री, लखनऊ २४४ २४५ २४५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१, नमन तेरा शत बार है ३८२. लोक नृत्यगीत आशुकवि गोकुलचन्द्र 'मधुर' २४६ वीरबाल सदन, सरधना २४६ आर्यिका ज्ञानमती परिचय ३३५ ३४१ ४०४. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दो स्तम्भ : क्षु. मोतीसागरजी एवं ब. रवीन्द्र कुमारजी डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ४०५. गणिनी आर्यिका श्री के दीक्षागरू आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का परिचय ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर ४०६. गणिनी आर्यिकाश्री की पवित्र जन्मस्थली गौरवशाली टिकैतनगर लालचन्द जैन, टिकैतनगर ४०७. Dynamic Jain Sadhwi: Ganini Gyanmatiji N.L. Jain, Rewa ४०८. पौर्णिमे चा चन्द्र सौ. शोभना शहा, अकलूज ४०९. पूर्णिमाचन्द्र समान आर्यिका ज्ञानमती माताजी ब्रह्मसागर वर्णी, कर्नाटक ४१०. सांप्रत नी शारदा क्षुल्लक चितसागरजी ४११. तमिल भाषा में माताजी का परिचय पं. सिंहचन्द्र शास्त्री, मद्रास ४१२. माताश्री ज्ञानमती अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन हेत् क्रान्तिकारी जैन माताश्री ज्ञानमती परषोत्तम जैन, रवीन्द्र जैन, मलेर कोटला ३७६ ३८२ ३९१ २८० ३८३. गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती मातुः पवित्र गर्वावलिः आर्यिका चन्दनामतिः ३८४. बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन परिचय आर्यिका चन्दनामती ३८५. कुशल अनुशासिका-गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी क्ष. मोतीसागर ३८६. भक्ति-मार्ग प्रदर्शिका डॉ. कस्तचन्द कासलीवाल, जयपुर ३८७. बहुश्रुत विदुषी लेखिका आ. ज्ञानमती माताजी डॉ. प्रेमसुमन जैन, उदयपुर २७० ३८८. चरित्र संवर्द्धिका आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत २७३ ३८९. रत्नत्रयपूर्णा गणिनी ज्ञानमती माताजी प्रो. टीकमचन्द जैन, दिल्ली २७५ ३९०. माताजी साध्वी ही नहीं, महान् धर्म प्रभाविका भी हैं सुमत प्रसाद जैन, दिल्ली २७५ ३९१. कलियुग की ब्राह्मी माताज्ञानमतीजी ब्र.कु. आस्था शास्त्री, हस्तिनापुर २७७ ३९२. चतुरनयोग मार्गदर्शिकाज्ञानमती माताजी मनोज कुमार जैन, हस्तिनापुर २७९ ३९३. ज्ञान का भंडार ज्ञानमतीजी । आनन्दीलाल जीवराज दोशी, फलटण ३९४. योगक्षेत्र में ज्ञानमती माताजी का वैशिष्ट्य ब्र.क. बीना जैन, जम्बद्वीप ३९५. (नृत्य नाटिका) वैराग्य अंकुर वीर कुमार जैन, टिकैतनगर २८३ ३९६. गणिनी आर्यिका श्री का सरस काव्य परिचय स्व. कवि शर्मन लाल 'सरस', सकरार, झाँसी ३९७, ब्राह्मीव सुस्थिरमतिः सुभगा कुमारी पं. जगन्नारायण पांडेय, जयपुर ३०३ ३९८. आर्यिकारत्नोपाधिविभूषितायाः गणिन्याः श्री ज्ञानमत्याः व्यक्तित्वं कृतित्वञ्च महेन्द्र कुमारो 'महेशः', शास्त्री ३०७ ३९९. णाणमादि-णाणं डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर ३०८ ४००. ज्ञानमति का ज्ञान डॉ. उदयचन्द जैन, उदयपुर । ४०१. आचार्य श्री शांतिसागरजी से आचार्य श्री अभिनन्दनसागर तक निर्दोष आचार्य परम्परा डॉ. शेखरचन्द्र जैन, ___ अहमदाबाद ३२९ ४०२. गणिनी आर्यिका श्री की जन्मदात्री आर्यिका श्री रत्नमती माताजी अतीत के आइने में श्रीमती ज्योति जैन, श्रीमती प्रीति जैन, अहमदाबाद ४०३. गणिनी आर्यिकाश्री के गृहस्थावस्था के पिताजी महान् आत्माओं के जनक-लाला छोटेलालजी जैन डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ३३४ ४०३ महन्न समीक्षा ४१३. अष्टसहस्री ग्रन्थराज है। बाल ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर ४१४. जैन न्याय की सर्वोत्कृष्ट कृति अष्टसहस्री और उसका अनुवाद डॉ. दरबारी लाल कोठिया, वाराणसी ३९८ ४१५. अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिन्तामणि टीका डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर ४१६. मूलाचार डॉ. पन्नालाल जैन, जबलपुर ४०५ ४१७. दिगम्बर मुनि डॉ. पन्नालाल, जबलपुर ४०८ ४१८. समयसार (पूर्वार्द्ध) आर्यिका चन्दनामतीजी, जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर ४०९ ४१९. नियमसार की आर्यिका ज्ञानमतीकृत स्याद्वादचन्द्रिका डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर ४२०. नियमसार शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी ४१३ ४२१. नियमसार पद्यावली डॉ. कमलेश कुमार जैन, वाराणसी ४१५ ४२२. आराधना डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर ४२३. जिनस्तोत्र संग्रह डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर ४१९ ४२४. मुनिचर्या आर्यिका चन्दनामती, हस्तिनापुर ४२४ ४२५. कुन्दकुन्द मणिमाला : समीक्षा डॉ. जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर ४२७ ३२१ टीका ४११ ४१७ ३३२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०१ ५०७ ४४२ ४६१. पुरुदेव नाटक रूबी जैन, चण्डीगढ़ ५०० ४६२. धरती के देवता डॉ. नीलम जैन, देहरादून ४६३. शिक्षण पद्धति डॉ. राममोहन शुक्ल, सारंगपुर ५०२ ४६४. अभिषेक पूजा ब्र.कु. बीना जैन, हस्तिनापुर ५०३ ४६५. चौबीस तीर्थंकर डॉ. प्रेमचन्द रांवका, जयपुर ५०४ ४६६. जैन महाभारत सुमन जैन, इन्दौर ५०५ ४६७. नारी आलोक-भाग १,२ कल्पना जैन, भोपाल ५०६ ४६८. पतिव्रता त्रिशला जैन, लखनऊ ४६९. भगवान महावीर कैसे बने अरविन्द कुमार जैन, इन्दौर ४७०. बाहुबली नाटक ब्र. सुमन शास्त्री, पटेरा ५०९ ४७१. योग चक्रेश्वर बाहुबली रामजीत जैन, ग्वालियर ५११ ४७२. दशधर्म डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर ५१२ ४७३. संस्कार नरेश जैन शास्त्री, हस्तिनापुर ५१३ ४७४. भगवान बाहुबली डॉ. शेखर जैन, अहमदाबाद ५१४ ४७५. भक्ति कुसुमावली डॉ. शेखरचन्द जैन, अहमदाबाद ४७६. प्रवचन निर्देशिका प्रो. टीकमचन्द जैन, दिल्ली ५२१ ४७७. वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला हस्तिनापुर से प्रकाशित एवं पूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय ४७८. अप्रकाशित ग्रन्थ ४७९. अवध की अनमोलमणि : ज्ञानमती माताजी आर्यिका चन्दनामती, हस्तिनापुर ४४६ xx ४२६. JAINA BHUGOLA (जैन भूगोल) डॉ. एस.एस. लिश्क पटियाला ४२९ ४२७. ज्ञानामृत डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर ४३० ४२८. सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण ब्र.कु. आस्था शास्त्री, हस्तिनापुर ४३२ ४२९. जम्बूद्वीप जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर ४३०. जम्बूद्वीप डॉ. अनुपम जैन, सारंगपुर ४३७ ४३१. त्रिलोक भास्कर प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन, जबलपुर ४३८ ४३२. जम्बूद्वीप गाइड डॉ. रमेशचन्द्र जैन, उज्जैन ४४० ४३३. न्यायसार डॉ. दरबारीलाल कोठिया, बीना ४४१ ४३४. कल्पद्रुम विधान एक अलौकिक महाकाव्य, आर्यिका चन्दनामती ४३५. कल्पद्रुम की काव्य भक्ति विमल कुमार जैन सोरया, टीकमगढ़ ४३६. इन्द्रध्वज विधान पं. मोतीलाल मार्तण्ड, ऋषभदेव ४४८ ४३७. त्रैलोक्य विधान, सर्वतोभद्र विधान एवं तीन लोक विधान डॉ. दयाचन्द्र जैन, सागर ४५० ४३८, ऋषिमण्डल विधान, शान्ति विधान प्रो.निहालचन्द जैन,बीना। ४५७ ४३९. तीस चौबीसी विधान डॉ. भागचन्द भागेन्दु, दमोह ४४०. पंचपरमेष्ठी विधान पं. नाथूराम डोंगरीय, इन्दौर ४६२ ४४१. जिनसहस्रनाम मंत्र आर्यिका चन्दनामती ४६३ ४४२. सोलह भावना डॉ. भागचन्द जैन भास्कर, नागपुर ४६४ ४४३. जैन भारती गणेशीलाल रानीवाला, कोटा ४६५ ४४४. जैन धर्म, तीर्थकरत्रय पूजा एवं जम्बूद्वीप मंडल विधान डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन, इन्दौर ४६७ ४४५. गोम्मटसार जीवकाण्ड सार एवं कर्मकाण्ड सार पारसमल अग्रवाल ४७० ४४६. आर्यिका डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत ४७१ ४४७. व्रत विधि एवं पूजा जयसेन जैन, इन्दौर ४७३ ४४८, कुन्दकुन्द का भक्तिराग डॉ. नीलम जैन, देहरादून ४७४ ४४९. द्रव्यसंग्रह पं. सत्यंधर कमार सेठी, उज्जैन ४७६ ४५०. तीर्थंकर महावीर और धर्मतीर्थ पं. सत्यंधर कुमार सेठी, उज्जैन ४७७ ४५१. दीपावली पूजन आर्यिका चन्दनामती ४५२. समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, उज्जैन ४८० ४५३. जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्ति प्रवीणचंद जैन शास्त्री, हस्तिनापुर ४५४. मेरी स्मृतियां डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ४८२ ४५५. ११ उपन्यास साहित्य डॉ. कुमारी मालती जैन, मैनपुरी ४५६. श्रीवीर जिनस्तुति डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद ४५७. आत्मा की खोज (परमात्मा की भक्ति ) डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद ४५८. जिनस्तवनमाला (चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः) डॉ. शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद ४५९. प्रभावना ब्र. मालती शास्त्री, दिल्ली ४९६ ४६०. भक्ति अभय प्रकाश जैन, ग्वालियर ४९७ Rm जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भारत यात्रा प्रस्तुति-आर्यिका चन्दनामती माताजी ५३९ ५४० ५४८ ५५१ ४८१ ४८४ ४८०. मंगलाचरण ४८१. हस्तिनापर की प्राचीनता ५३९ ४८२. जम्बूद्वीप की उपज कहां से ४८३. एक ज्योति से ज्योति सहस्रों जलती जायें अखिल विश्व में ४८४. ज्ञान ज्योति प्रवर्तन का शुभ संकल्प ४८५. इंदिराजी का आगमन और सर्वप्रथम माताजी का आशीर्वाद ४८६. ज्ञानज्योति प्रवर्तन के समय ब्र.रवीन्द्र कमार जैन द्वारा दिया गया दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान का परिचय ४८७. ज्ञानज्योति प्रवर्तन मंच पर ४ जन को ब्र. मोतीचन्द्र जैन द्वारा दिया गया जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन का परिचय ५५२ ४८८. जम्बद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन समारोह के शुभ अवसर पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सेवा में समर्पित सम्मान पत्र ५५४ ४८९. जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन समारोह के शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वचन ४९०. जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन समारोह के शभ अवसर पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का भाषण ४९१. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर-कमलों से सम्पन्न धार्मिक शुभारम्भ विधि ४९२. श्री जे.के. जैन (संसद सदस्य) का सम्मान समारोह ४९३. फरीदाबाद में ज्योति जली ४९४. ज्योतिवाहन का संक्षिप्त परिचय ४९५. राजस्थान में ज्ञानज्योति प्रवर्तन ४९६. राजस्थान यात्रा एक नजर में ४८९ xxxxxx Gmxxxx G0.0.0 1G Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७. राजस्थान के वह नगर जहाँ-जहाँ ज्योतिरथ का प्रवर्तन हुआ ४९८. ज्ञानज्योति की बंगाल यात्रा ४९९. बंगाल के वे नगर जो ज्ञानज्योति की दिव्य प्रभा से आलोकित ५८० हुए .100 ५८८ ५८९ ६७६ ५००. बिहार प्रान्त में ज्ञानज्योति ५०१. बिहार यात्रा कहाँ-कहाँ? ५०२. ज्ञानज्योति की महाराष्ट्र प्रान्तीय यात्रा ५०३. महाराष्ट्र यात्रा पर एक दृष्टि ५०४. वे शहर नगर जहाँ ज्ञानज्योति जली (महाराष्ट्र प्रान्त के नगरों के नाम) ५९६ ५०५. कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं आंध प्रान्त में ज्ञानज्योति भ्रमण ५९८ ५०६. ज्ञानज्योति से आलोकित कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं आन्ध्रप्रदेश के शहर ५०७. जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की मध्यप्रदेशीय यात्रा ५०८. मध्यप्रदेश भ्रमण के कतिपय स्वानुभविक संस्मरण ५०९. वे नगर जहाँ पर ज्योति जली (मध्य प्रदेश के ३४ जिले) ६२३ ५१०. गुजरात प्रान्तीय ज्योति यात्रा ५११. गुजरात प्रान्त के वे नगर जहाँ ज्ञानज्योति का भ्रमण हुआ ५१२. ज्ञानज्योति का आसाम भ्रमण (गोहाटी से उद्घाटन) ६३१ ५१३. आसाम, नागालैण्ड एवं इम्फाल के प्रमुख नगर ५१४. जन्मभूमि से प्रारम्भ हुई उत्तर प्रदेशीय यात्रा ५१५. माननीय मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी का उद्बोधन भाषण ६३८ ५१६. जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की उत्तर प्रदेशीय, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेशीय यात्रा ६०७ ६१३ سه منا اي ५२०. JAINA COSMOGRAPHY AND PERFECT NUMBERS R.C. GUPTA, RANCHI ६७० ५२१. जम्बूद्वीप की अस्मिता है हस्तिनापुर डॉ. मोहनचन्द्र, दिल्ली ६७४ ५२२. दानतीर्थ हस्तिनापुर क्षुल्लक मोतीसागर ५२३. आर्यिकाचर्या-आगम के आलोक आर्यिका चन्दनामती ६८० ५२४. संघस्थ साधुवर्ग एवं सम्पादक मण्डल का पूज्य माताजी से एक साक्षात्कार दिनांक १२ मई १९९२ डॉ. श्रेयांस जैन, बड़ौत ६९१ ५२५. नियमसार प्राभूत ग्रन्थ की। स्याद्वाद चन्द्रिका संस्कृत टीका पर पूज्य माताजी से सम्पादक मंडल की एक वार्ता दिनांक १३ मई, १९९२ ___डॉ. श्रेयांस जैन, बड़ौत ५२६ अभिवंदन ग्रन्थ के सम्पादक मण्डल एवं संघस्थ साधओं द्वारा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से मूलाचार ग्रन्थ के सम्बंध में हुई एक चर्चा (दिनांक १३ मई, १९९२) डॉ. श्रेयांस जैन, बड़ौत ५२७. सम्पादक मण्डल की पूज्य माताजी से एक सामयिक चर्चा १४ मई, १९९२ डॉ. श्रेयांस जैन, बड़ौत ७०२ ५२८. णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगल एवं ___ सरस्वती की प्रतिमा वंदनीय है या नहीं? आर्यिका चन्दनामती ७०५ ५२९. दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध | संस्थान हस्तिनापुर का परिचय बाल ब. रवीन्द्र जैन, हस्तिनापुर ७०९ ५३०. दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के पदाधिकारीगण ७१८ ५३१. श्रीज्ञानमती मातुः कुसुमाञ्जलिः शर्मोपाबः रामकिशोरः खुरजा ७२० من الله ६५४ ६९९ जम्बूद्वीप परिचय ५१७. जम्बूद्वीप ब. रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर ५१८. JAMBUDVIPA IN JAINA GEOGRAPHY Dr. S.S. LISHK. Patiala ५१९. Sugarcane and its correlation with Hastinapur Dr. Radha Jain, Lucknow Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक मण्डल बाल ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन डा० लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली डा० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर डा० प्रेमसुमन जैन, उदयपुर पं. विमल कुमार सोरया, टीकमगढ़ डा० अनुपम जैन, सारंगपुर डा० शेखर जैन, अहमदाबाद डा० श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत डा० विद्युल्लता शहा, सोलापुर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी बीसवीं सदी की प्रथम बालसती एवं कुमारी कन्याओं की पथ प्रदर्शिका नारी शक्ति की प्रतीक जिनशासन प्रभाविका आर्यिका जगत् की रत्नत्रय चन्द्रिका वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी आर्ष परम्परानुरूप पवित्र लेखनीयुक्त सशक्त करकमलों अनन्य श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक सविनय समर्पित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवंदन ग्रंथ के सहयोगी श्रीमती आदर्श जैन, ध.प. श्री अनंतवीर्य जैन, हस्तिनापुर के सुपुत्र श्री मनोज कुमार जैन, पुत्रवधू श्रीमती नमिता जैन, सुपुत्री कु. ममता व कु. टिंगू जैन एवं पौत्री। श्रीमती सुषमा जैन, घप, श्री राकेश कुमार जैन, मवाना (मेरठ), उ.प्र. । श्रीमती अनीता जैन, ध.प. श्री अनिल कुमार जैन, कागजी, चावड़ी बाजार, दिल्ली। श्रीमती कमलेश जैन ध.प. श्री नरेश बंसल, पूसा रोड, नई दिल्ली। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम रखण्ड CARREAL ORANAAAAAAAAAAAAYAKARARIA ROCTODIAP २१YWONDIM OYEE शुभकामना अभिन KBPS Vise mbh.walas विनयाजलि HAMARIUM61040MMeralamaal Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल आशीर्वाद -सन्मार्ग दिवाकर आचार्यरत्न १०८ श्री विमलसागरजी महाराज माताजी की प्रखर बुद्धि, तर्कशक्ति, नये-नये विचार, नवीन-नवीन रचना की क्षमता अत्यंत सराहनीय है। माताजी ने बालपन से ही वैराग्य को अपने जीवन का श्रृंगार बनाया है। गुरुओं से विचार-विमर्श कर किसी कार्य को करना आपकी गुरुभक्ति का परिचायक है। मार्च सन् १९८७ में उनकी प्रेरणा एवं आग्रह से अपने संघ सहित मैं हस्तिनापुर पहुँचा तो वहाँ जम्बूद्वीप रचना का अद्वितीय कार्य देखकर मन फूला नहीं समाया। तबसे मैं प्रतिदिन जम्बूद्वीप के समस्त चैत्यालयों का ध्यान करता रहता हूँ। ८ मार्च १९८७ को वहाँ मैंने माताजी के शिष्य ब्र० मोतीचन्दजी को क्षुल्लक दीक्षा देकर ‘मोतीसागर' बनाया तथा श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक महोत्सव में मैंने सभी प्रतिमाओं को सूरिमंत्र प्रदान किया। ___ ज्ञानमती माताजी ने मुझसे अनेक शास्त्रीय एवं सामयिक विषयों पर चर्चा की। उनकी वही चिर-परिचित गुरुभक्ति तथा धर्मवात्सल्य देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। ___माताजी का शरीर नीरोग रहे, धार्मिक प्रभावना करते हुए आत्मप्रभावना द्वारा जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करें, यही मेरा माताजी के लिए मंगल आशीर्वाद है। सम्मेद शिखर ३ जून १९९२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मंगल आशीर्वाद - युगप्रमुख चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्रीशान्तिसागरजीमहाराजकीपरम्पराकेपंचमपट्टाचार्य श्री १०८ श्रेयांससागरजीमहाराज जैनजगत् की जानी-मानी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की सरस्वती माता तो हैं ही, वर्तमान में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज की निर्दोष परम्परा में वे सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित वरिष्ठ आर्यिका भी हैं। जब सन् १९६५ में श्री महावीरजी में मैंने आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ में मुनि दीक्षा ली उस समय ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ के साथ दक्षिण भारत में विहार कर रही थीं, किन्तु संघ में प्रतिदिन मैं उनकी प्रशंसा मुनि श्री श्रुतसागरजी, अजितसागरजी आदि अनेक साधुओं के मुख से सुना करता था। मन में सोचा करता था कि क्या ऐसी लघुवयस्का बालब्रहमचारिणी आर्यिका में इतनी प्रतिभा-शक्ति हो सकती है ? किन्तु साक्षात् भेंट में पाया कुछ उससे भी अधिक। __सुबह से शाम तक अनुशासनबद्ध ढंग से शिष्यों को एवं साधुओं को अध्ययन कराना, समय पर प्रत्येक सामूहिक क्रिया में उपस्थित होना, सरस्वती की प्रतिमा के सदृश प्रत्येक संस्कृत, प्राकृत भक्तियों का मुखपाठ बोलना और समय मिलने पर शिष्यमंडली से प्रश्रोत्तर करती ज्ञानमतीजी तो सचमुच ही मुझे चलती-फिरती पाठशाला का रूप नजर आने लगीं। मैं भी उनके ज्ञान से प्रभावित हुए बिना न रह सका। उम्र में छोटी, किन्तु दीक्षा में वृद्धा सरीखी उन आर्यिका श्री के साथ मैंने भी कई ऊँचे-ऊँचे विषयों का स्वाध्याय किया। यद्यपि अधिक काल तक हम लोग एक साथ न रह सके, फिर भी उन बीते सुखद क्षणों के कई संस्मरण मुझे आज भी याद आते रहते हैं। सबसे बड़ी विशेषता तो मैंने उसमें देखी है-चारित्रिक दृढ़ता, आगम की कट्टरता एवं निष्पक्ष न्याय निर्णय की क्षमता। ___इन विषयों में भले ही उन्हें कितने ही संघर्ष क्यों न झेलने पड़े हों, फिर भी उनकी दृढ़ता ने सदैव विजयश्री प्राप्त करके दिखाया है। वास्तव में ऐसे-ऐसे शिष्यों से ही गुरुओं का यश दिग्दिगन्त तक व्याप्त होता है। आज हम अपने बीच ऐसी गणिनी आर्यिका श्री रूपी निधि को पाकर अत्यन्त गौरवान्वित हैं, जिसने मुनि परम्परा का पुनरुद्धार करने वाले आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के समान ही इस देश में कुमारी कन्याओं के लिए त्यागमार्ग प्रशस्त किया है। इनके विपुल साहित्यसृजन एवं जम्बूद्वीप जैसे अमिट कार्यकलापों ने ज्ञानमती इस नाम को अमरत्व प्रदान कर दिया है। भारत का जैन समाज एक अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर देने मात्र से उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। यह तो मेरी दृष्टि में एक पत्रम् पुष्पम् जैसा लघु प्रयास है; जैसे- गंगा का जल उठाकर ही गंगा को अर्पण कर देने से गंगा में कोई परिवर्तन नहीं हो जाता, उसी प्रकार ज्ञानमतीजी के गुणों के द्वारा ही उनकी अभिवन्दना कर लेना एक औपचारिकतामात्र है। फिर भी आप लोगों का यह प्रयास प्रशंसनीय है; क्योंकि यह भी धर्म-प्रभावना का एक शुभ कार्य है। इस मांगलिक प्रसंग पर आर्यिका श्री के लिए मेरा यही मंगल आशीर्वाद है कि वे अपने रत्नत्रय एवं ज्ञान के द्वारा आगम एवं गुरु परंपरा को यावच्चन्द्रदिवाकरः तक पृथ्वी तल पर वृद्धिगत करती रहें तथा अपनी शिष्य परम्परा को भी इस योग्य बनाकर अपना नाम सदैव जीवन्त रखें। अभिवन्दन ग्रन्थ के प्रकाशक एवं सम्पादक इस ग्रन्थ को अभूतपूर्व एवं माताजी की गरिमा के अनुकूल सामग्री सहित प्रकाशित करें यही उन सबके लिए शुभाशीर्वाद है। सलुम्बर २६ जनवरी १९९२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ मंगल आशीर्वाद - छठे पट्टाचार्य १०८ श्री अभिनन्दनसागरजी महाराज समय-समय पर इस पृथ्वी पर जिन धर्म को चलाने के लिए कोई न कोई बुद्धिजीवी पैदा होते रहे हैं। ऐसे ही बुद्धिजीवियों में से चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आ० श्री शान्तिसागरजी महाराज, आ० श्री वीरसागरजी, आ० श्री शिवसागरजी, आ० श्री धर्मसागरजी, आ० श्री अजितसागरजी, आ० श्री श्रेयांससागरजी हुए तथा इसी परम्परा में आ० श्री वीरसागरजी की सुशिष्या अनेक उपाधियों से अलंकृत अनेक मुनियों को, आर्यिकाओं को, ब्रह्मचारी वर्गों को, गृहस्थों को शिक्षा, दीक्षा, समाधि के लिए प्रेरित करने वाली प्रेरणास्त्रोत आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का भी नाम सुवर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है। जिन्होंने नारी होकर भी नरवत् कार्य किया। स्व-पर कल्याण हेतु, धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु अनेक ग्रन्थों की रचना की, अनेक ग्रन्थों का अनुवाद किया, हिन्दी पद्यानुवाद किया, संयम धारण किया, भव्यों को संयम धारण कराया, देश, देशान्तरों में भ्रमण करके धर्मोपदेश किया, अनेक निर्माण कार्य कराए, उनमें से मुख्य जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर की रचना है, जो देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गयी है। उससे लोगों को जैन भूगोल का भी ज्ञान होता है। माताजी के मुखारविन्द से मुझे भी न्याय, व्याकरण एवं सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला है। आगे मेरा तो यही आशीर्वाद है कि माताजी का जीवन चिरायु रहे। उनका बाल्यकाल से अभी तक का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र शिक्षाप्रद है। आप लोग उनका जीवन चरित्र पढ़ो, मनन करो, मानो, गृहण करो, कोटि-कोटि आशीर्वाद । समाधिर्भवतु, खाँदूकालोनी-बाँसवाड़ा ८ मार्च १९९२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] 1 वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला माताजी को जिनगुण सम्पत्ति प्राप्त हो आर्ष परंपरा रक्षित कर आर्यिका व्रतों का निरतिचार पालन कर, दीक्षा गुरुओं की शान को बढ़ाने वाली श्री ज्ञानमती माताजी जगत् के लिए वंदनीय हैं। ज्ञानमती माताजी का ज्ञानावरणी कर्म का तीव्र क्षयोपशम होने से क्षायोपशमिक ज्ञान ज्योति को बढ़ाने हेतु पुरुषार्थ किया गया है, जिसका उनके द्वारा प्रकाशित, संपादित एवं लिखित ग्रंथों द्वारा पता चलता है। साथ-साथ ऐतिहासिक जम्बूद्वीप तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर में आपके मार्गदर्शन द्वारा बनवाया गया है, जो विश्व की अद्वितीय कृति है । गुरुदेव आचार्यवर्य देशभूषणजी महाराज ने आपको संसाररूपी जन्म-मरण के जंजाल से छुड़वाकर मोक्ष पथ पर लाकर छोड़ दिया है। आगे आपको मोक्ष मार्ग सुलभ हो । दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधि लाभ हो, सुगतिगमन हो, समाधि मरण हो, जिनगुण संपत्ति प्राप्त हो, यही हमारा आशीर्वाद है। Jain Educationa International • आचार्यरन श्री १०८ बाहुबलीजी महाराज - माताजी अभिनन्दनीय हैं गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनन्दन ग्रन्थ छप रहा है, बहुत अच्छी बात है, माताजी तो अभिनन्दनीय ही हैं, माताजी के द्वारा जगत् के जीवों बहुत उपकार हुआ है। माताजी अनेक ग्रंथों की रचयित्री व टीकाकार हैं, आपने जम्बूद्वीप की रचना करवाकर तो जगत् को आश्चर्यचकित ही कर दिया है । आपके अंदर अनेक प्रकार के गुण हैं, जिनका वर्णन भी शक्य नहीं है। आपकी प्रेरणा एवं आमंत्रण पर सन् १९८९ में मैं अपने संघ सहित हस्तिनापुर पहुँचा। जम्बूद्वीप रचना के दर्शन कर मन अतीव प्रसन्न हुआ। ४० दिन के हस्तिनापुर प्रवास में हमारे संघ के सभी साधुओं ने उनसे मातृत्व वात्सल्य प्राप्त किया तथा अनेक विषयों का अध्ययन किया। आप दीर्घायु हों, ऐसी आशीर्वादपूर्वक प्रभु से प्रार्थना करता हूँ । मंगल कामना - गणधराचार्य श्री १०८ कुंथुसागरजी महाराज - आचार्य १०८ श्री शान्तिसागरजी महाराज पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य से जम्बूद्वीप का निर्माण हस्तिनापुर में हुआ, इससे जैन धर्म की प्रभावना बढ़ी है। आपकी, जम्बूद्वीप की व जैन धर्म की खूब ख्याति हो, मेरी यही मंगलकामना है। ज्ञानमती के ज्ञान की गंगा बहती रहे परम पूज्य आचार्य श्री अकलंकदेवजी, श्री समन्तभद्रजी, श्री विद्यानन्दीजी आदिजैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् व निर्भीक वक्ता थे और अनेक ग्रन्थों के माध्यम से जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। इसी प्रकार वर्तमान में साध्वी विदुषी आर्यिकारत्न श्री १२०५ ज्ञानमतीजी उन्हीं आचायों के ग्रन्थाधार को लेकर जैन धर्म की महती धर्म प्रभावना कर रही हैं। यह बात सब को विदित है और मैं समझता हूँ कि वर्तमान में अन्य कोई विद्वान् ज्ञान व धर्म-क्षेत्र में जिनवाणी की इतनी प्रभावता नहीं कर रहा है, जितना कार्य माताजी कर रही हैं और यह प्रशंसनीय है। पूरा दिगम्बर जैन समाज, विशेषकर महिलाएँ उनकी ऋणी है। 'णाणं पयासणे' For Personal and Private Use Only - आचार्यकल्प श्री वरुणानन्दिजी महाराज Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ज्ञान तो प्रकाशक है जैसे मध्य में रखे हुए दीपक की लौ से अन्दर और बाहर प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार दर्शन एवं चरित्र को प्रकाशित करने वाला ज्ञान है। श्रुतज्ञान पाँचों ज्ञानों में श्रेष्ठता को प्राप्त होता है, केवल-ज्ञान भी तो श्रुतज्ञान का ही फल है। अवधिज्ञान व मनःपर्यय ज्ञान इतना प्रबल कारण नहीं। श्रुता का प्रभाव आपसे हो रहा है। यह तो आपके सतत अभ्यास, ज्ञान की अभीक्ष्णता ही कारण है। मैं आशा और शुभकामना करता हूँ कि शीघ्र ही थोड़े ही भवों में केवल-ज्ञान ज्योति आपको मिले। क पूज्य माताजी हमेशा सब बाधाओं से सहित होकर जिनवाणी माता की सेवा करती रहें और भारत के कोने-कोने में ज्ञानमती के ज्ञान की अमृतमयी गंगा बहती रहे एवं ज्ञान में वृद्धि हो। साथ में उनके साहित्य के उपासक भी मनन, चिन्तन करें और अनन्त ज्ञानरूपी अंतरंग लक्ष्मी से अलंकृत बनें। इतिशुभम्। एक महान् नारी रत्न -उपाध्याय श्री भरतसागरजी महाराज श्री १०५ गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती एक विदुषी नारीरत्न हैं। 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' यह उक्ति अनादि सिद्ध है। महापुरुषों को महान् कार्य करने में अनेक विघ्न-बाधाएँ आती हैं, परन्तु महापुरुष अपने संकल्प से कभी च्युत नहीं होते हैं। आपने जिस समय जम्बूद्वीप रचना का संकल्प लिया, उस समय आपके सामने अनेक विघ्न-बाधाएँ पर्वत बनकर सामने खड़ी रहीं, किन्तु दृढ़ संकल्पी माताजी अपने कार्य में अडिग रहीं और साहित्य के पृष्ठों पर लिखित जम्बूद्वीप की रचना को पृथ्वी पर साकार कराकर बीसवीं सदी में अपना एक इतिहास कायम किया है। आपने जन-साधारण के लिए उपयोगी जहाँ अनेक छोटी-छोटी पुस्तकों का सृजन कर भव्यात्माओं में जिनवाणी के अध्ययन की ओर रुचि जगाई है। वहीं आपने महान् सिद्धान्त ग्रंथ, न्याय ग्रंथों की संस्कृत-हिन्दी टीका करके जैनागम का महान् उपकार किया है। जैन समाज आपका चिर ऋणो है। मार्च सन् १९८७ में हस्तिनापुर में आपसे हुई चर्चा से मुझे यह अनुभव हुआ कि आपकी रग-रग में जैन संस्कृति को जीवन्त बनाने की भावना छिपी हुई है। आपकी सरस उत्तम भावनाएँ पूर्ण हों। आपका स्वास्थ्य ठीक रहे। आपके द्वारा सतत् जिन धर्म की प्रभावना होती रहे, यही हमारा आपके लिए शुभाशीर्वाद है। माताजी की गौरव-गाथा को अक्षुण्ण बनाने वाले अभिनन्दन ग्रंथ का कार्य सँभालने वाले सभी महानुभावों को मेरा आशीर्वाद । सर्वोच्च महिला सन्त - मुनि श्री आनंदसागरजी महाराज 'मौनप्रिय' गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। पूज्य माताजी अपने युग की सर्वोच्च महिला सन्त हैं। अपने जीवन में अनेक विधानों की रचना कर, सिद्धान्त ग्रंथों का अनुवाद कर एवं उपयोगी बाल साहित्य का सृजन कर माताजी ने जिन धर्म की महती प्रभावना की है। ऐसे शुद्धपरिणामी आत्मानुभवी सन्तों का अवश्य ही अभिवन्दन होना चाहिए। ___मैं अपनी शुभकामनाएँ प्रदान करता हूँ कि माताजी निरन्तर नव-नवीन साहित्य का सजन करती रहें, जिन धर्म की प्रभावना में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हृदयोद्गार - श्री श्रुतसागरजी महाराज (मुरैना वाले) आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की विशेष योग्यता क्या लिखी जावे । स्वपर-हितार्थ अनेक जैन ग्रन्थों की सरल सुबोध शैली में रचना करके सर्व साधारण को सुलभ कराने का उन्होंने गुरुतर कार्य किया है। उनके द्वारा रचित इन्द्रध्वज महामण्डल विधान की एक जयमाला में पाँच प्रकार का परावर्तन लिखा मिला, वह भुलाया नहीं जा सकता। निश्चित रूप से वह वैराग्य उत्पन्न कराने में कारण है। अभिनन्दन ग्रंथ की सफलता हेतु अपना आशीर्वाद संप्रेषित करता हूँ। उत्कृष्ट वैराग्यभावना की स्वामिनी - मुनि श्री रयणसागरजी महाराज (संघस्थ पट्टाचार्य श्री अभिनंदनसागरजी) सन् १९५२ से गृहविरत होकर पूज्य माताजी ने गुरु संघ के साथ अधिकतर विहार किया, इसके पश्चात् सन् १९६२ में अपनी पाँच आर्यिका शिष्याओं के साथ बंगाल, बिहार एवं दक्षिण भारत तथा मध्यप्रदेश संभाग में मंगल विहार किया, आपने हजारों कि०मा० पदयात्रा से सभी जगह जैन शासन की प्रभावना की और आज भी जैन शासन की प्रभावना कर रही हैं। सन् १९६९ के जयपुर चातुर्मास में न्याय में सर्वोपरि ग्रंथ अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद किया । समयसार, नियमसार, मूलाचार, बाहुबली स्तोत्र, कल्याणकल्पतरु स्तोत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, द्रव्य संग्रह आदि शताधिक ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद किये हैं। ___ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप की रचना करके महान कार्य किया है। ऐसा कार्य अन्य कोई मुनि नहीं कर पाया है। वास्तव में माताजी एक ज्ञान का भण्डार हैं। अर्थात् उनके कण्ठ में सरस्वती विराजमान है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है, जो जन-जन के लिए अनुकरणीय है। प्राणिमात्र के लिए आत्म-उन्नति का कारण है। उस ग्रंथ के प्रति मेरा मंगलमय शुभाशीर्वाद है। हार्दिक अभिनन्दन -विश्व केसरी आचार्य श्री विमलमुनिजी महाराज, कुप्पकलां (संगरूर) [श्वेताम्बर] जैन संस्कृति गुणपूजक संस्कृति है। फूल में यदि मकरन्द होगा तो भँवरे अपने आप लोह चुम्बकवत् आकर्षित होकर पान करने के लिए स्वतः ही चले आयेंगे। पुष्प पर साधक अपनी साधना में अहर्निश जाग्रत बना रहता है। उसे कभी भी सम्मान प्राप्ति के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने की जरूरत नहीं होती है। गुणानुरागी कृतज्ञ मानव अपने आराध्य के श्री चरणों में भक्ति के पुष्प चढ़ाने एवं यशोगाथा का गौरवगान करने को स्वयं ही तैयार हो जाता है। जिन शासन की निर्मल गगन चन्द्रिका, जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, गणिनी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी का जैन समाज उनके द्वारा किये गये सामाजिक, आध्यात्मिक, रचनात्मक कार्यों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु अभिवन्दन ग्रंथ का प्रकाशन कर रहा है, जानकर गुणिषु प्रमोदम् की भावना से मेरा अन्तःकरण भी अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। ज्ञानमतीजी ने अपनी ज्ञानाराधना के फलस्वरूप अनेक संस्कृत-हिन्दी काव्य ग्रंथों की नवीन रचना, पद्यमय मौलिक ग्रंथ का अनुवाद, धार्मिक उपन्यास, पूजा साहित्य, कथा साहित्य आदि १३५ ग्रंथों का प्रकाशन करवाया तथा ५० ग्रंथ अभी भी अप्रकाशित हैं जो निकट भविष्य में ही प्रकाशनाधीन पथ पर पड़े हैं। आज भी अपनी व्यस्त चर्या में से समय निकालकर ज्ञानाराधना में संलग्न बनी रहती हैं। आपका जीवन बड़ा ही सरल, निश्छल एवं परोपकारमय है। क्षमा एवं सहनशीलता की तो आप प्रतिमूर्ति ही हैं। प्रत्येक साधन के प्रति आपकी गुणग्राहकता तो प्रसिद्ध ही है। प्राणिमात्र के प्रति करुणा, सत्य-अहिंसा के प्रति सजगता, वाणी में माधुर्यता, जीवन में कोमलता आदि गुण सहज ही में आपमें विद्यमान् हैं। आपके द्वारा किये गये सामाजिक, धार्मिक आध्यात्मिक कार्यों की कृतज्ञता ज्ञापन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, इसी भावना से प्रेरित होकर अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन करवाया जा रहा है। मैं भी आपके सुदीर्घ, यशस्वी, साधनामय जीवन की मंगलकामना करता हूँ तथा मंगलमूर्ति प्रभु चरणों में विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आपकी साधना जन-जन के लिए मंगलकारी सिद्ध हो। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी - श्रमणसंघीय सलाहकार श्री ज्ञानमुनिजी महाराज हमारी दिगम्बर परम्परा ने बड़े-बड़े तेजस्वी और तपस्वी महापुरुष पैदा किये हैं। आज मैं आपके सामने ज्ञान चारित्र की महान् आराधिका आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी के वैराग्य का परिचय कराने लगा हूँ। ज्ञानगर्भित वैराग्य-श्री स्थानांग सूत्र के तृतीय स्थान में वैराग्य के तीन प्रकार लिखे हैं; जैसे-१. ज्ञानगर्भित वैराग्य २. मोहगर्भित वैराग्य ३. दुःखगर्भित वैराग्य जीवन में जब ज्ञान की ज्योति जगमगाने लगती है, संसार का वैभव अनित्य एवं अशरण दिखने देने लगता है, संसार के दुःख झूठे और निस्सार दुःखों के महास्तोत्र अनुभव में आने लगते हैं तथा आध्यात्मिक सुख सर्वोच्च सर्वोपरि सच्चा और शाश्वत सुख दृष्टिगोचर होता है। तब व्यक्ति घर, माता-पिता, भाई-बन्धु सबको छोड़कर संयम साधना के महापथ पर चलना आरंभ कर देता है यही ज्ञानगर्भित वैराग्य माना जाता है। कई बार जब माता या पिता, भाई या बहन या बेटा साधु जीवन को अंगीकार कर लेता है, साधक जैन साधना के कठोर पथ पर चल पड़ते हैं उस स्थिति में पिता को देखकर बेटा साधु बनते हैं या बेटी को देखकर माता आर्यिका बनती है इसी वैराग्य को मोहगर्भित वैराग्य कहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जम्बूकुमार जब साधु बनने लगते हैं तो उनके मोह में आकर उनके माता-पिता, नारी-वृन्द, श्वसुर आदि सब साधु जीवन-चर्या धारण कर लेते हैं, भले ही आगे चलकर मोह-वैराग्य, ज्ञान वैराग्य में परिवर्तित हो जाता है। तथापि वैराग्य की पूर्व भूमिका को निहारते हैं तो यह वैराग्य मोहगर्भित दृष्टिगोचर होता है। मानव जब दुःखों की ज्वालाओं से दग्ध हो जाता है, उसे जीवन निर्वाह का कोई सहारा दिखायी नहीं देता, आशाओं के दीपक टिमटिमाने लगते हैं, उस समय व्यक्ति प्रभुभजन की ओर अग्रसर होता है। साधु जीवन को भी अंगीकार कर लेता है। जैन शास्त्र ऐसे विरक्त व्यक्ति के वैराग्य को दुःखगर्भित वैराग्य कहते हैं। श्री भगवद्गीता में भी भक्तों के चार प्रकार बताए हैं-१. अति-दुःखी, २. जिज्ञासु, ३. धन का पुजारी, ४. ज्ञानी। हमारी मान्या आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का माहगर्भित या दुःखगर्भित वैराग्य नहीं है। इनका वैराग्य विशुद्ध ज्ञानगर्भित वैराग्य ही प्रमाणित होता है; क्योंकि इन्होंने बचपन में, पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका नामक ग्रंथ का अध्ययन किया था। उसी ग्रंथराज के स्वाध्याय ने इनके मानस में वैराग्य पैदा कर दिया। वास्तव में ज्ञानगर्भित वैराग्य ही सच्चा वैराग्य होता है। यही वैराग्य मानव को महामानव, नर को नारायण और इंसान को भगवान के समुच्च सिंहासन पर आसीन कर देता है। ज्ञानगर्भित वैराग्य के आलोक में ही ये उन्नति के क्षेत्र में धीरे-धीरे बढ़ने लगीं। आर्यिका बन जाने के अनन्तर इन्होंने भारत यात्रा की, साहित्य का निर्माण किया, संस्कृत भाषा में ग्रंथ बनाए। संस्कृत में स्तुतियां लिखीं, मौलिक ग्रंथों की रचना की, धार्मिक उपन्यास लिखे, बाल-साहित्य की रचना करके बालकों के लिए स्वाध्याय का मार्ग खोला। इस तरह प्रगति के चरण आगे ही आगे बढ़ते चले गये। श्री जम्बूद्वीप का निर्माण कराया। ८४ फुट ऊँचे सुमेरु का निर्माण करवाया। इस तरह सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में आर्यिका श्री का ही योगदान सचमुच बड़ा अभिनन्दनीय और सराहनीय रहा। मैं उनके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ। मंडी गोविन्दगढ़ ज्ञान की सरिता ज्ञानमती .- आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी मुझे अत्यंत खुशी हुई कि परमपूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ निकालने की योजना बनी है; क्योंकि इससे जिन-जिन व्यक्तियों को माताजी के प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति है उन-उन सभी को अपने भाव व्यक्त करने का एक अवसर मिल गया। वास्तव में पूज्य माताजी के अत्यंत उपकार अपने परिवार, सम्पूर्ण नारी समाज के साथ-साथ सम्पूर्ण जैन समाज पर भी हैं, जिसका ऋण किसी प्रकार भी चुकता नहीं हो सकता। परिवार पर उपकार इस कारण से हुए हैं कि उन्होंने अपने साथ-साथ अपने भाई-बहनों को व माता को धर्ममार्ग पर लगाया, जिसके कारण रत्नमती, अभयमती, चंदनामती माताजी बनीं। एक भाई रवीन्द्र कुमार शास्त्री बनकर साथ-साथ में आज ब्र० सप्तम प्रतिमाधारी बने और बहुत-सा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सामाजिक कार्य भी कर रहे हैं। सम्पूर्ण नारी समाज का उद्धार उनके द्वारा इस अपेक्षा से हुआ है कि सर्वप्रथम १७ वर्ष की अवस्था में दीक्षा धारण करने से आज जितनी भी बाल ब्रह्मचारिणी लड़कियाँ हैं, उनका सभी का मार्ग दृढ़ करने के लिए आप अग्रसर बनीं, जिससे करीब दो सौ से भी अधिक लड़कियाँ संसार के कीचड़ में न पड़ती हुई अपना आत्म-कल्याण करने में तत्पर हुई हैं। समाज के लिए भी आज सोनगढ़ साहित्य को परास्त करने वाला अपने आगमानुकूल साहित्य हिन्दी, मराठी, संस्कृत, कनड़ आदि भाषा में गद्य, पद्य रूप में बालविकास से लेकर समयसार ग्रंथ तक न्याय, छन्द, व्याकरण, अलंकार सहित सृजन किया, उसी के साथ-साथ उपन्यास टाइप छोटी-छोटी पुस्तकें तथा अनेक प्रकार के पूजा विधान व्रतादिक की पुस्तकें निकालने से समाज की बहुत भारी क्षति को पूरा किया है। यह सब देखकर मैं सोचता हूँ कि माताजी ने पूर्व भव में ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो कि साक्षात् सरस्वती की पुत्री बनकर अपना 'ज्ञानमती' यह नाम सार्थक किया। माताजी के द्वारा लिखित या उनके द्वारा किया हुआ अनुवाद अथवा टीकाएँ उसमें अपनी मनगढंत बातें नहीं हैं। प्रत्येक ग्रंथ में पूर्वाचार्यों के प्रमाण देकर अपनी रचनाएँ प्रमाणित की हैं। मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि माताजी ने इतने ग्रंथ कब पढ़े और कैसे उनको अकलंक स्वामी जैसे एक बार ही पढ़कर कण्ठस्थ हो गये, जो वह धाराप्रवाह से लिख सकती हैं, बोल सकती हैं, उनके पद्यमय अर्थ में रचना कर सकती हैं। जैन गणित का विषय भी उनका इतना पक्का है, जिसके कारण त्रिलोक को हस्त आमलकवत् जानकर उसको भी त्रिलोक भास्कर तथा जैन ज्योतिर्लोक आदि ग्रंथ रचना करके रख दिया और मेरुपर्वत तथा जम्बूद्वीप की रचना तो देखने वालों का मन मोहित करती है। पू० माताजी का दर्शन मैंने सर्वप्रथम जयपुर खानिया में स्व० प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी के अंतिम दर्शन के लिए मैं अपनी माँ साहब अर्हमति माताजी, जो उस समय ब्र० कुन्दनबाई के नाम से प्रसिद्ध थीं, उनके साथ चौका लकर गई थी, उस समय किये थे, उस टाइम पर माताजी, मुझे जानती भी नहीं होंगी और न कभी मैंने उनके साथ कोई बात करने का प्रयत्न ही किया, लेकिन उनके वे दर्शन मेरे हृदय में वैराग्य अंकुर पैदा करने के लिए निमित्त जरूर बनें ऐसा मैं मानती हूँ; क्योंकि उस समय वे और जिनमती, जो उस समय क्षुल्लिका थीं और भी एक-दो माताजी थीं उनको मैं नहीं पहचानती थी और मुझे न ही उस बात का स्मरण भी है, लेकिन वे सब सुबह से अपनी क्रिया करके पढ़ने लगतीं, दोपहर में पढ़ती रहतीं तथा सायंकाल में आचार्यश्री वीरसागरजी के पास सभी त्यागी एकत्रित होकर धर्मचर्चा करते, तब यह सब दूर से ही देखकर मैं अपने मन में विचार करती कि ये इतनी छोटी अवस्था में कैसे घर से निकली ? इनके परिवार ने इनको कैसे घर से निकलने दिया ? यदि इनका सहयोग मुझे भी बालपन में मिलता तो मैं भी गृहस्थ के कीचड़ में नहीं पड़ती इत्यादि । उस समय हमारी दिनचर्या सुबह उठकर देवपूजा आदि से निवृत्त होकर चौका करना, त्यागियों को आहारदान देना, वहाँ का कार्य पूर्ण होने के अनन्तर त्यागियों का उपदेश सुनना और रात्रि को क्षुल्लिका चन्द्रमतीजी के पास चौबीस ठाणा चर्चा करना और दूर से इन सभी त्यागियों के दर्शन करना, इस प्रकार करीब एक माह रहकर मैं घर पर गई। इस एक माह में मुझे एक अलौकिक आनंद आया था; क्योंकि पूरा समय धर्म-ध्यान में साधुओं के दर्शन में बीतता था। घर में बड़े पुत्र शरद कुमार के विवाह की चर्चा चल रही थी, तभी मैंने कह दिया था कि मुझे तो बहू ऐसी चाहिये जो कि आते ही अपना संसार सँभाले। बहू आने पर मैं घर पर रहने वाली नहीं। बस, जहाँ इच्छा होती है वह मार्ग अपने आप मिलता है। आखिर हुआ भी वैसा । शरद का विवाह होने के अनंतर मुझे घर में रहने का विशेष मौका ही नहीं मिला और दो-चार वर्ष में ही घर से निकल गई, यानि हमारी दीक्षा हो गई। यही एक अपूर्व योग मिला, लेकिन हमारी दीक्षा के समय परमपूज्य माताजी संघ में नहीं थीं, वे उसके पूर्व से ही संघ में से यात्रा के निमित्त से अपनी शिष्याओं को लेकर अलग विहार करने चली गई थीं। पू० माताजी ने उस यात्रा के समय में कितने परिश्रम सहन किये, उनको घर से निकलने में तथा अलग विहार में भी बहुत कष्ट उठाने पड़े, यह सब मैंने उनकी 'मेरी स्मृतियाँ' में पढ़ा है। पू० माताजी सम्मेदशिखरजी से यात्रा करते-करते दक्षिण की तरफ श्रवणबेलगोला में आ गईं। शायद हमारी दीक्षा के समय उनका वास्तव्य वहीं पर था, तदनंतर दो-तीन वर्ष में वे अपनी यात्रा पूर्ण करके, प० पूज्य आचार्य शिवसागरजी का संघ उदयपुर का चातुर्मास पूर्ण करके प्रतापगढ़ की तरफ जा रहा था, तब रास्ते में किरावली' करके एक गाँव पड़ता है, वहाँ पर माताजी अपने संघ सहित आकर संघ में शामिल हुईं, तब मैंने उनके दर्शन किये। परिचय से स्नेह बढ़ गया और उनके सानिध्य में कुछ ग्रंथों का अभ्यास अध्ययन करने का मौका मिला; क्योंकि संघ में आने से दो-चार दिन के बाद ही खुद आर्यिका श्रीज्ञानमती माताजी ने कहा कि तुमको हम कुछ अध्ययन कराना चाहते हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है ? मैंने कहा यह तो मेरा अहोभाग्य है; क्योंकि मैं विशेष पढ़ी-लिखी नहीं थी, धर्मभावना जाग्रत होकर भी धर्मग्रंथों का ज्ञान नहीं था। मैंने कहा-आप पढ़ाओगी तो मुझे अत्यंत हर्ष होगा; क्योंकि मैं भी कोई पढ़ाने वाला मिले, यह इच्छा कर रही हूँ, यदि आप अपना समय दे रही हो तो जो भी समय आपको अनुकूल हो मुझे कहो, मैं उसी समय आपके पास हाजिर होकर विद्याध्ययन करूँगी। उसी समय से मेरा अध्ययन माताज़ी के पास शुरू हुआ और क्रम से उनके पास न्याय ग्रंथ, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, व्याकरण, जैनेन्द्र प्रक्रिया, छन्दमंजरी, वाग्भट्टालंकार, जीवंधर चम्पू महाकाव्य, महाप्रबन्ध प्रथम भाग आदि ग्रंथों का अध्ययन किया, उसके साथ उस समय उनके मन में जम्बूद्वीप की रचना का प्रयत्न चल रहा था। प्रतापगढ़ में उन्होंने ६ x ६ के कागज पर एक बड़ा नक्शा जम्बूद्वीप का निकलवाकर उसमें कुलाचल पर्वतादि के कलर, भरकर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन .. पूरा नक्शा समझा दिया था और संघ में अध्ययन के लिए आये हुए पं० रतनचंदजी मुख्यार से कभी त्रिलोकसार तथा लोक विभाग ग्रंथ लेकर चर्चा करती थीं। मैं भी वहाँ सुनने के लिए बैठ जाती। माताजी का जैनभूगोल ज्ञान तथा गणित ज्ञान भी पक्का था। उनसे उसका भी मैंने थोड़ा-थोड़ा ज्ञान प्राप्त किया। वे कभी कुछ विषय को याद करके सुनाने को कहतीं तो मैं कहती कि माताजी! मुझे आप पढ़ा दो मैं पीछे याद करती रहूँगी। न मालूम आपका यह संयोग कितने दिन तक मिलेगा। कभी-कभी मैं कहती कि माताजी ये परीक्षामुख आदि न्याय के विषय मुझे कुछ भी समझ में नहीं आते, तब माताजी कहतीं कोई बात नहीं, तुम आगे-आगे पढ़ती रहो जैसे-जैसे पढ़ती रहोगी वैसे-वैसे विषय परिपक्व होता जायेगा। जहाँ कुछ विषय समझ में नहीं आया, वहाँ पर भी अटकना नहीं, आगे पढ़ते जाना, दूसरी बार पढ़ोगी तब अपने आप विषय खुलेगा। इस प्रकार से चर्चा करते-करते हम माताजी के पास पढ़ते थे। प्रतापगढ़ चातुर्मास के अनन्तर संघ का विहार महावीरजी की तरफ हो गया, वहाँ पर भी शांतिवीरनगर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने वाली थी, वहाँ पहुँचने के बाद प्रतिष्ठा के ८ दिन पहले ही संघ नायक आ० श्री शिवसागरजी का सिर्फ आठ दिन की बीमार अवस्था में ही एकाएक स्वर्गवास हो गया, सभी जनता को तथा संघस्थ त्यागियों को अचानक वज्रपात जैसा दुःख हुआ। उसके अनंतर उनके धर्मसागरजी महाराज भी वहाँ प्रतिष्ठा पर आये थे और आ० वीरसागरजी के ही दीक्षित सबसे वरिष्ठ शिष्य थे, सभी त्यागियों की सलाह से आचार्यपट्ट उनको दे दिया गया और सन् १९६९ में जयपुर से कुछ कारणवश संघ २-३ टुकड़ों में बँट गया, पुनः हमारा तथा पूज्य माताजी का भी वियोग हो गया और आगे माताजी ने जो पढ़ाई का बीजारोपण किया था उसी के सहारे मैं आगे पढ़ाई, स्वाध्यायादि करती रही। उसके बाद सन् १९७२ में पूज्य माताजी भी अपने शिष्यों के साथ संघ से अलग विहार करती-करती हस्तिनापुर पहुंची। वहाँ पर उन्होंने अपनी अन्तरंग इच्छा के अनुसार ध्यानपूर्वक जम्बूद्वीप निर्माण का कार्य शुरू किया, उसके लिए अनेक प्रयत्न किये, उनके भाग्योदय से उनके कार्य के योग्य शिष्य भी मिल गये, कार्य की रूपरेखा साकार बनी। .मुझे परमपूज्य श्रेयांससागरजी महाराज के साथ अनेक जगह विहार करते-करते दक्षिण से सम्मेद शिखरजी तक यात्रा पूर्ण करके लौटते समय मालूम पड़ा कि हस्तिनापुर में सुदर्शन मेरु बन गया है और वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने वाली है। अपने विहार के रास्ते में ही गाँव है। शांतिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ भगवान् की जन्मभूमि है। ऐतिहासिक नगरी है और ऐसे पवित्र स्थल पर प०पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की इच्छानुसार बने हुए मेरु की प्रतिष्ठा हो रही है ऐसे मौके पर जाना ही चाहिये, ऐसा सोचकर समय पर पहुँचने के लिए थोड़ा-थोड़ा, ज्यादा-ज्यादा चलकर प्रतिष्ठा शुरू होने के दो दिन पूर्व में संघ सहित महाराज श्री हस्तिनापुर पहुंचे और पू० माताजी के साथ दस वर्ष बाद पुनर्मिलन हुआ। उनका सभी कार्य देखकर अत्यंत हर्ष हुआ। ८-१० दिन वहाँ प्रतिष्ठा में बीत गये, कुछ माताजी के साथ धार्मिक चर्चाएँ की और वापिस वियोग दिन आ गया। वहाँ से हम संघ सहित मेरठ, दिल्ली की तरफ आ गए। उसके बाद हस्तिनापुर से निकला हुआ 'जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ' रथ मांगीतुंगीजी में भ्रमण करते हुए आया, तब हम महाराज श्री के संघ में वहाँ पर ही थे। उस रथ को देखकर माताजी की बुद्धि कुशलता का और सतत प्रयत्न करने की जिज्ञासा का अनुमान होता था। आज तक माताजी ने जितना भी साहित्य सृजन किया है वह आर्ष परंपरा के अनुसार और नूतन पीढ़ी को आकर्षक लगने वाला हुआ है। हमसे जब भी कोई पूछता है कि हम कौन-सी पुस्तकें पढ़ें अथवा बच्चों को पढ़ने योग्य कौन-सी पुस्तकें हैं? तो हम स्पष्ट कहते हैं कि आप हस्तिनापुर से पुस्तकें मँगवाओ, वहाँ पर छोटे बच्चों से लेकर बूढ़े तक तथा अज्ञानी से लेकर पंडित तक पढ़ने योग्य, सबके मन को आकर्षित करने वाला साहित्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने निर्माण किया है, जिससे बहुत भारी कमी की पूर्ति हुई है। माताजी को अपनी आयु के करीब २५ वर्ष की अवस्था से ही संग्रहणी की बीमारी लग जाने से शरीर कमजोर हुआ है। बीच-बीच में अन्तराय भी आते हैं, विहार भी होता है, तो भी वे अपनी दैनिक क्रियाएँ तथा साहित्य निर्माण में प्रमाद नहीं करती हैं। धन्य हैं पूज्य माताजी और उनका आत्मबल। उनके जैसी ही शक्ति मुझे भी प्राप्त होवे, यही मैं कामना करती हूँ। मांगीतुंगी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 'मातृवत्सला' -आर्यिका आदिमती माताजी [शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी] इस भारत वसुन्धरा को अनेक महापुरुषों ने अपने जन्म से अलंकृत किया एवं समीचीन धर्म को धारण कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। बीसवीं सदी में जब प्रायः मुनिधर्म का लोप हो रहा था उस समय चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने पनः मुनिधर्म को पूर्णरूपेण जीवन्त रूप दिया तथा अपने प्रधान शिष्य वीरसागरजी महाराज को आपने अपने आचार्यपट्ट पर आसीन किया। भगवान् आदिनाथ की पुत्री ब्राह्मी-सुन्दरी बालब्रह्मचारिणी रहीं एवं आर्यिका दीक्षा लेकर जन्म सफल किया, उसी पथ का अनुसरण करने वाली प्रथम बालब्रह्मचारिणी धर्म प्रभाविका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमतीजीमाताजी हुई हैं ! आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने सन् १९५२ में बाराबंकी में चातुर्मास किया था, उस समय कु० मैना (ज्ञानमतीजी माताजी) ने भी टिकैतनगर से बाराबंकी आकर आचार्य संघ के दर्शन किये और पूर्व भावना के अनुसार आर्यिका दीक्षा लेने के लिए कटिबद्ध हो गईं। उस समय १७ वर्ष की उम्र थी, इतनी कम अवस्था में पहले किसी ने दीक्षा ली भी नहीं थी। सारा समाज और परिवार के लोगों ने बहुत संघर्ष किया, किन्तु ये अपने आप में पूर्ण दृढ़ रहीं। इनका दृढ़ संकल्प देखकर वातावरण के अनुसार आचार्य श्री ने सप्तम प्रतिमा के व्रत दिये। चातुर्मास के पश्चात् आचार्य श्री ने विहार करते हुए आगरा छीपीटोला में पदार्पण किया, दर्शन के लिए जनता उमड़ पड़ी, मैं उस समय वहीं पर थी, लोगों में चर्चा हो रही थी, आचार्य श्री के संघ में बहुत छोटी कुंवारी लड़की है, उस समय किसी ने कुंवारी लड़की को साधु संघ में रहते हुए देखा भी नहीं था, इसलिये देखने का अधिक कौतुक था। किन्तु निकटता से मुझे सानिध्य प्राप्त नहीं हुआ। वहां से विहार करके आचार्य संघ महावीरजी पहुंचा। यहां पर सन् १९५३ में अतिशय क्षेत्र महावीरजी में बा०७० मैना को आचार्य श्री ने क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की और इनकी वीरता को देखकर वीरमती सार्थक नाम रखा। दो वर्ष पश्चात् ही आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। इनका विशिष्ट ज्ञान का क्षयोपशम देखकर आचार्य श्री ने ज्ञानमती नाम रखा। जयपुर खानियां में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का समाधिमरण हुआ तथा चातुर्मास के पश्चात् नवीन आचार्य शिवसागरजी महाराज ने अपने संघ सहित गिरनार सिद्धक्षेत्र की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। इसी बीच संघ का पदार्पण अजमेर में भी हुआ था, उस समय माताजी का दर्शन किया और देखा माताजी सतत अध्ययन और अध्यापन के कार्य में निमग्न रहती थीं। माताजी के प्रथम दर्शन से अपार आनंद हुआ और ऐसा लगा मानो चिर वियुक्त जननी ही मिल गई हो, आत्मसाधना के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए हस्तावलंबनस्वरूप आर्यिका की खोज थी उस की सम्पूर्ति मातृवत्सला अभीक्षण ज्ञानोपयोगी, हित-मित-मृदु-उपदेष्ट्री आर्यिका ज्ञानमतीजी माताजी के मिलने पर हो गई हो, ऐसा महसूस हुआ। माताजी की भी मुझ पर असीम कृपा थी, किन्तु उस समय मैं घर से निकल नहीं सकी, मैंने यह निश्चय कर लिया था और माताजी से कह दिया था कि आपका अजमेर चातुर्मास होगा उस समय मैं आपके सानिध्य में रह कर पढ़ाई करूँगी और साथ में ही रहूंगी, वह सुयोग एक वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् मिला, माताजी की सत्प्रेरणा ने मुझ पर चुम्बकीय असर किया एवं आपकी कृपादृष्टि से १९६१ में सीकर (राज.) के चातुर्मास में परमपूज्य प्रातःस्मरणीय, वात्सल्यह्रदय गुरूवर्य आचार्य श्री १०८ शिवसागरजी महाराज से स्त्रियोचित उत्कृष्ट संयमरूप आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। माताजी ने मुझे सिद्धांत, न्याय, व्याकरण साहित्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया। वास्तव में माताजी के मुझ पर अनंत उपकार हैं, माताजी ने संरक्षण और अध्ययन के साथ-साथ मुझे मोक्षमार्ग में भी लगाया, इसलिए सच्ची गुरुमाता आप ही हैं। आपके निकट सभी आश्रय प्राप्त कर अपने को धन्य मानते हैं, यह आपके हृदय की विशालता है। शिष्यवर्ग का संग्रह और उनको सर्वांगीण अध्ययन कराने का लक्ष्य आपका सदा ही रहा । माताजी वास्तव में सरस्वती की अवतार हैं, कितने महान् ग्रंथों की हिन्दी-संस्कृत टीकाएँ की हैं, संस्कृत-हिन्दी पद्य रचना और भी स्वतंत्र ग्रन्थ रचनाएं की हैं यह कोई सामान्य कार्य नहीं है, सचमुच में माताजी ज्ञान की भंडार हैं इसलिए ज्ञान का खजाना कभी खाली हो नहीं सकता। एक बार सीकर चातुर्मास में मैंने अनुभव किया माताजी मुझे चन्द्रप्रभू काव्य पढ़ा रही थीं, पढ़ाने के पश्चात् जितने काव्य पढ़ाये वे सब आपने मुखाग्र ज्यों के त्यों बिना देखे बोल दिये, यह देखकर मुझे बहुत हर्ष और आश्चर्य हुआ कि माताजी अकलंक सदृश एक पाठी हैं। दो या तीन बार स्वप्न में देखा जो व्याकरण के सूत्र माताजी ने कभी भी नहीं पढ़े थे, वे सूत्र स्वप्न में पढ़े, पश्चात् उन सूत्रों की खोज की तो शब्दार्णव और महाव्रती आदि व्याकरण में पाये गये, इस प्रकार जन्मान्तर के दृढ़ संस्कारवश इस जन्म में भी इतना विशिष्ट क्षयोपशम है, तभी दूसरों का अल्प अवलंबन पाकर ही स्वतः अपनी बुद्धि के बल पर अपने सभी शिष्य-शिष्याओं को अध्ययन कराकर विद्वान् बनाया, इतना ही नहीं Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ उनको कल्याण के मार्ग में भी अग्रसर करने के लिए प्रेरणा दी और उन्हें मुनि आर्थिका के उच्च पद पर आसीन कराया, यह आपके हृदर उदारता और वात्सल्यता अनुकरणीय है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागरजी की पट्ट परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य श्री अजितसागरजी महाराज को पूर्ण प्रयत्न व करके आचार्य श्री शिवसागरजी महाराजजी से सन् १९६१ के सीकर चातुर्मास में मुनि दीक्षा दिलवाई। इसी प्रकार अनेकों का मार्ग प्रशस्त किया। माताजी के अन्दर सदा यह देखा कि जिस कार्य को इन्होंने मन में विचारा उसको पूर्णरूप से किया ही, चाहे कितने आपत्ति विघ्न क आवे परन्तु धैर्यपूर्वक कार्य को सफल बनाना आपका लक्ष्य रहा। इसी धैर्य एवं साहस के बल पर आज अद्वितीय जम्बूद्वीप की विशाल साकार रूप लिए हुए सभी के हृदय की आनंददायिनी बन चुकी है। मेरी दीक्षा के एक वर्ष पश्चात् १९६२ में गुरुवर आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से आज्ञा लेकर हम तीन माताजी (पद्मावती, जिनम श्रेष्ठमती) को साथ लेकर माताजी ने यू०पी०, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, आंध्रा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों में मंगलविहार, तीर्थ व एवं महती धर्म प्रभावना की तथा संघवृद्धि भी होती रही। साहित्य रचना का कार्य सर्व प्रथम श्रवणबेलगोल में प्रारंभ किया, चातुर्मास के समय में भगवान बाहुबली के चरणसानिध्य में रहकर मा ने बाहुबली जावणी हिंदी, बाहुबली स्तोत्र संस्कृत, बाहुबली स्तोत्र कन्नड़ तथा बारह भावना कन्नड़, इस प्रकार साहित्य सृजन का कार्य किया । से लेकर अभी तक लेखन कार्य चालू है, ऐसे महत्वपूर्ण कार्य महानात्माओं के द्वारा ही हो सकते हैं। वास्तव में आपका जीवन कल्पवृक्षोपम हितक मैं माताजी के प्रति अपनी कृतज्ञता अभिव्यक्त करते हुए उनके चरणों में विनय प्रकट करते हुए उनके चिरकाल तक शुभाशीर्वाद के रहने की सदैव कामना करती हूँ 'यावन्निर्वाण सम्प्राप्तिः' निर्वाण प्राप्तिपर्यंत मुझे आपके चरणों का आश्रय प्राप्त होता रहे। Jain Educationa International श्रद्धा के सुमन जिनकी आत्म साधना से पावन हो जाता मन है, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को वंदन अभिवंदन है। - आदर्श साध्वी सन् १९३४ में टिकैतनगर (बाराबंकी) अयोध्या क्षेत्र के निकट उत्तर प्रदेश प्रांत में पिता छोटेलालजी, मी मोहिनी की कु जन्म लेने वाली मैना नाम की कन्या अपने नाम को सार्थक करती हुई संसार में अद्भुत कार्य करके दिखायेगी, ये कौन जानता था। 'होनहार वि के होत चीकने पात' अर्थात् संसार में जब पुण्यशाली जीव का जन्म होता है तब विश्व में एक अलौकिक शांति का वातावरण दिखने लगता है। परमविदुषी पूज्य माताजी - पूज्य माताजी ने १७ वर्ष की अल्पायु में ही असिधारा ब्रह्मचर्य व्रत धारणकर आ० देशभूषणजी से क्षुल्लिका लेकर एवं आ० वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा लेकर अष्टसहस्री आदि बड़े-बड़े शास्त्रों की रचना करके समाज में एक आदर्श उपस्थित कर दिया। परमतपस्वी माता पूज्य माताजी की तपस्या देखकर सभी आश्चर्य कर रहे हैं, छहों रसों में से १-२ रस लेकर मात्र मट्ठा चावल लेकर जीवन को बिता रही हैं। ऐसी माता को धन्य है, जो इस कलियुग में भी अपने चारित्र में दृढ़ हैं। परम उपकारी माता – पूज्य माताजी का जीवन अधिकतर दूसरे के उपकार में ही बीत रहा है। अब तक पूज्य माताजी ने कितने ही शिष्य शिष्याओं को गृहजंजाल से निकालकर कल्याण मार्ग में लगाया है, इनमें से मैं भी एक शिष्या हूँ, मुझे भी पूज्य माताजी ने गृहजंजाल से निका कल्याण-मार्ग में लगाया। आज पूज्य माताजी की देन है जो मैंने अनेक शास्त्रों का पद्यानुवाद एवं रचना की है तथा समाज में धर्म प्रभावना हुए अपने चारित्र में दृढ़ है जब मैं बुन्देलखंड की यात्रा हेतु निकली थी, उस समय मुझे पूज्य माताजी ने बहुत रोका। फिर भी यात्रा की भ से मैं उनके सानिध्य में अधिक दिन नहीं रह सकी। आर्यिका श्री अभयमती मार For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] धारोपसर्ग विजयी माता पूज्य माताजी के जीवन में अनेक उपसर्ग संकट आये, पर माताजी ने बड़े शांतिभाव से उन्हें सहन किया। जब मैं ब्रह्मचारिणी अवस्था में सम्मेदशिखर के रास्ते में चौका लगाती थी, एक दिन की बात है, माताजी को जंगल में ही सोना पड़ा, सभी लोगों ने कहा कि माताजी आप सब गाँव में पधारें, यहाँ रात्रि को सिंह निकलता है। पूज्य माताजी ने कहा — सिंह हमारा कुछ नहीं कर सकता, हम साधु रात्रि में विहार कभी नहीं करते । इस प्रकार रातभर णमोकार मंत्र पढ़ते रहे, सिंह का पता नहीं चला, कहाँ पर है। इसी तरह अनेक घटनाएँ हैं, अगर उन्हें लिखें तो पूरा शास्त्र बन जावे ! जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका अजमेर से मैंने बन्देलखंड की यात्रा हेतु संघ छोड़ा था, पर यह कौन जानता था कि मुझे आर्यिका रत्नमती माताजी के दर्शन नहीं मिलेंगे। होनहार बलवान होती है। मैंने मात्र दो वर्ष के लिए संघ छोड़ा था, पर १४ वर्ष यात्रा में निकल गए। मुझे माताजी की खूब याद आती थी, फिर भी मैं प्रभावना में रह गई, कहीं विद्यालय, स्कूल खुलवाना, कहीं विधान कराना आदि । इधर पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर में आकर एक अपूर्व जम्बूद्वीप की रचना को साकार रूप में फलीभूत किया। जब मैं सुनती थी कि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना बन रही है, तब मुझे बड़ी प्रसन्नता होती थी और यह भावना भाती रहती थी कि जम्बूद्वीप के दर्शन मुझे कब होंगे। ज्ञानज्योति की प्रेरिका पुनः मैंने सुना कि ज्ञानज्योति का प्रवर्तन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा दिल्ली में हो रहा है। ये तो पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी बुद्धि का विकास या पूर्व भव का संस्कार समझना चाहिए, जो इतना बड़ा कार्य करके संसार को दिखा दिया। संस्थान का जन्म - इस दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान में पहले ब्र० मोतीचंद, ब्र० रवीन्द्र कुमार जी, ब्र० मालती, ब्र० माधुरी आदि कार्यभार को सँभालते थे। वर्तमान में ब्र० रवीन्द्र कुमारजी जम्बूद्वीप के अध्यक्ष रूप में सारे कार्यभार को संभालने में कर्मठशील है। जो २० वर्षों से पूज्य माताजी की सेवा में निःस्वार्थ दृष्टि से संलग्न है और सभी पूज्य माताजी को शिष्य शिष्याएँ आज्ञा में लगी हुई हैं। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला - सम्यग्ज्ञान पत्रिका इसी संस्था के माध्यम से "सम्यग्ज्ञान" नाम की पत्रिका निकलती है, जिसके अंदर चारों अनुयोगों का बड़ा सुन्दर विवेचन रहता है। जिसमें सुंदर-सुंदर तत्त्वचर्चा एवं कथाएँ पढ़कर बड़ा आनंद का अनुभव आता है। ये सब पूज्य माताजी की ही देन है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ -जभी से लेकर अभी तक जम्बूद्वीप में ५ बार पंचकल्याणक प्रतिष्ठा बड़ी जोरों से लड़े ठाट-बाट के साथ हुई। एक बार सन् १९८७ के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में मुझे भी देखने का सौभाग्य मिला। जिसमें आर. श्री विमलसागर जी महाराज के सघ का भी निमंत्रण के अनुसार आगमन हुआ था। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी – पूज्य माताजी की लेखनी में बड़ा चमत्कार है, विशेष अस्वस्थ होकर भी निरंतर बड़ी तेजी के साथ लेखनी चलाती रहती हैं। आपकी किसी साधु से उपमा नहीं लग सकती, इन सबको पूर्व भव की नैसर्गिक प्रतिभा ही कहना पड़ेगा । विधान वाचस्पति - जिस प्रकार इंद्र अपने-अपने परिवार के साथ आकर नंदीश्वर द्वीप में विधान करते हैं, उसी प्रकार मानो पृथ्वी के इंद्र पूज्य माताजी द्वारा रचित इंद्रध्वज, कल्पद्रुम आदि विधानों का विशेष रूप से महोत्सव करते हैं। इस समय विधानों की चारों तरफ होड़ मची है। — गागर में सागर- -पूज्य माताजी ने अभी तक इतनी पद्य एवं गद्य में रचनाएँ कीं कि गागर में सागर को भर दिया, इनकी रचनाओं की कोई उपमा नहीं सकता पूज्यपाद सूरि के समान ही पूज्य माताजी की रचनाओं में महानता दिख रही है। अष्टसही जैसे क्लिष्ट विषय को भी सरल बना दिया है। जम्बूद्वीप की विशेषता - जम्बूद्वीप में सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह दिखी कि जितने भी विद्यार्थी पढ़कर निकले, वे सभी विद्वान् एवं शास्त्री बनकर निकले, जिनके द्वारा आज जगह-जगह धर्मप्रचार हो रहा है, कोई वेदी प्रतिष्ठा करा रहे हैं तो कोई इंद्रध्वज विधान आदि करा रहे हैं। इन विद्वानों की बोलने की शैली भी बड़ी सुंदर है, जिससे लोग प्रभावित होते हैं। गुणों की गरिमा माताजी - जिस प्रकार आकाश में तारों की संख्या एवं शरीर में रोम की संख्या कोई गिन नहीं सकता, उसी प्रकार पूज्य माताजी के गुणों का वर्णन मैं कर नहीं सकती। पूज्य माताजी ने अपने जीवनकाल में बड़े-बड़े कार्य करके समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया है। मुझे भी पूज्य माताजी घर से निकाल कर महान् उपकार किया है। इतना ही कहकर अंत में पूज्य माताजी के प्रति मैं अपनी विनयांजलि अर्पण करती हूँ एवं पूज्य माताजी का आशीर्वाद सदैव मुझे मिलता रहे, यही कामना करती हूँ। Jain Educationa International किस मुख से वर्णन करूँ • आर्यिका श्री शिवमतीजी [संघस्थ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ] ― पूज्य माताजी के गुणों का वर्णन मैं किस मुख से कर सकती हूँ। ऐसी साक्षात् सरस्वती माता को पाकर मैं धन्य हुई, मैंने पूर्व जन्मों में कुछ विशेष ही पुण्य संचित किया होगा, जिसके फलस्वरूप मैं ऐसे गुरु को पाकर कृतकृत्य हो गई। इनकी वाणी में अमृत भरा हुआ है। जो भी भक्तगण आते हैं नत मस्तक होकर सिर झुकाते है, इनकी अमृतवाणी सुनकर गदगद हो जाते हैं, इनका दर्शन करने के लिए प्यासे रहते हैं। हम कितने भाग्यशाली हैं, साक्षात् हमको अपने पास रखकर पहला भाग, अ आ इ ई से लेकर जीवकांड, कर्मकांड आदि ग्रंथों का अध्ययन कराकर चारित्र को ग्रहण करा दिया। मोक्ष मार्ग को बताने वाली, संसार के कीचड़ से निकालकर प्रशस्त मार्ग बतलाने वाली पूज्य ज्ञानमती माताजी के उपकार को जन्म-जन्म में भी मैं भूल नहीं सकती। आपका दर्शन मैंने श्रवणबेलगोला में उन्नीस सौ पैसठ में किया था। आपने हमको वहीं पर संसार से निकालने का उपाय किया तथा सदैव शिक्षा देती थीं कि कीचड़ में पैर रखकर धोने के बजाय कीचड़ में पैर नहीं रखना अच्छा है। ऐसा आपने किया, वहा रास्ता दूसरों को सिखाया आपने पूरा प्रयास करके For Personal and Private Use Only . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ हमको घर से निकाला, मैं इसके लिए चिर ऋणी हूँ। आप चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परंपरा की सर्वप्रथम कुमारी कन्या श्रुतमाता ज्ञानमती माताजी हैं। पूज्य माताजी ने अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, व्याकरण आदि उच्चकोटि के ग्रंथों के अनुवाद में अपने अमूल्य समय को व्यतीत किया है। अभी भी लेखनी सतत् चलती रहती है। आपके बारे में किन शब्दों में वर्णन करूँ, आपने इतना सुन्दर शब्दों में कन्नड़ में बारह भावना को बाहुबली के सानिध्य में बैठकर बनाया है, जिसे आज भी वहाँ के लोग स्वर से गाते हैं एवं आपको स्मरण करते हैं। बाहुबली के चरणों में एक वर्ष रहकर पंद्रह दिवस मौन व्रत लेकर पहाड़ पर ध्यान किया था, ध्यान में आपको उपलब्ध हुई जम्बूद्वीप की रचना, नंदीश्वर पंचमेरु आदि अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किये, चार सौ अट्ठावन चैत्यालयों के दर्शन करके मन को उज्ज्वल बनाया, तब से आपको उसे साकार बनाने की उत्कंठा लगी हुई थी आज जम्बूद्वीप को भूतल पर बनाने का श्रेय आपको ही है। एक साथ दो सौ पांच प्रतिमाओं का दर्शन करने को यहीं पर मिलेगा। ऐसे जम्बूद्वीप का दर्शन हम लोगों को सौभाग्य से मिल रहा है। पहले हस्तिनापुर के दर्शन मैंने कभी नहीं किये थे। आपके साथ यहां पर रहने का मौका मिला। यहाँ पर तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक हुए हैं। यहाँ मेरे को सप्तम प्रतिमा आपने दिया था। बाद में आपके आशीर्वाद से आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से मुझे आर्यिका दीक्षा दिलाई थी आपने ही मेरे को मोक्ष मार्ग बताया है। आपके प्रति मैं विनयांजलि अर्पित करती हुई यह भावना भाती हूँ कि आपके समान गुरु मुझे भव-भव में मिले। यह युग आर्यिकाओं का युग है आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी नारी जीवन की गौरवगाथा जिनकी रग-रग से प्रस्फुटित हो रही है, ऐसी गणिनी आर्यिकारत्र पूज्या ज्ञानमती माताजी के शब्दों में यह युग आर्थिकाओं का युग है, ' से एक महान् प्रेरणा व जागृति मिलती है। आपके ये शब्द जीवन को चुनौती दे रहे हैं। जम्बूद्वीप के दर्शन करते समय माताजी के ये मधुर शब्द मुझे सुनने को मिले थे। आपने कहा था- इस युग में ग्रंथों की टीकाएँ लिखने का महान् कार्य आर्यिकाओं ने किया है, तुम भी एक ग्रंथ की टीका करो पर मैं अल्पज्ञा क्या कर सकती हूँ, कहाँ सूर्य, कहाँ दीपक ? प्रतिकूलता में भी अनुकूलता - सैकड़ों प्रतिकूलताओं को भी अनुकूलता का अनुभव आपके अभीक्ष्ण ज्ञान व चिन्तन तथा ध्यान का ही फल है। शरीर, समाज व साधर्मियों की अनेक प्रतिकूलताओं को अनुकूलतावत् सहज झेलकर काँटों से दूर, गुलाब की महक को बिखेरने वाली माताजी ने जीवन में कीचड़ में कमलवत् रहकर सर्वलोक को सुरभित किया है। विलक्षणा आर्यिका रत्न - पूज्या माताजी ज्ञानध्यान की अनूठी कीर्ति हैं। इस कलिकाल में नारी की शक्ति, बुद्धि विकास की क्षमता का अनुपम परिचय आपके महान् जीवन से मिलता है। बड़े-बड़े कार्यों को अपनी बुद्धि और तर्क की कसौटी पर कसकर सरलता से कर डालना आपकी महानता है। व्याकरण के क्षेत्र में इस कलिकाल में आपको कोई जीत नहीं पाया। आपके बड़े-बड़े कार्यों, नवीन रचनाओं व नवीन साहित्य तथा नवीन-नवीन सूझ-बूझ ने देश-विदेश के नर-नारियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। [१३ पूज्या माताजी की स्वस्थता, धर्म-ध्यान की प्रखरता तथा दीर्घायु की कामना करती हुई, मैं आपके पावन चरणारविन्द में भाव पुष्पाञ्जलि अर्पण करती हुई पुनः पुनः वन्दामि करती हूँ। Jain Educationa International आर्यिका श्री ज्ञानमती को बारम्बार प्रणाम है आर्यिका श्री प्रशान्तमतीजी, शिष्या आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज O 'दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान।' इस भौतिक परिवेश में सब कुछ सुलभ है, पर एक यथार्थ ज्ञान का होना बहुत दुर्लभ है। समीचीन ज्ञान के साथ समीचीन आचरण सम्यक्त्व चारित्र का एक साथ समन्वय होना प्रायः दुर्लभ है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े ज्ञानी भी चारित्र से अछूते रह जाते हैं, परन्तु आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के अन्दर ज्ञान व चारित्र की समन्वित धाराएँ प्रवाहित है। वे जैन साहित्य गगन में जगमगाते हुए प्रकाश स्तंभ सदृश आलोकित हैं। बीसवीं शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका सभी को नाम सुनकर गौरव होता है कि कलिकाल में भी ऐसे जगमगाते हुए नक्षत्र मौजूद हैं। आपकी लेखनी से प्रसूत चतुरनुयोग का साहित्य सदियों सदियों तक के लिए अमर हो गया। आपके साहित्य से आबालवृद्ध सभी को एक नवी दिशा मिली है। साथ ही जैन संस्कृति/ श्रमण संस्कृति को भी आपने स्थायित्व प्रदान किया। जंबूद्वीप की रचना भी इस क्षेत्र की एक अपूर्व उपलब्धि है। बड़ा हर्ष होता है आपके जीवन को देखकर आपका ज्ञान व साधना इसी तरह अविरल बढ़ती रहे— जैनागम के साहित्य गगन पर, जिनकी कीर्ति अविराम है, आर्यिका श्री ज्ञानमती को, बारम्बार प्रणाम है। For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला Paying Homage to Gyanmati Mataji - Aryika Chandnamati Mataji said that Paras Mani makes gold from Iron. Pojya Aryika Ratna Shri Gyanmati Mataji is also a Paras Mani. Every body who comes to her will became like gold. She makes her pupils like herself even greater than herself. It reflects her greatness and politeness. By her inspiration many unmarried girls and other ladies have taken oath of Aryika and Kshullika eksha. Men also have taken oath of Bramhacharya Vrat and Muni Deeksha. Shri Gyanmati Mataji is the first Bal Bramha Charini in this century, who took oath of Aryika eksha in her childhood. Many high Granthas have been taught by her to her pupils. Hence her owledge has increased in abundance. She is an ancient and learned Aryika at the present moment. By her inspiration Jamboodweep has in constructed at Hastinapur. Gyan Jyoti was inaugrated by Late Smt. Indira Gandhi at 4th June, 32. That was result of her blessing also. It has made her immortal glory all over India. She has written about two hundred books, out of which more than one hundred twenty five books ve also been published. Shri Gyanmati Mataji was born on the night of Sharat Poornima. It is lieved that the Moon rains Amrit on that night. Hence Gyanmati Mataji is also raining Gyan Amrit the earth. In childhood her name was Maina. As Maina a tribe of bird likes to fly in the open sky and es not like prisoned in a cage. Similarly Km. Maina is also freely wandering under the open sky in this orld. She has left the family cage. It will not be hyperbolic if she is treated as an incarnation of Saraswati. I have got knowledge of Ratnatrya from her, so I am very much obliged to her. I took oath of llowing Bramhacharya from her at the age of twelve years. After that, time to time I took oath of many ligious principles from her and always I am getting benefit of her great knowledge. Shri Ganini Aryika Gyanmati Mataji gave me Aryika Deeksha at Hastinapur at place Pilgrimage 1 13th August, 1989 and gave me Aryika name as CHANDNA MATI. I got so much love in whole of my life from her as a Person gets from his parents, brothers, sisters id preceptors. I can never pay her debt throughout my life. It is my great desire that I may become a receptor like her in my future life also. I pray that till I get liberation, her blessing may be available to le. It is my courteous homage to her. Jain Educationa International "प्रथम दर्शन में जीवन बदला" आर्यिका चन्दनामती [ शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ] यारह वर्ष की लगभग मेरी उम्र थी, जब मैंने प्रथम बार पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शन किए। मैं माधुरी के रूप में नन्हीं कन्या घर में माताउता, भाई-बहनों के मुख से अपनी सबसे बड़ी बहिन की असीम प्रशंसाएं सुना करती थी मैंने उन्हें कभी देखा नहीं था; क्योंकि मेरे जन्म के ६ वर्ष पूर्व ही वे गृह त्याग कर चुकी थीं। 1 सन् १९६९ में ज्ञानमती माताजी का आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ के साथ जयपुर में चातुर्मास था उस समय हमारे भाई प्रकाशचन्दजी पत्नीक संघ दर्शन के लिए जयपुर आये थे । मैं भी कौतुकवश अपनी सबसे बड़ी जीजी को देखने के लिए भैया के साथ आई थी। मन में एक नई उमंग और तरंग थी कि अन्य भाई-बहनों की भाँति बड़ी बहिन से भी खूब प्यार-दुलार मिलेगा, किंतु प्रत्यक्ष अनुभव कुछ अजीब ही रहा । बहन के दर्शन के साथ ही मेरे जीवन में महिला साध्वी के भी प्रथम दर्शन का ही अवसर था, इससे पूर्व मैंने यदा-कदा मुनिराजों एवं For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५ क्षुल्लकों के दर्शन तो किए थे, किन्तु किसी आर्यिका क्षुल्लिका के दर्शन कभी करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था। जयपुर के मेंहदी चौक में बख्सीजी की जैन धर्मशाला में संघ की आर्यिकाएं ठहरी हुई थीं, मैं भैया के साथ वहाँ पहुँची, लेकिन अभूतपूर्व आर्यिकाओं का वेश (मुंडे हुए केश आदि) देखकर मैं समझ न सकी कि ये कैसी साध्वी हैं। एक कमरे में प्रवेश करने पर भैया ने कहा ये हमारी बहन ज्ञानमती माताजी हैं इन्हें नमस्कार करो। वे फल चढ़ाकर 'नमोस्तु' करके माताजी के चरण स्पर्श करते ही रो पड़े, यह शायद खून का सम्बन्ध और पूर्व में प्राप्त बड़ी जीजी के स्नेह का स्मरण था, किन्तु मुझे ऐसा कुछ भी रोमांच नहीं महसूस हुआ। मैंने शायद नमस्कार तो किया ही होगा, किन्तु तुरन्त वहाँ से अज्ञात भय के कारण मैं भागी और धर्मशाला के बाहर आकर मुझे हंसी आ गई। मैंने भाभी से कहा- ये ऐसी क्यों रहती है? भला यह हमारी जीजी है, भैया कहीं भूल तो नहीं गए हैं ? आज जब मैं अपने उस अतीत का अवलोकन करती हूँ तो प्रतीत होता है कि कैसी तीव्र अज्ञानता थी मुझमें। मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि जिस माता से मुझे आज डर लग रहा है मैं उन्हीं माताजी के पास रहकर एक दिन उनके समान ही वेश को धारण करूँगी। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने भैया से जान लिया कि यह छोटी बहिन माधुरी है और संघ के वातावरण से पूर्ण अपरिचित है तो वे दूसरे दिन से मुझे अपनी ब्रह्मचारिणी शिष्याओं से बुलवाने लगीं। एक-दो दिन तो मैं मात्र दूर से दर्शन करके ही वापस आ गई, फिर माताजी के बार-बार वात्सल्यमयी संबोधन ने मुझे कुछ आकृष्ट करना शुरू किया। एक दिन उन्होंने मेरी लौकिक पढ़ाई के विषय में मुझसे पूछताछ की, मैं उस समय कक्षा ७ में पढ़ती थी और यहाँ तो मात्र ८-१० दिन के लिए आई थी। अगले दिन माताजी ने मुझसे शायद परीक्षा की दृष्टि से गोम्मटसार जीवकांड की एक प्राकृतगाथा पढ़वाई, मेरे शुद्ध पढ़ देने पर वे बहुत खुश हुईं। फिर उन्होंने मुझे उस बाल्यावस्था में ही जयपुर में ८ दिन के अन्दर ३४ गाथाएं पढ़ाईं जिन्हें मैंने कण्ठस्थ कर लिया। आज मुझे प्रसन्नता है कि मेरे धार्मिक जीवन की मजबूत नींव उन ३४ गाथाओं ने मुझे नारी जीवन की सर्वोच्च मंजिल पर पहुंचा दिया है। सांसारिकता, अज्ञानता और बाल चंचलता मुझमें कितनी अधिक थी, यह बात अब मुझे महसूस होती है। उस प्रथम दर्शन की अल्पावधि में ही पूज्य माताजी ने मुझे अपने पास रखने के कई प्रयास किये। एक दिन मेरी कुछ इच्छा भी हुई जब माताजी ने कहा कि मन न लगने पर मैं तुम्हें घर भिजवा दूंगी। किन्तु संघ में रह रहीं एक ब्र० बहिन ने मुझसे कहा- माधुरी! तुम्हें टॉफी, बिस्कुट का इतना शौक है दिन भर खाती रहती हो, यहाँ रहने पर माताजी तुम्हें यह सब कभी नहीं खाने देंगी। पहले से ही भयाक्रान्त बालिका के लिए इन शब्दों ने मानो निर्णय लेने का ही कार्य किया और मैंने सोच लिया कि मुझे यहाँ नहीं रहना है। माताजी तो जान भी न सकीं कि इसे किसी ने कुछ कहा है। खैर! होनहार को कौन रोक सकता है। मैं उस समय पूज्य माताजी के वात्सल्य को ठुकराकर भले ही घर चली आई, किन्तु हृदय से उनकी मोहक छवि न हट सकी। सन् १९७१ में अजमेर चातुर्मास के मध्य माँ के संग आकर मैंने सुगंधदशमी के दिन माताजी से ही छोटे धड़े की नशियां में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लिया, तब मेरी उम्र लगभग १३ वर्ष की थी। उस समय भी संघ में रहने वाली ८-१० कुमारी कन्याओं को हर वक्त पठन-अध्ययनरत देखकर ही मेरे ऐसे भाव बने थे। माताजी के द्वारा बार-बार सीमित वर्षों तक व्रत लेने को कहे जाने पर भी मैंने बिना माँ की आज्ञा के आजन्म ब्रह्मचर्य स्वीकार किया था और उस समय मेरी यह दिली इच्छा थी कि जीवन में एक ही गुरु बनाऊंगी। मेरी वह भावना भी साकार हुई, मैंने जीवन में छोटे-बड़े सभी नियम पूज्य माताजी से ही ग्रहण किए हैं। कई बार किन्हीं आचार्य, मुनि अथवा आर्यिकादि ने कुछ नियम, व्रत लेने को बाध्य भी किया, उस समय थोड़ी आनाकानी करने के बाद मुझे स्पष्ट करना पड़ता कि आप मेरे लिए परमपूज्य हैं, किन्तु नियम मैं एक ही गुरु से लेने हेतु संकल्पित हूँ। मुझे इस बारे में माताजी ने कभी मना नहीं किया कि तुम किसी से नियम मत लो, किन्तु ये विरासती संस्कार ही मेरी भावना की उपज में कारण थे। आज भी मेरा यही श्रद्धान है कि "जीवन में मूलगुरु एक ही बनाना चाहिए" किन्तु पूज्य भाव सभी साधुओं के प्रति होना चाहिए। इस प्रकार क्रम-क्रम से मेरे जीवन का उत्थान हुआ है। ४-५ वर्षों से मेरी हार्दिक इच्छा थी कि पूज्य माताजी के ही करकमलों से मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण करूँ। १३ अगस्त सन् १९८९, श्रावण शुक्ला एकादशी को मेरी वह इच्छा भी पूर्ण हुई जब गणिनी आर्यिका श्री ने मुझे हस्तिनापुर में दीक्षा देकर "आर्यिका चन्दनामती" बनाया। मेरी २१ वर्षों की बालतपस्या सार्थक हुई, अब मुझे उनके सान्निध्य में स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन आदि में परम आनन्द की अनुभूति होती है। आपके समान गुरु की छत्रछाया मुझे भव-भव में प्राप्त होती रहे, इसी हार्दिक भावना के साथ आपके श्रीचरणों में सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्तिपूर्वक वन्दामि करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सम्यग्ज्ञान दीपिका - ऐलक श्री सुखसागरजी महाराज परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी एक सम्यक्ज्ञान दीपिका हैं, जिसके द्वारा स्व-पर दोनों प्रकाशित हो रहे हैं। उनके हृदय में कूट-कूट के वात्सल्य भरा हुआ है, जो भी उनकी शरण में जाता है, वह अपने आपको भाग्यशाली मानता है और वह आपके सान्निध्य में रहकर ज्ञानामृत का पान करता है तथा उसका मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है। इतना ही नहीं, आर्यिकाश्री का प्रभाव दिगम्बर जैन समाज पर पड़ा, इसके साथ ही कई राष्ट्रीय गणमान्य नेताओं एवं जैनेतर समाज पर भी प्रभाव पड़ा, जिसके फलस्वरूप जैन धर्म की अद्भुत प्रभावना हुई; अतः माताजी को धर्म प्रभाविका कहने में अन्योक्ति नहीं होगी। ऐसी महान् विभूति का स्वास्थ्य शिथिल रहते हुए भी वे जैन शासन की उन्नति के लिए महान् से महान् कार्य करने में तत्पर रहती हैं। पूज्य माताजी समय का सदैव सदुपयोग करती रहती हैं। उन्होंने जैन समाज का महान् उपकार किया है, जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकता है। जगत् वन्दनीया आर्यिकाश्री ने हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण करवाकर एक आकर्षण का केन्द्र बनवा दिया, जो कि जैन धर्म के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा। ___ जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशन किया जाना अत्यंत समयोपयोगी और आर्यिकाश्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का महान कार्य है। मैं भी आर्यिकाश्री के पादमूल में अपनी विनयांजलि अर्पण कर अपनी ओर से कृतज्ञता ज्ञापन कर अपने आपको कृतकृत्य मानता हूँ। श्री जगत् माता (महामाता) -क्षुल्लक श्री शीलसागरजी चरणों में शत-शत वंदन। संसार में अनेक माताएँ हुई हैं और होती रहेंगी और हो रही हैं। एक माता जिसकी सन्तान इस धरातल पर जन्म लेकर जैसे-तैसे भरण-पोषण कर जीवन निर्वाह कर मरण को प्राप्त हो जाती है। दूसरी वह माता है जिसका पुत्र कुछ सामाजिक कार्य करता हुआ जीवन पूरा कर लेता है। तीसरी वह माता है जिसे देश माता अथवा राजमाता कहा जाता है, जिसका पुत्र देश उद्धार कर जनकल्याण की भावना रखता हुआ अपने कर्त्तव्य को निभाता है। चौथी वह माता है जो अपने पुत्रों के समान लौकिक ज्ञान देकर अपने शिष्य को इस योग्य बना देती है कि वह अपने जीवनकाल में अच्छा व्यापार करके अथवा अच्छी नौकरी प्राप्त कर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर लेता है, परन्तु ज्ञानमती माताजी उससे भी बढ़कर श्रेष्ठ माता, महामाता या जगत्माता हैं। हम कहें जिनके उपदेश द्वारा अनेक भव्यजीवों को सद्बोध प्राप्त होता है, जिनके द्वारा वह शिष्य अथवा भव्य आत्मा अपने आत्मकल्याण के पथ पर कदम बढ़ा लेता है और अपना आत्मविकास करता हुआ अणुव्रती, महाव्रती बनकर एक दिन अविनाशी सुख प्राप्त कर लेता है। उन सर्वश्रेष्ठ माताओं में वर्तमान में परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी हैं, जिनके दर्शन तथा उपदेश प्रथम बार मैंने अजमेर (राज.) में वर्षायोग के समय में सुना था। वह वैराग्यमय उपदेश आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में समाया हुआ है, जिसका असर मेरी आत्मा में उस समय जो हुआ था, उसे लिखा या कहा नहीं जा सकता। उस समय मैं श्री महावीरजी, पद्मपुरा के दर्शन करता हुआ अजमेर में परिवार के साथ आया था। उपदेश के बाद क्षण भर के लिए ऐसा लगा कि ये गृहस्थ जीवन निस्सार है। जब-जब भी इस प्रकार का उपदेश मिलता अथवा जहाँ-जहाँ पर भी साधुओं के दर्शन, वैयावृत्ति, आहारदान का लाभ होता, तब-तब वह वैराग्यमय भावना प्रबल होने लगती। करीब बारह वर्ष के भीतर साधु सत्संगति का लाभ होते-होते एक दिन वह आया कि हम इस त्याग मार्ग में आ गये। सारांश यह है कि ऐसे ही सद्गुरुओं के उपदेशों से अनेक आत्माएँ मोक्ष के मार्ग में चल पड़ती हैं। जिसकी साक्षी हमारे पुराणों में है तथा प्रत्यक्ष में भी वर्तमान में करीब पाँच सौ से अधिक पिच्छिधारी देश के कोने-कोने में स्व-पर का कल्याण कर रहे हैं। जो शताब्दी के महान् आचार्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी (दक्षिण) की देन है। ऐसे उन महान् गुरुओं की महिमा का बखान हम साधारण प्राणी क्या कर सकते हैं। फिर भी हमारे द्वारा जो कुछ लिखा गया है वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, जो कुछ भी लिखा गया है, वह केवल भावभक्ति है। पूज्य माताजी को शत-शत वन्दामि । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७ निकटमोक्षगामी -क्षुल्लक- श्री शीतलसागरजी महाराज (आ. श्री महावीरकीर्ति महाराज के शिष्य) गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के विषय में अभिनंदन ग्रंथ तैयार होने की जो योजना बनी है, उसे जान कर हर्ष ही नहीं, महान् हर्ष हुआ। आप जैसे धर्म-प्रभावक एवं धर्म-प्राण व्यक्तियों से ही महान् कार्य संभव होते हैं। आर्यिका ज्ञानमतीजी के विषय में क्या लिखें? जो कुछ लिखा जायेगा, वह अत्यल्प एवं सूर्य को दीपक दिखाना ही होगा। उन्होंने धर्मप्रभावना से सराबोर होकर एक तो जो जम्बूद्वीप की रचना कराई, वह आचन्द्र दिवाकर स्वयं के साथ जैन धर्म को प्रद्योतित करती रहेगी एवं अनेक बालयुवक तथा युवतियों को, जो जैनेश्वरी दीक्षा के मार्ग में लगाया, उसे कोई भी भव्यात्मा सहस्रों युगों तक भुला नहीं सकता। हमारा उन्हें सविनय वंदामि, हमारी आत्मा तो यह साक्षी देती है कि वे आगामी निकट भवों में शीघ्र ही तीर्थकर होकर मोक्ष प्राप्त करेंगी। सादर वंदनीय क्यों ? - क्षुल्लक श्री चितसागरजी शिष्य स्व. आचार्य श्री अजितसागर महाराज क्योंकि आप, लड़की रूप में जन्म लेकर बड़ा पुरुषार्थ प्रकट करके आर्यिका पदधारिणी बन गयी हैं। आपने, धर्म-मार्ग को प्रशस्त करनेके लिये अनेक श्रावक, श्राविकाओं को तथा नये व्रती-त्यागियों को प्रेरणा, प्रोत्साहन देकर मुक्तिमार्ग में लगाया है। आपने, स्वयं को पूर्ण शिक्षित किया और बाद में अनेक शिष्य-शिष्याओं को स्वहितार्थ, शिक्षित बनाया। आपने, बाल, युवा, वृद्ध, अवती, व्रती, विद्वानादि के लिए उपयोगी साहित्य का सृजन किया। आपने, सम्यक्दर्शन के कारणरूप भक्ति-मार्ग को वृद्धिंगत करने के लिए कई जिनपूजाएँ तथा कई विधान-ग्रंथों की रचना की। आपने, जम्बूद्वीपादि की रचना द्वारा जैन भूगोल को मूर्तिमंत बनाया और एक नया आश्चर्य, अबोध तथा अज्ञानी जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। ज्ञानज्योति का समग्र भारत में भ्रमण करवाकर अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत का प्रचार करवाया। आपने, सम्यक्ज्ञान-मासिक द्वारा चारों अनुयोगों की कथनी लाखों जैन जनता को सुनाई। आपने, देव पूजा का माहात्म्य सर्वत्र प्रकट करने के लिये हस्तिनापुर में ही पांच पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें करवाई। आपने, स्वयं महाव्रतों जैसे व्रतादि का पालन करती हैं, आपने भौतिकवाद को परास्त करने के लिए और विलीन हो रही पंडित परंपरा को पल्लवित करने के लिए "वीरसागर विद्यापीठ" की स्थापना कराई है। आपने, शारीरिक अस्वस्थता होते हुए, बिना चंदा-चिट्ठा किये भारत के क्षेत्रों की हजारों कि०मी० की पदयात्रा की। ऐसे अनेक अद्वितीय, अनुपम और आदरणीय धर्मप्रचारक, प्रेमवर्द्धक और प्रभावनापूर्ण कार्य किये हैं; अतः हमारा शत-शत वंदन है, नमन है, नमस्कार है। आपने, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संस्मरण - पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव से महावीर स्वामी पर्यंत तथा महावीर स्वामी के पश्चात् आज तक अनगिनत मुनि आर्यिकाएं हुए हैं जिनसे धर्मरूपी गंगा अविरलरूप से प्रवाहित हो रही है जिसमें असंख्य नर-नारी व पशु-पक्षी तक भी अवगाहन करके पुनीत हुए हैं तथा हो रहे हैं। उसी गंगा की एक धारा के रूप में परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी भी हैं जिनके ज्ञान व संयम रूपी पवित्र शीतल जल का पान करके अनेकों भव्य प्राणी सुख-शांति प्राप्त कर रहे हैं। ज्ञानमती माताजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अलौकिक है। बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी माताजी में ऐसे कौन से गुण हैं जो उनमें समाहित न हुए हों। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं। बाल्यकाल से ही जिन्होंने जैन समाज में प्रचलित मिथ्यात्वों का घोर विरोध करके सच्चे जिनधर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धान का परिचय प्रदान किया। धर्म के नाम पर की जाने वाली मिथ्या क्रियाओं का विरोध अपने घर से प्रारंभ किया। उन्होंने लघु भ्राता प्रकाशचंद को भयंकर चेचक होने पर भी माता की पूजा न करने देकर जिन प्रतिमा का गंधोदक लगाकर स्वस्थ कर दिया। “दुबले-पतले शरीर वाली छोटी उम्र की कुंवारी बालिका दीक्षा धारण नहीं कर सकती", बाराबंकी (उ.प्र.) में विराजमान आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के समक्ष उपस्थित हजारों नर-नारियों की इस बात को भी नकार कर जिन्होंने संयम को धारण कर संसार के लोगों को दिखा दिया कि बाराबंकी व परिवार के लोगों की वह भ्रांत धारणा थी। स्त्री पर्यायोचित उत्कृष्ट चारित्र के रूप में आर्यिका के व्रतों का निर्दोष पालन करते हुए विगत ४० वर्षों से सम्यक्चारित्र की ध्वजा दिग्दिगंत व्यापी लहरा रही हैं।। माताजी के सम्यग्ज्ञान के बारे में लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। ज्ञान का चमत्कार तो तभी से देखने को मिल रहा है जब जयपुर (राज.) में कातंत्र व्याकरण मात्र दो माह में पढ़कर तभी कंठस्थ कर ली। जिसे आज का विद्यार्थी ४ वर्ष में पढ़कर भी हृदयंगम नहीं कर पाता। माताजी के ज्ञानार्जन की कहानी भी बड़ी विचित्र है। सामान्य रूप से शिष्य गुरुओं से पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं, किन्तु माताजी ने शिष्यों को पढ़ाकर अपने ज्ञान का भंडार भरा। बड़े से बड़े ग्रंथ भी माताजी ने बिना पूर्व में पढ़े शिष्यों को पढ़ा दिये। ज्ञान के क्षेत्र में तो माताजी ने कीर्तिमान स्थापित कर दिया। ऐसी प्रतिभाशक्ति तो करोड़ों व्यक्तियों में से किन्हीं एक को प्राप्त होती है। मेरे देखने में वर्तमान जैन जगत् के किन्हीं भी साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका में देखने में नहीं आई कि जिनमें संपूर्ण विशेषताएं एक साथ प्रतिबिंबित हो रही हों-वक्तृत्व कला, गद्य-पद्य लेखन कला, चारों अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान, वास्तु कला के रूप में जम्बूद्वीप रचना, कमल मंदिर, ह्रीं में चौबीसी, कल्पवृक्ष द्वार, ध्यान केन्द्र, इन्द्रध्वज मंदिर आदि अद्वितीय निर्माण कार्यों की प्रेरणा, शिष्यों का संग्रह अनुग्रह निग्रह इत्यादि । जैन इतिहास में बीसवीं सदी की सर्वाधिक विशिष्ट उपलब्धि है महिला द्वारा ग्रंथों का निर्माण और वह भी एक-दो-चार नहीं, डेढ़ सौ से अधिक। पूज्य माताजी के संपर्क व सानिध्य में देश की बड़ी से बड़ी हस्तियां आईं। चाहे धार्मिक क्षेत्र हो, सामाजिक क्षेत्र हो या राजनैतिक । चा.च. आचार्य श्री शांतिसागरजी दक्षिण व उनकी परम्परा के पांच पट्टाधीश आचार्य- आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री शिवसागरजी तथा धर्मसागरजी का सानिध्य प्राप्त किया। आचार्य श्री अजितसागरजी को मुनि बनने की उत्कट प्रेरणा तो आपसे ही प्राप्त हुई। अब वर्तमान के षष्ठम पट्टाचार्य श्री अभिनंदनसागरजी महाराज ने भी आपके सामने ही मुनि दीक्षा धारण कर कुछ दिन आपसे ज्ञानार्जन भी किया। सामाजिक क्षेत्र में चाहे बड़े से बड़े विद्वान् हों या श्रेष्ठी सभी ने केवल आपके दर्शनों का ही नहीं, अपितु आपसे चर्चा व मार्ग-दर्शन का लाभ भी लिया है। विगत चालीस वर्षों में भारत के किसी भी कोने में रहने वाले व किसी भी भाषा के बोलने वाले शायद ही कोई विद्वान् ऐसे रहे हों जिन्होंने आपका आशीर्वाद प्राप्त न किया हो। ख्याति प्राप्त कोई भी श्रेष्ठी या कार्यकर्ता एक नहीं अनेक बार आपके पास आते रहे हैं तथा आपसे आशीर्वाद व मार्ग-दर्शन प्राप्त करते रहे हैं। आपसे भारत के तीन-तीन प्रधानमंत्रियों ने आशीर्वाद प्राप्त किया-श्रीमती इन्दिरा गाँधी, श्री राजीव गाँधी एवं श्री पी.वी. नरसिंह राव। उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी एवं श्री कल्याणसिंह के अतिरिक्त अनेक प्रादेशिक मंत्री तथा स्व. श्री ए.पी. शर्मा, श्री ब्रह्मदत्त, श्री प्रकाशचंद सेठी, श्री माधवराव सिंधिया, श्री चौधरी अजितसिंह आदि केन्द्रीय मंत्रियों, राज्यपाल आदि ने भी आपके पास आकर आशीर्वाद व प्रेरणाएं प्राप्त की हैं। सांसद एवं विधायक तो जब-तब आपके पास आते ही रहते हैं। वर्तमान के दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं को यथोचित सम्मान न देने वाले कांजी स्वामी भी दिगंबर जैन मंदिर राजा बाजार दिल्ली में आपके पास आये व चर्चा की। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के तीनों पंथों के आचार्य साधु-साध्वियों ने भी आपसे बड़े वात्सल्य से चर्चा परामर्श किये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जो जन-सामान्य अपने किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से आपके साक्षात् दर्शन नहीं कर सके वे आपके साहित्य को पढ़कर, आपकी लिखी पूजाओं को पढ़-सुनकर आपके परोक्ष दर्शनों का आनंद तो प्राप्त कर ही लेते हैं। संपूर्ण भारतवर्ष की जैन समाज का बच्चा-बच्चा आपके भक्ति रस में निमग्न हो रहा है। यदि यह कहा जाय कि पूजा भक्ति के क्षेत्र में "ज्ञानमती लहर" चल रही है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सैकड़ों वर्षों में इतने विधान नहीं हुए होंगे जितने विगत १५ वर्षों में हुए हैं व वर्तमान में हो रहे हैं। वर्ष के १२ महीने जिधर देखो उधर कहीं इन्द्रध्वज विधान, कहीं कल्पद्रुम विधान, तो कहीं सर्वतोभद्र विधान । कर्नाटक प्रदेश के सांगली नगर में सम्पन्न हुए कल्पद्रुम विधान में १५०० स्त्री-पुरुष पूजा में बैठे थे। श्रोता व दर्शक तो अनगिनत थे। इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में विधान पूजन करने कहीं लोग बैठे हों सुनने या पढ़ने में नहीं आया। यह सब कुछ माताजी की लेखनी का जादू है। जहाँ-जहाँ भी माताजी के लिखे विधान हो रहे हैं वहाँ के नर-नारियों से यही सुनने में आता है कि "हमारे यहाँ इतना बड़ा भव्य आयोजन पहली बार हुआ है इससे पहले इतना बड़ा पूजा का कार्यक्रम कभी नहीं हुआ और न ही कभी इतना आनंद आया। माताजी द्वारा किये गये ऐसे कौन से कार्य हैं जो अभूतपूर्व न हों। जम्बूद्वीप रचना ने तो सारे विश्व में धूम मचा दी है। क्या जैन क्या जैनेतर सभी भागे चले आते हैं हस्तिनापुर, उस भव्य मनोहारी जम्बूद्वीप रचना का दर्शन करने के लिए जो अन्यत्र दुर्लभ है। दर्शन करने के पश्चात् दर्शक के पास शब्द नहीं मिल पाते प्रशंसा करने के लिए। प्रशंसा करते-करते दर्शकों का जी नहीं भर पाता। अंत में यह कहकर अति आनंद की अनुभूति करते हैं कि माताजी ने तो स्वर्ग ही बना दिया। जम्बूद्वीप स्थल पर बना हुआ कमल मंदिर भारतवर्ष के हजारों जैन मंदिरों में अपने प्रकार का एकमात्र है। धातु की बनी चौबीस तीर्थंकर सहित विशाल ह्रीं की प्रतिमा भी अपने आपमें एक ही है आगे भले ही अन्यत्र इसकी प्रतिकृतियाँ बन जावें। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को यदि हम संक्षेप में जानना चाहते हैं तो हम कह सकते हैं कि संघर्ष एवं दृढ़ता का नाम ज्ञानमती माताजी है। माताजी ने गृह त्याग से लेकर आज तक जितने भी कार्य किये हैं उनके विरोध भी हुए, संघर्ष भी आये, किन्तु प्रत्येक कार्यों में सत्यता का पुट होने से दृढ़तापूर्वक उनका सामना किया, फलस्वरूप कोई भी कार्य ऐसा नहीं रहा जिसकी पूर्णता न हुई या सफलता प्राप्त न की हो। प्रत्येक कार्यों में यश प्राप्त किया। माताजी द्वारा किये गये प्रत्येक कार्यों के प्रारंभ में पहले तो लोगों को विश्वास नहीं हो पाता है कि यह कार्य हो भी जावेगा, किन्तु बाद में कार्य की पूर्णता व सफलता को देखकर वे लोग स्वयं आकर नतमस्तक होकर माताजी की प्रशंसा करते नहीं अघाते। लगता है यह क्रम शायद आगे भी चलता रहेगा और सफलता माताजी के चरण चूमती रहेगी। पूज्य माताजी के विषय में थोड़े में संस्मरण लिखना मुझ जैसे के लिए अति कठिन कार्य है। सन् १९६७ से १९९२ तक २५ वर्ष का एक लम्बा काल है, जिसमें पूज्य माताजी के संपूर्ण क्रिया-कलापों को देखने का एवं उनमें संलग्न रहने का अवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो माताजी ने अनेक विषयों का उल्लेख उनके द्वारा लिखे गये वृहत् कार्य ग्रंथ "मेरी स्मृतियाँ" में किया है। फिर भी माताजी के विषय में मेरा अपना जो अनुभव रहा है उसे लिखना मैं अपना पुनीत कर्त्तव्य समझता हूँ। बात है १९६७ में फरवरी में श्रवणबेलगोल में सम्पन्न हुए भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक महोत्सव के अवसर की। महामस्तकाभिषेक के अवसर पर मैं भी मस्तकाभिषेक देखने व करने उस समय वहाँ गया था। वहां कुछ साधुओं ने बातचीत के मध्य बताया कि तुम्हारे उधर इस समय ज्ञानमती माता ससंघ पहुँची हुई हैं, वे बहुत विद्वान् हैं तथा उनके प्रवचन भी ओजस्वी होते हैं उन्हें सनावद रोकना तथा चातुर्मास करने के लिए भी आग्रह करना। उनसे समाज के बच्चे-बच्चे को ज्ञान का लाभ मिलेगा। वे इस समय बड़वानी में विराजमान हैं। इस चर्चा ने मेरे मन में व्याकुलता पैदा कर दी। क्योंकि अभिषेक देखने के पश्चात् दक्षिण के तीथों के दर्शन की भावना भी थी और मन में यह भी उथल-पुथल मची हुई थी कि कहीं ऐसा न हो कि “मेरे घर पहुंचने से पहले ज्ञानमती माताजी सनावद होकर आगे निकल जावें, अतः मैंने श्रवणबेलगोल से अपने मित्रों को पत्र दे दिया कि "ज्ञानमती माताजी मेरे पहुंचने से पहले यदि सनावद आ जावें तो उन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करके कुछ दिन रोककर खूब प्रवचन कराना।" दक्षिण भारत के तीर्थों की यात्रा करके मैं जब वापस सनावद लौटा तो ज्ञात हुआ कि अभी माताजी बड़वानी की तरफ ही हैं इधर नहीं आयी हैं। कुछ दिनों बाद सूचना मिली कि ज्ञानमती माताजी ससंघ बैड़ियां (सनावद से १५ कि.मी. दूर) पधार चुकी हैं। तभी मैंने अपने एक मित्र श्री देवेन्द्र कुमार शाह को बैड़ियाँ जाकर मालूम करने के लिए कहा कि माताजी के संघ का किस दिन सनावद शुभागमन होगा। उन्होंने आकर बताया कि महावीर जयंती के अगले दिन वहाँ से प्रस्थान करेंगी। सनावद के समस्त जैन समाज को यह जानकारी दी गई। चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल की मंगल बेला में सैकड़ों नर-नारी-आबाल-गोपाल आर्यिका संघ की अगवानी के लिए बैंड बाजों के साथ नगर से २ कि.मी. दूर पहुँच गये। निकटस्थ ग्राम बडूद में रात्रि विश्राम के पश्चात् अत्यंत उल्लास पूर्ण वातावरण में सनावद नगर में संघ का आगमन हुआ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला रास्ते में माताजी लोगों से पूछने लगीं कि वे मोतीचंद कौन हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है। मेरे बारे में यह जानकारी उन्हें दो दिन पूर्व उनके पास भेजे गये देवेन्द्र कुमार शाह ने दे दी थी। लोगों ने माताजी से कहा कि ये पूजन करके आ ही रहे होंगे। ज्यों ही संघ मेरे निवास स्थान के सामने आया वैसे ही मैंने घर से बाहर आकर चरण वंदना की - नमस्कार किया। तभी अनेक लोगों ने एक साथ कहा कि ये ही वे मोतीचंद हैं जिन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले रखा है, फिर भी गृह जाल में फंसे हुए हैं (माताजी ने आशीर्वाद प्रदान करते हुए कुछ क्षण के लिए दृष्टिपात किया ।) वे ऐसे महान् क्षण थे जब मेरे द्वारा शिष्यत्व ग्रहण न करने के बावजूद भी माताजी ने आशीर्वाद देते हुए अपने मन में ही मुझे अपना शिष्य बनाने का भाव बना लिया । स्वागत जुलूस धर्मशाला पहुँच कर धर्म सभा के रूप में परिणत हो गया। मैंने समाज की तरफ से श्रीफल चढ़ाकर माताजी से आशीर्वचन प्रदान करने के लिए निवेदन किया। प्रवचन सुनकर सभी नर-नारी बहुत प्रभावित हुए। सभा समापन के तत्काल बाद ही माताजी ने मुझसे परिचय पूछा और तभी माताजी कह उठीं कि “जब आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर रखा है तब किसलिए गृह कारावास में फंसे हो, तुम्हें तो संघ में रहना चाहिये। समाज के विशेष आग्रह पर कुछ दिन संघ वहीं रहा जिससे धर्मामृत की वर्षा होती रही। सारा समाज तब तक संघ की सेवा भक्ति में तल्लीन रहा । संघ सनावद से सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट दर्शनार्थ गया। वहीं से इन्दौर गया विशेष पुरुषार्थ करके चातुर्मास के लिए संघ को पुनः सनावद लाया गया। आगम की आज्ञा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में चातुर्मास स्थापना के समय समाज ने सनावद में ही चातुर्मास स्थापना करने हेतु संघ से निवेदन किया। माताजी ने सनावद नगर में चातुर्मास करने की स्वीकृति प्रदान करने के साथ ही अपने प्रवचन में समस्त नर-नारियों के समक्ष गंभीर ध्वनि में कहा कि "अमोलकचंद जी अब मोतीचंद आपके नहीं हमारे है।" इस पर समस्त जन समुदाय हंस पड़ा, उनके साथ ही पिताजी अमोलकचंद जी भी हंस पड़े। उन्हें क्या मालूम था कि माताजी की यह उद्घोषणा एक दिन सत्य सिद्ध हो जावेगी। जबकि मैंने उस समय तक संघ में रहने का किंचित् मात्र भी निर्णय नहीं किया था। बल्कि संघ में रहने की बात सुनकर मुझे मन ही मन बड़ा अटपटा-सा लग रहा था। मैं स्वयं भी यह नहीं जानता था कि भविष्य में ऐसा ही होगा। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। विविध कार्यक्रमों के साथ एक-एक दिन व्यतीत होने लगा। माताजी ने प्रारंभ से ही मुझे यह कहना प्रारंभ कर दिया कि जब तुम सुबह, दोपहर, शाम को हमारे पास आते ही हो तो थोड़ा कोई विषय पढ़ लिया करो। अतः विशेष प्रेरणा से मैंने तीन-चार विषयों का अध्ययन प्रारंभ कर दिया। जब अध्ययन प्रारंभ कर दिया तो अब यह कहना शुरू कर दिया कि "अब घर छोड़ो व संघ में रहने की हां भरो। संघ में रहने की बात सुनकर मुझे बड़ा भय-सा लगने लगता कि संघ के मध्य किस प्रकार से सुखपूर्वक खाना-पीना, सोना-उठना बैठना हो सकेगा। मैं दो-तीन माह तक हां कहने के लिए टालता रहा। जबकि माताजी ने करुणा-वश हां कराने के लिए कई बार वस्तुओं का त्याग भी किया कि जिससे मैं किसी तरह से हां कर दूं । इस वातावरण के मध्य एक महान् विषय जम्बूद्वीप रचना निर्माण का भी आया माताजी ने अपने प्रवचनों में श्रोताओं को परोक्ष रूप में अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात्वत् कराई। तब कतिपय मेरे साथी युवकों ने उक्त रचना को सिद्ध क्षेत्र सिद्धवरकूट पर बनवाने के लिए अधक प्रयत्न किया। माताजी ने हम चार नवयुवकों-मैं (मोतीचंद), विमलचंद, श्रीचंद व त्रिलोकचंद से यह लिखवाकर वचनबद्ध कराया कि "इस रचना को हम चारों लोग तन-मन-धन से लगकर पूरी करावेंगे।" मैंने तो यह सोचकर हस्ताक्षर कर दिये कि घर भी नहीं छूटेगा और समीप में यह विश्व प्रसिद्ध रचना बन जावेगी। कतिपय कारणों से सिद्धवरकूट में वह रचना नहीं बन सकी, किन्तु इस बहाने संघ में रहने के लिए माताजी ने मुझसे हां करा ली। फिर भी मैं यह बात (संघ में रहने की) माता-पिता को बताने की हिम्मत नहीं कर सका। जब माताजी चातुर्मास के पश्चात् मुक्तागिर सिद्धक्षेत्र की यात्रा करके आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ में पहुँच गई। तब मैं मन को कड़ा करके मन में यह सोचकर कि अब मुझे वापस लौटकर घर में नहीं रहना है पूर्ण तैयारी करके यह कहकर रवाना हुआ कि "माताजी का स्वास्थ्य खराब है मैं उनके दर्शन करने जा रहा हूँ। यह कहकर मैं सनावद से बांसवाड़ा (राज.) माताजी के पास पहुँच गया, पुनः घर में रहने के निमित्त से वापस नहीं गया। संघ में आने के पश्चात् मैंने अपने आपको माताजी के चरणों में अर्पित कर दिया। इसके पश्चात् तो जो कुछ भी हुआ वह माताजी ने अपने ग्रंथ "मेरी स्मृतियाँ" में उल्लिखित किया है। यहीं इस प्रसंग में एक बात और याद आती है कि जब माताजी मुझसे घर छोड़कर संघ में रहने के लिए हाँ करवा रही थीं तब मैंने माताजी से एक शर्त स्वीकार करवाई कि "आप मुझे किसी भी प्रकार के त्याग और संयम की प्रेरणा नहीं देगी जिसे माताजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। क्योंकि माताजी यह जानती थीं कि संघ में आने पर अन्य साधु स्वयं ही प्रेरणा देंगे। और मैं त्याग से इसलिए डरता था कि उन दिनों मेरा स्वास्थ्य बहुत खराब रहता था। घर छोड़कर आने से पूर्व मेरे मुंह में इतने छाले रहते थे कि महीने में बीस दिन तो बोलने तक में कठिनाई होती थी। छालों से भारी कष्ट था ऐसा लगता था कि इस बीमारी से इस जीवन में मुक्ति नहीं मिलेगी, किन्तु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२१ किन्तु आज मुझे यह कहते हुए हर्ष व गौरव होता है कि संघ में आना मेरी स्वस्थता के लिए वरदान बन गया। संघ में रहकर संयमित भोजन करने से वह बीमारी सदा-सदा के लिए तिरोभूत हो गई। रहा सवाल त्याग और संयम धारण न करने की प्रेरणा का । सो वही हुआ जो होना था। माताजी ने तो प्रेरणा नहीं दी, किन्तु आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की दीक्षा से मन ही मन तीव्र प्रेरणा मिली। और आज मैं पांच वर्षों से क्षुल्लक पद के व्रतों का भली प्रकार से निर्वाह कर रहा हूँ। विगत २५ वर्षों में लाखों ग्रंथों का प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका का १८ वर्षों में लगभग ८-९ लाख अंकों का प्रकाशन, जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भारत यात्रा, जम्बूद्वीप रचना व अन्य जिनालयों का निर्माण आदि जो भी कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ वह सब पूज्य माताजी की कृपा प्रसाद का ही सुफल है। मैं तो भगवान जिनेन्द्र से यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरे जीवन काल तक माताजी की छत्र छाया बनी रहे जिससे धर्म की सेवा एवं आराधना करने की नूतन प्रेरणाएं प्राप्त होती रहें। निःस्वार्थ धर्मसेविका -क्षुल्लकरत्न पू० श्री जयकीर्तिजी महाराज भक्तामर में कहा है "स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् (पुत्रीन्), नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥" वैसे ही एक पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से दशदिशाज्ञानदीप से और जम्बूद्वीप की प्रतिकृति से शाश्वत क्षेत्र की उज्ज्वलता, अमरत्व, न भूतो न भविष्यति और अलौकिक कृति ये सभी के स्मृति में हमेशा रहेगी, जब तक सूर्यचंद्र हैं तब तक इसका कोई बिगाड़ न होगा। पू० माताजी ने निःस्वार्थ धर्मसेवा जिनवाणी का प्रचार-प्रसार किया इससे धर्म का उद्धार, समाज का उद्धार, कुल का गौरव, देश का, गाँव का गौरव बढ़ा है। बचपन से ही आप में भी माँ के सुसंस्कार थे और घर में ही स्वाध्याय की रुचि होने से ज्ञान बढ़ गया। पूज्य माताजी के सारे सुलक्षण देखकर और हर एक कार्य में धैर्य और वीरता देखकर देशभूषणजी महाराज ने क्षुल्लिका दीक्षा का नाम वीरमती रखा। आगे आ० श्री शांतिसागरजी महाराज के पट्टशिष्य आ० वीरसागरजी महाराज से आर्यिका ज्ञानमती बनकर जगभर में ज्ञानज्योति को प्रज्वलित किया। मैं एक-दो बार हस्तिनापुर गया था, ८ दिन रहा था, साथ में कोल्हापुर के भट्टारकरत्न लक्ष्मीसेनजी महाराज भी थे, मैंने माताजी को बहुत ही पास से देखा, वे वात्सल्य की मूर्ति हैं। ब्र० रवीन्द्र कुमारजी ने जम्बूद्वीप और पूरा क्षेत्र दिखाया, सो बड़ा आनंद आया। पूज्य माताजी त्याग-संयम की मूर्ति हैं। ____ पूज्य माताजी ने प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी से ४ जून १९८२ को दिल्ली से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ चलवाया, जो भारत में जैनों का अद्वितीय रथ था एवं भारत का गौरव था, जैन धर्म की शान थी, सो माताजी की प्रेरणा और आशीर्वाद से ज्ञानज्योति भारत भर में घूमकर जैन धर्म की उच्चकोटि की प्रभावना की और जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) की गौरव गाथा को भारत के कोने-कोने में प्रचार और परिचय प्राप्त हुआ था, ये घटना अमर रहेगी, इतिहास में सुवर्ण अक्षरों में लिखी रहेगी। पूज्य माताजी ने परम विवेक से जान लिया कि आज के भौतिक युग में रुचि बढ़े, आबाल-वृद्धों को प्रिय लगे, सर्व सामान्य जनता को सहज-सुलभ चारों अनुयोगों का स्वाध्याय हो ऐसा स्वहस्तलिखित “सम्यग्ज्ञान" मासिक निकाला, उसमें कपोल-कल्पित साहित्य का विषय नहीं रहता है, केवल देवगुरु शास्त्र की आज्ञा से समीचीन विषय का प्रतिपादन रहता है। ऐसी ज्ञान की मूर्ति पूज्य माताजी के पावन चरणकमलों में शत-शत नमन । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी" - स्वस्ति श्रीलक्ष्मीसेन भट्टारक पट्टाचार्य महास्वामीजी कोल्हापुर [ महाराष्ट्र ] ज्ञानमती माताजी ने अपनी धर्ममय जीवन साधना से हस्तिनापुर की भूमि आलोकित कर रखी है। आपकी धर्मश्रद्धा, निष्ठा, लगन ने एक चमत्कार ही कर दिखाया है। जैन परंपरा के कठोर तप, विशुद्ध आचरण के द्वारा आपने जैन समाज की त्यागी-परंपरा को संबल प्राप्त करा दिया है। अविरल प्रयत्नों से आपने हस्तिनापुर का धर्म वैभव पुनः प्राप्त करा दिया है। ____ आपने अपने जीवन में करुणा की, सद्भावना की और धर्म मांगल्य की उच्चतम साधना कर धर्म-मार्ग को प्रशस्त किया है। भगवान महावीर के "जैनं जयतु शासनम्" का उद्घोष दशदिशाओं में सुप्रचारित किया है। अनेक आगम ग्रंथों का अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित किया। यह आपकी आगम सेवा अटूट धर्मश्रद्धा का परिचय कराती है। आपने अपनी साधना से, आराधना से और मांगल्यपूर्ण कर्म-कर्तृत्व भाव से इस भव को समुन्नत किया है। इस जीवन में इतनी बड़ी साधना करना बहुत ही कठिन कार्य है। फिर भी आत्मवीर्य के द्वारा आपने धर्म, समाज और साहित्य की जो सेवायें की हैं, वे निश्चित ही मोक्षमार्ग को अधिक प्रशस्त करती हैं। आपका जीवन अधिकाधिक धर्ममय, साधनामय और स्व-पर कल्याणमय होवे ऐसी धर्ममय भावना से इस भावांजलि को स्वीकार करें। सुज्ञेषु किमधिकम्। वर्धतां जिनशासनम् । इति भद्रं भूयात् । चिन्तनशील साधिका -श्री चारुकीर्ति भट्टारक स्वामीजी श्रवणबेलगोला आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है सुनकर सन्तोष हुआ। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी सुप्रसिद्ध लेखिका एवं चिन्तनशील साधिका है। आपके व्यक्तित्व में सरलता के साथ सहृदयता के दर्शन होते हैं। हिन्दी, संस्कृत एवं कन्नड़ भाषाओं में आपने अनेक कृतियों की रचना की है। आपकी रचना में स्पष्टवादिता, निर्भीकता और ओजस्विता स्पष्ट झलकती है। जम्बूद्वीप की रचना और कमल मंदिर के निर्माण द्वारा आपने नये इतिहास का निर्माण किया है। आपने कवित्व के द्वारा अनेक पूजा साहित्य का सृजन किया है। इन्द्रध्वज विधान, सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम आदि प्राचीन पूजा विधानों को नया आयाम दिया है। आपने सम्यग्ज्ञान पत्रिका के द्वारा चारों अनुयोगों का प्रचार-प्रसार कर उल्लेखनीय प्रभावना की है। प्राचीन काल की आर्यिकाओं द्वारा ग्रन्थ रचना नहीं मिलती है, लेकिन वर्तमान काल में आपने अपने सुयोग्य ग्रंथ संपादन एवं स्वतंत्र मौलिक रचना के द्वारा आर्यिकाओं की प्रतिभा शक्ति का प्रदर्शन कर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है। इस अवसर पर हम उन्हें हार्दिक अभिवंदन करते हुए विनयांजलि समर्पित करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२३ सौम्य, सरल, सादगी की प्रतिमूर्ति -ज्ञानयोगी स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी मूडबिद्री [कर्नाटक] परम पूज्य गणनायिका, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानयोगिनी, जगन्मंगला, श्री ज्ञानमती माताजी को अभिवंदन समर्पण विनयांजलि विषय सुनते ही हम हर्ष-विभोर हुए हैं। "नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति" यह आर्षोक्ति अक्षरशः सार्थक हुई है। श्री जगन्मंगला ज्ञानमती माताजी सौम्य, सरल-सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। न केवल माताजी ज्ञानमती हैं, किन्तु वे विशुद्ध, सुसिद्धमती भी हैं, ज्ञानयोगिनी भी हैं-दर्पण जैसे, "वक्त्रं वक्ति हि मानसं" तत्त्व को प्रतिबोधित करती हैं। उनसे मेरा अनेक स्थानों पर दर्शन करने का सुअवसर एवं सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे अत्यंत सरल सौम्य की प्रतिमूर्ति हैं, उनसे वार्तालाप एवं वचनामृत सुनने का सुअवसर मिला, मन को अतीव शान्ति मिली थी। उनका अभिवन्दन ग्रंथ समर्पण करना स्तुत्य एवं अभिनंदनीय है। अभिवंदन-वाणी समन्ततः भद्र हो, उनकी "श्रीवाक्" श्री समन्तभद्र वाणी हो, यही हमारा सत्कामना मनोरथ है। श्री जिनेन्द्र अर्हच्चरणों में वन्दना, निवेदना प्रार्थना है। भद्रं भूयात् वर्धतां जिनशासनम् । माता में गुण बहुत हैं - क्षुल्लिका श्री शांतिमतीजी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के गुणों का वर्णन कौन कर सकता है ? माताजी बाल ब्रह्मचारिणी हैं। आपने अनेक शास्त्रों की रचना की और आपकी प्रेरणा से जम्बूद्वीप की रचना, महावीर कमल मंदिर, तीनमूर्ति मंदिर का निर्माण हुआ। आप महातपस्वी हैं। आप अध्ययन में सदा लीन रहती हैं। आप दया और क्षमा की मूर्ति हैं, आपके गुणों का हम तुच्छ बुद्धि कहाँ तक वर्णन करें ? सन् १९८७ में हमको विहार करते समय स्कूटर ने गिरा दिया। बरनावा के रास्ते से हम आपके पास हस्तिनापुर पहुँचे, आपने हमको सँभाला। सागर में जल बहुत है, गागर में न समाय, माता में गुण बहुत हैं- मुख से कहें न जाय ॥ "प्रथम आगमन वरदान बन गया" -क्षल्लिका श्री श्रद्धामतीजी [शिष्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी] सन् १९८५ में मैं जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पर अपने पारिवारिकजनों के साथ हस्तिनापुर आई थी। उसके बाद पूज्य माताजी का मुझे खूब प्रेम मिला अतः मेरा घर जाने का मन नहीं हुआ। यहाँ रहकर धार्मिक स्वाध्याय, उपदेश आदि के समागम से मेरे मन में वैराग्य भाव बढ़ता गया। घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी से मैं लगभग मुक्त हो ही चुकी थी अतः माताजी की ही छत्रछाया में मैंने अपना शेष जीवन बिताने का निर्णय किया। कुछ ही समय पूर्व आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की दीक्षा के पश्चात् मेरे मन में भी कुछ दीक्षा के भाव उत्पन्न हुए, किन्तु संकोच के कारण मैं उसे किसी के सामने कह न सकी। एक दिन चन्दनामती माताजी ने मुझे कुछ सम्बोधन किया और मेरी इच्छा जानकर उन्होंने पूज्य बड़ी माताजी से मेरी दीक्षा के लिए निवेदन किया। मुझे आशा नहीं थी कि इतनी जल्दी मेरी प्रार्थना स्वीकार हो जाएगी, किन्तु यह मेरा भाग्य ही था कि पूज्य माताजी ने अपनी जन्मजयंती के दिन ही १५ अकूटबर १९८९ को हस्तिनापुर में मुझे क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर "श्रद्धामती" नाम रखा। लगभग ३ वर्षों से मेरी निराबाध साधना चल रही है। मैंने ७-८ वर्षों में माताजी के सानिध्य से जो कुछ प्राप्त किया है उसे कलम के द्वारा लिखा नही जा सकता है । मैंमाताजी के चरणों में वन्दामि करती हुई यही भावना भाती हूँ कि आपके ही मंगल सानिध्य में मुझे जीवन का अन्तिम लक्ष्य समाधि मरण प्राप्त होवे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला राज्यपाल SRO उत्तर प्रदेश राज भवन लरतनऊ मार्च 251992. सन्देश यह जानकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्री ज्ञानमती माताजी के उत्कृष्ट जीवन के 58 वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, मेरठ के नेतृत्व में एक वृहद् अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है ।। श्री ज्ञानमती माता जी एक महान् देश-सेविका, परम विदुषी, साध्वी, शिक्षा, साहित्य, समाज सेवा में अग्रणी, जैन धर्म की मूल परम्परा में दीक्षित, जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, गणिनी, आर्यिकारत्न हैं जिन्होंने सम्पूर्ण भारत की पद यात्रा, ज्ञानज्योति प्रवर्तन, संगोष्ठी/सेमिनारों के आयोजन एवं वीरज्ञानोदय, ग्रन्थमाला में प्रकाशित शताधिक ग्रन्थों के माध्यम से अहिंसक जीवन शैली, राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में महान् योगदान दिया है । छोटे बड़े गांवों में जाकर जातीय एकता, नैतिकता और अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया । उनकी सेवाओं के सम्बन्ध में जितनी प्रशंसा की जाये कम है। आशा है इस अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से समाज का हर वर्ग उनके आदर्श जीवन तथा महान् व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रेरणा प्राप्त करेंगी और उनका अनुकरण कर राष्ट्र सेवा एवं जनकल्याण में लगेंगी। ___ अभिनन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनायें । #२५८५1) १९५४ (बी0 सत्यनारायण रेड्डी) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सत्यमेव जयते प्रधान मंत्री संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि माता ज्ञानमती जी के बहुआयामी सामाजिक तथा साहित्यिक कार्य को देखते हुए दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर द्वारा एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है । मुझे यकीन है कि यह अभिनन्दन ग्रंथ दार्शनिक एवं साहित्यिक महत्व के मामलों पर प्रकाश डालेगा । ५.2. पी0वी0 नरसिंह राव नई दिल्ली 20 मई, 1992 For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] डॉ. मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला Jain Educationa International मुझे यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। पूज्य माताश्री के दर्शन एवं सानिध्य का सौभाग्य मुझे पिछले वर्ष उनके जन्म दिवस उत्सव के अवसर पर सरधना में प्राप्त हुआ था। जो मेरे लिए सदैव स्मरणीय है। राष्ट्र की ऐसी महान संत एवं विद्वान् एवं तपस्वी का अभिनन्दन कर हम स्वयं को गौरवान्वित करते हैं। समिति का यह प्रयास वास्तव में श्लाघनीय है । ग्रन्थ अद्वितीय हो एवं राष्ट्र तथा समाज के लिए प्रेरणास्त्रोत हो। ग्रन्थ की सफलता की शुभकामना करता हुआ पूज्य श्रीमाताजी के प्रति अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ। सस्नेह भारतीय जनता पार्टी Bharatiya Janata Party मुख्य मंत्री उत्तर प्रदेश सन्देश डा० मुरली मनोहर जोशी For Personal and Private Use Only आपका सचिवालय एनेक्सी यह हर्ष का विषय है कि जैन साध्वी श्री ज्ञानमती माताजी की बहुआयामी सेवाओं तथा आध्यात्मिक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की भावना से दिगम्बर जैन समाज मेरठ के नेतृत्व में एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना बनाई है। लखनऊ दिनांक: 6 मार्च, 1992 आशा है कि अभिनन्दन ग्रन्थ में श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा अहिंसा, साम्प्रदायिक सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता की भावना को बलवती बनाने की दिशा में किये गये प्रयासों को उजागर किया जायेगा और इससे पाठकों को सदप्रेरणा प्राप्त होगी। अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये मेरी शुभकामनाये। hamunda 8 कल्याण सिंह 8 . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२७ सुन्दरलाल पटवा मुख्य मंत्री मध्यप्रदेश शासन भोपाल, 462004 संदेश यह जानकर प्रसन्नता हुई कि दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा न्यायप्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की सेवाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए अभिनंदन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। अपनी लेखनी तथा अन्य अकादमिक गतिविधियों से साधकों व धर्मालुओं का मार्गदर्शन करने वाली श्री ज्ञानमती माताजी का समाज सदा ऋणी रहेगा। ऐसी महान् आत्माओं द्वारा की गई मानवसेवा के लिए उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए कितने ही अभिनंदन ग्रन्थ अपर्याप्त होंगे, परन्तु समाज का यह विनम्र प्रयास उनके प्रति अगाध श्रद्धा का परिचायक है। मैं श्री ज्ञानमती माताजी के चिरायु होने तथा अभिनंदन ग्रन्थ की सफलता की कामना करता हूँ। bryam. [सुन्दरलाल पटवा] गृह मंत्री भारत नई दिल्ली-११००.१ HOME MINISTER INDIA NEW DELHI-110001 DHAR सत्यमेव जयते सन्देश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन करने जा रहे हैं। श्री ज्ञानमती माताजी के विचार धार्मिक सहिष्णुता और साम्प्रदायिक सद्भाव के द्योतक हैं। जो न केवल जैन समाज, बल्कि सभी के लिए हितकर हैं। आज के तनावपूर्ण वातावरण में इससे आपसी मेलभाव बढ़ाने में बल मिलेगा। आपके आयोजन की सफलता के लिए मेरी शुभकामनाएं। शंकरराव चव्हाण Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] सत्यमेव जयते वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संदेश मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर जिला मेरठ (उ०प्र०) द्वारा सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन के ५८ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर एक वृहत् अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। मुझे पूर्ण आशा है कि अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित की जाने वाली सामग्री उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर समुचित प्रकाश डालेगी। मैं अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ । कृषि मंत्री भारत नई दिल्ली-110001 MINISTER OF AGRICULTURE INDIA NEW DELHI-110001 Jain Educationa International [बलराम जाखड़ ] जल संसाधन मंत्री भारत नई दिल्ली MINISTER OF WATER RESOURCES INDIA NEW DELHI सन्देश यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री ज्ञानमती - अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन समिति द्वारा पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है महापुरुषों के अभिनन्दन की प्राचीन काल से चली आ रही परम्परा को कायम रखने हेतु आपका यह प्रयास प्रशंसनीय है। मैं आशा करता हूँ कि इस ग्रंथ के प्रकाशन से श्री ज्ञानमती माताजी की शिक्षाओं, आदर्शों एवं पुनीत कार्यों का समाज में प्रसार हो सकेगा और इससे लोगों में नैतिकता एवं त्याग की भावना का विकास हो सकेगा, जिसकी वस्तुतः आज के वातावरण में आवश्यकता है। अभिनन्दन ग्रंथ के सफल प्रकाशन की मैं कामना करता हूँ। For Personal and Private Use Only [विद्याचरण शुक्ल ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२९ एम0एम0 जैकब गृह एवं संसदीय कार्य राज्य मंत्री भारत नार्थ ब्लाक, नई दिल्ली-११०००१ MINISTER OF STATE FOR HOME AND PARLIAMENTARY AFFAIRS INDIA NORTH BLOCK, NEW DELHI-110001 मयमेव जयते संदेश यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती-अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशन समिति पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन कर रही है। जाति एकता, नैतिकता और अहिंसा की प्रेरणा-स्रोत ऐसी विभूतियों ने भारत की संस्कृति को शताब्दियों से परिपुष्ट किया है। ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के बारे में ग्रंथ की रचना वस्तुतः एक श्लाघनीय प्रयास है। मैं इस सिलसिले में ८ अक्टूबर से ११ अक्टूबर, १९९२ तक हस्तिनापुर में आयोजित समारोह की सफलता के लिए शुभकामनाएं भेजता हूँ। [एम०एम० जैकब] रामेश्वर ठाकुर RAMESHWAR THAKUR वित्त राज्य मंत्री (राजस्व) भारत नई दिल्ली MINISTER OF STATE FOR FINANCE (REVENUE) INDIA FW DELHI ग सन्देश मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है और इस उपलक्ष्य में ८ से ११ अक्टूबर, १९९२ तक एक विशाल समारोह आयोजित किया जाएगा इस शुभ कार्य के लिए आयोजक बधाई के पात्र हैं। मैं समारोह की सफलता की कामना करता हूँ। सादर, [रामेश्वर ठाकुर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला مرکزی نائب وزیرتجارت یدکی SALMAN KHURSHID वाणिज्य उप मन्त्री भारत DEPUTY MINISTER MINISTRY OF COMMERCE INDIA NEW DELHI-110011 नयमापन संदेश "मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई कि हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में इस अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। महापुरुषों के अभिनंदन की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसके क्रम में आपका यह एक उल्लेखनीय कदम है। पूज्य माताजी के कर कमलों द्वारा अनेकानेक शुभ कार्य किये गये जिन्हें सर्वथा याद रखा जायेगा। इस अभिनंदन ग्रंथ के सफलतापूर्वक प्रकाशन हेतु मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें।" Min सो [सलमान खुर्शीद] राम लाल राही उप गृह मंत्री भारत नार्थ ब्लाक, नई दिल्ली-११०००१ DEPUTY MINISTER OF HOME AFFAIRS INDIA NORTH BLOCK, NEW DELHI-110001 मन्यमवगाते "गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशन समिति" ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिवदंन ग्रन्थ का प्रकाशन करने जा रही है. यह प्रसन्नता की बात है। ऐसे प्रकाशन का इस समय महत्त्व है, क्योंकि व्यक्ति और समाज निहित स्वार्थों में है, मानो जाति और धर्म उन्माद ही उसकी प्रगति और विकास का मार्ग हो। राष्ट्रीयता और मानवता गौण-सी हो गयी है, समाज को विघटित करने वाली स्थिति है। इसी स्थिति से उबरना है तभी सर्व धर्म सम्मान के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे और मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीने के लिये मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। ____ मुझे विश्वास है कि इस प्रकाशन से निश्चित ही लोगों के अतंरमन में प्रकाश उपजेगा और उन्मादी-हीनता से मुक्त जीवन जीने का मार्ग सशक्त होगा। प्रकाशन की सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं। आपका (E [राम लाल राही] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३१ एजाज रिज़वी फोन :- कार्यालय -241194 सी. एच.-8778 आवास -241200 मंत्री, खाद्य एवं रसद, मुस्लिम वक्फ, उत्तर प्रदेश तर प्रदेश विधान भवन, लखनऊ। सन्देश यह जानकर हर्ष हुआ कि परम पूज्य श्री ज्ञानमती माता के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन हस्तिनापुर से किया जा रहा है। भारत भूमि आदि काल से विचारकों, मनीषियों, शान्ति एवं अहिंसा के पुजारियों की तपोस्थली रही है। श्री ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रतीक बनकर सम्पूर्ण हिन्दुस्तान में एकता, नैतिकता एवं अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया है और इस ऐतिहासिक ज्योति को हस्तिनापुर में अखण्ड रूप से स्थापित कर दी गई है। ज्ञान की इस देवी ने लगभग १३५ ग्रन्थों का सृजन कर साहित्य को एक अमूल्य निधि प्रदान किया। मुझे आशा है कि इस अवसर पर प्रकाशित अभिनन्दन ग्रन्थ पूज्य माताजी के अद्भुत कृतत्व एवं व्यक्तित्व पर ज्ञानवर्धक सामग्री पाठकों को प्रस्तुत करने में सामयिक और उपयोगी सिद्ध होगी। आयोजन की सफलता के लिए शुभकामनायें। [एजाज़ रिज़वी] सुधीर कुमार बालियान कार्यालय : 248526 फोन; २ (आवास : 241129 मंत्री सहकारिता विधान भवन प्रणा लखनऊ सन्देश यह प्रसन्नता का विषय है कि जैन समाज की प्रतिष्ठित साध्वी जम्बूद्वीप निर्माण की प्रेरिका श्री ज्ञानमती माताजी के अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है और इस अवसर पर हस्तिनापुर में समारोह का आयोजन किया जा रहा है। आशा है इस ग्रन्थ प्रकाशन से जैन धर्म के विषय में और अधिक जानकारी तो प्राप्त होगी ही, साथ ही जम्बूद्वीप निर्माण की प्रेरिका ज्ञानमतीजी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व की जानकारी भी प्राप्त होगी। मैं अभिवंदन प्रकाशन के अवसर पर शुभकामनाएँ देता हूँ। finity [सुधीर कुमार बालियान] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला विधान सभा लखनऊ । पर प्रद "सन्देश" मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिवंदन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है व इस ग्रन्थ का समर्पण समारोह ८ अक्टूबर से ११ अक्टूबर १९९२ तक विशाल आयोजन के मध्य हस्तिनापुर में किया जायेगा। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ के प्रकाशन से देश के नागरिकों एवं अनुयायियों को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन के आदर्शों एवं चरित्र के बारे में जानकारी मिलेगी और वे उनके द्वारा बताये गये मार्ग पर चल कर पाये मानव जीवन को सफल बनायेंगे। उक्त अभिवंदन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता एवं समारोह के सफल आयोजन हेतु हार्दिक शुभ-कामनायें। ntre) [मस्तराम] ब्रह्मदत्त द्विवेदी राजस्व मंत्री, उ०प्र० (प्रावास : 249893 फोन नं० कार्यालय : 213347 ( CH: 8642 विधान भवन लखनऊ सन्देश मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई है कि हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। मैं उक्त अभिनन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की ईश्वर से कामना करता हूँ। हरोईस) [ब्रह्मदत्त द्विवेदी] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३३ त्रा विधान भवन, लउनऊ, दिनांकः मलाई, 1992 प्रेमलता कटियार नत्रा . नर विकास। तर प्रह संदेश यह जानकर प्रसन्नता हुई कि हस्तिनापुर (मेरठ) में निर्मित जम्बूद्वीप निर्माण की प्रेरणा प्रदान करने वाली आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है और अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण का आयोजन किया गया है। गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने अपने प्रवचनों से जनसाधारण को ज्ञान एवं आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन किया उन्होंने १९६५ के श्रवणबेलगोल चातुर्मास में भगवान बाहुबलि के चरणसानिध्य में लगभग १५० से भी अधिक ग्रन्थों की रचना कर अमृतत्व प्रदान कराया। आशा है श्री ज्ञानमती अभिनन्दन ग्रन्थ में श्री ज्ञानमतीजी के व्यक्तित्व के साथ ही उनके द्वारा रचित एवं अब तक अप्रकाशित प्रवचनों को भी प्रकाशित किया जायेगा। मैं आयोजन की सफलता एवं अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की कामना करती हूँ। Ihman dita [प्रेमलता कटियार] जयन्त कुमार मलया राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) पावास एवं पर्यावरण मध्यप्रदेश निवास : 55557 654256 कार्यालय : 651259 पतिथि गृह, राजधानी परियोजना प्रशासन, चार इमली संदेश अत्यन्त हर्ष का विषय है कि गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी की सेवाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये एक वृहद् अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन दिगम्बर जैन शोध संस्थान हस्तिनापुर द्वारा किया जा रहा है। समाज में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह एवं साम्प्रदायिक सद्भाव की आज महती आवश्यकता है। इन मूल्यों को समाज में चरितार्थ करने वाले महापुरुषों का अभिनन्दन निश्चय ही एक स्तुत्य प्रयास है। श्रद्धास्वरूपा सुश्री ज्ञानमतीजी की महान् सेवाओं के उपलक्ष्य में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ समाज में शाश्वत मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा की दिशा में सम्यक् प्रेरणा देगा। अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए मेरी शुभकामनाएं। ishore [जयन्त कुमार मलैया] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अजित सिंह, संसद सदस्य मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि हस्तिनापुर स्थित जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। दो साल पूर्व में भी इस पावन भूमि पर आया था और माताजी के दर्शन किया था। पूजनीया माताजी ने नारी समाज को तो गौरवान्वित किया ही है, यहां जम्बूद्वीप की स्थापना कर हमारे उत्तर भारत को जो अमूल्य धरोहर प्रदान की है, प्रशंसनीय है। उनके सम्मान में निकाले जा रहे अभिनन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन की मैं कामना करता हूँ। आपका [अजित सिंह] IAN NATION J.K. JAIN Ex. M.P. Jt. Secretary All India Congress Committee (0) 19 Park Area, New Delhi-110 005 Off.: 3011559,3019080 Res.:7772626,7776677 CONGRESS "विनयांजलि" मैंने युवावस्था से गणिनी ज्ञानमती माताजी का नाम सिर्फ सुना ही न था, किन्तु कई बार उनके दर्शन भी किए थे, घनिष्ठता उस समय हुई जब माताजी ने जम्बूद्वीप रचना की एक वृहद् योजना तैयार की। उस समय से लेकर अब तक बराबर सम्पर्क बना हुआ है। जम्बूद्वीप की प्रतिकृति (ज्ञानज्योति) का देश में प्रवर्तन हुआ, उसका उद्घाटन श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा सन् १९८२ में दिल्ली से किया गया था। जम्बूद्वीप पर एक सफल सेमीनार दिल्ली में आयोजित किया गया जिसका उद्घाटन श्री राजीव गांधी द्वारा किया गया था। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री पी०वी० नरसिम्हाराव (उस समय के रक्षा मंत्री) द्वारा हस्तिनापुर में ज्ञानज्योति की चिरकालीन स्थापना की गई। इस सभी कार्यों में जो भी योगदान मैंने दिया है वह केवल माताजी की सौम्यमूर्ति एवं उनके सरल स्वभाव के कारण ही हुआ है। ज्ञानमती माताजी का यह अभिनन्दन भारतीय संस्कृति एवं अहिंसा धर्म का अभिनन्दन है। इस वृहद् कार्य के लिए पूज्य माताजी को विनयांजलि एवं मेरी शुभ कामनाएँ प्रेषित हैं। ज के जेन (जे.के. जैन) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ A Dr. J.K. Jain Merrber of Parliament (Rajya Sabha) सन्देश मुझे ये जानकर असीम प्रसन्नता हुई है कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की पावन प्रेरिका, परम विदुषी, साध्वी, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु एक वृहद् अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय लिया है। पूज्य माताजी ने अपने ५८ वर्ष के जीवन काल में धर्म एवं समाज के प्रति जो कार्य किये हैं, वे अपने आप में अपूर्व हैं। ग्रंथ के माध्यम से प्रतिष्ठापित उनके आचार एवं विचार युग-युगान्तर तक हमारा तथा आने वाली पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे और शांति-समृद्धि से परिपूरित समाज और राज्य की स्थापना में सहायक होंगे। [जिनेन्द्र कुमार जैन] लेखा विहार सरोजनी नगर नई दिल्ली-११००२३ मुझे यह जानकर अति प्रसन्नता हो रही है कि हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माता जी के सम्मान में एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन होने जा रहा है, इसके सफल प्रकाशन के लिए मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें। भवदीया [विजया राजे सिंधिया] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला Kल परिषत्र व विधा ऋणिपाल सिंह यादव सदस्य विधान परिषद सदस्य खनऊ दिनांक: १.६.02 उतर प्रडे विनयांजलि भारतीय शास्त्र ३३ कोटि देव एवं देवियों का आख्यान ज्ञापित करते हैं। इस देव भूमि पर देवता और देवी कभी-कभी शरीर धारण करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते अथवा यों कहिये कि अपनी सन्तानों के दैहिक-दैविक और भौतिक तापों के दर्द को कम करने और उनको सन्मार्ग दिखाने के लिये वह बार-बार अवतार धारण करते है और जन-जन का कल्याण करते हैं और भारत की प्राचीन पद्धति में आस्था की पुनर्स्थापना अवतार देव के स्थान पर देवी का हो तो समस्त स्थावर-जंगम विश्व ही ममता और करुणा की प्रतिमूर्ति हो जाता है। परम पूजनीय सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर गणिनी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी करुणा, ममता, सत्य, अहिंसा एवं ब्रह्मचर्य की जीवन्त प्रतिमूर्ति हैं, जो संत्रस्त मानव के कल्याण हेतु इस देव भूमि भारत में अवतरित हुयी हैं। यह संत्रस्त एवं प्रमित मानव आपकी करुणा के कण के मात्र एक अणु का आकांक्षी है। यह विनय स्वीकार कर इस जन को कृतार्थ करेंगी। जय जिनेन्द्र। जय मां ज्ञानमती ॥ [ऋषिपाल सिंह यादव] HIGH CO CAA OF DELHI GOKAL CHAND MITAL CHIEF JUSTICE New Delhi सन्देश पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में अभिनन्दन ग्रंथ के प्रकाशन पर मुझे प्रसन्नता है। आधुनिक युग में ऐसे पूज्य व्यक्तित्व समाज के लिये अत्यन्त गौरव एवं सम्मान के पात्र हैं। ऐसे व्यक्तित्व ही समाज के सभी वर्गों के लिये ज्ञान एवं प्रेरणा के स्रोत होते हैं। आदरणीय माताजी ने जिस प्रकार हिन्दुस्तान के छोटे-बड़े गाँवों में जाकर जातीय एकता, नैतिकता एवं अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया एवं जम्बूद्वीप के निर्माण रचना हेतु कार्य किये वह अत्यन्त सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। मेरी ईश्वर से हार्दिक प्रार्थना है कि पूज्य माताजी के सम्मान में अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन पूर्णरूपेण सफल हो। [गोकलचन्द मितल] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३७ एम. रामचन्दन, आयुक्त, मेरठ मंडल बायुक्त निवास, मेरठ। सन्देश मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन-ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। इस शुभ अवसर पर मैं बधाई देता हूँ और प्रकाशन की सफलता की कामना करता हूँ। 5.414131 [एम० रामचन्द्रन] शिर जे० एस० मिश्र आई. ए. एम.00) अशा0 पत्र संख्याः /एस0टी0 कैम्प-११ तरमा जिलाधिकारी मेरठ. सस्याः05) मुझे जानकर प्रसत्रता हुई कि हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की पावन कल्पना को साकार करने वाली आदरणीय श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। मेरी जिला मजिस्ट्रेट मुजफ्फरनगर के कार्यकाल में हस्तिनापुर भ्रमण के समय आदरणीय माताजी से मुलाकात हुई थी। उनके द्वारा हस्तिनापुर में किये गये कार्य, लिखे गये अनेक ग्रन्थ व जैन धर्म के लिए उनका योगदान निश्चित रूप से बहुत ही सराहनीय है तथा अपने आप में कीर्ति स्तम्भ है। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि आदरणीय माता जी दीर्घायु हों तथा वे अपने द्वारा चुने गये पावन पथ पर अहर्निश अग्रसर रहें। . भवदीय, [जे०एस० मिश्र] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ MEERUT UNIVERSITY, MEERUT Phones : Office:75454 Resi. :74252 Anytokirtan प्रो०बी०बी० एल० सक्सेना एम.एस-सी., डी.फिल., एफ.एन.ए.एस-सी. कुलपति Prof. B. B. L. Saxena M.Sc.. D.Phil.. F.N.A.Se. Vice-Chancellor सन्देश मेरठ विश्वविद्यालय के लिए यह गौरव का विषय है कि उसके परिक्षेत्र में हस्तिनापुर सदृश ऐतिहासिक एवं पौराणिक नगरी विद्यमान है। इस नगरी का भारतीय संस्कृति में विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व है। पांडवों की राजधानी के रूप में विख्यात इस महाभारत कालीन नगरी को जैन परम्परा के तीन तीर्थकरों भगवान् शातिनाथ, भगवान् कुन्थुनाथ एवं भगवान् अरहनाथ की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। यह नगरी जैन श्रावकों के लिए वन्दनीय तो थी ही किन्तु वर्तमान में जैन पुराणों में उपलब्ध भौगोलिक वर्णनों के आधार पर जम्बूद्वीप की रचना (मॉडल) बन जाने के कारण यह नगरी भारत के महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल के रूप में विकसति हो गयी है। मेरठ विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में आने पर मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरे ही विश्वविद्यालय की परिधि में गणिनी आर्थिकारत्न श्री ज्ञानमती प्रायः रहती हैं जिनके द्वारा रचित अष्टसहस्री, कातंत्ररूपमाला, समयसार, नियमसार, जैन भूगोल, त्रिलोक भास्कर आदि ग्रन्थों का पठन-पाठन देश विदेश में व्यापक रूप से हो रहा है। आपकी प्रेरणा से स्थापित दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा 1985 में इस विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में जैन स्कूल ऑफ मेथमेटिक्स पर इंटरनेशनल सेमिनार का आयोजन पू० माताजी के सानिध्य में किया गया था । विश्व की इस अद्वितीय जम्बूद्वीप रचना, जैन परम्परा में प्रथम बार निर्मित कमल मंदिर के निर्माण की पावन प्रेरिका, शताधिक ग्रन्थों की रचयित्री, अनेक अकादमिक गतिविधियों की केन्द्रबिन्दु, परम विदुषी, जैन साध्वी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उद्घाटित करने के भाव से आपने जो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय लिया है वह सराहनीय है। मैं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर के इस प्रयास की सराहना करता हूँ एवं आशा करता हूँ कि इस ग्रन्थ के माध्यम से आप पूज्य आर्यिका श्री के लोकोपकारी व्यक्तित्व एवं बहुआयामी साहित्यिक अवदान को प्रकाश में ला सकेंगे। पूज्य आर्यिका जी के चरणों में शतशः नमन् । भी-०४ सम्मका Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३९ विनयांजलि - नेमीचन्द जैन संस्कृति प्रधान देश भारतवर्ष में चिरकाल से धर्म एवं राजनीति का समन्वय रहा है। शासक राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा हेतु प्रयत्न करने के साथ ही नागरिकों के धर्मानुकूल आचरण एवं सुख शान्तिपूर्वक निराकुल जीवन यापन में आने वाली बाधाओं को दूर करते हैं। धर्मगुरु, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक जीवन को नेतृत्व प्रदान कर न केवल प्रजा अपितु राजा को सत्य-असत्य, कृत्य-अकृत्य का बोध कराकर उन्हें समाज एवं राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के निर्वाह हेतु आदेशित करते रहे हैं। परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी हमारे समाज की एक ऐसी ही वरिष्ठ साध्वी हैं जिनसे हमारे देश के कर्णधारों को सतत मार्गदर्शन, प्रेरणा एवं आशीर्वाद प्राप्त होता रहा है। खारवेल नरेश एवं श्राबस्ती नरेश वीर सुहेलदेव राय द्वारा अहिंसा के वास्तविक रूप को हृदयंगम कर हिन्दू संस्कृति के संरक्षण हेतु किये गये प्रयास वर्तमान राजनेताओं के लिए आर्दश हैं। पूज्य माताजी राजनेताओं को इतिहास के माध्यम से ऐसे प्रसंग बताकर उन्हें नैतिक मूल्यों की स्थापना एवं शाकाहार के प्रचार हेतु प्रेरित करती रहती हैं। जैन धर्म ग्रन्थों में ही नहीं, अपितु श्रीमद्भागवत्, वायुपुराण, अग्निपुराण आदि वैदिक परम्परा के ग्रंथों तथा अभिधर्म कोश आदि ग्रन्थों में जिस जम्बूद्वीप का वर्णन है तथा "जम्बूद्वीपे, आर्यावर्ते, भरतखण्डे, भारत नाम देशे.... आदि" संकल्प मंत्र में हम जिस जम्बूद्वीप एवं भरत क्षेत्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं उस जम्बूद्वीप की सम्पूर्ण प्रतिकृति बनवाकर हम सब आस्थावान् नागरिकों एवं प्राचीन भूगोल में रुचि रखने वाले विशेषज्ञों पर महान् उपकार किया है। शताधिक ग्रन्थों की रचयित्री, जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी के चरणों में शतशः नमन । ज्ञानपुञ्ज - डी०डी० सारस्वत, क्षेत्राधिकारी, [मेरठ] उ०प्र० मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जो कि अपने आपमें एक ज्ञानपुञ्ज के समान हैं। उनके अमूल्य प्रवचन एवं दर्शन से मानव समाज आज के इस युग में लाभान्वित हो रहा है। पूज्य माताजी के सम्मान में एक अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है यह बहुत अच्छा कार्य है। मैं इस पुनीत कार्य में आपके साथ हूँ और मेरी ईश्वर से कामना है कि माता ज्ञानमतीजी के आध्यात्मिक विचारों से लम्बे समय तक हम लाभान्वित होते रहें। मंगलकामना - जयनारायण सिंह थानाध्यक्ष-हस्तिनापुर [मेरठ] उ०प्र० जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने हमारे जैन व जैनेतर समाज को एकता, अहिंसा, नैतिकता, साम्प्रदायिक सद्भाव आदि का सन्देश देकर मानव मात्र को जीने की नई दिशा प्रदान की है । जहाँ साहित्य, ग्रन्थ स्तुतियों, धार्मिक उपन्यास आदि की संरचना करके मानव को धर्म के प्रति विश्वास एवं ईश्वर में लीन होकर अंधकार से प्रकाश की ओर चलते रहने के लिए अग्रसर किया है वहीं बाल साहित्यों की रचना करके बच्चों को देश के प्रति प्रेम, सभी जीवों पर दया, सादा जीवन उच्च विचार के पथ पर चलने के लिये प्रेरित किया है। अतः श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन देश-धर्म-संस्कृति एवं आत्म साधना के लिए समर्पित है। मैं कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी दीर्घायु होकर जैन एवं जैनेतर समाज को अपनी असाधारण प्रतिभा से पथ-प्रदर्शित करती रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला विनयांजलि - श्री डालचन्द जैन, सागर [पूर्व सांसद] श्रद्धेय गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी, समाज की उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन त्याग के साथ समाज को समर्पित कर दिया। हस्तिनापुर में जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार के लिये त्रिलोक शोध संस्थान एवं जम्बूद्वीप की स्थापना अपने क्षेत्र में अद्वितीय है, जो युगों-युगों तक प्रकाश स्तम्भ की तरह जैन दर्शन का दिग्दर्शन कराती रहेगी। मैं श्रद्धेय माताजी को विनयांजलि अर्पित करता हुआ, उनके स्वस्थ एवं दीर्घायु जीवन की मंगल-कामना करता हूँ। अज़ीम इन्सान - पद्यश्री हकीम सैफुद्दीन अहमद-मेरठ [सलाहकार स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार] यह जानकर मुझे खुशी हुई कि आप ज्ञानमती माताजी के सिलसिले में एक किताब शाये कर रहे हैं। श्री महावीरजी के पैगाम "जिओ और जीने दो" की आज ज्यादा जरूरत है और इसी पैगाम की अशायत के लिए माताजी बराबर लगी हुई हैं। वह न सिर्फ जैन समाज की, बल्कि पूरी इन्सानियत की खिदमत कर रही है। जो काबिले कद्र है। "उनका पैगाम है “मोहब्बत जहाँ तक पहुँचे" मुझे फखर है कि ऐसे अज़ीम इन्सान की खिदमत का मौका मुझे उनकी बीमारी के जमाने में मिला। विनयांजलि -मिलापचंद जैन न्यायाधीश, दिल्ली अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारतीय दिगम्बर जैन समाज ने दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम, तत्त्वावधान व नेतृत्व में परम पूजनीय, परम विदुषी, जैन साध्वी, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की बहुआयामी सेवाओं तथा आध्यात्मिक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से एक वृहद अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने का निश्चय किया है। ऐसे ग्रन्थ के प्रकाशन से पूज्य माताजी के विषय में जैन व जैनेतर सभी लोगों को जानकारी प्राप्त होगी और उससे वे लाभान्वित होंगे व सही दिशा व सही मार्ग पाकर जीवन में उस पर अनुसरण कर सकेंगे व आत्म कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ेंगे। मुझे भी जीवन में पूज्य माताजी के पावन दर्शनों का हस्तिनापुर में स्वर्णिम सुअवसर व सुयोग मिला था। जम्बूद्वीप व कमल मन्दिर की मनोहारी रचना से उस शान्त व निस्तब्ध वातावरण से मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ। पूज्य माताजी ने 'न्याय प्रक्रिया में धर्म का स्थान, विषय पर मेरे विचार पूछे। प्रश्न के उत्तर में मैंने यही कहा कि न्याय का धर्म ही आधार है। धर्म रहित न्याय, न्याय नहीं है। न्याय अधर्म पर आधारित नहीं हो सकता। यह सही है कि न्यायालयों में न्याय विधि के अनुरूप व अनुकूल ही किया जाता है उसके विपरीत नहीं। किन्तु विधि की संरचना धर्मानुकूल व समाज हित के अनुसार ही होती है। पूज्य माताजी ने विपुल जैन साहित्य की रचना की है जिसके परिशीलन व अनुपालन से जीवन आलोकित हो सकता है। वे ज्ञान की भण्डार हैं। इसके साथ उनका जीवन त्याग, तपस्या व साधना का जीवन है वे आत्मोन्मुखी हैं, उनका आध्यात्मिक जीवन प्रेरणादायक है। ऐसी महान आत्मा के चरणों में मेरा शत शत नमन, वन्दन व अभिवन्दन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन के लिए हार्दिक शुभ कामनाएं Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१ अवर्णनीय व्यक्तित्व - अक्षय कुमार जैन [भू.पू. संपादक] नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में अभिवंदन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। पूज्य माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तो कुछ भी लिखना असंभव-सा है; क्योंकि जैन जगत् पर उनके अनन्य उपकार हैं। उनकी गरिमा के अनुरूप ही अभिवंदन ग्रन्थ प्रकाशित हो यही मेरी मंगलकामना है। मैं पूज्य माताजी के चरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित करता हूँ। मंगलकामना - प्रो० सुरेश कुमार चौहान, कुलपति, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ४५६ ०१० यह जानकर प्रसन्नता हुई कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा अकादमिक गतिविधियों की प्रेरणा स्रोत, विश्व में अद्वितीय जम्बूद्वीप रचना की प्रेरिका, १२५ से अधिक ग्रन्थों की कवयित्री परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से एक वृहद् अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया जा रहा है। यह प्रयास सराहनीय है। ___मैं प्रकाशन समिति के सदस्यों को अपनी ओर से बधाई देता हूँ तथा अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन की सफलता के लिये मंगलकामनाएं प्रेषित करता हूँ। "दिव्य व्यक्तित्व से मैं परिचित हूँ" -कल्याणमल लोढा-कलकत्ता भूतपूर्व कुलपति, जोधपुर विश्वविद्यालय परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के दिव्य व्यक्तित्व से मैं परिचित हूँ। उन्होंने जैनधर्म, संस्कृत, अध्यात्म व दर्शन के अध्ययन के नए आयाम प्रस्तुत किए हैं। साथ ही इन्होंने लोक प्रचारार्थ एवं सर्वजनहिताय महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मेरी मान्यता है कि ऐसे पुनीत ग्रन्थ समस्त समाज के लिए प्रेरणादायक होते हैं और उसे नदीन एवं रचनात्मक दृष्टि से सम्पन्न करते हैं। हस्तिनापुर जैन संस्कृति और धर्म का तीर्थ है। श्रीदिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने जैन समाज की अनेक प्रकार से सेवा व संकल्प साधना की है। प्रस्तुत ग्रंथ की योजना भी एक विशिष्ट कार्य है। आज विश्व में - अनेक राष्ट्रों में जैनधर्म व दर्शन के प्रति नई जागरूकता व चेतना व्याप्त हो रही है। हिंसा, प्रदूषण, प्रतिस्पर्धा की विसंगतियों में जैनधर्म के सिद्धान्तों को अपनाने का नया वातावरण बन रहा है। अहिंसा के लिए सभी वर्ग समर्पित होना चाहते हैं। हाल ही में नागाशाकी और हिरोशिमा पर गिरे अणुबम की दुःखद स्मृति चिह्न के रूप में एक शिला खंड भारत आया है। अमेरिका में महात्मा गाँधी की प्रतिमा स्थापित करने की योजना है। प्रायः सभी वैज्ञानिक भी आज अहिंसक समाज की संरचना के लिए कटिबद्ध हैं। विज्ञान और तकनीकी युग की विभीषिका ने मनुष्य को जड़ मशीन बना दिया है और भौतिक तत्त्वों की लालसा व कषायों ने उसे पाश्विक । एक ही मार्ग है इसके घातक परिणामों से बचने का- वह है हमारे तीर्थंकरों, आचार्यों, साधु व साध्वियों द्वारा अपनाया गया मार्ग। आपकी संस्था द्वारा प्रकाशित अभिवन्दन ग्रन्थ इसी परम्परा और मार्ग का एक मील का पत्थर बनेगा यह मेरा विश्वास है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य माताजी एक प्रेरणा स्रोत हैं -महावीर सिंह त्यागी, जिला अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी, मेरठ पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सान्धिय १९९१ के सरधना चातुर्मास के समय प्राप्त हुआ। आपके प्रवचन सुने। आपके बारे में जानकारी प्राप्त हुई। ___आप जैन समाज तो क्या, अपितु समस्त भारतीय दर्शन की प्रकाण्ड विदुषी हैं, ज्ञान का अगाध भंडार हैं, आपकी त्याग-तपस्या उच्च-कोटि की है। आपने हस्तिनापुर के जंगल की भूमि पर जम्बूद्वीप की रचना करवाकर भारतीय समाज को जम्बूद्वीप को समझने में एक सरलता प्रदान की तथा वेदों व शास्त्रों के प्रति आस्था पैदा की। मेरी हार्दिक कामना है कि आप दीर्घायु रहें और ज्ञान का प्रकाश फैलाती रहें। विनयांजलि -नरेन्द्र कुमार जैन, कोषाध्यक्ष-प्रदेश परिषद्-भाजपा [मेरठ जिला] भारत वसुन्धरा पर परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने जन्म लेकर इस शती में अलौकिक कार्य किये हैं जिन्हें भारतीय जैन जैनेतर समाज कभी नहीं भूलेगा। आपने ऐतिहासिक स्थल हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना को साकार रूप देकर वर्तमान पीढ़ी को सोचने-समझने का अवसर प्रदान किया। आपकी प्रेरणा से आज हस्तिनापुर देश-विदेश के पर्यटकों का दर्शनीय एवं वन्दनीय स्थल बन चुका है। आपका ज्ञान कोष अपार है। आपने न्याय-शास्त्र के अनेक ग्रन्थ लिखे हैं साथ ही शताधिक ग्रन्थों का लेखन, अनुवादन, सम्पादन किया है। आप त्याग तपस्या की प्रतिमूर्ति हैं। आपकी कीर्ति देश-विदेश में सुरभि की तरह है। मेरी आपके प्रति विनयांजलि है कि जिस त्याग के मार्ग पर आप हैं उसी मार्ग पर चलकर ज्ञान की ज्योति फैलाती रहें। प्रतिभाशाली विदुषी माता - संहितासूरि ब्र० सूरजमल बाबाजी, निवाई पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बाल्यकाल से ही प्रतिभाशाली-विदुषी हैं, आपके लिखे हुए ग्रन्थ विद्वत्तापूर्ण हैं। आपकी गति न्याय, व्याकरण आदि सभी विषयों में है। कविता बनाने में भी आप पारंगत हैं; जितनी भी आपकी कविताएँ हैं सब ही रसपूर्ण एवं ओजस्वी हैं। कई तरह की विधान पूजाएँ बना दी, जो हिन्दी भाषा में उपलब्ध भी नहीं थीं। आपके द्वारा रचे हुए हिन्दी पूजन विधानों से आम जनता लाभ उठा रही है। हर व्यक्ति विधानों का पूजन बड़ी रुचि के साथ करके अपने को धन्य समझता है। यह सब पूज्य माताजी की देन है। पूज्य माताजी की विद्वत्ता की प्रशंसा जितनी भी की जाये, थोड़ी है। आप स्वास्थ्य नरम रहते हुए भी निरन्तर ज्ञानोपयोग में लगी रहती हैं। मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि पूज्य माताजी शतायु होकर हमें सम्यग्ज्ञान देती रहें, यही मेरी विनयांजलि है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३ स्नेह से ज्ञान तक - ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर सन् १९५२ टिकैतनगर की बात है जब मैं बिल्कुल अबोध था। मात्र २ वर्ष की मेरी उम्र थी - अपनी जीजी मैना के पास ही सोता था। उस समय की इतनी धुंधली-सी याद है कि मेरी गर्दन में एक फोड़ा हो गया था, जिसे चीर-फाड़ करने के लिए जर्राह आता था, जो घाव को साफ करके उसमें रूई की बत्ती डालकर मरहम भरता था, यह सब मेरी बाल्य सेवा मां की बजाय मैना जीजी ही किया करती थीं। उन्होंने मुझे गोद में खूब खिलाया है तथा बाल्य अवस्था की सभी सेवाएं की हैं। फिर भी मुझे २ वर्ष का छोड़कर कैसे वैराग्य पथ पर चली गईं- इसकी मुझे कुछ याद नहीं आ रही है। इस स्मरण हेतु उस समय का एक फोटो अवश्य प्रतीक है, जब मैना जीजी सफेद धोती पहनकर ब्रह्मचारिणी बन गई थीं और हम सभी परिवार के भाई-बहन एवं माता-पिता साथ में खड़े हैं। उस समय भाई-बहनों में सबसे बड़ी मैना जीजी थीं और सबसे छोटी कु० मालती जो केवल २२ दिन की, मां की गोद में थी। मैं २ वर्ष का था। बहन-भाई के इस वियोग के बाद भाई-बहन के रूप में पुनः मिलन नहीं हुआ। क्योंकि कुछ ही समय बाद मैना जीजी क्षुल्लिका वीरमती पश्चात् आर्यिका ज्ञानमती बन गई और परिवार से कोई सम्बन्ध नहीं रखा- सुख दुःख का पत्र व्यवहार भी नहीं रहा। आर्यिका रूप में प्रथम दर्शन :- ठीक १० वर्ष के अन्तराल के बाद १९६२ में आर्यिका ज्ञानमती माताजी के रूप में मुझे उनके लाडनूं राज० में प्रथम बार दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस समय बात ऐसे बनी कि हमारी एक और बड़ी बहन मनोवती पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शनों के लिए मां को बहुत परेशान किये हुए थीं। घर में पिताजी व अन्य भाई-बहन कोई भेजने के लिए राजी नहीं थे। योगायोग से बहन मनोवती को एकदम दस्त बहुत होने लगे- जिससे टिकैतनगर से लखनऊ डाक्टर को दिखाने लाया गया। यहाँ से बड़े भाई तो इलाज के लिए छोड़कर घर चले गये और मनोवती ने फिर मां से बहुत जिद शुरू किया कि मझे माताजी (ज्ञानमती माताजी) के दर्शन करावो-कहां हैं माताजी। वे जबसे गई हैं हमने देखा नहीं है ऐसा कह कह कर मां को बहुत परेशान किया। उस समय मैं मां के पास लखनऊ में था। पता लगाया गया कि माताजी कहां हैं, तो ज्ञान हुआ कि राजस्थान में लाडनूं नगर है, वहाँ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का चातुर्मास हो रहा है, वहीं पर संघ में ज्ञानमती माताजी हैं। मां ने निर्णय किया कि चलो यहीं से लाडनूं चल दिया जाये। क्योंकि घर जाने के बाद तो कोई जाने नहीं देगा। घरवालों को शायद इस बात का भय लगा हुआ था कि ज्ञानमती माताजी के पास जो भी जाएगा कहीं उसे घर छोड़ने या दीक्षा के लिए न कहने लगें। शायद इसीलिए कोई दर्शनों के लिए भी नहीं जाता था। योगायोग से मां ने अपना कोई सोने का जेवर लखनऊ में बेच दिया और रास्ते के खर्च का हिसाब बनाकर लाडनूं की तरफ चलने को कहा। इस समय मैं लगभग १२ वर्ष का था। लाडनूं तक हम लोग पहुंच गये, वहां हुआ वही, जिस बात की आशंका रहती होगी। मनोवती घर वापस आने को ही राजी नहीं हुई बोलीं-मैं भी अपनी जीजी जैसी दीक्षा लूंगी। कई दिन निकल गये। आखिर मनोवती भी कुछ दिन रुकने का बहाना करके रुक गई। उस समय वहां पर मैंने माताजी के प्रथम दर्शन किये थे। उसके बाद वहां से हम मां के साथ घर वापस आ गये। वापस आने पर मां को पिताजी ने मनोवती को छोड़ने की बाबत जो कुछ गुस्सा-गर्मी की होगी-उसका यहां अंदाज लगाना कठिन है। अन्ततोगत्वा बहन मनोवती ने भी बाद में माताजी से हैदराबाद में क्षुल्लिका दीक्षा १९६४ में ले ली, पश्चात् आर्यिका दीक्षा १९६९ में आ० श्री धर्मसागरजी से लेकर आर्यिका अभयमती बन गईं जो आज त्याग-तपस्या लेखन आदि कार्यों में लगी हुई हैं। प्रतापगढ़ में पुनः दर्शन :- सन् १९६८ में प्रतापगढ़ में आ० श्री शिवसागरजी के संघ के साथ ही पूज्य माताजी का चातुर्मास हो रहा था। उस समय हमारे माता-पिता एवं बड़े भाई साहब कैलाशचंद, भाभी आदि ने वर्ष में एक बार संघ में आकर चौका लगाकर साधुओं को आहार देने की परंपरा प्रारम्भ की थी। इस बार मैं भी दर्शनों के लिए आया था। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में बी०ए० का अध्ययन करने इसी वर्ष गया था। माताजी ने मुझसे खूब बात की और समझा-बुझाकर कहा कि अच्छा २ वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ले जावो और उसके बाद फिर हमारे पास आकर बाद में शादी या व्यापार करना। ठीक है इतना मंजूर कर लिया था। टोंक में दर्शन :- बी०ए० की परीक्षा पास करने के बाद अब माताजी के पास एक बार आना तो था ही। टोंक राजस्थान में फरवरी १९७१ में आने का सुयोग मिला- यहाँ भी भाई साहब कैलाशचंदजी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर आये थे, जभी साथ में मुझे ले आये थे। यहां पर पूज्य ज्ञानमती माताजी ने एक अलग ही महाविद्यालय जैसा खोल रखा था- सुबह से शाम तक ७-८ घण्टे शिष्य-शिष्याओं एवं साधुओं को पढ़ाना एक ही काम दिख रहा था। बड़े-बड़े ग्रन्थ अष्टसहस्री-राजवार्तिक-कर्मकाण्ड आदि चल रहे थे, माताजी ने हमसे कहा कि संघ के कई विद्यार्थी शास्त्री न्यायतीर्थ की परीक्षा दे रहे हैं, तुम भी कुछ पढ़ लो। मुझे बहुत समझाया और २ माह पढ़ाई कर लो- शास्त्री बना देंगे ऐसा कहकर रोक लिया। इस बार रुक गया मैं। अगले दिन से मेरी भी पढ़ाई शुरू करा दी- विषय प्रारम्भ में ५-७ दिन तक तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहे थे, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला क्योंकि इसके पहले मैंने धार्मिक अध्ययन किया नहीं था। माताजी से जब मैं कहता कि समझ में नहीं आ रहा है तब माताजी कहतीं "पठितव्यं खलुपठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति" पढ़ते चलो-पढ़ते चलो सब आगे समझ में आ जायेगा। हुआ भी ऐसा ही। मात्र २ माह में शास्त्री के ३ वर्ष का कोर्स मुझे पढ़ा दिया गया और अन्य शिष्य-शिष्याओं के साथ परीक्षा देकर मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। पुनः भाई साहब मुझे लेने आये तब माताजी ने कहा कि इसका क्षयोपशम बहुत अच्छा है घर नहीं जाने देंगे। लेकिन भाई साहब मुझे घर ले गये थे। इस समय संघ टोंक से किशनगढ़ आ चुका था। अतः मैं किशनगढ़ से घर टिकैतनगर वापस चला गया। यहाँ आचार्य श्री धर्मसागरजी व आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज दोनों संघों का सम्मिलन हुआ था। आचार्य धर्मसागरजी के संघ के साथ ही आर्यिका ज्ञानमती माताजी थीं तथा आचार्य ज्ञानसागरजी के साथ नवदीक्षित मुनि विद्यासागरजी थे यहाँ पर पूज्य माताजी व मुनि विद्यासागरजी के मध्य काफी धार्मिक चर्चायें होती थीं। मुझे भी यह सब देखने व सुनने का अवसर मिला। इसके बाद आचार्य श्री धर्मसागरजी का विहार अजमेर चातुर्मास के लिए हो गया। I मैं अजमेर चातुर्मास में पुनः दर्शनों के लिए आया। अजमेर में मेरी मां ने ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से आर्यिका दीक्षा आ० श्री धर्मसागरजी के करकमलों से लेकर आर्यिका रत्नमती नाम प्राप्त किया। इसके पश्चात् मैं पुनः घर वापस चला गया। उसके बाद टिकैतनगर में मुझे भाईसाहब ने एक नई दुकान कपड़े की खुलवा दी। इसकी सूचना मैंने पत्र द्वारा माताजी को भेजी। दुकान खुलते ही पूज्य माताजी ने मोतीचंदजी को हमारे पास भेजा कि माताजी ने बुलाया है और हम मातीजी के पास आ गये। इस समय पूज्य माताजी ब्यावर आ गई थीं, साथ में २ मुनि व ४ आर्यिकाएं थीं । माताजी ने पुनः समझाया कि गृहस्थरूपी कीचड़ में मत फँसो ले लो ब्रह्मचर्य व्रत । माताजी ने व इस बार रत्नमती माताजी ने भी प्रेरणा की, फलस्वरूप मैं ब्रह्मचर्य व्रत लेने के लिए तैयार हो गया और ब्रह्मचर्य व्रत भी माताजी ने कहा कि आचार्य श्री धर्मसागरजी से लेवो उस समय आ० श्री धर्मसागरजी नागौर में थे श्री मोतीचंदजी मुझे ब्यावर से नागौर ले गये और नागौर में आ० श्री धर्मसागरजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अप्रैल सन् १९७२ में ग्रहण कर लिया, यहां से जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। ब्रह्मचर्य व्रत लेने पर नागौरवासी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे गाजे-बाजे, जुलूस के साथ मंदिरों के दर्शन कराने ले गये। उसके बाद मैं ब्यावर आया, यहां भी ब्यावरवासियों ने मेरा सम्मान किया। अब माताजी ने कहा कि जावो दुकान पर बैठो, लेकिन जल्दी दुकान छोड़कर संघ में आ जाना। ऐसा ही हुआ, दुकान हमने भाइयों के हवाले कर घर से संघ में रहने के लिए स्थाई रूप से रहने का निर्णय कर लिया। वैसे तो संघ में रहना प्रतिदिन नये-नये घर भोजन करने जाना इत्यादि बड़ा अटपटा-सा लगता था लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास होता गया। इस प्रकार पूज्य माताजी की प्रेरणा से जो मुझे २ वर्ष का छोड़कर आई थीं, उन्होंने मुझे पुनः मोक्षमार्ग में लगने के लिए अनेक प्रेरणाएं प्रदान कीं, अंततोगत्वा अपने पास बुला ही लिया। अब कुछ समय बाद संघ ब्यावर से दिल्ली आ जाता है और यहां से संघस्थ होने के साथ ही संस्थान के निर्माण प्रकाशन आदि कार्य का उत्तरदायित्व भी लेना पड़ता है। इस प्राथमिक इतिहास को आज लगभग २० वर्ष हो रहे हैं। पूज्य माताजी के पास २० वर्ष रहकर समय-समय पर अनेक विशिष्ट अनुभव प्राप्त हुए हैं, उनमें से एक-दो को यहां संस्मरण के रूप में दे रहा हूँचारित्र एवं चर्चा में अत्यन्त कठोर :- अक्टूबर-नवम्बर १९८५ की बात है पूज्य माताजी को बहुत भयंकर सिरदर्द एवं बुखार हो गया- संग्रहणी की बीमारी तो पिछले २५ वर्षों से थी ही। कई-कई दिन बीतते चले गये- बुखार हटने का ही नाम नहीं लेता था माताजी एकदम कमजोर हो गई और स्थिति यह हो गई कि कुछ भी पेट में पचता नहीं था । आहार के समय जो भी दिया जावे तुरंत उल्टी हो जाती। मेरठ के प्रसिद्ध वैद्य विष्णुदत्त शर्मा जो कि मेरठ के प्रधान वैद्य थे- सुखदा फार्मेसी के वैद्य महावीर प्रसाद जैन मेरठ इनके अलावा इन्दौर से वैद्य धर्मचंदजी जैन को बुलाया गया तथा कटनी से वैद्य रघुवर दयाल जैन को बुलाया गया। ये दोनों वैद्य कई दिन तक हस्तिनापुर ही रहे। इस प्रकार तीन चार वैद्यों से परामर्श करके प्रतिदिन औषधि काढ़ा तैयार किया जाता और अगले दिन २४ घण्टे बाद प्रतीक्षा करते-करते कि अब माताजी को यह दवाई दी जायेगी अब उल्टी नहीं होगी, लेकिन जैसे ही दवाई पानी तथा कुछ आहार दिया जाता तुरंत उल्टी यह देखते-देखते स्थिति बिगड़ती चली गई, वैद्य लोग भी परेशान थे। अब माताजी के साहस का बाँध भी टूट गया और माताजी ने बुलवाकर हम लोगों से कहा कि अब तो सल्लेखना ले लूं ऐसी इच्छा है- यह रोग ठीक नहीं होगा बड़ी चिन्ता हुई। यह बात १७ नवंबर १९८५ की है। पिछले १७ दिनों से पेट में पानी भी नहीं पच रहा है, शरीर एकदम सूखकर कमजोर हो गया है, दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है और वैद्य लोगों की औषधि काम नहीं कर रही है। उस समय की अत्यन्त नाजुक स्थिति देखकर हम लोग बहुत ही परेशान थे एकदम एक विचार मन में आया कि किसी डाक्टर को बुलाकर दिखा दिया जाये कि आखिर शरीर की स्थिति क्या है? यह विचार कर श्री अमरचंद जैन होमब्रेड मेरठ के पास पत्र लेकर आदमी भेजा कि कोई अनुभवी डॉक्टर जो निदान में कुशल होवे लेकर तुरंत हस्तिनापुर आवो श्री अमरचंद जैन पत्र पाते ही डॉक्टर ए०पी० अग्रवाल मेरठ को लेकर हस्तिनापुर आ गये। शाम को ७ बज रहे थे उन्होंने देखा, बोले इनको पीलिया है- हम लोगों ने कहा कि आंखें तो पीली हैं नहीं, पीलिया कैसे है? बोले लगभग पीलिया की स्थिति दिख रही है- लीवर बिल्कुल खराब हो चुका है। पहले इनका खून व पेशाब टेस्ट होगा और ग्लूकोज की बोतलें चढ़ानी पड़ेंगी, अन्यथा ये २४ घण्टे से ज्यादा अब नहीं चल सकेंगी, शरीर से सारा पानी निकल चुका है। हम लोग डॉक्टर साहब को अपने कार्यालय | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५ लाये और उसी समय रात में ही खून व पेशाब टेस्ट करने के लिए मेरठ से आदमी बुलाया गया. जिसने शीशी में थोड़ा-सा खून निकाला और पेशाब ले गया- रात में ही टेस्टिंग होकर निर्णय हो गया कि पीलिया है। इधर डॉक्टर साहब से हमने बताया कि हमारे मुनि-और आर्यिका न तो ग्लूकोज चढ़वा सकते हैं, न कोई दवाई आपकी ले सकते हैं, आप बताइए कि मालिश आदि से इनका कोई सुधार किया जा सकता है क्या? क्योंकि आहार तो प्रातः एक बार ही होगा। बोले मेरे पास तो कोई इलाज है नहीं-भगवान ही कर सकता है इलाज। फिर हमने कहा कि माताजी की आयु शेष होगी, तो माताजी स्वस्थ हो जायेंगी अन्यथा हम लोग उनकी ३५ वर्ष की तपस्या को न तो बिगाड़ेंगे, न ही माताजी कोई अशुद्ध उपचार करेंगी। माताजी इस मामले में पूर्ण सावधान हैं तथा माताजी की दृढ़ता इस संबंध में हम लोग विगत अनेक वर्षों में देख चुके हैं। माताजी को जीवन का लोभ नहीं है। हम तो केवल शुद्ध उपचार से ही उन्हें स्वस्थ कर सकेंगे तो करेंगे, अन्यथा नहीं। डॉक्टर अग्रवाल आश्चर्य में पड़ गये और बोले तुम लोग कैसे निर्दयी हो। हमने कहा हम लोगों का नियम ऐसा ही है। हमने पूछा कि ग्लूकोज का विकल्प क्या है? बोले गन्ने का रस दे सकते हो तथा पीलिया का एक नुस्खा हम लोगों को मालूम था जो कि ५ वर्ष पूर्व रत्नमती माताजी को पीलिया होने पर दिल्ली के एक वैद्य अतरसेन ने दिया था- जिससे रत्नमतीजी स्वस्थ हो गई थीं। उस नुस्खे की दवाइयां याद थीं, डाक्टर साहब को बताया, उन्होंने कहा कि यह बिल्कुल ठीक है- ये ही दवाइयाँ मिलाकर हमारे यहाँ एलोपैथिक दवाई बनती है जिसे हम लोग पीलिया में देते हैं। वह नुस्खा इस प्रकार है १० ग्राम ५ ग्राम कासने के बीज कासनी की जड़ बड़ी इलाइची मकोय लौंग जीरा या सौंफ खरबूजे की गिरी सफेद मिर्च ३ दाना ५ ग्राम ५ ग्राम ७दाना ३ ग्राम उपर्युक्त दवाई को पीसकर थोड़ा बूरा (शक्कर) मिलाकर रत्नमती माताजी को वर्षों तक दिया गया है। ज्ञानमती माताजी का तो मीठे का त्याग है। अतः बिना बूरा मिलाये ऐसे ही देने का निर्णय किया गया। इस नुस्खे का इन्तजाम किया गया। इसे हम लोग ठंढाई के नाम से कहते हैं। एक बात डॉक्टर साहब ने और कही कि दिन में कई-कई बार पानी, गन्ने का रस व यह दवाई पहुँचाई जाये। पुनः हमने डॉक्टर से बताया कि लेंगी तो एक ही बार, हमलोग- उनकी चर्या में कुछ भी अंतर नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि अच्छा एक ही बार में घण्टे-दो घण्टे बिठाकर दे देना। रुक-रुककर देना। इस बात पर मूलाचार के स्वाध्याय की एक बात ध्यान में आ गई कि आहार का उत्कृष्ट समय ६ घड़ी माना गया है, ६ घड़ी अर्थात् ६ x २४ = २ घण्टे २४ मिनट । अर्थात् एक बार की बैठक में २ घण्टे २४ मिनट तक तो साधु बैठ सकते हैं अतः हमने निर्णय किया कि कल प्रातः गन्ने का रस, उपर्युक्त ठण्डाई और पानी केवल ३ चीजें थोड़ी मात्रा में देना है और बहुत-रुक रुककर कम से कम एक घण्टे में देना है। प्रातः होती है-वैद्यों की सब दवाई बंद कर दी जाती हैं और उपर्युक्त निर्णयानुसार पानी, ठण्डाई और गन्ने का रस पूज्य माताजी को एक छोटी-सी कटोरी के द्वारा रुक-रुककर बड़ा शांति मंत्र पढ़कर आधीकटोरी पानी फिर शांतिमंत्र पढ़कर आधी कटोरी इस प्रकार तीनों चीजें क्रम-क्रम से केवल एक गिलास दिया गया और इस आहार में ३५ मिनट लगाये गये। आज माताजी को कुछ शांति मिलती है और उल्टी जो तुरंत हो जाती थी, वह संस्कारवश हुचकी तो आई लेकिन मात्र १० प्रतिशत निकल गया- कुल्ला करते समय। शेष दवाई पानी पेट में रुकी। अब हम लोगों के सांस में सांस आई कि माताजी को इस ठंडाई के नुस्खे से जीवन दान मिल सकता है और निदान सही हुआ है। यही नुस्खा चलता रहा माताजी इतनी कमजोर हो गई थीं कि उन्हें पाटा पर बिठाकर २-३ आदमी उठाकर कई दिन तक चौके तक ले जाते थे, यही नुस्खा बराबर दिया जाता रहा और धीरे-धीरे शरीर में स्वस्थता आती गई। उल्टी रुकती गई, फिर भी लगभग ६ माह में माताजी को चलने-फिरने योग्य शक्ति आ सकी थी। यह बात मैंने यहाँ इसलिए दी है कि परिस्थिति आने पर अनेक अनुभव आते हैं। एक तो किसी भी असाध्य रोग होने पर साधु का निदान किसी कुशल डॉक्टर से अवश्य करा लेना चाहिए क्योंकि वर्तमान में वैद्यों के निदान कभी-कभी सही नहीं निकल पाते हैं। दूसरी बात साधुओं के अत्यन्त कठिन समय में भी अशुद्ध उपचार का प्रयास गृहस्थ को नहीं करना चाहिए क्योंकि संयम बार-बार नहीं मिलता है। इस संयम की रक्षा साधु तो स्वयं ही करते ही हैं, लेकिन गृहस्थों का भी कर्तव्य है कि उन्हें योग्य समय पर, योग्य शुद्ध औषधि द्वारा ही रोगमुक्त करने का प्रयास करें भले ही समय ज्यादा लग जावे। तीसरी बात पूज्य माताजी के सानिध्य में जो स्वाध्याय चलते थे उसमें मूलाचार के स्वाध्याय का एक लाभ इस अवसर पर मिला कि आहार में आवश्यकतानुसार समय अधिक लगाया जा सकता है। क्योंकि एक गिलास पानी-रस-दवाई यदि दिया जाये तो एक मिनट का काम है लेकिन इससे उल्टी हो सकती थी। धीरे-धीरे देने से वह उल्टी रुक गई अतः यह स्वाध्याय मौके पर काम आया। यह शुद्ध उपचार कासनी के चीज की ठंडाई पूज्य माताजी के लिए पुनः जीवन दान बन गई और हम लोगों को इस उपचार से बहुत प्रसन्नता Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हुई। वह कटोरी आज भी विद्यमान है उसी से प्रतिदिन माताजी को आहार दिया जाता है और लीवर को सही रखने के लिए कासनी के बीज की ठंडाई पिछले ७ वर्षों से लगातार आज भी दी जाती है, आवश्यकता पड़ने पर मेरठ के प्रसिद्ध हकीम भूतपूर्व राष्ट्रपति चिकित्सक हकीम सैफुद्दीन सेफ को बुला लिया जाता है इसी उपर्युक्त दवाई में कुछ परिवर्तन करते रहते हैं। हम जब उस नाजुक समय को कभी याद करते हैं तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम तो भगवान से कामना करते हैं कि ऐसे नाजुक समय में भी जिस प्रकार धैर्य एवं दृढ़ता का अवलम्बन पूज्य माताजी ने लिया उसी प्रकार सभी साधुओं को आवश्यकता पड़ने पर लेना चाहिए। यह तो हुआ एक अनुभव शरीर सम्बंधी एवं चारित्रिक दृढ़ता का। एक अनुभव यहां और बताना चाहता हूँ जैसे एक कहावत प्रचलित है "जल ते भिन्न कमलवत्" जल में रहकर भी कमल जल से भिन्न रहता है। ऐसा जीवन मैंने आर्यिका ज्ञानमती माताजी का देखा है। लोग समझते होंगे कि माताजी जम्बूद्वीप निर्माण करा रही हैं तो उसमें लिप्त हैं लेकिन पाठकों की जानकारी के लिए इस संबंध में पूज्य माताजी की निस्पृहता की थोड़ी-सी बात यहां दे रहा हूँ। पूज्य माताजी जम्बूद्वीप से कितनी निर्लिप्त हैं इसे तो प्रत्यक्ष रूप से हम लोग ही जानते हैं। जो लगातार २० वर्ष से उनके साथ हैं। पूज्य माताजी प्रतिदिन अपना लेखन-कार्य करती हैं। प्रतिदिन समय पर सामायिक प्रतिक्रमण स्वाध्याय व नित्य क्रिया से बचा हुआ समय यात्रियों के लिए प्रवचन या ग्रंथों के पूजन के लेखन में निकलता है। जब हम लोगों को आवश्यकता पड़ती है तब नक्शे पर मार्गदर्शन पूज्य माताजी से ले लेते हैं आशीर्वाद ले लेते हैं। बाकी सामान खरीदना, रुपयों का इंतजाम करना, निर्माण कराना, हिसाब रखवाना,, ठेकेदार की व्यवस्था करना यह सब काम तो हम लोगों का है। पूज्य माताजी ने आज तक इस काम में न समय दिया न रुचि ली। माताजी को तो यह भी आज तक पता नहीं है कि कहां से कितना रुपया आता है, कौन-सी चीज कहां से आती है, कितना किस चीज में लगता है। माताजी कभी भी रुपयों-पैसों के हिसाब में नहीं पड़ीं। ऐसी पूर्ण निस्पृहता होना बड़े आश्चर्य का ही विषय है। और पाठक सोच भी सकते हैं कि अगर माताजी ऐसा न करतीं तो ये इन्द्रध्वज मण्डल विधान, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र मंडल विधान आदि १५० ग्रंथ कैसे पूज्य माताजी लिखती- बहुत ही एकाग्रचित्त होने पर यह लेखन कार्य हो पाता है। कभी-कभी तो लेखन में माताजी के ऐसी एकाग्रता रहती है कि यात्री आता है-मोस्तु-वंदामि करके चला जाता है और माताजी को कुछ पता ही नहीं रहता है। यही हाल है आहार के संबंध में। भले ही पिछले कुछ वर्ष अस्वस्थता के कारण पूज्य माताजी के इस हस्तिनापुर जंगल में निकल गये लेकिन कभी भी माताजी आहार के संबंध में चर्चा नहीं करती हैं कि अमुक चीज चौके में होना चाहिए। इतना पूज्य माताजी ने अवश्य हस्तिनापुर रहने से पहले हमसे व मोतीचंदजी से कह दिया था कि संस्थान का एक भी पैसा चौके में, आहार में मत लगाना- आहार की व्यवस्था तुम लोग कर सको तो ही हमें हस्तिनापुर रखना- जब व्यवस्था न हो सके तो हमसे बता देना हम विहार कर देंगे। यह परंपरा आज तक बराबर चल रही है। वैसे समय-समय पर विहार होता रहता है लेकिन जम्बूद्वीप स्थल पर चाहे पूज्य माताजी विराजें या अन्य अनेक साधुगणों का आगमन भी हुआ और आगे भी होगा- लेकिन संस्थान से आहार के संबंध में कभी भी कोई खर्च नहीं किया गया। व्यक्तिगत रूप से ही व्यवस्था करके आहारदान की व्यवस्था यहां की जाती है। इस प्रकार चर्या में अत्यन्त दृढ़ता, रुपये-पैसों से पूर्ण निस्पृहता एवं शारीरिक सहनशीलता, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग आदि दुर्लभ गुण जो पूज्य माताजी में हमें दिखते हैं वे हम सब लोगों के लिए अनुकरणीय एवं आदर्श स्वरूप हैं। कुछ लोग पूज्य माताजी को सरस्वती का अवतार कहते हैं और पत्रों में लिखते हैं। माताजी ने हस्तिनापुर को स्वर्ग बना दिया- कोई निंदा भी करता है, लेकिन इन प्रशंसाओं से न तो माताजी प्रसन्न होती हैं और न निन्दा करने वालों से रुष्ट होती हैं। शिष्यों के सम्बंध में भी अनभव पूज्य माताजी के जीवन से मिला है पूज्य माताजी ने अनेक शिष्य-शिष्याओं को घर से निकालकर उन्हें अध्ययन कराया- मोक्ष मार्ग में लगाया है। शिष्य-शिष्याओं की प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न रूप से होती है ऐसा हमने देखा है। __ पूज्य माताजी के मुखारविंद से अनेक अनुभव आचार्य श्री शांतिसागरजी से लेकर इस आचार्य परंपरा के संबंध में हमने सुने हैं तथा माताजी के जीवन में देखे हैं उनमें से बानगी रूप में ही यहां प्रस्तुत कर सका हूँ। अंत में मैं अधिक कुछ न लिखकर इतना ही कहूंगा कि मुझे भी इस मार्ग में लगाने में निमित्त पूज्य माताजी ही हैं जिससे पिछले २० वर्ष तक मुझे उनकी सेवा करने का एवं पूज्य रत्नमती माताजी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका तथा संस्थान के निर्माण एवं संस्थान की प्रत्येक गतिविधियों के संचालन में अपना तन मन धन लगा सका। कई वर्षों से अनेक विद्वान्गण हमसे बार-बार कह रहे थे-कि माताजी के सम्मान में एक अभिवंदन ग्रंथ निकलना चाहिए। अन्ततोगत्वा ग्रंथ निकालने का निर्णय लेना पड़ा। यह बात जब पूज्य माताजी को ज्ञात हुई तो उन्होंने मना भी किया, लेकिन इस आज्ञा का पालन हम लोग न कर सके। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७ वैसे तो हम लोग पूज्य माताजी की प्रत्येक आज्ञा का पूरा पालन करते हैं लेकिन इस संबंध में उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके इसमें एकमात्र गुरुभक्ति ही कारण है। पूज्य माताजी से मुझे ज्ञान मिला- पूज्य माताजी से ही मैंने सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये इस प्रकार आज मैं जो कुछ हूँ वह सब पूज्य ज्ञानमती माताजी की ही देन है- हमारा अपना कुछ नहीं है। मैं अपना यह सौभाग्य मानता हूँ कि पूज्य माताजी का गृहस्थावस्था का लघु भ्राता तथा शिष्य बनने का मुझे योग मिला। साथ ही उनके अनुभवों का लाभ ले सका। "चतुर्मुखी प्रतिभा की धनी माताजी" - डा. पन्नालाल साहित्याचार्य जबलपुर [ म०प्र०] वर्तमान में विराजमान आर्यिका माताओं में गणिनी ज्ञानमती माताजी अग्रणी मानी जाती हैं। सिद्धान्त, न्याय, साहित्य, व्याकरण आदि सभी विषयों में आपका ज्ञान परिपक्व है, संस्कृत और हिन्दी की गद्य-पद्य रचना में आप कुशल हैं। प्रारम्भ कार्य को पूर्ण करने में आप अपनी प्रतिभा के बल से सफलता प्राप्त करती हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना, इसका ज्वलंत उदाहरण है। आपके सानिध्य में लगने वाले शिक्षण-शिविर में मुझे सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ है। दिल्ली के समन्तभद्र विद्यालय (बालाश्रम) में समयसार का और हस्तिनापुर में लगने वाले मोक्षशास्त्र के शिविर में कुलपति का कार्यभार संभालने का मुझे अवसर मिला है। एक बार दिल्ली चातुर्मास के समय पर्युषण पर्व में सेठ कूचा के मन्दिर में मेरे प्रवचन हुए हैं। आप गहराई से तत्त्व चर्चा करती हैं। ___अष्टसहस्री की टीका आपके न्याय विषयक वैदुष्य को प्रकट करती है तो नियमसार की टीका आपके सैद्धान्तिक तथा संस्कृत ज्ञान को प्रकट करने में सक्षम है। हिन्दी में लिखित इन्द्रध्वज तथा कल्पद्रुम पूजा विधान आदि आपकी काव्य निर्माण शक्ति को प्रकट करते हैं। प्रवचन निर्देशिका आदि कितनी ही पुस्तकें नवीन विद्वानों को प्रवचन कला सिखाने में समर्थ हैं। अभिवन्दन की बेला में आपके दीर्घजीवी होने की कामना करता हुआ आपके चरणों में विनयाञ्जलि समर्पित करता हूँ। "भारत-भूषण आर्यिकाश्री" - पद्मश्री, बालब्रह्मचारिणी श्री सुमतिबाईजी शहा, सोलापुर पूज्य १०५ विदुषी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का चातुर्मास श्राविका आश्रम सोलापुर हमारे आश्रम में हुआ था। माताजी की बचपन से ही हमने वैराग्यवृत्ति देखी है। वे तीव्र व प्रखर बुद्धि हैं। उनका संस्कृत, न्याय, काव्य, अध्यात्म चारों अनुयोगों में ज्ञान अगाध है। उन्होंने हिन्दी, मराठी, कनड़, संस्कृत चारों भाषाओं में काव्य रचना की है। उनका हमेशा यह प्रयत्न रहता है कि जैन धर्म की अधिक से अधिक प्रभावना हो तथा लोगों में जैन धर्म की रुचि बढ़े। आपने आर्यिका जिनमतीजी, आदिमतीजी, आर्यिका अभयमतीजी जैसी अनेक महिला रत्न तैयार की हैं। आपने अपने सारे परिवार को जैन धर्म का प्राण बनाया है। ज्ञानमती माताजी को देखकर भगवान् महावीर के समय की आर्यिका चन्दना सती का स्मरण होता है। उन्होंने अनेक जटिल ग्रन्थों का सरल हिन्दी में अनुवाद किया है। इसलिए दिल्ली में भगवान् महावीर निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने आपको न्याय प्रभाकर एवं आर्यिकारत्न की उपाधि से सम्मानित किया। स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी वे अपने आचार-विचार में स्थिर रहती हैं। सोलापुर में चातुर्मास के समय सोलापुरवासियों को धर्ममय बनाया। स्थान-स्थान पर सब लोगों के लिए प्रवचन किये सब धर्म के लोगों को आपने अपने प्रवचनों से प्रभावित किया। धन्य हैं उनकी माँ, जिन्होंने ऐसे रत्न को जन्म दिया। आप "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका निकालकर चारों अनुयोगों का ज्ञान सबको दे रही हैं। हस्तिनापुर में "दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" स्थापित करके आपने जैन धर्म का बहुत बड़ा उपकार किया है। इस संस्था से जैन धर्म को बहुत लाभ हो रहा है। ऐसी भारतभूषण आर्यिकाश्री को ईश्वर चिर आयु दे। अन्त में मैं उनको अपनी विनयांजलि अर्पित करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "इस व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता" - ब्र० मालती शास्त्री, धर्मालंकार-सरिता विहार, दिल्ली श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐसा व्यक्तित्व है जिन्हें शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। उनके कृतित्व को मात्र अभिवन्दन ग्रन्थ का रूप देकर सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता। विश्व के इतिहास में ऐसी विभूतियाँ कम ही मिलेंगी, जो स्वयं विभूति होकर अनेक विभूतियों के होकर अनेक शिष्य रत्नों को जन्म दे सकें। शिष्यों की कृतज्ञता, कृतघ्नता की भावी परिस्थितियों पर दृष्टिपात किये बिना मात्र परोपकार करना ही जिनके जीवन का लक्ष्य रहा है, उनको अपने समान तथा अपने से ऊंचा बनाने में भी जो सिद्धहस्त रही हैं तथा उपकार का बदला अपकार से चुकाने वालों के प्रति भी जिनके हृदय में प्रतिशोध की भावना कभी अधिकार न जमा सकी वह धरती माता की प्रतिमूर्ति ज्ञानमती माताजी धन्य है। __ हम शिष्यवर्ग अज्ञानतावश यदि कभी पूर्व की किसी के द्वारा की गई कोई कटुबात पूज्य माताजी के समक्ष याद भी दिला देते हैं तो उनके मुख से सदैव यही निकलता है कि “सम्यग्दृष्टि जीव को कभी किसी से बदला लेने की भावना नहीं रखनी चाहिए। सभी जीव कर्माधीन होकर शुभ-अशुभ क्रिया करते हैं। हम उनका बुरा सोचकर अपने भाव क्यों खराब करें।" उनका कहना रहता है कि "दुर्लभता से मानव पर्याय मिलने के बाद न जाने कितने जन्मों के पुण्य फलस्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की जाती है, यदि इस अवस्था में भी पाप से न डरा गया तो अनमोल रत्न को गहरे समुद्र में फेंकने जैसी स्थिति होगी। अतः हर क्षण जीवन की अनमोलता पर विचार करना चाहिए।" उनकी यही वैचारिक शक्ति आज उन्हें उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा रही है। गणिनी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी अपने आप में एक इतिहास हैं, जिसे हम जैसे साधारण मनुष्य तो पढ़ भी नहीं सकते हैं। इतिहासकार एवं शोधार्थियों के लिए उनका प्रत्येक कार्य अन्वेषणीय है। अपनी शारीरिक शक्ति से कई गुना अधिक परिश्रम इन्होंने अपने जीवन में साहित्य रचना में तथा शिष्यों को योग्य बनाने में किया है। मैंने स्वयं सन् १९७०-७१ में देखा है कि अष्टसहस्री ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादकाल में वे कभी-कभी रात्रि में एक घण्टा भी सोती नहीं थीं। दिसम्बर-जनवरी की भीषण सर्दी में जब माताजी को जुकाम, नजला जोरों पर था, चौबीसों घण्टे नाक टपकती रहती थी, कफ बलगम से कई-कई गिलास भर जाते थे, किन्तु माताजी की कलम नहीं रुकती थी। जिस प्रकार घी खाने वाले को घी निकालने वाले के परिश्रम का न ही परिज्ञान हो सकता है और न ही उसे उस कष्ट का अनुभव आ सकता है, उसी प्रकार अष्टसहस्री अनुवाद में पूज्य माताजी द्वारा किए गए परिश्रम का अनुमान शायद ही कोई लगा सकता है। उन्होंने वर्षों में सम्पन्न होने वाले अनेक वृहद् कार्यों को मात्र कुछ दिनों और महीनों में करके दिखाया है यह उनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग एवं तीव्र लगन का ही प्रतिफल है। मैंने उनके जीवन को नजदीकी से देखकर पाया है कि दृढ़ संकल्प और आत्मशक्ति के समक्ष संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने चरणों में झुकाया जा सकता है। उनकी छत्रछाया एवं सानिध्य में पली मैं भी उनकी शिष्या कहलाने में सौभाग्य मानती हूँ। ज्ञान का अमृत पिला-पिला कर उन्होंने हम सरीखे पौधों का सिंचन किया है। मेरी छोटी बहन कु० माधुरी शास्त्री ने १३ अगस्त १९८९ को हस्तिनापुर में आपके करकमलों से दीक्षा लेकर "आर्यिका चन्दनामती" नाम प्राप्त किया है। जम्बूद्वीप स्थल पर फलित होने वाली समस्त योजनाएं आपके ही आशीर्वाद का प्रतिफल हैं। पूज्य माताजी के पावन चरण युगल में अपनी विनयांजलि समर्पित करती हुई मैं यही भावना भाती हूँ कि आपका वरदहस्त हम शिष्य वर्ग के मस्तक पर सदा बना रहे तथा एक दिन मैं भी आपके चरणचिह्नों पर चलने का साहस प्राप्त कर सकूँ। संस्मरण की माला महकती है -ब्र० विद्युल्लता शहा, शोलापुर संस्मरण का प्रथम सुगंधी पुष्प ३६ वर्ष पूर्व की घटना है। चारित्र चक्रवर्ती १०८ आ. शांतिसागरजी के यम सल्लेखना की महायात्रा के पहले शोलापुर श्राविका संस्थानगर में अट्ठारह वर्षीया, बाल ब्रह्मचारिणी क्षु० वीरमतीजी का वीरश्री-अंतरंग त्याग वैभव देखकर सारा समाज दंग हो रहा था। वे १०८ स्व. पाय सागरजी के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ दर्शनार्थ श्राविका संस्थानगर शोलापुर के श्राविकाश्रम में पधारी थीं। इसी शुभ बेला में आश्रम में सातिशय, मनोज्ञ कमलासन, की ढाईफुट की शिल्पकलात्मक मूर्ति का रेलवे स्टेशन से शुभागमन हुआ था। जयपुर से स्व. बधीचंद्रजी गंगवाल, श्रीमहावीरजी क्षेत्र के महामंत्री ने यह अनमोल भेंट की अपूर्व देन संस्था को प्रदान कर संस्था में चार चाँद लगाये थे। पू० क्षु० वीरमतीजी के तपःपुंज गौरवर्णीय ऊंचे पूरे कद ने शोलापुर समाज का चित्त आकर्षित किया था। संस्था की संचालिका पं. सुमतीबाईजी, संस्था के पदाधिकारी तथा समाज ने आग्रह किया कि माताजी का कुछ काल वास्तव्य संस्था में हो। वे यहीं अपना अध्ययन-अध्यापन करके आश्रमवासी महिलाओं के लिए आदर्श बनी रहें, किंतु माताजी तीव्रतम वैराग्य प्रवाह में थीं। एक चौमासा म्हसवड़ में किया। क्षु० विशालमतीजी यह रत्न महाराष्ट्र में लाई थीं। स्वतंत्रता की सेनानी विशालमतीजी और माताजी का आत्मसम्मान, निजी आजादी के लिए अपनी जिंदगियाँ कुर्बान कर रही थीं। यह दृश्य उस समय मुझे बड़ा प्रभावित कर रहा था। एक चौमासे के अनंतर ही म्हसवड़ से क्षु० वीरमतीजी द्वारा आचार्यश्री शांतिसागरजी के प्रथम पट्टाधीश १०८ वीरसागरजी के विशाल संघ में दो महिलारत्न लेकर प्रस्थान करने की वार्ता सुनने में आयी। स्वप्रवत् देखी, सुनी अनुभूत घटना से मुझे व्याकुलता हो गई। क्षु० वीरमतीजी के दिव्य आकर्षणों की प्रकाश किरणें मेरे जीवन को आलोकित कर रही हैं। स्मृति का द्वितीय कोमल पुष्प १९६५ में व्याकुलतामय क्षणों से निराकुल होने का सही मार्ग मेरी जन्मदात्री आर्यिका स्व० चंद्रमतीजी ने दिखलाया। १०८ पूज्य वीरसागरजी के कारंजा चौमासा में मां (ब्र० माणिकबाई) ने उनके ही चरणों में सप्तम प्रतिमा धारण की थी। अतः मैं भी उसे लेकर जयपुर पहुंची। पूज्य आचार्य श्री वीरसागरजी के मानस-पुत्र ब्र० सूरजमलजी संघ के कुशल कर्णधार थे। इतना विशाल चतुर्विध संघ पहली बार देखकर हम भी फूले न समाये। तब संघ में देखा क्षु० वीरमतीजी का रूपांतर आर्यिका ज्ञानमतीजी में हो गया है। बाल ब्रह्मचारिणी प्रभावती जो आज आर्यिका जिनमती हैं तथा स्व० ब्र० सोनूबाई (स्व० आर्यिका पद्मावती) महाराष्ट्रीय माताओं के प्रति हमारा विशेष अनुराग हुआ। पूज्य ज्ञानमतीजी के निर्मल गहरे सूक्ष्म ज्ञान की विशेषता देखकर ही पूज्य आचार्य श्री ने अब भी "ज्ञानमती" सार्थक नामकरण किया होगा। पूज्य ज्ञानमतीजी के ज्ञान की प्रभा में मेरी माँ पूरी तरह समा गयीं। बाल तपस्विनी, विदुषी को देखते ही उनकी वैराग्य कली विकसित हुई। जयपुर के ऐतिहासिक खानिया मंदिर में माँ की क्षु० दीक्षा आचार्यश्री के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुई, लेकिन मुझे मोह ने विपन्नावस्था में छोड़ा। मेरे आँसू देखते ही माँ (क्षु० चंद्रमती) मुझे ज्ञानमतीजी की ओर अँगुली दिखाकर धैर्य बाँधने के लिए बाध्य कर रही थीं। पूज्य ज्ञानमतीजी संघस्थ वयोवृद्ध, युवा सभी तरह के साधुवृंदों के साथ स्वाध्याय में मग्न महाव्रतादि आचरण में लीन थीं। जयपुर के खानियाजी नशिया में उस समय भारत के सभी प्रांतों के दर्शनार्थियों का ताँता-सा लगा था। इतना विशाल साधुसंघ खद्योतवत् वहाँ चमक रहा था। संघ का पावन दर्शन पाकर हरेक दर्शनार्थी का मन मूयर नाच उठता था। उम्र में सबसे छोटी, किंतु क्षयोपशम विशेष से ज्ञान में बड़ी माताजी पू० ज्ञानमतीजी ही मुझे ज्ञात हो रही थीं। जन्मदा माँ को उन्हीं के पास छोड़कर मुझे विदाई लेनी पड़ी। स्मृतियों के अनोखे महकते पुष्प- शोलापुर श्राविका संस्थानगर हाईस्कूल की धुरा मुख्याध्यापिका का पद मैं सँभाल रही थी। हाईस्कूल की छोटी-बड़ी छुट्टियों में मेरा पीहर मानो संघ बन रहा था। दिवाली का त्यौहार, ग्रीष्मावकाश के मेरे दिन पू० ज्ञानमतीजी के सहवास में अनायारा बीतने लगे। छुट्टी की इंतजार में, संघस्थ साधुवृंदों के दर्शन की प्रतीक्षा में मैं एक-एक दिन शोलापुर में बड़ी मुश्किल से गिनती थी। मेरी यात्रा में साथ सहेली का कार्य प्रभावती वर्तमान में (सुप्रभावती आर्यिका) तन-मन-धन न्यौछावर करके करती थीं। ब्यावर का एक कटु सत्य संस्मरण पुष्प- पू० आ० शांतिसागरजी के द्वितीय पट्टाधीश आ० शिवसागरजी का संघ गिरनार यात्रा में था। ब्यावर में रानीवाला की नशियां में मैंने और प्रभावती ने छुट्टी का कालयापन किया। तब की घटना याद आती है। ब्यावर में तथाकथित कुछ सुधारकों ने एक जैन समाज की बाल विधवा पर संकट लाया। पुनर्विवाह का प्रस्ताव समाज कंटकों द्वारा मंजूर हुआ। पूज्य माताजी को यह नारी जीवन का कलंक लगा। माताजी ने रातों-रात उस अंजान महिला को अपने सानिध्य में बुलवाकर विधवा विवाह से परावृत्त-निवृत्त किया। तथाकथित सुधारकों को समझाया-रे सुधारक! जगत् की चिंता मत कर यार । तेरे दिल में जग बसे, पहले ताहि सुधार। संघस्थ सभी साधुवंद में हलचल क्रांति जैसी होने लगी। माताजी इस महिला का क्या करेंगी? "इतो भ्रष्टा-ततो भ्रष्टा" संघ में तो न रख सकेंगी, लेकिन माताजी ने बड़े धैर्य से पू० आचार्यश्री तथा स्व० १०८ श्रुतसागरजी को समझाया। नारी जीवन के प्रति अनुकम्पा भाव सभी साधुओं के अंतःकरण में जगाया और उस महिला की जीवन समस्या का चतुराई से,कुशलता से हल किया। उस महिला को ब्रह्मचारिणी का वेश रातों-रात दिया और उस आपत्तिग्रस्त महिला पर ब्रह्मचर्य व्रतों के संस्कार किये, उसे व्रतों में स्थिर किया। पूज्य माताजी ने धर्म के लिए सारे अपवाद-प्रवाद सहन तो किये। उपगृहन अंग का प्रात्यक्षिक दिखलाया स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तत् वदन्ति उपगृहनम् ।। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अंत में ब्यावर से मेरे साथ शोलापुर श्राविकाश्रम में ले जाने के लिए खुद माताजी ने आचार्यश्री की अनुज्ञा लेकर पूरा प्रबंध किया। उस कंचनबाई ने ४/५ साल शोलापुर श्राविकाश्रम में सदाचरण में कालयापन किया। खुद निमित्त बनकर माताजी ने पूरा पुरुषार्थं किया। होनहार जैसा है वैसा होगा, इस मान्यता में हतबल होकर धर्म की निंदा माताजी कभी सहन नहीं कर सकतीं। नामैषणा, छल-कपट से रहित होकर त्यागी अवस्था में भी एक महिला के प्रति वात्सल्यभरी निगाह से जो कार्य किया वह मेरे आँखों देखा हाल है। [५० ] नेत्रदीपक प्रेरणा के संस्मरण का एक पुष्प- स्व० आ० शांतिसागरजी के चतुर्थ पट्टाधीश स्व० आ० अजितसागरजी के जीवन को वैराग्यमयी मां का परिसंस्पर्श हुआ था । उत्साह, उल्लास की उमंग माताजी का स्थायी भाव है। निराशा, कायरता, हतबल, वृत्ति जैसी हीन प्रवृत्तियों ने माताजी का कभी स्पर्श ही नहीं किया । त्याग, वैराग्यभाव से उनका जीवन सागर पूरा भरा है। इसमें कई वैराग्य जीवन की सरिताएँ स्वयं प्रवाहित होकर समा गई हैं। अजमेर में संघ का चौमासा था। वहीं दीवाली की छुट्टियों में मैं पहुंची। माताजी द्वारा संघस्थ साधुवृंद का अध्यापन कक्ष त्रिकाल चल रहा था किशोरावस्था का एक कुमार भी अध्ययनरत था। माताजी किताबी ज्ञान के साथ चारित्र की घंटी उसे पिला रही थीं। वर्णों ब्रह्मचारी के वेश में एक दिन उसे देखकर सारे समाज को आश्चर्य हुआ । संस्कृत, व्याकरण, न्याय, आगम, अध्यात्म सारे ग्रंथों का अध्यापन उसे करवाकर निष्णात किया कुमार का मनोबल, शरीर बल वृद्धिंगत इतना हो गया कि आगे के चौमासे में उसने आचार्यश्री के चरणों में मुनिदीक्षा सीकर में स्वीकारी, इस दीक्षा में भी प्रबल निमित्त पूज्य माताजी का ही रहा । 1 रोज प्रातः माताजी का स्वयं भाव विभोर होकर दर्शन करने वाला यह बालक जब मुनि बन गया, तब माताजी ने उसे स्वयं नमोस्तु किया । चालीस साल की दीक्षित आर्यिका और एक दिन का मुनि इनमें पूज्यता की दृष्टि में इतनी विशेषता होती है माताजी के अंतःकरण में एक ही धुन है कि सारा संसार व्याकुलता से निराकुलपद में कैसे स्थिर होकर आनंद का स्रोत पायेगा ? अपाय-विचय धर्मध्यान की वही निशानी उनमें सौ टंच मैने देखी है। स्व० आचार्य अजितसागरजी की यह धर्म माता धन्य हैं। उपादान की योग्यतानुसार कार्य तो होता रहेगा, मगर पुरुषार्थ त्याग तपस्या का निमित्त जुटाना, जोड़ने में कभी प्रमाद या कसूर नहीं करना यही माताजी की धारणा है पू० माताजी इसी में गतिमान होकर रलत्रय का प्रगति पथ हरेक को दिखलाती हैं। पू० माताजी ने अनेक भव्यों पर अनुग्रह किया ही है। उसी के साथ अपने परिवार को धर्म का रसायन पिलाया। जन्मदात्री माँ की आर्यिका दीक्षा व समाधि, २ भगिनियों की आर्यिका दीक्षाएँ, बंधु रविंद्रकुमार को सांस्कृतिक- सामाजिक योगदान तथा व्रती जीवन व युवकों का नेतृत्व, हस्तिनापुर का भौगोलिक नेत्र दीपक प्रकल्प, न्याय ग्रंथ अष्टसहस्त्री जैसे का अनुवाद, उपन्यास, कहानियाँ और सबसे बड़ा आकर्षण पूजा विधानों की सरस-सरल पद्यमय रचनाओं आदि के द्वारा इसी भारतीय नारी का सर्वोच्च सम्मान हुआ है। "नारी गुणवती धत्ते श्री सृष्टेरग्रिमं पदम्" माताजी को यह अग्रिम पद स्वयं क्रांतिमय जीवनोत्कर्ष से प्राप्त हुआ है। माताजी की पदयात्रा से भारतभूमि का उत्तर से दक्षिण तक एक-एक गांव पावन हुआ है। उन्होंने समाज को संगठित कराकर धर्म की ध्वजा फहराई है। भ० बाहुबली गोमटेश्वर यात्रा में हैदराबाद प्रवास में निजी बहन मनोवती को क्षुल्लिका दीक्षा का महोत्सव आन्ध्र प्रांत में अनोखी प्रभावना का कार्य मैंने देखा है। वे भी आज साहित्य सृजन में, समाज के उद्बोधन, प्रबोधन में लगी हैं। कुमारिकाओं का आर्यिका संघ उन्होंने ही प्रथम बार स्वयं स्थापित किया है। भ० बाहुबली गोमटेश्वर की यात्रा सम्पन्न करके १९६५ में माताजी के संघ का शोलापुर श्राविका संस्थानगर में शुभागमन हुआ। ५ आर्यिकाएँ थीं। उसी समय शहर के मंदिर में १०८ पू० आचार्य विमलसागरजी के संघ का भी चातुर्मास था। शोलापुर के समाज के भाग्योदय का काल था। धर्मामृत की वर्षा रोज चारों तरफ बरसती थी । श्राविकाश्रम में माताजी के २/३ केशलोच समारंभ, रोज के प्रवचन, पठन-पाठन पूजाविधान आदि कार्यक्रमों द्वारा श्राविका संस्था के पन्ने सुवर्णांकित हो रहे थे। जम्बूद्वीप प्रकल्प का उद्गम स्थान, विचारों का बीजांकुरारोपण यहीं हुआ था। पूज्य माताजी अपना सारा विचारमंथन हमें बताकर सुमतीबाईजी को प्रेरित करती थीं। समानशील व्यसनेषु सख्यम्। माताजी और हमारा उत्साह रोज बीज के चंद्रकौर के समान वृद्धिंगत होता था। हर शनिवार को सुबह ७ बजे स्कूल के प्रांगण में हजारों छात्राएँ तथा अध्यापकगण, पूज्य माताजी की सुश्राव्य कहानी, प्रचुर प्रवचन सुनने के लिए लालायित होता था। प्रवचन द्वारा माताजी घर-घर पहुंचती थीं। रोज मानो माताजी आदि-मध्य-अंतिम-मंगल श्राविका संस्था में गा-गा करके सभी का मंगल चाहती थीं। वैसे तो माताजी का स्वास्थ्य कमजोर है, क्योंकि संग्रहणी की बीमारी से आहार में हमेशा बाधाएँ पड़ती हैं, लेकिन माताजी का आत्मबल, मनोबल बलशाली है, सागर जैसा महान् गहरा, पृथ्वी समान विशाल, आसमान जैसा निर्लेप है। इसलिए आज यह पूनो का चाँद अभिवंदन ग्रंथ द्वारा सम्मानित वंदनीय हो रहा है। 1 चरणों में शत शत वंदन । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ज्योति-स्तम्भ -ब्र० कमलाबाई जैन "नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदम्" उक्ति को चरितार्थ करने वाली महिमामयी साध्वी गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन की योजना को सुनकर चित्तप्रमुदित हुआ। आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का समाराधित भव्य जीवन प्रत्येक नारी के लिए एक उज्ज्वल निदर्शन है। वस्तुतः अभिवंदन ग्रंथ योजना परम स्तुत्य व पुनीत कर्त्तव्य है। वह भारत वसुन्धरा धन्य है, जहाँ की नारियाँ अपने शील, त्याग धर्माचरण के द्वारा पुरुषों के समान ही साफल्य का स्वागत करती हैं। ऐसी ही पूजनीया, अर्चनीया, वन्दनीया, अनुपम ज्योति के समान जग को प्रकाशित और पवित्र करने वाली आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की ओर ध्यान-बरबस ही खिंच जाता है। जिन्होंने बालसुलभ क्रीड़ाओं के साथ ही अपनी माँ १०५ आर्यिका श्री रत्नमतीजी के दहेज में प्राप्त “पद्मनंदि पंचविंशतिका" ग्रन्थ का स्वाध्याय अपनी १२-१३ वर्ष की उम्र में ही कर लिया था। जिससे उनके हृदय में वैराग्य के दृढ़ संस्कार समा गये और उन्होंने निज मन में गृहस्थ बन्धन अस्वीकार करने का संकल्प कर लिया। सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की। तत्पश्चात् १९५६ में आपकी उत्कृष्ट वैराग्य-भावना तथा अलौकिक ज्ञान को देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने आर्यिका दीक्षा प्रदान कर लघु वयस्का शिष्या को अति सूक्ष्म संबोधन भी प्रदान किया--"ज्ञानमतीजी! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है उसका सदैव ध्यान रखना।" ____ यदि आज "यथा नाम तथा गुण" कहावत पूर्णतः चरितार्थ हुई है तो पूजनीया माताजी में ही। आपने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करते ही जैन धर्म के गूढ़तम ग्रन्थों का अध्ययन करना तथा समाज को सुदृढ़ मार्ग प्रशस्त करना अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य बना लिया। अत्यल्प समय में ही सुसंस्कृतज्ञा होकर आपने अन्य भाषाओं पर भी पाण्डित्य प्राप्त कर लिया और तदनुरूप सृजन कार्य शुभारम्भ कर दिया। इस प्रकार अनेक सद्ग्रन्थों की रचना कर चिरस्मरणीय कीर्तिमान स्थापित किया है। साथ ही दीक्षा गुरु के नाम को चिरस्थाई बनाने हेतु एक संस्कृत विद्यापीठ स्थापित कराया, जिसमें अनेक विद्वान् शास्त्री और आचार्यों की उपाधियाँ प्राप्त कर प्रेरणा के स्रोत बने हैं। "जम्बूद्वीप" निर्माण की पावन प्रेरिका बनकर श्री हस्तिनापुर क्षेत्र को प्रगति के शिखर पर पहुँचाने का श्रेय भी आपको ही है। इस प्रकार पूज्य माताजी ने अपने संयमित जीवन के साथ-साथ जिन-दर्शन, जिन-साहित्य एवं आचार्यों के पुनीत ग्रन्थों का आलोढ़न कर समाज एवं राष्ट्र को जो ज्ञान-प्रकाश दिया है वह युग-युग तक मोक्ष-मार्ग को प्रकाशित करता रहेगा। अस्तु, आप धर्म का ज्योति-स्तम्भ बनकर जन-जन की आत्मा को धर्म ज्ञान के आलोक से प्रकाशित कर रही हैं। उक्त सन्दर्भ में किसी कवि ने स्व ही कहा है "गुण गौरव की कोमल कलियाँ, नित नूतन जीवन भरती । खुशबूदार प्रेम से मानव, मन को आह्लादित करतीं। माताजी के आशीर्वाद से जब मैं स्वस्थ हुई -ब्र० चित्राबाईजी [संघस्थ आ० विमलसागरजी] पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का प्रथम दर्शन मैंने लगभग ३८ वर्ष पूर्व कोल्हापुर (महाराष्ट्र) अपने नगर में किया था। आज भी आपके ज्ञान व उपदेश की चर्चा हमारे नगर के घर-घर में होती है। आपकी कठोर तपस्या एवं ब्रह्मचर्य के तेज का अतिशय मैंने तब स्वयं अनुभव किया है, जब सन् १९८७ में आचार्य श्री विमलसागर महाराज के संघ के साथ मैं भी हस्तिनापुर जम्बूद्वीप स्थल पर चौका लगा रही थी। एक दिन मेरे पैरों में इतना दर्द हुआ कि सूजन आ गई और मेरा उठना-बैठना मुश्किल हो गया। मैंने प्रातःकाल कु० माधुरी (वर्तमान में आ० चन्दनामती) को बुलाकर कहा कि मुझे ज्ञानमती माताजी की पहनी हुई धोती लाकर दो; क्योंकि मुझे विश्वास था कि इस बाल ब्रह्मचारिणी की धोती पहनकर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मैं अवश्य स्वस्थ हो जाऊँगी। उसने तुरन्त माताजी को नयी धोती पहनाकर उनकी पुरानी धोती लाकर मुझे दी। मैंने उस धोती को पहना और शाम ३ बजे तक मुझे स्वस्थता महसूस होने लगी, तभी मैं स्वयं अपने पैरों से चलकर पूज्य माताजी के पास पहुंची और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। मैं भगवान् महावीर से प्रार्थना करती हूँ कि माताजी का स्वास्थ्य अच्छा रहे, वे बड़े-बड़े धार्मिक कार्यों को करती रहें तथा दीर्घायु पाकर स्व और पर का कल्याण करती रहें। पुनः माताजी को वंदामि। जैन समाज की अचल सम्पत्ति की संरक्षिका - ब्र० कु० प्रभा पाटनी [संघस्थ आचार्य श्री विमलसागरजी] "नारी सबला है अबला नहीं' यह करके दिखाने वाली रत्न बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती हैं, जिनके अदम्य साहस ने अनेक कष्टों को सहते हुए समाज व देश से निर्भीक हो जैन समाज की जिस अचल सम्पत्ति की रक्षा की है- वह है, साहित्य सृजन व मन्दिर निर्माण जम्बूद्वीप आदि । ऐसी महान् ज्ञान व तपोवृद्ध माताजी के जीवन में एक बार सभी के लिए दर्शन अत्यावश्यक हैं। मैंने दो बार दर्शन किये हैं- एक बार १५ दिन तक हस्तिनापुर में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दूसरी बार दो वर्ष पूर्व सिर्फ ४ घण्टे साथ रहे। उनकी वाणी में ओज है। जीवन में धर्म संबल कैसे प्राप्त हो, साधु का मिलान कैसे हो, ऐसे उन्होंने मुझे अपने जीवन के कई अनुभव बताये व एक बात पर विशेष जोर दिया कि साधु व आर्यिका तो दूर-दूर होने के कारण आपस में मिल नहीं सकते हैं; अतः संघ में रहने वाले शिष्यों को (ब्रह्मचारी आदि को) अन्य संघों में आना-जाना चाहिये व कुशल-क्षेम के समाचार अर्थात् समाचार विधि को बनाये रखना चाहिये, जिससे आपस में वात्सल्य बना रहता है। हमने इस प्रकार कई बातें अनुभव की सीखीं। मैं पूज्य माताजी के द्वारा बतायी गयी समस्त बातों पर चलने का पूर्ण प्रयास करूँगी तथा वीर प्रभु से प्रार्थना करती हूँ कि युगों-युगों तक माताजी ज्ञान की लहरें देती रहें व हमारे बीच बनी रहें, शतायु हों तथा हम उनका अनुकरण कर सकें। अतः माताजी के चरण सरोज में शत-शत नमन। कौन कहे नारी अबला ? -ब्र० कु० रेवती दोशी-अकलूज (महाराष्ट्र) [आर्यिका स्व० अजितमती माताजी की शिष्या] जब सृष्टि अनादिनिधन है, तब वस्तु व्यवस्था भी अनादिनिधन है और उसे यथार्थ रूप से कहने वाला जिनधर्म भी अनादिनिधन है। लेकिन भरत ऐरावत क्षेत्र में सदैव काल परिवर्तन होता रहता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो चतुर्थ काल में इस क्षेत्र में जिनधर्म के आद्य प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव हुए। भगवान को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ और देवों ने आकर समवशरण निर्माण किया तभी से प्रत्येक तीर्थंकर के समवशरण में कोई न कोई आर्यिका, गणिनी होकर धर्मप्रभावना करती आ रही है। वर्तमान युग में उस परंपरा का प्रतीक हम पूज्य गणिनी आर्यिका १०५ श्री ज्ञानमतीजी के रूप में देख रहे हैं। जब-जब मैं अंतर्मुखी होकर सोचती हूँ, तब-तब मुझे ऐसा लगता है, मानो आज भी चतुर्थकाल ही चल रहा है। और मैं क्यों न ऐसा मानूं कि माताजी एक स्त्री होकर इतना कार्य करके दिखाती हैं। जम्बूद्वीप रचना जो दुनिया में बेजोड़ है। अष्टसहस्री जैसे कठिनतम न्याय ग्रंथ का गम्भीर चिंतनपूर्वक अनुवाद करने की क्षमता! सम्यग्ज्ञान जैसे दर्जेदार मासिक का चलना, जिसमें कि चारों अनुयोगों लता है। अनेक शिविर लेकर धर्म संस्कार की नींव आने वाली प्रत्येक पीढ़ी के लिए डालना, विविध पूजा और विधान के लिए भक्तिपूर्ण काव्य निर्मिती/आर्यिकाओं का संघ संभालना/मैं पूछती हूँ ये सब जो देखेगा भला कौन ऐसा कहेगा कि नारी अबला होती है ? आजकल समाज में पूजा विधि विधान जानने वाले पंडितवर्ग दिन पर दिन दुर्लभ होते जा रहे हैं। जहां पंडित हैं, उनके पुत्र यह काम सीखते नहीं। किंबहुना, आजकल पंडित होना अपमानास्पद लगता है और जो हैं या जिनके पुत्र पिताकी जगह पर मंदिर का काम करते हैं उन्हें विधि-विधान की जानकारी पूर्ण रूप से नहीं होती। यदि हमारा पंडितवर्ग पूजा के साथ-साथ चारों अनुयोगों का ज्ञान प्राप्त कर ले और पूजा के समय लोगों को प्रभावित करने के लिए उसका उपयोग करे तो पूजा केवल क्रियाकांड न होकर लोग, ... हमारी युवा पीढ़ी उसमें सम्मिलित हो जायेगी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हमारी आवश्यक क्रियायें जैसे कि सकलीकरण,मंत्र साधना आदि, उनका आधुनिक विज्ञान के साथ मेल लगाकर हमें लोगों को बताना चाहिए। इसलिए हमारा पंडितवर्ग अच्छा जानकार चाहिए। इसलिए पंडित लोगों का शिविर भी माताजी लेती हैं। यह समाज के लिए महान् ऋण है। यह सब करने के लिए आदमी भविष्य का द्रष्टा होना चाहिये और माताजी निर्विवाद द्रष्टा हैं। सन् १९९१ में जब जनवरी से अप्रैल तक बारामती में आचार्य श्री चारित्रचक्रवर्ती समाधिसम्राट् शांतिसागरजी महाराज की अंतिम शिष्या विदुषीरत्न चारित्रचंद्रिका १०५ आर्यिका श्री अजितमती माताजी की सल्लेखना चल रही थी तब ज्ञानमती माताजी ने एक श्राव्य कैसेट में क्षपक के लिए उत्कृष्ट संबोधन भरके पंडित प्रवीणचंद्र शास्त्री के हाथों बारामती में भिजवाया था और बार-बार पत्रों के माध्यम से क्षपक की क्षेम कुशलता पूछती थीं। शरीर से इतना दूर थी, अतः आ तो नहीं सकती थी, लेकिन उपलब्ध माध्यम से क्षपक के लिए कितनी सावधानता! सचमुच साधु तो वात्सल्य की मूरत ही होते हैं। "परोपकाराय सतां विभूतयः" इस उक्ति के अनुसार हमारे त्यागियों का जीवन है। धन्य ही है आपकी गुणवत्ता, जो अखिल स्त्री समाज को ललामभूत है। ऐसी सिद्धांतवेत्ता जिनधर्म प्रभाविका गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के चरणारविंद में हमारा शत शत वंदन और प्रतिदिन आपके लिए रत्नत्रय धर्मसहित दीर्घायु और आरोग्य की मंगलकामना । "संस्कारों की जन्मदात्री" - ब्र० धर्मेन्द्र कुमार जैन वर्णी गुरुकुल, जबलपुर (म०प्र०) मैं कक्षा तीन में पढ़ता था तब मेरे गाँव में आचार्य धर्मसागरजी के संघस्थ क्षुल्लक श्री सूर्यसागरजी की प्रेरणा से बन्द पाठशाला पुनः प्रारम्भ हुई। उस समय अध्ययन के लिए पूज्य माताजी द्वारा रचित बाल विकास भाग-१ से ४ ही निश्चित किये गये। उक्त पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ डाक द्वारा दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से मँगाई गईं। मेरे हाथ में पहले बाल विकास भाग-१ की प्रति आई। उसका प्रथम पृष्ठ खोला, परोक्ष रूप से पूज्य माता जी के चित्ररूप में दर्शन किये। उस चित्र में इतना आकर्षण था कि मन में प्रत्यक्ष दर्शन के भाव हुए, किन्तु बाल्यावस्था माता-पिता के अधीन होती है; अतः उस समय प्रत्यक्ष दर्शन असंभव था। नित्यप्रति पाठशाला जाता, उस चित्र के दर्शन करता, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन के बिना संतुष्टि नहीं होती। दर्शन की भावना बलवती होती गई, समय निकट आया। २२ जून १९८७ की बात है, हायर सैकेण्डरी का परीक्षा परिणाम आते ही पू० माताजी के प्रत्यक्ष दर्शन एवं जैन दर्शन के अध्ययन की भावना को फलीभूत करने हेतु २४ जून १९८७ को तीर्थंकर एवं चक्रवर्तियों की जन्मभूमि हस्तिनापुर को जाने के लिए माता-पिता से आग्रह किया, परन्तु अस्वीकृति प्राप्त हुई, तथापि येन केन प्रकारेण जालसाजीपूर्वक निकल गया; फलतः दूरी तय कर माताजी के चरणों में जा पहुँचा। एक ओर माताजी के दर्शन , दूसरी ओर महापुरुषों की जन्मभूमि के दर्शन । अहो भाग्य! अपने को धन्य समझा। वहाँ पहुँचने के ठीक ७ दिन बाद पूज्य माताजी ने मेरे अध्ययन की व्यवस्था करवाई। व्याकरण की शुरूआत तो स्वयं माताजी ने मंगलाचरण कराकर की। व्याकरण एवं संस्कृत पढ़ने की उत्कण्ठा माताजी के सानिध्य से ही हुई। कातन्त्र व्याकरण सन्धि प्रकरण तो वहीं पढ़ा। पूज्य माताजी ने अपने जीवन में ज्ञानार्जन के क्षेत्र में कई लोगों को तैयार एवं प्रेरित किया। पूज्य माताजी को मैं संस्कार जन्मदात्री के रूप में मानता हूँ; क्योंकि यज्ञोपवीत संस्कार वहीं से हुआ। सात्विक जीवन के साथ धर्म और संस्कृति की रक्षा एवं गुरु के प्रति समर्पण भाव ये दो शिक्षाएँ मुख्य रूप से आपके सान्निध्य से प्राप्त हुईं। पूज्य माताजी द्वारा दिये गये संस्कारों का विस्मरण मैं कभी नहीं कर सकता हूँ। उनके श्री चरणों में मैं अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भारती सम तिमिर हरती -ब्र० धरणेन्द्र कुमार जैन विधानाचार्य जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर ज्ञान की ज्योति जलाकर, धर्म का करती प्रकाश । भारती सम तिमिर हरती, अज्ञान का होता विनाश । ज्ञान की नित साधना, आराधना नित ज्ञान की। ज्ञान की जिन की मती है! उनकी उतारूँ आरती । शुभाशुभ महाकर्म, कलिता मनुजाः सदा । गुरुपदिष्टाचारेण, जायन्ते गुवों गुणैः । संसार में मनुष्य सदा शुभ-अशुभ कर्मों के करने में ही तल्लीन रहते हैं। परन्तु वे ही मनुष्य गुरु के उपदेश के अनुसार आचरण का पालन करने से गुणों से भी गुरु हो जाते हैं। परम पूज्य गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती गताजी भी परमपूज्य आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से जो नाम प्राप्त किया है ऐसे ही यथा नाम तथा गुणवाली हैं। उन्होंने अपने अलौकिक गुणों से माँ सरस्वती के भंडार को तो भरा ही है, वे जंगल में मंगल करने वाली हैं। वे विलक्षण प्रतिभाशाली हैं। उनके प्रथम दर्शन में ही भक्त बरबस ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। जैसे-लोहा चुम्बक की ओर आकर्षित हो जाता है। मैं भी सन् १९९० सितम्बर में हस्तिनापुर यात्रार्थ आया था। उस समय माताजी का दर्शन करते ही जैसे प्यासा प्राणी पानी को देखते ही उस तरफ भागता है। ऐसे ही मेरा मन भी माताजी की छत्र छाया में रहकर विद्या पिपासा को पूर्ण करने की इच्छा हुई और मन में सन्तोष हुआ था कि उ० प्रदेश में भी चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री० शान्तिसागरजी महाराज दक्षिण परम्परा के साधु भी उपस्थित हैं। ऐसा सोचकर पुनः प० पू० गुरुदेव चारुकीर्ति भट्टारक स्वामीजी के पास जाकर उनकी अनुमति प्राप्तकर के माताजी के सानिध्य में आया। माताजी के सानिध्य में अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया और विधि विधान, प्रतिष्ठा आदि विद्यायें प्राप्त करके विधानाचार्य बना एवं प्रतिष्ठाचार्य का कोर्स चल रहा है। माताजी के सानिध्य में ही इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र ,जम्बूद्वीप,तीन लोक आदि बड़े-बड़े विधानों में भी आचार्यत्व को प्राप्त करके निर्विघ्नता से सम्पन्न कराया और चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की २ प्रतिमा एक पार्श्वनाथकी प्रतिमा इन तीनों प्रतिमाजी की लघु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठा विधि सीखी। प्रतिष्ठा के समय ८-३-१९९२ को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। ऐसे अनेक लाभ माताजी के सानिध्य में प्राप्त किये वास्तव में जो कार्य माताजी ने धार्मिक, सामाजिक एवं साहित्य के क्षेत्र में किये हैं वे बड़े-बड़े पुरुषों के लिए भी दुःसाध्य हैं। ये अपने युग की श्रेष्ठतम महिला हैं। इन्होंने अनेक पुरुषों एवं महिलाओं को संसार मार्ग से निकालकर मोक्षमार्ग में लगा दिया है। इतना ही नहीं अपनेसे पूज्य मुनिपद में भी प्रतिष्ठित कराया है। गुरुं विना न कोष्यस्ति भव्यानां भवतारकः । मोक्ष मार्ग प्रणेता च सेव्योतः श्री गुरु सताम् । आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि गुरु के बिना इस संसार में भव्य जीवों को जन्म-मरण रूप संसार से पार कर देने वाला अन्य कोई नहीं है। ऐसा भाव रखते हुए मैं हमेशा उनका चिर ऋणी हूँ। पूज्य माताजी के जम्बूद्वीप, कमल मन्दिर आदि भी ऐसे कार्य हैं। जिनके लिए सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज उनका चिर ऋणी है। ये कार्य कभी भुलाये नहीं जा सकते। ___ आज भी पू० माताजी श्रावकों को सामाजिक, पारिवारिक संकटों से निकालकर भगवान जिनेन्द्र के दिव्य संदेश द्वारा पाप-मार्गों से बचाकर धर्म में प्रतिष्ठित कर रही हैं। अंत में यही कामना है कि वरद हस्त सिर पर रहे बोध दिशा के साथ । ज्ञानामृत झरता रहे पूर्ण चन्द्र के हाथ । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ गुणों की करण्ड Jain Educationa International - बा० प्र० मनोरमा शास्त्री, बी०ए०, अवागढ़ परम पूजनीया १०५ पंचमकाल की प्रथम बाल ब्र० माता ज्ञानमतीजी से कौन परिचित नहीं होगा, अर्थात् विश्व के बच्चे-बच्चे के मुख पर उनका नाम, चक्षुओं पर आभा एवं अधरों पर उनके गुण विराज रहे हैं। नारी जीवन को, जो व्यक्ति निःकृष्ट पर्याय समझते हैं, उन्होंने इस बात को नकार दिया, नारी नर की खान होने के साथ-साथ पुरुषों से भी बढ़कर है। त्याग-संयम के क्षेत्र में आने पर वह पुरुष से भी आगे बढ़ जाती है। असंयमी पुरुष, चाहे वह कितनी ही बड़ी गद्दी या मिल का मालिक हो, उसे नारी के आगे झुकना ही पड़ता है। कौन जानता था कि मैना नाम की कन्या अपने नाम अर्थात् मैं-ना, मैं नाम के शब्द को अलग करके रखेगी, पक्षी की तरह बिना पंख होते हुए भी गृहवास का त्याग कर देगी । आज कही मैना हम सबके सम्मुख ज्ञानमती ( सम्यक्ज्ञान बुद्धि होकर विराजमान हैं। उनकी लेखनी पर एवं उनके निर्देशन में बनाये गये विश्व-विख्यात जम्बूद्वीप पर सभी गौरवान्वित हैं। जम्बूद्वीप की अनुपम छटा को देखकर मन गद्गद हो जाता है, देश-विदेश के कोने-कोने से वहाँ आकर जीव ज्ञान गंगा में स्नान करके अपने पाप कल्मषों को धोते हैं। ऐसी पूज्या गुणकरण्ड ज्ञानमती माताजी हम सबके सम्मुख चिरकाल तक नीरोग काया को लेकर विराजमान रहें, यही वीरप्रभु से प्रार्थना है। अमर रहेगी इस धरती पर तेरी गौरव गाथा [५५ - ग्र० सुंदरबाई मांगीतुंगीजी १०५ विदुषी आर्यिकारत्न श्री श्रेयांसमती माताजी की शिष्या धन्य धन्य है जग की माता, अमर रहेगी इस धरती पर तेरी गौरव गाथा ॥ पाने को आशीष झुके हैं अगणित भाल ललाम । "माता ज्ञानमती" को मेरा सौ-सौ बार प्रणाम ॥ जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका गणिनी आर्यिकारत्र प०पू० श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में प्रकाशित अभिवन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिए अपनी हार्दिक मंगलकामनाएँ भेज रही हैं। पूज्या माताजी ने अपने ज्ञान और आचरण द्वारा समस्त नारी जाति का मस्तक ऊँचा किया है और अनेक प्राणियों को संयम मार्ग में अग्रसर किया है। अपने ज्ञान और विवेक द्वारा आपने अनेक प्रांतों की धर्म-पिपासु जनता को धर्मामृत का पान कराकर उसे सच्चे देवशास्त्र गुरु की दृढ़ श्रद्धा पर आरूढ़ किया है। पूज्या माताजी ने अपने संघ के माध्यम से जैन धर्म का जिस रूप में प्रचार-प्रसार किया है, वह अविस्मरणीय है और आपने जम्बूद्वीप की रचना करके इस भारत भूमि के जीवों को महान् वैभव दिलाया है आपके दर्शन, सदुपदेश और आशीर्वाद हमें दीर्घकाल तक प्राप्त होते रहें । देवाधिदेव १००८ श्री विश्व हितंकर सातिशय चिंतामणि पार्श्वप्रभु से आपके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन की मंगलकामना करती हैं और प्रार्थना करती हूँ। ऐसी अद्वितीय धर्म प्रभावक पूज्या माताजी के चरणकमलों में शत-शत वन्दन । For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला माताजी के चरणों में विनम्र विनयांजलि -ब्र० उषा जैन एम.ए., कसरावद, पश्चिम निमाड़ [म.प्र. ] परम पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे प्रथम बार जून १९८४ में मिला। जब आपके सान्निध्य में जैन अध्यापक एवं अध्यापिकाओं का एक आठ दिवसीय शिविर हस्तिनापुर में आयोजित किया गया था, दशधर्म एवं तत्त्वार्थसूत्र का अध्ययन कराया गया था। शिविर के कुलपति सागर के डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्य थे। उस समय मैं भी एक अध्यापिका के रूप में सम्मिलित हुई थी। शिविर पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। शिविर में पूज्य माताजी पधारती और अपने प्रवचनों से हमें लाभान्वित करती रहतीं। आपकी वाणी में सहज आकर्षण रहता था, इसलिये हम शिविरार्थी उसे ध्यानपूर्वक सुनते थे। शिविर के अन्तिम दिन समस्त साथीगणों को अपने-अपने विषय पर बोलने को कहा गया था, तब मुझे भी उत्तम क्षमाधर्म पर बोलने का अवसर मिला तो उस समय मुझमें वह साहस नहीं था कि बहुत से पंडितों के समक्ष कुछ कह सकूँ। लेकिन आपकी मृदु वाणी ने मेरा हौंसला व हिम्मत बढ़ाई और मैंने घबराते हुए दो शब्द बोलने का साहस किया। आपने मेरी प्रशंसा में जो कुछ भी कहा उससे मैं इतनी प्रभावित रही कि कब पुनः दर्शन करने व मृदु वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा, यही इच्छा आज तक बनी हुई है। यद्यपि मैं पंचकल्याणक में हस्तिनापुर आई, लेकिन वृहत् जन समूह में ठीक से दर्शन भी न हो सके। आपकी प्रवचन शैली व लेखनी दोनों ही अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयग्राही हैं। आपने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे- इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम महामंडल विधान व सर्वतोभद्र विधान जैसे विशाल विधानों पर ग्रन्थ लिखे तथा हस्तिनापुर में विश्व प्रसिद्ध “जम्बूद्वीप" जैसी विशालकृति को अपने मार्गदर्शन में पूर्ण करवा कर देश-विदेश के कोने-कोने में जैन धर्म एवं संस्कृति की ख्याति फैलायी। इस प्रकार आज देश को व जैन समाज को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की आवश्यकता है, जिनका जीवन स्वयं के लिए नहीं, अपितु संसार के तमाम प्राणियों को सन्मार्ग दिखाने के लिए है। अस्तु, मैं त्रिबार सादर वन्दना करती हुई आपके दीर्घायु की मंगल-कामना करती हूँ। ताकि इस संसार चक्र में फंसे हुये प्राणियों को आपका मार्ग-दर्शन एवं आशीर्वाद मिलता रहे। VINAYANJALI TO MATA JI – -Km. Astha Jain Time to time many great souls have taken birth in India. There were 24 'Teerthankaras' in Arya-khanda of Bharat Kshetra of Jamboo-Dweep. The first Teerthanker' was shri Adinath & last Lord Mahaveer. The first Digamber Muni was Charitra Chakraverti Acharya Shri Shantisagarji Maharaj of 20th century. Shri Veersagarji Maharaj was the first disciple of Shri Santisagerji Maharaj. In the present time 105 Ganini Aryika Ratna Shri Gyanmati Mataji had taken 'Diksha' from Veersagerji Maharaj. Mataji was born in 1934 in a small village "Tikaitanager' district Barabanki. She is the first daughter of mother 'Mohini' & father Shri 'Chhotelal'. When Mataji left her house, she was only 18 years old. She studied up to fourth class only but today she is the most learned Aryika in the history of 2 thousand years. Today Mataji is the first lady who has written many scriptures & translated in Hindi. Mataji has a deep knowledge about 'Jain Mythologies'. When Mataji translated Ashtasahasri', then the whole Jain Society has astonished. Once Mataji was meditating in front of the image of Lord Bahubali in Shravanbelgol (Karnataka) then Mataji saw the model of Jamboo-Dweep. This model has been realized in Hastinapur. Hundreds spectators come here to see it. I also came here to see Jamboo-Dweep, & its solemn atmosphere impressed me so much that I decided to live near Mataji. Today I am studing under the shadow of Mataji. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५७ "धन्य मात सानिध्य तुम्हारा" -ब्र० कु० बीना जैन संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री. ज्ञानमती माताजी इस पावन वसुन्धरा पर समय-समय पर अनेक महान् आत्माओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक आत्मा पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी भी हैं। कन्या रूप में त्याग-मार्ग में पहला कदम रखने वाली ये ही पूज्य बड़ी माताजी हैं। इनके दीक्षा लेने के बाद अनेक कन्याओं ने अपने जीवन का उद्धार किया है। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने मात्र कक्षा ४ तक पढ़कर भी अनेक ग्रन्थ लिख डाले और इतना बड़ा काम भी कर डाला कि आज तक किसी भी आर्यिका ने इतने ग्रन्थ नहीं लिखे थे। हमने १० साल पहले दिल्ली में पूज्य माताजी के दर्शन किये, वहाँ पर १०-१५ दिन रुके भी। पुनः सन् १९८२ में हस्तिनापुर में पूज्य माताजी के दर्शन किये और ऐसा प्रेम वात्सल्य मिला कि फिर जाने का मन ही नहीं हुआ। सन् १९८९ में हमने ब्रह्मचर्य व्रत एवं दो प्रतिमा के व्रत पूज्य माताजी से ग्रहण किये। पूज्य चन्दनामती माताजी, जो कि पहले ब्रह्मचारिणी कु० माधुरी थीं, इनके पास हमारा बहुत मन लगा। मन में ऐसी भावना आई कि हम भी इनके पद चिह्नों पर चलने का प्रयास करें। पूज्य माताजी ने अनेक ग्रन्थ लिखे, अष्टसहस्री, नियमसार, समयसार और भी अन्य पुस्तकें लिखीं। पू० माताजी की पहचान ही यह है कि जब भी देखो तभी उनके हाथ में कलम रहती है, कुछ न कुछ जरूर लिखती रहती हैं। जब पूज्य चन्दनामती माताजी कहती हैं कि माताजी आज आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, न लिखो तब माताजी कहती हैं कि हम जब तक कुछ लिखते नहीं हैं तब तक हमारा पेट नहीं भरता है। चाहे कितनी भी तबियत गड़बड़ हो, लेकिन लिखने से उनको हल्कापन मालूम पड़ता है। जितना बड़ा काम आज पूज्य माताजी ने किया उतना काम आज तक किसी भी आर्यिका ने नहीं किया। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से हमने अपनी मौसी कु० माधुरी के साथ ज्ञानज्योति में जाकर भी खूब आनन्द लिया था। इस प्रकार पूज्य माताजी के ९ वर्षीय सानिध्य से मेरे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। आगे भी इसी प्रकार ज्ञान और संयम की आराधना करते हुए मुझे आपका वरदहस्त प्राप्त होता रहे, यही जिनेन्द्र भंगवान् से प्रार्थना है। . "मेरी जीवन पद्धति बदल गई" - डॉ० डी०सी० जैन सफदरजंग हॉस्पिटल, नयी दिल्ली पूजनीया आर्यिकारत्न ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ किया गया है, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। माताजी का परिचय मुझे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एक सद्गृहस्थ ने दिया। उनके गुणों से प्रभावित होकर मैंने अपने जीने की पद्धति को एकदम बदल दिया। मुझे जैन धर्म की सार्थकता की अनुभूति तभी हुई। पूजनीया माताजी ने जिनवाणी की जो सेवा की है, वह अद्वितीय है। उनके चरणों में मेरा शत-शत नमन है। अभिवन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन में सफलता प्राप्त हो, यही मेरी शुभकामना है। माताजी द्वारा नये युग का प्रारम्भ -डॉ० लालबहादुर शास्त्री गाँधीनगर, दिल्ली आर्यिकारत्न गणिनी श्री १०५ पू० ज्ञानमती माताजी अपनी आयु के ५८ वर्ष पूर्ण कर रही हैं, इन अट्ठावन वर्षों में जहाँ आपने आध्यात्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर अपना आत्म-कल्याण किया है, वहाँ जनसाधारण का भी महान् कल्याण किया है। आपका जीवनवृत्त एक महान् अवतार Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का जीवनवृत्त है, जिसने अपने समय में जन-जन में धार्मिक भावनाओं को जाग्रत किया है। स्त्रीपर्याय को प्राप्त होकर भी आप बाल्यकाल से ही इन्द्रिय विषयों से विरक्त हो गईं, मानो आपने कलियुग को चैलेञ्ज दिया था कि भले ही संसार के जीव तुझसे प्रभावित रहें, लेकिन मैं अपने ऊपर तेरे प्रभाव का कोई असर नहीं होने दूंगी। युग की आदि में ब्राह्मी और सुन्दरी ने जो करके दिखाया, युग के अन्त में वही ज्ञानमतीजी ने करके बताया। ब्राह्मी-सुन्दरी का युग प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का युग था और ज्ञानमती जिनका जन्म का नाम मैना था, उनका युग भगवान् महावीर तीर्थंकर का युग है। पू० माताजी ने जब क्षुल्लिका दीक्षा ली तब आपका नाम “वीरमती" रख दिया, मानो इस नाम की प्रेरणा भगवान् महावीर से ही मिली हो। इसके बाद माताजी ने आर्यिका दीक्षा ली, तब आपका नाम 'ज्ञानमती' रखा गया। इस नाम के साथ ही पू० माताजी ने ज्ञान (सरस्वती) की उपासना प्रारंभ कर दी। पू० माताजी का स्वाध्याय और अध्ययन इतना वृद्धिंगत हुआ मानो सरस्वती स्वयं ही आकर उनके हृदय में विराजमान हो गई। साध्वी जगत् में विद्वत्ता के नाते आज माताजी का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। व्याकरण, साहित्य, दर्शन, छन्द आदि शास्त्रों का आपको तलस्पर्शी ज्ञान है। आपके प्रवचन बड़े प्रभावक एवं मधुर होते हैं। आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ आदि अनेक भाषाओं की पारंगत विदुषी हैं। आपने अपनी ज्ञान गरिमा से अनेक त्यागियों, साध्वियों एवं श्राविकों का उपकार किया। प्राचीन काल में जो साहित्य लिखा गया वह या तो आचार्य रचित है अथवा साधु और विद्वानों के द्वारा रचित है- किसी स्त्री या साध्वीकृत कोई रचना या ग्रन्थ उपलब्ध नहीं। माता ज्ञानमतीजी ने अपनी बौद्धिक प्रतिभा से जो आर्ष ग्रंथों की रचना की है, वह तो अद्वितीय ही है, लेकिन संस्कृत में भी बहुत सुन्दर रचनाएँ की हैं। आपने पू० आचार्य कुन्दकुन्द रचित नियमसार की संस्कृत टीका लिखी है, वह बहुत ही सुन्दर है। संस्कृत कविताएँ लिखने में भी आपकी अपूर्व प्रतिभा काम करती है। महिलाओं द्वारा ग्रन्थ रचने का युग माता ज्ञानमतीजी से ही प्रारंभ हो रहा है, तदनुसार अन्य पूज्य आर्यिकाओं ने भी ग्रन्थों की रचना प्रारंभ की है। नियमसार ग्रन्थ की टीका के पहले आपने मूलाचार ग्रन्थ की सुन्दर हिन्दी टीका की है। आपने इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, तीनलोक विधान, पंचपरमेष्ठी विधान, ऋषिमण्डल विधान, शांतिनाथ पूजा विधान, जिनगुण सम्पत्ति विधान आदि पूजा ग्रन्थों की भी रचना की है, जिससे आज विधिविधान कराने का मार्ग सरल हो गया है। बच्चों की जैन धर्म संबंधी प्रारंभिक शिक्षा के लिए आपने बाल-विकास के चार भागों की रचना की है। इसके अतिरिक्त अन्य पुस्तकों का भी निर्माण किया है। इस तरह पू० माताजी का समय सदा ध्यान स्वाध्याय में ही व्यतीत होता है, इसके फलस्वरूप माताजी ने लगभग डेढ़ सौ रचनाओं को सरस्वती गंगा की ओर प्रवाहित किया तथा माताजी की कृपा से इस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान नाम की संस्था लम्बे अर्से से काम कर रही है। इस संस्था द्वारा उक्त साहित्य सृजन के साथ एक सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका भी प्रकाशित होती है। पत्रिका में प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, संबंधी सभी प्रकार की सामग्री रहती है, जिसे पूज्य माताजी सँजोती हैं। अध्ययनार्थी छात्रों तथा स्वाध्याय प्रेमियों के लिए इस दृष्टि से यह पत्रिका भी बहुत उपयोगी है। इसी संस्था के अन्तर्गत एक संस्कृत विद्यापीठ भी गतिशील है, जिसमें बालकों को धार्मिक शिक्षा दी जाती है। मुझे विश्वास है कि माताजी के आशीर्वाद से यह विद्यालय कभी विश्वविद्यालय का रूप भी धारण कर सकता है। इस संबंध में परम पूज्य आचार्य धर्मसागरजी महाराज भी अपना अभिमत प्रकट कर चुके हैं कि आज एक जैन विश्वविद्यालय की आवश्यकता है। अच्छा है कि हम पूज्य आचार्य श्री के इस अभिमत को इसी हस्तिनापुर के विद्यापीठ को आधार बनाकर विश्वविद्यालय की कल्पना को साकार करें, माताजी का सान्निध्य इस विद्यालय के लिए और भी वरदान सिद्ध होगा। हस्तिनापुर जम्बूद्वीप का स्थल द्रव्य, क्षेत्र,काल, भाव आदि सभी प्रकार से उपयुक्त है। युग के आदिकाल से ही इस भूमि को आदि ब्रह्मा ऋषभनाथ की गोचरी वृत्ति का आशीर्वाद प्राप्त है और अब युग के अन्त में पू० गणिनी माता ज्ञानमतीजी का आशीर्वाद प्राप्त रहेगा। पूज्य माता ज्ञानमतीजी की धर्मप्रभावना का यहीं अन्त नहीं होता, बल्कि वे प्रतिदिन ही सम्यग्ज्ञान की उपासना के आधार पर स्वयं भी धर्मप्रवचन करती हैं। स्थानीय लोग तथा आगन्तुक तीर्थयात्री भी माताजी की देशना को बड़े ध्यान से सुनते हैं, अपनी शंकाओं का समाधान करते हैं और धर्मलाभ लेते हैं, महिलाएँ तो माताजी को अपना आदर्श मानकर उनकी खूब पूजा तथा चरण-स्पर्श कर भक्ति करती हैं। इस सबके अतिरिक्त समय-समय पर यहाँ सेमिनार, व्याख्यान, प्रवचन, कलशाभिषेक आदि धार्मिक उत्सव जनसाधारण मनाते हैं, जिसमें माताजी के भी दर्शनों की अभिलाषा से अनेक श्रद्धालुओं की भारी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। सच बात तो यह है कि माताजी चलती-फिरती तीर्थ की साकार मूर्ति हैं। पिछले तीन दशकों में जैसी धर्मप्रभावना माताजी के द्वारा हुई है वैसी अन्य किसी से नहीं हुई है। पूज्य माताजी का दूसरा बड़ा काम तो जम्बूद्वीप का निर्माण है। गत शताब्दियों में जिसके बारे में किसी ने कुछ सोचा ही नहीं था कि जम्बूद्वीप का कोई साकार रूप भी बन सकता है। इस जम्बूद्वीप के निर्माण में जितनी विघ्न-बाधाएँ माताजी के सामने आई वह माताजी ही जानती हैं। महापुरुषों की यही प्रवृत्ति है या तो वे किसी कार्य को प्रारंभ नहीं करते हैं, करते हैं तो उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ते। इस संबंध में नीतिकारों ने एक सुन्दर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५९ नीति लिखी है प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारम्भ विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना, प्रारम्भ चोत्तमजना न परित्यजन्ति । अर्थात् जघन्य श्रेणी के मनुष्य विघ्नों के डर से कोई काम प्रारंभ नहीं करते, मध्यम श्रेणी के पुरुष काम तो प्रारंभ करते हैं, पर जैसे ही विघ्न आते हैं, वे उस काम को छोड़े देते हैं, लेकिन उत्तम श्रेणी के पुरुष बार-बार विघ्नों से पीड़ित होने पर भी उस कार्य को पूरा ही करके छोड़ते हैं। पूज्य माताजी के साथ भी यही हुआ। हस्तिनापुर में जहाँ उनका अकस्मात् विहार हुआ था, वहां इस कार्य को प्रारंभ करवा दिया। तब कुछ विघ्न-प्रिय बन्धुओं ने अनेक रोड़े अटकाये, यदा-तदा अपने विचार प्रकट किये, फिर भी जम्बूद्वीप के निर्माण का कार्य रुका नहीं, उल्टा उन्हें इस कार्य में प्रोत्साहन मिलता रहा। पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद से निर्माण कार्य चलता ही रहा, कुछ जैन पत्र-पत्रिकाओं ने भी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इस निर्माण कार्य का विरोध किया, लेकिन बाढ़ के पानी की तरह रुकावटें आने पर भी निर्माण कार्य का प्रभाव अपने ढंग से चलता ही रहा और अन्त में जम्बूद्वीप का निर्माण कार्य पूरा होकर उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी बड़े उत्साह और विशाल जनसमूह के बीच में सम्पन्न हुई। आज उस जम्बूद्वीप की छवि देखते ही बनती है। सुमेरु पर्वत, उसके ऊपर चारों वन, षट्कुलाचल पर्वत, गजदन्त पर्वत, कुलाचलों के ऊपर पद्मद्रह आदि षट्सरोवर, बत्तीस विदेह, लवणसमुद्र, गंगा सिंधु आदि नदियाँ, वक्षार पर्वत, पर्वतों पर चैत्यालय आदि की शोभा देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है। कुछ भाइयों का कहना है कि जम्बूद्वीप की जगह अगर नंदीश्वरद्वीप बनाया जाता तो ठीक था; क्योंकि जम्बूद्वीप का कोई पूजा विधान नहीं होता, जैसा कि नंदीश्वरद्वीप की पूजा विधान का प्रचार है। इस संबंध में हमारा कहना यह है कि नंदीश्वर नाम का कोई द्वीप है यह हम जैन तो स्वीकार करते हैं और करना चाहिये, लेकिन जैनेतर लोग नंदीश्वर नाम का कोई द्वीप स्वीकार नहीं करते हैं और न जैनों के शास्त्रों को छोड़कर किसी वैदिक, बौद्ध आदि मतों में नंदीश्वरद्वीप का कोई उल्लेख है। अतः दर्शनार्थी जैनेतर लोगों का जो जम्बूद्वीप के प्रति आकर्षण हो सकता था, वह नंदीश्वरद्वीप के प्रति नहीं होता। आज जम्बूद्वीप को देखने की उत्सुकता सभी को होगी; क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थों में जम्बूद्वीप का नाम सुना है, लेकिन नंदीश्वरद्वीप के प्रति हम जैनों को छोड़कर किसी का आकर्षण नहीं होता, अतः सार्वजनिक प्रचार के लिए अपनी वस्तु निर्माण करना अधिक अच्छा है। जैन धर्म के प्रचार को लेकर सार्वजनिक निर्माण की घटना यह विश्व की पहली घटना है और इसका श्रेय पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी को है। माताजी कट्टर आर्षमार्गानुगामिनी हैं और आर्ष मार्ग के प्रचार के लिए पूर्ण कटिबद्ध हैं, किंतु अपनी मान्यताओं के लिए वे किसी से विरोध भी नहीं रखना चाहतीं; यही कारण है कि जम्बूद्वीप के स्थान में बने हुए मंदिरों में भगवान् की पूजा कोई तेरह पंथ के अनुसार करे या बीस पंथ के अनुसार उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। आज भी हम महावीरजी आदि तीर्थों में ऐसा ही देखते हैं जो लोग सार्वजनिक तीर्थों पर किसी एक पंथ का आधिपत्य रखना चाहते हैं वह सर्वथा गलत है। पू० ज्ञानमती माताजी को और उनके साहित्य को देखा जाये तो लगता है माताजी सरस्वती की वरद पुत्री हैं। पूज्य माताजी के इस अभिवंदन समारोह के अवसर पर मैं श्रद्धापूर्वक उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मेरी इच्छा भी है कि हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर रहकर मैं माताजी के ना करूँ । पज्य माताजी का जन्म सन् १९३४ में हआ है और सन् १९३४ में ही मैंने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया है, ऐसा लगता है कि मेरे गृहस्थ जन्म के साथ ही माताजी का शारीरिक जन्म इसलिए हुआ कि वे मुझे गृहस्थ झंझट में न पड़ने की प्रेरणा देती रहें। अपने प्रति उनके इस उपकार के लिए मैं माताजी को शत-शत बार नमन करता हूँ। संस्मरण - डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के मुझे प्रथम दर्शन कब हुये थे यह तो याद नहीं है, लेकिन विगत २० वर्षों से मैं आपकी पुस्तकों का पाठक रहा हूँ मेरे मन में आपकी अद्भुत कृतित्व शक्ति को देखकर आपके प्रति सहज श्रद्धा के भाव जाग्रत हुये। माताजी ने देहली में एक विशाल स्तर पर संगोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें विविध विषयों के पचासों अधिकारी विद्वान् सम्मिलित हुये थे। मुझे भी उसमें भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ था। उसी समय माताजी ने जम्बूद्वीप संरचना की अपनी महती योजना को विद्वानों के सामने रखा था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संगोष्ठी में माताजी के गहन अध्ययन का परिचय सभी विद्वानों को हुआ। माताजी ने जम्बूद्वीप संबंधी अपने शास्त्रीय ज्ञान से सबको संतुष्ट करने का प्रयास किया था। एक बात मुझे और याद है कि माताजी ने संगोष्ठी में उठे प्रश्नों का इस प्रकार सप्रमाण उत्तर दिया कि मानो सभी ग्रंथ उनके मस्तिष्क में रखे हुये हों। माताजी की हाजिर जवाबी से सभी विद्वान् उनकी व्युत्पन्न मति से परिचित हो गये। उसके पश्चात् हस्तिनापुर में कितनी ही बार आने का अवसर मिला, कभी संगोष्ठी में निबन्धवाचक के रूप में, पंचकल्याणक के अवसर पर, आर्यिका रत्नमति अभिनंदन ग्रंथ संपादन के लिये और फिर विमोचन के अवसर पर मैं आता रहा और माताजी का आशीर्वाद मिलता रहा। माताजी के प्रति मन में स्वाभाविक श्रद्धा उत्पन्न हो गई और एक-दो समारोहों को छोड़कर सभी समारोहों में उपस्थित होने में मुझे प्रसन्नता हुई और अधिक से अधिक माताजी का आशीर्वाद प्राप्त करने में आनन्द का अनुभव हुआ। माताजी अनुशासनप्रिय हैं। जिस प्रकार अपने संघ को अनुशासन में रखती हैं उसी तरह उनकी यह भी भावना रहती है कि उनके द्वारा आयोजित सभी कार्यक्रम पूर्ण व्यवस्थित हों। एक बार जब मैं आर्यिका रत्नमतीजी के अभिनंदन ग्रंथ की प्राप्त सामग्री का सम्पादन कर रहा था तो मुझे सर्वप्रथम आर्यिका रत्नमती माताजी के दर्शन हुये। माताजी ने जब आर्यिका रत्नमती माताजी का परिचय दिया और जब वे प्रातःकाल माताजी की प्रवचन सभा में आयीं तो उन्होंने आपको [आर्यिका ज्ञानमती जी को] सादर वन्दामि किया और फिर दूर एक पट्टे पर जाकर बैठ गईं। उस समय संघ की अनुशासनप्रियता को देखकर प्रसन्नता हुई। वर्तमान में भी आर्यिका चन्दनामतीजी यद्यपि उनकी गृहस्थावस्था की बहिन हैं, लेकिन उनकी शिष्या होने एवं संघ में होने के कारण वे भी पूर्ण अनुशासन से अपने आर्यिका धर्म का पालन करती हैं। एक बार जब मैं माताजी के पास बैठा हुआ उनकी कृतियों को देख रहा था कि मुझे उनके द्वारा लिखित डायरी के कुछ पृष्ठ पढ़ने को मिले।मैंने उन पृष्ठों को पढ़कर माताजी से निवेदन किया कि "मेरी जीवन गाथा" के रूप में आप इन्हें लिखकर प्रकाशित करा दें तो आपकी जीवन गाथा को हम सबको पढ़ने का अवसर मिलेगा और महाकवि बनारसीदास एवं ब्र० गणेशप्रसादजी वर्णी की जीवन गाथाओं के समान एक बहुमूल्य कृति बन जावेगी। माताजी ने बड़ी कृपा करके पहिले छोटे रूप में और फिर अब तक के अपने पूरे जीवन पर “मेरी स्मृतियाँ" के नाम से जीवन गाथा लिखकर प्रकाशित भी करा दी। दोनों ही कृतियों में माताजी ने मुझे जब प्रस्तावना लिखने का आदेश दिया तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और माताजी की कृपा को मैंने पावन प्रसाद के रूप में स्वीकार किया। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव मई १९८५ के पश्चात् माताजी बहुत बीमार पड़ गईं और इतनी अधिक कमजोर हो गई कि हाथ उठाकर आशीर्वाद देने की स्थिति में नहीं रहीं। उस समय मैं और श्री त्रिलोकचंदजी कोठारी महामंत्री महासभा हस्तिनापुर जब माताजी के दर्शन करने आये तो उनकी स्थिति देखकर बड़ी चिन्ता हुई। माताजी का जीवन देश एवं समाज के लिये बेशकीमती है और उसकी रक्षा होना अनिवार्य है। हम भगवान आदिनाथ से उनके दीर्घ जीवन की कामना करते हुये वापिस लौट गये। उस समय हमें बताया गया कि माताजी की चर्या में कोई अन्तर नहीं है तथा वे अपने प्राणों की परवाह किये बिना अपनी चर्या में पूर्ण दृढ़ हैं। माताजी का जीवन विविध आयामों में होकर व्यतीत हुआ है। जब से उन्होंने सर्वप्रथम क्षुल्लिका और फिर आर्यिका के व्रत ग्रहण किये तब से लेकर आज तक मुनि संघों में रहते हुये और फिर स्वतंत्र संघ बनाकर, जम्बूद्वीप में रहकर अपने साधु जीवन को त्याग, साधना एवं तपस्या की उच्चतम ऊंचाइयों में रखा है। उसमें थोड़ा भी स्खलन नहीं होने दिया। माताजी के जीवन की यही तो विशेषता है। उनका ३७-३८ वर्ष का आर्यिका जीवन साधु समाज एवं श्रावक समाज दोनों के लिए आदर्श का जीवन है, जिस पर सारे समाज को गर्व है। आपका सैद्धांतिक ज्ञान तो इतना गहन है कि उसके समकक्ष हम किसी को रख नहीं सकते। आपकी प्रारंभ में शास्त्रों के तलस्पर्शी अध्ययन की ओर रुचि रही है और व्युत्पन्नमति होने के कारण आपने जो कुछ पढ़ा वह आपको कंठस्थ हो गया। जब जयपुर एवं ब्यावर में आपको व्याकरण एवं काव्यशास्त्र पढ़ाने के लिए पंडितजी रखे तो वे तो आपकी व्युत्पन्नमति से इतने प्रभावित हुये कि दो महीने में ही आपको स्वयं से अधिक ज्ञानी मानने लगे। बचपन में भी जब मास्टरजी आपको पढ़ाते थे तो पढ़ते-पढ़ते कक्षा में ही पूरा पाठ याद हो जाता था। आपके ज्ञान का विशेष क्षयोपशम होने की बात तो आचार्य वीरसागरजी महाराज ने भी स्वीकार की थी। अपने परिवार के अधिकांश सदस्यों को और यहाँ तक अपनी माँ को भी वैराग्य मार्ग की ओर मोड़ देना बहुत बड़ी विशेषता है; क्योंकि वैराग्य की बात की जा सकती है/प्रशंसा की जा सकती है। उसके गुणानुवाद गाये जा सकते हैं, लेकिन स्वयं को वैराग्य पथ पर चलाना बड़ा कठिन कार्य है। बाल्यावस्था में बचपन आड़े आता है, युवावस्था में पत्नी का विरह सताता है, प्रौढ़ावस्था में घर-गृहस्थी का चक्कर फंस जाता है और जब वृद्धावस्था आ जाती है तो इन्द्रियों के शिथिल होने का बहाना बनाया जाता है, लेकिन माताजी ने बाल्यावस्था में ही अपने आपको वैराग्य भावना में ढाल दिया, अपनी तीन बहिनों को भंवर पड़ने से पहिले ही अपनी धारा में मोड़ दिया। एक भाई को युवावस्था में ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया और अपनी माँ को उसकी वृद्धावस्था में अपने पास खींच लिया। कितनी अटूट श्रद्धा है भगवान महावीर के वैराग्य मार्ग पर । ऐसा उदाहरण भारतीय जीवन में खोजने से भी नहीं मिलेगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ___ एक संस्मरण और लिखकर मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ कि मुझे हस्तिनापुर स्थित जम्बूद्वीप में विगत वर्षों में कितनी ही बार आना पड़ा और जब भी मुझे माताजी के पास जाने का अवसर मिला मैंने माताजी को सदैव स्वाध्याय, लेखन, उपदेश एवं शास्त्र चर्चा करते हुये पाया। व्यर्थ का विसंवाद न कभी स्वयं करती हैं न औरों को करने की अनुमति देती हैं। माताजी अहर्निश स्वाध्याय एवं लेखन में लगी रहती हैं यह भी बहुत बड़ी तपस्या है, जिस पर हम सभी को गर्व है। ऐसी महान् विदुषी एवं तपस्यारत्न गणिनी आर्यिका माताजी के पावन चरणों में शत-शत अभिनंदन । अद्वितीय प्रतिभा की धनी : आर्यिका जी - डॉ० सुरेशचन्द्र अग्रवाल प्राध्यापक - गणित, मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ हस्तिनापुर नगर का मेरे परिवार से घनिष्ठ सम्बन्ध है अतः प्रायः आना-जाना बना रहता है, किन्तु पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी के सम्पर्क में मैं १९८५ में ही आया। १९८५ के इण्टरनेशनल सेमिनार आन जैन मैथमेटिक्स एण्ड कोस्मोलोजी के एकेडमिक सेक्रेटरी के रूप में मुझे पूज्य माताजी के सानिध्य में आयोजित सेमिनार सम्बन्धी अनेक बैठकों में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। गणितीय विषयों में पूज्य माताजी की अभिरुचि, समागत विद्वानों के प्रति वात्सल्य भाव, विद्वत् जगत् के प्रति उनके मन में आदर श्लाघनीय है। स्थान मान पद्धति, अंक स्थान क्रम, संख्या सिद्धान्त एवं क्रमचय संचय (भंग एवं विकल्प गणित) पर चर्चा उनको बहुत प्रिय है। एक दिन मेरे शिष्य अनुपम जैन के साथ उनसे हो रही चर्चा में माताजी ने बताया कि 'तुम जैन गणित पर शोध कार्य करा रहे हो इसके लिए तुम्हें स्वयं जैन दर्शन पढ़ना चाहिये क्योंकि जैनाचार्यों की कृतियों पर उनके व्यक्तित्व का व्यापक प्रभाव पड़ा है। देखो ! महावीराचार्य (८५० ई०) ने स्थान मान की सूची में २४ स्थान ही लिए, क्यों ? क्योंकि तीर्थंकरों की संख्या २४ है। जैन गणित ग्रन्थों में रत्न - ३ के लिए, गति - ४ के लिए, इन्द्रिय - ५ के लिए, द्रव्य - ६ के लिए, तत्त्व - ७ के लिए, कर्म - ८ के लिए तथा पदार्थ- ९ एवं धर्म - १० के लिये प्रयुक्त हुआ है। जबकि जैनेतर ग्रन्थों में इन अंकों हेतु भिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है। अतः जैन गणित के सम्यक् अध्ययन हेतु जैन दर्शन का प्राथमिक ज्ञान आवश्यक है।' आपकी प्रेरणा एवं आशीर्वाद से मैंने जैन दर्शन का प्राथमिक अध्ययन प्रारम्भ किया इससे जैन गणित पर अपने अध्ययन को विकसित करने में मुझे पर्याप्त सहायता मिली है। पूज्य माताजी का जैन धर्म/दर्शन का ज्ञान अगाध है। उन्होंने १२५ से अधिक छोटी बड़ी पुस्तकों का सृजन किया है। उनकी कृतियों में पर्याप्त विविधता है। भूगोल - खगोल से लेकर न्याय, व्याकरण दर्शन तक उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। उनकी लघु पुस्तिकायें एवं कहानी संग्रह मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ते हैं। वे अद्वितीय प्रतिभा एवं विलक्षण सूझ-बूझ की धनी हैं। उनकी प्रेरणा से निर्मित जम्बूद्वीप विश्व में अपने प्रकार की प्रथम दर्शनीय रचना है। ऐसी महान् विदुषी के सम्मान में अभिवन्दन ग्रंथ का प्रकाशन कर जैन समाज स्वयं को गौरवान्वित कर रहा है। वे जैन समाज की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज की साध्वी हैं। तथापि मैं आपके इस प्रयास की सफलता की कामना करता हूँ एवं पूज्य माताजी के चरणों में शतशः नमन् करता हूँ। जैन गणित की विदुषी -प्रो० एल०सी० जैन, निदेशक आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के समाचार से हार्दिक प्रसन्नता हुई। पूज्य माताजी विश्व की प्रथम भारतीय नारी हैं, जिन्होंने जैन गणितीय त्रिलोक संरचना में से जम्बूद्वीप की रेखागणित को साकार प्रारूप प्रदान किया। यह इतिहास की प्रथम गणितीय Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला घटना कही जा सकती है, जिसने सम्पूर्ण लोक, विश्व, देश, समाज तथा व्यक्ति के ध्यान को आकर्षित किया है। जैन गणित के गांभीर्य को उन्होंने ही प्रथम बार मूल्यांकित किया, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव प्रभु की द्वितीय सुपुत्री सुन्दरी की विद्या को प्रोज्ज्वल रूप से प्रकाशित किया, जिसकी ओर इस युग में किसी का लक्ष्य नहीं गया था। यही नहीं, वरन् न्याय एवं साहित्य में भी उनकी अभूतपूर्व प्रतिभा प्रखर रूप से प्रकाशन में आई और उन्होंने जो इस ओर भी अंशदान दिया वह ब्राह्मी की विद्या को निखारता चला आया। इस प्रकार दोनों विद्याओं में निपुण पूज्य ज्ञानमती माताजी का जीवन एक नये दर्शन को सामने लाया है, नये आदर्श को लिये भारतीय एवं जग जीवन में क्रांति लेकर आया है। इस प्रशस्त अवसर पर हम सभी उनकी दीर्घायु की कामना करते हुए उनके परम पुनीत चरण कमलों में वन्दना के पुष्पों द्वारा हार्दिक अभिवादन भेंट कर रहे हैं। विनयांजलि - डॉ० शेखरचंद जैन, अहमदाबाद पूजनीया १०५ आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी इस युग की ऐसी दीपशिखा हैं, ऐसी ज्योतिर्धरा हैं जिनके प्रकाश में उन अनेक जीवों को प्रकाश मिला जो अज्ञान और मिथ्यात्व के अंधेरे में भटक रहे थे। नारी जीवन कितनी ऊँचाइयों को छू सकता है, वह मोम-सी कोमल ममतामयी माँ है तो वज्र से भी कठोर संयम धारिणी और संसार के प्रति पूर्ण निर्मोही भी हैं। इन दोनों धाराओं की जीवंत मिसाल हैं आर्यिका ज्ञानमती जी। ज्ञानमती यथा नाम तथा गुणधारिणी हैं। जैनागम के गहनतम और गूढ़तम विषयों की सरल संस्कृत और हिन्दी में टीका करके जैन धर्म का उपकार ही किया है। ज्ञान के साथ उनका भक्ति साहित्य जन-जन के लिए उपयोगी हुआ है। पुराणों को मूर्तरूप देने का प्रत्यक्ष प्रमाण जंबूद्वीप रचना है। आशा है वे ऐसा कोई पारमार्थिक स्थाई कार्य करेंगी, जिससे समाज के हर वर्ग, जाति, धर्म के लोग लाभान्वित हो सकें। एक बार बुढ़ाना शास्त्री परिषद की कार्यकारिणी की बैठक से लौटने पर पूज्य माताजी के दर्शनों एवं परिचय का विशेष अवसर मिला, मुझ जैसे अल्पज्ञ से महत्त्वपूर्ण चर्चा माताजी ने की, यह ठीक वैसा ही था जैसे किसी साधारण व्यक्ति को राष्ट्रपति के साथ आत्मीयता से बात करने का अवसर मिल जाये, मैं बहुत प्रभावित रहा। मैं बहुमुखी प्रतिभाधारिणी माँ के व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधना स्वयं का अल्पज्ञान ही मानता हूँ। पर, भक्तिवश अटपटे शब्दों में इतना ही मनोभाव प्रस्तुत करता हूँ कि वे शतायु हों। उनका ज्ञानमय आलोक कल्याणकारी बने। हम सब उनके पथानुगामी बनें यही शुभभावना है। उनकी इस षष्ठिपूर्ति पर उनके चरणों में वंदना सह यही अपेक्षा है कि उनकी ज्ञान-ज्योति किरण हमारे मन में भी उतरे ... हमें भी अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये। सरस्वती की मूर्ति - डॉ० दरबारी लाल कोठिया, बीना वन्दनीया माता आर्यिका ज्ञानमतीजी के अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रारूप मिला। प्रारुप से माताजी की धार्मिक, साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं का आकलन ज्ञात कर प्रमुदित हुआ। यद्यपि उनसे कई दशकों से दूर सम्पर्क रहा। एक-दो बार उनसे साक्षात्कार भी हुआ और उनके द्वारा अनूदित अप्रकाशित "अष्टसहस्री" के विषय में चर्चा भी हुई। पर उनकी इच्छा की पूर्ति अन्य साहित्यिक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण न कर सका। ___जैन समाज टिकैतनगर के आग्रह पर एक बार मैं वहाँ पयूषण पर्व में गया था और उनके गृहस्थी के घर में मुझे उसी स्थान पर ठहराया गया, जहाँ माताजी का स्वाध्याय कक्ष था। मुझे बताया गया कि इसी स्थान पर माताजी अपना ज्ञानाभ्यास किया करती थीं, मुझे बड़ी खुशी हुई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पू० माताजी अपने लौकिक ज्ञान को भले ही उतना अधिक न बढ़ा सकी हों, जितना उन्होंने अपने धार्मिक ज्ञान को बढ़ाया है। वे ज्ञान की विविध विधाओं में पारंगत हुईं। क्या व्याकरण, क्या सिद्धान्त, क्या न्याय, क्या दर्शन और क्या साहित्य प्रतीत होता है कि वे "सरस्वती की मूर्ति" हैं। उनके ज्ञान का क्षयोपशम निःसन्देह अद्भुत है। 1 को ज्ञान के क्षेत्र के अलावा तीर्थ प्रचार का भी कार्य उन्होंने ऐसा किया है, जो शताब्दियों तक रहेगा और जन-जन उसे देखकर अपनी श्रद्धा सुदृढ़ करेंगे । जम्बूद्वीप, सुमेरु आदि आगम-अभिहित तत्त्वों एवं तथ्यों को मूर्तरूप देकर उन्होंने यथार्थता का रेखाकंन किया है, जो आरम्भ में कुछ लोगों के लिए कर्मोदयवश हास्य- स्थान भी रहा है, किन्तु माताजी ने अपने संकल्प और साहस को नहीं छोड़ा। उनका व्यक्तित्व ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों उनमें गम्भीरता, विवेचकता और दूरदर्शिता भी बढ़ती गयी। इतना ही नहीं, उनका कृतित्व भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आज वे ज्ञान और वैराग्य में निष्णात् होने की ओर उन्मुख है राष्ट्र उनका अभिवन्दन करे, यह उचित ही है। हम उन्हें इस अवसर पर श्रद्धा से वन्दन- अभिवन्दन करते हैं और मंगलकामना करते हैं कि वे दीर्घ जीवी होकर अपने सुविचारित कृतित्व से राष्ट्र और समाज का मार्गदर्शन करते हुए लाभान्वित करती रहें । - शतशः नमन् [६३ प्रतिभा, श्रम और संगठन शक्ति, ये तीनों गुण जिस एक व्यक्तित्व में साकार हुए हैं, उसका नाम है आर्यिका ज्ञानमती माताजी। जिस देश में लोग पुत्र के जन्म पर खुशियाँ और कन्या के जन्म पर मातम मनाते रहे हों, उसी देश में जन्मी एक बालिका ने अपने अनथक पुरुषार्थ से मातम मनाने वालों को ठेंगा दिखाने का काम किया है । है कोई ऐसा पुरुष या माई का लाल, जो कृतित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व में उसका सामना कर सके । उन्होंने अपने छोटे से जीवन में इतना कुछ किया है कि सदियों तक मातृशक्ति उससे महिमा मण्डित होती रहेगी। Jain Educationa International माताजी इस बीसवीं सदी का आश्चर्य हैं। पिछले दो हजार वर्षों में प्रथम बार किसी महिला ने अपने कोमल करों में सुई-धागा या सलाइयाँ न पकड़कर कलम पकड़ी और ग्रन्थ-लेखन के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। जैन इतिहास में इन्हें प्रथम महिला अन्धकार के रूप में सदा श्रद्धा सहित स्मरण किया जाएगा। चार दशक के अपने साधना काल में उन्होंने जितना लिखा है, उसकी प्रतिलिपि करने में भी हमें इससे दूना समय लगेगा। जिन्होंने कभी डेढ़ सौ पंक्तियाँ भी नहीं लिखी हों, डेढ़ सौ ग्रन्थ लिखने वाली इस अद्भुत सर्जिका का मूल्यांकन करना उनके बस की बात नहीं है । लेखन-कर्म अपने आप में एक कठोर तपस्या है। उसका मर्म और महत्त्व वही जान सकता है, जो स्वयं इस राह का राही रहा हो। कहा भी गया है विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन- परिश्रमम् । न हि बन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ॥ नरेन्द्र प्रकाश जैन [सम्पादक • जैन गजट ] - माताजी की प्रतिभा बहुमुखी है। दर्शनशास्त्र, धर्म, अध्यात्म, गणित, भूगोल, खगोल, नीति, इतिहास, कर्मकाण्ड आदि विषयों पर उनका समान अधिकार है तथा साहित्य की विविध शैलियों जैसे गद्य, पद्य, नाटक, कहानी, संस्मरण, आत्मकथा आदि में उन्हें महारत हासिल है। इन सभी विधाओं पर और इन सभी विधाओं में उन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं। बालकों को संस्कारित करने और उनकी कोमल चित्त-भूमि में सदाचार के बीज बोने के लिए सरल भाषा में अनेक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी हैं। अब तक हजारों पाठकों ने उनकी रचनाओं का रसास्वाद कर मनःशान्ति और आत्मलाभ प्राप्त किया है। प्रकाशन के क्षेत्र में उनकी प्रशस्त प्रेरणा से स्थापित संस्था "त्रिलोक शोध संस्थान" की कीर्ति कौमुदी भारत से बाहर भी फैल चुकी है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी उसकी सराहना की है। हस्तिनापुर की पावन भूमि में निर्मित "जम्बूद्वीप" भारत में अपने तरह की पहली रचना है। अब तक इसका वर्णन केवल शास्त्रों में पढ़ने को मिलता था। सुमेरु पर्वत को हम केवल तस्वीरों या रेखाचित्रों में देखते थे। अब इनकी हूबहू भव्य और आकर्षक रचना है कि दृष्टि उस पर से हटती नहीं और कई-कई बार और कई-कई घण्टों तक देखते रहने पर भी मन कभी भरता नहीं । यह अनुभव की बात है कि पढ़कर उतना समझ में नहीं आता, जितना देखकर समझ में आता है। फिर भूगोल तो वैसे भी एक कठिन विषय है। जम्बूद्वीप- रचना ने भूगोल को हृदयंगम करना आसान कर दिया है। पूजा में हम पढ़ते थे For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला . तीर्थकरों के न्हवन जल से, भए तीरथ शर्मदा । ताते प्रदिच्छन देत सुरगन, पंचमेरुन की सदा ।। जिनाभिषेक से पवित्र वे अर्धचन्द्राकार शिलायें सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित वे सोलह चैत्यालय या भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक जैसे सुहावने नाम वाले वे वन-प्रदेश कहाँ हैं और कैसे हैं, अब यह कल्पनातीत विषय नहीं रह गया है। हम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कुलाचल, गजदन्त, वक्षार, विजयार्ध, जम्बू, शाल्पलि आदि भौगोलिक शब्दावली का अर्थ अब हमारी समझ में आने लगा है। पुराणवर्णित कुल ७८ अकृत्रिम चैत्यालयों की मन्त्र-विशुद्ध प्रतिकृतियों की वन्दना करने से हमारा कर्म-भार भी हल्का हो रहा है। यों तो जम्बूद्वीप का निर्माण राज-मजदूरों ने ही किया है, किन्तु उसकी असली शिल्पकार तो माताजी ही हैं। उन्होंने त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों को पढ़कर उसका एक नक्शा ध्यान के अवलम्बन से पहले अपने मन में बनाया, फिर उसे कागज पर उतारा या उतरवाया और तब राज-मजदूरों को समझाया। इतना ही नहीं, पूरे छह वर्षों तक उसका निरीक्षण-परीक्षण, अनुसन्धान, संवर्द्धन-परिवर्द्धन-संशोधन और निर्देशन किया। तब जाकर कहीं यह शास्त्रोक्त कल्पना साकार हुई। इसके पीछे उनकी प्रतिभा, कल्पना और श्रम की त्रिवेणी बह रही है।। इस जम्बूद्वीप के निर्माण का कुछ लोगों ने जमकर विरोध भी किया, किन्तु माताजी को उनके फौलादी संकल्प से वे डिगा न सके। आज उनकी उस अटूट लगन का ही परिणाम है लाखों दर्शकों को चुम्बक की तरह खींचने वाला यह जम्बूद्वीप। अब तो सरोवर युक्त कमल-मन्दिर, त्रिमूर्ति मन्दिर तथा अन्य अनेक निर्माणों की वजह से यह स्थान स्वयं में एक अनोखा तीर्थ ही बन चुका है। सन् १९८२ से ८५ के मध्य माताजी की प्रेरणा से ही सम्पूर्ण भारत में "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति" का प्रवर्तन हुआ। हजारों जैनाजैन लोगों को उसने व्यसनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी। आचार्य श्री वीरसागर विद्यापीठ, “सम्यग्ज्ञान" हिन्दी मासिक तथा समय-समय पर आयोजित शिक्षण-शिविरों के माध्यम से आज भी अहर्निश ज्ञान का अलख जगाया जा रहा है। पूज्य आदिमती और जिनमती-सरीखी सिद्धान्तवेत्ता आर्यिकायें उनसे ही शिक्षण प्राप्त कर व्युत्पन्न बनी हैं। उनके ऐसे अन्य शिष्यों की संख्या भी अपरिमित है। प्रभावना के क्षेत्र में उन्होंने आचार्य समन्तभद्रस्वामी की इस कथनी को सार्थक किया है अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ पूज्य माताजी के उपकार अनन्त हैं। उनसे उऋण होना सम्भव नहीं। उनके सम्मान में अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन उनके प्रति समाज की कृतज्ञता का ही प्रकाशन है। कृतज्ञता एक भारतीय का प्रथम गुण है। अकृतज्ञ अनादर का पात्र बन जाता है। माताजी के सम्मान में वस्तुतः हम सबका सम्मान सुरक्षित है। उनके चरणों में शतशः नमन् । स्मृतियाँ जो स्मृत रहेंगी -पं० सागरमल जैन विदिशा अध्यक्ष दि० जैन शास्त्री परिषद् प्रथम दर्शन- हस्तिनापुर, गुरुवार १२ अकूटबर १९७८ परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य एवं मार्गदर्शन में विद्वानों के शिविर का आयोजन आदरणीय जमादारजी के संचालन में चल रहा था, प्रातः का भाषण मेरा हुआ। माताजी ने सुना और मुझे प्रथम बार में ही स्नेह/आशीर्वाद इतना मिला कि उसकी अनुभूति है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। माँ का स्नेह अलग ही होता है, दोपहर में मुझसे चर्चा हुई। श्री जमादारजी ने कलकत्ता पर्व के प्राप्त पत्र उन्हें बताये। मैं १९७८ में पर्युषण में गया था, माताजी ने समयसार एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर दोपहर बाद की सभा में बोलने का आदेश दिया। ४५ मिनिट तक बोला। अंत में माताजी ने विद्वानों की सभा में जो मुझे आशीर्वाद और उद्गार प्रकट किये थे उन्हें मैं स्वयं नहीं लिख सकता, पूरे टेप हस्तिनापुर में सुरक्षित हैं। इसी दिन मैंने पहली बार उनके दर्शन किये थे। आज तक जितने भी पंचकल्याणक/समारोह हस्तिनापुर में हुये हैं मुझे अत्यधिक बहुमान/स्नेह/आशीर्वाद मिलता ही गया है। यदि में लिखू कि देश के विद्वानों से इसी शिविर में सामूहिक रूप से परिचय प्राप्त कर सका हूँ तो गलत नहीं होगा, क्योंकि उस समय लगभग ५३ विद्वान् वहाँ थे। पू० माताजी के स्नेह-आशीर्वाद, वात्सल्यता की सीमा मेरे प्रति ८ मार्च १९८७ को इतना हो गई कि फिर कोई सीमा ही शेष नहीं रही। विशाल Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पंडाल पंचकल्याणक में माताजी ने स्वयं ही मुझे नियमसार ग्रंथ पर बोलने का आदेश दिया। बड़े समारोहों में समय की बहुत सीमा होती है। किन्तु माताजी ने कहा "पंडितजी अपने नाम के आगे का मल हटा दीजिए, सागर सीमा में ही रहता है किन्तु आप समय सीमा में नहीं बंधे हैं। " । पंचमकाल में जम्बूद्वीप को साकार कर देना दैविक चमत्कार कहा जाये या माताजी के पूर्व संस्कारों का दृश्य ? काल चक्र में जब तक जम्बूद्वीप रहेगा तब तक सदियों / पीढ़ियों को परमपूज्य आर्यिकारत्र गणिनी ज्ञानमती माताजी का सानिध्य मिलता रहेगा। सन् १९७८ से आज तक के संस्मरण / स्मृतियाँ कागज के पन्नों में नहीं लिखे जा सकते, वे तो मन में तरंगों की भाँति हिलोरे लेते रहते हैं। धन्य हैं वे लोग जिन्होंने माताजी और जम्बूद्वीप को एक साथ देख लिया है। यह मेरा सौभाग्य ही रहा है कि मैंने जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ के उद्घाटन और समापन दोनों ही देखे है, गणिनी का पद भी ग्रहण करते देखा है। यह अभिवन्दन ग्रंथ मार्च ८७ में ही प्रकाशित हो जाना चाहिये था, जो आज हो रहा है। मैं इस निमित्त को पाकर पूज्य माताजी के चरणों में नतमस्तक होता हूँ । प्रज्ञा और पुरुषार्थ की मूर्ति [६५ भारत वसुन्धरा जिन भव्यात्माओं से गौरवान्वित है, उनमें आर्थिकारण १०५ श्री ज्ञानमती माताजी को श्रद्धा के साथ स्मरण किया जा जाता है। रत्नत्रय से पवित्र माताजी के जीवन का मंत्र अध्यात्मवाद है। इनका जीवन पवित्रता से ओत-प्रोत है। ज्ञान सम्यक् है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन जैसे ज्ञान को ही ज्ञान कहा है जेण रागा विरज्जेज जेण सेएस रज्जदि । जेण मित्तिं पभावेज तं णाणं जिणसासणे ।। [ २६८ ] ॥ Jain Educationa International - डॉ० श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत महामंत्री- दि० जैन शास्त्री परिषद् मूलाचार जिसके द्वारा जीव राग से विरक्त होता है, जिसके द्वारा मोक्ष में राग करता है, जिनशासन में वह ज्ञान कहा है। ऐसे ज्ञान की अधिकारिणी आप हैं चारित्र और ज्ञान के समन्वय के कारण माताजी जगत्विश्रुत / बंध हो गयी हैं। अष्टसहस्त्री नियमसार, समयसार आदि दार्शनिक और सैद्धानित्क ग्रन्थों की प्रामाणिक हिन्दी-संस्कृत टीका करके आप विद्वत्जगत् में गौरवान्वित हैं। प्रत्येक व्यक्ति अवसर की खोज में रहता है कि ऐसा अवसर मिले कि हम भी कुछ करके दिखाएँ। इस प्रकार प्रतीक्षा में सम्पूर्ण जोवन ही व्यतीत हो जाता है, परन्तु उन्हें अवसर ही नहीं मिलता। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सामने कार्यों की भरमार रही और प्रत्येक कार्य माताजी की प्रज्ञा और पुरुषार्थ के फलस्वरूप सफलतम रहा। जम्बूद्वीप प्रतिकृति संरचना माताजी के जीवन का श्रेष्ठतम कार्य है। विश्वास इनके जीवन की सिद्धि है। प्रत्येक कार्य की सिद्धि विश्वास पर अवलम्बित है इनके कर्मठ व्यक्तित्व का प्रभाव जैन और जैनेतर समाज में बाहुल्येन व्याप्त है। लोककल्याण की भूमिका में जो जीवन और चरित्र रहा करते हैं, व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण के भीतर जो जीवन-दर्शन पीठिका के रूप में स्थिर रहता है वही व्यक्तित्व/जीवन-चरित्र और दर्शन आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का है। पूज्य माताजी तप और त्याग की मूर्ति हैं। शान्ति और संयम की जीवित प्रतिमा हैं, उनके हृदय में दया, क्षमा, करुणा, वात्सल्य, सहनशीलता और स्नेह का सागर हिलोरें लेता रहता है। ऐसी प्रशम और प्रज्ञा की मूर्तिमती माताजी के प्रति विनम्र विनयांजलि अर्पित करता हुआ भावना करता हूँ कि इनके द्वारा जिनधर्म और जिनागम की प्रभावना सहस्रों वर्षों तक होती रहे। For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नमस्करणीय ज्ञानगरिमा - डॉ० रमेशचन्द जैन, बिजनौर बीसवीं शताब्दी सामाजिक और धार्मिक चेतना की दृष्टि से जैन समाज के लिए महत्त्वपूर्ण रही है। इस सदी में महान् आध्यात्मिक साधु-संत, त्यागी, व्रती और विद्वानों के अतिरिक्त अनेक साध्वियाँ और गृहस्थ महिलारत्न हुईं, जिनकी साहित्यिक, धार्मिक और सामाजिक सेवा स्मरणीय रहेगी। पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ऐसी साध्वी नारी रत्न हैं, जिन्होंने जैन समाज को अपने कार्यकलापों से गौरवान्वित किया। दुर्बल क्षीणकायाधारिणी उन्होंने अपनी लेखनी से अनेक सुन्दर ग्रन्थ रत्नों का सृजन किया। अष्टसहस्री जैसे दर्शनशास्त्र के क्लिष्टतम ग्रन्थ का उन्होंने सरल, सुबोध हिन्दी भाषा में अनुवाद किया। वे जम्बूद्वीप रचना को साकार कर हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र का जन-जन में प्रचार करने में इस युग में अग्रणी रही हैं। उनकी ज्ञानगरिमा सभी के लिए नमस्करणीय है। मुझे उनके चरणों में बैठकर अष्टसहस्री के कठिन स्थल समझने और उनकी अनूदित हस्तलिखित प्रति से नोट्स लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ और चौबीसों तीर्थंकर भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे शतायु ही नहीं सहस्रायु हों और दर्शनशास्त्र के अन्य उच्चकोटि के ग्रन्थ उनके द्वारा अनूदित होकर लोगों के हृदय कमल में विराजमान हो सकें। साकार अनन्वय अलंकार - विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया निदेशक - जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ पर्वत में ऊँचाई तो होती है, पर गहराई नहीं; सागर में गहराई तो होती है, पर ऊँचाई नहीं। गहराई और ऊँचाई यदि किसी को एक साथ जाननी हो तो उसे पूजनीया आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी को जानना चाहिये। माताजी में आगमी ज्ञान की गहराई और चारित्र की ऊँचाई एक साथ मुखर हो उठी हैं। - जैन संत स्व-पर कल्याणार्थ ज्ञान और ध्यान में सदालीन रहते हैं। स्वाध्याय उनकी चर्या का प्रधान अंग होता है। उनके भोजन में संयम और भजन में यम-नियम का मणि-कांचन संयोग की भांति सदा संग-साथ रहता है। पूजनीया माताजी इस तथ्य की साकार अनन्वय अलंकार हैं। उन्होंने अपने अध्ययन- अनुशीलन से अनेक उपयोगी ग्रंथों का प्रणयन किया है और अपनी चारित्रिक गंध-सुगंध से संत परम्परा को गत्यात्मकता प्रदान की है। माताजी ने देश के तमाम सिद्ध क्षेत्र तीर्थों क्षेत्र तथा अतिशय तीथों की वंदना कर धर्म तथा पुण्यार्जन तो किया ही है, साथ ही अन्य साधर्मी भाई-बहिनों को प्रबल प्रेरणा दी है कि वे जीवन में तीर्थवन्दना कर अपने जीवन को सफल बनाएँ। इतना ही नहीं, हस्तिनापुर में आपने जम्बूद्वीप की रचना कराने की प्रबल प्रेरणा देकर शास्त्रीय सत्य को सरल शैली में मूर्तरूप से सुलभ कराया है। संत-निवास तपोवन का रूप धारण कर लेता है। संयम और तपश्चरण का वातावरण नवागंतुक में सदाचरण के संस्कार जगा देता है। इस दधि से त्रिलोक शोध संस्थान एक जीवंत उदाहरण है। उसे देखने के लिए देश-देशान्तर के दर्शनार्थी प्रायः नित्य पधारते हैं और होते हैं लाभान्वित । मुझे भी वहाँ ठहरने, दर्शन करने तथा ब्रह्मचारी रवीन्द्रजी के ब्याज से पूज्या माताजी के दर्शन करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। यह जानकर प्रसन्नता है कि श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशन की योजना बनी है। इस संदर्भ में मेरे अनन्त शाब्दिक श्रद्धान सादर समर्पित हैं। मेरी भावना है कि ग्रंथराज के द्वारा माताजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के अतिरिक्त जिनवाणी के अनेक लुप्त - विलुप्त संदर्भ उजागर होंगे। ग्रंथराज का सम्पादन - प्रकाशन निर्विघ्न सम्पन्न हो, इस मंगलाचरण के द्वारा अपनी शुभकामना और भावना व्यक्त करता हूँ। इत्यलम्। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [६७ माताजी का टोंक प्रवास दिव्य कीर्ति - विस्तार के प्रारम्भिक क्षण - डॉ० गंगाराम गर्ग, एसोसियेट प्रोफेसर म०शी० नया स्वायत्तशासी महाविद्यालय, भरतपुर राजस्थान की हृदय-स्थली में पुराना पिंडारी- राज्य टोंक साम्प्रदायिक सौहार्द का उल्लेखनीय स्थान रहा है। जैन विषयक पुरातत्त्व और हस्तलिखित ग्रन्थ दलों के वैभव को अपने आँचल में थामे रखने वाली इस पुण्य-भूमि ने कभी आचार्य सकलकीर्ति और इनके दीक्षा-गुरु भट्टारक पद्मनंदि दोनों यशस्वी पुरुषों के चरणामृत के आस्वादन का सौभाग्य भी पाया था। सन् १९७० में चातुर्मास के बहाने पधारे आचार्य धर्मसागरजी महाराज और उनके संघस्थ त्यागीवृन्द के चरण चाँपने का सुयोग भी इस भूमि ने पाया। धर्मानुरागी श्रावकों के पुण्योदय से पचासों पीछियाँ माताजी ज्ञानमती सहित अन्य आर्यिकाएँ तथा कई मुनिजन एक साथ प्रकट हुए। टोंक नगर में स्थित नसियाँजी में; जहाँ के निकटवर्ती भूगर्भ में से आज से ६० वर्ष पूर्व तीर्थंकरों की २६ प्रतिमाएँ भी कभी उपलब्ध हुई थीं। ढूंढाड़ और हाड़ौती अंचल के सभी आबाल वृद्ध नागरिक हर्षातिरेक से धर्म-प्रभावना का लाभ लेते रहे महीनों तक। माता ज्ञानमतीजी के सहज बोधगम्य प्रवचनों में भी स्त्री-पुरुष, जैन-जैनेतर सभी सम्मिलित होकर अपने को धन्य समझते थे। पूज्य मुनि शीतलसागरजी महाराज के समाधिस्थ होने तथा फरवरी ७१ में पंचकल्याणक उत्सव आयोजित किये जाने के कारण टोंक नगर की जनता त्यागी-वृन्द के इस शुभ प्रवास की अवधि बढ़वाती रही। इन्हीं दिनों टोंक नगरी में ही प्राप्त महाकवि पार्श्वदास की पदावली पर शोध कार्यरत होने के कारण जैन धर्म के तत्त्वों और विचारधारा को समझने तथा मुनिचर्या को निकटता से देखने के उद्देश्य से मैं माताजी के सान्निध्य में आया। माताजी का सरल स्वभाव, वत्सलता, स्वाध्याय वृत्ति तथा श्रद्धालु की ज्ञान-पिपासा को पहचान कर उसे शमन करने का उत्साह, यही सब चुम्बकीय शक्ति बनकर मुझे माताजी की चरण-सेवा में ले गया। सभी कुछ अनौपचारिक और आकस्मिक था। यह मेरा परम सौभाग्य था। माताजी के शुभाशीष भाव से रंगे अनेक स्मृति-चित्र मेरे मानस की रील में प्रतिष्ठापित होकर एक उत्तम निधि बन चुके हैं आज जिनकी कल्पनामात्र प्रेरणाप्रद होने के अतिरिक्त आनन्ददायी भी है। जम्बूद्वीप रचना की योजना सम्भवतः उन दिनों भी माताजी के मानस स्थल में अंकुरित एवं पल्लवित थी। मुझे वह इससे सम्बन्धित साहित्य देतीं और कुछ पढ़ने को उत्साहित करतीं। जैन संस्कारों के अभाव में मुझे तब जम्बूद्वीप विषयक कोई जानकारी न थी; किन्तु माताजी की माधुर्यपूर्ण और बोधगम्य व्याख्यान शैली ने इस विषय में जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न कर दी थी। तब मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि माताजी के मानस-स्थल में विद्यमान यह सामान्य दिखने वाला बीज कालान्तर में साकार होकर एक विशाल बरगद के रूप में प्रकट होगा तथा युग-युगों तक अपनी शीतल छाया से संतप्त विश्व-मन को शीतलता प्रदान करता रहेगा। दृढ़ इच्छा शक्ति का मूर्तिमंत स्वरूप, निरन्तर साधना-लीन स्वाध्यायरत तथा सर्वलोक वंदित माताजी ज्ञानमती के सर्वसुलभ चरणों में मेरा कोटिशः वंदन। श्रेष्ठ धर्मप्रभावक साध्वी - डॉ० सुभाषचन्द्र अक्कोले निदेशक, अनेकान्त शोधपीठ, बाहुबली [कोल्हापुर] महा० हमें इस साल चातुर्मास में प०पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। हमने हस्तिनापुर मे दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अंतर्गत जम्बूद्वीप रचना देखो और वहाँ से सरधना जाकर पू० माताजी के आशीर्वाद प्राप्त किये। महाराष्ट्र और कर्नाटक के भक्तजनों के प्रति उनके हृदय में बड़ा वात्सल्यभाव देखा _ विद्यमान् दिगम्बर जैन साध्वी परम्परा में वह एक अद्वितीय तेजपुंज "ज्ञानमती'' है। रत्नत्रय तेज से अपनी आत्मा की प्रभावना तो उन्होंने की हो है। अतिशय क्षेत्र जम्बूद्वीप की रचना, विद्वन्मान्य साहित्य निर्माण “सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्र, भारतभूमि की पद्यात्रा, संस्कृत विद्यापीठ का मंचालन वी गानोदय ग्रन्थमाला आदि का कार्य जैन समाज के इतिहास में अतुलनीय कहलायेगा। पूज्य माताजी के aunt म हमारी विनयांजलि। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "माताजी का व्यक्तित्व, विरोध एवं परिहार के दृष्टिकोण में" - डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर १. श्री ज्ञानमती माताजी भौतिकरत्न न होने पर भी रत्न हैं। यह विरोध है। परिहार-माताजी भौतिकरत्न न होने पर भी आर्यिकारत्न हैं अर्थात् आर्यिकाओं में श्रेष्ठ हैं। २. ज्ञानमती माताजी यथार्थ में ज्ञानमती हैं अर्थात् विशिष्ट क्षायोपशमिक ज्ञान से सम्पन्न ज्ञानमती हैं। ३. ज्ञानमती, माता की माता हैं यह आश्चर्य है; क्योंकि माता की तो पुत्री होती है माता नहीं। पर कोई आश्चर्य नहीं । यतः यथार्थ में रत्नमती आर्यिका माता की परम्परा में ज्ञानमती आर्यिका माता हैं। ज्ञानमती, माता की माता हैं यह वैचित्र्य है। पर विचार करने पर कोई वैचित्र्य नहीं। कारण कि ज्ञानमती माता, भारत माता की आर्यिका माता हैं। ५. सन्तान रहित होने पर भी ज्ञानमती, माता कही जाती हैं, यह विरोध है। इसका परिहार है कि ज्ञानमती, पारिवारिक माता न होने पर भी लोक माता हैं, कारण कि लोक का हित करती हैं। ६. ज्ञानमती न केवल आर्यिकाओं में गणिनी हैं, अपितु आप भारतीय गणतंत्र की भी गणिनी हैं। ७. ज्ञानमती वह ज्ञान की तरंगिणी हैं, जिससे तत्त्वोपदेशरूप नहरें निकलकर भारत के प्रान्तों में बहती हैं, जिनमें अज्ञानी प्राणी अवगाहन कर ज्ञान प्राप्त करते हैं। ८. ज्ञानमती, सरस्वती माता की वह वरद सन्तति हैं, जिसने जैन शासन की शत-शत पुस्तकों को जन्म दिया है, जिनके मनन से मानव जिनवाणी के सच्चे उपासक बन जाते हैं। ज्ञानमती वह अपूर्व जननी हैं कि जिसने त्रिलोक शोध संस्थान को जन्म देकर तीनलोक की माता बनने का प्रयास किया है। १०. ज्ञानमती वह अनुपम विधात्री हैं, जिन्होंने विशाल जम्बूद्वीप में जम्बूद्वीप तीर्थ का आविष्कार किया है, जो जम्बूद्वीप अत्युनत मेरु रूप हस्तांगुलि के संकेत से मान लो यह मानवों के प्रति कह रहा है कि यदि आपके पास सम्यग्दर्शन रूप पाथेय (नाश्ता) है तो इससे स्वर्ग एवं अपवर्ग का मार्ग सरल (सीधा) हो जाता है। ज्ञानमती दिगंबर (अकिंचन) होते हुए भी रत्नों के तार से विभूषित हैं, यह विरोधाभास है। निराकरण यह है कि ज्ञानमती अकिंचन होते हुए भी आत्मिकरत्न सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र से विभूषित हैं। इन ग्यारह वाङ्मय मणिमाला को हस्तयुगल में समर्पित कर हम पूज्य ज्ञानमती माता को विनयांजलि अर्पित करते हैं। "दृढ़ संकल्प की साक्षात् प्रतिमूर्ति" - डॉ. अशोक कुमार जैन, पिलानी [ राज० ] बीसवीं शती में जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जिन आर्यिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है, उनमें प० पू० आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का स्थान अग्रगण्य है। उनके दर्शनों के सुयोग के साथ ही उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अनेक विशेषताओं को जानने का अनक बार सुअवसर प्राप्त हुआ। श्रद्धा, ज्ञान और कर्म का समन्वित रूप उनमें विद्यमान तो है ही, साथ ही वह जिस भी कार्य को करने का संकल्प करती हैं उसमें अनेकानेक विघ्न-बाधाएँ आने पर भी निर्णय पर अडिग रहती हैं। जिन शासन की प्रभावना में उनका अप्रतिम योगदान है। उनके द्वारा सम्पादित. अनुवादित तथा मौलिक रूप में लिखे गये ग्रन्थ अपार वैदष्य के परिचायक हैं। मेरे लिए जिनवाणी के प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य हेतु उन्होंने कई बार प्रेरणा प्रदान की। आगम परम्परा की रक्षा के लिए वे दृढ़ संकल्प रखती हैं। गम्भीर से गम्भीर आकस्मिक विषयों को सरल से सरल तरीके से समझाना इनकी वक्तृत्व कला की विशेषता है। उनका अभिवंदन ग्रन्थ प्रकाशित कर समाज ने अपनी कृतज्ञता का अर्घ्य समर्पित कर स्तुत्य प्रयास किया है। ___ मैं इस अवसर पर उनके यशस्वी दीर्घ जीवन की मंगलकामना करते हुए यही प्रार्थना करता हूँ कि उनके द्वारा जिनशासन की प्रभावना होती रहे तथा समाज को मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे। मैं पू० माताजी के चरणों में विनम्र विनगालि सिनेदित करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [६९ "माताजी एक पावन तीर्थ हैं" -डॉ० गंगानन्द सिंह झा, विनोदपुर [ बिहार ] भारतवर्ष हिमालय से लेकर हिन्दमहासागरपर्यन्त महर्षियों, महात्माओं, संतों, सिद्धों एवं अवतारों का विलक्षण राष्ट्र है। यहाँ ये अपनी वाणी का अमृत- जल बरसाते रहे हैं। इन्होंने यहाँ के मनुष्यों से लेकर पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों तक को पवित्र बनाया है। भारतभूमि ही विश्व में ऐसा गौरव प्राप्त कर सकी है। ___ भारत की इन्हीं अध्यात्म-विभूतियों में श्री ज्ञानमती माताजी भी एक हैं। ये भारतीय संस्कृति के मूर्तरूप हैं। अध्यात्म-विभूतियों कीवाणी आत्मा को पवित्र करती है। यही गुण माताजी की वाणी में भी है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। ये स्वयं में अपार-तेजस्वी व्यक्तित्व रखती हैं। महती साधना और तपस्या के अतिरिक्त इन्होंने प्रभूत आध्यात्मिक साहित्य समाज को प्रदान किया है जिसकी निप्तान्त उपादेयता एवं महत्ता को अस्वीकारा नहीं जा सकता। इनके ग्रंथ "जैनभारती" "ज्ञानामृत" "जिनस्तवनमाला" "इन्द्रध्वज विधान" आदि के अवलोकन से इनके अनल्प परिश्रम के अतिरिक्त इनकी मर्मग्राहिणी दृष्टि तथा ज्ञान-प्रौढ़ता का सहज परिचय होता है। माताजी अपने आप में एक पावन तीर्थ हैं। ऐसे तीर्थ का निरन्तर साहचर्य-सानिध्य प्राप्तकर मैं अपने को धन्य बनाऊँ- यह मेरी हार्दिक कामना रहती है। पर पारिवारिक और सामाजिक उलझनें यह सुयोग नहीं प्राप्त होने देती हैं। माताजी अपना संदेश, उपदेश एवं आशीष देती रहें यही उनसे प्रार्थना है। उनकी अमृतवर्षिणी वाणी सारे भारत में गूंजती रहे, जिससे यह धरती अपने सभी जीवों के साथ ऐसी माताको स्मरण करती रहे। चलती-फिरती इनसाइक्लोपीडिया - डॉ० अनुपम जैन, स० प्राध्यापक-गणित संपादक- अर्हत्वचन [इन्दौर] म०प्र० "जैन गणित, भूगोल एवं खगोल के विषय में यदि जानना है तो आप पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के पास हस्तिनापुर जाओ, क्योंकि उनकी सानी का कोई दूसरा विद्वान् इस विषय में नहीं है।" ये शब्द हैं- धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री जयचन्द जैन, मेरठ के, जो उन्होंने सितम्बर-८० में मुझसे कहे थे। उनकी प्रेरणा से हस्तिनापुर आने पर मुझे पूज्य आर्यिका माताजी के रूप में एक ऐसे दैदीप्यमान सूर्य के दर्शन हुए जिससे ज्ञान-विज्ञान के अनेकों क्षेत्रों सहित धर्म एवं समाज के विविध क्षेत्र दीप्तिमान हैं। निर्माणाधीन जम्बूद्वीप रचना के मध्य में बना ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत, एक छोटे से कमरे में विराजमान भगवान महावीर की खड्गासन मनोहारी प्रतिमा। आ० वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ के भवन में चल रहा संस्थान का कार्यालय, ब्रह्मचारी निवास, स्वाध्याय भवन, अतिथिगृह एवं १०-१२ कमरों की एक धर्मशाला जिसका आर्यिका संघ निवास, सरस्वती भंडार, भोजनशाला, भण्डार गृह, यात्री निवास आदि में उपयोग किया जाता था। बस यही था १९८० में संस्थान का परिसर । आज १९९२ में यह परिसर १६ एकड़ में विस्तीर्ण होकर विश्व की अद्वितीय, जम्बूद्वीप रचना, उसमें किया गया लाइट, फव्वारों का मनोहारी संगम, भव्य कमल मन्दिर, विस्तृत सभागार युक्त तीन मूर्ति मन्दिर, रत्नत्रय निलय,जम्बूद्वीप पुस्तकालय, इतिहास का ज्ञान कराने वाला कला मन्दिर, सुविस्तीर्ण जम्बूद्वीप उद्यान तथा २०० फ्लैट्स एवं कमरों से युक्त है। प्रत्येक पर्यटक एवं तीर्थयात्री यही कहता है कि पूज्य माताजी ने जम्बूद्वीप के रूप में जैन समाज ही नहीं, अपितु देश को एक अद्वितीय चीज दी है। सभी उनकी दूरदृष्टि के प्रति विनयावनत हो जाते हैं, किन्तु क्या यही पूज्य माताजी का सम्पूर्ण कृतित्व है ? नहीं। वस्तुतः यह तो उसका शतांश है। पूज्य माताजी ने सम्पूर्ण देश की पदयात्रा, निरन्तर व्रत-उपवास, तपश्चरण के माध्यम से जो अपरिमित शक्ति अर्जित की है उसका ही यह प्रतिफल है कि उनके सम्मुख पहुँचने वाला प्रत्येक आबाल-वृद्ध नर-नारी सहज ही अपने दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों को विस्मृत कर नतमस्तक हो जाता है। उनके सामने अन्तर्मन में त्याग एवं संयमित जीवन की धारा प्रवाहित होने लगती है। अंग्रेजी में एक उक्ति है If you do not understand my silence, you can't understand my words. इसमें निहित भाव के अनुरूप शब्द से अधिक प्रभावी मौन से प्रेरणा ग्रहण कर सहज ही अनेक पुवक-युवती संयम पथ की ओर अग्रसर हो अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से रात्रि भोजन त्याग, शीलवत, चर्मत्याग एवं व्रत-उपवासादि ग्रहण करने वाले तो अगणित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हैं, किन्तु शताधिक को आपने एक से ग्यारह प्रतिमा तक के व्रत अंगीकार कराये हैं एवं कई को मुनिपद एवं आर्यिका पद हेतु सफल प्रेरणा भी दी है। मूल जिनधर्म के प्रति उनकी यह अविस्मरणीय सेवा है। जिनधर्म की प्रभावना हेतु उनके श्रम को जैन बन्धु युगों-युगों तक याद करेंगे। पूज्य माताजी का ज्ञान अगाध है। भक्ति-काव्यों की श्रृंखला में रचित दशाधिक पूजन-विधान, बाल एवं नारी साहित्य, उपन्यास एवं कथा साहित्य में भावों की अनुगामिनी भाषा एवं सरल-सहज प्रवाह पूर्ण शैली उनके भाषा पर अधिकार को परिलक्षित करती है। अध्यात्म, न्याय, व्याकरण, भूगोल एवं खगोल पर लिखे गये ग्रंथ एवं टीकायें उनके ज्ञान की विविधता एवं गाम्भीर्य को प्रकट करती है। इन टीका ग्रन्थों में गूढ़ विषयों की व्याख्या तथा अनुवादों के मध्य लिखे विशेषार्थ विद्वत्जनों के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं। नियमित प्रातःकालीन स्वाध्याय एवं शंका समाधान के समय एक विषय के विवेचन में विभिन्न आगमों/टीकाओं से मूल प्राकृत गाथाओं एवं उनकी संस्कृत छायाओं को सहज ही स्मरण के आधार बताना तथा उनकी पुष्टि/विरोध को सप्रमाण प्रस्तुत करते आज भी उन्हें देखा जा सकता है। १९८५ में आयोजित इण्टर नेशनल सेमिनार के मध्य समागत विद्वानों की अनेक जिज्ञासाओं को माताजी ने मंच पर ही सप्रमाण सुलझा दिया था। उनकी इस विलक्षण प्रतिभा को देखकर उन्हें चलती-फिरती इनसाइक्लोपीडिया कहना उचित ही है। स्वयं का गम्भीर अध्ययन, निर्माण कार्यों की प्रेरणा, शिष्यों को विद्यादान एवं देश की पदयात्राओं के बावजूद १२५ से अधिक प्रकाशित एवं २५ से अधिक अप्रकाशित ग्रन्थों का सृजन ५८ वर्ष की कुल अवस्था में आपने किया है। इससे लगता है कि पूज्य माताजी ग्रन्थ सृजन में आत्मानुभूति का आनन्द लेती हैं, वरना इतना लेखन संभव ही नहीं है। जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जीवन में आत्मसात् करने वाली पूज्य माताजी सच्चे अर्थों में विद्वान् हैं; क्योंकि शास्त्राणि अधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । अभिवन्दन ग्रंथ के प्रकाशन की बेला में मैं उनके चरणों में शतशः वन्दन करता हूँ एवं स्वयं को इस हेतु गौरवान्वित अनुभव करता हूँ कि मुझे इस महत्त्वपूर्ण अभिवंदन ग्रंथ के संपादक मण्डल में चुना गया। वस्तुतः ऐसे कार्य में ही लौकिक विद्याध्ययन की सार्थकता है। शतशः नमन्। वन्दन। स्मृतियों के झरोखे से -प्रो० पं० निहालचंद जैन, बीना जीवन के एक लम्बे अन्तराल के बाद सन् १९८७ में जब पूज्य माताजी के पुण्य दर्शनों का लाभ हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र जाकर किया तो अपने अतीत की कड़ी से जुड़े होने की बात कहकर मन भावोद्रेक से अभिभूत हो उठा। अनन्त चतुर्दशी का दिन था और माताजी मौन थीं, लेकिन माताजी की मुस्कराती आँखें सब कुछ मेरी स्वीकृति में थीं और थी उनके वरद-हस्त की पिच्छी मेरे सिर पर । मैंने मन ही मन अपनी तुलना माताजी से करनी चाही। सोचने लगा- कहाँ यह कोल्हू के बैल-सा अपने व्यामोह के खूटे में बँधा, बस चक्करों की दूरियाँ नाप रहा है और दूसरी ओर टिकैतनगर की यह लाड़ली बेटी आज इस पुण्य धर्ममय देश की माँ बन गई। अपनी प्रखर ज्ञान के आलोक में ऐसी माँ, जिस पर अनन्त माँओं का सौभाग्य भी न्यौछावर है। जीवन की अप्रतिम ऊँचाइयो को हासिल करके एक साध्वी बनी बैठी यह महान् आत्मन न केवल अध्यात्म की दुंदुभि बजा रही है, अपितु अपनी सृजनशील विद्या से हस्तिनापुर के एक भूखण्ड को जम्बूद्वीप का आयाम देकर देश-विदेश के पर्यटकों और वन्दनार्थियों के लिए जैन-भूगोल साकार कर दिया। चाहे राजनेता हो या अभिनेता, चाहे पंडित हो या श्रेष्ठिवर्ग, चाहे जैनेतर श्रद्धालु हों या जनमानस, सभी को अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर देने वाली आर्यिका ज्ञानमती माताजी का व्यक्तित्व विलक्षण है और यह सब उनकी योग साधना का अविकल इतिहास है। त्रिलोक शोध संस्थान की सर्वांगीण गतिविधियाँ पूज्य माताजी की मेधारूपी केन्द्र की परिधि बनी हुई हैं। ब्र० स्त्रीन्द्र कुमारजी के कुशल नेतृत्व में प्रगतिशील यह अनुपम तीर्थ क्षेत्र-कई सदियों तक पूज्य ज्ञानमती माताजी के आत्म-गौरव । भखरित करता रहेगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७१ १०५ गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी एक भव्य व्यक्तित्व - डॉ० मूलचन्द जैन शास्त्री सनावद [म०प्र०] ३. क्रिया परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की उन महान् विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने वह कर दिखाया जो अन्यों ने आज तक नहीं किया और आगे भी शायद ही कोई कर सकेगा। मुझे तो अनेक बार उनके चरण सान्निध्य में रहकर बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला है। उनका कहना है कि त्याग के बिना मानव जीवन का कोई उपयोग नहीं। मानव जीवन तो हमें संयम पालन के लिए मिला है। जो मानव देह प्राप्त कर उसे विषय कषायों में व्यर्थ ही गँवा देता है वह अमूल्य नररत्न की परीक्षा न कर सकने की अज्ञानता का दुष्परिणाम है। पूज्य माताजी ने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र आदि विधानों की रचना कर एक ऐसा कार्य कर दिया है, जो आज तक किसी ने नहीं किया था। मुझे याद है- सनावद में मेरे तत्त्वावधान में लगातार पाँच वर्षों तक तीनलोक विधान हुआ, तब मैं भट्टारक विश्वभूषणजी द्वारा संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचित हस्तलिखित प्रतियाँ प्रतिवर्ष इन्दौर के कांच मंदिर एवं मारवाड़ी मंदिर से लाया करता था । बोलने वालों में एक-दो सज्जन ही मेरा साथ दे पाते थे, शेष तो थोड़ा-बहुत अर्थ व भावार्थ सुनकर ही संतोष कर लेते थे; क्योंकि उन्हें यह समाधान अवश्य था कि "दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो।" सारा समाज तन्मयता से इस विधान को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता था, किन्तु जबसे ज्ञानमती माताजी ने तीनलोक विधान, इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम आदि विधानों की रचना कर दी है, तब से जैन समाज में नई लहर ही आ गई है। इन कृतियों के अतिरिक्त माताजी द्वारा रचित न्याय और व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों के सरल हिन्दी अनुवाद भी हैं, बालोपयोगी साहित्य भी है, उपन्यास जैसी साहित्यिक रचनाएँ भी हैं। मेरी समझ में उनकी शताधिक रचनाएँ आज प्रकाशित होकर जन-जन को प्रेरणा प्रदान कर रही हैं। इनके अतिरिक्त माताजी की कुछ निजी विशेषताएँ हैं१. जम्बूद्वीप की रचना को साकार कर जैन भूगोल को साकार किया। २. त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना कर चारों अनुयागों के पठन-पाठन की व्यवस्था की। क्रियाकांड के जानकार व प्रवचनकार विद्वानों को तैयार कर समाज को लाभान्वित किया। ४. अपने परिवार के भी कई सदस्यों को त्याग और संयम के मार्ग पर लगाया। ५. ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर की स्मृति को भव्य जिन मंदिरों के निर्माण द्वारा उजागर किया। ६. आर्षपरंपरा का पोषण कर विकृत साहित्य को जैन वाङ्मय में प्रविष्ट होने से यथासंभव बचाया। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का शुभारंभ तत्कालीन महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा कराकर सारे भारतवर्ष में निर्बाध ज्ञानज्योति का प्रकाश फैलाया। ८. रचनाओं में छन्द विधान की योजना अत्यधिक लोकप्रिय हुई। ९. अ०भा०दि० जैन शास्त्री परिषद् के विद्वानों का प्रशिक्षण कराकर उन्हें समाज सेवा के लिए प्रेरित किया। १०. शिविरों के विभिन्न स्थानों पर आयोजन किये-कराये, जो पूर्णतः ज्ञानवर्द्धक सिद्ध हुए। ११. विद्वानों का समाज में सम्मान बढ़े व उनकी योग्यता का समाज में मूल्यांकन हो, यह माताजी के मन में सदैव विचार उठते रहते हैं। १२. अष्टसहस्री जैसे ग्रंथ को सर हुकुमचंद, दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय में जब हम लोग पं० बंशीधरजी न्यायालंकार इन्दौर, पं० जीवंधरजी न्यायतीर्थ इन्दौर, व्याख्यानवाचस्पति, सिद्धान्त शास्त्री पं० देवकीनंदनजी कारंजा, पं० नाथूलालजी शास्त्री न्यायतीर्थ, संहितासूरि इन्दौर जैसे दिग्गज विद्वानों के पास प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री जैसे न्याय के ग्रन्थ अथवा शाकटायन व्याकरण जैसे व्याकरण के ग्रन्थ पढ़ते थे, तब हमारे मुख से कभी-कभी निकल जाया करता था कि यह अष्टसहस्री तो पूरी कष्टसहस्री ही है, ऐसे महानतम न्याय के विषय का संस्कृत से हिन्दी में यथावत् अनुवाद करना माताजी की जैन वाङ्मय को बहुत बड़ी देन है। १३. नेहरूजी के सम्बन्ध में एक शेर पढ़ा जाता था अपनी कुर्बानी से है मशहूर नेहरू खानदान । शमए महफिल देख ले, यह घर का घर परवाना है। उसी के अनुकरण पर माताजी के विषय में कहा जा सकता है अपनी कृतियों से हुआ मशहूर ज्ञानमती खानदान । शमए महफिल देख ले यह घर का घर त्यागी हुआ। अन्त में परमपूज्य सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शतशः नमन्। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला DIVINE LAMP IN COSMOS - Dr. S.S. Lishk Govt. In-Service Teacher Training Centre, Patiala Per Holiness Aryikaratna Jnanamati Mataji signifies a divine lamp in unique glorifying the entire cosmos for the benefit of Tamas jivas who begin to tread upon the harmonious path of liberation after going through her invaluable literary and religious works, visiting the mount Meru, the real embodiment of Jaina philosophy, at Hastinapur and being blessed with the glamorous cosmic radiations at her holy audience. Pujya Mataji is a symbol of non-violence, knowledge and universal love. Her Holiness belongs to us all, in all of her infinite dimensions over the ages to come. Long live Pujya Mataji ! चिंतनधारा का रूपान्तरण - डॉ राजेन्द्र कुमार बंसल अमलाई, जिला शहडोल [म०प्र०] मई, वर्ष १९८८ की बात है, जब प्रसिद्ध हस्तिनापुर नगर आचार्य श्री दर्शनसागर महाराज एवं उनके समर्थकों द्वारा मन्दिर में कथित मारपीट की चर्चाओं से गर्म था। समाजसेवी श्री सुकुमारचंद जैन, मेरठ एवं अन्य व्यक्ति इस घटना के शिकार हुए थे। मेरठ जिले के धर्मावलम्बियों में बहुत ही उत्तेजना थी। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि आचार्यश्री का विहार पुलिस पहरे में हुआ और वे उपसर्ग-परिहारक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उसी समय मुझे हस्तिनापुर जाने का अवसर मिला। इस अवसर पर जम्बूद्वीप में विराजित आर्यिका ज्ञानमती माताजी एवं आचार्यश्री दर्शनसागरजी के दर्शन एवं चर्चा का अवसर मिला। आत्म-कल्याण की चर्चा के साथ ही उक्त घटना के संदर्भ में श्रमणसंस्था की विकृतियों की चर्चा शुरू हो गयी। चर्चा से माताजी के मन में इन घटनाओं की प्रतिपीड़ा सहज ही दिखायी दे रही थी। वे इस बात से भी दुःखी थीं कि साधुगण सामाजिक आलोचना के विषय बन गये। संभवतः वे पूर्व से मेरे नाम से परिचित थीं; अतः उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कम-से-कम ६ माह तक साधुओं की आलोचना तथा विद्यमान् श्रमण-संस्था की विकृतियों पर कुछ न लिखू। ___ मैंने माताश्री से कहा कि आत्मसाधक साधु-आर्यिका जैनशास्त्रों में वर्णित वीतरागता के प्रतीक या जीवंत-प्रतिनिधि हैं, जो दर्शन को जीवन में उतारते हैं। इस दृष्टि से उनका अंतर-बाह्य आचार आगम-सम्मत होना ही चाहिये अन्यथा श्रमण-मार्ग लांछित होता है। यदि गृह-त्यागी साधू सामाजिक एवं संस्थागत विवादों के पक्षकार बनकर शिथिलाचारी हो जाते हैं तो उससे वे सहज ही आलोचना का विषय बन जाते हैं। साथ ही दिगम्बर संस्कृति भी बदनाम होती है। यदि शिथिलाचार छिपाकर रखा गया और उसमें सुधार नहीं हुआ तो वह बढ़ता ही जावेगा और अन्त में घटनाएँ स्वयं बोलने लगेंगी, जो इतर-समाज की निन्दा का विषय बनेंगी। क्या यह जैन समाज के लिए हितकर होगा? माताश्री ने मेरी आन्तरिक पीड़ा को समझा और आश्व्सत किया कि वे इस दिशा में सक्रिय प्रयास करेंगी, ताकि साधू-आर्यिका ऐसे विवादों में न फँसे, जो आलोचना का विषय बनें ! उनके इस आश्वासन के साथ ही मैंने उनको आश्वस्त किया कि मैं ६ माह की अवधि तक साधुओं के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखूगा। माताश्री को दिये गये आश्वासन के संदर्भ में हस्तिनापुर की उक्त घटना के निजी-सर्वेक्षण के सारे तथ्य फाड़कर फेंक दिये और मन के विकल्पों का शमन कर साधू-आलोचना से विरत रहा। यद्यपि साधू-शिथिलाचार एवं गृहस्थोचित-चर्या के सम्बन्ध में यदा-कदा प्रकाशित समाचारों से मन उद्वेलित अवश्य होता है; क्योंकि उससे जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग लांछित-दूषित होता है। माताश्री के साथ उक्त चर्चा से मेरे मन में यह विचार आया कि मैं "जिनदीक्षा" के सम्बन्ध में तथ्यात्मक लेख लिख सकूँ। तदनुसार मैंने आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य के संदर्भ में "जिनदीक्षा" नामक लेख लिखा, जिसमें मोक्षार्थो-आत्माओं के स्वरूप एवं आचार का आगम-सम्मत विवेचन हुआ है। आचार्य कुन्द-कुन्द की कृति अष्टपाहुड़ जैनसिद्धांत एवं आचार की महत्त्वपूर्ण कृति है; अतः मैंने उस पर विश्लेषणात्मक लेख लिखे, जो सामाजिक- धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए और हो रहे हैं। इस प्रकार मेरी चिंतनधारा में रूपान्तरण हुआ, जो आत्म-कल्याण Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७३ एवं स्वान्तःसुखाय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। माताश्री का व्यक्तित्व बहुमुखी है। बहुआयामी साहित्य सृजन एवं जम्बूद्वीप रचना उनकी स्थायी कृतियाँ हैं। उनकी साधना का सुफललक्ष्य पक्षातीत-सहज- आत्मोपलब्धि ही है, जिससे वे स्वयं-को-उपकृत अनुभूत करती होंगी। मुझे विश्वस है कि माताश्री निर्दोष-श्रमण-संस्था एवं उसके लक्ष्य "वीतरागता" के पोषण हेतु जो भी शक्य है उसका समाधान करती रहेंगी भले ही उसमें कितनी ही बाधाएँ क्यों न आवें। मैं माताश्री के चैतन्य स्वभाव की निर्मल-वीतराग-परिणति एवं उसके सुफल की कामना करता हूँ एवं उनके श्री चरणों में अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ। विलक्षण व्यक्तित्व -डॉ० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस उक्ति के अनुसार बाल्यावस्था में ही कु० मैना के अद्भुत व्यक्तित्व का आभास होने लगा था। १२ वर्ष की आयु में ही 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका' नामक ग्रन्थ के स्वाध्याय से कु० मैना के हृदय में वैराग्य का बीजारोपण हुआ और १८ वर्ष की आयु में कुछ मैना ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। १९ वर्ष की आयु में कुछ मैना ने आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर ली और 'वीरमती" नाम से विख्यात हुईं। तदनन्तर २२ वर्ष की आयु में आचार्य वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण करके वे 'ज्ञानमती' के पवित्र नाम से अलंकृत हुईं। बालब्रह्मचारिणी आर्यिका ज्ञानमती माताजी के द्वारा विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। आचार्य विद्यानन्द की अष्टसहस्री का आपने हिन्दी अनुवाद करके यह सिद्ध कर दिया है कि न्याय तथा दर्शन के क्षेत्र में आपका पूर्ण अधिकार है। अष्टसहस्री दर्शनशास्त्र का बहुत ही क्लिष्ट ग्रन्थ है। इसी कारण इसे कष्टसहस्री भी कहा जाता है; क्योंकि इसमें उल्लिखित प्रमेयों का ज्ञान सरलता से नहीं होता है, किन्तु वह कष्ट साध्य (मानसिक परिश्रम साध्य) है। आपकी प्रेरणा से हस्तिनापुर में जैनागम के अनुसार जम्बूद्वीप की रचना हुई, जो एक अद्भुत दर्शनीय स्थल है। मुझे अपने जीवन में केवल एक बार पूज्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सन् १९८१ के अफूटबर माह में आपकी जन्म जयन्ती के अवसर पर हस्तिनापुर में जैन भूगोल पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। उस सेमिनार में मैंने भाग लिया था और जैन भूगोल पर एक निबन्ध भी प्रस्तुत किया था। उस समय पूज्या माताजी के दर्शन कर तथा उनके प्रवचन को सुनकर अपूर्व आनन्द प्राप्त हुआ था। जैन-धर्म, जैन-साहित्य और जैन संस्कृति के उन्नयन में आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। आपका व्यक्तित्व विलक्षण और बहुआयामी है। आपकी चारित्रसाधना उत्कृष्ट है। नाम के अनुरूप आपकी प्रतिभा अद्वितीय है। आप ज्ञान की अनुपम निधि हैं। आप बालब्रह्मचारिणी हैं और सम्पूर्ण भारत में आपका नाम विख्यात है। अतः विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए भारत की समग्र दि० जैन समाज ने त्रिलोक शोध संस्थान के तत्त्वावधान में माताजी को एक अभिवन्दन ग्रन्थ समर्पण करने की जो योजना बनाई है वह अत्यावश्यक और प्रशंसनीय है। मैं इस शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी को अपनी सादर सविनय विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ श्री जिनेन्द्र देव से कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी चिरकाल तक स्वस्थ रह कर इसीप्रकार जैन धर्म, साहित्य और संस्कृति के उन्नयन में संलग्न रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्राचीन आचार्य परम्परा की संवाहिका -डॉ० कमलेश कुमार जैन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ पूज्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी इस शताब्दी की अद्वितीय परम विदुषी हैं। उन्होंने अपनी साहित्य-साधना के माध्यम से आबाल-वृद्धों को प्रभावित किया है। जहाँ बालकों एवं युवक-युवतियों के लिए पूज्या माताजी ने सरल एवं सरस साहित्य की रचना की है, वहीं विद्वानों को चमत्कृत करने वाले 'अष्टसहस्री' जैसे न्याय के गूढ़ ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद और 'नियमसार' की संस्कृत टीका की है, जो उन्हें प्राचीन आचार्यों की परम्परा से जोड़ती है। ये कार्य निश्चय ही पूज्या माताजी की विशिष्ट प्रतिभा और अटूट लगन के प्रतीक हैं। अभिवन्दन समारोह के इस पुनीत अवसर पर हम अन्तःकरण से उनके दीर्घायुष्य की मङ्गलकामना करते हैं। प्रखर प्रतिभा की प्रतिमूर्ति - डॉ० पुष्पलता जैन, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, एस.एफ.एस. कॉलेज, नागपुर यह प्रसन्नता का विषय है कि पूज्या ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया है। माताजी की प्रखर प्रतिभा और उनके अध्यवसाय ने उन्हें एक ओर सफल लेखिका के रूप में प्रतिष्ठित किया है, तो दूसरी ओर जम्बूद्वीप की कलात्मक रचना से उनकी कलाप्रियता का आभास होता है। माताजी ने जैन-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया है, मौलिक और अनूदित सैकड़ों ग्रंथों की रचना कर नारी समाज को जो उत्साहित किया है, वह अपने आप में अनूठा है। हमारी शुभकामना है कि वे स्वस्थ और निरामय रहकर अपने जीवन की शताब्दी मनाने का अवसर प्रदान करें। "मातरं वन्दे" -डॉ. प्रेमचंद रांवका-महापुरा [राज०] भारतीय संस्कृति के अध्यात्म-साधना क्षेत्र में श्रमण-परम्परा का प्रारम्भ से ही विशिष्ट एवं अपरिहार्य योगदान रहा है। अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर के पश्चात् अन्तिमश्रुतकेवली भद्रबाहु, आ० धरसेन के शिष्य द्वय पुष्पदन्त और भूतबली, आ० कुन्दकुन्द एवं आ० उमास्वामी से अद्यावधि जैनाचार्यों-सन्तों ने अपनी उत्कृष्ट आत्म-साधना के साथ उत्कृष्ट साहित्य का भी सृजन किया। इसी परम्परा में आर्यिकारत्न पूज्या श्री ज्ञानमती माताजी ने माँ भारती की आराधना में जो ग्रन्थरत्न प्रणीत किये हैं, वे सर्व संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से भारतीय वाङ्मय के अपरिहार्य अंग हैं। आत्म-साधना, ज्ञानाराधना और मानव-मात्र के हितार्थ सदुपदेश एवं साहित्य-सृजन आर्यिका श्री के महनीय व्यक्तित्व के परिचायक हैं। उनकी समग्र साधना जिनवाणी माता की आराधना में ही रहती है। बहुभाषी, विदुषी आर्यिकाश्री के प्रवचनों एवं ग्रन्थों को सुन-पढ़कर गृहस्थ, साधु-साध्वी, विद्वान्, शोधार्थी प्रभावित, उपकृत एवं नतमस्तक हुए बिना नहीं रहते। प्रत्येक जिज्ञासु आपसे निःशंक एवं सन्तुष्ट होते हैं। __ अनेक बार आपके दर्शनों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। आप साक्षात् प्रज्ञावती-सरस्वती हैं। विभिन्न भाषाओं में विविध विधाओं में रचित आपका साहित्य 'साहित्य' की सार्थकता को व्यंजित करता है। आपके विशाल कृतित्व के प्रति अभिवन्दन-ग्रंथ का प्रकाशन माँ जिनवाणी की आराधना में प्रेरणा-प्रदीपयुक्त माँ भारती की आरती ही है। मातरं वन्दे !! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७५ न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते - डॉ० राधाचरण गुप्त, प्राध्यापक - गणित बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान, मेसरा [रांची] भारतीय संस्कृति में जम्बूद्वीप तथा सुमेरुपर्वत का विशेष स्थान है। ब्रह्मांड के वर्णन में उनकी विस्तृत चर्चा की गई है चाहे वह जैनागमों पर आधारित हो या वैदिक तथा बौद्ध ग्रंथों पर। जैनधर्म में तो जम्बूद्वीप तथा उसके सुदर्शन मेरु और चैत्यालयों की विशेष पूजा का विधान है। प्राचीनकाल में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के समय हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने सुमेरु पर्वत का जो स्वप्न देखा था, उसको साक्षात् रूप देने का पूर्ण श्रेय निःसंदेह गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी को ही है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप और सुमेरु पर्वत का मूर्तरूप (model) उनकी दूरदर्शिता का जीता जागता उदाहरण है। उस भव्य निर्माण को देखकर कोई भी दर्शक प्रेरित हुए बिना नहीं रह सकता। वहाँ श्री ज्ञानमती माताजी का सानिध्य तो सोने में सहागा जैसा है। आशा है कि वहाँ स्थापित ज्ञानज्योति तथा माताजी का मार्गदर्शन लोगों को सत्य, अहिंसा और नैतिकता के पथ पर चलने की प्रेरणा देता रहेगा तथा उन्हें सम्यग्जञान दृष्टि प्राप्त होगी। 'नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।' न्यायविद् विदुषी आर्यिकारत्न - डॉ० धर्मचन्द्र जैन, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र श्रद्धेय पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जैन धर्म-दर्शन की अप्रतिम विदुषी हैं। आपने अपना समस्त जीवन प्राच्यविद्या जिनवाणी के प्रचार-प्रसार एवं धर्मोन्नयन में लगा दिया और आज भी आप इसी साधना में संलग्न हैं। इससे जहाँ एक ओर सन्त समाज को उन पर गौरव है. वहीं दूसरी ओर समाज भी आप जैसी महान् न्यायविद् आर्यिका को पाकर धन्य है। आपमें विद्वत्वर्ग के प्रति प्रबल वात्सल्य-भावना है, कारण है कि आप स्वयं ही एक उच्चकोटि की मनीषी विद्वान् हैं। जैन वाङ्मय की ऐसी कोई भी विद्या अवशिष्ट नहीं रही, जिस पर आपकी अचूक लेखनी न चली हो। जैन दर्शन के अष्टसहस्री जैसे दुरुह ग्रन्थ का आपने देवनागरी में अनुवाद कर जैन न्याय के अध्येताओं का मार्ग प्रशस्त किया है। आपने लगभग १५० ग्रन्थों का प्रणयन किया है, जिसमें कतिपय मौलिक तथा अधिकांशतः सम्पादित एवं अनुवादित हैं। यह आपकी महान् धार्मिक-साहित्यिक सेवा अक्षुण्ण रहेगी। आप सचमुच महान् पुण्यशालिनी हैं, चूँकि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की सजीव रचना करवाकर आपने जैन संस्कृति को अधिक उजागर किया है। आप स्वभाव से सरल, मृदु-मधुर संभाषी और तपोनिष्ठ साध्वी हैं। आप जैसी महामनीषी, विदुषी आर्यिकारत्न का अभिवन्दन करते हुए समाज ने अपनी गुण ग्राहकता का ही समुचित परिचय दिया है। आर्यिकारत्न माताजी शतायु हों और ज्ञान-गरिमा से निरन्तर धर्मप्रभावना करती रहें, ऐसी मेरी हार्दिक मंगलकामना है। चरण कमलों में कोटिशः प्रणाम। "यथा नाम तथा गुण" - डॉ० लालचन्द जैन, वैशाली ज्ञान की मूर्तिस्वरूप परम पूज्या आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने श्रमण संस्कृति का प्रवाह बहाकर अपने नाम को अक्षरशः सत्य सिद्ध कर दिया। पू० माताजी का त्यागमय जीवन श्रमण संस्कृति का अद्भुत प्रतीक है। उनका वैराग्य और संयम इस बात का साक्षी है कि अपनी आत्मा का विकास कर जीव आध्यात्मिक साकर्ष कर शांति और अनुपम सुख का उपभोग कर सकता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला परम विदुषी ज्ञानमती माताजी, जिन्हें बचपन से सुमधुर वाणी, विनयशीलता, प्राणी के प्रति वात्सल्यता, धर्म संस्कार प्राप्त हुए, एक अनूठी प्रतिभा की धनी हैं। इस प्रचुर प्रतिभा का साक्षात्कार हमें उनकी कृतियों में उपलब्ध होता है। अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ का अनुवाद कर दर्शन के अध्येताओं का आपने महान् उपकार किया है। आपके द्वारा प्रवाहित इस न्याय की ज्ञान गंगा में कोई भी गोते लगा सकता है। इस तरह की महान् आत्मा परम पूज्य ज्ञानमतीजी की अद्वितीय प्रतिभा का ही यह चमत्कार है कि जम्बूद्वीप शास्त्रों से अवतरित होकर पृथ्वी पर मूर्तरूप ले सका है। यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ करने वाली ज्ञानमती माताजी के दिव्य-गुणों के सौरभ का अनुभव तब हुआ जब १९८३ में हस्तिनापुर में "जम्बूद्वीप" पर संगोष्ठी आयोजित की गई थी। शील, क्षमा, स्नेह, सद्भावना, ज्ञान की निर्मल ज्योतिस्वरूप माताजी में पवित्र-अलौकिक आकर्षण है, जिसके परिणामस्वरूप सभी नतमस्तक हो जाते हैं। लगभग अर्द्धशताब्दी से ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप में अपने को समर्पित करती हुई जैन धर्म की ज्योति को जगमगाने वाली एवं समाज को ज्ञान-साधना से आलोकित करने वाली इस महान् विभूति "ज्ञानमयो" सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न परम पूज्य ज्ञानमती माताजी का शत-शत वन्दन, अभिवन्दन करते हुए मैं अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ। विनयांजलि - डॉ० विमलचंद टोंग्या, इन्दौर अत्यन्त ही हर्ष की बात है कि परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के सम्मान में श्रद्धा भाव प्रकट करने हेतु एक वृहद् अभिवदन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। यह सचमुच अकादमिक गतिविधियोंको प्रोत्साहित करने वाली पूजनीय माताजी के प्रति विनयांजलि होगी। पूजनीय माताजी के प्रति असीम श्रद्धा सहित नतमस्तक होकर आपके प्रयासों की सफलता की कामना करता हूँ। जम्बूद्वीप रचना : गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती जी की ज्ञानमयी प्रस्तुति -डॉ० स्नेह रानी जैन सी-५८, विश्राम, जैननगर, सागर गतवर्ष सिवनी, मध्यप्रदेश के पंचकल्याणक महोत्सव के समय किन्हीं पंडितों के द्वारा सुनने में आया कि भारत की दिगम्बर जैन समाज की एक मात्र आर्यिका माता ज्ञानमतीजी- देव का प्रक्षाल पूजन स्त्रियों द्वारा किया जाना दोषरहित मानती हैं। सुनकर अत्यंत हर्ष हुआ। वह पंडितजी अतिविनय भाव से आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के पास उपर्युक्त तथ्य को लगभग शिकायत रूप में प्रस्तुत कर रहे थे और चाहते थे कि आचार्यश्री उसके बारे में विरोध स्तर उठावें। हैरानी से मैं हाथ जोड़े सभी की तरह आचार्यश्री के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी कि आचार्यश्री ने मुस्कराकर कहा-"आजकल बराबरी का युग है ....।" और बात जयघोषों में समाप्त हो गई। बस, तभी से तीव्र इच्छा उठी, पू० माताश्री ज्ञानमतीजी के दर्शन करने की और उनसे चर्चा करने की। सुन रखा था कि माताजी का दृष्टिकोण वैज्ञानिकी है। थोड़ा-बहुत उनका साहित्य खोजा-पढ़ा और दिल्ली होते हुए हस्तिनापुर पहुंच गई। चाह तो रही थी कि माताजी के दर्शन उनके आहार से पूर्व हो जायें और उनके आहार टान में भाग ले सकूँ, किंतु बस के पहुँचते-पहुँचते उनके आहार प्रारंभ हो चुके थे। पूछते-पूछते वहाँ पहुँची जहाँ उनके आहार चल रहे थे। खिड़की से झाँककर उन्हें वंदना की। उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी-- मौन प्रश्रात्मक-दृष्टि । आहार समाप्ति पर जब उनके बाहर निकलने पर मैंने उनकी वंदना पास पहुँचकर की तो पुनः वही मौन प्रश्न था, परिचय हेतु। मैंने अपना परिचय दिया कि दिल्ली इंतेहान लेने आई थी - आपक दर्शनों की तीव्र इच्छा थी; अतः आ गई हूँ। जम्बूद्वीप संबंधी मेरे मन में प्रश्न हैं कि आज के एक वैज्ञानिक छात्र को इसका परिचय किस प्रकार टैस ? "जिसे धर्म की कोई जानकारी न हो।" - तो सर्वप्रथम उन्होंने इशारे से मुझसे भोजन के बारे में पूछा मैंने बतलाया कि मेरा मर्यादा वाला भोजन मेरे साथ है- तो पुनः संकेत किया उन्होंने कि उसे रहने दो, चौके में जाकर ताजा भोजन ले लो, फिर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७७ बैठेंगे। और एक ब्रह्मचारिणी बहन को संकेत किया कि वह मेरी व्यवस्था करवा दे। वह बहन मुझे आहार के लिए एक चौके में ले गई। अपने आहार से निपट अब मैं माताजी के पास पहुँची कि मध्याह्न सामायिक से पूर्व ही उनसे कुछ चर्चा कर लूँ, किंतु माताजी का "मौन" था-उनसे पुनः प्रश्न उठाया तो वे प्रथम तो मौन रहीं फिर कुछ देर बाद उन्होंने संकेत से पूछा- यहाँ कब तक हो ? मैंने बतलाया- कि माताजी आज ही दिल्ली वापिस लौट जाऊँगी तो उन्होंने संकेत किया कि २-३ दिन ठहरो, चर्चा होगी। मैं रुकना तो चाहती थी, किंतु इतनी छुट्टी लेकर नहीं गई थी। हाथ जोड़कर मैंने विनती की कि संभव नहीं हो सकेगा और इस तरह मुझे उनके मात्र दर्शन मिले, चर्चा नहीं हो पाई। मेरी कर्मफल वंचना! किंतु उनके धर्म वात्सल्य से मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। वर्तमान काल की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में माता ज्ञानमतीजी ने कुमारिकाओं के लिए नये क्षितिज का आयाम खोजा है। उन्होंने दो पग वास्तव में मेरी दृष्टि में प्रशंसनीय उठाये हैं प्रथम पग है- उनका नारियों द्वारा "जिनमूर्ति के अभिषेक को समर्थन", सामान्य मानव की भला क्या बिसात कि वह इस मर्त्यमलिन शरीर से सिद्ध प्रभु को छू सके अथवा तीर्थंकरों को प्रक्षालित कर सके। अभिषेक कर सके, फिर भी प्रतिदिन पुरुष अपने भावों को निर्मल बनाकर, स्नान के बाद, आह्वान द्वारा मूर्ति में प्रतिष्ठा प्रभु की करके उनका प्रक्षाल और अभिषेक कर सकता है। फिर ना जाने किस मिथ्या भ्रमवश उसने नारी द्वारा "तेरहपंथी दिगम्बर समाज में" अभिषेक का निषेध कर दिया। नारी स्वरूप “काया" जो तीर्थंकर को नौ मास गर्भ में रखकर जन्म तो दे सकती थी, “पवित्र जननी" कहला सकती थी, किंतु तीर्थंकर का अभिषेक नहीं कर सकती है। स्पष्ट जानकर भी कि "नवमल द्वार सवै निस वासर, नाम लिए घिन आवे", पुरुष तो स्नान करके शुद्ध हो सकता है, किंतु नारी नहीं! नारी स्वयं भली-भाँति जानती है कि वह कब शुद्ध है और यदि शुद्धि देखकर वह भक्ति से सराबोर होकर अभिषेक हेतु आगे आती है तो पंडितों द्वारा निषेध, मात्र पुरुष का "मिथ्या व्यवहार" और "दंभ" कहलायेगा। पूज्य माताजी ने अभिषेक विधि का समर्थन करके इस रूढ़िवादी परम्परा को तोड़ने का एवं आगम परम्परा को जीवंत करने का जो साहसिक कार्य किया है वह प्रशंसनीय है। यह महावीर के दर्शाये पथ को कि जन्म और लिंग नहीं, कर्म और ध्येय से ही व्यक्ति अपने जन्म को सार्थक करता है तथा चतुर्विध संघ में आर्यिका, मुनि के ही लगभग समकक्ष प्रतिष्ठित है, (भले वीतरागत्व की भावना में अचेलकत्व न होने के कारण मोक्षमार्गी होते हुए भी मोक्षगामिनी नहीं) उपदेशों द्वारा नारी के उत्साह को खंडित होने से बचाया है। उनका दूसरा पग है-हस्तिनापुर में "जम्बूद्वीप-मिनी मॉडल" की रचना । ब्रह्मांड के विस्तार में त्रिलोक की कल्पना, विज्ञान अथवा वैज्ञानिकों की दृष्टि में डाल सकना एक दुष्कर कार्य है। भला स्वर्ग और नरक इस मृत्युलोक से हम मर्त्यजीवों को दिखें भी तो कैसे? और अदृष्ट पर हमारा सामान्य बालक विश्वास कैसे लायेगा? जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है, जिसमें दृष्ट और अदृष्ट दोनों को मनुष्य के सम्मुख प्रस्तुत कर सकने की सामर्थ्य है। छः द्रव्यों वाला पर्याय बदलता संसार, ७ तत्त्वों वाली व्यवस्था, जिसमें दृष्ट अजीव और अदृष्ट जीव, मोक्ष, बंध, आश्रव, संवर और निर्जरा की विस्तृत भूमिका है और ९ पदार्थमय इस चराचर स्थिति को मनुष्य कैसे अवलोकन करे ? जैन धर्म में इस समूचे ब्रह्मांड को १४ राजू वाला आयाम माना है, जिसमें तीनलोक हैं, उस त्रिलोकी सत्ता के मध्य और ऊर्ध्व लोक की व्यवस्था दर्शाता संपूर्ण मिनी मॉडल ही हस्तिनापुर में प्रस्तुत किया गया है। आर्यिका पूज्य माताजी ने "सदेही" मनुष्य को द्रष्टा बनाकर हमारे आस-पास फैले इस विशाल विस्तार को, जो प्रति समय हमारे साथ है (जन्म, मृत्यु, विचार, भाव, कर्म) दृष्ट, अदृष्ट को जोड़ते हुए सिद्धलोक तक हमारी कल्पना को पहुँचाने का एक सरलतम और उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत किया है। लेखनी की धनी इन आर्यिका माताजी ने प्रायोगिक रूप से दर्शकों को सिद्धलोक तक पहुँचने की एक रोमांचकारी अनुभूति अपने इस श्वेत संगमरमरी मॉडल द्वारा दिलाने का सुंदर प्रयास किया है। थ्री डायमेंशनल कल्पना की साकार प्रस्तुति समूचे विश्व में मात्र यहीं उपलब्ध है। चित्रों में यह भले ही अनेक बार देखी गई हो, प्लेनेटोरियम जैसी भूमिका समझाते हुए कदाचित् यहाँ कोई दर्शकों को जैन भूगोल बतलावे तो कठिन ना होगा, इस रहस्यमय जम्बूद्वीप रचना को समझ सकना । भूतत्त्ववेत्ताओं एवं पुरातत्त्ववेत्ताओं का भी मत है कि कभी संपूर्ण धरती इकट्ठा थी, जिसे थाली की कल्पना माना गया- उस धरती के चारों ओर जल था। कालांतर में उसी धरती को बाँटने वाली नदियों के कटाव पसरे और चक्र लगाती धरती (स्वयमेव धुरी पर घूमती) छितरकर छह महाद्वीपों में बँट गई। वे द्वीप भी धीरे-धीरे दूर हटते गए और उनके बीच समुद्र हिलोरें लेने लगा। उस थालीनुमा धरती पर मेरु पर्वत था और जामुन के वृक्ष; अतः वह जम्बूद्वीप कहलाया। भारत के सभी प्राच्य धर्मों में उस जम्बूद्वीप के अस्तित्व का वृत्तान्त मिलता है, जिसके अंदर एक आर्यखंड था, जिस आर्यखंड में एक भरत क्षेत्र था और उस भरत क्षेत्र के किसी एक राज्य में स्थित किसी एक कुल से ..... पिता .... माता ..... की संतान के रूप में हमारे नायक, नायिकाओं का ब्यौरा हमें सुनने को मिलता है। अत्यंत रोचक कथाओं के रूप में दृष्ट संसार प्रस्तुत होता है- जिसे अदृष्ट से जोड़ते हुए भव भव की कथाओं के बाद अचानक वह जीव मोक्षगामी होकर सिद्धत्व को प्राप्त होता है। सांसारिक भूलभुलैया में जब-जब जीव “स्वार्थवश" आगे बढ़ता है वह हिंसा की ओर मुड़कर अपना संसार बढ़ाता है, जब-जब परमार्थ की ओर बढ़ता है Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तो अहिंसा का विस्तार करके अपना संसार घटाता है। शाश्वत सत्यता के बारे में मात्र ज्ञानी ही विचार कर सकते हैं, मनन कर सकते हैं और तदनुरूप आचरण कर सकते हैं, किंतु हस्तिनापुर के इस मॉडल द्वारा यदि संभावित हो सके तो विभिन्न भाषाओं द्वारा "गाइड-व्यवस्था" करके प्रत्येक दर्शनार्थी को जैन दर्शन का लाभ उसके आत्मकल्याण हेतु दिया जा सकता है। ८४ लाख योनियों में से भटक-भटककर घूमने के बाद भूले-भटके पाए हुए इस मनुष्य जन्म को मात्र सांसारिक भूलभुलैया में खोने के बजाय "कल्याण" मार्ग-दर्शन देकर जगाया जा सकता है। ताकि पौरुषार्थिक क्षमता से इच्छुक जीव त्रिलोकी सत्ता के शिखर सिद्धलोक तक पहुँचने का उपक्रम कर सके। यह अनुपम देन आर्यिकाजी की ही है। पूज्या माताजी की धवल कीर्ति - पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य, इन्दौर पूज्य आर्यिकारत्न गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान में श्रमण-संस्कृति के आदर्श रत्नत्रय मार्ग को महिला वर्ग में पुनरुज्जीवित करने की उत्कृष्ट भूमिका निभा रही हैं। आपने प्राचीन तीर्थभूमि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना में अपनी प्रतिभा का जो सदुपयोग कर जैनधर्म के करणानुयोग को "मूर्तरूप दिया, वह सुदीर्घकाल तक आपकी धवलकीर्ति को प्रसारित करता रहेगा। अष्टसहस्री सदृश जैन न्याय के सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ का प्रथम हिंदी अनुवाद लिखकर उसे प्रकाशित करने का श्रेय आपने प्राप्त किया है। अनेक अति आवश्यक मंडल विधान पूजा ग्रंथों को विविध सुन्दर पद्यों में रचकर आपने एक समाज में बड़ी कमी को पूरा किया है। साथ ही अनेक पठनीय ग्रन्थों की रचना भी आपने की है। पूज्या माताजी ने आर्यिका पद से अपनी आत्माराधना करते हुए पूर्वावस्था की अपनी माताजी, भ्राता, बहन और अन्य परिवार के व्यक्तियों को भी अपने त्यागमय जीवन का सहयोगी बनाकर एक प्रेरणा बनाकर एक प्रेरणाप्रद अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है। जंबूद्वीप के त्रिलोक शोध संस्थान के अन्तर्गत विद्यालय, परीक्षालय, मासिक पत्रिका प्रकाशन आदि विविध रचनात्मक प्रवृत्तियाँ आपके सानिध्य एवं मार्गदर्शन में चल रही हैं, जिनका संचालन पूज्य क्षुल्लकजी एवं बाल ब्र० रवीन्द्र कुमारजी शास्त्री कर रहे हैं। श्री १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन के इस पुण्य अवसर पर मेरी सविनय वन्दना और मंगलकामना। गुण गरिमा की प्रतिमूर्ति - डॉ० शरदचन्द्र शास्त्री, स्पोर्ट आफीसर अलीराजपुर [झाबुआ] म०प्र० जो सत्शास्त्रों की आराधना-उपासना में अवगाहन कर साक्षात् सरस्वती की भाँटि जितेन्द्रिय होकर एकाग्रता से निरन्तर ध्यान, मनन, चिन्तन में लीन रहती हैं। जिनकी भावना लोक-कल्याण की दृष्टि से सिद्धांत ग्रन्थों को सरल सुबोध करन में रहता है। बहमुखी प्रतिभासम्पन्न माताजी में संवर और निर्जरा के साक्षात् दर्शन होते हैं। जिनकी गुण गरिमा अनिर्वचनीय है, उन गुण गरिमासम्पन्न आर्यिकारत्न पूज्य ज्ञानमत गाताजी के पावन चरणों में चिरायु होने की मंगलकामना के साथ अनन्त बार सादर नमन् है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ श्रुत आराधिका श्रुत साधकों का अभिनन्दन अनादिकाल से होता आ रहा है। आगे भी होता रहेगा और आज भी होना आवश्यक है। उन्हीं श्रुत आराधकों में श्रुत ज्ञानसाधिका, चारित्र चन्द्रिका गणिनी पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी भी हैं। पूर्वभव के संस्कार और इस भव का निरन्तर श्रुताभ्यास पठन-पाठन पूज्या माताजी का नित्य का क्रम है, उनका चिंतन, मनन एक उत्कट आदर्श है, जो मुमुक्षु प्राणियों को मार्गदर्शन देता है और देता रहेगा। ऐसी उन मातेश्वरी के श्री चरणों में स्वस्थपूर्ण शतायु होने की कामना के साथ मेरी विनयांजलि अर्पित है। श्रद्धा सुमन Jain Educationa International - सौ० शान्तिदेवी शास्त्री प्रभाकर - शिवपुरी [म०प्र० ] [७९ जम्बूद्वीप के निर्माण की पावन प्रेरणा देने वाली गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के चरणों में मेरा शत शत वन्दन । पू० माताजी के गुणों का वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के सदृश है, मेरी लेखनी में ऐसी शक्ति कहाँ जो मैं कुछ कह सकूँ, फिर भी दुस्साहस कर रही हूँ। अच्छा हुआ नारी हैं आप जम्बूद्वीप निर्माण से जनता को अनेक प्रकार का लाभ मिला। हस्तिनापुर की पुण्य धरा पर जहाँ अनेक तीर्थंकरों (शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ इत्यादि) के कई कल्याणक हुए। मल्लिनाथ भगवान का समवशरण आया और भगवान आदिनाथ का इक्षुरस का आहार हुआ। ऐसी पुण्य भूमि पर आमतौर से लोग मेले पर या अट्ठाईयों में ही आते थे। बाकी दिनों में कोई व्यवस्था नहीं थी। अब यहाँ रोज मेला लगा रहता है। सड़कें बन गई हैं। जनता को धर्म लाभ के साथ-साथ साधुओं का संसर्ग भी प्राप्त होता है । विश्व का यह अनोखा निर्माण कराने के पश्चात् माताजी स्वयं अस्वस्थ हो गई, लेकिन जनता के लिए हस्तिनापुर फिर से आबाद हो गया। अधिक क्या कहूँ, माताजी की पावन प्रेरणा से जो श्रावक दर्शन करने आता है वही धर्म में दृढ़ता लेकर जाता है। उनकी वाणी में ओज है, मन्द हास्य है और शांत मुख मुद्रा सहसा ही व्यक्ति को आकृष्ट करती है। माताजी ने जिन आगम में से श्रावकों के लिए अनेक प्रकार के विधानों की रचना की है एवं सरल भाषा में अनगिनत ग्रन्थों की रचना करके द्वादशांग वाणी को श्रावकों के लिए प्रस्तुत किया है। इन कठिन प्रयासों के लिए जैन समाज उनका सदा आभारी रहेगा। - डॉ० सरोज जैन, रीडर, - अरविन्द कॉलेज, दिल्ली वि०वि० दिल्ली For Personal and Private Use Only . . . . प्राचीन काल से सृष्टि की अनिवार्य और अपरिहार्य घटक होते हुए भी, बौद्धिकरूपेण सक्षम एवं समर्थ होते हुए नारी की स्थिति धर्म हो अथवा कर्म सभी में द्वितीय श्रेणी की ही रही है; नारी विशेषण न रहकर संज्ञा न बनकर "अपशब्द" का पर्याय तक बनकर रह गया, तिस पर दुरस्थिति यह रही कि मात्र देहयष्टि एवं प्राकृतिक संरचना से शारीरिक समर्थता की सबलता के समक्ष नारी ने भी अबलापन को न केवल नियति, अपितु मुकुटवत् शिरोधार्य कर लिया था, इस क्रम की दुःखद परिणति वर्तमान के प्रगतिशील युग में भी नारीदुर्दशा, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, बेमेल विवाह आदि अनेक वीभत्स रूपों में देखने को मिल रही है, ऐसे संक्रमण एवं विषम काल में एक नारी ने अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र के त्रिशूल को दृढ़ता से सभी क्षेत्रों में पुरुष को पछाड़ नारी कीर्ति, संस्तुति और गरिमा महिमा के उच्चतम कीर्तिमान स्थापित किये, तब स्वाभाविक हो जाता है - डॉ० नीलम जैन, देहरादून . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला शब्दकोष से उन शब्दों को चुनना और पढ़ना, जिनसे सुवासित गंध आती है। नारी तुम श्रद्धा हो, तुम शक्ति हो, प्रेरणा हो, गति हो, मति हो। सत्य तो यह है कि सबला नारी के पूर्ण अंगों, उपांगों, भेद-प्रभेदों का विश्लेषण कर तपःपूत पुण्यश्लोका, आत्मसाधिका पूज्या मातुश्री ने तटस्थ हो उन कारणों पर विवेकसम्मत दृष्टिपात किया जो चारों ओर शंखनाद' किए हुए थे "नारी नरकगामिनी" नारी विषवेल, नारी अधोगामिनी, तब सिद्धान्तवेत्ता जगज्जननी माँ ने उन ग्रन्थ पर ग्रन्थों को ही पलट डाला जो नारी की अस्मिता के कृष्ण-कालिख पक्ष पर ही पूर्ण स्पाट लाइट डालते थे, तब मातु श्री ने कहीं भी तो ऐसा नहीं पाया जो नारी चरित्र की उज्ज्वलता को अवगुष्ठित करता हो। प्रमाणतः "जैन भारती", "मेरी स्मृतियां" एवं सम्यग्ज्ञान मासिक के अनेक अंकों में तर्क एवं प्रमाणयुक्त लेख प्रसंग देकर जहाँ नारी के मनोबल को वृद्धिंगत किया वहीं सम्पूर्ण भारत ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जम्बूद्वीप जैसी संरचना कर जैन भूगोल से शिक्षाविदों, तत्त्ववेत्ताओं को परिचित कर अपूर्व धर्मप्रभावना एवं नारी निष्ठा, दृढ़ता एवं संकल्प को सुमेरुवत् स्थिर किया। वस्तुतः तथ्यपरक सत्य यह है कि ऐसी प्रतिमापुंज, चारित्र-मणि आर्यिका-श्री नारी को उसके अन्तर्शक्तियों के स्फुरण हेतु, नारी प्रगति एवं जागरण के लिए अवतार रूप में, आदि सरस्वती ब्राह्मी के क्रम में हम महिलाओं के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं, मैं तो क्षमा चाहते हुए कहूँगी अच्छा हुआ मातुश्री आप नारी हुईं, हम नारियों को तो संप्रेरणा की चरम सीमा हैं आप। आपने पुनः बाध्य किया है इस पुरुष समाज के सबलतम एवं समर्थतम अवयवों को भी अत॑मन से प्रणमित होने को एवं नारी की प्रभुता एवं विभुता को जानने-पहचानने को! सामान्य से सामान्य नारी भी आज आपके ज्ञान चरित्र से स्वयं का आंकलन करने लगी है, कसौटी हैं आप श्राविकाओं की भी एवं आर्यिकाओं की भी, सम्पूर्ण नारी समाज को संचेतन कर पुरुष वर्ग के सम्मुख गर्व से उठाने में आपकी महती भूमिका है। आपने स्पष्टतः कहा है नारी गुणों को प्रकटित करें, चारित्रिक रूप से सबल रहें तो कोई कारण नहीं कि उसका शोषण अथवा दोहन हो सके। ऐसी शक्तिस्वरूपा, नारी-तिलक आर्यिका श्रीजी की मैं भक्तिपूर्वक बारम्बार वन्दना करती हूँ, हम आपके मार्ग की अनुगामिनी बनकर आप द्वारा प्रदीप्त दीपक निरन्तर जाज्वल्यमान रखें, यही आशीर्वाद हमें प्रदान करें। प्रणामांजलि - सुनीता एवं शोभा शास्त्री, बी०ए० शिवपुरी [म०प्र०] आत्म-शुद्धि में तत्पर धर्म के पिपासु-जिज्ञासुओं को जो समीचीन आगम ग्रन्थों के स्वाध्यायपूर्ण उपासना की प्रेरणा देती हैं, सम्यग्दृष्टि जीवों को मोक्षमार्ग की दिशा निर्देशित करती हैं वह हैं ज्ञानमती माताजी। - दीर्घ जीवन की उज्ज्वल एवं मंगलकामना के साथ सम्यग्दर्शन सम्पन्न अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, जिनशासन प्रभाविका, न्यायप्रभाकर, सिद्धान्त वाचस्पति, विद्यावारिधि, परम पूज्यमाता श्री ज्ञानमतीजी के पावन चरणों में हमारी अनन्त वन्दना नमोस्तु है। विनम्र विनयांजलि - डॉ० अविनाश सिंघई, बी०ए० पत्रकार, दैनिक नवप्रभात, शिवपुरी [म०प्र०] जिन्होंने अपने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से आगम के सिद्धान्त ग्रन्थों की आराधना में जीवन समर्पण किया, पर हितार्थ चारों वेदों (चार-अनुयोगों) का निरन्तर गहन अध्ययन, अध्यापन का अपना चरम लक्ष्य बनाया है। जिनकी प्रतिभा-सम्पन्न अभीक्षण प्रज्ञा ने जम्बूद्वीप की स्थापना तथा निर्माण कार्य सम्पन्न किया। उन माता श्री ज्ञानमतीजी के पुनीत चरणों में शतायु होने की उज्ज्वल कामना के साथ विनम्र विनयांजलि सादर समर्पित है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८१ प्राणिमात्र के हित में संलग्न विदुषी - नाथूराम जैन डोंगरीय, इन्दौर [म०प्र०] यह देश और समाज का परम सौभाग्य है कि इस युग में अहर्निश प्राणिमात्र के हित एवं धर्म प्रभावना में संलग्न विदुषीरत्न गणिनी आर्यिका माता श्री ज्ञानमती जैसी कर्मठ साध्वी का वरद सानिध्य एवं शुभाशीर्वाद प्राप्त है। उन्होंने आदर्शरूप में बाल ब्रह्मचारिणी रहकर अपने त्याग और तपस्यामय जीवन में ज्ञानार्जन करते हुए जो विपुल साहित्य सृजन कर जिनवाणी की सेवा की है तथा धर्मनिष्ठा व कर्त्तव्यपरायणता का बहुआयामी परिचय दिया है वह सचमुच अभिनंदनीय है। __ अनेक मौलिक ग्रंथों की रचनाएँ, आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के गद्य-पद्य में किये गये अनुवाद, पूजन विधानों की अनेक छंदों में की गई संरचनाएँ, अष्टसहस्री जैसे उच्चतम न्याय ग्रंथ का मातृभाषा में रूपांतर आदि साहित्यिक कृतियाँ माताजी की ज्ञान गरिमा एवं निसर्गज कवित्व शक्ति को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं। जम्बूद्वीप और उसमें विशालकाय उत्तुंग मेरु की रचना कराकर देश-विदेश के सभी जनों को एक दर्शनीय स्थल के रूप में माताजी ने एक सचमुच ही अनूठा कार्य किया है, जो जैन धर्म और समाज को चिरकाल तक गौरवान्वित करता रहेगा। सच तो यह है कि पृ० माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की कोई तुलना नहीं है, जो वर्तमान में की जा सके। वे आदर्श गणिनी एवं दिगंबर जैन साध्वी हैं, जिनसे जैन एवं समस्त महिला समाज गौरवान्वित है। उनकी वंदना करते हुए यही कामना करता हूँ कि वे आत्म-कल्याण के साथ ही धर्म समाज एवं जिनवाणी के उत्थान हेतु चिरकाल तक संलग्न रहकर समाज को मार्गदर्शन देती रहें। "ज्ञान गंगा पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी" -पं० यतीन्द्र कुमार वैद्य, लखनादौन "ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण' कहकर आचार्यों ने ज्ञान की महिमा गाई है, परन्तु कौन-सा ज्ञान इसका निर्णय करते हुए कहा है आत्म ज्ञान ही ज्ञान है, और ज्ञान अज्ञान । सुख शांति का मूल है, वीतराग विज्ञान ।। अर्थात् वीतरागता के साथ आत्मा का ज्ञान ही सुख-शान्ति और कल्याण का आधार है। निर्मल आत्म श्रद्धापूर्ण आत्मज्ञान तथा वीतरागतापूर्ण सम्यक् आचरण जिसे रत्नत्रय धर्म कहते हैं, उसकी अधिष्ठात्री श्री १०५ ज्ञानमती माताजी को श्रमण संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन एवं समाज की जागृति के लिए किये गये प्रभावना के वृहत् अभिनन्दनीय कार्यों के उपलक्ष्य में कृतज्ञता ज्ञापन का सत्कृत्य अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पण का आयोजन हो रहा है। बहुत हर्ष का समय है। आज समाज में पुरुष तथा महिला समाज में अनेक साधक हैं, जो अपनी-अपनी क्षमता से स्व-पर साधना में रत हैं। उन्हीं में से महिला साधकों में पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। विद्वान् पू० माताजी ज्ञानमती को ज्ञान की गंगा मानकर सम्मान प्रदान करते हैं। यह सच है कि उनके ज्ञान का क्षयोपशम असीमित है। भारतीय संस्कृति के वैदिक तथा श्रमण पक्षों ने माता जाति को बराबर सम्मान प्रदान किया है। भगवान् महावीर के समोशरण में भी नारी साधकों की संख्या ज्यादा थी। आज भी प्रत्येक धार्मिक कार्यक्रमों में माताएँ प्रमुखता से सहयोग प्रदान कर रही हैं। उनके बिना सब वातावरण अधूरा रह जाता है। सन्तों ने माता जाति, जिसे शक्ति की अधिष्ठात्री देवी माना है, उनके गुणों के गीत गाये हैं। माता के सम देव जगत में और न कोई। मातृभूमि सम और जगत में कहीं न कोई ॥ मातृभूमि है प्राण, प्राण माता है प्यारी । प्राणहीन हम हुए अगर ये गई विसारी ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सम्पूर्ण दुनिया के देश अपनी भूमि को पितृभूमि कहते हैं, परन्तु भारतवासी अपने भारत को मातृभूमि कहकर उसकी वंदना करते हैं। माता जाति के प्रति कितना बड़ा सम्मान है। जैन धर्म अध्यात्मवादी धर्म है, वहाँ आत्मा के ही महत्त्व को प्रधानता दी है। जिसकी पर्याय से हटकर अंतरदृष्टि जाग्रत हो गई, वहाँ ही महानता के दर्शन हो जाते हैं। माताजी महान् नारी रत्न है, जिन्होंने बचपन से विषय विकारों पर अंकुश लगाकर आत्म-साधना शुरू कर दी, बंधनकारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश ही नहीं किया। बाल ब्रह्मचारिणी होकर आज के लाखों जन-जन की मातुश्री हैं। माताजी ने चारों अनुयोगों के सिद्धांत शास्त्रों का गहन अध्ययन किया है। मनन-चिन्तन हुआ है। न्याय, व्याकरण जैसे कठिन विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन कर अष्टसहस्री, समयसार आदि अनेक महाग्रन्थों की टीकाएँ कर आपने महान् विदुषी पद का परिचय दिया है। साहित्य की अनेक विधाओं - बाल साहित्य, गद्य-पद्य कहानी, इतिहास, स्तोत्र, आदि के द्वारा सैकड़ों ग्रन्थ लिखकर साहित्यिक अवदान को समयोचित रूप देकर माँ भारती के भंडार को भरा है। माताजी का महान् उपकार समाज कभी भूल नहीं सकता। वह है विविध पूजा विधानों का सरल हिन्दी भाषा में, ललित छंदों में, इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, नंदीश्वर इत्यादि विधानों की रचना जैनेन्द्र देव के गुणानुराग के लिए पूजा विधान द्वारा सामूहिक भक्ति भावना से हम पापों से बचते हुए आत्म हित कर सकते हैं। सच्चा श्रावक भोगों का विश्वासी नहीं, आत्म-कल्याण का इच्छुक होता है। इस काल में श्रावकों के लिए पूजा-विधान से बढ़कर कोई कर्तव्य नहीं है, लेकिन वे विधान संस्कृत में होने से या अनुपलब्ध होने से सर्वसाधारण जनता भक्ति रूपी पुण्य लाभ से वंचित हो रही थी इस कमी की ओर पूज्य माताजी की सूक्ष्म दृष्टि गई और उन्होंने अल्प समय में ही अनेक विधानों की रचना कर समाज का बहुत उपकार किया है, आज से करीब आठ वर्ष पूर्व मुझे भी हिसार (हरियाणा) में स्वर्गीय प्रोफेसर मुनिसुव्रत जी के द्वारा इन्द्रध्वज विधान संपन्न कराने का आमंत्रण आया था, तब मैंने हस्तिनापुर जाकर माताजी से आशीर्वादपूर्वक विधान की प्रतियाँ, आवश्यक सामग्री तथा निर्देश प्राप्त कर बड़ी प्रभावना के साथ विधान सम्पन्न कराया था। आज जगह-जगह समाज में विधानों की धूम मची है। इस धर्म प्रभावना का श्रेय माताजी हो ही है 1 पूज्य माताजी ने भारत के अनेक प्रान्तों में पैदल भ्रमण करते हुए संयम, सदाचरण का उपदेश देकर लोगों का हित संवर्धन तो किया ही है, हस्तिनापुर जैसे प्राचीन ऐतिहासिक नगर में जैन भूगोल की प्रतिष्ठा बढ़ाकर, जम्बूद्वीप का निर्माण करवाकर अपने नाम को अमर बना दिया है, जिसको देश-विदेश के लोग देखकर प्रभावित हो रहे हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री राष्ट्रनायक इन्दिरा गाँधी के द्वारा उद्घाटित ज्ञान ज्योति का पूरे देश में रथ के द्वारा भ्रमण अनोखी प्रभावना का कार्य था, जो तीन वर्ष तक चला। इस ज्ञानज्योति रथ से सम्पूर्ण राष्ट्र में नैतिकता, अहिंसा, विश्वप्रेम एवं मानवीय मूल्यों को बल प्रदान किया गया। मुझे भी सिवनी जिले के कुछ हिस्सों में ज्ञानज्योति के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जहाँ जैनियों के साथ अजैन जनता ने स्वागत में हिस्सा बैटाकर मांस, मदिरा का त्याग किया। इस प्रकार एक कोमलांगी माता के द्वारा अनेकानेक जैनधर्म की प्रभावना के कार्य हुए हैं, हो रहे हैं 1 सम्यग्ज्ञान पत्रिका के द्वारा भी जैन सिद्धान्त के चारों अनुयागों के आधार से रोचक सामग्री प्राप्त हो रही है अपने गुरु आचार्य श्री वीरसागरजी के नाम से संस्कृत विद्यापीठ द्वारा धर्म समाज की सेवा के लिए अनेक विद्वान् साधकों को तैयार करना माताजी की कर्मठता का जीता जागता प्रमाण है माताओं को भक्ति, शक्ति एवं सरस्वती रूपी ज्ञान की अधिष्ठात्री माना गया है। आपने अपने बहुमुखी रचनात्मक कार्यों से सिद्ध कर दिया है कि माताजी साक्षात् ज्ञान की गंगा स्वरूप हैं। हम पूज्या माताजी के यशस्वी दीर्घ जीवन की कामना करते हैं। विनयांजलि 1 पूज्या ज्ञानमती माताजी का दिगम्बर आर्यिका संघ में एक बहुश्रुत नाम है ज्ञान और वैराग्य के समन्वय से जिन्होंने अपने जीवन को उत्कर्ष की राह पर आगे बढ़ाया है, उन प्रभावक महिलाओं की सूची में उनका नाम बहुत ऊपर है। थोड़े ही समय में उनकी साधना की अर्द्ध शताब्दी पूरी हो जायेगी, जो अपने आप में एक गौरवमयी उपलब्धि कही जा सकती है। ऐसे महनीय व्यक्तित्व का अभिवन्दन वास्तव में अपनी आस्था का ही अभिवन्दन है। Jain Educationa International नीरज जैन, सतना (म०प्र० ] जैन वाङ्मय की भी उल्लेखनीय सेवा आर्यिका ज्ञानमती माताजी के द्वारा हुई है। प्राचीन ग्रन्थों की टीकाओं और अनुवादों के साथ-साथ मौलिक लेखन उनकी विशेषता है "मेरी स्मृतियाँ" शीर्षक से उनके जो संस्मरण प्रकाशित हुए हैं, वे अपने आप में एक प्रामाणिक इतिहास जैसे हैं। | For Personal and Private Use Only - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८३ दिगम्बर मुनियों और आर्यिकाओं में प्रायः अपना जीवन-वृत्त या अपने संस्मरण लिखने की पद्धति नहीं रही। इस कारण इस युग के साधकों का भी इतिहास हम नहीं सँजो पाये हैं। इस दिशा में ज्ञानमतीजी का वह प्रयास उपयोगी है और सराहनीय है। माताजी के प्रतिभासम्पन्न, स्नेहसिक्त व्यक्तित्व के प्रति अपनी विनयांजलि प्रस्तुत करते हुए मैं उनके लिए यशस्वी दीर्घजीवन और उत्तम समाधि की कामना करता हूँ। ज्ञान की प्रेरणा देने वाली पूज्य आर्यिका ज्ञानमतीजी -निर्मल जैन, सतना संयोजक शाकाहार परिषद् १४ अगस्त सन् १९६४ को मेरी बहिन सुमित्राबाईजी ने श्री पपौराजी क्षेत्र पर पूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी (नाम पूज्य आर्यिका विशुद्धमतीजी) पपौराजी में ही संघस्थ सभी मुनिराजों, आर्यिका माताओं के चरणों में बैठने का अवसर मिला तो सभी से परिचय हो गया। बाद में भी चातुर्मास के बीच संघ के दर्शनार्थ जाता था, कुछ दिन सानिध्य प्राप्त करता था सो परिचय प्रगाढ़ होता गया। सन् १९६८ में पूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज के इस संघ का चातुर्मास प्रतापगढ़ (राजस्थान) में था। हम लोग दर्शनार्थ पहुंचे तो संघ में आर्यिका माताओं की संख्या कुछ अधिक लगी, विचार किया बीच में कभी कहीं से दीक्षाओं की सूचना नहीं मिली, फिर यह संख्या वृद्धि कैसे हो गई। प्रातः जब सभी आर्यिका मातायें एक जगह एकत्रित हुई तो हम लोग भी दर्शनार्थ पहुंच गये। देखा पूज्य विशुद्धमतीजी भी एक नई आर्यिका माताजी की वंदना कर रही हैं, मेरी जिज्ञासु दृष्टि को समझकर माताजी ने मुझे पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी का परिचय देते हुए बताया कि ये पूज्य आचार्य वीरसागरजी महाराज से दीक्षित माताजी हैं, मेरी दीक्षा के पूर्व ही आचार्य शिवसागरजी महाराज की आज्ञा से भारतवर्ष के तीर्थक्षेत्रों की वंदनार्थ कुछ आर्यिका माताओं को लेकर पृथक् विहार पर चली गई थी, इसलिए तुम्हारा अभी परिचय नहीं है। अभी चातुर्मास के पूर्व ही संघ में वापिस आई हैं, बहुत ज्ञानवान् है, यथा नाम तथा गुण, आहार के बाद इनके पास बैठकर चर्चा कर लेना। हम प्रतीक्षा करते रहे जैसे ही आर्यिका ज्ञानमतीजी आहार करके आई हम उनके पास पहुंच गये, उन्होंने कहा भैया तुम्हारी पत्नी सरोज तो चौके में थीं, परंतु तुम नहीं थे, क्या आहार नहीं देते ? मैंने कहा माताजी मैं तो देना चाहता हूं पर आप लोग लेते नहीं, क्यों ? शूद्र जल का त्याग नहीं है और जनेऊ नहीं है। पूज्य माताजी ने स्नेहपूर्ण उलाहना दिया- भैया, इतनी विदुषी आर्यिका माताजी के भाई होकर इतना त्याग नहीं कर सके। आज से कर लो और कल आहार देना। मैंने संभवतः कुछ उद्दण्डता से कह दिया माताजी आपका नाम तो ज्ञानमती है, कुछ ज्ञान की बातें बताइये, आचार-विचार की बातें आचार्य महाराज को करने दीजिये। माताजी ने किंचित् उदासीनता से कहा ठीक है चार बजे आ जाना। किसी अदृश्य प्रेरणा से खिंचे हम चार बजे पुनः पहुँच गये, ५-७ मिनिट का विलंब हो गया था, देखा पूज्य माताजी समीप बैठी माताओं एवं ब्र० बहिनों को कुछ पढ़ा रही हैं। क्या पढ़ा रही थीं?यह उस समय की मेरी बुद्धि समझने में सक्षम नहीं थी। परंतु पढ़ाने की वात्सल्यपूर्ण पद्धति में कुछ ऐसा आकर्षण था कि बिना समझे भी पांच बजे तक वहां बैठा रहा। पढ़ाई समाप्त हुई तब माताजी ने मुझसे कुछ साधारण से प्रश्न किये, फिर कहा आपने ज्ञान की बात करने को कहा था तो अब ज्ञान की बात तो मानोगे। मैंने कहा माताजी अवश्य मानने का प्रयास करूंगा। उन्होंने कहा कि नियमित स्वाध्याय किया करो। स्वाध्याय के लाभ पर संक्षिप्त-सा उद्बोधन देते हुए उन्होंने कुछ सरल ग्रंथों के नाम लिखा दिये और कुछ पुस्तकें भी थमा दी। यह आदेश भी दिया कि स्वाध्याय में पत्नी को भी साथ बिठाना। यह भी कह दिया कि अगली बार जब आओगे तो मैं जानना चाहूंगी कि ज्ञान की बात तुमने मानी कि नहीं, स्वाध्याय की परीक्षा सरलता से हो जाती है। प्रतापगढ़ के उसी एक सप्ताह के प्रवास में मेरी सात वर्षीया बेटी सुविधा पूज्य ज्ञानमती माताजी से इस तरह घुल-मिल गई कि उसने वहीं उनके पास रहने की जिद पकड़ ली। हमारा हर प्रकार से समझाना जब व्यर्थ गया तब पूज्य माताजी से ही कहलवाना पड़ा कि बेटी अभी घर जाओ, कुछ बड़ी हो जाने पर आ जाना, तव उस बालिका को हम वापिस ला सके। यह उन बाल ब्र० माताजी के वात्सल्य का प्रतीक था। पूज्य ज्ञानमती माताजी के इस प्रथम दर्शन के समय से ही मुझ पर उनकी वात्सल्यपूर्ण वाणी, संयम, वैराग्य और ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त मुख मण्डल की अभयदायिनी छवि और उनके चितन-पूर्ण प्रवचनों की कुछ ऐसी छवि अंकित हुई कि मैं उन्हें कभी भुला नहीं सका। उस समय उनके ज्ञान की थाह पाने का कोई बुद्धिचातुर्य मेरे पास नहीं था और न ऐसा कोई ज्ञान जिससे हम यह जान सकते कि यह विदुषी माताजी भविष्य में मां जिनवाणी के भण्डार को भरने वाली एवं एक जीवंत तीर्थ की स्थापना करने वाली उत्कृष्ट साधिका होंगी तथा अपने उद्बोधन से अनेक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भव्य आत्माओं को कल्याण के मार्ग पर लगायेंगी। प्रतापगढ़ के बाद यदा-कदा उनके दर्शनों का सुयोग मुझे मिला, हर बार कुछ चर्चा के बाद स्वाध्याय की प्रेरणा और प्रसाद रूप में कुछ पठनीय पुस्तकें उनसे प्राप्त हो जाती थीं । परंतु दिल्ली में उनके दर्शन करने के बाद एक लम्बा अंतराल पड़ गया। उनकी प्रेरणा से सन् १९७४ में हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण प्रारंभ हुआ और १९७९ में पहली प्रतिष्ठा भी हो गई। अप्रैल-मई १९८५ में जम्बूद्वीप की बहु प्रचारित पंच कल्याणक प्रतिष्ठा भी सम्पन्न हुई और मार्च १९८७ में पुनः एक पंच कल्याणक प्रतिष्ठा एवं ब्र० मोतीचंदजी की क्षुल्लक दीक्षा आचार्य विमलसागरजी के सानिध्य में जम्बूद्वीप में सम्पन्न हुई। प्रत्येक शुभ अवसर पर वहां से आमंत्रण भी प्राप्त होते रहे, परंतु मुझे वहां जाने का सुयोग नहीं मिल पाया, इसकी तड़फन भी मन में बनी रही। इस बीच हमें सतना में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का स्वागत करने और साथ ही ब्र० मोतीचंदजी आदि का अभिनंदन करने का अवसर मिला। विभिन्न स्थानों पर आयोजित अनुष्ठानों में भी ब्र० मोतीचंदजी, ब्र० रवीन्द्रजी एवं बहिन माधुरीजी से मिलना होता रहा। इनसे तथा त्रिलोक शोध संस्थान से नए नए प्रकाशित होने वाले पूजन विधान एवं अन्य ग्रंथों के माध्यम से पूज्य माताजी की साधना का परिचय भी मिलता रहा, परंतु उनके पुनः दर्शन करने और पहलीवार जम्बूद्वीप की अद्वितीय रचना को देखने, वहां के जिनालयों की वंदना करने का अवसर तो मिल पाया अकूटबर १९८७ में। उस समय पूज्य माताजी शरीर से कुछ अस्वस्थ थीं, परंतु अपनी साधना में, ज्ञान की आराधना में और जम्बूद्वीप के विकास की प्रेरणा देने में उन्हें अत्यंत दृढ़ और सावधान पाया उस समय अ० मोतीचंदजी के क्षुल्लक मोतीसागरजी के रूप में पहली बार दर्शन भी मिले। जम्बूद्वीप की रचना देखकर तो मन प्रसन्न हो गया, अभी तक ऐसी रचना कागज पर नक्शों में ही देखी थी। वहां पहुंचकर थोड़ी देर को तो ऐसा लगा कि हम सचमुच में अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर रहे हैं और सुमेरु पर्वत पर चढ़ रहे हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से बनी यह अद्वितीय रचना अनेक पीढ़ियों को उनके नाम, साधना और पुरुषार्थं से परिचित कराती रहेगी जैन भूगोल का ज्ञान भी इस रचना से होता रहेगा। 1 इस प्रवास में भी माताजी ने चर्चा के लिए खूब समय दिया और चलते समय जब क्षुल्लक महाराज के इशारे पर प्रबंधक महोदय कुछ पुस्तकें भेंट करने लाये तो माताजी ने कहा कि अब इन्हें ये पुस्तकें नहीं अंथराज नियमसार की टीका भेंट कीजिये स्वाध्याय में आगे बढ़ने की प्रेरणास्वरूप ग्रंथराज की भेंट हमने स्वीकार की और विचार करते हुए वहां से लौटे कि साल दो साल में इस पुण्यस्थली पर आते रहेंगे। चार वर्ष का अंतराल पुनः पड़ा, वर्ष १९९९ के अंतिम चरण में जब मुझे "अहिंसा इंटरनेशनल" दिल्ली से शाकाहार पर होने वाली राष्ट्रीय सेमीनार में सम्मिलित होने और पुरष्कार ग्रहण करने का आमंत्रण मिला तो हम दिल्ली जाने से पूर्व तीस नवम्बर को एक दिन के लिए जम्बूद्वीप पहुंच गये। पूज्य माताजी के दर्शन हुए, उन्होंने हमारी भावनाओं को जानकर विवादों से परे केवल धार्मिक एवं शाकाहार प्रचार-प्रसार के विषय में ही हमसे चर्चा की इस बार हमें बहिन माधुरीजी के दर्शन पूज्य आर्यिका चन्दनामती माताजी के रूप में मिले अत्यंत भव्य एवं कलात्मक कमल मन्दिर के दर्शन करके भी मन प्रसन्न हुआ। जम्बूद्वीप का स्वरूप दिन पर दिन निखर रहा है। व्यवस्थायें और अच्छी हो रही है। प्रकाशन भी खूब हो रहे हैं। I इस बार चलते समय हमें भेंट में मिली पूज्य माताजी की नवीनतम कृति "मेरी स्मृतियां", जो केवल उनकी स्मृतियां ही नहीं, परम पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज द्वारा पुनः स्थापित मुनि परम्परा का घटनाओं से भरा एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। कामना है कि पूज्य आर्यिका शनमती माताजी की जितनी भी आयु शेष हो वह स्वस्थ शरीर के साथ ज्ञान और संयम की आराधना करते बीते। वे मां जिनवाणी की सेवा करती रहें और हम सबको कल्याण का मार्ग बताती रहें। उनके चरणों में शत शत नमन् । Jain Educationa International अद्भुत तपस्विनी के सानिध्य का एक लघु संस्मरण वैद्य धर्मचन्द जैन, शास्त्री आयुर्वेदाचार्य, इन्दौर (म०प्र० ] चिकित्सक के नाते मुझे १०५ आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी तथा उनकी गृहस्थावस्था की माँ स्व० १०५ आर्यिका रत्नमती माताजी की चिकित्सात्मक वैयावृत्ति का ३-४ बार अवसर मिला। आर्यिका ज्ञानमतीजी प्रारंभ से ही संग्रहणीग्रस्त रही हैं। जबकि इनकी माताजी उस सय संभवतः पीलियाग्रस्त थीं। अत्यंत दुर्बलता, चक्कर आना, भूख न लगना, रक्त की कमी होना जैसे लक्षण तीव्र रूप में थे। स्थिति नाजुक थी । For Personal and Private Use Only - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८५ कुछ भी लिखने के पूर्व यहाँ यह उल्लेख कर देना सामयिक है कि दिगंबर जैन व्रती साधु-साध्वियों की चिकित्सा करना चिकित्सक के लिए स्वयं रोग बन जाता है; क्योंकि चिकित्सा संहिता, चिकित्सा सूत्र के विपरीत चिकित्सक जैन व्रतियों के अनिवार्यचर्या, व्रत विधान से जकड़ दिया जाता है। वह चिकित्सा विधान का स्वतंत्र अनुसरण पालन नहीं कर पाता। ऐसे लोगों के आहारकाल में ही जो कुछ दवा जिस रूप में देनी हो, दी जाती है। निश्चित ही यह स्थिति चिकित्सा विधान के अनुकूल नहीं। रोग का आक्रमण तो अन्धे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त लाठी प्रहार के समान है, जो उसके सामने आयेगा आहत (दुःखी) होगा। धनवान्, गरीब, स्त्री, पुरुष, व्रती, अव्रती का कोई विकल्प उसके सामने नहीं होता । रोग का निराकरण भी चिकित्सा सिद्धान्त के अनुसार विविध प्रकार रस, भस्म, चूर्ण आदि की औषधियों का प्रयोग द्रव्य, क्षेत्र, काल, मात्रा, अनुपात, संख्या को मद्देनजर रखकर किया जाता है। इसके साथ पथ्य का सेवन और अपथ्य का परिहार भी अनिवार्य होता है, किन्तु त्यागी, व्रती रोगियों के लिए इन नियमों का पालन करना संभव नहीं, अतः चिकित्सक बड़ी दुःस्थिति एवं असमंजस में पड़ जाता है। असहाय हो जाता है। अस्तु। एक दिन स्व० आर्यिका रत्नमती माताजी अधिक सीरियस (गंभीर) हो गईं। यम सल्लेखना लेने की इच्छा माताजी के समक्ष प्रकट की। माताजी ने मुझे बुलाया व राय माँगी। स्व० माताजी की नाड़ी देखकर मैंने कहा नाड़ी की गति ठीक है, अभी निकट भविष्य में कोई खतरा नहीं। फिर माताजी आहार करने के पश्चात् नियम सल्लेखना तो लेनी ही है। चतुर्विध आहार का त्याग स्वयं रहता है इतना पर्याप्त है। यम सल्लेखना ग्रहण करने के पश्चात् समय लम्बा खिंचा तो आकुलता, वेदना अधिक होगी, परिणाम स्थिर न रह सकेंगे। यह परामर्श माताजी को पसंद आया तथा नियम सल्लेखना में उपचार भी चालू रहा। इसके बाद स्व० आर्यिका माताजी कुछ दिनों तक शान्तिपूर्वक अपनी आत्म-साधना में रत रहीं और अन्त में सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर स्वर्गवासी बनीं। बात १९८५ की है, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अस्वस्थ हो गईं। संग्रहणी ने अपने पूरे परिवार के साथ आक्रमण किया। आहार लेते ही अत्यन्त कष्टदायक वमन हो जाता था। असह्य उदरशूल, घबराहट, बेहोशी जैसी स्थिति बन जाती थी। उपचार कार्य असर नहीं कर रहा था। मेरे अलावा मेरठ, देहली के यशस्वी, ख्याति-प्राप्त चिकित्सक भी आये। चिकित्सा सूत्र व विधान के अनुरूप विविध प्रकार की औषधि कल्पना की जाती, किन्तु समस्या आहार के साथ ही सब कुछ लेने, बार-बार औषधि प्रयोग न किये जाने की थी। वे चिकित्सिक आश्चर्यचकित, कुछ अप्रसन्न व निराश जैसे हुए। जैनेश्वरी दीक्षा, उसकी कठोरता व दुर्निवारता को देख-सुनकर वे दंग रह गये। जैन साधु-साध्वियों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की। ख्यातनामा एलोपैथिक चिकित्सक बुलाये गये। अपनी पद्धति के अनुसार मल-मूत्र आदि का परीक्षण कर पू० माताजी को ग्लूकोज व अन्य इंजक्शन आदि का प्रयोग अत्यावश्यक बताया, किंतु जानकार श्रद्धालु श्रावकों, वैयावृत्ति करने वालों ने इस उपचार की ग्राह्यता व संभावना से स्पष्ट इंकार किया। माताजी ने भी स्पष्ट कहा आत्मसाधना के लिए शरीर है। शरीर के लिए आत्मसाधना, तपश्चर्या, संयम का बलिदान नहीं दिया जा सकता। डॉक्टरों ने अपनी वैज्ञानिक भौतिक धारणा के अनुसार इसे दुराग्रह, आत्मघात तक की संज्ञा दी, किन्तु माताजी का मन सुमेरु रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुआ। इस परीषह को उन्होंने बड़ी शान्ति व धीरज से सहा। असातोदयक्षीण हुआ। माताजी स्वस्थ हुईं और अभी निरन्तर स्व-पर कल्याण के मार्ग पर आरूढ़ हैं। उस रात की दिल दहला देने वाली घोर असहनीय वेदना और माताजी का शान्त परिणाम, कष्ट सहिष्णुता, धैर्य का जब स्मरण आता है तो जैनी तपश्चर्या और उसके आराधक महाव्रतियों के समक्ष किसी का भी मस्तक श्रद्धा से झुके बिना नहीं रह सकता। पूज्य माताजी के चरणों में शत-शत नमन करता हुआ मैं उनके दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी : ज्ञान की आगार - राजीव प्रचंडिया एडवोकेट, अलीगढ़ संपादक : जय कल्याण श्री [मासिक] प०पू० गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने आत्म-पथ को अंगीकार कर जग को यह अहसास कराया कि साधना पथ पर “पर्याय" बाधक नहीं होता, अपितु बाधक होता है "मोह का संसार"। यथार्थतः जीवन की सही सार्थकता इस संसार पर पूर्ण विजय प्राप्त करने पर ही सिद्ध होती है। जीवन की सार्थकता के प्रति पू० माताजी आरम्भ से ही उत्सुक रही हैं, अतः जो शाश्वत है, चिरन्तन है, उसकी खोज उन्हें श्रेयस्कर ही नहीं प्रेयस्कर भी लगने लगी। संसार के प्रति विरक्ति के स्वर सहज ही अनुभूत हो उठे। जिसका एक ठोस प्रमाण है, सन् १९५३ से सन् १९५६ तक की अल्प यात्रा में ही पूज्य माताजी का बाल ब्रह्मचारिणी से आर्यिका पद पर प्रतिष्ठित होना। यदि अन्तरंग के भाव वैराग्य की ओर वर्द्धित होने लगें या यूँ कहें अन्तरंग में प्रतिष्ठित देवता के यदि एक बार अभिदर्शन हो जायें तो निश्चय ही समझिये किसी भी प्रकार की मिथ्या रुकावटें अपनी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला योजना में सफल नहीं हो सकतीं। सतत स्वाध्याय से आत्मिक गुणों को प्रकट किया जा सकता है। पू० माताजी विगत दशाब्दियों से निरन्तर स्वाध्यायरत हैं। स्वाध्याय आलोड़न से उन्होंने जो प्राप्त किया उसे वे समाज को निःस्वार्थ भाव से अवबोधित करा रही हैं, यह वस्तुतः बड़ी बात है। उनके द्वारा अनेक विधाओं में प्रणीत शताधिक कृतियाँ जहाँ एक ओर मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी सिद्ध हुई हैं, वहीं दूसरी ओर नित नये तथ्य उजागर भी हुए हैं। हस्तिनापुर जैसे पावन तीर्थ पर जहाँ एक-दो नहीं, तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक हुए हैं, वहाँ जम्बूद्वीप की सुंदर संरचना को जो अनुयोगों में कैद है, उसे मूर्तरूप देना, कोई साधारण बात नहीं है। पू० माताजी की यह परिकल्पना निश्चय ही वर्तमान युग के लिए वरेण्य प्रमाणित हई है। आज इस पवित्र स्थल "जम्बूद्वीप" की कीर्ति दिमग्दिगन्त है। इतना ही नहीं, पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर में ही वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला तथा आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना कराकर ज्ञान के क्षेत्र में वह कार्य किया है, जिससे आगे आने वाली पीढ़ी सदैव कृतकृत्य रहेगी। वास्तव में इसे उनकी साधना का ही नवनीत कहा जायेगा। आगम जो चार अनुयोगों में विभक्त है, उसे वर्तमान शैली में रोचकता के साथ पू० माताजी ने “सम्यग्ज्ञञान" मासिक पत्र के माध्यम से समाज को सुपरिचित कराया है। पत्रिका में चारों अनुयोगों से सम्बन्धित सामग्री प्रकाशित होती है। इसके माध्यम से "आगम" को जन-जन तक पहुंचाने में पूज्य माताजी का योगदान श्लाघनीय है। पूज्य माताजी का ज्ञान-भण्डार इतना व्यापक और वैविध्य लिए हुए है कि उसे शब्दों में परिगणत नहीं किया जा सकता है। बात १०-११ फरवरी १९९० की है। मेरठ में वात्सल्य निधि पू० आचार्य श्री १०८ कल्याणसागरजी महाराज की सत्प्रेरणा और पावन सान्निध्य में दो दिन की एक णमोकार महामंत्र की वृहद् संगोष्ठी में परमविदुषी, आगमवेत्ता पू० आर्यिका माताजी भी आमंत्रित थीं। उन्होंने जो णमोकार मंत्र पर सारगर्भित वक्तव्य दिया उससे उनकी ज्ञान-गरिमा प्रतिबिम्बित हुई। उन्होंने णमोकार मंत्र के सदुपयोग पर बल देते हुए कहा कि इस महामंत्र में वह चुम्बकीय शक्ति है, जो मन को असुर से बचाकर सुर में लगा देती है। यह महामंत्र द्वादशांग वाणी के सार को संजोये हुए है। इसका उपयोग मात्र शब्द उच्चारण तक ही सीमित न रह जाये, अपितु इसमें व्यंजित भावों को अपने में साकार करना होगा। गूढ़ से गूढ़तम विषय को सरल और सुरुचिपूर्ण शैली में प्रस्तुत करना यह इस बात का प्रतीक है कि पू० माताजी ने इन विषयों को आत्मसात् किया है। आगम को सही-सही रूप में समझना और उसे आज की शैली में पाठकों तक पहुँचाना, यह एक बहुत बड़ी बात है। वास्तव में पू० माताजी को ज्ञान का आगार यदि कहा जाये तो यह उनके लिए अत्युक्ति न होगी। ऐसी महान् आत्मा का सतत सान्निध्य और आशीर्वाद अनेक सहस्राब्दि तक समाज को मिलता रहे, इसी कामना और भावना के साथ उन्हें अनन्त बार वंदामि। जैन समाज के लिए एक प्रकाश-स्तंभ - जिनेन्द्र कुमार संपादक जैन समाज दैनिक जयपुर, यंग लीडर दैनिक, अहमदाबाद पावन प्रेरिका परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का बाल्यावस्था से अब तक का जीवन समूचे जैन समाज के लिये एक प्रकाश-स्तम्भ के समान रहा है, जिसके आलोक में जहां मुनि परम्परा को एक नया जीवन्त स्वरूप मिला है वहीं समाज में नैतिकता और अहिंसा के तत्त्वों-मूल्यों ने नया महत्त्व भी अर्जित किया है। हस्तिनापुर तीर्थ पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से निर्मित जम्बूद्वीप इस आलोक को आने वाली अनेक सदियों तक, सतत कायम रखे, यही कामना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ Jain Educationa International विदुषीरत्न माताजी जैन [आचार्य ] एम०ए० [हिन्दी-संस्कृत ]; एच०पी०ए०; दर्शनायुर्वेदाचार्य-दिल्ली - For Personal and Private Use Only [८७ राजकुमार साध्वियों की परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं- परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी। समाज के उपकार एवं देश हित के लिए उनका योगदान अमूल्य है। साध्वी होते हुए भी सदैव समाज का हितचिन्तन करना, समाज के उपकार के कार्यों में संलग्न रहना और तदर्थ समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को सतत प्रेरित करना भी सम्भवतः उनके जीवन का लक्ष्य है, जिसका साकार रूप आज हमें उनकी बनाई गई विभिन्न योजनाओं में दिखाई पड़ रहा है। अपने साध्वी आचरण के अतिरिक्त आप जिस प्रकार विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक रचनात्मक कार्यों में संलग्न है और आपके द्वारा किए गए कार्यों का जो मूर्तरूप हमारे सम्मुख विद्यमान् है, उससे आपके द्वारा कृत कार्यों की सार्थकता का आभास सहज ही मिल जाता है। धर्म और समाज के लिए आपने अद्यावधि जो भी कार्य किए हैं उनसे एक ओर समाज का बड़ा उपकार हुआ है तो दूसरी ओर धर्म की महती प्रभावना हुई है। अतः सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में आपके रचनात्मक योगदान का सदैव स्मरण किया जाता रहेगा । आपकी एक विशेषता यह है कि आप स्वभाव से साधु, कार्यों में कर्मठ एवं ज्ञान में विदुषी हैं। धर्म के गूढ़तम रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करना आपके द्वारा किये गये शास्त्रों के गहन अध्ययन का परिणाम है। यदि साधु को धर्म सम्बन्धी विषयों का ज्ञान, तत्त्वचिन्तन एवं शास्त्राभ्यास नहीं हो तो उसका साधुत्व निरर्थक है, वह केवल नाममात्र का साधु है, किन्तु विदुषी रत्न ज्ञानमती माताजी में यह बात नहीं है। उन्होंने अपने ज्ञान, कर्म एवं आचरण से साध्वी धर्म का निर्वाह तो किया ही है, साधुत्व को भी सार्थक किया है। माताजी ने स्वेच्छापूर्वक साध्वी जीवन को अंगीकार किया है। साधु का आचरण कोंटों भरी वह यह है जिस पर चलना अतिशय दुष्कर है श्रद्धेय माताजी ने अपनी समस्त वासनाओं को तिलांजलि देकर काँटों का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर समझा और आजीवन उसी का अनुसरण करते हुए जीवन का उच्चतम आदर्श समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। यह एक धार्मिक अवधारणा है कि ज्ञान के बिना किए गए आचरण की कोई फलश्रुति नहीं है और ज्ञानार्जन के लिए शास्त्राभ्यास एवं स्वाध्याय अत्यन्त आवश्यक है। संभवतः इसीलिए माताजी ने अपने जीवन (दैनिकचर्या) में स्वाध्याय एवं शास्त्राभ्यास को विशेष महत्त्व दिया। शास्त्रों के गहन अध्ययन, शास्त्र में प्रतिपादित तत्त्वों के मनन और अनुचिन्तन ने उनके अन्तःकरण में उस विलक्षण ज्योति का प्रस्फुरण किया, जिसके आलोक में अज्ञान तिमिर का विनाश स्वतः हो गया। इसकी प्रतीति और अनुभूति उनके द्वारा दिये गए उद्बोधन में सहज रूप से होती है। इसके अतिरिक्त जो साहित्य सृजन उन्होंने किया है उसमें उनके ज्ञानामृत की अक्षय निधि देखने को मिलती है। यह उनके ज्ञानामृत की विशेषता है कि उन्होंने एक ओर धर्म दर्शन के गूढ़ तत्त्वों पर आधारित ग्रंथों का प्रणयन किया है तो दूसरी ओर बालबोधार्थ सुबोध भाषा में सरल और सहज शैली में ऐसी पुस्तकों का निर्माण भी किया है, जिन्हें पढ़कर बालक, युवक, अल्पज्ञ और महिलाएँ ज्ञान लाभ एवं धर्म लाभ ले सकती हैं। जिन गूढ़ ग्रंथों को समझने में विद्वान् भी चकरा जाते हैं उनकी टीका, भाषानुवाद कर पूज्य माताजी ने अपने वैदुष्य, विलक्षण प्रतिभा एवं ज्ञान गाम्भीर्य का परिचय तो दिया ही है, इससे उन्होंने समाज का बहुत बड़ा उपकार भी किया है? क्योंकि भाषा की क्लिष्टता के कारण अष्टसहस्त्री जैसे ग्रंथ को हाथ लगाने में जो विद्वान् कतराते थे, उसे पूज्य माताजी ने न केवल सुगम बना दिया, अपितु उसके गूढ़ रहस्यों को अनावृत कर ज्ञान के द्वार जन सामान्य के लिए खोल दिए इस प्रकार वन्दनीय माताजी ने ज्ञान का शुभोपयोग यदि स्वान्तः सुखाय किया है तो समाज के उपकारार्थ भी उसे उतना ही सुलभ बनाया है। आपका व्यक्तित्व विलक्षण है। आपके मुख मण्डल पर तेजस्विता है तो वाणी में ओज है। निस्पृह भाव और सरल स्वभाव से आपका अन्तःकरण परिपूरित है। आपके द्वारा धर्म की जो प्रभावना हुई है, उससे समाज का बड़ा उपकार हुआ है और समाज उसे कभी नहीं भुला सकेगा। ऐसी आर्यिकारत्न जिसने न केवल नारी समाज, अपितु सम्पूर्ण मानव समाज को गौरवान्वित किया है, की चरण वन्दना करते हुए उनके श्री चरणों में अत्यन्त श्रद्धा एवं भक्तिभावपूर्वक अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा" -पं० पद्मचन्द्र जैन शास्त्री [प्रतिष्ठाचार्य] पानीपत [हरियाणा] माताजी वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा हैं। जो भी आपके दर्शन एक बार कर लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है, उसे ऐसा प्रतीत होता है कि माताजी ने सम्पूर्ण वात्सल्य का सागर ही मुझे दे दिया हो। सैकड़ों वर्ष जीने की अपेक्षा एक क्षण ऐसी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, त्यागमूर्ति, तपोनिधि, युगप्रमुख, महान्विदुषी, ज्ञानमती माताजी के पावन दर्शन पाना ज्यादा श्रेयस्कर है, ऐसा मैं मानता हूँ। मैंने तो अगाध श्रद्धा सहित माताजी के दर्शन अनेक बार किये हैं और ऐसा करके मैंने अपने को गौरवान्वित अनुभव किया है। धर्म के मर्म को समझकर उसका प्रसार आत्म-कल्याण के साथ-साथ प्राणिमात्र के लिए प्रदान करना आपका मानो लक्ष्य बन चुका है। माताजी ज्ञान, ध्यान एवं तप में लीन रहते हुए त्याग व तपस्या की साक्षात् मूर्ति हैं । सन्मार्ग, जैनमार्ग एवं वीतराग मार्ग की आप साक्षात् दिवाकर हैं। ___ पावन तपो-भूमि एवं महान् धार्मिक क्षेत्र हस्तिनापुर [मेरठ] का अपना अलग ही महत्त्व है। इस क्षेत्र का परम सौभाग्य है कि माताजी के पुनीत सानिध्य एवं प्रेरणा से यहां जम्बूद्वीप एवं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना हुई है। यहाँ माताजी ने ऐसा ज्ञान का दीप प्रज्वलित कर दिया है जो कभी नहीं बुझेगा और जिसकी ज्योति से जैन एवं जैनेतर समाज बरसों-बरसों तक धर्म लाभ प्राप्त कर सकेंगे। साथ ही अपने जीवन में ज्ञान की किरण एवं ज्योति प्रज्वलित करते रहेंगे। बाराबंकी जिले के टिकैतनगर में वि०सं० १९९१ [ई० सन् १९३४] में शरद् पूर्णिमा के दिन श्रीमती मोहिनीदेवी की कोख से आपका शुभ जन्म हुआ। आप जैन सिद्धांत एवं जैन दर्शन की अगाध ज्ञान भण्डार होने के साथ-साथ तप एवं त्याग की जीवन्त प्रतिमा बनेंगी, यह कौन जानता था ? पूज्य माताजी अहिंसा की हिमालय स्वरूप एवं अन्तर और बाहर में किञ्चित्मात्र भी दुराव से रहित, कषायों से रहित, दया एवं परोपकार में शशि-सी धवल, आचरण में सिन्धु के समान तथा शिशु-सा सरल हृदय लिए शांति का विशाल सागर हैं। इस अभिवन्दन-ग्रन्थ के प्रकाशन पर आपको मेरा शत शत नमन तथा शत-शत वन्दन वन्दन करता हूँ मैं, वन्दन स्वीकार करो । हे ज्ञानमती माता, अभिनन्दन स्वीकार करो। आपके तप, त्याग एवं पवित्र ज्ञान से प्रभावित होकर भारत जैसे महान् राष्ट्र के अनेक प्रधानमन्त्री जैसे श्रीमती इन्दिरा गाँधी, श्री राजीव गाँधी, श्री नरसिंहाराव आपके दर्शनार्थ एवं आपका पवित्र आशीर्वाद ग्रहण करने हेतु आपके चरणारविंद में समय-समय पर पधारे। अनेक मिनिस्टर एवं श्रीमन्त तथा श्रावक-शिरोमणि श्रेष्ठी वर्य आपके दर्शनों का लाभ लेकर अपना जीवन सफल मानते हैं। महान् आत्माओं में श्रेष्ठ, अहिंसा धर्म को धारण करने वाली, आरम्भ एवं परिग्रह से रहित, सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों के खजाने-स्वरूप प्रकाण्ड विदुषी, परमपूज्या, वैराग्य की मूर्ति आर्यिका ज्ञानमती माताजी के चरणों में मेरा शत-शत वन्दन तथा नमन् है। वात्सल्य मूर्ति माँ - शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी [उ०प्र०] वृक्ष हर ऋतु में पुष्पित-पल्लवित नहीं होते, मेघ प्रति समय वृष्टि नहीं करते, प्रतिदिवस स्वातिजलबिन्दु मोती नहीं बनते, किन्तु प० पू० गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माता वह व्यक्तित्व हैं जो आजीवन प्रतिसमय जीवों को ज्ञानदान में संलग्न हैं। उनके हृदय में अपार करुणा है। वे वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा हैं। मुझे स्मरण है लगभग १५ वर्ष पूर्व श्री जमादारजी के संयोजकत्व में हस्तिनापुर शिविर में उनकी कृपा का प्रथम संयोग प्राप्त हुआ। विद्वत्वर्ग के लिए उनका प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन अद्यावधि प्रकाश स्तम्भ का कार्य सम्पन्न कर रहा है। शिविर के पूर्व ही विद्वानों को आवश्यक नियमों के पालन का निर्देश उनकी अपनी विशेषता है। उनका स्पष्ट निर्देश था कि व्रत-नियम विद्वान् की प्राथमिक आवश्यकता है। सर्वहितैषी माँ की प्रेरणा से अनेकांत की, देव-शास्त्र, गुरु की व अहिंसामयी धर्म की प्रतिष्ठा के लिए जो शिक्षण व प्रशिक्षण शिविरों का Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ | क्रम प्रारम्भ हुआ वह यावच्चन्द्र- दिवाकरौ इतिहास की अमिट लकीर बना रहेगा। सबसे बड़ी बात जो मैंने माँ के व्यक्तित्व में देखी, वह है आदम्य साहस, दूरदृष्टियुक्त निर्णय लेने की क्षमता और उसकी पूर्ति हेतु दृढ़ संकल्प शक्ति चाहे जम्बूद्वीप रचना का प्रसंग हो, चाहे त्रिलोक शोध संस्थान के गठन का, चाहे ज्ञान ज्योति प्रवर्त्तन का लक्ष्य और चाहे अन्य उन्होंने अविचलित होकर मार्गदर्शन किया। यही कारण है कि माँ क्या निर्णय लेती हैं यही सबका अभीष्ट रहता है। लगभग दस वर्ष पूर्व जब अ० भा० दि० जैन महासभा मृतप्राय थी, उसके निवर्त्तमान अध्यक्ष माननीय श्री लखमीचन्द छावड़ा ने पदभार से मुक्त होने की इच्छा व्यक्त की थी। हम सब हस्तिनापुर में माँ के चरणों में एकत्रित थे किंकर्तव्यविमूढ़ एवं असमञ्जस में थे उस समय हमें माँ ने ही उदीयमान नक्षत्र आदरणीय श्री निर्मल कुमारजी सेठी के नेतृत्व में चलने की सलाह दी थी। माँ में रत्न को परखने का अद्भुत गुण है। उनका भविष्यज्ञान एवं निमित्तज्ञान हम सबके लिए वरदान है। वे सदैव ज्ञानोपयोग में तल्लीन रहती हैं हम सबका सौभाग्य है कि उन्होंने जनहित हेतु शताधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। वे शास्त्रीय ज्ञान की भंडार हैं। उन्होंने चारों अनुयोगों पर लेखनी चलाई है। स्वस्थ बाल-साहित्य को उन्होंने सर्वोपरि स्थान दिया है। वे न्याय, व्याकरण, अलंकार, छन्द और भाषा आदि सभी क्षेत्रों में पारंगत हैं। क्लिष्टतम अष्टसहस्री जैसे प्रन्थों की टीका उनके पाण्डित्य का प्रमाण है। भक्ति क्षेत्र में उनके द्वारा रचित पूजा-विधान सर्वविदित हैं। ज्ञान प्रसार के क्षेत्र में उनका अद्वितीय स्थान है। नारी जाति को विशिष्ट गौरवान्वित करने में वे आदर्श हैं। वे ब्रह्मचर्य की साकार प्रतिमा है वे विद्वानों के सृजन में संलग्न है। 1 जम्बूद्वीप-रचना उनकी जैनधर्मप्रभावना की रुचि का जीता जागता प्रमाण है, इससे उन्होंने जैनेतर जनता को जैनधर्म के निकट लाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। जम्बूद्वीप परिसर की भव्यता उनके ही मार्गदर्शन का परिणाम है। आर्षमार्ग की दृढ़ श्रद्धानी हैं एवं पंथ व्यामोह से मुक्त हैं। देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति एवं रक्षा उनका पावन उद्देश्य है। एकान्तवाद के दुष्प्रचार का निरसन कर व्यवहार निश्चय सापेक्ष मोक्षमार्ग की उन्होंने प्रतिष्ठा की है। उनकी प्रेरणा से सुरुचिपूर्ण एवं वहदपरिमाण में साहित्य प्रकाशन हो रहा है जो दिशाबोध के लिए समर्थ है। [८९ मुझे अनेक बार निकटता से माताजी का चरण सानिध्य प्राप्त हुआ है। उनका निष्पक्ष मार्गदर्शन मेरे लिए सदैव प्रेरक बिन्दु रहेगा। वात्सल्य की प्रतिकृति के प्रति मैं श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ एवं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ कि वे दीर्घजीवी होकर हम सबका मार्गदर्शन करती रहें । इत्यलम् । Jain Educationa International विद्वानों की जननी माता ज्ञानमती : - डॉ० सुशील जैन, मैनपुरी | परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र १०५ श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐतिहासिक महामानवी है आर्यिका की चर्चा का पालन करते हुए भी आपने ऐसे कार्य किये, जिनका उल्लेख पुराणों में भी ऐसा पूर्व में किया गया हो, ऐसा नहीं मिलता। लेखन प्रतिभा की धनी, सरस्वती जिनके मुख पर विराजती है, ऐसी माताजी ने इतना साहित्य हम सबको प्रदान किया है कि वह हमारी एक अमूल्य धरोहर बन गया है। जम्बूद्वीप की प्रेरिका के रूप में बीस वर्षों में ही एक ऐसा तीर्थ माताजी के माध्यम से बना है जो न केवल जैन तीर्थ के रूप में विकसित हुआ है, वरन् जैनेतरों के आकर्षण का भी केन्द्र बन गया है और मुझे विश्वास है कि आगामी शताब्दियों में यह ताजमहल की भाँति विश्व के पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र बनेगा। “सम्यग्ज्ञान" के द्वारा समीचीन ज्ञान का चारों अनुयोगों सहित प्रचार-प्रसार घर के हर सदस्य के लिए प्रेरणास्रोत बना है । यह सब तो सभी जानते हैं, परन्तु मेरे लिए तो पूज्या माताजी केवल आर्यिका माता के रूप में ही नहीं, अपितु एक जननी के रूप में हैं। अगर माताजी ने यह जननी का रूप न लिया होता तो शायद मैं वह न होता जो आज हूँ। 1 १९७६ में ललितपुर शिविर के बाद १९७८ में हस्तिनापुर में एक शिविर का आयोजन था मै मात्र एक श्रोता के रूप में वहाँ गया था। अचानक एक दिन पूज्या माताजी ने मुझे बुलाकर एक स्लिप दी कि तुम्हें थोड़ी देर किसी विषय पर बोलना है मैं अवाक् रह गया मेरा पूर्व का न तो ऐसा अध्ययन था तथा न ही अनुभव। मैंने मना किया तो माताजी ने उत्साह बढ़ाते हुए "प्रवचन निर्देशिका" दी तथा १५ मिनट बोलने के लिए कहा। पुस्तक को पढ़ा, नोट्स तैयार किये तथा लगभग ४ घण्टे बाद ही मध्याह्न के सत्र में मैं "सम्यग्दर्शन के बाह्य निमित्त" पर १५ मिनट बोला। समापन के बाद सभी उपस्थित विद्वद्जन, श्रोताओं के साथ ही पूज्या माताजी ने, पं० बाबूलालजी जमादार, डॉ० लालबहादुर शास्त्री, श्री कैलाशचंद्र राजा टायज आदि ने मुझे काफी प्रोत्साहन दिया पूज्या माताजी की प्रेरणा से इस प्रथम प्रवास से श्री जमादारजी तो इतने प्रभावित For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हुए कि उन्होंने मुझे उसी समय उसी वर्ष पर्युषण में प्रवचनार्थ अहमदाबाद जाने की तैयारी करने को कहा। पूज्या माताजी ने आशीर्वाद दिया तथा उस वर्ष अहमदाबाद प्रवचनों के बाद तो मेरा स्वयं ही विश्वास जग उठा और फिर सूरत, अलीगढ़, फिरोजाबाद, कलकत्ता, कानपुर, जबलपुर, गोहाटी, मैनपुरी आदि के क्रम तो सभी को पता ही हैं। कलकत्ता प्रवचन से पूर्व शिखरजी में पू० आचार्य गुरुवर १०८ विद्यासागरजी महाराज का वरदहस्त द्वारा आशीर्वाद भी जहाँ मेरी सफलता का एक कारण बना, वहाँ मैं यही विचारता हूँ कि यदि उस दिन पूज्या माताजी ने मुझे बोलने का आदेश/अवसर/प्रेरणा/आशीर्वाद न दिया होता तो शायद मैं मात्र एक डॉ० सुशील के रूप में ही रह जाता। एक विद्वान् के रूप में तो कतई ख्याति प्राप्त न कर पाता। इस प्रकार माँ एक विद्वत् जननी के रूप में मेरे लिए वंदना/अभिवंदना की पात्र हैं। पूज्य माताजी के अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन के शुभावसर पर पूज्य माताजी के चरणों में अपनी वंदना अर्पित करते हुए मैं अपनी व परिवार के सहित श्रमणभारती मैनपुरी की ओर से भी हार्दिक विनयांजलि अर्पित करते हुए पूज्या माताजी के आशीर्वाद की कामना करता हूँ तथा प्रार्थना करता हूँ कि वह स्वस्थ रहते हुए शतायु हों तथा हम सबको अपना आशीर्वाद प्रदान करती रहें। ओजस्वी वाणी की स्वामिनी -पं० मल्लिनाथ जैन शास्त्री, मद्रास पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी आदि भाषाओं में अद्वितीय विदुषी हैं। अष्टसहस्री-सरीखे कठिन से कठिन तर्कशास्त्र को भी आपने हिन्दी में अनुवाद कर महोपकार किया है। सैकड़ों संस्कृत, प्राकृत ग्रन्थों को हिन्दी में अनुवाद कर प्रकाशित किया है। पू० माताजी की प्रतिभा एवं विद्वत्ता अगाध है। पू० माताजी लिखने एवं बोलने में चतुर हैं। माताजी की ओजस्वी वाणी से लोग आकर्षित हो जाते हैं। पू० माताजी की वाणी मधुरता एवं सरसता से ओत-प्रोत रहती है। लगभग १५ साल पूर्व की बात है। पं० बाबूलालजी जमादार के जमाने में पू० माताजी ने हस्तिनापुर के अन्दर शिविर लगाया था। वह दस दिन तक लगातार चला। मैं उसमें शामिल हुआ था। पहला दर्शन उसी समय हुआ था, उसके बाद कई बार पू० माताजी का दर्शन होता रहता है। पू० माताजी के द्वारा पहली बार जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी, उसमें भी शामिल होकर भगवान् का पंचकल्याणक वैभव एवं माताजी का ओजस्वी भाषण सुनने का सौभाग्य मिला। पूज्य माताजी आचार्यवर्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज रूपी सिन्धु से निकला हुआ अमृत है। पू० माताजी की उपदेशामृत वाणी से हजारों लोगों का उद्धार हुआ है। पू० माताजी ने हस्तिनापुर के अन्दर त्रिलोक शोध संस्थान नामक संस्था कायमकर समाज और धर्म का महान् उपकार किया है। इस जम्बूद्वीप रचना के कारण हस्तिनापुर का नाम कोने-कोने में फैल गया है। जैन-अजैन सारी जनता भेदभाव के बिना इसे देखने आती रहती है। इससे जैन धर्म की महती प्रभावना हो रही है। पूज्य माताजी कृतज्ञता की मूर्ति हैं। अपने दीक्षागुरु आचार्यवर्य श्री वीरसागरजी महाराज का स्मृति-ग्रन्थ निकालकर गुरु-दक्षिणा एवं कृतज्ञता निरूपण कर कृतकृत्य हुई हैं। वीतराग जिन भगवान, उनसे कहे गये परमागम, उस पथ पर चलने वाले परम तपस्वीगण इन तीनों के प्रति आपकी अगाध भक्ति है। आप अपने चारित्राराधना में अनवरत लगी रहती हैं। आपके उदार चित्त की गरिमा का साक्षात् उदाहरण यह है कि आपने अपने भाई और बहनों एवं माँ को भी इस परम पवित्र त्यागमार्ग में लगा दिया। यह अत्यन्त प्रशंसनीय बात है। दुनिया अपने परिवार को भोग-मार्ग पर लगाकर सन्तुष्ट होती है, परन्तु आप अपने परिवार को नश्वर भोग लालसा से हटाकर आत्मा के हित पहुँचाने वाले त्याग-मार्ग पर लगाकर शोभायमान हो रही हैं। इस विषय में अपनी जैनी जनता को आपसे शिक्षा लेनी चाहिए। इस तरह आपकी गुण गरिमा के बारे में लिखते जावें तो एक पोथी बन जायेगी। किस-किसको लिखें और किस-किसको छोड़ें। इसका मतलब यह है कि आप गुण की भण्डार हैं। आपके अन्दर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग के उपयोगी ये तीनों रत्न जाज्वल्यमान रहते हैं। अतः मैं जिनेन्द्रदेव के चरणों में तथा शासन देवताओं से प्रार्थना करता हूँ कि आप सारोग्य दीर्घायु होकर शतायु से अधिक काल तक जीवित रहते हुए आत्मोन्नति के साथ-साथ जिनवाणी माता के प्रचार-प्रसार को सदा-सर्वदा करती रहें। आखिर इस अत्यन्त सन्तोषप्रद अभिवंदन ग्रन्थ समारोह के शुभ अवसर पर मैं आपके चरणयुगलों में अपनी विनयांजलि समर्पित करता हुआ अपने को धन्य मानता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "भ्रमण करती ज्ञानशाला" - पं० गुलाबचन्द्र जैन "पुष्प" टीकमगढ़ [म०प्र०] संवत् १९९१ आश्विनशुक्ला १५ चन्द्रवार अश्विनी नक्षत्र दि० २२.१०.१९३४ की रात्रि में ९ बजकर १५ मिनट पर अवध प्रान्त के टिकैतनगर में श्रेष्ठी छोटेलालजी, माँ मोहिनी देवी ने ज्ञान का टिकट लिये ज्ञान को आलोकित करने के लिए मैना को जन्म दिया। गृह जंजाल के १८ वर्ष पूर्णकर संयम की यात्रा प्रारंभ हुई। प्रातः स्मरणीय परम पूज्य आचार्यरत्न १०८ देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा ग्रहण की। श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र की पावन धरा पर धारण कर ली क्षुल्लिका दीक्षा। अब संयमोपकरण के साथ ज्ञानधारा असीमित प्रवाहित हुई पूज्य गुरुदेव की असीम अनुकंपा एवं आशीर्वाद से। संयम साधना की प्रकृष्ट भावना से प्रेरित हो आर्यिका व्रत धारण कर ज्ञानमती के नाम से भारत की वसुन्धरा को गौरवान्वित किया। विश्ववंद्य त्रिलोकीनाथ भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ की जन्म भूमि और भगवान आदिनाथ के प्रथम आहारस्थल कुरुजांगल के हस्तिनापुर नगर में जम्बूद्वीप की शास्त्रोक्त रचना को साकार रूप दिया। जिसके दर्शन कर प्रत्येक प्राणी आश्चर्यान्वित होकर आत्मदर्शन प्राप्त करने वाले मार्ग का पथिक बन सकता है । ऐसी अद्वितीय रचना भारत में कहीं अन्यत्र नहीं पाई जाती। एक अपूर्व देन और है कि उसी स्थल पर त्रिलोक शोध संस्थान आपके द्वारा स्थापित की गई, जिसके द्वारा अनेकानेक आगम ग्रन्थों का अन्वेषण एवं निर्माण जीवन विकास कर समुज्ज्वलित बनाने के लिए अनेक विद्यार्थीजन ज्ञानार्जन कर धर्म के प्रचार में रत होंगे। माताजी द्वारा अलौकिक भक्ति मार्ग का विकास किया गया। जिस संस्कृत के इन्द्रध्वज विधान के हमें दर्शन भी अप्राप्त थे, आज उसी विधान की हिन्दी भाषा में भावभक्ति से परिपूर्ण रचना हुई जिससे कि अधिकाधिक लोग उससे लाभान्वित होकर आत्मविशुद्धि के पथानुगामी बन रहे हैं। इसी प्रकार जम्बूद्वीपविधान, तीनलोक पूजा, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र आदि महान् विधान एवं अनेक लघु विधान पूजाएँ माताजी द्वारा अनेक छन्दों में लिखी गई हैं। संगीत की स्वर लहरी से जब पूजा की जाती है तो विद्वत् समाज आत्मविभोर हो जाता है। श्रद्धा चारित्र-भक्ति का अनूठा संगम आपके समीप पाया जाता है। माताजी ने अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना एवं अनेक सैद्धान्तिक ग्रंथों की विशद् टीकाएँ लिखी हैं। एक अलौकिक कार्य तो यह हुआ कि परम पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्दिजी महाराज द्वारा विरचित दार्शनिक ग्रंथ अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिंतामणि हिन्दी टीका लिखी। आपका अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग और सिद्धान्त, जैन न्याय का तलस्पर्शी ज्ञान ही इस कार्य को सफलता के साथ कर सका; क्योंकि अनेक विद्वान् इसे कष्टसहस्री मानते रहे, किंतु माताजी की प्रतिभा एवं ज्ञानावगाहन की विशेषता का यह अविस्मरणीय कार्य है। माताजी ने कन्नड़, मराठी, प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी भाषा के अधिकारपूर्ण ज्ञान द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना की। अनेक ग्रंथों की टीका की और त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा महत्त्वपूर्ण प्रकाशन कराया। जो अनुकरणीय, प्रशंसनीय एवं आदरणीय है। आप सिद्धान्तवारिधि, न्याय प्रभाकर, विधान वाचस्पति, कुशल वक्ता जैनदर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान से विभूषित हैं। जब तक यह कृतियाँ जन-जन में ज्ञान प्रसार को करती रहेंगी, तब तक आपकी कीर्ति अमर रहेगी। आपके गुणों से अनुरक्त आपकी दीर्घायु की कामना के साथ विनयांजलि समर्पित निम्न भावना के साथ करते हैं सूरत से कीरत बड़ी बिना पंख उड़ जाय । सूरत तो जाती रहे, पर कीरत कभी न जाय । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तब वीणा के तार झनझना उठे 'ज्ञानमती' श्री गुणमाला - प्रतिष्ठाचार्य, पं० मोतीलाल मार्तण्ड [एम०ए० शास्त्री] ऋषभदेव [राजस्थान] जैन वाङ्मय के चारों अनुयोगों से समलंकृत विपुल साहित्य सृजन करने वाली परम विदुषी पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की कीर्ति-कौमुदी जैन जगत् को "यावच्चन्द्र दिवाकर" आप्लावित करती रहेगी। स्वान्तः सुखाय लेखनी की धनी माताजी ने जिन धर्म की प्रभावनार्थ एवं ज्ञानार्थ जो साहित्य प्रदान किया, समाज चिरकाल तक ऋणी रहेगा। राष्ट्र-भाषा हिन्दी को समृद्ध करने की दिशा में जो प्रशंसनीय साहित्य प्रस्तुत हुआ, उस पर विद्वत् वर्ग शोध करता रहेगा। गजब का साहित्य, भक्तिरसमय साहित्य, आध्यात्मिक साहित्य, बस! साहित्य ही साहित्य! जो महानुभाव कभी दर्शन नहीं करते थे और कुतर्क करके आप्तागम गुरु के श्रद्धान से कोसों दूर अपनी डफली बजाने में, पाश्चात्य सभ्यता को आदर्श मानने में, भौतिक सुखों को सुख मानकर मस्ती में झूमने वाले, भटकनेवाले नवयुवक किस प्रकार सही दिशा की ओर लौट चले और भाव से जैन हो गये; यह सब चमत्कार कर दिखाया सगीत की थिरकती, स्वर लहरी में आयोजित “इन्द्रध्वज विधान" ने, जिसे रचा है पूज्य माताजी ने। पूज्य माताजी ने न केवल इन्द्रध्वज विधान दिया, अनेक विधान दिये, इसलिए कि आत्म-बोध की दिशा में सुगम उपाय मिल जायेगा “जिनेन्द्र-भक्ति" का, उन महानुभावों को जो किन्हीं कारणों से भटक चुके हैं; अथवा भ्रमित हो रहे हैं। विधान वाचस्पति पूज्य माताजी ने काव्यमय लेखनी में शताधिक पूजन विधानों की रचना करके पूजन स्तोत्रमय भक्ति-साहित्य को वैभव-सम्पन्न बनाने में कोई कमी नहीं रखी, इसलिए कि जिनेन्द्र भक्ति से ही सम्यग्दर्शन सुलभ है। यही कारण है कि देश के लगभग सभी प्रदेशों में अनेक विधान महोत्सव हो चुके हैं और हो रहे हैं। धर्म-प्रभावना की दिशा में सभी विधानों के आयोजन सानंद सम्पन्न हुए और जिन धर्म की महिमा होती रही। क्या माताजी की लेखनी विधान पूजन तक ही सीमति रही? नहीं, उच्चकोटि के ग्रंथों का टीका साहित्य भी दिया और बाल-साहित्य भी। शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं और वृहद् ग्रंथ भी। अतः हस्तिनापुर शोध संस्थान ने वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला को जन्म दिया। हस्तिनापुर की धरती पुनः निहाल हो गयी। पूज्या माताजी के प्रेरणोपदेश का ही प्रतिफल है-जम्बूद्वीप-रचना। तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग में हजारों तीर्थयात्री "जम्बूद्वीप" देखकर आश्चर्यचकित हो संस्थान की मुक्त कण्ठ से सराहना करते रहते हैं। “ज्ञानज्योति प्रवर्तन" से भी देश भर में बहुत अच्छी धर्म-प्रभावना हुई। संस्थान-स्थल पर कमल मन्दिर आदि जिनालय, संग्रहालय, ग्रन्थालय आदि कई विभाग हैं। हस्तिनापुर की धरती पूज्या माताजी के सान्निध्य को पाकर सचमुच निहाल हो गई। पत्रिका के माध्यम से भी बहुत कुछ-स्याद्वाद सूर्य से आलोकित “सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका भी लोकप्रिय पत्रिका इसलिए हो गयी कि इसमें पूज्या माताजी की लेखनी की सामग्री पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। पाठकों के विचारों में नवीन चेतना प्रस्फुटित होती है। पूज्या माताजी के (पूर्व अनुज) ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी जैन का सम्पादन कार्य प्रशंसनीय है। पहले श्री मोतीचंदजी भी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागरजी) सम्पादक थे। पूज्या माताजी की चारित्रिक वृत्ति से पूरा परिवार ही दीक्षित हो गया क्या माताजी की मातुश्री, क्या बहिनें और क्या भाई, सभी ने उसी मार्ग को अपनाया जिसे पूज्या माताजी ने प्रशस्त किया। सभी ने जिन धर्म-प्रभावना में अपने आत्म-कल्याण में अपने आप को समर्पित कर दिया। हस्तिनापुर त्याग-मार्ग से जयवंत हो गया। सभी प्रभावित हुए, पूज्य माताजी की चारित्रिक निधि एवं प्रवचनों से। पूज्य माताजी ने उत्तर से दक्षिणांचल तक विहार किया और राजधानी दिल्ली को प्रबोध दिया। फलस्वरूप पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी जैसे देश-नेताओं, श्रीमंतों, धीमंतों, श्रावक-श्राविकाओं ने प्रभावित होकर स्व-परोपकार का पाठ सीखा। देश के कोने-कोने में माताजी के जयघोष से जिन धर्म की महिमा बढ़ती रही ! फलस्वरूप जैन जैनेतर सभी जैनधर्म से प्रभावित हुए। विद्वानों ने विधानों के आयोजन कर सर्वत्र प्रभावना की। हमने विधानोत्सव में गजरथ महोत्सव भी किये। महानगरों, तीर्थक्षेत्रों एवं गाँवों में भी माताजी के विधानों ने काफी धूम मचा दी। . सर्वत्र जिन धर्म की महिमा का जयघोष हुआ। “इन्द्रध्वज' में ही वीणा के तार, झनझना उठे "ज्ञानमती" श्री गुणमाला। आदर्श जीवन- बाल ब्रह्मचारिणी, वैराग्य की साकार, सौम्य, जाग्रत ज्योति स्वरूप विदुषी आर्यिकारत्न पूज्या ज्ञानमती माताजी का हम क्या अभिवंदन करें। कैसे गुणगान करें? समूचा जीवन त्याग धर्म की उच्च श्रेणी पर अपने आप में अनुपम और अनुकरणीय है। धन्य है टिकैतनगरी, जहाँ जन्म हुआ और धन्य हैं वे गुरुवर आचार्य श्री वीरसागरजी, जिन्हें ऐसी परम शिष्या मिली। शतशः वंदन, परम विदुषी पूज्या आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को; जिनकी यशोगाथा से वीणा के तार झनझना उठे- "ज्ञानमती" श्री गुणमाला। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [९३ जिनवाणी की आराधिका -पं० शिखरचन्द्र जैन, प्रतिष्ठाचार्य भिण्ड [म०प्र०] श्री १०५ विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रन्थ निकल रहा है, यह एक पावन कार्य है। पूज्या माताजी ने जिनागम की अभूतपूर्व सेवा करके जैन जगत् का महान् उपकार किया है। नारियाँ अनेक पुत्री-पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु पूज्य माताजी ने जिनवाणी की आराधना कर एक बहुत बड़ा अनूठा कार्य किया है, ऐसी आर्यिका व्रतधारी श्री १०५ विदुषी ज्ञानमती माताजी को शत-शत वन्दन है। ये मेरे श्रद्धा सुमन स्वीकृत हो। क्रियाकाण्ड-विषय में माताजी का मार्गदर्शन - पं० फतहसागर, प्रतिष्ठाचार्य, उदयपुर ध्यानयोग- पूज्य माताजी के गत १५ वर्षों से निरन्तर दर्शनों का लाभ प्राप्त होता रहा है। प्रथम बार जब हस्तिनापुर में माताजी के दर्शनों के लिए गया था। सन्ध्या का समय था, पू० माताजी सामायिक में बैठी थीं, लगभग एक घण्टे तक बैठा, परन्तु उनके ध्यान में उन परमात्मा की शक्ति थी, जिन्हें सांसारिक प्राणियों से कोई प्रयोजन नहीं था। कोई बात नहीं हो सकी, निराश होकर पुनः जाना पड़ा। समन्वयवादी- दूसरी बार सहारनपुर (उ०प्र०) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराके पू० माताजी के चरणों में पहुँचा । मधुर मुस्कान के साथ आशीर्वाद दिया और कहा कि मुमुक्ष, तेरहपंथ, बीसपंथ आदि विचारधारा का समन्वय कर दिगम्बर जैन समाज की एकता के साथ महोत्सव सम्पन्न कराओ। पू० माताजी सदैव जैन समाज की एकता एवं समन्वय में विश्वास रखती हैं, उनके मन में कोई पंथवाद नहीं है, परन्तु आर्षपरम्परा एवं आगमानुकूल ही कार्यक्रमों में उनका दृढ़ विश्वास है। इतना ही नहीं हमें लेस्टर (यूरोप) में दिगम्बर-श्वेताम्बर मत को समन्वय कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने का भी पू० माताजी ने आशीर्वाद प्रदान किया। निरभिमानी-मई-जून १९८९ में पू० माताजी के सानिध्य में भारतीय स्तर का शिविर लगाया गया। गणधराचार्य सहित अन्य आचार्य, मुनि संध विराजमान था। अनेक विषयों पर चर्चा होती थी। पू० माताजी प्रत्येक विषय का समाधान विद्वत्तापूर्ण ढंग से करती थीं कि किसी को भी कोई शंका नहीं रहती, फिर भी कोई हठाग्रह कर विषय को विवाद में डालते तो माताजी कहतीं इसका समाधान तो "केवलज्ञानी" ही कर सकते हैं, हम तो अल्पज्ञ हैं। भगवान् सर्वज्ञ हैं। पू० माताजी की कितनी सारपूर्ण बात है। क्रियाकाण्ड- अकूटबर १९८९ में पूज्य माताजी के सान्निध्य में प्रतिष्ठाचार्यों का सम्मेलन हुआ, जिसमें उत्तरी भारत, दक्षिणी भारत के विद्वान् एकत्रित हुए। क्रियाकाण्ड के विषय में तीन दिन तक माताजी ने सभी प्रतिष्ठाचार्यों से अलग-अलग जानकारी ली तथा प्रतिष्ठापाठों में आचार्यों के द्वारा बताये गये विषय पर स्पष्टीकरण कर ऐसा समाधान किया कि मानो पूज्य माताजी स्वयं प्रतिष्ठाचार्य हों। सिद्धान्त एवं क्रियान्वयन पर भी प्रकाश डाला। पू० माताजी ने प्रतिष्ठाचार्यों का ध्यान संस्कृत व्याकरण, ज्योतिष एवं वास्तुसार के ग्रन्थों की ओर आकर्षित कराया। पू० माताजी को हम लोगों ने प्रतिष्ठापाठ लिखने के लिए निवेदन किया तो माताजी ने कहा कि आचार्यों द्वारा लिखे गये प्रतिष्ठापाठ ही मान्य हों अन्यथा प्रतिष्ठा विधान में कई प्रकार की नवीन विचारधाराओं का समावेश होने से आगम का अनादर होगा। इससे स्पष्ट है कि माताजी की श्रद्धा प्राचीन आचार्यों के प्रति भक्तिपूर्ण है। आज के विद्वान् नये-नये प्रतिष्ठापाठ लिखकर सूरिमंत्र जैसे मुख्य विषय को नवीन रूप प्रदान कर रहे हैं। सिद्धान्तवेत्ता- पू० माताजी का विशद अध्ययन, चारों अनुयोगों का सांगोपांग ज्ञान, संस्कृत, व्याकरण, साहित्य, न्याय, धर्म, ज्योतिष आदि समस्त विषयों का ज्ञान होने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "यथा नाम तथा गुण" ज्ञानमती वास्तव में जिनकी बुद्धि में अलौकिक ज्ञान भरा है। ऐतिहासिक जम्बूद्वीप-त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप रचना आपके अनुभव का जीता-जागता उदाहरण है। पू० माताजी का अपना सम्पूर्ण जीवन धर्मध्यान, ज्ञान का प्रचार एवं समाज सेवा के लिए अर्पण है। हम लोगों को सदैव सिद्धान्त या क्रियाकाण्ड के प्रति जो वात्सल्यभाव है उसके लिए समग्र विद्वद्जन प्रभावित हैं। निश्चय एवं व्यवहार दोनों ही प्रश्न में माताजी युग-युग तक स्मरणीय रहेंगी। विद्वानों के प्रति सहानुभूति- अप्रैल सन् १९९० में जम्बूद्वीप स्थल पर विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हेतु मुझे प्रतिष्ठाचार्य के पद पर आमंत्रित किया और जो मुझे मातृस्नेह, वात्सल्यभाव एवं सम्मान दिया, शायद ही किसी स्थान पर ऐसा योग मिला हो। पू० माताजी की विद्वत्ता, दूरदर्शिता एवं उनकी जिनेन्द्रभक्ति के कारण भारत में प्रमुख आर्यिका का स्थान प्राप्त है। हम उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और भक्ति से यह संस्मरण लिख रहे हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्रुतकेवली : ज्ञानमती माताजी -पं० जवाहरलाल शास्त्री, भीण्डर पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में सर्वश्रेष्ठ गणिनी आर्यिका हैं। इनका अपना अनूठा ज्ञान इनका ही है। इनकी समानता न्यायशास्त्रों में कोई नहीं कर सकता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जैसे सर्वमान्य ग्रन्थ में लिखा है कि विद्वान् लोग अष्टसहस्री को कष्टसहस्री कहते हैं। इसका अनुवाद व इसके क्वचित् किंचित् प्रमेयों का अवबोध विद्वानों के लिए भी दुःखगम्य माना जाता व स्वीकारा जाता है, परन्तु उसी अष्टसहस्री का भाषानुवाद सर्वप्रथम माता ज्ञानमती ने करके संसार के लिए परमार्थतः उपकार का कार्य किया है। अष्टसहस्री के आद्य अनूदित पत्रों को देखकर पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, काशी ने भी माताजी की प्रशंसा की थी तथा अनुवाद को प्रामाणिक बताया था। माताजी को स्व. पं० मक्खनलालजी ने तो एक बार "श्रुतकेवली" (वत्) कह दिया था। यह है आपकी ज्ञान गरिमा । एवमेव आपने नियमसारादि ग्रन्थों की संस्कृत-हिन्दी टीकाओं सहित कुल लगभग एक सौ ग्रन्थों की रचना करके भारतीय जैन-साहित्य के संवर्द्धन में तथा महिलाओं के गौरव उन्नयन में अनुपम व अद्वितीय कार्य किया है। पूज्य माताजी के दर्शनों का तीन बार मुझे अवसर मिला था- एक प्रशिक्षण-शिविर (१९८३) के समय, दूसरा यात्रा (मार्च १९८५) के समय और तीसरा (मार्च ८७) मेरे हस्तिनापुर अल्पकालिक प्रवास के समय, तीनों ही समय माताजी के साथ सानिध्य के दौरान मैंने इनमें वात्सल्य, सरलता, स्वाभिमान, गुणानुरागिता, संयम-परायणता आदि पाए, जिनमें वात्सल्य गुण आपमें कूट-कूट कर भरा पाया। इन तीनों समयों में आपने मुझे नैकट्य व योग्य निजत्व प्रदान किया था, वह मेरी स्मृति-पटल की मञ्जुल रेखाओं पर सदा अंकित रहेगा। आपके साथ में आर्यिका संघ भी है। एकान्त में स्थित व धर्म-कर्म क्षेत्रस्वरूप हस्तिनापुरी को आपने साधना का एक धाम बनाया है, सो हस्तिनापुर तो वस्तुतः है भी साधना का समुचित क्षेत्र ही। आपकी प्रेरणा से उपक्रम प्राप्त “सम्यग्ज्ञान" पत्रिका भविष्य में भी आपकी स्मारिका रहेगी, जो वहीं से प्रकाशित/वितरित होती है। आप सदा स्वस्थ व प्रसन्न रहें तथा आपका रत्नत्रय संवर्धमान रहे, यही मेरी त्रिकाल त्रिधा भावना है। आपका ज्ञान सबके लिए दीपस्तम्भ बन जाये, जिससे कोई भी मार्गान्वेषी भव्य गिरने न पाए-बढ़ता ही चला जाये। सुभास्ते पन्थानः, भद्र भूयात् । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ शिक्षण शिविर की याद -पं० हेमचन्द जैन शास्त्री, अजमेर साल-संवत् तो कुछ याद नहीं आता, परन्तु इतना याद है कि परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा आयोजित सर्वप्रथम "शिक्षण शिविर" का आमंत्रण मुझे दिया गया था। यद्यपि मेरा इन अस्थायी कार्यक्रमों में कोई विशेष आकर्षण नहीं रहा है, फिर भी अपनी ओर के जैन समाज में यह पहला उद्यम था और सर्वोपरि पूज्य माताजी का आदेश रहा, मैंने शिक्षण शिविर में सम्मिलित होने की स्वीकृति दे दी और यथासमय हस्तिनापुर पहुँच गया। संभवतः यह दशहरे के अवकाश के आस-पास का ही समय था। अध्यापकों के सावकाश का समय रहा। पं० श्री बाबूलालजी जमादार और श्री सेठ गणेशी लालजी रानीवाला इसके प्रमुख कर्णधार रहे ! पूज्य माताजी का यह प्रयास एक योजनाबद्ध रूप में रहा। वे चाहती थी कि अपने समाज के सभी विद्वान् कभी-कभी एक साथ मिलें और उनके विचारों को एक सूत्र में एकत्रित किया जाये। कितने विद्वान् शिक्षण देने योग्य हैं और कितने शिक्षण पाने के पात्र हैं, इसका विभाजन हो जाये तो कुछ ही समय में विद्वानों की क्षमता एवं धर्मप्रचार-प्रसार वृत्ति आसानी से सुलझ सकती है। इसके लिए भारत के सभी प्रदेशों से विद्वानों को आमंत्रित किया गया और शताधिक विद्वान् आ भी गये थे। इन विद्वानों की आवास-भोजन आदि की सुन्दर व्यवस्था रही। इस शिक्षण शिविर के प्रमुख विषय ८ रहे और माताजी ने एक मार्गदर्शिका पहले ही सप्रमाण विवरण की छपवाकर तैयार करा ली थी। मुझे भी यह Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पुस्तक मिली और मैंने उसे सरसरी दृष्टि से देख भी लिया था। श्री रानीवालाजी को मैंने सन्तोष करा दिया था कि वे मुझे एक घण्टे पहले मेरे प्रतिपाद्य विषय का संकेत करा दें। मैं इस उत्तरदायित्व का यथाशक्ति पालन करूँगा । पूज्या माताजी के आदेशानुसार मुझे "जैनागम में चारों अनुयोगों की सार्थकता" विषय दिया गया। यह विषय मेरी अभिरुचि का था। मैंने इनके सामंजस्य, न्यायबद्धता, पात्रत्व आदि को लेकर ५ दिन तक प्रातः, सायं विवेचन विस्तारपूर्वक किया, जिससे उपस्थित विद्वत् परिषद् बड़ी प्रभावित और प्रसन्न हुई। शिक्षणार्थियों ने अपने-अपने संकेत नोट किये। मैं क्योंकि भाषाओं में भाषा को भार नहीं बनाता हूँ तथा आधुनिक दृष्टिकोणों को प्रसन्न मुद्रा में ही कहने का आदी है अतः मुझे अपने विषय के प्रतिपादन में पूरी सफलता मिली। पूज्या माताजी बहुत ही प्रसन्न थीं और उन्होंने हास्य भाषण कर्त्ता कहकर मुझे भी हँसाया था । यह सब मैं पूज्य माताजी का हो शुभाशीर्वाद मानता हूँ। शिविर समाप्ति पर मुझे माताजी का आग्रहपूर्वक आशीर्वाद मिला कि मैं उनकी आज्ञा पर आगे सभी शिविरों में आने का विचार रखूँगा । मैंने उस आदेश का पालन किया और गजपंथा, देहली, हस्तिनापुर वाले शिविरों में मैं सोत्साह गया। देहली के शिविर में तों मैं कुलपति भी बनाया [९५ गया था। मुझे खेद है कि पू० माताजी की यह योजना विद्वानों की निरुत्साहिता के कारण आगे विशेष फलवती नहीं हुई। यदि यह सफल हो जाती तो हमारे पास भी अनेक अध्येता विद्वान् सुलभ हो जाते और धर्म का प्रसार-प्रचार बढ़ता जाता, परन्तु यह वर्तमान काल का ही प्रभाव है कि इस युग में धार्मिक प्रचार पर अवसर्पिणी की छाया गहराती जा रही है। स्वास्थ्य की अनुकूलता न होने से प्रवास करना यद्यपि मुझे कठिन है, फिर भी माताजी का आशीर्वाद लेते हुए मैं अपनी सेवाएँ सोत्साह देने को तैयार है और रहूँगा। विनयांजलि पूज्य १०५ गणिनी ज्ञानचन्द्रिका माताजी ज्ञानमतीजी का जहाँ कहीं भी विहार, चातुर्मास शिविर आयोजन हुआ है मुझे सपरिवार उनके प्रवचन श्रवण के साथ आहारादि का भी सुयोग मिला है विद्वान् होने के कारण जीवन में मुझे आप से अनेक प्रेरणाएं भी मिली है। माताजी की नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा से आज सारा भारत प्रभावित है। आपने जिस भी योजना को संबल दिया, उसे बरबस पूर्णता और सफलता के मार्ग पर आना ही पड़ता है। आप प्रभावक वक्ता होने के साथ प्रामाणिक स्वतंत्र लेखिका, अनुवादिका भी हैं। आपने अपनी लेखनी से जैन साहित्य का भंडार मंडित किया है। आप दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान जैसी अपूर्व संस्था की जन्मदात्री हैं। जैन विषयों पर शोध के लिए आपकी प्रेरणा देशीय विद्वानों को ही नहीं विदेशी विद्वानों को भी प्राप्त हुई। यह आज की सबसे बड़ी मांग और आवश्यकता है। मैं वीरप्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि आप जैसी संयमी और जिनवाणी सेविका की छत्र छाया हम सब पर चिरकाल तक बनी रहे और आप चिरकाल तक साधनारत होते हुए आत्मसाधिका बनी रहें। मेरा माताजी के चरणों में सपरिवार शत शत वन्दन । Jain Educationa International 'ज्ञानज्योति : एक अमर देन" जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की पावन प्रेरिका परम विदुषी गणिनी पूज्या श्री १०५ आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने समस्त भारतीय समाज को जम्बूद्वीप की महानता का परिचय दिया है। समस्त प्राणियों में भ्रातृभाव व जातीय सौमनस्य स्थापित करने की परम श्रेष्ठ भावना को लेकर संसार के प्राणियों एक दिशा बोध कराकर महान् उपकार किया है। ४ जून १९८२ को दिल्ली के लाल किला मैदान से भारतरत्न भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व० श्रीमती इन्दिरा गाँधी For Personal and Private Use Only - - पं० सुधर्मचन्द जैन, तिवरी [म०प्र० ] . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के कर कमलों द्वारा ज्ञानज्योति का उद्घाटन हुआ, जो समस्त देश में भ्रमण करती हुई मिथ्या अन्धकार में फँसे प्राणियों को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करती रही। हिमालय से कन्याकुमारी तक १०४५ दिनों में राजस्थान, बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, आसाम, नागालैण्ड, मणिपुर, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, पंजाब, चण्डीगढ़, हिमाचल प्रदेश आदि के नगर-नगर में भ्रमण करती हुई इस महान् ज्योति ने हजारों छोटे-बड़े नगरों में धर्म-सहिष्णुता एवं चारित्र निर्माण का प्रचार-प्रसार किया। जुआ, शराब, धूम्रपान एवं मांसाहार का हर प्रदेश में बड़ी संख्या में लोगों ने त्याग किया। जैन- जैनेतरों में बिना किसी भेदभाव के ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती हुई इस ज्योति ने लोगों में अहिंसा,मैत्रीभाव एवं धर्मसमभाव का जिस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया, भारतीय इतिहास में ऐसा महान् समयोचित कार्य पहले कभी नहीं हुआ था। मध्यप्रदेश के अनेक नगरों में ऐसे कभी जुलूस नहीं निकले थे, जैसे "ज्ञानज्योति" के आगमन में निकले। जिन स्थानों पर आपसी वैर-विरोध व भेदभाव थे, इसके पहुँचने से वहाँ "एकता" व मैत्रीभाव स्थापित हुए। इतने सुदूर की यात्रा में बिना किसी विघ्न-बाधा के ज्योति यात्रा संघ को यथायोग्य सम्मान प्राप्त हुआ। प्रदेशों के मुख्यमंत्री से लेकर अधिकारी वर्ग व गणमान्य नागरिकों ने ज्ञानज्योति का अपूर्व स्वागत किया। समस्त नगर सजाये गये कहीं-कहीं तो रात्रि भर नगर दीपावली जैसा दीपमालाओं से सुसज्जित रहा। यह सब प्रवर्तन इतने लम्बे समय तक गर्मी, ठण्ड व बरसात में अखण्ड रूप से चलता रहा; यह सब गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के शुभाशीर्वाद व दृढ़ संकल्प का सुपरिणाम है। मुझे भी ज्ञानज्योति के प्रवर्तन में मध्यप्रदेश के बाद सेवा करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ एवं धर्मप्रचार के साथ-साथ संस्था व समाज का भी इससे यथाशक्ति विकास करने का परम सौभाग्य मिला। पूज्य श्री माताजी ने सोमप्रभ एवं श्रेयांसकुमार द्वारा देखे गये सुमेरु पर्वत की, जिस पर भगवान् का जन्माभिषेक महोत्सव होता है, हस्तिनापुर में करोड़ों वर्षों के बाद साकार रूप दिया। धन्य है यह बीसवीं सदी की नारी, जिसने अपने शुभाशीर्वाद से एक अमर कृति के रूप में "अखण्ड ज्ञान ज्योति" की स्थापना इस हस्तिनापुर में की एवं समस्त भारत को गौरवान्वित किया। संस्था के भूतपूर्व मंत्री बाल ब्र० श्री मोतीचंदजी शास्त्री न्यायतीर्थ एवं श्री रवीन्द्र कुमारजी बी०ए० शास्त्री की भ्रातृत्व व वात्सल्य भावना का यह सुपरिणाम है जिन्होंने अपना समस्त जीवन त्याग व संयमपूर्ण बनाकर इतना महान कार्य पूर्ण किया; इन्हीं दोनों महान् कर्मठ सेवा भावी आत्माओं ने आज भारत-सम्राट चन्द्रगुप्त के सपनों को साकार कर दिखाया। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ने जिस प्रकार से सम्पूर्ण भारतवर्ष में भ्रमण करके उत्तर-दक्षिण, पूरब और पश्चिम के पारस्परिक सौहार्द सम्बन्ध को बलिष्ठ किया है एवं धर्म प्रभावना के साथ-साथ अहिंसा का प्रचार किया है, वह एक ऐतिहासिक बात है। पूज्य माताजी का यह अभिवन्दन महोत्सव रत्नत्रय की कुशलतापूर्वक सम्पन्न हो एवं माताजी शतायु हों। "जय मातुश्री" - पं० जमुना प्रसाद जैन शास्त्री, कटनी लगभग सन् १९४० में मैं टिकैतनगर जैन पाठशाला में पढ़ाने गया था, मेरे कार्यकाल में समाज के लगभग १०० बच्चे-बच्चियाँ पढ़ते थे, उनमें पूज्य माताजी भी “मैना देवी" के रूप में प्राइमरी हिन्दी शिक्षा ले रही थीं, साथ में धार्मिक शिक्षा भी बहुत कुछ ग्रहण की। मैं वहाँ ८ वर्ष रहा, आज भी उस शिक्षा का असर व्यावहारिकता, धार्मिकता में वहाँ के युवकों में भलीभाँति दिखाई पड़ता है। प्रत्येक दीपावली पर पाठशाला के छात्रछात्राएँ मिलकर वार्षिकोत्सव मनाने और मनोविनोद के लिए कोई एक नाटक खेलते। एक वर्ष "वीर अकलंक" नामक नाटक बच्चों ने खेला। क्या मालूम था कि नाटक में अकलंक का पिता से वार्तालाप का दृश्य मैना के ज्ञान चक्षु को खोल देगा। बस ! मुमुक्षु को जागने में देरी नहीं लगी, चुपचाप अंतरंग में क्रमशः ज्ञान की किरणें फूटने लगीं। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" लोकोक्ति चरितार्थ होने लगी। कुछ दिन बाद परम पूज्य १०८ आचार्यवर देशभूषण मुनिराज ने ससंघ बाराबंकी में चातुर्मास किया। बस, मौका पा मैना ने मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी “सम्यग् श्रद्धा" को धारण कर अपना यह मनुष्य भव (नारी पर्याय) सफल की। आज उनके यश तथा धार्मिक जीवन ने स्वयं को ही नहीं, वरन् अपने पूरे कुटुम्ब तथा पूर्ण टिकैतनगर के साथ भारत की जैन समाज को जगा दिया। जिनकी सूझ-बूझ और अनुपम ज्ञान की प्रशंसा लेखनी नहीं कर सकती। नारी समाज का गिरा हुआ स्तर सर्वोन्नति के शिखर पर कर दिया। माताश्री की कीर्ति जगत् में ध्रुवतारा-सी अजर-अमर हो, इसी मंगलकामना के साथ पूज्य माताजी के चरणों में मेरी विनयांजलि समर्पित है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [९७ कोटिशः नमन् और प्रणमन् - डॉ० सुशील कुमार जैन, सम्पादक जैन प्रभात कुरावली [मैनपुरी] किसी भी मानव का महत्त्व न तो कागज के टुकड़ों से है, न स्वर्ण रंजित आभूषणों से और न गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से। वास्तविक महत्त्व तो उन ज्ञानी, त्यागी, परोपकारी साधुओं से होता है जिनकी ज्ञानज्योति से चारों ओर आलोक व्याप्त हो जाता है। ऐसी हैं हमारे वर्तमान में महान् ग्रन्थों की टीकाकार, सुप्रसिद्ध लेखिका, महान् विदुषी, परम श्रद्धेय, न्यायप्रभाकर, आर्यिकारत्न १०५ ज्ञानमती माताजी। आपने अपने विशाल संघ द्वारा भारत वसुन्धरा के सभी प्रान्तों में अपनी ज्ञानमयी, कल्याणकारी एवं सरल-स्वाभाविक कोमल शैली द्वारा अहिंसामयी "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" परम वाक्य को अपनी जीवनी से सदैव हम लोगों के समक्ष चरितार्थ किया है। अहिंसा एक अमोघ संजीवनी शक्ति है, बिना अहिंसा के कोई भी राष्ट्र प्राण नहीं पा सकता है, आपका ऐसा-अमृत उपकार वचनातीत है। मन्द मुस्कान, प्रसन्न मुद्रा एवं कठोर अनुशासन के साथ मन को झकझोरने वाली स्पष्ट वाणी आपकी अमूल्य निधि है। आपने अपनी प्रखर प्रतिभा से रूढ़िवादिता का मुख मोड़कर समाज, धर्म और संस्कृति के पुरातन आदर्शों पर कायम रहकर अपने कदमों को आगे बढ़ाया है। आप बचपन से ही सरस्वतीमन्दिर की प्रदीप हैं, जो केवल शुद्ध गौ घृत से सदैव जलता है। आप जैन वाङ्मय की मात्र शिल्पी ही नहीं हैं, अपितु महर्षि दधीचि की तरह आपने अपनी हड्डियों को गला-गला कर जैनधर्म और जैन-साहित्य का प्रचार-प्रसार किया है। आपने अनेक शिष्यों को न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, सिद्धान्त आदि विषयों में पारंगत बनाकर अपने समान पद पर ही नहीं, अपने से भी पूज्य मुनि पद पर भी आसीन कराया है। आपसे हमारी समस्त जैन समाज की गरिमा का नित्यशः उन्नयन हो रहा है। आप वर्तमान में प्रखर, प्रकाशित ज्योतिपुंज हैं जिससे जिनधर्म शासन के अभ्युदय, उत्कर्ष एवं प्रसारण रूपी धवल किरणें निःसृत हो रही हैं। आपने जैन वाङ्मय में अभिवृद्धि की है। आपका सारा जीवन अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगमय रहा है। नैरन्तरीय पठन-पाठन में रत रह कर "ज्ञानध्यानतपोरक्तः" वाली विशिष्ट वृत्ति आपमें दृष्टिगोचर होती है। ___ आपने जम्बूद्वीप रचना का हस्तिनापुर में निर्माण कराकर भारत में ही नहीं, अपितु विश्व में एक नया चमत्कार स्थापित किया है, जो सदैव आपकी गुण-गौरव गाथा का यशोगान करता रहेगा। यह आपकी सूझ-बूझ का ही परिचायक है। आज के इस भौतिक युग में राग-द्वेष, जन्म-मरण रूपी रोग को दूर करने के लिए एवं विषय-भोग रूपी कुपथ्य को छोड़ने के लिए दिशासूचकयन्त्र आर्यिकारत्न नीर-क्षीर विवेकी माताजी के चरण सानिध्य में जाना होगा, तभी हम ज्ञान को प्राप्त कर चित्तरूपी सर्प का निग्रह कर सकते हैं। आपके सानिध्य में रहते हुए मैंने सर्वत्र उत्साह, श्रम, उदारता के साथ रचनात्मक रूप से कार्य करने की जिज्ञासा छलछलाती देखी है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि टिकैतनगर की माटी का कण-कण बहुमूल्य रत्नों में परिवर्तित हो गया है। अन्ततोगत्वा मैं अभिवन्दन समिति के कर्णधारों का अभिवन्दन करता हूँ कि उन्होंने अभिवन्दन करने के लिए कृतित्व एवं व्यक्तित्व के सही चूड़ामणि का चुनाव किया है। वास्तव में अभिवन्दन का यह आयोजन पुण्यमय एवं स्तुत्य है। आगे आने वाली पीढ़ी के लिए यह समारोह दीपशिखा का रूप होगा। मैं विश्वास करता हूँ कि आगे आने वाली नवपीढ़ी अभिवन्दनीय माता के पद-चिह्नों पर चलकर अपना जीवन सार्थक करेगी। हम जैसे अल्पज्ञानी के लिए आपके गुणों की प्रशंसा करना अपनी शक्ति से परे है। ___ अन्त में मैं आपके चरण कमलों में बारम्बार कोटिशः नमन् करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला शत-शत वन्दन - पं० केशरीमल जैन, बी०ए० विशारद, गंज बासौदा [म०प्र० ] - बीसवीं शताब्दी में ही नहीं, अपितु प्राप्त शोध खोज के अनुसार भी पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री १०५ शनमती माताजी के समान दूसरी नारी रत्न इस धरा पर अवतरित नहीं हुई हैं, जिन्होंने धार्मिक, साहित्य, निर्माण आदि क्षेत्रों में इतनी प्रसिद्धि पाई हो । पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य अपने आप में विशाल व अनूठा है, जो आपकी विद्वत्ता का अनुपम भंडार है। जम्बूद्वीप निर्माण की प्रेरणा देकर शास्त्रों के अनुसार वर्णन को रचनात्मक रूप दिलाकर जम्बूद्वीप की अनुपम रचना विश्व के वैज्ञानिकों की खोज का केन्द्र हो रही है। जिसकी प्रतिकृति "ज्ञानज्योति रथ" तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व० इन्दिरा गांधी द्वारा भारत की राजधानी दिल्ली से प्रवर्तित की गयी तथा देशभर में धार्मिक जागृति करते हुए पूज्य माताजी की महानता का सूचक रही। हर प्रकार से धार्मिक प्रचार-प्रसार करने वाली महान् आर्यिका माताजी का अभिवंदन, शत शत वंदामि । बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी Jain Educationa International पूज्य माताजी के बारे में कुछ भी लिखना सूरज दो दीपक दिखाना है। आप इस बीसवीं शताब्दी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका हैं। आपने अपने नाम की गरिमा को कायम रखा, जिसके लिए आपने अपने क्षुल्लिका काल से ही व्याकरण व उसके साये में १९६५ तक गहन अध्ययन कर साहित्य सृजन की ओर अपना पग बढ़ाया। आपके १३५ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, शेष भी जल्दी ही प्रकाशित होंगे ऐसा विश्वास है। - पं० सुलतानसिंह जैन, बुलंदशहर - करणानुयोग का गहन अध्ययन कर हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना की है। जो अति मनोज्ञ है। हस्तिनापुर से आपकी प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" पत्रिका प्रकाशित होती है, जिसमें चारों अनुयोगों सम्बन्धी समुचित सामग्री प्रकाशित होती है। बालकों के लिए धर्म में आस्था दृढ़ करने वाली सामग्री होती है। इस प्रकार यह पत्रिका बड़ी लाभप्रद है । आचार्य श्री वीरसागरजी की स्मृति में आपने एक संस्कृत विद्यापीठ भी स्थापित किया है, जहाँ से शास्त्री व आचार्य की उपाधि प्राप्त कर समाज को विद्वान् उपलब्ध होते हैं, जो धर्म का प्रचार करते हैं। मैं ऐसी विदुषी माता श्री के चरणों में अपनी विनयांजलि अर्पित कर आशा करता हूँ कि समाज का मार्ग-दर्शन करती रहे और हमें धर्माद होने की प्रेरणा देती रहे। कोटि-कोटि नमन् डॉ० सोहनलाल देवोत लोहारिया, बाँसवाड़ा [राज० ] यह परम प्रसन्नता का विषय है कि त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर जैन जगत् की परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अभिनंदन हेतु अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करने जा रहा है। पूज्य माताजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन निरतिचारपूर्वक आर्यिका व्रतों का परिपालन करते हुए, ज्ञानाराधनस्वरूप शताधिक महत् ग्रन्थों की रचना कर, त्रिलोक सम्बन्धी प्रत्यय को त्रिलोक शोध संस्थान के मूर्तरूप द्वारा स्पष्ट कर, प्रत्येक जिज्ञासु अन्वेषक की जिज्ञासा को शांत करने का प्रबल पुरुषार्थ किया है, यह अपने आप में ऐतिहासिक घटना है, जिसे जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु विश्व इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया जायेगा। For Personal and Private Use Only ➖➖ पूज्य माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अभिनंदन ग्रंथ के माध्यम से पूर्ण सफलता की कामना के साथ उनके पावन चरणों में कोटि-कोटि करते हुए उनके शतायु होने की मंगलकामना करता है। नमन् Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "माँ ज्ञानमती को भुलाया नहीं जा सकता" -पं० पवन कुमान जैन "चक्रेश" शाहगढ़, सागर [म०प्र०] ज्ञाता आगम ज्ञान की , नहीं रंच भी मोह । ममता तज समता धरी, तीनों रतन सनेह ॥ आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज द्वारा स्थापित वर्तमान योगी साम्राज्य में ब्राह्मी आर्या की उपमा से सुशोभित एवं आचार्य श्री वीरसागरजी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी शिष्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी के सद्प्रयासों की कितने युगों तक प्रंशसा होगी। यदि ऐसी चर्चा की जाये तो उत्तर यही होगा कि जब तक इस पृथ्वी पर अहिंसा धर्म का डंका बजाने वाले भगवान महावीर के लघुनन्दन विद्यमान रहेंगे तब तक माँ ज्ञानमतीजी को भुलाया नहीं जा सकता। जिस प्रकार हजारों वर्ष पहले निर्मित भगवान बाहुबली की मूर्ति को देखकर सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्र स्वामी, चामुण्डराय तथा उनकी माता की सहसा ही याद हो आती है, उसी प्रकार उत्तर प्रान्त हस्तिनापुर स्थित जम्बूद्वीप को देखकर आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी, श्री चन्दनामतीजी, पीठाधीश स्वस्ति श्री मोतीसागरजी, ब्र० श्री रवीन्द्र भाई आदि को एवं उनके अथक प्रयासों को भुलाया नहीं जा सकता। सिद्धान्तसागर वेत्ता- आर्यिका श्री ने जीवन भर श्रुताभ्यास कर अनेक कठिन-कठिन ग्रन्थों की सरल हिन्दी, संस्कृत टीकाएँ कर सरल बना दिया एवं स्वयं शताधिक ग्रंथों की रचना कर भूले-भटके भव्य जीवों को सम्यग्ज्ञान करा शिवपथ पर लगा दिया। पं० श्री पन्नालालजी साहित्याचार्य-सागर के शब्दों में, जो कि वयोवृद्ध साहित्य-सृजक हैं "इन आर्यिका माताओं की लेखनी में कितनी मृदुता है कि कठिन-कठिन ग्रन्थों की सरल हिन्दी टीकाएँ कर जन साधारण के लिए गम्य कर दिया।"। नये युग की कामना-पू० माताजी का सद्प्रयास यही रहता है कि भविष्य में देव-शास्त्र गुरु का संरक्षण हो, पापाचार का नाश हो, भव्य जीव षडायतनों का आश्रय पाकर मिथ्यात्व रूपी मल को सम्यक्दर्शन नीर से धोकर सम्यग्ज्ञानामृत का पान कर चारित्र पथ को दृढ़ रखें। मेरी यही अभिलाषा- मैं यही भावना भाता हूँ कि पंचमकाल के अन्त तक ऐसी ज्ञानमती आर्यिका का अविरल सद्भाव रहे, ताकि अहिंसा चिह्न से चिह्नित वीर-पताका यगों-युगों तक निर्बाध रूप से आर्य खण्ड में फहराती रहे। चारों अनुयोगों को जानने वाली माता -पं० महेन्द्र कुमार जैन, उदयपुर [राज०] सम्यक् पावन भूमि, श्री तीर्थंकर चक्रवर्तियों के पावन स्थल हस्तिनापुर में अपूर्व महान् वैभव विभूति सम्यक्त्व से ओत-प्रोत होती हुई सम्यक् ज्ञानज्योति जलाकर अनोखा स्थल जंबूद्वीप की रचना बनवाकर ज्ञानमती माताजी ने महान् गौरव का कार्य किया है, उससे भारतीय भव्य जीवों का महान् सौभाग्य जागा है। पुस्तकों, ग्रंथों में जम्बूद्वीप का नाम पढ़ा, लिखा जाता था, मगर चिरस्मरणीय आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी ने जम्बूद्वीप की रचना करवाकर उसके अन्दर ज्ञानानुभूति का दीप जलाकर, मार्ग-दर्शन देकर भव्य जीवों को सम्यक् पथ बतलाया। पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी चारों अनुयोगों को लेखनीबद्ध करने में परम विदुषी हैं। सारे भारत में यह श्री जिनेन्द्र प्रभु की एक अपूर्व सरस्वती कन्या हैं। यह चिर स्मरणीय कला की प्रतीक माताश्री वीतराग मार्ग-शोधन में तल्लीन रहते हुए सदा के लिए स्वाधीन बनें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हमारी पथप्रदर्शिका आर्थिका ज्ञानमती माताजी : संसार में जन्मे प्रायः सभी व्यक्ति घर-परिवार, समाज में मात्र अपना फर्ज निभाने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें स्वकल्याण का ध्यान ही नहीं रहता। ऐसे व्यक्ति कम होते हैं जो अपना कल्याण करते हुए दूसरों के कल्याणार्थ सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं। ये व्यक्ति महान् होते हैं पू० माताजी भी ऐसी ही महान् आत्मा हैं, जो निरन्तर आत्मसाधनारत रहते हुए हमारे लिये सत्पथ प्रदर्शित कर रही हैं। बाराबंकी जिले के टिकैतनगर में जन्मी बालिका मैना ने बाल्यकाल से ही स्वाध्याय किया, परिणामस्वरूप उनमें वैराग्य के अंकुर उदित हुए। ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर वैराग्यांकुर को परिपुष्ट करना प्रारम्भ किया। निरन्तर ज्ञान-ध्यान में रत रहने से उनके आत्मिकबल में वृद्धि हुई और क्रमशः क्षुल्लिका एवं आर्यिका दीक्षा ग्रहण की इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी सुन्दरी के पथ का अनुसरण करके अपने को धन्य बनानेवाली माताजी का त्याग तपस्यामय जीवन कुमारिकाओं के लिए पथ-प्रदर्शक है। महिला समाज एवं पुरुष वर्ग के लिए भी अनुकरणीय है। माताजी ने स्वधर्म और युगधर्म को पहचान कर 'स्वान्तः सुखाय सर्वजनहिताय' के लक्ष्य से सत्साहित्य का सृजन किया है, जो वर्तमान में तो मानव को दिशाबोध कराता ही है, युगों-युगों तक कल्याण का संदेश देता रहेगा। पू० माताजी अपने त्याग तपस्यायुक्त आत्मसाधनारत जीवन, अमृतमय वाणी एवं यशस्वी लेखनी के द्वारा हमारी सन्मार्ग निर्देशिका है। वे शतायु हों तथा जन-जन को आत्म-कल्याण की पावन प्रेरणा देती रहें, यही मंगलकामना है। माताजी का चमत्कार Jain Educationa International शैलेश डाह्याभाई कापड़िया सम्पादक जैनमित्र, सूरत मेरी कलम इतनी सामर्थ्यवान् नहीं है जो कि माताजी के विषय में कुछ व्यक्त कर सकूँ फिर भी एक विशेष अनुभव लिख रहा हूं, जो मुझे माताजी से प्राप्त हुआ है, जिससे मैं सच्चे अर्थों में जैन धर्म को समर्पित हो सका हूँ । • पं० योगीराज फूलचन्द जैन, संचालक : श्री स्याद्वाद योग संस्थान, छतरपुर [म०प्र० ] सन् १९७८ में सोना गिरीजी सिद्ध क्षेत्र पर परमादरणीय पूज्य आचार्य श्री १०८ श्री विमलसागरजी महाराज द्वारा मुझे जैन योगदर्शन का परिचय मिला था, तबसे ही मैंने जैन योग प्रन्थों का विधिवत् अध्ययन एवं मनन किया और पाया कि वास्तव में भगवान आदिनाथ (जिन्हें जैनेतर हिरण्यगर्भ के नाम से मानते हैं) ही योग के आदिप्रणेता हैं। तब से ही मेरी अन्य धारणाएँ समाप्त हुईं, योग की सही दिशा मुझे प्राप्त हुई; फिर भी मेरा परिधान तथावत् ही बना रहा, लेकिन मार्च १९८८ में जब रवीन्द्रजी ने मुझे योग शिविर के संचालन हेतु पुण्य भूमि हस्तिनापुर बुलाया था। वह मेरे लिए बड़ा ही शुभ मुहूर्त था, जब पूजनीया माता श्री के दर्शनों का मुझे लाभ मिला था। साथ ही आश्चर्यकारी चमत्कार का अनुभव हुआ था। हुआ यूँ कि जब मैं परमादरणीय पूज्या माताजी के सानिध्य से, उन्हें नमन कर, आशीर्वाद प्राप्त कर, अपने विश्रामस्थल (जहाँ आपने मुझे शरण दी थी) विश्राम हेतु वापिस आकर बन्द कमरे में ध्यान को बैठा, जैसे ही प्राणायाम के बाद ध्यानस्थ हो समाधि की दशा को प्राप्त हो रहा था, तभी मुझे माताजी का साक्षात्कार हुआ, साथ ही कल्याणकारी सम्बोधन प्राप्त हुआ। तत्काल मुझे मेरे बाह्य परिधान, ( भगवा कपड़े, रुद्राक्ष की माला, खूँटी वाली खड़ाऊँ एवं लम्बे बाल दाढ़ी आदि) से अरुचि जाग्रत हो गयी। फिर मैं दोपहर बाद जब पुनः माताजी के चरणों में बदले हुए परिधान में उपस्थित हुआ, नमोस्तु किया, माताजी ने मुझे एक निगाह देखा और मुस्करा दिया, कहा कुछ भी नहीं, परन्तु आशर्य तब हुआ जब माताजी के पास बैठी ब्रह्म० बहिन माधुरी की वाणी मुखरित हुई कि "अरे यह क्या? हमने और माताजी ने ऐसा विचार ही किया था कि योगीराजजी को अपना परिधान बदल कर जैन धर्मानुकूल परिधान ही धारण करना श्रेयस्कर होगा और योगीराजजी सही परिधान में आ ही गये।" यह है माताजी की साधना, जोकि मात्र विचार करने से ही मनुष्य का हृदय परिवर्तन कर उसे सन्मार्ग में लगा देती है। यह माताजी का ही प्रभाव है कि मेरा उन भगवा वस्त्रों, रुद्राक्ष की माला से तो मोह टूट ही चुका है साथ ही जटाजूट, लम्बी-चौड़ी दाढ़ी For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ से भी निजात पा रहा हूँ तथा माताजी द्वारा प्रणीत ध्यान "हीं चतुर्विंशति तीर्थंकर का ध्यान" अपने अभ्यास के साथ ही अब मैं उसे जन-जन तक पहुँचाने का सफल प्रयास कर रहा हूँ। उक्त घटना ने मेरा जीवनक्रम ही बदल दिया है। मैं माताजी का जन्म-जन्मान्तर आभारा रहूगा। अन्त में मैं माताजी के प्रति इतना ही कहना चाहूँगा श्रद्धा सुमन समर्पित तुमको, जो सन्मार्ग गहा है । सत्य, अहिंसक बनी तपस्वी, नर भव सफल किया है । टिकैतनगर धन्य हो गया, तुम सी बेटी देकर । मात-पिता भी धन्य हो गये, तुमको निज घर पाकर । सत् सत् नमन हमारा, मम बुद्धि निर्मल हो । पदचिह्नों पर बढ़ता जाऊँ, कर्म सभी निर्मल हों । "योगीराज" समर्पित मन-वच, तव चरणों में हरदम । ध्यान निरंतर रहता तेरा, फिर डर क्या कभी भी निकले दम । इस युग की महान् साहित्यकार : ज्ञानमती माताजी Jain Educationa International [१०१ दिगम्बर जैन साहित्य में आचार्य का स्थान एक लम्बे समय से रहा है। प्रायः सभी ग्रन्थ चाहे वे न्याय व्याकरण के हों अथवा दर्शन साहित्य के हों, सभी के प्रणेता महान् रचनाकार आचार्य ही रहे हैं। प्राचीन ग्रन्थों में कोई भी आर्यिका प्रणीत ग्रन्थ अथवा उसकी टीका कभी देखने को नहीं मिली। प्राचीन ग्रन्थों में वैसे अनेकों आर्यिकाओं का उल्लेख तो अवश्य मिलता है, किन्तु ग्रन्थकार के रूप में नहीं । - - पं० सुमतिचन्द शास्त्री, मोरेना [ संपादक : ज्ञानगंगा ] यह बड़े हर्ष की और अत्यन्त गौरव की बात है कि इस २०वीं शताब्दी से दिगम्बरों में सिद्धान्त की ज्ञात तत्त्वज्ञान की मर्मस्पर्शी तथा चारों अनुयोगों के साथ-साथ भूगोल की उद्भट् विद्वान् आर्यिकाओं में आज समाज को यह रत्न भेंट किये हैं, जिनकी ज्योति का प्रकाश आज तक (पिछले समय से लेकर ) नहीं मिला। अभी हमारे बीच दिगम्बर जैन समाज के परम सौभाग्य से कुछ गिनी-चुनी आर्यिकारत्न दिद्यमान् हैं जो समाज को अनेक रत्न भेंट कर रही हैं और अभूतपूर्व साहित्यकार के रूप में यशस्वी हैं। सभी पूज्य आर्यिका माताओं में यदि हम किन्हीं बहुश्रुतवंत तथा प्लानिंग माइण्डेड (योजनाओं का कम्प्यूटर) यदि कोई आर्यिका वहाँ है तो वह है परम पूज्य विद्यावारिधि ज्ञान-विज्ञान की अनुपम भण्डार, उच्चकोटि की कवयित्री, सरल और सुबोध कथालेखिका, अष्टसहस्त्री और समयसार जैसे अनेक दुरुहग्रन्थों की यशस्वी टीकाकार और अनेक योजनाओं की अनुपम भण्डार परमपूज्य आर्यिका रत्न ज्ञानमती माताजी का स्थान प्रथम पंक्ति में भी प्रथम आता है। For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य ज्ञानमतीजी का मस्तिष्क तो एक कम्प्यूटर से भी ज्यादा श्रेष्ठ है और जम्बूद्वीप की रचना जो विश्व में अनुपम है, उनकी प्लानिग का अनुपम उदाहरण है। उनकी कर्मठता भरी अध्यवसायता से यह जम्बूद्वीप सबके आकर्षण का एक अद्भुत केन्द्र बना हुआ है और एक दफा सभी के मुँह से ज्ञानमती माताजी के प्रति बार-बार धन्य-धन्य के शब्द निकलते हैं। उनके द्वारा आयोजित शिविरों में हम भी राजनीति क्षेत्र से समय निकाल कर भाग लेते रहे हैं और हमने देखा कि पूज्य माताजी में अपने विषय को समर्थन देने की अद्भुत क्षमता है, इन शिविरों में स्वर्गीय गुरुवर पं० मक्खनलालजी शास्त्री,स्व० सिद्धहस्त लेखक और महान् टीकाकार डॉ० मोतीचन्द्रजी कोठारी, श्री लालबहादुर शास्त्री आदि उच्चकोटि के विद्वान् भी उस समय शिविरों में भाग लेते रहते थे और उन सब विद्वानों से नई पीढ़ी भावी लाभ उठाती थी। हम सभी अल्पज्ञ राजनैतिककार्यकर्ताओं ने भी थोड़ा-बहुत सीखने का लाभ प्राप्त किया। अतः पूज्य ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद के सदैव हम आभारी रहेंगे। आज दिगम्बर जैन समाज में इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम मण्डल विधान आदि विधानों का जो देश-व्यापी प्रचलन प्रारंभ हो गया है वह भी पूज्य ज्ञानमती माताजी के एतद्विषयक रचनाओं की ही अपूर्व महिमा है और उनकी इन रचनाओं में जो लालित्य और छन्द तथा अलंकार आदि का समावेश है। उससे विधान पढ़ने वालों को और सुनने वालों को बड़ा आनंद प्राप्त होता है। बाल-कथा-साहित्य रत्न भण्डार में जो दैदीप्यमान् रत्न आपने प्रदान किये हैं उससे तो बालक-बालिकाओं को बड़ा ही लाभ मिला है। महिला उपयोगी साहित्य की रचना में भी आपने कोई कसर ही नहीं छोड़ी। आपकी वैसे तो अनेकों देन दिगम्बरों के लिए हैं, किन्तु उनमें एक और महत्त्वपूर्ण योगदान आपका है तो वह है अनेक आर्यिका रत्नों, मुनियों आदि को गहरी खोज के साथ मंथन करके बाहर लाना उनमें प्रमुख हैं- आर्यिका आदिमती माताजी, आर्यिका जिनमती माताजी, आर्यिका अभयमतीजी आर्यिका चन्दनामतीजी आदि। ___ इसी तरह पूज्य क्षुल्लक मोतीसागरजी और ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमारजी, एक ऐसे युगल को आपने समाज के सुयोग्य और त्यागी-व्रती तथा मेधावी और कर्मठ शिष्य के रूप में समर्पित किया है। यह जोड़ी कभी किसी जमाने की कांग्रेस की दो बैलों की जोड़ी के समान सिद्ध हुई। जिस चिह्न ने अनेक चुनाव जीते। ठीक उसी तरह पूज्य ज्ञानमती माताजी ने भी इस जोड़ी से अनेक विजयें प्राप्त की। वैस तो पूज्य ज्ञानमती माताजी ने स्वयं जन्मजात और पूर्व पारिवारिक दृष्टि से एक मुक्त साधना की, और संलग्न हैं। उनके परिवार का एक बड़ा भाग निरन्तर ज्ञान साधन और चरित्र साधना में लगा हुआ है। हम तो परमप्रभु वीतराग देव से यही प्रार्थना करते हैं और आशीर्वाद चाहते हैं कि परमपूज्य ज्ञानमतीजी दीर्घ आयु प्राप्त करें। सदैव स्वस्थ रहें और वीतराग ज्ञान, विज्ञान, भण्डार को अनवरत भरती रहें और आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक कल्याण में सदैव संलग्न रहकर सफल होती रहें। हम अपनी यह तुच्छ शब्द पुष्पांजलि समर्पित करते हुए उनका हार्दिक अभिवंदन करते हैं। दृढ़ता का द्वितीय नाम ज्ञानमती -पं० नरेश जैन शास्त्री, हस्तिनापुर, जम्बूद्वीप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की साक्षात् त्रिवेणी परम तपस्विनी प्रातः स्मरणीय ज्ञान को साक्षात् अवतार हैं गणिनी आर्यिकारत्नश्री ज्ञानमती माताजी जिनके गुणों का गान करना सूर्य को दीपक दिखाना ही है। जिनके द्वारा बहुमुखी धर्मप्रभावना के कार्य प्रतिक्षण चल रहे हैं। साहित्य रचना के क्षेत्र में तो जिन्होंने सारे संसार में नया कीर्तिमान प्रतिस्थापित किया है। जिसे आने वाली पीढ़ी युगों-युगों तक याद करेगी। माताजी ने नवीन जैन साहित्य सजन करके जैन साहित्य निर्माण के क्षेत्र में इतिहास को ही बदल दिया। आज तक जो भी जैन साहित्य लिखा गया वह सब पुरुष समाज द्वारा ही निर्मित हुआ। दो हजार वर्ष के इतिहास में पू० ज्ञानमती माताजी वह प्रथम महिला हुईं जिन्होंने लेखन कार्य प्रारंभ करके महिला समाज का गौरव बढ़ाया। वैसे पूर्व काल से आज तक महिलाओं ने हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा लगाकर कार्य किया है। जहाँ हम रणक्षेत्र में महारानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती आदि वीर बालाओं का नाम लेते हैं, वहीं साहित्य-सृजन के इतिहास में पू० माताजी का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। पू० माताजी तो गुणों की खान ही हैं, फिर भी उनके दृढ़-निश्चयी गुण ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैंने स्वयं अपनी आँखों से पू० माताजी के दृढ़-निश्चयी स्वभाव को देखा है। सन् १९८५ में पू० माताजी को अशुभ कर्म के उदय से एक फोड़ा निकल आया और साथ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१०३ में ही पीलिया रोग हो जाने पर शरीर दिन-प्रतिदिन गिरता गया, यहाँ तक की समाधि की स्थिति हो जाने पर भी पू० माताजी ने अपनी चर्या में किंचित् मात्र भी शिथिलता नहीं आने दी और दृढ़ता व धैर्यपूर्वक अपनी क्रियाओं का पालन करती रहीं। पू० माताजी द्वारा जो भी कार्य किये जा रहे हैं वे सभी अनूठे ही देखने को मिलते हैं। जम्बूद्वीप, कमल मंदिर का निर्माण तो विश्व में प्रथम रचना है। पू० माताजी सदैव यही कहा करती हैं कि विरोधी का विरोध न करने की बजाय अपनी शक्ति का उपयोग धर्म प्रभावना में करना चाहिये। मैं तो अपना अहोभाग्य ही मानता हूँ कि ऐसी माँ के चरणों में रहकर ज्ञानामृत पान करने का सौभाग्य मुझ अल्पज्ञ को प्राप्त हुआ। अतः मैं पू० माताजी के चरणों में विनयांजलि अर्पित करते हुए वीर प्रभु से कामना करता हूँ कि पू० माताजी शतायु हों और मुझे उनके चरणों की सेवा बराबर मिलती रहे। विनम्र विनयांजलि - श्रेयांस कुमार जैन, प्रधानाचार्य श्री दि० जैन गुरुकुल, हस्तिनापुर "नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदं" उक्ति को अक्षरशः चरितार्थ करने वाली महिमामयी साध्वीरत्न, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, प्रकाण्ड विदुषी, न्यायप्रभाकर, सिद्धान्तवाचस्पति परमपूज्य श्री १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का रत्नत्रय विभूषित भव्य जीवन हर नारी के लिए एक उज्ज्वल उदाहरण है "दंसणणाण चरित्ताणि" की आप साकार मूर्ति हैं। वाग्देवी सरस्वती की परम उपासिका परमपूज्य माताजी अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचयित्री, भाषा टीकाकर्ती, सरस्वती की पुत्री, जैन धर्म, न्याय, दर्शन व सिद्धान्त की प्रकाण्ड विदुषी एवं कुशल ओजस्वी उपदेष्टा हैं। आपकी वाणी की मधुरता श्रोतागण के हृदयों में गहराई तक उतरती चली जाती है। आपके अन्दर समाज को दिशा देने की अति अद्भुत क्षमता है। आपके द्वारा निर्मित विशाल साहित्य स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है। आपके सानिध्य में अत्यन्त भव्य जम्बूद्वीप संस्थान की रचना हुई है। उसकी आप कुशल कर्णधार हैं। जिसने हस्तिनापुर की ख्याति-वृद्धि में चार चाँद लगा दिये हैं। जिधर भी दृष्टि जाती है, भगवान् ही भगवान दिखाई देते हैं। बड़ी ही भव्य रचना है, प्रतिवर्ष तीर्थ-यात्रियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी होती जा रही है। जब तक नभ में सूरज-चाँद चमकते रहेंगे, तब तक आपकी कीर्ति चमकती रहेगी। जम्बूद्वीप संस्थान से "सम्यग्ज्ञान" हिन्दी मासिक पत्र १८ वर्षों से निकल रहा है। पूज्य माताजी की स्याद्वादमयी सशक्त लेखनी द्वारा चारों अनुयोगों पर उसमें लेख बराबर निकलते हैं, जो वस्तुतः पठनीय हैं और स्वाध्याय का आनन्द प्रदान करते हैं। वास्तव में पूज्य माताजी की सेवाएँ बहुमूल्य हैं और समाज की आप मानी हुई महान् विभूति हैं। शत-शत वन्दन, शत-शत अभिनन्दनपूर्वक विनम्र विनयांजलि अर्पित है। संस्मरण एवं विनयांजलि -पं० गणेशीलाल जैन, साहित्याचार्य, आगरा पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का कृतित्व एवं व्यक्तित्व उस समय विशेष रूप से प्रकट हुआ, जब प्राचीन तीर्थस्थल हस्तिनापुर क्षेत्र की नवीन भूमि पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा जम्बूद्वीप निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ। माताजी के आशीर्वाद एवं पूर्ण सहयोग से १९७८ में दशहरा के पुण्य अवसर पर एक विशाल शिक्षण शिविर का आयोजन हुआ। दूर-दूर के शतशः विद्वानों एवं शोधार्थी शिक्षकों ने सम्मिलित होकर इसे सफल बनाया था। कर्मठ समाज सेवी सेठ गणेशीलाल रानीवाला एवं सेठ त्रिलोकचंद जी कोठारी आदि सहयोगियों ने तन-मन-धन से परिश्रम द्वारा इसे पूर्णता को प्राप्त कराया। मैं भी इस सम्मेलन में उपस्थित हुआ था। सर्वप्रथम इसी सम्मेलन में ससंघ मुझे भी पू० ज्ञानमती माताजी की मोहिनी छवि के दर्शन प्राप्त हुए थे। यहीं शिक्षण, भाषण, लेखन एवं साहित्य तथा अलौकिक प्रतिभा का परिचय भी प्राप्त हुआ। इस समय तक मैंने आगरा के महाविद्यालय से पूर्णावकाश भी प्राप्त कर लिया था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला विविध कार्यकलापों से मुझे ज्ञात हुआ कि संस्थान की प्रबंध समिति यहाँ एक संस्कृत महाविद्यालय स्थापित करना चाहती है । आगरा लौटकर मुझे विदित हुआ कि प्रस्तावित "श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ" के संयोजन तथा प्राचार्य का भार मुझ पर ही रखा गया है आश्चर्य हुआ कि इस गुरुतर भार को मैं अपने निर्बल कंधों पर कैसे वहन कर सकूँगा। श्री वीरसागर विद्यापीठ की स्थापना १० जुलाई १९७९ के शुभ मुहूर्त में मैंने उक्त विद्यापीठ का कार्यभार प० पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद के साथ ग्रहण किया था। स्वराज्य प्राप्ति के पश्चात् शिक्षा के क्षेत्र में भी क्रान्ति हुई। नगर नगर और ग्राम ग्राम में विविध भाँति को शिक्षा के द्वार खुले। साहित्य, कला, विज्ञान और व्यवसाय के विविध क्षेत्रों में प्रगति पथ का विकास हुआ। संस्कृत विद्यापीठ ने भी विकास में अपना योगदान किया। समय के अनुसार लोक शिक्षा की संस्थाओं का भी सहयोग प्राप्त किया, प्रवेशिका, विशारद, शास्त्री एवं आचार्य कक्षाओं तक सभी परीक्षा भक्तों द्वारा विशेषता के साथ उत्तीर्ण की गईं। सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त-भक्ति, लोक सेवा, काव्य रचना, युक्ति एवं मुक्ति के क्षेत्र में भी ख्याति प्राप्त की । सन् १९८५ से तो भारतवर्ष में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, सिद्धचक्र विधान, त्रैलोक्य मंडल विधान, कल्पद्रुम विधान आदि द्वारा भक्ति एवं अहिंसात्मक आंदोलन की समाज में विशेष जागृति आई सन् १९८५ के पश्चात् जंबूद्वीप रचना का कार्यक्रम सम्पन्न करके आर्यिकारत्न माताजी ने सम्पूर्ण विद्यापीठ को शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया है। पौराणिक क्षेत्र हस्तिनापुर प्राचीनकाल के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा-दीक्षा में भी प्रगति पथ पर अग्रसर है। यह निर्दोष कृतित्व एवं व्यक्तित्व विश्व का नयनपथगामी हो, यही मेरी भी हार्दिक कामना है। ऐतिहासिक विभूति • पं० कोमलचन्द्र जैन शास्त्री, लोहारिया यथा नाम तथा गुणों से युक्त पूज्य श्री आर्थिकारण शनमती माताजी ने अपने जीवन के अल्पकाल में जो चिरस्मरणीय कार्य किया है वह दिगम्बर जैन धर्म का ऐतिहासिक प्रतीक रहेगा। जम्बूद्वीप रचना तथा साहित्य का सार समयानुकूल संकलित, संवर्द्धित, अनुवादित तथा स्व-रचित कृतियों से भव्यजीवों को जो ज्ञानज्योति दी है वह ऐतिहासिक है। उनकी त्याग, तपस्या आगमरक्षक भावना जनसाधारण से भी छिपी नहीं है। आपकी शैली स्पष्ट, सरल, मृदु तथा व्युत्पत्तिपरक होने से विद्वत्गणों के लिए भी अनुकरणीय है। कातंत्र व्याकरण की पाठन शैली पंचमपट्टाधीश आचार्य श्री श्रेयांससागरजी महाराज की हमने देखी है, जिसका हिन्दी अनुवाद कर माताजी ने व्याकरण क्षेत्र में शिष्यों को दिशा बोध प्रदान किया है। अस्तु, पूज्य माताजी एकान्तवासी होने पर भी इनकी वाणी चहुँओर गाँव-गाँव तक पहुँचती है मेरी हार्दिक भावना है कि ज्ञानमती का ज्ञानप्रकाश अक्षुण्ण रहे, इन्हीं मंगल भावनाओं से विनयांजलि प्रस्तुत है । Jain Educationa International सजीव सरस्वती - स्व० लक्ष्मीचन्द्र "सरोज" एम०ए०, जावरा [म०प्र० ] आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के मेरी दृष्टि में एक से अधिक रूप हैं। वे लेखिका, कवयित्री, पूजाकार, दीपिकाकार, कहानीकार, बाल-लेखिका हैं। ब्रह्मचारिणी, क्षुल्लिका, आर्यिका से गणिनी बन चुकी है। सम्यग्ववान मासिक में लगभग अट्ठारह वर्षों से चारों अनुरोगों को विशद चर्चा कर, नियमित दिनचर्या, पठन-पाठन, मनन-चिन्तन, सृजनात्मक साहित्य, अथक अध्यवसाय ने उन्हें आशातीत असाधारण बना दिया। त्रिलोक शोध संस्थान की वे मूलभूत चेतना है और सुदर्शन मेरु, महावीर कमल मन्दिर, ह्रीं मन्दिर को जन्म-जीवन दे वास्तुकलाविद बनीं अतीत के हस्तिनापुर की कीर्ति कथा को उन्होंने आधुनिक कीर्ति-कथा से जोड़ दिया है। 1 बीसवीं शताब्दी की दो महिलाओं की प्रतिभा और साहित्य से मैं बड़ा प्रभावित हुआ एक महादेवी वर्मा थीं दूसरी ज्ञानमती माताजी हैं। महादेवी और ज्ञानमती दोनों ने ही अपनी संज्ञा सार्थक की एक साहित्यिक दार्शनिक, चित्रकार हैं तो दूसरी धार्मिक दार्शनिक पौराणिक हैं। चारों For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१०५ अनुयोगों की सुविशद् चर्चा करके ज्ञानमतीजी सजीव सरस्वती हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर उनका समाज जितना गौरव करे, कम ही है। पूज्य ज्ञानमतीजी की कीर्ति-कथा पूर्णिमा की चन्द्रिका-सी समग्र भारत संघ को दीर्घ काल तक सुखदायिनी वरदायिनी बनी रहे। अपने रत्नत्रय धर्म की आराधना करती हुई वे समग्र समाज को सम्यग्दर्शन-मार्ग-दर्शन देती रहें, यही मेरी मनोभावना-शुभकामना है। साधनारत आदर्श आर्यिकारत्न - पं० सत्यंधर कुमार सेठी, उज्जैन वर्तमान जगत् के महान् दिगम्बर जैन संतों में जम्बूद्वीप रचना की प्रेरणास्रोत परम श्रद्धेया पूज्य १०५ श्री ज्ञानमती माताजी का उल्लेखनीय स्थान है। मैं उनको एक आदर्श साधनारत आर्यिकारत्न के रूप में मानता आया हूँ। ___ पूज्य माताजी का जीवन एक आदर्श और साधनारत जीवन है। इस अल्प जीवन में माताजी द्वारा साहित्य रचना, जम्बूद्वीप स्थापना, शोध संस्थान जैसी संस्थाओं को जन्म देकर जो कीर्ति प्रसारित की गयी है वह सदियों तक स्मरणीय रहेगी। जम्बूद्वीप रचना तो एक स्मरणीय तीर्थ ही बन गया है। जहाँ जाने पर मानव को शांति का अनुभव होता है। मुझे पूज्य माताजी के दर्शन करने का कई बार सौभाग्य मिला है, जब भी मैं चरणों में गया तब ही मैंने उनको एकांत स्थल में अध्ययन करते ही देखा। वास्तव में ज्ञान, ध्यान, तप ही उनका जीवन है। उसी का यह परिणाम है कि अष्टसहस्री जैसे महान् ग्रंथों की हिन्दी भाषा में रचना करके विद्यार्थी जगत् को पढ़ने के लिए सुगम बना दिया है। उनका एक ही लक्ष्य रहा है, माँ जिनवाणी माता का प्रचार और प्रसार करना। विद्वानों के प्रति भी उनकी भावनाएँ सदैव उदार रही हैं। इसीलिए उन्होंने कई बार गोष्ठियों का आयोजन करवाया है। साथ में राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव तथा मानवीय भावनाओं को प्रसारित करने में भी उनका अनुपम सक्रिय योगदान रहा है, ऐसी महान् आर्यिकारत्न के चरणों में श्रद्धा प्रकट करता हुआ मैं अपने आपको धन्य मानता हूँ और भावना भाता हूँ कि श्रद्धेय माताजी दीर्घ जीवन प्राप्त करती हुई माँ सरस्वती की सेवा करती हुई आदर्श जीवन को प्राप्त करें। "सही अर्थों में ज्ञानमती हो तुम !" -पं० सुलतान सिंह जैन, शामली ज्ञानमती के कृतित्व :- पू० माताजी प्रारंभ से ही प्रखर बुद्धिमान् हैं। फलतः इन्होंने अपने ज्ञान-ध्यान का सदुपयोग कर ऐसे-ऐसे अविस्मरणीय कार्य कर दिखाये हैं, जिनसे युगों-युगों तक इनका नाम अमर रहेगा। (क) साहित्य-सृजन :- आर्यिका ज्ञानमतीजी ने अपनी प्रखर बुद्धि एवं प्रतिभा द्वारा कठिन से कठिन तथा सरल से सरल करीब १५० ग्रन्थों की रचना कर प्रकाशित कराये हैं, जिनमें प्रमुख हैं- समयसार, नियमसार, अष्टसहस्री, सर्वतोभद्र महामण्डल विधान, तीनलोक विधान, त्रैलोक्य विधान, तीसचौबीसी तथा पंचमेरु विधान, बाल विकास चार भागों में आदि। (ख) निर्माण कार्य :- करणानुयोग के तिलोयपण्णत्ति एवं त्रिलोकसार में वर्णित जम्बूद्वीप-रचना को पृथ्वीतल पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मूर्तरूप देकर (निर्माण कराकर) आपने जो चिरस्मरणीय कार्य किया है, उसकी कोई सपने में भी तुलना नहीं कर सकता था। वस्तुतः इसी महान् कार्य के कारण आज हस्तिनापुर क्षेत्र का जहाँ विकास हुआ है, वहीं वह भारत का प्रमुख पर्यटन-स्थल भी बन गया है। सहस्रों तीर्थयात्री यहाँ के कायापलट दृश्यों को देखकर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। (ग) जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन :-४ जून, १९८२ को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का लालकिला, दिल्ली के मैदान से प्रवर्तन आरंभ किया था, जिसने भारत के कोने-कोने में घूमकर प्राचीन जैन-साहित्य एवं भगवान् महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इसका समापन समारोह दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर के प्रांगण में तत्कालीन रक्षामंत्री श्री पी०वी० नरसिंहराव (वर्तमान प्रधानमंत्री) द्वारा किया गया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला (घ) सेमिनारों तथा शिविरों का आयोजन :- पू० माता ज्ञानमतीजी के अथक प्रयास एवं अद्भुत क्षमता से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान में विभिन्न विषयों से संबंधित समय-समय पर प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों तथा शिविरों के अनेक आयोजन किये जाते रहे हैं। जिनमें विश्व के अनेकानेक विद्वानों, सिद्धांतशास्त्रियों, गणितज्ञों, शिक्षार्थियों आदि ने सम्मिलित होकर अपने-अपने गहन एवं उत्कृष्ट विचारों से आम जनता को लाभान्वित किया है। (ङ) भक्ति, संगीत का प्रमुख स्त्रोत :- गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने भक्ति एवं संगीत के सामंजस्य का जो रिकार्ड स्थापित किया है, वह पूर्णतः उत्कृष्ट है। अब से १६ वर्ष पूर्व भारत में यत्र-तत्र केवल सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान कर इतिश्री हो जाती थी, किन्तु माताजी द्वारा इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र महामण्डल विधान, तीनलोक विधान, त्रैलोक्य विधान आदि विधानों की रचना करने से भारत में सर्वत्र इन्द्रध्वज एवं कल्पद्रुम आदि विधानों की दुन्दुभी बज रही है । भक्तजन जिसे सुनकर भक्तिभावों में लवलीन होकर झूम उठते हैं । वस्तुतः धर्म का गूढ़ से गूढ़ रहस्य इन विधानों की जयमालाओं में भरा पड़ा है। आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी की उपर्युक्त अपार, अमिट, अपूर्व सेवाओं से सम्पूर्ण समाज प्रेरित है। यह कहना उपयुक्त होगा कि "मधु भाषिनी सुवासिनी हो तुम, ज्ञान की तीव्र मन्दाकिनी हो तुम । नव-ज्ञान सृजन कारिणी हो तुम, अज्ञानी को ज्ञान प्रदायिनी हो तुम ॥ १ ॥ धर्म ज्ञान प्रचारिनी हो तुम, विश्व-हित-मित बखानती हो तुम । सूर सम आभा प्रसारती हो तुम, सही अर्थों में ज्ञानमती हो तुम ॥ २ ॥ Jain Educationa International ज्ञान की अमर मूर्ति : आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी ज्ञान की अमर ज्योति आर्यिकारत्न गणिनी पूज्य ज्ञानमती माताजी को कौन नहीं जानता? जो एक बार हस्तिनापुर हो आया उसे माताजी के दर्शन हुए या न हो पाये हों, लेकिन उनकी अमरकृति जम्बूद्वीप के उच्चतम शिखर को देखकर उनके सारे जीवन को पढ़ लेगा कि कितना अगाध ज्ञान एवं जैन भूगोल व प्राचीन जैन इतिहास का ज्ञान स्मरण इनके स्मृति पटल पर अंकित है। इसे केवल संगमरमर पत्थर का स्तंभ मत मानिये, बल्कि जैन सैद्धांतिक भूगोल का यह नक्शा हमें सम्पूर्ण अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना उनकी व्यवस्था आदि का परिचय करा देता है। यह सचमुच एक अनोखा और अद्भुत कार्य माताजी के सम्पूर्ण जीवन को आलोकित एवं अमर बना चुका है। मैंने माताजी के पहली बार ही दर्शन किये थे। हस्तिनापुर में देखते ही बोली कहिये पं० कमलकुमारजी कब आये ? एक ही बार में अपनी ओर आकर्षित कर आत्मीयता और वात्सल्य का भाव बरवश हमें खींच रहा था। आपने अनेकों प्रन्थों की टीका की, हिन्दी अनुवाद किये अनेक मौलिक रचनाएँ भी कीं इन्द्रध्वज विधान, जम्बूद्वीप विधान, कल्पद्रुम विधान, त्रैलोक्य तिलक विधान आदि प्रमुख है इतनी सरलता भर दी है उनमें, इसके साथ ही विधानों की विधि भी उनमें अंकित है। 1 आज सारे भारत में आपके रचे विधानों की धूम मची है कोई भी विद्वान् इन विधानों को पढ़कर करा लेता है। - पं० कमल कुमार शास्त्री, टीकमगढ़ - अष्टसहस्त्री नियमसार आदि ग्रन्थों की टीका की । सारा जीवन साहित्य सृजन, ज्ञानाराधन में बीत रहा है। आप अनेक संस्थाओं की जनक । हैं जैसे त्रिलोक शोध संस्थान, विद्यालय, वौरज्ञानोदय ग्रन्थमाला आदि संस्थाएँ संचालित हैं। इनके गुणों की महिमा कहाँ तक गाई जाये। मैं पूज्य माताजी के चरणों में अपनी विनयांजलि समर्पित कर मंगलमय जीवन की, दीर्घायु के लिए मंगलकामना करता हूँ । For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ माताजी की बेजोड़ वक्तृत्व कला वर्तमान में गृहस्थ जीवन के गुरुओं ने तो केवल अक्षर मात्रा की शिक्षा दी, परन्तु माताजी ने उस शिक्षा को अपनी साधना से सांगोपांग बना दिया । इससे इनका नाम भी "ज्ञानमती" सार्थक सिद्ध है । सर्वत्र ज्ञान का ही चमत्कार है। बिजली, हवाई जहाज, टेलीविजन आदि में व्यवहार ज्ञान का चमत्कार सर्वत्र देखा जाता है। पूज्य माताजी के पास "आगम ज्ञान" का चमत्कार देखा जाता है, इससे सर्वत्र नमस्कार होता है । 'चमत्कार को नमस्कार' यह युक्ति चरितार्थ सिद्ध हो गई। पूज्य माताजी की वक्तृत्व कला भी बेजोड़ है। चारों अनुयोगों के माध्यम से प्रवचन होता है। जिसको सुनकर जनता मुग्ध हो जाती है और एक जादू का काम करता है। [१०७ - पं० अमृतलाल जैन शास्त्री, दमोह जिस नगर में पू० माताजी के अनेक छन्दों से बनाये गये विधान होते हैं उनकी सुन्दर मधुर ध्वनि से सभी जनता प्रभावित हो उठती है। पूज्या माताजी की जय हो, पूर्ण मंडप में जयध्वनि गूंज उठती है। अष्टसहस्री न्यायशास्त्र का अपूर्व ग्रन्थ है, जिसको समझना, पढ़ना कठिन होता था, जिसे छात्र " कष्टसहस्री" कहते थे, परन्तु माताश्री ने इसका सरल अर्थ कर दिया है, जिससे उसका नाम "सहजसहस्त्री" हो गया है। अर्थ का सबकी समझ में आना, इसीलिए इसको सहजसहस्त्री कहा गया है। गणित विषय -तिलोय पण्णति महान् ग्रन्थ है, जिसमें गणित विषय को सरल पद्धति से सरल कर दिया है। उनके नाप आदि की व्यवस्था के मुताबिक श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र हस्तिनापुर महानगरी में जहाँ शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ भगवानों के चार चार कल्याणक मनाये गये हैं। उस महानगरी में जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, तालाब, नदियाँ, समुद्र सबका जैसा शास्त्र में वर्णन आया है, उसके मुताबिक एक अनोखी रचना का निर्माण कराकर आपने श्लाघनीय कार्य किया है। Jain Educationa International भारतवर्ष या विश्व में ८ आश्चर्यों की गणना है, परन्तु इस अनोखी रचना से विश्व में एक नए आश्चर्य की गणना अस्तित्व में आयी है। वह रचना अपने में अद्वितीय है, दर्शनीय है, जिससे माताश्री का नाम अपने आप विश्व में "आर्यिकारत्र ज्ञानमती" के नाम से विख्यात होता रहेगा। पू० माताश्री शतायु होकर स्त्रीलिंग छेदकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की भावना से एक अपूर्व पद की प्राप्ति करें और चार घातिया कर्मों का नाशकर "केवलज्ञान ज्योति" प्रकट करें। जिससे आपका यशोगान सर्वत्र फैले। यही हमारी इस शुभ अवसर पर मंगलकामना है। सहृदय वात्सल्य से समन्वित पं० जीवनलाल शास्त्री प्राचार्य श्री स्वाद्वाद सिद्धान्त संस्कृत महाविद्यालय, ललितपुर [उ०प्र० ] जिनमार्ग रुचि सम्पन्न दिव और शिवपथ के अन्वेषण में तत्पर चार अनुयोगों के प्रसार से सम्यग्ज्ञान पथ को प्रकाशित करने वाली, भवभोग तन विषयों से विरक्त / आज्ञापाय विपाक संस्थान विषरूप चारों धर्मध्यानों में अनुरक्त, परमविशुद्धि के साधन-अष्टांग सम्यग्दर्शन गुणों से सुशोभित, संयम भावयुक्त, साधुसज्जनों के प्रति सहृदय वात्सल्य से समन्वित, स्वपुण्य प्रताप एवं क्षयोपशम ज्ञान से विलक्षण ज्ञानमती नाम की सार्थकता धारण करने वाली, सहजस्नेहमयी सौम्य स्वभाव की आभा को विस्तारती, स्त्रीपर्याय में भी जन-जन के मन में सद्धर्म की ओर प्रेरणा करने वाली, धर्मज्ञानमय पवित्र जीवन के सार तत्त्वरूप क्षमता को प्राप्त गणिनी एवं आर्यिका जैसे पूज्य पद में विराजित पूज्य ज्ञानमती माताजी को इस अभिवंदन के पावन अवसर पर मेरी विनयांजलि समर्पित है। इस दुःखम पंचमकाल में पक्षातीत होना तथा पंथविवाद से रहित होना सर्वहितकर सारभूत तत्त्व प्राप्ति के लिए अति दुष्कर कार्य है, इस हेतु माताजी का प्रयास सराहनीय है। For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला एक अविस्मरणीय संस्मरण -पं० भैयालाल शास्त्री आयुर्वेदाचार्य शिवपुरी [म०प्र०] पूज्य माताजी के चरण सान्निध्य में अनेक बार मुझे बैठने का, सुनने का, समझने का अवसर मिला है। एक अविस्मरणीय-संस्मरण पाठकों की सेवा में रख रहा हूँ, यदि एक भी संज्ञी मानव ने इस संक्षिप्त संस्मरण से लाभ उठाया तो वह धन्य हो जायेगा और मैं अपने को धन्य समझेंगा। सन् १९८९ में जब समूचे देश के शीर्षस्थ विद्वान् शास्त्रियों का एक विशाल शिविर सेमिनार पूज्य माताजी ने आयोजित किया था, तब मैं भी उपस्थित था। माताजी ने निरन्तर सप्ताहान्तक अपने प्रवचनों के माध्यम से विद्वानों को उद्बोधित किया, उनके द्वारा दिया गया कुन्दकुन्द देव की वाणी का प्रवचन मानव मन को मंत्रमुग्ध कर देता था, इस अवसर पर विभिन्न प्रान्तों से श्रेष्ठिवर्ग तथा विद्वत् वर्ग तो उपस्थित थे ही, पर अभूतपूर्व सम्मेलन जिनागम, जिनवाणी के चलते-फिरते तीर्थस्वरूप गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज आदि ऋषियों ने पदार्पण किया, उनके प्रवचन उद्बोधन का लाभ भी विद्वानों को मिला। अपूर्व दिशा निर्देशन के साथ समयसार की वाचना, शंका-समाधान आदि का कार्यक्रम अनूठा ही था, पूज्य माताजी ने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि कुन्दकुन्द देव के ग्रन्थों में से अनुपम ग्राह्य सिद्धान्त रत्नों का चयन करके १०८ गाथाओं की एक "कुन्दकुन्द मणिमाला" साधारण से लेकर विद्वानों तक एक आगम ज्ञानदिशा आध्यात्मिक आहार के रूप में प्रदान की। पूज्य माताजी का कहना था कि जो इस "मणिमाला" को कण्ठस्थ कर कंठ में धारण करेगा वह ऐहिक और पारलौकिक सुखों को भोग कर चिरसुखी हो जायेगा। पू० माताजी का तत्त्वचिन्तन, प्रवचन शैली विद्वान् जिज्ञासुओं के लिए अनुग्राह्य है। उनका कहना है कि आत्म शुद्धि के लिए स्वाध्याय नितान्त आवश्यक है, ध्यान की एकाग्रता श्रुताराधन के चिंतन, मनन से ही होती है। श्रुत आराधन से कर्मों की निर्जरा होती है निर्वाण पद प्राप्त होता है; अतः विद्वानों को स्वाध्याय हेतु कुन्दकुन्द देव के रचे हुए चौरासी पाहुड़ों में जो उपलब्ध है, उनमें से गाथाओं को चुन-चुनकर "मणिमाला" का सृजन किया है। जो विद्वान् पाठक स्याद्वाद नीति के द्वारा श्रावकों को सही और उचित दिशा का दिग्दर्शन करायेंगे वे सम्यग्दृष्टि होकर अणु-महाव्रती बनकर मोक्ष भाजन होंगे। यथार्थ में ज्ञानमूर्ति हैं ज्ञानमतीजी -पं० बच्चूलाल जैन शास्त्री, कानपुर इस भोग प्रधान युग में चारित्र मार्ग पर आरूढ़ होने वाली सिद्धान्त वाचस्पति न्यायप्रभाकर विद्यावारिधि आर्यिकारत्न पूज्या ज्ञानमती माताजी यथार्थ में ज्ञानमूर्ति हैं। आपकी कृतियों में सरस माधुर्य, कविता की कोमलता व त्याग-तपस्या का तेज दोनों ही पूर्णतया व्याप्त हैं। मुझे आपके दर्शनों का जब-जब भी शुभावसर प्राप्त हुआ तब हमेशा अपूर्व वात्सल्य, आगम के असाधारण ज्ञान के साथ चारित्र के उत्कृष्ट समागम की छाप मेरे हृदय पर पड़ती रही। सत्य, संयम, शील का बाना पहनकर अपनी विवेकपूर्ण लेखनी द्वारा अनेक प्रामाणिक ग्रंथों का सरल भाषा में अनुवाद व अनेक स्व-पर कल्याणकारी ग्रंथों को गद्य व पद्य रूप में लिखकर हमें जो निधि प्रदान की है, वह आज एकांत ध्वान्त को चीरती हुई आर्षमार्ग की ज्योति को अक्षुण्ण रीति से जन-साधारण को प्रकाश देने में अपना अद्वितीय स्थान रखती है। धन्य है ऐसी ज्ञान और चारित्र पर अपना समान अधिकार रखने वाली कर्तव्यनिष्ठ महिला रत्न को, जिनके द्वारा निर्मित करणानुयोग ग्रथों में वर्णित जम्बूद्वीप सुमेरु पर्वत जैसी भौगोलिक कृतियों को हमारा समाज ही नहीं, बल्कि इस ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर में आने वाले जन साधारण को गौरव प्रदान करती रहेंगी व सभी के आत्मोत्थान के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगी। मैं श्री जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करता हूँ कि उनके चरणों का प्रभाव पूज्य माताजी को दीर्घायु प्राप्ति में सहायक हो। इस सद्भावना के साथ पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में मैं अपनी विनयांजलि अर्पण करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१०९ जब मैंने जम्बूद्वीप का प्रथम दर्शन किया -पं० प्रवीण कुमार जैन, शास्त्री कुटेशरा [मुजफ्फरनगर] भर्तृहरि ने कहा है संसार कटुवृक्षस्य, द्वे फले ह्यमृतोपमे । सुभाषित रसास्वादः, संगतिः सुजनैर्जनैः ॥ वस्तुतः संसार महाकटु है। उसमें भी कलियुग-हुण्डावसर्पिणी काल। वर्तमान युग की भयंकरता में मानव जीवन त्रस्त हो रहा है, मानवता काँप रही है, चारों ओर अत्याचार-अनाचार, अनीति और उत्पात छाये हुए हैं। वर्तमान काल में हुण्डावसर्पिणी काल होते हुए भी बड़ा आश्चर्य है कि जैन जगत् में जहाँ महान् तपस्वी साधु हैं। वहाँ महान् साध्वी भी पीछे नहीं हैं। आज जैन साध्वियों में यदि ऊँगली पर पहला नम्बर आता है तो आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का, जिन्होंने अपने जीवन में विपुल साहित्य का जो निर्माण किया है वह हम लोगों के लिए बड़े गौरव की बात है। परम पूज्य माताजी ने इतने महान् ग्रन्थ जैसे अष्टसहस्री, नियमसार, समयसार, कातंत्र व्याकरण आदि क्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थों की हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में जहाँ टीकाएँ लिखी हैं, वहीं पर युवा पीढ़ी और बालकों के हित को ध्यान में रखते हुए जैन पुराणों पर उपन्यास एवं प्राथमिक शिक्षा के साधन बालविकास, जैसी पुस्तकों की भी रचना की है। पूज्य माताजी की मानवमात्र के हित में लेखनी चलती ही रहती है। पूज्य माताजी का उद्देश्य यही रहता है कि अधिक से अधिक प्राणियों का कल्याण हो। वे स्वास्थ्य नरम होते हुए भी कभी प्रमाद नहीं करती हैं। आज जितनी रचनाएँ पूज्य माताजी ने की हैं उतनी रचनाएँ २५०० वर्ष के इतिहास में किसी आर्यिका ने नहीं की। इनकी लेखनी के पश्चात् तो कई आर्यिकाओं ने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया। आगम वर्णित जम्बूद्वीप रचना की ओर किसी साधु या साध्वी का ध्यान ही नहीं गया । यदि ध्यान गया तो एक इन्हीं आर्यिकारत्न पूज्य ज्ञानमती माताजी का। आज हम लोग जो हस्तिनापुर की पावन पृथ्वी पर साक्षात् जम्बूद्वीप की रचना देख रहे हैं। वह रचना कराई किसने,पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने । जहाँ हर रोज हजारों नर-नारी दूर देशों से चलकर देखने आते हैं। हर समय यात्रियों का ताँता-सा लगा रहता है। इसके दर्शन करके यात्री बड़ा आनंद मानता है। यही कहता रहता है, धन्य हो पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी को। आज सर्वत्र कोई नाम गूंज रहा है, तो इन्हीं पूज्य ज्ञानमती माताजी का। पहले तो जम्बूद्वीप की रचना सीमित थी किताबों तक, लेकिन हस्तिनापुर में दर्शन होते हैं साक्षात् जम्बूद्वीप के। जब मैंने प्रथम बार जम्बूद्वीप के दर्शन किये तो मुझे ऐसा लगा कि क्या मैं ये स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ या कहीं मुझे मनुष्य पर्याय से देवगति तो नहीं मिल गयी है। काफी देर बाद महसूस हुआ। अरे बड़ा आश्चर्य है, धन्य हो आर्यिका ज्ञानमती माताजी को। यदि हुण्डावसर्पिणी काल में इस पृथ्वी पर कहीं कोई चीज देखने लायक है तो यही जम्बूद्वीप। मैं तो यहाँ तक विश्वास रखता हूँ कि जैन इतिहास में नहीं, बल्कि विश्व भर में इस जम्बूद्वीप का नाम होगा, आगे आने वाले इतिहास में जब तक सूर्य-चन्द्रमा रहेंगे, इसी जम्बूद्वीप का तथा आर्यिका ज्ञानमती माताजी का नाम गूंजेगा। मैं पूज्य माताजी के चरणों में नमोस्तु करता हूँ और यह भावना भाता हूँ कि माताजा दीर्घायु हों। साध्वी हो तो ऐसी -पं० मिलापचंद शास्त्री, जयपुर पूज्य सिद्धान्त वाचस्पति गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। आप प्रकाण्ड विदुषी हैं। आपका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बेजोड़ है। ज्ञानार्जन, साहित्य-सृजन एवं धर्म प्रचार आपके जीवन का प्रमुख आधार है। आप आगम मर्मज्ञा, प्रखर व्याख्यात्री, मृदुभाषी सरलता एवं सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। कहना सो करना और करना सो कहना आपके जीवन का ज्योतिबिंदु है। आपने अपने कार्यकलापों से सिद्ध कर दिया है "क्या कर नहीं सकती महिला जिसको अबला कहकर तिरस्कृत किया जाता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आपने करीबन १५० छोटे-बड़े मौलिक ग्रन्थों का निर्माण कर साहित्य जगत् को समृद्ध बनाने में अपूर्व योगदान दिया है। जम्बूद्वीप का निर्माण आपके उर्वर मस्तिष्क की बेजोड़ उपज है। 1 ज्ञानज्योति की भारत यात्रा के द्वारा आपने भारत के जनमानस को अहिंसा एवं नैतिकता का पाठ पढ़ाया है सम्यग्ज्ञान पत्रिका के प्रकाशन द्वारा धार्मिक जगत् में अद्भुत क्रांति का शंखनाद किया है। वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला की स्थापना द्वारा उपलब्ध एवं अप्रकाशित ग्रंथों के प्रकाशन में अपूर्व सहयोग दिया है। आपके जीवन का एक कार्य आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना भी है, जहाँ से प्रतिवर्ष विद्वान् तैयार होकर धर्म एवं समाज की अपूर्व सेवा कर रहे हैं और करते रहेंगे । मेरी उत्कट भावना है कि माताजी चिरायु बनकर जिनशासन की सेवा करती रहें । अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी माताजी - - पं० रतनचन्द्र शास्त्री, रहली [ सागर] म०प्र० पूज्य श्री १०५ आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आगमानुकूल विद्वत्तापूर्ण प्रभावक प्रवचनों, लेखों, स्वतंत्र रचनाओं, अनुवादों के सरल सुबोध आर्ष परंपरा के साहित्य लेखन की अपूर्व धनी है। आपका पाण्डित्य एवं चारित्र असाधारण है, आपने सारे देश में बिहार करके देवशास्त्र गुरु के प्रति अवर्णवाद करने वाले एकान्तवादियों को ओजस्वी प्रवचनों द्वारा अवर्णवाद का खण्डन कर धर्म की अपूर्व प्रभावना की, उसे युगों-युगों तक नहीं भुलाया जा सकता । स्वभाव में सरलता, वाणी में मृदुलता, सिद्धांत में अडिगता, वाणी में ओजस्विता आदि विशेषताओं के कारण आपका स्थान गणिनी आर्यिकाओं में शीर्षस्थ है। आपने ज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए अनेक कार्य किये और चारित्र को धारण करके यथानाम तथागुण के अनुसार अपने नाम को सार्थक किया। आप कुन्दकुन्द आचार्य के पद चिह्नों पर चलकर यथार्थ में अनेक धार्मिक योजनाओं, उपदेशों द्वारा समाज को सन्मार्ग दिखाकर स्व-पर कल्याण कर रही हैं, यह आपकी अगाध विद्वत्ता का परिचायक है। अभिवन्दन ग्रंथ समर्पण समारोह के अवसर पर मैं सिद्धांत वाचस्पति माताजी का हार्दिक अभिनन्दन करता हुआ उनके दीर्घ यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ । Jain Educationa International त्याग और साधना की अनुपम गाथा पं० दरबारीलाल शास्त्री, ललितपुर तपोमूर्ति, जैन साहित्य साधना में निरत, जैन भूगोल को हस्तामलकवत् दृश्यमान् करने वाली, आर्यिकारत्न माता ज्ञानमतीजी के चरणों में विनयांजलि अर्पित करूँ, यह मेरा परम सौभाग्य है। आपने अपने नाम के अनुरूप जैन-साहित्य साधना की चकाचौंध से जन-जन को चमत्कृत कर दिया है। त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम से विशाल और अद्भुत विस्तृत जम्बूद्वीप की रचना को लघु संस्करण के रूप में प्रस्तुत कर, हाथ पर रखे आँवले के समान दृष्टव्य कर अपनी अद्भुत चिन्तन क्षमता का परिचय दिया है। उनकी यह रचना युग-युग तक उनका कीर्तिगान करती रहेगी। इन्द्रध्वज मण्डल विधान के सम्बन्ध में बुन्देलखण्ड की एक घटना है कि एक श्रद्धालु जैनसेठ ने शास्त्रों में इन्द्रध्वज विधान का उल्लेख पाया। उसके अनुसार सेठ ने इन्द्रध्वज विधान कराने का निश्चय किया। विशाल और विस्तृत आयोजन के पश्चात् जब इस विधान की कोई पुस्तक नहीं प्राप्त हुई तब वह बहुत दुःखी हुआ। बहुत खोज के बाद संस्कृत की एक प्रति जो अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी, प्राप्त हुई, उसे कोई पड़ने वाला संस्कृत का विद्वान् नहीं मिला। निराश होकर सभी ने एक साथ "उदक, चन्दन, तन्दुल, पुष्पकै" पढ़कर समस्त द्रव्य समुच्चय अर्घ्य के द्वारा चढ़ा दिया गया। इस प्रकार यह विधान पूरा हुआ। वही विधान आज हिन्दी भाषा में जन-जन के हाथ में है और जगह-जगह गान-तान, स्वर-संगीत और नृत्य के साथ भारतवर्ष में हो रहा है। माताजी की कृपा से ऐसी और अनेक रचनाएँ अप्राप्त थीं, वे सहज प्राप्त हैं। मैं पूज्य माताजी के चरणों में शत-शत नमन करता हूँ For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ वात्सल्य मूर्ति Jain Educationa International पं० रतनचंद जैन शास्त्री, बामौर कलां [म०प्र० ] सन् १९७९ में होने वाले जम्बूद्वीप स्थित सुमेरु पर्वत पर विराजमान जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के अवसर पर गजरथ का कार्यक्रम सर्वप्रथम उत्तरप्रदेश की पावन भूमि हस्तिनापुर में आयोजित किया गया । इस कठिन कार्य को माताजी का वरद आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं हुआ, वरन् सर्वस्व समर्पण भाव से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ का संचालन हुआ । गजरथ का प्रचार-प्रसार इसके पूर्व बुन्देलखण्ड में ही होता आ रहा था। इस कार्य को सुलभ बनाने के लिए गजरथों का जिन्होंने सम्पादन संचालन किया हो, ऐसे आदमी की तलाश हुई और मेरा नाम सर्वश्री बाबूलालजी जमादार सा० जो शास्त्री परिषद् के प्राण थे, जिनकी देख-रेख में यह कार्य सम्पादन होना था, उनके द्वारा लिया गया और मुझे बुलाने के लिए आदमी भेज दिया, लिखा कि गजरथ लेकर शीघ्र चले आओ। जब मैं माताजी के सामने पहुँचा तो माताजी अपूर्व वात्सल्य भावना से बोलीं कि भैया तुम्हें रास्ते में बहुत कष्ट हुआ होगा, अब तुम पहले स्नान, ध्यान कर भोजन करो, विश्राम के बाद कार्यक्रम बनायेंगे। [१११ बस, जब मैं विश्राम के बाद माताजी के सम्मुख पहुँचा तो उन्होंने पथ निर्माण के लिए कहा- ऐसा मार्ग तैयार कराइयेगा जिससे रथ अबाध गति से संचालित होकर निर्विघ्न सम्पन्न होवे | कार्य आरंभ किया गया। वीधिकाओं के निर्माण के साथ पथ निर्माण का कार्य पूर्ण हो गया। मैं जब अपने काम में तन्मय होकर कार्यरत होता था तो माताजी के मन में मेरे खाने-पीने की चिंता एक मातृ-हृदय से कम नहीं थी। कार्य सम्पन्न हो गया, गजरथ भी सोल्लासपूर्वक सानंद निर्विघ्न संपन्न हो गया। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी अपूर्व ढंग से सम्पन्न हुई थी; क्योंकि पूज्य माताजी का आशीर्वाद और ज्ञान का उपयोग संलग्न था। चलते समय माताजी ने आदेश और निर्देश दिया कि भैया तुम्हारा काम सराहनीय रहा, जैसा पं० जमादार सा० ने कहा था, उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ रहा, अब हमारी एक सीख मानकर जाओ, जीवन सफल हो जायेगा। वह यह कि तुमने अहार, पपौरा, थूवोनजी आदि स्थानों पर अनेक जिनबिम्बों के गजरथों का संचालन सफलतापूर्वक किया, यह तो ठीक है, पर "आत्मरथ" के संचालन का प्रयास करो, जिसकी सफलता के लिए जिनवाणी का स्वाध्याय नितप्रति देवदर्शन के साथ-साथ करो। बस, आत्म-कल्याण का एक प्रशस्त मार्ग यही है। यही आदेश लेकर चला आया । उनका स्नेह, वात्सल्य भाव परोपकारी निर्देश चिरकाल तक स्मृति पटल पर अंकित रहेगा। पू० माताजी १०५ गणिनी ज्ञानमतीजी के इस अभिवंदन ग्रंथ के माध्यम से मैं उनका कृतज्ञ होता हुआ माताजी की चिरायु होने की कामना के साथ श्रद्धा पुष्प श्रीचरणों में समर्पित कर अपने को धन्य मानता हूँ । "जम्बूद्वीप और ज्ञानमती माताजी " आर्यिकारत्न पूज्य ज्ञानमती माताजी ने समाज को जो जम्बूद्वीप की महान् देन दी है वह चिरकाल तक पूज्य माताजी का स्मरण कराती रहेगी। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का जन्म वि०सं० १९९१ में उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले के अन्तर्गत टिकैतनगर में हुआ। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात' वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली माताजी का बाल्यकाल से ही धार्मिक क्षेत्र में बहुत योगदान मिला, बाल्यकाल से ही धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन, जिन पूजादि में रुचि रही। देवशास्त्र, गुरु के प्रति श्रद्धान, गुरु सेवा, तत्त्वचर्चा में बाल्यकाल से ही रुचि रही स्वाध्याय और गुरूपदेश का ही परिणाम रहा कि आपने केवल १७ वर्ष की वय में ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। आगे बढ़ने की भावना बनी रही। फलस्वरूप १०८ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से १९ वर्ष की आयु में क्षुल्लिका दीक्षा ले ली। मुनिसंघों का संयोग मिलता रहा। त्रिसं० २०२३ में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आपका ध्यान, अध्ययन, चारों प्रकार के अनुयोगों के ग्रंथों का मनन निरंतर चलता रहा, साथ ही लेखनी भी चलती रही, जो अब तक भी चल For Personal and Private Use Only - पं० लाडलीप्रसाद जैन 'नवीन' पापड़ीवाल, सवाईमाधोपुर . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला रही है। आपने संस्कृत, प्राकृत के ग्रंथों का अध्ययन, अनुवाद, टीका आदि करना प्रारंभ किया। फलस्वरूप आपको सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, गणितज्ञ आदि अनेक पदवियों से विभूषित किया गया। आपके जीवन का प्रभाव आपके सारे परिवार पर पड़ा और गृहस्थ जीवन के भाई और बहनों ने भी इसी मार्ग को अपनाया। आपकी कई योजनाएँ समाज के हितार्थ चल रही हैं। आधुनिक शैली में ग्रंथों और पूजाओं की रचना, बालोपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन, त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना, संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना आदि । __आपके मन में भावना हुई कि आज से करोड़ों वर्ष पूर्व राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार ने स्वप्र में देखा कि इसी हस्तिनापुर में विशाल सुमेरु पर्वत बना है और उस पर जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक हो रहा है आदि, यदि ऐसे ही सुमेरु पर्वत की रचना जैन भूगोल के आधार पर की जावे तो इससे जैनाजैन सभी विद्वानों को लाभ होगा और विदेशी पर्यटकों को भी। सन् १९४८ में भारत के स्व० प्रधानमंत्री पं० जवाहरलालजी नेहरू ने इसी क्षेत्र में हस्तिनापुर टाउन का शिलान्यास किया था। यह पवित्र भूमि १००८ भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक का पवित्र तीर्थस्थल है। यहां जम्बूद्वीप रचना का कार्य तीव्रगति से प्रारंभ हुआ और परिणामस्वरूप केवल ४-५ वर्ष में विशाल भव्य ८४ फुट उत्तुंग सुदर्शन मेरु, चारों दिशाओं में १६ चैत्यालय तैयार हो गये; उनमें विराजमान् करने हेतु विशाल मनोज्ञ प्रतिमाएँ आ गईं और दिनांक २९ अप्रैल १९७९ से ३ मई १९७९ तक भव्य समारोह के साथ विशाल स्तर पर अनेक आयोजनों के साथ भारत के सुप्रसिद्ध संहितासूरि प्रतिष्ठाचार्य ब्र० श्री सूरजमलजी बाबाजी के द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।जम्बूद्वीप की रचना सारे विश्व में एक अद्वितीय रचना है। जैन भूगोल का साक्षात्कार इस रचना से स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। पूज्य माताजी की सप्रेरणा से इस स्थल की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति हो रही है। चारों अनुयोगों से युक्त निकलने वाली पत्रिका "सम्यग्ज्ञान" बेजोड़ पत्रिका साबित हो रही है। लगभग १२५ ग्रंथ यहाँ से प्रकाशित हो चुके हैं तथा निरंतर माताजी की लेखनी चल रही है। वर्तमान में आपके पथ का अनुसरण पूज्या आर्यिका चन्दनामती माताजी (जो आपकी छोटी बहिन हैं) भी कर रही हैं। सम्पादन का कार्य बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन बहुत ही कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। पूज्य माताजी की सप्रेरणा से ज्ञानज्योति के द्वारा सारे देश में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार हुआ। जो भी हस्तिनापुर गया है और त्रिलोक शोध संस्थान पहुँचा है वह वहाँ की रचना को भूल नहीं सकता। कमल मंदिर भी अपनी छवि का निराला ही है। पूज्य माताजी ने जो जैन समाज को देन दी है और दे रही हैं वह युग-युगान्तर तक माताजी की स्मृति दिलाती रहेगी। हम पूज्य माताजी के चरणों में नमन् करते हैं तथा वीर प्रभु से प्रार्थना है कि वे चिरकाल तक इसी प्रकार धर्म देशना के माध्यम से नयी रचनाएँ कराती रहें और जैन धर्म की प्रभावना करती रहें। पूर्ण आरोग्यपूर्वक रत्नत्रय की आराधना करती रहें। पू० माताजी जयवंत हों। आदर्श जीवन की एक उत्कृष्ट परिणति -पं० बाबूलाल शास्त्री, महमूदाबाद जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जो सदैव चित्रपट की भाँति स्मृति पटल पर अंकित रहती हैं। सौभाग्य से सन् १९५२ ई० में परमपूज्य आचार्य श्री १०८ देशभूषणजी महाराज का चातुर्मास बाराबंकी में हुआ था। बाराबंकी समाज सदैव से दिगंबर साधुओं में आस्थावान् रहा है। महाराज श्री का चातुर्मास एक धार्मिक मेला से कम नहीं था। इस पंचमकाल में भी चौथा काल जैसा धार्मिक वातावरण बना हुआ था। मैं भी सपरिवार आचार्यश्री के दर्शनार्थ गया था। साथ में बहुत से श्रावक भी थे। सभी धार्मिक जन आचार्यश्री के सानिध्य में रुचि से तत्त्व चर्चाओं में भाग ले रहे थे। इसी पावन अवसर पर टिकैतनगर से कु० मैना भी अपने परिवार सहित पधारी थीं और आचार्यश्री की प्रत्येक मुनि क्रियाओं का बड़े ध्यान से अवलोकन कर रही थीं। आचार्यश्री के पादमूल में सारा समय बिता रही थीं। ऐसा लगता था कि स्वयं उस विरक्ति मार्ग पर चलना चाहती हैं। सहसा आसोज शुक्ला १५ शरद् पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) ८ नवम्बर १९५२ का वह स्वर्णिम दिवस भी आ गया। मैना ने सोचा क्या नारो जीवन पराधीनता की बेड़ी ही है ? और प्रातःकालीन सूर्योदय के साथ ही आत्मप्रकाश और आत्मविकास के ज्ञानोदय की अखण्ड प्रकाश पुंज के हृदयावतरण की पावन बेला आ गई। फिर क्या था ? आचार्यश्री के पाद कमल का सानिध्य पाकर उखड़ने लगे-सौंदर्य केश। फिर क्या था ? हराम मच गया। हलचल मच गयी। पारिवारिकजनों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। अनेकों लोग विरोध में थे। मेरे अन्तःकरण में भी द्वंद्व भाव बना हुआ था। एक ओर मेरा मन कह रहा था कि किसी को संयम के पथ से विचलित नहीं करना चाहिये। स्वतः से आत्मकल्याण की Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [११३ ओर अग्रसर हो रही है तो क्यों रोका जाये ? इसके पूर्व भी तो आदि ब्रह्मा आदीश्वर प्रभु की कन्याएँ ब्राह्मी और सुन्दरी कौमार्यावस्था में ही दीक्षित हो गयी थीं। इन्हीं प्रकरणों में मेरे नगरवासी माताजी के मामाश्री महीपालदासजी तरह-तरह के असंयत वाक्य बोले जा रहे थे। बड़े उत्तेजित और क्रोधित हो रहे थे। कह रहे थे- कुंवारी कन्याओं का यह मार्ग नहीं है, कहीं कोई कुमारिका इस तरह एकाकी मुनि संघ में रह सकती है। कहाँ लिखा है शास्त्र में ? गुरु (आचार्यश्री) को स्वयं समझना चाहिये। मैना को अभ्यास करने के लिए कहें फिर दृढ़ हो जाने पर व्रताचरण की ओर ले जायें। मैं कदापि ऐसा नहीं होने दूंगा। देखें कैसे लेती है अखण्ड अक्षय ब्रह्मचर्य व्रत। मैं अपनी शक्ति और परिवार के बल पर इसको अवश्य रोगा। इसमें मैना के प्रति महीपालदासजी की मोह भावना थी, उन्हें क्या मालूम था कि जिसे वे एक निर्बल बाला समझ रहे हैं उसमें संयम की प्रचण्ड भावना व्याप्त है। वे तो संसार की महान् विभूति हैं। मुझसे बोले! रोकिये पंडित जी! आप तो समझदार हैं, आपका साथ हम भी देंगे। मैं अन्तर्द्वन्द्र में जकड़ा विवश था। मैंने असमर्थता प्रकट कर दी। फिर क्या था ? मैना की माताजी के मामाजी श्री बाबूरामजी ने तो माताजी का हाथ ही पकड़ लिया। केशलुंचन करने से रोक दिया। उस समय माताजी की दृढ़ता देखते ही बनती थी। साधारण बालिका होती तो अपने संयमास्त्र रख देती और इन सभी के आगे विवश हो जाती। मगर धन्य है इस पराक्रमी पौरुषार्थिनी बाला को। निश्चय, निश्चय ही होता है। एक सिंह गर्जना हुई- मुझे सन्मार्ग पर चलने से परिवार क्या, विश्व की प्रचण्ड मोह आँधी-तूफान भी नहीं रोक पायेंगे। अगर मुझे कल्याण मार्ग से च्युत करने की प्रक्रिया जारी रही तो मैं चतुराहार का त्याग कर दूँगी। शरीर से ममत्व भाव मुझमें शेष नहीं है। अगर आप लोग मेरा जीवित नहीं, मृत शरीर ही देखना चाहते हैं तो देख लो। और कर लो झूठी आत्मसंतुष्टि! बड़े दृढ़ भाव थे उस समय इस बालिका के। माँ की ममता टकरायी। क्या! सचमुच मेरी मैना प्राण त्याग देगी। सदा-सदा के लिए इसे मैं नहीं देख पाऊँगी! मेरा मातृ स्नेह क्या आज विराम ले लेगा। माँ मोहिनी की आँखों से अविरल अश्रुधारा फूट पड़ी। मत रोको! इसे जाने दो संयम के पथ पर। इसकी सशक्त प्रतिज्ञा मत तोड़ो। नहीं तो पुनः इसे मैं नहीं देख पाऊँगी। उस समय माँ मोहिनी देवी की इस वज्रमयी घोषणा से सभी स्तम्भित हो गये। किसे मालूम था कि उस समय की यह कुमारिका अपने स्वयं को ही नहीं! अनेक भव्यात्माओं को, अपने परिवारजनों को, भाई-बहिनों को, स्वयं अपनी माताजी को सच्चे आत्मरसी, अनंत सौख्य बल, दर्शन ज्ञान के मार्ग में आरूढ़ कर देगी। धन्य है! ऐसी पावन माताजी को। जिन्होंने नारी समाज को एक नई दिशा, प्रेरणा शक्ति, सम्यग्बोध और कल्याण मार्ग दिखाया। मैं तुच्छ प्राणी मातृश्री के पदारविंदों में अपना अनन्त भक्तिभाव लेकर शत-शत वंदामि करता हूँ। सारा जीवन दे दिया, ज्ञानज्योति के हेतु - पं० सुमति प्रकाश जैन, कुरावली पुण्यात्मा धर्मात्मा ज्ञान प्रसार ही धेय । सारा जीवन दे दिया, ज्ञानज्योति के हेतु ॥ हे! ज्ञानमती माता तुम्हें, नमन करूँ धरि नेह । अभिनन्दन है आपका स्वीकर करो सस्नेह ।। पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐतिहासिक महिलारत्न हैं। इस शताब्दी के इतिहास में एक महिला होते हुए भी श्री दिगंबर जैन समाज के लिए जो चतुर्मुखी अलौकिक कार्य स्वयं करके दिखाये हैं, उसके लिए दिगंबर जैन समाज सदैव ऋणी रहेगा। अष्टसहस्री आदि शताधिक ग्रन्थों की सृजनकी, हस्तिनापुर की पावन भूमि पर निर्मित जम्बूद्वीप एवं कमल मंदिर रचना की प्रेरणादात्री, ज्ञानज्योति प्रवर्तन की प्रेरणा देने वाली इस महान् विभूति के बारे में किंचित् कहना भी सूर्य को दीपक दिखाना है। आपके द्वारा रचित इन्द्रध्वज विधान की सम्पूर्ण भारत में धूम मची हुई है। आपने ज्ञान-धर्म एवं साहित्य के क्षेत्र में जो कार्य किये हैं वह अन्य के लिए अत्यंत कठिन एवं दुःसाध्य हैं। ज्ञान-ध्यान में निरन्तररत, धर्म एवं धर्मायतनों तथा शरणागत की स्थितिकरण अपनी प्रमुख विशेषता है। ऐसी युग पुरुष पूज्या माताजी आर्यिकारत्न का अभिवन्दन कर मैं अपने को पुण्यशाली मानता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला धर्म और संस्कृति प्रभावक - लक्ष्मीदेवी जैन अध्यापिका, श्री दि० जैन उत्तर प्रान्तीय गुरुकुल, हस्तिनापुर परम पूज्य प्रातः स्मरणीय गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, उनके शिष्य वर्ग में विद्वत्ता सरस्वती के तुल्य हैं। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि परमपूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रन्थ छप रहा है। गुरुओं के जितने गुण गाये जायें, उतने ही कम हैं, आप बहुत ही सरल परिणामी हैं। आपके द्वारा अनेक जीव मोक्षमार्ग पर लगे हैं। आपने अनेक जीवों का उद्धार किया है। संसार रूपी मरुस्थल में भटकते हुए दुःखरूपी सूर्य की प्रखर किरणों के आतप से संत्रस्त मानव के लिए पंच महाव्रत रूम स्कन्ध से युक्त पंच समिति रूपी शाखाओं से व्याप्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी-गुण-कुसुमों से शोभित, तीन गुप्ति रूपी फलों के भार से नम्र, समता रूपी महान् छाया वाला सद्गुरु रूपी वृक्ष ही शांति प्रदायक है। संसार का वैभव दुर्गति में ले जाने वाला है। यदि कोई हिताहित ज्ञान करानेवाला कोई सच्चा गुरु है; तो सद्गुरु हैं। “यथा नाम तथा गुण" की धारक आर्यिका न श्री ज्ञानमती माताजी वास्तव में वीरता, साहस एवं दूरदर्शिता से परिपूर्ण हैं। उन की निर्भीक साधना जगत् प्रसिद्ध है। ऐसी धीर, वीर, चारित्र की साक्षात् मूर्ति गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में त्रिकाल वन्दना करती हुई अपनी विनयांजलि अर्पित करती हूँ कि जिनेश्वर माताजी को और दीर्घायु दें। संस्मरण - श्रीमती गीता जैन, स्यौहारा मैं भूल नहीं सकती वह दिन, जब मैंने जम्बूद्वीप के शिखर पर चढ़कर भगवान् का न्हवन किया था। मैं वैष्णव परिवार की बेटी विवाह के उपरांत जब जैन परिवार में आई, तब जैन धर्म के नियमों और सिद्धान्तों के प्रति मेरी पूर्ण आस्था हो गई। पर यह देखकर मेरा मन बड़ा ही व्याकुल होता था कि पुरुष ही सिर्फ भगवान का न्हवन कर सकते हैं, हम क्यों नहीं? मन में बड़ी हीन भावना आती थी, पर जब आठ अप्रैल १९८५ को स्यौहारा नगर में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति आई तब यह बताया गया-जो भी इस रथ में बैठना चाहे वह इस अवसर का लाभ उठा सकता है। उसे जम्बूद्वीप में जोड़े से भगवान् का न्हवन करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। जून के प्रथम सप्ताह में जब मैंने हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप में भगवान् महावीर का न्हवन किया तब मेरा मन मयूर खुशी से गद्गद हो नाच रहा था, साथ ही मेरे मन में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के लिए जो श्रद्धा भाव आ रहे थे मैं उनको लिखने में अपने को असमर्थ महसूस कर रही हूँ। मेरी जिन्दगी का यह सुनहरा दिन कभी भी भुलाये नहीं भूलेगा। सच्चाई तो यह है कि माताजी ने धर्म के साथ-साथ नारी मन को अपने हृदय से समझा और जाना है। मैं ऐसी महान् विभूति माताजी के चरणों में शत-शत नमन् करती हूँ, प्रणाम करती हूँ, वन्दन करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [११५ Some Outstanding Virtues of Pujnia Aryikaratna Gyanamati Mataji - Prin. J.D. Dhanal M.A. (Prakrit) Kolhapur I was under the impression since long that the contribution of many of the latest Jain monks and aryikas, to the Jain religious literature, is little as well as poor. But the Valuable and vast works written by Aryikaratna Gyanamatiji have made me change the above supposition. Realy she is not only a brilliant Aryika to grasp the essence of the scriptures, but also she is creative writer of high quality. She has, as if, magically composed the gist of the subtle principles into a serene stream of sweet neetre. Sharp intelligence and versatile writing capacity are the main virtues of her personality. She has parental love for every one who is pious in heart. She urges such persons to increase their pious attitude. An urge to uplift everyone is her basic mood. Pandit Motilal Kothariji (Phaltan), myself with family members, had gone to Jambudweep-Hastinapur. After having completed the teaching camp we were saying good-bye to the Mataji. She then said, "Make your mind to visit this place once a year for your soul's welfare (Atma kalyan)". How sweet were the words and how kind the heart. Once we were listening to her sermon. She was stern in attacking females who used to take part in Dramas and dances which had no aim of moral teaching. She was very caucious to point evil effects of such practice of queer entertainment. She paid due respect to the learned Pandits who really had done service to the community, by writing literary works on Jain Philosophy. On the Ist day of the education camp, she came to Pandit Motilal Kothari, and suggested to preside over the complete Session of the camp as Kulapati ( fa). She inquired about his health, meals and other requirements. He was treated for his deafness. The most important thing she did was that Pandit Kothari had entirely edited and prepared a press-copy of Shlokvartik (Fallchairah) of Acharya (3798) Vidyanandi (feria), He had shown it to some persons with a view to get it published. The Mataji was happy to see the Manuscript and immediately accepted it for publication in due time. What a great respect for knowledge and the learned ones she had. Pujya Aryikaratna Gyanamatiji has influencing personality. Any one who is in her company, has to work hard, be pious and develope the soul to a better state. Many a scholars have blossomed under the kind guidance of the Mataji. Br. Ravindra Jain (ao is the best editor of (HR ) monthly, the young Aryika Pujya Chandanamatiji (qo Gradisi), the versality writer, are a few examples to note. The Jambudweep sthala has an air of heavenly bliss. The ample supply of sweet water, the fresh open air, the temples, the Jambudweep the Meru mountain, the rooms for chowkas and the holy atmosphere wrapped with the punyaskandhas due to the monks and Aryikas; all these things have made the Jambudweep sthala, a good place for penance. Let the name of Gyanamati Mataji, let the place of Jamboodweep, and let all the known and unknown makers of Trilok Shodha Sansthan, live long with fame spread in the Trilok (FSC). Shat Shat Vandan to Aryika Gyanamati Mataji. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला Good Wishes -D. Veerendra Heggade Dharmasthala I am glad to note that you will bring out a Commemorate Volume on the eve of felicitation to Poojya Aryikaratna Sri Jnanamati Mataji. Hope the Volume will be resourceful with Articles from learned scholars and eminents in the spiritual field. I wish the publication of the Ablivandana Grantha all success. I wish the felicitation function all success. Thanking you, साहित्य साधना को समर्पित - साहू अशोक कुमार जैन, अध्यक्ष : अ०भा०दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना पर कृपया मेरी बधाई स्वीकार करें। पूज्य माताजी का सम्पूर्ण जीवन ज्ञान और साहित्य-साधना को समर्पित है। अध्यात्म-पथ की ओर अग्रसर पूज्य माताजी ने जैनागमों का अध्ययन किया है। अभिवन्दन-ग्रन्थ उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल जन-कल्याण का मार्ग दिखाएगा ऐसा मेरा विश्वास है। आपके प्रयास के लिए मेरी ओर से शुभकामनाएं। पूज्य माताजी के चरणों में सादर वन्दना । युग की महान् धरोहर - रतनलाल जैन गंगवाल, अध्यक्ष : दिगंबर जैन महासमिति, दिल्ली पूज्य माताजी वर्तमान युग की एक महान धरोहर हैं, जिन्होंने समय-समय पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन कर समाज में धार्मिक चेतना जाग्रत की है। जम्बूद्वीप की रचना उनके द्वारा समाज को दी गई एक अमूल्य निधि है। “आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ" के माध्यम से अनेक विद्वान् तैयार कर तथा “सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका एवं "वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला" के माध्यम से लाखों की सन्ध्या में धार्मिक ग्रन्थों का प्रकाशन कर समाज में धार्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया है एवं निरन्तर कर रही हैं। जो समाज पर उनका बहुत बड़ा उपकार है। ऐसी ज्ञान की मूर्ति ज्ञानमती माताजी एक लम्बे अर्से तक निरन्तर इसी प्रकार अपनी ज्ञान गंगा बहाती रहें ऐसी मरी वीर प्रभु से प्रार्थना है। संपादकमंडल का यह प्रयास समाज को माताजी के बहुआयामी व्यक्तित्व पर विस्तार से और अधिक जानकारी प्रदान करेगा, जो अत्यन्त आवश्यक एवं समयानुकूल है। इससे समाज में और अधिक चेतना एवं जागरूकता पैदा होगी ऐसा मेरा विश्वास है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [११७ हे अम्बे ! हे ज्ञानमते ! - अमरचंद पहाड़िया, कलकत्ता भारत की संस्कृति विश्व की वरेण्य कृतज्ञता भरी संस्कृति है। हमें जहाँ से जो भो मिला, हम श्रद्धा से अभिभूत होकर आम्र वृक्षों की तरह विनम्र हो गये, हमारी वाणी मधुमिश्रित हो गई, नेत्र आनन्दाश्रुओं से आप्लावित हो गये, स्तुति का संगीत गुंजारित हो गया। जो जगती को देता है, चमकाता है, वह देवता के गौरवास्पद पद पर अभिषिक्त कर दिया गया। पूज्या श्री ज्ञानमतीजी आप भी विविधस्वरूपा देव तुल्या हैं ___ दानतीर्थ प्रवर्तक राजा श्रेयांस के अक्षय तृतीया के इक्षु-रस आहार दान के विस्मृत तीर्थ हस्तिनापुर को पुनः स्मृतिपटल पर अंकित कर उस इक्षु प्रदेश को पुनः अभिसिंचित कर दिया है। भगवान ऋषभ के षट् कर्म उद्घोष को पुनः अपनी प्रखर प्रतिभासम्पन्न वाणी से उद्घोषित कर जन-जीवन को ज्योतिर्मय कर दिया है। शांति कुंथु अरह-चक्रवर्ती, कामदेव, तीर्थकर पदधारियों के पावन प्रदेश को अपनी जनकल्याणी निर्झरिणी से ज्ञानामृत का प्रसार कर चमत्कृत कर दिया है। भीष्म पितामह की दृढ़ता, कर्त्तव्यनिष्ठता को अपनी कर्ममय जीवनचर्या से जगती तल पर पुनः साकारित कर दिया है-धर्मराज युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा को अपनी समीचीन आगम प्ररूपित सत्यता से सर्वोच्च शिखर पर आरोहित कर दिया है। आपने हस्तिनापुर को उसका विस्मृत अतीत का गौरव पुनः प्रदान किया है-उसके स्वर्णिम इतिहास में एक पृष्ठ और जोड़कर जो आत्म सम्मान उसे प्रदान किया है, वह एक देव तुल्य कार्य है। समीचीनी सत् साहित्य की अजस्त्र धारा प्रवाहित कर भगवती सरस्वती का जो महा अभिषेक आप प्रतिदिन कर रही हैं, उससे अभिषिक्त होकर जन मेदिनी अपने संत्रस्त अंतस को सांत्वना प्रदान कर रही है। जिस प्रकार माता अपने पुत्र के लिए अंतरंग वात्सल्य पूरित भाव से दुग्ध का विसर्जन कर उसका पोषण करती है, उसी प्रकार आप भी परिपूर्ण मातृभाव से ज्ञानामृत की पयस्विनी धारा से शिष्यजनों के भव-भय रोग निवारणार्थ उनका सम्पोषण कर रही हैं। करुणा-कर्तव्य-शांति ये मातृत्व के अपरिमित गुण आप में विद्यमान हैं। आप में श्रद्धा अडिग एवं अकम्प है। जहां विवेक है, त्याग है, उत्सर्ग का भाव है, वहीं मातृत्व है-जहाँ अधिकारों का निनाद है-संग्रह की पाशविक वृत्ति है, वहाँ हिंसत्व है-आप जानती हैं यह क्षमाशील धरती सबकी अन्तिम शैया है। हे मंगल मूर्ते ज्ञानमते। आप महती, कल्याणमयी निर्झरिणी से सबका दुःख हरती। शारदे सरस्वती रूपा ज्ञानमते। दश धर्म दीप से प्रज्वलित क्षमाधारिणी बन। आप नित रत्नत्रय निलय में रहती॥ स्वीकार करो मेरा अभिवन्दन, मेरा प्रणाम, मेरा नमन। जिनशासन की महत्त्वपूर्ण सेविका -निर्मल कुमार जैन [सेठी] अध्यक्ष : श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा पूज्य गणिनी १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने विशाल साहित्य का लेखन, सम्पादन एवं प्रकाशन करवाकर अनेक विद्वत् गोष्ठियाँ, अनेक सेमिनार करवाकर जिनशासन की महत्त्वपूर्ण सेवा की है। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के भ्रमण के माध्यम से भी जैन-जैनेश्वर समाज में धर्म के प्रति उत्साह पैदा किया है एवम् शाकाहार के प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। पूज्य माताजी अपनी धुन की पक्की हैं और वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिए श्रावक-श्राविकाओं को विशेष प्रेरणा देकर कार्य सम्पादित करने की विशेष क्षमता रखती हैं। जब से मैं महासभा का अध्यक्ष बना हूँ, तब से आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का वरदहस्त पा रहा हूँ और हमें प्रेरणा मिलती रही है। मैं पूज्य माताजी के दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अलौकिक कार्यों की प्रणेत्री - जयचन्द डी० लोहाड़े, हैदराबाद यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के धार्मिक प्रेरणास्पद उत्कृष्ट जीवन के ५८ वर्ष की परिपूर्णता पर उनकी बहुआयामी सेवाओं एवं आध्यात्मिक जीवन के प्रति कृतज्ञता/विनय ज्ञापित करने के उद्देश्य से सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज की ओर से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के नेतृत्व में एक वृहद् अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित होने जा रहा है। निश्चित रूप से परमपूज्या गणिनी माताजी ने जो अलौकिक कार्य किये हैं वह प्रेरणास्पद हैं। उनके जीवन के इस लिपिबद्ध संस्करण से न केवल जैन समाज, अपितु त्यागीवर्ग भी लाभान्वित होगा। यह सौभाग्य की बात है कि पूज्य माताजी का सानिध्य हमें भी मिला। सन् १९६४ में जब माताजी का चातुर्मास हैदराबाद में संपन्न हुआ था, उस समय उनकी प्रेरणा, आशीर्वाद व उनके अमृतमयी प्रवचनों से मैं काफी प्रभावित हुआ। हैदराबाद का समाज उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगा। पूज्य माताजी ने जो ऐतिहासिक कार्य किये हैं वह युग-युगान्तरों तक प्रेरणा देते रहेंगे। मैं अपनी ओर से दिगम्बर जैन समाज हैदराबाद की ओर से पूज्य गणिनी माताजी के वंदनीय चरणों में अपनी आदरांजलि अर्पित करते हुए उनकी स्वस्थ दीर्घायु की मंगलकामना करता हूँ। श्रमण संस्कृति की उन्नयनकी - पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी, इन्दौर महामंत्री - दि० जैन महासमिति श्रमण संस्कृति के उन्नयन के लिये अर्द्धशताब्दी से अधिक समय से परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने जो कार्य किया है वह जिनशासन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। परमपूज्य माताजी के दर्शनों का सौभाग्य सर्वप्रथम सिद्धवरकूट सिद्ध क्षेत्र पर मिला। उनकी प्रशान्त मूर्ति देखते ही मस्तक उनके चरणों में झुक जाता है। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावी है कि उन्होंने धर्म ध्वजा को संपूर्ण देश में फ़हरा दिया है। अनेक विधानों की रचना सरल हिन्दी में जिस प्रभावी भाषा में उन्होंने की है उससे साधारण बुद्धिवाला व्यक्ति भी भाव-विभोर हो जाता है। श्री जम्बूद्वीप मंडल विधान, श्री कल्पद्रुम मण्डल विधान, इन्द्रध्वज मण्डल विधान, सर्वतोभद्र मण्डल विधान तो उनकी ऐसी अनुपम रचना हैं, जिन्होंने सर्वसाधारण को भक्ति से ओत-प्रोत कर दिया है। जो जन संस्कृत भाषा को नहीं समझते थे वे बहुत कम संख्या में मात्र भक्ति भाव से विधानों की पूजन में मात्र “स्वाहा' शब्द को सुनते थे। पर आज हजारों की संख्या में नर-नारी एकत्रित होकर सुस्वर से जो पूजन बोलते हैं उसका आनंद ही अलग है । संक्षिप्त में यह कह सकते हैं कि प्रकाण्ड पाण्डित्यपूर्ण शैली में उन्होंने जहाँ हमारे आर्ष ग्रन्थों को लिखा, वहीं उगती हुई पौध को संस्कारित करने के लिये सुलभ बाल साहित्य को लिखकर जो उपकार किया है वह अद्वितीय है। पूज्य माताजी ने स्वलिखित ग्रन्थ, पूर्वाचार्योंकृत ग्रन्थों की टोका एवं पद्यानुवाद करके करीब १५० ग्रन्थों की रचना की है, उससे निश्चय ही हमारी संस्कृति की पहिचान विश्व में हुई है। पूज्य माताजी ने जहां एक ओर कनड़ भाषा पर अधिकार किया वहाँ दूसरी ओर प्रत्येक प्रदेश की जन भाषा में अपने विचारों को प्रकट करके लाखों हृदयों में श्रद्धा उत्पन्न की है। सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जो सदैव अमिट रहेगा वह है जंबूद्वीप की अद्भुत रचना। यह काम पूज्य माताजी के मार्गदर्शन में ऐसा हुआ है। जिसने आचार्यों द्वारा रचित जैन भूगोल को विश्व के समक्ष प्रदर्शित कर दिया। पूज्य माताजी सदैव वर्तमान युग में चा०च० आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा की आदर्श सर्वप्रभावी गणिनी हैं जिन्होंने जैन धर्म को विश्व-विख्यात किया। आज भी पूज्य माताजी अपनी संपूर्ण शक्ति से हस्तिनापुर जैसी भगवान के कल्याणक की पवित्र भूमि को पवित्रतम बनाने की दिशा में अहर्निश प्रयत्न कर रही हैं। __ जिनेन्द्र देव से यही मंगल प्रार्थना है कि इस महान् आत्मा को हजारों वर्ष की वय प्रदान करे तथा वे अपनी तपस्या से स्त्रीलिंग छेद कर कुछ ही भवों के पश्चात् मोक्ष सुख प्राप्त करें । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ अपनी धुन की पक्की त्रिलोकचन्द कोठारी, कोटा सिद्धान्त संरक्षिणी सभा भिण्डर में पंचकल्याणक के अवसर पर आचार्य धर्मसागर महाराज के सानिध्य में पूरे भारत में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों के आयोजन का संचालन करने के लिए मुझे भारतवर्ष का शिविर संयोजक नियुक्त किया गया था। - मैंने ज्ञानमती माताजी से निवेदन किया कि पहला शिविर हस्तिनापुर में लगाइये, आप उसके लिए शिक्षकों प्रशिक्षकों का मार्ग-दर्शन करें। उन्होंने यह बात सहर्ष स्वीकार करते हुए एक ऐसी पुस्तक प्रवचन निर्देशिका तैयार कर दी, जिससे पहला शिविर पं० मोतीलाल कोठारी के कुलपतित्व में हस्तिनापुर में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ और उसके बाद तो सारे देश में शिविरों की सरिता बहने लगी। उस दिन से अब तक पिछले १०-१५ वर्षों से मेरा पूज्य ज्ञानमती माताजी से बराबर सम्पर्क रहा है और मैंने यह देखा है कि माताजी अपनी धुन की इतनी पक्की हैं, जो हर विषय को गहराई से अध्ययन करके ही कार्य का संचालन कराती है। हमारे परिवार के हर एक सदस्य को उनसे प्रेरणा मिली है, कितनी भी कठिन परिस्थितियों में वे विचलित नहीं होतीं। उनके द्वारा लिखा गया साहित्य केवल गूढ तत्त्वों पर ही आधारित नहीं होता, वे सामान्य जन को सहज सरल रूप से ग्रहण करने लायक बड़े ही लालित्यपूर्ण सरस साहित्य का निर्माण करने में सदैव संलग्न है, जम्बूद्वीप की रचना करके उन्होंने अपना नाम अमर कर लिया है, किसी भी महिला के द्वारा इतने जैन प्रन्थों का अनुवाद व प्रकाशन कराना इस युग में आश्चर्यजनक घटना है। मैं अपने और अपने समस्त परिवार की ओर से उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ एवं उनके द्वारा किये गये कार्यों की अत्यधिक सराहना करते हुए यह आशा करता हूँ कि भविष्य में भी दीर्घकाल तक उनके द्वारा समाज का उपकार होता रहेगा । मैं कभी भूल नहीं सकता - आर्यिका ज्ञानमति माताजी को - मांगीलाल पहाड़े, हैदराबाद Jain Educationa International [११९ श्री दिगम्बर जैन आम्नाय में भारतीय संस्कृति के विकास में आचार्यों की परम्परा के साथ जैन इतिहास में भगवान् महावार की प्रथम गणिनी आर्यिका श्री चंदनबाला आर्यिका सीता आदि माताओं का नाम उल्लेखनीय है, उसी प्रकार वर्तमान युग बीसवीं सदी में आज भी जैनागम की अक्षुण्ण सेवा परम पूज्या १०५ श्री आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने अनेकों ग्रंथों को सरल, सुबोध शैली में और संस्कृत, प्राकृत भाषा से हिन्दी भाषा एवं काव्य रूप में संस्करण प्रकाशित किये है। 1 माताजी ने सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा कर दिगम्बर जैन समाज को उन्नति के मार्ग पर आरोहित किया है उसमें आंध्र प्रदेश की वसुधा श्री कुंदकुंदाचार्य की मातृजन्मभूमि भाग्य नगरी, हैदराबाद नगरी में सन् १९६३-६४ में ५७ मण्डल विधान सहित त्रैलोक्य मण्डल, सिद्धचक्र मण्डल विधान, विश्व शांति हेतु यज्ञ महोत्सव, चातुर्मास समय में श्री दिगम्बर जैन समाज के तत्वावधान में माताश्री के शुभाशीर्वाद से, परम सान्निध्य और निर्देशन में सम्पन्न हुए, जिसे आज भी मैं कभी भूल नहीं सकता कि इस भाग्य नगरी का नाम सार्थक दिगम्बर साधु साध्वी से ही हुआ है। स्वर्णाक्षरों में रहेगा, अंकित नाम तुम्हारा सुकुमारचन्द्र जैन, मेरठ प्रधानमंत्री दि० जैन प्राचीन मंदिर, हस्तिनापुर For Personal and Private Use Only - • परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सन् १९७४ में ऐतिहासिक नगर हस्तिनापुर में पधारना निश्चय ही एक ऐतिहासिक घटना थी। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं तभी से पूज्य माताजी के सम्पर्क में रहा हूँ। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला यह माताजी की ही दैवी प्रेरणा थी कि जिसके द्वारा हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र में जम्बूद्वीप जैसी धार्मिक कलाकृति एवं भौगोलिक रचना का निर्माण हुआ और जम्बूद्वीप देश के समक्ष एक अद्वितीय धार्मिक कलाकृति के रूप में प्रस्थापित हुआ। माताजी अथाह ज्ञान की स्रोत हैं तथा मानवीय एवं दैवीय गुणों की साक्षात् मूर्ति हैं। माताजी की लेखनी को तो मानो सरस्वती का वरदान प्राप्त है। मेरे विचार में विगत दो हजार वर्षों में पूज्य माताजी के अतिरिक्त अन्य किसी भी जैन साध्वी द्वारा साहित्य व ज्ञान का इतना बड़ा स्वरचित भण्डार समाज को नहीं समर्पित किया गया। पूज्य माताजी आज ज्ञान, ध्यान, लेखन व तपस्वी जीवन के इतने ऊँचे शिखर पर पहुँच गई हैं कि समाज के सभी पंथ व वर्ग उनके लिए समान हैं। पूज्य माताजी ने अपनी लेखनी व वाणी से प्रसूत साहित्य व ज्ञान का जो अक्षय भण्डार समाज को दिया है उसके कारण माताजी का नाम दिगम्बर जैन धर्म एवं समाज के इतिहास में सदा ही स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। इनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है - शिखरचंद जैन, रानीमिल, मेरठ पूज्यवर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी के ज्ञान की, त्याग की, विद्वत्ता की, प्रचुर मात्रा में धार्मिक साहित्य रचना की, जितनी प्रशंसा पत्र-पत्रिकाओं में, सामाजिक मंचों पर हो चुकी है उनसे एक वृहद् ग्रन्थ बन सकता है; इसीलिये मैं असमंजस में हूँ कि उनके विषय में मेरा कुछ भी लिखना पुनरावृत्ति ही होगी। रानी मिल मंदिर में और वहाँ के विश्रामगृह में कई बार उनका पदार्पण हुआ और कई-कई दिन तक विराजमान रहीं। हम लागों को उनसे धर्म लाभ लेने का अवसर मिला। उन अवसरों पर उनसे धर्मचर्या, ज्ञानचर्चा व सामाजिक पद्धतियों पर चर्चा रही। उसमें भेद-मतभेद भी रहा। परन्तु वे सदैव मेरी सम्मानित व आदरणीय रहीं और उनके द्वारा सामाजिक कार्यों में अपनी सीमित शक्ति से जैसा हो सका सहयोग दिया। ___दिगम्बर समाज में १३ पंथी व २० पंथी की पूजा पद्धति के मतभेद के कारण या कुछ उनकी यशकीर्ति व उत्कर्ष की ईर्ष्या के कारण दिगम्बर समाज में कुछ आलोचक भी रहे। उनकी कई आलोचनाओं में, मैं भी मौन रहा, परन्तु समाज के उच्च नेताओं की बड़ी सभा में और उच्चासीन नेताओं से व्यक्तिगत वार्ता में एक बात मैंने कई बार डंके की चोट पर कही कि १३ पंथी दिगम्बर समाज या संस्थाओं के महान् पुरुष वर्ग मिलकर भी जो निर्माण कार्य अब तक नहीं कर सके वह अकेली एक साधु महिला ने कर दिखाया। और हमारे १३ पंथी समाज में भी जो नव-निर्माण हुये हैं वह भी उनकी सद्प्रतियोगिता का ही फल है। उनको वर्तमान की व भविष्य की जैन-अजैन संतति आर्यिका श्री के नाते चाहे भूल जाये, परन्तु जम्बूद्वीप व जम्बूद्वीप संस्था की एक्सपर्ट आर्चटैिक्ट (मंदिर निर्माण वास्तुकलाविज्ञ) व निर्माणकर्ती के रूप में हमेशा उनकी कृतज्ञ व ऋणी रहेगी व उनका स्मरण करेगी तथा अभूतपूर्व व अनुकरणीय नवीन कल्पना की पूर्ति की प्रशंसा करती रहेगी। देश की कई महिलाएँ राजनीति में, ज्ञान में, विज्ञान में, मानवसमाज में, लोकहित में, मानव सेवा में व नृत्य, गीत, संगीत में व मनोरंजन कला में, उच्चस्थानों में प्रसिद्धि के शिखर पर रही हैं और हैं, परन्तु प्रतिष्ठा के जिस उच्च सिंहासन पर ये विराजमान हैं। इसकी तुलना किसी से नहीं। यदि ज्ञान के, मानव गुणों के, त्याग के, प्रशासन क्षमता के, अनुशासनप्रियता के, संघ संचालन कुशलता के व उनके द्वारा रचित ग्रंथों के व मानव उद्धार के साहित्य की रचना की गणना के अनुसार यदि किसी निष्पक्ष परीक्षक समिति द्वारा अंक दिये जायें तो मुझे आशा ही नहीं, विश्वास है कि देश की सर्वश्रेष्ठ महिला ये ही घोषित होंगी। समाज के सौभाग्य से व भगवान की कृपा से ये स्वस्थ रहें व चिरायु हों और समाज का मार्ग-दर्शन करती रहें और उनके चिन्तन-मनन से व उनकी अनोखी कल्पनाओं से व कृतियों से समाज लाभ उठाता रहे यही मेरी विनयांजलि स्वीकार करें। "संकल्प शक्ति की साधिका" -जयनारायण जैन, मेरठ केन्द्रीय संगठन मंत्री दि० जैन महासमिति “यथा नाम तथा गुण" की कहावत को चरितार्थ करने वाली पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति आभार व विनयाञ्जलि अर्पण करने हेतु शब्दों का चयन करना कठिन है; क्योंकि उनके लिए जो भी लिखा जाये कम होगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१२१ एक समय - शिल्पी साधक, सौम्य, सरस, मृदु, गम्भीर, कर्मठ, चिंतक एवं संकल्प शक्ति की साधिका का नाम ही आर्यिकारत्न ज्ञानमती है। अनेक प्रतिष्ठानों की जन्मदाता, जीवनदाता, अनगिनत ग्रन्थों की लेखिका, कार्यक्षमता और श्रमशीलता से संस्कृत, पाली,प्राकृत जैसी भाषाओं के क्लिष्ट ग्रन्थों का सरलीकरण कर, आपने विपुल साहित्य का सृजन व अभिवृद्धि कर समाज की आने वाली अनेक पीढ़ियों पर महान् उपकार किया है। जम्बूद्वीप दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान व आपके निर्देशन में संचालित संस्थाएँ युगों-युगों तक आपका बोध करायेंगी। जिसके लिए समाज आपका कृतज्ञ रहेगा। मेरी वीर प्रभु से प्रार्थना है कि पूज्य माताजी शतायु हों। इस अवसर पर मैं माताजी के चरणों में विनयाञ्जलि अर्पण करते हुए नमन करता हूँ। सरस्वती की प्रतिमूर्ति - देवकुमार सिंह कासलीवाल अध्यक्ष : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने इस बीसवीं शताब्दी में साहित्य सृजन का अनुपम कार्य किया है। हमारी नई पीढ़ी प्रथमानुयोग के ग्रन्थों का स्वाध्याय न करने के कारण धर्म विमुख होती जा रही थी। हर व्यक्ति को द्रव्यानुयोग की चर्चा नहीं सुनाई जा सकती। न तो यह उपादेय है और न शक्य । पूज्य माताजी ने प्राचीन पुराणों से प्रामाणिक रूप से कथानकों का संकलन कर सुंदर सुबोध शैली में उपन्यासों, नाटकों एवं कथा संग्रहों का सृजन किया। बच्चों एवं महिलाओं हेतु रचित उनका साहित्य अत्यन्त लोकप्रिय है, इस साहित्य से बालकों एवं किशोरों की धर्म के प्रति रुचि बढ़ी है यह बहुत बड़ी सफलता है। पूज्य माताजी ने यह कार्य कर समाज पर बड़ा उपकार किया है। लगभग एक दशक पूर्व तक मात्र अष्टान्हिक पर्यों में सिद्धचक्र विधान एवं यदा-कदा, चतुर्विंशति विधान, पंचपरमेष्ठी विधान की बात सुनाई देती थी। पूज्य माताजी द्वारा अनेक विधानों की रचना कर भक्ति संगीत का ऐसा सशक्त माध्यम उपलब्ध कराया गया है कि आज सर्वत्र विधानों की धूम है एवं समाज का एक बड़ा वर्ग इनके माध्यम से कुछ समय के लिए भक्तिरस में डूब जाता है। विधानों में उपजे संस्कार अनेकशः जीवन की दिशा बदल देते हैं। भूगोल, खगोल, न्याय, व्याकरण पर आपके ग्रन्थों, जिनकी संख्या १२५ से भी अधिक है, को देखकर ऐसा लगता है मानो आप सरस्वती की प्रतिमूर्ति हों। माताजी के द्वारा किया गया कार्य अभिवन्दनीय है,अतुलनीय है। अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशन के आपके निर्णय हेतु साधुवाद तथा पूज्य माताजी के चरणों में शतशः नमन् । अक्षयकीर्ति अर्जित की है - राजाबहादुर सिंह, इन्दौर श्री पूज्य १०५ आर्यिकारत्न गणिनी ज्ञानमती माताजी वर्तमान युग की सर्वश्रेष्ठ साध्वी हैं, जिन्होंने अपने विशाल ज्ञान और चरित्र द्वारा श्रमण संस्कृति के उन्नयन में अपना सक्रिय योगदान देकर अक्षयकीर्ति अर्जित की है। पूज्य माताजी ने अष्टसहस्री नामक उच्चकोटि के न्यायग्रन्थ का हिन्दी सुनवाद तथा अनेक ग्रंथों की रचना कर जैन साहित्य को समृद्ध बनाया है। हस्तिनापुर प्राचीन क्षेत्र में जम्बूद्वीप का शास्त्रोक्त वृहद् निर्माण कराकर एक अनुपम और अद्भुत स्मारक स्थापित किया है, जिसके दर्शनकर दर्शकगण आपके प्रति सदैव कृतज्ञ बने रहेंगे। हमें आश्चर्य है कि आप अस्वस्थ रहकर भी निरन्तर साहित्य रचना और निर्दोष रूप से आर्यिकाव्रत निर्वाह करते हुए स्व-पर कल्याण में तत्पर बनी रहती हैं। यह भी एक अनुकरणीय उदाहरण है कि पूज्य माताजी का गृहस्थ जीवन का अधिकांश परिवार त्याग और निवृत्ति की ओर प्रवृत्त होकर आपकी रत्नत्रयाराधन में पूर्ण सहयोग दे रहा है। ___ आपके इस अभिनन्दन या अभिवंदन के अवसर पर मैं अपने परिवार सहित आपकी सविनय सभक्ति मंगलकामना करते हुए आपके द्वारा हो रहे सत्कार्यों की सराहना एवं विनम्र श्रद्धा प्रकट करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मंगलकामना - साहू रमेशचन्द्र जैन, कार्यकारी निदेशक __टाइम्स ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली यह जानकर प्रसन्नता हुई कि गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति विनयांजलि के रूप में अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। सरस्वती और अध्यात्म की अर्चना का आपका यह प्रयास स्तुत्य है। पूज्य माताजी जैन दर्शन की परम विदुषी हैं। अध्यात्म और ज्ञानाराधना उनका जीवन है। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को जन-जन तक पहुँचाने में यह अभिवन्दन ग्रन्थ सफल होगा ऐसी मैं आशा करता हूँ। आपका प्रयास सार्थक हो। मेरी मंगलकामना आपके साथ है। पूज्य माताजी के चरणों में सादर वन्दना । सम्यक्ज्ञान की अजस्रधारा - राजेन्द्र प्रसाद जैन कम्मोजी, दिल्ली जैसे गंगा नदी का शीतल जल शरीर को ही पवित्र करता है, चन्द्रमा की शीतल किरणें भी विश्व को शीतलता प्रदान करती हैं, वसन्तऋतु सोई हुई प्रकृति को नवजीवन प्रदान करती है, वर्षा का जल झुलसी हुई पृथ्वी को तृप्ति प्रदान करता है। उसी प्रकार इस भौतिकवादी युग में पापों में उलझे हुए ज्ञानविहीन प्राणियों को ज्ञानमूर्ति, बालब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी अपने सम्यक्ज्ञान की अजस्रधारा से निरन्तर शान्ति प्रदान कर रही हैं। जिन्होंने १७ वर्ष की छोटी-सी उम्र से ही कठोर साधना प्रारम्भ कर दी थी, संसार, शरीर, भोगों से विरक्त उन ज्ञानमती माताजी के बारे में यूं तो मैंने आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज के मुख से अनेक प्रशंसाएं सुन रखी थीं, फिर उनके दिल्ली प्रवास में नजदीक से देखकर मैंने उनमें जो अपूर्व तेज पाया, वह प्रायः विरले मनुष्यों में ही देखा जाता है। पूज्य माताजी जहाँ चारित्र में अत्यन्त दृढ़ हैं वहीं अपने सोचे गए कार्यों को पूर्ण करने में भी उनकी विशिष्ट क्षमता है। वे तो हमारी क्या जगत् की माता हैं और वर्तमान के समस्त साधुओं में सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित आर्यिका हैं। उनकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं कि मैं उनके अनमोल गुणों का वर्णन कर सकूँ। हाँ, अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशन की इस मंगल बेला में इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि पूज्य माताजी हमारे समाज की एक अमूल्य धरोहर हैं, इनकी हमें जितनी बने उतनी सेवा - वैयावृत्ति करके संभाल करनी चाहिये; ताकि अधिक से अधिक दिनों तक देशवासियों को उनके तप, त्याग और ज्ञान का लाभ मिलता रहे । चरणों में शतशत नमन। विनयांजलि - रमेशचंद जैन - राजपुर रोड, दिल्ली बाल्यकाल से ही धर्म में प्रवृत्ति त्यागमयवृत्ति ने आज की ज्ञानमती माताजी को जहां एक ओर शास्त्रज्ञ, अन्वेषक, ग्रन्थ रचयिता, व्याख्याता एवं समाज को धर्म की प्रेरणा देने वाली बनाया है वहीं दूसरी ओर त्याग की उत्कृष्ट वृत्ति के आचरण का सम्यक भार वहन का उत्तरदायित्व भी दिया है। इनकी प्रेरणा तथा मार्गदर्शन में बने जम्बूद्वीप तथा कमल मन्दिर ने हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र को नया आयाम दिया है। समाज को सदैव ही इनके प्रवचनों सहित ग्रन्थों तथा आगम व्याख्याओं से धर्माचरण की प्रेरणा मिलती रहती है। संस्कृत में इनकी विद्वत्ता ने अष्टसहस्री जैसे कठिन ग्रन्थ का जिसे कष्टसहस्री भी कहते हैं हिन्दी में अनुवाद एवं टीका करके एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। इनका आचरण एवं प्रबुद्धता जन-जन को धर्म के मार्ग पर चलने में सहायक हो, ऐसी मेरी विनयांजलि है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१२३ बीसवीं सदी की महान् साधिका - चक्रेश जैन, दिल्ली मैनेजर : दि० जैन लाल मंदिर पापाचार और अज्ञान के भयंकर दावानल से संतप्त हो रही मानवता को सही मार्ग दिखाना महापुरुषों का ही कार्य है। महामनीषियों के वरदायी चरण जहाँ जहाँ पहुंचते हैं वहाँ उनके चमत्कारी व्यक्तित्व का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी भी ऐसी ही एक महान् साधिका हैं जिन्होंने नारी शक्ति को सूक्ष्मता से पहचानने का अवसर प्रदान किया है। मैंने अनुभव किया है कि उनके मुख से जो भी शब्द निकलते हैं वे एक न एक दिन पूरे अवश्य होते हैं। हस्तिनापुर यद्यपि प्राचीनकाल से ही एक ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र था, लेकिन इसका वर्तमान स्वरूप जो आज हम देख रहे हैं उसका श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ही हैं। जम्बूद्वीप की भव्य अद्वितीय रचना का निर्माण उनके पुनीत सानिध्य एवं मार्गदर्शन में ही सम्पन्न हुआ। माताजी के आशीर्वाद से ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा ४ जून १९८२ को दिल्ली से ही किया गया था। आज हम श्रावक ही नहीं, बल्कि समस्त साधु समाज इस महान विभूति से गौरवान्वित है। मैं तो समझता हूँ कि ज्ञानमती माताजी इस बीसवीं शताब्दी की एक मात्र वह साधिका हैं जिन्हें वचनसिद्धि प्राप्त है। आज उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूर-दूर से लोग हस्तिनापुर पहुंचते हैं। मैं उनके श्री चरणों में अपनी विनम्र विनयाञ्जलि समर्पित करता हूँ। विनयांजलि - स्वदेशभूषण जैन महामंत्री : जैन समाज, दिल्ली यह परम हर्ष का विषय है कि दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर ने परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ के प्रकाशन का महान् कार्य अपने हाथ में लिया है। माताजी के जीवन-वृत्त उनके द्वारा रचित साहित्य की समीक्षा एवं उनका जैन धर्म ही नहीं, मानव जाति के उत्थान के लिए किये गये कार्यों का एक स्थान पर संकलन होना अत्यन्त आवश्यक है। जिससे आज ही नहीं भविष्य में भी माताजी द्वारा दिये गये मार्गदर्शन एवं सहयोग का ज्ञान हो सकेगा। जम्बूद्वीप की रचना स्थापत्य का एक महान् कार्य है और उनकी दिगम्बर जैन समाज को महानतम देन है, जो चिरस्मरणीय बनी रहेगी। मेरे पिता श्री बशेशरनाथजी जैन एवं समस्त परिवार का माताजी के दिल्ली प्रवास के समय निकट का सम्पर्क रहा है तथा उनकी सेवा का मौका और आशीर्वाद मिलता रहा है। पूज्य माताजी की हर समय एक ही इच्छा रहती है कि दिगम्बर जैन समाज ऐसे कार्य करे जिससे जैन धर्म के मूल्यों, संस्कृति का अधिक से अधिक प्रचार हो सके। माताजी के चरणों में मैं अपनी विनयांजलि प्रस्तुत करता हूँ और उनके दीर्घायु होने की जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करता हूँ और आशा करता हूँ कि उनका आशीर्वाद हर सामाजिक एवं धार्मिक कार्य के लिए सदैव मिलता रहेगा। "अभिवन्दन ग्रन्थ मात्र एक औपचारिकता है" - हरखचन्द सरावगी, कलकत्ता अध्यक्ष : सिद्धान्त संरक्षिणी सभा सन् १९६० में सुजानगढ़ चातुर्मास के समय से मैं पूज्य माताजी से परिचित हूँ। तब से कई जगह मुझे उनका सानिध्य प्राप्त हुआ, किन्तु सन् १९६३ के कलकत्ता चातुर्मास ने हम लोगों के हृदय में जो अमिट छाप छोड़ी है वह कभी विस्मृत नहीं की जा सकती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला लगभग २८-२९ वर्ष की उम्र होगी उस समय ज्ञानमती माताजी की, किन्तु अपने आर्यिका संघ की प्रधान होने के कारण उनकी अनुशासन कला बेजोड़ दिखती थी। उस छोटी सी आयु में भी उनके ज्ञान का खजाना सौ वर्षीय विद्वान् से भी अधिक बड़ा दिखता था। उस समय साधु समूह में प्रायः एकमात्र प्रवचन कला में प्रवीण ज्ञानमती माताजी थीं जिससे कलकत्ते का बच्चा-बच्चा प्रभावित एवं आकर्षित था। कलकत्ते के बाद भी मैं सदैव पूज्य माताजी के दर्शनार्थ अन्य स्थानों पर जाता रहा। प्रसन्नता तो तब द्विगुणित हो जाती है जब मेरे पहुंचते ही मुझे माताजी का पूर्ववत् वात्सल्य प्राप्त होता है तथा कई व्यक्तिगत चर्चाएं भी वे मुझसे करने लगती हैं। यह उनका मेरे प्रति वात्सल्य और विश्वास ही कहना होगा। आज तो पूज्य माताजी ने अपने चहुँमुखी कार्यकलापों से विश्व स्तरीय ख्याति प्राप्त कर ली है। उनका अभिवंदन ग्रन्थ निकालकर हम लोग मात्र एक औपचारिकता का ही निर्वाह कर रहे हैं, ऐसे कई अभिवन्दन ग्रन्थ भी यदि उनके चरणों में समर्पित कर दिए जाएं तो भी उनके ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज की स्मृतियों को झलकाने वाली ज्ञानमती माताजी का मंगल सानिध्य जितने दिन तक संसार को मिलता रहेगा, उतने दिनों तक धरती माता की गोद साहित्यिक कृतियों से भरती चली जाएगी जो कि आगे आने वाली सदियों में हमारी अनमोल निधियाँ होंगी। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के चरणों में मैं अपनी सविनय प्रणामांजलि समर्पित करता हुआ जिनेन्द्र भगवान से यह प्रार्थना करता हूँ कि हमारी पूज्य माताजी सैकड़ों वर्षों तक हमें ज्ञानामृत पिलाती रहें। "पृथ्वी की भाँति सहनशील माताजी" -गणेशीलाल रानीवाला, कोटा कार्याध्यक्ष : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान पृथ्वी की भाँति सहनशील,, क्षमावती, सुन्दर स्वभाव, सराहनीय शील, अनुपम प्रेम और अकथनीय वात्सल्यभाव के द्वारा प्राणिमात्र के प्रति कल्याणभाव आज माता ज्ञानमतीजी के पर्याय बन चुके हैं। न्याय, सिद्धान्त, भूगोल, खगोल और व्याकरण जैसे गहन-दुरुह विषयों पर अधिकारपूर्वक सारगर्भित लिखने के साथ-साथ ही माताजी ने भक्ति भावपूरित साहित्य के ग्रंथ भी हमको प्रदान किये हैं, जिनके अनुशीलन से मनः- प्राण भक्तिरस से आप्लावित हो जाते हैं और उस भावानुभूति में कुछ भी कह सकने में वाणी स्खलित हो जाती है। माताजी की अमोघ लेखिनी से प्रसूत साहित्य रस-धारा लोकमंगल की कामना से असंख्य पाठकों के हृदय को पवित्र करती हुई अपने चरम लक्ष्य-कल्याणकारी मोक्षार्णव में विलीन होती दृष्टिगत होती है। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत-कनड़ आदि विभिन्न भाषाओं में पूर्वाचार्यों, साहित्य मनीषियों द्वारा प्रणीत जटिल ग्रंथों को माताजी ने अपनी भाव सुबोधिनी शैली और सरल भाषा में लोकोपयोगी बनाकर प्रस्तुत करके एक ऐसा उपकार किया है जो कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा और सम्पूर्ण मानवता उसके लिए सदा कृतज्ञ रहेगी। प्रत्येक श्रावक को नित्य, पूजा-पाठ, स्तोत्र पाठ, स्वाध्याय, तीर्थयात्रा आदि शुभोपयोग में अधिकाधिक नियोजित रहकर सम्यग्दृष्टि के द्वारा मोक्ष-मार्ग का अनुसरण करके अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना सम्पन्न होना चाहिये। मानव पुरुषार्थ, शास्त्र विषयों में विश्वास और आचार्यपाद में श्रद्धा हो तो उस परम पद की प्राप्ति मनुष्य का अपना जन्मसिद्ध अधिकार है। उसे कोई रोक नहीं सकता। माताजी इन्हीं सारगर्भित उपदेशों द्वारा लोगों का उद्बोधन करती हुई सचेष्ट रहकर अपनी तपश्चर्या और साहित्य साधना में निमग्न रहती हैं। तपश्चर्या से पूत उनका शरीर अपने अध्यात्म के तेज और आत्मबल से अग्निशिखा की भाँति सदा प्रकाशमान रहता है और मुख मण्डल पर उभरा स्मित श्रद्धालुओं को स्वतः नमन के लिए आकर्षित करता रहता है। हस्तिनापुर में उनके सानिध्य में सम्पन्न स्वाध्याय के अनेक अवसरों पर उपस्थित रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वहाँ वे अपनी उपस्थिति और शास्त्र सम्मत ओजिस्विनी वाणी में महानुभावों की जटिल शंकाओं का समाधान अनायास ही जिस सरलता से कर देती हैं उनको देख, सुनकर विस्मय होता है और मन को बड़ी शान्ति मिलती है। आगम शास्त्रों का इतनी सूक्ष्मदृष्टि से विवेचन, मंथन पूर्वाचार्यों की सम्मतियों से सामञ्जस्य और युक्तियों से युक्त उनके वाक्य निर्णायक होते हैं। माताजी की महिमा सागर का पार पाने के लिए मेरी लघुमति असहाय बालक की भाँति तीर पर खड़े होकर अनन्त अथाह जलराशि को Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१२५ निहारकर स्तंभित हो जाती है। ऐसे महान् दिव्य व्यक्तित्व के पावन चरणों में अपने आपको श्रद्धानत करने में मुझे परम संतोष होता है। मेरी हार्दिक कामना है कि माताजी का दीर्घकाल तक हमको सानिध्य मिलता रहे और वे अपने त्याग, तपस्या, साधना और सद् उपदेशों से आज के दिशाहीन लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देकर उनकामार्ग प्रशस्त करती रहें। इस अवसर पर उनके पावन चरणों में मेरा शतशः नमन् । विनयांजलि - मदनलाल चांदवाड़, रामगंज मंडी मंत्री शांती वीर नगर श्रीमहावीरजी पूज्य श्री १०५ ज्ञानमती माताजी महान् विद्वान्, तपस्वी और कर्मठ साध्वी हैं। अपनी लगन और बात की पक्की धनी हैं। स्वास्थ्य खराब होते हुए भी जिनवाणी की बहुत बड़ी सेवा की। सैकड़ों पुस्तकें लिखी हैं। आज भी सतत् लेखनी चालू है। जम्बूद्वीप (हस्तिनापुर) की रचना और इतना बड़ा काम माताजी की हिम्मत से हुआ है। मेरा माताजी से बहुत पुराना परिचय है। माताजी का स्नेह आशीष मेरे ऊपर हमेशा रहा है। मेरी प्रार्थना पर पू० माताजी ने "इन्द्रध्वज मंडल विधान" हिन्दी में व चौबीस तीर्थंकरों का परिचय संक्षेप में, बड़ी सुन्दर पुस्तक लिखीं। जिससे साधारण पढ़ा-लिखा आदमी कम समय में चौबीस तीर्थंकरों का परिचय पा सकता है। पूज्य माताजी की गद्य और पद्य दोनों में लिखने की शैली बहुत ही उत्तम है। माताजी की व्याख्यान शैली से भी हजारों प्राणियों का कल्याण हुआ है। माताजी पक्की आगमनिष्ठ हैं। माताजी में इतना चमत्कार है कि अपनी गृहस्थ की माताजी को भी बीमारी व वृद्धावस्था में आर्यिका दीक्षा दिलाकर बड़े उत्तम ढंग से समाधिमरण करवाया। यह चमत्कार ही है कि माताजी का इतनी वृद्धावस्था और बीमारी में भी समाधिमरणपूर्वक मरण हुआ। इनके उपदेशों से कई नवयुवकों व नवयुवतियों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर आचार्य व आर्यिका पद तक पहुँचे। माताजी में इतने गुण हैं कि मैं उनका वर्णन नहीं कर सकता। वर्तमान की आर्यिकाओं में माताजी मुख्य हैं। "अग्रगण्य संयमाराधिका" -निर्मलचन्द सोनी, अजमेर परम पूज्य १०५ गणिनी ज्ञानमती माताजी वर्तमान युग की एक अग्रगण्य संयमाराधिका, जिनवाणी सेविका, आगम सम्मत साहित्य निर्मात्री और धर्म प्रभाविका आर्यिकारत्न हैं। वर्तमान युग का आपने भलीप्रकार अनुभवन किया है और उसी के अनुसार अपनी प्रवृत्ति बनाई है। आपकी विलक्षण प्रतिभा के द्योतक शोध संस्थान, ग्रन्थानुवाद, शिविर आयोजन, मासिक पत्रिका का सम्पादन, परामर्श आदि सभी तो हैं। स्वास्थ्य की प्रतिकूलता में भी आपका कार्य साधन निरबाध चलता रहता है। ऐसी परम विदुषी संयमाराधिका के चरणों में मेरी सपरिवार विनयाञ्जलि। मैं माताजी के स्वस्थ दीर्घ जीवन के लिये मंगलकामना करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्रद्धापूर्वक नमन कैलाशचंद जैन चौधरी, इन्दौर महामंत्री - महावीर ट्रस्ट एवं आदिनाथ आध्यात्मिक अहिंसा फाउण्डेशन यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी से संबंधित एक विशेष अभिवन्दन-ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा 1 है वास्तव में माताजी का जैन धर्म, जैन दर्शन, जैन संस्कृति के प्रति जो समर्पण है, उसको अनुभूति से मन प्रसन्न एवं गद्गद हुए बगैर नहीं रहता । दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान एवं जम्बूद्वीप रचना हमेशा-हमेशा माताजी के नाम को अमर रखने में ऐतिहासिक भूमिका निर्वाह करती रहेगी। माताजी ने जो उपकार हम पर किये हैं, उससे सारा भारतीय दिगम्बर जैन समाज उनका चिरकाल तक कृतज्ञ रहेगा। उनके चरणों में श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए मेरी यही अंतरंग भावना है कि वे शतायु होकर अपने आशीर्वाद और अपनी विद्वत्ता से समाज को लाभान्वित एवं गौरवान्वित करती रहें। माताजी के चरणों में पुनः नमन् । जादुई व्यक्तित्व Jain Educationa International हमारे यहाँ सनावद मध्यप्रदेश में परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न पूज्य माताजी ज्ञानमतीजी ने चातुर्मास (वर्षायोग ) किया; यह सन् १९६७ की बात है। उन चार माह में नवयुवकों में जो धर्म की भावना आपने जाग्रत की, वह आज भी कायम है। उस वर्षायोग में आपने दानवीर सेठ मयाचंदसाजी की धर्मपत्नी द्वारा मंडल विधान भरवाया तथा बड़े उत्साह के साथ कार्य सम्पन्न हुआ, उसी वर्षायोग में माताजी ने अपने साथ दो नवयुवकों को अपने साथ ले लिया; ये दोनों युवक मुनि आचार्य श्री वर्धमानसागरजी, क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी बाल ब्रह्मचारी थे, जो आज पूरे भारतवर्ष में सनावद का नाम उज्ज्वल कर रहे हैं। - - इन्दरचंद चौधरी अध्यक्ष दि० जैन समाज, सनावद इस प्रकार एक वर्षायोग का यह चमत्कार रहा। यों भी माताजी एक जादूगर के माफिक हैं, इनके सम्पर्क में एक बार कोई आ गया वह इनकी दृष्टि में जम गया, वह फिर इनके चक्कर से छूट नहीं सकता है, ऐसा मेरा अनुभव है वीर प्रभु से प्रार्थना है कि माताजी शतायु हों तथा आगम का प्रचार करती रहें, यही मेरी पू० माताजी के चरणों में विनयांजलि है । श्रावकों की मार्गदर्शिका - For Personal and Private Use Only परम आदरणीय पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में उनकी प्रेरणा से मुझे सन् १९८० में प्रथम बार इन्द्रध्वज महामण्डल विधान कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जो निर्विघ्न सानंद सम्पन्न हुआ। इसके बाद कई बार उनकी जन्म जयंती महोत्सव मनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आगे भी उनका मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद मिलता रहे। धर्म ग्रन्थ- प्रकाशन कार्य में विविध गति से कार्य करती रहें एवं जैनागम के प्रचार एवं प्रसार में श्रावकों को अपना अमूल्य मार्गदर्शन कराती रहें। यहां मेरी विनयांजलि है कि माताजी शतायु हों । पन्नालाल सेठी एवं परिवार डीमापुर [नागालैंड ] . Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१२७ "पूज्य १०५ आदरणीय ज्ञानमती माताजी के प्रति विनयांजलि" - चन्द्रप्रभा मोदी, इन्दौर मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हो रही है कि विलम्ब से ही सही पर अपने कर्तव्य के प्रति हम जागृत हुये। पूज्य १०५ आदरणीय माताजी के समाज पर असीम उपकार हैं। उनका पवित्र जीवन आत्मोद्धार के साथ ही साथ देश, विदेश, प्रांत, समाज व जन-जन के लिये परम कल्याणकारक है। संयम के द्वारा, तप-त्याग के द्वारा, अष्टसहस्री ग्रन्थराज के हिन्दी अनुवाद के माध्यम से, सम्यक्ज्ञान पत्रिका के माध्यम से तथा परमस्थाई जम्बूद्वीप रचना, त्रिमूर्ति मंदिर, अन्य हितकर जिनायतनों द्वारा एवं भारतवर्ष में जम्बूद्वीप ज्ञान-ज्योति के माध्यम से जो आबाल-वृद्धों में स्व-पर कल्याण की भावनाओं का आविर्भाव किया, उसकी परम्परा युग-युगान्तर तक सानन्द चलती रहेगी। अस्तु, ऐसी महान् उपकार मूर्ति, ब्राह्मी सुन्दरी आर्यिकाओं के आदर्शों को अक्षुण्ण रखने वाली ज्ञानमूर्ति माताजी को शत-शत नमन। आपकी छत्रछाया सदैव-सदैव प्राप्त होती रहे, इन्हीं मंगल-भावनाओं युक्त आशीर्वाद एवं दर्शनाभिलाषी। दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की मूर्ति -जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार, नई दिल्ली महामंत्री : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हमारे पिता श्री श्यामलाल जी एक धार्मिक व्यक्ति और साधुओं के सच्चे भक्त थे। मुनि संघ के दिल्ली में पदार्पण के पहले ही दर्शनार्थ और व्यवस्था बनाने के लिए पहुँच जाते थे। मुझे भी अपने पिताजी से साधु संघ की सेवा करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। सन् १९७२ में जब पूज्य १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का दिल्ली पदार्पण हुआ उस समय संघ से दो मुनि श्री वर्द्धमानसागर और श्री सम्भवसागरजी और आदिमती, श्रेष्ठमती तथा रत्नमती माताजी ये तीन आर्यिकायें थीं। साथ में ब्र० सुशीला (वर्तमान आर्यिका श्रुतमती), ब्र० शीला (आर्यिका शिवमती), ब्र० कला, ब्र० मालती और ब्र० मोतीचंदजी अध्ययन हेतु संघ में रहते थे। इन सबके साथ ही दो छोटी-छोटी कुमारी कन्याएं संभवतः १२-१४ वर्ष की आयु वाली थीं, इनमें से ही एक कु० माधुरी थीं, जिन्होंने ३ वर्ष पूर्व पूज्य माताजी से दीक्षा लेकर आर्यिका चंदनामती नाम प्राप्त किया है। उस समय मैंने निवास स्थान ४, टोडरमल रोड पर चौका लगाया, असीम आनन्द प्राप्त हुआ और मुझे प्रथम बार एक शान्त व साहसी आर्यिका के दर्शन हुए तथा उनका सानिध्य प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे पू० माताजी से सम्पर्क बढ़ता गया। पिताजी के साथ मैं जम्बूद्वीप कमेटी में भी जाने-आने लगा। इसस हमें "एक पंथ दो काज" कहावत के अनुसार दोहरा लाभ होने लगा - प्रथम पूज्य माताजी के दर्शन और दूसरा जम्बूद्वीप की प्रगतिशील योजनाओं में भाग लेना। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि उस समय हस्तिनापुर बड़े मंदिर कमेटी वालों ने एक विशेष कानून लागू किया कि एक व्यक्ति दो कमेटी में नहीं रह सकता। तब मेरे पिताजी ने पू० माताजी के प्रति विशेष श्रद्धा और भक्ति होने से जम्बूद्वीप की कमेटी में ही आना-जाना रखा। इसीलिए मुझे भी आज जम्बूद्वीप स्थल की प्रत्येक गतिविधि में विशेष रुचि रहती है। आज मैंने जो भी संयम और त्याग धारण किया है सब पूज्य माताजी के ही आशीर्वाद का फल है। सन् १९९० की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में माताजी ने हमें भगवान के माता-पिता बनने का सौभाग्य प्रदान किया। पूज्य माताजी ने चतुर्मुखी विकास तो किया ही है, ये अपने शिष्यों एवं भक्तों के चतुर्मुखी विकास के लिए सदा प्रयत्नशील रहती हैं। इनकी हर रचना अपने आप में नूतन, अनोखी और आकर्षक होती है। जम्बूद्वीप रचना निर्माण, ज्ञानज्योति भ्रमण, कमल मंदिर रचना एवं ह्रीं प्रतिमा की रचना इसका जीता-जागता उदाहरण है। पूज्य माताजी न सरल भक्ति रस में भावविभोर कर देने वाली पूजाएं बनाकर जनमानस को जैन दर्शन का ज्ञान दिया है। अब से १५ साल पहले श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान ही सुनने में व करने में आता था, परन्तु आज माताजी के रचित विधानों में से कोई न कोई विधान, पूजा भारत के किसी न किसी नगर में प्रतिदिन हो रहा होता है। पूज्य माताजी ने इन विधानों की पूजन व जयमालाओं के माध्यम से धर्म का गूढ़ से गूढ़ सार भी संगीत के द्वारा, सरल और मन को लुभाने वाली भाषा में जन-मानस को समझा दिया है। भक्ति में लीन होकर पूजा करने वालों को यह भान ही नहीं रहता कि वे किसी इन्द्रसभा में बैठे हैं या भगवान के साक्षात् समोशरण में बैठे हैं। छोटे-छोटे बालक व Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बालिकायें तो क्या बड़ी उमर के स्त्री-पुरुष भी नाचने व गाने लगते हैं। ___ अन्त में मैं पूज्य माताजी के श्री चरणों में पुष्पांजलि समर्पित करता हुआ यह भावना भाता हूँ कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र की मूर्ति गणिनी आर्यिका श्री "जिएं हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार ।" मैं पूज्य माताजी की भावी योजनाओं को पूरा करने में सक्षम हो सकू, यही आशीर्वाद एवं शक्ति चाहता हूँ। शत-शत नमन, कोटि-कोटि वंदन । विनयांजलि - प्रेमचंद जैन, अहिंसा मंदिर, दरियागंज, नई दिल्ली यह जानकर महती प्रसन्नता हुई कि गणिनी आर्यिकारत्न परम पूज्य बाल ब्रह्मचारिणी १०५ ज्ञानमती माताजी को अभिवंदन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा है, यह कार्य तो बहुत समय पहले हो जाना चाहिए था। पूज्य माताजी का समस्त जीवन तप व संयम व ज्ञान आराधना में बीता है। उन्होंने समाज को जो दिया है उसकी कोई मिशाल नहीं। वे ज्ञान व चरित्र की खान हैं। उन्होंने स्वयं दीक्षा लेकर अनेकों को सन्मार्ग पर लगाया। अपनी माताजी (बाद में आर्यिका रत्नमतीजी) व बहनें अब आर्यिका अभयमतीजी व चन्दनामतीजी को दीक्षाएं दिलाई एवं भाई रवीन्द्र कुमारजी को ब्रह्मचर्य व्रत। क्षुल्लक मोतीसागरजी (पूर्व में मोतीचन्दजी) को दीक्षा दिलाकर जम्बूद्वीप का पीठाधीश बनवा दिया। सारे परिवार व अन्य लोगों को उद्धार के मार्ग पर लगाया। जम्बूद्वीप की रचना कराकर हस्तिनापुर का भी उद्धार कर दिया, यह अद्भुत कार्य हुआ। अस्वस्थ रहते हुए भी आपने अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, मूलाचार व धार्मिक ग्रंथों का सरल भाषा में रूपांतर कर जनमानस के लिए सुलभ कराया। अनेक ग्रन्थों व पूजाओं-विधानों की रचना की। आपके विषय में मुझ जैसे जघन्य प्राणी के लिए लिखना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। आप शतायु हों और हम सभी को मार्गदर्शन देती रहें यही भावना है। वात्सल्य भावना एवं मृदु स्वभाव की प्रतिमूर्ति - कैलाशचन्द जैन, करोलबाग, नई दिल्ली कोषाध्यक्ष : दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान परम पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के संबंध में यदि हम लिखने बैठ जायें तो लेखनी सूख सकती है, किन्तु उनके गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। उनके अथाह गुणों का वर्णन करना "सूर्य को दीपक दिखाने" की कहावत को ही चरितार्थ करना होगा। मुझे पूज्य माताजी के दर्शन करने का सौभाग्य प्रथम बार सन् १९७२ में मिला, जबकि माताजी अपने संघ के साथ पहाड़ी धीरज, दिल्ली में चातुर्मास स्थापन कर विराजमान थी तथा एक दिन वे करोलबाग श्री दिगंबर जैन मन्दिरजी में दर्शनार्थ पधारी। उनकी आकर्षण शक्ति और प्रेरणा ने मुझे विवश कर दिया तथा वापसी में मैं उनका कमंडलु उठाकर पहाड़ी धीरज, दिल्ली तक छोड़ने गया। अपनी वात्सल्य भावना एवं मृदु स्वभाव से ओत-प्रोत होने के कारण उन्होंने मुझे पुनः दर्शनार्थ आने के लिए प्रेरित किया। उस दिन को चिर स्मरणीय रखते हुए आज तक भी उनका परम सानिध्य प्राप्त हो रहा है, उस समय मेरे अन्दर भी यही भावना जाग्रत हुई कि इस उत्कृष्ठ पद को पाने वाली माताजी मेरे मन-मानस में विराजमान होकर इस उत्कृष्ट पद को पाने के लिए मुझे प्रेरित करती रहें। उनकी सद्प्रेरणा से प्रेरित होकर सन् १९७२ में श्री दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान का गठन किया गया, जिसके माध्यम से आज तक विभिन्न आयोजन किये गये तथा भविष्य में भी आयोजित होते रहेंगे। पूज्य माताजी की प्रखर बुद्धि एवं लेखन प्रक्रिया इसकी परिचायक है कि लगभग १५० ग्रन्थों की संरचना कर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। ये इस युग की प्रथम महिला मनीषी हैं जिन्होंने इतनी बड़ी संख्या में ग्रन्थों की रचना हिंदी पद्यावली में कर जैन जगत् में धूम मचा दी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१२९ आज समाज के धर्मनिष्ठ महानुभाव विभिन्न स्थानों पर समय-समय पर विधानों का आयोजन कर अपने को कृत-कृत्य कर रहे हैं तथा आनन्द का अनुभव ले रहे हैं। धर्म के प्रचार एवं प्रसार हेतु माताजी के शुभाशीर्वाद एवं सत्प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी गत १८ वर्षों से हो रहा है, जिसमें कि माताजी के सारगर्भित लेख एवं संस्थान की गतिविधियों का अवलोकन विवाद रहित होकर कराया जाता है, ताकि माताजी के सद् उपदेश एवं आगम वाणी को जन-जन तक पहुँचाया जा सके। यही कारण है कि आज देश एवं विदेश से भी इसकी माँग निरन्तर वृद्धि पर है। जम्बूद्वीप स्थल पर भी माताजी की सत्प्रेरणा से विभिन्न निर्माण कार्यों को कराया जा रहा है तथा सुमेरु पर्वत एवं जम्बूद्वीप की संरचना, भगवान् महावीर का कमल मंदिर, तीनमूर्ति मन्दिर,, ज्ञानमती कला मन्दिरम् एवं यात्रियों की सुविधार्थ, फ्लैट्स, धर्मशालाएँ आदि हस्तिनापुर की ऐतिहासिक नगरी में इस निर्माण के दर्शनार्थ जनमानस उमड़ पड़ा है। यह स्थान पर्यटन का भी मुख्य केन्द्र बन चुका है, यही कारण है कि देश एवं विदेश के हजारों श्रद्धालु इसका अवलोकन कर भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं तथा माताजी के प्रति भी अपनी अगाध श्रद्धा प्रकट करते हैं। अतः मैं परम पिता परमात्मा से यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि माताजी को चिरायु प्रदान करें, ताकि वे हमारे जैसे अज्ञानी प्राणियों को अपनी सत्प्रेरणा एवं ज्ञानामृत का पान कराकर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा देती रहें, अतः इस शुभ भावना के साथ मेरा तथा परिवारजनों का उनके चरण कमलों में सादर नमोस्तु । "जिह्वा पर सरस्वती का निवास है" । - माणिकचन्द्रजी गाँधी, फलटण परम पूज्य माताजीसे विगत ४० वर्षों से मेरा घनिष्ठ परिचय रहा है। पू० माताजी जब फलटण आयी थीं तब उन्होंने आचार्य शांतिसागर महाराज के दर्शन किये और उनसे विनयपूर्वक कुछ मार्गदर्शन लिये थे। आज मैं देखता हूँ कि पूज्य माताजी का ज्ञान इतना बढ़ गया है कि उनकी आज कोई बराबरी नहीं कर सकता। उनकी जिह्वा पर सरस्वती का निवास है। स्व. पं० मोतीचन्द्रजी कोठारी और मेरे बीच पू० माताजी को लेकर कई बार चर्चा होती थी। तब वे कहा करते थे कि पू० माताजी के समान कोई ज्ञानी नहीं है। "अष्टसहस्री" नामक ग्रन्थ जो संस्कृत भाषा में है उसकी हिन्दी टीका आपने ही लिखी है, जो बड़ा ही अमूल्य ग्रन्थ बन गया है। पं० कोठारीजी तो यहाँ तक कहते थे कि उनकी विद्वत्ता के सामने हम कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि जिस ग्रंथ को पढ़ने तथा समझने में हमें पसीना ही आता है उसे पू० माताजी ने बड़े ही सुलभ शब्दों में अनुवादित किया है। सन् १९७२ में हम लोग पू० माताजी के दर्शन करने ब्यावर गये थे। वहाँ जम्बूद्वीप का मॉडल पूर्ण रूप से तैयार था। जम्बूद्वीप मॉडल को लेकर पू० माताजी से काफी चर्चा हुई। पुनः हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र में यह मॉडल विशाल रूप से तैयार किया गया, जो पूज्य माताजी की कृपा से ही सम्पन्न हुआ है। बहुत विशाल सुमेरु पर्वत (मानस्तंभ के समान), जो लगभग ८४ फुट ऊँचा है। पास में गंगा, सिंधु आदि नदियों को भी दर्शाया है, जिसे देखने देश-विदेश के हजारों यात्री आते हैं। परम पूज्य माताजी से मेरी प्रार्थना है कि मेरी इस छोटी-सी विनयाञ्जलि को स्वीकार कर हमें कृतार्थ करें। श्रद्धा और भावना की ज्योति : माता ज्ञानमतीजी - ताराचंद प्रेमी, फिरोजपुर झिरका यह बात लगभग सन् १९५० या ५१ की होगी, एक सामाजिक कार्यक्रम के सन्दर्भ में (रथोत्सव के अवसर पर) टिकैतनगर जाने का संयोग मिला। विविध परिचित, अपरिचित लोगों से भिन्न-भिन्न चर्चाएं हुईं, उन्हीं दिनों परम पूज्य जैनाचार्य देशभूषणजी महाराज के संघ का मंगल आगमन टिकैतनगर में होने वाला था, अतः सर्वत्र एक धार्मिक उत्साह वहां के वातावरण में विद्यमान था। उन्हीं दिनों नगर के धार्मिक वृत्ति से परिपूर्ण स्व० लाला छोटेलालजी से मेरा परिचय हुआ। अत्यन्त विनम्र, मृदुभाषी, धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्ति के इस व्यक्ति से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मात्र तीन दिवसीय अपने प्रवास की कुछ पावन स्मृतियाँ आज भी मेरे हृदय पटल पर अंकित हैं। आज की प्रख्यात साधिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी उन्हीं लाला छोटेलालजी की गृहस्थ अवस्था में सुपुत्री थीं। मुझे यह भी स्मरण है कि इनका नाम मैना देवी था और इस महामना सरस्वतीमूर्ति के प्रारंभिक वैराग्य और ज्ञान की चर्चाएं भी वहाँ घर-घर में सुनी जाती थीं। उन दिनों की कु० मैना एक महान् इतिहास साध्वी के रूप में समाज में आयेगी इसका तो शायद ग्रामवासी अनुमान भी नहीं लगा सके होंगे, जिन्होंने कुछ दिनों बाद ही निज-पर के कल्याणार्थ महाव्रतों का पालन किया एवं जिनके चरण चिह्नों के साथ ज्ञान का आलोक जन-जन में प्रकाशित हुआ। ऐसी ज्ञानमती माताजी ने गृहस्थ के उस वातावरण से विरक्त होकर संयम और साधना के पथ को अंगीकार किया। आज सम्पूर्ण समाज इस ज्ञान की ज्योति से गौरवान्वित है। मैं ऐसी त्यागमूर्ति माँ के चरणों में प्रणाम करता हूँ। कर्मठता की साक्षात् मूर्ति : पूज्या माताजी - वैद्य शान्ति प्रसाद जैन राजवैद्य शीतल प्रसाद एण्ड संस, दिल्ली मैं १९७२ में श्रद्धेय माताजी के सम्पर्क में आया। जैन साधु-साध्वियों के प्रति प्रारम्भ से ही मेरी आस्था रही है; अतः माताजी के प्रति मेरी श्रद्धा स्वत: समुद्भूत हुई और उनके सम्मुख श्रद्धावनत होकर उनके श्रीचरणों में मैंने अपने श्रद्धा सुमन सहर्ष भाव से अर्पित किये। इसे मैं अपने पूर्व जन्मोपार्जित कर्मों के शुभ संस्कारों का फल मानता हूँ कि उनके सम्पर्क में आने के पश्चात् शनैः शनैः उनके प्रति मेरी आस्था और श्रद्धा न केवल बढ़ती गई, अपितु दृढ़ हो गई। इसका एक परिणाम यह हुआ कि प्रारम्भ में उनसे वार्तालाप करने में मेरे अन्दर एक तरह की जो झिझक और हिचक थी वह दूर हो गई और मैं निःसंकोच होकर अपने अन्तः की जिज्ञासा उनके सम्मुख प्रकट कर देता था, जिसका समाधान मुझे मिल जाना था। आगे चलकर मैंने यह अनुभव किया कि पूज्य माताजी के अन्तःकरण में समाज को धार्मिक दृष्टि से शिक्षित करने की उत्कट भावना विद्यमान् है और इसे वे मूर्त रूप देना चाहती हैं। इस सम्बन्ध में जब मेरी उनसे चर्चा हुई और उन्होंने अपनी इच्छा मेरे सम्मुख प्रकट की तो उनकी भावना का सम्मान करते हुए मैंने उनकी योजनानुसार शिक्षण शिविरों का आयोजन करने में अपना यथाशक्ति सहयोग दिया, जिससे अनेक धर्मप्रेमी बन्धुओं ने लाभ उठाया। इन शिविरों के माध्यम से न केवल धर्म सम्बन्धी मूल बातें लोगों को बताई गईं, अपितु तात्त्विक चर्चा के द्वारा विद्वानों में विचार मंथन भी हुआ, जिसके अमृत कणों से समाज भी लाभान्वित हुआ। माताजी के मस्तिष्क में जम्बूद्वीप की रचना की कल्पना काफी समय से बैठी हुई थी। पहाड़ी धीरज में १९७३ में उनके चातुर्मास के समय जब पुनः मैं उनके सम्पर्क में आया और समाज के चार प्रमुख व्यक्ति चुनकर जम्बूद्वीप की रचना का दायित्व उन्हें सौंपा गया तब यह कल्पना भी नहीं की गई थी कि हस्तिनापुर की सुरम्य अटवी में जम्बूद्वीप की इतनी बड़ी व विस्तृत भव्य रचना साकार हो उठेगी। यह मेरा सौभाग्य है कि इस कार्य के कार्यान्वयन के लिए वे मुझसे बराबर मंत्रणा करती रहती थीं और मुझसे जिस प्रकार का भी शारीरिक, बौद्धिक या आर्थिक सहयोग बन पड़ता था मैं बराबर देने का प्रयत्न करता था। आज जम्बूद्वीप की रचना का जो साकार रूप हमारे सम्मुख विद्यमान् है वह पूज्य माताजी की प्रेरणा और कर्मठता का ही परिणाम है। उन्होंने जम्बूद्वीप के माध्यम से समाज को धार्मिक विरासत के रूप में ऐसी देन दी है जिसके द्वारा चिरकाल तक समाज को धार्मिक स्फुरण एवं प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। असम्भव प्रतीत होने वाले पूज्य माताजी के इस कार्य से समाज का बहुत बड़ा उपकार हुआ है। मैं अपने आप को धन्य भाग्य मानता हूँ कि मुझ जैसे अकिंचन को माताजी ने किसी लायक समझा तथा समाज और धर्म की सेवा करने का कुछ अवसर दिया। पूज्य माताजी के श्री चरणों में कोटिशः नमन करता हुआ श्रद्धा एवं भक्तिभावपूर्वक अपनी विनयांजलि अर्पित करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३१ संत शिरोमणि नारी रत्न - मोतीचंद कासलीवाल जौहरी, दरीबा कला, दिल्ली जिस प्रकार प्रत्येक पर्वत पर मणि नहीं होती, प्रत्येक हाथी के मुक्ता नहीं होता, प्रत्येक वन में चन्दन नहीं होता। उसी प्रकार जगत् का कल्याण करने वाले साधु सर्वत्र नहीं होते। उपर्युक्त कहावत परम पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के बारे में खरी उतरती है। वे महिलाओं में सर्वोत्कृष्ट, महाव्रत आर्यिका के पद पर विभूषित हैं। आर्यिकाओं में भी श्रेष्ठ गणिनी के पद पर आरूढ़ हैं। वे यथा नाम तथा गुण वाली हैं। पूज्या माताजी ने श्री दिगम्बर धर्म, समाज तथा देश के लिए जो सर्वान्मुखी अभूतपूर्व कार्य किये हैं उनके लिये समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। वे स्वयं तो मोक्षमार्ग में चल रही हैं, साथ ही उन्होंने अनेकानेक भव्य प्राणियों, न केवल महिलाओं, अपितु अनेक पुरुषों को भी मोक्ष मार्ग में लगाया है तथा अपने से श्रेष्ठ मुनि पद पर पहुँचाया है। जम्बूद्वीप की पावन रचना दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, आचार्य वीरसागर विद्यापीठ, कमल मंदिर, वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला, १५० से अधिक ग्रंभों का लेखन, सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक, इन्द्रध्वज विधान आदिक विधानों की रचना इनका जीवंत उदाहरण है। मैं उनको लगभग १५ वर्षों से जानता हूँ व उनके प्रति अगाध श्रद्धा एवं भक्ति रखता हूँ। उनके अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशन के अवसर पर मेरी विनयांजलि सादर समर्पित है। मेरी यह भावना है कि वे समाज को सदा अपनी दिशा प्रदान कर इसे पुष्पित व पल्लवित करती रहें व शीघ्र मोक्ष सुख को प्राप्त करें। श्रद्धा सुमन -सरदार चन्दुलाल शहा बम्बई विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट परमपूज्य श्री ज्ञानमती माताजी सरल-शांत-सौम्यता की प्रतिमूर्ति हैं। निस्पृहता आपके जीवन का अभिन्न अंग है। आपके वचनों में आकर्षण शक्ति के साथ-साथ माधुर्य एवं स्पष्टवादिता है। आप अन्दर और बाहर दोनों ही ओर से एक समान अवस्था के हैं। आपके जीवन की ऋजुता अन्तरंगस्थ आर्जव धर्म को प्रकट करती है। बाह्याभ्यंतर परिग्रह से आप सर्वथा दूर हैं। भगवान् महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के समय सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर तीर्थस्थल पर जम्बूद्वीप रचना निर्माण हेतु एक भूमि खरीदी। जहाँ सन् १९७५ से जम्बूद्वीप का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। उस समय मैंने आपको अत्यन्त समीप से देखा है। आप अकम्प अभिनंदनीय आर्यिका हैं, आपने कभी किसी प्रकार ख्याति-पूजा लाभ के प्रलोभन में आकर धर्म सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। आगम कथित सभी गुण आप में विद्यमान हैं। अपरिस्रावी गुण तो स्वयं आपकी गम्भीर जीवनचर्या प्रकट करता है। आप रत्नत्रय से परिशुद्ध हैं तथा भव्य जीवों को भवाब्धि से तारने वाली परम माता हैं। क्षत्रचूड़ामणिकार की निम्न उक्ति आपमें पूर्णतया परिलक्षित है "गर्भाधान क्रिया मात्र न्यूनौ हि पितरौ गुरुः" बिना गर्भाधान क्रिया के आप भव्य जगत् की सच्ची माता हैं और शिष्यवर्ग का पालन-पोषण करने वाली सच्ची गुरूमाता हैं। आज हम आप जैसे गणिनी आर्यिकारत्न को पाकर अपने जीवन को कृतार्थ मानते हैं और यही भावना करते हैं कि आप चिरकाल तक पृथ्वी तल पर रहकर हमें अनुगृहीत करें और अपने साथ ही हमें भी संसार समुद्र से पार करा दें। इन्हीं शब्दों में मैं पू० ज्ञानमती माताजी को विनयांजलि समर्पित करते हुए मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक त्रिकाल शत-सहस्त्र नमन करता हूँ। विनयांजलि - ताराचंद एम०शाह०, बॉम्बे आज के इस वर्तमान युग में चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज ने सारे भारत में विहार किया। जैन धर्म की महत्ता, साधु संस्था की महत्ता से केवल जैन समाज ही नहीं, बल्कि पूरे भारतवासियों को धर्म के उत्कृष्ट मार्ग पर सन्मार्ग पर चलते रहने का महान् आदर्श कायम किया। आचार्य श्री के प्रथम शिष्य आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज की शिष्या आर्यिका पू० ज्ञानमती माताजी हैं। ल कलश के बाद जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर जैन धर्म की प्रभावना वृद्धिंगत करने का महान् कार्य-जैन समाज में धर्मप्रचार-प्रसार का महान् कार्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हुआ। यह इतिहास भविष्य में भी प्रभावशाली बना रहेगा, यह महान् प्रशंसनीय कार्य-जैन समाज के लिये गौरव की बात है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्राचीन काल में समय-समय पर आचार्य परम्परा में जैनागम की प्राकृत संस्कृत भाषा में रचनायें होती रहीं। इस समय प्राकृत-संस्कृत भाषा का अध्ययन करने वाले, समझने वाले बहुत कम विद्वान् रहे हैं। ऐसे समय में पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी ने भविष्यकाल की संध्या की ओर दृष्टिक्षेप रखकर अत्यंत सरल हिंदी भाषा में मूल आगम के सिद्धांत के अनुसार चारों अनुयोगों के कई शास्त्रों का प्रकाशन किया। साहित्य प्रकाशन का यह महान् कार्य-आर्ष परम्परा की रक्षा की ज्योति भविष्य में भी उज्ज्वलता से जगमगाती रहेगी- समाज को सन्मार्ग पर धर्म की प्रभावना हेतु कायम स्थिर रखने में भविष्य में भी निश्चित रूप से महान् फलदायी रहेगी यह हम सभी के लिये गौरव की बात है। तीर्थंकरों की परमपावन जन्मभूमि हस्तिनापुर क्षेत्र पर जम्बूद्वीप का विशाल निर्माण कार्य- इस कारण जैन भूगोल शास्त्र एवं ज्योतिर्विज्ञान का विश्व में संशोधन हेतु सहायक बनेगा। जैन धर्म की प्राचीनता की छाप भविष्य में भी कायम रहेगी। ऐसी महान् आर्यिका ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हम सभी को सामाजिक कार्य में भी प्रेरणा मिलती रही है- आपकी कार्य की महानता शब्दों में अंकित नहीं की जा सकती। पूज्य माताजी को शत शत वंदन ! लगन की धनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी - भगतराम जैन मंत्री : अ०भा० दिगंबर जैन परिषद, दिल्ली लगभग ३० वर्ष पूर्व जिस समय आपने "जम्बूद्वीप" के मॉडल का कार्य ब्यावर (राज.) में प्रारम्भ किया था, उस समय स्व० लाला परसादीलाल पाटनी द्वारा आपका परिचय प्राप्त हुआ था, बाद में वह दिल्ली आ गईं; तब से मुझे पूज्य माताजी के अनेक बार दर्शन करने का अवसर मिला। भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण दिवस के कार्यों में आपका हर प्रकार से सहयोग प्राप्त हुआ। साहित्य प्रकाशन कर प्रचार-प्रसार किया। श्री हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष रायसाहब उलफतरायजी ने क्षेत्र के महामंत्री बाबू सुकुमार चंदजी को दिल्ली बुलाकर कहा कि आप आर्यिका ज्ञानमती से मिलकर "जम्बूद्वीप" का कार्य हस्तिनापुर में करायें। वे पू० माताजी से मिले, विचार विमर्श होकर माताजी हस्तिनापुर आ गईं। इनके हृदय की लगन का यह परिणाम है कि आज "जम्बूद्वीप" विशाल रूप धारण किये हुए है। बड़ी संख्या में यात्री आते हैं, हर प्रकार की सुविधायें उपलब्ध हैं। इस कार्य को सफल बनाने में इनके सभी सहयोगी बधाई के पात्र हैं। पूज्य माताजी को उनकी लगन के लिए श्रद्धा के सुमन अर्पित करता हूँ। शुभकामना - रत्नकान्त फडे - अध्यक्ष बी०बी० पाटील - कार्याध्यक्ष आर०पी० पाटील - महामंत्री : दक्षिण भारत जैन सभा, सांगली, डॉ० सुभाषचन्द्र अक्कोले, संपादक : प्रगति आणि जिनविजय, साप्ताहिक मुखपत्र द०भा० जैन सभा, सांगली [महाराष्ट्र] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवंदन ग्रंथ के लिए हमारी शुभकामना। पूज्य माताजी का कार्य हस्तिनापुर तीर्थस्थल पर जम्बूद्वीप का निर्माण के रूप में अमर बना है। उनके जीवन वृत्त, साहित्य रचना, धर्मप्रचार आदि का परिचय इस अभिवंदन ग्रन्थ से राष्ट्र को होगा। इसके लिए हमारी शुभ कामनाएँ एवं पूज्य माताजी को त्रिबार वन्दन ! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३३ बचपन से ही संघर्षशील माताजी -कैलाशचन्द्र जैन सर्राफ, टिकैतनगर महामंत्री : भा०दि० जैन महासभा, उत्तर प्रदेश पूज्या श्री ज्ञानमती माताजी बचपन से ही, जब गृहस्थावस्था में मैना के रूप में थीं, तभी उनमें एक विशेषता थी कि जिस कार्य को करने का निश्चय कर लेती थीं उस कार्य के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ रहती थीं। चाहे वह कार्य रूढ़िवादिता के विरुद्ध संघर्ष का हो या स्वयं के आत्म-कल्याण का। एक बार सोचे गये कार्य के प्रति उसके अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति तक पुरुषार्थ में कभी भी कमी नहीं आने देना इनकी विशेष बात थी। जब हमारे छोटे भाई प्रकाश एवं सुभाष चेचक की बीमारी से बुरी तरह पीड़ित हो गये थे, उन दिनों नगर ही नहीं, बल्कि आस-पास के गाँवों में भी चेचक एक भयंकर रूप ले रही थी। दोनों भाई रूई के फाहे में उठाये-बिठाये जाते थे, अत्यन्त नाजुक स्थिति थी, रूढ़िवाद अज्ञानता भी अपनी चरम सीमा पर था। कोई इलाज करना, देवी-देवताओं के प्रति अनास्था-अनादर माना जाता है। बल्कि देवी-देवताओं की अवज्ञा न हो, घर में न तो कपड़े धुलाये जाते थे, न ही दवा के लिए किसी को डॉक्टर को दिखाया जाता था। उस समय बड़ी ही विकट परिस्थिति थी। हमारी दादी एवं नगर की हर एक बड़ी-बूढ़ी उसे देवीजी के प्रकट होने का रूप मानती थी। उस समय मैना की उम्र लगभग १२ वर्ष की थी और उन्होंने माँ से सलाह करके सदियों से चली आ रही अज्ञानता, रूढ़िवादिता एवं कुदेवपूजन को समाप्त करने का निर्णय कर लिया था। वह निर्णय अत्यन्त नाजुक स्थिति में लिया गया, साहसिक कदम था। एक ओर दोनों भाई कराह रहे थे, प्रतिक्षण क्षीण होती हुई हालत और दूसरी ओर लोकमूढ़ता से संघर्ष । सभी लोगों का कहना था कि इस लड़की को देवीजी के प्रति अवज्ञा से दोनों बच्चों का जीवन अब सुरक्षित नहीं रह गया है, किन्तु किसी की भी परवाह न करके प्रतिदिन देवशास्त्र-गुरु की पूजन करना और गंधोदक धुले साफ बिस्तर और वस्त्र बदलवाकर छिड़कना, योग्य दवा देना तथा प्रतिक्षण उपचार के प्रति सजग रहना यही उनकी दिनचर्या का प्रमुख कार्य था। जब शनैः शनैः चेचक का प्रकोप कम होने लगा स्वयं बच्चे उठने-बैठने की स्थिति में होने लगे तब उन्हीं ने मैना- जो आज पू० गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी हैं, जो सदियों से चले आ रहे देवमूढ़ता और लोकमूढ़ता के अंधविश्वास में डूबे थे, मैना के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे और एक दिन आ ही गया जब दोनों भाई की स्वस्थता के साथ ही नगर के समाज से सदा के लिए इस मिथ्यात्व का पलायन हो गया। इसी तरह अनेक कार्य बड़े ही साहसिक किये। जो महापुरुष होते हैं वह स्वयं मार्ग का निर्माण कर लेते हैं, यह उन्हीं लोगों में से एक हैं। जब १७-१८ वर्ष की उम्र में शादी के लिए पिताजी ने सगाई की रस्म पूरी कर दी थी और मैना ने आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लेकर तपश्चर्या करने का अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था। फिर उस निश्चय और आने वाले समय में कितना संघर्ष हुआ और उन सब में वह किस प्रकार खरी उतरीं यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूज्य पिताजी मोह से इतना पागल हो रहे थे कि आचार्य देशभूषणजी महाराज को दीक्षा न देने के लिए किन-किन शब्दों में कहा। पूज्य ताऊजी, मामाजी ने मैनाजी को केशलोंच करते हुए बीच में ही बाराबंकी में जन-समुदाय के मध्य ही हाथ पकड़कर रोका और कितना वाद-विवाद किया। छोटे-छोटे भाई-बहिन तथा स्वयं मेरे मोह, जिसे कि बचपन में अपने हाथों से नहलाती-धुलाती थीं, हमेशापाठशाला की पढ़ाई में मेरा ध्यान रखती थीं तथा सदैव ही मैं उनसे अपने मन की बात कहता था और मुझसे अत्यन्त स्नेह करने वाली मेरी बड़ी बहिन कु० मैना देवी मेरी भी किंचित् परवाह न करते हुए मोह के बन्धन से मुक्त होने में तत्पर परिवार एवं समाज से कठोर संघर्ष, वाद-विवाद, उत्तर-प्रत्युत्तर करती हुई अन्ततः विजयी हुई और उसी प्रशस्त मार्ग पर चल पड़ी, जिसे महापुरुषों ने अपने पुरुषार्थ के लिए युगों पूर्व अपनाया था। पू० माताजी ने जिस कार्य को धर्मानुकूल समझा और देखा कि इसमें मेरी तथा अन्य की भलाई है, जो प्रशस्त है, करने योग्य है फिर उस कार्य को करने का बीड़ा उठाया। फिर चाहे वह सम्यग्ज्ञान लेखनी का हो, चाहे वह जम्बूद्वीप निर्माण का हो, चाहे जो भी हो, माताजी कुछेक लोगों के अज्ञान, अविवेक और एकान्तवाद से प्रेरित बहुजन के आगे सदैव संघर्षरत रहीं। और उसी का परिणाम है- निरन्तर निकलने वाली अविरल रूप से प्रवाहित ज्ञान गंगा सम्यग्ज्ञान । समय-समय पर ज्ञानवर्द्धन एवं सुषुप्त ज्ञान को जगाने हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर । देश-विदेश के बुद्धिजीवियों को चकित करने वाली भौगोलिक रचना जम्बूद्वीप। पूज्या माताजी ने लम्बी बीमारी के समय भी संयम में सदैव सावधानी रखी है और उसी से प्रेरित होकर वैद्य-राजवैद्य माताजी के संयम की प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं। हमारा तो दृढ़ विश्वास है कि पू० माताजी का जब तक सानिध्य प्राप्त होता रहेगा। समाज-देश का कल्याण होता रहेगा। ऐसी विदुषी माताजी शतायु हों। यही मेरी वीर प्रभु से मंगलकामना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "धन्य यहाँ की माटी है" -प्रकाशचन्द जैन प्रबंधक : श्रीरत्नमती बाल विद्या मंदिर, टिकैतनगर इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर द्वारा रची गई अवध प्रान्त की अयोध्या नगरी, जिसे सौभाग्य प्राप्त है, अनेक तीर्थंकरों को जन्म देने का। इसी नगरी के समीप टिकैतनगर में माँ मोहिनी देवी की कुक्षि से जन्म लेने वाली एक छोटी-सी बालिका, आप सबकी तरह अपने माँ-बाप की दुलारी, सखी-सहेलियों के बीच खेली, अपने १६ वसंतों को पार कर चुकी थी। माता-पिता ने सभी की तरह आपकी शादी की तैयारी शुरू की। आप सबकी तरह ही तो खेला करती थीं। पर यह क्या ? आपने तो शादी से इंकार कर दिया। बाल ब्रह्मचारिणी रहने का संकल्प ले लिया। कोई नहीं जानता था कि यह नन्हीं बालिका कु० मैना हम सबके देखते-देखते बगैर शादी किए, बिना किसी पुत्र को जन्म दिए, असंख्य पुत्रों की माता बन जायेंगी, जगन्माता कहलायेंगी। अपने ज्ञान-ध्यान से सम्पूर्ण साधुओं में अधिक विद्वान् बनकर साधु शिरोमणि कहलायेगी। भारत ही क्या जिनके चरणों में विदेश से लोग अपनी-अपनी शंकाओं का समाधान पाने हेतु आते हों। तभी तो भारत के जैन साधुओं का मस्तक गौरव से ऊँचा है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी पूज्या ज्ञानमती माताजी ने सैकड़ो ग्रन्थों की रचना कर साधु समाज व जैन समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है। साधु समाज व जैनाजैन समाज पर आपकी विद्वत्ता का वर्चस्व है, तो मासूम छोटे-छोटे असंख्य-नन्हें मुन्ने, भैया-बहन आपका प्यार पाने से क्यों वंचित रह जायें। ऐसा सोचकर साक्षात् सरस्वती का अवतार पूज्या माताजी ने अपनी लेखनी से बाल-सुकुमारों को सचित्र बाल पाकेट उपन्यास देकर उन्हें आह्लादित कर दिया। आप जैनाजैन समाज, साधु समाज तक ही सीमति हों ऐसा भी नहीं है। राजनैतिक क्षेत्र में आपका कितना आदर है। आपके त्यागमयी जीवन से प्रभावित होकर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गाँधी, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्री राजीव गाँधी, वर्तमान प्रधानमंत्री श्री पी०वी० नरसिंह राव, केन्द्रीय मंत्री श्री माधवराव सिंधिया, पूर्व मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी आदि अनेक शीर्षस्थ नेताओं ने आपके दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। धन्य है ऐसी माटी, जिसने ऐसा फूल खिलाया जिसकी महक विश्व के कोने-कोने में पहुँच गई। विश्व का सम्पूर्ण जैन जगत् आपकी विद्वत्ता, आपका आदर्श, त्याग, आपकी आगम के प्रति निष्ठा, आपकी वात्सल्यता देखकर यही भावना करता है कि ऐसी पूज्या माताजी का वरदहस्त हम पर हमेशा बना रहे। पूज्या माताजी का हृदय वात्सल्य से भरा है, आपने अनेक महिला कुमारियों एवं पुरुषों को कोशिश करके घर से निकाल कर उनका उद्धार कर दिया, उन्हें तब तक प्रेरणा देती रहती जब तक आत्मकल्याण के मार्ग पर लगा न देतीं। वर्तमान में स्वर्गीय पूज्य श्री अजितसागरजी महाराज, वर्धमानसागरजी, क्षु० मोतीसागरजी, आर्यिकाओं में पूज्या पद्मावतीजी, जिनमतीजी, आदिमतीजी, अभयमतीजी, शिवमतीजी, रत्नमतीजी, श्रद्धामतीजी, चन्दनामतीजी, ब्र० रवीन्द्र कुमारजी, कु० आस्था, कु० बीना आदि सब आपकी ही देन हैं। पूज्य पिताजी कहा करते थे कि माताजी में ऐसी चुम्बकीय शक्ति है कि जो भी माताजी के पास जाता है, उन्हीं का हो जाता है। पूज्या माताजी का ज्ञान अलौकिक है, आपने श्रवणबेलगोला में भगवान् बाहुबली के चरणों में ध्यान लगाकर अपने तप के प्रभाव से जम्बूद्वीप, सुमेरुपर्वत के दर्शन किए, जिसे हस्तिनापुर में साक्षात् निर्माण करवाकर देश को विश्व का आठवाँ आश्चर्य दिया। इस अनोखी रचना के दर्शन कर पूज्या माताजी को लोग लाखों वर्षों तक याद करते रहेंगे। आप अमर हैं, जब तक प्रलय काल नहीं आता, तब तक हस्तिनापुर नगरी की इस मनोरम जम्बूद्वीप की रचना के दर्शन कर सभी भव्य प्राणी पूज्या माताजी को याद करते रहेंगे। आपकी प्रेरणा से सन् १९८२ में ज्ञानज्योति रथ निकाला गया, जिसका उद्घाटन माननीया प्रधानमंत्री स्व० श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा किया गया, जो लगातार ३ वर्षों तक भारत के कोने-कोने में भ्रमण करता हुआ धर्मप्रचार करता रहा। जिसके माध्यम से पूज्या माताजी द्वारा रचित ग्रंथ भारत के कोने-कोने में पहुँचा। लोगों में जिस प्रकार की जागृति आई, वह अपने में बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज माताजी द्वारा रचित विधान भारत के कोने-कोने में हो रहे हैं, भक्तगण विधान करते-करते पूजन की पंक्तियाँ पढ़ते-पढ़ते ऐसे भावविभोर हो जाते हैं कि कुछ समय के लिए अपना सब कुछ भूलकर अपने को भगवान् के चरणों में पाते हैं। ऐसी रस भरी पंक्तियों को पढ़कर ऐसा झूम उठते हैं कि कब उनके पैर थिरकने लगते हैं, भगवान् के समक्ष भक्ति से झूमकर नाच उठते हैं। माँ ज्ञानमती की जय-जयकार करते हुए नहीं अघाते, उनके हर्षाश्रु बहने लगते हैं। लोग सोचते हैं कि इसके पूर्व भी तो काफी विधान होते थे, पर पूज्या माताजी द्वारा रचित विधानों में तो ऐसा जादू Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३५ है, जो आज तक कहीं भी देखने को नहीं मिला। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जगह-जगह इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान एक बार नहीं, कई-कई बार हो रहे हैं। साक्षात् करुणा की मूर्ति पूज्या ज्ञानमती माताजी ने अपने भक्तों को कभी निराश नहीं होने दिया। पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, लड़ाई-झगड़ा, मुकदमे-व्यापार आदि से दुःखी व्यक्तियों को सम्यक्त्ववर्द्धक यंत्र-मंत्र देकर उनकी इच्छा पूर्ण की। मंत्र फलित होने पर भक्तजन जय-जयकार करते हुए आकर बताते हैं, माताजी आपके यंत्र-मंत्र के प्रभाव से अपनी इच्छित मनोकामना पूर्ण हुई। इस कल्पवृक्ष से जब जिसने जो चाहा सो पाया। जब पूज्या माताजी ने दीक्षा ली थी मैं बहुत छोटा था। अपनी जीजी (पूज्य ज्ञानमती माताजी) के पास ही सोता था, उनके उठते ही उनकी उँगली पकड़कर उठ जाता था। बचपन में मुझे चेचक की भयंकर बीमारी हो गई थी, मरणासन्न स्थिति थी। उस समय यह मैना जीजी हमें रूई के फाहों से उठाती थीं, गाँव में शीतला माता देवी (मिथ्यात्व) की पूजा का रिवाज था। मैना जीजी यह सब मिथ्यात्व न करके भगवान् शीतलनाथ का अभिषेक करके मंदिर से जल लाकर छिड़कतीं, पिलातीं, दवा देतीं, पर मिथ्यात्व को पनपने नहीं दिया। बचपन से ऐसी दृढ़ आस्था थी धर्म पर। इन्होंने ही मुझे जीवनदान दिया। क्या पता था यह मेरी जीजी के रूप में जगन्माता स्वयं मेरी सेवा कर रही थीं? कितना सौभाग्यशाली हूँ मैं ? उस समय किसी परिवार में कोई कुमारी कन्या इस तरह से बाल ब्रह्मचारिणी बनकर दीक्षा ग्रहण किये हो, ऐसा नहीं था। मुझे जहाँ तक याद है इस प्रकार की दीक्षा का परिजन, पुरजनों द्वारा काफी विरोध किया गया था, परन्तु आपकी दृढ़ता के आगे किसी की नहीं चली। आज वही परिजन, पुरजन तो क्या, नगर निवासी क्या, पूरा अवध प्रान्त पूज्या माताजी के गुणों का गान करते हुए नहीं अघाता। आज सभी का मस्तक गर्व से ऊँचा है। सन् १९५८, अजमेर नगरी का वह मनोरम दृश्य, आचार्यश्री शिवसागरजी महाराज का वर्षायोग सम्पन्न हो रहा था, इसी संघ में पूज्या ज्ञानमती माताजी भी थीं। साक्षात् चतुर्थकाल का दृश्य था, पचासों पिच्छीधारी साधुओं के दर्शनों का सौभाग्य मिला। उस समय सरसेठ भागचंदजी सोनी माताजी के उपदेश से इतना प्रभावित थे कि आचार्य महाराज से निवेदन करते कि महाराज पूज्या ज्ञानमती माताजी का उपदेश सार्वजनिक स्थान पर होना चाहिये और ऐसा कई बार हुआ। मैंने देखा पूज्या माताजी की दैनिक चर्या को। प्रातः से ही ८-१० दिगंबर साधु पंक्तिबद्ध बैठते, पूज्यामाताजी उन सबको पढ़ाती थीं। पश्चात दुपहर में पूज्य श्री श्रुतसागरजी महाराज के पास माताजी के सानिध्य में ब्र० बाबा लाड़मलजी, कजोडमलजी, ब्र० राजमलजी (पूज्य श्री अजितसागरजी) बाबा श्रीलालजी आदि सभी बैठते, तत्त्व चर्चाएं होतीं। वह विषय तो हमारे पल्ले नहीं पड़ता था, परन्तु अच्छा खूब लगता था। उस समय मुझे पूज्यामाताजी के चरण सानिध्य में रहने का ६ महीने सौभाग्य मिला। एक बार पुनः १९६२ में पूज्या माताजी का चरण सानिध्य प्राप्त हुआ। पूज्या माताजी आचार्यश्री की आज्ञा से ५ आर्यिका माताओं के साथ श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा को निकली थीं। मुझे मालूम हुआ कि पू० माताजी अपने संघ सहित चौरासी मथुरा में विराजमान हैं। मुझे मथुराजी से श्री सम्मेदशिखर तक पूज्या माताजी की पदयात्रा में लगभग ६ माह रहने का अवसर मिला। प्रतिदिन विहार, आहार, पड़ाव का क्रम जारी था। पूज्या सभी माताजी पैदल चलती थीं। चौके आदि का आवश्यक सामान बैलगाड़ी में चलता था। कितना सुन्दर दृश्य था, सुबह की प्राकृतिक सुन्दरता, गाँव-गाँव के लोगों से मिलना। चौके की व्यवस्था, पुनः विहार, शाम को पड़ाव बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रास्ते में कितनी अनोखी घटनाएँ घटती थीं, जो माताजी की निर्भीकता का परिचय देती थीं। उनमें से एक घटना का विवरण बताना चाहूँगा। संघ विहार करते-करते लगभग बिहार प्रान्त में पहुँच चुका था। एक दिन हम लोगों को रात्रि-विश्राम की व्यवस्था एक जंगल के पुराने खण्डहर में करनी पड़ी। चूँकि गाँव अभी दूर थे, रात्रि होने वाली थी, आगे नहीं जाया जा सकता था। ऐसे निर्जन स्थान पर सड़क के किनारे रात्रि में हम अकेलं खड़ अपनी बैलगाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे कि कुछ राह चलते पथिक रुके, पूछा आप कौन हैं ? यहाँ क्यों खड़े हैं ? हमने उन्हें अपनी यात्रा सम्बन्धी बात बताई। राहगीरों ने बताया कि आप लोग यहाँ से तुरन्त भाग चलें, यह डाकुओं का अड्डा है। बड़े भयंकर डाकू रहते हैं, ६-७ बजे के बाद इधर का आवागमन पूरा बन्द सा हा जाता है। मैं उनकी बात सुनकर घबड़ा गया। माताजी सामायिक पर बैठ चुकी थीं। सामायिक समाप्त होने पर हमने माताजी को प्राप्त जानकारी दी। माताजी मुस्कराईं, रात्रि में मौन होने के कारण सिलेट पर लिखकर बताया "घबड़ाओ नहीं कुछ नहीं होगा"। पुनः गाड़ी के इतजार में सड़क के किनारे खड़े थे, बियावान् जंगल, रात्रि के ९-१० बजे का समय, मन को भयभीत करने के लिए इतना ही वातावरण काफी था कि आठ-दस लोग घोड़े से आ गए। एक आदमी ने गरज कर पूछा कौन हो तुम? यहाँ कैसे आए ? ऐसी कड़कदार रोबीली आवाज सुनकर में काँप उठा, मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह लोग डाकू ही मालूम पड़ते हैं। मैंने अन्तरंग में डरते-डरते जैन साधु की पदयात्रा, रात्रि पड़ाव, इनके त्याग के विषय में संक्षिप्त रूप में बताया तो वे लोग शान्त हुए। पुनः बोलेकहाँ हैं तुम्हारे साधु ? उनसे बात करनी है, हमने बताया हमारे साधुओं का रात्रि में मौन रहता है। सुबह बात कर सकते हैं। उनमें से एक आदमी खण्डहर के अंदर गया, सभी पूज्या माताजी विश्राम कर रही थीं, देखकर बाहर निकला, बोला- यह लेडीज हैं या जेण्ट्स । हमने एक ही उत्तर दिया यह जैन साधु हैं, बोले ठीक है। हम सुबह बात करंग, कहकर चले गए। हम डरते-डरते गाड़ी का इंतजार करते रहे। थोड़ देर बाद गाड़ी आई, सबको हाल बताया गया, सभी डरे-डरे सहमे-सहमे थे, कब क्या हो जाय ? परन्तु वहाँ कोई नहीं आया। सुवह ४ बजे उनमें से एक आदमी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आया, संभवतः उनका सरदार था । माताजी के दर्शन किए, थोड़ी देर बातचीत की, पूज्या माताजी से इतना प्रभावित हुआ कि ४-५ कि०मी० तक माताजी के साथ पैदल चला । पुनः आशीर्वाद लेकर वापस चला गया। आगे के गाँववालों ने प्रातः शौच क्रिया हेतु जाते हुए हम लोगों के साथ उस व्यक्ति को देखा, सभी सहम गए, काँप गए। जब वह वापस चला गया तो गाँववालों ने उसके खूँखार होने की बात बताई, बोले देखते ही गोली मार देता है पू० माताजी ने हँसते हुए बताया कि उसने हिंसा करने का त्याग कर दिया है। ऐसी-ऐसी चामत्कारिक घटनाओं से भरा पड़ा है माताजी का जीवन विहार में प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्ति माताजी के दर्शन करते, उपदेश सुनते, मधुमांस शिकार आदि का त्याग कर यथाशक्ति व्रत ग्रहण करते धन्य है ऐसा परोपकारी जीवन । पूज्या माताजी विश्व की धरोहर हैं, चलती-फिरती तीर्थ हैं, जिसने ऐसी माताजी से लाभ नहीं लिया उसका जीवन व्यर्थ है। आज हम सोचते हैं, भगवान्, जिस समय केवली भगवानों का समवसरण चलता था उस समय हम कहाँ थे, क्यों नहीं हम केवली भगवान् की शरण में गए, क्यों नहीं हमारा उद्धार हुआ। साक्षात् केवली के अभाव में उनकी पथगामी सरस्वती की अवतार पूज्या माताजी हैं। क्यों न आप हम उनके शरण में आकर अपना उद्धार कर लें । पूज्या माताजी के चरणों में कोटिशः नमन करते हुए भावना भाता हूँ कि जब तक सूरज चाँद रहे, माँ ज्ञानमती की छाह रहे। कोटिशः नमन । वात्सल्यमूर्ति Jain Educationa International शत शत वंदन "जो बतलाते नारी जीवन लगता मधुरस की लाली है। वह त्याग तपस्या क्या जाने कोमल फूलों की डाली है । जो कहते योगों में नारी नर के समान कब होती है। ऐसे लोगों को ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है ॥" - अमरचन्द जैन, होम ब्रेड, मेरठ पूज्य आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी इस भोग प्रधान युग में श्रद्धा और चारित्र्य से डगमगाती हुई इस धार्मिक जनता में अपनी प्रभावक वाक्शक्ति और तपपूर्ण दर्शन के द्वारा जो सारभूत आत्मबोध करा रही हैं वह वर्तमान भौतिक युग के लिए एक कटु एवं सत्यपूर्ण चुनौती है। युग को ऐसे निर्भीक, सदाचारी एवं मृदु व्यवहार कुशल सदुपदेष्टाओं की महती आवश्यकता है। दीपक जिस प्रकार स्वयं जलकर भी दूसरों को प्रकाश प्रदान करता है, चंदन विषधरों के द्वारा इसे जाने पर भी सुगन्धि ही बिखराता है उसी प्रकार परम श्रद्धेय ज्ञानमती माताजी ने सदैव परोपकार में ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है। आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह सब परम पूजनीय माताजी का मंगल आशीर्वाद ही है। वात्सल्यमूर्ति माताजी की चरित्र के प्रति दृढ़ता और आत्मा के प्रति कठोरता प्रत्यक्ष रूप में जो मैंने देखी है, वह कभी-कभी मेरे हृदय में उद्वेग पैदा कर देती है। मैं सोचने लगता हूँ कि क्या ऐसी कठोर तपस्या मानव जीवन के लिए अन्याय नहीं है, किन्तु तुरन्त ही माताजी की पर्वतीय दृढ़ता का स्मरण कर नतमस्तक हो जाता हूँ । आर्यिका र परम पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी परम पावन, परम दृढ़ता, परम तपखिता एवं परमगंभीरता की पुंज हैं। मैं अपनी एवं समस्त होमब्रेड परिवार की ओर से ऐसे गुरु के शतजीवी होने की, अमर मंगलकामना करता हुआ उनके श्रीचरणों में शत शत विनयांजलि अर्पित करता हूँ। शत शत वंदन । For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ 1 विनयांजलि मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। हमें इस बात का जन्म भूमि अवध में हो रही है। हम लोगों को माताजी का हमेशा ज्ञानमार्ग मिलता रहा है और बराबर मैं हस्तिनापुर और उनके दर्शनों से लाभ मिलता रहा है। माताजी हमारे भारतवर्ष की आर्यिकाओं में अपना प्रथम स्थान रखती हैं। जिससे जैन धर्म को बहुत लाभ हुआ है। ऐसी माँ को हम बार-बार प्रणाम करते हैं। हम सपरिवार माताजी के प्रति और भगवान महावीर स्वामी से प्रार्थना करते हैं कि माताजी इसी तरह ज्ञान की गंगा बहाती रहें। भी गर्व है कि माताजी की गया तब भी उनसे मिलकर हैं आपने सैकड़ों ग्रन्थ लिखे विनयांजलि प्रस्तुत करते हैं "गणिनी आर्यिकारत्र" Jain Educationa International [१३७ — - सुमेरचन्द पाटनी, डालीगंज-लखनऊ अध्यक्ष : भा०दि० जैन महासभा उत्तर प्रदेश किसी भी देश, समाज या मनुष्य की पहचान उसकी संस्कृति और साहित्य से होती है। यह जितने समृद्ध होंगे वह समाज उतना ही उन्नत एवं प्राणवान् होगा। इसलिए जीवन्त समाज के लिए अपनी सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरोहर की रक्षा जरूरी है। परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप एवं वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के द्वारा हमारी संस्कृति और साहित्य में जो योगदान दिया है वह उनका जैन समाज पर इतना बड़ा उपकार है, जिसे हम लोग तो क्या आगे आने वाली पीढ़ियाँ भी हमेशा याद रखेंगी। मैं अपने को अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ कि मुझे पूज्य माताजी के अभिवन्दन ग्रन्थ में विनयाञ्जलि अर्पित करने का सौभाग्य मिला है। मेरी जिनेन्द्रदेव से यही प्रार्थना है कि पूज्य माताजी शतायु हों एवं उनका वरदहस्त समाज पर हमेशा रहे । - कन्हैयालाल जैन, लखनऊ ― Fountain of Gyan, Darshan and Charitrya -R.P. Patil, Gen. Secretry, Dakshin Bharat Jain Sabha For Personal and Private Use Only "BHARAT" is an ancient land of various precious cultures enchating and enriching the human life through their philosophical teachings. Jainisam has been second to none in its teaching-utmost endeavour for salvation. Param Pujya Jian Acharyas and Aryikas were the real torch bearess who by their ideal practicies and preachings of austerity, simplicity, and sincerity showed the real way to enternal happiness-salvation. In these beads of beaconing lights Param Pujya Gyanmati Mataji has been a prominant one. Really a fountain of Gyan, Darshan and Charitrya has been doing the singular sacred religious work. Pujya Mataji's renunciation of wordly affairs and acceptance of the ascetic life, touring the nook and corner of the land, deep study of misterious Jain granthas, profound interest in and creation of Jain literature, establishment of Jambudweep, spreed of Jambudweep Gyanjyoti's massage of unity, morality and cult of non violence, periodical and publications to propogate religious tenets and to crown all above setting up of an University for renascence of our encient precious culture deserve thousands of our salutations. After years of gaps great souls are born to kindle the spirit of religious righteousness. "With folded hands and bended knees As we bow before our lips part to pray" "May the preachings of Mataji bloom into fragrant flower to bestow heavenly bliss all over" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अद्वितीय प्रतिभा - राजकुमार सेठी, कलकत्ता यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को समर्पण करने के लिए एक अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। परम पू० माताजी के विषय में लिखना असम्भव है। उनके द्वारा वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज के लिए जो कार्य किया गया है, वह ऐतिहासिक है। मेरा तो पू० माताजी से पिछले बीस वर्षों से निरन्तर सम्पर्क रहा है। जम्बूद्वीप के लिए किये गये दोनों ही पंचकल्याणक में भाग लेने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था। माताजी ने जो कार्य किये हैं , वे सारे के सारे अद्वितीय हैं। जिसमें जम्बूद्वीप, ज्ञानज्योति की भारत यात्रा एक अद्भुत प्रयास था। जिसमें समग्र जैन समाज को एक सूत्र में बाँधने का महान् प्रयास था। उनकी जन्म जयन्ती पर मैं अपनी हार्दिक विनयाञ्जलि देकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। माताजी शतायु हों और इसी तरह जैन समाज का कल्याण करती रहें। यही भावना है। सरिता बन गई सागर - धर्मचन्द मोदी, ब्यावर भौतिकता से परिपूर्ण जीवन पद्धति के इस युग में मानवीय मूल्यों का जो ह्रास हो रहा है, उसको नियंत्रित करने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत त्यागियों, तपस्वियों एवं शलाका पुरुषों के जीवन-वृत्त को इस तरह उजागर किया जाये कि दिशा-हीन मानव समाज में बदलाव आ सके और विनाश के कगार पर खड़ी दुनिया को त्राण मिल सके। मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हो रही है कि श्रद्धालु भक्तों, धर्मानुयायियों द्वारा युग की महान् धरोहर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र की त्रिवेणी, जैन वाङ्मय के तत्त्वों को जन-जन के लिए प्रेरणास्पद, सरस, सुबोध साहित्य सृजन करने वाली परम विदुषी आर्यिकारत्न परम पूज्या ज्ञानमती माताजी के अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रयास न केवल सराहनीय है, अपितु अपने कर्तव्य के प्रति उत्तरदायित्व का परिचायक है। इन महान् विभूति का सानिध्य ब्यावर नगर को भी करीब ३४ वर्ष पूर्व सन् १९५८ में परम तपस्वी १०८ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के साथ चातुर्मास काल में तथा उसके पश्चात् भी पुनः प्राप्त हुआ। लम्बी अवधि तक ब्यावरवासियों को आपके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके ज्ञान की गरिमा और साधु जीवन की आगमसम्मत चर्या को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते थे। आपके ज्ञानार्जन की रुचि के कारण ही स्थानीय दस हजार से अधिक धर्म ग्रन्थों के संग्रह वाला ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन का शास्त्र-भण्डार आपके प्रवास की लम्बी अवधि तक बनाये रखा। समाज ने भी भक्तिपूर्वक आपके चरणों का सानिध्य प्राप्त करते रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कहावत है कि पूत के लक्षण पालने में ही दृष्टिगत हो जाते हैं। मेरे जैसे व्यक्ति के जीवन को भी धर्ममार्ग पर बने रहने में आपकी विशेष भूमिका रही है, जिसके लिए मैं स्वयं आपका पूर्ण कृतज्ञ हूँ। सन् १९७२ में ब्यावर से बिहार के पश्चात् धर्म प्रभावना करते हुए आप दिल्ली पधारी। दृढ़ आस्था की धनी और जैन-संस्कृति की रक्षक होने के कारण आपकी भावना हस्तिनापुर में पल्लवित और पुष्पित हुई। ब्यावरवासी इसे अपना सौभाग्य समझे बिना नहीं रह सकते कि हस्तिनापुर (मेरठ) में निर्मित जम्बूद्वीप की रचना जो आज विश्व भर के भौगोलिकों, वैज्ञानिकों, प्राच्य अध्येताओं के आकर्षण का केन्द्र बन गई है, उस भव्य एवं चित्ताकर्षक जम्बूद्वीप रचना की भाव-भूमिका बीजारोपण ब्यावर नगर में ही हुआ था। इस रचना और दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान तथा वहाँ के भव्य जिनालय ने भारत प्रसिद्ध तीर्थ की मान्यता एवं विकास में चार चाँद लगा दिये हैं। पूज्या माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप रचना के ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन सन् १९८२ में भारत की तत्कालीन साहसिक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के कर कमलों द्वारा दिल्ली से हुआ। इसके सम्पूर्ण भारत में भ्रमण से जैन धर्म की अभूतपूर्व प्रभावना हुई । जैन समाज द्वारा तन-मन-धन से उत्साहपूर्वक, समर्पित भावना से जहाँ सहयोग प्रदान किया गया। वहीं अजैन जनता तथा सरकार द्वारा भी अपनी उपस्थिति व व्यवस्था से इस प्रवर्तन काल में सहयोग प्रदान किया गया। मैं राजस्थान प्रान्त का संयोजक था और करीब-करीब पूरे राजस्थान तथा उसके अतिरिक्त पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार आदि प्रान्तों के कुछ क्षेत्र में प्रवर्तन के टार-साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस भ्रमण में जो निष्ठा, लगन, उत्साह एवं अभूतपूर्व स्वागत जनता द्वारा दिया गया उसका जतनी प्रशमा का जाये, कम है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१३९ पूज्य माताजी की प्रतिभा सर्वतोमुखी है । छद्म आधुनिकता के नाम पर किसी भी वर्ग विशेष द्वारा दिगम्बर जैनाचार्य की परम्परा प्राप्त मान्यताओं व सिद्धान्तों में जब कभी परिवर्तन का कुचक्र चलाया गया अथवा मूल जैन संस्कृति पर किसी भी पक्ष द्वारा आघात पहुँचाने की कुचेष्टा की गई तब-तब माताजी ने भी सजग रहकर शास्त्रीय परम्परा के अनुसार प्राचीन जैन संस्कृति की रक्षा करने एवं उसे अक्षुण्ण बनाये रखने में महद् योगदान किया है। आपकी तेजोमय शक्ति का ही परिणाम है कि अटूट श्रद्धा से स्थापित दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर तक की परम्परा को सुरक्षित रखने में अहर्निश शोध की दिशा में अग्रसर है। समय-समय पर शिविर व सेमिनार का आयोजन करके महती धर्मप्रभावना की जा रही है। अपनी ओजस्वी, निर्भीक, वक्तृता द्वारा अमिट छाप डालने में इनकी निपुणता असंदिग्ध है। मानवीय और सामाजिक समस्या सुलझाने की और शास्त्रीय धर्म के स्वरूप को समझाने की अलौकिक शक्ति आप में ही है। आपने अपने आदर्श जीवन से यह प्रमाणित कर दिया है कि नारी की शक्ति चारित्र, ज्ञान और चरमोन्नति में पुरुष से किसी क्षेत्र में कम नहीं है। आगम के सिद्धान्तों को जन साधारण तक पहुँचाने के लिए तथा आत्मिक शान्ति हेतु आत्म-साधना, स्वाध्याय, लोकोपदेश एवं पठन-पाठन आपके दैनिक कार्यक्रम के अंग हैं। प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत आर्ष ग्रन्थों को आज की भाषा और शैली में सम्पादित कर जन-जन तक पहुँचाना आज के युग की माँग है, पूज्य मातुश्री ने इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए आचार्य परम्परा प्राप्त अनेक प्राचीन ग्रन्थों के सार को नई शैली में प्रतिपादित करके समाज को उपकृत किया है। इसके अतिरिक्त प्राचीन दुरूह ग्रन्थों का वैज्ञानिक एवं विद्वत्तापूर्ण सम्पादन एवं अनुवाद कर जैन वाङ्मय का उद्धार कर जैन साहित्य निर्माताओं के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा है। राजनैतिक क्षितिज पर उभरते हुए व्यक्तित्व के धनी भी पूज्य मातुश्री की जीवन प्रणाली से प्रभावित होकर सम्पर्क में आते रहे हैं और उन पर पूज्य माताजी के गरिमापूर्ण ज्ञान और संयमपूर्ण जीवन की अमिट छाप पड़ी है। प्राचीन एवं अर्वाचीन विचारों की प्रेरक आर्ष परंपरा की पोषक माताजी की धार्मिक गतिविधियों से भारत की जनता इतनी प्रभावित है कि सन्तों, आर्यिकाओं एवं जैन-दर्शन की बात करते समय माताजी को विस्मृत नहीं कर सकती। आप वास्तव में गहन अन्धकार में डूबे हुए के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। आपके सम्बन्ध में जितना लिखा जाये अल्प है, सूर्य को दीपक दिखाना है। परम पूज्या माताजी के चरणों में मेरा शत-शत नमन । "सनावद चातुर्मास एक अमिट देन" -कैलाशचन्द्र चौधरी, सनावद सनावद नगर का दिगम्बर जैन समाज अत्यन्त भाग्यशाली है कि १९६७ में पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का सनावद नगर में चातुर्मास हुआ। उस समय माताजी की उम्र चंदनामती माताजी की उम्र के समकक्ष थी। माताजी के चातुर्मास की सबसे बड़ी एवं सबसे महान् उपलब्धि न केवल सनावद नगर के लिए, अपितु सम्पूर्ण दि० जैन समाज के लिए आचार्य वर्द्धमान सागरजी एवं क्षु० मोतीसागरजी के रूप में प्राप्त हुई। इतना ही नहीं, श्री इन्दरचन्दजी चौधरी, विमलचन्द्रजी काला, धरम भाई बडूद, त्रिलोकचन्द्रजी सर्राफ, श्रीचन्द्रजी जैन, विमल भाई बडूद प्रभृति युवाजन आपके द्वारा आरोपित संस्कारों से आज भी संस्कारित हैं। विशेष क्या लिखू मेरे अन्तःकरण में धर्म के प्रति आज जो श्रद्धा का भाव है, वह भी पूज्य माताजी के सानिध्य का ही कारण है। सच्चे सम्यग्दृष्टा की भाँति माताजी का संकल्प दृढ़ है और उसी का परिणाम है कि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना द्वारा सम्पूर्ण विश्व के समक्ष जैन भूगोल को साकार करने में वह सफल हुई। मुझे जो आपके सानिध्य में अनुभव हुए, उन्हें मैं वाणी द्वारा आभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। विनयाञ्जलि के रूप में अपने हृदयोदगार गुरु चरणों में समर्पित कर आनंद-विभोर हो रहा हूँ। श्रद्धापूर्ण विनयांजलि -सुरेश जैन आई०ए०एस०, भोपाल विदेश यात्रा से लौटने पर मुझे वर्ष १९८६ में सपरिवार हस्तिनापुर में पू० माताजी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनके दर्शन से मेरी ज्ञान-पिपासा बड़ी सीमा तक पूर्ण हुई एवं मन को आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई। क्षणिक भेंट में ही उन्होंने अपने जीवंत आशीर्वाद से मुझे उपकृत किया। तब से मैं उनके द्वारा रचित आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पुस्तकों का अध्ययन कर रहा हूँ। पू० माताजी का ज्ञान एवं त्याग अनुपम एवं अनुकरणीय है। भगवान से प्रार्थना है कि माताजी सदैव स्वस्थ एवं क्रियाशील रहकर शरद पूर्णिमा की ज्योति से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने भक्तजनों को आलोकित करती रहें। उनके चरणों में मेरी श्रद्धापूर्ण विनयांजलि अर्पित है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "अवतार प्रथम है बालसती का" - प्रकाशचन्द जैन, सर्राफ, सनावद [म०प्र०] पूज्य माताजी व संघ का सनावद में सन् १९६७ में चातुर्मास हुआ, तब से ही पूज्या माताजी के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ चातुर्मास में पूरे समय तो माताजी के ज्ञान गुण व दृढ़ इच्छाशक्ति वाले गुण को देखने का अवसर प्रत्यक्ष नहीं मिल पाया, क्योंकि उस समय बाहर पढ़ाई के लिए जाना पड़ा। बाद में जब माताजी का संघ बिहार होकर पू० आचार्य शिवसागरजी महाराज के संघ में पहुँचा तब से प्रतिवर्ष संघ में जाने का अवसर मिला। जैसा कि माताजी ने श्रवणबेलगोला में ध्यान में जम्बूद्वीप के दर्शन कर उसके निर्माण की प्रेरणा सनावद चातुर्मास में दी, परन्तु कई बाधाएँ व समय सीमा पार कर उस जम्बूद्वीप का निर्माण आखिर हस्तिनापुर की पावन धरती पर बड़े ही विराट् रूप में साकार हुआ। यह समाज के सामने है व आज भी नई-नई योजनाएँ (कमल मंदिर, त्रिमूर्ति मंदिर, ध्यान केन्द्र) रखकर सबको साकार करने की प्रेरणा दे रही हैं। जहाँ तक साहित्य-सृजन की बात है उस क्षेत्र में तो माताजी ने युग की प्रथम महिला के रूप में अवतार लिया है, जिनकी लेखनी से करीब १५० ग्रन्थों का लेखन व अनुवाद हुआ है। जिनमें मुख्यरूप से अष्टसहस्री ग्रन्थ का अनुवाद है। माताजी द्वारा रचित विधानों (इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र) द्वारा आज जो भक्ति रस की गंगा संपूर्ण भारतवर्ष व विदेशों में भी बह रही है उसका वर्णन शब्दों में करना संभव नहीं है। आज समाज में कोई भी धार्मिक कार्य या सामाजिक उत्थान की बात आती है तो सर्वप्रथम समाज की निगाह दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर की ओर ही उठती है, ऐसी सशक्त संस्था का निर्माण आपकी ही प्रेरणा से संभव हुआ है। ऐसी प० पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी युगों-युगों तक हमारी प्रेरणास्रोत बनी रहें व उनका आशीर्वाद सतत हमें प्राप्त होता रहे। पूज्य माताजी के चरणों में वन्दामि । तत्त्व पारंगत : आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी - सतीश जैन [आकाशवाणी, नयी दिल्ली] अधिकांश देखा गया है कि पद पाकर व्यक्ति गौरवान्वित होते हैं इसीलिए पदों की प्राप्ति के लिए होड़-सी लगी हुई है, परन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जिनसे पद गौरवान्वित होते हैं। इसी तरह कुछ तिथियाँ भी ऐसी हैं जो व्यक्ति को पाकर गौरवान्वित होती हैं। वि०सं० १९९१ की शरद् पूर्णिमा भी एक ऐसी ही पवित्र तिथि बन गई जो व्यक्तित्व को पाकर गौरवान्वित हुई है। इसी पवित्र तिथि को मानवता की उज्ज्वल प्रतीक, साधना, त्याग और समर्पित निष्ठा से नारी जीवन को सार्थक दिशा देकर उसे गौरव प्रदान कराने वाली परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म हुआ था, आज वह तिथि एक पर्व के रूप में मनाई जाती है। . माता के सुसंस्कारों से बालिका मैना ने बाल्यकाल में अर्थात् १२-१३ वर्ष की आयु में ही “पद्मनंदिपंचविंशतिका" जैसे ग्रन्थ का स्वाध्याय कर लिया और उससे अंकुरित वीतरागता का बीज पुष्पित हुआ ईस्वी सन् १९५२ में जब बाराबंकी शहर में पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से बालिका मैना ने सप्तम प्रतिमा रूप आजस ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और एक आर्यिका की भाँति संघ के साथ ही पद विहार करने लगीं। पूज्य आचार्य श्री ने ब्रह्मचारिणी मैना को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान करते समय नाम दिया वीरमती। क्षुल्लिका वीरमती की उत्कृष्ट वैराग्य भावना तथा अलौकिक ज्ञान को देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने माधोराजपुरा (राजस्थान) में वि०सं० २०१३ को आर्यिका दीक्षा देकर ज्ञानमती नाम से अलंकृत किया। यह थी बालिका मैना से आर्यिका ज्ञानमती तक की नामांकन यात्रा । आज ज्ञानमती एक सार्थक नाम है। जो स्वयं प्रकाशित है और दूसरों को भी ज्ञान प्रकाश देकर प्रकाशित कर रहा है। पूज्य माताजी श्रमण संस्कृति की उस परम्परा की सर्वोत्तम प्रतीक हैं, जो भगवान आदिनाथ से लेकर आज तक प्राचीनतम सभ्यता के रूप में अवशिष्ट है और जो सारे संसार को अपनी गौरवगाथा सुना रही है। आप न किसी वर्ग की हैं, न किसी जाति की और न किसी संप्रदाय विशेष की, अपितु आप संपूर्ण भारत की, मानवमात्र की हैं। आपकी करुणा का कोई ओर-छोर नहीं है। वह अपरिमित और महान् है, आपने संकीर्णताओं की समस्त अंधी जर्जर दीवारों को ढहा दिया है। वास्तव में आप "सत्त्वेषु मैत्री" की परम ज्योति हैं। इसीलिए प्राणिमात्र आपमें आत्म-कल्याण को साकार हुआ अनुभव करता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ माताजी सर्वप्रथम आर्यिकारत्न हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्यान और सम्यक्चारित्र के कल्याणकारी माध्यम से सभी वर्गों, सभी जातियों, सभी देशों के मनुजों से सहज ही जुड़ी हुई हैं। आपके अनेक भक्त विदेशों में हैं। बालक, वृद्ध और युवा, असंख्य नर-नारी आपके द्वारा दिये दृष्टान्तों में अपनी अन्तरात्मा की गूँज सुनते हैं, क्योंकि आपके उपदेश अनेकान्तमय हैं, सार्वभौम और सार्वकालिक हैं। माताजी के परम पुनीत, निर्मल, निष्काम संदेशों और जीवन-दर्शन से असंख्यात भक्त प्रेरणा ग्रहण करते हैं। माताजी ने अपने अभीक्ष्ण ज्ञान साधना से आगमों का गहन, गंभीर चिन्तन किया है और उनको सरल भाषा देकर जन-जन के लिए उपलब्ध कराया है। अनेक दुर्लभ ग्रन्थों की टीकाएँ भी की है। आपकी प्रेरणा से ज्ञानज्योति के प्रवर्तन ने सारे देश में, नगर-नगर, डगर-डगर में जैन धर्म के उपदेशों को ध्वनित और प्रतिध्वनित किया है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना आपकी सृजनात्मक कल्पनाशक्ति की ही प्रतिकृति है, जो आपके दृढ़ संकल्प और अत्यन्त दृढ़ नींव पर आधारित है। आज त्रिलोक शोध संस्थान जैन दर्शन और जैन अध्ययन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र का रूप लेता जा रहा है। ऐसी अनेक उपलब्धियों की सर्जन प्रतिमा के चरणों में मेरे अनेक प्रणाम । [१४१ माताजी की शिक्षण व्यवस्था स्तुत्य Jain Educationa International है - • जयकुमार जैन छाबड़ा एडवोकेट, जयपुर परम पूज्या आर्यिका रत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म टिकैतनगर ग्राम में धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत परिवार में हुआ। पूज्या माता श्री रत्नामतीजी आर्थिका होकर वंग पधार गई। छोटी बहिन श्री १०५ श्री अभयमती माताजी आज भी गाँव-गाँव, शहर शहर में जैनधर्म के प्रचार में रत हैं। स्वयं के जीवन को उन्नत करने के साथ जनसाधारण के जीवन में धार्मिक विचारधारा उन्नत करने में लगी हैं। पूज्या माताजी ज्ञानमतीजी का सबसे पहले दर्शन का सौभाग्य मुझे जयपुर नगर के खानियां अतिशय क्षेत्र में हुआ था। वह वहाँ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ में चातुर्मास में थीं। चातुर्मास के दौरान ही एक दिन अकस्मात् जम्बूद्वीप की चर्चा हो गई। उनके भाषण में उस दिन भारी संख्या में लोग उपस्थित थे, उन्होंने लोगों को जम्बूद्वीप के बारे में विस्तार से बताया और कहा- अगर साधन उपलब्ध हों तो ग्रन्थानुसार जम्बूद्वीप का निर्माण पृथ्वी स्थल पर कराया जा सकता है, जो अपूर्व होगा। मैंने माताजी से कहा— भूमि हमारे पास उपलब्ध है। आप जैसा चाहे निर्माण करायें बनाने के लिए धनराशि की भी कमी नहीं होगी। माताजी ने शीघ्र ही भूमि देखने के लिए दिन निश्चित किया भूमि देखी और उन्हें पसन्द भी आ गई। भूमि जयपुर जमवारामगढ़ रोड पर पानी की टंकी के सामने, संघीजी की नाशियां में थी । , निर्माण कार्य हेतु नक्शे आदि बनाने का निर्णय हुआ और शीघ्र ही कार्य प्रारम्भ करने हेतु मुहूर्त निश्चित करने का तय हुआ। मुहूर्त नहीं निकल पाया कि पू० माताजी को संघ के साथ जयपुर से अजमेर ब्यावर की ओर विहार करना पड़ा और इस तरह जयपुर में जम्बूद्वीप रचना का कार्य प्रारम्भ नहीं हो सका। माताजी ने स्वयं ही हस्तिनापुर में रहकर निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। जिसे आज देश-विदेश के हजारों दर्शनार्थी देखने आते हैं और उसकी रचना को देखकर स्तब्ध हो जाते हैं हस्तिनापुर भूमि, जहाँ कई कल्याणक हुए, विद्वान् वीर पैदा हुए, प्रसिद्ध महाभारत के कौरव-पाण्डवों का निवास स्थान था, इस क्षेत्र में ही जम्बूद्वीप का अद्वितीय निर्माण हुआ है। गत वर्ष मैं व्यक्तिशः दर्शनार्थ गया था। पूज्या माताजी स्वाध्याय में रत थीं। थोड़ी देर दूर ही खड़ा रहा। इतने में ही पू० माताजी की दृष्टि पड़ी। उन्होंने तत्काल आवाज देकर बुला लिया। वह बोलीं- "बाहर क्यों खड़े रहे ? बैठिये !" चर्चा के दौरान पूज्या माताजी को जयपुर स्थित श्री पार्श्वनाथ चूलगिरि अतिशय क्षेत्र की याद आई और उन्होंने अतिशय क्षेत्र के बारे में जानकारी चाही। कैसी स्थिति है वहाँ की जयकुमार जी ! अब भी वहाँ का काम देखते हो या नहीं। पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के आशीर्वाद से आपने जो चूलगिरि का निर्माण कराया है, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। भगवान् आपको शतायु करें। इस प्रकार धार्मिक कार्यों में जुटे रहो। अब हस्तिनापुर में रहना आरम्भ करो। वृद्धावस्था आ गई है। परिवार के साथ धर्म लाभ उठाओ। मैंने पूज्या माताजी से निवेदन किया कि आपका आशीर्वाद फले, यही मेरी प्रार्थना है। पूज्या माताजी द्वारा क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं, मुनिराजों को धार्मिक शिक्षा दी गयी है और आज भी कई शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इस कलिकाल में इस प्रकार जो जैनधर्म का प्रचार कर रही है ऐसी हमारी परम पूज्या १०५ आर्यिका माताजी शतायु हों, ऐसी भगवान् महावीर से प्रार्थना है। उनको मेरा शत शत वन्दन । For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला माताजी का सम्मान समाज का सम्मान -हीरालाल रानीवाला, जयपुर [राज०] यह जानकर बहुत ही खुशी हुई कि गणिनी आर्यिकारत्न विद्या वाचस्पति १०५ ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है। वैसे तो इस ज्ञान के सूर्य को प्रकाश क्या दिखाया जा सकता है, परंतु ऐसे गुणीजनों के गुणगान करने से समाज को ज्ञान का रास्ता दिखाया जा सकता है। वास्तव में इनका सम्मान समाज का सम्मान है। जम्बूद्वीप की रचना इनका प्रथम कार्य था, जो एक बहुत ही छोटे रूप में ब्यावर में प्रारंभ किया गया था, आज भी माताजी के स्मारक के रूप में वहाँ विद्यमान है, जिसका कि बड़ा रूप श्री हस्तिनापुर में जगत्विख्यात हो रहा है। दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट व्याकरण के ग्रंथ का हिन्दी में अनुवाद कर छपवाने का कार्य भी जब पू० माताजी ब्यावर में चातुर्मास कर रही थीं, तब प्रारंभ किया गया था, जो बाद में एक बहुत विशाल वटवृक्ष ग्रंथमाला के रूप में आज फल-फूल रहा है और उसके कई पुष्प जैन धर्मावलंबियों में प्रख्यात हैं। प्रभु से प्रार्थना है पूज्या माताजी को दीर्घायु दें, ताकि वे अपने ज्ञान की ज्योति को लंबे समय तक प्रज्वलित रखें, जिसके प्रकाश में समाज व विश्व का उद्धार हो। उनके चरणों में मेरे बारंबार त्रिकाल नमस्कार अर्ज करें। माताजी का कृतज्ञ जैन समाज - शांतिलाल बड़जात्या, अजमेर जैन विश्व की महान् परोपकारी माताजी श्रीमद् परमपूज्या, प्रातःस्मरणीया, बालब्रह्मचारिणी, विदुषी रत्न, आर्यिकारत्न गणिनी १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के दिगम्बर जैन समाज पर कई उपकार हैं, जिनमें जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका के रूप में तो समस्त जैन समाज उनका श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक स्मरण करता रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने परम पूज्या चारित्र चक्रवर्ती १०८ श्री आचार्य श्री शान्ति सागरजी महाराज की भांति इस शताब्दी में उनके गृहस्थ परिवार ने महाव्रत धारण करने में जो अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया, उसमें प्रेरणा माताजी की ही है। अपनी ओर से परमपूज्या गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उत्तम स्वास्थ्य एवं श्रेष्ठ रत्नत्रय की जिनेन्द्र भगवान् से मंगलकामना करते हुए उनके पावन चरणों में वन्दामि करता हूँ। विनयांजली - नेमीचंद बाकलीवाल, इन्दौर मुझे यह जानकर बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि परमपूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमति माताजी को अभिवंदन ग्रंथ भेंट किया जा रहा है। मुझे उनका प्रथम सानिध्य सनावद में प्राप्त हुआ था और उनके ओजस्वी प्रवचन सुनने का अवसर मिला। उसके पश्चात् देहली में धर्मपुरा तथा शाहदरा, मेरठ, हस्तिनापुर आदि स्थानों पर भी सम्पर्क का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके द्वारा जैनधर्म एवं जिन शासन की प्रभावना से मैं बहुत ही प्रभावित हुआ, पूज्य माताजी ने जम्बुद्वीप, ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन सारे भारतवर्ष में कराया है। जब ज्ञान ज्योति रथ का इंदौर में आगमन हुआ, तब नगर भ्रमण प्रचार व प्रसार का सारा कार्य मेरी अध्यक्षता में ही सम्पन्न हुआ था, जो कि एक ऐतिहासिक कार्य था। यह मेरे लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगा। पूज्य माताजी का व्यक्तित्व ज्ञानज्योति स्वरूप एवं परम प्रभावी है। आपकी ओजपूर्ण वाणी अत्यन्त प्रिय एवं मैद्धान्तिक है तथा रत्नत्रय प्राप्त कराने वाली है। आप जैसी महान् आर्यिकारत्न ने जैन समाज की ही नहीं, अपितु विश्व के प्राणीमात्र का परम उपकार किया है। मैं माताजी के प्रति हार्दिक विनयांजलि अर्पित करता हूँ एवं भगवान जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करता हूँ कि वे अपना स्वसमय रत्नत्रय कुशल रखते हुए देश, समाज, जैन धर्म की प्रभावना करती रहें और चिरायु हों। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संयम की अनमोल शिक्षिका शिखरचंद जैन-हापुड़ सरस्वती एवं वात्सल्य की पावन मूर्ति करुणामयी माताजी के सम्पर्क में आने से पूर्व मैं एक अनगढ़ पत्थर था मेरे संयमित जीवन का अंकुरारोपण हुआ वात्सल्यमयी माताजी के मार्मिक अमृतमयी उद्बोधनों को सुनकर। माताजी अपने प्रवचन में मनुष्य जन्म की दुर्लभता एवं देवों को भी दुर्लभ संयम की महत्ता पर प्रकाश डाल रही थीं। वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण शैली से मैं अत्यन्त प्रभावित हुआ। मुझे ऐसा लगा कि अंधकारमय जीवन से निकलकर स्वर्णिम सुखद प्रभात मेरी प्रतीक्षा कर रहा है । माताजी के श्री चरणों में बैठकर कई विधानों में सम्मिलित होकर अपूर्व भक्ति रस का भी आनन्द प्राप्त किया। इसी श्रृंखला में उत्तरोत्तर चारित्रिक विकास होता गया और पूज्य माताजी से ही दो प्रतिमा ग्रहण कर श्रावक धर्म के सोपान पर कदम रखा। माताजी के पुत्रवत् स्नेह के कारण जब भी अवकाश मिला, रमणीय अलौकिक जम्बूद्वीप की रचना और पूज्य माताजी के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर सका। आध्यात्मिकता में अपूर्व रस आने लगा - परिणामस्वरूप माताजी से ही सप्तम प्रतिमा ग्रहण कर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । अब भी माताजी से यही प्रार्थना है कि मेरा और आत्मिक विकास हो एवं महाव्रत अंगीकार कर क्रमशः सांसारिक दुःखों से छुटकारा प्राप्त हो। जिनेन्द्र देव से यही प्रार्थना है कि माताजी को दीर्घायुष्य प्रदान करें, माताजी की कीर्ति पताका एवं धर्मध्वजा सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित हो यही मंगलकामना है। Jain Educationa International कथनी और करनी की संगम रूप ज्ञानमूर्ति [१४३ श्रीनिवास बड़जात्या, मद्रास यह परम हर्ष का विषय है कि दिगम्बर जैन समाज आर्यिकारत्न पूज्य १०५ ज्ञानमती माताजी के कर कमलों में हृदय संभूत वचन पुष्पों से सुरभित अभिवन्दन-ग्रंथ समर्पित कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने जा रहा है। पूज्य माताजी स्वनाम धन्य ज्ञानमूर्ति हैं। आप संस्कृति, प्राकृत एवं हिन्दी की प्रकाण्ड विदुषी हैं वे जैन दर्शन के चारों अनुयोगों का अगाधज्ञान प्राप्त त्यागमूर्ति हैं। इसी सत्यता आपके द्वारा प्रकाशित शताधिक चारों अनुयोगों के ग्रंथों से विदित होती है। इन ग्रंथों की विशेषता यह है कि प्रतिपाद्य विषयों में मात्र सरलता, स्पष्टता एवं दुड़ता ही नहीं, वरन् पूर्वाचार्य परम्परागत आगम पक्ष के सुदृढ़ समर्थन की झलक भी विद्यमान है। 1 वर्तमान में धर्म एवं सुज्ञान की प्राप्ति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मुनिराजों तथा आर्यिकाओं द्वारा ही संभव है। अन्य कोई साधन इस पंचमकाल में उपलब्ध नहीं है। इन त्याग, तपस्वियों में ही कथनी और करनी का संगम है। यह भी सच है कि धर्म कोई मूर्तिमान वस्तु नहीं, जिसे धर्मात्माओं से भिन्न देखा जा सके। इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने "न धर्मो धार्मिकैर्विना" कहा है। इसी से स्पष्ट है कि त्यागीवृन्द चलते-फिरते जिन हैं । सम्यक्दर्शन की प्राप्ति में प्रधान कारण देव शास्त्र गुरु हैं। पहला साधन तो वर्तमान में असंभव है। शास्त्र ज्ञान भी उन्हीं गुरुओं से संभव है, जो ज्ञानाराधना में सतत तत्पर हैं, क्योंकि वे ज्ञानी, तपस्वी ही वर्तमान में " वपुषा मोक्ष मार्ग" को दर्शाने वाले हैं। निष्कर्ष यह है कि हमारी जैसी सामान्य जनता के लिए गुरु ही सब कुछ हैं । कथनी और करनी की संगमरूप ज्ञानमूर्ति पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी का अभिनंदन, विनयांजलि या कृतज्ञता प्रकट करने के लिए शब्द वर्णन परिणत वचनों के अलावा और कोई वस्तु हमारे पास है भी क्या ? निस्पृह त्यागी के लिए चाहिए भी क्या ? स्पष्ट कहना हो तो यह वचनबद्ध विनयांजलि भी उन महान् आत्माओं के लिए भार रूप है। 1 ध्यान रहे कि सच्ची विनयांजलि वचनबद्ध वाणी नहीं है, वरन् उनके उपदेशों को हृदयंगम कर अपने जीवन में उतारना ही सच्ची विनयांजलि है। अंत में मेरी यही कामना है कि पूज्य माताजी सहस्राब्दि तक जीवित रहकर सम्यक्ज्ञान की धारा से हम जैसे पामर को उपकृत करती रहें । पूज्य माताजी के चरणों में नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु | For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सरस्वती की पर्याय माँ ज्ञानमती Jain Educationa International सोहनलाल बगड़ा, विजयनगर [आसाम ] पंचम काल के इस घोर कलियुग में लुप्तप्राय मुनि परम्परा को पुनर्जीवित करने वाले चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के प्रथम पट्टाधीश वीरसागरजी महाराज द्वारा दीक्षित आर्यिका माँ ज्ञानमतीजी वर्तमान आर्यिकाओं में शीर्षस्थान में विराजमान हैं। देवी सरस्वती की पर्यायवाची माँ ज्ञानमती ज्ञान की भण्डार हैं, इसका प्रमाण है आपके द्वारा रचित सैकड़ों धार्मिक ग्रन्थ । ये ग्रन्थ आने वाले समय में जैनागम को आलोकित करते रहेंगे। सम्यग्यान पत्रिका में तो जैसे माँ को दिव्यध्वनि खिरती है। आपने प्राचीन आर्यावर्त की राजधानी हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना कर विश्व में एक अविस्मरणीय महान् कार्य किया है। इससे विश्व समाज जैन भूगोल की सच्चाई जान सकेगा। माँ झनमती के दर्शन चमत्कारी हैं, आपका आशीर्वाद मनोवांछित फल देता है। भारतवर्ष के बड़े-बड़े नेता आपसे आशीर्वाद लेने आते हैं। आपने अनेक स्थानों में चातुर्मास करके जैनागम की प्रभावना जनमानस में की है। माँ ज्ञानमती जैसी आर्यिकारत्न पाकर जैन समाज व भारतवर्ष अपने को धन्य मानता है । माँ ज्ञानमती धर्मज्ञान की ज्योति से मानवमात्र को मुक्ति की राह दिखाती रहें, जैनागम की नींव सुदृढ़ करती रहें और हम लोगों के हृदय में सदियों विराजमान् रहें एवम् हम लोग माँ के आदर्शों से अनुप्रेरित होते रहें। मैं अपनी यह विनयांजलि प्रस्तुत करता हुआ माँ के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन करता हूँ । - माताजी के दर्शनार्थ मेरी हस्तिनापुर यात्रा बात कुछ समय पहले की है, शायद गत दिनांक १७ फरवरी १९९० की शाम की फ्लाइट से ही मैं गोहाटी से दिल्ली पहुँचा था और "श्री पूनमचंदजी गंगवाल" झरिया वालों के साथ उनके घर में ठहरा था और उनके उस घर का गृह प्रवेश भी उसी दिन हुआ था [उनके अनुज श्री ताराचंदजी भी उस अवसर पर वहीं विद्यमान् थे] मैं पूज्य माताजी का बहुत दिनों से दर्शनाभिलाषी था और गोहाटी से यह दृढ़ निश्चय करके चला था कि हस्तिनापुर जाकर और पूज्य माता श्री के दर्शन करके ही आगे बढ़ेंगे। इस तरह पूनमचंदजी गंगवाल से अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए उनका अनुमोदन प्राप्त किया। तब उन्होंने अपने सुपुत्र श्री गजराज को गाड़ी की व्यवस्था करने को कहा तथा तय हुआ कि सुबह ५ बजे दिल्ली से प्रस्थान करेंगे और मेरठ में आचार्य श्री कल्याणसागरजी के दर्शन करते हुए हस्तिनापुर जायेंगे। साथ में ताराचन्दजी साहब सपत्नीक रहेंगे। गाइड, फिलास्कर और सहचर ने कहा कि हम लोग अच्छे सगुन से चले हैं, धर्म लाभ होगा ही, सगुन न मानने वाला भी मुस्करा दिया। रात भर दिल्ली में वर्षा हो रही थी, इसी कारण ठंड भी बढ़ गई थी, लेकिन दर्शनाभिलाषियों ने अपने ऊहापोह पर विजय पाई और उस कड़ाके की सर्दी और उसके साथ सर्द हवा और वर्षा में ही हम चल पड़े हस्तिनापुर की ओर । वहीं पहुँचकर मैंने मंदिरों के दर्शन किए फिर अध्यक्ष ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन के आफिस में बैठकर जो जानकारी मिली उससे भी हम अनभिज्ञ थे, उनके यहाँ जलपान आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि पूज्य माताजी मेरठ से बिहार कर चुकी हैं, इसलिए मेरठ के रास्ते में वापस चलें हो सकता है कि उनके दर्शन आप सभी लोगों को हो जायें। हमने भी यही सोचा और मन में दृढ़ विश्वास भी था कि माताजी के दर्शन जरूर होंगे और हुआ भी वही । हस्तिनापुर से १५ मील दूर मुझे लगा कि जैन साध्वीजी आ रही हैं और कोई साधु भी हैं। मैंने ताराचन्दजी गंगवाल को कहा कि देखिये तो मुझे पूज्य माताजी का संघ ही दिख रहा है और उन्होंने भी मेरी बात का अनुमोदन किया। थोड़ा आगे बढ़कर गाड़ी रोकी और पैदल चल रहे माताजी के संघ की तरफ हम लोग बढ़े, उनके संघ का नगर में आगमन हुआ। हमने नजदीक पहुंचकर नमोस्तु व वंदना की। आनंद के अतिरेक में यह भूल ही गये कि अष्टांग प्रणाम करना था, मन में अद्भुत आश्चर्य था। क्या यही मुट्ठी भर हड्डियाँ जिस पर माँस है ही नहीं व कितनी बीमारियाँ होने के पश्चात् भी अपने कार्य में दृढ़ निश्चयबद्ध हैं और प्रचुर मात्रा में धर्म साहित्य की रचना की है ? क्या इनकी प्रेरणा से ही "जम्बूद्वीप” की रचना हो पाई है ? For Personal and Private Use Only - मदनलाल बड़जात्या एडवोकेट, गोहाटी पूज्य माताजी अपने कर्त्तव्यों के प्रति सजग हैं तथा अहर्निश जैन धर्म की प्रभावना में लगी रहती हैं। मैं परम विदुषी, रत्नत्रय की धारिणी पूज्य माताजी के चरणों में कोटिशः शीश झुकाता हुआ उनका हार्दिक अभिनंदन करता हूँ। . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१४५ जैन सिद्धान्त की निर्दोष पाठी - मन्नालाल बाकलीवाल, इम्फाल [मणिपुर] श्री १०५ गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी के संघ द्वारा सम्पूर्ण भारत में विशेष धर्मोद्योत हुआ है। संघस्थ आर्यिका माताजी के उपदेशों द्वारा लाखों ही प्राणी लाभान्वित हुए हैं। उनके द्वारा लिखित धार्मिक ग्रन्थों, विधान पूजनों से सभी प्राणी लाभान्वित हुए हैं। संयम एवं चारित्र का विशेष रूप से प्रसार हुआ है। आपके संघ में सभी माताजी, त्यागीगण, श्रावकगण, ध्यानाध्ययन में रत रहते हैं। पूज्या माताजी अनेक ग्रन्थों की रचयित्री, सरल स्वभावी, मृदुभाषी और जैन सिद्धान्त की निर्दोष पाठी हैं। आपका मधुर उपदेश सुनते ही श्रोतागण कभी नहीं अघाते। पूज्या माताजी द्वारा हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना सदा चिरस्मरणीय रहेगी, यह एक अद्भुत अलौकिक रचना है। श्री १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के श्रद्धालु भक्त उन्हें अभिवंदन ग्रन्थ भेंट कर रहे हैं, इससे पूज्या माताजी का क्या यह तो उनके भक्तों का ही स्वतः पुण्यार्जन का एक अंग है, जिसके बहाने से वे गुरु-भक्ति के सुमन अर्पित कर रहे हैं। मैं इस श्रद्धा यज्ञ में अत्यन्त भक्ति के साथ सम्मिलित हूँ। साहस, त्याग तथा ज्ञान की आगार - डॉ. कैलाशचंद जैन [राजा टॉयज] अध्यक्ष : रत्नत्रय शिक्षा एवं शोध संस्थान, सरिता विहार, दिल्ली पूज्या आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के पहली बार लगभग २५-३० वर्ष पहले बाँसवाड़ा (राज.) में १०८ परम पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी के संघ में दर्शन किये। उस समय पूज्या माताजी ने जम्बूद्वीप का एक नक्शा दिखाया और कहा हम इसकी रचना करना चाहते हैं, मैंने बात हँसी में टाल दी। लगभग सन् १९७२ में जब पूज्या माताजी देहली पधारी तो आते ही उन्होंने फिर वही बात कही- इस दफा बात कुछ ऐसी लगी, मैंने कहा कि माताजी रखो नाम दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान और खुद अपने आपको इसका अध्यक्ष मनोनीत करता हूँ। बाद में मुख्य कार्य क्षेत्र हस्तिनापुर में निश्चित हुआ, तबसे अब तक की कार्य की प्रगति आशातीत रही है। उसी वर्ष हमें पूज्या माताजी के आशीर्वाद से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो कि हमारे जीवन की अमूल्य निधि है। पूज्या माताजी के साहस, त्याग तथा ज्ञान की क्या महिमा कहें- हमें तो उन पर बड़ा गौरव है और हम अपने आपको उनकी छत्र-छाया में बहुत सुरक्षित एवं संतोषी मानते हैं। पूज्या माताजी एवं पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी, पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी व भाई रवीन्द्र कुमारजी ने हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र को स्वर्गपुरी बना दिया है। हमारी पूज्या माताजी के चरणों में सादर विनयांजलि है। ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है -हीरालाल जैन [मंत्री] . गु०दि० जैन सांस्कृतिक साहित्य प्रचार प्रशिक्षण केन्द्र, गुजरात श्री ज्ञानमती माता द्वारा, जग ने प्रकाश जो पाया है । जिनकी वाणी ने प्राणी के अंतस का अलख जगाया है । उनका यश वर्णन चन्द शब्द बोलो कैसे कर सकते हैं । शबनम की बूंदों के द्वारा, क्या सागर को भर सकते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस दुःखद पंचमकाल में साक्षात् तीर्थंकर भगवानों के दर्शन तथा दिव्य ध्वनि का श्रवण कालदोष से असम्भव है, फिर ज्ञानज्योति प्राप्ति के लिए तीर्थंकर की परोक्ष वाणी (जिनआगम) पूज्या माताजी के रचे अनेक ग्रन्थों द्वारा आज उपलब्ध बन सकी है। गत ३०-४० वर्षों से गुजरात में एकान्तवाद का जन्म होकर वह इस तरह प्रचलित हुआ जिससे दिगम्बर जैनों में आगम प्रणीत ज्ञान, धार्मिक संस्कार, पूजा भक्ति, जप-तप, त्याग, यम नियम, संयम तथा वीतरागी निग्रन्थ गुरु के प्रति भक्ति, श्रद्धा की अवहेलना होने लगी थी। इस एकान्तवाद का सामना करने के लिए गुजरात का समाज कोई समर्थ विद्वान् तथा सरल आर्ष आगम साहित्य के अभाव में असमर्थ रहा। ऐसी विषम अवस्था में हस्तिनापुर जम्बूद्वीप से सन् १९८६ में बाल ब्रह्मचारिणी कुमारी माधुरीजी पर्यूषण पर्व के निमित्त से अहमदाबाद पधारीं । उनके अत्यन्त प्रभावशाली प्रवचन, पूजा अभिषेक की पद्धति तथा उनके द्वारा माताजी रचित आगम अनुसार सरल भाषा में साहित्य लाये जाने से समाज खूब प्रभावित हुआ और पू० माताजी के आशीर्वाद से तथा कु० माधुरीजी की प्रेरणा से अहमदाबाद में गुजरात दि० जैन सांस्कृतिक साहित्य प्रचार प्रशिक्षण केन्द्र संस्था की स्थापना की गयी और अहमदाबाद में त्रिलोक शोध संस्थान की तरफ से विशाल शिक्षण शिविर का आयोजन करने का निश्चय किया गया। इस प्रकार माताजी के आशीर्वाद से गुजरात में आगम प्रणीत साहित्य तथा जप, तप, उपवास, व्रत, पूजा, विधान आदि की फिर से स्थापना हुई। आगम प्रणीत ज्ञान का प्रचार करके आर्ष दिगम्बर जैन आगम प्रमाणित स्याद्वाद अनेकांत धर्म के प्रति फिर से समाज में जागृति तथा श्रद्धा स्थापित की गयी। यह सब पूज्या माताजी के साहित्य तथा बाल ब्र० कु० माधुरीजी [अब आर्यिका चंदनामती] की प्रेरणा से हुआ जिसके लिए गुजरात का समाज हमेशा के लिए माताजी का ऋणी रहेगा। I इस प्रकार से ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में साहित्य सृजन का कार्य किया, वह गौरव का विषय है। ऐसी त्यागमयी तथा शान्ति की साक्षात् मूर्ति पू० माताजी के चरणों में शतशः नमन । ज्ञान की माता ज्ञानमती ने भागीरथ प्रयास किया Jain Educationa International जहाँ पहुँचते ही दर्शक का, होता पाप शमन है। परम हस्तिनापुर तीरथ को, सौ-सौ बार नमन है। हस्तिनापुर निश्चय ही गौरवशाली पुण्यभूमि है। यह भारतवर्ष के इतिहास में एवं वर्तमान में भी सदैव ही महत्त्वपूर्ण नगर के रूप में अंकित रहा है। एक ओर जहाँ इसका ऐतिहासिक महत्व है दूसरी ओर यहाँ यह धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में परम श्रद्धेया प्रातः स्मरणीया १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी अपूर्व धर्म प्रभावना के द्वारा इस क्षेत्र को जो गौरवशाली स्थिति प्रदान की है, वह न केवल जैन समाज के लिए ही महत्त्वपूर्ण है, बल्कि समस्त प्रदेश एवं देश के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। माताजी की अपूर्व साधना, विलक्षण प्रतिभा, सुदृढ़ निष्ठा, लगन एवं रुचि के कारण ही जम्बूद्वीप की स्थापना व रचना का कार्य पूरा हो पा रहा है, जो कि अब तक केवल शास्त्रों में ही अंकित था। परम श्रद्धेया माताजी जैन साध्वी परम्परा की उन दिव्य विभूतियों में से एक है जिन्होंने भगवान् जिनेन्द्र देव के पथ का अनुसरण करते हुए मानव कल्याण को ही अपने जीवन में प्रमुखता दी । ज्ञान साधना के द्वारा जहाँ उन्होंने अपनी आत्मा को उन्नत एवं ज्ञानालोक से उद्भाषित किया वहाँ उपदेशों एवं प्रन्थों की रचना कर उनके अध्ययन करके अनेकानेक व्यक्तियों ने अपने जीवन निर्माण एवं आत्म-कल्याण की राह बनायी माताजी द्वारा रचित इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, जम्बूद्वीप विधान अब पूरे भारतवर्ष में कहीं न कहीं होते ही रहते हैं, जिनके द्वारा केवल जैन समाज का ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणीमात्र का बड़ा उपकार होता है। इसके अतिरिक्त पूजनीया माताजी ने अनेकानेक ग्रन्थों की एवं विधानों की रचनाकर, आज जो समाज के लिए बहुत जरूरी था, एक महान् उपकार किया है। जो एक बार माताजी के दर्शन कर लेता है वह हमेशा के लिए आपका अनुगामी, प्रशंसक एवं पुजारी बन जाता है। आपने समाज के युवावर्ग को ज्ञान की राह दिखाकर तथा जिनवाणी के प्रति उनके हृदय में सच्ची श्रद्धा उत्पन्न कर सन्मार्ग दिखाया है। सच ही कहा है - पवन कुमार जैन, सरधना "ज्ञान की सागर ज्ञानमति ने, भागीरथ प्रयास किया । जैन शास्त्र का मंथन कर, कर ज्ञानामृत को खूब दिया । For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१४७ "बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय" - मनोज कुमार जैन एवं मातेश्वरी श्रीमती आदर्शजैन, हस्तिनापुर सन् १९७५ की बात है जब हम लोग सपरिवार सिद्धचक्र विधान करने के लिए बड़ौत से हस्तिनापुर आए थे। परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ हस्तिनापुर के प्राचीन मन्दिर पर विराजमान थीं। हमने विद्वान् के विषय में मन्दिर पर चर्चा की तो ज्ञात हुआ कि माताजी के संघ में ब्र० श्री मोतीचंदजी एवं ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी अच्छे विद्वान् हैं। हम सभी ने पूज्य माताजी के पास जाकर अपना सिद्धचक्र विधान कराने की इच्छा व्यक्त की और उनसे निवेदन भी किया कि आपके संघ सानिध्य में हमारा पाठ निर्विघ्न सम्पन्न होवे इसके लिए हम आपके संघस्थ विद्वानों का सहयोग चाहते हैं। हमारे परिवार का यह आकस्मिक निवेदन पूज्य माताजी ने इस प्रकार स्वीकार किया जैसे मानो हम उनके चिर परिचित भक्त हों। असीम वात्सल्य एवं करुणा से परिपूर्ण उनका आभामयी मुखमण्डल हमारे परिवार के लिए एक चुम्बकीय आकर्षण बन गया। माताजी के आशीर्वाद एवं संघ सानिध्य में हमारा मण्डल विधान तो निर्विघ्न सम्पन्न हुआ ही तब से हमारा पूरा परिवार पूज्य माताजी का परमभक्त बन गया। माताजी की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना अब हम लोगों का नैतिक कर्तव्य बन गया। बड़ौत से हमारा मन कुछ उखड़ रहा था। माताजी के सामने चर्चा आई तो उनकी आज्ञा मिली कि "आप लोग हस्तिनापुर आ जाओ।" जगन्माता की उस प्रथम आज्ञा को शिरोधार्य कर हम लोग हस्तिनापुर सेण्ट्रल टाउन हस्तिनापुर में आकर रहने लगे और माताजी के दर्शन करके अपने जीवन को धन्य समझने लगे। आज हम लोग जो कुछ भी हैं पूज्य माताजी के आशीर्वाद व सद्प्रेरणा का ही फल है। धानतरायजी ने कहा भी है गुरु की महिमावरणी न जाय, गुरू नाम जपो मन वचन काय । अर्थात् गुरु की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है? उन्हें तो सदैव मन, वचन, काय से नमस्कार करना चाहिए। हमें प्रसन्नता है कि माताजी की कृपा प्रसाद से हमारे परिवार में धार्मिकता के अटूट संस्कार हैं, घर में भगवान आदिनाथ का चैत्यालय है, जिससे छोटे बच्चों में भी जिनेन्द्र भक्ति का प्रवाह रहता है। कबीरदास जी ने गुरु की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा है गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।। अर्थात् गुरु ही जीवन रूपी नैया को भव पार कराने वाले हैं। हमारी पूज्य माताजी ऐसी ही भवदधितारिका है। हम उनके प्रति यही विनय करते हैं कि माताजी अनंत-अनंत वर्षों तक ज्ञानपुञ्ज के रूप में विराजमान रहें, उनकी वाणी अनन्त काल तक लोगों को भव से पार उतारती रहे, संसारी भव्य प्राणियों को मोक्षमार्ग मिलता रहे तथा हमारे परिवार के ऊपर सदैव माताजी का अनुग्रह बना रहे। "इति शुभम्" "मन के अँनधेरे प्रकाश में बदल गए" - महेन्द्र कुमार जैन, खतौली मैं पूर्व जन्म से प्राप्त संस्कारों पर विश्वास करने वाला व्यक्ति हूँ। मेरा जन्म भी जैन परिवार में हुआ, वहाँ भी मैंने जैन संस्कार अर्जित किये। मैं बचपन में अपने घर पर मुनियों का "आहार" देखा करता था तो मेरे पूर्व जन्म के संस्कार मुझे आनन्द से भर दिया करते थे। भौतिक जीवन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के दुःख-सुख ने मेरी धार्मिक प्रवृत्ति पर जैसे धूल-सी बिखेर दी थी। यह धूल तभी उँटी जब मैं सन् १९७६ में प्रातः स्मरणीया पूज्य ज्ञानमती माताजी के निकट आया। उनका पधारना इस वर्ष खतौली में हुआ था। उनके प्रथम दर्शन मात्र से मेरे मन के अँधेरे प्रकाश में बदल गये। माताजी के प्रभा मंडल में मैं इसी प्रकार खिंचता चला गया, जैसे लोहकण को चुम्बक खींच लेता है। ज्ञानमतीजी के ज्ञान की किरणों को पाकर मुझमें जैसे पावनता भर गयी। मैं ज्ञान गंगा में स्नान करने लगा। मेरे मुख और आत्मा से मातश्री धन्य हो, मातश्री धन्य हो उच्चारित होने लगा। मेरी आत्मा की वीणा के तारों में सोये स्वर झंकृत हो उठे। खतौली में माताजी ने "श्री इन्द्रध्वज महामंडल विधान" की रचना अपने चार्तुमास के दिनों में की थी। दस-दस घंटे तक वे निरन्तर साहित्य साधना में लगी रहती थीं। उनकी लेखनी कागज पर फिसलती रहती थी और मैं विस्फारित नेत्रों से टकटकी लगाकर उन्हें देखा करता था। एक महान् साध्वी की महान् साधना के उन पलों और क्षणों की स्मृति आज भी मुझे प्रेरणा से भर देती है। खतौली में माताजी द्वारा आयोजित आध्यात्मिक-शिक्षण शिविर ने तो सम्पूर्ण नगर को ही धार्मिक रंग में रंग दिया था। मुझे भी इसमें योगदान देने का अवसर माताजी की कृपा से मिल गया था। यह शिविर और इसकी उपलब्धियाँ आज भी जनता में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना का शुभ आरम्भ तो माताजी की महान् उपलब्धियों में सर्वोपरि है। माताजी जैन साहित्य में वर्णित जम्बूद्वीप को प्रायः अपने सपनों में देखा करती थीं और उसके प्रारूप में अपनी कल्पनाओं के रंग भरा करती थीं। यह उनकी दृढ़-संकल्प शक्ति का ही चमत्कार है कि उनका सपना धरती पर साकार हुआ है। जम्बूद्वीप के निर्माण का अभी तो प्रथम चरण है। मंजिल दूर है, किन्तु माताजी की साधना भी अटूट है। वह दिन दूर नहीं जब मंजिल स्वयं चल कर आयेगी और माताजी के चरण स्पर्श करेगी। माताजी का जीवन धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के लिए अर्पित है। मैं उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। चिरस्मरणीय माताजी के उपकार -प्रकाशचन्द्र जैन पांड्या, प्रकाशदीप, कोटा सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, वात्सल्यमूर्ति पूज्या १०५ श्री गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सम्पूर्ण जीवन ही अभिनन्दनीय है। हस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान तथा उसमें विशाल जम्बूद्वीप की रचना पूज्या माताजी की सूझ-बूझ से ही हो सकी है तथा उसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा माताजी के सानिध्य में होकर जो धर्म की प्रभावना हुई है तथा चारों अनुयोगों की १५० से अधिक ग्रंथों की रचना व टीकाएँ करके स्वाध्याय प्रेमियों का जो उपकार किया है वह भुलाया नहीं जा सकेगा। पूज्या माताजी ने चिर स्मरणीय ऐसे अनेक उपकार किये हैं। माताजी चिरकाल तक स्वस्थ रहें, इनका वरदहस्त अपने ऊपर चिरकाल तक रहे इसी भावना से प्रार्थना करता हूँ। पूज्या माताजी के चरणों में मैं शत-शत नमन व प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ। "पावन सानिध्य का सौभाग्य" - राकेश कुमार जैन, मवाना सन् १९८५ में जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठा की जब बहुत जोरदार तैयारी चल रही थी तब मैं उन दिनों न्यू बैंक ऑफ इण्डिया की मवाना शाखा में कार्यरत था। एक दिन हमारे प्रादेशिक प्रबन्धक श्री वी०पी० गुप्ताजी मवाना आये, उन्होंने जम्बूद्वीप मेले में यात्रियों की सुविधा के लिए एक काउण्टर खोलने का विचार रखा; इसी सन्दर्भ में मुझे जम्बूद्वीप पर आने का मौका मिला। ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी [अध्यक्ष] से काउण्टर की स्वीकृति प्राप्त होने पर मेले में मुझे अपने साथी श्री आर०के० जैन मेरठ के साथ ही काउण्टर खोलने हेतु जम्बूद्वीप पर भेजा गया। मेले में मुझे परम पूज्य माताजी को पास से देखने का मौका मिला। इसके पश्चात् सन् १९८६ में आषाढ़ की अष्टाह्निका में हमारे जीजाजी श्री आनन्द प्रकाशजी लों के साथ इन्द्रध्वज विधान में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रतिदिन माताजी के प्रवचन सुनकर जीवन धन्य हो जाता था। माताजी प्रतिदिन नई-नई बातों का ज्ञान अपने प्रवचनों द्वारा कराती थीं। इससे मेरे जीवन पर बहुत असर हुआ तथा अब मेरा जीवन बिल्कुल बदल गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१४९ सन् १९८७ में परम पूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज का संघ जम्बूद्वीप पर आया। मैंने उसमें रुचिपूर्वक भाग लिया। इसके बाद मैंने प्रतिदिन देव पूजन का नियम लिया तथा १९८८ में श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा के पश्चात् १३ जनवरी १९८८ को परम पूज्य माताजी से शुद्ध जल का नियम, गुरु के द्वारा जीवन में पहला नियम ग्रहण किया। इसके पश्चात् सन् १९८९ में परम पूज्य माताजी का ससंघ बड़ौत के लिए विहार हुआ। मवाना चूँकि रास्ते में ही पड़ जाता है; अतः मुझे अनायास ही संघ की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ और मैंने एवं मेरी धर्मपत्नी सुषमा जैन ने परम पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की प्रेरणा से पंच अणुव्रत ग्रहण किये। यह देश संयम की मेरी प्रथम सीढ़ी थी। इसके पश्चात् तो परम पूज्य माताजी के सानिध्य का लाभ मुझे बार-बार प्राप्त होता रहता है। परम पूज्य माताजी का आशीर्वाद तो हमेशा मुझे जादू जैसा असर करता है। जब मुझे बैंक संबन्धी कोई समस्या आई तब मैं सीधे माताजी के पास ही गया। उनके सांत्वनापूर्ण शब्दों से ही मेरा मन शान्त हो जाता था, फिर जब माताजी कहतीं कि तुम कोई चिन्ता न करो, सब ठीक हो जायेगा। आखिर उनके शब्द ही फलित होते हैं और अनेक बहुत बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आने के बाद भी मेरा कोई अनिष्ट नहीं हुआ। बल्कि दिन-प्रतिदिन मेरे जीवन में उन्नति ही होती रही। मैं अपनी तथा बच्चों की छुट्टी का उपयोग भी परम पूज्य माताजी के ही मंगल सानिध्य में व्यतीत करने का पूर्ण प्रयास करता हूँ। मेरे बच्चों एवं धर्मपत्नी में पूज्य माताजी के वात्सल्य एवं सानिध्य से अनेक धार्मिक संस्कार प्राप्त हुए हैं। ___अन्त में मैं पूज्य माताजी के चरणों में अपनी विनम्र विनयाञ्जलि समर्पित करते हुए भगवान् शान्तिनाथ से यह प्रार्थना करता हूँ कि उनका स्वास्थ्य एवं रत्नत्रय सदैव कुशल रहे और उनका वरदहस्त हम जैसे प्राणियों पर हमेशा बना रहे। जैन वाङ्मय की अद्भुत सृजका - अजित प्रसाद जैन, आर्यनगर, लखनऊ परम पूज्या गणिनीवर्य आर्यिका ज्ञानमतीजी एक ऐसी अनुपम विभूति हैं, जिन्होंने जैन धर्म-संस्कृति के इतिहास में अपना बेजोड़ स्थान बना लिया है। पूज्या माताजी के प्रथम बार दर्शन करने का सौभाग्य मुझे वर्ष १९७७ के कार्तिकी पूर्णिमा के मेले पर हस्तिनापुर में हुआ था। जहाँ मैं नवगठित उत्तरप्रदेश दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अधिवेशन में भाग लेने के लिए गया था। जम्बूद्वीप स्थल पर तब तक बहुत ही अल्प निर्माण कार्य हो पाया था तथा पू० माताजी क्षेत्र के बड़े मन्दिर की धर्मशाला में अपनी शिष्याओं सहित विराज रही थीं। सामायिक-ध्यान आदि की आवश्यक क्रियाओं से बचा उनका प्रायः सारा समय त्रिलोक शोध संस्थान के क्रिया-कलापों को प्रगति देने तथा जम्बूद्वीप की संरचना को साकार करने के चिन्तन-मनन में ही बीत रहा था। प्रथम भेंट में ही माताजी से जम्बूद्वीप तथा त्रिलोक शोध संस्थान के विषय में हुई चर्चा से उनकी दृढ़ संकल्प शक्ति, प्रबन्ध क्षमता तथा व्यक्ति को पहिचान कर उसकी क्षमता के अनुरूप उसका उपयोग करने की अद्भुत प्रतिभा ने चमत्कृत कर दिया। पू० माताजी ने मुझे भी त्रिलोक शोध संस्थान की कार्यकारिणी समिति में रखने की इच्छा प्रकट की थी, किन्तु हस्तिनापुर से काफी दूर लखनऊ में निवास होने तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण हस्तिनापुर में स्थित संस्था को अपेक्षा के अनुरूप अपना सक्रिय सहयोग दे पाने में असमर्थ होने के कारण मुझे विवशता प्रकट करनी पड़ी। ___ उसके बाद तो पूज्या माताजी के दर्शनों का कई बार सौभाग्य प्राप्त हुआवस्तुतः उनमें कुछ ऐसी चुम्बकीय शक्ति है कि जो एक बार उनके सम्पर्क में आ जाता है, बार-बार उनके दर्शनों के लिए लालायित हो जाता है। पूज्या माताजी की प्रबल संकल्प शक्ति, दूरदर्शिता तथा मार्गदर्शन की अद्भुत क्षमता के परिणामस्वरूप ही अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हुए भी आज जम्बूद्वीप परिसर में करोड़ों की लागत से सुमेरु पर्वत व अन्य कलात्मक मन्दिरों की संरचना तथा भव्य धर्मशाला, प्रशासकीय भवन, रत्नत्रयनिलय आदि के विशाल निर्माण कार्य अल्प समय में सम्पन्न हो सके हैं। पूज्या माताजी का अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अद्भुत है। जैन वाङ्मय तो क्या सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में किसी भी नारी द्वारा इतने विपुल धर्म साहित्य सृजन का दूसरा दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। पू० माताजी सचमुच में ज्ञानमती, सरस्वती की वरद पुत्री हैं तथा आज के अनेक मुनि-आर्यिकाओं की विद्यागुरु हैं। उन्हें प्राकृत, संस्कृत तथा हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार है। जहाँ उन्होंने प्राकृत, संस्कृत तथा हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त किया है। उन्होंने प्राकृत के समयसार, नियमसार, मूलाचार आदि आगम ग्रंथों की प्रामाणिक टीकाएँ हिंदी में की हैं, वहीं उन्होंने संस्कृत के न्याय एवं व्याकरण के अत्यन्त क्लिष्ट माने जाने वाले ग्रंथों की सरल हिंदी.टीकाएँ की हैं, संस्कृत तथा हिंदी में सरस पद्य रचना की है तथा अनेक छोटे-बड़े मौलिक ग्रंथों का सृजन किया है। इस प्रौढ़ वय में स्वास्थ्य की अनुकूलता न रहने पर भी उनकी लेखनी अबाध चलते हुए नित नये साहित्य का सृजन कर रही है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मन में सहसा यह विचार आता है कि यह नारी संन्यासिनी न होकर कहीं राजनीति के क्षेत्र में आई होती तो दूसरी इन्दिरा गाँधी सिद्ध होतीं। किन्तु यह तो उनसे भी महान् बन गई; क्योंकि इन्दिरा गाँधी समेत इस युग के सभी शीर्ष राजनेताओं ने माताजी के चरणों में शीश झुकाकर तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने को धन्य माना है। मैं परम पूज्या माताजी के चरणों में शत-शत वन्दना करते हुए उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। शास्त्रों की महानतम ज्ञाता - डॉ० सूरजमल गणेशलाल जैन, मैनेजर श्री मांगीतुंगी दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र परमपूज्या १०५ ज्ञानमती माताजी शास्त्रों की महानतम ज्ञाता हैं। सिद्धांत वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने साहित्य जगत् में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना करके अपना महानतम स्थान बनाया है। पूज्या माताजी इस युग की महानतम हस्ती हैं। __ उनके विषय में लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। उन्हें शत-शत वंदन । वे युगा-युगों तक रहें। उनका स्वास्थ्य सदैव अच्छा रहे, यही भावना भाता हूँ। माताजी का संपूर्ण परिवार विद्वान् व धार्मिक है। जम्बूद्वीप हस्तिनापुर का ही नहीं, वरन् विश्व का सर्वोत्तम स्थान है। इसका पूरा श्रेय प० पूज्य १०५ महातपस्वी ज्ञानमती माताजी को जाता है। उनके चरणों में हार्दिक नमन करता हूँ। आप एक भवावतारी हैं -नवनिधिराय जैन, सरधना हम जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, जिनशासन प्रभाविका, प्रकाण्ड विदुषी, न्याय प्रभाकर, सिद्धान्त वाचस्पति, विद्या वारिधि भव्य जीवों की मोक्ष मार्गदर्शिका, कल्याणकारिणी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को उनके ५९वें जन्म दिवस पर शुभ कामनाएँ भेंट करते हैं और वीर प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि आप शतायु हों और इसी प्रकार स्वस्थ शरीर धारण करते हुए, ज्ञान प्रचार में अग्रसर रहें और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग दर्शाती रहें। हम यह पूर्ण विश्वास रखते हैं कि आप एक भवावतारी हैं और निश्चय से आप अगले भव में अनेक भव्य जीवों को अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा देशना देकर मोक्ष महल में विराजमान् होंगी। आपके चरणों में शत-शत वन्दन । अनुपम रत्न - दीपक कुमार जैन, देवेन्द्र टैक्सटाइल्स, सरधना पूज्या माताजी के रूप में सम्पूर्ण दिगंबर जैन समाज को एक ऐसा अनुपम रत्न प्राप्त हुआ है, जिसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों एवं धर्म प्रभावना ने समाज में धार्मिक जागृति पैदा की है। पूज्या माताजी के हस्तिनापुर आगमन के बाद से ही तीर्थ क्षेत्र में धर्म प्रभावना का बड़ा भारी प्रचार हुआ। माताजी के निर्देशन में जम्बूद्वीप की रचना एवं कमल मंदिर आदि ऐसी कई रचनाओं का निर्माण हुआ है, जिससे सम्पूर्ण विश्व में दिगंबरा समाज का गर्व से गप्तक ऊपर हो गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५१ '" पूज्या माताजी के शास्त्रा म जाविधानों की श्रृंखला है, उनमें इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, सर्वतोभद्र विधान आदि कई विधान प्रमुख हैं। उन्होंने ऐसी रचना की, ऐसी रचना जो कि विधान में संगीत के साथ विधान की लय चलती है और विधान में लगे सभी धर्मप्रेमी बन्धु को विधान में अपूर्व धर्म लाभ होता है। पूज्या माताजी आगे भी अपनी इस लेखनी से ज्ञान की गंगा बहाती रहें, ऐसी मंगलकामना करता हूँ। अन्त में पूज्या माताजी के चरणों में शत शत नमन। आर्ष परम्परा की प्रचारिका - नन्दलाल टोंग्या, इन्दौर [म०प्र०] परमपूज्या माताजी का सुयोग एवं सानिध्य मुझे सनावद चातुर्मास के शुभावसर पर सर्वप्रथम प्राप्त हुआ था एवं वहाँ पर उनकी प्रवचन शैली, व्यवहार, चातुर्य आदि कौशल देखने व श्रवण करने को मिला। विहार के दौरान इन्दौर व इन्दौर से अतिशय क्षेत्र बनेडिया तक भी साथ रहने का सुयोग प्राप्त हुआ था। परमपूज्या माताजी की सद्प्रेरणा से शास्त्रोक्त आर्षमार्गानुसार जम्बूद्वीप रचना का भव्य विशाल निर्माण, विश्व में एक अद्भुत कार्य हुआ है, जो कि सदैव चिरस्मरणीय एवं इतिहास पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। परमपूज्या माताजी के चरणों में सादर वंदन करता हुआ अपनी ओर से विनयांजलि प्रेषित करता हूँ कि परम पूज्या माताजी दीर्घायु होकर अपना रत्नत्रय पालन करते हुए देश, समाज की सेवा करती रहें। जैन धर्म की प्रभावना पूर्वाचार्यों की आर्ष परम्परानुसार निरंतर करती रहें यही भगवान् जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करता हूँ। माताजी की ज्ञानज्योति सदैव प्रज्वलित रहे -विनोद हर्ष, अहमदाबाद यह भारत आज नहीं युग से, नारी से रहा न खाली है। नारी के ही कारण इसकी, गौरव गरिमा बलशाली है। महान् ऋषि-मुनियों की तपोभूमि विश्व को अद्वितीय संस्कृति प्रदान करने वाली “जियो और जीने दो" का अहिंसा का संदेश फैलाने वाली ये भारत की वसुंधरा पर ब्राह्मी, सुंदरी और चंदना जैसी अनेक नारी रत्नों ने जन्म लिया है। इसी परम्परा में तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या के पास बाराबंकी जिले के टिकैतनगर गाँव में जन्म लेने वाली मैना आज परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बन, सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में सम्यग्ज्ञान की ज्ञानगंगा बहा रही है। इस महान् वंदनीय विभूति के कारण जैन समाज ही नहीं, अपितु भारत देश गौरवान्वित है। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन होने से हस्तिनापुर तीर्थ-क्षेत्र को भारत के ही नहीं, वरन् विश्व के नक्शा में फिर से उज्ज्वल स्थान प्राप्त होने का यश पूज्या ज्ञानमती माताजी को ही है। भारत के विविध स्थलों पर आपकी प्रेरणा से दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने छोटे-बड़े प्रादेशिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शिविर, सेमिनारों के आयोजन द्वारा और परीक्षा बोर्ड द्वारा आध्यात्मिक शिक्षण तथा भगवान महावीर के सिद्धान्तों की अपूर्व लहर फैला दी। भक्तों को भक्ति में तन्मय रखने के लिए आपने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, तीनलोक, सर्वतोभद्र विधान आदि वृहद् पूजन विधानों की रचना करके जैन समाज के ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी, बाल ब्र० रवीन्द्र कुमारजी एवं पूज्या आर्यिका श्री चंदनामती माताजी जैसे प्रज्ञावान् शिष्यों को समाज को देकर आपने ज्ञानगंगा का प्रवाह और भी प्रबल कर दिया है। अंत में जब तक पूरे संसार में से मिथ्यात्व का तिमिर दूर न हो जाये, तब तक माँ ज्ञानमती आपकी ज्ञानज्योति सदा प्रज्वलित रहे। आपके चरणों में अपनी भावना के दीप समर्पित करते हुए यही भावना भाता हूँ कि मेरा अंतर दीप आपकी ज्ञानज्योति से प्रज्वलित हो उठे। इसी कामना के साथ ज्ञान गंगा माँ ज्ञानमती के चरण कमल में मेरा अगणित वंदन । विनयांजलि - उत्तमचंद निर्जी, कोटा उपाध्यक्ष : अ०भा०दि० जैन युवा परिषद् प्राचीन काल से ही हम देखते हैं कि भगवान महावीर के बाद सैकड़ों महापुरुषों का इस पवित्र धरा पर अवतरण होता रहा है जिन्होंने अपनी ज्ञान गंगा से जनमानस को समय-समय पर आप्लावित किया। उत्कृष्ट सांस्कृतिक परम्परा में ही ऐसे महापुरुषों का अवतरण संभव होता है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रृंखला में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का उल्लेख किया जा सकता है। (ई० सन् १९३४) आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को बाराबंकी जिले के टिकैतनगर नामक ग्राम में श्रीमती मोहिनी देवी ने ज्ञानमतीजी को जन्म दिया। इनके पिता श्री छोटेलालजी ने अपनी पुत्री का नाम मैना रखा था। मैना में बचपन से ही भौतिक जीवन से विरक्ति दिखाई देने लगी। उन्होंने बाल्यकाल में ही अनेक धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया एवं वे इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जीवन के अन्तिम सत्य की प्राप्ति इस सांसारिक जीवन में रह कर संभव नहीं हो सकती। इस तरह १९५२ में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के सानिध्य में ब्रह्मचर्यव्रत लेकर संघ में प्रवेश किया। यह घटना महावीर स्वामी के महाप्रयाण का स्मरण कराती है। सन् १९५३ में महावीरजी अतिशय क्षेत्र में क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें अब वीरमतीजी के नाम अभिहित किया जाने लगा। वीरमती जी, सीमित ग्रंथों के अध्ययन से सन्तुष्ट नहीं होती थीं। विविध ग्रंथों के अध्ययन एवं लेखन में अभिरुचि को देखकर ही वीरसागरजी महाराज ने माधोराजपुरा में सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें ज्ञानमतीजी कहा जाने लगा। ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनी से लगभग १५० से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की टीकायें की, जैसेअष्टसहस्त्री (तीन भागों में), समयसार, नियमसार, मूलाचार, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि । - आपके द्वारा ग्रंथों के प्रकाशन के साथ-साथ ही भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आपकी प्रेरणा से त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर में एक भूमि खरीदी और वहाँ प्राचीन ग्रंथों की रचना के आधार पर जम्बूद्वीप का निर्माण किया गया, जिसमें ८४ फुट ऊंचे सुमेरु पर्वत, १६ चैत्यालय, समुद्र आदि का निर्माण बरबस ही देखने वाले का ध्यान आकर्षित कर लेता है। उक्त कृति आज भारत की ही नहीं, बल्कि विश्व की प्रमुख कलाकृतियों में है। इतना ही नहीं, युवा शक्ति को संगठित करने हेतु आपकी प्रेरणा से १९७९ में युवा परिषद् का गठन किया गया जो आज देश का एक मात्र युवा संगठन है। जीवित तीर्थ के रूप में माताजी ने देश में सर्वत्र विहार करके ज्ञान, धर्म, त्याग, तपस्या की जो मिसाल कायम की है वैसी मिसाल सदियों में कभी-कभी ही देखने में आती है। आपके ज्ञान प्रकाश से समाज आलोकित हुआ है और आज हमें धर्मचर्चामय वातावरण की झलक जगह-जगह दिखाई देने लगी है। ५९ वर्ष की उम्र में आज भी आपकी निरतिचार साधना दूसरों के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य कर रही है। यह समस्त श्रावकों के लिए परम गौरव और हर्ष की बात है। मुझे प्रसन्नता है कि आज समाज ने वीतरागी की शक्ति के प्रति नमन भाव के रूप में अभिवन्दन ग्रंथ समर्पित करने की योजना को साकार रूप देने का निश्चिय किया है। मेरी शुभ-कामना है कि यह प्रयास शीघ्र सफल हो। इस अवसर पर सम्पूर्ण समाज एवं राजस्थान के जैन बन्धुओं की ओर से ज्ञानमती माताजी का शत-शत नमन करते हुए अभिवन्दन करता हूँ और आशा करता हूँ कि पूज्य माताजी शत-शत वर्षों तक अपनी ज्ञान गंगा से समाज व राष्ट्र को प्लावित करती रहे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५३ महाविभूति -उदयभान जैन, भरतपुर • संयोजक : अ०भा०दि० जैन युवा परिषद् राजस्थान प्रान्त परम पूज्य जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, आर्यिकारत्न, सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर श्री ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ का प्रकाशन ५८ वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् ५९वें वर्ष के प्रारम्भ में समर्पण करने की जो योजना त्रिलोक शोध संस्थान ने बनायी है, वास्तव में यह एक अत्यन्त राष्ट्र व विश्व को शुभ-सन्देश का द्योतक है। हम वीर प्रभु से यह कामना करते हैं कि ऐसी महान् विभूति का आगामी समय और उज्ज्वल हो तथा संसार को सही मार्गदर्शन उनसे मिलता रहे ताकि फैल रही हिंसा, युवा-वर्ग में जो विमुखता धर्म व गुरुओं के प्रति हो रही है उसका नाश हो। मैं ऐसे शुभ-अवसर पर युवा-सम्राट्, बाल ब्रह्मचारी, सप्तम व्रतधारी, परम आदरणीय रवीन्द्रजी को शुभकामनाएं अर्पित करता हूँ, जो ऐसे सुन्दर कार्यों का कुशल नेतृत्व कर रहे हैं। आज उनके नेतृत्व में अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन युवापरिषद् प्रगति की ओर बढ़ रही है, सम्यग्जञान मासिक पत्रिका, त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप आदि प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। ज्ञानमती माताजी : एक अनूठा व्यक्तित्व - प्रमोद कुमार जैन छुरवाले, सरधना जिस अवध प्रान्त में ब्राह्मी और सुन्दरी जैस कन्याओं ने जन्म लेकर कुंवारी कन्या के आर्यिका दीक्षा का मार्ग प्रशस्त किया उसी अवध प्रान्त के टिकैतनगर गाँव में माँ मोहिनी के उदर से शरद् पूर्णिमा के दिन मैना ने जन्म लिया, जो आगे चलकर इस पंचम काल की पहली कुंवारी कन्या बनी, जिसने आर्यिका दीक्षा ली। साहित्य-सृजन माताजी की खुराक है, हर समय लिखते रहना, मानो माताजी अपने जीवन का एक क्षण भी बेकार नहीं होने देना चाहतीं, जितना भी समय बचता है ग्रन्थों की रचना करती रहती हैं। वास्तव में इतने बड़े-बड़े विधान एवं ग्रन्थों की रचना एक महान् कार्य है, भारतवर्ष में किसी भी दूसरी महिला द्वारा इतने ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं। पूज्या माताजी के संसर्ग में जो भी आ गया वो उनका भक्त बनकर रह गया, किसी भी विषय को सरलता से समझाना माताजी के लिए बहुत ही सहज है। माताजी बहुत ही अनुशासनप्रिय हैं, विगत चातुर्मास (सरधना १९९१) में पूज्या माताजी को नजदीक से देखने का मौका मिला। संघस्थ साधु हो, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी या श्रावक सभी पूर्ण अनुशासन में रहते थे। कभी-कभी मुझ जैसा अज्ञानी श्रावक किसी बात को जल्दी स्वीकार नहीं करता तो माताजी बड़े वात्सल्य से एकान्त में बैठाकर शास्त्रों के अनुसार उसकी शंका का निवारण करतीं। माताजी का हमेशा कहना रहा है "हमें अपने भाव खराब नहीं करने चाहियें।" धर्म और गुरु के प्रति माताजी की अगाध भक्ति रही है। धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा के कारण ही माताजी अपने परिवार से एक नहीं, दो नहीं चार भाई-बहनों को निकाल लायीं, जिनमें पूज्या अभयमती माताजी एवं चन्दनामती माताजी आर्यिका दीक्षा लेकर अपना व समाज का कल्याण कर रही हैं। कु० मालती शास्त्री व रवीन्द्र कुमार बाल ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कल्याण मार्ग में लगे हुए हैं। जम्बूद्वीप की रचना पूज्या माताजी की समाज को अद्भुत देन है। जिसे हम शास्त्रों में पढ़ते थे उसे माताजी ने हमारे सामने चित्रित किया है। हस्तिनापुर एक पौराणिक, ऐतिहासिक नगरी रही है, जम्बूद्वीप की रचना से तो इस नगरी का भाग्य ही खुल गया। समस्त भारतवर्ष के जैन यात्रियों का पूरे वर्ष मेला-सा लगा रहता है और बड़े-बड़े साधु संघों का आगमन भी इसी निमित्त होता रहा है। पूज्या माताजी का बाल्यकाल से अब तक का जीवन हम सब के लिए अनुकरणीय है। माताजी के ही सानिध्य में कोई और बड़ा निर्माण या रचना कार्य हो, ऐसी हम सब की भावना है। पूज्या माताजी की जन्म शताब्दी हम उनके सानिध्य में मनायें, यही वीर प्रभु से कामना है। जय वीर! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नारी जाति का गौरव - सुमेरचन्द्र जैन, जबलपुर पूज्या माताजी के दर्शन मैने सर्वप्रथम प्राचीन तीर्थक्षेत्र बड़ा मन्दिर हस्तिनापुर में लगभग बीस वर्ष पूर्व किये थे। उसी समय मुजफरनगर में पुनः उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उसी समय से पू० माताजी के मन में हस्तिनापर में जम्बूद्वीप के निर्माण की अभिनव योजना थी। उनकी महान् तपस्या एवं अटूट प्रेरक शक्ति ने मूर्त रूप ग्रहण किया और आज जम्बूद्वीप न केवल भारतवर्ष में, वरन् विश्व के मानचित्र पर एक आधुनिकतम जैन तीर्थ, एक अध्यात्म केन्द्र और सुन्दर पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। भव्य जिनालयों के साथ ही मनोहारी झील के मध्य जम्बूद्वीप गौरव के मस्तक को उठाये मानो जैन धर्म की पताका आकाश में फहरा रहा हो। सुन्दर पुष्पों से सुसज्जित उद्यान, सर्व सुविधाओं से सम्पन्न आवास व्यवस्था एवं शुद्ध सुस्वाद एवं पोषक आहार व्यवस्था इस क्षेत्र को समस्त जैन तीर्थों में सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है। प्राकृतिक सौन्दर्य में भी यह क्षेत्र अग्रगण्य है। माता ज्ञानमती ने अपने कृतित्व से अपना नाम सार्थक किया है। उनके माध्यम से अनेक ग्रंथों का प्रकाशन हुआ है और यह प्रवाह निरन्तर गतिवान् है। माता ज्ञानमती ने अपने तप, त्याग और अध्ययन से सम्पूर्ण नारीजाति को गौरव प्रदान किया है, ईश्वर से कामना है कि यह महान् महिला संत दीर्घ समय तक जैन जगत् एवं सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करने हेतु हमें उपलब्ध रहें। उनके स्नेह एवं सानिध्य का लाभ मुझे अनेक बार मिला है। मैं धन्यभागी हूँ। इतनी महान् गणिनी रत्न जब मुझे दादा कहकर संबोधित करती हैं तो मैं हृदय से पुलकित हो जाता हूँ। ज्ञानमती माताजी का नाम सदैव अमर और शाश्वत रहेगा, ऐसी मेरी निश्चित मान्यता है। उनके चरणों में मेरा शत-शत नमन। त्याग एवं साधना की मूर्ति माँ ज्ञानमती -हकीम आदीश्वर प्रसाद जैन, सरधना पूज्या माताजी ज्ञान, त्याग, तपस्या एवं सच्चारित्रता की प्रतिमूर्ति हैं। आपने अपने दीर्घ साधु जीवन में अपने ज्ञान, ध्यान, त्याग, सरलता, विद्वत्ता, स्वच्छ एवं निर्दोष साधुवृत्ति के द्वारा जो ख्याति अर्जित की है वह दिगम्बर जैन साधु संस्था के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। पूज्या माताजी का वर्ष १९९१ के पावन चातुर्मास का सौभाग्य सरधना नगरी को प्राप्त हुआ था। आपके संघस्थ साधुओं ने अपने ज्ञान, त्याग एवं सरल व्यवहार से पूरे क्षेत्र में धूम मचा दी थी। पू० माताजी के दर्शनों एवं उनके मुखारविन्द से प्रवचन श्रवण करने के लिए भारत के कोने-कोने से आये हुए धर्मप्रेमी भाई-बहनों के शुभागमन से सरधना एक तीर्थ-स्थल बन गया था। ऐसी महान् त्याग, तपस्या की विभूति माताजी के चरणों में मेरा शत-शत नमन है। ओजस्वी वाणी की स्वामिनी - महावीर प्रसाद जैन, मोहनी देवी जैन लालासवाला, सीकर [राज०] दुनिया की वरिष्ठतम एवं सर्वश्रेष्ठ आर्यिका ज्ञानमती माताजी के गुणों का बखान करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। व्यक्ति में कुछ न कुछ कमी रह जाती है, परन्तु गणिनी माताजी सर्वगुण सम्पन्न हैं। विद्वत्ता की दृष्टि से इस पंचमकाल में मेरी समझ में विश्व में किसी ने भी इतने धार्मिक ग्रन्थ नहीं लिखे हैं। "अष्टसहस्री" जैसे कठिन ग्रंथों का प्रकाशन, “इन्द्रध्वज" आदि विधान की रचना कर आपने धूम-सी मचा दी है। त्याग की दृष्टि में भी त्रिलोक शोध संस्थान शिक्षण शिविर, जम्बूद्वीप की व्यवस्था आदि को ध्यान में रखते हुए भी वही एक समय वह भी शुद्ध जल व व्रती के हाथ से ग्रहण करना तथा समय-समय पर उपवास कर अपने शरीर को तपा रही हैं। ज्योतिष की दृष्टि से भी आप पीछे नहीं रहीं, "जैन ज्योतिर्लोक" "त्रिलोक भास्कर" आदि ग्रन्थों की रचना कर तथा यंत्र-मंत्र द्वारा भक्तों पर अच्छी छाप छोड़ी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ __ [१५५ शिक्षक की दृष्टि से आपने न केवल शिक्षण शिविरों के आयोजन कराकर शिक्षण दिया है, बल्कि अपने परिवार तथा समाज को आत्मोन्मुख किया है। पूज्या अभयमती माताजी, पूज्या चन्दनामती माताजी, पू० रत्नमती माताजी भी आपकी प्रेरणा से आर्यिका जैसे उच्च पद पर आसीन हुई तथा मोतीचंदजी जैसे विद्वान् व्यक्ति भी आपसे प्रभावित होकर क्षुल्लक दीक्षा लेकर आपके ही सानिध्य में त्याग की ओर उन्मुख हैं। धर्म-प्रभावना की दृष्टि से जम्बूद्वीप विश्व का आठवाँ आश्चर्य स्थापित कर दिया, जिससे विश्व में जैन धर्म की प्रभावना में चार चाँद लग गये, जो भी इस जम्बूद्वीप क्षेत्र में आ जाता है तथा. सुमेरु पर्वत व कमल मन्दिर का दर्शन कर लेता है, उसकी पुनः पुनः दर्शन करने की इच्छा बनी रहती है। मुझको भी आचार्य प्रवर शिवसागरजी महाराज के सीकर चातुर्मास से लेकर आज तक बराबर आपके सानिध्य में रहने का, दर्शन का तथा आहारादि देने का मौका मिलता रहा है, इसी प्रकार आपका आशीर्वाद मिलता रहे यही मेरी हार्दिक कामना है तथा प्रभु से प्रार्थना है कि आप शतायु हों और इसी प्रकार धर्म प्रभावना करती रहें। अगाध ज्ञान से परिपूर्ण - चौधरी सुमेरमल जैन भू०पू० महामंत्री भा०दि० जैन महासभा, अजमेर पूज्या आर्यिका रत्न ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का सौभाग्य बहुत वर्ष पहिले उनके अजमेर चातुर्मास के समय में हुआ था। तदनन्तर एक बार मुझे हस्तिनापुर में भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूज्या आर्यिकारत्न माताजी अत्यन्त विदुषी हैं। अच्छे-अच्छे विद्वानों को भी उन्होंने अगाध ज्ञान से परास्त किया है। हर एक गूढ़ विषय को सरल भाषा में समझाने की उन्हें परम अनुभूति है। वे वास्तव में आर्यिकारत्न ही हैं। अजमेर प्रवास में उन्होंने मुझे कुछ नियम दिये थे, जो मैं अभी तक निभा रहा हूँ। ऐसी विदुषी आर्यिकारत्न माताजी समाज की ज्ञान वृद्धि और कल्याण करते हुए चिरायु रहें, यही मेरी विनयाञ्जलि है। उनकी सेवा में मेरा शत-शत वन्दन । विनयांजलि -कपूरचंद बड़जात्या, अध्यक्ष : दि० जैन पंचायत, फुलेरा [राज०] फुलेरा में १०८ आचार्य वीरसागरजी महाराज के सानिध्य में यहीं पर वि०सं० २००८ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा व संघ का चौमासा भी हुआ था व यहीं पर ही १०८ धर्मसागरजी महाराज की मुनि दीक्षा भी हुई थी। फुलेरा मन्दिर गेज लाईन का सबसे बड़ा जंक्शन है। पू० गणिनी १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में फुलेरा पंचायत की तरफ से विनयाञ्जलि समर्पित करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि माताजी से हम सभी को हमेशा आशीर्वाद प्राप्त होता रहे। माताजी का ऋणी जैन समाज - प्रद्युमन कुमार अमरचन्द्र जैन, टिकैतनगर पूज्या माताजी ने बीसवीं शताब्दी में जो महान् ग्रंथों का व बड़े-बड़े विधानों का हिन्दी में अनुवाद व रचना करके जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह हमेशा-हमेशा के लिए स्मरणीय रहेगा एवं जैन समाज पूज्या माताजी का हमेशा-हमेशा ऋणी रहेगा। पूज्य माताजी दिगम्बर जैन आम्नाय की अमूल्य निधि हैं। जिन्होंने दि० जैन आनाय में पूर्वाचार्यों द्वारा कहे गये तथ्यों को अपनी रचना में सप्रमाण सिद्ध कर दिया है। ऐसी विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी को हमारा शत-शत अभिनन्दन है एवं हम सपरिवार पूज्य माताजी के दीर्घायु होने की कामना करते हैं, जिससे हम सभी को बराबर धर्म लाभ मिलता रहे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला माताजी की नमनीय तपाराधना -जयचन्द बाकलीवाल, मद्रास पूज्या गणिनी, सिद्धान्त विशारदा, १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी हमारे पुण्योदय से प्राप्त पैतृक संपत्ति हैं। जो ज्ञानाराधना, तप-आराधना से जीव को अज्ञान अंधकार से दूर करने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। पूज्या माताजी ने अपनी प्रखर प्रतिभा से, आगम सिद्धान्त, न्याय एवं पुराण आदि सैकड़ों ग्रन्थों को जन साधारण तक पहुँचाकर समाज का महान् उपकार किया है। मासिक पत्रिका "सम्यग्जबान" द्वारा आर्षपरम्परा को यथावत् बनाये रखने का अनूठा प्रयास देखकर मस्तक स्वयं नम्रीभूत हो जाता है । जम्बूद्वीप की रचना वर्तमान भौगोलिकविज्ञों के लिए एक प्रेरणासम्पन्न चेतावनी है। अंत में पूज्या माताजी के चरणों में नतमस्तक होता हुआ कामना करता हूँ कि आप सहस्र आयु होकर आर्षानुगत जिनवाणी की सेवा एवं हम अज्ञानी जीवों को आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त रूप से प्रदान करती रहें। पूज्या माताजी के चरणों में एक बार फिर नमोस्तु । आदर्श नारी का अभिनन्दन - सेठ नाथूलाल जैन, लोहारिया [राज०] परम हर्ष का विषय है दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर श्री १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी की पावन सेवाओं को देखते हुए ऐतिहासिक पृष्ठांकन हेतु अभिवन्दन-ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहा है। यह अभिनन्दन एक महान् साध्वी श्री ज्ञानमती माताजी का ही नहीं, अपितु एक त्यागी-तपस्वी एवं आदर्श नारी का अभिवन्दन है। मैं श्री १०५ श्री आर्यिका ज्ञानमतीजी के पावन चरणों में वन्दामि करते हुए उनकी शत आयु की मंगलकामना करता हूँ। कृतज्ञाञ्जलि -विजयलाल जैन, डालीगंज, लखनऊ परम पूज्या श्री ज्ञानमती माताजी के बारे में जितना लिखा जाये वह थोड़ा है। मेरे और मेरे परिवार में जो भी धार्मिक संस्कार हैं, वह पूज्या माताजी के ही आशीर्वाद का फल है। संस्थान जो पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रन्थ निकल रहा है, इसके लिए हम संस्थान को बधाई देते हैं और माताजी के प्रति हम अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करते हैं। आर्यिकाओं में अग्रणी - पोपटलाल कालीदास कोठारी, ईडर [गुज०] पूज्या ज्ञानमती माताजी “यथा नाम तथा गुण" वाली कहावत को चरितार्थ करती हैं। वे अगाध ज्ञान की भण्डार हैं, जोकि उनके द्वारा रचित एवं प्रकाशित विविध साहित्य से स्पष्ट प्रकट हो रहा है। उनकी जम्बूद्वीप निर्माण की योजना ने जैन भूगोल संबंधी तत्त्व ज्ञान को प्रकाश में लाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जो आधुनिक भूगोल वेत्ताओं के लिए एक गम्भीर चुनौती है। पूज्या माताजी मात्र कवयित्री या लेखिका ही नहीं, वरन् प्रखर वक्तरी भी हैं। आज समग्र दिगम्बर जैन समाज की आर्यिकाओं में उनका अग्रणीय स्थान है। मैं ऐसी ज्ञानमयी माताजी के चरणों में हार्दिक विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनके दीर्घायुष्य की कामना करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५७ महान् एवं पवित्र आत्मा - हुलासचन्द जैन [सेठी] गौहाटी १०८ श्री विमल सागरजी महाराज जब सीतापुर आये तो उन्होंने मुझे प्रेरणा दी कि शुद्धजल की सौगन्ध लो। मेरी आदत है कि बिना आजमाये या सहन शक्ति के बिना नियम-व्रत नहीं लेना चाहिये। इसीलिये सात दिनों का नियम लिया। उसके बाद दिल्ली में ज्ञानमती माताजी का एवं रत्नमती माताजी का आहार हो रहा था, तब उनकी बहन ने आहार देने की प्रेरणा दी। उस समय तक मैं नियम में पक्का हो गया था और ज्यों ही मैं पू० माताजी श्री ज्ञानमतीजी के आहार देने के लिए तैयार हुआ, उन्होंने इशारे से कहा कि पहले रत्नमती माताजी को दो, तब मैंने सर्वप्रथम उनकी आज्ञा का पालन करते हुए आर्यिका रत्नमतीजी को सर्वप्रथम आहार दिया। उसी दिन उसके कुछ समय बाद माता ज्ञानमती को अन्तराय आ गया और उनको आहार नहीं दे सका। फिर बाद में उनको आहार दिया। यह घटना जनवरी १९८० की है। सचमुच वह दिन बड़ा ही पवित्र था। मैं ज्ञानमती माताजी का चिर ऋणी रहूँगा और भगवान महावीर से प्रार्थना करता हूँ कि उनका रत्नत्रय कुशल रहे तथा वह स्वस्थ रहकर जैन धर्म की पताका फहराती रहें। पुनः इन्होंने जो हस्तिनापुर में कार्य किया वह इतिहास में अमर रहेगा। ऐसे महान् कार्य को बड़ी आत्मा ही कर सकती है। मैं पूज्य १०५ ज्ञानमती माताजी को बार-बार वन्दना करता हूँ। सरस्वती की प्रतिमूर्ति - तारादेवी कासलीवाल, जयपुर पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी देश की वरिष्ठ आर्यिका माताजी हैं। वे सिद्धान्त ग्रन्थों की पारगामी विदुषी हैं तथा अपनी लेखनी द्वारा अब तक सैकड़ों ग्रन्थों की रचना कर चुकी हैं। नारी जगत् को ही नहीं, अपितु समस्त जैन समाज को ऐसी सरस्वती की प्रतिमूर्ति आर्यिका माताजी पर गर्व है। तपस्या एवं ज्ञान के क्षेत्र में नारी जाति कितना आगे बढ़ सकती है आप इसका साक्षात् उदाहरण हैं। मुझे भी सन् १९८५ में उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तथा उनके प्रवचन से अपार शांति प्राप्त हुई थी। पूज्या माताजी का अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई। अन्त में मैं आपके चरणों में अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करती हूँ। नारी जाति की शोभा - शशिकला जैन, महावीर नगर, जयपुर पूज्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी नारी जाति की शोभा हैं। उन्होंने देश एवं समाज में साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं साधना सभी क्षेत्रों में नारी जाति का गौरव बढ़ाया है। वे सूझ-बूझ एवं आत्म-गौरव की प्रतीक हैं। इनके द्वारा लिखित एवं सम्पादित साहित्य कालातीत है और युगों-युगों तक जैन शासन का मस्तक ऊँचा करता रहेगा। जब मुझे मालूम पड़ा कि उनका अभिवन्दन-ग्रन्थ निकलने वाला है तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। मैं उनके चरणों में अपनी विनयाञ्जलि प्रस्तुत करती हूँ। आर्यिका माताजी युगों-युगों तक स्मरण की जाती रहें यही मेरी आत्म-भावना है। शान्ति की मेघदूती : माताजी - कंवरीलाल तेजराज बोहरा, आनन्दपुर कालू [राज०] आज जब सारा विश्व कठिन परिस्थितियों-यातनाओं की ज्वालाओं में झुलस रहा है, ऐसे समय में माताजी ने शान्ति की मेघदूत बनकर धर्मप्रभावना की है। आपके (माताजी) सानिध्य-मार्गदर्शन में हस्तिनापुर में जो जम्बूद्वीप की रचना हुई है वह दर्शनीय एवं वंदनीय है। यह भारत में नही, वरन् Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला विश्व में अद्वितीय है, जिसको जैन इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा। साथ ही साथ आपकी प्रेरणा से निकली ज्ञान ज्योति ने भारत के कोने-कोने में जैन धर्म को व्यापक ज्योतिर्मय किया है। माताजी भी धन्य है, जो भारतवर्ष की महान् विदुषी है ऐसी पुण्यात्मा युगों-युगों तक जैनधर्म को गौरवान्वित करती रहें, दीर्घायु हों ऐसी हमारी शुभकामनाएँ हैं। माताजी का चिरस्मरणीय उपकार • श्रीचंद जैन, सनावद माताजी के हमारे ऊपर बहुत उपकार हैं, विशेषकर सनावद समाज पर पोरवाड़ समाज का नाम दो रत्नों को आत्मकल्याण में लगाकर उनकी आत्मा तथा पोखाड़ समाज का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखाया चातुर्मास से हमें जो माताजी ने धर्म में और समाज कार्यों में लगाकर हमारा उपकार किया वह चिरस्मरणीय है माताजी के चातुर्मास से हम साधु और श्रावक का महत्व समझ सके माताजी ने मेरे ऊपर जो उपकार किया उसे मैं शब्दों में नहीं लिख सकता । माताजी ने मुझ छोटे से व्यक्ति को पंचकल्याणक में भगवान् के माता-पिता बनने का अवसर प्रदान किया, वह मैं कई भवों में भी प्रकट नहीं कर सकता था। माताजी द्वारा ही मैं धर्मकार्य में अपने आप को लगा सका । | माताजी ज्ञान की भंडार, ज्ञान की जननी हैं। माताजी के कारण तो सनावद समाज एवं गाँव को हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा पहचानता है। सनावद नाम जैन समाज में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। माताजी अपने आप में एक महान् शक्ति हैं और उन्हीं की शक्ति से हम अपने समाज में अपने आपको शक्तिमान् अनुभव करते हैं। पूज्या माताजी के चरणों में मेरा शत शत वंदन । मैं उनके शतायु होने की कामना करता हूँ। मृदुभाषिणी माताजी नेमीचन्द्र चाँदवाड, झालरापाटन परम पूज्या १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बड़ी तपस्विनी ज्ञानमयी, सदुपदेशी, कल्याणमयी, परसेवी, मृदुभाषी है आज के भौतिक युग में धर्म से विचलित लोगों के लिए श्री माताजी के उपदेशों का लाभ उनको एवं समाज को मिले। हमारा यह समाज उनके उपदेशों से सुदृढ़, सुसंस्कृत, स्वस्थ, परोपकारी समाज बने और श्री माताजी के अमृत वचनों का लाभ समाज को तथा आने वाले युगों के समाज को लाभान्वित करता रहे, इसी भावना के साथ उनके प्रति मेरी विनयाञ्जलि समर्पित है। साहस और विद्वता की मूर्ति साहस और विद्वत्ता की मूर्ति ज्ञानमती माताजी के उत्साह तथा प्रेरणा से हस्तिनापुर की महना जम्बूद्वीप के रूप में पुनः प्रतिस्थापित हुई। वे जो काम हाथ में लेती हैं वह कभी अधूरा नहीं रहता। उस कार्य में जन-जन की शक्ति का स्वयमेव ही संचार हो जाता है। पूज्या आर्यिका ज्ञानमतीजी ज्ञान का अथाह सागर हैं। यह हम सबका महान् सौभाग्य है कि ऐसी महान् साध्वी का सानिध्य हमें मिला। में पूज्या माताजी के चरणों में बारम्बार नमन करता हूँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - राजेन्द्र कुमार जैन, मेरट . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ चिर स्मृतियाँ जिस प्रकार सूर्य अपनी उज्ज्वल किरणों को बिखेर कर संसार के अंधकार को दूर करता है उसी प्रकार आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने नाम के अनुसार ही अपनी ज्ञान की किरणों को बिखेरकर अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर कर रही हैं। पूज्य माताजी (मैना) जो मेरे चाचा श्री छोटेलालजी की सबसे बड़ी पुत्री हैं, मुझसे मात्र ६ माह छोटी थीं। मेरा और उनका बचपन साथ-साथ बीता। हम दोनों ने एक साथ ही जैन पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की। मैना की बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि जो पाठ हम लोगों को कई बार पढ़ने पर भी नहीं याद हो पाता था उसे मैना एक बार में ही याद कर लेती थीं। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखकर कई बार पंडितजी कहते कि मैना जरूर एक दिन नाम रोशन करेगी। पंडितजी जब भी स्कूल में छहढाला, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढ़ाने लगते, मैना इनके एक-एक शब्द का अर्थ जानने को उत्सुक रहती और अर्थ समझकर गहन चिन्तन में लग जाती। बचपन में भी हम दोनों जब साथ बैठते तो मैना मुझसे यही प्रश्न करती रहती कि जन्म-मरण क्या होता है ? और कैसे इससे छुटकारा पाया जा सकता है। शायद मैना बचपन से ही जन्म-मरण के दुःखों को सोचकर इससे छूटने का उपाय जानने के लिए जिज्ञासु थी। पढ़ाई पूरी होने के पश्चात् मेरा तो विवाह कर दिया गया, किन्तु मैना विवाह के लिए टाल-मटोल करती रही। किन्तु मुझे क्या किसी को भी यह मालूम नहीं था कि मैना ने अपने मन में सांसारिक झंझावातों से दूर एक ऐसा मार्ग चुन लिया है जो हम सभी को कठिन क्या असंभवसा लगता है। Jain Educationa International [१५९ - श्रीमती जैनमती जैन तहसील फतेहपुर [बाराबंकी] उ०प्र० सन् १९५२ में मैं उस समय टिकैतनगर में ही थी और मेरी सबसे बड़ी पुत्री जयश्री का जन्म हुआ था, मुझे मालूम हुआ कि मैना ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। मैंने तो समझा कि अन्य व्रत-उपवासों की तरह इसे भी पालन किया जाता होगा, किन्तु जब मुझे मालूम हुआ कि मैना अब आजीवन विवाह नहीं करेगी तो मैं रोये बिना न रह सकी। मुझे मैना के साथ पाठशाला के दिनों की सब बातें याद आने लगीं और मैं सोचने लगी कि मैने और मैना ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की, किन्तु मैं तो सांसारिक झंझटों में उलझ गयी और मैना ने आत्मकल्याण का मार्ग चुन लिया है। I बाद में जब मुझे विदित हुआ कि मैना ने क्षुल्लिका दीक्षा ले लो तो मैं अपने पिताजी के साथ दर्शन के लिये श्री महावीरजी गयी। वहीं मैना आचार्य देशभूषणजी के संघ के साथ क्षु० वीरमती के रूप में विराजमान थीं। मैं नमोस्तु करके बैठ गयी और पुनः पाठशाला से लेकर घर तक मैना के साथ की सारी बातें याद आने लगीं और मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे। लेकिन क्षुल्लिका वीरमती तो पारिवारिक मोह को छोड़कर वीर हो चुकी थीं, वह शान्त मुद्रा में बैठी रहीं और मुझसे एक शब्द भी नहीं बोलीं। कुछ समय के उपरान्त क्षु० वीरमती आर्यिका दीक्षा लेकर ज्ञानमती बन गयीं। आज जब मैं पूज्य माताजी द्वारा रचित ग्रन्थों को पढ़ती हूँ तो विचार करने लगती हूँ कि हम दोनों ने एक ही साथ शिक्षा प्राप्त की, किन्तु पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, शायद यह उन्हें पूर्व भव से प्राप्त हुआ है अथवा कोई दैवी शक्ति सरस्वती के रूप में माताजी के हृदय में वास कर रही है। उनके पावन आदर्शों पर चलकर मैं शीघ्रातिशीघ्र अपना आत्म-कल्याण कर सकूँ यही मेरी मंगलकामना है। माताजी के दर्शन का चमत्कार For Personal and Private Use Only I मैंने हस्तिनापुर में ता० ५.७.९० को आपके दर्शन किये, उसके बाद से ही मेरी सोच में कई बदलाव आये जैन होने के बावजूद भी जैन-धर्म के प्रति मेरी भावना कम थी, लेकिन मैं इसे चमत्कार ही कहूँगा कि आपके दर्शन मिलने के बाद मेरी भावना एवं सोच में कमाल के परिवर्तन हुए । मैं पहले मन्दिर भी बहुत कम जाता था, लेकिन अब शायद ही कोई दिन छूटता हो, जब मैं मन्दिर नहीं जाता हूँ । आपने मुझे णमोकार मंत्र की १२४० माला फेरने को दी थीं एवं एक यंत्रजी भी दिया था, जिसका सप्ताह में एक बार अभिषेक भी करने -- - ललित सरावगी, फारविसगंज [ बिहार ] . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला को कहा था। आपके निर्देशानुसार मैं एवं मेरे परिवार वाले णमोकार मंत्र की जाप कर रहे हैं एवं मैं यंत्र का अभिषेक भी कर रहा हूँ। आज भी महसूस होता है कि मुझे बहुत ही शान्ति मिल रही है, पर अभी भी कई बार मैं उत्तेजित हो जाता हूँ। ___ मैं आपके निर्देशानुसार ही धर्म में लगा हुआ हूँ एवं उम्मीद करता हूँ कि आपका स्नेह तथा आशीर्वाद मुझे सदा ही मिलता रहेगा, जिससे मैं अपनी जिंदगी में सफलता की ओर अग्रसर होता रहूँगा। मेरे परिवार की तरफ से आपका सादर वन्दन । कुशल आचीटेक्ट - कैलाशचन्द्र जैन, [इंजी० रिटा०] तोपखाना बाजार, मेरठ वैराग्य की मूर्ति, शांति की प्रतिमा पूज्य ज्ञानमती माताजी को मैं विनयांजलि अर्पित करता हूँ तथा भगवान् महावीर स्वामी से प्रार्थना करता हूँ कि माताजी १०० वर्ष की आयु को प्राप्त करें। मैं पिछले आठ वर्षों से माताजी के सानिध्य में जम्बूद्वीप स्थल पर रहकर निर्माण कार्य करा रहा हूँ। पूज्या ज्ञानमती माताजी के विषय में, मैं जो रहस्य उद्घाटन करने जा रहा हूँ, शायद ही अन्य कोई जानता हो। यह रहस्य जम्बूद्वीप की रचना के सम्बन्ध में है। प्रत्येक निर्माण कार्य सदैव एक पैमाना मानकर कराया जाता है। अब यदि सुमेरु पर्वत की मौके पर निर्मित ऊँचाई १०० फुट मानी जाए तो पैमाने के अनुसार १ फुट = १०० योजन (१ योजन = ४००० मील) अर्थात् १ फुट = ४०,००,००० मील हुई। इसी पैमाने पर यदि सुमेरु के आधार की चौड़ाई भी रखी जाती तो चौड़ाई मात्र एक सींक के बराबर भी न आती। इसी प्रकार समस्त पर्वतों की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई मात्र कुछ इंचों में ही आती। अर्थात् यदि पैमाने के अनुसार रचना होती तो रचना बहुत बेतुकी लगती। और बन भी नहीं सकती थी। अतः मुझे आश्चर्य इस बात से हुआ कि माताजी ने अपने रजिस्टर में पूर्व से लिखे हुए नापमान के अनुसार जब मुझको निर्माण करवाने के लिए लिखवाया, यानि प्रत्येक पर्वत व नदी की लम्बाई, चौड़ाई व ऊँचाई आदि फुट व इंचों में लिखाई तथा उनके अनुसार मौकेपर निर्माण कराने पर पूरा का पूरा जम्बूद्वीप जैसा कि मौके पर निर्मित है, का निर्माण आसानी से पूरा हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी निर्माण पूर्ण पैमाना मानकर कराना आसान है, परन्तु मात्र अपने विस्तृत शास्त्र ज्ञान के आधार पर ऐसा अभूतपूर्व निर्माण कराना माताजी का एक कुशल से कुशल आचटिक्ट होने को प्रमाणित करता है। मेरी तो यही शुभकामना है कि माताजी लम्बी आयु को प्राप्त कर इसी प्रकार जैन समाज की अपने अद्भुत ज्ञान के द्वारा सेवा करती रहें व अपने भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करती रहें। जैन समाज की चेतना - चमनलाल जैन, खतौली पूज्या माताजी ने शताधिक ग्रन्थों का निर्माण किया है, अष्टसहस्री जैसी क्लिष्ट कृति का अनुवाद आपने किया है, समाज में एक नयी चेतना का मन्त्र आपने फूंका है। मैं जब भी माताजी के दर्शनार्थ हस्तिनापुर गया, हृदय श्रद्धा से भर गया। जैन समाज को अभी माताजी से बहुत आशाएँ हैं। वीर प्रभु से प्रार्थना है कि माताजी इसी प्रकार स्वस्थ रहकर जैन समाज में जैन धर्म और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करती रहें। अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाश के अवसर पर मैं पूज्या माताजी के चरणों में अपनी विनयाञ्जलि अर्पित करता हूँ और अभिवन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करता हूँ। पूज्या माताजी ने प्रथम बार खतौली में पदार्पण करते ही जैननगर कालौनी का उद्घाटन अपने कर-कमलों द्वारा किया। माताजी का ही यह आशीर्वाद है कि यह कालौनी दिन-प्रतिदिन प्रगति पर है, तभी माताजी का ससंघ खतौली में चातुर्मास हुआ और चातुर्मास में ही खतौली में माताजी ने शिक्षण शिविर लगाया, जिसमें देश के बड़े-बड़े विद्वान् सम्मानित किये गये तथा समाज के विद्यार्थियों ने धर्मलाभ लिया। इस खतौली चातुर्मास में ही माताजी की लेखनी से इन्द्रध्वज विधान का निर्माण हुआ। जो भारतवर्ष में स्थान-स्थान पर किया जा रहा है और धर्म-प्रभावना हो रही है। माताजी अस्वस्थ रहते हुए भी जैनधर्म की जागृति के प्रति अग्रसर हैं। जम्बूद्वीप पर सुमेरु पर्वत के अतिरिक्त बने ज्ञानज्योति, त्रिमूर्ति मती कला मन्दिर, कमल मन्दिर आदि स्मरणीय रहेंगे। अंत में पूज्या माताजी के चरणों में बारम्बार वंदामि। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ धन्य मात तेरा जीवन - कु० किरणमाला जैन, टिकैतनगर भारतवर्ष की पावन वसुन्धरा पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। उन्हीं महापुरुषों में कुंवारी कन्याओं का मार्ग प्रशस्त करने वाली परम पूज्यागणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी भी हैं। जिस प्रकार गुलाब स्वयं काँटों में रहकर दूसरों को सुगन्ध प्रदान करता है। उसी प्रकार पूज्या माताजी स्वयं अनेक कष्टों को सहन करते हुए अनेक ग्रन्थों की रचना करके अपनी सुगन्ध रूपी वाणी को जन-जन तक पहुंचा रही हैं व जैनधर्म की सेवा तथा मानव कल्याण में निरन्तर अग्रसर हैं। Jain Educationa International पूज्या श्री माजी ने अपनी लेखन शैली द्वारा ऐसे भी आधुनिक शिक्षाप्रद अनेक अन्थ की रचना को व अनेक ग्रंथों की हिन्दी टीका करके प्रकाशित कराया है, जो कि इस युग के मानव के लिए सुलभता से ज्ञान प्राप्त करने का साधन बन गये हैं। ऐसी उन ज्ञान गुणों की खान पूज्या माँ श्री ज्ञानमती माताजी के विषय में कहना ही क्या ? यद्यपि उनके विषय में कुछ कहना सूर्य का दीपक दिखाने के समान है; फिर भी मैं टूटे-फूटे शब्दों में कुछ लिखने का प्रयास कर रही हूँ। बात उन दिनों की है, जब में तेरह वर्ष की थी। उस समय तक मैने अपनी स्मृति में किन्हीं साधुओं के दर्शन नहीं किये थे। घर में मैं अक्सर माँ व पिताजी आदि से पूज्या माताजी के वैराग्यपूर्ण जीवन के बारे में सुनती थी व मन में सोचा करती थी कि सम्पूर्ण विश्व जिनका गुणगान करता है, जिनके श्रीचरणों में सभी के मस्तक श्रद्धा से झुक जाते हैं, ऐसी जगज्जननी माँ ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का सौभाग्य में कब प्राप्त कर सकूँगी ? क्या मुझे भी कभी उनके सानिध्य में रहने का अवसर मिल सकेगा ? आखिरकार ऐसा सुनहरा अवसर आ ही गया। मुझे स्मरण है, मेरी माधुरी बुआजी (जो कि उस समय पू० माताजी के पास बाल ब्रह्मचारिणी के रूप में रहती थी और आज परम पूज्या आर्यिका चन्दनामती माताजी बन चुकी हैं) कुछ दिनों के लिए घर आई हुई थीं। जाते समय मुझसे बोलीं मेरे साथ नयी दिल्ली चलोगी, वहाँ पृ० श्री ज्ञानमती माताजी, पू० रत्नमती माताजी व पू० शिवमती माताजी होंगी, उन सभी के दर्शनों का सौभाग्य तुम प्राप्त होगा। मेरा कहने पर बुआजा ने मेरे पिताजी से भी अनुमति ले ली। पिताजी की अनुमति मिल जाने पर मानो मेरे मन की मुराद पूरी हो गई। मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा। इस तरह मुझे प्रथम बार अपनी बुआजी के कारण पू० श्री माताजी के दर्शनों का एवं कुछ दिनों तक उनके सानिध्य में रहकर धर्म लाभ उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब से लेकर वर्ष दो वर्ष में निरन्तर पू० माताजी के दर्शनों का व उनके सानिध्य में महीना-पन्द्रह दिन रहकर उनकी सेवा करने व धर्मलाभ प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो जाया करता है। सच कहते हैं मेरे पिताजी कि पूर श्री माताजी में एक अद्भुत चुम्बकीय शक्ति है कि जो भी उनके पास जाता है लौटकर वापस आने का नाम नहीं लेता। मैं जब भी उनके पास दर्शनों के लिए जाती हूँ कभी भी मन से वापस नहीं आती हूँ, जबरन आना पड़ता है। पू० ज्ञानमती माताजी से व पू० चन्दनामती माताजी से हम सभी को इतना अधिक आशीर्वाद व स्नेह मिला है कि मेरे लिए उसे शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है। मैं जिनेन्द्र प्रभु से यही मंगल प्रार्थना करती है कि मुझमें भी इतनी शक्ति आ जाये कि पू० श्री माताजी के बताये पथ पर मैं भी चल सकूँ तथा आत्म-कल्याण कर सकूँ । परम पूजनीया १०५ प्रातः स्मरणीया, श्रद्धेया, जगज्जननी, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के श्री चरणों में मेरा शत शत वंदन | परोपकार माताजी के जीवन की सार्थकता : [ १६१ गणिनी आर्यिकारत्न जगत् विख्यात सम्यक्त्वशील आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी ने परम पवित्र जिनवरों के चरणरज में अवतार लेकर जैनधर्म की प्रभावना पूर्वख अखण्ड सम्यग्ज्ञान की ज्योति जगाकर भव्यात्मा जीवों के लिए चिर स्मरणीय कुछ तथ्यों का प्रतिपादन किया है, जो निम्न प्रकार हैं जैन धर्म का आपने अपूर्व पठन-मनन कर चारों अनुयागों का लेखन करते हुए जम्बूद्वीप जैसी रचना का निर्माण कराया है। इसके साथ ही आपने अपने जीवन में शारदा माँ की पुत्री बनकर चारों अनुयोगों का अध्ययन कर भाग्यशाली जीवों के हाथ में निम्न प्रकार के ग्रन्थराज उपलब्ध कराये हैं समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्ट पाहुड़, पंचास्तिकाय आदि की अपूर्व गाथाओं का आधार लेकर उसमें भावों को ऐसा उड़ेला है, जो पढ़ने वाले भव्य जीवों को प्रत्यक्ष में निज आत्मानुभव का आनन्द प्राप्त कराते हैं। इसलिए आपकी परम दिव्य लेखनी इस भारत-भूमि पर चिरकाल तक रहती हुई गंगा नदी की तरह सदा बहती रहे। शान्तीसागरजी महाराज दक्षिण वाले की तरह जिनवाणी की सुरक्षा में आप सतत संलग्न हैं। For Personal and Private Use Only धूलचन्द्र जैन, चावंड [राज०] -- Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कल्पद्रुम विधान, जो आपकी स्वयं की मौलिक रचना है, वह विश्व में जैन जगत् को पहली देन है। इसके साथ भी अनेक रचनाएँ हैं। आपने जब से अपनी लेखनी प्रारंभ की, १५० ग्रंथों की रचना एवं सैकड़ों संस्कृत स्तुतियाँ आदि बनाईं। निवृत्ति मार्ग में रहते हुए भक्ति मार्ग भी आपसे अछूता नहीं है। उसी का प्रतिफल आज हम देख रहे हैं कि सारे हिन्दुस्तान में इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम विधानों की धूम मची हुई है। चन्दन विषधरों के द्वारा डसे जाने पर भी सुगन्धि ही बिखेरता है, उसी प्रकार पू० ज्ञानमती माताजी ने सदैव परोपकार में ही अपने जीवन की सार्थकता मानी है। जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका - जम्बूकुमार जैन सर्राफ, टिकैतनगर आज विश्व में जम्बूद्वीप की रचना को कौतूहल की दृष्टि से देखा जा रहा है और उस पर शोध कार्य चल रहा है; क्योंकि समस्त मानव जाति को शांति की परम आवश्यकता है और वह जैन धर्म में ही है, यह सर्वविदित है। इस रचना की पावन प्रेरिका आप ही हैं। अष्टसहस्री जैसे क्लिष्टतम ग्रन्थों का अनुवाद करके विद्वानों को सही दिशा बोध कराने का श्रेय आपको ही है। हम इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम आदि विधानों में भाग लेकर जो सातिशय पुण्योपार्जन करते हैं उसे प्राप्त कराने का श्रेय आपको ही है। आज के युग में कुछ विद्वान् आपको माँ सरस्वती की उपाधि से अलंकृत करते हैं। मेरी समझ से यह बात कुछ हद तक सत्य ही है; क्योंकि हम नित्य प्रातः जो सरस्वती स्तोत्र का पाठ करते हैं, उसमें जिन नामों में सरस्वती का स्तवन करते हैं वे सब आप में देखे जा सकते हैं। आप विद्वन्माता अर्थात् विद्वानों की माँ हैं, इसमें आश्चर्य नहीं। आपके वाक्य में दोष होता ही नहीं, आप कुमारी हैं, आप बालब्रह्मचारिणी हैं, आप जगत् की माता हैं, इत्यादि उपाधि सर्वथा सत्य हैं। मैंने स्वयं महसूस किया कि किसी गोष्ठी में जब मैं बोलने में मायूस हो जाता हूँ तो आपके स्मरणमात्र से नयी चेतना, सदबुद्धि जाग्रत होती है। यह मेरा परम सौभाग्य है कि जिस कुल में आपने जन्म लिया उसी कुल में मैंने भी जन्म लिया, किन्तु मेरा यह सोचा तभी सार्थक होगा, जब मैं आपके आदर्शों पर चलूँ। इसी के साथ परम पूज्या माताजी के चरण कमलों में बारम्बार सादर वंदामि । बच्चे-बच्चे की परिचिता माताजी -कु० नमिता जैन दरियाबाद [जि० बाराबंकी उ०प्र०] जैन समाज का ऐसा कौन-सा बच्चा है जो पू० श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से परिचित नहीं है अर्थात् सभी परिचित हैं, मैं उनके परिवार की एक छोटी सदस्या होने के नाते गौरव का अनुभव करती हूँ कि मुझे ऐसे परिवार में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैं अपनी माँ के साथ गर्मियों की छुट्टियों में आती रहती हूँ। माताजी तब मुझे खूब अच्छी-अच्छी धार्मिक शिक्षाएँ देती हैं; उस समय मुझे बहुत अच्छा लगता है। ऐसा लगता है कि वास्तव में वे ही मेरी माँ हैं । आज माताजी ने हम जैसी कुंवारी कन्याओं के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है, यह पू० माताजी की ही देन है। माताजी के ज्ञान का वर्णन करना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। पू० माताजी के पास ऐसी चुम्बकीय शक्ति है जिससे एक बार यहाँ आने पर फिर जाने का मन ही नहीं करता है। आज माताजी ने इतने अधिक अलौकिक कार्य किये कि वे अवर्णनीय हैं। अन्त में पू० माताजी के चरणों में विनम्र विनयांजलि अर्पित करते हुए मैं भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि मैं भी पू० माताजी के पद-चिह्नों पर चलकर अपना आत्मकल्याण कर सकूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१६३ शब्दाञ्जलि अर्पित करता हूँ - सुशील जैन, मोदीनगर इस जीवन रूपी मधुबन में, मन सुमन भी कुम्हला जाता है। मैं कैसे करूँ पुष्प अर्पित, मेरा भी मन अकुलाता है ॥ इसलिए मैं अपने शब्दों को, पुष्यों के रूप में धरता हूँ। माँ के ममतामय चरणों में, शब्दाञ्जलि अर्पित करता हूँ ॥ पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के पावन चरणों में अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए मैं गौरव का अनुभव करता हूँ। सन् १९७४ के वह क्षण भी मैं कभी भूल नहीं सकता, जब माताजी प्रथम बार हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर पधारी। उस समय उनके शिष्य ब्र० मोतीचन्दजी जम्बूद्वीप रचना के लिए स्थान देख रहे थे। मेरे पिता श्री बूलचन्दजी जैन मवाना वाले पूरी लगनपूर्वक उनके साथ जमीन देखने में सहयोग प्रदान कर रहे थे। मैं उस समय उनका ड्राइवर होता था; क्योंकि उन दोनों लोगों को जगह दिखाने हेतु गाड़ी मुझे ही चलानी पड़ती थी। उस समय तक तो मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का एक बीज वटवृक्ष का रूप धारण कर लेगा, किन्तु अल्पकाल में यह तीर्थक्षेत्र विश्व की दृष्टि का केन्द्र बन गया और प्रेरणास्रोत पूज्य ज्ञानमती माताजी आज संसार की एकमात्र विभूति बन गईं। यह सब उनकी तपस्या एवं ज्ञान का ही प्रतिफल है, वरना उत्तर भारत का कौन-सा व्यक्ति सोच सकता था कि कभी हस्तिनापुर का यह विस्तृत रूप दुनिया के समक्ष आने वाला है। आज यहाँ के समस्त इतिहास मानो सचेतन हो उठे हैं, यहाँ के घने जंगल में स्वर्ग जैसा सुख नजर आने लगा है। गुरुओं के बारे में अपने बुजुर्गों से न जाने कितनी बातें सुना करता था कि वे जहाँ भी चले जाते हैं वह नगर भी स्वयं तीर्थ बन जाता है। जहाँ जम्बूद्वीप के साथ ज्ञानमतीजी के नाम ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है, वहीं भक्ति के क्षेत्र में इन्द्रध्वज आदि विधानों के द्वारा तो वे बच्चे-बच्चे के हृदय में समा गई हैं। सन् १९८० में उनके दिल्ली प्रवास के मध्य मुझे भी श्री पन्नालाल सेठी द्वारा आयोजित इन्द्रध्वज विधान में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसके बाद सन् १९८९ के दशलक्षणपर्व में मैंने हस्तिनापुर जाकर इन्द्रध्वज विधान किया और जनवरी सन् १९९० में पूज्य माताजी के संघ को मोदीनगर ले जाकर वहाँ इन्द्रध्वज विधान किया। इस प्रकार प्रत्यक्ष चमत्कारों से प्रभावित होता हुआ मैं आज पूज्य ज्ञानमती माताजी का कट्टर भक्त हूँ। मेरा अपना छोटा-सा परिवार है। धर्मपत्नी सुशीला जैन की पूज्या माताजी के प्रति असीम श्रद्धा है। मेरी दोनों गुड़िया स्वप्निल और स्वाति अपनी अल्पकालीन छुट्टियों में भी हस्तिनापुर ही पूज्य माताजी के पास चलने के लिए जिद करती हैं, क्योंकि उनके सानिध्य में जाकर ज्ञान के साथ-साथ माँ का प्यार भी प्राप्त होता है। ___ मैं एवं मेरा परिवार पूज्य माताश्री के चरणों में सविनय प्रणामाञ्जलि समर्पित करते हुए उनके वरदहस्त को सदैव चाहता हूँ। अनमोल शिक्षाओं की प्रदात्री - पुष्पेन्द्र जैन, दिल्ली सन् १९८६ भादों के महीने में प्रथम बार जब मैं अपने मामाजी श्री पलटूमल जैन के साथ इन्द्रध्वज महामंडल विधान में हस्तिनापुर आया था तबसे ही मुझे पूज्य ज्ञानमती माताजी का वरदहस्त एवम् आशीर्वाद सतत प्राप्त हो रहा है। मैं लगभग महीने दो महीने में पूज्य माताजी के दर्शनार्थ हस्तिनापुर जाता रहता हूँ और उनसे मुझे बहुत सारी अनमोल शिक्षाएँ मिलती रहती हैं। मैं देखता हूँ कि माताजी के असीम वात्सल्य और उनके द्वारा प्रदत्त जम्बूद्वीप के दर्शन हेतु हजारों यात्री हस्तिनापुर आते हैं और वहाँ हमेशा मेला-सा लगा रहता है। हस्तिनापुर की काया पलट करने में पूज्य माताजी का जो योगदान है, उसे हस्तिनापुर कभी भी नहीं भूल सकता। जिस क्षेत्र पर आज से १५ वर्ष पूर्व पूरे वर्ष में १० से १५ हजार की जनता आती थी उसी क्षेत्र पर आज वर्ष में कई लाख दर्शनार्थी आते हैं, यह दैवी चमत्कार नहीं तो और क्या है ? मेरी कमजोर लेखनी पूज्य माताजी के गुणों का क्या वर्णन कर सकती है; मैं तो उनके चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए यही भावना भाता हूँ कि हस्तिनापुर के इस क्षेत्र को उनका मंगल सानिध्य चिरकाल तक प्राप्त होता रहे, जिससे उसकी कीर्ति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित होती रहेगी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "गुरु गुण लिखें न जायें कलम से " - सौ० शोभा एवं शरदचन्द पहाड़े, श्रीरामपुर [महाराष्ट्र ] - जम्बूद्वीप निर्माण की पावन प्रेरिका, प्रातः स्मरणीय परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शत शत बार नमोस्तु । आपके दिव्य व्यक्तित्व में एक अद्वितीय प्रभावोत्पादक शक्ति है, जिसका अनुभव आपके सम्पर्क में आने पर ही होता है। करीब दो-तीन साल में हमारा पूज्य माताजी से निकट संबंध आया, जिसमें हमें यह अनुभव हुआ। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज की परम्परा को निर्दोष चलाने के लिए आपने बहुत संघर्ष झेले, किन्तु निष्कलंक परंपरा का ही अनुमोदन किया। आपकी विद्वत्ता, निष्पक्षता, निलभता, वात्सल्य आदि गुणों से आकर्षित होकर ज्ञानी जन एवं सामान्य जन भी आकर धर्मलाभ उठाते हैं। आप में वैसे तो अनेकानेक गुण हैं। जम्बूद्वीप की महान् रचना तो विश्व-विख्यात हो गई। उसी प्रकार आपका साहित्य भी अंधकार में भटके हुए प्राणियों को दीपक के समान राह दिखाता है। वात्सल्य गुण की अपरिमित विशेषता आप में ही है। एक कवि ने कहा है सब धरती का कागद करूँ, लेखनी सब वनराय, सात समुन्दर की मसि करूँ, पर गुरु गुण लिखा न जाय ॥ वर्णन कर सकते हैं ? ऐसी माताजी के हम क्या गुण देवाधिदेव १००८ श्री श्रेयांसनाथ भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि आपका जीवन सुख शांतिमय व्यतीत हो, आप चिरायु हों, आपके पवित्र चरणों का सानिध्य हमें सदैव उपलब्ध रहे, यही मंगलकामनारूपी "विनयांजलि" अर्पित करते हैं। पुनः आपके पुनीत चरणकमलों में कोटिशः नमोस्तु ! नमोस्तु ! नमोस्तु ! Jain Educationa International चारित्रमूर्ति ज्ञानमती माताजी अरविन्द कुमार पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जहाँ लोग ज्ञान की मूर्ति कहते हैं वहीं मैं उन्हें चारित्रमूर्ति मानकर सदैव पूजता रहता हूँ। साधुओं के प्रति मेरी आस्था इनके दर्शन और सानिध्य से जितनी बलवती हुई है उसका वर्णन मेरी जिह्वा नहीं कर सकती। अपने एवं संघस्थ शिष्यों के संयम में रंचमात्र भी शिथिलता नहीं आने देना उनकी सहज प्रवृत्ति है। मैंने ४ बार इन्द्रध्वज विधान एवं अनेक बार कई लघु विधान उनके पास जाकर किये हैं, उनके प्रवचनों में भी सदा चारित्रिक दृढ़ता का सन्देश होता है। पूज्य माताजी के ये शब्द मुझे हमेशा प्रेरणा देते रहते हैं कि "शरीर का पोषण तो हमने भव भव में किया है अब आत्मा के पोषण पर भी ध्यान देना हमारा परम कर्त्तव्य है । अतः शरीर के लिए संयम में कभी बाधा नहीं आने देना चाहिये।" " सन् १९८५ में उनकी बीमारी के समय जब हम लोग मेरठ से डॉ० ए०पी० अग्रवाल को उनका चेकअप कराने के लिए ले जाते थे, तब डॉक्टर साहब भी उनकी दृढ़ता के समक्ष आचर्यचकित हो जाया करते थे; क्योंकि जैन साधुओं की कठोर चर्चा से वे प्रथम बार परिचित हुए थे। जैसा मैं पूज्य माताजी की चारित्रिक ऊँचाइयों को प्रत्यक्ष में देखा करता हूँ, तदनुरूप ही स्वप्न में भी मैंने उससे भी अधिक ऊँचा पाया । कोई दिसम्बर १९९१ की एक रात को मैंने स्वप्न देखा मैं मेरठ से हस्तिनापुर पहुँचा हूँ और जम्बूद्वीप के प्रमुख द्वार में प्रवेश करते ही मुझे आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी और क्षुल्लक मोतीसागरजी के दर्शन हुए। उसके बाद मुझे आकाश में अपूर्व रोशनी फैलाता हुआ एक सुंदर विमान नजर आया, उसके बारे में पूछते ही चन्दनामती माताजी ने कहाक्या तुम्हें मालूम नहीं है ? इस विमान से ज्ञानमती माताजी विदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी के दर्शन करने गई थीं, वे अब वहाँ से वापस आ रही हैं। मैंने माताजी की जय-जयकार के साथ ही आँखें खोल दीं। जैन, होम ब्रेड, मेरठ असीम प्रसन्नता के साथ मन अपनी दैनिक चर्या पूर्ण की और प्रातः ९ बजे ही मैं हस्तिनापुर की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर चन्दनामती माताजी को जब अपना स्वप्न बताया तो वे मुस्कराने लगीं। बार-बार स्वप्न फल पूछने पर वे बोलीं- गुरु की महिमा ही अपरम्पार है, उनकी ऊँचाइयों को भला शिष्य कैसे माप सकता है ? खैर ! जो भी हो, मुझे पूर्ण विश्वास है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी एक न एक दिन स्वयं तीर्थंकर भगवान् जैसी श्रेणी प्राप्त करके सिद्ध अवस्था भी प्राप्त करेंगी। मैं माताजी सरीखे गुरु को पाकर गौरव का अनुभव करता हूँ। उनके श्रीचरणों में मैं शत-शत वन्दन करता हूँ । For Personal and Private Use Only . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ कलिकाल की शारदा -श्रीमती कमलेश जैन ध०प० अमरचन्द जैन होमब्रेड, मेरठ असित गिरिसमं कज्जलं सिन्धुपात्रे, सुरतरुवर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं, तदपि तव गुणानामीश पारं नयाति ॥ पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के गुणों का वर्णन हम जैसे अज्ञानी प्राणी कैसे कर सकते हैं ? उनकी जिह्वा पर तो मानो सरस्वती ही विराजमान हैं, इसीलिए उनके मुख से निकले हुए प्रत्येक शब्द सत्य होते हैं। उनके द्वारा रचित इन्द्रध्वज विधान मुझे चार बार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। विधान में इतना अतिशय नजर आता है, जिसका अनुमान बिना विधान किये अनुभव नहीं किया जा सकता। भूख-प्यास की बाधा तो जैसे समाप्त ही हो जाती है। भले ही ५ बजे सुबह से शाम ३ बजे तक पाठ की पूजन चलती रहे, किन्तु कभी कोई आकुलता महसूस नहीं हुई। मैं समझती हैं कि यह सब पूज्य माताजी के शब्दों की ही शक्ति है। ऐसी शारदा माता ज्ञानमतीजी के चरणों की आराधना का मुझे सदैव सुअवसर प्राप्त होता रहे, यही मेरी जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है। एक अनुभव - एक प्रश्न - कैलाशचंद जैन, मुजफ्फरनगर सभी जग प्रख्यात व्यक्तित्व चाहे सामाजिक, राजनैतिक रहे हों, चर्चा के पात्र रहे हैं। माताजी भी इसका अपवाद नहीं हैं, मगर प्रत्येक व्यक्ति को माताजी के सम्मुख आकर नतमस्तक होते ही देखा है। यहाँ एक समय का अनुभव लिखना चाहूँगा। हस्तिनापुर जम्बूद्वीप कार्यकारिणी की सभा में मैं सम्मिलित होने गया हुआ था, सभा समय पर प्रारम्भ हो गयी, एक सज्जन की प्रतीक्षा हो रही थी। मोदीनगर के सुशील कुमार जैन कई सदस्यों सहित आधा घण्टा विलम्ब से आये, आकर चुपके से सभा में सम्मिलित हो गये। कुछ समय पश्चात् उनसे बात करने पर ज्ञात हुआ कि वे सभी के साथ कार में आ रहे थे कि रास्ते में कार पलट गयी। कार पूरे सदस्यों से भरी हुई थी, मगर सभी सदस्य स्वस्थ थे, कार सीधी कर, फिर सभी लोग बैठे, हस्तिनापुर पहुंचे। यह चमत्कार सभा में आने और माताजी के दर्शन करने की भावना सभी सदस्यों में थी, इसलिए था अथवा, क्या संयोग था। यह बताना किसी मानव का कार्य नहीं है, केवल ज्ञानी ही बता सकते हैं। हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप, त्रिलोक शोध संस्थान पर आकर क्या कुछ अजूबा अनुभव नहीं है ? मैना से ज्ञानमती तक की संक्षिप्त यात्रा - आनन्द प्रकाश जैन [सोरमवाले], दिल्ली परम पूजनीया श्री १०५ आर्यिका रत्न ज्ञानमती माताजी के चरणों में शत-शत वन्दन। १. अभिवन्दन ग्रन्थ उन्हीं महापुरुषों के लिखे जाते हैं, जिनके जीवन में विशेषता हो, वह विशेषताएँ माताजी के अंदर विद्यमान हैं। २. श्री ज्ञानमती माताजी का जन्म अग्रवाल जैन समाज के श्रेष्ठि श्री छोटेलालजी के घर आश् ि । सुदी १५ सन् १९३४ में टिकैतनगर (जि०) बाराबंकी, उत्तर-प्रदेश में हुआ था। जो बाद में दीक्षा लेकर १०५ आर्यिका रत्नमतीजी के नाम से विख्यात हुईं। उनकी समाधि हस्तिनापुर जम्बूद्वीप में ही हुई थी। ३. माताजी का परिवार धार्मिकता की ओर अग्रसर है। परिवार के समस्त सदस्य भक्त हैं। माताजी के चार भाई तथा नव बहिनें हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भाई- (i) श्री कैलाशचन्द्र जी (ii) श्री प्रकाशचन्द्र जी (iii) श्री सुभाषचन्द्र जी (iv) बाल ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र कुमारजी बहनें - (i) मैना देवी (आर्यिका ज्ञानमती जी) (ii) १०५ आर्यिका अभयमती माताजी (iii) १०५ आर्यिका चंदनामती माताजी (iv) बालब्रह्मचारिणी कु. मालती बहन जी (v) शांति जैन (लखनऊ) (vi) श्रीमती जैन (बहराइच) (vii) कुमुदनी जैन (लखनऊ) (viii) कामनी जैन (दरियाबाद) (ix) त्रिशला .जैन (लखनऊ) घर में मैना देवी सबसे बड़ी थीं। इन्हें पिताजी तथा माताजी का बहुत स्नेह प्राप्त हुआ। मैना के बड़ी हो जाने पर माता-पिता को शादी की फिक्र हुई, मगर मैना का मन उस तरफ नहीं था। उदासीन-सी मैनादेवी ने १८ वर्ष की आयु में सन् १९५२ को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत तथा सप्तम प्रतिमा के व्रत १०८ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज, जो बाराबंकी में आये हुए थे, उनसे ग्रहण किये। कुछ समय बाद विहार करके संघ महावीरजी आ गया। माताजी संघ में साथ थीं। चैतवदी १ सन् १९५३ में क्षुल्लिका दीक्षा आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के द्वारा प्राप्त की तथा दीक्षा का नाम "वीरमती" रखा गया। श्री महावीरजी से संघ का विहार टिकैतगनर के लिए हुआ। वहाँ पर वीरमतीजी क्षुल्लिका विशालमती जी मिलीं, उनका स्नेह प्राप्त हुआ। एक बार क्षुल्लिका वीरमती व विशालमतीजी को मालूम हुआ कि कुंथलगिरि पर आचार्यवर शांतिसागर महाराज जी सल्लेखना धारण कर रहे हैं, वीरमतीजी गुरु श्री आचार्य देशभूषणजी महाराज से आज्ञा लेकर आचार्य श्री के दर्शन हेतु विशालमतीजी के साथ कुंथलगिरि पहुँची। वहाँ से वापस म्हसवड़ पहुँची। चौमासा म्हसवड़ में हुआ। बीच में मालूम हुआ कि महाराज यम सल्लेखना ले रहे हैं। वीरमतीजी विशालमतीजी के साथ कुंथलगिरि पहुँचीं। आचार्य महाराज के दर्शन किये तथा १०८ आचार्य शांतिसागरजा से आर्यिका दीक्षा लेने की चर्चा की। आचार्य महाराज ने उत्तर दिया कि आप आर्यिका दीक्षा श्री वीरसागरजी महाराज से लेना तथा आशीर्वाद दिया। उस समय वीरसागर महाराज जयपुर खानियां में विराजमान थे। चातुर्मास समाप्त हेने पर क्षुल्लिका वीरमतीजी, क्षुल्लिका विशालमतीजी विहार करके जयपुर आ गईं। (संघ में) जयपुर में वीरमतीजी ने आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा के लिए कहा। महाराजजी द्वारा दीक्षा शुभ मुहूर्त वैशाख वदी २ सन् १९५६ में माधोराजपुर में आर्यिका दीक्षा हुई तथा नाम आर्यिका ज्ञानमतीजी रखा गया । जो आज समाज व भारतवर्ष में १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से विख्यात हैं। __ पूज्य माताजी ने अजमेर शहर में आकर आचार्य १०८ धर्मसागरजी महाराज से माता मोहिनी देवी को आर्यिका दीक्षा दिलवायी। उनका नाम श्री रत्नमती माताजी रखा गया था। बाद में वे माताजी के साथ विहार करती रहीं तथा २५००वें निर्वाण महोत्सव पर लगभग समस्त दिगम्बर जैन साधु संघ देहली में एकत्रित हुए। माताजी सन् १९७२ में ही विहार करके देहली आ गई थीं। ___ देहली से पू० माताजी ने यू०पी० प्रान्त की तरफ विहार किया। माताजी की इच्छा जंबूद्वीप बनाने की थी; अतः माताजी ने हस्तिनापुर क्षेत्र पर यह रचना अपने पावन संदेश से बनवाई। जो पूरे भारतवर्ष में ही नहीं, विश्व में प्रसिद्ध हो गई। भारत के कोने-कोने से जैन-अजैन यात्री इसे देखने आते हैं तथा पुण्य कमाते हैं। जम्बूद्वीप में ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत तथा उसके चारों ओर सुंदर रचना है। श्री महावीर मंदिर [कमल मंदिर में] १०८ आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज के द्वारा खड्गासन मूर्ति के नीचे अचलयंत्र विराजमान किया गया था तथा सूरिमंत्र भी आचार्य श्री के द्वारा दिया गया था। उसके बाद रत्नत्रय निलय, त्रिमूर्ति मन्दिर, आदि माताजी की प्रेरणा से बने हैं। इसमें श्री मोतीचंदजी सर्राफ, जो बाल ब्रह्मचारी रहे, अब १०५ क्षुल्लक मोतीसागरजी के नाम से विख्यात हैं तथा ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमारजी दोनों युवकों ने दिन-रात मेहनत करके यह निर्माण हमारे आपके सामने प्रस्तुत कर दिया, यह सब माताजी की ही देन है। माताजी हमेशा शास्त्रों का स्वाध्याय एवं पढ़ना-लिखना करती रहती हैं। माताजी ने अपनी कलम से करीब १५० ग्रन्थ लिख डाले हैं। जो उनके जीवन की महान् उपलब्धि हैं। आज जैन-अजैन सभी कहते हैं कि माताजी के ज्ञान का क्षयोपशम बहुत अच्छा है। अन्त में मैं शान्ति-कुन्थु-अरहनाथ भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि पूज्य माताजी का स्वास्थ्य रत्नत्रय सहित सकुशल रहे, जिससे धर्म की प्रभावना होती रहे तथा मानवमात्र को माताजी मार्गदर्शन देती रहें। सूर्य के समान तेजस्वी माँ को मेरा शत-शत वंदन -संजय कुमार जैन, विजय कुमार जैन, कानपुर सर्वप्रथम मैं माँ ज्ञानमती माताजी को नतमस्तक करता हूँ। सब बड़े-बड़े विद्वानों एवं पण्डितों के आगे तो मैं माताजी जैसी महान् साध्वी के गुणों का क्या बखान करूँ, लेकिन फिर भी कुछ शब्द रूपी फूल माँ ज्ञानमतीजी के चरणों में श्रद्धांजलि रूप में अर्पित करता हूँ। माताजी का यह साध्वी जीवन, या यों कह सकते हैं कि संघर्षमयी जीवन हम सभी के लिए एक सीख का विषय है : माजी ने इतने कटोर परिश्रम के बाद दीक्षा पाई, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ 1 वह भी एक महिला होकर उस समय इतना संघर्ष, जिस समय लोग बालिकाओं को घर से बाहर नहीं जाने देते थे, शायद माताजी के स्थान पर अन्य कोई पुरुष भी होता, तो अपना उद्देश्य बदल देता माँ ज्ञानमतीजी इस जनसमुदाय के बीच में ठीक उसी प्रकार से हैं, जिस प्रकार आसमान में सूर्य चमकता है। माताजी रूपी सूर्य से कुछ ज्ञानरूपी किरण मुझको भी प्राप्त हुईं। माताजी ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी कलम को कभी भी नहीं रोका, चाहे कितनी भी अस्वस्थ्य हो माँ की इस असीम शक्ति को देखकर मन में मैं सोचता है कि एक वक्त आहार करना और विहार करना आदि इतनी कठिन तपस्या है जिनका तेज सूर्य के बराबर है, ऐसी माता को मेरा शत शत वंदन है माताजी की शान्त मुद्रा एवं सूर्यरूपी तेज मुख का दर्शन करके मन गद्गद हो जाता है एवं शीघ्र अपने आप ही चरणों में झुक जाता है। I | पू० माताजी की प्रेरणा से रचित जम्बूद्वीप की विशाल रचना एक अद्भुत कार्य है। माताजी की गुरु भक्ति तो मैंने देखी नहीं, लेकिन माताजी द्वारा रचित ग्रन्थ "मेरी स्मृतियों को पढ़कर मन प्रसन्नता से भर जाता है। मैं सोचता हूँ कि न जाने हमारे कितने जन्मों का पुण्य है कि हम माताजी के गृहस्थाश्रम के भांजे है इसी वास्ते हम समय-समय पर जब भी शिक्षण शिविर या अन्य कोई प्रोग्राम होता है तब हम माताजी के सानिध्य में रहकर कुछ ज्ञानार्जन करते हैं माताजी त्याग एवं वात्सल्य की मूर्ति हैं, माताजी में साक्षात् जिनवाणी माँ का दर्शन होता है। ऐसी माताजी के चरणों में हमारा शत-शत वन्दन है। "सच्ची माता" [१६७ Jain Educationa International "बात उस समय की है जब मेरे दूध के दांत गिरे ही थे दुर्भाग्य से मेरी माँ का स्वर्गवास हो गया, तब मैं १२ वर्ष का था पिताजी की वृद्धावस्था के कारण व घर में बड़ा होने के कारण छोटे भाई-बहनों को माँ का वात्सल्य देने का भार मुझ पर था, परन्तु मुझे वह वात्सल्य कौन दे ! कुंठा और अंधकार में दिन बीत रहे थे और प्राची से रोज प्रातः निकलने वाला सूर्य भी जीवन के अँधेरे को प्रकाशित नहीं कर पा रहा था । एक दिन मैं दोपहर को [शायद रविवार स्कूल की छुट्टी का दिन था] घर पर सो रहा था कि भाई मोतीचंद्रजी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागरजी ] ने अपनी दुकान पर बुलवाया और एक दो रुपये का नोट हाथ में देते हुए कहा कि "सुना है पश्चिम दिशा में (सनावद से १८ कि०मी० दूर बेड़िया ग्राम में] एक सूर्य [ज्ञान के सूर्य ] ने पड़ाव डाल रखा है और वह सनावद में भी १-२ दिन में पश्चिम दिशा से ही उदित होगा । अतः जाकर उस सूर्य के प्रोग्राम का पता लगाकर आओ।" मैंने बेड़िया पहुँचकर बिना समय व्यर्थ खोये पूज्य ज्ञानमती माताजी के दर्शनों से अपने नेत्रों को और चरण रज से अपने हाथों को पवित्र करने हेतु मन्दिर की ओर प्रस्थान किया और ज्ञानमती माताजी [जिन्हें मैं तब जानता नहीं था ] की वंदना करके पूछा कि " बड़ी माताजी कौन हैं ? मुझे उनसे सनावद पहुँचने के प्रोग्राम के बारे में जानना है।" माताजी की महानता देखें, उन्होंने मुझे इशारे से [उनसे वय में बड़ी] पद्मावती माताजी की ओर इशारा करके जतलाया कि ये हैं बड़ी माताजी धन्य है माताजी की महानता को | उसके बाद समय बीतता गया, सनावद में पू० माताजी का चातुर्मास हुआ और उस समय चौबीस घंटे पू० माताजी के सानिध्य में रहते हुए भी एक दिन मेरे मन में विकल्प आया कि मेरी पैदा करने वाली माँ नहीं है और मैं अनाथ हूँ। यह सोचकर मेरी आँखें आई हो रही थीं तो माताजी ने पूछ लिया। मेरे हृदय की वेदना को समझकर माताजी ने कहा कि तू क्यों घबराता है? मैं तो हूँ तेरी माँ और मुझसे भी बड़ी जिनवाणी माँ हैं, जो जन्म-जन्मान्तर तक तेरी सच्ची माता रहेंगी। अतः यह क्षोभ छोड़कर उस माँ की शरण ले । पूज्य माताजी के सनावद प्रवास व चातुर्मास के दौरान उन्होंने देवशास्त्र और गुरु की विनय और उन पर दृढ़ श्रदान रखते हुए धर्म के लिए प्राणों की भी आहुति देने के लिए तैयार रहने का जो प्रण हमें दिलवाया वह सांसारिक माता शायद कभी नहीं दे सकती थी। हमारी जननी तो हमें कभी स्वार्थवश भीरू बना सकती है, परन्तु मेरे देखते-देखते न जाने कितने भीरू लोगों को माताजी ने सिंह बना दिया। देवेन्द्र जैन अनुदेशक : भारतीय स्टेट बैंक, जबलपुर जो कुछ अमृतपान मैंने माताजी के चरणारविंद की शीतल छाया में रहकर पाया है, उसका अंशमात्र भी वर्णन मैं अपनी लेखनी से करने में असमर्थ हूँ। पूज्य माताजी भी ज्ञान के सूर्य के समान है श्री जिनेन्द्रदेव से हमारी यही प्रार्थना है कि [यदि ऐसा हो सकता] वे हमारी उम्र पूज्य माताजी को देकर उन्हें सहस्रायु बनावें, ताकि वे धर्म की ध्वजा को आने वाले युगों तक फहराती रहें व निर्भीकता से धर्म का डंका बजाती रहें। For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नारी आदर्श की गौरव प्रदात्री - रमेश कुमार जैन एडवोकेट, नयी दिल्ली मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि प्रातः स्मरणीया, परम तपस्विनी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अभिवंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है। पूज्य माताजी ने १२-१३ वर्ष की अल्पायु में ही वैराग्य का दृढ़ संकल्प, १८ वर्ष की आयु में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत, १९ वर्ष की आयु में क्षुल्लिका दीक्षा एवं २१ वर्ष की आयु में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आज्ञा से आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा लेकर, हजारों मील की पद यात्रा कर, अनेक शिष्य-शिष्याओं को वैराग्य मार्ग की ओर प्रवृत्त कर भारतीय नारी के प्राचीन आदर्श गौरव को महानता प्रदान की है। सत्-साहित्य सृजन के क्षेत्र में तो पूज्या माताजी का योगदान जैन संस्कृति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा। हस्तिनापुर में आपकी प्रेरणा एवं निर्देशन में निर्मित ऐतिहासिक जम्बूद्वीप की रचना ने तो भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जैनधर्म के प्रति जिज्ञासा एवं अन्वेषण के नये मार्ग प्रशस्त किये। मुझे अनेक बार पूज्या माताजी के दर्शन का सुअवसर मिला। माताजी हर समय हर किसी के लिए ज्ञान की धारा निर्बाध रूप से बहाती हैं। उनके तो दर्शनमात्र से ही अद्भुत शान्ति मिलती है। अभी २७ अप्रैल को हस्तिनापुर में पूज्या माताजी ने मुझे जो स्नेहसिक्त मार्गदर्शन धर्माचरण कादिया, वह मुझे सदैव याद रहेगा तथा वह मेरी अमूल्य थाती है। पूज्या माताजी जैसी महामानव के अभिवन्दन में कुछ कहना शब्दों के वश की बात नहीं है। बस जिनेन्द्रदेव से यही प्रार्थना है कि पू० माताजी दीर्घकाल तक इसी प्रकार ज्ञान गंगा प्रवाहित करती रहें। सरल सहजमूर्ति पूज्या माताजी के चरणों में नमोस्तु सहित अपनी सर्वश्रेष्ठ विनम्र विनयाञ्जलि अर्पित करता हूँ। "धन्य हो गयी माँ को पाकर" - श्रीमती विमला जैन ध०प० श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार, नयी दिल्ली मेरे ससुरजी [लाला श्यामलाल जैन ठेकेदार] ज्ञानमती माताजी के नजफगढ़ दर्शन करके घर आये तो उन्होंने बतलाया कि विमला ! तुम्हें माताजी ने बुलाया है। सुनकर बहुत प्रसन्नता हुई कि एक त्यागी ने मुझे याद किया है। सो मैं अपने ससुर के साथ नजफगढ़ आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ गई। उनके दर्शन करने पर मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा ज्ञानमती माताजी से बहुत भव पहले से परिचय है, जबकि मैं आर्यिका ज्ञानमती माताजी के सर्वप्रथम दर्शनार्थ गयी थी। माताजी का वात्सल्य पाकर मैं धन्य हो गई और उनके प्रति भक्ति व श्रद्धा जाग्रत हो गयी। कुछ समय बाद माताजी अपने संघ वर्धमान सागर, संभवसागर, ज्ञानमती माताजी, आदिमती जी , रत्नमती माताजी, श्रेष्ठमती माताजी आदि) के साथ नयी दिल्ली जयसिंहपुरा दि० जैन मन्दिर में आयीं और मैंने चौका लगाया। मेरी बदामो मौसीजी और बाबूजी [लाला श्याम लालजी] आहार देते थे और मैं तो सिर्फ आहार [भोजन] ही बनाती थी; क्योंकि शूद्र जल का त्याग न होने से माताजी मेरे से आहार नहीं लेती थीं; मुझे आहार बनाने में ही इतना आनन्द आता था कि मैं उस आनन्द का वर्णन नहीं कर सकती। माताजी के प्रति भी इस तरह भक्ति बढ़ती ही गयी। मेरे सब बच्चों की शादी बिना परिश्रम किये सम्पन्न हुई, जो कि मैं उनका आशीर्वाद व वात्सल्य का ही परिणाम मानती हूँ। उनके मार्गदर्शन तथा उनकी प्रेरणा सेधर्म मार्ग में आगे बढ़ती चली गयी। मेरी शंकाओं को वे सरल भाषा में संबोधती थीं, जिससे मेरे को बहुत शान्ति मिलती थी। उनके जीवन-परिचय से पता चला कि गृहस्थरूपी कीचड़ में धंसने से पहले ही वैराग्य ले लिया, जबकि हम गृहस्थरूपी कीचड़ में धंसे पड़े हैं और मैं इस गृहस्थ रूपी कीचड़ से निकलने का प्रयास करने लगी। मैंने सर्वप्रथम शूद्र जल का त्यागकर आहार देना शुरू कर दिया। बाद में हम दोनों [पति-पत्नी] ने ८ मार्च १९८७ को क्षु० मोतीसागरजी महाराज की दीक्षा पर पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। अपने विचारों को सँभाला। माताजी द्वारा समय-समय पर मार्गदर्शन से मेरे मन में शान्ति व गृहस्थ के प्रति राग व द्वेष में मन्दता आयी। पू० माताजी ज्ञान की Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१६९ प्रतिमा है। पू० माताजी की लेखनी इतनी सरल और आधुनिक है कि बाल-गोपाल भी आसानी से जैनधर्म में रुचि लेते हैं और उनका चहुँमुखी साहित्य पढ़ने से नहीं घबराते हैं। जम्बूद्वीप रचना की वे प्रेरिका हैं। अनेक विधानों की वे रचयित्री हैं; जैसे- इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, शान्ति विधान, तीस चौबीसी विधान, ऋषि मण्डल विधान आदि जो पहले संस्कृत में होने की वजह से कभी-कभी कराये जाते थे, परन्तु आज ऐसा कोई दिन नहीं होता, जबकि पू० माताजी द्वारा लिखित विधान कहीं न कहीं न होता हो। पूज्य माताजी दीर्घकाल तक स्वस्थ रहे और श्री जी से प्रार्थना है कि वे दीर्घ आयु प्राप्त करें, ताकि हम जैसे अज्ञानियों का मार्गदर्शन व आशीर्वाद मिलता रहे। शत-शत वंदन - पुरुषोत्तमदास जैन, जगाधरी [हरियाणा] सन् १९७५ की बात है। परम पूज्य आचार्य श्री धर्मसागरजी स हान-मार तीर्थक्षेत्र पर विराजमान थे, उनके दर्शनार्थ हमें सपरिवार जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आचार्यश्री के दर्शनों के साथ-साथ ही बड़ नांदी में विराजमान पूज्या आर्यिका माता ज्ञानमतीजी के दर्शन करने का सुयोग भी प्राप्त हुआ। पूज्य माताजी एवं धर्मश्रेष्ठी ब्र० मोतीचंदजी सर्राफ (वर्तमान पूज्य भुल्नक मोतीसागरजी) से जम्बूद्वीप रचना की योजना, जिसका मॉडल भी पास के कमरे में रखा हुआ था, की जानकारी प्राप्त हुई। मन बहुत ही प्रफुल्लित हुआ, माताजी ने एक ऐसी रचना को साक्षात् निर्माण कराने का बीड़ा उठाया है, जिसका वर्णन अभी तक केवल शास्त्रों में ही पढ़ने को मिलता था, उसको साकार रूप देने जा रही हैं। जो एक अद्भुत एवं नवीन रचना होगी, जो हजारों वर्षों तक जैन धर्म की पताका लहरायेगी व धर्म प्रभावना होगी। सुमेरु पर्वत के सोलह चैत्यालयों में एक चैत्यालय आप की ओर से बनना है, पूज्य माताजी के आशीर्वाद से हम और हमारी धर्मपत्नी की ओर से सहर्ष स्वीकृति हो गई। उसके उपरांत तो जम्बूद्वीप रचना में एवं त्रिलोक शोध संस्थान से हार्दिक लगाव ही हो गया। इसके उपरांत प्रत्येक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं अन्य धार्मिक समारोहों में हमने तन-मन-धन से भाग लिया। १९८७ की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के तप कल्याणक का संस्मरण हमेशा याद रहेगा, परम पूज्य आचार्य विमल सागरजी विशाल संघ सहित विराजमान थे, भगवान् की पालकी उठाने के लिए बाली होने जा रही थी उसी समय एक सुझाव आया कि भगवान् की पालकी उठाने का अवसर उनको मिलेगा जो आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने का नियम धारण करेंगे, कितने ही बंधुओं ने ब्रह्मचर्यव्रत को धारण किया, परम पूज्य आचार्य श्री एवं माताजी का आशीर्वाद प्राप्त कर श्रीजी की पालकी उठाने का शुभ अवसर एवं सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था। कई बार जम्बूद्वीप में सपरिवार इन्द्रध्वज विधान एवं अन्य विधानों में बैठने के सुअवसर प्राप्त हुए। यह सब परमपूज्य माता ज्ञानमतीजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से हो सका। इस युग की पूज्य माताजी ऐसी प्रथम आर्यिकारत्न हैं जिन्होंने अपने अभूतपूर्व ज्ञान से जम्बूद्वीप जैसी महान् रचना को साकार रूप दिया, पूज्य माताजी यथा नाम तथा गुण ज्ञान की भण्डार ही हैं, जिन्होंने अनेक ग्रंथों की टीकाएँ करके, अनुवाद करके एवं अनेक विधानों की रचना करके सरल भाषा में सृजन किया है, जिनके द्वारा जैन, अजैन जनता हमेशा धर्मज्ञान प्राप्त करती रहेगी। वीर प्रभु से प्रार्थना है कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न माता ज्ञानमतीजी दीर्घायु हों आपके द्वारा धर्म का प्रचार-प्रसार होता रहे। हमारे समस्त परिवारकी ओर से उनके पावन चरणों में कोटि, कोटि नमन । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नसीब अपना-अपना - श्रीमती कुमुदनी देवी जैन, कानपुर जब मैं १३-१४ वर्ष की थी, तब मैं रोज अपनी माँ से कहा करती कि मुझे भी ज्ञानमती माताजी के दर्शन करा दो। माँ कहतीं - करा देंगे, लेकिन बहुत दिन तक मुझे जब माताजी के दर्शन नहीं हो पाये तो मैंने अपने मन में माताजी के दर्शन होने तक दूध का त्याग कर दिया। घर में जब लोगों को पता चला तो वे नाराज भी हुए। सन् १९६२ में शिखरजी की यात्रा को जाते हुए जब टिकैतनगर पू० माताजी का संघ आया तब मैं पूज्या माताजी के दर्शन करने अपनी गोद में छोटी बहन को लेकर गई। मैं माताजी को नमस्कार कर देखती रही, लेकिन माताजी ने मुझसे कुछ नहीं कहा; तब मैं खड़ी-खड़ी रोने लगी। माताजी ने कहा- तुम किसकी लड़की हो ? जब मैंने धीरे से कहा- छोटेलालजी की। तब माताजी को ज्ञात हुआ कि ये मेरी बहन है। मैंने पू० माताजी के साथ जाने की भी कोशिश की, लेकिन घर में सभी ने डाँट दिया। ____ मैं अब सोचती हूँ कि नसीब अपना-अपना ही साथ देता है। मैं पू० माताजी की बहन होते हुए भी गृहस्थाश्रम में बँध गई और आज माताजी इतने विपुल ज्ञान सहित समस्त लोगों की पूज्य बन गईं। फिर भी मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ कि मुझे वर्ष में एक-दो बार पू० माताजी के दर्शन करने का और सेवा करने का शुभ अवसर मिल जाता है। गृहस्थी में रहते हुए भी मैं अपना आत्मकल्याण कर सकूँ , इन्हीं भावों के साथ मैं अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित करती हूँ। पर्वतीय दृढ़ता की प्रतीक -सौ० कामनी जैन, दरियाबाद माँ की दीक्षा के पश्चात् यह प्रथम अवसर था जब हम लोग सम्पूर्ण परिवार सहित १३ अगस्त १९८९ को अपनी छोटी बहन कु० माधुरी की दीक्षा देखने हेतु हस्तिनापुर में एकत्रित हुए थे। १५ दिन पूर्व रवीन्द्र भैया के पत्र द्वारा यह दीक्षा समाचार जानकर तो मेरा मानसिक सन्तुलन ही बिगड़ गया था। भले ही विद्वान् लोग इसे मोह का आवेग ही कहेंगे, किन्तु आप ही बताएँ कि हम अपनी कोमलांगी उस लघु बहन को इस कठोर त्याग पर चलते भला किस प्रकार देख पाते? समस्त सुख-सुविधाओं में रहते हुए हम लोग तो शायद इस दुरूह पथ की कल्पना भी नहीं कर सकते। खैर ! दुःखी मन से बहन को बहन रूप में अन्तिम बार देखने हस्तिनापुर पहुंचे तो वहाँ पूज्य गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का पत्थर जैसा सख्त आदेश हम सभी को प्राप्त हुआ कि "जो यहाँ एक भी आँसू बहायेगा उसे दीक्षा मंच पर नहीं आने दिया जायेगा, कमरे में बन्द कर दिया जाएगा।" रोने पर लगी पाबन्दी को भी जैसे-तैसे सहन किया गया। हालाँकि यह कोई प्रदर्शन तो था नहीं, जिस बहन को हम सभी ने गोद में खिलाया था भला उससे सहज में मोह कैसे छूट जाता, इसका अनुमान आप भी लगा सकते हैं। सभी के धैर्य का बाँध दीक्षा के उस मंच पर टूट गया जब ज्ञानमती माताजी बड़ी निर्ममतापूर्वक माधुरी के बड़े-बड़े बालों को लोंच कर रही थीं। उस समय पूरा पांडाल सिसकियों में डूबा था और माताजी तथा माधुरी अत्यन्त प्रसन्न थीं। आखिर उन्होंने दीक्षा देकर माधुरी को हम सबके देखते-देखते "आर्यिका चन्दनामती" बना दिया, किन्तु मुझे आश्चर्य उस समय हुआ जब केशलोंच के बाद मंगल चौक पर दीक्षार्थी को बिठाकर समस्त समाज एवं परिवार से पूछने लगीं- माधुरी को दीक्षा देने हेतु आप सबकी स्वीकृति है या नहीं ? यदि आप में से कोई इन्हें दीक्षा योग्य नहीं समझते हैं तो हाथ उठाएँ। कमी भला किस बात की थी, जिसने १८ वर्ष तक गुरुचरणों में रहकर कठोर साधना एवं ज्ञान अर्जित किया हो उसे अयोग्य कौन कहता ? हाँ, मैं तो आज भी यह सोचती हूँ कि यदि माताजी पहले पूछती तो हम शायद कभी स्वीकृति न प्रदान करते। हमने अपने पिताजी के मुँह से सुन रखा था कि ज्ञानमती माताजी बड़ी निष्ठुर हैं, वे निर्ममतापूर्वक शिष्याओं के बाल नोच डालती हैं। जैनी दीक्षा का सर्वाधिक कठिन कार्य शायद केशलोंच ही है, उसमें ममता के लिए स्थान कहाँ ? हम मोही प्राणी संसार में न जाने कितने ताने-बाने बुनते हैं, किन्तु जब भी पूज्य माताजी का सानिध्य मिलता है तो वे वैराग्य की एक न एक चूंटी अवश्य पिलाती हैं यह उनके अप्रतिम त्याग और वैराग्य का ही प्रतीक मानना पड़ेगा। पूज्या माताजी के पुनीत चरणों में मेरी यही विनम्र विनयांजलि है कि हम जैसे मोही प्राणियों को भी इसी प्रकार संबोधन प्रदान कर धर्ममार्ग पर लगाती रहें, ताकि हम भी एक दिन संसार सागर से पार हो सकें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७१ अपूर्व साध्वी - आनन्द प्रकाश जैन, 'शान्तिप्रिय', फरीदाबाद परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने हम सबका अनन्त उपकार किया है। कहते हैं, हजारों दर्शकों के समक्ष, अपने अद्भुत प्रदर्शनों के द्वारा जादूगर बड़े-बड़े बुद्धिमानों को भी चकित कर दिया करता है। इधर माताजी ने इस युग में अनेक चामत्कारिक कार्य कर दिखाये हैं। जिनागम से पूर्ण प्रामाणिक लोक का सच्चा स्वरूप उन्होंने ईंट-पत्थरों में निर्माण करा कर हस्तिनापुर की प्राचीन पवित्र तीर्थ-स्थली को देश-विदेश के लाखों यात्रियों के लिए दर्शनीय बना दिया है। उनके पूर्व जन-साधारण का ज्ञान भूगोल व इतिहास की स्कूली पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित था। हमें नहीं मालूम था कि दुनिया बहुत बड़ी है, आज की जानी-मानी दुनिया से भी आगे दुनिया है। पंडितों से सुना करते थे कि स्वर्गों के इन्द्र-देवगण बालक तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर जल-कलशों से, अभिषेक करते हैं। अब हमने हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप एवं लवण समुद्र की सम्पूर्ण प्रतिकृति के बीचोंबीच स्थित सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर जिनेन्द्र-प्रतिमा का इन्द्र बने मानवों के द्वारा कई-कई बार अभिषेक देखा तो अन्तकरण को अपूर्व आनन्द मिला है। पूज्य माताजी के कुशल निर्देशन में बनी इस प्रतिकृति की कारीगरी इतनी श्रेष्ठ है कि देखते ही बनती है। वहाँ चैत्यालयों में स्थित धवल प्रतिमाओं के दर्शनों से बड़ी शान्ति मिलती है। पूज्य माताजी जानती हैं कि सम्यग्ज्ञान के बिना समाज में धर्म नहीं टिकेगा। इसलिए बाल, वृद्ध, नर, नारी सभी के स्वाध्याय के लाभ के लिए माताजी की लेखनी निरन्तर चलती रहती है। जिनवाणी के छोटे-बड़े सभी विषयों को उन्होंने सरल सरस भाषा में ऐसा सँजोया है कि मैं इनका पठन पुनः पुनः करता हुआ भी विराम नहीं लेता। इनकी शाश्वत लेखनी के एक-एक शब्द को मैं अमृत की बूंद समझ कर पीता हूँ। माताजी अपूर्व साध्वी हैं। उनकी सारी जीवनी अलौकिक है। उनके निकट पहुँचते ही मन को बड़ी शान्ति मिलती है। मेरे को उनका पवित्र, आशीर्वाद कई बार प्राप्त हुआ है। मैं उनके चरणों का अनुरागी बन गया हूँ। मैं तो चाहता हूँ कि आत्मा का चिन्तन करते हुए मेरे इस शरीर का अन्त उनके चरण सानिध्य में होवे। शब्दातीत व्यक्तित्व की धनी - महावीर प्रसाद जैन, एडवोकेट, हिसार यह जानकर कि दिगम्बर जैन समाज, पूजनीय माताजी की बहुआयामी सेवाओं तथा आध्यात्मिक जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से एक अभिवन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन कर रहा है। यह विचार बहुत ही अच्छा है। माताजी ने बहुत उपयोगी ग्रन्थ लिखे हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, थोड़ी है ये श्रावक समाज के लिए बहुत ही लाभदायक हैं, इसके अतिरिक्त जो संस्था हस्तिनापुर में कायम हो गई है वह बहुत समय तक धार्मिक-प्रवृत्ति के आदमियों के लिए लाभदायक होगी। मेरे पास शब्द नहीं हैं जिनसे मैं माताजी के गुणों का वर्णन कर सकूँ। मैं उनके चरणों में अपनी विनम्र विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ उनकी स्वस्थता की कामना करता हूँ। विनयांजलि - श्रीमती सुशीला सालगिया, इन्दौर कंचन होवे लोहा पारस, रहे पास में दोय । संगत पावे ज्ञानमती की, अज्ञानी ज्ञानी होय ॥ सूर्य स्वयं तो प्रकाशमान है ही पर अपनी तेजस्विता से लोक के समस्त पदार्थों को दृश्यमान कर देता है ऐसे ही महान् आत्माएँ अपने ज्ञान ज्योति पुंज से अनेक आत्मदीपों को ज्योतित करती हैं। पूजनीया गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने अनेक भव्यात्माओं को जगत् पंक से उबारकर मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ किया है, भ्रमितों को सन्मार्ग दर्शाया है तथा अज्ञों को विज्ञ बनाया है। तत्त्व मीमांसा, पूजा विधान, स्तोत्रादि का अनुदित एवं मौलिक जो लेखन माताजी द्वारा हुआ, वह इस युग में हुई समस्त आर्यिकाओं द्वारा हुए लेखन में बेजोड़ है। पूज्य माताजी अनवरत साहित्य साधना करते हुए सरस्वती भंडार का वर्धन करती रहें, दीर्घायु एवं स्वस्थ रहकर जन-जन का कल्याण करती रहें यही मनोकामना करती हूँ तथा उनके चरणों में शतशः वन्दन करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "बीसवीं सदी की महानतम विभूति" अमृत के तुल्य दिव्य जलों से परिपूर्ण नदियाँ सदैव जिसको पवित्र करती हैं भगवती लक्ष्मी एवं सरस्वती जिसका यशगान निरन्तर करती रहती हैं ऐसे महान् भारत देश में अनादिकाल से असंख्य महान् आत्मायें अवतीर्ण हुई हैं। आधुनिक काल में भी साधारणतया कन्या का जन्म घर में क्षोभ उत्पन्न कर देता है, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि हमारी धर्मपरम्परा सतियों के सतीत्व के बल पर ही अक्षुण्ण बनी हुई है। बीसवीं सदी में इसी श्रृंखला में एक और नाम जुड़ जाता है और वह है पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का। श्री ज्ञानमती माताजी इस सदी की महानतम विभूति हैं इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मैंने कई बार माताजी के गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों के विषय में सुना तो था, किन्तु उनके साक्षात् दर्शन और उपदेश श्रवण का सौभाग्य मुझे १९९० में उस समय प्राप्त हुआ जब पवित्र जम्बूद्वीप स्थल पर चल रहे इन्द्रध्वज महामंडल विधान में सम्मिलित होने का मुझे शुभ अवसर प्राप्त हुआ। उस समय मैंने माताजी को काफी निकट से देखा और जितना सुना था उससे कहीं ज्यादा पाया। सुबह से शाम तक उनका एक-एक क्षण अमूल्य होता है। सुबह से ही उनका लेखन कार्य व अध्यापन कार्य प्रारम्भ हो जाता है। - कु० सारिका जैन [लवली] मवाना असंख्य यात्री उनके दर्शनार्थ आते हैं, उनके उपदेशों का श्रवण करते हैं और कोई न कोई संकल्प अवश्य लेकर जाते हैं। माताजी कभी किसी को व्यर्थ नहीं बैठने देतीं, यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करते रहते हैं। माताजी के धर्ममय गरिमापूर्ण व्यक्तित्व का मुझ पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा है कि मैं भी समय-समय पर उनके सानिध्य में जाती रहती हूँ और उनकी बतायी हुई बातों को व्यवहार में लाने का प्रयत्न करती हूँ। हम सभी उनके मुखारविन्द से उनके उपदेशों का अमृतपान आने वाली अनेक शताब्दियों तक करते रहें यही मेरी उत्कट इच्छा है। Jain Educationa International "नारी से नारायणी बनी ज्ञानमती मात" मैं आज तक भी समझ नहीं पाती हूँ कि घर के सरागी वातावरण में पली मेरी मैना जीजी के हृदय में वैराग्य भावना क्यों और कैसे उत्पन्न हुई ? क्योंकि इससे पूर्व सुना ही नहीं था कि कुँवारी लड़की भी दीक्षा ले सकती है। घर की सबसे बड़ी सन्तान होने के नाते दादी माँ, चाची, चाचा, माँ-पिताजी सभी को इनकी शादी करने की हार्दिक तमन्ना थी । मुझे याद है ४० साल पूर्व के उस पुराने युग में भी जब लड़कियों के सामने शादी की बात भी नहीं की जाती थी तो भी पिताजी अपनी लाडली बेटी को पसन्द कराने हेतु दूकान से तरह-तरह के जेवर भेजते। उन्होंने तो शादी की हर चीज मैना की इच्छा और पसंद के अनुरूप ही देने का पक्का इरादा कर रखा था। शायद हर माता-पिता के अपनी सन्तान के प्रति इसी तरह के अरमान होते हैं, फिर मैना जीजी तो पिताजी के साथ पुत्री नाहीं, एक सुयोग्य पुत्र की भाँति व्यापारिक लिखा-पढ़ी में हाथ बँटाती थीं अतः वे उनकी सर्वाधिक चहेती सन्तान थीं। शंका तो घर में तब उठती थी जब पिताजी के द्वारा भेजे गये गहनों को वे मेरे पास भेज देतीं और कहतीं शान्ति ! तुम अपने लिए पसन्द - शान्ति देवी जैन, डालीगंज, लखनऊ 1 कर लो मैं उनसे लगभग २-३ वर्ष ही छोटी थी, उन्हें तरह-तरह के गहने एवं वस्त्राभरणों में मैं लुभाना चाहती, किन्तु पूर्व जन्म के संस्कार ही कहना होगा कि उन्हें गृहस्थ सम्बन्धी कोई वैभव अपने मोहपाश में बाँध न सका; क्योंकि उन्होंने तो "नारी से नारायणी' बनने का ही संकल्प ले रखा था। जो भी है, आज वे सारे विश्व के समक्ष एक मार्गदर्शिका के रूप में विराजमान हैं, जबकि मैं अपनी गृहस्थी की चारदीवारी में सीमित एक सामान्य नारी के रूप में हूँ आप जैसी महासती के दर्शनमात्र से अपना जीवन धन्य मानती हूँ। आपकी इस अभिवन्दना बेला में मैं अपने तुच्छ श्रद्धा पुष्प अर्पित करती हुई यही भावना भाती हूँ कि जीवन के अन्त में मुझे आपकी छत्रछाया अवश्य प्राप्त हो, ताकि नारी की परतन्त्र पर्याय से छूट कर मैं भी मोक्ष की अधिकारी बन सकूँ । For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ममतामयी माँ ज्ञानमती - बात है हस्तिनापुर के प्रथम शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर की, जोकि परम पू० माताजी के पावन सानिध्य एवं मार्ग-दर्शन में संपन्न होने जा रहा था । बड़नगर से मैं स्वयं, भाई गुणवंत एवं सुगनचंदजी गोधा तीनों ही शिविर में भाग लेने हेतु हस्तिनापुर एक दिन पूर्व ही पहुँचे। अगले दिन ही शिक्षण शिविर प्रारंभ होने वाला था। प्रातःकाल उठकर स्नान आदि क्रिया संपन्न करके अभिषेक पूजन के लिए हम हस्तिनापुर के प्राचीन मंदिरजी पहुँचे (जहाँ पर तेरह पंथ आम्नाय के अनुसार पूजन आदि क्रिया होती है) हमने वहाँ पर भगवान् का अभिषेक चंदन आदि से किया। हमें यह मालूम था कि यह हमारी अनधिकृत पेष्टा है, किंतु हमसे रहा नहीं गया। हमारे मस्तिष्क में एक ही बात बार-बार चोट कर रही थी कि तीर्थस्थानों पर समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आम्नाय के अनुसार क्रिया करने की स्वतंत्रता होनी चाहिये; क्योंकि वह समस्त समाज की धरोहर है। अस्तु, यह बात वहाँ के मैनेजर साहब को मालूम हुई वह भागते हुए वहाँ आए और हमें कायवश अनेक अपशब्द कहे। सभी को यह बात अच्छी नहीं लगी। यह बात जब माताजी को मालूम हुई तो उन्होंने हमें समझाया और कहा कि तुम लोगों को अपनी क्रिया अनुसार अभिषेक पूजन करना हो तो जंबूद्वीप स्थल पर जाकर ठाट से करो और तत्काल माताजी ने शिविर में भाग लेने हेतु आये समस्त लोगों के लिए एक आचार संहिता तैयार की, जिसका पालन सभी ने किया। Jain Educationa International अजीत टोंग्या, गुणवंत टोंग्या, बड़नगर घटना जो होनी थी सो हो गई, लेकिन जिस वात्सल्य से माताजी ने हमें समझाया उसको हम कभी भी भुला नहीं सकेंगे। जैन इतिहास में शायद ही ऐसी कोई विदुषी महिला हुई हो जिसने माँ जिनवाणी की इतनी सेवा की हो पू० माताजी के समाज पर अनन्य उपकार हैं। पू० माताजी के चरणों में शत शत वंदन । [१७३ ज्ञानमती माँ के चरणों में वन्दन शत-शत बार है - For Personal and Private Use Only पूज्य ज्ञानमती माताजी ने शुरू से ही मिध्यात्व का पक्ष नहीं लिया, चाहे कितनी भी बीमारी घर में आती थी सबसे प्रथम शांतिधारा करना, पूजा की सामग्री भेजना, गंधोदक लाकर लगाना इसी में विश्वास था और इसी से सभी संकट टल जाते थे घर में आप शील कथा, दर्शन कथा पढ़ा करती थीं, जिसे सुनकर हम लोगों को बहुत अच्छा लगता था। एक बार घर में घी आया, जिसमें कुछ चीटियाँ थीं। पू० माताजी ने देखा और कहा कि अगर यह छानकर ले आता तो हम क्या जान पाते। उसी दिन उन्होंने बाहर के घी का त्याग कर दिया। मेरे माता-पिताजी को बहुत दुःख हुआ था कि इतनी छोटी सी उम्र में इसने घी का त्याग कर दिया। अब इसे हम क्या बनाकर खिलायें ? क्या सूखा खाना खायेगी ? फिर मलाई से थोड़ा-थोड़ा भी निकालकर देने लगी थी। श्रीमती देवी, बहराइच हमें उस दिन का दृश्य याद आता है जिस दिन हम लोगों ने सुना था कि माताजी शादी नहीं करेंगी। ब्रह्मचर्य व्रत लेंगी। उस दिन हम सभी भाई-बहन खूब रोये थे, उस दिन सुबह खाना नहीं बना था। कितना दुःखद दृश्य लग रहा था ? फिर धीरे-धीरे कुछ स्थिति सामान्य हुई थी। हम लोगों ने आपस में विचार किया कि अब हमारी जीजी घर में रहेंगी, ससुराल नहीं जायेंगी। मोह कितना प्रबल होता है ? फिर एक दिन ऐसा आया कि माताजी रत्नकरंड श्रावकाचार पढ़ने के लिए देशभूषणजी महाराज के पास, जो बाराबंकी में थे, भाई कैलाशचंद के साथ चली गईं और कह गई थीं कि महाराजजी से पूछकर शाम को वापस आ जाऊँगी, लेकिन जब भाई साहब अकेले आये और कहा कि जीजी ने कहा है कि तीन-चार दिन में आऊँगी। उस दिन सबको (रुलाई आयी थी) खला था। एक बार पू० माताजी ने अकलंक निकलंक नाटक देखा था, जिसमें कि उनके माता-पिता शादी के लिए कह रहे हैं, तब अकलंक निकलंक दोनों कहते हैं- पिताजी कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर ही न रखें। इसी तरह के दृश्य आपके वैराग्य को बढ़ाते रहे और आपका ज्ञान चरम सीमा पर पहुँच गया। आज हम लोगों के गृहस्थ जीवन में न जाने कितने उदाहरण ऐसे मिलते हैं कि जिनसे कुछ देर के लिए हृदय में ऐसे भाव उठते हैं कि सच्चा सुख त्याग में ही है, लेकिन फिर भी असली वैराग्य नहीं होता। जबकि ये पंक्तियाँ हम रोज पढ़ते हैं कि Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जो संसार विषै सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागे, काहे को शिवसाधन करते संयम सो अनुरागे ॥ आजकल इस पंचम काल में मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका सभी धन्य हैं। आप लोगों की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है। आज लाखों लोग पू० माताजी की लेखनी से अपने को धन्य समझते हैं। मुझको भी आपकी बहन होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सालभर में एक या दो बार आपके दर्शनार्थ आ जाती हूँ, कुछ ज्ञान मुझे भी मिल जाता है। आपके जाप्य मंत्र में बहुत शक्ति है, जो भी विश्वास से पता है उसके सारे मनोरथ फलते हैं, आपने शुरू से ही चार रस का त्याग कर दिया था, कभी-कभी दो रस ले लेती थीं। इनके त्याग की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। वाणी माँ जिनवाणी की प्रति मूर्ति जहाँ साकार है। ज्ञानमती माँ के चरणों में वन्दन शत शत बार है ॥ Jain Educationa International माताजी युगों तक स्मरणीय रहेंगी पूज्य आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी के अभिनंदन हेतु अभिवंदन ग्रंथ का प्रकाशन श्लाघनीय है। पूज्य श्री माताजी की लेखनी, उनके साथ चर्चा- वार्त्ता व उनके सदुपदेश मुमुक्षुओं को जिनभक्ति, स्वाध्याय व संयम धारण हेतु सतत व सहज ही सम्प्रेरित करते हैं। 'जम्बूद्वीप' और विशाल साहित्य पूज्या माताजी को युगों तक स्मरणीय व सम्माननीय बनाये रखेंगे। उनकी अनुपम सूझ-बूझ व उनके कर्मठ व्यक्तित्व से सत्प्रेरित होकर जिन महान् आत्माओं ने ज्ञानार्जन के साथ-साथ संयम-विधा को क्रियात्मक रूप से अपनाकर मानव जीवन सार्थक व कृतकृत्य किया है उनके लिए वे सदा-सदा सच्ची व आदर्श जननी के समान स्तुत्य रहेंगी। अभिनंदन ग्रंथ उनकी महती कृपा के प्रति उनके शिष्यगण व भक्तों के विशाल समुदाय का आधार प्रदर्शनमात्र है। वास्तविक अभिनंदन तो विभिन्न रूपों में उनके द्वारा प्ररूपित जिनोपदिष्ट रत्नत्रय मार्ग पर आरूढ़ होना है। मेरी भावना और कामना है कि पूज्यश्री माताजी का आशीर्वाद हमारा सत्पथ सदाप्रशस्त करता रहे। पूज्य श्री माताजी के चरण-युग्म के प्रति सादर, सविनय कोटि-कोटि विनयांजलि । - रतनलाल जैन, पंकज टेक्सटाइल्स, मेरठ समाज का अपूर्व रत्न - - कपूरचंद जैन महामंत्री श्री दिगंबर जैन उच्च विद्यालय, गौहाटी परम पूज्यगणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में समाज को एक ऐसा अपूर्व रत्न प्राप्त हुआ है, जिसकी आध्यात्मिक प्रतिभा एवं धर्म प्रभावना ने समाज में धर्म की अजस्र धारा प्रवाहित की । पूज्य माताजी ने अपने जैन दर्शन के गहरे अध्ययन-मनन से हस्तिनापुर क्षेत्र की पवित्र भूस्थली पर जैन भूगोल का साधारण जनमानस को भी ज्ञान कराने के लिए विशाल जम्बूद्वीप की रचना का कार्य प्रारम्भ अपने सदुपदेश से कराया है, जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी मार्ग दर्शक सिद्ध होगा। आपने कई ग्रन्थों की स्वतंत्र रचनाएं की है, जिसमें इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान तथा सर्वतोभद्र विधान बड़ी रोचक शैली में सुलभ अर्थों से भरे गागर में सागर वाली कहावत को चरितार्थ करने वाले विधान हैं, जो सर्वत्र अत्यन्त लोकप्रिय हो चुके हैं। "अष्टसहस्री", "समयसार" आदि महान् ग्रन्थों की टीका करके आपने अपने विशाल पाण्डित्य का परिचय दिया है। आपके त्याग एवं संयमी जीवन को देखकर आज सारा समाज आपके प्रति नतमस्तक है। आपका वरदहस्त हमें सैकड़ों वर्षों तक मिलता रहे, यही मेरी मंगल भावना है। For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७५ आध्यात्मिक उज्ज्वलता की प्रतीक - कमलचंद जैन, सी०सी० कालोनी, दिल्ली भूगर्भ में छिपी अतुल सम्पत्ति को पाकर अन्वेषक को जिस प्रकार महान् आनन्द होता है उसी प्रकार का आनन्द पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी में छिपे गुणों को प्रकट करने हेतु इस अभिवन्दन ग्रन्थ प्रकाशन योजना को सुनकर मुझे प्राप्त हो रहा है। पूज्य माताजी सरीखे महान् व्यक्तित्व के संसर्ग में आने वाला प्रत्येक मानव अज्ञान और मिथ्यात्व के अन्धेरे से निकलकर आध्यात्मिक उज्ज्वलता की ओर सहज बढ़ने लग जाता है। उनकी सौम्य मुखाकृति और तप तेज का प्रभाव अनायास ही भक्तों को आकर्षित कर लेता है। मैं भी उनका एक भक्त होने के नाते उनके प्रति कुछ लिखने को आतुर हुआ हूँ, किन्तु मेरा यह प्रयास जल में चन्द्रबिम्ब को देखने जैसा बाल प्रयास ही मानना पड़ेगा। कहाँ माताजी जैसी अद्वितीय प्रतिभा की जीवन्त मूर्ति और कहाँ मुझ जैसा अज्ञानी संसारी प्राणी। हाँ, उनका सानिध्य मुझे अनेक बार प्राप्त करने का अवसर मिला है। मेरा पूरा परिवार माताजी का परम भक्त है। पूज्य माताजी का जीवन चरित्र विशाल समुद्र के समान है। चाहे उनका त्यागी जीवन देखो या साहित्यिक क्षेत्र । ये तो गृहस्थावस्था से ही महान् विद्वान् थीं। एक बार सरधना में जब मैं उनके दर्शनार्थ गया तो उनकी एक नई कृति “समयसार" देखने को मिली, जिसके प्रकाशन की बात चल रही थी। मैंने भी उसमें पत्रम् पुष्पम् का आर्थिक सहयोग दिया। इस प्रकार उनकी अनेक कृतियाँ उनके नाम को अमर कर रही हैं। ____ मैं अपने परिवार की ओर से पूज्य माताजी के दीर्घ एवं स्वस्थ जीवन की मंगलकामना करता हुआ उनके पावन चरणों में विनयांजलि समर्पित करता हूँ। "विश्व का कल्याण होगा" - राय देवेन्द्र प्रसाद जैन, गोरखपुर मैं पूज्य माताजी के दर्शन करने आज से बीस वर्ष पूर्व गया था। उस समय जम्बूद्वीप बनाने की बात माताजी ने मॉडल बनाकर प्रारम्भ की थी। समाज में विभिन्न प्रकार के लोगों ने इसका विरोध किया, पर माताजी ने जिस दृढ़ता, सूझ-बूझ तथा लगन से ऐसे अभूतपूर्व निर्माण को पूरा किया, वह अनुकरणीय है। माताजी के ज्ञान तथा मानव सेवा से विश्व का कल्याण होगा। यह हमारा अहोभाग्य है कि ऐसी विदुषी आर्यिका हमारे बीच हैं। वास्तव में समाज उनका अभिवंदन करके स्वयं अभिवन्दित हो रहा है। "अपूर्व क्रान्ति का सूत्रपात किया है" - सुबोध कुमार जैन, आरा [बिहार] पूज्या आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी तथा हस्तिनापुर के त्रिलोक शोध संस्थान के दर्शन के लिए पिछले वर्ष मैं शोध संस्थान में गया था। यद्यपि पूज्या माताजी के दर्शन नहीं हुए; क्योंकि वे हस्तिनापुर से बाहर गई हुई थीं, परन्तु उनकी अमर कीर्ति जम्बूद्वीप के फिर से दर्शन कर हम कृतार्थ हो गये। जिस प्रकार (हमारी पूज्या दादीजी) आर्यिका पं० चन्दा माँ श्री ने आरा में श्री जैन बाला विश्राम जैसी भारत विख्यात शिक्षा संस्था का निर्माण करवाकर स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अमरत्व प्राप्त किया, उसी प्रकार पूज्या ज्ञानमती माताजी ने हस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना कर जैन भूगोल ही नहीं, वरन् त्रिलोक के विषय में जो शास्त्रोक्त सूचनाएँ हैं, उनके विषय म शोध का अत्यन्त कठिन और वैज्ञानिक कार्य आरम्भ करके शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रान्ति का सूत्रपात किया है। हमारी शुभकामना है कि पूज्या माताजी शतायु हों और स्वस्थ रहें, ताकि उनके निर्देश में त्रिलोक शोध संस्थान महत्त्वपूर्ण कार्य कर सके। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "जीवन के उच्चतम शिखर पर" - वीरेन्द्र कुमार जैन, रायबरेली गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जिनका बचपन का नाम मैना था, टिकैतनगर जिला बाराबंकी के एक धार्मिक जैन परिवार में जन्मी थीं। अपने पिता श्री छोटेलालजी एवं माता श्री मोहिनी देवी (त्यागोपरान्त जिन्हें माता रत्नमती के नाम से जाना जाता है) के लालन-पालन में उन्हें धार्मिक शिक्षा अपनी माँ से घर पर ही मिली थी। गाँव की पाठशाला में आपने मात्र कक्षा ४ तक अध्ययन किया। धार्मिक आयोजन के एक नाटकीय प्रहसन में अकलंक-निकलंक की वार्ता से प्रभावित होकर “कीचड़" में पैर डालकर उसे साफ करने की अपेक्षा कीचड़ से बचना उत्तम है" स्वीकार करते हुए इन्होंने स्वयं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और फिर त्याग एवं अध्ययन के अध्यवसाय में जिस गति से आप बढ़ीं, वह अद्वितीय है। ५ वर्ष के सूक्ष्म अन्तराल में ही आप ब्रह्मचारिणी से क्षुल्लिका वीरमती, फिर आर्यिका ज्ञानमती बन गई और आज नारी जगत् के त्यागी जीवन के उच्चतम शिखर पर अर्थात् "गणिनी आर्यिकारत्न" के पद को सुशोभित कर रही हैं। पू० माताजी में निश्चय की दृढ़ता, ज्ञानार्जन की ललक एवं समाज को सही मार्गदर्शन देने की भावना आरम्भ से ही गजब की रही है। अपने त्यागी जीवन में सामान्य साधनाओं के अनुशासन के साथ-साथ विपुल उपयोगी साहित्य का जितना सृजन आपने किया है, उसकी कोई मिशाल नहीं मिलती। पूज्य माताजी ने अपनी प्रेरणा से हस्तिनापुर प्राचीन तीर्थक्षेत्र पर जम्बूद्वीप की रचना को साकार रूप दिया है। जम्बूद्वीप की रचना बरबस ही इतिहास और भूगोल के विद्वानों का ध्यान प्राचीनतम खोज (शोधकार्य) की ओर आकृष्ट करती है, जिसके परिणामस्वरूप देश/विदेश से अनेक विद्वान् इस रचना का स्वरूप देखने हस्तिनापुर आते हैं और जैन धर्मावलम्बी धर्मलाभ हेतु दर्शनार्थ आते हैं। हस्तिनापुर को विकसित तीर्थक्षेत्र बनाकर पू० माताजी ने इसे पर्यटन स्थल की श्रेणी में ला दिया है। ऐसी अद्भुत इतिहास सृजनकर्ती माता श्री का हार्दिक अभिनन्दन है। व्यवस्था एवं अनुशासन प्रिय माताजी में जहाँ अनुशासन के प्रति कठोरता है वहीं उनका हृदय उदार एवं बहुत सरल है। अपनी बात सरलता से, संक्षेप में, प्रभावशाली ढंग से कहने की जो कला पू० माताजी में है वह उनकी साधना और उत्तम क्षयोपशम का परिणाम है। मेरी कामना है कि पू० माताजी का अभिवन्दन ग्रंथ प्रेरणास्रोत बनकर जन-जन के मानस में धर्मप्रभावना का संचार करे । मेरा उनको शत-शत नमन है। "त्याग, स्नेह एवं करुणा की प्रतिमूर्ति आर्यिका ज्ञानमती" - विजेन्द्रकुमार जैन, शाहदरा, दिल्ली शरद पूर्णिमा वि०सं० १९९१ सन् १९३४ मानो जैन धर्म के इतिहास में एक नया पृष्ठ जोड़ने ही आयी थी। जब माँ मोहिनी के गर्भ से श्रीमान् छोटेलालजी के आँगन में एक कन्या रत्न का अवतरण हुआ था। जिला बाराबंकी उ०प्र० के टिकैतनगर ने मानो तीर्थंकरों से पूजित अयोध्या को ही अपने में समेट लिया था, जिससे टिकैतनगर की माटी नहीं, बल्कि दिशाएँ भी पवित्रता को प्राप्त हो गई थीं। घर में प्रथम सन्तान के अवरतण से अपार खुशी के माहौल में कन्या का नामकरण संस्कार किया गया और नाम रखा गया "मैना" । लगता है परिवारजनों को पहले ही आभास हो गया था कि यह कन्या परिवार का त्याग कर वैराग्य की दुनिया में उड़ जायेगी। इसलिए इनका नाम मैना रखा गया; क्योंकि कहावत भी है "पूत के पाँव पालने में ही नजर आ जाते हैं" और यह नाम इस कहावत पर पूरा उतरता है। त्याग की प्रतिमूर्ति : सन् १९५२ का वह दिन भी आ गया था जब मैना मात्र १६ वर्ष को पूर्ण कर १७ वर्ष में प्रवेश कर परिवार के पिंजड़े में छटपटा रही थी। तभी पूज्य आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज का आगमन हुआ और उन्होंने मैना को पिंजड़े से मुक्त कर सप्तम प्रतिमा रूप आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करवा दिया। आज मानो मैना के पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे; क्योंकि बाल्यावस्था में ही उन्होंने ब्राह्मी सुन्दरी, चन्दना, सुलोचना, सीता आदि की गौरव-गाथा का श्रवण कर उनके बताये मार्ग पर चलने का संकल्प लिया था। जो आज सफल हो रहा था । त्याग की भावना दिनों-दिन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१७७ बढ़ती ही जा रही थी। कदाचित् ऐसे अवसर भी आते थे जो उन्हें विचलित कर सकते थे, किन्तु दृढ़ निश्चयी मैना अपने निश्चय पर अडिग रही। सन् १९५३ में परम पवित्र तीर्थ क्षेत्र श्री महावीरजी में आचार्य श्री देशभूषणजी के पदकमलों में मैना ने प्रार्थना कर क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की और "वीरमती" नाम को प्राप्त किया। अब मैना, मैना न रहकर पूज्यक्षुल्लिका "वीरमती" बन चुकी थी, जो अपने आत्मोत्थान के लिए सदा सद्साहित्य के मननचिन्तन में लगी रहती थीं। धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा था, चातुर्मास के समय जब आपको पता चला कि मुनि परम्परा को जीवित रखने वाले परम पूज्य आचार्य सम्राट् चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी महाराज कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर समाधिस्थ हैं तो आप पूज्य क्षुल्लिका विशालमती माताजी के साथ कुंथलगिरि आ गईं। कुंथलगिरि में आचार्य श्री से प्रभावित होकर उनसे आर्यिका दीक्षा लेने हेतु निवेदन किया, परन्तु आचार्य श्री सल्लेखनारत थे; अतः उन्होंने कहा कि मैं अपने शिष्य वीरसागर को आचार्य पट प्रदान कर चुका हूँ; अतः अब आप उन्हीं से आर्यिका दीक्षा लेना। सन् १९५६ में माधोराजपुरा (राज.) में वीरमतीजी के निवेदन करने पर तथा इनके त्यागमयी जीवन, विलक्षण ज्ञान और वैराग्य से परिपूरित होने के कारण श्री वीरसागरजी ने इन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें वीरमती से "आर्यिका ज्ञानमती" नाम प्रदान किया। स्नेह की प्रतिमूर्तिः स्नेह की प्रतिमूर्ति होने के नाते परिवार के सदस्य भी इनके स्नेह को पाकर हर्षित होने लगे। और उन्होंने भी त्याग की ओर मुख करना प्रारम्भ कर दिया, जिसमें इनकी माता मोहिनी देवी (आर्यिका रत्नमतीजी) बहिन मनोवती (आर्यिका अभयमती) बहिन माधुरी (आर्यिका चंदनामतीजी) बहिन मालती शास्त्री एवं भाई बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार आज अपने स्नेह एवं आध्यात्मिक प्रवचनों से देश एवं जैन समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहे हैं। परमपूज्य माताजी के अभिवन्दन ग्रंथ हेतु -प्रभात जैन, चित्राजैन - फरीदाबाद परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सर्वप्रथम सानिध्य १९८२ में प्राप्त हुआ। जब पू० माताजी मोरीगेट दिल्ली में थीं सबसे पहले १२-४-८२ को मोरीगेट मन्दिरजी की धर्मशाला में शान्ति विधान किया था। मुझे आज भी याद है कि पूज्य माताजी ने कितनी शुद्धताई से वह पाठ करवाया था। मांडले पर बादाम चढ़ाना व शान्तिधारा करना मेरे लिये एक बिल्कुल नया अनुभव था। शान्तिधारा यदि श्री शान्तिनाथ भगवान के मस्तक पर की जाये तो उसका महत्त्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है। यह बात मेरे मन में बैठ गई। मैं श्री शान्तिनाथजी की ओर आकर्षित होता गया। दि०६-३-८८ को सबसे पहले हमने पूज्य माताजी द्वारा रचित शान्ति विधान फरीदाबाद के मन्दिरजी में किया। हमें विधान के बारे में कोई विधि मालूम नहीं थी। हम दोनों ने पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम लेकर शान्ति विधान शुरू कर दिया। बादाम सब थाली में ही चढ़ाये। विधान निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। उस समय आया संकट भी टल गया। गुरु के नाम की महिमा का कितना प्रभाव है, पहली बार मालूम हुआ। उस दिन से अब तक हर महीने में एक बार शान्ति विधान कर लेते हैं। फरीदाबाद मन्दिरजी में श्री शान्तिनाथजी की बड़ी पाषाण की प्रतिमा है। धातु की कोई प्रतिमा नहीं थी। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से हमारी मनोकामना श्री शान्तिनाथ भगवान के मस्तक पर शान्तिधारा करने की थी, जो मई १९९१ में पूर्ण हुई। ९ इंच की सफेद धातु की प्रतिमा जयपुर से मंगवाकर गुला वाटिका के पंचकल्याणक में प्रतिष्ठित कराकर फरीदाबाद मन्दिर जी में नीचे वाली वेदी में विराजमान हुई। आज भी उस प्रतिमा पर शान्तिधारा करने से एक अद्भुत सुख की अनुभूति होती है। ४ जून १९८२ को जब ज्ञानज्योति का शुभ प्रवर्तन देहली लालकिले के मैदान से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा हुआ, उस समय सारा कार्यक्रम देखा। देहली के बाद सबसे पहले हरियाणा में फरीदाबाद नगर में ज्ञानज्योति का आगमन हुआ ९ जून १९८२ को। उसका अपने शहर फरीदाबाद में स्वागत करने से मन में बहुत हर्ष हुआ। १६ जून १९८२ को तिजारे में ज्ञानज्योति का पूरा कार्यक्रम देखा। जम्बूद्वीप के मॉडल का साकर रूप आज जब हस्तिनापुर में देखते हैं, तब लगता है कि छोटी से छोटी आकृतियों का सुन्दर निर्माण जम्बूद्वीप स्थल पर देखकर लगता है कि हम सुदर्शन मेरु पर पहुँच कर वहाँ चैत्यालयों की वन्दना कर रहे हैं। पूज्य माताजी द्वारा रचित जम्बूद्वीप विधान को पढ़कर तो सब कुछ बहुत ही स्पष्ट रूप से वहाँ का ज्ञान हो जाता है। सन् १९८८ में पूज्य माताजी के विधानों की ओर मन आकर्षित हुआ। साथ में संगीत का भी प्रभाव पड़ा। मैंने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, तीनलोक, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जम्बूद्वीप, तीसचौबीसी, सर्वतोभद्र विधानों को घर में व जहाँ पर मुझे समय मिला, गाकर पढ़ा। उस समय घण्टों-घण्टों विधानों में डूबा रहता था। ऐसा लगता था कि साक्षात् तीर्थंकर के समोशरण में भजन गा रहा हूँ। अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात् रूप से कर रहा हूँ। बचपन से मन्दिरजी में एक भजन तक नहीं बोलने वाला एक प्राणी आज पूज्य माताजी के आशीर्वाद से भजनों व विधानों की श्रृंखलाओं में डूबा रहना चाहता है। सम्यग्ज्ञान फरवरी १९९१ की चौबीस तीर्थंकर स्तुति अंक के प्रकाशित होने के बाद से जिस दिन जिस तीर्थंकर भगवान् का कल्याणक होता है उस दिन उन तीर्थंकर भगवान की पूजा करते हैं और शाम को पू० माताजी द्वारा रचित उन तीर्थंकर भगवान की स्तुति पढ़ते हैं। तीर्थंकर पंचकल्याणकों की तिथियाँ कलेण्डर में पहले से ही अंकित कर लेते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि तीर्थंकर कल्याणक एक पर्व के समान है। उस दिन मुझको एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है। बंगाली मार्किट में मम्मी जी ने एक दिन बताया कि पूज्य माताजी कहती है कि कमल मन्दिर में भगवान श्री महावीरजी की मूर्ति कल्पवृक्ष के समान है। अचानक मन में ख्याल आया कि कल्पवृक्ष से माँगने से सब कुछ मिल जाता है। यह चमत्कारी मूर्ति इससे भी अधिक प्रदान करती है। एक दिन में मन्दिरजी में पूजा करके नीचे आ रहा था और गुनगुनारहा था कि - "ज्ञानमती" की शरण में हम आ गये। ज्ञान की निधी को हम पा गये ॥ "ज्ञानमती" की छाया में जब आ गये । चिन्ताओं से मुक्ति मानो पा गये ॥ मन तो करता है कि पूज्य माताजी के बारे में लिखता रहूँ, किन्तु अब लेखनी को यही विराम देता हूँ । आपके दर्शनों का अभिलाषी । बात ऐसे बनी पूज्य माताजी का नाम तो बहुत समय से सुन रखा था, किन्तु प्रथम दर्शन का सुयोग जून, ८४ में विवाहोपरान्त प्राप्त हुआ। माताजी की शान्त सौम्य मुद्रा, वात्सल्य का भाव, आधुनिक युग में विद्यमान अनेकानेक समस्याओं के मध्य अपने संस्कारों को सुरक्षित रखने हेतु संघर्षरत युवाओं के प्रति अनुराग, सरलता, सहजता ने मन में ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि मैं सदैव ही हस्तिनापुर आने को लालायित रहती हूँ। मेरे पति (अनुपम जैन) तो पूर्व से ही पूज्य माताजी की आज्ञानुसार दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर की अकादमिक गतिविधियों में अपना योगदान करने हेतु प्रायः हस्तिनापुर आते रहते थे, फलतः प्रथम दर्शन के बाद निरन्तर विकसित होती श्रद्धा ने समर्पण का सा रूप ले लिया। मैं अपनी बहनों के उपयोग हेतु दो अविस्मरणीय प्रसंगों को लिपिबद्ध कर रही हूँ। Jain Educationa International -- १- मेरे छोटे बेटे अनुज को जन्मशः एक नेत्र रोग था, फलतः निरन्तर उसकी आँखों में कीचड़ एवं अन्य विकार बने रहते थे । एक वर्ष से कम अवस्था में १९८९ में उसे नेत्र विशेषज्ञ को दिखाना पड़ा। विशेषज्ञ ने बताया कि आपरेशन ही इसका निदान है। फिर भी मैं दवा दे रहा हूँ यदि फायदा हो गया तो ठीक, वरना आपरेशन करना पड़ेगा। यह हमारे लिए चिन्ता का विषय था। श्रद्धावश हमने सपरिवार हस्तिनापुर आने पर पूज्य माताजी को जब यह बात बताई तो आपने आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित प्राचीन शान्ति भक्ति का नियमपूर्वक २१ दिन तक बताई रीति से पाठ करने का परामर्श दिया एवं उपरान्त सम्मुख रखे जल को नेत्र पर छिड़कने को कहा। इस शान्तिभक्ति से उसे नेत्र रोग में आश्चर्यजनक लाभ हुआ एवं अब वह पूर्णतः नेत्र रोग से मुक्त है। यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि यह सब पूज्य माताजी के आशीर्वाद एवं प्रदर्शित मार्ग का प्रतिफल है। श्रीमती निशा जैन, सारंगपुर २- इसी जून- ९२ में हम लोग जम्बूद्वीप आये थे । मैं स्वयं द्रव्य संग्रह एवं बच्चे बालविकास का अध्ययन कर अपने ज्ञान में अभिवृद्धि कर रहे थे। २७ जून को दोपहर में अचानक 'अनुज' अस्वस्थ हो गया। सुबह तक जो बालक णमोकार मंत्र के महात्म्य पर भाषण एवं कथा सुना रहा था दोपहर २.०० बजे वह तीव्र ज्वर से ग्रसित हो गया, पूज्य माताजी द्वारा मंत्रोच्चार सहित पिच्छी लगाने से रात्रि ८.०० बजे तक वह पुनः स्वस्थ हो गया । वस्तुतः माताजी के आशीर्वाद से ही बात बनी। पूज्य माताजी अत्यन्त निस्पृह भाव से सभी को अपना स्नेहपूर्ण, वात्सल्यमयी आशीर्वाद देती हैं। युवाओं को एक बार उनके दर्शनार्थ अवश्य जाना चाहिये इससे वे स्वतः ही बिना कुछ कहे अपने जीवन को सही दिशा दे सकेंगे। For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ परहित में संलग्न - Jain Educationa International मुझे पू० माताजी के दर्शनों का सौभाग्य दो बार प्राप्त हुआ है व दर्शन की पुनः अभिलाषा बनी रहती है। पू० माताजी सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप से सुशोभित हैं, स्व-पर के हित में संलग्न हैं व हस्तिनापुर में पू० माताजी की प्रेरणा से जो स्थाई कार्य सम्पन्न हुए हैं, वे सबको विदित है। आपके द्वारा रचित ग्रन्थों की संख्या डेढ़ सौ से भी ज्यादा है, जिसमें महान् ग्रन्थराज "अष्टसहस्री" जैसी की हिन्दी टीका करके स्व-पर का महान् हित किया है। ये सब कोई छोटी-मोटी बात नहीं है; ये पू० माताजी के तप का अतिशय प्रभाव है पू० माताजी के द्वारा आज लाखों जीवों का हित हो रहा है, अनेक ने शिक्षा-दीक्षा ली है। यथा नाम तथा गुण के अनुसार माताजी ने गुण संग्रह किये है। ऐसी प्रकाण्ड विदुषी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में अपनी ओर से विनयांजलि अर्पण करती हूँ। पू० माताजी दीर्घायु हो, यही वीर प्रभु से प्रार्थना है, ताकि संसार में सभी भव्य जीवों को मार्गदर्शन मिलता रहे। श्रीमती सन्तोष कुमारी जैन, बड़जात्या, नागौर ज्ञानमती माताजी मेरी इष्ट देवी हैं। [१७९ - वासुदेवपाल, गोहाटी वासुदेव पाल आसाम के निवासी वैष्णव मूर्ति बनाकर बेचना मेरा पेशा था, लेकिन मैं जैन धर्म से सम्बन्धित कुछ झाँकियाँ बनाने के लिए "जम्बूद्वीप" हस्तिनापुर में सन् १९७९ ई० में आया था। उसी समय मुझे "ज्ञानमती माताजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। माताजी ने आशीर्वाद देते हुए कहा था, धर्म पर श्रद्धा रखकर काम करने से तुम्हारे जीवन में इतनी प्रगति होगी जो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। मैंने भी उसी समय अपने मन के भीतर ज्ञानमती माताजी के चरण पर अपने हृदय से पुष्पांजलि अर्पण किया और जब भी मेरे को किसी काम के लिए बुलाते हैं तो माताजी के आशीर्वाद से उनकी कल्पना को साकार रूप तैयार करने का प्रयत्न करता हूँ । माताजी को इतना ज्ञान है जिसका कि मैं वर्णन नहीं कर सकता । मैं इतना कह सकता हूँ कि पूर्व जन्म के संस्कार से हमें दुर्लभ ज्ञानमती माताजी का दर्शन हुआ, मैं कभी सोचकर हैरान हो जाता हूँ कि ज्ञानमती माताजी ही मेरी इष्ट देवी हैं। माताजी के साथ बातें करते हुए हमें कुछ झलक आध्यात्मिक दर्शन हुए जो अलौकिक है। माताजी की मैं सागर से तुलना करता हूँ क्योंकि मैं इस संसार का एक बिन्दु हूँ। मेरी प्रार्थना यही है कि मैं जब भी इस धरती पर आऊँ मुझे ऐसा ही दुर्लभ चरण स्पर्श मिले। यह मेरा माताजी से निवेदन है। " वात्सल्य की जीवन्त प्रतिमा" For Personal and Private Use Only 1 पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान युग की एक आर्दश साध्वी है जिन्होंने अपनी कठिन तपस्या, दूरदर्शिता, अगाध ज्ञान एवं कठोर संयमसाधना से जगत् का महान् उपकार किया है। उनकी शास्त्रीय विषयों की पकड़ असाधारण है। किसी भी विषय को वे सरलता से आत्मसात् कर लेती हैं, यही कारण है कि उन्होंने बड़े-बड़े ग्रन्थों का अनुवाद भी सहज ही करके दिखा दिया है जो कि विद्वानों के लिए अनुकरणीय है । उनकी प्रवचन शैली ओजपूर्ण और विद्वत्तापरक है। ईसवी १९८३ की एक घटना ने तो मेरे मन में अमिट छाप छोड़ दी और उस समय मैंने पहचाना कि पूज्य माताजी का आत्म-विश्वास कितना महान् है। पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती अभिनन्दन ग्रन्थ मेरी प्रेस में छप रहा था और चित्रों के छपने की व्यवस्था दिल्ली में थी लेकिन ग्रन्थ की बाइडिंग करने के लिए केवल ५ दिन का समय शेष रह गया था और दिल्ली से चित्र नहीं आये। हस्तिनापुर से एक सज्जन बिल्टी लेकर तो आ गए लेकिन पार्सल बनारस में लाकर भी बिना बण्डल खोले ही पुनः दिल्ली वापिस चले गए। मैं उसी गाड़ी से दिल्ली गया और चित्रों की पार्सल बनारस लाकर रात दिन लगाकर ग्रन्थ की बाइण्डिंग कराई। विमोचन का समय निश्चित 1 - पं० बाबूलाल फागुल्ल, वाराणसी Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला " हो चुका था, लेकिन गाड़ी के लेट होने की वजह से मैं समय से पूर्व नहीं पहुँच सका। उधर माताजी चिंतित थीं, किन्तु उन्हें यह विश्वास था कि फागुल्ल जी समय पर जरूर पहुँच जाएंगे और हुआ भी यही मैं बिल्कुल समय पर हस्तिनापुर पहुंचा तब माताजी बहुत प्रसन्न हुई और मुझे उनका भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ । मुझे पूज्य माताजी के ग्रन्थों के मुद्रण करने का कई वर्षों तक सौभाग्य मिला, जिसके कारण हस्तिनापुर भी मेरा जाना होता रहा और उनका मंगल आशीर्वाद भी मिलता रहा। ऐसी महान् विदुषी पूज्य माताजी के श्रीचरणों में मैं अपनी विनयाञ्जलि समर्पित करते हुए यह भावना भाता हूँ कि वे चिरकाल तक हम लोगों का मार्गदर्शन करती रहें। १८० ] "साक्षात् कल्पवृक्ष हैं माताजी " - अनिल कुमार जैन, देहली पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी सचमुच अपने नाम के अनुरूप ज्ञान स्वरूपिणी, महाशक्ति स्वरूपा, सरस्वती देवी का साकार रूप हैं। दया की महासागर हैं। जो भी माताजी की शरण में आया, उसको माताजी ने अपने स्नेह की शीतल छाया में ज्ञान रूपी कवच पहनाया । क्योंकि ज्ञान के बिना मनुष्य में कोई गुण टिक ही नहीं सकता। इस पंचम काल में जो गति अति दुर्लभ है, सो पू० माताजी की अनुकम्पा से, उनकी छत्रछाया में सहज ही भक्तों ने प्राप्त की । माताजी के चरणों में ज्ञान गंगा की धारा सतत प्रवाहित होती रहती है। जिसको भी उनका सानिध्य मिला, निहाल हो गया। "साक्षात् कल्पवृक्ष हैं माताजी !” माताजी ! आप सचमुच में "विद्या माता है" । विद्या वह गुण है जिसे न तो चोर चुरा सकता है, न राजा ही छीन सकता है सदा साथ रहती है। विद्या से नम्रता आती है, जहां नम्रता रूपी गड्ढा होता है वहाँ सभी प्रकार के गुण वास करते हैं। आज समाज को माताजी की आवश्यकता है। क्योंकि आप ही आज के नर तथा नारी को सही दिशा दे सकती हैं। आज जब हम कहते हैं कि हमारा देश राम राज्य जैसा हो, तो वह केवल कहने से राम राज्य जैसा नहीं हो जायेगा। हमें अपने विचारों को बदलना होगा। इसका माध्यम है सत्संग और सद्विचारों का प्रचार और इसी कार्य को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी द्वारा किया जा रहा है। हम भी ऐसे बन पायें इस आशीर्वाद की इच्छा सहित। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१८१ १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती मातुः स्तुतिः -आर्यिका श्री जिनमती माताजी [शिष्या गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी] [छन्दः - उपजाति] अस्मिन् शताब्दे जिनधर्मगंगां, प्रवाहिता सर्ववसुंधरायां । यया स्वबुड्या वरपुण्यपुंजैः सुमातरं ज्ञानमती प्रवंदे ॥ १ ॥ अनेकशः भूमितले सवित्री, प्रसूत सौभाग्ययुतः सुकन्याः । भवत् सदृशीं गुणरत्नराशि, असूत माता तव एव धन्या ॥२॥ शताधिकग्रन्थसुकाव्यकी, सर्वानुयोगेषु विदक्षशास्त्री । स्वभाववैराग्यगुणेन युक्ता, सुमातरं तां प्रणमामि भक्त्या ॥ ३ ॥ युगप्रधाना गुणिषु प्रधाना, आर्या प्रधाना, मतिबुद्धिमुख्या । विधिप्रधाना-गमज्ञानजेष्ठा, सुमातरं तां विधिना भजामि ॥ ४ ॥ सुलेखकाव्यविधिन्यायशब्द, क्रियासुकोशे गणिते सुनाट्ये । अबाधिता पावनबुद्धिरस्याः, सुमातरं तां विनता स्तवीमि ॥ ५ ॥ आद्यस्य जंबूद्वीपस्य, रचनायां प्रतिकृतौ । प्रेरिका मार्गदर्शिका, वंदे तां मातरं मुदा ॥ ६ ॥ गर्भाधानक्रिया हीना मातैव मम निश्छला । धर्मप्रभावनां कुर्वन् जीवितात् शरदां शतम् ॥ ७ ॥ पूज्य श्री गणिनी ज्ञानमतीजी की स्तुति (अष्टक) -आर्यिका अभयमती उपजाति छन्द ज्ञानप्रवीणा निपुणा सुवृत्ता, प्रज्ञाप्रधाना शुभकार्यदक्षा । स्वात्मानुभूतिः व्यवहारज्ञात्री, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ १ ॥ सर्वार्यिकायां गणिनी सुमुख्या, या सर्वदेशे भुवि सुप्रसिद्धा। या श्रेष्ठसन्मूलगुणेषु निष्ठा, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ २ ॥ जंबूसुद्वीपे विविधैःसुकायेंः, यस्याः प्रभावात् सफलीबभूत । कल्याणक: भवतापही, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ ३ ॥ हे भव्यमूर्तिः निकलंकसाध्वी, शास्त्राब्धिपारंगत-बुद्धि-दीप्तिः । मिथ्यांधकारस्य विलीनकी, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ ४ ॥ श्री वीरसिंधोःसुप्रधान-शिष्या, अन्वर्थनामा सुगुणैर्गरिष्ठा । ज्ञानार्करश्मिः शुभस्वात्मज्योतिः, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ ५॥ लाभेप्यलाभे सुखदुःखमित्रे, शत्रोश्च बंधोर्नहि रागद्वेषौ । मानेऽपमाने किल शांतभावा, नमामि त्वां ज्ञानगति सुभक्त्या ॥ ६॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] वार ज्ञानोदय ग्रन्थमाला स्थाद्वादवक्त्री त्वं भारती च, श्रीशांतिसिंधोः सुपरंपरायां । आज्ञानुकूला शुचिकार्यदक्षा, नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥ ७ ॥ त्वं दीर्घकालेन सुदीक्षितासि, वात्सल्यभावादनुगृह्य शिष्याः । ब्रामीसमाना कवयित्रि ! मातः ! नमामि त्वां ज्ञानमतिं सुभक्त्या ॥८॥ अनुष्टुप् छन्द - त्वन्माहात्म्यात् मया भक्त्या, काव्यस्तुतिर्विरच्यते । आशीर्यच्छाभयमत्यै, त्वं मातः ! मे शिवं कुरु ॥ ९ ॥ "ज्ञाने मतिं मे कुरु" -आर्यिका चन्दनामती शार्दूलविक्रीडित छन्द - माता ज्ञानमतिः सुविस्तृतमतिः ज्ञानेन संकीर्तिता, दिव्या बोधप्रकाशिका तवकृतिः तीर्थे समुद्भूषिता । टीकाशास्त्रमनेकधा च लिखितं अन्येऽपि शास्त्रादयः, वन्देऽहं शुभज्ञानमूर्तिममला ज्ञाने मतिं मे कुरु ॥ १ ॥ बालेयं प्रथमा सुसंस्कृतमना लोकेऽधुना विश्रुता, संत्यक्ताः पृथिवीतलेषु मनुजैरज्ञानभावास्तदा । संप्राप्ताः तव सन्निधौ बहुजनाः रत्नत्रयं पावनं, वन्देऽहं शुभज्ञानमूर्तिममला ज्ञाने मतिं मे कुरु ॥ २ ॥ आचार्यस्य सुवीरसागरगुरोशिष्या स्वयंसाधिका, सम्यग्ज्ञान विकासिनी शुभमतिः रत्नत्रयाराधिका । आर्या ज्ञानमतिः स्वसंघगणिनी ब्राह्मीसमादर्शिका, वन्देऽहं शुभज्ञानमूर्तिममलां ज्ञाने मतिं मे कुरु ॥ ३ ॥ देशे सम्पति कोऽपि नो तव समा नारी सुसंस्कारिता, यस्याः ज्ञान प्रदायिनी बहुकृतिः लोकेऽत्र संदृश्यते । बालैः विज्ञजनैश्च संस्तुतकृतिः सम्यक्त्वसंवर्द्धिनी, वन्देऽहं शुभज्ञानमूर्तिममला ज्ञाने मतिं मे कुरु ॥ ४ ॥ जम्बूद्वीप विनिर्मितं गजपुरे पश्यन्ति ये मानवाः, स्वर्गारामसुखं च शान्तिमतुलां ते प्राप्नुवन्ति स्वयं । सामीप्ये तव चन्दनामतिरपि ज्ञानामृतस्येच्छया, वन्देऽहं शुभज्ञानमूर्तिममला ज्ञाने मतिं मे कुरु ॥ ५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१८३ पूज्य ज्ञानमती-आर्यिका-स्तुतिः - डॉ० दामोदर शास्त्री-दिल्ली (१) छन्दः उपजाति ज्ञानेन शीलेन च संयमेन, जिनोक्त - रत्नत्रयमाश्रयन्तीम् । अध्यात्ममार्गाश्रित - शुद्धचित्ताम् , भक्त्याऽऽर्यिकां ज्ञानमतीं नमामः ॥ अर्थ :- ज्ञान, शील व संयम के माध्यम से जिनेन्द्र-निर्दिष्ट रत्नत्रय (मोक्षमार्ग) का आश्रयण करती हुई तथा अध्यात्म-मार्ग का आश्रयण कर शुद्ध चित्त वाली पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को भक्तिपूर्वक हम प्रणाम (नमोऽस्तु) निवेदन करते हैं। (२) छन्दः इन्द्रवज्रा सर्वानुयोगाध्ययनानुशीलाम, लब्धप्रतिष्ठां करणानुयोगे । धर्मोपदेशे सततं प्रवृत्ताम्, भक्त्याऽऽर्यिकां ज्ञानमतीं नमामः ॥ अर्थ :- पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी जैनागमों के सभी अनुयोगों के अध्ययन का अनुशीलन करती रहती हैं, तथापि वे 'करणानुयोग' में विशेषज्ञ होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है, वे धर्मोपदेश-कार्य में निरन्तर प्रवृत्त रहती हैं, हम उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दना (नमोऽस्तु) करते हैं। (३) छन्दः इन्द्रवज्रा आचार्यवर्यैरकलंकविद्या नन्द्यादिभिर्या सरणिर्गृहीता । व्याख्यातुकामाऽऽर्षपथं तयैव, भक्त्याऽऽर्यिकां ज्ञानमतीं नमामः ॥ अर्थ :- अकलंक, विद्यानन्दि आदि आचार्यवरों ने जो मार्ग अपनाया, उसी मार्ग का आश्रयण कर प्राचीन आर्ष-परम्परा की व्याख्या करने वाली पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को हम भक्तिपूर्वक वन्दना (नमोऽस्तु) करते हैं। (४) छन्दः उपजाति ब्राम्यादिकाः संयतिकाप्रधानाः, नारीषु रत्नानि पुरा बभूवुः । प्रवर्तयित्री सुपरम्परां ताम्, भक्त्याऽऽर्यिकां ज्ञानमतीं नमामः ॥ अर्थ :- ब्राह्मी, सुन्दरी आदि पूज्य आर्यिकाएँ प्राचीन काल में श्रेष्ठ नारी-रत्न के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी हैं, उसी श्रेष्ठ परम्परा को आगे बढ़ाने वाली पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी को हम भक्तिपूर्वक वन्दना (नमोऽस्तु) करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] अर्थ : अर्थ : अर्थ : -- वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला (५) छन्दः इन्द्रवज्रा अध्यात्म-भूगोल-सुनीति-धर्म अर्थ :- जिनकी सत्प्रेरणा से अनेक भव्य प्राणी सम्यक्त्व युक्त हो चुके हैं और हो रहे हैं, उन भव्यों में से कितनों ही ने अणुव्रत या महाव्रत भी ग्रहण किए हैं, उन पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को भक्तिपूर्वक हमारी वन्दना (नमोऽस्तु) है। न्यायादिनानाविषयेष्वनेकान प्रन्धान् विरच्य प्रथितां जगत्याम्, भक्त्याऽऽर्थिकज्ञानमर्ती नमामः ॥ पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अध्यात्म, जैन भूगोल, नैतिक सदाचार, धर्म, न्याय आदि अनेकों विषयों पर ग्रन्थों की रचना कर संसार में ख्याति प्राप्त की है, उन्हें हमारी भक्तिपूर्वक वन्दना (नमोऽस्तु) है। Jain Educationa International (६) छन्दः उपजाति यदीय-सत्प्रेरणया च भव्याः, सम्यक्त्वयुक्ताः बहवः प्रजाता । व्रतानि केचित्समुपाश्रयंस्ताम्, भक्त्याऽऽर्थिकां ज्ञानमतीं नमामः ॥ (61) छन्दः उपजाति जिनोक्त-शास्त्रोदधिमन्थनाय, यद् वा शुभे प्रेरयितुं मनुष्यान् । संदृश्को यद्व्यसनं सदैव, भक्त्याऽऽर्थिकां ज्ञानमर्ती नमामः ॥ जिनका व्यसन या तो जैन शास्त्र रूपी समुद्र के मन्थन के लिए, या फिर मानवों को शुभ कार्यों में प्रवृत्त करने के लिए दिखाई पड़ता है, उन पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को हम भक्तिपूर्वक वन्दना ( नमोऽस्तु) करते हैं। 1 (८) छन्दः वंशस्थ यतीन्द्रसंघाधिपदेशभूषण सुनामकाचार्यवर-प्रसादतः विरक्त्या क्षुल्लिकयाप्यभूयत, 1 सदैव तां ज्ञानमर्ती वयं नुमः ॥ जिन्होंने श्रमण-संघ के आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के शुभाशीर्वाद से 'क्षुल्लिका' के रूप में वैराग्यदीक्षा प्राप्त की, उन पूज्य श्री आर्यिका ज्ञानमती माताजी को हम वन्दना ( नमोऽस्तु) करते हैं। (९) छन्दः वंशस्थ तपस्विवर्याणि वीरसागरः, मुनीन्द्र आचार्यपदप्रतिमि For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१८५ प्रदीक्षितां यां श्रमणी-पदेऽकरोत् , सदैव तां ज्ञानमती वयं नुमः ॥ अर्थ :- तपस्वी मुनियों में जो अग्रगण्य मुनीन्द्र आचार्यपदासीन आ० श्री वीरसागरजी महाराज ने जिन्हें आर्यिका (श्रमणी) पद की दीक्षा दी, उन पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को हमारी वन्दना (नमोऽस्तु) है। छन्दः स्रग्धरा जम्बूद्वीप-प्रतिकृतिवरां हस्तिनापुर्यदोषाम्, शास्त्रप्रोक्तां परमसुभगां स्थापितुं प्रेरयद् या। ज्ञानज्योतिर्विचरणमिहाकारयद् धर्मवृद्ध्यै, वन्द्यौ तस्याश्चरणजलजौ ज्ञानमत्यार्यिकायाः॥ अर्थ :- हस्तिनापुर में शास्त्रीय विधि से दोषरहित तथा परम सुन्दर जम्बूद्वीप का मॉडल स्थापित करने के पीछे जिनकी सत्प्रेरणा रही, जिनकी प्रेरणा से ज्ञान-ज्योति का (भारतवर्ष में) विचरण हुआ और फलस्वरूप धर्म-वृद्धि हुई, उन पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के चरणकमलों में हमारी वन्दना हो। (११) छन्दः शार्दूलविक्रीडित विज्ञानं सकलानुयोगनिहितं यस्मिन्समाख्यायते, सत्यान्वेषणकर्माणि प्रयतते दृष्ट्या च मध्यस्थया । हिन्यां मासिकपत्रमेकमपि यत्संप्रेरितं राजते, सम्यग्ज्ञानमिति प्रसिद्धिमिह तां भक्त्याऽऽर्यिकाग्रयां नमः ॥ अर्थ :- पूज्य आर्यिका श्री की प्रेरणा से 'सम्यग्ज्ञान' नामक प्रसिद्ध हिन्दी मासिक पत्र प्रकाशित होता रहा है, इस पत्र में सभी अनुयोगों की सामग्री निहित रहती है तथा मध्यस्थ दृष्टि से 'सत्य' के अनुसन्धान को प्रस्तुत किया जाता रहा है, उन मातुश्री पूज्ज आर्यिकाजी को हम भक्तिपूर्वक वन्दना (नमोऽस्तु) करते हैं। स्तुतिपरकं काव्यम् मंगलाभिधानम् कमलकुमार जैन-गोइल्ल, कलकत्ता अनुष्टुप् - आर्यारत्नं नमस्कृत्य, ज्ञानमति सुनामकम् । विरच्यते मया भक्त्या, ज्ञानमत्यष्टकं शुभम् ॥ १ ॥ आर्याछन्द - यस्याः सम्यग्ज्ञानं, प्रवर्धमानं प्रकर्षतां प्राप्तम् । लोके पूज्यतमायाः, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ २ ॥ वागीशी प्रभाकरी, ख्यातां सिद्धान्तवाचस्पतिं वै । स्वेतरकल्याणकरी वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ३ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला यस्याः प्रतिभालोके, लभते सर्वोत्तमां सदा ह्यमलाम् । विद्वद्भिरर्चनीयाम, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ४ ॥ यथा ह्यनेके ग्रन्थाः, रचिता विद्वत्प्रबोधदातारः । सरलायां सुखाण्यां, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ५ ॥ गम्भीरं चारित्रं, विमुक्तिमार्ग-प्रकाशकं शश्वत् । ध्रियते यया सुभक्त्या, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ६ ॥ ज्ञातृत्वं द्रष्टुत्वं, स्वभावजं सदातनं हि यात् तस्याः । नैर्मल्यं प्रविधत्ते, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ७ ॥ यस्या विमला वाणी, प्रविशति श्रोतृजनानां चित्तेषु । प्रविश्य दत्ते मोदं, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ८ ॥ संस्कृतवाक्चातुर्य, ह्याकण्र्यैव प्रमोदतां यान्ति । विद्वन्मनांसि नित्यं, वन्दे तां ज्ञानमतिमार्याम् ॥ ९ ॥ अन्तिमाभ्यर्थना - ज्ञानमत्यष्टकं नित्यं, याथातथ्य प्रकाशने, दिवामणिरिवाभाति, नात्र सन्देह भूमिका । कमलादिकुमारेण, कृतं भक्ति समन्वितम्, व्याकरणन्यायकाव्य-तीर्थेन विदुषा सता ॥ विनयाञ्जलि शार्दूलविक्रीडित छंद - प्रकाशचन्द्र जैन [प्रधानाचार्य] श्री समन्तभद्र संस्कृत महाविद्यालय, दरियागंज-दिल्ली साध्वी संयमिनी प्रशान्त-सरला सम्यक्त्व रत्नोज्ज्वला, स्वाध्यायैकरुचिनिजात्मनिरता मोक्षार्थिनी योगिनी । गाम्भीर्याम्बुनिधिर्विवेकलसिता स्वच्छात्मना शोभिता, माता ज्ञानमती विशुद्धचरिता जीयाच्चिरं गौरवात् ॥ १ ॥ सर्व भोगविलास-वैभवत्रयं त्यक्त्वाऽऽर्यिका याऽभवत्, जैनेन्द्रप्रतिपादितेन सुपथा गन्तुं सदा योद्यता । चाँ जैनमुनेः सुपालनपरा सा त्यागिनी निष्ठया, पूज्या ज्ञानमतीह जैनगणिनी शुधैर्यशोभिर्लसेत् ॥ २ ॥ ज्ञानाम्भोधि-विहार-केलिकुशला भव्याम्बुजोल्लासदा, ग्रन्थानां रचनाः विधाय हि तया साहित्य सेवा वृता । विद्वत्त्वं मिलितं यदीयचरिते त्ागेन सार्धं महत् गुर्वी ज्ञानमती पुनातु मलिनं चित्तं मदीयं सदा ॥ ३ ॥ 'जम्बूद्वीप' विशुद्धसंस्कृतिमयी संस्थाऽनया स्थापिता, संस्थायामिह जैनशासनमयं साम्राज्यमालक्ष्यते । जम्बूद्वीपतरोः सुशीतलघनच्छायातले लभ्यते, स्वात्मानन्द-निराकुलत्व-लसिता शान्तिर्हि मोक्षार्थिभिः ॥ ४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१८७ यस्याः प्रेरणया भवन्त्यनुदिनं कार्यक्रमाःधार्मिकाः, 'संस्थानेत्र त्रिलोक शोध' निरते जैनत्वसंरक्षके । स्वात्मोत्थानपरोपकार-निरता श्रद्धास्पदा वन्दिता साध्वी ज्ञानमती विनम्र शिरसा भक्त्या मया नम्यते ॥ ५ ॥ प्रसूनाञ्जलिः - डॉ० रामप्रसाद त्रिपाठी साहित्य विभागाध्यक्षः लक्ष्मणपुरा, वाराणसी श्रमणः संस्कृति-संस्कृत-प्राकृत-प्रभृति विद्या संरक्षण-संवर्द्धन-प्रचार-प्रसार-निरतानां, जनकल्याणपरम्पराप्राप्तपात्राणां, हतकलुषकुलानां, जम्बूद्वीपप्रेरणा स्रोतानां, कविकुलकोकिलवासन्तिकपवनानां, नानाग्रन्थप्रणयन-संकलन-शोध-कर्मप्रवीणानां, विविधोपाधिनामलङ्कतानां, गणिनी प्रमुखार्यिका मणिजातानां, अर्हन्भक्तिभावभावितातुराणां, श्रीपदलाञ्छित ज्ञानमती गणिनी-पूज्यपादानाञ्च समर्पितोऽयं स्वल्पवाग्वैभवविलासपूर्ण-शिखरिणीवृत्त-प्रवृत्तपद्यप्रसूनाञ्जलिः अनिन्द्यां चारित्र्यां सकलमहिलामौलिमुकुटाम्, सदा सत्याहिंसा पथगमनकार्येषु कुशलाम् । जिनेन्द्रध्यायन्ती सुभग-समभावानुकलिताम् । नमामि त्वां आयें ! सदयकरुणापूर्ण-मनसाम् ॥ १ ॥ यथा पापं गङ्गा हस्ते जगति ख्याति लभते, तथैवार्येभो! त्वं स्वजनपरितापं प्रशमनी । तमावृत्तः पन्था सहजपथनष्टा इह जनाः, । भवद् त्यक्त्वा छायां न खलु शरणं ज्ञातरुचिरम् ॥ २ ॥ यया ज्ञानालोके भरतभुवनं सुस्थिरकृतम् , यया जम्बूद्वीपो विपुलमहिमा कीर्तिगमितः । यया मान्याः कन्याः प्रतिजनसमाजे सुचरिताः, । नमामि त्वां आयें ! निखिलमहिलामण्डनमयीम् ॥३॥ अहो मुग्धा वाणी तव चरितगाने न निपुणा, अहो रुद्धं ज्ञानं मम तव रहस्यं न विदितम् । अहो त्यागं तावत्र तव तुलना क्वापि लभते, । ____ अहं मोहासक्तः गुणगणनकार्य न कुशलः ॥ ४ ॥ न मे काचित् तृष्णा विविधदिवभोगेषु महती, न वा चित्तं दत्तं किमपि वसुधा वैभवसुखम् । न याचे कैवल्यं घनदपदभागी न मनसा, । भवद्दिव्या दृष्टिः सुखदसरिता मे हि जननि ! ॥ ५॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हस्तिनापुरक्षेत्रस्यजम्बूद्वीपस्यप्रेरिकाम् श्रीज्ञानमत्यार्यिकाम् प्रति श्रद्धासुमनानि - रच० महेन्द्रकुमारो "महेशः" शास्त्री मित्रयोःसंवादः केयं? मित्र ! वद प्रवाक्पटुतरा, याश्वेतवस्त्रावृता । नानाशास्त्र समुद्रमंथनरता, यस्याः करे पिच्छिका ॥ रे! रे ! स्वल्पमते ! वृथैव वद मा, स्वद्यापि न ज्ञायते । सेयं ज्ञानमती शुभाऽस्तिविबुधा, साध्वी प्रसिद्धा भुवि ॥१॥ गुणानाम् प्रशंसा या सर्वाङ्गमनोहरा विलसति, प्राज्ञाप्रविज्ञावरा । या ख्याताभुवि भारते श्रुतवती, यस्याः मुखे शारदा ॥ ॥ या तीर्थेत्विह हस्तिनापुरवरे, द्वीपस्य सत्प्रेरिका । जीयात् सा बहुशास्त्रलेखनरता, वै ज्ञानमत्यार्यिका ॥ २ ॥ आश्चर्यम् काले कलौपञ्चमदुःखमेऽशुभे, त्यागोन्नताः संयमिनो हि दुर्लभाः । तथापि वै ज्ञानमती समात्विह । सज्ज्ञानचारित्रयुतास्ति विस्मयः ॥ ३ ॥ स्तवनम् सकलगुणनिधाना, ज्ञान चारित्रयुक्ता, । विबुधनिचयसेव्या, लोकमान्या विबुद्धा । जगजनहितकी, द्वीपजम्बू प्रणेत्री, जयति जगति लोके, ज्ञानमत्यार्यिका सा ॥४॥ अर्चा या बाल्यकाले गृहतो विरक्ता, या ज्ञान चारित्रधना पवित्रा । या त्यक्तमोहा विबुधा विरागा, तामार्यिकाम् ज्ञानमतीम् यजेऽहम् ॥ ५॥ कामना या हस्तिनापुरे क्षेत्रे, जम्बूद्वीपस्य प्रेरिका । चिरं ज्ञानमतीजीयात्, “महेश"स्येतिकामना ॥ ६ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१८९ विनयाञ्जलिः -डॉ० भागचन्द्र जैन, 'भास्कर' अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय उपस्थिते साध्यगिरौ पुरे च मोतीरवीन्द्रौ तव पादमग्नौ । प्रशान्तरूपा हि सरस्वती च प्रचारयामास जिनेन्द्रचक्रम् ॥ १ ॥ -२ - स्वरूपरूपा युगज्योतिरूपा सद्ज्ञानशीला हृदये विशाला। नमोऽस्तु तुभ्यं सततं नमामि सदा करोतु वरधर्म कार्यम् ॥ २॥ - ३ त्वत्पादौ प्रणमन्नसौ दिनकरः श्रद्धानतः पुण्यधीः हिन्दीसंस्कृतग्रन्थकर्तृप्रतिभा युक्ता सदा आर्यिका । . वैराग्येन टिकैतपत्तन प्रभे निष्क्रम्य संकल्पिता जम्बूद्वीपविनीतज्ञानवसुधा ज्योतीन्दिरा सेविता ॥ ३ ॥ आर्यिकारत्न ज्ञानमती मातुः स्तवनम् - गणेशीलाल जैन साहित्याचार्य शिक्षकनगर, जयपुर हाउस, आगरा आर्या-वृतम् - अनुष्टपश्लोकाः - यस्याः प्रथमादेशे, लब्धो लाभोऽति दुर्लभोऽपि मया। वन्देऽहं तामााँ, ज्ञानमतीमार्यिकां नित्यम् ॥ १ ॥ अग्रवंशे महावंशे या जाता महिमामये । धन्यं कुलं, तथा जातिर्यया धर्मः प्रसाधितः ॥ २ ॥ दाने प्रदाने या लक्ष्मी, शारदा च प्रबोधने । लेखने निपुणा नव्या, भव्या भक्त-प्रभावने ॥ ३ ॥ दयावतीति सत्त्वेषु, काव्यकर्म-कलावती । सूक्तौ समुपदेशेषु, सत्या सत्यवती सती ॥ ४ ॥ व्रतेषु चोपवासेषु शक्त्या शक्तिमती यथा । तत्त्वेषु गूढ़ग्रन्थेषु, भक्त्या धर्मवती तथा ॥ ५ ॥ यस्याः रत्नमती माता-पिता विजयभूधरः । आर्या ज्ञानमती सेयं, नित्यं विजयतेतराम् ॥ ६ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला शार्दूलविक्रीडितम् - सम्यग्ज्ानवती सुशिष्यबहुला, विद्यालय-स्थापिका । ज्योतिर्ज्ञान-प्रसारिका भगवती सर्वत्र सम्पूजिता ॥ या साध्वी रचनां सुवर्णरुचिरां तीर्थोपमानां व्यधात् । सेयं ज्ञानमती सतां विजयते रत्नत्रयैर्भूषिता ॥ ७ ॥ आचार्यस्य प्रथित विदुषो वीरसिन्धोः सुशिष्या । सैषा जाता परमविदुषी, शिक्षया दीक्षया च ॥ या सम्प्राप्ता परमपदवीमार्यिकाणां प्रधानाम् । देशे देशे नगरनगरे कीर्त्यते नाम यस्याः ॥ ८ ॥ मन्ताक्रान्ता - शिखरिणी - महाप्रीतिं पित्रोः विपुलसखसौविध्यमखिलम् । सुबालावस्थायामपि धृतव्रता सर्वमजहद् ॥ स्वदेशे सम्प्राप्त प्रथितगुरुपादं गतवती । ययाचे तां दीक्षाममरनरलोकेषु महिताम् ॥ ९ ॥ शिखरिणीवृत्तम् - यदीयं विज्ञानं विविध-विबुधाश्चर्यकरणम् । यदीया सम्प्रज्ञा भुवनभरिता ग्रन्थरचनैः ॥ सचित्राः सद्ग्रन्थाः सुनयनियमैलॊकललिताः । लभन्ते सम्मान प्रवचनपरैः सर्वसुजनैः ॥ १० ॥ अनुष्टुप् - सरस्वती सभामध्ये, सुलक्ष्मी ज्ञानरूपिणी । कल्याणी सर्वलोकस्य, माता ज्ञानमतीमता ॥ ११ ॥ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीस्तुतिः - एम०पी० चन्द्रराजशास्त्री, मूडबिद्री वन्दे श्रीजिनपादाब्ज-शृंगी पुष्पविहारिणीं । भ्रामरी वृत्तिमाश्रित्य भव-भ्रमणनाशिनीं ॥१॥ गुणमुख्या गुणज्येष्ठां, गुणोपेतां गुणाग्रणीं । गुणाधारां गुणाकारां, सुगुणां गुणभूषितां ॥ २ ॥ गुणश्रेष्ठां गुणकरी, गणोपेतां गणाग्रणीं । गणिनी आर्यिकारत्नं, श्री ज्ञानमतिमादरात् ।। ३ ।। श्रीमते ! आर्यिकरत्न ! ज्ञानमूर्ते ! नमोनमः । मतिर्ज्ञानं ज्ञानमत्यां, अन्वर्थ त्वयि शोभते ॥ ४ ॥ अज्ञानतमसा नष्टः, मार्गो रत्नत्रयात्मकः । तत्प्रकाश-प्रभोधिन्यै, आर्यिके ! ते नमो नमः॥५॥ जिनवाक्यार्णवोद्भूतं, रत्नत्रयं सुनिर्मलं । यया संधारिता तस्यै, नमः श्रीज्ञानमूर्तये ॥ ६ ॥ औजसं दर्शनं यस्याः, औजसं ज्ञानमुत्तमं । औजसं चरणं यस्याः तां नमामि दिने-दिने ॥७॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१९१ तैजसं हृदयं यस्याः, तैजसं वाङ्मनोदितं । तैजसं वाङ्मनोदेहः, तस्याः मे प्रणतिः सदा ॥ ८॥ श्रद्धामज्ञानचारित्रं, स्वात्मन्येव हि शोभते । बुध्वेत्थं देशना यस्याः, श्रीगणिन्यै नमोऽस्तु ते॥९॥ जीवपुद्गलमाकाशं धर्माधर्म च कालकः । यया प्रबोधिता तस्यै, ज्ञानमत्यै नमो नमः ॥ १० ॥ सुदृक् तपोबलं वीर्य, वृत्तमाचारपंचकं । मनोमंदिरधारिण्यै, श्रीगणिन्यै नमोऽस्तु ते ॥११॥ पंडितप्रचयाराध्या, पण्डितां पण्डितेडितां । अखण्डित-सुखोपेतां, आर्यिकां गणिनी स्तुवे ॥१२॥ त्रिलोकेशोधनावाणी, श्रीवागेवनसंशयः। स्त्रीवाग्भूत्वा भारतेऽस्मिन् जीयादाचंद्रतारकं ॥ १३ ॥ पचंदश श्लोकमिदं चन्द्रराजेन धीमता । कृतं श्रीजिनराजस्य सूनुना कविना मुदा ॥ १४ ॥ पंचोत्रशतं [१०५] पूर्व, ज्ञानमत्याख्यसंज्ञकं । पठन् स्तुवन् विन्दते च, श्रुतमत्यात्मसंस्थितं ॥ पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः - शिवचरनलाल जैन, मैनपुरी श्रीवीरसिन्धोः दीक्षां प्रगृह्य आग्रामनगरं प्राबोधयज्जनात् आर्या सती ज्ञानमती जगत्याः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ १ ॥ प्रक्षीणकामाशयमावबन्धा ब्रह्मोग्रवह्नौ हुतद्रव्यबन्धा ज्ञानोग्रसूर्यांशुमती पृथिव्याः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ २ ॥ या गोम्मेटेशामलपादपीठे द्वीपस्य जम्बूनाम्नः सुमूर्तिम् निर्मापितुं लक्ष्यधरा धरायाः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ३ ॥ या हस्तिनागे प्रचुरप्रभावा सुमेरुरचनां भव्यां चकार प्रचण्डदुःखानलतप्तभूमेः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ४ ॥ शताधिकग्रन्थमालाप्रणेत्री दिव्यार्षमार्गानुरक्ता सुनेत्री Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला एकान्तवादीभसिंही धरित्र्याः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ५ ॥ गणिनी सुसंघे शिविरप्रबोधिका ममादृशानां हस्तावलम्बिनी प्रकृष्टसज्ज्ञानज्योतिः धरिण्याः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ६ ॥ दीक्षासुशिक्षाप्रमुखप्रयत्नैः संस्कारितानां सुतनिर्विशेषम् हितैककरणक्षमा क्षमायाः पुनातु पृष्ठं दुरिताञ्जनेम्यः ॥ ७ ॥ स्तुति - आर्यिका अभयमतीजी श्री ज्ञानमती माता, अध्यात्म रसिक वक्ता । सबको संबोधन कर, व्यवहार कुशल ज्ञाता ॥ जग में आलोक किया, निज ज्ञान किरण द्वारा । निज में प्रतिभास हुआ, चैतन्य कला द्वारा ॥ दिव्य ज्योति जगा करके, जन-जनकर सुख साता । सबको . . . . . . . . . . . . ॥१॥ चंदन चंदा तारे, नहिं मन शीतल करते । तव वचनामृत पाकर,भवि संत अमर बनते ॥ निज के द्वारा निज में, अनुभव कर भ्रम नाशा । सबको . . . . . . . . . . . . ॥ २ ॥ गागर में सागर भर, अरू बिंदु में सिंधु भरा । विष को अमृत कर दें, तप में श्रुत ध्यान धरा ॥ विज्ञान प्राप्त करके, संयम लहे तज आसा । सबको . . . . . . . . . . . . ॥ ३ ॥ अंजन से निरंजन बन, मिथ्यात्व विनाश किया । आतम परमात्म बन, सम्यक्त्व प्रकाश किया ॥ सहजिक सुख में रमके, लहें, झट शिवपुर वासा सबको . . . . . . . . . . . . ॥४॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चतम नारी शक्ति की जीवन्त प्रतीकमाताजी का बहुआयामी व्यक्तित्व गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती दषि-श्रीप्रकाश यंतजा सेठी आवास निगमा सन् १९८० दरियागंज दिल्ली में पूज्य माताजी के ४६वें जन्मदिन पर केन्द्रीय नागर विमान मंत्री श्री ए.पी. शर्मा "दिगंबर मुनि' ग्रंथ का विमोचन करके पूज्य माताजी को प्रदान करते हुए। ४७वें जन्म दिन पर ४७ विद्युत दीप केन्द्रीय गृहमंत्री श्री पी.सी. सेठी द्वारा प्रज्वलित किए रीवालयमा त्य आणिचालनमा बढापनान हपुर२२ अक्ट्रमेय पूज्य माताजी के साथ मंच पर श्री प्रकाशचंद सेठी एवं श्री ए.पी. शर्मा । सन् १९८१ में जम्बूद्वीप स्थल पर पू. माताजा के ४८वें जन्म दिवस पर आयोजित जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सेमिनार के समापन पर इलेक्ट्रिक इंजीनियर श्री एस.एस. गोयल का संस्थान की ओर से अभिनंदन पत्र भेट करते हुए श्री जयकुमार जैन विनायका, एम.एल.सी., भागलपर। For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INAUGURAL CE UNDER T naugurat DWEEP SEMINAR 1932 ATNA Pr MATAJI AIN Jain Educationa International “४९वां जन्मजयंती महोत्सव" ४९वें जन्म दिवस पर दिल्ली के फिक्की ऑडिटोरियम में जम्बूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन समारोह सभा मंच पर बैठे हैंक्रम से श्री चैनरूप बाकलीवाल, ब्र. श्री रवीन्द्र श्री हेमचंद जन, श्री जे. के. जैन, प. बाबूलाल जमादार, श्री राजीव गांधी श्री सुमतप्रकाश जैन, डा. कैलाशचंद जैन, ब्र. श्री मोतीचंद जैन, श्री निर्मल कुमार सेठी एवं श्री ज्ञानमता माताजी ससघ । JAM ARYI GAN 198 ब्र. श्री रवीन्द्र जी श्री राजीव गाँधी का स्वागत करते हुए। संस्थान के पूर्व अध्यक्ष लाला श्री श्यामलाल ठेकेदार दिल्ली श्री राजीव गाँधी का स्वागत कर रहे हैं। NAR 1982 I MATAJI JK. JAIN. CU 32 TAJI JAIN जम्बूद्वीप सेमिनार स्मारिका का श्री राजीव गाँधी से विमोचन कराते हुए ब्र. श्री मोतीचंद ४९ वें जन्म दिन पर कूचा बुलाकी बंगम दिल्ली में दीप प्रज्वलित करते हुए सांसद श्री जे. के. जैन / साथ में खड़े हैं- श्री त्रिलोकचंद कोठारी, युवारत्न श्री पन्नालाल सेठी। For Personal and Private Use Only . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९८५ में जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना की पूर्व तैयारी हेतु हस्तिनापुर पधारे उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी मेले के नक्शे पर विचार-विमर्श करते हुए/साथ में हैं-मेरठ कमिश्नरी के कमिश्नर श्री बी.के. गोस्वामी। २४ नवम्बर, १९८४ को टिकैतनगर ज्ञानज्योति रथ पदार्पण के समय मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी पू. श्री ज्ञानमती माताजी के जन्मगृह में जलपान ग्रहण करते हुए। मा नवम्बर, १९८३ में आर्यिका श्री रत्नमती.माताजी के अभिनन्दन ग्रंथ समर्पण समारोह में उपस्थित जनसमूह को आशीर्वाद प्रदान करती हुई रत्नमती माताजी पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के साथ हस्तिनापुर में। आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ स्वयं उन्हीं के करकमलों में विमोचन करके प्रदान करते हुए श्री जे.के. जैन। सन् १९८१ में पं. श्री बाबूलाल जमादार अपना अभिनंदन ग्रंथ स्वीकार करके पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण कर रहे हैं। दिल्ली के रिटा, इंजी. श्री के.सी. जैन को संस्थान की ओर से प्रशस्ति पत्र भेंट करते हुए श्री भागचंद पहाड़िया-कलकत्ता, सन् १९८१ हस्तिनापुर में। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नों की खान आर्यिका श्री रत्नमती माताजी। जनवरी, १९८५ में समाधिरत आर्यिका श्री रत्नमती जी को संबोधित करती हुई श्री ज्ञानमती माताजी एवं दर्शनार्थ महमूदाबाद से पधारे श्री रत्नमती जी के गृहस्थाश्रम के लघु भ्राता श्री भगवानदास जैन। सल्लेखनारत माताजी को श्री ज्ञानमती माताजी ज्ञानामृतपान करा रही हैं और वे बिल्कुल सजग होकर श्रवण कर रही हैं। १६ जनवरी, १९८५ पूज्य श्री रत्नमती माताजी की पवित्र चिता के समक्ष श्रद्धांजलि अर्पण हेतु पधारे श्री जे.के. जैन एवं अनेक भक्तगण। चिता पर स्थापित आर्यिका श्री रत्नमती माताजी का पार्थिव शरीर । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जून, १९८२ को जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के उद्घाटन अवसर पर दिल्ली के लालकिला मैदान में पूज्य माताजी से आन्तरिक चर्चा करती हुई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी। २८ अप्रैल, १९८५ को हस्तिनापुर में पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण करते हुए केन्द्रीय रक्षामंत्री (वर्तमान प्रधानमंत्री) श्री पी.वी. नरसिंहाराव । ८ मार्च, १९८७ को पू. माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए केन्द्रीय रेलमंत्री श्री माधवराव सिंधिया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के मंच पर श्री मोतीचंद जी कासलीवाल श्री नरसिंह राव जी का स्वागत कर रहे हैं। २८ अप्रैल, १९८५ को जम्बूद्वीप भोजनशाला करते हुए मध्य में श्री पी.वी. नरसिंहराव एवं भूतपूर्व राज्यपाल श्री किदवई जी। जम्बद्रीपरचनाका उद्घाटन अमंगलज्योति प्रज्वलन श्रीनारायणदत्तजी तिवारीमुख्यमंत्री उत्तरानन्देश शासन के करकमलों द्वारा २४ अप्रेल क्षदिनमोमवार वैशाय शुक्ला पौर निस.२५ को किया गया जसरचनाका निर्माण पूल्याधिकारलीजानमती माताजी की प्रेरmr. भालचमी मोतीचंद जैन,बालबानी बचीन्द्रकुमार जैन के प्रयास तथा भारतवर्षकीसमस्त दिगम्बर जनसमाजर्थिक सहयोग से वर्ष में पूर्ण हुआ दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठाउ.प्र. पूज्य माताजी से २९ अप्रैल, १९८५ को आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी व उनके द्वारा उद्घाटन किया जम्बदीप का शिलापट्ट । जम्बूद्वीप का उद्घाटन करते हुए मुख्यमंत्री जी। २९ अप्रैल, १९८५ को मुख्यमंत्री उ.प्र. पूज्य माताजी के साथ जम्बूद्वीप रचना दर्शन हेतु जाते हुए। मंत्री जी के साथ चल रहे हैं श्री निर्मल जी सेठी, श्री विजय कुमार जैन दरियागंज, दिल्ली आदि महानुभाव । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tod ६ मई, १९९० उ. प्र. के महामहिम राज्यपाल श्री बी. सत्यनारायण रेड्डी हस्तिनापुर में पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण करते हुए। श्रीमती माताजी के साविध्य में महोत्सव कमल मंदिरशाह १८६० तक 1२18 महामहिम राज्यपाल जा ६ मई, १९९० को "श्री वीरसागर स्मृति ग्रंथ" का विमोचन कर रहे हैं, आसपास खड़े हैं श्री मांगीलाल पहाड़िया हैदराबाद एवं उनकी धर्मपत्नी । गणित श्री ज्ञानमती माताजी के DO सीप महामहोत Jain Educationa International कि प्रतिष्ठा कम ७ महं सोश राज्यपाल जी जम्बूद्वीप महामहोत्सव के मंच पर अष्टसहस्त्रीग्रंथ का विमोचन करते हुए, पास में खड़े हैं— श्री अमरचंद पहाड़िया, श्री पूनमचंद गंगवाल, श्री निर्मल कुमार सेठी एवं श्री उम्मेदमल पांड्या । ४ मई, १९९० को केन्द्रीय उद्योगमंत्री श्री अजित सिंह पूज्य माताजी से शुभाशीर्वाद लेने हस्तिनापुर पधारे। श्री अजितसिंह का स्वागत करते हुए श्री राकेश जैन मवाना। Clu 品 For Personal and Private Use Only स्मृतिय ७ मई, १९९० को जम्बूद्वीप महामहोत्सव के समापन समारोह में पूज्य माताजी द्वारा लिखित "मेरी स्मृतियाँ" ग्रंथ का विमोचन करते हुए श्री अमरचंद जैन होमब्रेड, मेरठ। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन मह उन गणित शिलाजिम नोटीस Hasaneluसिर मेरठ दिखनिलयामेरा २ मई, १९८५ को जम्बूद्वीप पंचकल्याणक महोत्सव के मध्य पूज्य माताजी के "गणिनी' पद से अलंकृत किया जा रहा है। गणिनी पद प्रतिष्ठापन क्रिया को सम्पः कराती हुई माताजी की शिष्या आर्यिका श्री जिनमती माताजी। अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार के उद्घाटन समारोह मंच पर पूज्य माताजी ससंघ एवं दाईं ओर बैठे हैं मेरठ विश्वविद्यालय के उपकुलपति श्री रमेश मोहन । ३ मई, १९८५ को जम्बूद्वीप पंचकल्याणक के बाद जम्बूद्वीप रचना के अंदर । चैत्यालय में सिद्ध प्रतिमा विराजमान कराती हुई पूज्य माताजी, साथ में है भक्तमंडली। जम्बूद्वीप जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य २९ अप्रैल, १९८५ की रात्रि में भारत के सुप्रसिद्ध गीतकार एवं संगीतकार श्री रवीन्द्र जैन-बम्बई, साथ में हैं-पं. श्री लाडलीप्रसाद "नवीन", श्री राजकुमार सेठी एवं श्री रवीन्द्र जैन का स्वागत करते हुए ब. श्री रवीन्द्र कुमार जैन, श्री सुभाषचंद जैन तथा जयकुमार जैन श्री पन्नालाल सेठी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DSP SEENERate GALLECTOEM मई, १९८७ में जम्बूद्वीप स्थल पर पूज्य गणधराचार्य श्री कुंथुसागर जी महाराज एवं पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ । आचार्य श्री के दाहिनी ओर हैं आचार्य श्री सुधर्मसागर जी महाराज एवं बाई ओर संघस्थ उपाध्याय श्री कनकनंदी जी महाराज। मतीमारीका दिवा १५ अक्टूबर, १९८९ को जम्बूद्वीप स्थल पर संघस्थ ब्र, श्यामाबाई को क्षु. दीक्षा प्रदान करती हुई पूज्य माताजी। दीक्षा के पश्चात् इनका नाम रखा गया क्षुल्लिका श्रद्धामती माताजी। २७ अप्रैल, १९९० को जम्बूद्वीप स्थल पर पंचकल्याणक महोत्सव के प्रारंभ में झण्डारोहण के लिए सर्वाणयक्ष को मस्तक पर ले जाते हुए श्री कमलचंद जी जैन २७ अप्रैल, १९९० को झण्डारोहण करते हुए श्री कमलचंद जैन, सपत्नीक। क्षुल्लिका श्रद्धामती जी की दीक्षा के अवसर पर पूज्य माताजी को कमंडलु प्रदान करते हए श्री अनंतवीर्य जैन एवं श्रीमती आदर्श जैन, हस्तिनापुर । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री के साथ उनके गृहस्थाश्रम के चारों भाई एवं आठ बहनें। पीछे खड़े हैं श्री सुभाषचंद जैन, ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन, श्री प्रकाशचंद जैन एवं श्री कैलाशचंद जैन । उनके नीचे हैं सौ. त्रिशला जैन, सौ. कामनी जैन, कमदनी जैन, सौ. श्रीमती जैन, सौ. शांती जैन, अ. मालती जैन । पूज्य माताजी के आजू-बाजू हैं आर्यिकाश्री अभयमती माताजी एवं श्री चंदनामती माताजी (१३ भाई-बहन एक साथ)। अपने आर्यिका संघ एवं गृहस्थाश्रम के विशाल परिवार के साथ पूज्य माताजी सबसे पीछे से प्रथम पंक्ति में हैं बाएं से दाएं-सो. सुषमा जी, सुभाषचंद, ज. रवीन्द्र, प्रकाशचंद्र, सौ. ज्ञाना, कैलाशचंद, सो. चंदा. सो. अंजू जैन, सौ. बीना/द्वितीय पंक्ति में सौ. त्रिशला-चन्द्रप्रकाश, सौ. सुमन, सुभाष, सौ. कामनी, जयप्रकाश, कुमुदनी, सौ. श्रीमती देवी, प्रेमचंद्र, शांती देवी, राजकुमार। तृतीय पंक्ति-सौ. जैन कुमारी, क. सविता, कर, माला, कु. सोनी, कु. रश्मि, आस्था, क. बाला संजय राजन अरिजय, आदीश, विजय, शरद, शुभचंद, वीरकुमार, ब्र. बीना, कु. राधा, अकलंक, कु. मंजू।नीच पंक्ति में बैठ है-श्री पुतानचंद, सिद्धांत, स्यस, सुनदा, अभिषेक, दीपा, अर्हन्त, निकलंक, अध्यात्म, रिषभ, धनज्य, इंदू.शुभा, कविता, नमिता, सरिता एवं वीरकुमार जैन । परमपूज्य गणिनीआयिकारत्नश्रीज्ञानमतीमातार्ज वर्षा योग स्थापना समारोह २५ काई सन १ २५ जुलाई, १९९१ को सरधना (मेरठ) में चातुर्मास स्थापना के समय पूज्य माताजी जनसमूह को संबोधित करती हुई अपने संघ के साथ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सभी झुके हैं तव चरणों में" जम्बूदीपचनाकापावर प्रकिापवर्मा समाजलाजानमालभPNE द्वीपरचनाकीपाचनप्रन्किापवाणन: मीजानFOTE २३ अक्टूबर, १९९१ सरधना मेरठ में पू. माताजी के ५८वें जन्मदिन पर मुनिचर्या ग्रंथ का विमोचन करते हुए भाजपा/राष्ट्रीय अध्यक्ष डा. श्री मुरली मनोहर जोशी/साथ में खड़े हैं दिल्ली निवासी श्री मोतीचंद जैन जौहरी। सरधना में २३ अक्टूबर को जैनमिलन हॉस्पिटल के मैदान में आयोजित सभामंच/पूज्य माताजी सभा को संबोधित कर रही हैं। बाएं से दाएं बैठे हैं श्री डा. मुरली मनोहर जोशी, श्री कैलाशचंद जैन, करोल बाग, दिल्ली, प्रान्तीय भाजपा के सदस्य श्री नरेन्द्र कुमार जैन, सरधना, ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन। पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण करते हुए श्री अजित सिंह सेठी, मंत्री, उत्तरप्रदेश। १५ फरवरी, १९९२ जम्बूद्वीप हस्तिनापुर में पूज्य माताजी से आशीर्वाद लेते हुए उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह/साथ में हैं-श्री अमरचंद जैन, होमब्रेड, मेरठ, डा. अनुपम जैन, राकेश जैन एवं ब्र. रवीन्द्र जी, अध्यक्ष संस्थान । जम्बूद्वीप हस्तिनापुर में मेरठ के हकीम श्री सैफुद्दीप सेफ (पूर्व राष्ट्रपति चिकित्सक) का स्वागत करते हुए हस्तिनापुर निवासी श्री अनन्तवीर्य जैन/पास में बैठे हैं मेरठ के ख्याति प्राप्त वैद्य श्री विष्णुदत्त शर्मा एवं वैद्य श्री गंगाशरण, मेरठ। मई, १९८९ में जम्बूद्वीप स्थल पर पू. माताजी से आशीर्वाद एवं साहित्य ग्रहण करते हुए मेरठ के मेयर श्री अरुण जैन। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जीवन पर भी कलश चढ़ाया" 7 मई, १९९० को कमल मंदिर पर चढ़ाए जाने वाले कलश के साथ पूज्य आर्यिका श्री ससंघ एवं कलश चढ़ान वाले महानुभाव श्री संतोष कुमार जैन, ज्योति इम्पैक्स, दिल्ली सपरिवार एवं ब्र. श्री रवीन्द्र जी Bતપાસાપ) સતા મંડળ ) गर्भकल्याण मा ९ मार्च, १९८७ को जम्बूद्वीप में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मंच पर श्री अनंतवीर्य जैन का स्वागत करते हुए पं. श्री सुधर्मचंद जी शास्त्री/साथ में हैं प्रतिष्ठाचार्य वाणीभूषण, देशव्रती पं. श्री शिखरचंद जी जैन, भिण्ड। मई, १९९० में जम्बूद्वीप स्थल पर श्री महावीर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मंच पर सनावद निवासी विमलचंद जी जैन बडूद वालों को स्वागत करते हुए पं. श्री सुधर्मचंद जी शास्त्री/बीच में हैं ख्यातिप्राप्त प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री फतहचंद जी शास्त्री/पं. जी के पीछे हैं श्री विमलचंद जी की धर्मपत्नी भगवान् महावीर के दीक्षा कल्याणक का कमंडलु पू. माताजी के हाथ से प्राप्त करते हुए मेरठ निवासी श्री प्रेमचंद जी जैन, तेल वाले (सपत्नीक)। जयपुर के वीरसेवक मंडल की अमूल्य सेवा हेतु मंडल के मंत्री श्री सुरेन्द्र कुमार वैद का जम्बूद्वीप स्थल पर स्वागत करते हुए ब. श्री रवीन्द्र कुमार जी, पास में खड़े हैं श्री निर्मल कुमार जी सेठी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्र. कु. माधुरी शास्त्री दीक्षा से पूर्व अपनी जन्मभूमि में स्वागत स्वीकार करती हुई। १३ अगस्त, १९८९ को हस्तिनापुर में दीक्षा के लिए कु. माधुरी का केशलोंच करती हुई गणिनी आर्यिका श्री। माधुरी से बन गई आर्यिका चन्दनामती १३ अगस्त, १९८९ को। कु. माधुरी के मस्तक पर आर्यिका दीक्षा के संस्कार करती हुई माताजी। पू. श्री ज्ञानमती माताजी, आर्यिका श्री अभयमती माताजी एवं आर्यिका श्री चंदनामती माताजी १४ अगस्त, १९८९ को आहार ग्रहण करती हुई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय का अपूर्व संगम हस्तिनापुर के रत्नत्रय निलय में श्री जी का अभिषेक देखती हुई संघ सहित पूज्य ज्ञानमती माताजी। अभिषेक कर रहे हैं—ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जी एवं दरियाबाद उ.प्र. से आये हुए धनंजय कुमार तथा बालिका दीपा जैन ' गणिनी आर्यिकाश्री से आशीर्वाद ग्रहण करती हुई आर्यिका श्री अभयमती माताजी। प्रातःकालीन धवलाग्रंथ का स्वाध्याय कराती हुई पूज्य माताजी वर्तमान संघस्थ शिष्यों के साथ गणिनी आर्यिका श्री। पीछे खड़े हैं—ब. श्री रवीन्द्र कुमार जी एवं ब्र, कु. आस्था एवं बीना जैन। पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, आर्यिका श्री अभयमती माताजी एवं श्री चंदनामती माताजी के साथ/गृहस्थाश्रम की ये तीनों बहनें तो रत्नत्रय का संगम दर्शा रही हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी के दो स्तम्भ-ब. श्री मोतीचंद जैन (वर्तमान क्षु. मोतीसागर जी) एवं ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन । दीक्षा से पूर्व ७ मार्च, १९८७ को ब्र, मोतीचंद जी पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए/पीछे खड़ी हैं मोतीचंद जी की माता श्रीमती रूपाबाई। ८ मार्च, १९८७ को हस्तिनापुर में ब्र. श्री मोतीचंद जी को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करते हुए आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज/सामने खड़े हैं—मोतीचंद की लघु बहिन श्रीमती किरण जैन एवं बहनोई श्री कैलाशचंद जी चौधरी-सनावद। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "साधु संघ ही जिनका परिवार है" बालश्री मोतीचन्द्र जैन अवामा विमलसाप्रारजीम रविवारदमार्चर्यटन स्पल-जम्मान ९ मार्च, १९८७ को जम्बूद्वीप पुस्तकालय के उद्घाटन अवसर पर पुस्तकों का अवलोकन करते हुए आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज/साथ में हैं—मुनि श्री बाहुबलिसागर महाराज एवं प्रो. अनुपम जैन। ब्र. मोतीचंद जी के मस्तक पर दीक्षा के संस्कार करते हुए आचार्यश्री, पीछे उपाध्याय श्री भरतसागर जी मंत्रोच्चारण कर रहे हैं। मंदिर में भगवान का अभिषेक देखते हए आचार्य श्री. संघस्थ साधु-साध्वियाँ एवं गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सितम्बर से १० सितम्बर, १९९२ तक दशलक्षण पर्व के शुभ अवसर पर कल्पद्रुम महामंडल विधान मंडल के पास खड़े हैं ब्र. रवीन्द्र जी एवं पूजन कर रहे हैं-विधान 1 के आयोजक प्रमुख चक्रवर्ती श्री मनोज कुमार एवं उनकी पटरानी श्रीमती नविता जैन हुए ५८वें जन्म दिवस पर सरधना में पूज्य माताजी की मंगल आरती उतारते. आनंदकुमार, दीपककुमार जैन, दिल्ली के परिवार के सदस्यगण । Jain Educationa International श्री १४ जुलाई सन् १९८६ में त्रिमूर्ति मंदिर में इन्द्रध्वज विधान करते हुए श्री आनंद प्रकाश जैन, सोरम वाले। साथ में हैं— उनके सुपुत्र श्री मदनकुमार जैन सपत्नीक । 四 अक्र पू. माताजी के ५६ वें जन्मदिवस पर हस्तिनापुर में ५६ दीपकों से आरती उतारती हुई सौ. शांतिदेवी जैन, दरियागंज, दिल्ली। For Personal and Private Use Only अक्टूबर सन् १९८८ में जम्बूद्वीप स्थल पर कल्पद्रुम विधान के मध्य पधारे हुए श्रवणबेलगोल के भट्टारक स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामी जी। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International अक्टूबर, १९८५ से जनवरी, १९८६ के मध्य तीव्र ज्वर एवं पीलिया से शारीरिक अशक्तता को प्राप्त पूज्य माताजी । कुमारादोन For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अस्वस्थ अवस्था में भी दृढ़ रत्नत्रय साधना" इनकी मंद मुस्कान बतलाती है कि आत्मा तो अस्वस्थ नहीं है। इनकी दृढ़ आस्था है कि शरीर से सदैव काम लेते रहो। केशलोंच करती हुई माताजी। चिन्तन अवस्था में पूज्य माताजी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप परिसर में विभिन्न जिनालयों के दर्शन करती हुई पूज्य माताजी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप रचना के अंदर विभिन्न स्थानों पर पूज्य माताजी। हरि क्षेत्र में खड़ी हुई पूज्य माताजी। शाल्मलि वृक्ष के नीचे ध्यानमुद्रा में। निषध पर्वत के समीप विदेह क्षेत्र के वक्षारपर्वत पर। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी विभिन्न मुद्राओं में। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी दैनिक क्रियाओं में लीन माताजी। लेखन करती हुई। गुप्तताना बन AER आहार से पूर्व शुद्धि करता हुई। १० सितम्बर, १९९२ को प्रवचन करती हुई। जम्बूद्वीप के हिमवन पर्वत पर माला फेरती हुई। जम्बूद्वीप के नील पर्वत पर स्वाध्याय करती हुई। Jain Educationa international For Parsonal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिस नारी शक्ति से सुरपति भी हिल जाता है" वह वरदहस्त जिसने लाखों नर-नारियों को मंगल आशीष दिया है। सामायिक के मध्य गवासन से वंदना मुद्रा में। मंद-मंद मुस्कान। यह चरण युगल जिनने हिन्दुस्तान भर की पदयात्रा कर हस्तिनापुर को स्वर्ग बनाया। For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रातःकाल की मंगल बेला में जम्बूद्वीप स्थल के विभिन्न स्थल पर पूज्य माताजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिवंदन ग्रंथ के सम्पादकों द्वारा १३ मई, १९९२ को पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से की गई शास्त्रीय चर्चा का एक दृश्य/क्षु, जी के पास में बैठे हैं सम्पादक श्री डा. कस्तूरचंद कासलीवाल, डा. श्रेयांस जैन, डा. अनुपम जैन एवं डा. शेखर जैन/पूज्य माताजी के बाई ओर बैठी हैं संघस्थ कु. बीना जैन । १९ जनवरी, १९९२ को हस्तिनापुर में आर्यिका चंदनामती माताजी एवं क्षु. मोतीसागर जी के सानिध्य में अभिवंदन ग्रंथ के संपादक मंडल की बैठक का एक दृश्य । संपादकों में उपस्थित हैं—डा. प्रेमसुमन जैन, ब्र, रवीन्द्र जैन, डा. शेखर जैन, डा. श्रेयांस जैन तथा पीछे बैठे हैं श्री मनोजकुमार जैन हस्तिनापुर एवं राकेश कुमार जैन, मवाना । चंदनामती माताजी के पास बैठी हैं संघस्थ ब. कु. आस्था जैन । २७ अप्रैल सन् १९९० जम्बूद्वीप स्थल पर नेत्र चिकित्सालय का उद्घाटनकर्ता मवाना निवासी श्री लखमीचंद आढ़ती। साथ में मवाना के नेत्र चिकित्सक डा. श्री अशोक कुमार जैन पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण कर रहे हैं। पूज्य माताजी संघ सहित जम्बूद्वीप रचना के अन्दर दर्शनार्थ गमन करती हुई। ३ नवम्बर, १९८९ पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित हस्तिनापुर से बड़ौत के लिए विहार करती हुई। ५ नवम्बर को मवाना प्रवेश पर जैन धर्मशाला के बाहर आरती करते हुए राकेश जैन, श्रीमती सुषमा जैन तथा मवाना के अन्य स्त्री-पुरुष । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप परिसर का अनमोल वैभव கரைனி जम्बूद्वीप रचना के सामने निर्मित अखंड ज्ञानज्योति, जहाँ २८ अप्रैल, १९८५ को श्री पी.वी. नरसिंहाराव (वर्तमान प्रधानमंत्री) ने अखंड विद्युत ज्योति प्रज्वलित की थी। कमल मंदिर के अंदर कमलासन पर विराजे कल्पवृक्ष भगवान महावीर जो हर भक्त की मनोकामना पूरी करते हैं। श्वेत कमल मंदिर जिसे देखते ही दर्शक का होता पाप शमन है। जम्बूवृक्ष जिसके नाम से जम्बूद्वीप-यह नाम प्रसिद्ध है। जम्बूद्वीप के अंदर सुमेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में बना कृत्रिम शाल्मलि वृक्ष। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्था जम्बूद्वीप नगर सीमा का प्रारंभिक द्वार, जहाँ से जम्बूद्वीप स्थल १०० कदम है। जम्बूद्वीप परिसर में मंदिर धर्मशालाएं, काठी, डीलक्स फ्लैट, रत्नत्रय निलय, पुस्तकालय, कलामंदिर, भोजनशाला, औषधालय, पुलिस चौकी आदि व्यवस्थाओं के साथ-साथ अपूर्व प्राकृतिक सौंदर्य । जम्बूद्वीप के पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज। Jain Educationa International जम्बूद्वीप संस्थान के अध्यक्ष ब. श्री रवीन्द्र कुमार जी । For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमूर्ति मंदिर में विराजमान पद्मावती माता, सरस्वती माता एवं चमत्कारिक क्षेत्रपाल बाबा। आकाश को छूता हुआ भव्य सुमेरु पर्वत । MART आगत अतिथियों को शीतल जल प्रदान करने वाली गंगा एवं सिंधु देवी। सन् १९८५ का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में उ.प्र. सरकार द्वारा बनाई गई ऐतिहासिक पैड का लिया गया हवाई चित्र। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी के संघस्थ आर्यिकाएं एवं क्षुल्लिकाएं पूज्य आर्यिका अभयमती माताजी पूज्य क्षुल्लिका श्रद्धामती जी Jain Educationa International पूज्य आर्यिका चंदनामती जी पूज्य आयिका शिवमती जी पूज्य क्षुल्लिका शांतिमती जी For Personal and Private Use Only . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ सितम्बर, १९८७ को हस्तिनापुर में ब्र. श्री रवीन्द्र जी को सप्तम प्रतिमा के व्रत प्रदान करती हुई पूज्य माताजी। नवम्बर, १९८५ में अस्वस्थ अवस्था में पूज्य माताजी के कर-कमलं साहित्य प्राप्त करते हुए इनकम-टैक्स कमिश्नर श्री सचदेवा । ३० अप्रैल, १९७९ को सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में जन्म कल्याणक के दिन भगवान के जन्माभिषेक के लिए सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला के पास खड़ी हुई पूज्य माताजी के साथ बाएं से हैं-तारापुर एण्ड कम्पनी मद्रास के प्रबंधक निःशुल्क पैड निर्माता, पीछे खड़े हैं ब्र. मोतीचंद जी पुनः अथक परिश्रमी संस्थान के विशिष्ट सहयोगी श्री नरेश बंसल, दिल्ली। माताजी की दाहिनी ओर हैं-ब, रवीन्द्र जी तथा अंत में खड़े हैं श्री मदनलाल चांदवाड़। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार एवं ध.प. श्रीमती विमला जैन, दिल्ली पूज्या माताजी को आहार देते हुए। कु० वीना जैन, शिष्या पूज्य माताजी। नवप्रतिष्ठित ह्रीं बिम्ब का प्रथम पंचामृत अभिषेक करते हुए दरियागंज दिल्ली निवासी श्री विजय कुमार जैन, ध०प० रश्मि जैन एवं मातापिता कु० आस्था जैन, शिष्या पूज्य माताजी। श्री अनिल कुमार जैन कागजी सोधर्म इन्द्र भगवान चंद्रप्रभु के लघुपंचकल्याणक में ऐरावत हाथी पर भगवान को लिए हुए जन्म कल्याणक का दृश्य । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१९३ पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की पूजन -आर्यिका चन्दनामती स्थापना पूजन करो जी, श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी की पूजन करो जी । जिनकी पूजन करने से अज्ञान तिमिर नश जाता है। जिनकी दिव्य देशना से शुभ ज्ञान हृदय बस जाता है । उनके श्री चरणों में आह्वानन स्थापन करते हैं। सन्निधिकरण विधिपूर्वक पुष्पांजलि अर्पित करते हैं । पुष्पांजलि .... पूजन करो जी, श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी की पूजन करो जी ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । ॐ ह्रीं श्री ज्ञानगती माताजी ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ॐ ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सनिधीकरण । अष्टक ज्ञानमतीजी नाम तुम्हारा, ज्ञान सरित अवगाहन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है । मुझ अज्ञानी ने माँ जब से, तेरी छाया पाई है। तब से दुनिया की कोई छवि, मुझको लुभा न पाई है। ज्ञानामृत जल पीने हेतु, तव पद में मेरा मन है । तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । चंदन और सुगंधित गंधों की वसुधा पर कमी नहीं। लेकिन तेरी ज्ञान सुगन्धि से सुरभित है आज मही ॥ उसी ज्ञान की सौरभ लेने को, आतुर मेरा मन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । जग के नश्वर वैभव से मैंने शाश्वत सुख था चाहा । पर तेरे उपदेशों से वैराग्य हृदय मेरे भाया ॥ अक्षय सुख के लिए मुझे तेरा प्रवचन ही साधन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। कामदेव ने निज वाणों से जब युग को था ग्रसित किया। तुमने अपनी वोमल काया लघुवय में ही तपा दिया । इसीलिए तव पद में आकर शान्त हुआ मेरा मन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी काम बाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । मानव सुन्दर पकवानों से अपनी क्षुधा मिटाते हैं। लेकिन उनके द्वारा भी नहिं भूख मिटा वे पाते हैं । आत्मा की संतृप्ति हेतु तव वाणी मेरा भोजन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। विद्युत के दीपों से जग ने गृह अन्धेर मिटाया है । ज्ञान का दीपक लेकर तुमने अन्तरंग चमकाया है ।। घृत का दीपक लेकर माता हम करते तव प्रणमन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । कर्मों ने ही अब तक मुझको यह भव भ्रमण कराया है। तुमने उन कर्मों से लड़कर त्याग मार्ग अपनाया है । धूप जलाकर तेरे सम्मुख हम करते पूजन हैं। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ।। ७॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। कितने खट्टे-मीठे फल को मैंने अब तक खाया है। तुमने माँ जिनवाणी का अनमोल ज्ञानफल खाया है। तव पूजनफल ज्ञाननिधी मिल जावे यह मेरा मन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पिच्छी कमण्डलधारी माता नमन तुम्हें हम करते हैं। अष्ट द्रव्य का थाल सजाकर अर्घ्य समर्पण करते हैं । युग की पहली ज्ञानमती के चरणों में अभिवन्दन है। तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है ॥ ९॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । शेर छंदहे माँ तू ज्ञान गंग की पवित्र धार है। तेरे समक्ष गंगा की लहरें बेकार हैं। उस धार की कुछ बूंदों से जलधार मैं करूँ। वह ज्ञान नीर मैं हृदय के पात्र में भरूँ ॥ शांतये शान्तिधारा । स्याद्वाद अनेकान्त के उद्यान में माता । बहुविध के पुष्प खिले तेरे ज्ञान में माता ।। कतिपय उन्हीं पुष्पों से मैं पुष्पांजलि करूँ । उस ज्ञानवाटिका में ज्ञान की कली बनूँ ॥ दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत् । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१९५ -जयमाला दोहा- ज्ञानमती को नित नमू, ज्ञान कली खिल जाय । ज्ञानज्योति की चमक में, जीवन मम मिल जाय ॥ धुन-नागिन; मेरा मन डोले . . . . . . हे बाल सती, माँ ज्ञानमती, हम आये तेरे द्वार पे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं। शरद पूर्णिमा दिन था सुन्दर तुम धरती पर आई। उन्निस सौ चौतिस में माता मोहिनी जी हर्षाईं ॥ . . . माता थे पिता धन्य, नगरी भी धन्य, मैना के इस अवतार मे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥१॥ बाल्यकाल से ही मैना के मन वैराग्य समाया । तोड़ जगत के बन्धन सारे छोड़ी ममता माया ॥ . . .माता गुरू संग मिला, अवलम्ब मिला, पग बढ़े मुक्ति के द्वार पे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥ २ ॥ शान्तिसिन्धु की प्रथम शिष्यता वीरसिन्धु ने पाई। उनकी शिष्या ज्ञानमतीजी ने ज्ञान की ज्योति जलाई। ...माता शिवरागी की, वैरागी की, ले दीप सुमन का थाल रे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥ ३ ॥ माता तुम आशीर्वाद से जम्बूद्वीप बना है। हस्तिनापुर की पुण्यधरा पर कैसा अलख जगा है ।।... माता ज्ञान ज्योति चली, जगभ्रमण करी, तेरे ही ज्ञान आधार पे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥ ४ ॥ यथा नाम गुण भी हैं वैसे तुम हो ज्ञान की दाता। तुम चरणों में आकर के हर जनमानष हर्षाता ॥ . . . माता साहित्य-सृजन, श्रुत में ही रमण, कर चलीं स्वात्म विश्राम पे, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥ ५ ॥ गणिनी माता के चरणों में यही याचना करते । कहे "चन्दनामती" ज्ञान की सरिता मुझमें भर दे॥... माता ज्ञानदाता की, जगमाता की वन्दना करूँ शत बार मैं, शुभ अर्घ्य सँजोकर लाए हैं ॥६॥ दोहा -लोहे को सोना करे, पारस जग विख्यात । तुम जग को पारस करो, स्वयं ज्ञानमति मात ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्रीज्ञानमतीमाताजी जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । दोहा-ब्राह्मी माता के सदृश, ज्ञानमती जी मात । सदी बीसवीं की प्रथम, क्वारी कन्या आप ॥ इत्याशीर्वादः Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] पूज्यगणिनी आर्यिकामाता महाविदुषी ज्ञानमतीमातुः पूजांजलिः - रचयिता डॉ० लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली : शार्दूलविक्रीडित छन्द बसन्ततिलकाछन्द Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला — त्यक्त्वा सर्वपरिग्रहं गृहरति बाह्यान्तरंगद्वयम् । संग्राह्य प्रतिभापदं समभवद्या पूजनीयार्यिका ॥ यस्यागीश्च सरस्वतीव प्रसरत्यन्तर्बहिर्भावने । तां श्री ज्ञानमतिं यजामि गणिनीं मुक्तिश्रियं प्राप्तये ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमतीमातः ! अत्र स्थापनं अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमतीमातः । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः सन्निधिकरणं । ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमतीमातः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं । वार्द्धक्य जन्ममरणादिरुजाग्निशास्यै । त्वत्पादयोः सलिलमेव समर्पयामि ॥ मातस्त्वदीयचरणाम्बुजसेवनेन । जन्मान्तरे भवति भक्तजनोऽपि मुक्तः ॥ ॐ ह्रीं श्रीमणिनीज्ञानमत्यार्यिका जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा यच्चंदनं भवति शीतसुगन्धयुक्तम् । तदभावतोऽस्ति भवतां हि गुणानुरागः ॥ कृत्वा त्वदीय गुणगानमहं हि मातः । लप्स्ये महासुखमनन्तमनन्तकालम् ॥ ॐ ह्रीं गणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा संसार सागर परिभ्रमणादपारम् । दुःखं चतुर्गतिषु तत्त्वनुभूतमेव ॥ नष्टं करोमि पदमक्षयप्राप्तिहेतुम् । तस्मात्त्वदीय चरणेऽक्षतमर्पयामि ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा सम्यक्त्वबोधशुचिसंयमपुण्यपुंजः । तेनैव त्वां गणिनि ! नित्यमहं यजामि ॥ कामादिरागरतिसर्वविभावभावान् । मुक्त्वा च सिद्धपदप्राप्तिमहं करिष्ये ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकार्य कामवाणविनाशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा प्रत्येकजन्मनि शुभादिविशालरोगः । संपीडितोऽहमधुनापि तथैव रोगैः ॥ तदुरोगनष्टकरणार्थमतीव मातः । नैवेद्यमद्य तवपादयुगेऽर्पयामि ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै शुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा मिथ्यात्वरूप तमसि भ्रमण प्रकर्वन । दुःखं मया भवभवे सततं च भने For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१९७ श्रुत्वा त्वदीय मुखतश्च जिनेन्द्रवाणी । ज्ञानप्रदीप उदितोऽस्ति ममात्ममध्ये ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा कर्माष्टकैः सततपीडितमात्मतत्त्वः । नित्यं परिभ्रमति दुःखसमुद्रमध्ये ॥ त्वत्पादसंबलमवाप्य मदीय चित्तं । ध्यानाग्निना तपसि तद्दहनं करिष्ये ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा पुण्यं फलं प्रखरपापफलं च द्वाभ्याम् । कालं मदीय सकलं विफलं व्यतीतम् । बाह्यांतरंगसुखरूपफलं हि मोक्षम् । तत्प्राप्तये तव पदाम्बुजमर्चयामि । ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा द्रव्याष्टकैः सुजलचन्दनतन्दुलाद्यैः । सम्पूज्य भक्तमनसा तव पादयुग्मम् ॥ स्थित्वा निजात्मनि पुनश्च तपः प्रकुर्वन् । सद्यो ह्यनर्घनिर्वाणपदं प्रलप्स्ये ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा जयमाला मातस्तव चरणयुगं प्रपूज्य, निर्द्वन्द्वशान्तिसुखमनुभवामि । तव दर्शनमपि कृत्वा मदीय, हृदये जिनभक्तिःसमभ्युदेति ॥ १॥ जय ज्ञानमती गणिनि त्वमेव, जगति प्रथिता जिनशारदेव । तव सदुपशतोभव्यजनाः, हृदि वीतराग सुखमानुवन्ति ॥ २ ॥ लघु वयसि गणिनि रत्नत्रयाणि, स्वात्मनि त्वया परिधारितानि । तद्रत्नसम्पदं समवलम्ब्य, लोकत्रयाधिपतिरपि भवेत् ॥ ३ ॥ अष्टादशवर्षायुषि च त्वया, सर्वप्रतिमाव्रतसंधूतानि । तव भक्तिरतान्याः युवतयोऽपि, व्रतसंयमादिपरिपालितानि ॥ ४ ॥ जिनपूजाहेतुविनिर्मिता हि, लोकैर्जिनबिम्बजिनालयाश्च । किंतु त्वत्प्रेरणयैव अम्ब ! जम्बूद्वीपोऽत्रसुनिर्मितोस्ति ॥ ५ ॥ शास्त्राणि त्वया रचितानि अम्ब ! अनुयोगचतुष्कयुतानि यानि । तेषामध्ययनकृतेऽवभाति. साक्षात् सरस्वती प्रकटितेव ॥ ६ ॥ तव रवितशास्त्र पठनेन अम्ब ! ज्ञानस्य वहति गंगा सदैव । तस्मात् प्रसिद्धिरभवत तवैव, जय ज्ञानमती जय ज्ञानमती ॥ ७ ॥ तव पादयुगे शरणं प्रपद्य, संसारभ्रमण नएं भवेत् ।। नव देवि शरणमहमागतोऽस्मि, भवदुःखविनाशयितुं निजस्य ॥ ८॥ ज्ञानादि देवि ! रत्नत्रयाणि, नत्त्वा त्वदीय चरणं नमामि । मह्यं प्रदातु सुखशान्तिशिवम्, तीर्थं नमामि हस्तिनापुरम् ॥ ९ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] Jain Educationa International अनुष्टुप - पूज्या ज्ञानमती माता, आर्यिका चन्दनामती क्षुल्लकस्सागरो मोती, वर्तन्ते हस्तिनापुरे ॥ तेभ्यस्तत्रस्थ साधुभ्यश्चान्येभ्योऽपि नमाम्यहम् । चतुर्विंशतितीर्थेशां संस्मरामि प्रतिक्षणम् ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्थिकायै जयमाला पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् । वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अथ जैनार्यिका सुसाध्वी ज्ञानमती पूजा शार्दूलविक्रीडित छन्द - साध्वीं ज्ञानमतीं प्रशान्त सरलां निन्दा - प्रशंसा समाम्, ज्ञानाम्भोज विहारिणीं सुगणिनी मोक्षार्थिनीमार्थिकाम् । राग-द्वेषविवर्जितां गतमयां सन्तोष-धैर्याम्बुधिम्, त्यागानन्दमयीं विलक्षणमति सम्यक्त्वरत्नोज्ज्वलाम् । आत्मोद्यान-विहार केलिरसिकां मोशेच्छया त्यागिनीम्, सल्लोक-विकार- भोग-विषयांस्त्यक्त्वा तपश्चारिणीम् । भव्यान् मोक्षमतीन् प्रबोधनपरां वाण्या सुधासिक्तया, पूज्यां जैनमत प्रचारधन रुचि पूजानताः संस्तुमः ॥ इन्द्रवज्रा छंद स्थापना नश्यन्ति दुःखान्यखिलानि तेषाम्, कुर्वन्ति मातस्तव वे सुपूजाम् । तस्माद् वयं मोक्षसुखाप्तिकामाः, त्यां स्थापयामो निजचित्तमध्ये आगच्छ, मातः मम मानसे त्वम् । सान्निध्यलाभः सुखदस्त्वदीयः । पूजाप्रभावात्त्वद्भक्तिनिष्ठाः, निर्दोषभावं त्वरितं लभन्ते ॥ शार्दूलविक्रीडित छंद - ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमती मातः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमती मातः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमती मातः ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं । अथाष्टकं - रचयिता : प्रकाशचन्द्र जैन, प्राचार्य श्री समन्तभद्र दि० जैन संस्कृत विद्यापीठ दरियागंज, दिल्ली मालिन्यं हरतीह वारि सकले शुद्धं यथा वास्तवम्, चित्तं नो लभतां तथैव परमां शुद्धिं हि ज्ञानाम्बुना ! For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१९९ माता ज्ञानमती तपस्वि-विदुषी ज्ञानस्य वारानिधिः, सर्वाज्ञानमयं करोतु तिमिरं नष्टं सदा चेतसः ॥ इन्द्रवज्रा छन्द - व्याधिः पिपासा महदस्ति लोके, तस्याः विनाशस्त्वरितं यथा स्यात् । तुभ्यं हि मातः ! सलिलं समस्तम्, भक्त्या वयं सादरमर्चयामः ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा संसारातपतप्तजीवनिचयाः कष्ट सहन्ते भृशम्, तेषां कष्टनिवारणाय गणिनी सद्बोधदानक्षमा । प्राप्तुं शीतलतां यथा जगति सेवन्ते जनाश्चन्दनम्, माता ज्ञानमती तथा प्रवचनैः, शान्तिं परां यच्छतु ॥ ज्ञात्वा प्रशान्तेः परमं युपायम्, नष्टा रुचिश्चन्दनकेसरादौ । द्रव्याणि सौगन्ध्यमयानि तत्मान्, तुभ्यं हि मात्रे मनसार्पयामः ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा संसाराब्धिपयःकुचक्रभ्रमिताः कारिभिः पीडिताः, संसाराब्धितितीर्षवो हि भवती नावं वयं प्राप्नुमः । ज्ञानानन्दमयीं निजात्मनिरतां वैदुष्य-पारंगतां, शुद्धैश्चन्द्रविशुभ्रतन्दुलचयैः संपूजयामो वयम् ॥ पारं हि नेतुं भवसिन्धुदुःखान्, मातस्त्वमेवासि समर्थनौका । कुन्देन्दुशुभ्रानवगन्धयुक्तैः, त्वाम् पूजयामोऽक्षतरम्यपुंजैः ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा तारुण्ये कुसुमायुधस्य निशितान् वाणान् हिमेनाच्छिदत्, चांचल्यं मनसो यथा दृढतया ध्यानाग्निभिज्वलितम् । तस्याः ज्ञानमतेरवाप्य शरणं कन्दर्पवाणाः वृथा, तस्मात्तां कुसुमादिभिरभिनवैः संपूजयामो वयम् ॥ कामेषवः सन्ति वृथैव तेषाम्, ये मातरं ज्ञानमती भजन्ते, चारित्र्य-गंगोज्वल-सौम्यकान्तिम् तां जैनसाध्वी सुमनैर्भजामः ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा किंकर्तव्यविमूढतां हि भजते लोके बुभुक्षुर्नरः, तृप्तो लौकिकभोजनैहि मया दृष्टो धरायां जनः । सर्वाण्येव सुभोजनानि मनसायॆन्तेत्वदने मया, याचे मुक्तिरसायनं हि सुखदं क्षुद्रोगनाशक्षमम् ॥ जैनार्यिकायाश्चरणारविन्दे, नैवेद्यवातेहि समर्पयामः । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जानाति सा केवलमत्र लोके, क्षुद्रोगनाशस्य परं विधानम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा मोहान्धैनं विलोक्यतेऽक्षयसुखं मुक्तेः पदं दुर्लभम् । सम्यग्ज्ञानसुदीपनष्टतिमिराः पश्यन्ति नैजं हितम् ॥ माता ज्ञानमती जिनागममतिः सन्मार्गसन्दर्शिका, दूरं नो मनसः करोतु निखिलं मोहान्धकारं धनम् ॥ दीपार्पणैस्त्वच्चरणारविन्दे, मातः ! वयं त्वां परिपूजयामः । दूरं तु कृत्वा मनसोऽन्धकारम्, दीपोपमं नो हि कुरुप्रवित्तम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा जीवेभ्यः सततं हि कर्मनिचयैर्दुःखं महद्दीयते, दग्ध्या तानि तपोऽग्निना हि जिना, मुक्ति गताः शाश्वतीम् । मातः । भक्तिनताः विनम्रमनसा संपूज्य धूपैर्वयम् कान्तारं जटिल हि कर्मरचितं दग्धुं हि यावामहे ॥ कर्माणि सर्वाणि भवन्ति तेषां, दुधानि ये साधुपदं प्रपन्नाः । शान्ती सुसाध्वीं तपसां निधि लाम धूपैर्वयम् वै परिपूजयामः ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा चित्ते नो विभवेषु भौतिकफलेष्विच्छा न सन्त्यार्यिकै, प्राप्तास्त्वां शरणं सुमुक्तिसदनं, मोक्षेच्छया केवलम् । सर्वैरेव फलैः सुमिष्टसरसैस्त्वां मुक्तिलोभाद् वयम् ॥ मूर्ध्ना भक्तिः तेन गौरवमयीं संपूजयामो सदा ॥ स्वाध्यायसामायिकलग्नचित्ताम्, साधुत्व-वैदुष्य मनोज्ञमूर्तिम् । माधुर्ययुक्तैः रसपूर्णगर्भैः, सर्वैः फलै गणिनी नमामः ॥ ॐ ह्रीं श्रीमणिनीज्ञानमत्यादिकायै मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा अम्भश्चन्दनतन्दुलैश्च कुसुमैः नैवेद्यदीपैस्तथा धूपैर्मिष्टफलैश्च शुभ्रमिलितैरयैर्नवैः पावनैः जैनाचार-विचार- शब्दलुलितां साध्वीपदे ऽलंकृताम्, आत्मोत्थानविधौ सदैव निरतां तां पूजयामो वयम् ॥ जैनत्वभूषासमलंकृतां तां । शुभ्रैर्यशोभिरभिराममूर्तिम् ॥ तामार्थिकां ज्ञानमतीं प्रपन्नाः संपूजयामो ऽसमुच्चयेन ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै अनर्घ्यपदप्राप्तये अनिर्वपामीति स्वा For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२०१ अथ जयमाला अनुष्टुप् छन्द - मातरं जैन साध्वीं तां, प्रणम्य शिरसा मया । तद्गुणैर्जयमालेय, गीयते स्वात्मशान्तये ॥ १ ॥ पूज्या ज्ञानमती माता, जैनधर्मप्रभाविका ।। साध्वीपदप्रतिष्ठायां, सावधाना निरन्तरम् ॥ २ ॥ चतुस्त्रिंशत्तमे वर्षे, शरदः पूर्णिमादिने । टिकैतनगरं ग्रामं, सा पूतं जन्मनाऽकरोत् ॥ ३ ॥ शैशवेऽपि न क्रीडासु, मनस्तस्याः रतमभूत् । धर्मानुकूलचर्यासु, व्यस्ता दृष्टा निरन्तरम् ॥ ४ ॥ बाल्ये जैनमुनीनां सा, सेवयाऽऽनन्दिताभवत् । देवशास्त्रगुरूणां च, सत्कारं मनसाऽकरोत् ॥ ५ ॥ गृहस्थोचितकार्येषु, रुचिस्तस्याः न मानसे । कृत्वा तु धर्मकार्याणि, सन्तुष्टा सा सदाऽभवत् ॥ ६॥ बाल्ये ज्ञानार्जनं कृत्वा, जैनशास्त्राणि साऽपठत् ।। जैनागमरहस्यानां, मर्मज्ञा पण्डिताऽभवत् ॥ ७ ॥ परिवारजनास्तस्याः, सवैराग्ये न बाधकाः । तस्माद् दृढतया मैना, वैराग्यं प्रति प्राचलत् ॥ ८॥ तस्याः पुण्यप्रभावैस्तु, आचार्यों वीरसागरः । तस्याः वैराग्यभावात्तु, अदात्तस्यै स्वशिष्यताम् ॥ ९ ॥ जैनार्यिकापदं प्राप्य, पादाभ्यां विहृतं तया । सम्पूर्णे भारते राष्ट्र, कृता धर्मप्रभावना ॥ १० ॥ तया संस्थापिताः संस्था, कृत्वा जैनत्वरक्षणम् । प्रचारं जैनधर्मस्य, कुर्वन्ति निष्ठया सदा ॥ ११ ॥ त्रिलोकशोधसंस्थान,हस्तिनापुरसंस्थितम् । जैनशास्त्रीयसूत्राणां, सम्यग्व्याख्यां करोति तत् ॥ १२ ॥ विविधानि सतशास्त्राणि, प्रकाश्यन्ते निरन्तरम् । जैनवाङ्मयरक्षायां, कार्य महद् विधीयते ॥ १३ ॥ सम्यग्ज्आनेन लोकेभ्यः, सम्यग्ज्ञानं प्रदीयते।। ग्रामं पुरं गृहं गत्वा, जैनधर्मः प्रसार्यते ॥ १४ ॥ जम्बूद्वीपस्य यद्रूपं, जैनशास्त्रेषु वर्णितम् । साकारं तत् कृतं सर्वं, तीर्थभूहस्तिनापुरे ॥ १५ ॥ जैनागमरहस्यानां, हृदयंगमभाषया । व्याख्या मात्रा कृता रम्या, सर्वैः सर्वत्र शस्यते ॥ १६ ॥ बालेभ्यो जैनधर्मस्य, सुज्ञानं दातुमिच्छया । चारुरोचकभाषायां, ग्रन्थाः विरचितास्तया ॥ १७ ॥ या साध्वी सर्वजैनेषु, मातृरूपेण संस्थिता । नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः ॥ १८ ॥ ॐ ह्रीं श्रीगणिनीज्ञानमत्यार्यिकायै जयमाला पूर्णाय निर्वपामीति स्वाहा । इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिः Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला णाणमदीए णाण-पूजा - डॉ० उदयचन्द जैन पिऊ कुञ्ज, अरविंदनगर, उदयपुर [राज०] ठावणा सुणाण-जुत्त-सब्वदा सुपुण्ण-सम्म-धीगुणे रमेदि णिच्च अप्पणे सहाव-संत-सत्थए । मदीइ णाण-णाण-ठावणं च णाण-आहणे चिट्ठेहि अस्थ सण्णिधी-विधीइ पुठव-अच्चणे ॥१॥ ओं ही सिरीणाणमदी गणिणीए गुण-णाणं अत्थ अवतरे अवतरे ओं ही सिरी-णाणमदी गणिणीए गुण-णाणं अस्थ चिट्ठे चिढे ओं ही सिरी णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं अस्थ मम सण्णिहदो भव-भव-वसढ-सण्णिहिकरणं । - अद्रावली - -जलं - तुज्झे सुणाण-सरिदे अवगाहणेणं पूदा हवंति णर-णारि-अबाल-बाला । णाणामियं च सजलं पावणं वि जम्मं जरा विणसणे मह भत्ति तुम्हे ॥ १ ॥ ओं ही सिरीणाणमदीगणिणीए गुणणाणं जम्म-जर-मिच्चु-विणसणं जलं णिरवपामि साहा । -चंदणं - गंधाण गंध-सुमणाण च चंदणाणं णाणस्स गंध-महणिज्ज-पसंसणिज्जा । तं णाण-गंध-लहिउं रमदे सदा हि संसार-ताव-हणणे तव णाण-गंधं ॥ २ ॥ ओं ही सिरी णाणमदी गणिणीए गुणणाणं संसार-ताव-विणसणं चंदणं णिरवपामि साहा । -अक्खदंलोयस्स वेहव-अणिच्च-असार-मुत्ता तुम्हे विराग-जुद-देस-पदेस-रम्मा । अक्खं सुहं च पवहंति च अक्खएहिं मे अक्खदं सुहपदं पददे च मादा ॥ ३ ॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं अक्खद-पद-णिमित्तं अक्खदं णिरवपामि साहा । - पुष्कं - कामस्स वाण-विध-माणव-मेत्त-लोए णो जायदे च अज-अन गुज-कज्जे । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२०३ जायंति जे मणुज-णारि-सुणाण-मग्गे पावंति ते सदद-संत-महंत-णाणं ॥ ४ ॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं काम-वाण-विणसणं पुष्फ णिरवपामि साहा । -वेजणेवेज-मिट्ठ-पकवाण-सुराज भोगा ते णस्थि मे छुध-विणासण-हेदु-रम्मा । तुझे च णाण-महुरा-वयणाणि भुंजे णाणं सरच्व-अमलं सुह-अप्प-णाणं ॥ ५॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुणणाणं छुधारोग-विणसणं णिरवपामि साहा। -दीवं - दीवादु दीव पजलंति च अंधणासं __णो णाण-दीवग-पगास-विहीण-णाणं । जे णाण-दीव-लहिदूण रमंठि लोए ते णाण-पूद-भव-भूद-विणट्ठ-जोग्गा ॥ ६॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं मोहंधयार-विणसणं दीवं णिरवपामि साहा। -धूवं - लोए भमंति णर-णारि-अधीर-कम्मे जे चाग-मग्ग-लहिदूण चरंति धम्मे । ते कम्मधूव-दहणे अदिकम्म-वीरा राजंति णाणमदि-णाण-सुणाण-मग्गे ॥ ७ ॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं अट्ठकम्म-दहणं धूवं णिरवपामि साहा । -फलंवादाम-लोंग-अदि-पुण्ण-पवित्त-थाले थावेच्च रम्म-फल-अच्चण-हेदु-अम्हे । णाणं फलं अणुवमं चखणं च अम्हे णाणाफलं सुरस-णाण-णिहिं च पत्तुं ॥ ८॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं मोक्खफल-पत्तणं फलं णिरवपामि साहा । - अग्धंअट्ठागुणाणुगुण-रंजिद-माद तुम्हे अढे पउत्त-सददे गुण-णाण-रत्ता । अग्घेण सोहिद-मही तुह णाण-बुद्धी अग्घेण पावण-जणा च लहंति अग्धं ॥ ९॥ ओं ही सिरी-णाणमदी-गणिणीए गुण-णाणं अणग्य-पद-पत्तणं अग्धं णिरवपामि साहा । - संति-भावं [चामरछंद] णाण-जुत्त-मोह-मत्त-सस्थ-अस्थ-संजुदा रोस-मुत्त-सव्व-गत्त-धम्म-सम्म-सासदा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला महम-धरा गुण-गाण-गुणेणं वाद-णिमिते गंग-णीर-सच्छ-भाव-पाद-धूल-खालणे तुम्ह पूद-सस्थ-सूद-माणसे हि राजदे ॥ १० ॥ इदि संतिभावं पुष्पंजलिं णाणं च झाणं महधीर-भावं, तुम्हे सुसोहेदि गणिज्ज-विज्जा । तं णाण-झाणं लहिदुं च अम्हे, पुष्पंजलिं दिव्व-गुणाण जुत्ता ॥ ११॥ इदि दिण्वु-पुफंजलिं -जयमालातिल्लछंद - महभत्तिजुदा जयमाल-गुणा । मह-सद्ध-धरा गुण-णाणमदी ॥१॥ ग्राहा-छंद - जा सम्ममदी गणिणी, णाण-गुणेणं चहु णाणमदीओ। गच्छदि णिच्चं झाणे, णाण-पसारण-हेदु-णिमित्ते ॥ २ ॥ विद्धि-विण्णाण-हेदूं, सद-सत्थ-गहीर-सामर-तरणे। सरसई ण सरसवई, गुणी-जणाणं गुणग्गाही ॥ ३ ॥ मादा तुह तरंगवदी, दोहिं भुजगेहिं तरदि च तासिं । गंग-सम-पवित्त-मदं , पसण्णधी-णाण-मदी मादा ॥ ४ ॥ जाए जाए जोदी, सत्त-तच्च-पगास-गुण-महणिज्जा। णं सत्त-भंग-जोई, जोदिदे-सव्व-जणाण हिदं ॥ ५ ॥ तुह सरद-पुण्णिमाए, जम्मे जाएण सरद-सम-सोम्मा। मयणाए किल-किंचा, पसरदि सव्वे च भूभागे ॥ ६ ॥ सा धण्णा अदिपुण्णा, ममत्त-मादं परिच त्तिदूणं । धारेदि सदा समदं, समदं समयं जिणसासणं च ॥ ७ ॥ गुरुसंत-सुहा-जुत्ता, वीर-सिंधुणा महवीर-गुणाणं । सा सरद पुण्णिमाए, अप्पहिदे अमिद-पुण्ण-पुण्णा ॥ ८ ॥ वद-समिदि-जोग-जुत्ता, भए-मुत्ता झाएदि सा सम-णाणं । सडआवासग- कम्म, समाचरेदि मुणि-गुण-मग्गं ॥ ९ ॥ लज्जा-विणए भावे, वेरग्ग-रसे णिमग्ग-भूदा सा । अजाणं अजगुणं, धारेदि सा सिव-मग्ग-गुणं ॥ १० ॥ णाणा-पुराण-णिगम, सिद्धंत-सार-गणिय-विज विजं । णं सत्थ-समुद्द-तरं, मूलोत्तर-गुणं लहिदुं चरे ॥ ११ ॥ पुराण-पसिद्ध-णयरे, पुराण-पसिद्ध-दीव-संरयाए । णं दीवाणं दीवं, जंबूदीवस्स दीसेदि च ॥ १२ ॥ सुवास-छंद - गुरु-गुण-जुत्तउ.. बहु-गुण-रत्तउ । तुहपह-सम्म-गणिणि-गुण-वंदउ ॥ १३ ॥ ओं ही सिरी-णाण-मदी-गणिणीए गुण-णाणं जयमाला पूण्णगं णिरवपामि साहा । -णाण-मदीए णाणस्स आरदी - आरदी णाणमदीए, गणिणी-णाण-मदीए, गणिणी णाणमदीए । तव-गुण-झाण-गदीए, भव-दुक्ख-मुत्त-मदीए ॥ तुह वंदण-दुह-कंदण, अण्णाण-तिमिर-दहणे । दिव्व-देसणा-सुह-णाणं, मह-महणिज्ज-मदीए ॥ १ ॥ आरदी णाणमदी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२०५ संतिसायरे ण्हाद-भूद तुह, मह अदिसंति-सदीए । जेणं हं कम्म-कलंक, कलणं जाएदे वि णिच्च ।। भो वीरसिंधु सीसा, वीरगुणाण मदीए । तित्थयर-वीरपहुस्स, गुण-गंभीर-गदीए ॥ २ ॥ आरदी णाण-भदीए तुह सिद्धत-पुराणं, पारं सच्छ-मदीए । चरणे तुह गुण-गहणे, राजिद-बाल-जदीए ॥ णाणा-णाण-गुणाणं, गुण-कंठे भव-हरणे । रयणत्तय-गुणजुते, रयणा-रयण-मदीए ॥ ३ ॥ आरदी णाण-मदीए तुह जंबूदीव-दीवं, दीवेदि णाण-जोदीए । सयलं णर-णारीणं, पेरग-सुह-भत्तीए ॥ मह अह-णाणं णाणं, णाण-गुणेहिं गुणीए । उदयो उदियं णाणं, गणिणी णाण-मदीए ॥ ४ ॥ आरदी णाण-मदीए पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी चे पूजन - सौ० शोभना शहा, अकलूज [महाराष्ट्र! स्थापना भरत क्षेत्री टिकैत नगरी रम्य आणि सुंदर । छोटेलाल मोहिनी दंपती असती धर्मशील ॥ कुशीत त्यांच्या जन्म घेतला ज्ञानसुंदरीने । मूर्त रूप धारण केले जणु स्वर्गिय तेजाने ॥ मातामहानी संबोधियले "मैना" नावाने । सज्ज जाहली “मिथ्या" नाशा अपुल्या ज्ञानाने ।। ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी, अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं । -अष्टक मी अज्ञानी बालक तुमच्या आश्रयाती आले । तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणिन मज भावले ॥१॥ भवाभवातु नी भटकत् आले तृष्णावश होवूनी, शांतविल मजसी तू माते ज्ञानामृत देवूनी कृतज्ञतावश जलाय॑ मी हे तव चरणी अर्पिते Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणि न मज भावले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ सुगंधी सुमने, आणि चंदने, सुशोभिली धरती परि तव ज्ञानाचा मृदु सौरभ श्रेष्ठ असे जगनी सुगंध लुटण्या त्या ज्ञानाचा, उत्कंठित झाले तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणि न मज भावले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ नश्वर माया संसाराची, सुख तेथे शोधिले दीपगृह तुम्ही बनुनी दाविले, वैराग्यी ते दडले अक्षय सुखनिधी प्राप्ती साठी, तव प्रवचनीमीरमले तुम्हां वाचूनी या जगतांमध्ये कुणी न मज भावले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ मदनाग्नित हे जग जळते नि, भ्रांत होवूनी फिरते कितो मदनाला त्या निष्प्रभ केले, वैराग्याचे शरसंधुनी मिळतां तुमची स्नेह सावली मन हे माझे शांतवले तुझ्या वाचूनी या जगतांमध्ये, कुणी न मज भावले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी कामवाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ भवाभवांतुनी, त्रिलोकाहूनी, अधिक भक्षिले अनराशी परि ही क्षुधा न मिटलो जीवाची, मिळे न त्यासी कधी शांति आत्म्याच्या चिरतृप्तीसाठी, तव वाणरिस प्राशियले तुझ्या वाचूनी या जगतांमध्ये कुणी न मज भावूनी गेले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ रविकिरणानी दिशा उजळल्या, बाहय वैभव जगताचे ज्ञानज्योतीने प्रकाशिले तुम्हो, अंतवैभव आत्म्याचे श्रेष्ठ ते वैभव लाभण्यास्तव दीप घृताचा लाविते तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणी न मज भावूनी गेले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ कमनि मज भ्रमणविले या अनंतभवसागरी अती। तपत्यागाची शक्ती दिली तुम्ही नष्ट कराया कर्मगती तुमच्या सन्मुख धूप जाळिला, कर्म नाशण्या आत्म्याचे तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणी न भज भावूनी गेले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी अष्टकर्म विनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ आंबा, पेरु, डाळिंब, द्राक्षे, मधुरमफळं मी चाखियले Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२०७ परि अमृतमय ज्ञानफळासो तुम्ही भक्तिने स्वादिले ज्ञानाचा रस-अनुभूति करिता, लैकीक फळ मी अर्पिते तुम्हावाचूनी या जगतांमध्ये कुणी न मज भावूनी गेले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ धारण केले पिछी कमंडूल, आर्यिकापद गौरविले सद्य युगाची आद्य बाळसती, किती बाळयती घडविले अष्ट द्रव्यांची ओंजळ वाहूनी, प्रेमभक्तीने रसरसले तुम्हा वाचूनी या जगतांमध्ये कुणि न मज भावूनी गेले ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ शांतिधारा हे माते तू ज्ञानगंगेचा तेजस्वी प्रवाह । गंगा, हिमालयाची झाली तुजपुढे निष्प्रभ ॥ हृदयपात्री तव ज्ञानजळ मी भरभरुन घेते । त्यामधल्या जळबिंदूनी तुज शांतिधारा अर्षिते ॥ शांतये शांतिधारा . . . . . . पुष्पांजलि अनेकांत स्याद्वादाच्या त्या विशाल बागेतुनी माते तव ज्ञानाची पुष्पे अगणित बहरुनी झाली त्या पुष्पातील मधुरस पिण्या मी भ्रमरी होईन शब्द फुलांना घेवूनी करी या तुज चरणी वाहिन दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत् जयमाला दोहा ज्ञानमतीला नित नमिते मी । ज्ञानपुण्य मम बहरुन यावे ॥ ज्ञान किरणाच्या तेजाने । जीवन मंदिर उजळूनी जावे ॥ [चाल - ओ रातके मुसाफिर] हे माते ज्ञानमती ! पावनतेची मूर्ती शुभ अर्घ्य करो घेवोनी, आले दुःझ्यादारी ॥ ६ ॥ शरदाची होती रात्र, पौर्णिमेचा तो चंद्र किरणांच्या झुल्या वरुनी, अवतरली धरतीवर झाली तो धन्य माता, झालेच धन्य पिता तव तेज निरखिताना, झाली ती धन्य नगरी ॥ १ ॥ वय होते बालपणाचे, मनो भाव वैराग्याचे ओढाळ वासरु समते, तोडी बंधन मोहाचे Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ॥ ॥ स्वाध्याय साधनी रमतां, सद्गुरु संग मिळतां मैनाने पद रोवियले, मुक्तीच्या पथावरी ॥ २ शांतिसागर आचार्य, वीरसागर प्रथम शिष्य आशीश फलानी त्यांच्या घेतली भरुनी ओंजळ शिष्यत्व लाभले त्यांचे, बहरले मळे ज्ञानाचे सौरभली सारी धरती, सौरभले अंतरंग ॥ ३ तव प्रेरणेने माते साकारे जंबुद्वीप ओसाड माळ झाले, अतिरम्य पण्य क्षेत्र गतवेभव पुनश्च दिधले, हस्तिनापुर भुमसि पाहतां हृदय हे भरते, उत्तुंग सुमेरुस ॥ ४ ॥ ज्ञानाची ज्योत पेटविलो, भारतभर तिज फिरविलो जन प्रबोधनास्तव आपुली, काया ही किती शिणवीली नामास सार्थ केले, ज्ञानाचे दान दिले साहित्य सृजन करुनी, अज्ञान नष्ट केले ॥ ५ ॥ हे माते ज्ञानमती, पावनतेची मूर्ती शुभ अर्घ्य करो घेवोनी, आले तुझ्या द्वारी दोहा परिसाचा स्पर्श होतां, लोखंडाचे झाले सुवर्ण । माते ! तुमच्या सत्संगाने, जग होईल परिसरूप ॥ ओम् ह्रीं श्री ज्ञानमती माताजी जयमाला पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा । दोहा ब्राह्मी सुंदरीची पाऊलवाट ज्ञानमतीने अंगिकारिली या शतकांतील पहिली बाळसती होवूनी नारीवी शान वाढविली इत्याशीर्वादः पू० ज्ञानमती माताजींची आरती [चाल- ओम जय महावीर प्रभू ] ओम् जय श्री ज्ञानमती, गणिनी श्री ज्ञानमती भावे करिते आरती, होण्या शुद्धमती ॥ 5 ॥ माते जय श्री . . . तुझ्या दर्शने आणि स्तवने, होईल दूर अज्ञान तुझी देशना मिळतां, हृदयी वसे शुभ ज्ञान ॥१॥ माते जयश्री . . . शांतिसागरजींचे, प्रथम पह वीरसागर शुभ शिष्येचा त्यांच्या, तुम्हा मिळे सम्मान ॥ २ ॥ माते जयश्री अमोल ग्रंथा रचुनी तुम्ही, साहित्य समृद्ध केले देवी जिनवाणीला, सूमुर्त रूप दिले ॥ ३ ॥ माते जयश्री . . . . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२०९ अपूर्व त्याग करोनी बने, तुम्ही पहिली बाळसती तव पदी येतां झाले, अनेक बालसती ॥ ४ ॥ माते जयश्री .... पारसमणी सम तुम्ही, पारस केले किती सुवर्ण किती एक झाले, त्यास नाही गणती ॥ ५ ॥ माते जयश्री .... मात पिता छोटेलाल मोहिनी, हनिही सजले त्यांच्या सदनी जन्मुनी, त्यांसी धन्य केले ॥ ६ ॥ माते जयश्री . . . . . जंबूद्वीप साकार ही करण्या, तुमची असे प्रेरणा ज्ञानज्योत लावियली, आत्मज्योत प्रकटण्या ॥ ७॥ माते जयश्री .... सरस्वतीची प्रतिमूर्ती तुम्ही, चरणी शरण तुमच्या ज्ञान सिंधू तुम्ही असतां, मम तष्णा शमवा ॥ ८ ॥ माते जयश्री . . . . भक्ती भावे तुम्हास स्मरतां, "शोभना" लीन झाली तव गुण गांतां गांतां, देहभान हरपली ॥ ९॥ माते जयश्री .... चारित्रशिरोमणि श्री ज्ञानमती अष्टक -श्री आर्यिका अभयमती वसंततिलका छंद श्री ज्ञानमति गुरू है जग से निराली । रक्षा करो लह सुबुद्धि सुविश्व प्यारी ॥ जो दिव्य ज्योति तुम भू पर है प्रकाशा। अज्ञान प्राणिनि मिली सुख की दिलाशा ॥१॥ है धन्य-धन्य शुभ ग्राम टिकैतनगरी । छोटेसुलाल पितु माता मोहिनीजी ॥ हो पुत्रि जन्म शुभ नाम धरा सुमैना । ले बालपन्य सुविराग बने सुहाना ॥ २ ॥ संसार खार लख सर्व कुटुंब छोड़ा । श्री "आर्यवेष" धर आतम प्रीति जोड़ा। जो केशलोंच कर जैन सती कहावे । निर्दोष शुद्ध तप को कर स्वर्ग जावे ॥ ३ ॥ ज्यों सूर्य ताप लख व्याकुल जीव सारे। संताप हारि जल चंदन चन्द्र प्यारे ॥ त्यों आप ज्ञान बल से तम को नशाया । चन्दा समान कर शीतल विश्व छाया ॥ ४ ॥ श्री हस्तिनागपुर में चउमासकीना । आश्चर्य कार्य करके निज आत्म लीना ॥ श्री क्षेत्र उन्नति गुरू करके दिखाना । जंबूसुद्वीप बन पर्वत शिष्य नाना ॥ ५ ॥ सारे प्रदेश में आप विहार कीना । कर्नाटकादि सबमें उपदेश दीना ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कल्याण मार्ग बतलाकर शुद्ध कीना । चारित्र संयम बिना कह व्यर्थ जीना ॥ ६ ॥ चारों नुयोग पर शास्त्र सभा किया है। जो स्याद्वाद मय सूक्ति रचा दिया है । ऐसी अलौकिक छवी विधि ने किया है। जो तीर्थ रूप जग को चमका दिया है ॥ ७ ॥ है लोक शासन अजेय गुरु तुम्हारा । नेता बनीं पतित को भव से उबारा ॥ श्री वीर सिंधु गुरु की शिष्या हुई तुम । कीजे विशद्ध “अभयादिमती' मुझे तुम ॥ ८॥ वन्दन - गीत -क्षु० शीलसागर महाराज तर्ज :- जय बोलो महावीर स्वामी की जय बोलो आर्यिका माताकी, जय बोलो ज्ञानमती माता की। जो टिकैतनगर में जन्मी है,जिनकी माता मोहिनी देवी है। जो छोटेलाल की पुत्री हैं, जय बोलो . . . . . . . ॥ १ ॥ जो देशभूषण की शिष्या हैं, जो वीरसागर की दीक्षित हैं। उन मुक्ति-पथिक अभिरामी की, जय बोलो . . . . ॥ २ ॥ जिन आतम ज्ञान उपाया है, जो केवलज्ञान का कारण है। उन सम्यग्ज्ञानी माता की, जय बोलो . . . . . . . ॥ ३ ॥ जो ग्रन्थ अनेक रचाए हैं. भव्यों को बोध कराए हैं । उन महाव्रती गुणधारी की, जय बोलो ...... ॥ ४ ॥ जो जम्बूद्वीप की प्रेरिका हैं, हस्तिनापुर तीर्थ प्रकाशा है। उन भव्यजनों के तारक की, जय बोलो . . . . . . ॥ ५ ॥ जो सिन्धु में मोती ढूँढा है, रवीन्द्र-सा रतन पाया है। चन्दनामाता महकाई है, जय बोलो ........ ॥६॥ ये रत्नमती का खजाना है, जो धर्म रतन मन लाना है। वो "शील क्षुल्लक" कल्याण करे, जय बोलो ... ॥७॥ मैं शत-शत वन्दन करता हूँ, दिन-रात भावना भाता हूँ । मैं बनूँ महाव्रती कर्म हरूँ, जय बोलो . . . . . . ॥ ८ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२११ "गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की जय हो" -ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, अध्यक्ष : जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर गए और जाएंगे कितने मुक्तिधाम को जिनवर । णि प्पिच्छो निर्वाण नहीं पा सकते कोई मुनिवर ॥ नीति यही कहती है क्रम से व्रत का पालन करना आज नहीं तो कल सिद्धी कन्या है तुमको वरना ॥ १ ॥ र्यि शब्द की महिमा ऋषि मुनियों ने है बतलाई । काम, क्रोध परनिन्दा तजकर आत्मरमण कर भाई ॥ रत् रहना शुभ ज्ञानध्यान में यही आपका लक्षण । नहीं लुभा पाया दुनिया का वैभव तुम्हें किसी क्षण ॥ २ ॥ श्री बाह्य लक्ष्मी को तज अन्तरलक्ष्मी को पाना । ज्ञाता बुद्धी से शास्त्रों में पढ़कर उसको जाना ॥ नमन किया गुरु आदर्शों को सच्चा पथ अपनाया । मनन किया शुभ शास्त्रों का तब जम्बूद्वीप बनाया ॥ ३ ॥ तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुरी को भारत में चमकाया । मान नहीं सम्मान नहिं अपमान डिगा नहीं पाया । तान वही वीणा को ले इक सोता तीर्थ जगाया ॥ जीना है तो संघर्षों से डरो नहीं बतलाया ॥ ४ ॥ की है न्यायनीति जो उस पर अमल सभी को करना । जय हो गणिनी ज्ञानमती जी जय तेरी गुण गरिमा । धरती माता तुझसी माता पाकर धन्य हुई है। मेरी नमित कराञ्जलि में पुष्पाञ्जलि धन्य हुई है ।। ५ ।। अविस्मरणीय क्षण -बा० ब्र० कौशल वन्दन के साथ रत्नत्रय साधना का रूप देखने को मिला । शरीर में पीड़ा होते हुए भी चेततापूर्ण सजग व सावधान थीं । परिचर्या भी हो रही थी । किन्तु, उस ओर कोई अपेक्षा नहीं । कुछ ऋषि प्रणीत सम्बोधन हुए । दवा से बढ़कर प्रार्थना शक्तिशाली होती है । शरीर से अधिक आत्मबल श्रेष्ठ होता है । वही सजीव दृश्य देखने को मिला । चेतना से जागरूक अथवा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आत्मबल से शरीर बल-प्राणवान् हो गया । मेरे मन को बड़ा चैन मिला और प्रेरणा भी । जनवरी का महीना था कड़ाके की शीतलहर प्रातः का झुटपुटा समय कोहरा ऐसा कि हाथ को हाथ नहीं दिखता था मैं वीतराग प्रभु के दर्शन कर चारित्र व संयम की जीवन्त जंगम प्रतिमा की वन्दना को अकेली बढ़ चली । धीरे से कमरे का दरवाजा दबाया कि, खुल गया सामने कोने में एक कृशकाय श्वेत वस्त्र में स्वनाम धन्य अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी निपट अकेली अपने अध्ययन में तल्लीन थी । पदचाप की तनिक-सी आहट से उसका ध्यान भंग हुआ मुझे ऐसा लगा, जैसे-मैंने व्यवधान पैदा कर दिया हो। चर्चा हुई । मन को बड़ा अच्छा लगा । ज्ञानमय-चेतना से मिलना सुखदायी प्रतीत हुआ । मैं फिरउनकी चर्या में अधिक बाधक होना नहीं चाहती थी । मैं लौटी, कि वे अपनी साधना में पूर्ववत् पुनः तल्लीन हो गईं । दो वर्ष उपरांतएक दिन वर्षायोग के उपरांत हवा के साथ उस योगिनी के स्वास्थ्य के विषय में विकट सूचना दी । मन में एक स्फुरना हुई । मैं सरधना से दौड़ी गई । मैं सोच रही थी ज्ञान-ध्यान व तपोरत आत्मा एक ओर तो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं अन्तरात्मा है दूसरी ओर बाहरी जगत् में इतनी तीव्रगति अद्भुत निर्माण जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक धरोहर होगी । अन्तर और बाहर का यह समुच्चय सभी के लिए अभिवन्दनीय है। उस तपस्विनी ने मुस्कराकर बड़े स्नेह से पास बिठाया। कुशल मंगल के साथ पौराणिक विश्व रचना पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२१३ श्रीमात के दरश से आनन्द आज छाया - द्रौपदीबाई जैन-आरा तर्ज - दिन-रात मेरे स्वामी मैं भावना ये भाऊं .... श्रीमात के दरश से आनंद आज छाया । अज्ञान तम हटाकर सत्पथ हमें बताया ॥ कैसी विरागी अनपम शांति छवि निराली । करके कठिन तपस्या तन से ममत्व भगाया ॥ श्रीमात० ॥१॥ जिन भाग्य की परीक्षा करने खड़ी थी द्वारे। सौभाग्य आज मेरा अनमोल निधि को पाया ॥ श्रीमात० ॥२॥ है शुद्ध अन्न जल है हे मात ! तिष्ठो-तिष्ठो । देकर परिक्रमा त्रय आसन पैजा निठाया ॥ श्रीमात० ॥ ३ ॥ मस्तक विषे लगाया प्रक्षाल कर चरण का। वसु द्रव्य लेय पूजे चरणों में सिर झुकाया ॥ श्रीमात० ॥ ४ ॥ मन, वचन, तन की शुद्धि कह ग्रास जब दिया है। मानो कर्म जलाएँ नर भव सफल बनाया ॥ श्रीमात० ॥ ५॥ शाप को वरदान तुमने कर दिया -ब्र० कैलाशवतीजी, सरधना रो रही थी जिन्दगी जो आँसुओं में । आँसुओं को गान तुमने कर दिया। सोचती होगी नियति, आहत हुई तुम, मूर्त मानो वेदना का, व्रत हुई तुम । अब शिथिलता व्यापी, सूनापन निरन्तर मौन का आह्वान तुमने कर दिया, शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ १ ॥ स्नेह कुंठित रह गया था, राह दी तुमने, कर्म निज भावना की थाह ली तुमने। कह चुके थे सब कठिन पत्थर कि जिसको, मूर्ति को भगवान् तुमने कर दिया, शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ २ ॥ रह गया हारा थका-सा चाँद ऊपर, कौन “चन्दा" दूसरा यह आज भूपर, शुभ्र ज्योत्स्ना से तुमने आलोक भर दिया। शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ ३ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "श्री ज्ञानमती माता जी " - कयामुद्दीन मुन्तर नगीनवी १३७, कोठी अतानस, मेरठ जिस तरह फूल को देती है जनम खिलके कली, ऐसे मैना से बनी ज्ञानमती माता जी । ज्ञान सा ज्ञान है इन ज्ञानमती माता को, हक़ की पहचान है इन ज्ञानमती माता को । धर्म की खोज है जिन लोगों को वो इन से मिलें, इनके उपदेश सुनें इनकी किताबों को पढ़ें । ऐसी माता को ब्रह्मचारिणी नारी कहिये, और अहिंसा में अहिंसा की पुजारी कहिये । जीवनी आपके जीवन की बताती है हमें, आज के वक्त की आचार्या हम इनको कहें । हर ग्रन्थ इनका है मानव की भलाई के लिये, यानी हर पाप से हर दुःख से रिहाई के लिये । जम्बूद्वीप इनका करिश्मा है चमत्कार है यह, आप पर लार्ड महावीर का उपहार है यह । हस्तिनापुर को बहारों का नगर कर डाला, इसने ही ज्ञानमती नाम अमर कर डाला । इनसे मिलने के लिये मैं भी गया था मुज्तर, इनके दर्शन से सुकून दिल को मिला था मुज्तर । ज्ञानमति हे तुम्हें नमन - निर्मलचन्द जैन "आजाद" जबलपुर [म०प्र०] जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, ज्ञानमति हे तुम्हें नमन । ज्ञान ध्यान वैराग्य साधिका, ज्ञानमति हे तुम्हें नमन ॥ दृढ़ निश्चयी तपोमूर्ति, विदुषी माता तुम्हें नमन ॥ सम्यग्ज्ञान की ज्ञान साधिका आर्षमार्गी का तुम्हें नमन । शरद चाँदनी सम तुम चमकी, अवध प्रान्त के प्रांगण में । खिल उठी बगिया धनकुमार सुत श्री छोटेलाल के आंगन में । वीर के पथ पर चली वीरमति, देश भूषण के चरणन में । शांति दर्श किये कुंथलगिरी में, वीर गुरु के चरणन में ॥ बनी आर्यिका ज्ञानमती अब, ज्ञानार्जन का लक्ष्य किया । जैन ध्वजा सम्पूर्ण देश में, फहराने का संकल्प लिया । शिवसागर महाराज संघ रह, ज्ञान ध्यान उपवास किया । उत्तर दक्षिण सम्पूर्ण देश में, पद यात्रा विहार किया ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य क्षेत्र में जिनवाणी व. साहित्य सृजन शतक अर्द्धशतक ग्रन्थों की, रचना को नवरूप दिया || में ध्यान दिया । Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम" महातपस्विनी, ज्ञान भूषिणी, दिव्य तेज की शुभ्र महान । परमपूज्य आदरणीय देवी ज्ञानमती माँ तुम्हें प्रणाम ॥ धर्म विभूति कर्मस्वरूपी सत्य शोध की कल्याणी । धन्य किया है तन मन अपना, पावन माँ महिमाशाली ॥ प्राणवान जो जन समाज की, गाता जग जिनका है नाम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ धर्ममार्ग ही सच्चा सुख है, जिससे पाना शिवसुख धाम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ निवृत्ति मार्ग की हे साधिका, भक्ति र्शिका तुम्हें नमन । धूम मची चहुँ ओर देश में, श्रेष्ठ आर्यिका तुम्हें नमन ॥ यह संसार असार जानके, वैभव सारा ठुकराया । जल वुदवुल जाना है जग को, त्याग मार्ग एष अपनाया ॥ परिवारजनों से ममता तोड़ी, घर की मैना थी ज्योति । मन की आशाएँ सब मन में, माता-बहिनें थी रोती ॥ उचित यही था मैना हित में, शिव-साधन का करना काम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ समझाया था तब माता ने, मोह पाश से जो जकड़े । कर्ममोहनीय महाप्रबल है, रखे जीव को वह पकड़े ॥ भाव शुभाशुभ के कारण ही, नरक-स्वर्ग चेतन पाता । करनी से जब काँटे बोये, फूल आश की क्यों रखता ॥ सम्यक्त्व पताका कर में लेकर, धर्मध्यान का संबल थाम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ — अन्तःमन शुभकार खुले, औ चली साधना के पथ में । अन्तः वाह्य परिग्रह तजके, बनी आर्यिका शुभ पद में ॥ आत्मप्रभु से मिलन न जब तक, तब तक है सुख-चैन नहीं । स्वयं स्वयं में ईश देव का, दर्शन सच्चा मिले सही ॥ धन्य हो गयी धरा आज है, पाके ज्ञानमती शुभ नाम । श्री आर्यिका माताजी को शतशः बारम्बार प्रणाम || शशि प्रभा जैन शशांक - आरा ज्ञान-धर्म शुभ कर्म कला से माँ श्री का जीवन निर्मित । जिनकी पूजा औ अर्चन से, जन पाता है सुख सुरभित ॥ ममता समता की देवी का कर ले मिलके अभिवन्दन । पावनता की दिव्य शिखा का, जन-मन करता नित वंदन ॥ For Personal and Private Use Only 1२१५ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मातृभूमि यह महायशी है, शक्तिरूपा को पाके । देवराज तक नत होते हैं, जिनकी तप महिमा गाके ॥ जिनकी ज्ञान किरण विकसित है, नभ-वसुधा में अनुपम देख । परम श्री आदरणीया का, कंचन-सा पथ पावन नेक ॥ महामनीषी आज धरा की, शोभित करती काम समान । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ संयम तप की शुभधारा से जो भी कभी नहाता है । अतिशयी वह हो जाता जग में, सबके कष्ट मिटाता है । शाश्वत सद्भावों से ही, जीवन यशमय है बढ़ता । मानव तन है धर्म कसौटी, फेंके मिथ्यावी जड़ता ॥ रत्नत्रय के पथ पर बढ़कर, पाता क्रमशः शिवसुख धाम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ जिस-जिसने तव दर्शन पाया, जन्म-जन्म का पुण्य लिया । अर्चन से कृतकत्य हुआ है, मानव तन को धन्य किया । यशस्वती बन कुन्दन चन्दन, सी सुरभित है जन-जन में । पूर्णमासी की ज्ञानचन्द्रिके, कार्यशक्ति बिखरी तन में ॥ समता क्षमता की देवी की, छाया पाकर सभी ललाम । ज्ञानमती माताजी को है शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ संभव किया असंभव को भी, जाएँ देखें धर्मस्थल । नाम हस्तिनापुर महिमामय, नत हो जाते देखें खल ॥ पत्थर दिल पारस हो जाता, नीरसता को किया सरस । शाप मिटाने इस धरती का, पावन व्रत ले बढ़ी हरष ॥ धन्य-धन्य हे ज्ञान श्री तेरी भक्ति दे शिवसुख धाम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ यह पावन अभिनन्दन बेला, शुभ अर्चन से धन्य करूँ । रवि को क्या मैं शमा दिखाऊँ, पथ तेरा चल कर्म खपूँ ॥ शब्दों के शुभ शब्द चढ़ाके, श्रद्धानत हूँ माँ आगे । मिले मातु-सी शक्ति हममें, दे आशीष की वह जागे । यथा नाम तत गुण से शोभित, नारी तन की दिव्य महान । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ जब तक सूरज-चाँद गगन में, गंगा-यमुना में पानी । मातु श्री हे ज्ञानमती जी, तेरी गरिमा हो शानी ॥ तारागण-सी छवि रहे, और रहें चाँदनी-सी उज्ज्वल । ज्ञान-स्रोत को रखें प्रवाहित, जय तेरी हो नभ और थल ॥ यही कामना माँ चरणों में, शुभाशीष दें शुभ हो काम । ज्ञानमती माताजी को है, शतशः बारम्बार प्रणाम ॥ शतशः बारम्बार प्रणाम। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२१७ "मेरी चिन्तन धारा" - फूलचन्द जैन "मधुर" सागर [म०प्र०] [३] जब से अपने इस जीवन में, समता का मधु-रस घोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [१] देकर भौतिकता को महत्त्व, भूले थे अब तक हम स्व-तत्त्व । त्यागा जब से उन भावों को, जड़ कर्म बन्ध को खोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [२] है ज्ञान युक्त चेतन अरूप, जाना जब से अपना स्वरूप । तब से अपने हाथों हमने, निज मुक्ति द्वार को खोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ पर में अपना कुछ स्वत्व नहीं है निज में पर का कुछ तत्त्व नहीं । यह जीव चिरन्तन अविनाशी, जग में, घट-घट में डोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ [४] पा राग-द्वेष से मुक्ति हमें, तजना जड़ की अनुरक्ति हमें । जिससे न बदलना पड़े कभी, इन पर्यायों का चोला है ॥ प्रमुदित होकर मेरा यह मन, माँ ज्ञानमती ही बोला है ॥ ज्ञानमति माताजी का देखो चमत्कार -बी० एस० जैन, फिरोजाबाद ज्ञानमति माताजी का देखो चमत्कार- भाई देखो चमत्कार अतिशयोक्त जम्बूद्वीप अद्भुताकार . . . २ बाल्य-अवस्था से तप कीना । जैन धर्म युत सुन्दर जीना । जीवन अपना किया साकार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमती माताजी का देखो . . . विश्व प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया । जम्बूद्वीप ने नाम कमाया । मइया का सब बोलें जयकार अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार ॥ ज्ञानमती माताजी का देखो . . . कमल का मन्दिर सुन्दर रचना । बाग बगीचा अनुपम सपना । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला यात्री बन्धु का हो सत्कार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमती माताजी का देखो . .. माँ का सुर नर वन्दन करते । आशीश लेके धन्य समझते ॥ मइया का सुन्दर व्यवहार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमतीमाता जी का देखो . . . हस्तिनापुर का था ये जंगल । मइया ने कर दिया है मंगल || जिनवर भक्ती है उपकार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमती माताजी का देखो . . . "बी०एस०" धन्य हुआ यहाँ आकर । मइया के शुभ दर्शन पाकर ॥ मइया की शक्ति नवकार । अतिशयोक्त जम्बूद्वीप सुन्दर आकार || ज्ञानमती माताजी का देखो . . . ज्ञानमती माताजी का देखो चमत्कार-देखो चमत्कार अतिशयोक्त जम्बूद्वीप अद्भुत आकार || दे ज्ञानमूर्ति माँ वन्दन है - लालचन्द्र जैन, टिकैतनगर सादर माता अभिनन्दन है । चिर स्वप्न कल्पनाओं को तू, साकार रूप देने वाली । निज कठिन तपश्चर्या से है, आतम समरस पीने वाली । जिन धर्म ध्वजा विश्वाँगन की छाती पर लहर-फहर जावे । उद्देश्य बना निज जीवन का, कल्याण स्वयं करने वाली । तेरे चरणों में वंदन है । सादर माता अभिनन्दन है ॥ १ ॥ मानवी नहीं देवी है तू, शुभ कल्याणी गुण होना है । भस्म कर रही स्वयं त्याग से, कामदेव की सेना है । आज पा रहा विश्व तुझी से, मार्ग सतत सीधा सच्चा । विस्मृत जगत निहार रहा है, सचमुच में तू मैना है । पद कुंजों में मम प्रणमन है। __ सादर माता अभिनंदन है ॥ २ ॥ था साहस कौन विरोध करे, तेरे वैराग्य विचारों को । था वीर कौन जो रोक सके, तेरे शुभ बढ़ते कदमों को । अपनी-अपनी कह थक हारे, कर सके न परिवर्तित निश्चय । निर्मम निर्द्वन्द्वं निकल चल दीं, बस कर्मों के झुलसाने को । अपनी श्रद्धा तव अर्पण है। सादर माता अभिनन्दन है ॥ ३ ॥ गृह बंधन की दीवार तोड़, चल पड़ी सुपथ देखो मैना । परतंत्र श्रृंखला दूर हटा, बढ़ चली धर्म पथ पर मैना । थी जन्म वीर बन वीरमती, से ज्ञानमती बन कर मैना । दुनिया को शांति सुपथ देने, उड़ चली आज अपनी मैना । पुलकित श्रद्धा से जन मन है। सादर माता अभिनन्दन है ॥१॥ भूल सकेगा कौन तेरे, साहित्य-सृजन उपकारों को । शुचि जम्बूद्वीप-सुमेरु-कमल मन्दिर, वाटिका विहारों को । उपदेशामृत के अवगाहन से, जन-जन नम्रीभूत हुए । तूने निज त्याग-तपस्या से, सत्पथ दिखलाया मानव को । हे ज्ञानमूर्ति माँ वंदन है। सादर माता अभिनन्दन है ॥ ५ ॥ चिरयुग तक तेरी दया दृष्टि का, आभारी माता हूँ मैं । तेरे इंगित को लक्ष्य बना, सुखशांति सतत पाता हूँ मैं । जीवन को पूर्ण दुरूह विषमताओं का दे हल आज सुलभ । मन-वच-तन नम्रीभूत चरण पर, अभिनंदन करता हूँ मैं । चारित्र मूर्ति पद अर्चन है। सादर मात अभिवंदन है । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ उनको मेरा अभिवन्दन है Jain Educationa International तर्ज- [साजन मेरा उस पार है ।] जिनके चरण में सुर वन्दन है । उनको मेरा अभिवन्दन है ॥ [१] मोहिनी देवी बड़भागी है, जिनने मैना उर धारी है । पावन हुई रज चंदन है | उनको० ॥ [२] बचपन से माता विरागी थीं, धरम में चित को पागी थीं । संगति ने कीना उन्हें रंजन है | उनको० ॥ [३] विषयों को विष सम छोड़ा है, संयम से नाता जोड़ा है । हर्षित हुआ तन अन्तर्मन है | उनको० ॥ देह के तल पर नारी - सन्तान को प्रसव कर माता बनती है । विदेह के तल पर नारी- ज्ञान को प्रकट कर माता कहलाती है । आर्यिका शीर्ष ज्ञानमती माता नारी जाति की - वह निरभ्र उज्ज्वल प्रमाण हैं, जो ज्ञानावरणी के क्षयोपशम से [ ४ ] आर्यिका पद को लीना है, मुक्ति का मारग चीना है । न जिनेन्द्र लघु नन्दन है | उनको० ॥ [4] मैना-मैं-ना यह जाना है, पुद्गल का पहना बाना है । बन्दना - अभिवन्दना है - - कर्मों का करना अब खण्डन है | उनको० ॥ [६] विश्व में प्रथम माता ज्ञानमती, रचना की जम्बूद्वीप बालयती । गजपुर को कीना हरा उपवन है | उनको० ॥ [७] ज्ञान गुणों की भण्डारी हो, जन-जन की उपकारी हो । शास्त्रों की रचना कितनी अनुपम है | उनको० ॥ [C] बुद्धि प्रखर माता पाई है, जिसको लेखन में लगाई है । कार्य कुशलता का निर्देशन है | उनको० ॥ [९] कोटि नमन माता करती हैं. चरणों में शिर को रखती हूँ । आतम बने मेरी कंचन है । उनको मेरा अभिवन्दन है । बाल ब्र० मनोरमा जैन शास्त्री, बी०ए० प्रो० पं० निहालचंद जैन, बीना [मध्य प्रदेश ] ज्ञान की अक्षय चिन्मयताएँ - प्रसव करविराट् माँ बन गयीं । सबकी माँओं की पूज्य "आत्म-मी" बन गयी । हे माता तुम्हारे अन्तस्तल में, For Personal and Private Use Only [२१९ सत्त्वेषु के लिए करुणा / प्रेम का अजस्र स्रोत लहराया । अस्तु! संसारी भी बनने की बजाय/ज्ञान-माँ बनने को मन सिरजाया । तुम्हारे आँचल के अनन्त छोर में, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] संतप्त दुःखियारे बेटे शान्ति का सहज सुख पा बैठे । भोर के कमल - सी खिलती- तुम्हारी मुस्कान में, मातृत्व की अथाह थाह, कौन ले पाया ? एक-एक ग्रन्थि काट कर, कितने ग्रन्थ लिख डाले । विषय-विष को पचा - अमृत-पृष्ठ लिख डाले ? अध्यात्म- माँ ! तुमने न्याय / दर्शन के गूढ़तम रहस्यों को धर्म के सरल समीकरण दे डाले । "सम्यक्ज्ञान" की सतत किरणावलियाँ, तुम्हारी - सद्वाणी के अर्घ्य बनकर अँधियारी गलियों के प्रकाश-दीप बन गये । ऐतिहासिक हस्तिनापुर तुम्हारी सोच का सन्दर्भ लिये - "जम्बूद्वीप" के अभिराम प्रतिमान में साकार हुआ । "जम्बूद्वीप" की ऊंचाइयाँ Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तुम्हारे चिन्तन का स्वर्ण कलश बनकर, अध्यात्म- अन्वेषण की गाथा मुखरित कर रहा । ज्ञान-विज्ञान को ऐसा शिल्प दिया कि अभिराम मंदिर ही शास्त्र बन गये । आर्यिका माँ ! तुमने इस बीसवीं शताब्दी में सौ वर्ष के भविष्य को वर्तमान में रच डाला । तुम्हारी अभिवन्दना में शब्द सार्थक हो गये । तुम्हारी वन्दना में - शब्दातीत मौन मुखर हो गया । जिनके चरण प्रक्षालन से आत्म शुद्धि हो जाती । ऐसी सन्त- आर्यिकारत्न के - चरणों में झुककर वन्दना अभिवन्दना है । गणिनी ज्ञानमती माताजी इस इस युग की अवतार हैं हास्य कवि हजारी लाल जैन "काका" सकरार [झाँसी ] उ०प्र० जिनने कलम चलाकर जग के किये बड़े उपकार हैं। गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की अवतार हैं ॥ जिनने अपने जीवन के हर क्षण की कीमत जानी। जो भी दिया जगत को वह बन कर रह गया निशानी ॥ जम्बूद्वीप कमल का मन्दिर अद्वितीय बनवाये, ज्ञानज्योति के द्वारा जग में धर्म प्रचार कराये । जैन जाति पर किये आपने ऐसे कई उपकार हैं ॥ गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की अवतार हैं ॥ धर्म ध्यान में ढाल दिया है अपना कुनबा सारा, रत्नमती को रत्न बनाने का था काम तुम्हारा । बहिन माधुरी बनी आर्यिका ये थी तेरी माया, लोहा सोना हुआ जहाँ पर पहुँचा तेरा साया । एक नहीं, दो नहीं हजारों इस जग पर उपकार हैं । गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की अवतार हैं ॥ सरस्वती भण्डार भर दिया ऐसी कलम चलाई, इन्द्रध्वज विधान ने सारे जग में धूम मचायी सम्यग्ज्ञान ज्ञान का बादल, बनकर मधु बर्षाता, जिसे पान कर अज्ञानी भी ज्ञानवान बन जाता । कवि "काका" पर कृपा करो माँ हम भी दावेदार है ॥ गणिनी शानमती माताजी इस युग की अवतार हैं । For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२२१ ज्ञानमती बन ज्ञानमती वह ज्ञान किरण फैलाती है - वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल भिषगाचार्य, आयुर्वेदाचार्य, जयपुर ज्ञानमती बन ज्ञानमती वह ज्ञान किरण फैलाती हैं। जम्बूद्वीप निर्माण करा वह बैदेही बन रहती हैं || ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ मैं, ना हूँ, पर्याय यह है शुद्ध बुद्धि यों कहती हैं। मैना से बनकर वीरमती वह ज्ञानमती बन जाती हैं।। ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ अनन्तज्ञान स्वामी आत्म को जान मुदित वह रहती हैं। निज आत्मा के सभी आवरण क्षय हित तप आचरती हैं । ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ रहकर स्वयं ज्ञान मुद्रा में औरों का हित करती हैं। निज चर्या से सिखा आचरण सम्यक् पथ बतलाती हैं | ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ महावीर का ध्यान लगाती महावीर गुण गाती हैं । ब्रह्मचर्य आजन्म पालकर उनके पथ पर चलती हैं | ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ शुद्धोपयोग ही परम लक्ष्य है आत्मलीन वह रहती हैं। चारित्र मोह का क्षय करने वह तपस्विनी बन जाती हैं ॥ ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ शान्त मुदित मुख उसका रहता भयाक्रान्त ना होती हैं । उत्साहपूर्ण चेष्टा रखकर वह आगे बढ़ती जाती हैं ॥ ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ समता रस का पान किये वह कष्ट सभी सह लेती हैं। जो भी उसके सम्मुख आता हित की राह बताती हैं ॥ ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ विद्वत्ता उनकी अद्वितीय है कृतियाँ उसकी यह कहती हैं। चले लेखनी उनकी प्रतिदिन तत्त्वज्ञान दर्शाती हैं | ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ दर्शन, न्याय, साहित्य और आध्यात्मिक उनकी रचनाएँ । अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का हमको परिचय सही कराती हैं ॥ ज्ञानमती बन ज्ञानमती ॥ "प्रभु कहता वह श्रेष्ठ आर्यिका हित निज पर का करती हैं। देखे जीवे शत शरद ऋतु प्रभु से यह मेरी विनती है ॥ ज्ञानमती बन ज्ञानमती ।। आर्यिका ज्ञानमती - वीरेन्द्र प्रसाद जैन, अहिंसा वाणी अलीगंज-एटा मैना गृह-उपवन जो चहकी, बनी क्षुल्लिका वीरमती । सम्यक्-ज्ञानाराधन से वह, ज्ञान आर्यिका ज्ञानमती ॥ लगता ब्राह्मि-सुन्दरी का यह अभिनव रूप झलक आया, वृष-आदीश्वर परम्परा में, नवल नखत चमकित पाया । बाल ब्रह्मचर्या पावनतम शील-धर्म-ध्वज कीर्ति कृति । मैना . . . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला घन अज्ञान जगत में फैला, तत्त्व-ज्ञान-आलोक दिया, चौ अनुयोगों की प्ररूपणा, पाकर विकसित भव्य किया । अलख ज्ञान की जगी कि जगमग, जलती रहती बोधि कृती। मैना .... मात्र वाङ्मय नहीं यहाँ पर सिद्धान्तों की प्रभा हुई, सत्साहित्य सर्जना की भी, सृष्टि हुई ज्यों क्षितिज नई । विविध विधाओं की सामग्री प्राप्त हुई रुचि पूर्ण अती। मैना . . . . अबला की काया में अनुपम सबल ज्ञान का सूर्य उगा; प्रमदा से प्रमाद काँपा औ3; काम-व्यसन तम-तोम भगा । जगा नव्य जीवन प्रभात यों-बढ़े चरित व्रत तथा व्रती ॥ मैना . . . . पतनशील भौतिक दुनिया में उन्नतात्म की कली खिली; ___ आकुल-व्याकुलता-अशान्ति में परम शान्ति की वायु मिली दीर्घकाल तक सुलभ रहे ये- धर्म-ज्ञान की शुद्ध श्रुती ॥ मैना . . . . चलती-फिरती यूनिवर्सिटी - सुभाषचन्द जैन- टिकैतनगर ज्ञानमती नाम एक इतिहास का है ज्ञानमती यह नाम भूगोल का है क्योंकिइतिहास और भूगोल दोनों का सम्बन्ध माँ ज्ञानमती की पहचान कराता है। उन्होंने कलियुग में ब्राह्मी का आदर्श दिखाकर इतिहास बनाया है । जम्बूद्वीप रचना से भूगोल बताया है । इतना ही नहीं वे तो एक चलती-फिरती यूनिवर्सिटी भी हैं । जहाँ, प्राचीन ग्रन्थों में छिपा साइंस और मैथमेटिक पढ़ाया जाता है । आत्मा पर रिसर्च करने का साधन सिखाया जाता है फिर, डिग्री ? Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२२३ हाँ ! हाँ उस यूनिवर्सिटी में, डिग्री भी मिलती है । मुनि आर्यिका की पदवी भी मिलती है । श्रावक-श्राविकाओं की किस्मत सुधरती हैं । बालक-बालिकाओं की बुद्धि निखरती है । मुझे भी उसी ज्ञानमती यूनिवर्सिटी में पढ़ने का सौभाग्य मिला है । श्रावक की डिग्री लेने का भाग्य खिला है अब मैं उस माँ के, श्री-चरणों में शीश नमाता यही कामना करता हूँ । आगे की डिग्री लेने की हार्दिक भावना रखता हूँ । "बालब्रह्ममय जीवन आपका, जीवन ज्योति जगाता है ।" - वाणीभूषण संहितासूरि प्रतिष्ठाचार्य पं० कमल कुमार जैन गोइल्ल [कलकत्ता] [१] बाल ब्रह्ममय जीवन आपका, जीवन ज्योति जगाता है । स्पर्शन विषय कषाय नहीं है, शान्ति सुधा उपजाता है । काय कान्ति भी ब्रह्मचर्य की, अनुपमता प्रकटाती है । वाणी में भी ओजस्विता, ब्रह्मचर्य की गरिमा से ही आती है। [२] ब्रह्मचर्य की निर्मलता से, बुद्धि वृद्धिता प्रकट हुई । साहित्य-सृजन की अनुपम महिमा, ब्रह्मचर्य से सुघट हुई ॥ व्यवहार दृष्टि से जीवनदाता, ब्रह्मचर्य को माना है । निश्चय दृष्टि से आत्म रूपमय, ब्रह्मचर्य को जाना है ॥ __ [३] आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमति जी, आर्य भाव से भावित हैं । गणिनी हैं ये आर्यागण की, गण्य भावना साधित हैं । सिद्धान्त शास्त्र की प्रवर प्रवक्त्री वाचस्पति पद की धात्री हैं । न्याय प्रभाकर पद को भर्ती, न्याय प्रवचन की की हैं । [४] तिरागता की भव्य मूर्ति हैं, रहती रागभोग से कोशों दूर । निर्मोह भाव की सम्पति हैं. वे ज्ञान भाव से भरपूर ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला केवल ज्ञान में रखतीं मति, अतः ज्ञानमति सार्थक नाम । तव चरणों में नतमस्तक है, रखता कमल है भाव ललाम ॥ साहित्य साधना में ही जिनका, सारा जीवन अर्पित है । अध्यात्म ज्योति के उद्योतन में, तन मन सभी समर्पित है ॥ वस्तु तत्त्व को समझे जनता, अज्ञान भाव से दूर रहे । रखती मन में ऐसी ममता, समता भाव भरपूर रहे | त्याग भावमय परम विभूति, श्रद्धा ज्ञान से आती है । वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी यही सुनाती है ॥ ज्ञानमती का सारा जीवन, उक्त गुणों का है आदर्श । 'कमल' प्रार्थना करता ऐसी. विद्वज्जन करो परामर्श ॥ वन्दे मातरम् -प्रवीणचंद्र जैन [एम०ए०] जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर ज्ञानमती माता, ज्ञान प्रदाता, सर्वगुण भूषित तुम, वन्दन करते हम । गणिनी पद युक्ता, पाप विमुक्ता, न्याय प्रभाकर तुम, वन्दन करते हम ॥ १॥ टिकैतनगर में, छोटेलाल घर में, प्रथम सु कन्या तुम, वंदन करते हम । मोहिनी माता, जन्म प्रदाता, ज्ञान की माता तुम, वंदन करते हम ॥ २ ॥ बाल ब्रह्मचारिणी, सब जग तारिणी, कष्ट निवारणी तुम, वन्दन करते हम । गजपुर नगर में, जम्बूद्वीप रचना, प्रथमकारिता तुम, वन्दन करते हम ॥ ३ ॥ शत पंचाशत्, ग्रंथ रचित्री, काव्य करित्री तुम, वंदन करते हम । सौम्य सुवदना, मोहजित मदना, वात्सल्य सदना तुम, वंदन करते हम ॥ ४ ॥ शांतिसागराचार्य, वीरसागराचार्य, उनकी सुशिष्या तुम, वन्दन करते हम । शिवपथ सुनीता, अनेक प्रणीता, अद्भुत महिमा तुम, वंदन करते हम ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२२५ आर्यिका ज्येष्ठा, सर्वसुश्रेष्ठा, शारदा इष्टा तुम, वंदन करते हम । धर्म सुलीना, ज्ञानामृत पीना, परम प्रवीना तुम, वंदन करते हम ॥६॥ शत शत बार प्रणाम ! - ताराचन्द जैन शास्त्री, जैनपुरी रेवाड़ी [हरियाणा] केवल ज्ञान सूर्य की निर्मल, दिव्य किरण का ले आलोक, मिथ्यामति के सघन तिमिर को, सहसा दिया आपने रोक । सम्यक् ज्ञान सुधा की धारा, पीकर, अभिनव जो निष्काम, ज्ञानमती माता जी के पद, पद्मों में शत बार प्रणाम ॥ न्यायशास्त्र, व्याकरण काव्य के, ग्रन्थों का अध्ययन अविरामकरके माताजी ने अपना, किया प्रकाशित अन्तर्धाम । काव्यशास्त्र निष्णात निपुण मति, रचनाएँ हैं ललित ललाम, ज्ञानमती माताजी के पद-पद्मों में शत बार प्रणाम ॥ ज्ञान मेरु उत्तुंग शिखर से, ऐसा पुण्य प्रभात हुआ, जिसने दर्शन किये भक्ति से, हर्षित, पुलकित गात हुआ । पूज्य आर्यिका तपस्विनी का, जीवन-दर्शन है अभिराम, ज्ञानमती माताजी के पद, पद्मों में शत बार प्रणाम ॥ ज्ञान भक्ति, वैराग्य-साधना, केन्द्र बिन्दु हैं जीवन के, भव-तन-भोग विरक्त व्यक्ति ही, पाता फल इस नर तन के । निज परणति में मग्न चेतना, पाती है निश्चल विश्राम, ज्ञानमती माताजी के पद-पद्यों में शत बार प्रणाम ॥ वास्तुकला का दिव्य-निदर्शन, जम्बूद्वीप रचाया है, जैन-धर्म भूगोल सत्य का, जग को ज्ञान कराया है । कीर्ति-कौमुदी के फैले हैं, जिनके बहुरंगी आयाम, ज्ञानमती माता जी के पद-पद्मों में शत बार प्रणाम ॥ "मुझको चैन मिलती है" - श्रीमती राजबाला जैन ध० प० नरेन्द्र कुमार जैन रईस, सरधना आपके दर्शन से माताजी, मुझको चैन मिलती है । आपकी शान्त-सी सूरत, मेरी आँखों में फिरती है । हैं आई आप जिस दिन से, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला दिया उपदेश अमृतमय । उसी को पान कर-कर के, तरंगें रह-रह उठती हैं । किया है केश लुञ्चन आपने, जो शहर गाँवों में । अजैन जनता उसे लखकर, बड़े चक्कर में पड़ती है ॥ केशलोंच आप करती हैं, और जनता आहे भरती है । कठिन जिन साधु परीक्षा से, जनता काँप उठती है ॥ किया है आपने निर्णय, जो यह विहार करने का । घड़ी वो याद कर-कर के, हृदय में हूक उठती है ॥ "बाला" की अरज है इतनी, कि हमको भूल मत जाना । शरण में मुझको भी ले लो, यही हुंकार उठती है ॥ आपके दर्शन से माताजी, मुझको चैन मिलती है। जयवन्त हो माँ . . . . . -कविरत्न सुरेन्द्र सागर प्रचण्डिया, कुरावली [मैनपुरी] (हरिगीतिका छंद) श्रद्धास्पदा हे ज्ञानमति ! अभिनन्दनीय महान हो! तुम अग्रणी गणिनी, निसर्गज आप्त-प्रतिभावान हो! संज्ञान-गीताओं शताधिक की प्रणयिनी आर्यिका ! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! तुम आर्यिका-रत्नावली में रत्न सर्वोत्कृष्ट हो । कौमार्यवय से ब्रह्मचर्या में रमी आकृष्ट हो ॥ पथ-दर्शिका तुम हो कुमारी-वृंद की, हे साधिका! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ २ ॥ वैराग्य के बीजांकुरों से 'अथ' तम्हारा धन्य है! जो आज पुष्पित हो रहा आदर्श एक अनन्य है! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२२७ जिनमत-प्रव्रज्या ले हुई वीरांगना निर्वाधिका ! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ३ ॥ है धन्य तव व्यक्तित्व और कृतित्व सुस्पृहणीय है। दीक्षित किये भव्यात्मा संख्या विपुल गणनीय है। अनुगत तुम्हारा हो रहा जनकुल, महाप्रारब्धिका! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ४ ॥ तव प्रेरणा से हुई संसृष्टि "जम्बूद्वीप" की ! इससे अमर तव है! मनस्वनि ! ज्योति यश-तन-दीप की! समवेत स्वर में वंदना तव; विधि-विधान-विधायिका! जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ५ ॥ कृत्कृत्य तव जीवन तपस्वनि ! रत स्व-पर-कल्याण है। चतु संघयुत चरितार्थ तव शिवमार्ग पर अभियान है। तव, आधि-व्याधि-हरी, वृषामृत-दान, शान्ति समाधिका। जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥६॥ हर प्राण में अध्यात्म प्राणित, स्वात्म-स्वर हर श्वास में। 'ध्रुव'-तत्त्व की महिमा समायी ज्ञप्ति-व्रत-विश्वास में । पुण्यात्म पावन चिन्पगा! स्व-स्वभाव-सरस अगाधिका। जयवन्त हो माँ भगवती-आराधना-आराधिका ! ॥ ७ ॥ "आदर भरा प्रणाम है" - डॉ० एस०एन० पाठक, भोपाल [म०प्र०] ज्ञानमतीजी का अभिनंदन, आदर भरा प्रणाम है। ग्रंथ समर्पित है चरणों में, अमर हो गया नाम है ॥ १॥ सन् चौतिस की शरद पूर्णिमा, __ को अद्भुत आलोक हुआ। हुई अवतरित ज्योति अनूठी, धन्य धरा भूलोक हुआ ॥ २ ॥ छोटेलाल मोहिनी देवी, कन्या प्राप्त प्रसन्न हुए । बाराबंकी की वरीयता, सचर-अचर सब धन्य हुए ॥ ३ ॥ नजरें टिकी टिकैतनगर पर, ग्राम लक्ष्मी से आशा । धर्म-कर्म की मोहक मैना, बने सत्य की परिभाषा ॥ ४ ॥ सपने सब साकार हो गये, पूज्य देशभूषणजी से । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ब्रह्मचारिणी बन जाने का, ऐसा अवसर मिले कैसे ॥ ५ ॥ मैना वीरमती बन करके, महावीरजी में महकी । युग को मिला अलौकिक सम्बल, साध हुई पूरी सबकी ॥ ६ ॥ अति उत्कृष्ट आर्यिका दीक्षा, ग्रहण किये फिर ज्ञानमती । वीर व्रतों की अथक साधना, धारण करके बनी व्रती ॥ ७॥ भारतीय संस्कृति की रक्षा, प्रतिपल मानवता कल्याण । ज्ञानमती की ज्ञानराशि से, नये विश्व का नव-निर्माण |॥ ८ ॥ स्नेह-शांति-सद्भाव-समन्वय, युग के लिए यही वरदान । ज्ञानमती के ज्ञानस्रोत से, बन सकते हम श्रेष्ठ महान ॥ ९ ॥ महिमामय माता शतायु हों, अर्पित शतशः उन्हें प्रणाम । यथानाम गुण वैसा उनमें, अजर-अमर हो उनका नाम ॥१०॥ अभिवन्दन यह ग्रन्थ समर्पित, माता के ममता से आशा । पाँच व्रतों से विश्व सँवारें, यही आज की है भाषा ॥ ११ ॥ शत-शत वन्दन अभिनन्दन है - पं० बाबूलाल जैन फणीश-ऊन, खरगोन [म०प्र०] शांति, कुन्थु, अर नाथ चरण में, लिया शरण जिन वंदन है । परम विदुषी आर्यिकारत्न "ज्ञानमती" शत-शत अभिनन्दन है । (१) आदिकाल की पावन नगरी, हस्तिनापुर अति प्यारी । आदि प्रभू श्री वृषभ देव से. पावन धरा अति महकाई । शांति, कुंथु अरनाथ प्रभु के, चार कल्याणक से हर्षायी । कौरव-पांडव ने वसुधा पर, आकर युद्ध किया था । भाई से भाई के लड़ने का, प्रलयंकर युद्ध मचा था । जोरू जमीन जर क्रिया आदि से करती मन को क्रन्दन है । परम विदुषी श्री ज्ञानमती को, शत-शत वंदन अभिनन्दन है ।। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२२९ (२) उत्तर-प्रदेश की पावन-नगरी, टिकैतनगर अति प्यारी । शरद् पूर्णिमा की चन्द्र कलाएँ, शीतलता भर लाईं । छोटेलाल पिता गृह-मन्दिर में, महकी अति फुलवारी । मोहिनी माँ रत्नमती से "मैना" जन्म ले किलकारी । विक्रम सम्वत् उन्नीस सौ इक्यानबे में, लिया जन्म सुख-नन्दन है । धर्म मूर्ति माँ ज्ञानमती को, शत-शत वंदन अभिनंदन है ॥ (३) गृह-बंधन से मुक्ति पाके मैना उज्ज्वल कुल को पाया । मिथ्यात्व कुरीतियों को जब तजकर, सम्यक् पथ अपनाया । जैन संस्कृति में नित पगकर, उज्ज्वल जीवन महकाया । ब्राह्मी सुन्दरी चंदन का व्रत ठान कर, तत्वज्ञ प्राप्त कर चमकाया । सतरह वर्ष में बाराबंकी में, जीवन किया परिवर्तन है । परम पूज्य श्री देशभूषण से, ब्रह्मचर्य ले पावन किया मन है ॥ (४) श्री महावीर में पूज्य ऋषि, देशभूषण जब आये । मैना ने जब वीर प्रभु का शरणागत लेकर दीक्षा पाये । वीरमती बन वीर वीर से, धर्मामृत पिलवाये । विशालमती के साथ में रहकर, विशाल गुणों को प्रगटाये । चारित्र शिरोमणि शांतिसागर मनि का प्रण किया गजब । वीरसागर ऋषिवर चरणों में, आर्यिका व्रत ज्ञानमती वंदन है। परमारथ के कारण हेतु अनेकानेक पद व्रत पूज्य मान । अपने सद् चिदानन्द ज्ञान, से ज्ञानमती बड़ी गुणखान । ज्ञानमती के चरणाराधन में, अभय आदि पद्मावती ने यह पाया । आत्म साधना में नित रह, कर अभय ज्ञान श्रुत पाया । आत्म साधना में नित रहकर ज्ञानज्योति को पाया । मोहिनी बनी माँ रत्नमती, निज जीवन को महकाया । शिष्या माधुरी चंदनामती, बन जीवन को चहकाया । ब्रह्मचर्य से पुलकित मन. किया आत्म चिंतन । वीर प्रभु गौतम गणधर, वाणी को पीती ज्ञानमती निशि-दिन । विद्वद् मोतीचंद्र बन चन्द्रसम, क्षुल्लक मोतीसागर कहलाये । श्री रवीन्द्र ब्रह्मचर्य से, रमते धर्म ध्वजा फहराये । हस्तिनापुर की पावन नगरी, में पावन कार्य किया है । विश्व चकित श्री जम्बूद्वीप से, जग उद्योत किया है । वात्सल्य भावना धर्म प्रेम की, बहती त्रिवेणी संगम । परम पूज्य श्री ज्ञानमती को. शत शत वंदन अभिनन्दन ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अष्टसहस्री आदि ग्रन्थ रच, माँ ने कमाल किया है । धन्य सैकड़ों ग्रन्थों को रच, धर्म उपकार किया है । जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति रथ से, जग को ज्ञान मिला है ! भूले-भटके बालक को यहाँ, सम्यग्ज्ञान खिला है । मंगलमयी माँ ज्ञानमती को, भक्तिभाव अर्चित चंदन । आत्मतत्त्व अन्वेषी माँ तुम, शत-शत वन्दन अभिनंदन ॥ भूले-भटके बालक जन को, सम्यग्ज्ञान मिला है । वीर सागर विद्यापीठ से, वीतराग का द्वार खुला है । त्रिलोक शोध संस्थान आदि से, तीन लोक का सार मिला है। सत्य, अहिंसा, अपरिग्रहवाद का. यहाँ पर जगकोपाठ मिला है। यहाँ की पावन रज कण भूमि में, झरते स्याद्वाद के झरने । पूज्य आर्यिका ज्ञानमती तुम. लगीं काटने कर्म बन्धन । परम पूज्य श्री ज्ञानमती को, नत “फणीश" का शत वंदन अभिनन्दन। ज्ञानमती माताजी तुमको मेरा बारंबार प्रणाम - अनूपचंद्र न्यायतीर्थ, जयपुर (१) वंदनीय अभिनन्दनीय हे ! पूज्य ! आर्यिका रत्न महान । किया हस्तिनापुर स्थापित, जैन त्रिलोक शोध संस्थान ॥ (२) (३) हे सिद्धान्त ज्ञान वाचस्पति, सत साहित्य प्रणेता युग की, न्याय प्रभाकर ! विदुषी रत्न । किये प्रकाशित ग्रन्थ अनेक । जम्बूद्वीप प्रेरिका गणिनी, पूजा, कथा, बाल उपयोगी, सफल तुम्हारे सभी प्रयत्न ॥ जैन मान्यता की रख टेक ॥ जैन न्याय का जो सर्वोपरि, अष्टसहस्री ग्रंथ विशाल। हिन्दी टीका करके तुमने, किया राष्ट्र का उन्नत-भाल॥ हिन्दी औ संस्कृत भाषा के, रचे बहुत से मौलिक ग्रन्थ । कितनों का पद्यानुवाद कर, दिखा दिया है सच्चा पंथ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ (६) ध्यान, ज्ञान, तप, स्वाध्यायरत दिनचर्या आगम अनुसार । गहन अध्ययन औ अध्यापन, बना लिया जीवन का सार ॥ (6) माधोराजपुरा में दीक्षा, लेकर पाया अति सम्मान । तुम सी सफल साध्वी पाकर, गौरवान्वित राजस्थान ॥ Jain Educationa International (१०) परम तपस्विनि ! त्याग मूर्ति हे ! गुण गौरव गरिमा को धाम । ज्ञानमती माताजी तुमको मेरा बारंबार प्रणाम || धन्य रहे ज्ञानमति माता, (७) जम्बूद्वीप ज्ञान से ज्योतित, ज्ञान ज्योति रथ ले आधार । भावनात्मक बढ़ा एकता, किया ज्ञान का सतत प्रचार || (९) दीक्षागुरु श्री वीर सिंधु के, नाम चलाया है संस्थान । हो ज्ञानमती का जयकारा संस्कृत विद्यापीठ जहाँ से, निकल रहे पढ़कर विद्वान ॥ सरल, सुबोध भाषा में, जम्बूद्वीप रचा भारी । ज्ञान ज्योति से ज्योति जगाई, ग्रन्थ रचे तुमने भारी ॥ पं० लाडली प्रसाद जैन, पापड़ीवाल, सवाई माधोपुर पूजाएँ रच दीं भारी । चिरकाल रहो इस भूतल पर, तुम आर्य-मार्ग की संरक्षक, महिमा फैले जग में भारी ॥ गुरु-भक्ति की बहती धारा । शत शत वन्दन करते तुमको हो ज्ञानमती का जयकारा ॥ [२३१ For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "तव चरणधूलि भी चंदन है" - डॉ० शेखर जैन, अहमदाबाद तर्ज- चन्दन सा वदन..... अभिवन्दन है, अभिवंदन है, हे ज्ञानमती अभिवंदन है । चरणों में शीश झुका माता, तव चरण धूलि भी चंदन है । धर्माकुर अंकुराए मन में, बालापन से वैराग जगा । वैभव की चकाचौंध से भी, आतमपन से अनुराग जगा । यह जान सकी निज दृष्टि से, यह जीवन ही एक क्रंदन है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . है । अंतर के चक्षु खुले तभी, तज दिये द्वार घर विभव जान । तज दिया मोह ही निज तन से, यह सब पर है जब हुआ भान । चल पड़े चरण जिन राहों पर, राहें बन गई नन्दन वन हैं । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . है । मैना मैं ना हूँ जगा ज्ञान, सम्यक्त्व कमल हो उठे मुकुल । उपसर्गों को झेला हँसकर, मन को न बनाया कभी विकल । शास्त्रों का अध्ययन किया निरत, उसमें ही डूब गया मन है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . है । हे महासती ! तुमने नारी जीवन को सफल बनाया है । तुमने नारी के गौरव को, फिर से सम्मान दिलाया है । पूरा जीवन ही हुआ तुम्हारा, इसके लिए समर्पण है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . है । साक्षात् सरस्वती की प्रतिमा, शास्त्रों की रचना की उत्तम । आर्यिकारत्न गणिनी माता, चारित्र तुम्हारा अति अनुपम । इन पावन चरणों में माता, जग करता शत-शत वंदन है । अभिवन्दन है .............. है । भूगोल जैनमत का तुमने, अवतरित कराया धरती पर । इस जम्बूद्वीप की प्रेरक माँ, खिल गया कमल इस धरती पर । कण-कण से गूंज रहा माता, तव गुण गाथा का गुंजन है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . ह । शांति सागर-सी दृढ़, ज्ञानी हो गुरु वीरसागर-सी तुम । निर्मात्री हो नवतीरथ की, खुद दिव्यध्वनि-सी मुखरित तुम । सान्निध्य तुम्हारा जिसे मिला, हो गया मनुज वह पावन है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . है । जल में भी रहीं कमल सी तुम, सब कुछ देकर अकिंचन हो । फूला जिनत्व हर क्यारी में, उस बगिया की हितचिंतक हो । वात्सल्य मिला जिन चरणों का, उनको 'शेखर' का वंदन है । अभिवन्दन है . . . . . . . . . . . . . . है । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ Jain Educationa International भजन तर्ज • जाओ तुम चाहे जहाँ जाओ तुम चाहे जहाँ, ध्यान करोगे वहाँ । कि एक शक्ति दुनिया में है, जो कर सकती है बेड़ा पार ॥ जाओ तुम हे माँ तव अर्चना में, भेंट अर्पण क्या करें । ये तन, मन और जीवन, सब समर्पण हम करें ॥ भावों की कलियों को जाऊँ मैं छोड़ कहीं। जाओ तुम " 11 दिल एक केशर प्याली भाव की केशर भरी । ज्ञान की ज्योति जलाकर, आरती तेरी करी ॥ द्रव्य की थाली नहीं, दिल में है लाया अरमाँ । जाओ तुम मोह माया तजकर, आज हम पूजा करें । तार दे तू इस भव से, आज सब विनती करें ॥ "जय" है पुजारी तेरा, छोड़ के जाएं कहाँ । जाओ तुम चाहे जहाँ, ध्यान करोगे वहाँ ॥ कि एक शक्ति दुनिया में है, जो कर सकती है बेड़ा पार । जाओ तुम ले जय हो माता ज्ञानमती तर्ज- देवा हो देवा माता हो माता, तेरे नाम की धूम मची चहुँ ओर हम भी पुकारें कब होगी माता, तेरी नजर हमारी ओर । जय हो माता ज्ञानमती, जय हो माता ज्ञानमती, जय हो माता ज्ञानमती ॥ - कु० इन्द्र जैन, पुत्री श्री प्रकाशचन्द्र जैन टिकैतनगर [ बाराबंकी ] जग में तू पहली बालसती है, पहला है तेरा नाम । हर दुःख मिटाये, बिगड़ी बनाये, सबके सँवारे काम । आये हैं हम तेरे द्वारे माता, तुझसे बड़ी है आस लगाये । तेरी दया से, ऐ मेरी माता, अपना नर तन सफल हो जाये । हमको मुक्ति मिल जायेगी ऐसा भी दिन कभी आयेगा || माता हो माता ॥ १ ॥ [२३३ For Personal and Private Use Only - - श्री जयप्रकाश जैन, दरियाबाद [ बाराबंकी] Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला शान्त छवि तेरी, मन में बसी है, तेरी माँ शक्ति अपार । तेरी शरण में आये जो माता, हो जाये भव से पार । तेरी है महिमा निराली माता, हमसे जो वरणी न जाये । ऐसी की रचना निराली तूने, जो जग में एक कहाये । तेरी शरणा, आके माता, जन्म सफल हो जायेगा ॥ २ ॥ माता हो माता • • • • • • • • • • • . . . . . मुझसे कभी माँ पाप न हो - जय हो माता ज्ञानमती । कोई दुःख संताप न हो - जय हो माता ज्ञानमती । जीवन भर सत्कर्म करें - जय हो माता ज्ञानमती । पालन अपना धर्म करें - जय हो माता ज्ञानमती । 'इन्दु' तुम्हें माँ नमन करे - जय हो माता ज्ञानमती । कोटि - कोटिशः नमन करे - कोटि-कोटिशः नमन करे ॥ ३ ॥ "मंगल दीप जलाएँ" - अरिञ्जय कुमार जैन, दरियाबाद [बाराबंकी] तर्ज - पहली बार मिले हैं देखे तेज जगत के, तुझ-सा तेज नहीं देखा है कहीं । शांतिसिन्धु की शिष्या, ज्ञानमती-सा तेज न देखा कहीं ॥ धन्य थी नगरी टिकैतनगर की, जहाँ पे तुमने जन्म लिया । पितु श्री छोटेलाल, मोहिनी, माँ ने कुल को धन्य किया । मंगल दीप जलाएँ। तुझ सा . . . . . . ॥१॥ मान करें सम्मान करें माँ ! हर पल तेरा ध्यान करें । लाभ मिला तेरे दर्शन का. अपने सारे कर्म कटें ॥ भव दुःख मेटनहारा । तुझ सा . . . . . ॥ २ ॥ तेरह रत्नों की माता को, अपने पथ पर लगा लिया ॥ मोहिनी से कर रत्नमती तव, निज चरणों में नमा लिया ॥ जग से न्यारी मूरत । तुझ सा . . . . . ॥ ३ ॥ कितने जीवों को माँ तुमने, भव से पार लगाया है ॥ इनमें इक चन्दनामती ने, त्याग मार्ग अपनाया है ॥ मोतीसागर क्षुल्लक सा। तुझ सा तेज .. ॥ ४ ॥ जैन अजैन जो भी आएँ माँ. इच्छित फल को पाते हैं | लाभ तेरे दर्शन का पाएँ, खाली न लौट के जाते हैं | "ए.के." शरण में आया। तुझ सा ... ॥ ५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२३५ आरति है सुखकार -कु० तमन्ना जैन, विजयनगर [आसाम] परम पूज्य श्रीज्ञानमती जी की आरति है सुखकार मिटावे भव-बाधा दुखकार - २ परम आर्यिका पद की धारी. सहे परीषह अति दुःख भारी, संयम धारिका, पथ अराधिका श्वेत वस्त्र उर धार नमूं मैं तुमको बारम्बार -२ परम पूज्य . . . . . . . . . . . . . . . . . . छोटेलाल की राजदुलारी, मोहिनी माँ की सुता प्यारी, अवध प्रान्त में जन्म लिया था मैनाबाई नाम नमूं मैं तुमको बारम्बार - २ परम पूज्य . . . . . . . . . . . . . . . . . . वीर सिन्धु ने दीप जलाया, माता आपने उसे सजाया, उसी दीपकी सभी शिखा के चरणों में बलिहार नमूं मैं तुमको बारम्बार -२ परम पूज्य . . . . . . . . . . . . . . . . . . भजन -धनंजय कुमार जैन, दरियाबाद [बाराबंकी] तर्ज - फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है ! धूल तेरे चरणों की बनकर, सीखें हम जीना माता । इतनी रहमत कर दो हम पर, टूटे न तुम से नाता ॥ धूल तेरे . . .॥ तुम चरणों की धूल में माता, जीवन की है सारी खुशी। जिसपे तेरी दृष्टि पड़ी है, बन गई उसकी जिन्दगी ॥ झूठे हैं सब बन्धू-भाई, सच्ची है दृष्टि तेरी । धूल तेरे . . . ॥ तुमने ध्यान लगाकर माता, देखा था कैसा सपना ।। हस्तिनापुर की धरा पे माता, तेरी रची है ये रचना ॥ भव्य कमल-मन्दिर को माता, देख के सबका मन भाता। धूल तेरे ...॥ सुख का सागर है ये 'धनंजय', बात ये तुमने बतलाई। जिनपे अपनी दया करी माँ, उनको न कोई कमी आई ॥ तुमसे जुदा जो हो जाते हैं, उनको चैन आराम नहीं । धूल तेरे चरणों की बनकर, सीखें हम जीना माता ॥ इतनी रहमत कर दो हम पर, टूटे न तुमसे नाता ! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जय गणिनी माँ ज्ञानमती तव चरणन कोटि प्रणाम है Jain Educationa International जिनवाणी की मूर्तरूप मी ज्ञानमती तब वन्दन । संयम की साकार रूप कोटिक कोटिक अभिनंदन ॥ पूजा की पूजक आराधक और ज्ञान की नंदन । भक्ति भाव से नितप्रति मेरा तव चरणों में वंदन ॥ यथानाम तव गुणगरिमामय देखा रूप तुम्हारा । संयम की सुगंध से तुमने अपना रूप निहारा ॥ जग उद्धारक जनहित कारक सिद्धों को अपनाकर । ज्ञान लोक से अन्तर तम को काटा यथा दिवाकर || श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में प्रथम रूप पूजन है I मंगल वाणी से प्रसूत उससे उपकृत जन-जन है ॥ भावों भरी आत्म सुखकारी सहृदयी रचनाएँ । आराधन कर लाखों जन-जन जिन्हें आज अपनाएँ ॥ गूढ़ गम्य आगमवाणी को हृदयंगम कर लीना । जन-जन के उपकार हेतु माँ भव्यों को सुखदीना ॥ जिनवाणी की परम्परा में जो सतकार्य किया है। कोटिक विज्ञजनों के द्वारा नहिं साकार हुआ है ॥ सुन्दर भव्य मनोहर सुखकर आत्मज्ञान गुणकारी । रचनाओं का पाठन करके भव्य मोक्ष अधिकारी ॥ आर्षग्रन्थ में वर्णित जम्बूद्वीप कथन मनहारी । रचना कर लोकोत्तर युग का कार्य किया सुखकारी ॥ - वर्द्धमान कुमार जैन सोरया, प्रकाशक वीतरागवाणी मासिक, टीकमगढ़ कोटि-कोटि जन युगों-युगों तक हों कृतज्ञ माँ तेरे । तव चरणों की सम्यक् भक्ति हृदय बसे नित मेरे ॥ मेरा कोटि नमन है - श्रीमती गजरादेवी सौरया सैलसागर, टीकमगढ़ [म०प्र० ] संयम की सुगंध से आलोकित जिनका तन-मन है । गणिनी ज्ञानमती के चरणन मेरा कोटि नमन है ॥ दर्शन, ज्ञान, आचरण तीनों का जहाँ हुआ मिलन है । पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का मंगल अभिनंदन है ॥ अभिनंदन का अर्घ्य आपको अर्पित हर्षित मन है । शत-शत कृतज्ञता से पूरित भारत का हर जन है ॥ ज्ञान ध्यान, तपः युक्ता का आगम जहाँ कथन है । किया उसे साकार आज तुम सा न अन्य कोई जन है ॥ For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं नहीं जानतातुम कौन हो ? कोई देवी, कोई महामानवी दिव्य तेज से परिपूर्ण या परम सुख से सम्पूर्ण सरलता और सौहार्दमयी । तुम जो भी हो, देवी। महामानवी या मात्र मानवी । प्रेम से पूरितवात्सल्य उमड़ता है तुमसे, रोम-रोम से होती प्रवाहित पावन किरणें Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ समय सार साकार हुआ है तव तप की महिमा से । माँ जिनवाणी की रचना का कोष जहाँ अभिलाषे ॥ जम्बूद्वीप की परम अलौकिक रचना जहाँ निवासे । और भक्तिमय रचनाओं से जन जन का हृदय प्रकाशे ॥ यशः गीत गाने का मतलब सूरज दीप दिखाना । हाँ तव भक्ति से समर्थ है मुझको मुक्ती पाना ॥ आज हृदय में तव भक्ति का प्रकटा श्रोत चमन है । गणिनी ज्ञानमती के चरणन मेरा कोटि नमन है | तुम कौन हो ? एक अद्भुत प्रकाश वर्तुलतुम्हारे चहुँ ओर रहता है । एक मधुर बयारसुवासित कर दे जो तन-मन, तुम्हारे हर श्वाँस के साथचली आती है मुझ तक । माटी का कण-कण थिरक उठतास्पर्श तेरे चरणों का पाकर । अमृतमयी धाराएँ प्रवाहित होतीतेरे चहुँ ओर । तेरा आन्तरिक वैभव, माँ के चरणों में For Personal and Private Use Only तेरा आन्तरिक सौन्दर्यकर लेता सम्मोहित, कर लेता अभिभूत | मन होता बार-बारतुझको वन्दन मैं करूँ । न सिर्फ वन्दन, अपितुस्वयं को अर्पण मैं करूँ । तेरे चरण स्पर्श करकण-कण पुलकित हो जाता है, नयनों से टपकता वात्सल्यरोम-रोम धिरकता है। शरद पूर्णिमा की निशि में, शशि का ही अवतार हुआ। टिकैतनगर जग गया परा, हिंसा पर प्रहार हुआ ॥ धन्य हुए पितु मात सभी जन, पाकर के बेटी "मैना " । खुशियां आयीं दीपक जागे, हर्षित हुए चार नैना ॥ जिनकी सतत साधना से पावन होता मन मेरा । ऐसी माता ज्ञानमती को सत-सत बार नमन मेरा ॥ कोकिल कंठ मधुर वाणी से जन-जन का मन हर्षाये । पड़े जहाँ पग माताजी के मिट्टी सोना बन जाये ॥ आत्म चेतना, अमिट साधना, माया से मन को फेरा । ऐसी माता ज्ञानमती को सत-सत बार नमन मेरा ॥ [२३७ -दिनेश जैन, सरधना बालकवि कमलेश जैन, डिकौली [ म०प्र० ] Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला यश वैभव फैलाकर जग में, वसुधा को बरदान दिया। हिंसा पाप मिटाकर माँ ने, सबको जीवन-दान दिया । सौम्य छवि है अतुल कीर्ति से, तुमको हर मन ने घेरा । ऐसी माता ज्ञानमती को. सत-सत बार नमन मेरा ॥ तेरी वाणी सुनकर के माँ, मुरझे तरु भी लहराये । मृत जीवों में सचमुच माता, नई आत्मा आ जाये ॥ तेरे ही पद संजीवन में, लगता है मेरा डेरा । ऐसी माता ज्ञानमती को. सत-सत बार नमन मेरा ॥ ममता मोह पतन कर डाली, मन में त्याग समाया है। प्रतिपल चिंतन, अविरल मंथन, सत्यका दीप जलाया है। कोमल देह रहे कांटों पर, उर है खिला सुमन तेरा । ऐसी माता ज्ञानमती को. सत-सत बार नमन मेरा ॥ अभिनन्दन है, शत शत अभिनन्दन ! -प्रेमचन्द जैन, महमूदाबाद माँ ! अब मेरा भी कल्याण करो । निज कर का देकर संबल मेरा भी भवत्राण हरो ॥ माँ ॥ कितने तारे ? नहीं व्योम में उतने तारे, ज्ञान दान देकर भव्यों को कितनों को भव पार उतारे । सत्पथ पर बढ़ चले कदम ऐसी शक्ति दान करो ॥ माँ ॥ तोड़ सकूँ मैं सारे बन्धन, भोग-विलास के सारे आकर्षण । अनुभूति स्वयं की पा जाऊँ ऐसा उर में ज्ञान भरो ॥ माँ ॥ संयममय जीवन बन जावे, सौम्य सरस सुरभित हो जावे । जीत सकूँ दुष्कर कर्मों को ऐसा ही अभिज्ञान भरो ॥ माँ ॥ अब तक भटका मेरा जीवन, करता रहा रौद्र आक्रन्दन । निष्क्रिय जीवन में मेरे शक्ति का नव प्राण भरो ॥ माँ ॥ कर्मजयी बन जाऊँ अविरल, निजात्म में हो जाऊँ निश्चल पराभूत कर सके न कोई ऐसा स्वाभिमान भरो ॥ माँ ॥ अभिनन्दन है, शत शत अभिनन्दन, पदारविन्द में मेरा वन्दन । स्नेहिल आशीर्वच दे दो ऐसी करुणा दान करो ॥ माँ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२३९ आरती ज्ञानमती माताजी की - युवा परिषद्, बिजौलिया [राज०] तर्ज-पदमावती माता दर्शन की बलिहारियाँ ज्ञानमति माता दर्शन की बलिहारियाँ - २ वीरमति से ज्ञानमति बन, आगम राह बताई - २ स्याद्वाद का अमृत पीकर, आतम ज्योति जगाई ॥ ज्ञानमति माता . . . . माता तेरी गौरव गाथा, सब नर नारी गावें - २ भाव भक्ति से वंदन करके, मनवांछित फल पावे ॥ ज्ञानमति माता ... . एकान्तवाद का खण्डन करके, सच्ची राह बताई - २ आर्ष मार्ग का पोषण करके धर्म ध्वजा फहराई ॥ ज्ञानमति माता . . . . हस्तिनापुर नगरी माँही, जम्बूद्वीप रचायो - २ बीचोंबीच सुमेरु पर्वत, देखत मन हर्षायो । ज्ञानमति माता . . . . युवा परिषद बिजौलिया से दर्शन करने आती - २ दर्शन करके मात तुम्हारा, मन में अति हर्षाती ।। ज्ञानमति माता . . . . स्नेहिल पुष्प चढ़ाते हैं -पं० बाबूलाल शास्त्री, महमूदाबाद वंदनीय पावन चरणों में, हम नित प्रति शीश नवाते हैं । अनन्त गुणों की खान मात के, गुण वर्णन नहीं कर पाते हैं | महाव्रता की तेज पुज माँ, जगहित करने वाली है। युग युगांत की अद्भुत शक्ति, प्राची दिशि को लाली है । सुरभित पुष्पों को संचयकर, हम श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं । वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं ॥ वीर प्रभु की वाणी का, अमृत तुमने घोला है । रुग्णमुक्त हो मानव ने, माँ की जय ही बोला है । ज्ञान सुधा की जीवनदात्री, पीकर नहीं अघाते हैं ॥ वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं । सदुपदेश मधुमय वाणी का, श्रवण एक बार हो जाता है । हृदय कालिमा धुल जाती है, पाप-पुंज उह जाता है । दीप्ति दिवाकर की किरण मात्र से, अज्ञान तिमिर नश जाते हैं | वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पर कल्याण भव्यभाव की, अद्वितीय सुरभित क्यारी हो । नहीं समानता व्याप्त गुणों की, सारे जग से न्यारी हो । छिपी हुई माँ की शक्ति का, हम आर-पार नहीं पाते हैं | वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं । सूरज को दीपक दिखलाये, हँसी-पात्र बन जाता है । सामर्थ भरा है किसमें इतना, तारामण्डल गिन पाता है । इसीलिए तो कोटि-कोटि जन, दर्शन पुंज चढ़ाते हैं ॥ वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं | सम्पूर्ण विश्व मानव समाज ने, अभिनन्दन भाव जगाया है । अम्बुनिधि के विशाल तटों को, क्या पंगु बनकर लाँघ सकेंगे । केवल प्रीति का सवाल लेकर, माँ के समीप हम आते हैं । वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं । वात्सल्यमयी माँ के चरणों में, श्रद्धा सुमन चढ़ाया है । दृष्टि कृपा की हो जावे तो, कल्याण मार्ग पर जाते हैं ॥ वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं । लाखों शरणागत तारे आपने, मेरी बारी भी आयी है । मेरा हित हो यही कामना, उर में आज समायी है । अनन्त भाव से हृदय कमल को, स्नेहिल पष्प चढ़ाते हैं ॥ वंदनीय पावन चरणों में, हम नितप्रति शीश नवाते हैं । पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को कोटिक बार नमन है ! - वैद्यरत्न कवि दामोदर "चन्द्र" धुवारा [छतरपुर] जिनकी कलम सदुपदेशों का, करती नित्य सृजन है । पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को - कोटिक बार नमन है ॥ टेक ॥ जन्म टिकैतनगर पितु छोटे, मोहिनी माँ की मैना । बाल्यकाल तुम धर्मग्रन्थ पढ - से तुम चित्त विराग बना ।। बाराबंकी में गुरु देशभूषण ढिग छोटी आयु में । ले ब्रह्मचर्य फिर महावीर - में आप क्षुल्लिका के व्रत लें ॥ वीर सिन्धु गुरु माधोराजपुर - तुम्हें ज्ञानमती पद सज हैं । पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को - कोटिक बार नमन है ॥ १ ॥ गुरु संग घूमी राजस्थान - निज शिष्या संग रहीं बिहार । दक्षिण भारत मध्य देश - इन्दौर माँहि तुम हो जयकार ॥ उन्निस सौ बहत्तर सन् में - तुम गईं संघमय दिल्ली में । चल सहसों कोसों बालव्रती - गणिनी 'आर्यिकारत्न' पद लें ॥ सिद्धान्त शिरोमणि न्याय प्रभा- ये महा कवयित्री लेखक हैं। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को - कोटिक बार नमन है ॥ २ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ तुम यत्न कई जन जनी ब्रति रच । हिन्दी में अष्टसहस्त्री रच ॥ संस्कृत-हिन्दी मौलिक रचना । पूजा विधान भी ग्रन्थ बना || हस्तिनापुर जम्बूद्वीप रचै । - कोटिक बार नमन है ॥ ३ ॥ रच ज्ञान ज्योति का उजियाला । चल ज्ञान ज्योति जग में आला ॥ का दिखता जग में चमत्कार । जन ज्ञानमती की जय उचार ॥ - तो जग झंझट सहज हि नश है। कोटिक बार नमन है ॥ ४ ॥ ज्ञानोदय वीर ग्रन्थमाला । तुम किये काम जग में आला ॥ चरित मूर्ति प्रतिभा धारी । तुम यशरु ज्ञान कहे संसारी । तुमको कोटि नमन है । कोटिक बार नमन है ॥ ५ ॥ कोटि-कोटि वन्दन है पढ़ संघमय जिन वृष गूढ़ ग्रन्थ तुम पढ़ कातंत्र माह द्वय में रच सहसनाम इक सहस मंत्र तुम लिखे ग्रन्थ सौ छप लाखों तुम आग्रह से वीरोत्सव दिन पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को वन द्वीप प्रतिष्ठा हुईं महान् कर उद्घाटन श्री इन्दिरा जी नर को नारायण करे ज्ञान जैन - जग जगत् में ज्ञान ज्योति यदि हो सबकी सत् ज्ञानमती पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को तुम सम्यग्ज्ञान दीपिका रच रच वीरसिन्धु संस्कृत शाला हुई न आप-सी कोई आर्यिका जब तक सूरज चन्द्र जगे 'दामोदर' की करो ज्ञानमति पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को कोटिक अभिनन्दन है, - - - - || "जय जम्बूद्वीप जय ज्ञानमती" - पवन कुमार शास्त्री "दीवान प्रतिष्ठाचार्य, एम०ए० मुरैना [म०प्र० ] "जय जम्बूद्वीप जय ज्ञानमती, जय जय तुम्हरी वाणी है। जिनकी सौम्य छवि लख करके, प्रमुदित होता हर प्राणी है ।। आज विश्व में जिनकी कीरत, बिन पंखों के ही फैली है। ओजपूर्ण है, तर्कपूर्ण है. सुन्दर, सरस, सरल शैली है । टिकैतनगर की पुण्य धरा वह, धन्य हुई थी उस दिन है। आसोज शुक्ल पूर्णमासी तिथि, सन् इकानवे विक्रम संवत है जन्म हुआ जब कन्या का तो, पितु छोटेलालजी विस्मित थे । माँ मोहिनी अत्यन्त सखी, आबाल वृद्ध सब हर्षित थे ॥ किया अवलोकन मुखाकृति का, कन्या किलकारी मार रही। न पाया दुनियाँ ने मद उसमें, सो मैना-मैना पुकार रही || बाल्यावस्था विदा हुई तो, किशोरावस्था ने अधिकार किया। तब यौवन क्या चुप रह सकता था, वह भी जोरों से बोल उठा ॥ [२४१ For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अब तो सचमुच मैना मैना-सी लगती, क्यों मैं उसका जोसोया था। इसीलिए तो मात-पिता ने, कर पीत करन' को सोचा था । भोली-सी मैना क्या कुछ कह पायी, वाग्दान हुआ जब खुशी-खुशी। लेकिन कैसे पग डालँ कीचड़ में सो सोयी मैना जाग उठी ॥ कर बद्ध विनय माँ तात से बोली, क्यों कीचड़ में मुझे गिराते हो। मैं तो जाऊँ मुक्ति-पथ, क्यों आप भी ना घर तज जाते हो। उस इन्द्रिय सुख की चाह नहीं, ढाये जाते जहँ दिन-रात कहर। यह कह पग मोड़ दिये मैना ने, जग जाहिर है जो मुक्ति डगर । पहुँच गयी वह सुकुमारी, जहाँ देशभूषण यति विराजे थे । आ सन्निकट गुरुवर मैना, दीक्षार्थ कर केश उपाटे थे । कर दिया चतुर्विध आहार त्याग, आचार्य श्री चकित हो जाते हैं। देखा दृढ़ संकल्पित है मैना, सप्तम प्रतिमा के व्रत दे जाते हैं । पुण्य धरा वह महावीर क्षेत्र की, संवत् दो हजार नौ आया। तब ब्रह्मचारिणी मैना बनी क्षुल्लिका, वीरमती हो सुख पाया। चार वर्ष का काल जब बीता, माधोराजपुरा नगरी आई। वीरमती ने जीवन में तब एक और सुखद बेला पाई ॥ दे दो आर्यिका दीक्षा गुरुवर, कुछ आगे बढ़ने की भाई है। पा दीक्षा आचार्य वीरसागर से, ज्ञानमती संज्ञा पाई है ॥ ज्ञानमती ने ज्ञान की गागर, सचमुच आज उडेली है। संस्कृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बोली आज अलबेली है । सिद्धान्त, न्याय, दर्शन, व्याकरण, क्या कोई विधा इनसे छूटी। छन्द शास्त्र की अनुपमज्ञाता, क्या नहीं देखते इनकी शैली॥ वीर प्रभु के इस शासन में, क्या कोई दावा कर सकता। विविध विधानों की सुन्दरलखरचना, क्य तिरस्कृतकोई कर सकत॥ क्या स्वप्र किसी ने देखा था, कि हम जम्बूद्वीप लख पायेंगे। क्या सचमुच सुमेरुगिरि पर चढ़कर, हम धन्य आज हो जायेंगे। अभिनन्दन की शुभबेला में, हम क्या अभिनन्दन कर सकते हैं। प्राप्त मुझे भी हो ज्ञानामत गागर, सो शत-शत नमन हम करते हैं। सो शत शत . . . . . . . . || ज्ञानमती केपादपद्म में, करो सभी प्रणाम । कुमार “पवन" विनयांजलि, ग्रहण करो हे मात ।। १. मैं- अहंकार से रहित (निरभिमानी) २. विवाह करने का विचार Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२४३ तुमको मैं प्रणाम करूँ - श्रीमती कपूरी देवी, महमूदाबाद नारी शक्ति की अद्भुत देवी, तुमको मैं प्रणाम करूँ । ध्यानमग्न हो माँ की मूरत. मन-मंदिर में चारों याम धरूँ ॥ किन शब्दों के चक्रव्यूह की, मैं रचना कर सकती हूँ। कैसे बाँध सकूँ गुण सागर को, नहीं वाचना कर सकती हूँ । अबलाओं की सबल प्रेरणा, किससे मैं उपमान करूँ । नारी शक्ति की अद्भुत देवी, तुमको मैं प्रणाम करूँ ॥ नवरत्नों की भण्डार आपने, अपना जीवन सफल किया । दे दिया विश्व को अनुपम अमत, जगति का कल्याण किया ।। सामर्थ्य नहीं है जिह्वाओं में, किस मुख से गुणगान करूँ । नारी शक्ति की अद्भुत देवी, तुझको मैं प्रणाम करूँ ॥ तुम देवि नहीं परमेश्वरी हो, अक्षय ज्ञान का कोष भरा है। तुम से ही शोभित नारी जीवन, उच्चाकाश और धरा है । इस दूषित जीवन को मैं भी, उज्ज्व ल और ललाम करूँ । नारी शक्ति की अद्भुत देवी, तुमको मैं प्रणाम करूँ ॥ अभिनन्दन है विश्व पटल पर, कितना हर्ष समाया है । लाखों वर्षों का जीवन हो, "कपूरी" का भाव यह आया है । मिले मुझे भी ऐसी शक्ति, तजकर मोह निज धाम चलूँ । नारी जीवन की अद्भुत देवी, तुमको मैं प्रणाम करूँ ॥ भजन - अकलंक कुमार जैन, टिकैतनगर माता की महिमा अपरंपार है तेरे चरणों में नमस्कार है ॥ टेक ॥ तेरे दर्शन को अँखियाँ तरसी हैं मन मंदिर में तो मूरत तेरी है ॥ भक्तों की ये ही पुकार है । तेरे चरणों में नमस्कार है ॥ माता की महिमा अपरंपार है। तेरी ही जय-जयकार है ॥ ज्ञानज्योति जलवाया था तुमने, जम्बूद्वीप बनवाया था तुमने । कमल मंदिर का नवनिर्माण है, ह्रीं को मेरा नमस्कार है ॥ माता की ... Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ग्रंथों की रचना की है अतिभारी, जिसको पढ़कर हैं हर्षित नर नारी माता तू ज्ञान की भंडार है तेरे चरणों में नमस्कार है ॥ माता की ... विनती करता हूँ माता आज भी ये दर्शन सदा तेरे मुझको मिलते रहें। दर्शन से होते पाप नाश हैं। तेरे चरणों में नमस्कार है ॥ माता की . . . . युग की माँ है तू पहली बाल सती तेरे चरणों में मिलती मोक्ष मही। तेरे चरणों में ये संसार है, नैया लगा दे मेरी पार है ॥ माता की . . . . तेरे चरणों में आया हूँ माता ____ अपना चाहूँ मैं मुक्ति से नाता । नश्वर ये सारा संसार है, जीवन की नैया करो पार है॥ माता की महिमा . . . . . . . . . . ... . . . . . . . . भजन -श्रीमती त्रिशला जैन शास्त्री, लखनऊ तर्ज-चंदन सा बदन . . . . . . . . निर्मल दर्शन, चारित्रमयी. हे ज्ञानमूर्ति तुमको वंदन- २ सम्पूर्ण कलाओं से पूरित, हे सरस्वती माँ, तुम्हें नमन ।। तेरी गुणगाथा को गाना, सूरज को दीप दिखाना है । फिर भी कुछ पूष्प समर्पण कर, जीवन को सफल बनाना है । जो तेरी शीतल छाया में, रुकता पुलकित होता तन मन । निर्मल दर्शन . है सभी द्वीप में प्रथम द्वीप, जो वर्णित सभी कथाओं में । साकार हुआ है पृथ्वी पर, तेरे अनुपम आख्यानों से ॥ उसका दर्शन वंदन करके, करते लाखों नित पुण्यार्जन । निर्मल दर्शन . है चर्चित नगर हस्तिनापुर, जिसके चहुँ ओर घना जंगल । उस जंगल में है शोभ रहा, पर्वत सुमेरु और भव्य कमल ॥ सब महिमा तेरी है माता. तव चरणों में है अभिवंदन । निर्मल दर्शन . . . . . . . . . . . . . . . . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पूज्य ज्ञानमती माताजी शतायु हों -सतीशचन्द जैन, सरधना [मेरठ] पूज्य आचार्य वीरसागर की सुयोग्य शिष्या हैं आप । जन्म से ही हृदय में पूर्ण वैराग्य धारी हैं आप ।। यह विश्व कृतज्ञ है जिसके प्रति वे ज्ञान ज्योति हैं आप । ज्ञान वैराग्य करुणा-सरलता की मूर्ति हैं आप । नश्वर शरीर अमर आत्मा का भेद विज्ञान बताती हैं आप । मनन, तप, जनकल्याण की साधक हैं आप । तीन लोक के नाथ की पूजा विधान की रचयिता हैं आप । माता की ममता गुरु की करुणा से परिपूर्ण हैं आप । ताप मन का शीतल करने ज्ञान गंगा हैं आप । जीने के सूत्र सिखाने वाले शास्त्रों की लेखिका हैं आप । शक्ति पाई ज्ञान की गहन चिन्तन-मननधारी हैं आप । ताकत है जिसमें बालयती की ऐसी पुण्यधारी हैं आप । युग को जम्बूद्वीप की अमरकृति देने वाली हैं आप । हो जाती है पावन धरा जहाँ पग धरती हैं आप। ज्ञानांजलि - महेन्द्र कुमार जैन "नीलम" - पहाड़ी धीरज-दिल्ली सूरज के सम तेज धरें, और चन्द्र समान सु कांति सुखाई । मुख सौम्य लखें ज्यो सुधा बरसे, त्यो भव्य सदा जिनके गुण गाई ॥ जो ज्ञान की खान और ज्ञान की आन, है ज्ञान की ध्यान सदा जिन ताई । शुभ ज्ञानमती जिन नाम धरो, सो करो "नीलम" तिनकी सेवकाई॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नमन मेरा शत बार है - आशुकवि-गोकुल चंद्र 'मधुर' जिन्हें देह से नहीं राग, त्याग-तप जीवन का श्रृंगार है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को नमन मेरा शत बार है। तुम सौम्य मूर्ति हो दयामयी, वाणी में अमृत-सा प्रवाह । सत् संयम सरल हृदय सच्चा, तुम में तो ज्ञान भरा अथाह ॥ हो महा साध्वी देवी तुम, युग को नव बोध कराती हो। पथ के भूले हर पंथी को, मुक्ती की राह बताती हो॥ पावनमय सतत् साधनों में, चमत्कार साकार है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को, नमन मेरा शत बार है ॥१॥ तुम में ऐसा जादू माता, जो दर्शन करने जाता है। दुर्व्यसनों को तज देता है, कुछ त्याग साथ में लाता है। समता रस पिया आपने माँ, जग मोह तिमिर को दूर किया। विषयों के विषधर को तप से, कुचला, कर्मों को चूर किया । ऐसे शुचि चरणों की रज से, मिल जाती शांति अपार है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को, नमन मेरा शत बार है॥२॥ जम्बूद्वीप तीर्थ-स्थल युग-युग गायेगा गाथा । जिसके सम्मुख झुक जाता स्वयमेव हमारा माथा ॥ धाम हस्तिनापुर में माँ ने ज्ञान का अलख जगाया।' रचे अनेकों ग्रंथ विश्व जिनको लखकर चकराया ॥ पूज्य मातश्री के प्रताप से होती जय-जयकार है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को, नमन मेरा शत बार है॥३॥ तुम इस युग की वरदान बनीं, जिनधर्म का ध्वज फहराया है। जंगल में मंगल कर दीना, ऐसा वैभव बिखराया है। तुम वंदनीय, अभिनंदनीय, मैना, राजुल सम हो महान्। वो नगर टिकैत धन्य सचमुच, में माटी जिसकी पुण्यवान् । है "मधुर" भावना यही कीर्ति को, गायेगा संसार है। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती को, नमन मेरा शत बार है॥४॥ लोक नृत्यगीत -वीरबाल सदन, सरधना (मेरठ) युग पुरुष नियती ने जब रचना रची संसार की, प्यार ममता से समर्पित, मूर्ति एक नार की। कारी-कारी अँधियारी थी, रात जब सघन गगन से, श्रद्धा के आँगन में उतरी, वो तपस्विनी रूप ले। झुक गये धरती गगन, आश्चर्य विधि का देख के, गंगा-यमुना से ले अमृत, मोह का हलाहल पिया। पूर्णिमा लोरी सुनाये, मावस ने काजल दिया । टिकैतनगर में जन्म लिया, मैना का रूप बन कीर्ति माँ, था दिवस चुना तिथि योग देख, थी शरद ऋतु की पूर्णिमा। व हुई उजागर एक शक्ति, मुक्ति ने शरण ली चरणों में। ढूँढे जो मिलेगी गिनी-चुनी, उपमा किन्हीं वेद-पुरानों में। जिससे था अछूता आदि पुरुष, उसने वो कुण्डली बना डाली, हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना, नारी ने कर डाली। हुई प्रज्वलित ज्योति ऐसी कि जग को जगमग कर डाला, ये ज्ञान ज्योति हर युग में जले, हर गली, नगर, हर घर में जले। हे ज्ञानमती माता को नमन ! युगों युगों नमन !! युगों युगों नमन !!! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOOTatani द्वितीय खण्ड MUTUndhu आर्यिका श्री जीवन सससस -विभिन्न भाषाओं में। elchal 1922 ranmal and Pra DAN.ainertision Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती मातुः पवित्र गुर्वावलिः - आर्यिका चन्दनामतिः निजकेवलज्ञानज्योतिषा त्रिलोकवर्तिचराचरसमस्तपदार्थानां हस्तामलकवत् जानन्ति वृषभादयः चतुर्विंशतितीर्थङ्कराः । तीर्थस्य अविच्छिन्नपरम्परायां सम्प्रति श्रीवर्धमानभगवतः सार्वभौमशासनं वर्धते । तस्यैव वीरजिनेन्द्रस्य शासनकाले श्रीकुन्दकुन्दाम्नाये नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे चारित्रचक्रवर्तिश्रीशांतिसागराचार्यवर्यस्तत्प्रथमपट्टाधीशो आचार्यः श्रीवीरसागरमुनीन्द्रोऽस्य करकमलात् “वीराब्दे (२४८२) द्वयशीत्यधिकचतुर्विंशतितमे वर्षे वैशाखमासे कृष्णपक्षे द्वितीयातिथौ राजस्थानप्रान्तस्य माधोराजपुरा पत्तने" सुदीक्षिता महासाध्वी आर्यिका श्रीज्ञानमती माता इह जगति चिरकालपर्यन्तं भव्यप्राणिनां कल्याणं कुर्यात् सम्यग्ज्ञानप्रकाशं च कुर्यात्। अधुनावीराब्दे अष्टादशोत्तरपञ्चविंशतिशततमे वर्षे आश्विनशुक्लापूर्णिमायां तिथौ रविवासरे मातुः गुणानुरागवशात् भाक्तिकजनाः एकस्याभिवन्दनग्रन्थस्य प्रकाशनं कृत्वा अस्याः करकमलयोः समर्पयन्ति । निजख्यातिलाभपूजाभ्यः दूरीभूत्वा गणिनी आर्यिका श्रीज्ञानमती माता ज्ञानध्यानतपोरक्ता विराजिता। मातुः ज्ञानप्रकाशिका दृष्टिः युगानुयुगपर्यन्तं वसुन्धरां विकासयेत्। इति वर्धतां गुरुशासनम्। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन परिचय -आर्यिका चन्दनामती पूज्य गणिनी आर्यिका श्री का परिचय निम्न चार पंक्तियों से प्रारंभ होता है नैराश्यमद में डूबते, नर के लिए नव आस हो। कोई अलौकिक शक्ति हो, अभिव्यक्ति हो विश्वास हो॥ कलिकाल की नव ज्योति हो, उत्कर्ष का आभास हो। मानो न मानो सत्य है, तुम स्वयं में इतिहास हो॥ सच, जिनके आदर्श हिमालय पर्वत से भी ऊँचे हैं, जिनकी वाणी से निःसृत ज्ञानगंगा नीलनदी जिसकी लम्बाई ६ हजार कि.मी. है, से भी बड़ी है, जिनकी कीर्ति प्रसार के समक्ष एशिया महाद्वीप का क्षेत्रफल भी छोटा प्रतीत होने लगता है और जिनके हृदय की गंभीरता प्रशान्त महासागर को भी उथला सिद्ध करने लगी है, उस महान् व्यक्तित्व 'श्री ज्ञानमती माताजी' का परिचय भला शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है। वि.सं. १९९१ (२२ अकूटबर ईसवी सन् १९३४) की शरद् पूर्णिमा (आश्विन शु. १५) को रात्रि में ९ बजकर १५ मिनट पर जिला बाराबंकी के टिकैतनगर ग्राम में श्रेष्ठी श्री छोटेलालजी की धर्मपत्नी मोहिनी देवी ने इस कन्या को जन्म देकर अपना प्रथम मातृत्व धन्य कर लिया था। उनके दाम्पत्य जीवन की बगिया का यह प्रथम पुष्प सारे संसार को अपनी मोहक सुगंधि से सुवासित करेगा, यह बात तो वे कभी सोच भी न सके थे, किन्तु सरस्वती के इस अवतार को जन्म देने में उनके जन्मजन्मांतर में संचित पुण्य कर्म ही मानो सहायक बने थे। अवध प्रांत में जन्म लेने वाली इस नारीरत्न का परिचय बस यही तो है कि सरयू नदी की एक बिन्दु आज ज्ञान की सिन्धु बन गई है, शरद पूर्णिमा का यह चाँद आज अहर्निश सारे संसार को सम्यग्ज्ञान के दिव्य प्रकाश से आलोकित कर रहा है। बालिका का जन्म नाम रखा गया-मैना । मैना पक्षी की भाँति मधुर वाणी जो घर से निकलकर गली-मोहल्ले और सारे नगर में गुंजायमान होने लगी थी। पूर्व जन्मों की तपस्या एवं माँ की चूंटी से जो नैसर्गिक धर्म-संस्कार प्राप्त हुए थे, उन्होंने किशोरावस्था आते ही इन्हें ब्राह्मी और चन्दना का अलंकरण पहना दिया। भरे-पूरे परिवार में जन्म लेने वाली मैना अपने १३ भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं। इनको छोड़कर शेष ८ बहनों एवं ४ भाइयों का संक्षिप्त परिचय पाठकों को प्राप्त कराना आवश्यक है १. सौ. शान्ती देवी जैन-जन्म-ईसवी सन् १९३७ । सन् १९५४ में लखनऊ शहर से १० कि.मी. दूर "मोहोना" ग्राम के श्रेष्ठी श्री गुलाबचन्दजी की धर्मपत्नी श्रीमती सुभद्रा देवी के सुपुत्र "श्री राजकुमारजी जैन" के साथ आपका विवाह हुआ। आप ४ पुत्र एवं ३ पुत्रियों की माँ हैं और वर्तमान में डालीगंज लखनऊ में निवास करती हैं। आपके पति एवं पुत्र कपड़े का व्यापार करते हैं तथा सभी धार्मिक रुचि से सम्पन्न गृहस्थ की दैनिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं। २. श्री कैलाशचन्द जैन-ईसवी सन् १९३९ में आपका जन्म हुआ। १६ वर्ष की अवस्था में आपका विवाह टिकैतनगर के ही श्रेष्ठी "श्री शांति प्रसादजी जैन सर्राफ" की सुपुत्री चन्दारानी जैन के साथ हुआ। आपके दो पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हैं तथा सर्राफा एवं कपड़े का व्यापार करते हुए आप धार्मिक, सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रहते हैं। लखनऊ तथा टिकैतनगर दोनों जगह आपका निवास रहता है। ३. सौ. श्रीमती देवी जैन-सन् १९४१ में जन्मी इस बालिका का नाम माता मोहिनी ने "श्रीमती" रखा। आपका विवाह सन् १९५८ में जिला बहराइच के पास "फखरपुर" निवासी लाला श्री सुखानन्दजी के सुपुत्र श्री प्रेमचंदजी के साथ हुआ। आप २ पुत्र एवं ४ पुत्रियों की माँ हैं और आपकी सबसे छोटी पुत्री कु. आस्था जैन आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत एवं दो प्रतिमा के व्रत धारण कर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के संघ में अध्ययन कर रही हैं। फखरपुर तथा बहराइच में कपड़े का व्यापार है तथा निवास भी दोनों स्थानों पर रहता है। ४. ब्र. कु. मनोवतीजी-इनका परिचय आर्यिका श्री अभयमती के नाम से संघ परिचय में है। ५. श्री प्रकाशचन्द जैन-लाला छोटेलालजी एवं माता मोहिनी ने छठी सन्तान पुत्र को जन्म दिया। सन् १९४५ चैत राम नवमी के दिन जन्म इस बालक का नाम बड़ी बहन मैना ने "प्रकाशचंद" रखा। सन् १९६६ में प्रकाशचन्द का विवाह बहराइच के पास "नैपालगंज' के निवासी लाला श्री जयकुमारजी की सुपुत्री "ज्ञानादेवी' के साथ हुआ। आपके ४ पत्र एवं ३ पुत्रियाँ हैं। कपड़ा, सर्राफा आदि प्रतिष्ठानों का संचालन करते हुए Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२४९ आप टिकैतनगर में ही निवास करते हैं। ६. श्री सुभाषचन्द जैन-सन् १९४७ में आपका जन्म हुआ तथा सन् १९६७ में बाराबंकी जिले के “गनेशपुर" कस्बे के श्रेष्ठी श्री कृष्णचन्दजी की बेटी "सुषमा" के साथ सुभाषचन्दजी का विवाह हुआ। आपके २ पुत्र एवं ४ पुत्रियाँ हैं। धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि रखते हुए आप कपड़े और सर्राफे के व्यापारी हैं तथा टिकैतनगर में ही निवास करते हैं। आपका सुरीला स्वर अनेक कैसेटों के माध्यम से घर-घर में सुना जाता है, जो कि आपकी व्यक्तिगत रुचि का प्रतिफल है। ७. कुमुदनी देवी जैन-ईसवी सन् १९४८ में दो पुत्रों के बाद माता मोहिनी ने इस कन्या को जन्म दिया, जो उनकी आठवीं संतान हैं। सन् १९६४ में कानपुर निवासी श्री रिखबचंद जैन के सुपुत्र "श्री प्रकाशचंद जैन" के साथ कुमुदनी का विवाह हुआ। आपके २ पुत्र एवं ३ पुत्रियां हैं। सन् १९८४ में भाद्रपद शु. ९ के दिन आपके पति का अचानक देहावसान हो गया। उसके पश्चात् धर्मध्यान में अपना विशेष समय लगाती हुईं, आप कानपुर में ही निवास कर रही हैं। इनकी १ पुत्री कु. बीना जैन आजन्म ब्रह्मचर्य एवं दो प्रतिमा लेकर ज्ञानमती माताजी के संघ में रह रही हैं। ८. ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन-इनका परिचय ज्ञानमती माताजी के संघस्थ शिष्यों के परिचय में देखें। ९. ब्र. मालती शास्त्री-ईसवी सन् १९५२ में मोहिनी की दसवीं सन्तान का जन्म श्रावण मास में हुआ। आपने सन् १९६९ में आचार्य श्री सुबलसागर महाराज से ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया तथा सन् १९८२ तक आपने पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की छत्रछाया में रहकर शास्त्री, धर्मालंकार परीक्षाएं उत्तीर्ण की तथा धर्म का गहन अध्ययन किया है। वर्तमान में आप दिल्ली सरिता विहार में “रत्नत्रय शिक्षा एवं शोध संस्थान" नामक संस्था के द्वारा धर्म एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। १०. सौ. कामिनी देवी जैन-सन् १९५६ में जन्मी इस कन्या का नाम रखा गया-कामिनी। २५ दिसम्बर, सन् १९६९ में पिताजी के दिवंगत होने के पश्चात् सन् १९७० के मगशिर माह में आपका विवाह टिकैतनगर से ६ कि.मी. दूर "दरियाबाद" कस्बे में लालाश्री सुखानन्दजी के सुपुत्र "श्री जयप्रकाशजी जैन" के साथ हुआ। आपके २ पुत्र एवं ३ पुत्रियां हैं। घर में कपड़े का व्यापार है तथा सम्मिलित परिवार के साथ आप दरियाबाद में ही निवास करती हैं। ११. ब्र. कु. माधुरी शास्त्री-इनका परिचय "आर्यिका चन्दनामती' के रूप में पूज्य माताजी के संघस्थ शिष्य परिचय में ही देखें। १२. सौ. त्रिशला शास्त्री-माता मोहिनी की बगिया का अन्तिम पुष्प बालिका त्रिशला है, जिसका जन्म १६ अप्रैल सन् १९६० में हुआ। इन्होंने ११ वर्ष की लघु वय में पूज्य माताजी के पास रहकर सोलापुर बोर्ड से "शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की, जो संभवतः शताब्दी का प्रथम रेकार्ड है। अनेक भजन, कविताएं आदि भी इनके लिखे हुए हैं तथा "रत्नकरण्ड श्रावकाचार" ग्रंथ का सुन्दर पद्मानुवाद भी त्रिशला ने शादी से पूर्व ही किया था, जो अभी अप्रकाशित है, शीघ्र प्रकाशित होने की संभावना है। त्रिशला का विवाह १९ नवम्बर, सन् १९८० में लखनऊ नाकाहिण्डोला निवासी स्व. श्री लाला अनन्त प्रकाशजी जैन के सुपुत्र "श्री चन्द्र प्रकाश जैन" के साथ हुआ है। दो पुत्रों की माँ त्रिशला के साथ उनके पतिदेव भी अब धार्मिक कार्यों में रुचिपूर्वक भाग लेते हैं, आढ़त का व्यापार करते हैं तथा संयुक्त परिवार के साथ लखनऊ में ही निवास करते हैं। पूर्णा तिथि की प्रतीक-शरद् पूर्णिमा तिथि तो प्रतिवर्ष आती और जनश्रुति के अनुसार अमृत बरसा कर चली जाती थी, किन्तु सन् १९३४ की शरपूर्णिमा ने धरती पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी और मानो यहाँ के निवासियों से यह कहकर चली गई कि इस पूर्णिमा के चाँद के समक्ष मेरी शीतल रश्मियाँ भी व्यर्थ हैं, मैंने स्वयं भी अब इस चंद्रमा से अमृत ग्रहण करने का निर्णय किया है, जिसने मुझे भी धन्य और अमर कर दिया है, क्या मैं इनका उपकार जन्म-जन्म में भी भूल सकती हूँ? अर्थात् अब इस अवनीतल पर "पूर्णा तिथि की प्रतीक' कन्यारत्न के जन्म ने शरदपूर्णिमा तिथि को अक्षय पद प्राप्त करा दिया, जिसे युगों-युगों तक कोई मिटा नहीं सकता। कुमारिकाओं की पथप्रदर्शिकाकन्या के अधिकारों का मूल्यांकन कराने वाली मैना ने जीवन के मधुमास में प्रवेश करने से पूर्व ही नारी उद्धार का संकल्प लिया और स्वयंभू होकर उसकी पूर्ति के सपने संजोने लगी। न जाने कहाँ से ऐसी-ऐसी बातें ये सीखकर आई थी, क्योंकि तब तक तो इन्हें किसी गुरु का संयोग भी प्राप्त नहीं हुआ था। माता मोहिनी तो तब दंग रह जाती, जब मैना की सखियां उनसे कहती कि आज हमें मैना ने शीलव्रत पालन का नियम मंदिर में दिलवाया है। अन्ततोगत्वा वि.सं. २००९ (ईसवी सन १९५२) में भारत गौरव आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के मंगल सानिध्य में शरदपूर्णिमा के ही दिन बाराबंकी में उनकी हार्दिक इच्छा की सम्पूर्ति हुई, जिसके फलस्वरूप मैना का मधुमास सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्य में परिवर्तित हो गया। उस समय उन्होंने पारिवारिक एवं सामाजिक संघर्षों को झेलकर अपनी ही नहीं, प्रत्युत् समस्त कुमारिकाओं के हाथों में जकड़ी परतंत्रता की Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बेड़ियाँ तोड़कर असीम साहस और वीरता का परिचय दिया था। इनसे पूर्व बीसवीं शताब्दी की किसी कन्या ने इस कंटीले मार्ग पर कदम नहीं बढ़ाया था, इसलिए इन्हें "कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका" कहने में हम सभी गौरव का अनुभव करते हैं। वीर की अतिशय भूमि पर बनीं वीरमती आपआजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात् ब्रह्मचारिणी कु. मैना मात्र एक श्वेत शाटिका में लिपटी आर्यिका की भाँति आचार्य श्री के संघ में रहने लगीं। इनके साथ लखनऊ की एक ब्रह्मचारिणी चाँदबाई भी थीं। तभी संघ अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी पर पहुँचता है और वहीं मैना की क्षुल्लिका दीक्षा का मुहूर्त निकाला जाता है। अभी विक्रम संवत् २००९ ही चल रहा था कि ईसवी सन् १९५३ में प्रविष्ट हुआ जब महावीरजी में होली का दीर्घकाय मेला लगा हुआ था, उसी समय माता-पिता को सूचित किए बिना मैना ने चैत्र कृष्णा एकम को क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने मैना की वीरता और वीरप्रभू की अतिशय भूमि पर दीक्षा होने के कारण शिष्या का नाम “क्षुल्लिका वीरमती" रखा। तभी बालसती क्षुल्लिका वीरमती की जयकारों से अतिशय क्षेत्र का अतिशय द्विगुणित हो गया। अब यहाँ से दो वीरों का इतिहास जुड़ गया-एक तीर्थंकर महावीर का और दूसरा श्री वीरमती जी क्षुल्लिका का। कहाँ से कहाँ?मुनिराज सुकुमाल की भाँति एक कोमलांगी सुकुमारी साध्वी के रूप में आचार्य संघ के साथ पद विहार करने लगी। पैरों से टपकती खून की धार तथा पूर्व की अनभ्यासी तीव्र गति चाल से उत्पन्न हृदय की धड़कनों को न वहाँ कोई पहचानने वाला ही था और न बताने वाला । क्षुल्लिका वीरमती जो सोचती थीं कि मैंने किसी मजबूरी या दूसरे की जबर्दस्ती से तो दीक्षा ली नहीं है, पूर्णस्वेच्छा से ली गई उस दीक्षा से वे कभी खेदखिन्न नहीं हुई। अपने तीव्रतम वैराग्यपूर्वक ली गई उस क्षुल्लिका दीक्षा से भी वे पूर्ण संतुष्ट कहाँ थीं, उन्हें तो नारी जीवन के उच्चतम शिखर स्वरूप आर्यिका दीक्षा लेने की पुनः धुन लग गई। नीचे धरती माता और ऊपर आकाश रूपी पिता के संरक्षण में रहती हुई आज की ज्ञानमती माताजी ने क्षुल्लिका अवस्था में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के साथ दो चातुर्मास किए, जिसमें सन् १९५३ का उनका प्रथम चातुर्मास उनकी जन्मभूमि टिकैतनगर में हुआ और दूसरा सन् १९५४ का चातुर्मास जयपुर में हुआ, जहाँ उन्होंने मात्र २ माह में संस्कृत की कातंत्ररूपमाला व्याकरण पढ़कर अपने सतमंजिले ज्ञानमहल की मजबूत नींव डाली। टिकैतनगर से उन्हें दक्षिण से आई हुई एक क्षुल्लिका विशालमतीजी का समागम प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के समक्ष क्षुल्लिका वीरमती जी यदा-कदा अपनी आर्यिका दीक्षा के लिए निवेदन किया करती थीं, किन्तु आचार्य श्री कहते थे-बेटा! अभी तक मैंने किसी को आर्यिका दीक्षा प्रदान नहीं की है तथा मेरे साथ तुम्हें बहुत अधिक चलना पड़ेगा, क्योंकि मैं तेज चाल से प्रतिदिन ३०-४० कि.मी. चलता हूँ। तुम अत्यन्त कमजोर और इस लघवय में इतना नहीं चल सकती हो। हाँ, यदि तुम्हें आर्यिका दीक्षा लेनी ही है तो चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के शिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के संघ में मैं तुम्हें भेज दूंगा। वहाँ सुना है वृद्धा आर्यिकाएं हैं और वे विहार भी थोड़ा-थोड़ा करते हैं, अतः वहाँ तुम ठीक से रह सकोगी। दूसरे संघ से अपरिचित और गुरुवियोग की बात से यद्यपि वीरमतीजी कुछ दुखी हुईं, किन्तु और कोई चारा भी तो नहीं था उनके समक्ष आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का। खैर! संयोग-वियोग को सरलता से सहन करना तो उन्होंने जन्म से ही सीख लिया था, क्योंकि अपने दो वर्षीय भाई रवीन्द्र को जो उनके बिना सोता ही नहीं था, जीजी की धोती पकड़कर, अंगूठा चूसकर ही जिसकी सोने की आदत थी, उसे किस निर्ममतापूर्वक छोड़कर आई थीं। जब छोटा भैया चारपाई पर सो ही रहा था, इन्होंने अपनी धोती धीरे से खींचकर उसके पास दूसरा कपड़ा रख दिया, जिसे जीजी की धोती समझ कर वह चूसता रहा और निद्रा की हिलोरें लेता रहा। उस मासूम को हमेशा के लिए छोड़ते हुए एक आंसू भी तो इनकी आँखों में नहीं आया था। २२ दिन की बहन मालती को शायद वाह्य स्नेहवश माँ से लेकर थोड़ा-सा प्यार किया और भाइयों से राखी बंधवाई, चूँकि रक्षाबंधन का पावन दिवस था। फिर चल दी थीं बाराबंकी की ओर देशभूषण महाराज को अपना पाठ सुनाने । क्या किसी को उस दिन यह पता भी चल सका था कि मेरी बेटी, मेरी बहना, मेरी पोती और मेरी भतीजी अब कभी हमें माँ, भाई, दादी, चाचा आदि कहने इस घर में आएगी ही नहीं। उस १८ वर्ष प्राचीन जन्मजात वियोग के समक्ष दो वर्षों से प्राप्त गुरु सानिध्य का वियोग तो शायद कुछ भी नहीं होगा। हो भी, तो वीरमती जी का वैरागी हृदय उसे कब स्थान देने वाला था, उसे तो अपनी मंजिल पर पहुँचना जो था। एक दिन सुना, “चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज कुन्थलगिरि पर्वत पर यम सल्लेखना ले रहे हैं, तब ये आतुर होकर गुरु आज्ञापूर्वक क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ उस जीवन्त तीर्थ के दर्शनार्थ निकल पड़ी और दक्षिण भारत के 'नीरा' ग्राम में पहुँचकर युग प्रमुख आचार्य श्री के प्रथम दर्शन किये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ क्षुल्लिका विशालमतीजी से इनका परिचय सुनकर वे करुणा के सागर आचार्य श्री बहुत प्रसन्न हुए और 'उत्तर की अम्मा' कहकर इन्हें कुछ संबोधन प्रदान किए। क्षुल्लिका वीरमतीजी तो मानो यहाँ साक्षात् तीर्थङ्कर भगवान महावीर की छत्रछाया पाकर कृतार्थ ही हो गई थीं। बार-बार गुरुदेव की पदरज मस्तक पर चढ़ाती हुई उनकी गुरुभक्ति अन्तर्हृदय की पावनता दर्शा रही थी। कुछ देर की मूकभक्ति के पश्चात् वेदना की शब्दावलियाँ फूटती हैं, जो गुरुवर्य से चिरकालीन भवभ्रमण कथा कह देना चाहती है, किन्तु वीरमतीजी उन्हें अपने एक वाक्य में समेट कर व्यक्त करती हैं'हे संसार तारक प्रभो! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ। अनुकम्पा की साक्षात्मूर्ति आचार्य श्री की देशना मिली अम्मा! मैंने अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है, मैं समाधि ग्रहण करने कुथलगिरी जा रहा हूँ। तुम मेरे शिष्य मुनि वीरसागरजी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा प्राप्त करो, मेरा तुम्हें पूर्ण आशीर्वाद है। आशा की किरणावलियां फूटीं वीरमतीजी के हृदयांगन में और उन्होंने आर्थिकादीक्षा से पूर्व महामना उपसर्गविजयी चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री का पंडितमरण देखने का निर्णय किया। अतः सन् १९५५ का चातुर्मास क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ महाराष्ट्र प्रान्त के " म्हसवड़" नगर में किया - दो अविस्मरणीय उपलब्धियाँ २० वर्षीय क्षुल्लिका वीरमतीजी से जहाँ म्हसवड़ की आम जनता अतिशय प्रभावित रही, वहीं यहाँ उन्हें दो शिष्याओं का लाभ मिला कु. प्रभावती जो वर्तमान में आर्यिका श्री जिनमतीजी हैं और सौ. सोनूबाई जिन्होंने आर्यिका पद्मावती बनकर मासोपवास करके सन् १९७१ में उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया। यह तो रही शिष्यों की प्रथम उपलब्धि और दूसरी उपलब्धि उनके ज्ञान सूर्य की प्रथम किरण यहीं प्रस्फुटित हुई। उन्होंने अपने व्याकरण ज्ञान का प्रयोगात्मक उपयोग यहाँ "जिनसहस्रनाममंत्र" की रचना से किया भगवान् के एक हजार नामों में चतुर्थी विभक्ति लगाकर नमः शब्द के साथ उनकी ज्ञानप्रतिभा एकदम निखर उठी । Jain Educationa International क्षुल्लिका विशालमतीजी ने तत्काल ही व्रत विधि सहित उन मंत्रों को लघु पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया। आज ज्ञानमती माताजी की प्रथम साहित्यिक कृति 'जिनसहस्रनाम मंत्र' का नाम लेते ही मेरे मन में अमिट विश्वास जम गया है कि जिस लेखनी का शुभारम्भ ही श्री जिनेन्द्र के एक हजार आठ नामों से हुआ हो, उसके द्वारा डेढ़-दो सौ ग्रंथ लिखा जाना कोई विशेष बात नहीं है। यदि माताजी के पास उत्तम स्वास्थ्य और साधुक्रियाओं में व्यतीत होने वाला समय और अधिक मिल जाता तो निश्चित ही ग्रंथों की संख्या हजार तक पहुँचने में देर न लगती । वीरमती से ज्ञानमती म्हसवड़ चातुर्मास के मध्य ही जब उन्होंने सुना कि आचार्य श्री ने कुंथलगिरि में यम सल्लेखना ले ली है, तब वे क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ वहाँ अन्तिम दर्शन करने और समाधि देखने पहुँच गईं। द्वितीय भादों शुक्ला दूज को आचार्य श्री ने बड़े ही शांतिपूर्वक “ॐ सिद्धाय नमः" मंत्रध्वनि बोलते एवं सुनते हुए अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उस समय पूरे एक माह तक क्षुल्लिका वीरमतीजी को वहाँ रहने का सौभाग्य मिला। इस मध्य गुरुदेव के मुख से दो-चार लघु अनमोल शिक्षाएं भी प्राप्त हुईं। पुनः म्हसवड़ का चातुर्मास सम्पन्न करके वीरमतीजी अपनी उभय शिष्याओं के साथ जयपुर (खानियां) में विराजमान आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में पहुँची। गौरवर्णी, लम्बेकद और प्रतिभा सम्पन्न लघुवयस्क व्यक्तित्व को देखकर आचार्य श्री एवं समस्त साधु-साध्वी आश्चर्यचकित थे । मूलाचार ग्रंथानुसार पहले तो सब तरफ से गुप्त रीत्या क्षुल्लिका वीरमतीजी की परीक्षाएं हुईं, किन्तु साधु-साध्वी, ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी सभी तो एक स्वर से इन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण पत्र देते हुए यही कह रहे थे-अरे! यह तो साक्षात् सरस्वती ही प्रतीत हो रही है। प्रातः ३ बजे से उठकर रात्रि के १० बजे तक यह न तो पुस्तकों का पीछा छोड़ती है और न ही अपनी शिष्याओं को चैन लेने देती है हर वक्त उन्हें ज्ञानाराधना में व्यस्त रखती हैं। इसके साथ ही सामायिक प्रतिक्रमण और स्वाध्याय आदि समस्त क्रियाएं शास्त्रोक्त समयानुसार करती हैं। किसी भी पाठ के लिए इन्हें पुस्तक देखने की भी तो जरूरत नहीं है। पूरा दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण आदि भी कंठस्थ है। आखिर इसे पूर्व जन्म का संस्कार माना जाय या इस जन्म की तपस्या एवं सतत ज्ञानाराधना का फल । कुछ भी हो, आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने एक कुशल जौहरी की भाँति इस हीरे को परखा और शीघ्र ही इन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान करने का निर्णय लिया। संघ अब जयपुर से विहार करके राजस्थान के "माधोराजपुरा नगर में पहुँचा, तब वहीं वि.सं. २०१३ (सन् १९५६ ) में वैशाख वदी दूज के शुभ मुहूर्त में क्षुल्लिका वीरमतीजी को आचार्य श्रीवीरसागरजी महाराज ने आर्यिका दीक्षा प्रदान कर "शानमती" नाम से संबोधित किया। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी की प्रथम ज्ञानमती को जन्म दिया आचार्य श्री वीरसागरजी ने। जो नाम कबीरदासजी के निम्न दोहे को असत्य साबित कर रहा है - [२५१ For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला रंगी को नारंगी कहें, कहें तत्त्व को खोया। चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया । अर्थात् सार्थक नामधारी ज्ञानमती माताजी को यदि कबीरदासजी देख लेते तो शायद उनके रोने की नौबत न आती। आचार्य श्री ने अपनी नवदीक्षित शिष्या को अधिक शिक्षाएं देने की आवश्यकता भी नहीं समझी। उनकी एक वाक्य की लघु शिक्षा ने ही ज्ञानमती माताजी के अन्दर पूर्ण आलोक भर दिया-ज्ञानमतीजी! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है, उसका सदैव ध्यान रखना । बस, इसी शब्द ने आज माताजी को श्रुतज्ञान के उच्चतम शिखर पर पहुँचा दिया है। जहाँ आध्यात्मिक आनन्द के समक्ष शारीरिक अस्वस्थता भी नगण्य प्रतीत होने लगी है। नये गुरुदेव और अपने नये नाम के साथ आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का नवजीवन प्रारंभ हुआ। आचार्य संघ पुनः विहार करता हुआ कुछ दिनों के बाद जयपुर खानियां में ही आ गया, वहीं सन् १९५६ का वर्षायोग सम्पन्न हुआ। अपनी शारीरिक शिथिलता के कारण आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने उसके पश्चात् जयपुर शहर के सिवाय विहार कहीं नहीं किया। वे मितभाषी एवं स्वाध्याय प्रेमी थे। शाम को प्रतिक्रमण के पश्चात् शिष्यों के सुख दुःख सुनकर किञ्चित् मुस्कराहट में उन सबका दुःख दूर कर दिया करते थे। वे कभी-कभी कहा करते-मुझे दो रोग सताते हैं। शिष्यगण उत्सुकतावश गुरुवर के दुःख जानने को आतुर होते, तभी उनकी मुस्कराहट बिखरती और वे कहते-एक तो नींद आती है और दूसरी भूख लगती है। इन दो रोगों से तो सभी संसारी प्राणी ग्रस्त हैं, अतः उनकी बात पर शिष्यों को हँसी आ जाती और वे अपना भी दुःख-दर्द भूल जाते। सच, गुरु के लिए तो यह पंक्तियाँ सार्थक ही सिद्ध होती हैं त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥ आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज की छत्रछाया में उनकी नई शिष्या आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को भी माता-पिता एवं गुरु का स्नेह प्राप्त हो रहा था। गुरुदेव की शिथिलता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी, अतः सन् १९५७ का चातुर्मास भी जयपुर खानियां में ही रहा। पूज्य ज्ञानमती माताजी कई बार अपने गुरुवर के प्रति असीम श्रद्धा व्यक्त करती हुई बताती हैं कि महाराज, हमेशा धवला की पुस्तकों का स्वाध्याय किया करते थे और कहा करते थे कि भले ही इसमें कुछ विषय समझ में नहीं आते हैं, किन्तु पढ़ते रहने से अगले भवों में अवश्य ही ज्ञान का फल प्राप्त होगा। चातुर्मास चल रहा था, तभी आश्विन कृ. अमावस्या को आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज मध्याह्न के लगभग ११ बजे समाधि लगाकर पद्मासन में बैठ गए और उनकी आत्मा इस जीर्ण शरीर से निकलकर देवलोक चली गई। गुरुवियोग से दुःखी चतुर्विध संघ ने वहीं पर अपना नया संघनायक चुना। संघ के सर्ववरिष्ठ मुनिराज श्री शिवसागरजी महाराज इस परंपरा के द्वितीय पट्टाचार्य बने और संघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया। गुरुता से लघुता भलीआर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गुरुदेव के मरणोपरान्त भी आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में रहीं और उनकी आज्ञा से कई मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक आदिकों को विविध धर्मग्रंथों का अध्ययन कराया। किन्तु उन्होंने अपनी इस गुरुता को कभी प्रकट नहीं किया। किसी मुनि के द्वारा यह कहने पर कि "ज्ञानमती माताजी मेरी शिक्षा गुरु हैं" वे बड़ा दुःख महसूस करतीं और कहतीं कि महाराज! मैं तो आप सबके साथ स्वाध्याय करती हूँ, न कि पढ़ाती हूँ। यह उनके हृदय की महानता ही थी, वे हमेशा कहा करती हैं कि गुरुता के भार से व्यक्ति दबता जाता है और लघुता से तराजू के खाली पलड़े की भाँति ऊपर उठता जाता है। धन्य है उनका व्यक्तित्व जिन्होंने गुरु बनकर भी गुरुता स्वीकार नहीं की, इसीलिए आज उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय जैन समाज में सर्वोच्च विदुषी पद को प्राप्त कर लिया है। उनकी अध्यापन शैली भी इतनी सरल और रोचक है कि हर जनमानस बिना कठिन परिश्रम किए हर विषय समझ सकता हैं। अध्ययनकाल में शिष्यों को शास्त्रीय विषय के माध्यम से उनके द्वारा न जाने कितनी अमूल्य व्यावहारिक शिक्षाएं भी प्राप्त हो जाती हैं, यह उनके वैदुष्य का सबल प्रमाण है। सन् १९५७ से सन् १९६२ तक माताजी इसी आचार्य संघ में रहीं। इस मध्य अपनी आर्यिका पद्मावतीजी, आर्यिका जिनमतीजी, आर्यिका Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२५३ आदिमतीजी, आर्यिका श्रेष्ठमतीजी, आर्यिका संभवमती जी आदि को आचार्य श्री शिवसागर महाराज के करकमलों से दीक्षा दिलवाई। सन् १९६१ में सीकर चातुर्मास के अन्तर्गत ब्र. राजमलजी को अनेक प्रेरणाएं देकर मुनि दीक्षा के लिए उत्साहित किया, जो वहीं मुनि श्री अजितसागर बने। भविष्य में वे इस परंपरा के चतुर्थ पट्टाचार्य चतुर्विध संघ की सहमति से बने हैं। आर्यिका संघ की मंगलमयी तीर्थयात्राईसवी सन् १९६२ (वि.सं. २०१९) के लाडनूं चातुर्मास के पश्चात् आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने गुरुभाई आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की आज्ञा लेकर चार आर्यिका एवं एक क्षुल्लिका का संघ लेकर सम्मेदशिखर और गोम्मटेश्वर यात्रा के लिए विहार किया। इस आर्यिका संघ का सर्वप्रथम चातुर्मास सन् १९६३ (वि.सं. २०२०) में कलकत्ता महानगरी में हुआ। श्री ज्ञानमती माताजी ही इस संघ की प्रमुख बड़ी आर्यिका थीं, शेष सभी तो उनके द्वारा हस्तावलंबन को प्राप्त संसार कर्दम से निकली शिष्याएं थीं, अतः माताजी को ही संघ जिम्मेदारी का सारा भार वहन करना पड़ता। इनकी प्रवचन कला तो प्रारंभ से ही आकर्षक रही है। आगम में छिपे रहस्यों को रोचक शैली से प्रवचन में उद्घाटित करतीं, तब हर्षातिरेक में कई विद्वान् श्रावक तो इन्हें श्रुतकेवली की संज्ञा प्रदान कर भी तृप्त न होते थे। शुद्धजल का नियम दिलाकर आहार लेने पर भी चौकों की भरमार रहती और क्यू लाइन लगवाकर लोग १-१ ग्रास आहार दे पाते। आहार में मीठा, नमक, तेल, दही आदि रसों का त्याग ही था, प्रायः एक अन्न या दो अन्न मात्र ग्रहण करती थीं। अतः उनके नीरस और अल्पाहार को देखकर सबको आश्चर्य होता और वे सोचने को मजबूर हो जाते कि माताजी इतना परिश्रम कैसे कर लेती हैं, कहाँ से शक्ति आती है? किन्तु ज्ञानमती माताजी के जीवन का एक छोटा-सा सूत्र समस्त साधु समाज के लिए अनुकरणीय है_ "जैसे गाय घास खाकर मीठा दूध देती है, उसी प्रकार साधु रूखा-सूखा भोजन करके समाज को धर्मामृत प्रदान करते हैं। इसीलिए साधुओं की वृत्ति "गोचरीवृत्ति" कही गई है।" इसी सूत्र को सार्थक करती हुई आर्यिका श्री ने अपने कमजोर औदारिक शरीर से कठोर परिश्रम कर संसार को अथाह ज्ञानामृत पिलाया है। इसी तरह हैदराबाद, श्रवणबेलगोल, सोलापुर और सनावद में किए गए आपके चातुर्मास भी ऐतिहासिक रहे हैं। कतिपय उपलब्धियाँसन् १९६३ में कलकत्ते से आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी की गृहस्थावस्था की सुपुत्री कु. सुशीला को अनेक संघर्षों के मध्य घर से निकाला और सन् १९७४ में दिल्ली में आचार्य श्री धर्मसागरजी से दीक्षा दिलाकर "आर्यिका श्रुतमती" बनाया। जो वर्तमान में पू. ज्ञानमती माताजी की शिष्या आर्यिका श्री आदिमती माताजी के पास हैं। सन् १९६४ (वि.सं. २०२१) आंध्र प्रदेश के हैदराबाद शहर में आर्यिका संघ के चातुर्मास के मध्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गम्भीर रूप से बीमार हुईं। वहाँ की स्थानीय समाज ने भरपूर सेवा की। वैद्यराजजी भी कलकत्ते से आए, उनका इलाज चला। इसी बीच संघस्थ ब्र. कु. मनोवती ने माताजी से दीक्षा लेने का आग्रह किया। यहाँ एक अचम्भे और हँसी की बात है कि दीक्षा का नाम सुनते ही माताजी का स्वास्थ्य सुधरने लगा। हैदराबाद की जनता आश्चर्यचकित थी। वैद्यजी की औषधि से अधिक आरोग्यता तो उन्हें दीक्षा के नाम से प्राप्त हो गयी थी। कोई सोच नहीं सकता था कि इस कमजोर हालत में माताजी पांडाल तक जाकर मनोवती का दीक्षा संस्कार कर पाएंगी, किन्तु श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि को माताजी स्वयं चलकर पांडाल तक पहुँची तथा अपनी गृहस्थावस्था की लघु बहन कु. मनोवती को विशाल जनसमूह के मध्य क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान किया और "अभयमती" नाम घोषित किया। आंध्र प्रान्त में जैन दीक्षा का यह प्रथम अवसर था, जो वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया। - श्रवणबेलगोल गोम्मटेश्वर बाहुबली के इस ऐतिहासिक तीर्थ पर सन् १९६५ (वि.सं. २०२२) के चातुर्मास ने तो आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को एक ऐतिहासिक साध्वी का रूप प्रदान किया है। बाहुबली स्वामी के पादमूल में १५ दिन की अखंड मौनपूर्वक की गई ध्यान साधना ने उन्हें तेरह द्वीप के माध्यम से सब कुछ प्रदान कर दिया था। आगे चलकर यह तेरहद्वीप मात्र एक जम्बूद्वीप के रूप में परिवर्तित हुआ हस्तिनापुर की पावन वसुंधरा पर । जिसे उत्तर-दक्षिण का सेतु मानकर सारे देश के तीर्थयात्री तो देखने आते ही हैं, विदेशों से भी अनेक पर्यटक इस दर्शनीय स्थल को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं। बाहुवली की इस अमूल्य देन के साथ ही श्रवलबेलगोल के एक श्रेष्ठी श्री जी.वी. धरणेन्द्रैय्या की सुपुत्री कु. शीला को गृह कारावास से निकालकर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत दिया तथा सन् १९७४ में आचार्य श्री धर्मसागरजी के करकमलों से आर्यिका दीक्षा दिलाई। वे आर्यिका शिवमती माताजी आज आपके पास ही रह रही हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सन् १९६६ (वि.सं. २०२३) सोलापुर के श्राविकाश्रम चातुर्मास में शिक्षण शिविरों के माध्यम से जो ज्ञान का अलख जगाया, वह वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया है। वहाँ की प्रमुख ब्रह्मचारिणी पद्मश्री सुमति बाईजी एवं ब्र. कु. विद्युल्लताजी शहा ने आज भी उन पावन स्मृतियों को हृदय में संजो रखा है। सन् १९६७ (वि.सं. २०२४) में सनावद (म.प्र.) का चातुर्मास तो अधावधि जीवन्त है, क्योंकि वहाँ के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंद सर्राफ के सुपुत्र ब्र. मोतीचंदजी एवं उनके चचेरे भाई यशवन्त कुमार को अपना संघस्थ बनाकर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मोक्षमार्ग की अनेक अमूल्य शिक्षाओं से उनके जीवन बदल दिये। जिनमें से यशवन्त कुमार को मनि वर्धमानसागर बनाने का श्रेय आपको ही है। ब्र. मोतीचंदजी क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी के रूप में अद्यावधि आपकी छत्रछाया में जम्बूद्वीप संस्थान को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार कर सतत ज्ञानाराधना में तत्पर है। जम्बूद्वीप रचना निर्माण, ज्ञानज्योति प्रवर्तन तथा पूज्य माताजी के प्रत्येक कार्यकलापों में मोतीचंदजी की प्रमुख भूमिका होने के नाते सनावद चातुर्मास हस्तिनापुर के इतिहास से सदा के लिए जुड़ गया है। पुनः संघीय मिलन - इस पंचवर्षीय भ्रमण योजना के पश्चात् आचार्य श्री शिवसागर महाराज की प्रबल प्रेरणावश ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित पुनः आचार्य संघ में पधारीं। तब आचार्य संघ के साथ सन् १९६८ (वि.सं. २०२५) का चातुर्मास राजस्थान के "प्रतापगढ़" नगर में हुआ। अनंतर अधिक दिनों तक श्री शिवसागर महारांज का सानिध्य न मिल सका, क्योंकि सन् १९६९ में ही फाल्गुन कृ. अमावस्या को श्री शान्तिवीर नगर महावीरजी में आचार्य श्री का अल्पकाली बामारी से अचानक समाधि मरण हो गया। पुनः चतुर्विध संघ ने परम्परा के वरिष्ठ मुनिराज श्री धर्मसागरजी को तृतीय पट्टाचार्य मनोनीत किया और उन्हीं के सानिध्य में शांतिवीरनगर में होने वाला पञ्चकल्याणक महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ तथा मुनि आर्यिकाओं की ११ दीक्षाएं भी उनके करकमलों से प्रथम बार सम्पन्न हुईं। आचार्य श्री धर्मसागरजी के साथ भी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के लिए आचार्य श्री शिवसागरजी के समान ही धर्मसागरजी महाराज भी गुरु भाई थे, क्योंकि ये भी आचार्य श्री वीरसागर महाराज द्वारा दीक्षित मुनि शिष्य थे । होनहार की प्रबलता कहें या काल रोष, द्वितीय पट्टाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की समाधि के पश्चात् यह विशाल संघ २-३ टुकड़ों में बंट गया। आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज, अजितसागरजी, सुबुद्धि सागरजी श्रेयांस सागरजी आदि अनेक साधु तथा विशुद्धमती माताजी आदि कई आर्यिकाएं संघ से अलग हो गए। किन्तु आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी नूतन आचार्यश्री के आग्रह पर उसी संघ में रहीं । चतुर्मुखी प्रतिभा से सम्पन्न अलग विहार एवं धर्म प्रभावना में कुशल तथा संघ की अपेक्षा अलग रहकर समाज को अधिक लाभ देने में सक्षम साधुगण प्रायः अपने दीक्षागुरु तक के अनुशासन में रहने में परतंत्रता और कठिनाई का अनुभव करते हैं, किन्तु माताजी प्रारंभ से ही हर प्रकार के माहौल में रहने की अभ्यस्त रही हैं, क्योंकि उनका तो लक्ष्य मात्र यही रहा कि "दीक्षा प्रभावना के लिए नहीं, आत्म-कल्याण के लिए ग्रहण की जाती है।" Jain Educationa International सन् १९६९ (वि.सं. २०२६) में आचार्य श्री धर्मसागरजी के साथ ही माताजी का चातुर्मास भी जयपुर के बख्शी चौक में हुआ। यहाँ मैंने प्रथम बार ज्ञानमती माताजी के दर्शन किए थे, जिसकी आज भी मुझे परी स्मृति है। मैंने वहाँ देखा था कि माताजी दिन के ६ घंटे मुनि आर्यिका आदि को अष्टसहस्त्री, कातंत्र व्याकरण, राजवार्तिक आदि कई ग्रंथों का अध्ययन कराती थीं एक आचार्य संघ में साधुओं के शिक्षण की विधिवत् व्यवस्था का वह अनुकरणीय उदाहरण था। यह समुचित क्रम चला सन १९७१ के अजमेर चातुर्मास तक इससे पूर्व टोंक (राज.) में सन् १९७० का चातुर्मास भी आचार्यसंघ के साथ ही माताजी ने किया। घड़ी, दिन, महीने और वर्षों ने अब संघ की वृद्धि में भी चार चाँद लगा दिए थे। अजमेर चातुर्मास के मध्य भी कई दीक्षाएं हुई, जिसमें माताजी की गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी देवी ने भी अपने विशाल परिवार का मोह छोड़कर आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर 'रत्नमती' नाम प्राप्त किया था। मोइनिया इस्लामिया स्कूल के विशाल प्रांगण में ज्ञानमती माताजी ने अत्यन्त निर्ममतापूर्वक अपनी माता का केशलोंच किया था। वहाँ की जनता रो रही थी. परिवार बिलख रहा था, हम सभी बच्चे मां की ममता पाने को तरस रहे थे, किन्तु ज्ञानमती माताजी और बनने वाली रत्नमती माताजी के चेहरों पर अपूर्वं चमक तथा प्रसन्नता थी, जो कि सांसारिक राग पर विजयश्री प्राप्त करने की बात स्पष्ट झलका रही थीं। इसके बाद पुत्री और माता का संबंध गुरु और शिष्य में परिवर्तित हो गया था। 1. For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२५५ भारत की राजधानी दिल्ली में पदार्पणअजमेर चातुर्मास के पश्चात् पुनः आचार्य संघ से कुछ साधुओं ने अलग-अलग विहार किया। संघस्थ मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी के निर्देशन में कुछ मुनियों का संघ सम्मेदशिखर, बुंदेलखण्ड आदि तीर्थों की यात्रा हेतु निकला एवं आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ के साथ पीसांगन (राज.) से आचार्य श्री की आज्ञा लेकर ब्यावर पधारीं । ब्यावर में दिल्ली के कुछ गणमान्य व्यक्ति पूज्य माताजी के पास दिल्ली की ओर मंगल विहार करने हेतु प्रार्थना करने आए। सन् १९७२ की महावीर जयंती के पश्चात् आर्यिका संघ का विहार दिल्ली की ओर हुआ। वैशाख, ज्येष्ठ मास की चिलचिलाती धूप में कभी-कभी २४-२५ कि.मी. भी चलना पड़ता। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में यह प्रथम पदयात्रा थी, वृद्धावस्था में इस लम्बे विहार के कारण उनके पैरों में सूजन आ गई, अतः डोली की व्यवस्था भी की गई। पूज्य माताजी के इस प्रवास में लघुवयस्क दो मुनिराज (मुनि श्री संभवसागर मुनि श्री वर्धमान सागर) भी थे, जो कि प्रारंभ में माताजी के ही शिष्य रहे थे और माताजी की प्रेरणा से ही मुनि बने थे। वे लोग सन् १९७५ तक साथ में रहे। ___ आर्यिका संघ का मंगल पदार्पण आषाढ़ शु. ११ को पहाड़ी धीरज पर हुआ और सन् १९७२ का चातुर्मास पहाड़ी धीरज की "नन्हेंमल घमण्डीलाल जैन धर्मशाला" में सम्पन्न हआ। दिल्ली में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का यह प्रथम चातुर्मास अपने आप में ऐतिहासिक रहा, क्योंकि "दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान" की स्थापना सन् १९७२ में ही पहाड़ी धीरज पर हुई, जिसके माध्यम से आज देश-विदेश में विस्तृत धर्म प्रभावना हो रही है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का निर्माण, ग्रंथों का प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का संचालन, पूरे देश में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों एवं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों के आयोजन आदि विभिन्न कार्यक्रम इसी रजिस्टर्ड संस्थान द्वारा हस्तिनापुर कार्यालय से संचालित किए जाते हैं। पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव में सानिध्यईसवी सन् १९७४ में भगवान महावीर स्वामी का पच्चीस सौवाँ निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया, जिसमें पूज्य आर्यिका श्री की पावन प्रेरणा एवं अथक प्रयासों से दिल्लीवासी आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के विशाल संघ को दिल्ली लाए। उस समय तक दिल्ली की जनता को भय था कि यहाँ इतने बड़े संघ का निर्वाह कैसे होगा, उन साधुओं को शूद्रजल त्याग करके आहार कौन देगा . . . . इत्यादि। किन्तु माताजी ने यह कहकर वहाँ के शिष्ट-मंडल को आचार्य श्री के पास अलवर भेजा कि साधुओं के आहार की जिम्मेदारी मेरी है, तुम लोग तो मात्र उन्हें प्रार्थनापूर्वक दिल्ली तक ले आओ। आखिर हुआ भी यही, आचार्य श्री संघ सहित दिल्ली पधारे और पूरे शहर में अनगिनत चौके लगे, मानो वहाँ चतुर्थकाल का दृश्य उपस्थित हो गया था। आर्यिका श्री में संकल्पशक्ति अद्भुत है, वे जिस कार्य को भी हाथ में लेती हैं, उसे पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न करके दिखलाती हैं। इस प्रकार आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के दिल्ली पधारने से पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव में चार चाँद लगे, जिसका अन्तरंग श्रेय पूज्य माताजी को है। उस समय कई सामाजिक एवं शास्त्रीय विवादास्पद विषयों में आचार्य श्री इन्हीं आर्यिका श्री से विचार-विमर्श कर समस्याओं का गंभीरतापूर्वक समाधान करते थे, जो उनकी सिंहवृत्ति का परिचायक बना। आज दिल्ली और सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समाज उनकी निस्पृहता, भोलेपन तथा सिंहवृत्ति को स्मरण करता है। तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर का उद्धारहस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के वीरान जंगल ने आर्यिकाश्री को अपने संरक्षण हेतु पुकारा और उनकी पदरज पाकर हँसने-मुस्कराने लगा। सन् १९७४ में चातुर्मास से पूर्व श्री ज्ञानमती माताजी अपनी १-२ शिष्याओं को लेकर हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की यात्रा करने दिल्ली से निकलीं, साथ में ब्र. मोतीचंदजी थे। संयोगवश उन्हें यह तीर्थ पसन्द आया और यहीं पर उन्होंने मोतीचंदजी के द्वारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटी के प्रधानमंत्री बाबू सुकुमार चंद, मवाना के सेठ बूलचंदजी, लखमीचंदजी आदि महानुभावों के सहयोग से एक छोटी-सी भूमि का चयन कराया और सुमेरु पर्वत की नींव डलवाकर वे पुनः तीव्रगति से दिल्ली पहुँच गई, जहाँ आचार्यसंघ के साथ चातुर्मास सम्पन्न किया। दिल्ली के इस ऐतिहासिक चातुर्मास के पश्चात् उन्होंने अपनी दो शिष्याओं कु. सुशीला, कु. शीला को मृगशिर कृ. १० को आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा दिलाई, जिनके नाम क्रमशः आर्यिका श्रुतमतीजी और आर्यिका शिवमतीजी रखे गये। जनवरी सन् १९७५ में आपने अपने आर्यिका संघ सहित हस्तिनापुर की ओर विहार किया, पुनः फरवरी में आचार्य श्री भी अपने चतुर्विध संघ सहित ज्ञानमती माताजी की प्रारंभिक कर्मभूमि के अवलोकनार्थ हस्तिनापुर पधारे। माताजी तथा समस्त संघ प्राचीन बड़े मंदिर तथा गुरुकुल परिसर में ठहरा। आचार्य संघ का हस्तिनापुर में लगभग ४ माह का प्रवास रहा, इस मध्य तीर्थक्षेत्र के जलमंदिर, बाहुबलिमंदिर एवं जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाना होने वाले कल्पवृक्ष भगवान महावीर स्वामी मंदिर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई, जिसमें आचार्यश्री ने समस्त प्रतिमाओं को सूरिमंत्र प्रदान किए तथा द्वितीय महाकार्य संघस्थ मुनि श्रीवृषभसागर महाराज की विधिवत् सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण का हुआ। दोनों महायज्ञों में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इन्हीं की प्रेरणा विशेष से सोलापुर (महाराष्ट्र) के प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री वर्धमानजी शास्त्री ने समाज के आमंत्रण पर पधार कर आर्ष परंपरानुसार प्रतिष्ठाविधि सम्पन्न कराई। अपनत्व भरी एक वार्ताआचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज ९ अप्रैल, १९७५ को संघ सहित सहारनपुर की ओर जब हस्तिनापुर से विहार करने लगे तो पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को बड़े वात्सल्यपूर्वक प्रवचन सभा में संबोधित करते हुए कहा "माताजी! यहाँ आपके रुके बिना जम्बूद्वीप निर्माण का महान कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है। तीर्थक्षेत्र पर अधिक दिन रुकने में कोई बाधा नहीं है, अतः आप निर्विकल्प होकर हस्तिनापुर तीर्थ पर रहें। जम्बूद्वीप रचना शीघ्र पूर्ण होकर आपका मनोरथ सिद्ध होवे, यह मेरा आपको खूब-खूब आशीर्वाद है।" __ आचार्यश्री की इस अपनत्व भरी वार्ता ने पूज्य माताजी को संबल प्रदान किया और उनके दृढ़ संकल्प का प्रतीक जम्बूद्वीप रचना आज संसार को अपना साकार रूप दर्शा रही है। निर्बाध संयम साधनाईसवी सन् १९६५ से मस्तिष्क में आई जम्बूद्वीप रचना पृथ्वी पर बनने का संयोग प्राप्त हुआ १० वर्ष पश्चात् १९७५ से। १० वर्षीय मानसिक योजना प्रारंभ होने के बाद १० वर्ष के अन्तराल में ही पूर्ण हुई, तभी सन् १९८५ में उसका प्रतिष्ठापना महोत्सव मनाया गया, हालांकि सुमेरु पर्वत का शिलान्यास सन् १९७४ में आषाढ़ शु. ३ को हो गया था, अतः यह भी माना जा सकता है कि ९ वर्ष के गर्भकाल के पश्चात् जम्बूद्वीप का जन्म हो गया था। खैर! इस दीर्घकाल के मध्य कहीं पर माताजी के द्वारा रुकने का आश्वासन न देने के कारण ही अब तक इसका निर्माण न हो सका था। उनके मन में कई बार यह शंका उठ जाती कि इस निर्माण से मेरे संयम में कहीं कोई बाधा न आ जाए, अतः उन्होंने अपने शिष्य ब्र. मोतीचंदजी, ब्र. रवीन्द्रजी, कु. मालती, कु. माधुरी आदि शिष्य-शिष्याओं से स्पष्ट कहा था "मैं इस रचना निर्माण के लिए किसी से पैसा नहीं माँगूगी और न आहार संबंधी व्यवस्था की कोई चिन्ता करूँगी। यदि तुम लोग मुझसे निर्माण की प्रेरणा चाहते हो तो सारी जिम्मेदारी का भार तुम लोगों पर होगा, अन्यथा मुझे जम्बूद्वीप निर्माण में कोई रुचि नहीं है। मेरे संयम में किसी तरह का दोष लगना मुझे स्वीकार नहीं है।" उनके सभी शिष्यों ने आश्वासन प्रदान कर उन्हें चिन्तामुक्त किया और आज इस बात की प्रसन्नता है कि पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर, दिल्ली, खतौली, सरधना आदि स्थानों पर चातुर्मास किए, किन्तु उनके संयम में किसी प्रकार की कोई बाधा कभी नहीं आई। न तो उन्होंने कभी जम्बूद्वीप निर्माण के लिए किसी श्रावक से पैसे की याचना की और न ही अपने आहार आदि की व्यवस्था हेतु किसी को कहा। उनके जीवन का एक संकल्प प्रारंभ से रहा है कि “आहार में कभी संस्था के दान का एक पैसा भी नहीं लगना चाहिए और न ही साधु को अपने आहार के लिए श्रावकों से कहना चाहिए।" उनके इस नियम को अभी तक हम सभी ने पूर्णरूपेण पालन किया है और भविष्य में भी पूज्य माताजी की तरह निर्दोष संयम पालन की भावनावश इस नियम का पालन करने की उत्कट इच्छा है। जल तें भिन्न कयल का अनुपम उदाहरणमहापुरुष अपनी महानता का प्रचार करने हेतु किसी के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाते, बल्कि महानता स्वयं ही उनके चरण चूम-चूमकर स्वयं को धन्य करती है। यही बात पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन में चरितार्थ हुई है। उन्होंने गृह त्याग किया तो निज आत्मोद्धार के लिए, दीक्षा धारण की तो अपनी स्त्री पर्याय का छेद करने के लिए, साहित्य सृजन किया तो निज आत्मा की पवित्रता और मन की एकाग्रता के लिए, शिष्यों का निर्माण किया तो अपने सम्यग्दर्शन के संवेग, अनुकम्पा आदि गुणों की वृद्धि हेतु तथा शिष्य को संसार समुद्र से पार करने हेतु एवं जम्बूद्वीप तथा कमल मंदिर आदि के निर्माण में प्रेरणा प्रदान किया तो अपने पिण्डस्थ ध्यान को साकार करने हेतु। उन्होंने आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा कथित "आदहिदं कादव्वं" वाला सूत्र अपनाया, जिससे आत्महित के साथ-साथ परहित तो स्वयमेव ही हो रहा है। आज हस्तिनापुर में आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्रियों के मुँह से भक्ति के अतिरेक में यही निकल जाता है कि Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२५७ माताजी! आपने तो जंगल में मंगल कर दिया है, यहाँ की तो आपने काया ही पलट दी है, यहाँ आकर असीम शक्ति मिलती है, जैसे मानो स्वर्ग में ही आ गए हों। ज्ञानमती माताजी का उस समय मंद मुस्कराहट मुद्रा में उत्तर होता है "अरे भाई! हम तो अकिंचन साधु हैं, न हमारे पास पैसा है न कौड़ी, ऐसी स्थिति में तुम अपने (समस्त जैन समाज के) द्वारा किये कार्य को मेरा क्यों कहते हो? हाँ, मैंने तो मात्र शास्त्रों में छिपी जम्बूद्वीप रचना का नक्शा बताया है, बाकी मेरा इसमें कुछ भी नहीं है।" उनका यह आन्तरिक निस्पृहतापूर्वक दिया गया समाधान भक्तों को और भी अधिक अपनत्व भाव से भर देता है। तब वे समझने लगते हैं कि हाँ, सचमुच! यह जम्बूद्वीप तो हम सभी का है, हमने ही तो ज्ञानज्योति के माध्यम से अथवा यहाँ इसका साक्षात् निर्माण चलता देखकर सैकड़ों, हजारों, लाखों रुपये खर्च करके इसे बनाया है और पूज्य माताजी की दैवी प्रेरणा ने हमें संबल प्रदान किया है। शत-प्रतिशत सत्यता भी यही है कि गणिनी आर्यिका श्री जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका में निर्मात्री नहीं, क्योंकि उनके जीवन का अर्धभाग तो साहित्य सृजन-लेखन में व्यतीत होता है, चौथाई भाग अपनी नित्य-नैमित्तिक साधु क्रियाओं में और चौथाई भाग मजबूरीवश कमजोर शरीर के पालन में व्यतीत होता है, जिसका प्रत्यक्ष लाभ समाज को प्राप्त हो रहा है उनके वृहद् विधान पूजन, अध्यात्म, सिद्धान्त, न्याय, कथा आदि साहित्य के द्वारा । अभिवन्दनीय गणिनी माताजी के जीवन की यह व्यक्तिगत विशेषता देखी गई है कि हस्तिनापुर में करोड़ों रुपये के इस वृहद निर्माण के पीछे उन्हें आज तक यह नहीं ज्ञात है कि कहाँ से? कैसे? कितना रुपया? किस निर्माण के लिए आया और खर्च हुआ है। पैसा छूने की बात तो बहुत दूर है, वे अपने समक्ष रुपयों की बात भी नहीं करने देती हैं। संस्था तथा मूर्तिमंदिर आदि के निर्माण की प्रेरणा देने वाले साधुओं की प्रायः आज का विद्वद् समाज आलोचना करता है, किन्तु उनके लिए पूज्य माताजी का निस्पृह जीवन अवश्य ही अवलोकनीय है। उनका जीवन एक खुली पुस्तक के समान किसी भी समय नजदीकी से देखा जा सकता है। जैसा कि सन् १९७५ में फ्रांस की एन. शान्ता नामक एक महिला जैन साध्वियों पर रिसर्च करते समय पूज्य माताजी के साथ हस्तिनापुर आकर लगभग १५-२० दिन रुकी और २४ घंटे उनके समीप रहकर आहार विहार, धोती पहनना, सामायिक करना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, शयन आदि सब कुछ सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करती थीं। यहाँ तक कि वह महिला माताजी के आहार के पश्चात् उन्हीं की थाली में परोसा गया बिना नमक, बिना घी, बिना मीठे का नीरस भोजन भी करतीं और कहतीं कि अनुभव किये बिना इनकी चर्या का वर्णन थिसिस में कैसे लिखा जा सकता है? पूज्य माताजी का यह विशेष पुण्य ही मानना होगा कि ब्र. मोतीचंदजी (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागरजी) एवं ब्र. रवीन्द्रजी इन्हें पुष्पदन्त और भूतबली के समान ऐसे सुयोग्य शिष्य मिले, जिन्होंने माताजी को कभी निर्माण तथा रुपये संबंधी सिरदर्द ही नहीं होने दी। वात्सव में संयम साधना के क्षेत्र में योग्य शिष्यों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान की पूरी कमेटी इस बात से परिचित है कि "ज्ञानमती माताजी सचमुच जल तें भिन्न कमल" का अद्वितीय उदाहरण हैं। वर्तमान में साधु समाज में व्याप्त कुछ शिथिलाचारों को देखकर लोग सभी साधुओं को एक कोटि में लेकर निन्दा शुरू कर देते हैं, किन्तु मैं अपने अनुभव और तर्क के आधार पर गौरवपूर्वक कह सकती हूँ कि आज सर्वथा शिथिलाचारी साधु नहीं हैं, सूक्ष्मता एवं सामीप्य से देखने पर ७५ प्रतिशत शुद्ध परम्परा मिल सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। खैर! पर के द्वारा प्रमाणित अथवा अप्रमाणित मान लिए जाने पर सच्चेसाधु की आत्मसाधना पर कोई असर नहीं पड़ता, वह तो मुक्तिमार्ग का पथिक होने के नाते अपना आत्मशोधन करता है, यही शोधनकार्य मोक्षप्राप्ति में उसे सहायक होता है। इस कलियुग में पूज्य ज्ञानमती माताजी को यदि ब्राह्मी माता का अवतार कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पञ्चकल्याणकों में पावन सानिध्ययूँ तो अपने ४० वर्षीय दीक्षित जीवन में आर्यिका श्री ने राजस्थान, कर्नाटक, बिहार, दिल्ली आदि अनेक स्थानों पर पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाओं में अपना सानिध्य प्रदान किया है, किन्तु जम्बूद्वीप संस्थान को जम्बूद्वीप परिसर की पाँच पञ्चकल्याणकों में उनका मंगल सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य मिल चुका है। १. फरवरी सन् १९७५ भगवान महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा (कमल मंदिर)। २. मई सन् १९७९ सुदर्शन मेरु पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा। ३. मई सन् १९८५ श्री जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव । ४. मार्च सन् १९८७ श्री पार्श्वनाथ पञ्चकल्याणक महोत्सव। ५. मई सन् १९९० जम्बूद्वीप महामहोत्सव। इसके अतिरिक्त मार्च सन् १९९२ एवं अप्रैल, १९९२ में दो लघु पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाएं भी आपके निर्देशन में जम्बूद्वीप स्थल पर चन्द्रप्रभ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रतिमा की हो चुकी हैं। चातुर्मास कहाँ-कहाँ? - सन् १९५२ में गृह परित्याग के बाद लगभग ४-५ माह तक तो ब्रह्मचारिणी अवस्था में कु. मैना ने बिताया, चूँकि उस समय काफी संघर्ष एवं सामाजिक विरोधों के कारण वे दीक्षा न ले सकी थीं। पुनः उचित अवसर पाते ही सन् १९५३ में उन्होंने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की तथा सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लगभग पूरे भारत की पदयात्रा करते हुए खूब धर्म प्रभावना की एवं अद्यावधि कर रही हैं। उनके अब तक ४० चातुर्मास निम्न स्थानों पर सम्पन्न हो चुके हैं१. टिकैतनगर (उ.प्र.)-१९५३, २. जयपुर (राज.)-१९५४, ३. म्हसवड़ (महाराष्ट्र)-१९५५, ४. जयपुर खानियां-१९५६, ५. जयपुर खानिया-१९५७, ६. ब्यावर (राज.)-१९५८, ७. अजमेर (राज.)-१९५९, ८. सुजानगढ़ (राज.)-१९६०, ९. सीकर (राज.)-१९६१, १०. लाडनूं (राज.)-१९६२, ११. कलकत्ता (प. बंगाल)-१९६३, १२. हैदराबाद (आंध्र प्रदेश)-१९६४, १३. श्रवणबेलगोल (कर्नाटक)-१९६५, १४. सोलापुर (महाराष्ट्र)-१९६६, १५. सनावद (म.प्र.)-१९६७, १६. प्रतापगढ़ (राज.)-१९६८, १७. जयपुर (राज.)-१९६९, १८. टोंक (राज.)-१९७०, १९. अजमेर (राज.)-१९७१, २०. दिल्ली-पहाड़ी धीरज-१९७२, २१. दिल्ली-नजफ़गढ़-१९७३, २२. दिल्ली-दरियागंज-१९७४, २३. हस्तिनापुर (बड़े मंदिर में)-१९७५, २४. खतौली (उ.प्र.)-१९७६, २५. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर)-१९७७, २६. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर)-१९७८, २७. दिल्ली (मोरीगेट)-१९७९, २८. दिल्ली (कम्मोजी की धर्मशाला)-१९८०, २९. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८१, ३०. दिल्ली-कूचासेठ-१९८२, ३१. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८३, ३२. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८४, ३३. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८५, ३४. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८६, ३५. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८७, ३६. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८८, ३७. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९८९, ३८. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल)-१९९०, ३९. सरधना (मेरठ) उ.प्र.-१९९१, ४०. जम्बूद्वीप हस्तिनापुर-१९९२ । इनमें से प्रत्येक चातुर्मासों में शिविर, सेमिनार मंडल विधान आदि अनेक अविस्मरणीय वृहद् कार्य सम्पन्न हुए हैं। केशलोंचदिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की चर्या में केशलोंच उनका एक मूलगुण है, जो उत्तम, मध्यम, जघन्य विधि अनुसार दो, तीन, चार महीने में सम्पन्न करना होता है। पूज्य माताजी ने अपने ४० वर्षीय दीक्षित जीवन में १५० से अधिक बार केशलोंच किए। प्रारम्भ में तो दो से तीन माह के अन्दर ही शास्त्रोक्त मध्यम चर्यानुसार केशलोंच करना ही इन्हें इष्ट था। यह क्रम लगभग ३० वर्ष तक चला है, उसके पश्चात् शारीरिक अस्वस्थता के कारण ३ से ४ माह के बीच में करने लगीं, वह तारतम्य वर्तमान में भी चल रहा है। चाहे कैसी विकट परिस्थितियाँ इनके जीवन में क्यों न आईं, किन्तु अपने मूलगुणों के पालन में पूज्य माताजी सर्वदा सावधान देखी गईं। ये हम शिष्यों को हमेशा यही शिक्षा देती रहती हैं कि "शरीर तो भव-भव में प्राप्त होता है, किन्तु संयम बड़ी दुर्लभता से मिला है। शरीर स्वास्थ्य के लिए संयम की कभी विराधना नहीं करनी चाहिए, चाहे वह छूटे अथवा रहे।" इसी सूत्र का अनुसरण इन्होंने अपनी गम्भीर अस्वस्थता में भी किया है। सन् १९८५-८६ में जब म्यादी बुखार एवं पीलिया के कारण ये मरणासन्न अवस्था में थीं, तो भी अपने केशलोंच के समय का इन्हें परा ध्यान रहा और एक दिन मुझसे बोलीं-तुम मुझे राख लाकर दे दो, मैं आज लोंच करूँगी। समय अभी ८-१० दिन शेष था ४ माह में, किन्तु उठकर अपने हाथों से ही अपने सिर के पूरे केशों का लोंच किया। मैंने कुछ सहारा लगाने का प्रयत्न भी किया, किन्तु प्रारंभ से ही अपने हाथ से करने की आदत होने के कारण धीरे-धीरे स्वयं करती रहीं, मुझे एक बाल भी न उखाड़ने दिया। इस दृश्य से हम सभी आश्चर्यचकित थे, क्योंकि उन दिनों माताजी अशक्तता के कारण दीर्घ शंका, लघु शंका के लिए खड़ी भी नहीं हो पाती थीं। यहाँ तक कि कुछ दिन तक करवट भी स्वयं बदलने में असमर्थ रहीं। मेरी लगभग २४ घंटे उनके पास ड्यूटी होती थी और सभी शिष्यगण परिचर्या में लगे हुए थे। ऐसे गम्भीर अस्वस्थ क्षणों में दो घंटे लगातार बैठकर अपने हाथों से केश उखाड़ना मात्र कोई देवी शक्ति एवं असीम आत्मबल का ही प्रतीक था। तपस्या की इसी दृढ़ता ने इन्हें सदैव नवजीवन प्रदान किया है। इनकी छत्रछाया मुझे भी ऐसी चारित्रिक दृढ़ता प्रदान करे, यही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२५९ अपूर्व कार्यक्षमताउस दीर्घकालीन अस्वस्थता के पश्चात् माताजी आज भी एक स्वस्थ व्यक्ति से कहीं अधिक कार्य करती हैं। उन्हें शिष्यों का भी एक मिनट खाली बैठना पसंद नहीं है। जीवन के १-१ क्षण का सदुपयोग करने की शिक्षा उनके सानिध्य से सहज प्राप्त हो सकती है। तभी तो उन्होंने सन् १९८६ की मरणोन्मुखी अस्वस्थता के बाद भी कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, तीन लोक, जम्बूद्वीप आदि वृहद् मंडल विधानों की रचना की तथा समयसार ग्रंथ का अनुवाद किया, अनेक मौलिक ग्रंथों का सृजन किया तथा वर्तमान में "सिद्धचक्र मंडल विधान" का नवीन रचना कार्य चल रहा है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग उनकी नियति है। प्रातःकाल हम लोगों को उनके पावन सानिध्य में धवल, जयधवल, समयसार आदि ग्रंथों के सामूहिक स्वाध्याय का लाभ प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त उनका समय अपनी दैनिक क्रियाओं में तथा स्वाध्याय और भाक्तिकों को आशीर्वाद प्रदान करने में व्यतीत होता है। शुद्ध प्रासुक लेखनी चिरकाल तक जीवन्त रहेगीआचार्य श्री कुंदकुंद, उमास्वामी, समंतभद्र, अकलंकदेव तो हमने नहीं देखे, जो हमें अपने हाथों से लिखकर अमूल्य साहित्यिक कृतियां प्रदान कर गए, किन्तु उन सबका मिला-जुला रूप हमें वर्तमान में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के अंदर दृष्टिगत हो रहा है। जिन्होंने पूर्वाचार्यों की वाणी से अनुस्यूत एक-एक शब्द अपने ग्रंथों में संजोया है, पापभीरुता जिनमें कूट-कूट कर भरी हुई है, मनगढ़त एक शब्द भी जिनकी कृतियों में उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसी शुद्ध लेखनी को जग का बारम्बार प्रणाम है। प्रासुक लेखनी से हमारे पाठक भ्रमित हो सकते हैं कि पानी, दूध तथा खाद्य पदार्थ प्रासुक किये जाते हैं, क्या लेखनी भी किसी की प्रासुक हो सकती है? हाँ, लेखनी भी प्रासुक है, तभी तो उनके द्वारा लिखित ग्रंथों में अतिशय देखा जा रहा है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने जीवन में कभी बॉलपेन, बाजारू इंक, नये फैशन के पॉयलट आदि पेन प्रयोग नहीं किए, छुए भी नहीं। तब प्रश्न होता है कि इतने सारे ग्रंथ लिखे कैसे? सूखी नीली कोरस टिकिया का बुरादा अपने कमंडलु के गरम जल में घोलकर फाउन्टेन पेन से डुबोकर उन्होंने सदैव लेखन कार्य किया है। चौबीस घंटे की मर्यादा के बाद पुनः कमंडलु के गरम-प्रासुक जल से पेन की निब धोकर दूसरी नई स्याही घोलकर लिखना यही उनका दैनिक लेखन क्रम है। सन् १९६९-७० में अष्टसहस्री अनुवाद की ९ कापियाँ तो कच्ची पेंसिल से लिखी हैं और १ कापी स्याही से लिखी है। मैंने प्रायः सभी लेखक आचार्यों, मुनियों, आर्यिकादिकों को बॉलपेन और इंक भरे पेन प्रयोग करते देखा है, मात्र एक पूज्य माताजी को ही इस प्रकार प्रासुक लेखनी से लिखते देखकर हृदय श्रद्धा से अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। पाठकों का उनकी इस विशेषता पर शायद ध्यान आकर्षित न हो, किन्तु यह शुद्ध प्रासुक लेखनी आर्यिका श्री की बाह्य एवं अंतरंग पवित्रता को चिरकाल तक दर्शाती रहेगी। हस्तिनापुर तथा आस-पास नगरों का मंगलमयी प्रवासभगवान ऋषभदेव की प्रथम पारणा स्थली शांति, कुंथु, अरहनाथ की कल्याणक भूमि एवं अनेक इतिहासों को अपने गर्भ में संजोए हुए हस्तिनापुर नगरी ऐतिहासिक एवं पौराणिक तो है ही, जम्बूद्वीप के निर्माण ने इस चेतना के स्वरों में नवजीवन प्रदान कर दिया है। अपनी कर्मभूमि एवं तपोभूमि जंबूद्वीप स्थल पर निर्मित 'रत्नत्रय निलय' वसतिका में प्रायः पूज्य माताजी का ससंघ वास्तव्य रहता है। उनकी शारीरिक अशक्तता ने जहाँ उन्हें हस्तिनापुर में अधिक प्रवास के लिए बाध्य किया है, वहीं देश-विदेश की जनता को उनसे असीम लाभ प्राप्त हो रहा है। जम्बूद्वीप दर्शनार्थ आने वाले अधिकतर यात्रियों को यहाँ यदि आस-पास में बिहार कर रही ज्ञानमती माताजी के दर्शन नहीं होते हैं तो वे अपनी यात्रा अधूरी समझकर उन्हें ढूंढ़ते हुए कहीं न कहीं पहुँचकर दर्शन करके ही यात्रा को पूर्ण मानते हैं। सन् १९८९-९० में जब बड़ौत, मोदीनगर, मेरठ, अमीनगरसराय आदि नगरों में शीतकालीन प्रवास के समय देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों से आये हुए भक्तगण स्थान का पता लगा-लगाकर दर्शनार्थ पहुँचे। उस समय बड़ौत के निकट एक पोयस नामक बहुत छोटे से ग्राम में विदेश (जापान) से पधारे हुए योशिमाशा मिचिवाकी पूज्य माताजी एवं संघ के दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उनके साथ में पधारे डॉ. अनुपम जैन ब्यावरा (म.प्र.) ने उन्हें जैन साधुओं के पद विहार, कठिन तपश्चर्या आदि के विषय में बतलाया, जिसे सुनकर वे बड़े प्रभावित हुए। इसी प्रकार गत सन् १९९१ में हस्तिनापुर से ५० कि.मी. दूर सरधना नगर में पूज्य माताजी का जब संघ सहित चातुर्मास हुआ, तब वहाँ प्रतिदिन मेला-सा लगा रहा। राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि अनेक प्रान्तों से यात्री बसों का तांता लगा रहा। सरधना निवासी बड़ी प्रसन्नतापूर्वक अतिथियों का आतिथ्य सत्कार करते तथा अपने नगर को एक जीवन्त तीर्थ मानते हुए फूले नहीं समाते । हस्तिनापुर के आस-पास सैकड़ों ग्रामों एवं शहरों में विशाल जैन समाज है, उन सभी की अपने-अपने नगरों में माताजी को ले जाकर सानिध्य प्राप्त करने एवं ज्ञान लाभ लेने की तीव्र अभिलाषा है, किन्तु विहार करने में लीवर गड़बड़ हो जाने के कारण डाक्टर, वैद्य, हकीम माताजी को चलना हानिकारक बतलाते हैं। इसीलिए "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" का सूत्र अपनाते हुए माताजी भी हस्तिनापुर प्रवास में अपना आत्मिक हित समझती हैं। यहाँ उनकी रत्नत्रय साधना, ज्ञानाराधना तो समुचित चलती ही है, सारे देश का जैन-अजैन जनता भी उनसे हस्तिनापुर आकर जितना लाभ प्राप्त करती है उतना शायद किसी नगर में संभव नहीं है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य माताजी अक्सर यह कहा करती हैं कि जब तक मेरे पैरों में शक्ति थी, स्वास्थ्य अनुकूल था। मैंने हजारों मील की पद यात्रा कर ली है। अब मुझे डोली में बैठकर विहार में मानसिक अशांति होती है। मुझे किसी तरह की प्रभावना आदि का लोभ नहीं है, अतः हस्तिनापुर में रहकर मेरी आत्म साधना ठीक चलती रहे, यही मेरी कामना है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साधुसंघ विहार की प्रेरिकाजंबूद्वीप रचना के माध्यम से श्री ज्ञानमती माताजी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जहाँ एक विश्व की अद्वितीय धरोहर प्रदान की है, वहा बड़े-बड़े साधु संघ भी आपकी प्रेरणा से इस प्रान्त में पधारे, जिससे जैनत्व का विस्तृत प्रचार हुआ है। परमपूज्य आचार्य श्री १०८ धर्मसागर महाराज के पदार्पण के पश्चात् सन् १९७५ में आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महारान का हस्तिनापुर एवं उत्तर प्रदेश के कुछ नगरों में पदार्पण हुआ, पुनः सन् १९७९ में सुमेरु पर्वत की प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्यकल्प श्रेयांस सागर महाराज का ससंघ पदार्पण हुआ। सन् १९८५ में जंबूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव पर आचार्य श्री धर्मसागर महाराज संघस्थ मुनि श्री निर्मल सागरजी एवं कतिपय मुनि-आर्यिकाओं का आगमन हुआ तथा आचार्य श्री सुबाहुसागर महाराज ससंघ पधारे। पूज्य माताजी की सदैव यह हार्दिक इच्छा रही है कि संसार में प्रथम बार निर्मित जंबूद्वीप रचना के दर्शनार्थ एवं उत्तर प्रदेश की जनता के धर्म लाभ हेतु सभी साधु संघ हस्तिनापुर एवं इस प्रांत में पधारें। अपने निकटस्थ भक्तों को वे इसके लिए प्रेरणा भी प्रदान करती रही हैं। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप सन् १९८७ में सन्मार्ग दिवाकर आचार्य श्री विमलसागर महाराज के विशाल संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ और मेरठ, बड़ौत आदि शहरों में भी कुछ समय तक संघ का प्रवास रहा। इसी प्रकार सन् १९८९ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री कुंथुसागर महाराज के चतुर्विध संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ। यहाँ ४० दिवसीय प्रभावना पूर्ण प्रवास के पश्चात् बड़ौत, मुजफ्फरनगर आदि नगरों में उनके चातुर्मास भी हुए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की इस प्रेरणा, उदारता से अपने को सौभाग्यशाली मानती हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य श्री सुमतिसागर महाराज, श्री दर्शन सागरजी, आचार्य श्री कल्याणसागरजी आदि के संघ इस प्रदेश में पधारते हैं। वे जंबूद्वीप रचना के निमित्त से हस्तिनापुर भी अवश्य पहुँचते हैं, यह सब पूज्य माताजी की प्रबल प्रेरणा एवं धर्मवात्सल्य का ही फल है। तन्मयता ने चिन्मयता दीकुशल व्यापारी जब व्यापार में तन्मय होता है तो एक दिन सेठ बन जाता है, कुशल चित्रकार अपनी चित्रकारी में तन्मय होकर अचेतन चित्रों में जान फूंक देता है, कुशल डाक्टर तन्मयतापूर्वक मरीजों का इलाज, ऑपरेशन आदि के द्वारा उसे नवजीवन प्रदान कर देता है, ध्यानी दिगम्बर मुनि ध्यान में तन्मय होकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, शिष्य तन्मयतापूर्वक अध्ययन करके ऊँची-ऊँची डिग्री प्राप्त कर लेते हैं, गुरु तन्मयतापूर्वक शिष्यों को पढ़ाकर अपने से भी अधिक योग्य बना देते हैं। कहने का मतलब यह है कि तन्मयता प्राणी को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देती है। तत् शब्द में मयट् प्रत्यय लगकर तद्रूप अर्थ में 'तन्मय' शब्द प्रयुक्त होता है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी जब अपने लेखन में तन्मय हो जाती हैं, तब उन्हें अपने दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों का भान ही नहीं रहता। आश्चर्य तो तब होता है, जब हम लोगों के द्वारा बताए जाने पर कि दूर-दूर से दर्शनार्थी आये हैं, आपने इन्हें हाथ उठाकर आशीर्वाद भी नहीं दिया, तब वे कहती हैं कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। मैं लेखन करती हुई साक्षात् समवशरण या अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शनार्थ पहुँच गयी थी। अभी ३ जुलाई की बात है-तहसील फतेहपुर (उ.प्र.) से पुतानचंदजी के सुपुत्र यशवंत कुमार और सुपुत्री हस्तिनापुर आए, माताजी के दर्शन किए, मैं दूसरे कमरे में बैठी लिख रही थी, मेरे पास आए, दर्शन किए और बोले शायद बड़ी माताजी ने हमें पहचाना नहीं। मैं उन्हें लेकर १५ मिनट बाद फिर माताजी के पास पहुँची, माताजी ने उन्हें देखा और उन लोगों के साथ पुतानचंदजी के बारे में भी पूछा, फिर कहने लगी कि तुम लोग कब आए हो? मैंने कहा, ये तो अभी आपके दर्शन करके गए हैं। माताजी मुस्कराने लगी और बोलीं-मैं सिद्ध भगवान के गुणों में मगन थी (वे सिद्धचक्र विधान की रचना कर रही थीं) मुझे कुछ पता नहीं कि कौन कब मेरे दर्शन करने आया। खैर! वे लोग तो बेचारे माताजी की प्रवृत्ति जानते थे, इसलिए बुरा न मानकर पुनः उनका आशीर्वाद ग्रहण किया, किन्तु कितनी ही बार ऐसे प्रसंगों में कुछ भक्तगण नाराज भी हो जाते हैं। उनका कहना रहता है कि माताजी कम से कम हमारी ओर देखकर आशीर्वाद तो प्रदान करें, हम लोग दूर-दूर से केवल उन्हीं के दर्शनार्थ तो आते हैं, उनकी एक दृष्टिमात्र से हमारी सारी थकान दूर हो जाती है। किसी अंश में भक्तों की अपनत्व भरी यह शिकायत मुझे सत्य ही प्रतीत होने लगती है और मैं माताजी से हंसी-हंसी में कहती भी हूँ कि लेखन के समय आपके साथ तो 'मयट्' प्रत्यय ही लग जाता है, तब आप सचमुच तद्रूप परिणत हो जाती है। उस समय माताजी का कहना होता है कि तन्मय हुए बिना सुंदर कार्य की उपलब्धि नहीं होती है। अधिक जोर देने पर वे कहने लगती हैं, "ध्यान और अध्ययन तो साधु का लक्षण ही है" इसमें भी श्रावक यदि बुरा मानें तो मैं क्या कर सकती हूँ। अब भक्तगण इस विषय पर स्वयं विचार करें और लिखाई-पढ़ाई में व्यस्त पूज्य Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६१ माताजी से उनके बातचीत के समय पर ही बात करने का प्रयास करें। क्योंकि उनकी यह तन्मयता जहाँ उनके स्वयं के लिए हितकारी है, वहीं लाखों लोगों को ज्ञान और भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती है। यही तन्मयता उन्हें चिन्मयता प्रदान करती है। तपस्विनी की पिच्छिका से घाव ठीक हुआअभी जून, १९९२ में सरधना से एक महिला हस्तिनापुर पधारी। उन्होंने यहाँ आकर दर्शन करते ही गद्गद स्वर में कहना शुरू किया कि माताजी की पिच्छी में तो जादू भरा है, असाध्य रोग भी इनकी पिच्छिका स्पर्श से ठीक हो जाते हैं। अनेक स्थानों से पधारे तीर्थयात्री एवं भक्तगण उत्सुकतावश जिज्ञासापूर्ण दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे कि ये माताजी की पिच्छिका का कौन-सा अतिशय बताने जा रही हैं। वे महिला आगे कहने लगीं-"मेरे ससुर बाबूरामजी शुगर के मरीज हैं। उनके पैर में तीन वर्ष से एक बड़ा घाव था। न जाने कितनी दवाइयाँ करने पर भी यह घाव भर नहीं रहा था, जिससे वे बड़े परेशान रहते थे। घर में ही चौबीस घंटे लेटे-लेटे दुःखी थे। एक दिन उनका कुछ पुण्योदय हुआ। पूज्य माताजी आहारचर्या के बाद वापस आ रही थीं, तभी मालियान मोहल्ले में स्थित हमारे घर के सामने से निकलीं। पिताजी ने उन्हें नमोऽस्तु किया और हमने माताजी से उनकी तकलीफ बताई, तब पूज्य माताजी ने मंत्र पढ़कर मस्तक पर पिच्छी लगाई तथा उनसे णमोकार मंत्र की माला फेरने को कहा। आश्चर्य क्या महान् अतिशय ही नजर तब आया, जब २-३ माह के अंदर ही बिना किसी दवाई के घाव बिल्कुल सूख गया और अब पिताजी स्वस्थ हैं, प्रतिदिन माताजी को याद कर परोक्ष में ही उनकी भक्तिपूर्वक वंदना करते हैं। गुर्दे के रोगी ठीक हुएइसी प्रकार एक दिन मेरठ-सदर निवासी जीवन बीमा निगम के एजेंट श्री विजय कुमार जैन सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, साथ में उनकी सुपुत्री कु. प्रियांगना थी। वे बड़ी श्रद्धापूर्वक दर्शन करके माताजी से कहने लगे कि क्या आपने मुझे पहचाना नहीं? पूज्य माताजी द्वारा उन्हें पहचानने के लिए मस्तिष्क पर जोर डालने पर वे महानुभाव स्वयं अपना परिचय बताने लगे। मैं सन् १९८७ में अपनी बेटी को आपसे आशीर्वाद दिलवाने लाया था। १२ वर्ष से इसे गुर्दे की बीमारी थी। डाक्टर ने १५ अगस्त सन् १९७५ को पूरा चेकअप करके घोषित किया कि इसे गुर्दे की बीमारी है। उसके बाद हमने किसी डॉक्टर का कोई इलाज बाकी नहीं छोड़ा, किन्तु सन् १९८७ में इसके दोनों गुर्दे बिल्कुल खराब हो गए। मैं बहुत परेशान था, तभी एक दिन अमरचंदजी होमब्रेड वालों की प्रेरणा से मैं लड़की को लेकर उन्हीं के साथ आपके पास आया। आपने छोटा-सा मंत्र पढ़कर इसे प्रतिदिन पानी देने को कहा और अपनी पिच्छी से आशीर्वाद दिया, तब से मेरी लड़की बिल्कुल स्वस्थ है। पुनः चेकअप कराने पर अब इसके कोई बीमारी नहीं निकली। उन्होंने कहा मेरी और मेरे परिवार की आपके प्रति अगाध श्रद्धा है, हम लोग तो प्रायः आपके दर्शनार्थ आते ही रहते हैं। माताजी मुस्कराईं और उन लोगों को, कु. प्रियांगना को खूब-खूब आशीर्वाद दिया तथा अपनी पहचानने में स्मरण शक्ति कमजोर कहकर खेद व्यक्त किया। वैसे उन्हें शास्त्रीय बातें तो ५० वर्ष पूर्व की भी याद हैं। जो कभी किसी ग्रंथ में पढ़ी थीं, उन्हें दीर्घकाल के बाद भी ज्यों की त्यों बता देती हैं। पूज्य माताजी कभी-कभी मितभाषा में कहा करती हैं कि "जिससे मेरा आत्महित होता है, मैं उसी को याद रखती हूँ, शेष सब कुछ मुझे अनावश्यक प्रतीत होता है, इसीलिए मेरा मस्तिष्क उन्हें याद नहीं रखता है।" आशीर्वादवश काल से बाल-बाल बचेअभी चंद दिन पूर्व दिनांक ६ जुलाई, १९९२ को मेरठ से प्रेमचंद जैन तेल वाले सपत्नीक हस्तिनापुर पधारे, उनके साथ उनके भतीजे सुभाष जैन भी सपत्नीक तथा और भी कुछ महिलाएं थीं। ये लोग पूज्य माताजी के सानिध्य में आज शांतिविधान करने आए थे। थोड़ी देर बातचीत के दौरान बताने लगे कि माताजी! आपके आशीर्वाद से सुभाष एवं उसकी बहू मत्यु के मुंह से बच गए। कैसे, क्या हुआ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि अभी पिछले सप्ताह ही दो बार की गंभीर चोटों के बाद कुछ स्वस्थ होकर आपके दर्शनार्थ आया था। आपने इसे गले में पहनने के लिए यंत्र दिया और अपने सामने ही चाँदी की डिब्बी में वह यंत्र डलवाकर पहनवाया था। पुनः ये लोग आपका आशीर्वाद लेकर मेरठ के लिए वापस चले तो रास्ते में एक बस से इनकी गाड़ी में तेज टक्कर लगी। बस, पता नहीं यंत्र और पुण्य सामने आ गया और ये लोग बच गए, जबकि उस गम्भीर एक्सीडेंट में इन लोगों को अपने बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। किसी तरह घर तक पहुँचकर ये हम लोगों से चिपक कर खूब रोए और अपने गले का यंत्र दिखाकर बार-बार यही कहने लगे कि आज तो हमें माताजी के इसी आशीर्वाद ने बचाया है, वरना हम घर तक वापस नहीं आ सकते थे। इस तेज टक्कर के बाद भी किसी को खरोंच तक न आई, मात्र Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] गाड़ी कुछ खराब होकर रह गई। पूज्य माताजी कहने लगीं - इसमें हमारा कुछ भी नहीं है, जिनधर्म और उसमें वर्णित मंत्रों में आज भी महान् शक्ति है। जो हृदय से इसे धारण करता है, उसके अकाल मृत्यु जैसे महासंकट भी टल जाते हैं। तुम्हारा आयुकर्म शेष था, अतः बच गए, अब धर्म में अडिग श्रद्धा रखना इत्यादि । वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ये तो मैंने तत्काल बीती २-३ घटनाओं का दिग्दर्शन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इनके जीवन की ऐसी सैकड़ों घटनाएं हैं, जो जैन दीक्षा की कठोर तपस्या एवं अखंड ब्रह्मचर्य का प्रभाव बतलाती है। कई महिलाओं ने तो पूज्य माताजी के शारीरिक स्पर्श-मालिश करके अपने अनेक शारीरिक रोगों को नष्ट कर इन्हें अतिशयकारी "विशल्या" की संज्ञा प्रदान की है। पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी माता मोहिनी द्वारा प्रदत्त तेरह संतानों में से आप पांचवीं कन्यारत्न हैं। सन् १९४२ में मगशिर सु. सप्तमी को टिकैतनगर (जि. बाराबंकी) में जन्मी इस कन्या का नाम रखा गया- "मनोवती।" सन् १९६२ में ये अपनी माँ के साथ लाडनूं (राजस्थान) में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के पास आईं और फिर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर त्यागमार्ग में प्रवृत्त हुईं। सन् १९६४ में हैदराबाद चातुर्मास के मध्य आपने पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर "अभयमती" नाम प्राप्त किया, पुनः सन् १९६९ में फाल्गुन सु. ८ को श्री शांतिवीर नगर महावीरजी में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के कर कमलों से 'आर्यिका दीक्षा' धारण कर "आर्यिका श्री अभयमती माताजी" बन गईं। गणिनी आर्यिका श्री के वर्तमान संघस्थ शिष्यों के संक्षिप्त परिचय सन् १९७२ में आपने बुंदेलखंड की यात्रा हेतु संघ से अलग विहार किया, पुनः सन् १९८६ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ पधारीं तब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपका विहार होता रहता है। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर भी आपके तीन चातुर्मास सम्पन्न हुए हैं। शारीरिक स्वास्थ्य अत्यंत कमजोर होते हुए भी आप अपनी रत्नत्रय साधना में अत्यंत दृढ़ हैं। साहित्यसृजन के भी कई कार्य आपके द्वारा हुए हैं, जो आपकी विद्वा के प्रतीक है। आर्यिका श्री शिवमती माताजी कर्नाटक के श्रवणबेलगोला (गोम्मटेश्वर बाहुबली) निवासी श्रेष्ठी श्री जी.वी. धरणेन्द्रया को धर्मपत्नी श्रीमती ललितम्मा ने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया— शीला । सन् १९६५ में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने आर्यिका संघ सहित श्रवणबेलगोला में चातुर्मास किया, तब कु. शीला को गृह बंधन से निकालकर मोक्षमार्ग में लगाया। तब से ये पूज्य माताजी के पास ही धर्माराधन कर रही हैं। सन् १९७३ में माताजी ने इन्हें सप्तमप्रतिमा के व्रत दिये तथा सन् १९७४ में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा दिलवाई। अब आर्यिका श्री शिवमतीजी के नाम से माताजी के संघ में ही रह रही हैं। आर्थिका बंदनामती इस परिचय की लेखिका रूप में मैं अपना परिचय स्वयं पाठकों को प्रदान कर रही हूँ। १८ मई, सन् १९५८ ज्येष्ठ कृ. अमावस्या को टिकैतनगर (जि. बाराबंकी, उ. प्र.) में माता मोहिनी ने मुझे अपनी बारहवीं संतान के रूप में जन्म दिया था। ऐसा मैंने अपने पिताजी श्री छोटेलालजी के पुराने बहीखाते में लिखा पाया । विरासत में प्राप्त धर्मसंस्कारों के अनुरूप मैंने सन् १९७१ में सुगंधदशमी के दिन अजमेर (राज.) में "कु. माधुरी" की अवस्था में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के करकमलों से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। सन् १९८२ में दो प्रतिमा एवं सन् १९८७ में सप्तम प्रतिमा धारण की तथा १३ अगस्त सन् १९८९ (श्रावण शु. ११) को जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर में ही पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के करकमलों से मैंने आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर "चंदनामती" नाम प्राप्त किया है। ३ वर्षों से गुरु की छत्रछाया में मेरी रत्नत्रय साधना एवं ज्ञानाराधना निर्विघ्न रूप से चल रही है। इसी प्रकार भविष्य में चारित्र एवं ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि का आशीर्वाद गुरुचरणों से अपेक्षित है। - Jain Educationa International पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी महाराज - ईसवी सन् १९४० में सनावद (म.प्र.) के श्रेष्ठी श्री अमोलकचंदजी सर्राफ की ध.प. श्रीमती रूपाबाई ने आश्विन कृ. चतुर्दशी को एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया-मोतीचंद । For Personal and Private Use Only . Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६३ सन् १९५८ में मोतीचंदजी ने स्वयमेव भगवान के पास आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया, पुनः सन् १९६७ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का जब सनावद में चातुर्मास हुआ, तब पूज्य माताजी की प्रबल प्रेरणा से ये उनके संघस्थ शिष्य बने। उसके बाद से आज तक आप गुरु के सानिध्य में ही धर्माराधन आदि कर रहे हैं। पूज्य माताजी द्वारा किये गये प्रत्येक लघु एवं वृहत् कार्य को प्रारंभ करने का प्रथम श्रेय आपने प्राप्त किया है। जंबूद्वीप रचना निर्माण के पश्चात् ब्र. मोतीचंदजी ने अपनी दीक्षा की भावना प्रकट की, अतः पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री विमल सागर महाराज के संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ और ८ मार्च सन् १९८७ को आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर "मोतीसागर" नाम प्राप्त किया। २ अगस्त सन् १९८७ को पूज्य माताजी ने दिग. जैन. त्रि. शो. संस्थान की भावी योजनाओं के आधार पर आपको यहाँ के "पीठाधीश" पद पर आसीन किया है। गुरु आज्ञानुसार आप सतत ज्ञान एवं संयम का पालन करते हुए जम्बूद्वीप संस्थान को अपना निर्देशन प्रदान कर रहे हैं। क्षुल्लिका श्री शांतिमती माताजीमध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में ग्राम "मोहनगढ़" में श्री धर्मदास मोदी की ध.प. श्रीमती भूरी बाई ने वि.सं. १९८७ में एक कन्या को जन्म दिया, जिसका नाम रखा–कस्तूरीबाई। १४ वर्ष की अवस्था में ग्राम "मवई" के दानवीर बजाज नाथूराम जी के छोटे भाई "श्री छक्कीलालजी" के साथ इनका विवाह हुआ। १ पुत्र एवं तीन पुत्रियों की माँ कस्तूरीबाई लगभग २२ वर्ष तक पति के साथ रहीं, पश्चात् वि.सं. २०२३ में पति का देहावसान हो गया। पुनः वि.सं. २०३५ में फाल्गुन कृ. पंचमी को आचार्य श्री पार्श्वसागरजी (आचार्य श्री महावीर कीर्ति के शिष्य) से टीकमगढ़ के पास “बमोरी" ग्राम में क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर "शांतिमती माताजी" बन गईं। अब आप लगभग १३ वर्षों से आर्यिका श्री अभयपती माताजी के साथ रहती हैं और उन्हें ही विद्यागुरु मानती हैं। ६२ वर्ष की इस वद्धावस्था में आप निर्विघ्न रत्नत्रय साधना में अग्रसर हैं। क्षुल्लिका श्री श्रद्धामती माताजीआज से लगभग ६५ वर्ष पूर्व बिहार प्रान्त के "आरा" शहर में जन्मी "श्यामादेवी" के पिता का नाम “राजेन्द्र प्रसाद जैन" तथा माता का नाम "चंदा देवी" था। टिकैतनगर के श्रेष्ठी श्री पुत्तीलाल जैन के सुपुत्र श्री नन्हूमल जैन के साथ “श्यामाबाई" का विवाह हुआ। उसके बाद गृहस्थावस्था में आपने ३ पुत्र एवं ३ पुत्रियों को जन्म दिया। लगभग ४३ वर्ष की आपकी उम्र थी, जब पति का आकस्मिक देहावसान हो गया। सन् १९८५ में आपने पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का सानिध्य प्राप्त किया, पुनः सप्तम प्रतिमा आदि व्रतों को अंगीकार कर १५ अक्टूबर सन् १९८९ कार्तिक कृ. एकम को पूज्य माताजी से ही हस्तिनापुर में क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर "श्रद्धामती" नाम प्राप्त किया। निबंध रूप से इस वृद्धावस्था में भी आप धर्मध्यान एवं गुरु वैयावृत्ति में संलग्न रहती हैं। बाल ब्र. श्री रवीन्द्र कुमारजीनवयुवकों के आदर्श भाई रवीन्द्रजी का नाम आज चिरपरिचित हो गया है, क्योंकि हस्तिनापुर में जंबूद्वीप कार्यालय की प्रत्येक गतिविधि इनके निर्देशन में ही चलती है। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री के लघुभ्राता रवीन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी सन् १९५० में हुआ। पिता श्री छोटेलालजी एवं माता मोहिनी ने अपने एक मात्र इसी पुत्र को लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.ए. तक अध्ययन कराया। स्नातक होने के बाद भी संसार के मोहचक्र में फंसना इन्होंने स्वीकार नहीं किया और सन् १९७२ में पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया। उसके बाद से पूज्य माताजी के पास सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर आप गृहविरत हो चुके हैं। जंबूद्वीप स्थल आपकी विशेष कर्मभूमि है। यहीं से अपनी धार्मिक क्रियाओं का पालन करते हुए संस्था संचालन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का सम्पादन, पूज्य माताजी द्वारा लिखित सैकड़ों ग्रंथों का सम्पादन आदि कर रहे हैं। आप जहाँ दि.जैन.त्रि.शो. संस्थान के अध्यक्ष हैं, वहीं अखिल भारतीय युवा परिषद् के भी अध्यक्ष पद का भार संभाल रहे हैं। अपनी ओजस्वी वाणी, स्पष्टवादिता, सरलता आदि गुणों के द्वारा भाई रवीन्द्रजी से आज सारा देश परिचित हो चुका है। पूज्य माताजी से प्राप्त संस्कारों के अनुसार संघर्ष झेलकर भी सत्य को उजागर करना आपकी पहचान बन गई है। "भाईजी" के नाम से जाना जाने वाला यह व्यक्तित्व नवयुवकों के लिए "कर्मयोगी' के रूप में सचमुच अनुकरणीय है। बाल ब्र. धरणेन्द्र जैनदक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रदेश में जन्मे धरणेन्द्र कुमार जैन ८-१० वर्ष की उम्र से ही श्रवणबेलगोल की "गोम्मटेश विद्यापीठ" में वहाँ के कर्मयोगी भट्टारक श्री चारुकीर्तिजी के संरक्षण में रहे हैं। लगभग ढाई वर्ष पूर्व इन्होंने हस्तिनापुर आकर पूज्य गणिनी आर्थिका श्री के दर्शन किये, पुनः भट्टारकजी की आज्ञा से पूज्य माताजी के पास ही अध्ययनार्थ आ गए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आज दो वर्षों में इन्होंने अपनी लगन एवं पुरुषार्थ के बल पर हस्तिनापुर में गुरुमुख से अनेक धर्मग्रंथों का अध्ययन किया, विधि विधान में कुशलता प्राप्त कर विधानाचार्य बने तथा अब पूज्य माताजी से प्राचीन शास्त्रीय विधि अनुसार प्रतिष्ठाचार्य के कोर्स का अध्ययन कर रहे हैं। मातृभाषा तमिल है, कनड़ भी बोलते हैं तथा उत्तर भारत आकर हिन्दी भाषा की भी अच्छी जानकारी हो गई है। ब्र. कु. आस्था शास्त्रीय पूज्य माताजी की संघस्थ देशव्रती शिष्या हैं। सन् १९६९ में भादों शु. १० (धूपदशमी) के दिन जिला बहराइच के "फखरपुर" गाँव में इनका जन्म हुआ। पिता का नाम श्री "प्रेमचंद जैन" एवं माता का नाम "श्रीमती देवी" है। ७ फरवरी १९८८ को इन्होंने पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लिया तथा १४ फरवरी सन् ८८ को दो प्रतिमा रूप बारह व्रत ग्रहण किया है। लगभग ५ वर्षों में इन्होंने शास्त्री एवं आचार्य प्रथम खंड की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं। लौकिक शिक्षा बी.ए. प्रथम वर्ष तक है। संघ में धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हुए गुरु वैयावृत्ति को अपना सौभाग्य मानकर सदैव तत्पर रहती हैं। अभी मात्र २३ वर्ष की लघुवय है, अपने तीव्र क्षयोपशम से ये जीवन में खूब ज्ञान और चारित्र की उन्नति करें, यही मेरा इनके लिए मंगल आशीर्वाद है। ब्र.कु. बीना शास्त्री१३ वर्ष की बाल्यावस्था में ही कु. बीना को पू. माताजी के संघ का सम्पर्क मिला और आज ब्रह्मचर्य की कठिन साधना करती हुई ये संघस्थ शिष्या हैं। इनका जन्म कानपुर (उ.प्र.) में १५ दिसम्बर सन् १९६९ को हुआ। माँ का नाम कुमुदनी देवी और पिता का नाम स्व. श्री प्रकाशचंद जैन है। ५-६ वर्षों तक संघ में रहने के पश्चात् ३१ मार्च सन् १९८९ को पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया तथा १५ अकूटबर १९८९ को दो प्रतिमा के व्रत लेकर व्रती जीवन प्रारंभ किया। लौकिक अध्ययन हाईस्कूल तक है एवं धर्म में शास्त्री एवं आचार्य प्रथम खंड की परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं। धार्मिक अध्ययन के साथ-साथ गुरुवैयावृत्ति में इनकी अतिशय रुचि है। इस लघुवयस्का बालिका के उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरा आशीर्वाद है तथा आस्था और बीना युगल ब्रह्मचारिणी की जोड़ी ब्राह्मी-सुंदरी के समान बने यही मंगलकामना है। भारत माता की गोदी इस माता से कभी न सूनी हो शरद्पूर्णिमा की चंद्रिका, सरस्वती की प्रतिमूर्ति, ब्राह्मी माता की प्रतिकृति, कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका, युग की प्रथम बालसती, शताब्दी की पहली ज्ञानमती, जिनशासन प्रभाविका, आर्यिकारत्न, न्यायप्रभाकर, विधानवाचस्पति, दृढ़ता की साकार प्रतिमा, जंबूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका पूज्य १०५ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का यह अभिवंदन ग्रंथ भक्त समाज द्वारा अर्पित मात्र एक पुष्पांजलि है। ऐसे अनेक ग्रंथ भी उनके गहन व्यक्तित्व को प्रकाशित करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। वे वर्तमान युग में समस्त साधु समाज की सर्वाधिक प्राचीन दीर्घकालीन दीक्षित वरिष्ठ आर्यिका हैं। मेरी जिनेन्द्र भगवान से यही प्रार्थना है कि धरती माता का आंचल इन माता श्री से सदैव सुवासित रहे तथा हम सभी को उनके ज्ञान की अजस्त्र धार में अवगाहन करने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे। "इति शुभम्" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ कुशल अनुशासिका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी क्षुल्लक मोतीसागर [२६५ - । "अनुशासन" शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, अनुशासन अनुशासन अनु का अर्थ होता है आनुपूर्वी अर्थात् आचार्य परंपरा से शासन का अर्थ होता है मार्गदर्शन देना। दो शब्दों से बना यह "अनुशासन" शब्द सर्व सिद्धि का मूलमंत्र है। जिन्होंने इस मंत्र को अपने जीवन में उतारा वे संसार में सर्वश्रेष्ठ कहलाये, सर्वोपरि हुए। अनुशासन करना जितना सरल है, अनुशासन में रहना उतना ही कठिन है। जो स्वयं अनुशासन में रहता है वही दूसरों पर अनुशासन करने में सफल हो सकता है। अनुशासन करने वाला ऊपर से कठोर होता है तथा अनुशासन में रहने वाला भीतर से कठोर होता है। अनुशासन करने वाला नारियल के समान तथा अनुशासन में रहने वाला आम के समान होता है। अनुशासन की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। यही नहीं, प्रतिक्षण जरूरी है। अनुशासन का दूसरा अर्थ संगम भी होता है, इसके लिए नियंत्रण शब्द भी प्रयोग में आता है। वाणी पर अनुशासन, मन पर अनुशासन, शरीर पर अनुशासन। अनुशासन में रहना स्वयं के लिए तो हितकारी है ही, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए भी लाभप्रद है। अनुशासन दो प्रकार का होता है१- स्वेच्छा से २ पर के आग्रह से स्वेच्छा से धारण किया गया अनुशासन सुखप्रद एवं स्थाई होता है, किन्तु पर के आग्रह / दबाव से स्वीकृत अनुशासन में मानसिक पीड़ा की संभावना रहती है तथा अस्थाई भी होता है। 1 शास्त्रीय भाषा में अनुशासन को इन्द्रिय संयम व प्राणी संयम भी कहते हैं । इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है पाँच इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से मन को रोकना । इस कार्य में कुछ समय तक क्षुब्धता भी आने की संभावना रहती है, किन्तु प्रयत्नसाध्य है। इसी प्रकार से त्रस - स्थावर जीवों की रक्षा के लिए सावधान रहना, उन पर दया करना प्राणी संयम है। इससे जिनकी रक्षा होती है वे अपनी पूर्ण आयु तक जी पाते हैं; क्योंकि कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। तथा जो रक्षा करता है वह भी पुण्य का भागी होता है । यही परस्पर में जीवों का उपग्रह है। 1 अनुशासन सीखने की शुरूआत माता की गोद से होती है। वह प्रतिक्षण बालक के हित की दृष्टि से अच्छी तरह से उठना-बैठना, चलनाबोलना, खाना-पीना इत्यादि सिखाती है जीवन उत्थान की इन प्रत्येक क्रियाओं में उसे संतान में जहाँ भी कमी या त्रुटि दिखाई देती है वह उसे जैसे बने वैसे ठीक करने का प्रयत्न करती है। आवश्यकता पड़ने पर ताड़ित भी करती है, किन्तु कुशल कुम्भकार की तरह इस बात का ध्यान रखती है कि बालक का दिल टूट न जावे व अनुशासन का दुरुपयोग न करे, प्रतिरोध न करने लग जाये जैसे कुम्भकार जब कच्चा घड़ा बनाकर तैयार कर लेता है तब वह उसे सुडौल - सुन्दर बनाने के लिए उसे एक हाथ से बाहर से लकड़ी से थपथपाता है, किन्तु उसी समय दूसरे हाथ की हथेली को भीतर में लगाये रखता है, जिससे कि ऊपर से लकड़ी से पीटने पर भी वह टूटने न पावे, प्रत्युत् सीधा सच्चा हो जावे । I बालक जब थोड़ा बड़ा होकर पाठशाला में पढ़ने जाता है तब उसे पाठशाला के अध्यापक और अच्छी तरह से अनुशासित करते हैं। पढ़-लिखकर जब समाज के बीच में आता है, असि मषि आदि कर्मों को करना प्रारंभ करता है तब उस जाति के, समाज के, राष्ट्र के वरिष्ठ जन अनुशासन में चलने की शिक्षा देते हैं। इस प्रकार जीवन की इन कठिन घाटियों को जब सुसंस्कृत होकर पार करता है, तब कहीं वह सबके समादर का पात्र बनता है। आदर्श कहलाता है। इस लोक से गमन करने के पश्चात् भी उसकी कीर्ति पताका फहराती रहती है। अनुशासन एक ऐसा फल है जो खाने पर तो कडुवा लगता है, किन्तु वह कालांतर में स्वस्थ बनाता है। जो अनुशासन में रहने से डरते हैं या अनुशासन को सहन नहीं कर पाते उन्हें बाद में पश्चाताप ही करना पड़ता है। थोड़ी-सी देर का "अनुशासन" दीर्घकालिक गुणों का उत्पादक होता है। थोड़ी-सी अनुशासनहीनता न केवल स्वयं के लिए अपितु अनगिनत प्राणियों के प्राणघात का कारण हो सकती है। छोटी-सी अनुशासनहीनता बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं की जनक हो सकती है। Jain Educationa International व्यक्ति-व्यक्ति की अनुशासनप्रियता समूचे राष्ट्र को अभ्युत्रति में सहकारी है। न केवल व्यक्ति, अपितु आग, हवा, पानी भी जब मर्यादा में रहते हैं तो सब तरह प्राणियों को सुख पहुँचाते हैं, किन्तु ये भी जब मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं, तब त्राहिमाम उत्पन्न कर देते हैं। "कोरा लाड़-प्यार का सद्गुण झाला फीका" ऐसी मराठी में कहावत प्रसिद्ध है। अर्थात् जो गुरु अपने शिष्यों के प्रति या जो माता-पिता अपनी संतान के प्रति केवल लाड़-प्यार करते हैं उनके शिष्य या संतान गुणों में फीके रह जाते हैं। For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला लाड़-प्यार करना बुरा नहीं है, किन्तु उसके साथ-साथ उसे सुसंस्कारित करना भी आवश्यक है। तभी वे सुयोग्य बन सकेंगे। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने घर में रहते हुए बाल्यकाल से ही माँ मोहिनी से अनुशासन में रहना सीखा। प्रत्येक कार्य को मर्यादा में रहकर समय पर सम्पन्न किया। जिसके कारण माता-पिता परिजन-पुरजन सभी इनसे प्रभावित रहते थे, इनकी बात मानते थे। जब क्षुल्लिका दीक्षा धारण की, आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी से श्री महावीरजी में सन् १९५३ में, तब से साधु पद के योग्य अनुशासन का निर्वाह प्रारंभ कर दिया। ज्ञानार्जन के अतिरिक्त और कोई नहीं। सन् १९५४ जयपुर चातुर्मास में आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के आशीर्वाद से अनुशासनबद्ध होकर कातंत्र व्याकरण का अध्ययन किया तो मात्र दो माह में ही पूरी व्याकरण कंठस्थ कर ली। चा०च० आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा आचार्य श्री देशभूषणजी से प्राप्त हुई तब भी अकेली न जाकर क्षुल्लिका विशालमतीजी को साथ में लिया, वे थीं ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध । कुंथलगिरि पहुँचकर जब आचार्य श्री से आर्यिका दीक्षा प्रदान करने हेतु प्रार्थना की तो आचार्य महाराज ने अत्यंत मिष्ठ शब्दों में कहा-"बाई ! मैंने तो अब दीक्षा देना बंद कर दिया है तथा मैंने अपना पट्ट वीरसागरजी को भेज दिया है; अतः तुम उन्हीं के पास जाकर दीक्षा ले लो।" आचार्य देव की आज्ञा का शत-प्रतिशत पालन करते हुए आचार्य महाराज की समाधि के पश्चात् दक्षिण से सीधे उत्तर आकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। यही तो थी अनुशासनप्रियता जिसने वीरमती से ज्ञानमती बना दिया। आचार्य श्री वीरसागरजी के संघ में आने से पूर्व म्हसवड़ में दो शिष्याएँ बनायी थीं, उन्हें भी लेकर आई थीं। यहाँ आचार्य श्री वीरसागरजी के संघ में आने के पश्चात् दो धाराएँ प्रवाहित होने लगीं। गुरु के अनशासन में रहना तथा शिष्यों को अनुशासन में रखना। वैसे यह एक कठिन कार्य रहा, किन्तु माताजी ने जिस कुशलता से इसका निर्वाह किया, वह एक अनूठा उदाहरण है। पू० माताजी ने अनुशासन के बल पर ही शिष्यों को सुसंस्कारित किया। यदि अनुशासन को न अपनाया जाये तो व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। शिष्यों को, समाज को अनुशासित कैसे करना होता है, यह भी अपने आप में एक विशिष्ट कला है। पहले तो यह देखना होता है कि जिसे अनुशासन में रखना है वह योग्य है या नहीं? यदि योग्य है तो वह कितना अनुशासन बर्दाश्त कर सकता है ? पूज्य माताजी ने अपनी इस ज्ञान शक्ति से शिष्यों को संयम मार्ग में आगे बढ़ाया, ज्ञान के क्षेत्र में माताजी के शिष्य-शिष्याएँ खूब आगे बढ़े। जब जम्बूद्वीप रचना निर्माण का सुअवसर आया तब भी माताजी ने अनुशासन को ढीला नहीं छोड़ा। हस्तिनापुर में लगे शिक्षा/प्रशिक्षण शिविरों में आपकी अनुशासन प्रणाली को सैकड़ों विद्वानों एवं श्रेष्ठियों ने साक्षात् देखा। शिविर की गरिमा के अनुरूप माताजी ने जो-जो भी नियम निर्धारित किये थे उनका परिपालन सभी ने सहर्ष किया, जिसके फलस्वरूप अत्यंत प्रभावना के साथ शिविर सम्पन्न हुए एवं अपनी अमिट छाप छोड़ गये। चाहे जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की लालकिला मैदान दिल्ली की इन्दिरा गाँधी की उपस्थिति वाली विशाल जनसभा हो या मंदिर की छोटी-सी प्रवचन सभा। माताजी के अनुशासन की कुशलता ने ही उन सभी को सफलता प्रदान की। अनुशासन का मतलब यही है कि जिस समय जिस व्यक्ति को जो काम सौंपा गया है वह उस समय उस काम को पूर्ण दक्षता एवं लगन से पूरा करे। यदि उसने वैसा कर लिया तो समझना चाहिये कि वह काम निश्चित रूप से बढ़िया होगा। सांसारिक कार्यों के लिए ही नहीं, प्रत्युत् मोक्ष प्राप्ति के लिए भी आत्मा पर अनुशासन की आवश्यकता रहती है। इसी का बोध कराने के लिए आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी ने " आत्मानुशासन" नाम से ग्रंथ की रचना की है। आत्मा पर अनुशासन न कर पाने के कारण ही प्राणी संसार में भटक रहे हैं, जन्म-मरण के दुःख उठा रहे हैं। आचार्य श्री गुणभद्र स्वाभी आत्मानुशासन में लिखते हैं : दोषान् कांश्चन तान् प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं । सार्धं तैः सहसा म्रियेद्यदि गुरूः पश्चात् करोत्येष किम्॥ तस्मान्ये न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं । ब्रूते यः सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरुः ॥१४ ॥ गुरु को शिष्य के प्रति किये जाने वाले व्यवहार का बोध कराते हुए कहते हैं कि गुरु शिष्य को दोषों मे प्रवृत्ति कराने के लिए या अज्ञानता के कारण उसके (शिष्य के) दोषों को ढकता है, प्रकाशित नहीं करता है और इसी मध्य उन दोषों के साथ शिष्य का मरण हो जाता है तब बाद में गुरु क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में शिष्य विचार करता है कि दोषों को आच्छादित करने वाला गुरु हितैषी नहीं है, किन्तु जो दुष्ट व्यक्ति छोटे भी दोषों को हमेशा बारीकी से देखकर और उनको बड़ा बनाकर स्पष्ट प्रकट करता है वह दुष्ट भी सच्चा-हितकारी गुरु है। कहने का तात्पर्य यह है कि सच्चा गुरु वही है जो शिष्य के दोनों को निकाल कर उसे उत्तम गुणों से युक्त करता है। ऐसा करने के लिए गुरु को कभी-कभी कठोरता भी धारण करना पड़ती है। गुरु की कठोरता से शिष्य के प्रतिकूल होने की भी संभावना रहती है, किन्तु गुरु इसकी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६७ परवाह नहीं करते। यदि गुरु यह सोचकर कि मैं इसके दोषों को निकालने का प्रयत्न करूँगा तो यह कदाचित् नाराज हो जावेगा, संघ छोड़कर चला जावेगा, संघ टूट जावेगा; अतः इसके दोषों को प्रकट न करूँ। तो वह गुरु वस्तुतः गुरु पद के अयोग्य है। दोषों के साथ यदि शिष्य मरण को प्राप्त होता है तो वह दुर्गति में जाकर दुःख उठावेगा। वर्तमान शताब्दी के महामुनि गुरूणांगुरु चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज अनुशासन की प्रतिमूर्ति थे। उन्हीं के पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज की शिष्या पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को भी अनुशासनप्रियता इन उभय गुरुओं से मानो धरोहर के रूप में प्राप्त हुई है। यही कारण है कि देश का बड़े से बड़ा व्यक्ति भी आपका लोहा मानता है। ___ आप जो कुछ भी कहती हैं अपने अनुभव के आधार पर कहती हैं। आपने जितना जो कुछ भी लिखा है वह पूर्वाचार्यों का अनुशरण करके लिखा है। इसीलिए आपकी वाणी या लेखनी में कहीं भी स्खलन दृष्टिगत नहीं होता। लेखकों तथा वक्ताओं के लिए भी आपका यही कहना रहता है कि वाणी एवं लेखनी में अनुशासन हो। न तो मनगढ़त लिखो न मनगढ़ंत बोलो; क्योंकि अनुशासनहीन वाणी व लेखनी श्रोताओं एवं पाठकों को अंधकारमय गड्ढे में गिरा देगी। बाल्यकाल से ही ज्ञानमती माताजी (मैना) मां के अनुशासन में रहीं। जब सब बालिकाएं खेलती तब मां कहतीं खेलने में क्या रखा है ? मुझे यह दर्शन पढ़कर सुनाओ, पद्मनंदीपंचविंशतिका ग्रंथ का स्वाध्याय करो इत्यादि । मां की आज्ञा मानकर वही किया। आज उसी के फलस्वरूप वे ज्ञान का भण्डार बन गई। जो अनुशासन में रहता है वह अनुशासन करने में भी सक्षम होता है। जब टिकैतनगर में चेचक का भयंकर प्रकोप चल रहा था। तब माता मोहिनी के छोटे पुत्र प्रकाशचंद व सुभाषचंद भी चेचक रोग से ग्रसित हो गये। गाँव के लोगों ने कहा- शीतलामाता की पूजा करवा दो। तभी मैना ने कहा-देवी की पूजा करना मिथ्यात्व है। चेचक किसी माता (देवी) का प्रकोप नहीं, बल्कि बीमारी है। मैना ने भगवान् जिनेन्द्र का गंधोदक लगाकर भाई प्रकाश व सुभाष को स्वस्थ कर दिया। गाँव वाले यह सब देखकर आश्चर्यचकित रह गये। संघ में आचार्यप्रवर श्री वीरसागरजी महाराज की आज्ञा को सदैव शिरोधार्य किया। एक बार जयपुर के कतिपय सुधारक पंडितों ने शहर में यह चर्चा फैलाई कि आचार्य महाराज इतना बड़ा संघ लेकर सबको यहीं क्यों रोके हुए हैं। संघ के थोड़े-थोड़े साधुओं को आस-पास विहार कराना चाहिये। यह बात आचार्य श्री के कान तक भी पहुँच गई। तभी महाराज ने थोड़े- समूह में मुनियों एवं आर्यिकाओं को आस-पास में विहार करने की आज्ञा दी। श्री ज्ञानमती माताजी को भी क्षु० पद्मावतीजी व क्षु० जिनमतीजी को लेकर बगरू की तरफ जाने के लिए कहा। माताजी ने कहा किमैं तो अभी बहुत छोटी हूँ। इस पर आचार्य महाराज ने कहा कि मुझे विश्वास है कि तुम्हारे द्वारा धर्म की प्रभावना होगी। तुम अपने नाम का सदैव ध्यान रखना। गुरु की आज्ञानुसार तब २ माह भ्रमण करके महति धर्म प्रभावना की। क्षु० जिनमतीजी को भी खूब अध्ययन कराया। संघ में वापस आने पर आचार्य महाराज बहुत प्रसन्न हुए। एक बार जिनमती माताजी की ऐसी भावना बनी थी कि पहले समयसार पढ़ा जावे बाद में अन्य विषय, किन्तु माताजी ने पहले उन्हें सिद्धांत न्याय व्याकरण पढ़ाकर निष्णात किया बाद में समयसार पढ़ाया। इस प्रकार अपने शिष्यों को पढ़ाने पर पूरा अनुशासन रखा। मुझे भी प्रारंभ में न्याय व्याकरण आदि के विषय पढ़ना कठिन तथा भाररूप लगते थे किन्तु फिर भी पहले सिद्धांत, न्याय, व्याकरण पढ़ाकर परीक्षाएं भी दिलवाईं, बाद में आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन कराया। अपने से छोटों पर अनुशासन करना तो कर्तव्य है ही। कभी-कभी बड़ों पर भी अनुशासन करने की आवश्यकता पड़ जाती है। माताजी ने आवश्यकता पड़ने पर अपने से बड़ों पर अनुशासन त्याग के बल पर किया । सन् १९५८ में आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज सिद्धक्षेत्र गिरनार की यात्रा करके वापस लौट रहे थे तब संघस्थ मुनि श्री श्रुतसागरजी एवं सन्पतिसागरजी ने कारण विशेष से अलग विहार कर दिया। संघ के साधू-साध्वी कोई भी उन्हें नहीं जाने देना चाहते थे। अतः माताजी ने उन्हें वापस आने की प्रेरणा देने के लिए नमक का त्याग कर दिया। संघ में वापिस लौटने के लिए माताजी का संदेश लेकर ब्र० राजमलजी को श्री श्रुतसागरजी महाराज के पास भेजा गया। ब्र० राजमलजी ने महाराज से जाकर कहा कि आपके संघ में वापस लौटने तक ज्ञानमती माताजी ने नमक का त्याग कर दिया है। यह सुनते ही महाराज ने संघ में वापस आने के लिए पिच्छी कमण्डलु लेकर उल्टे पैर प्रस्थान कर दिया। संघ में महाराज के आने पर हर्ष की लहर दौड़ गई। उन्होंने संघ में आते ही सर्वप्रथम ज्ञानमती माताजी से कहा कि अब मैं वापस आ गया हूँ तथा जीवन में कभी भी आ० श्री शिवसागरजी महाराज को छोड़कर नहीं जाऊँगा, अब आप नमक लेना प्रारंभ कर दें। इस प्रकार उन्होंने अपनी वचनबद्धता को निभाते हुए आ० श्री शिवसागरजी महाराज के जीवनपर्यंत संघ नहीं छोड़ा तथा इसके लिए माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। इस प्रकार माताजी ने आवश्यकता पड़ने पर अपने से बड़ों पर भी अनुशासन करके सफलता प्राप्त की। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला एक घटना इसी प्रकार की सन् १९६२ की है। पूज्य माताजी ने अपना पार शिष्याओं को साथ लेकर सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के दर्शनार्थ राजस्थान से आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ से प्रस्थान किया। जब माताजी कानपुर के आस-पास थीं तब सूचना मिली कि मुनि श्री अजितसागरजी ने किन्हीं अंतरंग निमित्तों से संघ छोड़कर अकेले अन्यत्र विहार कर दिया है। तभी माताजी ने विहार करते हुए मट्ठे का भी त्याग कर दिया, जबकि मट्ठा लेना माताजी के स्वास्थ्य के लिए अतिआवश्यक था। माताजी को पुरानी संग्रहणी है। ___ चूंकि मुनि श्री अजितसागरजी महाराज माताजी को मां से भी बढ़कर मानते थे इसलिए "संघ में रहना हितकारी है" इस भावना से माताजी ने मद्रुका त्याग किया था। माताजी के मढे त्याग की जानकारी सेठ हीरालालजी निवाई , पं० इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर तथा संघस्थ ब्र० लाड़मलजी ने मुनि श्री अजितसागरजी को दी। यह सुनते ही वे अवाक रह गये। कहने लगे कि इतनी दूर होकर भी माताजी ने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए मेरे संघ में वापस जाने के लिए मट्ठे का त्याग कर दिया है। तभी वे लौटकर वापस संघ में आ गये और इन्हीं तीनों महानुभावों से कहलाया कि "माताजी के पास शीघ्रातिशीघ्र फोन से सूचना भेजो कि मैं संघ में वापस आ गया हूँ, माताजी अब मट्ठा लेना प्रारंभ कर दें। माताजी को भी यह जानकर प्रसन्नता हुई, उनका प्रयत्न सफल हुआ। प० श्रुतसागरजी महाराज की तरह अजितसागरजी महाराज ने भी आ० श्री शिवसागरजी के रहते हुए संघ नहीं छोड़ा। यह था माताजी का बड़ों पर वात्सल्यपूर्ण अनुशासन। ऐसे और भी अनेको प्रसंग माताजी के जीवनकाल में आये। पूज्य माताजी ने अपने जीवन में कभी भी व्यर्थ की हँसी-मजाक न स्वयं की, न किसी को करने दी; क्योंकि हँसी-मजाक या गपशप से अशुभ कर्मों का बंध होता है तथा शक्ति का ह्रास होता है। इससे आपस में वैर-कलह की भी संभावना रहती है। हँसी-मजाक करने वालों को समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता। वे अविश्वास के पात्र बन जाते हैं। हँसी-मजाक करने वालों का दूसरों पर अच्छा प्रभाव भी नहीं पड़ता। हँसी-मजाक से किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं होता, मात्र समय की बरबादी होती है। पूज्य माताजी का संपर्क सदैव प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों से रहा। किन्हीं महिला-पुरुषों से भी केवल धर्म चर्चा या धर्म कार्यों के लिए ही बात की, घर गृहस्थी संबंधी बातों में अपना अमूल्य समय नहीं गँवाया। यदि माताजी ऐसा न करतीं तो ऐसे रुग्ण एवं कमजोर शरीर से इतना काम नहीं ले सकती थीं। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि दर्शनार्थ आये अपने परिवार के लोगों से भी व्यर्थ की बातचीत न करके उन्हें भी कुछ न कुछ अध्ययन में लगा देती हैं। उन्हें भी गपशप का मौका ही नहीं देती हैं भले ही वे दो-चार दिन के लिए ही आये हों। इसी का नाम अनुशासन है। पूज्य माताजी का जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है। अनुशासन में रहकर ही अनुशासन किया जा सकता है। भोजन में अनुशासन स्वस्थता प्रदान करता है। वाणी में अनुशासन से वाक्सिद्धि प्राप्त होती है। गमनामन में अनुशासन से जीव दया का परिपालन होता है। जिस-जिस इन्द्रिय को अनुशासित रखा जाता है उसकी शक्ति बढ़ती है। आत्मानुशासन ग्रंथ में कहा है विकासयंति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः रवेरिवारविन्दस्य कठोरश्च गुरूक्तयः ॥ १४२ ॥ कठोर अर्थात् अनुशासनात्मक वचन भव्य जीवों के मन को उसी प्रकार से प्रफुल्लित (आनंदित) करते हैं, जैसे सूर्य की कठोर-तेज किरणें कमलों को खिला देती हैं। अतः जो गुरु शिष्य का हित करना चाहते हैं उन्हें शिष्य के मनरूपी कमल को प्रफुल्लित करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर दयाचित्त होकर कठोर वचनों का प्रयोग करने में हिचकिचाना नहीं चाहिये तथा आत्म हित चाहने वाले शिष्य को गुरु के कठोर वचनों को सुनकर खेदखिन्न नहीं होना चाहिये। यह नीति प्रसिद्ध है कि " मनोहारि च दुर्लभं वचः ।" जो वचन हितकारी होते हैं वे छद्मस्थ प्राणियों को प्रायः करके रुचिकर प्रतीत नहीं होते और जो वचन वाह्य में मनोहर प्रतीत होते हैं वे परिणाम में हितकारक नहीं होते हैं। पूज्य माताजी ने सदैव इसी सूक्ति का अनुशरण किया है, इसीलिए "कुशल अनुशासिका" का विशेषण उनके लिए सार्थक है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६ भक्ति - मार्ग प्रदर्शिका - डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल- जयपु आर्यिका ज्ञानमती माताजी के विविध रूपों में उनका एक रूप भक्ति-मार्ग प्रदर्शिका का भी है। जन सामान्य को जिनेन्द्र-पूजा-अर्चना एवं भक्ति । लगाने के लिए अब तक जितना साहित्य माताजी ने लिखा है, उतना किसी भी साधु-साध्वी अथवा विद्वान् लेखक ने नहीं लिखा। आपने तो नये-नरं पूजा विधानों को लिखकर पूरे समाज में एक नये वातावरण को जन्म दिया है। वैसे आप गणिनी आर्यिका के पद पर प्रतिष्ठित हैं, इसलिए सार समाज आपके सामने श्रद्धा से नत मस्तक है। पूरा समाज आपके त्यागमय जीवन एवं कठोर तप-साधना से प्रभावित है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीर का निर्माण करवाकर आपने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है, जहाँ स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, पूजा-पाठ एवं प्रवचन-श्रवण का लाभ वहाँ आने वारं यात्रियों एवं दर्शनार्थियों को मिलता रहता है। आर्यिका माताजी परम विदुषी साध्वी हैं। बचपन में ही पद्मनंदिपंचविंशतिका का स्वाध्याय करके वैराग्य की ओर मुड़ी थीं और फिर छोटी-सं उम्र में पहले ब्रह्मचर्य व्रत लिया और फिर आचार्य देशभूषणजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी। व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया था औ फिर सिद्धान्त ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करके साहित्य निर्माण की ओर मुड़ी और कुछ ही वर्षों में शताधिक कृतियाँ लिखकर साहित्य जगत् में एव कीर्तिमान स्थापित कर दिया। जिन भक्ति की ओर आपका प्रारम्भ से ही झुकाव रहा। बचपन में आप पूजा-पाठ करती रहती थीं और इन ही भावं में वृद्धि करके आपने पूजा-पाठ विषयक ग्रन्थों की रचना करने का बीड़ा उठाया और एक के बाद एक दूसरी रचना आपकी लेखनी का स्पर्श पाक धन्य हो गयी। माताजी ने सर्वप्रथम अनेक भक्तियों एवं स्तोत्रों की रचना करके जन-सामान्य में उनके पठन-पाठन के प्रति अभिरुचि जाग्रत की, ऐसी रचनाअं में देवागम स्तोत्र, सामयिक पाठ, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, निर्वाण भक्ति, आचार्य भक्ति, नन्दीश्वर भक्ति, चौबीस तीर्थंकर भक्ति, पंचगुरु भक्ति चैत्य भक्ति, शतोपदेश भक्ति के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त ३० से भी अधिक स्तोत्रों को निबद्ध करके पाठकों के लिए उनका हिन्द पद्यानुवाद भी सुलभ कर दिया। आपको इन स्तोत्रों एवं स्तुतियों से भी आत्म संतुष्टि नहीं हुई और १९७६ में इन्द्रध्वज विधान की हिन्दी रचना कर डाली। जैसे ही यह विधान श्रावकों के हाथ में आया तो चारों ओर इन्द्रध्वज विधान का आयोजन होने लगा और जनता को ऐसा लगा कि मानो उसकी जिन भक्ति में गोरे लगाने का एक नया मार्ग मिल गया हो, क्योंकि महापंडित टोडरमलजी के समय में जयपुर में इन्द्रध्वज विधान हुआ था, जिसकी प्रशंसा आज भी लोगों के मुख से सुनी जाती है। सामज में इस अत्यधिक लोकप्रिय विधान का चारों ओर आजोजन होने लगा। स्वयं लेखक ने जब सर्वप्रथा इन्द्रध्वज विधान का सीकर में आयोजन देखा तो अपार आनन्दनुभूति हुई। इसके पश्चात् इसी विधान को भागलपुर एवं सम्मेद शिखर में होते हुए देखा। बड़ा आनन्द आया और ऐसे विधानों को देखते रहने की हार्दिक अभिलाषा हुई। माताजी की भक्ति रचनाओं का क्रम कभी नहीं रुका। इन्द्रध्वज विधान की जब उन्होंने लोकप्रियता देखी तथा श्रावकों को भक्ति सरोवर डुबकी लगाते देखा तो उनके हृदय में उससे भी अधिक हृदयस्पर्शी एवं भक्ति संगीत से ओत-प्रोत एक ओर विधान की परिकल्पना मन में आय होगी और उन्होंने अपने मनोभावों को साकार रूप देने के लिए कल्पद्रुम विधान की रचना कर डाली। यह विधान चक्रवर्ती द्वारा करने योग्य विधा है। इसमें २५ पूजाओं का संग्रह है। समवशरण का मंडल माँडा जाता है। यह भी बहुत आकर्षक विधान है, जिसको करने से बिना माँगे ही नवनिर्माण एवं चौदह रत्नों की प्राप्ति होती है। प्रत्येक पूजा के अन्त में माताजी ने विधान करनेका निम्न फल बतलाया है - जो भव्य श्रद्धाभक्ति से यह कल्पद्रुम पूजा करें,, माँगे बिना ही वे नवोनिधि रत्न चौदह वश करें । फिर पंच कल्याणक अधिप हो धर्म चक्र चलावते निज ज्ञानमति केवल करे जिन गुण अनंतों पावते । कल्पद्रुम विधान का सर्वप्रथम सार्वजनिक आयोजन हस्तिनापुर में पू० माताजी के सानिध्य में हुआ; पुनः भीण्डर (राजस्थान) में श्री निर्म कुमार जी सेठी, अध्यक्ष- दि० जैन महासभा को करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुझे भी उसमें बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ। १०-११ दिन त खूब चहल-पहल रहती है। जो चक्रवर्ती बनता है वह बिना माँगे ही दान देता है। अभी कोटा में आचार्य सन्मति सागरजी महाराज के सानिध में दिनांक ११ मार्च से २० मार्च १९९२ तक विशालस्तर पर कल्पद्रुम विधान का आयोजन हुआ था। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त बाहर के व्यक्ति थे। प्रातः आचार्य श्री का प्रवचन, शास्त्र प्रवचन, रात्रि को जिन भक्ति, शास्त्र प्रवचन एवं अन्य कार्यक्रम होने से १०-११ दिन ऐसे निकल गर्न Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जिनका पता भी नहीं चला। यही तो भक्ति का आनन्द है। माताजी ने अपने विधानों के माध्यमन से पूजा, अर्चना एवं जिनभक्ति की ओर जन सामान्य को मोड़ने में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। कल्पद्रुम विधान के पश्चात् अभी माताजी ने सर्वतोभद्र विधान की रचना करके एक और यशस्वी कार्य कर डाला। इसमें तीनों लोकों के समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजाएँ हैं। ढाई द्वीप के पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं पाँच महाविदेहों के तीर्थंकरों की पूजाएँ हैं। यह विधान भी भक्ति रस से ओत-प्रोत है, इसमें ४० प्रकार के छन्दों का प्रयोग करके माताजी ने अपने रचनाकौशल का अपूर्व परिचय दिया है। इस प्रकार माताजी ने सामान्य जैन समाज में भक्ति रस की गंगा प्रवाहित करने का जो महान् कार्य किया है, वह उनके चामत्कारिक व्यक्तित्व का परिचायक है। हम उनके प्रति श्रद्धावनत हैं तथा हार्दिक इच्छा होती है कि साहित्य निर्माण की जो शक्ति माताजी में है वह शक्ति हमें भी प्राप्त हो। बहुश्रुत विदुषी लेखिका आ० ज्ञानमती माताजी - डॉ० प्रेमसुमन जैन - उदयपुर संस्कारों की प्रतिमूर्ति, संस्कृति की संवाहिका, श्रमण धर्म की साधिका, सरस्वती की आराधिका, संकल्पों को साकार रूप देने वाली, स्याद्वाद सिद्धान्त की विवेचिका, स्नेह और वात्सल्य की सागर तथा स्त्री समाज की मार्ग दर्शिका के समन्वित व्यक्तित्व का नाम है- पूज्य आर्यिकारत्न श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी। हस्तिनापुर में स्थापित जम्बूद्वीप-रचना और आर्यिका ज्ञानमती माताजी आज एक-दूसरे के नाम से जाने जाते हैं। जैन साधु साध्वियों में अनेक तपस्वी मुनि-आर्यिका हुए हैं। उनमें से अनेक विदुषी लेखक-लेखिका हुए हैं। कई के नाम शासन प्रभावक एवं समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। कुछ तीर्थ एवं कला-संस्थानों के संस्थापक व संरक्षक के रूप में भी जाने जाते हैं, किन्तु यदि व्यक्तित्व के ये सब आयाम किसी एक साधक-साधिका में सम्मिलित रूप से देखने हों तो तब एक ही नाम उभरकर सामने आता है, वह है- पूज्या आ० ज्ञानमती माताजी का नाम । यहाँ उनके विदुषी लेखिका रूप का ही संक्षिप्त दर्शन करने का प्रयत्न किया गया है। सन् १९३४ में शरद् पूर्णिमा को उ०प्र० के टिकैतनगर में जन्मी एवं वैराग्य और ज्ञान को ध्येय बनाकर सारे देश को अपने पावन चरणों से नापने वाली आ० ज्ञानमती जी निरंतर लेखन और स्वाध्याय से जुड़ी हैं। आपने जितने शिष्य-शिष्याएँ, मुनि, आर्यिकाएँ निर्मित करने में अपना योगदान दिया है, उससे अधिक संख्या में आपने ग्रन्थों का प्रणयन किया है। लगभग १५० पुस्तकों की लेखिका होने का कारण वर्तमान शताब्दी में जैन समाज की साधक महिलाओं में आप प्रथम महिला साधिका हैं। देश के नारी समाज के लिए यह गौरव की बात है, प्रेरणा का पथ है। पुरुषार्थ के लिए चुनौती है।आ० ज्ञानमतीजी की रचनाएँ विविधता लिये हुए हैं। सभी स्तरों के पाठकों के लिए हैं। दार्शनिक जगत् और कर्मसिद्धान्त के क्षेत्र में प्रचलित ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन-अनुवाद किया है तो जैन धर्म और दर्शन पर स्वतंत्र प्रामाणिक पुस्तक भी लिखी है। प्रतिनिधि जैनपुराण ग्रन्थों के कथानकों को नयी शैली में प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर उन्होंने संस्कृत-प्राकृत के ग्रन्थों पर हिन्दी-संस्कृत में स्वतंत्र टीकाएँ भी लिखी हैं। नारी के उत्थान के लिए जहाँ नारीचारित्र प्रधान निबन्ध एवं संवाद को प्रस्तुत किये, वहाँ बालकों के विकास के लिए जैन बाल भारती और बाल विकास पुस्तकों की श्रृंखला भी प्रस्तुत की है। भक्ति से ओत-प्रोत स्तुतियाँ, पूजाएँ एवं विधान ग्रन्थों की रचनाएँ आपकी लेखनी से प्रसूत हुईं तो यात्रावृत्तान्त और संस्मरण साहित्य भी आपने लिखा है। जहाँ आप सशक्त गद्य लेखिका हैं, वहीं कल्पनाशील कवयित्री और प्रभावी नाटककार भी हैं। मूल्यांकन की दृष्टि से यदि आपके साहित्य के आधार पर कहा जाये तो आ० ज्ञानमती माताजी जैन समाज की महादेवी वर्मा हैं। जो चिन्तन, सर्जना और भक्ति की त्रिवेणी हैं। दार्शनिक लेखिका :- जैन दर्शन के आधारभूत ग्रन्थों का स्रोत भगवान् महावीर के सदुपदेश हैं। गणधरों एवं आचार्यों की परम्परा द्वारा जो षट्खण्डागम आदि ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं। उनके पारायण से जैनदर्शन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला जाता है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने सभी दार्शनिक एवं सिद्धान्तों के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। उनकी यह बहुश्रुतता उनके दार्शनिक ग्रन्थों में स्पष्ट झलकती है। आचार्य कुन्दकुन्द-प्रणीत समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थों का सम्पादन माताजी ने किया है। नियमसार पर माताजी द्वारा लिखित “स्याद्वादचन्द्रिका" संस्कृत टीका उनके दार्शनिक ज्ञान का निकष है। इस टीका की प्रशंसा करते हुए डॉ. लालबहादुर शास्त्री जी ने अपनी भूमिका में यह ठीक ही कहा है कि "किसी महिला साध्वी द्वारा की गई यह पहली ही टीका है, जो शब्द, अर्थ और अभिप्रायों से संपन्न है।" विद्वत्तापूर्ण एवं संश्लिष्ट संस्कृत भाषा में लिखी गयी यह टीका दार्शनिक जगत् का ज्ञानवर्द्धन करने वाली और प्रेरणादण्यक है। इतना ही नहीं माताजी ने नियमसार के अर्थ को आगमानुकूल सुरक्षित रखने और पाठकों को सरल मार्ग पर चलने के लिए इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद भी स्वतंत्र रूप से किया है, जो भावार्थ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२७१ विशेषार्थ के द्वारा एक स्वतंत्र शोधग्रन्थ जैसा हो गया है। जैन दर्शन के सभी प्रमुख ग्रन्थों के उदाहरण देकर उसे पुष्ट बनाया गया है। पूज्या माताजी का दार्शनिक लेखन पूर्णता को प्राप्त हुआ है- अष्टसहस्री के प्रामाणिक अनुवाद कार्य द्वारा। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में जो मंगल श्लोक लिखा है- "मोक्षमार्गस्य" आदि उस पर आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्र नाम से एक स्वतंत्र ग्रन्थ श्री समंतभद्रस्वामी ने लिख दिया। इस ग्रन्थ पर श्री अकलंकदेव ने “अष्टशती" नामक भाष्यग्रन्थ लिखा और इस ग्रन्थ का अर्थ खोलने के लिए प्राचीन आचार्य श्री विद्यानंद ने “अष्टसहस्री' नामक दार्शनिक ग्रन्थ लिख दिया था प्रौढ़ संस्कृत और न्याय की शब्दावली में । इस मूल ग्रन्थ को पढ़ना और समझना विद्वानों के लिए बड़ी कठिन बात थी। पूज्या माताजी ने इस चुनौती को स्वीकार कर इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करके दार्शनिक जगत् में एक ऐतिहासिक कार्य किया है। इसकी प्रशंसा जैनदर्शन के सभी विद्वानों ने की है। भारतीय दर्शनों में आ० माताजी की जो गहरी पैठ है और उनके ज्ञान का जो विशेष क्षयोपशम है, उसी से यह दुरूह कार्य संपन्न हुआ है। इस ग्रन्थ का अनुवाद माताजी ने ही नहीं किया है, अपितु ब्यावर और दिल्ली के ग्रन्थ भण्डारों से प्राप्त पाण्डुलिपियों के विशेष टिप्पण एवं पाठान्तर भी इस संस्मरण में जोड़े गये हैं, जो माताजी की कुशल संपादनकला के प्रमाण हैं। लगता है माताजी की लेखन व सम्पादनकला में किसी प्राचीन गुरुकुल के सभी आचार्यों का बुद्धिकौशल विराजमान है, जो इतने कठिन कार्य को इतने कम समय में वे पूरा कर सकी हैं। माताजी के लेखन कार्य को देखकर सरस्वती देवी के अस्तित्व को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उनके रूप में वे आज भी प्रत्यक्ष हैं। समयसार एवं मूलाचार जैसे प्राकृत और सिद्धान्त के ग्रन्थों का सम्पादन पूज्या माताजी के तलस्पर्शी अध्ययन और मनन का परिचायक है। चिन्तनपूर्ण गद्य लेखिका :- जैन दर्शन, न्याय और सिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन, अनुवाद ही आर्यिका ज्ञानमतीजी ने नहीं किया है, अपितु उन्होंने स्वतंत्ररूप से जैन धर्म और दर्शन पर चिन्तनपूर्ण पुस्तकें भी लिखी हैं। उनमें से उनकी दो पुस्तकों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। १९८१ में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी- " जैनभारती", जिसके अब तक तीन संस्करण निकल चुके हैं। यह पुस्तक वास्तव में जैन संस्कृति और दर्शन की आधारभूत पुस्तक है। माताजी ने इसमें सभी ग्रन्थों का सार भर दिया है। जैन दृष्टि से सष्टि क तीर्थंकर एवं अन्य महापुरुष, इस संसार का स्वरूप (त्रिलोक-वर्णन), धर्म का लक्षण, श्रावक धर्म एवं मुनि, साधुचर्या, द्रव्य-विवेचन, नय और प्रमाण, मोक्ष एवं उसका मार्ग, कर्म-सिद्धान्त आदि का ललित शैली में सप्रमाण सुन्दर वर्णन किया है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जैन दर्शन और संघ के संबंध में कुछ जानना शेष नहीं रहता। जैन विद्वानों के लिए तो यह पुस्तक आधारग्रन्थ है। चारों अनुयोगों का ज्ञान इसमें आ गया है। इतिहास, भूगोल, धर्मदर्शन, सिद्धान्त, न्याय एवं चारित्र धर्म इन सभी में जो विशेषता चाहिये वह सब पूज्या माताजी के माध्यम से इस पुस्तक में प्रकट हो गयी है। चिन्तनपूर्ण और सुरम्य गद्य शैली का दूसरा उदाहरण है माताजी की बहु-उपयोगी पुस्तक-"प्रवचन-निर्देशिका" | आज जितने श्रोता नहीं है, उससे अधिक प्रवचन देने वाले विद्वान् पैदा हो गये हैं, किन्तु प्रवचन देने के वे कितने अधिकारी हैं, कितने प्रवीण, यह पुस्तक उन्हें दर्पण दिखा देती है। प्रवचन करना भी एक कला है, साधना है। उसके लिए यह पुस्तक आदर्श है। इस पुस्तक का मूलमंत्र है कि वक्ता को जैन धर्म के दर्शन का ठोस ज्ञान होना चाहिये। अपनी गुरु परम्परा का गर्व होना चाहिये। उसकी जानकारी इस पुस्तक में दी गयी है। प्रवचन-पद्धति के साथ सम्यक्दर्शन का विवेचन, व्यवहार-निश्चय, निमित्त-उपादान की वास्तविक जानकारी एवं श्रोता-वक्ता के संबंध एवं गुणों का विस्तार से निरूपण माताजी ने इस पुस्तक में किया है। वास्तव में यह पुस्तक जैन धर्म की आधारशिला है। इसका एक वाक्य ही दीपस्तम्भ है-“चारों अनुयोगों के अध्ययन के बिना ज्ञान अपूर्ण और एकांगी है।" पौराणिक-उपन्यास-लेखिका :- आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी का लेखन बहु-आयामी है। उन्होंने सिद्धान्त और दर्शन के ग्रन्थों के सम्पादन-अनुवाद-टीका आदि के श्रमसाध्य कार्य को करते हुए कथा-साहित्य पर भी अपनी लेखनी चलायी है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों से प्रेरणात्मक कथानक लेकर उन्हें आधुनिक शैली में प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त लेखिका है। आज की युवा पीढ़ी प्राचीन जैन कथानकों से परिचित होकर उनके पात्रों के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर सकें, इसके लिए जैन पुराण और कथा-साहित्य के ग्रन्थों को आधुनिक शैली में प्रस्तुत करना जरूरी है। माताजी ने कई जैन उपन्यास लिखे हैं। उनमें “आटे का मुर्गा" एक नया उपन्यास है। इसमें यशोधरचरित्र के कथानक को आकर्षक शैली में लिखा गया है। यशोधर की कथा बड़ी प्रेरणादायक है। मन-वचन-काय से हिंसा के सूक्ष्म रूप को भी स्वीकार नहीं करना चाहिये, यह संदेश इस पुस्तक में दिया गया है। हिंसक-चाण्डाल, कोतवाल आदि मुनि के उपदेश और त्यागमय जीवन से अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्वृत्तियों में बदल देते हैं, क्योंकि वे समझ जाते हैं कि अहिंसामय जीवन ही सुख का साधन है। पशु-संरक्षण एवं पक्षी सुरक्षा के लिए यह उपन्यास आधारभूमि प्रदान करता है। इसी प्रकार माताजी ने महाभारत के कथानक को जैन परम्परा में स्वीकृत कथानक के अनुसार संक्षेप में प्रस्तुत किया है। "जैन महाभारत" नामक यह लघु पुस्तिका महाभारत के पात्रों के जीवन के नये आयाम उद्घाटित करती है। माताजी का “प्रतिज्ञा" शीर्षक वाला उपन्यास एक कन्या मनोवती की उस प्रतिज्ञा के परिणाम को उपस्थित करता है, जो इसने जिनदेव-दर्शन के लिए ली थी। संयमित और व्रती जीवन की उपादेयता इसमें प्रतिपादित की गयी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रभावी नाटककार :- किसी लेखक की कसौटी है-नाटककार होना; क्योंकि इसमें सजीव पात्र निर्मित करने पड़ते हैं और कथोपकथन व संवाद शैली में अपनी बात कहनी होती है। पूज्या ज्ञानमतीजी इस विद्या मे भी पारंगत हैं। उनके कई नाटक अनेक बार मंचित हो चुके हैं। जिनसेन आचार्य के महापुराण के आधार पर ऋषभदेव के कथानक पर माताजी ने "पुरुदेव नाटक" लिखा है। मानव सभ्यता के विकास, कृषि कर्म और ऋषि जीवन को साकार करने वाला यह नाटक है। "बाहुबली नाटक" स्वाभिमान और पुरुषार्थ के सदुपयोग का नाटक है। बाहुबली की क्षमा और तपस्या इस नाटक के केन्द्रबिन्दु हैं। इसमें दक्षिण भारत का श्रवणबेलगोला तीर्थ साकार हो उठा है। "रोहिणीनाटक" में संयम और तप के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। मातातजी ने कुछ एकांकी भी लिखे हैं, जिनमें महासती चन्दना, णवकार मंत्र का प्रभाव, अहिंसा की पूजा, ऋषभदेव की शिक्षा आदि विषयों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार के नाटक-साहित्य द्वारा एक ओर माताजी का नाटककार का व्यक्तित्व अभिव्यक्त होता है तो दूसरी ओर युवा पीढ़ी के प्रति उनका वात्सल्य भी प्रकट होता है। इन नाटकों में माताजी ने जो निर्देशन सलाह दी है। वह उनके कलाकार मन का प्रतिरूप है। श्रव्य एवं दृश्य माध्यम अपनाने में मूल संस्कृति भी सुरक्षित बनी रहे इस बात को वे रेखांकित करना चाहती हैं। बाल-साहित्य निर्मात्री :- पूज्या माताजी बालकों को भविष्य का निर्माता मानती हैं। वे बड़ों को सुधारने, संस्कार देने की बात भी इसीलिए करती हैं, ताकि वे अपने बच्चों को सुधार सकें। बच्चों का जीवन-निर्माण नैतिक आदर्शों की आधारशिला पर हो, इसके लिए अच्छा बाल साहित्य होना जरूरी है। माताजी ने "बाल भारती", "बाल विकास", "बाल चित्रकथा सीरीज" आदि साहित्य की रचना इसी उद्देश्य से की है। महापुरुषों के जीवन प्रसंगों के माध्यम से अहिंसा, साहस, पुरुषार्थ, त्याग, मैत्री, क्षमा आदि नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा इस साहित्य के माध्यम से हो सकती है। माताजी बाल-साहित्य की सिद्धहस्त लेखिका है। बच्चों के बुद्धि स्तर और उनकी रुचि को ध्यान में रखकर उन्होंने यह साहित्य लिखा है। जैन परिवारों के बच्चों को तो बाल विकास के १ से ४ भाग पढ़ना अनिवार्य कर देना चाहिये। बड़े बूढ़े भी इन्हें पढ़े तो ज्ञान ही प्राप्त करेंगे। प्रश्नोत्तर शैली, संवाद-पद्धति इन पुस्तिकाओं का विशेष आकर्षण है। संस्मरण लेखिका :- विद्वानों के बीच एक धारणा है कि बिना घुमक्कड़ हुए कोई अच्छा लेखक नहीं बन सकता, यह बात पूज्या माताजी के जीवन और उनकी यात्रा वृतान्त सम्बन्धी पुस्तक "मेरी स्मृतियाँ" से सिद्ध हो जाती है। आत्मचरित्र लिखने की प्राचीन परम्परा है। आधुनिक युग में जैन विद्वान् श्री गणेशप्रसाद वर्णी की आत्मकथा "मेरी जीवनगाथा" ज्ञानवर्द्धक और महत्त्वपूर्ण संस्मरण ग्रन्थ है। उसी परम्परा का निर्वाह पूज्या माताजी ने अपनी इस पुस्तक में किया है, किन्तु किसी आर्यिकाश्री द्वारा लिखी यह पहली संस्मरण-पुस्तक है, आत्म-कथा है। अपने जीवनकाल के ५६ वर्षों का लेखा-जोखा सरल मन और सहज लेखनी से प्रस्तुत कर देना माताजी के साहस का ही कार्य है। वास्तव में यह पुस्तक जैनसमाज की अर्द्ध शताब्दी का एक प्रामाणिक इतिहास है। सम्पूर्ण समाज का दर्पण है। इसमें गिरनार-यात्रा, शिखरजी-यात्रा एवं दक्षिण भारत की यात्रा का जो वर्णन है, वह संपूर्ण भारत की जैन समाज की छवि उजागर कर देता है। इस पुस्तक से देश के सामाजिक एवं धार्मिक इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है। इसके दूसरे संस्करण के परिशिष्ट में व्यक्तिनाम, नगर-गाँव, प्रमुख घटनाएँ उद्धृत श्लोक-सूक्तियाँ आदि की अकारादि क्रम से सूची दी जानी चाहिये। १९९० के बाद के संस्मरणों का दूसरा भाग भी माताजी द्वारा शीघ्र लिखा जाना चाहिये। इसमें पिछले वर्षों की वे घटनाएँ भी सम्मिलित हो सकती हैं, जो "मेरी स्मृतियाँ" में छूट गयी हों, और अब स्मृतिपटल पर आयी हों। इस पुस्तक में माताजी ने कई अनमोल वचन, स्थान-स्थान पर लिखे हैं। वे जीवन को प्रकाश देने वाले हैं। पूज्या आर्यिकारत्न माता ज्ञानमतीजी का जो लेखिका का व्यक्तित्व है उसकी बहुत संक्षिप्त-सी यह आकृति उपस्थित की जा सकी है। इस रेखाचित्र में अभी रंग भरना तो शेष है। कई उन्मेष अभी अछूते रह गये हैं, उनकी लेखनकला रूपी सूर्य के। भक्ति-साहित्य, पूजा-साहित्य, विधान ग्रन्थों की तो इसमें चर्चा ही नहीं हो पायी। उनका कविहृदय, काव्य लेखन, एक स्वतंत्र मूल्यांकन भी अपेक्षा रखता है। अध्यात्म-दर्शन के धरातल पर चिन्तनपूर्ण लेखन का वृक्ष अंकुरित हुआ है, जिस पर उपन्यास, कथाओं, नाटकों, बाल-साहित्य, स्तवन आदि की शाखाएँ फैली हैं और उन पर संस्मरण लेखन. काव्य ग्रन्थों के फल खिले हैं। "ऐसे श्रुतदेवता के अक्षयवृक्ष रूपी पूज्या माताजी के सारस्वत व्यक्तित्व को श्रद्धापूर्वक बारंबार नमन।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ चारित्र संवर्द्धिका आर्थिकारण श्री ज्ञानमती माताजी [२७३ 1 भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में पट्काल परिवर्तन का नियम है। परिवर्तन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के क्रम से होता है। अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में मोक्षमार्ग और मोक्ष दोनों होते हैं, किन्तु पंचमकाल में मोक्षमार्ग होता है, मोक्ष नहीं वर्तमान हुण्डावसर्पिणी का पंचमकाल है, इसमें मोक्षमार्ग चल रहा है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की त्रिपुटी मोक्षमार्ग है । रत्नत्रयाराधक पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही मोक्षमार्ग पर चलने के अधिकारी हैं। पुरुष सकल परिग्रह के परित्यागपूर्वक निर्बन्ध दिगम्बर दीक्षा अंगीकार कर मोक्षमार्ग के पथिक बनकर मनुष्य जीवन की सार्थकता करते हैं। नारियाँ भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर मुक्तिपथ पर बढ़ती हैं। नारी जाति के गौरव को बढ़ाने वाली ब्राह्मी और सुंदरी ने सर्वप्रथम आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के पादमूल में आर्थिकावत अंगीकार किये थे। अनन्तर सभी तीर्थंकरों के पादमूल में अनेक नारियों ने आर्यिकाव्रत अंगीकार कर जीवन धन्य बनाया। भगवान् महावीर की शासन परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द आदि सभी आचार्यों के संघों में आर्यिकाएँ थीं। आर्यिका संघ गणिनी आर्यिका के संरक्षण में यत्र-तत्र सर्वत्र विहार करते रहे । - डॉo श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत वर्तमान में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज ने उत्तरभारत में दिगम्बर जिनधर्म की महती प्रभावना की, उन्होंने अनेक आर्यिका दीक्षाएँ दीं। आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जिनधर्म के उन्नायक तपोनिधि हुए, इनसे जिन मोक्षाभिलाषी महानुभावों ने जिनदीक्षा ग्रहण की, उनमें आस्था और दृढ़ता की मूर्ति आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी निज पर को प्रद्योतित करती हुई ज्योतिर्मय जीवन की लौ सदृश निज पर के हित साधन में निरत है। ज्ञान और चारित्र को जीवन का अभिन्न अंग बनाने पर भी माताजी की परिस्थितियों के झंझावात घेरे में घेरने का उपक्रम करते, किन्तु उनको शक्तिहीन कर चारित्र की अभिवृद्धि में सफल रहीं। सत्य है जिस जीवन में आदर्श के प्रति निष्ठा और चारित्र में दृढ़ता भरी हुई है, वह जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों से कभी भी पराजित नहीं हो सकता। । चारित्र की प्रधानता माताजी के स्वयं के जीवन में है और चारित्र तथा चारित्रधारियों के प्रति विशिष्ट अनुराग भी है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने चारित्र को ही आत्मा का धर्म माना है माताजी ने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का महानता से अध्ययन कर चारित्र को अपने जीवन में प्रधानता दी और साथ ही अनेक भव्यात्माओं को चारित्र धारण करने की प्रेरणा प्रदान की माताजी को पूर्ण अनुगम है कि इन्द्रिय भोग-निश्चय ही अनथों की खान होते हैं। क्षणभर के लिए सुखमय तथा बहुत समय के लिए दुःखमय होते हैं, अतिदुःखमय तथा अल्पसुखमय होते हैं यह जीव संसार में भटकता रहता है, इस कार्य में उसके कर्म ही कर्म बन्धनों का कारण हैं; अतः गुरु की शरण में जाना श्रेयस्कर है। गुरू कर्त्तव्य-मार्ग पर दृढ़ रखते हैं। आचार्य श्री देशभूषण आचार्य श्री वीरसागर महाराज दोनों ही ने माताजी में दृढ़ आस्था और पुरुष को देखकर जिनधर्म प्रभावना के कार्यों का आदेश दिया। माताजी ने व्रत चारित्र की रक्षा करते हुए जम्बूद्वीप प्रतिकृति संरचना कराने का दृढ़ संकल्प किया और पूर्ण सफलता प्राप्त की; क्योंकि जीवन में वह मनुष्य निश्चय ही सफल होता है, जो अडिग आस्था के साथ अपने कर्त्तव्य को पूरा करता चलता है। आपने न्यायशास्त्र के साथ जैन सिद्धान्त का तलस्पर्शी वैदुष्य अर्जित किया। जैन भूगोल संबंधी विशाल वाङ्मय से समस्त विइत्जगत् को आपने परिचय कराया। ज्ञान के साथ संयम की अभिवृद्धि की । संयम साधना को तेजस्वी बनाने के लिए तथा आत्म-ज्योति को जाग्रत करने के लिए विचार और विवेक का आश्रय आवश्यक है। विचार और विवेकपूर्वक पालन किया हुआ आचार ही जीवन को ज्योतिर्मय बना सकता है अतः माताजी की दृढ़ धारणा रही कि दीक्षा के पूर्व ज्ञान और विवेक में परिष्कृत होना चाहिये । (१) Jain Educationa International चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोतिणिोि । मोहक्खोहविहीणो परिणामोअप्पणोहु समो ॥ प्रवचनसार गा. ६ ।। । वस्तुतः दीक्षा की पात्र संसार शरीर भोगों से पूर्व विरक्तभाव वाली भव्य आत्माएँ ही होती हैं वैराग्य के अभाव में बाह्यपात्रता भी अपात्रता में परिवर्तित हो जाती है। साङ्गोपाङ्ग, लोक प्रशंसनीय, सज्जातिपना अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुलोत्पन्न कन्या या महिला आर्यिका या क्षुल्लिका दीक्षा की पात्र होती है। रत्नत्रय अङ्गीकार कर मोक्षमार्ग पर पात्र ही निर्विकार भाव से बढ़ सकता है, अन्य नहीं; अतः आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने उन्हीं भव्यात्माओं को दीक्षा दी और दिलवायी, जो आगम में वर्णित पात्रता के लिए योग्य थीं। माताजी ने उन नारियों को दीक्षा नहीं दी, जो पारिवारिक कलह या लोकापवाद आदि के कारण दुःखित मन से गृह को छोड़कर आयौं। हाँ, स्थितिकरण अवश्य किया। चारित्र जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण है । चारित्र की ही पूज्यता है। अतः चारित्र अंङ्गीकार करने वाली आत्मा को पूर्ण For Personal and Private Use Only . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रसन्नचित्त होना चाहिये। धर्म, ज्ञान, वैराग्य भावना से अनुप्राणित होना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमण्यार्थी के कर्तव्यों को बतलाते हुए लिखा है "आपिच्छ बंधुवगं विमोचदो गुरुकलत्त पुत्तेहि । आसिज्ज णाण दंसण चारित्त तव वीरियायारं ॥ प्रवचनसार २०२ ॥ अर्थात् श्रमण दीक्षा अङ्गीकार करने वाला बंधुवर्ग से पूछकर परिवार के वृद्धजन, स्त्री तथा पुत्र आदि से मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्याचार को ग्रहण करके विरक्त होता है। वैराग्य प्रवण पुरुष के लिए जो विधान है, वही विधान वैराग्य प्रवणा नारी के लिए है। जो पुरुष दीक्षार्थी भी उक्त प्रकार से लोक व्यवहार का पालन करके और यथार्थ में संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर माताजी के पास आया। उसे समता भाव में लीन, गुणों से परिपूर्ण, कुल रूप. तथा अवस्था में उत्कृष्ट, मुनियों के द्वारा मान्य, आचार्य श्री देशभूषण, आचार्य श्री वीरसागर, आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से दिगम्बर दीक्षा दिलाकर चारित्र धर्म की प्रभावना की। जिन कन्याओं/महिलाओं ने आकर माताजी से आर्यिका दीक्षा या क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। उनका आगमानुसार निरीक्षण/परीक्षण करके आर्यिका या क्षुल्लिका दीक्षा आचार्यों से दिलवायी और आर्यिका चन्दनामती माताजी, क्षल्लिका श्रद्धामती आदि को अपने कर-कमलों से दीक्षित कर मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया। चारित्र धर्म की अभिवृद्धि के लिए माताजी ने विविध विरोधों को भी सहन किया। एकान्तवादी चारित्र धर्म के विरोधी लोगों को आगम के आधार पर अपने लेखन/प्रवचन/उपदेश आदि के माध्यम से निरुत्तर कर व्यवहार चारित्र/रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चय रत्नत्रय साध्य है। साध्य की प्राप्ति साधन के बिना संभव नहीं। अतः माताजी ने निश्चय चारित्र रूप साध्य की सिद्धि के लिए व्यवहार चारित्र की उपादेयता बतलायी है। व्यवहार चारित्र पालन करने में स्वयं कठोर हैं और दूसरों को पालन कराने में भी शिथिलता इन्हें सहन नहीं है। माताजी ने अपनी शिष्याओं को गृहस्थ एवं श्रमण पुरुषों से दूर रहने का ही कठोर आदेश दिया। एकान्त में कोई आर्यिका किसी भी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती है। जो आचार्य लोकव्यवहार की सब बातों को जानने वाले हैं, मोह रहित और बुद्धिमान् हैं, उनको सबसे पहले यह मालूम कर लेना चाहिये कि यह देश अच्छा है या नहीं? दीक्षा देने योग्य है या नहीं? मुनियों के लिए निर्वाह योग्य है कि नहीं? दीक्षार्थी पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्षों में किस वर्ण का है अथवा पतित या बहिष्कृत तो नहीं है, उसके सब अंग पूर्ण हैं या नहीं? यदि अपूर्ण हों तो दीक्षा का पात्र नहीं है। वह राज्य अथवा लोक के विरुद्ध तो नहीं है ? इसने कुटुम्ब और परिवारजनों से आज्ञा ले ली है या नहीं? इसका घर आदि संबंधी मोह नष्ट हो गया है? यह अपस्मार-मृगी आदि रोग से रहित तो नहीं है। इत्यादि बातों को उसी की जाति या कुटुम्ब के लोगों से पूछकर निर्णय कर लेते हैं। (आचारसार शास्त्र ११ का हिन्दी रूपान्तर ।) माताजी अनुशासनप्रिय हैं। प्रतिक्रमण आदि के लिए भी अकेली आर्यिका, मुनि या अनेक मुनियों के पास नहीं जा सकतीं। गणिनी आर्यिका के जो कर्तव्य हैं वे पूरे के पूरे माताजी में देखने को मिलते हैं। आचार्य श्री वीरसागर, शिवसागर, धर्मसागर के संघ में जब तक माताजी रहीं, तब तक सभी आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं को अपने संरक्षण में रखा । क्वचित् कदाचित किसी में कोई दोष देखा तो उन्हें आचार्य से प्रायश्चित दिलवाया और स्थितीकरण किया। किसी मुनि या क्षुल्लक में चारित्रदोष आ जाने पर उसको प्रायश्चित आदि दिलाया और उसका स्थितिकरण करके चारित्र धर्म की रक्षा की। चारित्र धर्म की प्रभावना हेतु ही दिगम्बर मुनि और आर्यिका संहिता ग्रन्थों की रचना की। मुनि/आर्यिका को अपनी-अपनी समाचार विधि का सरलता से बोध कराना माताजी का मुख्य लक्ष्य रहा। बाह्य क्रियाओं में शिथिलता महान् दोष मानते हुए आर्यिका के संपूर्ण विधान का पूर्णरूप से पालन कर रही हैं। दूसरी आर्यिकाओं/क्षुल्लिकाओं एवं श्रावक-श्राविकाओं को अपने योग्य चारित्र का पालन करा रही हैं। माताजी ने भारत की प्राच्यकाल की दृष्टि को नारी के विषय में परिवर्तित कर दिया। नारी जाति के गौरव को बढ़ाया। संपूर्ण नारियों के जीवन को श्रेयस्कर बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। नारी जीवन धन्य वाली आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी अपने साहित्यिक अवदान और चारित्र धर्म की विशिष्टता के कारण युग-युग तक जयवन्त रहेंगी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारण श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ रत्नत्रयपूर्णा- गणिनी ज्ञानमती माताजी - प्रो० टीकमचन्द जैन, नवीन शाहदरा, दिल्ली इस भोगप्रधान युग में, जबकि मानव कभी न तृप्त होनेवाली इच्छाओं के पोषण में ही लगा है तथा आत्मसाधना, त्याग व संयम से विमुख होता जा रहा है, ऐसे निकृष्ट समय में भी इच्छा निरोध की पराकाष्ठा पर पहुँची परम तपस्विनी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, परम विदुषी, साधु संस्था की निर्मात्री, परोपकारी, सर्वोपयोगी विपुल साहित्य की सृजनकर्त्री, जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी सर्वत्र सम्यक् ज्ञानज्योति का प्रसार कर अशान्त व क्लान्त मानव को शाश्वत सुख शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। भगवान् महावीर के शासन काल की आप एक अपूर्व लेखिका हैं जिनकी दिव्य लेखनी २० वीं शताब्दी से २१वीं शताब्दी तक अनवरत चलकर उससे निःसृत ज्ञान प्रवाह से शताब्दियों तक भव्य जीवों को आत्म कल्याण का मार्ग निर्देशित करती रहेगी। [२७५ विश्ववंद्य इस महान् विभूति के प्रथम दर्शनों का सौभाग्य मुझे अपने गृह नगर पचेवर में प० पू० स्व० आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ के साथ हुआ। इन्द्रध्वज मण्डल विधान के आयोजन पर आपके नवीन शाहदरा पधारने पर विशेष सान्निध्य मिला और तब ही आपने मुझे जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के संचालक के रूप में राजस्थान जाने को कहा। आपके आशीर्वाद से लोहारिया तक ज्ञान ज्योति रथ के साथ जाकर मैंने अपूर्व धर्म लाभ प्राप्त किया। जन-जन में आपके प्रति अपूर्व भक्ति व निष्ठा देखकर मैं दंग रह गया, जिसके प्रभाव से सबने जम्बूद्वीप रचना हेतु सहर्ष योगदान दिया। फलस्वरूप आज यह विश्व की अनुपम रचना प्रसिद्ध दानतीर्थ हस्तिनापुर में स्थित है और आधुनिक वैज्ञानिकों को चुनौती देकर सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाणित कर उठी है। 1 Jain Educationa International आप सच्चे देवशास्त्र गुरु की दृढ़ श्रद्धानी, असीम ज्ञान की भण्डार तथा निरतिचार संयम पालने वाली होने के कारण रत्नत्रयपूर्णा हैं। बाल्यावस्था से ही न केवल आपने अपने आपको मोक्षपथ पर लगाया, वरन् अपने परिजनों को भी त्याग के इस दुर्लभ मार्ग पर लगाकर अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। आपको निस्पृहता और निर्मोह का अपूर्व उदाहरण उस दिन भी देखने को मिला जब आपकी गृहस्थावस्था की लघु बहन माधुरी जी आपसे दीक्षित होकर पूज्या आर्यिका चन्दनामतीजी बनीं उनके घने केशलोंचन का दृश्य देखकर जहाँ उपस्थित विशाल जनसमुदाय की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी, वहीं आप लम्बे बालों को घास के समान उखाड़ती जा रही थीं। भेद विज्ञान से प्राप्त पूर्ण वैराग्य की अवस्था में ही ऐसी स्थिति हो सकती है। अपनी दृढ़ता, ज्ञान एवं कृतित्व के कारण समस्त विश्व में आपकी प्रसिद्धि होना स्वाभाविक था । इसीलिए देश-विदेश के अनेक गणमान्य व्यक्ति, राजनेता, श्रीमन्त एवं विद्वान् आपके चरणों में नतमस्तक होकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, किन्तु ऐसी अपूर्व प्रसिद्धि भी आपके अहं को नहीं जगा सकी; क्योंकि आप जलते भित्र कमल के समान सब बातों से निर्लिप्त रहती हैं। प्रस्तुत अभिवन्दन ग्रन्थ आपके अहं को तुष्टि हेतु नहीं, वरन् स्वं अहं को नष्टकर आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु है, ताकि हम आपके अनुगामी बनकर आत्म कल्याण कर सकें। हम सबकी मंगल कामना है कि आप रत्नत्रय की निर्बाध साधना करती हुई दीर्घकाल तक हमें रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का बोध कराती हुई स्व-पर कल्याण में रत रहें ।. माताजी साध्वी ही नहीं, महान् धर्म प्रभाविका भी हैं सुमत प्रसाद जैन, १६१७, दरीबाकलाँ, दिल्ली-६ जब भी पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के तपोमय, ज्ञानमय और साधनामय जीवन दर्शन के सन्मुख नमोऽस्तु करने का अवसर मिला है तो परम पूज्य आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज के ये वचन स्मरण हो आते हैं: “पारस मणि तो लोहे को सोना बनाता है, पारस रूप नहीं बनाता, किन्तु ज्ञानमती माताजी वह पारस हैं जो लोहे को सोना ही नहीं, बल्कि पारस बना देती है। | दरअसल, आर्यिका ज्ञानमती माताजी का प्रातःस्मरणीय आत्मचरित नारी जाति के गौरवपूर्ण इतिहास का भी अभिवन्दन है प्राचीन काल से ही भारत की तत्त्वचिन्तक विदुषियों ने ज्ञान तप तथा धर्म साधना के क्षेत्र में जो अपना महनीय योगदान दिया है, वही परम्परा आज भी माताजी जैसी ज्ञानविभूतियों से धन्य हुई है। वैदिक युग में भी लोपा मुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता, घोषा आदि ऐसी पंडिता स्त्रियाँ हुई थीं, जिन्होंने शिक्षा, ज्ञान For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला और विद्वत्ता के क्षेत्र में ही योगदान नहीं दिया, बल्कि अनेक मंत्रों का भी प्रणयन किया। सुलभा, गार्गी, मैत्रेयी आदि महिला ऋषियों की विलक्षण तर्कशक्ति और अद्भुत प्रतिभा का आज भी सम्मान किया जाता है। बौद्ध युगीन नारी चिन्तकों की भी एक सुसमृद्ध परम्परा रही है। घेरीगाथा के अनुसार ३२ आजीवन ब्रह्मचारिणी और १८ विवाहित भिक्षुणियों का लेखन, अध्यापन और साहित्य-सृजन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। इनमें भी भिक्षुणी खेमा एक ऐसी महान् विदुषी थी जिसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। भद्राकुण्डकेशा, सुभद्रा आदि बौद्ध भिक्षुणियाँ अपने युग की सर्वविद्या-पारंगत एवं व्याख्यान-कुशल विदुषियाँ मानी जाती थीं। जैन परम्परा में भी विदुषी स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। बौद्धजातक से ज्ञात होता है कि चार जैन विदुषी बहिनों ने देश का भ्रमण करते हुए लोगों को दर्शनशास्त्र पर खुला शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। कौशाम्बी नरेश की पुत्री जयन्ती ज्ञान और दर्शन में विशेष पारंगत थी। जैन सूत्रों में ब्राह्मी, सुंदरी, चंदना, मृगावती आदि ऐसी कितनी ही महिलाओं के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने सांसारिक सम्बन्धों को त्याग कर सिद्धि प्राप्त की और लोक-कल्याण हेतु उपदेश दिया। भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या आर्यिका चन्दना का श्रमणियों में सर्वोच्च स्थान था। अनेक साध्वियों ने उनके नेतृत्व में सम्यक् चारित्र का पालन करते हुए आत्मसिद्धि प्राप्त की। जयन्ती कौशाम्बी नरेश शतानीक की बहिन थी, जो ऐश्वर्य भोग को त्यागकर साध्वी बन गईं। पूज्य माताजी के सांसारिक वैराग्य का कारण 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' का स्वाध्याय था। वैराग्य का ऐसा सात्त्विक कारण ढूँढ़ पाना अत्यन्त दुर्लभ है। 'मेरी स्मृतियाँ' नामक अपने जीवन संस्मरण में माताजी ने लिखा है कि उनकी बाल्यावस्था में दीक्षा धारण का अवसर कितनी सामाजिक कुण्ठाओं और संकीर्ण विचारों से संघर्षशील रहा था। जन-सामान्य ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना की कुंवारी दीक्षा का भ्रामक प्रचार कर रहा था, किन्तु आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने जब नारी स्वातत्र्य को मानवमात्र का एक निजी अधिकार उद्घोषित किया तो सामाजिक दबावों और भ्रामक संकीर्णताओं के बन्धन खुल गए और १७ वर्षीय बालिका मैना ने आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा रूप ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। बहुतों द्वारा समझाने-बुझाने, तरह-तरह के प्रलोभन देने के बाद भी स्वतन्त्रताप्रिय कुमारी मैना रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु आगे बढ़ गई। इस बालिका की वीरता को देखते हुए ही आचार्य श्री ने इन्हें 'वीरमती' नाम दिया। और वही वीर बालिका चार वर्ष के बाद आचार्य वीर सागर जी महाराज के संघ में दीक्षित हो गईं, किन्तु अब उनका नाम 'वीरमती' के स्थान पर 'ज्ञानमती' हो चुका था। भारतीय चिन्तकों ने उचित ही कहा है-कायर व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी नहीं है-"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" आर्यिका जी ने वीरता और ज्ञान की रश्मियों से अपना लक्ष्य खोजा है। महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमार संभव' नामक महाकाव्य में तपस्या के प्रति पार्वती के जिस दृढ़ संकल्प का उल्लेख किया है माताजी के दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व के साथ उसकी भी तुलना की जा सकती है। नीचे की ओर बहती जलधारा को और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति के इरादों को भला कौन मोड़ सकता है? ___"इति ध्रुवेच्छामनुशासती सुतान शशाक मैना न नियन्तुमुद्यमात् । क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुख प्रतीययेत् ॥” (कुमार., ५/५) पूज्य माताजी ने अपने शैशवकाल से ही जैन शास्त्रों का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया था। दीक्षा धारण करने के बाद उनके ज्ञानार्जन का दायरा विस्तृत होता गया। साहित्य सृजन की प्रतिभा प्रतिस्फुरित हुई और देखते ही देखते उनकी लेखनी से डेढ़ सौ से भी अधिक ग्रन्थ लिखे गये। इन सभी ग्रन्थों में 'अष्टसहस्री' जैसे दुरुह ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में अनुवाद और 'नियमसार' पर 'स्याद्वादचन्द्रिका' नामक संस्कृत टीका जैन दर्शन के इतिहास की बहुमूल्य रचनाएँ ही मानी जायेंगी। आपकी शिष्या आर्यिका श्री जिनमती माताजी तथा आदिमती माताजी ने आपके सानिध्य में रहते 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' और 'गोम्मटसार' जैसे महान् ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद करके न केवल जैन धर्म की विलक्षण सेवा की है, बल्कि एक तत्त्व चिन्तक साध्वी वर्ग द्वारा किये गये साहित्यिक योगदान का अभूतपूर्व उदाहरण भी प्रस्तुत किया है । समूचे जैन साहित्य के इतिहास का यदि सर्वेक्षण किया जाये तो शायद ही कोई ऐसा युग रहा होगा जब किसी जैन साध्वी ने अपने तपोमय जीवन से समय निकाल कर इतने विशाल स्तर पर साहित्य सृजन का भी कार्य किया हो। माताजी के साहित्यिक योगदान का क्षेत्र विशुद्ध शास्त्रीय वाङ्मय ही नहीं रहा है, बल्कि स्त्री-बालोपयोगी साहित्य लेखन को भी आपने विशेष प्रोत्साहन दिया है। कथा-उपन्यास आदि की शैली अपनाकर आम जनता को शिक्षित और सुसंस्कृत बनाना आपके लेखन का मुख्य उद्देश्य रहा है। जैन विद्या को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से आपने 'वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला' की स्थापना की और 'सम्यग्ज्ञान' पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। सिद्धान्त वाचस्पति न्याय प्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने एक सुप्रसिद्ध लेखिका, चिन्तक और साधिका के रूप में जो अपना विलक्षण स्थान बनाया है वह बीसवीं सदी की एक महान् घटना तो है ही, किन्तु वह जैन संघ के इतिहास का भी एक सुनहरा अध्याय है। धर्म प्रभावना की निर्मल सरिता को लोक मानस तक ले जाना आपके जीवन का परमार्थ प्रयोजन है। माताजी ने आर्यिका संघ को एक स्वतंत्र एवं अनुशासनशील संघ की चेतना दी है। उनका दृढ़ विश्वास है कि "जिन संघों में आर्यिकाओं का अनुशासन प्रमुख आर्यिका सँभालती है वहाँ शांति रहती है और समुचित मर्यादा बनी रहती है।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२७७ माताजी की धर्म प्रभावनाओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के पौराणिक विधानों का अनुष्ठान जैनसमाज में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ है। पूरे देश में आजकल इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, पंचमेरु विधान आदि की धूम मची है। माताजी ने हस्तिनापुर, बनारस, राजस्थान आदि अनेक प्रान्तों में जैनशास्त्रानुसारी विधानों का विशाल स्तर पर आयोजन करवाया तथा जैन पूजा विधि को एक परम्परागत दिशा प्रदान की। आपने सर्वतोभद्र महाविधान, तीनलोक विधान, त्रैलोक्य विधान, तीस चौबीसी विधान, ऋषि मंडल पूजा विधान, जम्बूद्वीप विधान आदि अनेक जैन विधानों की शास्त्रीय विधि पर पुस्तकें लिखी हैं और विभिन्न पौं त्यौहारों के अवसर पर इनका सामाजिक स्तर पर भी अनुष्ठान करवाया है। प्रायः ऐसा देखने में आया है कि जहाँ जहाँ माताजी ने इन विधानों का अनुष्ठान करवाया, श्रद्धा एवं धर्मप्रभावना की एक निरछल आस्था जनमानस में बहती चली गई। प्रतिमा प्राणप्रतिष्ठा जैन धर्म का अत्यन्त लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान रहा है। प्राचीन काल से ही प्राणप्रतिष्ठा की विधियाँ शास्त्रों में बताई गई हैं, किन्तु तरह तरह के पाठभेदों और स्थानीय परंपराओं के अनुसार इनमें विविधता भी देखने को मिलती है। इसी महत्त्वपूर्ण समस्या पर १५ अकूटबर १९८९ को माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में देश के विभिन्न प्रतिष्ठाचार्यों की त्रिदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों ने सर्वसम्मति से यह निर्णय भी लिया कि एक नये प्रतिष्ठापाठ ग्रन्थ बनाने की अपेक्षा यह अधिक समीचीन होगा कि किसी एक प्रतिष्ठा को आधार मानकर अनुष्ठान किये जाएं। माताजी का इस सम्बन्ध में स्पष्ट मत था कि “पाषाण को भगवान् बनाने के लिए प्रतिष्ठाचार्यों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी रहती है, अतः प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित जितने भी प्रतिष्ठा पाठ हैं उनमें से ही किसी एक को लेकर प्रतिष्ठाविधि करानी चाहिये।" इसी संगोष्ठी में प्रतिष्ठापना की एक सर्वसम्मत नियमावलि भी बनाई गई तथा प्रतिष्ठापकाचार्य के लिए संस्कृत, व्याकरण, सिद्धान्त, शिल्प एवं ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक योग्यता माना गया। जैन धर्म की दृष्टि से हस्तिनापुर एक आदि तीर्थ क्षेत्र रहा है, यहाँ की पावन भूमि में तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक सम्पन्न हुए। यही वह पवित्र भूमि है जहां आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को अक्षय तृतीया के दिन राजा श्रेयांस ने इक्षुरस का आहार दान दिया था। पूज्य माताजी ने 'हस्तिनापुर' नामक पुस्तक में यह बताया है कि रक्षाबन्धन पर्व, पाँच पाण्डवों की कथा आदि अनेक पौराणिक प्रसंगों की दृष्टि से भी जैन समाज के लिए हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र का कितना महत्त्व है ? सन् १९७४ तक यहाँ एक प्राचीन मन्दिर, तीन छोटे जिनालय और तीन नशियाएँ ही विद्यमान थीं और चारों ओर निर्जनता छाई हुई थी, किन्तु उसके बाद जैसे ही माताजी के चरण इस क्षेत्र में पड़े, केवल १०-१५ वर्षों के अल्प समय में ही हस्तिनापुर विश्व के एक दर्शनीय तीर्थक्षेत्र के रूप में विकसित हो गया। माताजी ने यहाँ जम्बूद्वीप की भव्य स्थापना की। ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत बनवाया, अनेक जिन-मन्दिरों की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा का समायोजन किया और देखते ही देखते १९८५ तक यहाँ जैनशास्त्रानुसारी जम्बूद्वीप का पूरा मॉडल ही प्राणप्रतिष्ठित कर दिया गया। सन् १९८२ में प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने 'जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति' का भारत-भ्रमण के लिए प्रवर्तन किया था तो पूरे देश में एक जम्बूद्वीप इतिहास चेतना का पुनर्जागरण-सा हो गया था। आर्यिका जी के द्वारा हस्तिनापुर जैसे गौरवशाली तीर्थक्षेत्र का जीर्णोद्धार हुआ यह केवल जैन समाज के लिए ही गौरवास्पद नहीं, अपितु समूची भारतीय संस्कृति का ही अभिमण्डन है। हस्तिनापुर जम्बूद्वीपीय भूगोल का एक प्रधान केन्द्र रहा था, आधुनिक हस्तिनापुर का जम्बूद्वीप इसी की अभिव्यक्ति है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र रत्नत्रय की धारिका पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने निवृत्ति मार्ग में रहते हुए भी जैन समाज को पुनर्जागृत करने, धर्म, इतिहास तथा तीर्थक्षेत्रों का पुनरुद्धार करने के उद्देश्य से लोक मंगल के जो नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं, उनसे जैन धर्म के इतिहास का एक नया अध्याय उद्घाटित हुआ है। आर्यिका चन्दना के समान उनका नाम भी इतिहास में अमर रहेगा। कलियुग की ब्राह्मी माता - ज्ञानमतीजी - ब्र०कु० आस्था शास्त्री, संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ब्राह्मी माता के सदृश, ज्ञानमतीजी मात । सदी बीसवीं की प्रथम, कुंवारी कन्या आप ॥ आज कौन नहीं जानता कि गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिकारत्न हैं। सर्वप्रथम जब इन्होंने त्यागमार्ग की ओर कदम बढ़ाया तब तक किसी क्वारी कन्या ने दीक्षा नहीं ली थी। इसीलिए शुरू में सभी लोग इनके विरोध में थे। इन्हें खूब समझाते, लेकिन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला माताजी उन्हें शास्त्र की बातें सुनाकर चुप कर देतीं। एक बार आपके मामाजी ने जब काफी विरोध किया और उपद्रव मचाया और कहा-कहाँ लिखा है कुंवारी कन्या दीक्षा लेती है? तब आपने शास्त्र के अध्ययनानुसार कहा कि भगवान् आदिनाथ की पुत्रियाँ ब्राह्मी सुन्दरी ने दीक्षा ली, वे कुँवारी ही तो थीं। लेकिन तब मामाजी ने मोहवश क्या कहा था- नहीं, वे तो नपुंसक थीं। पू० माताजी की मेरी स्मृतियाँ पढ़ने से बहुत-सी बातों का ज्ञान होता है। सचमुच आज पू० माताजी ने कन्याओं के लिए ब्राह्मी-सुन्दरी का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। इस बीसवीं शताब्दी की ये अनुपम देन हैं। इनके विषय में वर्णन करना तो सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। पू० माताजी के पास आने वाला हर मानव आकर्षित हुए बिना नहीं रहता, पू० श्री चन्दनामती माताजी ने 'चंदना सुनाती ज्ञानमती की कथा' नामक पद्य कथानक में कितनी सत्य और हृदय को छूने वाली बात कही है सुनते हैं पारसमणि को छूकर, लोहा केवल सोना है बनता । सोना है बनता लेकिन ज्ञानमती पारस को छूकर मानव स्वयं पारसमणि है बनता। पारस मणि है बनता चन्दनामती की स्वयं बीती ये कथा, मोहिनी माता से जो जुड़ी है सर्वथा । सुनो युग की पहली ज्ञानमती की कथावास्तव में पू० माताजी के द्वारा आज कुँवारी कन्याओं के लिए दीक्षा का मार्ग खुल जाने से कितनी ही कन्याओं ने अपना आत्म कल्याण कर लिया। कितने ही पुरुषों ने पू० माताजी से ज्ञान अर्जित किया, लेकिन पू० माताजी ने उन्हें बढ़ा-बढ़ा कर आज अपने से भी ऊँचा बना दिया। वर्तमान में पृ० माताजी के द्वारा शिक्षित चार आचार्य बन गये। आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज, श्री श्रेयांससागरजी महाराज, श्रीवर्धमान सागरजी महाराज और षष्ठम पट्टाचार्य श्री अभिनंदन सागरजी महाराज हैं। 'कलियग की ब्राह्मी माता' गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी की सतत चलती लेखनी ने भी विश्वरिकार्ड को तोड़ दिया है। भगवान महावीर के शासनकाल में ये प्रथम महिलारत्न हैं, जिन्होंने अपनी कलम से इतने बड़े-बड़े ग्रन्थों की रचना कर डाली। अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद कर लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। माताजी के अभूतपूर्व ज्ञान को देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबाते हैं और कुछ कहते हैं कि अगर मुझे कुछ लिखना होता है तो एक दिन में पचास बादाम खाकर भी मैं उतना नहीं लिख पाता, लेकिन पू० माताजी नीरस भोजनकर, वह भी एक बार और इतना लिखती हैं तथा अध्ययन भी कराती हैं; सचमुच इनमें कोई महान् शक्ति ही छुपी हुई है। माता चंदनामती जी के शब्दों में संघ आर्यिका बना विहार किया तुमने, ज्ञान गंगा की शाश्वत धार बहा तुमने । चंदनबाला ब्राह्मी माँ का किया मार्ग स्वीकार । ज्ञानमती माताजी, नैया लगा दो पार। पृज्य माताजी की जीवनगाथा पढ़ने से भी बहुत से लोगों को वैराग्य हो जाता है। इन्होंने अपने जीवन में अत्यधिक संघर्ष झेले और फिर भी अपने निश्चय पर दृढ़ अडिग रहीं, शायद ही आज कोई इतना पुरुषार्थ कर सके। छोटे-छोटे भाई-बहनों का मोह त्यागना और माँ की ममता को ठुकराना भी एक बहुत बड़ा काम होता है। किसी के समझाने पर माताजी उसे ही समझाने लगतीं। पिताजी, भाई, बहन जब मैना से कहते कि इस मार्ग में इतनी कठिनाइयाँ हैं कि तुम सहन नहीं कर पाओगी, तब माताजी उन्हें क्या उत्तर देतीं- माँ चन्दनामतीजी के शब्दों में मैना बोली सब सह लूँगी । ब्राह्मी के पथ पर चल लूँगी । यह पथ ही तो जग का कल्याण कराता । बन गई ज्ञानमती माता . . . . . . . . . । 'जम्बूद्वीप की अलौकिक रचना' जो देखता है तो बस देखता ही रह जाता है। उसके मुख से बरबस यही निकल पड़ता है कि माताजी ने तो स्वर्ग को ही हस्तिनापुर में उतार रखा है। इतने महान् कार्यों को देख लोग कहते हैं कि अगर ये महिला न होकर पुरुष होती तो और न जाने क्या अलौकिक कार्य कर डालतीं। आज मुझे यह लिखते हुए बहुत ही हर्ष और गौरव हो रहा है कि मुझे भी ब्राह्मी माता सदृश श्री ज्ञानमती माँ की शिष्या कहलाने का अधिकार मिल रहा है सचमुच ऐसी माँ भी विरलों को ही प्राप्त होती हैं। मैं माँ के दीर्घ जीवन की कामना करते हुए भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि ऐसी माँ ब्राह्मी की प्रतिमूर्ति से कभी यह जग खाली न हो। माँ के चरणों में कोटिशः नमन्। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ Jain Educationa International "चतुरनुयोग मार्गदर्शिका ज्ञानमती माताजी " [२७९ 1 अभिनंदन ग्रंथ के संपादक मण्डल की मीटिंग में मुझे सम्यग्ज्ञान के ऊपर लिखने को कहा गया तो मुझे यह महसूस हुआ कि मानो अचानक मुझसे ये प्रश्न कर दिया गया हो कि बताओ समुद्र की कौन सी लहर सबसे ऊँची है या संगीत का कौन सा सुर सबसे अधिक तेज बजता है। परंतु जिस प्रकार संगीत के समस्त स्वर एक ही सप्तक के झरने से झरे हैं। जिस प्रकार समुद्र की सभी लहरें एक ही केन्द्र बिन्दु से उठती हैं, चाहे कोई नीची हो या ऊँची । जिस प्रकार इस नभमंडल में व्याप्त समस्त प्रकाश सात रंगों का एक अनोखा मिश्रण है, उसी प्रकार पू० माताजी ने जैन दर्शन जो कि चतुरनुयोगों की चारों विधाओं से झरने के बहते जल के रूप में, संगीत के सुरों के रूप में, नभमंडल में व्याप्त प्रकाश के रूप में तथा समुद्र की लहरों के समान सम्यग्ज्ञान में अपनी लेखनी से अंकित किया है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर जिन्होंने पूरा जैन दर्शन उनसे पूछे गये सहस्रों प्रश्नों के उत्तर में उल्लेखित किया, जिसको गौतम गणधर के द्वारा लिपिबद्ध करवाया गया, जिसको कुन्दकुन्दाचार्य व अन्य आचार्यों के द्वारा पुनः संकलित किया गया, उन्हीं चतुरनुयोगों को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा सर्वप्रथम पत्रिका "सम्यग्ज्ञान" के माध्यम से जन-जन के ज्ञानार्जन के लिए लिखा गया। पहले जैन समाज की जितनी भी पत्र-पत्रिकायें थीं उनमें किसी भी पत्रिका में चारों अनुयोगों को एक साथ नहीं लिया गया था पू० माताजी ने जब सभी पत्रिकाओं में इस कमी को पाया तो संगीत की सप्तक के समान स्याद्वाद सूर्य से आलोकित द्वादशांग वाणी रूप चारों अनुयोगों से युक्त सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाशन करवाने का बीड़ा उठाया, और स्वयं की लेखनी से जैन दर्शन की ज्ञान गंगा को अवतरित किया। सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका ने उस प्रकाश स्तंभ का कार्य किया है जो समुद्र के मध्य में खड़ा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चारों दिशाओं के भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाता है, किसी भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी दिशा से आने वाला हो के साथ कोई पक्षपात नहीं करता है उसी प्रकार पूजनीय माताजी ने भी सम्यग्ज्ञान पत्रिका में जन-जन के जीवन को सार्थक करने के लिए चतुरनुयोगों को चारों दिशाओं के समान प्रकाशित किया है। " सम्यग्ज्ञान" प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों को पू० माताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा समझाते हुए प्रथमानुयोग के अन्दर पट्काल परिवर्तन, कुलकरों की उत्पत्ति, चौबीस तीर्थंकरों का इतिहास, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायणों की विशेषताओं का वर्णन किया है तो करणानुयोग में तीनों लोकों का पूर्ण वर्णन तथा उसमें अधोलोक, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, लवणसमुद्र, जम्बूद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालय, मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालय, तथा देवों के भेद जैसे-भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिवाँसी देव, कल्पवासी देव के भेदों को समझाते हुए जीव के पंच परिवर्तन, पल्यसागर का स्वरूप आदि विशेषताओं को समझाया है। वहीं चरणानुयोग में धर्म का लक्षण, श्रावक की क्रियायें, श्रावक के धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, मुनि धर्म एवं उनके २८ मूलगुण, मुनियों की दिनचर्या आदि का वर्णन करते हुए साक्षात् मोक्ष मार्ग के दर्शन कराये हैं। इसी प्रकार द्रव्यानुयोग में छः द्रव्यों का वर्णन, नय व प्रमाण का वर्णन, अनंत के भेद, मोक्ष मार्ग, कर्म सिद्धांत, कर्मों का आस्रव, बंध, संवर व निर्जरा का कारण एवं मुक्ति का कारण इत्यादि बताया है। वास्तव में पू० माताजी ने सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के माध्यम से गागर में सागर भर दिया है। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय सम्यग्ज्ञान में समा गया है। पू० माताजी की सरस लेखनी जो सदैव एक नया आनंद एक नया वर प्रदान करती है, जिस प्रकार से आप जब किसी नदी में पांव रखकर एक क्षण पूर्व की छोड़ी हुई जल की धार छू नहीं सकते उसी प्रकार माताजी की वाणी, माताजी की लेखनी भी ज्ञान गंगा का वह प्रवाह है जिसको आप एक बार पढ़ना व सुनना भूल गये तो आपको सदैव यह अहसास होगा कि आपने कुछ खो दिया है और आप सदैव नदी की धार की बूंद के समान उसको ढूंढते ही रहेंगे। J पूजनीय माताजी ने सम्याज्ञान को अपने ज्ञान की गंगा से लबालब भर दिया है। संगीत के स्वर को इतनी ऊंचाईयों तक पहुँचा दिया है कि सम्यग्ज्ञान पत्रिका को देखने से ही मन वीणा के तार स्वयमेव ही बज उठते हैं और सातों रंगों के मिश्रण से बना प्रकाश मन मस्तिष्क में छा जाता है। पू० माताजी ने मात्र चारों अनुयोगों को ही नहीं इनके अलावा भी बहुत से विषयों को समय-समय पर सम्यग्ज्ञान में प्रतिपादित किया है, जिनके कारण ऐसे अंक सदैव के लिए अविस्मरणीय बन गये और भविष्य की अमूल्य ख्याति एवं सुनहरा इतिहास बन गये हैं। ठीक है, उन शब्दों को हम शायद नहीं समझ पायें, परन्तु आने वाला युग, आने वाली संतति सदैव माताजी की ऋणी रहेगी, और सदियों तक माताजी की अमरकृति गाई जाती रहेगी। जब तक ये नभ मंडल रहेगा, ये विश्व रहेगा, ये भारत रहेगा पू० माताजी की लेखनी अमर रहेगी । For Personal and Private Use Only - मनोजकुमार जैन, हस्तिनापुर Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आनन्दीलाल जीवराज दोशी, फलटण भारत भूमि साधु-संतों की अनमोल खान है यहाँ एक से बढ़कर एक महानुभावों ने अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाकर हमें सुसंस्कृत, सुशिक्षित एवं सभ्य बनाया। जैन धर्म का इसमें सबसे बड़ा हाथ है। जैन धर्म ने ही "अहिंसा परमो धर्मः" का संदेश देकर मानवीय जीवन में सुख-शांति समाधान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जैन धर्म ने ही दुनिया को बताया कि ज्ञान का भंडार ज्ञानमती जी जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में जिन महानुभावों ने अपना महान् योगदान दिया उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम है. होनहार बिरवान के होत चिकने पात "पुण्यस्य फलं मिच्छन्ति, पुण्यं नैच्छेति मानवाः । न पाप फलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ यह कहावत श्री ज्ञानमतीजी के बचपन को समझकर सिद्ध होती है। आपने वि०सं० १९९१ अर्थात् सन् १९३४ आश्विन् शुक्ला शरद् पूर्णिमा की रात्रि में ९ बजकर १५ मि० पर इस पृथ्वीलोक पर बाराबंकी जिले के टिकैतनगर नामक छोटे से गाँव में जन्म लिया। आपके माता-पिता ने प्यार से आपका नाम मैना रख दिया। आपने १२-१३ वर्ष की आयु में "पद्मनंदि पंचविंशतिका" नामक ग्रंथ पढ़ा। इस अनमोल ग्रंथ का इतना जबरदस्त प्रभाव आपके मन पर पड़ा कि आपके हृदय में दिन-प्रतिदिन चंद्र कलावत् वैराग्य भाव बढ़ने लगे। आपने उसी समय यह निश्चय किया कि गृहस्थ जीवन के माया जाल के बंधन में आप नहीं अटकेंगी। - Jain Educationa International प्रथम चरण :- सन् १९५२ में बाराबंकी शहर में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज का चातुर्मास था उन्हीं के मौलिक आचार-विचारों से प्रेरित होकर आपने शरद् पूर्णिमा के दिन आचार्य श्री से सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और एक आर्यिका की भाँति संघ के साथ ही पद विहार करने लगी। द्वितीय चरण सन् १९५३ में महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर सोलह कारण पर्व के प्रथम दिन चैत कृष्ण प्रतिपदा को बाल ब्रह्मचारिणी मैना को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर वीरमति नाम प्रदान किया । तृतीय चरण :- सन् १९५५ में कुंथलगिरि में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागरजी महाराज की सल्लेखना देखी तथा उन्हीं की आज्ञानुसार उनके प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में अपनी दो शिष्याओं के साथ जयपुर खानिया आ गईं। वहाँ पर आपकी उत्कृष्ट वैराग्य भावना तथा अलौकिक ज्ञान देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराजने माधोराजपुरा ( राजस्थान) में सन् १९५६ वैशाख कृष्ण दूज को आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ज्ञानमती नाम से अलंकृत करते हुए आशीर्वचन में कहा कि "मैंने जो ज्ञानमती नाम रखा है, उसका सदैव ध्यान रखना।" चरमोत्कर्ष :-सन् १९५२ से लौकिक परिवार से अलग होकर आपने अलौकिक गुरुसंघ के साथ अधिकतर समय राजस्थान में विहार किया । सन् १९६२ में अपनी पाँच आर्यिका शिष्याओं के साथ बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश तथा दक्षिण भारत की हजारों कि०मी० पदयात्रा में आपने सभी जगह जैन धर्म की महती कीर्ति फैलायी। दीक्षा लेने से लेकर आजतक आपके ३८ चातुर्मास विभिन्न स्थानों पर संपन्न हो चुके हैं। श्री ज्ञानमती माताजी अपने क्षुल्लिका दीक्षा के पश्चात् से ही शिष्य-शिष्याओं का संग्रह कर उनसे पाठ पठन कराना तथा वयं आपने जैन धर्म के गूढ़तम ग्रंथों के अध्ययन का बीड़ा उठाया। आपके महान् पुनीत चरित्र से प्रेरणा लेकर लगभग ५० से अधिक शिष्य-शिष्याओं ने मुनि आर्यिका दीक्षा धारण की है। श्री ज्ञानमती माताजी का ! - अनमोल साहित्य-सृजन: आपकी जैन साहित्य सेवा अपूर्व है। सन् १९५४ में जयपुर में केवल दो माह में कातंत्र व्याकरण का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, जिससे वे किसी भी संस्कृतज्ञ के समक्ष संस्कृत वार्तालाप करने में पूर्ण सक्षम बनी। सन् १९५५ में महाराष्ट्र प्रांत के म्हसवड़ ग्राम में चातुर्मास में आपने सहस्रनाम स्तोत्र के एक हजार मंत्र स्वयं संस्कृत में रचे, जो एक लघु पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हो चुके हैं। सन् १९६५ के श्रवणबेलगोल चातुर्मास में भगवान् बाहुबली के चरणसानिध्य से उनकी संस्कृत काव्यों, कन्नड़ बारह भावना आदि के द्वारा साहित्य सृजन का शुभारंभ हुआ। सन् १९६९ के जयपुर चातुर्मास में न्याय के सर्वोपरि ग्रंथ अष्टसहस्त्री का हिंदी में अनुवाद किया। आपने आजतक अपनी शुद्ध सरल-सुगम सुबोध प्रतिभासंपत्र लेखनी के द्वारा डेढ़ सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की। सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में आपके मौलिक लेख नारियों तथा बालकों के लिए रोचक सामग्री का सदैव योगदान रहता है। आपकी प्रेरणा से सन् १९७२ में "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की स्थापना हुई, जिसने अद्यावधि For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में आपके मौलिक लेख नारियों तथा बालकों के लिए रोचक सामग्री का सदैव योगदान रहता है। आपकी प्रेरणा से सन् १९७२ में "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की स्थापना हुई, जिसने अद्यावधि लाखों की संख्या में ग्रंथ प्रकाशित करके उन्हें चिरस्मरणीय बनाया। शिक्षा प्रसार पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपने दीक्षागुरु के नाम को स्मरणीय बनाने हेतु "आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ" की स्थापना की। इस विद्यापीठ स्थापनक के पीछे आपका उद्देश्य था पुरानी संस्कृति के नये विद्वान् समाज में आयें। अतः उस विद्यापीठ में ऐसे ही छात्रों का प्रवेश आरंभ हुआ। फलस्वरूप आज अनेक विद्वान्, शास्त्री तथा आचार्य की उपाधियाँ प्राप्त कर विद्यापीठ के माध्यम से सभी प्रांतों में इंद्रध्वज आदि विधान कराने हेतु, वेदी प्रतिष्ठा तथा प्रवचन हेतु उन्हें भेजा जाता है। महत्कार्य :- सन् १९७४ में भगवान् महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के समय आपकी प्रेरणा से दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर तीर्थस्थल पर जंबूद्वीप रचना निर्माण हेतु एक भूमि खरीदी। सन् १९७५ से जंबूद्वीप निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। सन् १९७९ तक ८४ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण कार्य पूर्ण होकर २८ अप्रैल से २ मई १९७९ तक उसके १६ चैत्यालयों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई पुनः सुमेरु पर्वत के चारों विदेह वक्षार, गजदंत आदि का निर्माण हुआ। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं उस पुनीत प्रतिष्ठा में पंडित कोठारीजी के साथ और मित्र सहित सम्मिलित हो सका तथा आपके दर्शन का लाभ उठा सका। आपके जीवन की महान् उपलब्धि की और एक घटना ४ जून १९८२ में दिल्ली के लाल किला मैदान से आपका आशीर्वाद प्राप्त कर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने "जंबूद्वीप ज्ञानज्योति रथ" का उद्घाटन किया। इस पुनीत रथ ने १०४५ दिनों तक हिंदुस्तान के छोटे-बड़े गाँवों में जाकर जातीय एकता, नैतिकता, अहिंसा तथा जंबूद्वीप का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। २८ अप्रैल १९८५ को उस ऐतिहासिक ज्योति को तत्कालीन केंद्रीय रक्षा मंत्री श्री पी०वी० नरसिंह राव के कर कमलों से तथा श्री जे०के० जैन संसद सदस्य की अध्यक्षता में हस्तिनापुर में अखंड रूप में स्थापित कर दी गई। इसी प्रकार पूज्य माताजी की असीम कृपा से ६ मार्च से ११ मार्च १९८७ तक श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई ३ मई से ७ मई १९९० तक जंबूद्वीप का पंचवर्षीय महा महोत्सव आपके संघ सानिध्य में सुसंपन्न हुआ। इन पाँच वर्षों में पूज्य ज्ञानमती माताजी का मंगल आशीर्वाद ग्रहण करने श्रीमती इंदिरागांधी, श्री राजीव गाँधी, श्री पी०वी० नरसिंह राव, श्री नारायण दत्त तिवारी, श्री माधवराव सिंधिया, श्री अजित सिंह, श्री वी० सत्य नारायण रेड्डी जैसे मान्यवर राजनेता आये थे। पूज्य ज्ञानमतीजी ने साक्षात् सरस्वती ज्ञान का खजाना बनकर धर्म प्रसार का अनमोल कार्य अपने पुनीत जीवन में किया है, वह जैन धर्म अनुयायियों के लिए सदैव यादगार रहेगा। आप जैसे महानुभाव को मेरे शतशः प्रणाम ! आपके बारे में बस मैं इतना ही कहूँगा कि--- आपका विराट् रूप, मन में नहीं समाता । कितना भी कहूँ, शेष बहुत रह जाता ॥ "योगक्षेत्र में ज्ञानमती माताजी का वैशिष्ट्य " सरस कवि ने पूज्य माताजी के विषय में कहा है Jain Educationa International (२८१ 'जो कहते योगों में नारी नर के समान कम होती है। ऐसे लोगों को ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है ।' परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी के लिए कोई भी ऐसा क्षेत्र बाकी नहीं रहा, जिसका माताजी ने स्पर्श न किया हो। चाहे वह साहित्यक क्षेत्र हो, धार्मिक क्षेत्र हो, रचनात्मक क्षेत्र हो, या यौगिक क्षेत्र हो । - ब्र०कु० बीना जैन [संघस्थ] यौगिक क्षेत्र में पू० माताजी की विशेष उपलब्धि रही। बचपन से ही जब माताजी कु० मैना की अवस्था में शीलकथा दर्शनकथा पढ़कर और पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका का स्वाध्याय कर-कर अपना ज्ञान वृद्धिंगत कर रही थीं उसके साथ ही साथ यौगिक क्षेत्र में कैसे आगे आएं? कैसे घर वालों का मोह छुड़ा कर वैराग्य मार्ग अपनाएं इसके लिए प्रयत्नशील थीं 'अकलंक निकलंक' नाटक देखकर, उसमें अकलंक का पिता के प्रति संवाद सुनकर कि 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं । " For Personal and Private Use Only - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही अच्छा है, वैसे ही विवाह करके पुनः छोड़कर दीक्षा लेने की अपेक्षा विवाह से उत्तम है।" पु० माताजी ने शादी न करने का निश्चय कर लिया था। लेकिन मन में सोची बात को पूरी करने के लिए कितनी कठिनाइयां और संघर्ष झेलने पड़ते हैं। यह तो पूज्य माताजी की आत्मशक्ति और अडिग मनोयोग ने सहायता की जिससे माताजी ने अभी तक जिस कार्य में कदम बढ़ाया उसमें पूज्य माताजी को सफलता और यश की प्राप्ति हुई। आज हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना , ८४ फीट ऊँचा सुमेरु पर्वत पू० माताजी के ध्यान - योग का ही प्रतिफल है। जिस समय माताजी विहार करती हुई श्रवलबेलगोल पहुँची और वहां भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में बैठकर १५ दिन तक ध्यान किया। मात्र १० बजे आहार के लिए नीचे आती पुनः ऊपर जाकर ध्यान में लग जाती। अपनी शिष्याओं के सुख-दुःख को भी भूलकर मौन ग्रहण कर ध्यान, चिन्तन और स्तोत्र पाठ करती हुई पू० माताजी को एक दिन जिस अलौकिक रचना के दर्शन हुए उसे पूज्य माताजी के मुख से सुनने का सौभाग्य अथवा लेखनीबद्ध पू० माताजी द्वारा लिखित मेरी स्मृतियों में किंचित् पंक्तियों में पढ़ने को मिल जाता है। 'मेरी स्मृतियां' पृ० ३२० पर पू० माताजी के शब्दों में - __"एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में लगभग ३-४ बजे के ध्यान में सहसा मुझे कुछ अलौकिक क्षेत्रों के दर्शन होने लगे। सुमेरु पर्वत से लेकर जंबूद्वीप के हिमवान आदि पर्वत उनके चैत्यालयों के दर्शन हुए और धातकी खंड, पुष्करार्ध द्वीप, नंदीश्वर द्वीप, कुंडलवर पर्वत और रुचक पर्वत के जिनमंदिरों के दर्शन हुए। मानों कभी पूर्व जन्म में मैंने इन अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन किए ही हों। घंटो मेरा उपयोग उन्हीं जिनमंदिरों की जिनमूर्तियों की वंदना में लगा रहा। पुनः एक दिन दिव्य प्रकाश दिखने लगा। आज भी जब मैं उन दिनों को उस ध्यान को याद करती हूँ तो वह प्रकाश स्मृतिपथ में आ जाता है।" पू० माताजी ने जब ध्यान समाप्त कर त्रिलोकसार ग्रन्थ उठाकर देखा और उसमें ज्यों का त्यों वर्णन पाया तो उनके हर्ष का पार नहीं। पू० माताजी ने अपनी सभी शिष्याओं को उन चार सौ अट्ठावन [४५८] चैत्यालयों के दर्शन कराए, उनका विस्तार सुनाया। सभी को महान आनन्द हुआ। डेढ़ सौ ग्रन्थों की रचना भी पूज्य माताजी की योग साधना का ही फल है। घंटों-घंटों बैठकर स्वाध्याय करना और अपने शिष्यों को करा-करा कर पक्का करना। आज के उपलब्ध सभी शास्त्रों का ठोस अध्ययन कर पूज्य माताजी ने अपने ज्ञान को इतना विकसित कर लिया है कि अगर आज कोई माताजी के सामने शास्त्रार्थ करने बैठ जाएं तो वह कदापि जीत नहीं सकता। आज जन-जन के मुख से यही सुनने को मिलता है कि पूज्य माताजी के समान आज इस युग में किसी का ज्ञान नहीं है। पू० माताजी इस युग की प्रथम विदुषी महिलारत्न है। जम्बूद्वीप के प्रथम दर्शन करने वाला मानव आकर यही कहता माताजी मैंने ऐसी अलौकिक रचना के कभी दर्शन नहीं किए। ऐसा लगता है कि हम तो मानो स्वर्ग में ही पहुंच गए हों। मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं है किन शब्दों में इस अभूतपूर्व रचना के बारे में कहूँ। ___आज पू० माताजी को योग साधना-तपस्या करते हुए ४० वर्ष व्यतीत हो गये। इस लम्बी अवधि ने पू० माताजी में वह शक्ति भर दी जो विशल्या में थी। लोग कहते हैं माताजी तो विशल्या हैं जिसने माताजी का आशीर्वाद पा लिया वह कृतकृत्य हो गया। सन् १९९१ का चातुर्मास पू० माताजी का सरधना हुआ था। १७-६-९२ को एक महिला सरधना से आई और आते ही माताजी से कहने लगी-'माताजी जब से सरधने में आपने मेरे ससुरजी [बाबूरामजी] को पीछी लगाई, तब से उनका घाव जोकि तीन साल से नहीं भर रहा था बिना दवाई के ही ठीक हो गया, मेरे घर में तो चमत्कार हो गया। माताजी यह आपका ही प्रताप है, जो मेरे ससुर स्वस्थ हो गए अन्यथा उनके ठीक होने की कोई आशा नहीं थी।' इस पंचमकाल दुषमकाल में इतना शुद्ध चारित्र धारण करनेवाले और इतनी कठिन तपस्या करनेवाले दुर्लभ है। बहुत ही विरले जीव हैं; जो इस संसार में स्वकल्याण के साथ-साथ परकल्याण करने में लगे हुए हैं। पू० माताजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन इस यौगिक क्षेत्र के लिए अर्पण कर दिया। १८ वर्ष की लघुवय में ही क्षुल्लिका दीक्षा और फिर २ वर्ष पश्चात् आर्यिका दीक्षा धारण कर स्वयं मोक्षमार्ग में आगे बढ़ती हुई और अनेक शिष्यों को मोक्षमार्ग में लगाती हुई स्वपर कल्याण में संलग्न पू० माताजी इस युग की एक महान विभूति हैं। सचमुच कवि की ये पंक्तियाँ माताजी के जीवन में साकार हो उठी हैं जो महाआत्मायें होती हैं वे युग परिवर्तन कर देती हैं। उनके जीवन की गाथाएं नित नव जीवन भर देती हैं। है वर्तमान गौरवशाली जो ऐसी ज्ञान प्रदाता हैं । प्रिय शान्तमूर्ति हैं ज्ञानज्योति श्री ज्ञानमती जी माता हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२८३ [नृत्य नाटिका] वैराग्य अंकुर -वीर कुमार जैन टिकैतनगर [बाराबंकी] उ०प्र० प्रथम दृश्य [स्टेज पर सामने माता ज्ञानमती जी की फोटो रखी है दोनो तरफ लाइन से छः छः लोग खड़े हैं।] प्रार्थना (तर्ज - ऐसी शक्ति हमें देना दाताल, मन का विश्वास कम हो सके ना . . . . .) ऐसी शक्ति हमें देना माता, मन का विश्वास कम हो सकें ना। करें हम सब भलाई हमेशा, और बुराई को हम छू सके ना ॥ टेक । तुमने यौवन में रखते ही पग को, यह है संसार निस्सार जाना । और चली देश भूषण के ढिग फिर, साधु मारग के बुनने को बाना ॥ ऐसी शक्ति ... बन गयी वीरमति क्षुल्लिका तब, ज्ञान की ऐसी ज्योति जलाई । लीनी फिर वीर सागर से दीक्षा, ज्ञानमती बन के जग में जगमगाई ॥ ऐसी शक्ति ... लिख दिये सैकड़ों ग्रंथ ऐसे, कर असम्भव को सम्भव दिखाया । जम्बूद्वीप बना ऐसा अद्भुत, उसने विज्ञान को भी रिझाया । ऐसी शक्ति . . . 'वीर' करता रहे तेरा वंदन, तेरी छाया रहित क्षण नहीं हो । धरती माता की गोदी कभी भी, ऐसी माता से खाली नही हो ॥ ऐसी शक्ति . . . [एक सूत्रधार स्टेज पर आता है अभिनय के साथ बोलता है-] सुनो ! सुनो !! सुनो !!! मैं जो कुछ तुम लोगों को सुनाने और दिखाने जा रहा हूँ न तो वह कोई काल्पनिक घटना है न ही वह कोई मन गढ़ंत कहानी है। यह एक वास्तविकता से भरपूर त्याग और तपस्या की वह कहानी है जिसे सुनकर लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। न ही कोई काल बीता है, और न ही कोई युग, न ही यह कोई हजारों वर्ष पुरानी घटना है। अरे ! अभी कोई बहुत असें नहीं बीते हैं। बस सन् १९३४ की घटना है। आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की जन्म भूमि अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्र को आज भी लोग अवध प्रांत के नाम से जानते हैं। भगवान ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती के समय अयोध्या नगर १२ योजन लम्बी और ९ योजन चौड़ी मानी जाती थी। उसके हिसाब से यह टिकैतनगर महमूदाबाद, त्रिलोकपुर, लखनऊ यह सब अवध प्रांत में ही आते है। और यह कहानी उस अवध प्रांत में बसे टिकैतनगर ग्राम की हैं। जो अयोध्या से लगभग ६० मील दूरी पर बसा है वैसे तो टिकैतनगर अनेकों इतिहासों से जुड़ा है इसके विषय में अनेकानेक किस्से हैं जहाँ यहाँ के पुरुषों ने आजादी की लड़ाई में अपनी वीरता का कौशल दिखाया है, वहीं पर यहाँ की नारियों ने शांति और त्याग के पथ पर चलकर भगवान् महावीर के समान बनने की क्षमता को दिखाया है। ___ हाँ ! तो इसी टिकैतनगर की बात है यहाँ पर बसा हुआ एक सुन्दर सा जैन मोहल्ला और उसी मोहल्ले में एक भव्य जिन मंदिर जिसके मुख्य द्वार को देखते ही रोम-रोम पुलकित हो उठे उसी मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ स्वामी की मूल वेदी। अद्भुत छटा है उस मंदिर की जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसी धार्मिक नगरी टिकैतनगर में जिन मंदिर के पास ही एक घर जिसमें लाला धन्य कुमार जी अपनी पत्नी फूल देवी के साथ रहते थे। ये अग्रवाल जातीय गोयल गोत्रीय दिगम्बर जैन थे। इनके चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ थी। इसमें से एक पुत्र थे लाला छोटेलालजी। और हाँ! यहीं से शुरू होती है यह कहानी। लाला छोटेलाल का विवाह महमूदाबाद के लाला सुखपाल दास जी की सुपुत्री मोहिनी देवी के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] साथ सम्पन्न हुआ। लाला सुखपाल दास जी बहुत ही धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे वैसे ही उनकी पुत्री मोहिनी भी थी। लाला सुखपालदास जी ने अपनी सुपुत्री को एक सच्चा दहेज दिया था। आप सोचते होंगे कि लोग तो आजकल, कार, फ्रिज, स्कूटर आदि वस्तुएँ दहेज में देते हैं परन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं दिया। उनका सच्चा दहेज था एक ग्रंथ। हाँ! ग्रंथ ही था जिसे पाकर मोहिनी का जीवन सफल हो गया। उस ग्रंथ का नाम था (पद्मनंदिपंचविंशतिका) जानते हैं आप ! मोहिनी के पिता ने ग्रंथ देते हुये क्या कहा? कि बेटी इस ग्रंथ का स्वाध्याय प्रतिदिन करना, जिससे तुम्हारा गृहस्थ जीवन और नारी जीवन पाना सफल हो जायेगा। मोहिनी अपने पिता द्वारा दिये गये सबसे मूल्यवान दहेज का हमेशा स्वाध्याय करतीं धीरे-धीरे समय बीतता गया। एक दिन लाला छोटेलाल जी ने देखा कि मोहिनी देवी के पैर भारी होने लगे वह बहुत खुश हुए और फिर वह पड़ी थी सन् १९३४ का आसोज सुदी पूर्णिमा का पावन दिन सभी को नये मेहमान के आने का इंतजार बड़ी बेसब्र से था और धीरे-धीरे रात्रि का प्रहर प्रारम्भ हुआ। हाँ वह शरद पूर्णिमा का दिन था सम्पूर्ण पृथ्वी चांदनी में नहायी हुई थी। ऐसा लग रहा था मानो चांदी की नदी बह रही हो, आकाश में असंख्यातों तारे टिमटिमा रहे थे मानो माँ के उस लाल को देखने के लिए धरती की ओर अपनी नजरें गड़ाऐ हो। उस पूर्णिमा की रात की ऐसी सुन्दरता जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उधर छोटेलालजी मीठे सपनों में खोये हुये नये मेहमान के आने की कल्पना कर रहे थे। दृश्य [लाला छोटे लाल का घर सभी लोग बैठे हैं-] दादी फूल देवी नाना नानी सूत्रधार वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला शरद् पूर्णिमा की सुहानी रात जैसे आज का चांद धरती को चूमने के लिए बेताब हो (और उधर लाला छोटेलाल एवं समस्त परिवार बैठे हैं) ज्योंही दस बजकर दस मिनट हुआ एक औरत अन्दर से आती है। (अन्दर से बच्चे की रोने की आवाज ) स्त्री लालाजी लालाजी लड़की हुई है कन्या रत्न पाया है आपने जैसे ही यह शब्द छोटेलाल जी ने सुना वह खुशी से झूम उठे और बोले हे ईश्वर में आज बहुत खुश हूँ। (उस स्त्री को अपने गले का माला उतार कर दे देते हैं) [बड़े गौरव के साथ] भले ही कन्या का जन्म हुआ है किन्तु पहला पुष्प है चिरंजीवी हो मुझे बहुत खुशी है। इसका नाम मैना ठीक रहेगा। अरे! यह मैना चिड़ियाँ है यह घर में नहीं रहेगी एक दिन उड़ जायेगी। थी शरद पूर्णिमा शुक्ल पक्ष, जिसको इतिहास न भूलेगा । सम्वत् नौ कम दो हजार, महिना कुंवार दिन फूलेगा । उस दिवस प्रात से ही प्रियवर, इक लहर नई सी दौड़ी थी । हर गली कली सी लगती थी, तरुओं में होड़ा होड़ी थी ॥' सीन २ - - Jain Educationa International 'था दिन ही ऐसा भाग्यवान, निश में ऐसी चातुरता थी । माँ आज मोहिनी पर मोहित लगती खुद ही सुन्दरता थी । श्री छोटेलाल पिता उस क्षण मीठे सपनों में सोये थे । आता है कब मेहमान नवा, पल-पल में आस संजोये थे ।' 'ज्यों दस बज कर दस मिनट हुए थी घड़ी घड़ी वह ले आई। सम्पूर्ण चाँदनी धरती पर स्वागत के लिए उतर आई । माँ तभी मोहिनी धन्य हुई हो गयी धरा पर नरमी थी, उस शरद् पूर्णिमा में उसने यह ज्ञान पूर्णिमा जन्मी थी ॥' पाकर के कन्या रत्न तभी, हो गगन मगन हो झूम चला छोटे के छोटे उपवन में यह पहला प्रेम प्रसून खिला; था स्वयं उजाला अचरज में, लख करके ऐसी दीप शिखा, तब बड़े प्यार से माता ने, कन्या का मैना नाम रखा ॥ (इसके बाद कोई मंगल गीत गाया जाता है । ) [ एक पालना रखा है माता मोहिनी उसे झुला रही है मैना को दूध पिलाते हुऐ भक्तामरस्तोत्र का पाठ कर रही है ।] 'भक्तामरप्रणतमौलिमणि प्रभाणा For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीन इसी तरह माता मोहिनी की यह विशेष आदत सी थी वह हर समय धार्मिक विचारों में डूबी रहती। भोजन बनाते समय बच्चों को खिलाते -पिलाते समय कभी भक्तामर स्तोत्र कभी महावीर चालीसा आदि आदि कुछ न कुछ पढ़ती रहती ऐसे संस्कार सभी में देखने को नहीं मिलते इसीलिए माता मोहिनी की प्रत्येक संतान धार्मिक विचारों से ओत-प्रोत है। धीरे-धीरे मैना बड़ी होने लगी प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ हुई विलक्षण प्रतिभा थी मैना में ३ (स्कूल का दृश्य) अध्यापक दूसरे अध्यापक सीन ३ मैना मोहिनी मैना मोहिनी मैना मोहिनी मैना सीन ४ अकलंक के पिता अकलंक पिताजी अकलंक गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ छोटेलाल Jain Educationa International बहुत ही बुद्धिमान लड़की है मैना हाँ! विलक्षण प्रतिभा की धनी है मैना जो पढ़ाओ बहुत ध्यान से सुनती है और तुरन्त याद कर लेती है जरूर एक दिन नाम करेगी। मैनाने आठ वर्ष की अल्प आयु में ही प्रारंम्भिक शिक्षा पूरी कर ली मैना की बुद्धिमत्ता और ज्ञान को देखकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। अब मैना घर पर ही रहकर पुस्तकों का अध्ययन करती रहती। [ और फिर एक दिन] माँ माँ! [ २८५ क्या है बेटी मैना ! माँ! हम भी खेलने जायें, देखो सब लड़कियां बाहर खेल रही हैं। बेटी ! खेलने में क्या रखा है? देखो ! घर में कितनी अच्छी-अच्छी पुस्तकें रखी है उनको पढ़ो उनसे ज्ञान बढ़ता है और खेलने से क्या मिलेगा? [ थोड़ी निराशा से] अच्छा माँ ! जैसा तुम कहती हो वैसा ही करूँगी [ थोड़ा रुककर] लाओ माँ ! किताबें कहाँ है? ये ले बेटी ! खूब ध्यान से पढ़ना ! ये शील कथा की किताबें हैं। (मैना कुछ देर किताबें पढ़ती है फिर खड़ी होकर बोलती है) वाह ! कितनी अच्छी अच्छी बातें लिखी है इनको पढ़ कर मन में वैराग्य की भावना जाग्रत होती है। हे भगवन् । मुझे भी ऐसी शक्ति दो जिससे मै भी ब्राह्मी, सुंदरी जैसी आर्यिका बन सकूँ। [एक दिन गांव में एक नाटक मंडली द्वारा नाटक दिखाया जा रहा था। अकलंक और निकलंक, मैना भी वहीं बैठी नाटक देख रही थी उसमें एक सीन ऐसा आया - उसमें अकलंक के पिता अकलंक से कह रहे थेबेटा अकलंक ! अब हम सोचते हैं कि तुम्हारी शादी कर देनी चाहिए। पिताजी ! इस कीचड़ में पैर रख कर धोने से अच्छा है कि कीचड़ में पैर ही न रखें। बस, इन्ही शब्दों ने मैना के जीवन को वैराग्य की ओर मोड़ दिया और मन-ही-मन मैना ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत रखने का दृढ़ संकल्प कर लिया। धीरे-धीरे समय बीत रहा था माता मोहिनी ने अन्य संतानों को भी जन्म दिया। जिसमें क्रम से मैना, शांति, कैलाशचन्द, श्रीमती मनोवती, प्रकाशचन्द, सुभाषचन्द और कुमुदनी । मैना इस छोटी उम्र में अपने सभी भाई बहनों को सम्भालती । गृह कार्य करने के साथ-साथ अनेक धार्मि पुस्तकों का अध्ययन भी करती थीं। अरे ! पिताजी, आप कैसी बातें कर रहे हैं ? मैं अनंत काल से संसार सागर में परिभ्रमण कर रहा हूँ। अब मुझे अपना कल्याण करना है । अरे पिताजी ! अब मैं मुनि दीक्षा लेकर अपना जीवन सफल करूँगा । कैसी बातें कर रहा है तु अकलंक! यह उम्र इन बातों की नहीं। बाद में यह बातें सोचना । मैना ने घर में अनेकों कुरीतियों का त्याग करवा दिया था। घर के बाहर भी लोग मैना की बातों का बड़ा महत्त्व देते थे। इधर धीरे-धीरे मैना के जीवन पर वैराग्य का रंग चढ़ने लगा और दूसरी तरफ उसके पिता को मैना की शादी की चिन्ता होने लगी। सीन ५ मोहिनी [छोटेलाल से] देखो! हमारी बेटी मैना अब शादी के योग्य हो गयी हैअब शीघ्र ही कोई योग्य वर तलाश करना चाहिए। तुम ठीक कहती हो, मैं जल्दी ही योग्य वर की तलाश में जाऊँगा । [ जब यह बात मैना को पता चली तब मैना ने अपनी सखियों से कहा-] For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मैना [अपनी सखी से] हे सखी ! मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूँगी और कभी शादी नहीं करूँगी यदि बारात आयी तो खाली हाथ जायेगी। सखी मैना ! यह सब तो बूढ़ेपन की बातें हैं अभी उम्र के हिसाब से तुम्हें जो करना चाहिये वही करो। [जब यह बात माता मोहनी को पता चली तब-] मोहिनी बेटी मैना ! मैं यह क्या सुन रही हूँ क्या यह सच है? मैना हाँ ! माँ ! यह सच है कि मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं शादी नहीं करूंगी। मैना की जिद देखकर माता मोहनी थोड़ा घबराती हैं लेकिन फिर मैना को समझाती हैं। मोहनी देवी ने सोचा शायद अभी बचपना है बाद में सब ठीक हो जायेगा। सीन -६ एक दिन मैना सो रही थी उषा काल का समय था वह मीठे सपने में खोयी थी स्वप्न में देख रही थीसूत्रधार सोई थी तो मैना होके नींद में मगन । सोते-सोते देखा उसने एक सपन ॥ मन में बजी शहनाई, खुशियों ने ली अंगड़ाई ॥ २ ॥ सपने में देखा मैना ने, मैं तो मंदिर जा रही । हाथों में द्रव्यों की थाली, श्वेत वस्त्र तन पर धरी ॥ सबसे अजब ये बात थी भैय्या, चन्द्र की जो थी चांदनी । पड़ती थी मैना के ऊपर, और कहीं न वह पड़ी । ज्यों-ज्यों मैना बढ़ती जाती, त्यों-त्यों बढ़ता चन्द्र । सोई थी तो मैना . . . . . . . . . . . . [स्वम देखकर मैना उठ जाती है-] सीन -७ मैना- हे ईश्वर ! यह कैसा अद्भुत स्वप्न था। इस सपने के विषय में माँ को बताना चाहिए। मैना माता मोहिनी को पुकारती है- माँ ! माँ! मोहिनी (अन्दर से आती है) क्या बात है? बेटी ! माँ ! मैंने एक अद्भुत स्वपन देखा है। मोहिनी क्या देखा है? मैं भी तो सुनें। मैना माँ ! मैंने देखा कि मैं सफेद वस्त्र पहने हाथों में द्रव्यों की थाली लेकर मंदिर की तरफ जा रही हूँ और आकाश में चन्द्रमा निकला है। सिर्फ मेरे ही ऊपर उस चन्द्रमा की रोशनी पड़ रही है बाकी चारों ओर अंधेरा है, मैं जैसे-जैसे बढ़ती हूँ चन्द्रमा की रोशनी भी मेरे साथ बढ़ती जा रही है। मोहिनी अरे ! बेटी, तुम्हें न जाने क्या हो गया है जब देखो तब ऐसी ही उल्टी - सीधी बातें करती रहती हो, जाओ, अपना काम करो। 'यद्यपि माता मोहिनी जान गयीं थीं कि अब यह मैना ज्यादा दिन गृह पिजरे में रुकने वाली नहीं है। और एक दिन आचार्य श्री देशभूषण महाराज का संघ टिकैतनगर ग्राम में पधारा । तो मैना को अपना मनोरथ सफल होता नजर आ रहा था - शीघ्र ही मैना महाराज के सन्मुख पहुँच अपने मन की बातें कहने लगी। सीन - ८ (सामने महाराज की फोटो स्टेज पर रखी है) नमोस्तु महाराज जी। महाराज सद्धर्मवृद्धिरस्तु ! कहो बेटी क्या कहना चाहती हो। मैना महाराज ! मेरे मन में वैराग्य के अंकुर फूट रहे हैं, मैं संसारके परिभ्रमण से मुक्त होना चाहती हूँ। मैं दीक्षा लेना चाहती हूँ महाराज ! महाराज बेटी ! तुम्हारे मस्तक को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारा भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है, तुम्हारा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा। [महाराज की यह बात सुनकर मैना मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई। और मन में साहस कर फिर बोली] मैना Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२८७ मैना मैना मैना गुरुवर ! मैं अपने आपको ब्राह्मी सुन्दरी जैसी आर्यिकाओं की तरह बनाना चाहती हूँ। परन्तु मेरे घर के लोग, मेरे सम्बन्धी, और समाज के लोग न जाने क्यों विरोध कर रहे हैं। महाराज बेटी मैना ! तुम अपने आपको दृढ़ रखो जब तुमने आत्म कल्याण करने की सोची है तो संघर्षों की परवाह मत करो तुम अवश्य ही सफल होगी। [मस्तक झुकाकर] मुनिवर ! आप आशीर्वाद दीजिए मुझमें ऐसी शक्ति आ जाये कि मैं कभी अपने पग से न डिगूं। मैना चली जाती हैइधर आचार्य जी का संघ बाराबंकी शहर की ओर प्रस्थान कर देता है और वहीं पर आचार्य श्री चातुर्मास करते हैं। इधर मैना किसी तरह अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहती थी आखिर एक दिन मैना के पिता घर से बाहर गये हुए थे मैना को बहुत अच्छा मौका मिला और उसने अपने छोटे भाई कैलाश को बुलाकर कहा सीन • ९ मैना देखो ! कैलाश मैंने तुमसे एक दिन वचन लिया था कि अगर कोई जरूरत पड़ी तो तुम मेरा कहा करोगे। कैलाश वह तो ठीक है जीजी, पर आप बतायें तो कि हमें क्या करना है ? आप जो कहेंगी वह जरूर करूंगा। मैना देखो ! मैंने चातुर्मास में महाराज के दर्शन का नियम ले रखा है सो महाराज का चातुर्मास बाराबंकी में हो रहा है इसलिए तुम मुझे महाराज के दर्शन कराने ले चलो । कैलाश लेकिन जीजी पिताजी घर पर नहीं है और . . . . . [बीच में बात काटती हुई लेकिन वेकिन कुछ नहीं, मैं माँ से बात कर लूंगी तुम तैय्यार रहो। कैलाश ठीक है जीजी ! जैसी तुम्हारी मर्जी ? मैना माता मोहिनी से- माँ ! मैं महाराज के दर्शन को अवश्य जाऊँगी आप हमें जाने दें एक दिन की ही तो बात है। मोहनी नहीं ! बेटी, पिताजी आ जाये तब जाना । [और अन्तोगत्वा मैना ने माँ को मना ही लिया। बाराबंकी के लिए चल दी। चलते समय मैना की माँ ने कहामोहिनी बेटी ! मैना शाम तक जरूर आ जाना घर में बच्चों को देखने वाला कोई नहीं है। मैना हाँ ! हाँ !! हाँ !!! आप चिन्ता न करें मैं शाम तक जरूर वापस आ जाऊँगी। सूत्रधार और यह मैना का घर से अंतिम प्रस्थान था जिसे कोई भी समझ न पाया था। मैना जिद करके बाराबंकी में ही रुक गयी जब-जब कोई लेने जाता तब-तब कोई न कोई बहाना करके टाल देती। इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने वाला वह दिन जिस दिन आचार्य जी का केशलोंच था बहुत दूर-दूर से लोग आचार्य श्री का केशलोंच देखने के लिए आये थे। उसी में मैना के माता-पिता मामा आदि-आदि सभी मैना को वापस घर ले जाने के लिए आये थे। और इधर मंच के पास आचार्य श्री के सम्मुख मैना हाथ में श्री फल लिए बैठी महाराज से दीक्षा के लिए प्रार्थना कर रही थीं। महाराज मौन थे। जैसे ही आचार्य श्री का केशलोंच प्रारम्भ हुआ। अरे यह क्या ! महाराज के केशलोंच प्रारम्भ होते ही मैना ने भी अपने सिर के बाल अपने हाथों से उखाड़ने प्रारम्भ कर दिये चारों तरफ लोग चकित रह गये यह क्या हो रहा है- यह क्या हो रहा हैयदि लौट चले मैना घर को, मैना परिवार पधारा था, जब केशलोंच का समय हुआ, देखा तो अजब नजारा था । मैना दीक्षा के लिए खड़ी, मन में सुमेरु विश्वासों से । प्रारम्भ कर दिया केशलोंच, खुद अपना अपने हाथों से ॥ वहाँ पर उपस्थित लोग- रोको, रोको, यह क्या कर रही है लड़की ? सभी लोगों के स्वर विरोध में बोल उठे। मैना के मामा ने दौड़कर मैना का हाथ पकड़ लिया राग और विराग के इस युद्ध के बीच देखना था जीत किसकी होती है। मैना ने यह सब देखकर अन्न-जल सब त्याग दिया सीधे मंदिर जी में जाकर ईश्वर का ध्यान लगाकर बैठ गयी। आखिर में सभी को मैना की जिद के आगे हार माननी पड़ी। मैना की माँ ने समझा बुझा कर महाराज से मैना को सप्तम प्रतिमा का व्रत दिलवायें और जिस दिन मैना ने सप्तम प्रतिमा का व्रत ग्रहण किया वह दिन भी शरद् पूर्णिमा का दिन था। यह सब हो जाने के बाद माता मोहनी ने महाराज से कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मोहिनी महाराज छोटेलाल गीत सीन - १० गुरुवर ! अब इसे किसी तरह समझा बुझाकर घर भेज दीजिए नहीं तो इसके पिता बहुत नाराज होंगे। मेरा घर उजड़ने से बचा लीजिए महाराज। अरे ! मोहनी तू तो धन्य हो गयी, तूने ऐसी कन्या को जन्म दिया है। अब तो इसे पूरी तरह से वैराग्य है अब इसे ब्रह्मा भी नहीं हिला सकता। और इधर छोटेलाल जी (मैना के पिता) यह सब स्थिति देखकर बिना बतायें कहीं चले गये थे बहुत ढूँढ़ने पर दो दिन बाद वह एक बाग में रोते विलखते मिले फिर उनको किसी तरह समझा बुझाकर घर लाया गया परन्तु मैना घर नहीं आयी। (और घर पहुँचते ही) बेटी मैना ! ओ बेटी मैना !! कहाँ हो तुम ! बोलो ! कहाँ हो ! (इधर उधर ढूढ़ते है और रोने लगते है) मेरी मैना, मेरे लाल, तुमको ढूँढूँ मैं कहाँ-कहाँ रोये ममता, तड़फे माँ, तुझको ढूँढूँ मैं कहाँ-कहाँ मेरी मैना . . . . . . . . . . . . तू क्या जाने तेरे घर से, चले जाने से क्या बीती मैना-मैना ये घर यह आंगन, अब तेरे बिना लगता सूना-सूना आजा वापस आजा, मेरी मैना . . . . . . . . . . . . . . . तू तो चल दी वीरा पथ पर जिन धर्म के ध्वज को फहराने-फहराने तेरी बहना, तेरे भैय्या, तेरे गम में रो-रो मर जायेंगे सारे-सारे आ जा वापस आ जा, मेरी मैना मेरे लाल . . . . . . . रोये ममता . . . . . . . . इसी तरह रोज मैना के पिता पागलों की तरह रोते रहते, पर समय बड़ा बलवान होता है। समयानुसार मैना के पिता का दुःख कुछ कम हुआ। परन्तु पता नहीं कितने ऐसे पुत्र-पुत्रियों के वियोग उनको और सहना था। मैना के पश्चात् मैना की छोटी बहन मनोवती ने भी ब्रह्मचर्य व्रत-ग्रहण किया और मैना के पद चिन्हों पर चल कर अंतोगत्वा जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की आज वह अभय मती माताजी के नाम से जानी जाती हैं। कल की मैना आज की ज्ञानमती माता जन-जन में ज्ञान की ज्योति प्रद्योत कर रही है। इसके बाद यह क्रम रुका नहीं उनके और भाई-बहनों ने त्याग मार्ग अपनाया रवीन्द्र कुमार और मालती ने भी उन्हीं के आदर्शों पर चलते हुए आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। और फिर उनकी बहन माधुरी ने भी उन्हीं के आदर्शों को अपनाया और आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। हाँ मैं तो बताना भूल ही गया था कि इधर मैना के जीवन में वह शुभ दिन आया जब मैना को चैत्र कृष्ण एकम संवत् २००९ में श्री महावीर जी में आचार्य रत्न श्री देशभूषण महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा मिली। महाराज ने उनकी वीरता को देखते हुए उनका नाम वीरमती रखा। इसके बाद आचार्य प्रवर श्री वीर सागर जी महाराज से वैशाख वदी दूज सम्वत् २०१३ को माधोराजपुरा में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। महाराज ने आपके वृहत् ज्ञान को देखते हुए आपका नाम आर्यिका ज्ञानमती रखा। अब क्या था। यह सब देखने के पश्चत् माता मोहनी भी चुप कैसे रह सकती थीं। उन्होंने भी पारिवारिक मोह छोड़ दिया और अपने परिवार को रोता विलखता छोड़कर मगशिर वदी तीज को अजमेर महानगरी में आचार्य धर्मसागर महाराज से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और रत्नमती नाम प्राप्त किया। धन्य है ऐसी माँ ! धन्य है वह नगरी , जहाँ ऐसी -ऐसी महान् विभूतियों ने जन्म लिया। और मैं भी धन्य हो गया ऐसी माता के परिवार में जन्म लेकर। "मैना से बनकर ज्ञानमती, जग का इतिहास बदल डाला । पग धरे जहाँ माताजी ने, उस रज को पावन कर डाला ॥" सूत्रधार Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२८९ गीत दीक्षा लेकर बनी आर्यिका, अपने कर्म जलाने को । ज्ञानमती बन भ्रमण किया तब, सबको ज्ञान सिखाने को ॥ दीक्षा . . . . शरद पूर्णिमा दिन था प्यारा, मैना ने जब जन्म लिया । एक गगन में एक भवन में, दो चंदा का मिलन हुआ ॥ पूर्ण चांदनी जग में फैली मैना का यश गाने को । मैना का यश गाने को। दीक्षा लेकर . शैशव में ही बाला ने गृह से मिथ्यात्व भगाय दिया । यौवन में पग रखते ही गृह बंधन को ठुकराय दिया । चली देश भूषण के ढिग फिर साधु मार्ग अपनाने को । साधु मार्ग अपनाने को। दीक्षा लेकर . . श्रवण बेल गोला का पर्वत, सबके मन को भाया था । माताजी ने एक वर्ष तक रहकर ध्यान लगाया था । बाहुबली स्तोत्र रचा तब भक्ति मार्ग सिखलाने को । भक्ति मार्ग सिखलाने को ॥ दीक्षा लेकर . . . . . . . बालसती यह प्रथम हुई अपने युग की माताओं में । ग्रन्थों की रचनाएँ भी हैं प्रथम किया इनने जग में । 'त्रिशला' इनके त्याग ज्ञान को आयी शीश झुकाने को । आयी शीश झुकाने को ॥ दीक्षा लेकर . . . . . . . . गणिनी आर्यिका श्री का सरस काव्य परिचय -स्व० कवि शर्मन लाल "सरस" सकरार - झांसी इस समय देश के अंचल में, जड़ता पीड़ा कुंठायें हैं; भाई के हनने को ही अब, भाई की उठी भुजायें हैं । आचार-विचार अहिंसा पर, अब द्वेष-दंभ का पहरा है; निर्जीव आस्थायें लगतीं, देवत्व हो चुका बहरा है ॥ १ ॥ मंदिर व प्रभू से लाख गुना श्रद्धा पा चुके सिनेमा हैं , पाश्चात्य सभ्यता के घर-घर, अब लगे हुए डिप्लोमा हैं। अब भौतिकता का आकर्षण, कर रहा विश्व को पागल है; किस-किससे क्या-क्या कहें कहो? हर रूप यहाँ पर घायल है ॥ २ ॥ है किस चिड़िया का प्रेम नाम, यह कैसी बात निकाली है? उसकी तो अंत्येष्ठि क्रिया, जानें कब की कर डाली है । स्थिति आज इस दुनियां की भौतिकता में परिवर्तित है; प्रभु वीर की वाणी के संग अब तर्कों की पड़ी जरूरत है ॥ ३ ॥ हमने पुरान हमने कुरान, अब, सब पर कालिख पोती है; अब की गीता पर, सीता पर, बस नजर और ही होती है। जिसको निर्माण मानते हम, वह पूर्ण रूप बरबादी है; सुनते मंगल ग्रह जाने को, मानव ने होड़ लगा दी है ॥ ४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अचरज है खुद का पता नहीं, फिर भी यह नर का दावा है; वह आज नहीं तो काल, काल पर करने वाला धावा है । पर जब तक आत्म विकास न हो, यह पागलपन की भाषा है; यह है गूलर का फूल, हमें छलने वाली अभिलाषा है ॥ ५ ॥ एटम बम हाइड्रोजन पर, इन्सान आज का फूला है; इसलिए विषमता, फूट, लूट, अन्याय झूलता झूला है । पर शस्त्रों की ही शक्ति से, हो सके नहीं जयकारा है ; आतम बल के समक्ष पशु बल, आखिर में हरदम हारा है ॥६॥ है ऐसा नाजुक दौर, दौर से, गुजर रहा यह भारत है; भय है इसका इतिहास कहीं, हो जाय न धूमिल गारत है। इसलिए हमें, ऐसे युग में, संतों की सख्त जरूरत है; जो बनकर मुक्ति-मार्गदर्शक, फिर ला दें वही महूरत है ॥ ७ ॥ जिनका त्याग, जिनका चरित्र, जन-जन को फिर ऐसा बल दे; जाना न किसी को स्वर्ग पड़े, धरती को स्वयं स्वर्ग कर दे। गौरव है आज नारियों में, इस ओर जागरण आया है; संतों से प्रथम साध्वी ने, भूतल पर अलख जगाया है ॥ ८ ॥ यह चर्चा केवल कवी नहीं, हर कण-कण हमें बताता है; जिस नारी में नारायण से, बढ़कर तप त्याग दिखाता है । उस त्राता के, युग माता के, बारे में मौन न रहना है; जिसके गौरव में रवि-शशि, तारों तक का यह कहना है ॥ ९ ॥ यों तो कितनी हो चुकी , और होंगी आगे मातायें हैं; जिनकी तप-त्याग-तपस्या से, गौरवमय दसों दिशायें हैं। पर वर्तमान में ज्ञानमती, माता-सी कोई न माता है; जिनके चरणों में दो क्षण को, दुःख को भी सुख मिल जाता है ॥ १० ॥ अचरज में, रवि मेरा प्रकाश, बाहर तक ही संग देता है; पर ज्ञानमती का ज्ञान सूर्य, हर अन्तस चमका देता है । तुम किसी समय भी जा देखो, हर आँसू आकर हर्षा है; माँ ज्ञानमती करती रहतीं, हर समय ज्ञान की वर्षा है ॥ ११ ॥ जो बतलाते नारी जीवन, लगता मधुरस की लाली है; वह त्याग-तपस्या क्या जानें? कोमल फूलों की डाली है। जो कहते योगों में नारी, नर के समान कब होती है ? ऐसे लोगों को ज्ञानमती का, जीवन एक चुनौती है ॥ १२ ॥ सच तो यह नारी की शक्ति, नर ने पहिचान न पाई है; मंदिर में मीरा है, तो वह, रण में फिर लक्ष्मीबाई है। है ज्ञान क्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है; सच पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है ॥ १३ ॥ अब सुनें आप यह वह गाथा, जो पग-पग हमें बताती है; तप-त्याग-तपस्या में नारी, कितनी आगे बढ़ जाती है? जिसके अभिनन्दन से होता, अभिनन्दन का अभिनन्दन है; उस महा आर्यिका माता का, किस तरह करें हम वंदन है ॥ १४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२९१ जन्म यू०पी० में लखनऊ के समीप, बाराबंकी इक जनपद है; है ग्राम टिकैतनगर, उसको लख दर्शक होता गदगद है। स्मरण रहे यह वह नगरी, जिसका इतिहास निराला है; टिक सकता नहीं, टिकैतनगर, कोई भी छल-बल वाला है ॥ १५ ॥ जिसको शक हो वह अजमा ले, यह बात न कोई जाली है; तलवार यहाँ के वीरों की, जाती न कभी भी खाली है। पर इसका अर्थ नहीं, यह भी, नर ही इसका बलशाली है; समझें न आप हैं वही वीर, बालाओं से भू खाली है ॥ १६ ॥ नारियाँ नरों से भी बढ़कर, इस भू की हमें दिखाती हैं; नर तो बनते हैं "वीर", नारियाँ, महावीर बन जाती हैं। तज कर ममता खुद को जीतें, रखती विराग से नाता हैं; श्री ज्ञानमती का यह जीवन, हमको तो यही बताता है ॥ १७ ॥ श्री छोटेलाल धर्म प्रेमी, इस वीर नगर के गौरव थे; था गोयल गोत्र बंधु उनका, अग्रवाल वंश के सौरभ थे। श्रीमती मोहनी पत्नी पा, कुछ सुख का नहीं ठिकाना था; ईश्वर ने धन-यश-वैभव दे, हर ढंग से उनको माना था ॥ १८ ॥ थी शरद पूर्णिमा शुक्ल पक्ष, जिसको इतिहास न भूलेगा; संवत नौ कम दो हजार, महिना कुंवार दिन फूलेगा । उस दिवस प्रात से ही प्रियवर, इक लहर नई-सी दौड़ी थी; हर गली कली-सी लगती थी, तरुओं में होड़ा-होड़ी थी ॥ १९ ॥ था खुला मौन पाषाणों का, हलचल थी, हाटों, घाटों पर; था पतझड़ के घर पर वसन्त, मोहित बहार थी काँटों पर ।। हर आँसू ने सिर पर उस दिन, बाँधा खुशियों का सेहरा था; पूरब-पश्चिम-दक्खिन-उत्तर, हर ओर प्यार का पहरा था ॥ २० ॥ यह तो दिन का था हालचाल, पर निश का दृश्य निराला था; ज्यों पय में नहा रही हो, भू, ऐसा हर ओर उजाला था । जिसको न कभी देखा न सुना, वे तारे इस दिन ऊगे थे; अब शेष किसी की चाह न थी, पूरे सब के मनसूबे थे ॥ २१ ॥ था दिन ही ऐसा भाग्यवान्, निश में ऐसी चातुरता थी ; माँ आज मोहनी पर मोहित, लगती खुद ही सुन्दरता थी। श्री छोटेलाल पिता उस क्षण, मीठे सपनों में सोये थे; आता है कब मेहमान नया, पल-पल में आस सँजोये थे ॥ २२ ॥ ज्यों दस बजकर दस मिनट हुए, थी घड़ी, घड़ी वह ले आई; सम्पूर्ण चाँदनी धरती पर, स्वागत के लिए उतर आई । माँ तभी मोहिनी धन्य हुई, हो गई धरा पर नरमी थी ; उस शरद पूर्णिमा में उसने, यह ज्ञान पूर्णिमा जन्मी थी ॥ २३ ॥ पा करके कन्या रत्न तभी, हो गगन मगन हो झूम चला; छोटे के छोटे उपवन में, यह, पहला प्रेम प्रसून खिला । था स्वयं उजाला अचरज में, लख करके ऐसी दीपशिखा; Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तब बड़े प्यार से माता ने, कन्या का मैना नाम रखा ॥ २४ ॥ श्री छोटेलाल जैन के घर, तेरह इस तरह प्रभात हुए ; नौ हुई पुत्रियाँ, चार पुत्र, जीवन में उन्हें प्राप्त हुए । अब सुनिये मूल कथा, जिससे रखना हम सबको नाता है; पत्री मैना का बालकाल, प्रियवर दर्शाया जाता है ॥ २५ ॥ बाल्य-काल जब बालकाल देखा सबने, मैना का बड़ा निराला है; उस नगरी में इस बाला-सा, कोई न प्रतिभा वाला है। प्रारंभिक बेसिक शिक्षा पर, थी ऐसी कड़ी नजर डाली; कुल आठ बरस में मैना ने, यह शिक्षा पूरी कर डाली ॥ २६ ॥ था आगे और नहीं साधन, पर साध न पूरी हो पाई ; फिर गई जैनशाला पढ़ने, मच गई वहाँ हलचल भाई । मैंना इस तरह वहाँ जाकर, मेधा को और निखार चली; जो आगे पढ़ने वाली थी, हर बाला इससे हार चली ॥ २७ ॥ उस शाला में इस बाला का, पढ़ने का अलग तरीका था; तोता-मैना की तरह न इस, मैंना ने रटना सीखा था । जो उसको सबक मिला करता, आचरणों से कर दिखलाया; लग उठा युधिष्ठिर सत्यम् वद्, जैसा पढ़ने का युग आया ॥ २८ ॥ माया के चक्कर में मैंनामैं-ना, मैं-ना बतलाती थी ; बचपन में पचपन वय जैसी, गंभीर धीरता लाती थी। जब लगा ग्यारहवाँ वर्ष "सरस" मैंना ने यों अंगड़ाई ली; वह राग न पूरा पा पाई, पर वीतराग दिखलाई दी ॥ २९ ॥ चाहे बचपन हो, यौवन हो, या सजे बुढ़ापा झाँकी है; जो होनहार होते उनको, थोड़ा निमित्त ही काफी है । कर दिया प्रभावित था किसने, क्यों ऐसी खिंची हृदय रेखा? अकलंक और निकलंक वीर, मैना ने था नाटक देखा ॥ ३० ॥ नाटक का अति चित्ताकर्षक, जब एक सीन ऐसा आया; अकलंक करो शादी जल्दी, था उन्हें पिता ने समझाया । कीचड़ में पग रख के धोना, यह काम पिता न सच्चा है; इससे तो बेहतर कीचड़ में, पग ही न रखू यह अच्छा है ॥ ३१ ॥ बस, इसी वाक्य ने मैना के, मन को मक्खन-सा मथ डाला; उसने अकलंक समान तभी, दृढ़ होकर निश्चय कर डाला । बोली परिणय के बाद, दीक्षा सफल नहीं हो पायेगी; अब मैना कुँवारी दीक्षित हो, जिनमत का अलख जगायेगी ॥ ३२ ॥ जब पता चला यह माता को, उसने समझा यह बचपन है; सब ठीक-ठाक हो जायेगा, आने तो दो नवयौवन है । जब आँखों में होगा खुमार, यौवन अपना रंग लायेगा ; तब यह भोलापन बालापन, बाला वाला भग जायेगा ॥ ३३ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२९३ यौवन माँ यही सोचती रही “सरस" ममता का बड़ा-बड़ा घेरा3; इतने में बालापन भागा, यौवन ने आ डाला डेरा ।। जब देखा मैंना के तन पर, तनकर तरुणाई छाई है; माँ-पिता सभी को परिणय की, तत्क्षण चिंता हो आई है ॥ ३४ ॥ अब लगी सोचने यह माता, प्रभु शीघ्र योग्य वर मिल जाये; जिससे आँखों की पुतली का, यह जीवन सुखमय हो जाये। उस ओर सोचती थी मैंना, प्रभु कब ऐसा वह दिन आये; जिस दिन मैना गृह पिंजड़े से वैरागिन बनकर उड़ जाये ॥ ३५ ॥ संयोग दूसरे दिन ऐसी थी, घड़ी-घड़ी वह ले आई ; पक्का मैना का वाग्दान, हो गया दूसरे दिन भाई । फिर लगे हाथ सप्ताह बाद, शादी का दिवस निकल आया; तब मैंना ने बेबस होकर, सखियों से निश्चय दुहराया ॥ ३६ ॥ मैना की भीष्म प्रतिज्ञा यह, वह शादी नहीं करायेगी ; आ गई बरात यदि लेने, वह खाली हाथों जायेगी । दम भले निकल जाये लेकिन, दामन पर दाग न लाऊँगी; हो भले नाक दम, तो भी मैं, अब कदम न कभी हटाऊँगी ॥ ३७|| तब एक सखी ने कहा तभी, इस तरह न मैंना मुरझाओ; यौवन की बगिया खिलने दो, आई बहार मत लौटाओ। तप-त्याग-तपस्या की चर्चा, तो बूढ़ेपन की बातें हैं; दिन अभी तुम्हारे सोने के, चाँदी की समझो रातें हैं ॥ ३८ ॥ प्रत्युत्तर में मैंना बोली, बस यही भाव तो खोटा है; जागरण हमेशा सुख देता, सोने में हर दम टोटा है । सुन लो, मैं होकर स्वाधीन, कर्मों की डाली का गी; विष भी यदि मिला जमाने से, बदले में अमृत बाँ-गी ॥ ३९ ॥ मैं वैरागिन बन जाऊँगी, मुनिवर की शीतल छाया में; अब अपना आत्म-विकास करूँ, क्या रखा माया-काया में? यह विषय-वासना का विषधर, भव-भव से डसता आया है। परिधान बदलते हार चुकी, पर पार न अब तक पाया है ॥ ४० ॥ इतने में माता आ पहुँची, बोली, क्या गड़बड़ झाला है; तब आद्योपांत सुना डाला, सखि ने अब तक का आला है । यह सुनकर माता घबराई, बोली किस डर से डरती हो? मेरे सपनों, अरमानों की, क्यों निर्मम हत्या करती हो ? || ४१ ॥ अब जो कारण हो साफ कहो, क्यों माता से शर्माती हो? क्या योग्य नहीं है ? लड़का जो, इतनी उदास दिखलाती हो। मैना ने सुनी न पूर्ण बात, बोली विनम्र हो भारी है ; बस यहीं मूल में भूल मात, यह निष्फल बात विचारी है ॥ ४२ ॥ करना सपना साकार तुम्हें, तो जग को ऐसी वायु दो; करके मम जीवन दान, सत्य-संयम को कुछ दिन आयु दो। इसलिए हमारे जीवन पर, जहरीला कफन उड़ाओ मत ; Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला चलती सँसों को जीने दो, असमय में अब दफनाओ मत ॥ ४३ ॥ फिर मन में बोली, रही यहाँ, माँ ऐसी रोज सुनायेगी ; जब बाँस नहीं होगा किससे, फिर बजा बाँसुरी पायेगी । बोली माँ तुम भी घर त्यागो, मैं यही भावना भाती हूँ; अब बात तुम्हारी तुम जानो, लो मैं तो कदम बढ़ाती हूँ ॥ ४४ ॥ यह ज्यों मैंना से सुना तभी, माता का वैसा हाल हुआ; आई थी दरवाजा लेने, लेकिन आँगन पर वार हुआ । मन ही मन बोली धन्य आज, हो गई सफल मम काया है; मैं भी इसके संग चलती हूँ, पर तभी मोह हो आया है ॥ ४५ ॥ सब समझ मात बेसमझ बनीं, तत्क्षण ममता बस डोल उठी; गोदी में लिये मालती को, माता आँसू भर बोल उठी । देखो कुल बीस दिवस की यह, क्यों इस पर तरस न लाती हो? क्यों बेटी ? बहिन मालती को, इस तरह छोड़कर जाती हो ॥ ४६ ॥ क्या कमी बताओ इस घर में, जो ऐसा तुमको भाता है; देखो तो यह छोटा रवीन्द्र ? किस तरह विलखता जाता है। इसकी आयु दो वर्ष सिर्फ, क्या सोचेगा कल भाई है? इसने तो बड़ी बहिन अपनी, अच्छी, विध देख न पाई है ॥ ४७ ।। पर नहीं मोहनी मोह सकी, ममता से जरा न प्रीत हुई; मैना के आँसू गिरे किन्तु, फिर भी समता की जीत हुई । रह गये पिता निस्तब्ध खड़े, परजन पुरजन सब डोल उठे; आ गई मूर्छा माता को, अधरों से ऐसे बोल उठे ॥ ४८ ॥ मैं नहीं जानती थी उस दिन, ऐसी भी बेला आयेगी ; मैना ममता का पिंजड़ा तज, वैरागिन बन उड़ जायेगी । पर बाराबंकी नगर ओर, मैंना ने थे पग मोड़ दिये; हो गई राग की आग राख, वैरागी कम्बल ओढ़ लिये ॥ ४९ ॥ बाराबंकी में डगर-डगर, बज रहे विरागी बाजे थे; उस नगरी में उस समय, देशभूषण महाराज विराजे थे । मैंना इतने में आ पहुँची, बोली जोरों से जयकारा; पीछे देखा तो खड़ा हुआ, कैलाशचन्द्र भाई प्यारा ॥ ५० ॥ वह बोला बहिन चलो घर को, मैं पीछे भागा आया हूँ; माँ-पिता सभी यह चाह रहे, मैं तुमको लेने आया हूँ। मैंना बोली धीरज रखो, यह तो काया का नाता है; कोई न किसी को भेज सके, न कोई लेने आता है ॥ ५१ ॥ माँ-पिता सभी से कह देना, कुछ ज्यादा फर्क न आया है; उस दिन रागी का था निमित्त, अब वैरागी का पाया है। यह सुनकर गद-गद हुआ भ्रात, बोला मैंना मैं जाता हैं। तुम करो आत्म-कल्याण, पिता की ममता-मोह मिटाता हूँ ॥ ५२ ॥ फिर मैंना बोली कह देना, भूलें ममता की हेटी को; अब तक ममता की दी अशीष, अब समता की दें बेटी को। अब सुनो एक दिन वो आया, जिसकी ऐतिहासिक गाथा है; Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जिस दिन मैना ने दिखा दिया, कितना विराग से नाता है ॥ ५३ ॥ बाराबंकी के आस-पास, सुन करके नर हर्षाये थे है- आचार्य का केशलौंच, नर दूर-दूर से आये थे । यदि लौट चले मैना घर को, मैंना परिवार पधारा था; ; जब केशलौंच का समय हुआ, देखा तो अजब नजारा था ॥ ५४ ॥ मैंना दीक्षा के लिये खड़ी, मन कर सुमेरु विश्वासों से प्रारंभ कर दिया केशलौंच खुद अपना अपने हाथों से । जिसने देखा हो गया चकित, लोगों ने बड़ा विरोध किया; इतनी-सी आयु में दीक्षा, मैना का यह क्रम रोक दिया ॥ ५५ ॥ वे क्या जानें इसका महत्त्व ? जो चाहा करते भोगों को : पर समझा सका नहीं कोई, उस दिन ऐसे उन लोगों को । कामना काम की करना ही, दुनिया में दुःख का कारण है; जो इससे खुद को बचा सका, वह पर को बना उदाहरण है ॥ ५६ ॥ चाहे नर हो या नारी हो, वैराग्य जिसे भा जाता है ; उसको इस जग का आकर्षण, फिर जरा न सहला पाता है। वह है स्वतन्त्र घर हो या वन, उसको कब क्रन्दन होता है ? जो मुक्ति पथ का पथिक, उसे कब वय का बंधन होता है ॥ ५७ ॥ फिर क्या था चारों तज अहार, मैंना ने आसन डाल दिया; श्री जिन मंदिर में तन्मय हो, जाकर जिनवर का ध्यान किया । यह विकट समस्या देख लोग, आचार्य तक दौड़े आये ; तब तभी दूसरे दिन, सप्तम प्रतिमा के व्रत थे दिलवाये ॥ ५८ ॥ संयोग देखिये कर्मों का कैसा आ मिला निराला था; यह भी दिन था आसोज सुदी, पूनम का परम उजाला था। ये ठीक अठारह वर्ष "सरस" इस दिन मैंना ने पूर्ण किये; जब चातुर्मास समाप्त हुआ, चल पड़ी गुरू का साथ लिये ॥ ५९ ॥ मैंना के जीवन का तो अब, वैराग्य बन चुका छाया था; जब संवत दो हजार नौ थी, सचमुच कमाल दिखलाया था । महावीर क्षेत्र पर चैत बदी, जब एकम की बेला आई; पा गई क्षुल्लिका पद मैंना, थी सारी जनता हर्षाई ॥ ६० ॥ वैराग्य जगत में बेमिसाल, यह सबसे कठिन परीक्षा थी; सबसे कम आयु में प्रियवर, यह सबसे पहली दीक्षा थी; हो गया दंग था हर दर्शक, जिसने सरूप यह आन लखा; तब देश-देशभूषण जी ने श्री "वीरमती" जी नाम रखा ॥ ६१ ॥ , फिर तीन बरस के बाद आप जब माधोराजपुरा आई लोगों ने एक बार फिर से वह भव तारक घड़ियाँ पाई। थी संवत दो हजार तेरा, वैसाख कृष्ण की तिथी दौज ; तब "वीरमती" के जीवन से, कह उठा स्वयं ही त्याग ओज ॥ ६२ ॥ आचार्य "वीरसागर" जी थे जिनकी प्रिय, प्रभा निराली थी; तब "वोरमती" जी यह अवसर सचमुच कब खोने वाली थीं। ली तभी आर्यिका की दीक्षा, लोगों ने जय-जयकार किया; For Personal and Private Use Only [२९५ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अब वीरमती से "ज्ञानमती", गुरुवर ने नाम उच्चार दिया ॥ ३ ॥ बिजली-सी फैल गई कीरत, हो गई धन्य जीवन-बेला; अब डगर-डगर पर दर्शन को, भक्तों का लगा मिले मेला । तब ज्ञानमती जी संघ बना, निकली भव पार लगाने को; तब दुराचार को हटा, सदा को सदाचार चमकाने को ॥ ६४ ॥ मंगल-विहार प्रिय सम्वत दो हजार दस से, अब तक जो चातुर्मास किये; वह भू अब तक गाया करती, उन पावन दिन की याद किये। पर जो वंचित हैं नगर डगर, हर मन कहता वह सावन हो; माँ ज्ञानमती के पग द्वारा, यह सारी दुनिया पावन हो ॥ ६५ ॥ पर जिनको यह सौभाग्य मिला, लो चलो तुम्हें दर्शाता हूँ; उन नगरों के, उन गाँवों के, अब पावन नाम बताता हूँ। है सबसे प्रथम टिकैतनगर, जिसका माता से नाता है; जयपुर में अभी जहाँ का जन, जयकारा रोज लगाता है ।। ६६ ।। म्हसवड़ महाराष्ट्र तथा ब्यावर, सपने में जिन्हें ने भूलेगा; अजमेर, खानिया, जब तक युग, युग-युग गौरव कर फूलेगा। सीकर, सुजानगढ़, कलकत्ता, बरसी जिनमत की धारा है; कहता प्रतापगढ़ माता का, सचमुच प्रताप ही न्यारा है ॥ १७ ॥ लाडनूं, हैदराबाद बन्धु, सोलापुर पुनः बुलाता है; प्रिय श्रवणबेलगोला जिनकी, वाणी सुनने अकुलाता है। जिस-जिस तीरथ में जा करके, माता ने धर्म प्रचार किया; अब लगे हाथ वह भी सुन लो, वंदन कर जग उद्धार किया ॥ ६८॥ श्री कुन्थल गिरि, गिरनार क्षेत्र, जा सिद्ध क्षेत्र सम्मेदशिखर; श्री खंडगिरि, श्री उदयगिरि, की जाकर वंदी डगर-डगर । महावीर मूडवद्री वरांग, तब "सरस" कारकल जा भाई; श्री क्षेत्र कुन्दकुन्दाद्रि में, जिन ध्वजा कुन्द बन फहराई ।। ६९ ॥ हुम्मच, हुबली, बीजापुर जी, रखता जिनके प्रति ममता है; गजपंथा वन्दा मुक्तागिर, जो मुक्त सभी को करता है। बड़वानी पावागिरि ऊन, मांगीतुंगी को वन्दा है; जा सिद्ध सिद्धवरकूट क्षेत्र, काटे कर्मों का फन्दा है ॥ ७० ॥ कर रहा सनावद रोज याद कब ज्ञानमती माता आयें ; हर गली बोलती घड़ी-घड़ी, किस घड़ी दिव्य दर्शन पायें । इस तरह क्षेत्र में जा करके, अब तक जो चातुर्मास किये; वह सुने, सुने अब, माता ने, कैसे-कैसे उपकार किये ? ॥ ७१ ॥ उपकार - माँ- ज्ञानमती ने जो विराग का पावन बाग लगाया है; जिसकी हर शाखा पर त्याग, तप का प्रसून लहराया है। लो इसी पृष्ठ के छन्दों में, मैं उसकी सैर कराता हूँ; हैं कैसे-कैसे फूल लगे, मैं उनके नाम गिनाता हूँ ॥ ७२ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गणिनी आर्यिकाल श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सोनाबाई जो गृहस्थ बनी, गाफिल हो करके सोती थीं; मृगतृष्णा-सी माया में पड़, जीवन की घड़ियाँ खोती थीं। वह पद्मावती आर्यिका बन, मुक्ति का मार्ग दिखाती है; भवसागर से बहते जग को, क्षण-क्षण में पार लगाती हैं ॥ ७३ ॥ प्रिय प्रभावती जिनमती बनीं, यह कैसा किया उजाला है? अंगूरी को श्री आदिमती, बोलो, किसने कर डाला है? श्री श्रेष्ठमती की फैल रही, हर डगर-डगर पर गरिमा है; श्री मनोवती हैं अभयमती, बोलो यह किसकी महिमा है ? ॥ ७४ ॥ श्रेयाँसमती हैं रतनबाई, यह कैसा ? मिला उन्हें बल है; जय जय जयमती बोलता जग, यह किसकी कृपा का फल है? ये सभी आर्थिकाये प्रियवर निज में कर्तव्यपरायण है; यदि सबके नाम गिनायें तो, बन जायेगी रामायण है ॥ ७५ ॥ अब समय न ज्यादा लेकर मैं, आगे की कलम चलाता हूँ; बस, इसी श्रृंखला में तुमको, कुछ और नाम बतलाता हूँ । यश-यशोमती माता जी का सारे भूतल पर छाया है। श्री संयममती आर्यिका ने संयम से यह पद पाया है ॥ ७६ ॥ किसने इनको ऐसे पथ पर चलने की राह दिखाई है; आचार्य देशभूषण द्वारा, दिल्ली दीक्षा दिलवाई है । फिर अपने साथ ७४ तक, रक्खा दी अपनी छाया है; है ज्ञानमती की देन, ज्ञान जिनका हरवख्त जगाया है ॥ ७७ ॥ जो कल तक रहीं सुशीला जी, श्रुतमती आज कहलाती है; कलकत्ता इनकी जन्म भूमि सारा जग आज जगाती हैं। अब श्रवणबेल जन्मी शीला का, तेज जहाँ में छाता है; युग जिन्हें शिवमती माता कह, श्रद्धा के सुमन चढ़ाता है ॥ ७८ ॥ था आठ दिसम्बर सरस चौहत्तर, का जब पावन दिन आया; आचार्य धर्मसागर द्वारा, दोनों को दीक्षा दिलवाया ; दिल्ली का दरियागंज कहे, पायी थी जिसने वह बेला था सरस दीक्षा अवसर पर लोगों का वहाँ बड़ा मेला ॥ ७९ ॥ यह किसकी कृपा का प्रताप ? जिसको सुन मन हर्षाता है; कल का बालक यशवंत आज, मुनि वर्धमान बन जाता है। हो गये उदयपुर के सुरेश, दुनिया में दिव्य उजागर हैं; कर दिया असम्भव को सम्भव, बन करके सम्भवसागर हैं ॥ ८० ॥ ऐसे कितने ही भक्तों ने यह मुनि परम पद पाया है क्षुल्लक ऐलक की चर्चा तो सचमुच में अभी बकाया है। ; श्री ज्ञानमती माताजी की, जो भी कृपा पा जाते हैं; वे इसी तरह से इस युग में, अपना आलोक दिखाते हैं ॥ ८१ ॥ श्री मोतीचंद सनावद से, वैराग्य क्षेत्र में आये हैं बन गये "सरस" साहित्यकार, सुन्दर लेखक कहलाये हैं। क्या कहें ? "सरस" माता जी ने खुद अपने घर को मोड़ा है। भाई रवीन्द्र और बहिन चार को, इस विराग से जोड़ा है ॥ ८२ ॥ For Personal and Private Use Only [२९७ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्री ज्ञानमती श्रीअभयमती से, परिचित देश हमारा है; आजन्म ब्रह्मचारी रवीन्द्र ने, अब विराग स्वीकारा है । सच है इस घर के भाई-बहिन, इस ढंग से बढ़ते जायेंगे; माधुरी-मालती-त्रिशला को, जग वाले शीश झुकायेंगे ॥ ८३।। किसने दी इन्हें प्रेरणा यह ? किसने की ऐसी छाया है ? श्री ज्ञानमती माताजी ने, इन सबको पूज्य बनाया है । अब लगे हाथ इक और बात, श्रीमान् सामने लाता हूँ; अब शेष न रह जाये प्रसंग, पूरा कर अभी बताता हूँ ।। ८४ ॥ जिनके प्रिय भाई-बहिनों में, छायी जब ऐसी भक्ति थी; फिर माताजी, की भला भतीजी चुप कैसे रह सकती थी? कुल सोलह वर्ष उमर जिसकी, छाया अद्भुत आतम बल है; यह ज्ञानमती माता जी का, सच पूछो तो कृपाफल है ॥ ८५।। अपने ही भाई-बहिन नहीं, औरों को बहुत पढ़ाया है; प्रिय सुनो कुमारी कला, जिन्हें सच्चा शिवमार्ग दिखाया है। है जन्म बाँसवाड़ा इनका माता से शिक्षा पायी है। ऐसी कितनी बालाओं की अंतस की ज्योति जगाई है ।। ८६ ।। कैसे सम्भव था ? यह काया, माया ममता में सनी रहे; जिसकी बाला आर्यिका बने, माता गृहस्थ ही बनी रहे । माँ ज्ञानमती की माता ने, अपना भी कदम बढ़ाया है; हो पूज्य आर्यिका रत्नमती, जिनका यश जग में छाया है ।। ८७ ।। अब सुनें एक उपकार और, कौशल का सुनें नमूना है; श्री महावीर निर्वाण महोत्सव, जिससे होगा दूना है । इसके प्रति उनका जितना हम, यश गायें सचमुच थोड़ा है; जिन ने जिनमत के नक्शे को, जनता के सम्मुख जोड़ा है ।। ८८ ॥ अब तक जो जम्बूद्वीप सिर्फ, कागज पर गया उतारा है; बन रहा सुनों मैदान मध्य, जिसका होगा जयकारा है । वह "सरस" हस्तिनापुर में, अब पूरा होने वाला है; जिसके प्रिय दर्शन को उत्सुक अब से हर बच्चा-बाला है ।। ८९ ॥ जब दिखलायेगा सजा हुआ, वह "सरस" बाग फव्वारों से; बिजली की आभा बोलेगी, जब निश में चाँद-सितारों से; उस समय कौन इसकी छवि को आँखों में नहीं बसायेगा? मेरा विश्वास इसे लखने, सुरपुर से हर सुर आयेगा ॥ ९० ॥ जब मध्य पचहत्तर फिट ऊँचा भव्य मेरु पर्वत होगा ; जिसके अंचल पर बना हुआ, हर वीतराग मंदिर होगा । निश्चित विदेश के लोग "सरस" इसको सौ बार सराहेंगे; सूरज-चन्दा के अन्वेषी, इससे नवीनता पायेंगे ॥ ९१ ॥ इस युग का सबसे ज्यादा यह, वैज्ञानिक तीरथ होगा; यह वीतराग विज्ञान मार्ग का, पहला भागीरथ होगा । तब "सरस" हस्तिनापुर गौरव, युग-युग तक लोग सराहेंगे; तब इस तीरथ के कीरत में, खुद चार चाँद लग जायेंगे ॥ ९२।। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश ग्रन्थ-रचना Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ यह उनका दृढ़ विश्वास आस्था का परिचय बतलाता है; जो जिनवर पर रखता श्रद्धा, सारा संकट मिट जाता है । अब ज्ञानमती माताजी से, उपदेश तुम्हें सुनवाता हूँ; इस दिव्य ज्ञान की गंगा में, तुमको स्नान कराता हूँ ॥ ९३ ॥ हम पर को देते रहे दोष, पर अपनी कमी न जानी है यह है अशांति का खुला गर्त, जिसमें कराहता प्राणी है । है उसका कहीं इलाज नहीं, जो ममता में सुख गिनता है; है दुःख का वहीं निवास "सरस", जिस जगह चाह है, चिंता है ॥ ९४ ॥ जब तक कषाय से कसा हुआ, कितना ही मिले सुभीता है; यदि तीन लोक भर सम्पत हो, तब भी समझो वह रीता है। यह स्वयं आत्मा ज्ञानवान, सम्यक वैभव बलशाली है; ; उसके समक्ष जग सुख नगण्य, छल है, धोखा है, जाली है ॥ ९५ ॥ श्री ज्ञानमती जी माता का, यह बारम्बार इशारा है उनके जीवन के पौरुष का, यह सबसे पहला नारा है । जो लोग बताते ईश्वर ही कर्ता-धर्ता उजयाला है बस इस विचार ने जीवों का, पौरुष पंगु कर डाला है ॥ ९६ ॥ ईश्वर न किसी को सुख देता, वह नहीं दुःखों का हरता है; मानव अपना ही शत्रु मित्र, उत्थान-पतन का कर्त्ता है । यह किसी एक के लिए नहीं, इसकी शक्ति अवनीश्वर है; जो राग-द्वेष को जीत सके, बस वही जीव ही ईश्वर है ॥ ९७ ॥ इसलिए तुम्हें यदि अपने में, ईश्वर का रूप दिखाना है; श्री आदिनाथ से महावीर, तक की कोटि में आना है। तो राग-द्वेष के शोलों पर सम्यक का जल वर्षाओ रे बाना विराग का धारण कर, यह जीवन सफल बनाओ रे ॥ ९८ ॥ जिसने जड़ तन को चेतन के रंग में रंग करके मोड़ा है; जितना जस गायें थोड़ा है। उस महा विरागी माता का अब एक बात माता जी वे कितनी भाषा की ज्ञाता, स्पष्ट तुम्हें समझाता हूँ ॥ ९९ ॥ के बारे में और बताता हूँ; " केवल संस्कृत, न हिन्दी में, वह समझो ज्ञान प्रदाता हैं; मी सुनो मराठी, कन्नड़ की, त्यागिन के साथ कवित्री हैं, भाषा की अच्छी ज्ञाता है। अनुवादक, श्रेष्ठ कथायें हैं; साहित्य समाज देश भर को इनसे काफी आशायें हैं ॥ १०० ॥ , इनके कुछ ग्रन्थों का परिचय, मैं अभी सामने लाता हूँ: अब ज्ञानसिंधु के कुछ मोती, श्रीमान अभी दिखलाता है। ये हैं कितने अनमोल, जिन्हें पढ़कर ही पाठक जानेंगे; फिर भी इनकी प्रतिभा का हम, कुछ परिचय देकर मानेंगे ॥ १०१ ॥ सुनिए जो ज्ञानमती जी का साहित्यिक सृजन अनोखा है; For Personal and Private Use Only [२९९ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कैसे भूलेगा वह बुधजन, जिसने पढ़ करके देखा है । जो ग्रंथ अभी तक थे दुर्गम, उनको अब सरल बनाया है; जिनका अनुवाद असम्भव था, पहले करके दिखलाया है ॥ १०२ ॥ श्री अष्टसहस्त्री परम ग्रंथ, मुक्ति का रहे प्रदाता है तम में, गम में डूबे जन को, आलोक सदा दिखलाता है। इसका अनुवाद "सरस" सुन्दर प्रतिभा ने जिसे निखारा है; संपूर्ण चेतना के द्वारा जिसका अस्तित्व निहारा है ॥ १०३ ॥ हर त्यागी - रागी बुधजन ने यह कहकर गौरव गाया है; जो शब्द कलम से निकल गया, वह चमत्कार बन छाया है। है आगम के अनुकूल, कहीं प्रतिकूल नहीं कुछ बोला है; पढ़कर के लगता गणधर ने, फिर से अपना मुख खोला है ॥ १०४ ॥ त्रिलोक भास्कर, न्यायसार, "सामायिक" जो हम पाते हैं; भगवन महावीर बने कैसे ? पढ़ करके दिल दहलाते हैं। "इतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर", सच्चा गौरव दर्शाता है; है ग्रन्थ समाधितंत्र मृत्यु से विजय हमें दिलवाता है ॥ १०५ ॥ है "जंबूद्वीप" परम सुन्दर, लख कर होती खुशहाली है; अनुवाद "द्रव्य संग्रह" अनुपम, "आत्मा की खोज" निराली है। है "बालविकास भाग" चारों जो बाल जागरण देते हैं: संयम की ओर बालकों को तत्काल मोड़ से लेते हैं ।। १०६ ॥ किस-किस के नाम गिनायें हम सब एक-एक से सुन्दर हैं; जिनमें हैं बीस ग्रंथ ऐसे, जो वीतराग के मन्दिर हैं । ये तम-गम में नंब जीवन दें, युग-युग के लिए धरोहर हैं; हैं जितनी माता की कृतियाँ, सचमुच में ज्ञान सरोवर हैं ॥ १०७ ॥ इनमें हम गोते लगा, लगा, इस मन का मल धो सकते हैं; जिनके पावन पथ पर चलकर, हम जिनवर तक हो सकते हैं; हो ऐसा सम्यग्ज्ञान हमें, माया का जिसमें लेश न हो; ऐसा आचरण बने अपना, छल का जिसमें लवलेश न हो ॥ १०८ बस, इसीलिए प्रति माह पत्र, इक सम्यग्ज्ञान निकलता है; जिसमें सारा श्रम ज्ञानमती, माता का, किए सफलता है । यह सम्यग्दर्शन शन, और चारित्र साथ दर्शाता है। चारों अनुयोगों का इसमें क्रमशः दर्शन हो जाता है ॥ १०९ ॥ इनके सुन्दरतम गीतों के हर ओर रिकार्ड दिखाते हैं: जिनकी भाषा भावों पर प्रिय, हर श्रोता बलि-बलि जाते हैं। कविता की कोई विधा नहीं, जो छूट आप से जाती है। वह कलम धन्य जिसकी, समानता सबमें सरस दिखाती है ॥ ११० ॥ प्रवचन का प्रिय पावन प्रवाह, जिस क्षण चालू हो जाता है; उतने क्षण तक मानव का मन, खुद ही में खुद खो जाता है। हर पंक्ति ज्ञान की गरिमा बन, अंतस का अलख जगाती है; आगम की ऐसी गहराई, विरलों में पायी जाती है ॥ १११ ॥ श्री माताजी के अधरों से जब छंद गूँज कर छाते हैं; For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय प्रभाकर आर्यिकारत्न Jain Educationa International - गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संगीत गीत दोनों का तब सम्मिलित आनन्द उठाते हैं। उस वीतराग की वीणा में ऐसे पावन स्वर होते है माँ एक छंद बोला करती, सौ सुनने आतुर होते हैं ॥ ११२ ॥ क्या-क्या विशेषता माता की, यह तुच्छ दास दर्शाये अब; शबनम की लघुतम बूँदों ने, सागर के गुण गा पाये कब ? शिक्षण शिविरों को समय-समय पर, आप कराती रहती हैं; इस तरह सदा मानवता का इतिहास जगाती रहती हैं ॥ ११३ ॥ चल रहा आज जो धर्मयुद्ध, तर्कों के वाक्य प्रहारों से; विपरीत मान्यतायें जन्मीं कुछ तथाकथित होशियारों से। चारित्र हनन हो रहा यहाँ जीभर के चारों औरों से; माता मन ही मन चिंतित हैं, कुछ ऐसी कल्पित कोरों से ॥ ११४ ॥ उनका कहना हम ज्ञान रखें, लेकिन चारित्र न खो डालें; आचरण छूट जाये जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें । चारित्रहीन यदि ज्ञान मिला तो बेड़ा पार नहीं होगा; केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा ॥ ११५ ॥ श्री ज्ञानमती माता द्वारा, जग ने प्रकाश जो पाया है; जिनकी वाणी ने प्राणी के अंतस का अलख जगाया है । उसका यश वर्णन चंद शब्द बोलो कैसे कर सकते हैं? शबनम की बूंदों के द्वारा, क्या सागर को भर सकते हैं ? ॥ ११६ ॥ फिर भी दीपक उस दिनकर का भक्तिवश गौरव गाता है; माता को मान मिला कितना, दिग्दर्शन जरा कराता है। था आठ दिसम्बर उन्नीस सौ सन सुनो, चौहत्तर की बेला तव दिल्ली दरियागंज, बना था, सरस दीक्षा का मेला ॥ ११७ ॥ आचार्य धर्मसागर जी का, उस समय विशाल संघ ठहरा; वैराग राग के जीवन पर उस समय लगाए था प्रहरा । हर आँखों के आगे उस दिन लगती भौतिकता नंगी थी संयम के सच्चे सागर में, हर देह उस समय चंगी थी ॥ ११८ ॥ P जब ज्ञानमती माता जी का ज्ञानामृत फैला जोरों से; उनके प्रवचन से डगर-डगर, जब जागी चारों औरों से । उस समय न केवल भक्त वर्ग, त्यागी दल हुआ प्रभावित था; तब इन शब्दों से स्वयं, देशभूषण ने किया स्वागत था ॥ ११९ ॥ रह सका न मुनि का हृदय मौन, मन महामुनि का हर्षाया अड़तालीस संतों के समक्ष, उद्गार हृदय बाहर आया । श्री ज्ञानमती माता सचमुच, संयम की सच्ची माता हैं; यं सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, तीनों की परम प्रदाता हैं ॥ १२० ॥ इनका दर्शन, इनका अर्चन, जग को सुख देनेवाला है; युग जाप करेगा युग-युग तक, ऐसी यह पावन माला है। इतिहास हो गया धन्य आज, अवलोक इस तरह महिमा है; I For Personal and Private Use Only [ ३०१ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नारी-गौरव के साथ-साथ, ये त्याग जगत की गरिमा है ॥ १२१ ॥ श्री ज्ञानमती का साहस लख, मुझसे मेरा मन कहता है; स्त्री होकर, पुरुषों से बढ़, कितनी इनमें तत्परता है? गर-अगर पुरुष पर्याय में, श्री ज्ञानमती माता होती ; जाने अब तक क्या कर देतीं, संयम के दिव्य लुटा मोती ।। १२२ ॥ जिस समय देशभूषण की यह, ज्यों ही पावन वाणी गूंजी । धरती हो गई स्वयं प्रमुदित, जनता मयूर बनकर झूमी । युग संत देशभूषण जी ने, अपना आशीष समर्पित कर; सम्मान बढ़ाया "न्याय प्रभाकर" का पद गद-गद अर्पित कर ॥ १२३ ।। तब परम "आर्यिकारत्न" साथ, ये-दो उपाधियाँ दे डालीं; अवलोक "सरस" हर त्यागी के, आनन पर आ बैठी लाली । इस तरह पृज्य माता जी को, संतों ने स्वयं सराहा है; तब उन भक्तों का क्या कहना, जिनने मन चाहा, चाहा है ॥ १२४ ।। कवि निवेदन ऐसे कितने ही शुभ अवसर, करते रहते शुभ वंदन हैं; श्रद्धा की भाषा में इनका, जीवन ही पाप निकंदन है। देवों के द्वारा वंदनीय, जिनका ऐसा आकर्षण है; मेरी छोटी-सी कलम भला, क्या करे आपका वर्णन है ।। १२५ ॥ यह सत्य-अहिंसा की मूरत, युग-युग तक ज्ञान प्रकाश करे; जिस जगह आप डालें डेरा, शिवपुर-सा वहाँ निवास करे । है अभिलाषा सबके मन की, यह "प्रभा" सरस दिन दूनी हो; भारत माता की गोदी, इस माता से कभी न सूनी हो ॥ १२६ ।। स्मरण रहे यह भक्ति-काव्य, बन करके लिखा पुजारी है; कवि की कविता की प्रतिभा की. अब जरा न जिम्मेदारी है। फिर भी पद-अक्षर मात्रा से, यदि किंचित भी हो वेदन है; कर क्षमा ! सुधार पढ़ो पाठक, विज्ञों से विनय निवेदन है ॥ १२७ ।। आशा है “सरस" निवेदन यह, अब प्यार आपका पायेगा; यदि मिला आपका शुभाशीष, कवि आगे कलम चलायेगा। हैं वही बड़े जो छोटे की, त्रुटियों पर ध्यान न देते हैं : है सबको जय जिनेन्द्र मंग, लो अब विराम हम लेते हैं ।। १२८ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३०३ "ब्राह्मीव सुस्थिरमतिः सुभगा कुमारी" - रचयिता- श्री पं० जगन्नारायण पाण्डेयः, रीडर, केन्द्रीय सं० विद्यापीठ, जयपुर वसन्ततिलका छन्द - देवालयेषु विदिता भवनेषु माता, लक्ष्मीश्च या समरमूर्धनि सैव भाग्यात् । ज्ञानेच्छयोर्दढ़तया कथिता मुनीन्द्र - ज्ञानस्य मूर्तिरथ वीरमतीतिदेशे ॥ १ ॥ अनुष्टुप् - नारीयमबला लोके मुग्धैरेव प्रकल्पिता । वज्रसारमयी शक्तिः काचिदीशस्य शाश्वती ॥ २ ॥ वसन्ततिलका - प्रायेष विंशतितमे शतके मुनीनां, ह्रासोन्मुखीं समवलोक्य परम्परां स्वाम् । उद्धर्तुमायतत वृत्तसुचक्रवर्ती, श्रीशान्तिसागरमुनिः प्रथमो मनीषी ॥ ३ ॥ तां रक्षितुं सुमनासाऽऽहतचन्दना सा, ब्राह्मीवगुस्थिरमतिः सुभगा कुमारी । ज्ञानश्रिया समुदिता मुदिता स्वकार्ये, ___ संसाधितार्थनियमा किल तत्पराऽभूत् ॥ ४ ॥ इन्द्रवज्रा - भूरत्नभक्तीश्वर विक्रमाब्दे, रात्रौ तिथावाश्विन-पूर्णिमायाम् । श्रीश्रेष्ठिनो धर्मरतस्य छोटे - लालस्य गेहेऽजनि बालिकेयम् ॥ ५ ॥ उपजाति - तज्जन्मना सर्वदिशः प्रसन्नाः, समुद्गतो व्योम्नि च पूर्णचन्द्रः ।। हर्षप्रकर्षो नहि गेय एव, दृष्टः समस्ते नगरेऽपि सर्वैः ॥ ६ ॥ वसन्ततिलका सौम्याकृति स्फुरितचारुमतिं च कन्यां, मैनःस्पृशेद् भुवि कदाचिदितीव बुद्ध्या । मातामहेन सुविचार्य शुभे मुहूर्ते, मैनेति नाम ललितं कलितं यथार्थम् ॥ ७ ॥ मातुर्विलोक्य सदने सहजा प्रवृत्तिं, पूर्वानुरक्तिमथ शाश्वतजैनधर्मे । पित्रोःसदा नयनयोर्मदुतारिकेयम्, मैनाऽप्यनन्यहृदयाऽभवदात्मधर्मे ॥ ८ ॥ १. विक्रम संवत् १९९१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] उपजाति शार्दूलविक्रीडित उपजाति अनुष्टुप् उपजाति · शिखरिणी - Jain Educationa International द्विपंचरत्रेन्दु मितेशवीये, वर्षे नगर्यामथ बारवक्याम् । पूज्यस्य तद्देशविभूषणस्य, समक्षमेव व्रततत्पराऽभूत ॥ ९ ॥ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला चैत्रे कृष्णदले तिथौ प्रतिपदि क्षेत्रे पवित्रे महा वीरे षोडशकारणादि-दिवसे दीक्षां परां क्षुल्लिकाम् । लकवा वीरमती बभूव भुवने मैनाऽपि वीरांगना, रत्नव्योमवियद्वि' लोचनमिते संवत्सरे वैक्रमे ॥ १० ॥ वैराग्यमुत्कृष्टतरं प्रदीप्तं ज्ञानं समालोक्य च भूरि तस्याम् । कृता मुदा वीरमती मुनीन्द्र धार्थतो ज्ञानमतीति लोके ॥ ११ ॥ अधीत्य शास्त्राण्यपि नैव लोके, प्रायोजनस्तादृशमाचरन्ति । परं कुमार्या पठितं श्रुतं यत् तत्सर्वमेवाचरितं सदैव ॥ १२ ॥ स्थित्वा क्षुल्लक दीक्षायां वत्सरौ कुन्थले गिरौ । वीरसागरस स्वशिष्याश्यां सह सादरम् ॥ १३ ॥ सोनू प्रभावतीभ्यां सा, साध्वी वीरमती स्वयम् । याताऽऽर्थिक सुदीक्षाये, भक्त्या जयपुरं ततः ॥ १४॥ दीक्षामवाप्यात्मपरम्परायां, संगृह्य शिष्या अथ योग्यशिष्यान् । नियोज्य तानध्ययने स्वयं सा निगूढशास्त्रार्थपरायणाऽभूत् ॥ १५ ॥ विशालमत्या सह साऽप्यधीत्य, मासद्वयाभ्यंतर एव सम्यक् 1 कातन्त्र - सद्व्याकरणं च जाता, ग्रीर्वाणवाण्यां नितरां प्रवीणा ॥ १६ ॥ अहो प्रषम्यः प्रतिभा प्रभावः, १- ईस्वी सन् १९५२ २ विक्रम संवत २००९ पुष्यस्य वा रम्यतमः प्रसादः 1 यदल्पकाले रचितं भवत्या, स्तोत्रं स्वयं दिव्यसहस्रनाम अथानयाचार्यमुखात् सभायाम् विराजते काचिदनन्तशक्ति यथा दुग्धे सम्यक् स्थितमति घृतं न प्रभवति, आकर्षितं यद्भुवि जीवमात्रे । र्लभ्यां परं सा न विना प्रयत्नैः ॥ १८ ॥ स्फुरन्तीं शक्तिं तामनुभवितुमर्हाः सुकृतिनः, || १७ ॥ स्वयं यत्राभावे कथमपि तथैवात्मनि चिरात् । For Personal and Private Use Only सदाचारे लग्ना यमनियमसंसाधितधियः || १९ ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३०५ वसन्ततिलका - एतादृशं सदुपदेशमियं सहर्ष, श्रुत्वा तथैव सहसा चरितुं प्रवृत्ता । सम्यविचार्य मनसा सततं कृतं चेद् नास्त्येव तत् किमपि कार्यमसम्भवं यत् ॥ २० ॥ उपजाति - द्विसप्तरत्नेन्दु मितेशवीये संवत्सरे प्रेरणया भवत्याः । जैनत्रिलोकाभिधसंस्थयैक क्रीत्वा नवंमण्डलभूमिभागम् ॥ २१ ॥ तीर्थे प्रशस्ते महतां मुनीनां, पुरे प्रणम्ये ननु हस्तिनाख्ये । चैत्यालयाधैर्ललितस्य जम्बू द्वीपस्य निर्माणमकारि तत्र ॥ २२ ॥ इन्द्रवज्रा - ज्ञानस्य सागरमसख्यजनाभि, नन्द्यम्, आचार्यवर्य मखिलार्यगुणैः प्रशस्यम् । श्रीवीरसागरमुनि प्रणिपत्य लोके कीर्तिं च तस्य विमलामचलां विधातुम् ॥ २३ ॥ रत्नर्षिरत्नरजनीश मितैश वर्षे, दीक्षागुरोर्विजयिनः स्मरणीय नाम्ना । संस्थापितं सुरवचो-रमणीयविद्या पीठं प्रसिद्धगुरुभिर्महितं भवत्या ॥ २४ ॥ या संस्कृतिर्लसति भव्यगुणा पुराणी, तद्रक्षणं किल विचक्षणवृन्दसाध्यम् । यावच्च नागरगवी हृदयंगमा स्यात्, तावत् स्वदेशचिरगौरवमप्यगम्यम् ॥ २५ ॥ शार्दूलविक्रीडित - तस्मात् संस्कृति-संस्कृत-प्रणयिनः शास्त्रार्थपारंगमा, विद्वांसो जिनधर्मकर्मनिपुणास्तद्रक्षणे व्यापृताः। संग्राह्याः सुपरीक्ष्य च स्थिरगिरः धर्मप्रचारप्रियाः । सम्प्रेष्याःसरलाश्चरित्रविमला देशे विदेशेष्वपि ॥२६॥ अनुष्टुप् - पंचाशत् संख्यकाः शिष्या भवत्या सम्यगीरिताः । मुन्यार्यिकात्वमापना ीक्षया विहरन्त्यलम् ॥ २७ ॥ चारित्रचक्रवासीद, आचार्यः शान्तिसागरः । परम्परायां तस्याभूदाचार्योऽजितसागरः ॥ २८ ॥ उपजाति - भवत्प्रसादादभवत् स पट्टा धीशश्चतुर्थोऽत्र बहुश्रुतश्च । १- ईस्वी सन् १९७२ २- सन् १९७९ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्यान्मुनेः श्रीशिवसागरायो, गृहीतदीक्षो बहुमानमाप ॥ २९ ॥ भुजंगप्रयात - प्रतिज्ञापरीक्षोपकारप्रभावा डुपन्यासरत्नानि पद्येऽनुवादान् । विनिर्माय हिन्द्यां ततो देववाण्यां, शतं पुस्तकान्यर्जितं धर्मकार्यम् ॥ ३० ॥ उपजाति - द्विसप्तरत्नेन्दु मितेशवीये, वर्षे प्रकाशाय च पुस्तकानाम् । संस्थापिता लोकहिताय वीर __ज्ञानयोदयग्रन्थविशेषमाला ॥ ३१ ॥ वर्षद्वयानन्तरमेव सम्यग ज्ञानाभिधं मासिकपत्रमेकम् । प्रकाशितं रोचनमंगनाभ्यः शिक्षाप्रदं चाऽप्यतिबालकेभ्यः ॥ ३२ ॥ स्रग्विणी लोककल्याणभावेन सम्प्रेरिता, इन्दिरा-राव-राजीव मुख्या अपि । सिद्धवर्ध्या भवत्या नु शान्तिप्रदं, दर्शनं प्राप्य जाताः कृतार्थाः भृशम् ॥ ३३ ॥ शार्दूलविक्रीडित - यस्याः प्राप्य कृपाकटाक्षलहरी दूरीभवन्त्यापदो, ____ दीनानामपि हस्तयोः प्रमुदिता धावन्ति संसिद्धयः । रोगा यान्ति भयंकरा अपि मृगा भीत्या मृगेन्द्रादिव । प्रीत्या ज्ञानमती नमामि विदुषामिष्टप्रदामार्यिकाम् ॥ ३४ ॥ मान्या भक्तिमतां नित्यं, जननी सिद्धदायिनी । गणिनी चार्यिकारत्न-प्रभा केन न संस्तुता ॥ ३५ ॥ १- ईसवी सन् १९७२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३०७ आर्यिकारत्नोपाधिविभूषितायाः गणिन्याः श्री ज्ञानमत्याः व्यक्तित्वं कृतित्वञ्च - लेखक-महेन्द्रकुमारो "महेशः" शास्त्री महावीरजिनं नत्वा, स्मृत्वावाणी सरस्वतीम् । लिखामि ज्ञानमत्याश्च, संक्षेपेण हि जीवनम् ॥१॥ सकलगुणनिधाना, ज्ञानचारित्रयुक्ता, । विबुधनिचय सेव्या, लोकमान्या प्रविज्ञा । जगजनहितकी, द्वीपजम्बू प्रणेत्री, । जयति जगतिलोके, ज्ञानमत्यार्यिकासा ॥ २ ॥ "सजातो येन जातेन यातिधर्मःसमुन्नतिम्" सम्प्राप्येदम् चिन्तामणिसमाम् नरजन्म, सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्ररूपम् रत्नत्रयम् धृत्वा तेन निजपरात्महितम् साधितम् तस्यैव मानव जन्म सफ्लम् सार्थकञ्च भवेदन्यथा पशुवन्नरजन्मेत्याचार्यैः प्रोक्तम् । पूर्वोक्तार्षवचनानुसारेण गणिनीज्ञानमत्यार्यिकायाः नृजन्मसफलं सार्थकञ्च न चात्रसंशयः ।। इयङ्किलज्ञानमतीमाताजी ज्ञानावरणीयक्षयोपशमेन अधीतनिखिलन्यायव्याकरण धर्मसाहित्यादिसंस्कृतप्राकृतग्रंथरत्ना, सज्ज्ञानसंयमतपो- धनानाम् चा रित्रचक्रवर्तीशांतिसागरवीरसागरदेशभूषणप्रभृतिदैगम्बराचार्याणाम् सानिध्यम् सम्प्राप्य स्वयं ज्ञानचरित्र धना मोक्षमार्गिणीसंयमधारिणीस्त्रीणां सर्वोच्चसंयमविभूषिताचाभवदितिचित्रम् । तस्याः जीवनांशोऽत्र लिख्यते मया महेशेन । निखिलजिनवाणीसमुद्भुतचतुरनुयोगप्रतिपादितपूर्वाचार्य वर्यवृन्दलपसाधनलिखितशास्त्रसमुद्रनिचयमंथन निःसारितग्रन्थरत्ना ज्ञानतपोसंयमसच्चारित्रयुता समस्तदेशस्थ विद्वदमण्डलमान्याचेयं ज्ञानमत्यार्यिकारत्ना भारतदेशमध्योत्तरप्रान्तान्तरगते टिकैतनगरनाम्नि सुरम्यनगरे दानधर्मपरायणश्रेष्ठीवर्य श्रीछोटेलालस्य श्रावकधर्मप्रतिपालकशीलधर्मयुतायाः भार्यायाः श्रीमोहिनीदेव्याः कुक्ष्याम् ईस्वी सन् १९३४ तमे वर्षे मेघपटलविरहितशरदपूर्णिमायाः पूर्णचन्द्रस्य चान्दनीयुक्तनिशायां पूर्णचन्द्रसमा प्रभायुताइव जन्मलेभेतराम् । प्रथमपुत्रीरूपेण जन्मसंजाते मातृपितृबन्धुपरिवारजनाः सर्वे कन्यारत्न सम्प्राप्ते महदानन्दम् प्रावतः । तदा कन्यायाः मैना चेतिनाम संघोषितम्। इयङ्किला मैना सौन्दर्यादिकारणेन सर्वजनानंदकारी जाता। केवलमष्टवर्षवयस्येव गृहतः मैना कुरूढिसमूहम् समूलं क्षयञ्चकार । तीव्रबुद्धिबलेनेयं मैना पठन पाठनादि कार्ये विलक्षण प्रतिभानधारयन्ती जनेषु विस्मय कारितवती त्वभवत् । अस्याः छहढाला पद्मनंदिपञ्चविंशतिकादि धार्मिकग्रंथानां पठनेन प्रारंभतः वैराज्ञभावमवलोक्य सर्वे गृहपारिवारिकजनाः विस्मिताः शंकिताचा भवन्। ईस्वीसंवत्सरे सन् १९५२ तमे वर्षे ज्ञानध्यानतपःसंयमधनः परम्दैगम्बरः श्री देशभूषणाचार्यः टिकैतनगरे समायातः । समासाद्य तेषां दर्शनं सङ्गमञ्च तथा च तेषामेव धर्मोपदेशम् समाकर्ण्य मैनायाः हृदये वैराज्ञभावो जागृतः । तदनंतरम् बाराबंकी नाम्निनगरे तेषामेवाचार्यवर्याणाम् देशभूषणाणाम् वर्षायोग संजाते देशभूषणमहाराजतः मातृपितृबंधुप्रभृतिपारिवारिक जनानामतिकाठिन्येन स्वीकृति संप्राप्य सप्तमप्रतिमायाः व्रतोमियं स्वयं स्वीचकार । ब्रह्मचारिणी मैना चोत्तरोत्तरम् वैराज्ञभावंवृद्धिंगता संप्राप्तज्ञानसंयमधना मोक्षपथानुगा सन् १९५२ तमे संवत्सरे तस्मादेव देशभूषणाचार्यात् श्रीमहावीरजीआतिशयतीर्थक्षेत्रे क्षुल्लिकां दीक्षां जग्राह । तदा वीरमती क्षुल्लिकेति नाम्ना ख्यातिम् सम्प्राप्तेयं मैना। यदा सन् १९५५ तमे संवत्सरे चारित्रचक्रवर्तीमहदाचार्यवर्येण श्रीशांतिसागरदाक्षिण्येन यमसल्लेखना धृता तदेयङ्किल चरित्रनायिका वीरमतीक्षुल्लिका यमसल्लेखनायुक्ताचार्यवर्याणाम् दर्शनार्थम् कुंथलगिरि तीर्थे समागता। तदा तत्र चतुर्थकालसदृशयमसल्लेखनामवलोक्यास्यांहृदये परमाशांतिः प्रसन्नताच सञ्जाता। क्षुल्लक दीक्षाविभूषितात्वियम् वीरमतीक्षुल्लिका सत्साधुतपस्वी चार्यिकादीनाम् सत्समागमनं समासाद्य ज्ञान ध्यानयोर्निरन्तरं प्रगतिञ्चकार । क्षुल्लिकादीक्षाप्राप्ता वीरमती क्षुल्लिका शीघ्रमार्यिकादीक्षाम् गृहीतुमैच्छत्। ईदृशः सुसमयोऽपिसंजातः यत् राजस्थानप्रान्तारगते माधोराजपुरानाम्निनगरे ज्ञानध्यानतपोनिधि वीरसागराचार्यवर्येण वीरमतीम् क्षुल्लिकाम् समारोहपूर्वकेणार्यिकादीक्षा प्रदत्ता । तदा तस्याः ज्ञानमतीति नामघोषितम्। समादाय त्वार्यिकादीक्षां त्वियं ज्ञानमतीमाताजी धर्मसिद्धान्तन्यायव्याकरणप्रभृतिसंस्कृतप्रा कृत ग्रंथानाम् ज्ञानम् सम्प्राप्य यथानाम तथा गुणवती बभूव। विशिष्ट ज्ञानसंप्राप्तेयं माताजीआदिमतीपद्मावतीजिनमतीश्रेष्ठमत्यादिस्वशिष्याभिः सह विविध ग्रामनगरतीर्थेषु विहारं कृत्वा धर्मोपदेशः प्रचुरधर्मप्रचारञ्चकार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जम्बूद्वीप निर्माणम् हस्तिनापुर क्षेत्रस्थ जम्बूद्वीपस्य स्थापना माताजी ज्ञानमत्याः एवं प्रेरणाफलम् नात्र संशयः । विस्मयोत्पादक मिदम् निर्माणम् देशविदेशतः प्रचुरदर्शकगणाः समवलोक्य महदाश्चर्यमप्राप्नुवंति न चात्र चित्रम् । ग्रंथरचना ज्ञानचारित्र गंगायमुनातरङ्गिणीपारङ्गता ज्ञानमतीमाताजी विशिष्टज्ञानबलेन सार्द्धंकशताधिक ग्रंथान् विरच्य विदुषामग्रिणी सञ्जाता तथैव समस्तदेशेख्यातिम् लेभेतराम् । पूर्वाचार्यविरचितमहाग्रंथानाम् गोम्मटसारसमयसारप्रमेयकमलमार्तण्डप्रभृतीनामनुवादं हिन्दीभाषायाम् कृत्वा सा साध्वी स्वगभीरज्ञानस्य परिचयमददात् । जम्बूद्वीपनिर्माणविपुलसाहित्यरचनादिकार्यैस्त्वियम् माताजी सुचिरंख्याति देशविदेशमध्ये संप्राप्य त्वमराजात न चात्रविस्मयः । अलमतिविस्तरेणेति भावनया श्रीमज्जिनेन्द्रदेवतः श्री ज्ञानमत्याः मातायाचिरजीवनस्य यशोऽभिवर्द्धनस्य च कामना सह लेखिनीविरामोविधीयते । धन्या च माता जनकश्च धन्यः, धन्या च भूर्यत्र बभूव जन्म । धन्या च मैना सदृशा सुपुत्री, या चार्यिका ज्ञानमती बभूव ॥ ३ ॥ णाणमादि - णाणं Jain Educationa International [१] तैलोक्य सव्व-विसयं च तिलोय लो हत्थंगुलीय तय-रेह सर्व हि दिवखे । रागेण दोस-भय-मोह-विमुक्त अप्पं देवाहिदेव अरहं पणमेमि णिच्चं ॥ १ ॥ [ २ ] - लोयस्स पुज्ज आरहं महसिद्ध सिद्ध आयार पूद सलाइरियं च जोन्हं । अज्झाए पद पचिद्विद सुपाठगं हं वंदे च सव्व- समगाण सुणाण साहुं ॥ २ ॥ [ ३ ] णाणा गुणा-हि- महणिज्ज - विसुद्ध जुत्ता ता होति णाण-गुण-सत्ति-समत्त-भावे । भत्तिप्पहाव-रस-संजुद सुद्ध-दिट्ठी • डॉ० उदयचन्द जैन पिऊकुंज अरविंदनगर, उदयपुर [राज०] बम्ही च सुंदरि-गुणेसु रदाच णिच्चं ॥ ३ ॥ [ ४ ] धण्णाधरा सयल - माणवणारि धण्णा अम्हे च तेहि वर धण्ण-सुधण्ण-जुत्ता । ते धण्ण-धण्ण-सयला मह धण्ण-सीला धण्णा-जणा जणणि णाणमदी च धण्णा ॥ ४ ॥ For Personal and Private Use Only - Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [4] पीयूस - पुण्ण दिवसो अदि- पुण्ण-सीलो तं णिज्झरे रमदि पुण्ण- पवित्त-सीलो । पुण्णा च पुण्ण-सरदा-रिदु-पुण्णमासी जम्मेद जा सरद - पुण्णिम सुणाण-धारि ॥ ५ ॥ [६] संपुण्ण-सारद- णिसायर- कंति - सोम्मा जस्सिं विदाण-परिवेट्ठिद-गुम्म- गुम्मा | बालाइ बाल-किरणेहि पपुल्ल- भूदा राजेदि कि पण इध लोय-सुरम्म बाला ॥ ६ ॥ [७] जत्थप्पसंत-सयलाहि सुरामरामा णारी विणीद विणएण पबुद्ध-सीला । साहाविगा-गुण-महादिसयं पपण्णा गंभीर-धीर-खम-भाव-विसाल- भूमी ॥ ७ ॥ [८] तुंगत्तणं गिरि- समा अहिराजदे ही णं ईसरत गुण-इंद महिंद-तुल्ला । सुंदर रूप ममरा-समतभूदा बुद्धीइ जा मह - पबुद्ध-सुबुद्ध-धारी ॥ ८ ॥ [९] धणेहि घण्ण-धणसेट्ठि-टिकेद-भागे सोहेदि सो धणकुमार- उदार - वित्ती । धम्मेण समागद धर्ण अहिवदेओ धीरादुदार विणरण सधम्म- जुत्तो ॥ ९ ॥ [१०] धण्णस्स लाल सुकुमार-उदार-लाला चंदुज्जलेण सह बंधु-जणाण लाला । छोटे सुलाल अहिलाल-पलाल-लाला लाला जगे ललएदि सुपुण्ण-लाला ॥ १० ॥ [११] देवी तु मोहिणि सुलाल-सुजाद - लाली सा लाडली सुय-बहू अदिधम्मलाली । लाडेण जा रुचिरभाव समा धरेदि मोदि मोहणिय- अंक- सुसुहु-लाली ॥ ११ ॥ [१२] संमोहदे णणिय संग समाचरत सामीव-चिट्टिद-जणं णियअप्प अप्पं । सामुं च अप्प-ससुर णणदं बुभेच णम्मीअभूद बहु मोहिणी मोहिणीओ ॥ १२ ॥ For Personal and Private Use Only १३०९ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमा [१३ ] या मोहिणीच जणादि सपणाग्मानी लाली कुडुव-जण-बंधु-विगासयारी । सामाग्दा समणधम्म-परायणा या लाला पीगिह-पदस्स सुपेम्म-लाली ।। १ । [१४] लन्छी इवास्स पिय-माहिणि-लच्छिजुना मंदर-देड-कमणिज-गणेण रम्मा । लायन्स णंद-करण समितुल्ल-बालं जापति ग्याग्द-सकाल-मपुण्णमाग् ि ॥ १४ ॥ [१५] चंदम्प चंदकर-सोह-जणाण गर्ने णदेदि सा सरद-जम्म-सुबाल-बाला । गं मन्थ-णाण-गुण-भूमिद चंटिगा ही मनी मरम्सइ-समा अहि अंदणीओ ॥ १५ ॥ [१६] सव्वाण सस्थ-कुसलाण जणाण दिट्ठी किं जायदे ण सरदस्स ससी-कलाए । ताए सहाविग-गुणा अहिरंजदे हि कित्ती-सणाण-सिरमोर-लिलाड-रेहा ॥ १६ ॥ [१७ ] एगाद पग-णार-गारि अवाल-वट्टा तं पासिदृण मुह-मंडल-अंग-सव्वं । भामेति मुंदर-मणपण-मनोहरं पण सेयम्सग हविहिए णयणा-सु-मेणा ॥ १७ ॥ ! १८ ] सव्वाण णंद-जण-जण्ण-पसणिज्जा सा बाल-बाल-बल-होण-पवीण-बाला। भत्ती ण किं फलहि एदि विसुद्ध-भावं लडे गणेस सदं महणिज-भावं ॥ १८ ॥ [१९] धष्णा च माद-पिद्-धषण-टिकेद-वासी धण्णाधरा च मह-उत्तर-पदेसवासी । धण्णा च मोहिणि-सु-जम्म-सुधम्म-दायी सो पहिरो वि अदिपुण्ण-पगास-दायी ।। १९ ॥ [२०] सा मोहिणी जह बह-सम-धम्मधारी बाला वि सा च तह माद-पिऊ-पियारी । दादी च पासदि सदा ससितुल्ल-बालं बाला हवंत-महपुण्ण-पहाव-धारी ॥ २० ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२१] णाणा गिहे गमणसील - मणुण्ण बालन तं पासिदूण सुहपाल - सुहाणुभूदो । कीडाणुसील-सुलहं अदिबाल-लीलं भासेदि मोहि बाल-गियारागी ॥ २१ [ २ ] लब्धे रुचिं पर-गुणं कमणिज-बाल णं मोहिणी च न पूव्व- दिसा - पहावे । सुज्जं च राजदि सदा तह सोहदे सा मेणा मणुण एण सव्वे ॥ २२ ॥ [२३] पासेदि णिच्च तह णंददि बाल-मेणा । मादाइ मादपिय-भाव-सुबाल-चेई दित्ती- पभास-अदि-हास सहाव मेणा जोहा समा गगण मंडल अंगणे सा ॥ २३ ॥ [ २४ ] मेहा-बिणीद-मद-हीण- सुसील मेणा सुंदर लक्खण-गुणेहि विभूसपदि । णं अप्प अप्पकुलभूषण-हेदु-णच्छे मादंगणे च णणिहाल-विसाल खेत्त ॥ २४ ॥ [ २५ ] पासंत एवं अदि बाल सुचंदकंती सत्थंगणे सु-गमणे रमएदि णिच्चं । सत्थीइ सत्थ-सयलं गहिदु च बाला तत्तप्पवीण गहिरं लहिदूण दिडी ॥ २५ ॥ [ २६ ] णं कामता च जमुणा गुरु- सत्थि - णाणी णे पाद - विंद-जुगले वसिदूण मेणा । अप्पं हिदं स पर भेद-विणाण-भावं अज्झेदि झायदि सदा णिय अप्प अप्पं ॥ २६ ॥ [२७] अप्पव्वए पखर- लक्खण णाण-जुत्तं सत्थी महोदय ज अदिसाह मण्णे । सक्खा - सरस्साई धरे पडिमुत्ति-मेणं जा तत्तणाण करणे अवि बुद्ध-सीला ॥ २७ ॥ [ २८ ] अट्टप्पवास समए जदि जादि बाला मिच्छत्त-भाव-हणणे करणे पवीणा । मणा मणा-सदद-चिंतण-सील-रूवा सत्थुत्त तत्त वराणे रमदे हि णिच्चं ॥ २८ ॥ For Personal and Private Use Only [३११ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [ २९ ] सीलादु भूसिद-वयं वय-विज्ज-विज्जा विज्जा-रमंत-गुणवंत-महंत-जादा । लोए च सुंदर-मणी महणिज्ज विज्जा कल्लाण-कारग-पहावग-विज-विज्जा ॥ २९ ॥ [३०] तं विज-विज-विणयं च ज सस्स-जुत्तं विजं च गिण्ह-महणिज्ज भवंति लोगा। णारी च सम्मगुण-धारि-पहाव-सीला जाएदि किं ण मयणा सम विजधारी ॥ ३० ॥ ३१ रत्तीइ चंद णियराणि अलंकरेदि खं सुज-तेय-पुढवि च सरोजरासिं । पुत्तं विहच्च जणणी ण हि सोहदे वि लोए पसिद्ध-वयणं ण हि किंचि सम्मं ॥ ३१ ॥ [३२] पुत्ती सुहा णियकुलस्स विभूसणं वि किं चंदणा महसई कुल-भूसणं णो । बम्ही च सुंदरि-सुबाल-सुलोयणा णो जाणेति माणव-जण्ण इदिहास-सत्थं ॥ ३२ ॥ [३३ ] पुत्ती तु राजमदि-अप्प-पगासणत्थं जाएदि णिज्जण-वणे णिय-अप्प-झाणं । अण्णे सदी-महसदी-मुणि-पंथगामी णो जायदे इध जगे ण मुणंति सव्वे ॥ ३३ ॥ [३४] मेणा मणा ण रमदे गिह-कम्म-धम्मे __णो जायदे विवहाणि असार-कम्मे । झाएदि अप्प-गुण-सत्थ-पुराण-कम्म मिच्छत्त-सत्थ-विवरीद-वियार-खण्डे ॥ ३४ ॥ [३५] सव्वे जणा जणणि-दादि सु-भायरा वि तं झाण जुत्त-अहिमुत्त-समत्त-बालं । पासिच्च हास परिहास-सहाव-मुत्तं णाणा-वियप्प-गुण-जुत्त-जणा भवंति ॥ ३५ ॥ मेणाइ कित्ति-सयले परिवार-भागे पंतेसु पंत-सयले णयरे च रजे । णं सादु-सुंदरफले सुमणे-सुगंधे। कीडावणादु सयले जण-धम्म-भागे ॥ ३६ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३१३ [३७ ] सा णिम्मला मुणिपदे धरणे च बम्हं तच्च-सरूव-णिहलं परिभासणत्थं । झाएदि सत्थ-गुण-आगम-णाण-सारं ___संसार-सिंधु-तरणे मुणि-मग्ग-धम्मे ॥ ३७ ॥ [३८] सव्वाण संत-दरिसेण च धम्म-सीला जाएदि अजिग-पदे णिय-अज्जि-भावे । देसस्स भूसण-सुदेस-सु-भूसणं च रटुस्स संत-चरणे णिय-अप्प-सद्धं ॥ ३८ ॥ [३९] झाणे पवीण-मण-सोम्म-समत्त-धारी रत्तीइ एग-सिविणं अवलोगएदि । हं सेय-वस्थ-परिजुत्त-जिणिंद-भत्ति पुण्णस्स चंद-किरणेण भदामि णिच्च ॥ ३९ ॥ [४०] केलास-चंद-णिय-भायर-संमुहे सा भासेदि दिस्स-सिविणं सयलं च सेमं । आणंद-णंद-गुण-जुत्त-सहाव-संता मेणा तु णं च हणणे भव-पुण्ण-पावं ॥ ४० ॥ [४१ ] मेणाइ-सम्मचरणं पढमं च बम्हे तं बम्हचेर-वय-धारग-जीव-जावं । धारेदि बड्ढदि मुणि-मग्ग-समत्त-धम्मे तेणं च कारण-वएण हवेदि सोम्मा ॥ ४१ ॥ [४२ ] सा आइरीय-चरणे सरणे च पप्पा चेत्तस्स किण्ह-इगसुहे तह खुल्लिगाए। रम्मेदि णिच्च-अणवेसण-सत्थ-सारं णो केवलं मणण-चिंतण-भाव-जुत्तं ॥ ४२ ॥ [४३ ] ताए च वीरमदि-णाम-सुवीर-णाणे सा खुल्लिगा भविय बम्हमदी च संघे । झाणं च अज्झयण-पुव्व-वसंत-बम्हे सिद्धत-सायर-रसे अहिभूद-सम्मे || ४३ ॥ [४४ ] सा देस-भूसण-सुसिस्स-महंत-झाणे रम्मेदि णिच्च अखये जिणमग्ग-ठाणे । अज्झेदि आगम-पुराण-कहा-सु-कव्वं अज्झावएदि सददं णिय-संघ-सत्थं ॥ ४४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ३१४] [ ४५ ] जो णिछोस-मग्ग-गमणे च पउत्त-सीलो अण्णे च णिप्फिह-सहाव-समत्त-जुत्तो । तारेदि अण्ण-जण-धम्म-सुमग्ग-जाणं णाणं च दंसण-पहाण-गुरु च अम्हे ॥ ४५ ॥ [४६ ] मूलोत्तरेहि गुण जुत्त-दुवीस-चत्ते णिग्गंथ-साहु-सयले हिदकारगे ही । सिंहस्स समा विचरदे इध भूमि-भागे ते साधु-सम्म-पह-दाण-समुद्द-तुल्ला ॥ ४६ ॥ [४७ ] जो सामि-दंसण-चरित्त-पहाण-णाणी चारित्त-सुद्ध-रयणत्तय-पूद-साहू । णिण्णीद-तच्च-पहु-धम्म-सुमग्ग-गामी आराहणे च करणे मम संत दायी ॥ ४७ ।। [४८ ] सत्तुं च मित्त-सम-भाव-सुसंत-सीलं जिंदं च थोव-गुण-रत्त-समत्त-जुत्तं । सुक्खं च दुक्ख-मरणं अध जीवणं च सद्धा सिणं रयण-धण्ण-धणादि-मुत्तं ॥ ४८ ॥ [४९ ] सिंहस्स समा समण-धम्म-कठोर-लोए सुज्जो जधा णभसि भासदि दित्ति-जुत्तो। सागर-समा गहिर-धीर-मुणीस-लोए तं चंद-सीद-किरणेहि च सोम्म-भावं ॥ ४९ ॥ [५० ] विज्जाइ सायर-सुपार-उदार-सीलो झाणस्स मग्ग-सयलं विस-पाव-मुत्तो। तित्थो च अम्ह गुण-णायग-साहु-लोए साहूवदेसण-चरित्त-पवित्त-साहू ॥ ५० ॥ [५१ ] संतीइ सायरमुणिस्स च पंथगामी आराधएदि महवीर-पहं च णिच्चं । सामण्ण-धम्म-रद-संत-सहाव-धारी सा वीरबुद्धि-महि-धीर-समत्त-सीला ॥ ५१ ॥ [ ५२ ] गामाणुगामचर-धम्म-सु-वीर-वीरा णिविग्य-वीर-पह-णाण-सुणाण-वीरा । वीरादु वीर-अदिवीर-कुणंत-वीरा ___णाणे सुवीर-चरिए च पबुद्ध-वीरा ॥ २ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५३ ] इरीय-पवर अवलोयणं च ___ गच्छेदि कुंथल-गिरि च बिसाल-बुद्धिं । पहाणाइ समए विणएदि विणम्म-भावे तं संमुहे च भव-पार-अवार-वारि ॥ ५३ ॥ [५४ ] गमिण भाव-सरलेण सुवीर-वीरा संसार-पार-तरणं धरसम्म-भावं । म. जगाइ पद-गम्म-सुधम्म-हेउं इच्छेदि वीर गुरुणा णिय-झाण-आणं ॥ ५४ ॥ चा वरदी-सिदि-संति-सूरी तं पट्टधीस-वर-वीर-विसाल-साहू । सो वारसायर-मुणी पढमो च पट्टधीसो राजेदि संत-पह-चिण्ह-पहावणं च ॥ ५५ ॥ [५६ ] दिक्खाइ दिण्ण-सुह-वीरमदी च खुल्लिगा णं लक्ख-सिद्ध-करणेण विराग-पुण्णा । धाएज्ज णाण-गुण-गारव-सायरं च उत्ताण-लाल-लहरेसु गहीर-भावं ॥ ५६ ॥ [५७ ] णाणस्स सायर-पविट्ठ-अदीव-धीरा जम्मेण जाब सयलाबबोह-कलंक-जुत्ता। किं हं तुम्ह पह-धम्म-समत्त-हीणा मग दु आसय-जुदं तरणे समत्था ॥ ५७ ॥ [५८ ] संतिं च जुत्त-समणं चरणे चरतां सो णिक्कलंक-पह-रम्म-सुरम्म-जादो । संसार-सायर-तरणे खलु धम्म-सत्थे तेसिं च झामि रयणं पहधम्म हेउं ।। ५८ ॥ [ ५९ ] तुम्हाण वच्छल-सुहाव-पहाव-दिण्णं णिम्मजएमि तव संत-विसिट्ठ-बारि । जाणे पविट्ठय-जणा च तरंति तम्हा सारं लहेंति च असार-पमाद-मुत्ता ॥ ५९ ॥ [६० ] सत्ती वि भत्ति-चरणे तव धम्म-पंथे लोए कियस्थ-किद-किच्च-समत्त-धम्मो। णिद्दोस-अंध-परिहीण-पसंसणिज्जो खंती पियूस-रस-धार-समागमेणं ॥ ६० ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६१ ] तित्थं तुमेव जगणाध-समग्ग-बोधं सामण्ण-धम्म-जगदीव-सरिच्छ-दीवं । दिप्पेंति दित्तपह-हीण-जणाण अम्हें कल्लाण-मग्ग-सम-धम्म-पदेउ णिच्चं ॥ ६१ ॥ [ २] जा वीर-वीर-मदि चेव सुधीर-धारी सा वीरसायर-मुणिणा विणएदि सम्म । सम्म रहे पवर-धम्म-रसे-णिमग्गं देही ममं समण-दिक्खय-अज्जिय थं ॥ ६२ ॥ [६३ ] भो ! भो ! च णाण-गुण-दंसण-दसणस्थी __ भो वीर-पंथ-अणुगामिणि-वीर-वीरा । सच्चं च तुज्झ वयणे महुरं च धार जा भावणा तुह हिए मह को ण रोधं ॥ ६३ ॥ [६४ ] वेसाह-किण्ह-सुह-वीअ-तिहिं च दिण्णे सा खुल्लिगा लहदि अजिग-सुधम्मसारं । ताए च णाणमदि-णाम-विभूसदे ही णं णाण-मग्ग-सुपहे च पदीव-राजे ॥ ६४ ॥ [६५ ] णामा च णाणमदि-णाण-पगासणत्थं गच्छेदि चंदण-सुगंध-दिसा-दिगंते । णाणे विहीण णयदे रहवीर-धम्म ____णाणं च जोइ-णय-तुल्ल-ममत्त-णासी ॥६५॥ [६६] णाणं जलं उदहि पूरण-हेदु-णाणं णाएज्ज णाणमदि-णाण-रहं च णिच्च । जा हथिणाउर-सु-भूमि-सुवीरजादी ____ता अज्ज अस्थि सयला वि सुणाण-पूदा ।। ६६ ।। [६७ ] ताए च जोइ-वयणेण पगास-सीला जा णाण-जोइ-लहिउं सददं पउत्ता । सत्ताचू-भंग-णय-दव्व-पयत्थ-तस्थ जाणण्ण-माणण-मणं चरदे सदा ही ॥ ६७ ॥ [६८] सम्मं च सण-जगे सुलहो ण जादे सम्मं च मोक्ख-पढमो पहु-धम्म-मग्गो। चारित्त-णाण-सयलं रयणं च लोए बीअं सरूव-जग-रुक्खय-मूल-मण्णे ॥ ६८ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३१७ [६९ ] तं धारणं परम-रम्म-पहं च जाणं सम्मं च एव पुरिसत्थ-विसाल-ठाणं । जोई-सरूव-परमं पद-दाण-जोग्गं णाणं जगे अखय-सुद्ध-पबुद्ध दाणं ॥ ६९ ।। [७० ] सम्मं विणा परिभमेदि जणो हि लोए णतं च काल-सय-दुक्ख-अणाण-णाणे । णाणं विणा चरिद-भाव-पवित्त-हीणो चारित्त-चार-भव-भार-पवणं णो ॥ ७० ॥ [७१ ] कल्लाण-सव्व-अदुलो सुह-सस्स-बीओ संसार-सायर-तरं तरणी-समाणं । पावस्स रुक्ख-हणणे तं कुढार-रूवं णाणं च णाणमदि-णायग-जाण-तुल्लं ॥ ७१ ॥ [७२ ] जाए च जीव-रयणत्तय-धम्म-धारी ___पण्णा-पहाण-उदहिं अवगाहणाणं । णाणाइ-जोग-गुण-णेय-पजोगणाणं दे दाण-णाणमदि-णाण-सुणाण-झाणं ॥ ७२ ।। [७३ ] जे वी जणा भमण-सील-अवार-लोए ते भत्त णाण थह-जुत्त पमत्त-मुत्ता । जाएदि लोग-सिहरे सुह-णाण-झाणे पासाण-कंचण-जधा मलमुत्त-जादे ॥ ७३ ॥ [७४ ] मे णाण-णाणमदि-सम्म-फलादु हेडं दंसेण णाणफल सम्म-चरित्त-धम्मं । वित्तेण वड्ढदि भवं रदि-भाव-दोसं चारित्त-चारु-रमणेण च मुत्ति-कम्मं ॥ ७४ ॥ [७५ ] तच्चेपा बोह-मणरोध-सुजोग-भावो अप्पेण अप्पहिद-सुद्ध-समत्त-भावो । रागेण दोस-रहिदेण च सोह-मुत्तो मोहेण मारदि मणं चरदे सुणाणं ॥ ७५ ॥ [७६ ] संती-वएण अणुरूव-सु-सोम्म-भावे णाएण तच्च-णय-संत-महंत-णाणं । वेसिट्ठ-भद्दहिदबोह-णिगूढ-सत्थं सिद्धंत-सार-अहिहार-भजंत-विजं ॥ ७६ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [७७ ] सा सक्कयं सरदि राजदि साहु-वग्गे सा अजिगा भवदि सोहदि पुण्ण तम्हे । सूरी-पसाद-गुण-भार-सददं सरेंति जाएदि सक्कय-सु-भासण-भास-दीवं ॥ ७७ ॥ [७८ ] मोहंध-अंध-हणणं मुणणं च सत्थं संमग्ग-दसणि-सुदीव-पगास-रूवं । दोसाण दोस-गुण-धम्म-धरत-णिच्चं । तच्चं परिणय-सुबोहण-सम्म-णाणं ॥ ७८ ।। [७९ ] पल्हादिणिं वयण-सम्म-गुरूण झाणं सज्झाय-जुत्त-सयलं गुण-सिद्धि-हेदूं । सज्झायवड्डण-सया चलदे मुणि-धम्म-पुव्वं अज्झावएदि जिण-आगम-सस्थ-णिच्वं ॥ ७९ ॥ [८०] अज्झावणं च मुणणं तुह णिच्च-कम्म अज्झावणादु रचिदा णव-बाल-बोहं । धम्मस्स सार-अहिचार-पसार-हेदूं आयोजणं कुणदि सिक्खण-कम्म-णिच्च ।। ८०॥ [८१ ] जा अप्प-अप्प-किव-भाव-दयाणुरत्ता सच्चं वए अणुरदा सद-सच्च-जुत्ता । बम्हे चरंत-णिय-अप्प-विसुद्ध-सीला बम्हं च णाणमदि-णाण-सु-आद-णाणं ।। ८१ ॥ [८२] णाणेण धीर-तव-दंसण-संजमेणं णाणं च वड्ढदि सया चरदे च धम्मे । कम्मिंधणं च दहणे तवदे तवाणं चारित्त-णिम्मल-पदे चरदे पउत्ता ॥ ८२ ॥ [८३ ] अज्झप्प-तच्च-गहणं-अणुपेह-पुव्वं सम्मत्त-दसण-सुणाण-सुवीर-जुत्तं । झाणे रमेदि सुहुमं अवगाहणत्तं अठवाइबाह अगुरुत्तलहुत्त-सिद्धं ॥ ८३ ॥ [८४ ] सा सक्कयं व्व सइ-पाइय-पाइजुत्तं सव्वाण गंथ-गण-आगम-सत्थ-णाणं । भासा तु पाइय-सुकोमल-कंत-जुत्तं साहारणं जण-जणं इम-पाइ-भासा ॥ ८४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३१९ [८५ ] भासाइ-पाइय-जुदा सयला च गंथा सिद्धत-आगम-गणिज-विसाल-गंथा । जेहिं च भासिद-वयं सम-अत्थ-पुण्णं परेदि णाणमदि-णाण-विसुद्धणत्थं ॥ ८५ ॥ [८६ ] एगम्हि वासचदु-वास-सुतंत-काले झाएदि बाहुबलि-पाद-समत्त-भावे । मोणं च झाण-धर-पव्वद-सिंखले च बिंझेगिरी-पणदहं रमदे सुझाणे ॥ ८६ ॥ [८७ ] तं झाण-काल-समए अवलोयदे सा जोईइ जोइअ-अकित्तिम-चेत्त-ठाणं । गंगा-सुमेरु-गिरि-सिंधु-विदेह-खेत्तं सुंदरे-जुरु-अणुवोवमणुण्ण-सीलं ॥ ८७ ॥ [८८] तं धम्म-झाण-परिपुण्ण-पसंत-जादे पासेदि णिच्च करणंअणुजोग-गंथं । अज्झे रदे च परिकप्पदि ताण दिस्सं वासस्स वास-परिवास-विसाल-जादे ॥ ८८ ॥ [८९ ] संकप्प-भूद-जण-माणस-णाण-विणं सागार-रूव-परि-भासिद-भास-भासं । तं दाहिणं पवर-झाण-सुणाण-पण्णा भागे च उत्तर-पधे रमणिज्ज-भूदा ॥ ८९ : [९० ] गंदीसरस्स रयणं रइदूण झत्ती जंबू-सुदीव-रयणादु जणाण भत्ती । णं हथिणाउर-सुभाग-पुराण-गाहं अक्खुण्ण-हेदु-परिकप्पिद-जंबुदीवं ॥ ९० ॥ [९१ ] सत्थं धुणीद-विणएण सु-संत-भावे सदसणं मणण-चिंतण-बोहणत्थं । अटुंग-सम्म-गुणधार-समत्त-जुत्ता आरोग्ग-बुद्धि-विणयोज्जम-सस्थ-सिद्धिं ॥ ९१ ॥ [९२ ] आयार-पूद-सम-आइरियाण झाणं सा पोत्थ अंणिय-णिवास-सहाय-भोज। आराहणं पढण-पाढण-सम्म-बुद्धिं धारेदि तप्पदि तवं सुह-सम्म-भावं ॥ ९२ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [ ९३ ] तुझं च णाण-किरणस्स विसाल-जोई __णो केवलं तुह समीव-विराजदे सा । संपुण्ण-खेत्त-भरहे तुह णाण-धारा गंगा समा गहिर-णिम्मल-संत-सच्छं ॥ ९३ ।। [९४ ] सज्झाय-वायण-सुपुच्छण-अम्णयाए धम्मोवएस-अणुपेह-सु-भावणाए । साहाणुभूदि-रद-अप्प-समत्त-णाणे अप्पाण-कम्म-हियए धरणे च गच्छे ॥ ९४ ।। [९५ ] अण्णाण-संसरय-कारण-भूद-लोए संसार-णाद-पुरिसो इध लोय-मण्णे । अंधस्स अंध-हणणं जध भासणेणं संसार-वित्ति ण तधा पगडेण णाणे ॥ ९५ ।। [९६ ] लोए च जं कढिण-कट्ठ-पहाण-सत्थं अट्ठस्सहस्सि-गहिरं जिण-दसणस्थं । णिव्बद्ध सक्कय-विहाइ-समास-जुत्तं हिंदीइ-धण्ण करिदूण परोप्पयारं ॥ ९६ ॥ [९७ ] अण्णे तिलोय-उवगार-विसाल-गंथं बालं णरं णियम-जोग्ग-सुबोह णत्थं । णारीण सिक्ख-परिपुण्ण-कधाइ-कण्वं पूया-विहाण-जिण-थोद-सुणाडगाणिं॥९७॥ [९८] भत्तीइ भाव-रस-जुत्त-अणेग-गंथं णो केवलं सरस-हिंदि-सुरट्ठ-भासे । अंगेरजी सरल-सक्कय-भास-भासे राजेदि णाणमदि-णाण-समग्ग-भावे ॥ ९८ ॥ [९९ ] तुम्हे वसेदि च सरस्सइ सोम्म-मुत्ती राजेदि णिच्च वर-आगम-सस्थ-सिंधुं । तुज्झेण चंदण-सदी वर-चंदणा तु सिस्सादु सिस्स-रचणे अदि-धीर-धारी ।। ९९ ।। [१००] सीलं पहाण-गुण-जुत्त-समत्त-धारी मुत्ती-पहे च चलमाण-सुसील-भूदा । तुझं जसो च सम-भाव-पहाण-जुत्ता अम्हे रमेदु भुवणेक्क-समत्त सत्ती ॥ १०० ॥ [१०१ ] उदयचंदो च मंदो,बुद्धि-विहीण-णाणगुणे च लीणो । पाइयभास-णिबद्धं, णाणमदी-अज्जिगा चरियं ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२१ ज्ञानमति का ज्ञान - डॉ० उदयचन्द जैन [१] तीनों लोकों के समस्त विषयों को, तीनों लोक को हस्तांगुली की त्रय रेखा को स्वयं देखने वाले, राग, दोष, भय, मोह से विमुक्त आत्मा वाले देवाधिदेव अरहंत को मैं सदैव प्रणाम करता हूँ। [२] लोक को प्रकाशित करने वाले अरहंत, महान् सिद्धि को प्रदान करने वाले, सिद्ध, आचार (पंचाचार) से पवित्र एवं ज्योत्स्ना स्वरूप समस्त आचार्य, अध्यापक पद पर स्थित सुपाठक (उपाध्याय) और सभी श्रम साध्य (ज्ञान, ध्यान , तप आदि से युक्त) ज्ञानयुक्त साधुओं के लिए मैं नमन करता हैं। [ ३] ज्ञान-गुण-शक्ति एवं समत्व भाव से नाना गुणों से महनीय विशुद्धता से युक्त वे (ज्ञानमतीजी) भक्ति प्रभाव के रस से युक्त शुद्ध दृष्टि वाली ब्राह्मी और सुन्दरी के गुणों में सदा रत रहती हैं। [ ४ ] वह पृथिवी धन्य है, समस्त नर-नारी भी धन्य हैं, उनसे हम सब भी धन्य हैं, क्योंकि यह पृथिवी धन-धान्य से परिपूर्ण, धन्य है, धन्य है अति धान्य शील भी है। वे मनुष्य भी धन्य हैं, माता ज्ञानमति तो धन्य हैं ही। वह अमृत से परिपूर्ण दिन अति पुण्यशाली है, उसके निर्झर में वह पुण्यशाली और पवित्र (परिवारजन) आनन्द करते हैं। शरदऋतु की पूर्णमासी अति पुण्यशाली है, जो शरदपूर्णिमा जैसे निर्मल सुज्ञानधारी को जन्म देती है। [६] शरद-पूर्णिमा की रात्रि वह चन्द्र भी पूर्ण कान्ति से सोम्य है, जिसमें समस्त लता भाग का समूह परिवेष्ठित है, उसकी छोटी से छोटी किरणे प्रमोद को प्राप्त अच्छे गुणों से युक्त बालिका क्या लोक में शोभा को प्राप्त नहीं होती है? अर्थात् अवश्य होती है। [७] जहाँ पर प्रशान्त, सभी के लिए प्रिय उद्यान हैं, नारी विनय से विनीता है, प्रबुद्धशीला है तथा जहाँ की भूमि गम्भीर, धीर, क्षमा युक्त एवं विस्तार युक्त एवं स्वाभाविक गुण की महनीयता से अतिशयता को प्राप्त है। [८] ऊँचाई से गिरि के समान सुशोभित हो रही है, मानों अपने ऐश्वर्य के गुणों से इन्द्र की महनीयता से तुलना कर रही है। जिसके सौन्दर्य रूप में ममत्व एवं समत्व का वास है तथा वृद्धि से जो अतिवृद्धिशाली एवं सम्यक् वृद्धि को धारण करने वाली जहाँ की भूमि है। [१] ऐसे उस धन-धान्य से युक्त श्रेष्ठ टिकैतनगर में उदारवृत्ति वाला धनकुमार धन से सुशोभित होता है, जो धर्म से आए हुए धन की वृद्धि करता है तथा जो धीरता, उदारता एवं विनय से सद्धर्म में युक्त है। [१०] धनकुमार अपने पिता की उदार संतान है। धन-धान्य की लालिमा जिसके पास है, वह चन्द्रमा की उज्ज्वलता के साथ बन्धुजनों का लाला/प्रिय है। छोटेलाल का वह लाल कीर्ति से प्रशंसनीय है। जग में जो लाला (अच्छा) होता है, वह पूर्ण पुण्य से ही लाला होता है। [११ ] जिसकी देवी मोहिनी थी, अत्यन्त प्रिय थी, लाली से युक्त थी, वह लाडली बहू उसके पुत्र की लाली थी, जो धर्म में भी लाली/प्रशंसनीय थी। जो लाड/प्रियभाव से रुचिर भाव को धारण करती है, मोहित करती है। तथा जिसने मोह से अपनी गोदी को धन्य एवं प्रिय किया है। [१२] वह मोहिनी न केवल अपने प्रिय के साथ विचरण करती हुई उनको मोहित करती है, अपितु वह समीप में स्थित जनों और अपने आत्मीय जनों, सास, श्वसुर, ननद, बुआ आदि को अपनी नम्रता से जीत लेती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [ १३ ] वह मोहिनी अतिपुण्यशाली है वह जिस लाली को उत्पन्न करती है, वह कुटुम्ब जनों एवं बन्धुजनों का विकाश करने वाली, धर्म में रत, श्रमण धर्मपरायणा होती है, लाली होते हुए भी पति के गृह के गृहिणी पद की अधिकारिणी अपने स्नेह की लाली फैला देती है। _ [१४] लक्ष्मी की तरह प्रिय यह मोहिनी लक्ष्मीजुत्त/धन-धान्य की वृद्धि का कारण बनती है। शरीर के सौन्दर्य एवं गुणों से कमनीय एवं प्रिय लोक के आनन्द करने में बाल शशि की तरह है, वह शरद ऋतु की पूर्णमासी को एक सुन्दर बालिका को जन्म देती है। [१५ ] वह शरदकाल में जन्म लेने वाली बालिका बालपने से चन्द्रमा की शुभ्र किरणों की शोभा से जनों को आनन्द प्रदान करती है। मानों शास्त्र/सिद्धान्त रूपी ज्ञान के गुण से विभूषित कोई चंद्रिका ही हो। वह सरस्वती की मूर्ति अभिनंदनीय है। [१६] क्या? सम्पूर्ण शास्त्र में कुशल जनों की दृष्टि शरद की चन्द्र कला पर नहीं जाती है? अर्थात् अवश्य जाती है। उसके स्वाभाविक गुण, कीर्ति, सुज्ञान उन्नत ललाट की रेखाएँ निश्चित ही आनन्द को प्रदान करती हैं। [ १७ ] एक से एक सभी नर-नारी, छोटे-बड़े उसके मुख-मण्डल एवं सभी अंगो को देखकर कह उठते हैं कि यह बालिका सुन्दर, मनोज्ञ और मनोहरता को प्राप्त श्रेयस्करा होगी, जो मेवों से और वाणी से मैना है। [१८] वह सभी को आनन्द प्रदान करने वाली, जन जन से प्रशंसनीय बाला बाल होते हुए (बाल बल) अज्ञानता से रहित है एवं प्रवीण है, भक्तियुक्त है। वह क्या महनीय भाव से युक्त निरन्तर लब्ध गुणों में प्रवृत्त फल को नहीं प्रदान करेगी? अर्थात् अवश्य करेगी। [१९] धन्य हैं माता-पिता, धन्य हैं टिकैतनगरवासी, धन्य है, भूमि, और धन्य हैं उत्तर प्रदेशवासी। धन्य है सुकन्या को जन्म देने वाली मोहिनी, वह पीहर भी धन्य है, अतिपुण्य एवं प्रकाशशील है। [२०] जिस तरह वह मोहिनी बहू सम्यक् धर्म को धारण करने वाली है, वह बाला भी उसी तरह की है, माता-पिता को प्यारी है। उसकी दादी सदा ही शशि सादृश बालिका को देखती है यह बालिका सचमुच ही महान् पुण्य के प्रभाव को धारण करने वाली है। [२१ ] बाल सुलभ क्रीड़ा से युक्त लीला पूर्ण गमन करने वाली मनोज्ञ बालिका को सुखानुभूति से युक्त नाना सुखपाल अपने घर में उसको देखकर अपनी प्रिय मोहिनी बालिका से कहते हैं। [२२] हे मोहिनी ! तूने अत्यन्त प्रिय गुणयुक्त कमनीय बालिका को प्राप्त किया है। जैसे पूर्व दिशा के प्रभाव से सूर्य की शोभा होती है, उसी तरह वह बालिका है, जो शोभा को प्राप्त कर रही है, यह सबके लिए किलकारियों से मनोज्ञ बनी हुई है, इसलिए यह मैना है अर्थात् उसके नाना ने उसका नाम मैना रख दिया। [२३] माता की माता उसकी बाल सुलभ प्रिय लीलाओं को जैसे जैसे देखती है, वैसे वैसे वह बालिका आनन्द को प्रदान करती है। हास्य स्वभाव की दीप्ति से मैना सदृश ही वह मैना प्रतिभाषित होती है जैसे गगन/आकाश में चांदनी की तरह घर के आंगन में ज्योत्सना स्वरूप मैना सभी का मन मोहती है। [२४ ] वह मैना बुद्धिशाली, विनीता, मदहीन एवं सुशीला है, सौन्दर्य के लक्षण के गुणों से स्वयं को विभूषित करती है। मानों वह अपने आपकी और अपने कुल की शोभा का कारण बनी हो। वह माता के घर-आंगन और ननिहाल के विशाल क्षेत्र को भी सुशोभित करती है। [२५] इस बाल चन्द्रमा की चन्द्रिका में बालपना देखते ही बनता है। उसकी दृष्टि शास्त्रियों के संपूर्ण शास्त्रों को ग्रहण करने के लिए एवं तत्त्व प्रवीणों की गुरुता ग्रहण कर नित्य ही शास्त्र के आंगन में क्रीड़ा करने भी इच्छा प्रकट करती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२३ [२६] उसके कामताप्रसाद और पं० जमुनालालजी शास्त्री उस समय के ज्ञानी गुरु थे। उनके चरण युगल में रहकर मैना अपने हित, स्व-पर भेद-विज्ञान-भाव को समझती है और सदैव आत्म स्वरूप का चिन्तन करती रहती है। [२७] अल्प अवस्था में ही प्रखर, ज्ञान स्वरूप को जानने वाली साक्षात् सरस्वती के घर में प्रतिमूर्ति मैना को वे शास्त्री महोदय अति प्रशंसनीय मानते हैं, जो मैना तत्त्वज्ञान करने में भी प्रवीण है। [२८] जब वह बालिका आठ वर्ष की होती है तब वह मिथ्यात्व मान्यताओं के खण्डन में प्रवृत्त हो जाती है। वह मैना सदा ही मन से चिंतनशीला रूप से शील-स्वभावी शास्त्र में कथित तत्त्वों के वचन में सदैव ध्यान लगाती है। [२९ ] शील से भूषित व्रत को और व्रत को विद्याबंत बनाती है, विद्या में रमण करती हुई मैना गुणों की/आत्म गुणों की महानता को प्राप्त हो जाती है। जैसे लोक में मणि प्रशंसनीय होती है, उसी तरह महनीय विद्या भी सुन्दर श्रेष्ठ है, कल्याण प्रदान करने वाली है, प्रभावक एवं गुण युक्त विद्या है। [३०] यदि वह गुणयुक्त विद्या विनय तथा यश से युक्त होती है तो उस विद्या को प्राप्त कर लोग प्रशंसनीय होते हैं। यदि उस विद्या को नारी धारण करती है, तो वह सम्यक् गुण को धारण करनेवाली प्रभावशील होती है। इसलिए समभाव युक्त विद्या को धारण करने वाली मैना किस किस स्वरूप को प्राप्त नहीं होती है अर्थात् कई प्रकार के रूपों को प्राप्त होती है। [३१] सूर्य के तेज से पृथिवी और कमलरासी जैसे विकास को प्राप्त होती है। वैसे ही रात्रि में चन्द्रमा की किरणें (चांदनी) आकाश की शोभा बढ़ाती हैं। पुत्र को छोड़कर जननी शोभा को प्राप्त नहीं है, लोक में प्रचलित यह प्रसिद्ध सूक्ति ठीक नहीं है (क्योंकि पुत्री से भी मां का गौरव बढ़ता है) [३२] शुभ लक्षण वाली पुत्री भी अपने परिवार का भूषण है। क्या चन्दना जैसी महासति ने कुल के भूषण को प्राप्त नहीं किया? क्या ब्राह्मी, सुन्दरी और सुलोचना कुल की भूषण नहीं थीं। मानव जन इतिहास के शास्त्रों से इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। [३३] पुत्री तो राजीमति (राजुल) भी है, जो आत्मा के प्रकाश हेतु निर्जन वन की ओर चल पड़ती है और अपने आत्मा के ध्यान में रत हो जाती है। अन्य कई सतियाँ, महासतियाँ श्रमण मार्ग पर चलनेवाली हैं, इस संसार में सभी क्या यह नहीं जानते हैं? [३४] मैना मन से गृह कर्म में और गृहस्थ धर्म में लीन नहीं होती है और न ही संसार के असार कर्मों में उसकी प्रवृत्ति होती है। वह तो सदैव आत्म-गुण का, एवं शास्त्र प्रणीत पुराण कर्म का तथा मिथ्यात्व मान्यता के पोषक शास्त्र के विपरीत कर्म के खण्डन हेतु ध्यान करती है। [३५] सभी लोग, माता, दादी एवं भाई आदि उसके हास-परिहास प्रकृति से मुक्त एवं समत्व की ओर उन्मुख तथा ध्यान युक्त उस बालिका को देखकर नाना प्रकार के विकल्पों से युक्त मनुष्य हो जाते हैं। [३६] मैना की कीर्ति परिवार के समस्त भाग में, प्रान्तों में, नगरों में एवं राज्यों में फैल जाती है। मानों स्वाद युक्त सुन्दर फल एवं सुमनों की सुगनध क्रीडावन/उपवन से सम्पूर्ण भाग एवं जन जन में फैल जाती है। [३७ ] वह निर्मल स्वभाव वाली मैना मुनि चरणों में एवं ब्रह्मचर्य को धारण करने में प्रवृत्त हो जाती है। तत्त्व के समग्र स्वरूप का आलोडन के लिए शास्त्र के गुण एवं आगम के सार का ध्यान करती है। तथा संसार सागर से पार होने के लिए मुनिमार्ग के धर्म में मन लगाती है। [३८] वह धर्मशीला समस्त संत दर्शन से आर्यिका पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए अपने आप में आर्यिका भाव को उत्पन्न करती है। देश के भूषण, उपदेश की शोभा को प्राप्त, राष्ट्र संत आ० देशभूषण के चरणों में अपनी आत्म-श्रद्धा को प्रगट करती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] [ ३९ ] ध्यान से युक्त, मन से सोम्य, समत्व को धारण करने वाली वह मैना रात्रि में एक स्वप्न को देखती है कि मैं स्वयं श्वेत वस्त्र को धारण कर पूर्ण चन्द्रमा की किरणों के साथ जिनेन्द्र की भक्ति को निरन्तर कर रही हूँ । आनन्द के गुण से पूर्ण स्वभाव से शान्त वह मैना अपने भाई मानों वह संसार के पाप-पुण्य का ही नाश करना चाहती है। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [ ४० ] कैलाशचन्द के सामने रात्रि में देखे गए सम्पूर्ण श्रेयस्कर स्वप्न का कथन करती है। [ ४१ ] मैना का प्रथम सम्यक् चरण ब्रह्म में रत होता है। उस ब्रह्मचर्य व्रत को वह जीवन पर्यन्त धारण करती हैं। मुनिपथ पर प्रवृत्त समत्व धर्म की ओर बढ़ती है। उन व्रतों के कारण वह सोम्य होती है। [ ४२ ] वह आचार्य के चरणों की शरण में चैत्र कृष्ण की एकम के शुभ दिन में क्षुल्लिका के पद को प्राप्त करती है न केवल वह मनन- चिन्तन के भाव से युक्त होती है, अपितु वह सदैव शास्त्र के सार के अन्वेषण में विचरण करती/ तल्लीन होती है। उसका वीरमति नाम ज्ञान में अत्यधिक वीर होने पर रखा गया। रखत हुए ब्रह्म / आत्म स्वरूप में एवं सिद्धान्त रूपी सागर के रस से यह आचार्य देशभूषण की शिष्या सम्यक् ध्यान में एवं पूर्ण रूप का अध्ययन करती है और निरन्तर ही अपने संघ में शास्त्रों का [ ४३ ] वह ब्रह्ममती के संघ में क्षुल्लिका होकर ध्यान एवं अध्ययन के क्रम को जारी में अच्छी तरह निमग्न होती है। [ ४४ ] जिनमार्ग के स्थान में स्थित होती है आगम, पुराण कथा एवं महाकाव्यों आदि अभ्यास कराती है।' [ ४५ ] जो निर्दोष मार्ग में गमन प्रयत्नशील है, अन्य को भी निःपृह स्वभाव से युक्त करता है, वह स्वयं और दूसरों के लिए धर्म रूपी श्रेष्ठमार्ग का यान है, जो पार ले जाता है। वही ज्ञान, दर्शन और चारित्र का धारक हमारा गुरु है । [ ४६ ] 1 मूलोत्तर गुण से युक्त, बावीस परिषहों को सहन करने वाले समस्त निर्मन्य साधु हितकारक है वे इस भूमिभाग पर सिंह के समान विचरण करते हैं। वे साधु सम्यक् पथ को प्रदान करने वाले समुद्र की तरह भी है। [ ४७ ] जो ज्ञान, दर्शन प्रधान चारित्र के स्वामी हैं, चारित्र से शुद्ध, रत्नत्रय से पवित्र साधु हैं। आगम प्रणीत तत्त्वधर्म से युक्त सम्यक् पथ के गामी हैं। वे आराधना के समय मुझे शान्ति प्रदान करते हैं। [ ४८ ] शत्रु और मित्र के प्रति समभाव, सशान्ति और शील को धारण वाले, निन्दा करने वालों के प्रति नम्र गुण से युक्त, अपने में समत्व को धारण करने वाले, सुख-दुःख, जीवन-मरण, तृण-रत्न, धन-धान्य आदि में समभाव देखने वाले गुरुओं के प्रति श्रद्धा है। [ ४९ ] लोक में सिंह की तरह कठोर श्रमणधर्म को पालने वाले, आकाश में दीप्ति युक्त सूर्य की तरह चमकने वाले, सागर के समान गंभीर और धैर्य को धारण करने वाले तथा चंद्र किरणों की शीतलता से सोम्यभाव को धारण करने वाले मुनीश्वरों के प्रति श्रद्धा है। Jain Educationa International [५० ] विद्या के सागर से पारगामी, उदारवृत्ति वाले पाप रूपी विष से मुक्त ध्यान के समरन्त मार्ग वाले स्वयं लोक में तीर्थ, सम्यक् उपदेश और चारित्र की पवित्रता के कारण श्रेष्ठ वे साधु हमारे सम्यक् गुणों के नायक हैं। [ ५९ ] श्रमणधर्म में रत, शान्त स्वभाव को धारण करने वाली, श्रेष्ठ बुद्धिवाली वह वीरमति शान्ति के सागर शान्तिसागर के पथ पर चलने वाली है, वह महावीर पथ का सदैव चिन्तन करती है। [ ५२ ] वह वीर-वीरा / वीर पथ पर चलने वाली एक गाँव से दूसरे गाँव में विचरण करती हुई निर्विघ्न पूर्वक ज्ञान-विज्ञान के पथ का वीरता पूर्वक ज्ञान से वीर बनाने का प्रयत्न करती है, वीर से वीर, अतिवीर करती हुई वह वीरा / वीरमति माता ज्ञान में वीर, चारित्र में वीर एवं बुद्धि में भी वीर होती है। For Personal and Private Use Only . Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२५ [५३ ] विशाल बुद्धि को प्राप्त आचार्य प्रवर के देखने के लिए/दर्शन के लिए वह वीरमती कुंथलगिरि जाती है, उनकी संलेखना के समय में विनम्र भाव से संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए उनके सम्मुख निवेदन करती है। [५४ ] वह अत्यन्त वीरा/वीरमती नम्र एवं सरल भाव से संसार से पार होने के लिए साम्यभाव को धारण कर सम्यधर्म के मार्ग पर प्रवर्तन हेतु सुधर्म के श्रेष्ठ आर्यिका पद के हेतु श्री वीरसागर गुरु से आत्म-ध्यान की आज्ञा चाहती है। [५५ ] चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर हैं, उनके श्रेष्ठ पद के अधिकारी प्रथम पट्टाधीश वीरसागर हैं। जो स्वयं शान्तिसागर के पथ पर उनके पद चिह्नों पर चलने वाले और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं। [५६] वह विराग से पूर्ण वीरमति क्षुल्लिका लक्ष्य की सिद्धि के निमित्त दीक्षा के शुभ दिन से मानों उन्नत, चंचल लहरों वाले ज्ञान गुण रूपी गौरव समुद्र में प्रविष्ट करती हुई गंभीर भाव को धारण कर रही हो। [५७ ] ज्ञान रूपी समुद्र में अत्यन्त धीर सम्यक् पथ का आश्रय पाने वाले ही प्रविष्ठ होने में समर्थ हो सकते हैं। जन्म से लेकर समस्त अज्ञान रूपी कलंक युक्त, समत्व धर्म से विहीन क्या हमारे जैसे व्यक्ति आपके ज्ञान समुद्र को पार करने में समर्थ हैं ! शान्ति से युक्त श्रमण के चरणों में विचरण करने वालों का वह पथ निष्कलंक, रमणीय एवं अत्यन्त प्रशंसनीय हो जाता है तथा निश्चय ही वही धर्म रूपी शस्त्र का आश्रय लेकर संसार सागर से पार होने में समर्थ होता है। इसलिए उनके धर्मपथ के निमित्त रत्नत्रय का ध्यान करती हूँ। [५९ ] वात्सल्य स्वभाव की प्रभावना का संचालन करने वाले तुम्हारे शान्त स्वरूप विशाल/विशिष्ट/पवित्र जल में स्नान करती हूँ। आपके यान में बैठकर मनुष्य संसार पार हो जाते हैं। और असार से मुक्त, प्रमाद से रहित वे व्यक्ति सार को प्राप्त कर लेते हैं। [६०] आपके चरणों में एवं आपके धर्म मार्ग में भक्ति है, शक्ति भी है। लोक/संसार में समत्व धर्म कृत-कृत्य करने वाला है। वह निर्दोष है, अन्धकार को नष्ट करनेवाला और प्रशंसनीय है। आपके अमृत रस धार के समागम से शान्ति है। [६१] हे जगनाथ ! तुम ही तीर्थ के, समग्रबोध को प्रदान करने वाले हो ! हे जगदीप ! आप दीव के सदृश हो, श्रमणधर्म के प्रदीप हो। आप दीप्ति से रहित हम मनुष्यों को प्रदीप्त करते हैं। अतः आप कल्याणमार्ग का सम्यक् धर्म मुझे प्रदान करें। [६२ ] जो वीरमति वीर के पथ में धैर्यपूर्वक विचरण करने वाली है, वह वीरसागर/आचार्य वीरसागर मुनि से सम्यक् मार्ग पर चलने के लिए निवेदन करती है। वह सम्यक् रथ पर आरूढ़ श्रेष्ठ धर्म के रस में निमग्न आर्यिका पद की दीक्षा/श्रमण दीक्षा मुझे प्रदान करें। [६३ ] हे ! ज्ञान दर्शन गुण के दर्शन करने वाली ! हे वीर पंथ की सुनगामिनी वीरमति ! आपके वचनों में सत्य है, मधुर और सत्य को धारण करने की शक्ति है। आपके हृदय में जो भावना है, मेरा उसमें कोई विरोध नहीं है। [६४ ] वह क्षुल्लिका वैशाख कृष्ण द्वितीया के शुभ दिन में श्रेष्ठ धर्म के सारभूत आर्यिका पद को प्राप्त होती है। उस समय उनको ज्ञानमति नाम से अलंकृत किया जाता है। मानों ज्ञान मार्ग के सम्यक् पथ में प्रदीप जला दिये गये हों। [६५ ] वह ज्ञानमति माता नाम से ज्ञान के प्रकश का चन्दन की सुगन्ध की तरह प्रत्येक दिशा में फैलाती जाती है। ज्ञान से विहीन जनों को वीरधर्म के रथ की ओर ले जाती है। क्योंकि ज्ञान की ज्योति नभ की समानता से ममत्व को नाश करने वाली है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६६] ज्ञान रूपी जल वाले समुद्र की पूर्ति हेतु ज्ञान को ज्ञानमती माता ज्ञानरथ के रूप में ले जाती हैं। जो हस्तिनापुर की भूमि वीरों को जन्म देने वाली थी, वही भूमि आज पूर्ण रूप से सम्यक् ज्ञान से पवित्र हो रही है। [६७ ] उन माताजी के ज्योतिर्मय वचनों से (वह भूमि) प्रकाशशील है और जो भूमि ज्ञान रूपी ज्योति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है वहां पर सप्त भंग, मय, द्रव्य, पदार्थ को जानने एवं मनन करने में मन सदैव लगा रहता है। [६८] सम्यक् दर्शन मोक्ष का प्रथम श्रेष्ठ धर्ममार्ग है। ज्ञान और चारित्र से पूर्ण सम्यक्दर्शन लोक में रत्न तुल्य है। इसको बीज स्वरूप, जगत् के वृक्ष की मूल/जड़/आधारस्वरूप माना गया है। ऐसा सम्यक्दर्शन लोक में सुलभ नहीं है। [६९ ] उसका धारण करना परम रम्य पथ का बोध करना है। क्योंकि सम्यक्दर्शन पुरुष का प्रयोजन भूतमहत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्योतिस्वरूप परम पद के दान देने में समर्थ तथा संसार में अक्षय, शुद्ध एवं प्रबुद्ध दान स्वरूप ज्ञान है। [७०] संसार में मनुष्य निश्चय ही सम्यक्दर्शन के बिना परिभ्रमण करता है, अनन्त समय तक अज्ञान में ही ज्ञान मानने पर हजारों दुःख को प्राप्त करता है। वह ज्ञान के बिना चारित्र, पवित्र भाव से हीन होता है। चारित्र के आचरण करने से संसार का भार बढ़ता नहीं है। [७१ ] ज्ञान सभी के लिए कल्याणकारक है, सुख को प्रदान करने वाला धान्य का बीज है, संसार सागर से पार होने के लिए तरणी के समान है। पाप रूपी वृक्ष के नाश करने के लिए कुठार/कुल्हाड़ी के सदृश है। ज्ञानमती का ज्ञान जहाज में नाविक की तरह है (जो सबको पार लगाने वाला है)। [७२ ] योग एवं गुण से गाय धर्म धारण कराने का जिन ज्ञानमतीजी का ज्ञान जीव को रत्नत्रय धर्म धारण कराने वाला है, जिसके अवगाहन से प्रज्ञा की प्रधानता वाले समुद्र को पार किया जाता है, ज्ञान आदि के योग एवं गुण से ज्ञेय के प्रयोजन सिद्ध होते हैं। उन ज्ञानमती माताजी का ज्ञान एवं ध्यान हमें सम्यक्ज्ञान प्रदान करें। [७३ ] जो लोग अपार संसार में भटक रहे हैं, वे भक्त ज्ञानमतीजी के ज्ञानमार्ग से मुक्त होकर प्रमाद से मुक्त हो जाते हैं। शुभ ज्ञान के ध्यान करने से लोक के शिखर पर पहुँचा जा सकता है। जिस तरह स्वर्ण मल और पाषाण से मुक्त हो जाता है। [७४ ] ज्ञानमती का ज्ञान हमारे सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण हो। उनके दर्शन से ज्ञान प्राप्ति एवं सम्यक् चरित्र धर्म बढ़ता है। सामान्य धन से संसार, रति भाव और दोष को बल मिलता है, किन्तु चारित्र के सम्यक् आचरण से मुक्त का पुरुषार्थ बढ़ता है। _ [७५ ] तत्त्व से बोध होता है, सुयोग्य भाव एवं मन का निग्रह होता है। आत्म-ज्ञान से आत्म-हित, शुद्ध भाव एवं समत्व भाव उत्पन्न होता है। राग, दोष से रहित एवं क्षोभ से मुक्त व्यक्ति मोह से मन को मारता है और सम्यक्ज्ञान का आचरण करता है। [७६ ] शान्ति वचन से, अनरूप सम्यक् सौम्य प्रकृति से एवं न्याय से/ विवेक से तत्त्व, ज्ञान, नय दृष्टि, शान्त स्वभाव एवं ज्ञान की महनीयता प्राप्त होती है। वैशिष्टता के साथ भद्र परिणाम, हितकारी बोध, शास्त्र के रहस्य का ज्ञान होता है। सिद्धान्त से सार, उसके रहस्य को समझते हुए विद्या/ज्ञान को प्राप्त होता है। [७७] वे ज्ञानमती संस्कृत का अध्ययन करती, जिससे वे साधुवर्ग में प्रतिष्ठा को प्राप्त होती हैं। वे आर्यिका हैं, उससे पूर्ण सुशोभित हैं, फिर भी आचार्य के प्रसाद मुक्त गुण के भार का सदैव स्मरण करती हैं। संस्कृत के सम्यक् भाषण को दीपक के प्रकाश की तरह उत्पन्न करती हैं। [७८] वे मोह रूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए शास्त्रों का मनन करती हैं वे उन्हें सन्मार्ग के दर्शी प्रकाशवान् दीपक की तरह मानती हैं, दोषों के दोष/रात्रि के दोष रूप गुण को समझती हुई सदैव धर्म पर प्रवर्तित होती हैं। तत्त्व ज्ञान के लिए वे नभ की पूर्ण दृष्टि का उपयोग कर सम्यक् ज्ञान को जानना चाहती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२७ [७९ ] वे आनन्दयुक्त वचनों से गुरुओं का सम्यक् ध्यान करती हैं एवं पूर्ण स्वाध्याय युक्त, गुण की सिद्धि के निमित्त वे विचरण करती हैं तथा स्वाध्याय की वृद्धि हेतु सदैव मुनिधर्मपूर्वक जिनागम एवं शास्त्रों का अध्यापन कराती हैं। आपका अध्यापन एवं मनन-चिन्तन का कर्म सदैव चलता है। अध्यापन हेतु आपने नवीन पद्धति से बालबोध की रचना की। धर्म के सार एवं सम्यक् आचार के प्रचार के निमित्त शैक्षणिक शिवरों का आयोजन सदैव करती रहती हैं। [८१ ] जो स्वयं कृपाभाव एवं दया से युक्त हैं, सत्य व्रत में अनुरक्त सम्यक् सत्य से युक्त हैं, ब्रह्म में विचरण करती हुई अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाती हैं, ऐसी ब्रह्मा की आराधक ज्ञानमती का ज्ञान आत्मज्ञान को जानना चाहता है। [८२ ] ज्ञान, तप, दर्शन और संयम से धीर सदा ज्ञान को बढ़ाती हैं, और धर्म में प्रवृत्त होती हैं। कर्म रूपी ईधन के नष्ट करने के लिए तप तपती हैं और चारित्र के निर्मल पद में प्रवृत्त ज्ञानपूर्वक आचरण करती हैं। [८३ ] अनुप्रेक्षापूर्वक अध्यात्म-तत्त्व का ग्रहण करती हैं, सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान एवं सम्यक् वीरता से युक्त, ध्यान में रमती है, सूक्ष्मतत्त्व, अवगाहनत्व, अव्याबाधत्व, अगुरु-लघुत्व रूप सिद्ध स्वरूप का ध्यान करती है। [८४ ] वे संस्कृत की तरह प्रकृति युक्त प्राकृत भाषा के सभी आगम ग्रन्थों, गणित के ग्रन्थों एवं शास्त्रों का ज्ञान करती हैं। क्योंकि प्राकृत भाषा प्रकृत से सुकुमार, कान्ति से युक्त साधारण जन-जन की भाषा है। [८५ ] सिद्धान्त, आगम एवं गणित के विशाल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। वे सभी ग्रन्थ, जिनमें सम्यक् रूप में अर्थ से पूर्ण वचनों का समावेश है ज्ञानमती माता उनकी विशुद्धता के लिए/उनके विशेष अर्थ के लिए धारण करती हैं/अनुभव का विषय बनाती हैं। [८६] एक समय वर्षावास के सुशान्त वातावरण में समत्व भाव से युक्त बाहुबली के/गोम्मटेश की विशाल प्रतिमा के चरणों में ध्यान कर रही थीं, मौन भाव से युक्त, पर्वत की श्रृंखला पर ध्यानरत, विन्ध्यगिरि पर सम्यक् ध्यान से युक्त पन्द्रह दिन व्यतीत कर देती हैं। वे उस ध्यान काल के बीच ज्योति से ज्योतिर्भूत अकृत्रिम चैत्यालयों के स्थान को, गंगा, सुमेरु पर्वत, सिन्धुनदी, विदेह क्षेत्र को सौन्दर्य से युक्त, अनुपम एवं उन्नतशील देखती हैं। [८८] तभी से धर्म ध्यान के परिपूर्ण प्रशान्त भूत करणानुयोग के ग्रन्थों का देखना प्रारम्भ कर देती हैं। अध्ययन में रत उनके अवलोकन की गति वर्षप्रतिवर्ष एवं कई वर्ष की विशालता को प्राप्त होती जाती है, तब वे परिकल्पना करती हैं। वे संकल्प से युक्त जन मानस एवं विद्वत्जनों को ज्ञान कराने, साकार रूप देने उसका प्रतिपादन करती हैं, एक-दूसरे के वचनों का ध्यान करती हैं। प्रवर ध्यान एवं सुज्ञान की प्रज्ञाशीला ज्ञानमती माता, उस दक्षिण की कल्पना को उत्तरापथ के भाग में कमनीय बनाती हैं। [९०] शीघ्र नंदीश्वरद्वीप की रचना कराकर जंबूद्वीप की रचना से मनुष्यों को आकर्षित करती हैं। मानो वे हस्तिनापुर के उस रमणीय भाग, पुराण गाथा को अक्षुण्ण बनाने हेतु ही जंबूद्वीप की परिकल्पना करती हैं। [९१ ] वे सुशान्त भाव से एवं विनय से शास्त्रों का चिंतन करती हैं। सम्यक्दर्शन का मनन, चिंतन एवं बोध करने के लिए अष्ट अङ्ग की समीचीनता के गुण को धारण कर समत्व से युक्त, आरोग्य, बुद्धि, विनय, उद्यम एवं शास्त्र की प्रसिद्धि को प्राप्त होती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [९२ ] आचार से पवित्र होने के लिए वे आचार्यों के गुणों का ध्यान करती हैं। वे पुस्तक, निवास, सहायक, भोज्य, आराधन, पठन, पाठन आदि की सम्यक् बुद्धि को धारण करती हैं तथा शुभ सम्य भावपूर्वक तप को तपती हैं। [ ९३ ] आपके ज्ञान किरण की विशाल ज्योति केवल आपके ही समीप स्थित नहीं रहती है। जिस तरह गंगा की गम्भीर, निर्मल, शान्त एवं स्वच्छ धारा बहती है। उसी तरह वह ज्ञानधारा भरत क्षेत्र के संपूर्ण भाग में प्रवाहित होती है। [९४ ] स्वाध्याय, वाचना, पृच्छनता, आम्नाय, धर्मोपदेश, अनुप्रेक्षा की शुभ भावना में स्वानुभूति से युक्त आत्मा के समत्व ज्ञान में प्रवृत्त निजात्म कर्म के हित को धारण करने में वे प्रवृत्त होती हैं। [९५ ] अज्ञान एवं संसरण के कारण भूत इस संसार में, संसार का जानकार स्वयं व्यक्ति ही है, ऐसी लोक मान्यता है। मोहरूपी अन्धत्व को प्राप्त जनों के लिए आपके भाषण से प्रकाश मिलता है, उसी तरह आपके ज्ञान के प्रकट होने पर संसार के प्रति व्यक्ति की वृत्ति नहीं होती। [९६ ] लोक में कठिन, कष्ट प्रधान, अष्टसहस्त्री जैसे गंभीर जैन दर्शन के संस्कृत भाषा में निबद्ध, नाना समासों से युक्त शास्त्र का हिन्दी में अनुवाद करके जो आपने परोपकार किया है, उसके लिए ज्ञानमती माता धन्य हैं। [९७ ] अन्य त्रिलोकसार आदि विशाल ग्रन्थों को अनुवाद करके बालकों, मनुष्यों के नित्य नियम के बोध के लिए एवं नारियों की शिक्षा हेतु शिक्षा से परिपूर्ण कथा आदि काव्यों की पूजा, विधान, जिनस्तुति और नाटक आदि की रचना करके आपने तीनों लोकों का बड़ा उपकार किया है। [९८] भक्ति के भाव एवं रस से पूर्ण अनेक ग्रन्थ न केवल सरस हिन्दी राष्ट्र भाषा में लिखे, अपितु अंग्रेजी, सरल संस्कृत भाषा में रचनाएं की। ज्ञानमती का समग्र ज्ञान भाव से युक्त सुशोभित होता है। [९९ ] हे ज्ञानमती माता ! आपमें सरस्वती की सौम्यमूर्ति का निवास है। आप सदैव उत्तम शास्त्र एवं आगम रूपी सिन्धु से सुशोभित हैं। आपके द्वारा चंदना सती सदृश चंदन की तरह यशस्वी शिष्याएं बनायी गयी हैं। आप शिष्याओं से शिष्या बनाने में प्रवीण एवं धीर हैं। [१०० ] आप शीलप्रधान गुण से युक्त समत्वधारी हैं। आप मुक्ति के मार्ग पर अग्रसित सम्यक् शीलधारिणी हैं, आपका सम भाव से युक्त यश और आपकी सृजनपूर्वक समत्व शक्ति हम सभी लोगों में वास करे। [१०१ ] अनभिज्ञ, बुद्धिविहीन, फिर भी ज्ञान गुण में लीन यह उदयचन्द्र आर्यिका ज्ञानमती के चरित्र को प्राकृत भाषा में प्रकट करता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी की निष्कंलक अक्षुण्ण परंपरा आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागर जी तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्मसागर जी चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य श्री अजितसागर जी पंचम पट्टाधीश आचार्य श्री श्रेयांसागर जी घट् पट्टाधीश आचार्य श्री अभिनंदन सागर जी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३२९ आचार्य श्री शान्तिसागरजी से आचार्य श्री अभिनन्दनसागर तक निर्दोष आचार्य परम्परा - लेखक- प्रवचनमणि-वाणीभूषण, डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद यदि यह अतिशयोक्ति नहीं है तो यह कथन समीचीन ही है कि आर्ष परंपरा के पुनर्जागरण के अग्रदूत यदि आ० कुन्दकुन्द थे तो लुप्त दिगंबर साधु परंपरा के पुनः प्रसारक आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज थे। उपसर्ग विजयी आ० शांतिसागर जी से पूर्व यद्यपि मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति स्वामी थे, पर आचार्य परंपरा की परंपरा इस शताब्दी में उन्हीं से प्रारम्भ हुई। समडोली ग्राम में उनके चतुःसंघ की स्थापना हुई थी। यहीं पर उन्हें प्रथम दिगंबराचार्य के रूप में संघ ने पदविभूषित किया था। दिगंबर आम्नाय की ध्वजा पुनः दक्षिण से उत्तर तक निर्बाध रूप से फहराने का श्रेय इन्हीं आचार्यश्री को है। "चारित्तो खलु धम्मो" के साकार आराधक आचार्य को समस्त जैन समाज ने "चारित्र-चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान कर दिगंबर धर्म के चारित्र के महत्त्व को ही अभिनंदित किया था। जैनधर्म में महान् मृत्युमहोत्सव सल्लेखना धारण कर पूरे भारत और विश्व को मृत्यु की निस्पृहता उसका प्रसन्नचित्त पर दृढ़ता से स्वीकार कर प्रत्यक्ष दर्शाया था। मुक्तिपंथ का पथिक आत्मकल्याण के साथ इस आर्ष परंपरा के उन्नयन के लिए चिंतित था। तभी तो दि० २४-८-५५ को उन्होंने संघ के समक्ष घोषणा की थी- "मेरा शिष्य वीरसागर मुनि इस समय मुझसे बहुत दूर जयपुर में है, यदि वह यहाँ होता तो मैं मेरे हाथ से आचार्यपट के संस्कार करता।" (सम्यग्ज्ञान से उद्धृत) और अपने उत्तरदायित्व का आदेश ब्र० सूरजमल जी के हाथों जयपुर भेजकर आचार्यपद अपने शिष्य मुनि वीरसागर को अर्पित किया। ऐसी उज्ज्वल परंपरा के आचार्यों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। प्रथम पट्टाधीश १०८ आ० वीरसागरजी महाराज :- सन् १८७६ में महाराष्ट्र में जन्मे बालक हीरालाल ने "हीरा" और "लाल" दोनों जवाहरात की तरह अपने चरित्र को दृढ़ व्रतों के पालन द्वारा बहुमूल्य बनाया। पिता रामसुख और माता भाग्यवती के नाम को उज्ज्वलित किया। सचमुच रामसुख अर्थात् परमसुख भाग्यवानों को ही नसीब होता है। यद्यपि आचार्यश्री के अनेक शिष्य थे। सभी चरित्र के आदर्श थे, पर वीरसागर की तपोनिष्ठचर्या, उपसर्ग सहन की वीरता, संघसंचालन की कुशलता एवं वरिष्ठता के कारण ही आ० शांतिसागर ने अपना उत्तरदायित्व इन्हें सौंपा था। सन् १९२४ में वैराग्य की दृढ़ता का परीक्षण कर आ० श्री शांतिसागरजी ने आपको विधिवत् दीक्षा प्रदान की एवं वीरसागर नाम प्रदान किया, जो उनकी दृढ़ता का सूचक था। आपने अपने गुरु के सानिध्य में बारह चातुर्मास किए। शास्त्रों का विशेष अध्ययन किया। अनेक वैरागी आत्माओं को दीक्षा देकर सत्पथ पर लगाया। शिष्यों के प्रति अनुशासन एवं वात्सल्य के धारक आचार्यश्री ने गुरु के पथ का अनुसरण करते हुए जयपुर खानिया में सल्लेखना धारण कर समाधिमरण प्राप्त किया। द्वितीय पट्टाधीश १०८ आ० श्री शिवसागरजी महाराज : पू० आ० वीरसागरजी की समाधि हो जाने से पूर्व वे अपना पट्टाधीश घोषित नहीं कर पाये थे। पर, संघ ने संघस्थ मुनि शिवसागरजी की चारित्रशुद्धि दृढ़मनोबल, संघ संचालन की क्षमता एवं सकल मुनि-आर्यिका आदि का मनोभाव जानकर उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने का संकल्प किया। मुनि शिवसागरजी को सर्वसम्मति से संघ ने अपना आचार्य स्वीकार किया। दक्षिण भारत में दिगंबर परंपरा की धारा अविच्छन्न रूप से प्रवाहित होती रही है। इसी भूमि ने दिगंबराचार्यों को जन्म देकर धन्यता प्राप्त की। इसी दक्षिणांचल के महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में अड़गांव ग्राम में खण्डेलवाल गोत्रीय नेमीचंद श्रेष्ठीवर्ग की धर्मपत्नी धर्मशीला दगड़ाबाई की कुक्षि से जन्मे बालक का नाम हीरालाल रखा गया था। शायद यह विधि का संकेत ही था कि इस परंपरा को दूसरा हीरा मिलना था। प्रथम हीरा थे आ० वीरसागर और दूसरे हीरा थे आ० शिवसागर। संसार को पूर्व जन्म के संस्कारों से असार मानने वाले हीरालाल उससे जल कमलवत् अछूते ही रहे। संसार के विषय-भोगों के निकट ही नहीं गये- बालब्रह्मचारी रहे। आचार्य श्री शांतिसागरजी से २८ वर्ष की आयु में द्वितीय प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। पश्चात् आ० श्री वीरसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आ० वीरसागर की दृष्टि में ब्र० हीरालाल में शिवत्व कल्याण करने की शक्ति व भावना के दर्शन किए, उन्हें जैसे आभास हो गया था कि हमारी इस शुद्ध परंपरा की वृद्धि व कल्याण इन्हीं से होगा- आ० शिवसागरजी नाम प्रदान किया। क्षु० शिवसागर सं० २००६ में ६ वर्ष बाद ही मुनि दीक्षा से दीक्षित हुए और मुनि शिवसागर बन गये। अपने गुरु के सानिध्य में ८ वर्ष रहकर ज्ञान और चारित्र की दृढ़साधना की। परंपरा के अनुरूप मुमुक्षुओं को सद्धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। समाज द्वारा आचार्यत्व का उत्तरदायित्व सौंपने पर ११ वर्षों तक सफलता से सुचारु रूप से संघ का संचालन किया उसे गौरव प्रदान किया। अभी आपके कुशल संचालन व मार्गदर्शन की महती आवश्यकता Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आ० श्री धर्मसागरजा सागरजी की एकाएक समाजी में शांतिवीरनग थी कि साधारण ज्वर आने पर ही अल्पवय में सं० २०२६ में आपका समाधि मरण हो गया। जैनाकाश से एक तीव्रसितार खिर गया। दिग्मूढ़ रह गये सभी। तृतीय पट्टाधीश १०८ आ० श्री धर्मसागरजी महाराज : अचानक पट्टाधीश के चयन के बिना ही आ० शिवसागरजी की एकाएक समाधि हो गई। लगा समाज-संघ निराधार हो गया। पर, वीरप्रभू धरती कर्मवीरों से खाली नहीं होती। वि०सं० २०२५ में बिजौलिया चातुर्मास के पश्चात् श्री महावीरजी में शांतिवीरनगर में आयोजित प्रतिष्ठा में आये साधू संघ के आचार्य पू० शिवसागरजी की अचानक समाधि हो जाने पर वहाँ उपस्थित चतुर्विध संघ ने ज्ञान-तप-चारित्र के धनी वरिष्ठ मुनि श्री धर्मसागरजी को अपना तृतीय आचार्य स्वीकार किया। दक्षिण की धारा उत्तर में भी बढ़ रही थी। इसी धारा का पावन सलिल, राजस्थान की सूखी धरती को भी प्लावित कर रहा था। महाराणा की वीर भूमि, हाडौती की शान भूमि बूंदी जिले के गंभीराग्राम में श्रेष्ठीवर्य वख्तावरमल एवं उनकी पत्नी उमरावबाई की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ। नाम दिया गया-"चिरंजीलाल" नाम सार्थक किया बालक ने। अपने कार्य से वह चिरंजीवी बन गया। जन-जन का पथ-दर्शक बना। आर्ष परंपरा पर हो रहे आक्रमण के सामने सुमेरु सा अडिग रहा । तूफान में दीये सा जलता रहा। मुनि परंपरा पर छाने वाले कोहरे को अपनी ज्ञान किरणों से, चरित्र की अग्नि से पिघलाता रहा। ऐसे बालक चिरंजीलाल ने ही धर्मसागर के नाम से सचमुच धर्म का सागर ही लहरा दिया। संयम और साधना जिसके संस्कारों में जन्म से ही उतरे थे वह गृहस्थ जीवन की भंवर में क्यों फँसता ? युवावस्था में ही आ० चन्द्रसागर जी महाराज से सप्तमप्रतिमा रूप ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया एवं वि०सं० २००१ में उन्हीं से क्षुल्लक दीक्षा धारण करके क्षु० भद्रसागर बने। आपकी भद्रता देखकर दो वर्ष में ही आ० वीरसागरजी ने आपको ऐलक दीक्षा प्रदान की। पर दिगंबरत्व की चरम अवस्था मुनि पद के अभिलाषी ऐलक को चैन कहाँ था ? फलतः वर्ष बाद ही मुनिपद प्राप्त कर भद्रसागर बने-मुनि धर्मसागर। यही धर्मसागर थे हमारे तृतीय पट्टाधीश। आपने दीर्घकाल तक लगभग १५ वर्ष तक इस जिम्मेदारी का निर्वाह किया। जब देश में सोनगढ़ की मनगढंत परंपराओं का जहरीला जंगल पनप रहा था- उस समय सच्चे धर्म-शास्त्र-गुरु की परंपरा की अक्षुण्णता बनाने का कठिन कार्य इन्हीं आचार्यश्री ने किया। आज दिगंबर समाज उनका ऋणी है। ऐसे तपोनिष्ठ महान आचार्य ने साधना जीवन के चालीस वर्ष १९८७ की २२ मार्च को सीकर (राज.) में पूर्ण कर समाधि प्राप्त की। चतुर्थ पट्टाधीश १०८ आ० अजितसागरजी महाराज : दिगंबर परंपरा की एक पावनधारा महाराष्ट्र से होकर राजस्थान की ओर प्रवाहित हुई थी तो दूसरी मध्यप्रदेश को सिंचित कर रही थी। इसी मध्यप्रदेश की भूमि कस्बा आष्टा के समीप भौंरा ग्राम में श्रावक श्रेष्ठी श्री जबरचंद एवं उनकी धर्मपत्नी रूपाबाई के घर वि०सं० १९८२ में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। बचपन का नाम राजमल रखा गया था। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" की कहावत बालक के व्यवहार से चरितार्थ होने लगी। उम्र के साथ बालक में पनपा वैराग्य । भोग-विलास उनसे डरकर दूर ही रहा। स्वाति की बूंदों का चाहक चातक आखिर ब्रह्मचर्य व्रत को प्राप्त हो ही गया। यह सुयोग ही था कि इस जिनेश्वरी दीक्षा की प्रेरणास्रोत आर्यिका ज्ञानमती माताजी उनकी शिक्षा गुरु रहीं। इन्हीं माताजी के सानिध्य में ब्र० राजमलजी ने राजवार्तिक, गोम्मटसार, पंचाध्यायी आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। ज्ञान से सिंचित ब्रह्मचारी का मन माताजी की प्रेरणा से वैराग्य की तीव्रतम कक्षा पर पहुँच गया। इतने दिनों में ज्ञान व चरित्र की साधना दृढ़ होती गई। सं० २०१८ में इस प्रेरणा के प्रतिबिंबस्वरूप आपने आ० श्री शिवसागरजी से सीधे मुनिदीक्षा प्राप्त कर अजितसागर नाम प्राप्त किया। . आ० १०८ धर्मसागर की समाधि भी पट्टाधीश की नियुक्ति के बिना हो गई थी। पुनः प्रश्न खड़ा ही था। पर संघस्थ साधुओं के विवेक ने मार्ग प्रशस्त कर दिया। आ० कल्प श्रुतसागर महाराज एवं चतुर्विध संघ की अनुमति से १९८७ की ७ जून को उदयपुर में आपको इस महान् परंपरा के चतुर्थ आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। इस प्रतिष्ठित पद पर अजितसागरजी का प्रस्थापन चतुर्विध संघ को मान्य था। वास्तव में योग्य तपःपूत साधू का चयन हुआ था। पर, आयु कर्म की क्षीणता, तप की तीव्रता एवं स्वास्थ्य की धूप-छांव में यह, पर वे तीन वर्ष ही सम्हाल पाये और ७ मई १९९० को इस देह से मुक्त होकर समाधिमरण को प्राप्त हुए। पंचमपट्टाधीश १०८ आ० श्री श्रेयांससागरजी महाराज : कौन जानता था कि इतने अल्पकाल में ही संघ के आचार्य अजितसागरजी समाधिस्थ हो जायेंगे? आचार्य पद की समस्या खड़ी हुई। चतुर्थ पट्टाधीश तक यह अक्षुण्ण परंपरा थी। पर, पू. आचार्य अजितसागरजी के पश्चात् किन्हीं अवर्णनीय कारणों से इस परंपरा को जैसे उपसर्ग ही झेलना पड़ा। निःसंकोच रूप से स्वीकार करना चाहिए कि संघ दो भागों में विभक्त हो गया। वह हम सबका दुर्भाग्य ही था। पर, बहुमत व अधिकांश साधू वर्ग व श्रावक वर्ग द्वारा पंचमपट्टाधीश के रूप में आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागरजी को स्वीकार किया गया। इससे बड़ा दुर्भाग्य तो यह रहा के पू० आचार्य श्री इस पद पर अल्पकाल तक ही रहे- उनका सद्यः समाधिमरण हुआ है। पुनः एक बार धारा दक्षिण की ओर मुड़ी। जिनके गृहस्थ जीवन के नाना थे आ० वीरसागरजी महाराज और बाबा थे आ० श्री चंद्रसागरजी महाराज । ऐसे मातृ-पितृ पक्ष से धर्म के संस्कारों से सिंचित बालक फूलचंद के माता-पिता थे श्रीमान् सेठ लालचंदजी और माता कुन्दनबाई। माता कुन्दनबाई भी आर्यिकाव्रत-धारिणी बनकर मांगीतुंगी क्षेत्र से समाधिमरण को प्राप्त हुई। इनके संस्कार और दूध में जिनेश्वरी वातावरण अवतरित हुआ था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संसार को वैवाहिक सूत्र में बँधकर भोगा चार संतानों के पिता बने। व्यापार किया। श्रीरामपुर में पहाड़े सेठ के नाम से नामना भी प्राप्त की। सांसारिक जीवन ऐसा था मानो हीरा पर धूल जम गई थी । ज्यों ही वैराग्य का वातावरण मिला- धूल धुलने लगी। और सं० २०१८ में मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी से दो प्रतिमा धारण की कैसा सुयोग था कि १९६५ में महावीरजी में शांतिवीरनगर में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के शुभ अवसर पर सेठ फूलचंद और पत्नी लीलाबाई दोनों ने मुनि व आर्यिका दीक्षा लेने का संकल्प किया। गृहस्थ जीवन में सम्मति से रहने वाले दंपति ने त्याग में अपूर्व सम्मति का परिचय दिया। दोनों निजात्मा के कल्याणार्थ त्यागी जीवन के पथ पर चल पड़े। पूज्य आ० शिवसागरजी ने क्रमशः मुनि श्रेयांससागर व आर्यिका श्रेयांसमती के नाम से विभूषित किया। आश्चर्य पुत्र और पुत्रवधू को दीक्षित देख गृहस्थ जीवन की माता और अब क्षु० माताजी ने भी आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। सचमुच प्रत्येक जीव स्वतंत्र है- अपना कल्याण स्वयं करना है, इस जैन दर्शन को इन तीनों ने सार्थक किया। आ० शिवसागरजी के साथ आपने अनेक स्थानों पर विहार कर महती धर्मप्रभावना की। स्वाध्याय जीवन का मुख्य ध्येय होने से आपका अधिकांश समय ज्ञानार्जन एवं आत्म निरीक्षण में ही बीता। अनेक दीक्षायें आपके द्वारा सम्पन्न हुई। आपने निरंतर धर्म के प्रतीक तीथों के जीर्णोद्धार के कार्य कराये। जिसका प्रमाण तीर्थक्षेत्र मांगीतुंगी है। [३३१ १० जून, १९९० को पू० आचार्य अजितसागरजी के उत्तराधिकारी का आचार्यपद लोहारिया राजस्थान में आपको अर्पित किया गया था। आपने अल्पकाल लगभग डेढ़ वर्ष तक ही संघ का संचालन किया उसे सम्हाला, टूटने से बचाया और नई चेतना दी। आपकी समाधि दिनाँक १९ फरवरी १९९२ बाँसवाड़ा (राज०) स्थान पर हुई। षष्ठम पट्टाचार्य १०८ श्री अभिनन्दनसागरजी महाराज : राजस्थान का उदयपुर जिला अनेक साधुओं के जन्म से पावन रहा है। इसी श्रृंखला में "शेषपुर" नामक ग्राम में वर्तमान के छठे पट्टाचार्य श्री १०८ अभिनंदनसागरजी महाराज का जन्म वि०सं० १९९९ में हुआ। इनका गृहस्थावस्था का नाम धनराज था। माता रूपीबाई एवं पिता श्री अमरचन्दजी के घर में तो मानो सचमुच धन-लक्ष्मी की वर्षा हो गई थी। बालक के होनहार बचपन से वे लोग अपने भाग्य को सराह कर भी थकते नहीं थे। दिगम्बर जैन समाज के बीसा नरसिंहपुरा जातीय जगुआवत गोत्रीय धनराज की बाल्यकाल से ही धर्म के प्रति अतिशयरुचि थी । अतः युवावस्था में भी इन्होंने बालब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया। आपकी लौकिक शिक्षा कक्षा ८ तक है। उसके पश्चात् सत्संगति व उपदेशों के कारण जीवन में वैराग्यभाव उत्पन्न हो गया और मुक्तागिरी सिद्धक्षेत्र पर स्वयं ही आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत तथा पाँचवीं प्रतिमा धारण कर ली। माता-पिता को सांत्वना देकर अब ब्रहमचारी धनराजजी त्याग की अगली सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयास करने लगे। फलस्वरूप वि०सं० २०२३ (ईस्वी सन् १९६७) में आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागरजी के करकमलों से मुंगाणा में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की, पुनः वि०सं० २०२५ (सन् १९६९) चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा के द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से ऐलक दीक्षा ली और उसी सन् १९६९ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को श्री शान्तिवीरनगर - महावीरजी में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागर महाराज से मुनि दीक्षा लेकर "अभिनन्दनसागर" नाम प्राप्त किया। मुनि दीक्षा के समय आपकी उम्र मात्र २४ वर्ष की थी, किन्तु सौम्य शांतमुद्रा, चारित्रिक दृढ़ता और ज्ञानाभ्यास की लगन ने आपकी कीर्ति को प्रसरित करना प्रारम्भ कर दिया । सन् १९७१ के अजमेर चातुर्मास के पश्चात् आपने अपना अलग संघ बनाकर मुनिश्री दयासागर जी और मुनि श्री सुपार्श्वसागरजी को संघ का प्रमुख बनाकर सम्मेदशिखर, बुन्देलखण्ड, दक्षिण भारत उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों में प्रभावनापूर्ण विहार किया, अनेक शिष्य-शिष्याओं का संग्रह किया। लगभग ८ वर्षो से आप उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित थे, पुनः ८ मार्च सन् १९९२ को चतुर्विध संघ ने आपको खान्दूकालोनी (राज०) में छठे पट्टाचार्य पद पर अभिषिक्त किया है क्योंकि चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री की निर्दोष अविच्छिन्न परम्परा में पंचमपट्टाचार्य श्री श्रेयांससागरजी महाराज की आकस्मिक समाधि के पश्चात् आप ही इस परम्परा के सर्ववरिष्ठ मुनिराज हैं; अतः पूर्व परम्परानुसार चतुर्विध संघ द्वारा आप आचार्य पद को प्राप्त कर इस निष्कलंक आर्ष परम्परा का संरक्षण संवर्द्धन करने में कटिबद्ध है। आजकल आपके विशाल संघ का चातुर्मास केशरियाजी (राज०) में चल रहा है। जहाँ विविध धार्मिक कार्यक्रमों के द्वारा अतिशायी धर्मप्रभानवा हो रही है। Jain Educationa International निष्कलंक परम्परा के रक्षक परमपूज्य षष्ठ पट्टाचार्य श्री १०८ अभिनन्दनसागरजी महाराज चिरकाल तक पृथ्वी तल पर जीवन्त रहें तथा उनकी शिष्य परंपरा वृद्धिंगत होवे, यही जिनेन्द्रप्रभु से प्रार्थना है। For Personal and Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला गणिनी आर्यिका श्री की जन्मदात्री आर्यिका श्री रत्नमती माताजी अतीत के आइने में - श्रीमती ज्योति जैन, श्रीमती प्रीति जैन - अहमदाबाद लाला धन्यकुमार अपने पुत्र छोटेलाल का विवाह करके लौटे। पूरे मुहल्ले के पुरुष महिला नव वर-वधू को देखने उमड़ पड़े। सबकी जुबान पर चर्चा थी, एक विचित्र दहेज जो समधी साहब सुखपालजी ने अपनी पुत्री मोहिनी को दहेज में एक ग्रन्थ दिया था। "पद्मनंदि-पंचविंशतिका"। लाला धन्यकुमारजी प्रसन्न थे कि रूप में मोहिनी और गुणों में धर्मनिष्ठ पुत्र वधू पा सके हैं। बहू तो मानो संस्कारों की थाती लेकर आयी थी। मोहिनी देवी स्वभाव से नये घर में ऐसे घुल मिल गई जैसे दूध में शक्कर । उनकी मिठास भी घर भर को गुदगुदाने लगी। जीवन का प्रथम पुष्प १९३४ में मैना के रूप में खिला जिनकी सुगन्ध आज जन-जन को प्रफुल्लित कर रही है। जिनके रक्त में संस्कार प्रवाहित थे। भावनाओं में धर्म के प्रति श्रद्धा थी और कर्त्तव्य में आराधना की प्रबलता थी ऐसी मोहिनी देवी ने अपने पति के साथ अनेक तीर्थों की वंदना की और अनेक जैन व्रतों की पूर्ण विधि से आराधना भी की। उन्हें लगता था कि नश्वर शरीर का उत्तम उपयोग ही आत्मकल्याण के मार्ग पर प्रशस्त होना है। अतः अधिकाधिक व्रत धारण करती थीं। ये संस्कार उनके दूध में उतरे और सभी संतानों में संक्रमित हुए। जैन धर्म का घर में इतनी दृढ़ता से पालन किया जाता था कि माता मोहिनी ने बड़ी पुत्री मैना के कहने पर घर में उन सभी व्यवहारों को बन्द कर दिया जो मिथ्यात्व से प्रेरित थे। मोहिनी बच्चों को दूध पिलाते समय भी भक्तामर का पाठ किया करती थी। जो संस्कार रूपी अमृत बनकर बच्चों में फूला और फला। आपकी सबसे बड़ी पुत्री मैना जो वर्तमान में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती के नाम से प्रसिद्ध हैं उनके यशस्वी जीवन से सारा देश सुपरिचित है। सन् १९५३ में आचार्य देशभूषणजी का वर्षायोग टिकैतनगर में हुआ। क्षुल्लिका वीरमती संघ में थीं। मोहिनी माँ प्रतिदिन चौका लगातीं, आहार देतीं। उस दिन उनके दुःख का पारावार न रहा जब क्षुल्लिका वीरमती किसी अन्तराय के कारण उनके आँगन से आहार लिए बिना ही ललाट गयीं। एक दिन क्षुल्लिका वीरमती की आँखों में तकलीफ थी, वैद्य ने बकरी के दूध में भिगोकर फोहे रखने की सलाह दी थी। जब मोहिनी माँ ने यह सुना तो बेटी के प्रति ममता उमड़ पड़ी। वे रात्रि को बकरी के दूध की जगह अपने दूध का फोया रख जाती थीं क्योंकि गोद में एक वर्ष की बेटी मालती थी। वे जब अपनी बेटी क्षुल्लिका वीरमती के दृढ़ चरित्र, उत्कृष्ट ज्ञान की प्रशंसा सुनतीं तो उनका मन विभोर हो जाता और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करतीं। पुनः एक छोटी बेटी मनोवती भी पांच वर्ष से दीक्षा के लिए तड़फ रही थी, उसका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा था। तब मोहिनी माँ को लगा कि इसे माताजी के पास पहुँचा ही देना चाहिए। डर था कि कहीं पति रोक न लें, अतः पहली बार साहस बटोर कर पुत्री मनोवती और पुत्र रवीन्द्र को लेकर मार्ग का पता पूछते-पूछते लाडनूं पहुंची, जहाँ आर्यिका ज्ञानमती जी विराजमान थीं। वैराग्य पथ के पथिक में साहस और निर्भीकता होनी चाहिए जिसका उदय मोहिनी माँ के हृदय में हो चुका था। मनोवती ने जब वैराग्य धारण करने की भावना व्यक्त की तब भी सभी ने मोहिनी माता की कूख को सराहा था। मोहिनी माँ के जीवन का मोड़ उस दिन आया जब माता ज्ञानमतीजी के केशलोंच को देखकर उनके हृदय में वैराग्य का स्रोत उमड़ पड़ा। केशलोंच के बाद वे श्रीफल लेकर आचार्य श्री के पास गयीं और दो प्रतिमा के व्रत देने की प्रार्थना करने लगी उस समय आर्यिका ज्ञानमतीजी ने समझाया था कि तुम्हें शुद्ध घी वगैरह नहीं मिला तो तुम्हारा स्वास्थ्य और भी कमजोर हो जायेगा। कुएं का पानी भी उपलब्ध करना कठिन होगा, लेकिन वैराग्य की दृढ़ता के सामने भौतिक असुविधाओं का असंभाव्य टिक न सका। वे १२ व्रतों का दृढ़ता से पालन करने लगीं। नियमित स्वाध्याय और पूजन करतीं। वे तो निरन्तर यही सोचतीं "भगवन् कब ऐसा दिन आयेगा जब मैं केशलोंच करके घर-कुटुम्ब, पति, पुत्र, पुत्रियों का मोह छोड़कर दीक्षा लेकर संघ में रहूँगी। सन् १९६९ में टिकैतनगर में मोतीचंद जीका पत्र मिला कि महावीरजी में प्रतिष्ठा के समय क्षुल्लिका अभयमती को आर्यिका दीक्षा प्रदान की जायगी अच्छा हो कि आप दोनों उनकी दीक्षा के माता-पिता बनने के लाभ से वंचित न रहें। पत्र को पाकर परिवार के जन वहाँ पहुँचे और इस शुभ अवसर का लाभ भी लिया। मालती माधुरी सभी एक-एक करके वैराग्य के पथ पर आरूढ़ हो रहे थे। छोटेलालजी का स्वर्गवास हो चुका था और मोहिनी माँ का मन भी संसार से उठने लगा था। इसे देखकर आचार्य सुबलसागरजी ने कहा था " इन माता मोहिनी की कोख से जन्म लिये सभी सन्तानों को बुद्धि का क्षयोपशम विरासत में मिला है।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सन् १९७१ में अजमेर में मोहिनीजी ने ज्ञानमती माताजी की शिष्या आ० पदमावती माताजी की विधिवत् समाधि देखी थी । उससे उनके वैराग्य भाव अधिक पुष्ट हुए। बस यह मोहिनी जी का गृह त्याग ही था। एक दिन मौका देखकर वे आ० ज्ञानमतीजी से बोलीं- "माताजी मेरी इच्छा घर जाने की नहीं है। अब मेरा मन पूर्ण विरक्त हो चुका है। मैं दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करना चाहती हूँ।" आर्यिका ज्ञानमतीजी ने इस भावना का पूर्ण अनुमोदन किया और प्रोत्साहित भी किया। कुटुंबी जनों ने स्वास्थ्य के संदर्भ में दीक्षा न लेने का आग्रह किया, पर अब मोहिनी के पास मोह ही कहाँ रहा था? शरीर, घर या परिवार के प्रति उनका मोह तो मोक्ष की ओर मुड़ चुका था। आचार्य श्री के समक्ष नारियल चढ़ाकर आर्यिका दीक्षा की प्रार्थना की। आचार्यश्री ने जिन दीक्षा खांडे की धार पर चलना बतला कर पुनः विचार करने की सलाह दी। पर कमजोर शरीर में स्थित दृढ़ आत्मा की गूंज थी। वे बोलीं अब तो मैंने निश्चय ही कर लिया है। आखिर माँ को सीधे समझाया कुछ उपद्रव भी 1 | "महाराज जी संसार में जितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं। उनके आगे दीक्षा में क्या कष्ट है। टिकैतनगर समाचार भेजे गये। पूरा परिवार अजमेर आ गया। सभी माँ मोहिनी से चिपट कर रोने लगे किया, पर मोह से निर्मोह की सीढ़ी पर आरूढ़ मोहिनी को डिगा न सके उपसर्ग था सो टल गया। भव्य दृश्य था। पांडाल में पैर रखने की जगह नहीं थीं, दीक्षा विधि चल रही थी मोहिनीदेवी का केशलोंच हो रहा था। बाल छोटे थे अतः आर्यिका ज्ञानमतीजी चुटकी से केशलोंच कर रही थीं। सिर लाल हो रहा था। उपस्थित जन समूह के नयनों से अश्रुसरिता बह रही थी, पर मोहिनी देवी के चेहरे पर तो विवाद या कट की एक लकीर भी नहीं थी। देखते ही देखते रनों की जननी अब हो गयी आर्थिक रत्नमती कैसा संयोग दो पुत्रियाँ आर्यिका और अब माँ भी उसी पथ पर । 1 I वैराग्य का संबल लेकर मुक्तिपथ पर आरूढ़ आ० रत्नमती इस उम्र में भी दृढ़ मनोबल के साथ पैदल विहार करती थीं। वे अजमेर से ब्यावर पैदल आयीं, पहला अनुभव था, रास्ते के शूल भी भक्त के लिए फूल बन रहे थे। वैराग्य के साथ ज्ञानार्जन का प्रारंभ मनोयोग से किया। अन्य आर्थिकाओं के साथ संस्कृत प्राकृत की गाथायें पाठ शुद्ध रूप से उच्चारण कर कंठस्थ करने लगीं । विधिवत् सामायिक प्रतिक्रमण करतीं। संस्कृत कहने में गति कम होने से उनकी प्रार्थना पर आ० ज्ञानमतीजी ने सामायिक की भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद किया, जो अधिकांश श्रावकों के लिए भी वरदान सिद्ध हुआ । आ० रत्नमतीजी का अधिकांश समय स्वाध्याय एवं प्रवचन श्रवण में ही व्यतीत होता था । Jain Educationa International [३३३ जब अपने छोटे पुत्र रवीन्द्र को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करते देखा तब आशीर्वाद देते हुए कहा था- "तुम अपने जीवन में धर्मरूपी धन का खूब संग्रह करो तथा त्याग में बढ़ते हुए एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करो।" सच्चे जिनधर्म की आराधिका रत्नमती माताजी ने अनेक स्थानों पर महिलाओं को संतोषी माता व्रत और अन्य मिथ्यात्व व्रतों को छुड़ाकर मिथ्यात्व का त्याग कराया और जैन धर्म में लगाया। युवा और बालकों को मद्य, मांस, मधु का त्याग कराया। इस प्रकार सामाजिक उत्थान के कार्य भी किये। हस्तिनापुर में सन् १९८० में विद्वानों का एक सफल सेमिनार सम्पन्न हो रहा था। उस समय विद्वानों ने रत्नमती माताजी की धर्मप्रभावना से और साधना से प्रभावित होकर उनका एक अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित करने की योजना बनायी, जब रत्नमती माताजी ने यह सुना तब उन्होंने कहा "मेरा अभिनन्दन ग्रन्थ बिल्कुल नहीं निकलना चाहिए, जो भी अभिनन्दन करना हो आप लोग आर्यिका ज्ञानमती माताजी का ही करें।" यह उनकी आन्तरिक निस्पृह भावना ही थी। इधर महीनों से रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य बहुत कमजोर हो चुका था वे स्वयं ही कहती थीं कि दिल्ली का हो-हल्ला उन्हें परेशान करता है। माताजी ज्ञानमतीजी भी उन्हें अस्वस्थ छोड़कर जा नहीं सकती थीं क्योंकि दो महीने पूर्व ही उन्हें अकस्मात् चकर आ गये थे, उन्हें अंतिम णमोकार तक सुना दिये गये थे। कब शरीर छूट जाए यह दुविधा थी, इसी ऊहापोह में एक माह गुजर गया, उधर दिल्ली के लोग ज्ञानज्योति प्रवर्तन के लिए उसकी प्रभावना बढ़ाने के लिए ज्ञानमती माताजी का सानिध्य चाहते थे। बड़ी दुविधा की स्थिति थी। जब रत्नमती माताजी को यह विदित हुआ तब उन्होंने दृढ़ निश्चय किया और सोचा, "यदि मैं इस समय दिल्ली नहीं जाती हूँ तो ये भी नहीं जा रही है, इतने महान धर्मप्रभावना के कार्य में व्यवधान पड़ रहा है, अतः यद्यपि मुझे बिहार में कष्ट है, फिर भी जैसे हो वैसे सहन करना चाहिए। मैं इनके द्वारा होने वाली धर्म की इतनी बड़ी प्रभावना में बाधक क्यों बनूँ ।" इस दृढ़ निश्चय ने बूढ़ी हड्डियों में चेतना भर दी । कष्ट स्वयं मंगल बन गया और वे दिल्ली पहुँची । सांसारिक दृष्टि से यद्यपि वे ज्ञानमती माताजी की माता थीं, पर धर्म की दृष्टि से उनकी शिष्या इसलिए वे सदैव उन्हें माताजी ही कहती थीं। नाम नहीं लेती थीं। उन्हें ससम्मान वंदन करतीं, उनके पास ही प्रतिक्रमण करतीं और प्रायश्चित भी करती थीं। यह सत्य है कि शरीर के वृक्ष पर में दृढ़ रत्नमती माताजी का जीवन स्वयं तो रत्नों-सा दैदीप्यमान रहा, पर उससे भी अधिक ज्योति निखरी उनकी रत्नों-सी आभा वाली संतानों से । For Personal and Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जीवन से महान् समाधि : जीवन भर रत्न की अलौकिक आभासी चमक वाली प्रतिभा लौकिक दृष्टि से क्षीण हो रही थी, परन्तु महाप्रयाण के लिए प्रज्वलित, ज्योति का प्रकाश और भी अधिक दमकने लगा था। जिन्दगी को जिन महोत्सव के साथ जीना सीखा था उसी मनोत्सव को समाधि मरण द्वारा मृत्यु महोत्सव में बदल दिया था। उन्होंने अपने जीवन में आर्यिकाश्री ज्ञानमतीजी द्वारा विधिवत् कराये गये कई समाधिमरणों को देखा था। भावना तो उनकी उस समय भी होती थी कि उन्हें भी ऐसी सल्लेखना का शुभ अवसर मिले वैसे भी चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी का पंडितमरण इस युग की सबसे बड़ी तपाराधना थी और आचार्य वीरसागर आदि का भी ऐसा महान् निर्वाण हो चुका था उसी महान् उज्ज्वल परंपरा की एक कड़ी ये भी बनीं। तेरह वर्ष के दीक्षित जीवन में यद्यपि वे क्रमशः शरीर के प्रति निमोंही बनकर अनंत की यात्रा की ओर बढ़ ही रही थीं लेकिन १३ नवंबर १९८४ से १५ जनवरी १९८५ तक वे क्रमशः वीतरागता की ओर कदम बढ़ा रही थीं और १५ जनवरी को पंचपरमेष्ठी का ध्यान करते हुए दिन में एक बजकर पैंतालीस मिनट पर उनकी आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़कर अमरलोक स्थापित हुई। कैसा गृहस्थ जीवन का माँ-बेटी का संबंध । बेटी गुरु और माँ शिष्या ! बेटी अपनी माँ को सल्लेखना कराती है। दोनों वैराग्य के रंग से रंगी हुई। त्याग, निमोहिता का इससे महान् उदाहरण और क्या हो सकता है ? बेटी माँ को निरंतर इतना ही सावधान करती रहती है___ माता जी सावधान रहना आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, शरीर पुद्गल है, जीर्ण-शीर्ण होता है, छूटता है। शरीर की मृत्यु है आत्मा की नहीं, आत्मा भगवान है, शुद्ध है, सिद्ध है, अनंतज्ञान दर्शन सुख वीर स्वरूप है, ध्यानानंद स्वरूप है।" कहीं पर भी माँ-बेटी का संबंध वैराग्य पर हावी नहीं हो पाता है, क्योंकि दोनों के राग-भाव छूट गये हैं। इससे बड़े वैराग्य की वीरता का ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है। जब ज्ञानमती माताजी ने मौ रत्नमतीजी को क्षपक बनाकर स्वयं निर्यापिकाचार्य का कर्तव्य निर्वाह किया। पूज्य माताजी सल्लेखना व्रत ले चुकी हैं और प्राप्त होता है आचार्य श्री धर्मसागरजी का शुभाशीर्वाद, जो उनकी आत्मा की दृढ़ता के लिए संबल बन जाता है- "माताजी आपने अजमेर में अपने पुत्र-पुत्रियाँ, घर और कुटुंब से मोह छोड़कर शरीर से भी होकर बड़े ही पुरुषार्थ से आर्यिका दीक्षा ली थी, आपने इतने दिनों से संयम रूपी मंदिर तैयार किया हुआ है अब आपको इसके ऊपर संयम रूपी मंदिर तैयार करना है, अब इसके ऊपर सल्लेखना रूपी कलशारोहण करना है। अतः पूर्णतः तैयार रहना। अपने जीवन का साथ जो संयम है उसे आपको अंत तक अपने साथ ले जाना है वही मेरा आशीर्वाद है।" और सचमुच माताजी ने पूर्ण समानता की अवस्था में तपस्या के मंदिर पर सल्लेखना का कलश चढ़ा दिया। १४ जनवरी को सूर्य संक्रांति कर चुका था। दक्षिणायन की यात्रा पर चल पड़ा था। पर १५ जनवरी की संक्रांति तो क्षर से अक्षर की ओर थी। अंतिम दिन भी सभी आवश्यक क्रियायें की। भगवान शांतिनाथ का प्रातः प्रक्षाल देखा। गंधोदक लगाया। शुद्धि की, पर अब आहार की इच्छा नहीं थी। वह क्षण याद आ रहे थे। जब ज्योति ज्योति में लीन होती थी। णमोकार के मंत्र ध्वनित हो रहे थे। सावधानी बनी थी कि कहीं अंतिम क्षण विभाव परिणाम अपना आक्रमण न कर दें, पर सत्य, श्रद्धा, भक्ति और दृढ़ता के चारों दिशा में लगे पहरेदारों के सामने किसी की न चली। महान् आत्मा अनंत की यात्रा को निकल पड़ी। देह निकल गयी पर रत्नमयी चारित्र की जगमगाहट और दैदीप्यमान हो उठी। रत्नमती माताजी देह से न रहीं, पर आज भी उनकी आभा का आलोक मानो कण-कण में जगमगा रहा है। गणिनी आर्यिकाश्री के गृहस्थावस्था के पिताजी महान् आत्माओं के जनक - लाला छोटेलालजी जैन - डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर "नाम बड़े अरु दर्शन छोटे" वाली कहावत को गलत सिद्ध करने वाले लाला छोटेलालजी जैन नाम से छोटे अवश्य थे, लेकिन महान् जीवन जीने वाले थे। उनका जीवन प्रारंभ से ही धार्मिक रहा। प्रतिदिन देवदर्शन करना, रात्रि भोजन त्याग का नियम पालन करना, स्वाध्याय एवं शास्त्र श्रवण उनकी दैनिक चर्या थी। भाग्य से उनको पत्नी भी धार्मिक विचारों की मिली, जो अपने साथ दहेज में पद्मनन्दि पंचविंशतिका जैसा ग्रंथ लाई थी। कपड़े की दुकान थी। अच्छी आमदनी थी, इसलिए उनका जीवन शांति से व्यतीत होता था। इसके पश्चात् परिवार में सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी। एक-एक करके नौ पुत्रियां एवं चार पुत्रों के जनक कहलाने लगे। जब भी पुत्री का घर में जन्म होता, बराबर के साथी फब्तियां कसते, लो एक लाख का हुण्डा फिर आ गया, लेकिन लालाजी लोगों की बातों को सुनकर हँस देते थे। लड़कियों को लक्ष्मी का अवतार मानकर अपने जीवन को धन्य समझते थे। वर्तमान में तो दो-तीन लड़कियां होते ही व्यक्ति आसमान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३३५ से धरती पर गिर जाता है और अपने आप को गरीब मानने लगता है। लेकिन धन्य हैं लाला छोटेलालजी, जिन्होंने जन्म के समय एवं बाद में भी लड़के या लड़की में कोई फर्क नहीं समझा और अपने जीवन को कभी अशांत नहीं होने दिया। किसी पिता की एक संतान भी वैराग्य की ओर चल पड़ती है, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका अथवा अन्य कोई वैराग्य पथ को धारण कर लेती है तो उस पिता को सौभाग्यशाली माना जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, गुणों की प्रशंसा की जाती है लेकिन लाला छोटेलालजी की अब तक तीन पुत्रियाँ आर्यिका बन चुकी है। उनमें से एक विदुषी आर्यिका ज्ञानमती माताजी जैसी विश्व विख्यात आर्यिका हैं। दूसरी विदुषी आर्यिका अभयमती माताजी तथा तीसरी चंदनामती माताजी हैं। जो नव दीक्षित आर्यिका हैं जिनमें ज्ञानमती माताजी का रूप देखा जा सकता है। एक पुत्री कु. मालती एवं एक पुत्र रवीन्द्र कुमार ने वैराग्य की प्रथम सीढ़ी ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। ऐसी महान् आत्मा श्री छोटेलालजी थे। उन्होंने अपनी सुकोमल एवं सुकुमार बच्चियों को निवृत्ति मार्ग पर बढ़ने से कभी नहीं रोका। अपना दिल पत्थर का कर लिया। लालाजी चाहते तो अपनी संतान को साधु जीवन अपनाने से रोक सकते थे। इसलिये उनका समाज को कितना भारी योगदान रहा इसके बारे में हम आज तक सोच भी नहीं सके, उनके योगदान का मूल्यांकन तो बहुत दूर की बात है। इसीलिये उनका महान् व्यक्तित्व अभी तक दबा-सा रहा। अभी जब मैं आर्यिका रत्नमती माताजी का अभिनंदन ग्रंथ पढ़ रहा था, उसमें भी लालाजी के योगदान पर कोई लेख नहीं है। आर्यिका माताजी के पिता होना ही कम सौभाग्य नहीं होता। आज समाज में कितने पिता हैं, जो यह गर्व कर सकते हैं कि उनकी संतान ने निवृत्ति मार्ग पर चलकर जैनधर्म को जीवन्त बनाया है। आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि तथा आर्यिका जैसे परमेष्ठी पदों पर अपनी संतान को बिठाया है। लालाजी की तो एक नहीं, पांच संतान वैराग्य पथ पर बढ़ रही है। लालाजी का ध्यान तीर्थ यात्रा एवं साधु सेवा पर रहता था। उन्होंने अपने जीवन में सभी तीर्थों की वंदना की। साधु संघों के दर्शन किये उन्हें आहार देकर महान् पुण्य का अर्जन किया। लालाजी की पांच संतान ही निवृत्ति मार्ग पर नहीं बढ़ीं, किंतु उनकी पत्नी ने भी अन्त में १३ वर्ष तक आर्यिका जीवन अपनाया। इससे यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी पत्नी (बाद में आर्यिका रत्नमतीजी) में धार्मिका संस्कारों को जितना भर सकते थे भरा और सारे समाज में एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। हमारी मान्यता के अनुसार सारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिनकी पांच संतान एवं पत्नी ने साधु जीवन अपनाया हो। इसलिये हमें लाला छोटेलालजी पर गर्व होना चाहिये जिन्होंने समाज के सामने एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। आज लालाजी हमारे बीच में नहीं हैं। २५ दिसम्बर १९६९ को उनका स्वर्गवास हो गया। आचार्य सुमतिसागरजी महाराज से उनको अंतिम संबोधन मिला था। णमोकार मंत्र एवं समाधिमरण का पाठ सुनने को मिला था। अंतिम समय में उन्होंने अन्न, जल एवं औषधि का भी त्याग कर दिया था, केवल भगवान जिनेन्द्र में उनका ध्यान था। वे पुण्यात्मा थे, इसलिये उनका मरण भी णमोकार का पाठ सुनते-सुनते हुआ। ऐसी महान् आत्मा का जितना गुणानुवाद गाया जावे वही कम है। मेरा लाला छोटेलालजी को नमन है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दो स्तम्भ : क्ष० मोतीसागरजी एवं ब्र० रवीन्द्र कुमारजी - डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी बड़ी पुण्यशीला एवं प्रभावक आर्यिका हैं। वर्तमान आर्यिका संघों में आप वरिष्ठतम आर्यिका हैं। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों ही महान् हैं। जिसकी तुलना में किसी को नहीं बिठाया जा सकता। उन्होंने अब तक जो भी सोचा उस में सफलता प्राप्त की। आर्यिका दीक्षा से लेकर वर्तमान समय तक आपके द्वारा जो यशस्वी कार्य सम्पादित हुये उनकी सूची बनाना भी कठिन है। इन सब सफलताओं का प्रमुख कारण है आपके विवेकशील निर्णय एवं निर्णयों को क्रियान्वित कराने का साहस । सारा जैन समाज का आपके पीछे खड़े रहना तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से आपको सहयोग देते रहना ही प्रमुख कारण है। लेकिन इन सबके मध्य दो ऐसी हस्तियां है जो छाया की तरह आपके साथ-साथ चलती हैं और माताजी के आदेश एवं इच्छा पर अपना सारा जीवन समर्पित किये हुये हैं। ऐसी दो हस्तियों में एक हैं पूज्य क्षुल्लक मोतीसागरजी महाराज एवं दूसरे हैं ब्र० रवीन्द्र कुमारजी। दोनों को ही समाज पूरी तरह जानता है तथा उनके कामों से भी परिचित है। श्री क्षुल्लक मोतीसागरजी "गुण न हिरानो गुणग्राहक हिरानो है" वाली कहावत के अनुसार ब्र० मोतीचंदजी को ढूंढ निकालने का श्रेय भी ज्ञानमती माताजी को है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला | माताजी में यह पूर्ण क्षमता है कि वे अंकुर को वृक्ष बनाना जानती हैं वे इस तरह पौधे में पानी एवं खाद डालती है कि वह पौधा उनकी भावना के अनुसार वृक्ष बनकर लहलहाने लगता है। यही घटना घटी ब्र० मोतीसागरजी के जीवन के साथ । ब्र० मोतीचंदजी सनावद के रहने वाले थे। १८ वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। लेकिन गांव में परिवार के साथ रहते तथा व्यवसाय में हाथ बंटाते तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करते साधुओं की सेवा करने में सबसे आगे रहते लेकिन घर से बाहर निकल कर किसी संघ में रहने का साहस नहीं जुटा पाते । भाग्य से १९६७ में आर्यिका ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद में ही चातुर्मास हो गया। चातुर्मास में ब्रह्मचारी जी ने समाज के साथ-साथ संघ में सभी साध्वियों की बहुत सेवा की जब माताजी को मालूम पड़ा कि म० मोतीचन्दजी वर्षों से आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लिये हुये हैं, लेकिन आगे नहीं बढ़ पा रहे। समझदार को इशारा काफी वाली कहावत के अनुसार माताजी के हृदय में मोतीचंदजी के प्रति ममता जाग उठी और वे मुक्तागिरी तक माताजी के संघ के साथ चले गये और संघ को मुक्तागिरी तक पहुंचाकर वापिस सनावद आ गये। लेकिन माताजी की विद्वत्ता तथा शिष्यों के प्रति सहज वात्सल्य से ब्र० मोतीचंदजी प्रभावित हुये। कुछ समय पश्चात् वे शिवसागर महाराज के संघ में आकर माताजी से गोम्मटसार, जीव कांड, कातंत्र व्याकरण, परीक्षामुख, न्यायदीपिका आदि ग्रंथ पढ़ने लगे। I ३३६] माताजी का स्नेहपूर्ण शिष्यत्व स्वीकार करके ब्र० मोतीचंदजी निहाल हो गये। उधर माताजी भी ऐसा सुयोग्य शिष्य पाकर उसे पुनः स्नेह देने लगीं। धीरे-धीरे ब्रह्मचारीजी माताजी के परामर्शक बन गये। माताजी का जो भी कार्य होता, ब्रह्मचारीजी उसे चटपट कर देते। माताजी के मन में जम्बूद्वीप निर्माण करवाने की तीव्र अभिलाषा थी लेकिन उसके लिये कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था माताजी की योजना को साकर रूप देने के लिए मोतीचंदजी ने सिद्धवरकूट, देहली, जयपुर आदि स्थानों का निरीक्षण किया, लेकिन माताजी को कोई स्थान अपनी विशाल योजना के लिए उपयुक्त नहीं लगा। इसके पश्चात् हस्तिनापुर की भूमि को देखा गया। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र माताजी को उपयुक्त स्थान लगा और ब्रह्मचारीजी हरसंभव प्रयत्न करके, समाज के अनेक महानुभावों से मिल करके हस्तिनापुर में जमीन का छोटा टुकड़ा प्राप्त करने में सफल हो गये। इसके पश्चात् जम्बूद्वीप निर्माण की अपनी कहानी है जिसमें मोतीचंदजी का प्रमुख योगदान है। मेरा स्वयं का ब्र० मोतीचंदजी से कितने ही वर्षों से संपर्क है। जब जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के साथ भ्रमण का प्रश्न आया तो मैं भी उसकी एक मीटिंग में उपस्थित था। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ की योजना बनी एक-एक स्थान का उल्लेख, कौन-सा स्थान कितनी दूरी पर है वहां के समाज का प्रमुख कौन है, उसका भी उसमें उल्लेख था। आखिर ज्ञानज्योति रथ निकालने की योजना स्वीकृत हुई और ब्र० मोतीचंदजी, पै० बाबूलालजी जमादार आदि को रथ के साथ रहने, उसे प्रभावक बनाने व अधिक से अधिक आर्थिक सहयोग जुटाने का कार्य / उत्तरदायित्व दिया गया। सारे देश में ज्योति रथ के भ्रमण ने समाज में अभूतपूर्व सामंजस्य स्थापित किया। मैंने आपको प्रत्येक कार्य में भूत की तरह जुटा हुआ देखा है तथा त्रिलोक शोध संस्थान के निर्माण में अपना जीवन समर्पित किया है। वर्तमान में ब० मोतीचंदजी क्षुल्लक मोतीसागरजी है। जम्बूद्वीप के पीठाधीश भी है, लेकिन अपना अधिकांश समय माताजी के साथ स्वाध्याय, चर्चा एवं त्रिलोक शोध संस्थान की समस्याओं को सुलझाने में देते रहते हैं। मैंने देखा है कि आप में माताजी के प्रति वही श्रद्धा, वही विनय, वही समर्पण जो पहिले था आज भी विद्यमान है। यही कारण है कि त्रिलोक शोध संस्थान एवं जम्बूद्वीप की ख्याति में दिन-प्रतिदिन स्वयमेव चार चांद लग रहा है। ऐसे महान् आत्मा को मेरा भी नमन है । ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी ' आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दूसरे स्तम्भ है ० रवीन्द्रकुमार यद्यपि वे माताजी के गृहस्थावस्था के छोटे भाई है, लेकिन आर्थिका माताजी के लिये तो भाई का संबंध होता ही नहीं, इसलिये हम उन्हें शिष्य के रूप में देख सकते हैं जैसे ही आप जम्बूद्वीप की परिधि में प्रवेश करेंगे। प्रवेश करते ही स्वागत कक्ष आवेगा, कार्यालय दिखाई देगा और वहीं एक कमरे में अध्यक्ष की कुर्सी पर ब्रहाचारी के वेश में बैठे हुये जो मिलेंगे वे ही ० रवीन्द्रकुमारजी हैं जैसे ही उनको यात्री के आने की सूचना मिलती है उसे किस कमरे में ठहराना है, क्या-क्या सुविधायें देनी है, चाय-पानी, नाश्ता भोजन सभी का एक साथ आदेश सुनाई देगा। ब्र० रवीन्द्रकुमारजी अपना अधिकांश समय इसी कमरे में बैठकर संस्थान के कार्यों को देखते रहते हैं, यात्रियों से मिलना, संस्थान के विषय में जानकारी देना, आगत पत्रों का जवाब देना सभी कार्य उसी कमरे में बैठकर किया जाता है। I रवीन्द्रकुमारजी ४२ वर्षीय युवा ब्रह्मचारी हैं और इन ४२ वर्षों में २० वर्ष आचार्य धर्मसागरजी महाराज के पास आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत को लिये हुये हो गया। जब आपने ब्रह्मचर्य व्रत लिया तो आचार्य धर्मसागरजी स्वयं भी एक युवक को और वह भी ज्ञानमती माताजी के छोटे भाई को ब्रह्मचर्य व्रत देकर बहुत प्रसन्न हुये थे तथा नागौर में आपका शानदार जुलूस निकाला गया था ब्यावर में आर्थिका ज्ञानमतीजी के पास भी आपका भव्य स्वागत किया गया था उस समय माताजी ने अपने छोटे भाई को अपनी ही बिरादरी में सम्मिलित होते देख भविष्य की योजनायें साकार होती देखी होंगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ भगवान् महावीर की २५०० निर्वाण शताब्दी महोत्सव वर्ष में रवीन्द्रजी ने भी देहली में रहकर मुनिसंघों की सेवा करने का श्रेय प्राप्त किया। इसके पश्चात् जब जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का सारे देश में प्रवर्तन हुआ तो उसमें भी रवीन्द्रकुमारजी ने अपना प्रमुख योगदान दिया। आसाम, बिहार आदि प्रदेशों में भी जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ के निर्देशक व रवीन्दर कुमारजी रहे। ब्र० रवीन्द्रकुमारजी सम्यग्ज्ञान पत्रिका के सम्पादक हैं तथा और भी जितने प्रकाशन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से, वौरज्ञानोदय ग्रंथमाला की ओर से होते हैं उनका सम्पादन एवं देखरेख आप ही तो करते हैं। समाज के आपको निमंत्रण मिलते ही रहते है। जहां भी इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुप महामंडल विधान, सर्वतोभद्र विधान अथवा अन्य विधान होते हैं उनमें भी भाग लेकर आयोजकों का उत्साह बढ़ाते रहते हैं। मुनिसंघों में भी आप जाते रहते हैं। अभी जब चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के आचार्य अजितसागरजी महाराज के समाधिमरण के पश्चात् पंचम पट्टाचार्य का प्रश्न खड़ा हुआ, समाज दो दिशाओं में बंट गया तो आर्थिका ज्ञानमती माताजी के विचारों के अनुसार उस समय आपने आचार्य श्री श्रेयांससागरजी महाराज को पंचम पट्टाचार्य बनाकर अपनी अद्भुत एवं असाधारण कर्तृत्व शक्ति का परिचय दिया। समाज के विरोध की परवाह नहीं की और माताजी ज्ञानमती के विचारों को पूर्ण समर्थन दिया। पंचम पट्टाचार्य के पश्चात् षश्चम पट्टाचार्य बनाने में भी आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। जम्बूद्वीप में पांच पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें हो गई एक प्रतिष्ठा में तो मुझे भी सम्मिलित होने का अवसर मिला था। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आपकी कार्यशैली देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई तथा इतनी बड़ी-बड़ी प्रतिष्ठायें निर्विघ्न समाप्त हो सकीं। दिनरात कार्य करने पर भी कभी थकान अथवा नाराजगी नहीं दिखाई देती थी। आप निर्माण कार्य में भी पूरी पैठ रखते हैं और रात-दिन कारीगरों, मिस्त्रियों एवं इंजीनियरों में उलझे रहते हैं। आज जम्बूद्वीप समस्त देश के आकर्षण का केन्द्र बन चुका है उत्तर भारत का यह प्रसिद्ध तीर्थ बन चुका है जो प्रथम बार इसको देखता है वह ठगा सा जाता है। इन सब कार्यों के पीछे ब्र० रवीन्द्रकुमारजी का प्रमुख हाथ है, इसीलिये आपको ज्ञानमती माताजी का प्रमुख स्तम्भ मानते हैं। हम आपके यशस्वी एवं दीर्घ जीवन की मंगलकामना करते हैं। । । [३३७ गणिनी आर्यिका श्री के दीक्षागुरु आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का परिचय महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद जिले में एक छोटे से कस्बे "ईर" नामक ग्राम में रामसुख नाम के एक योग्य चिकित्सक श्रेष्ठी रहा करते थे, उन्होंने भाग्यवती धर्मपत्नी को पाकर मानो सचमुच ही रामसुख प्राप्त कर लिया था। गंगवाल गोत्रिय ये दम्पति श्रावक कुल के शिरोमणि थे। प्रतिदिन मंदिर में जाकर देवदर्शन करना, भक्ति पूजा आदि उनके जीवन के आवश्यक अंग थे। Jain Educationa International - ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर वि०सं० १९३३ ईस्वी सन् १८७६ में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन माता भाग्यवती ने एक अपूर्व चाँद को जन्म दिया, जिसके आगमन की अप्रतिम प्रसन्नता ने माता की प्रसव वेदना भी समाप्त कर दी । होनहार इस बालक का नाम घरवालों ने मिलकर "हीरालाल " रखा। सवा महीने के बाद जब माता और बालक को लेकर सभी नगर निवासी जिन मंदिर गए, तब वहाँ भगवान् के समक्ष जैन संस्कृति के अनुसार एक पंडितजी ने बालक के कानों में णमोकारमंत्र सुनाकर सर्वसाक्षीपूर्वक अष्टमूलगुण धारण करवाया तथा ८ वर्ष तक इन मूलगुणों को पालन करवाने की जिम्मेदारी माता पर डाली। बार-बार आंखें खोलकर हीरा मानो कह रहा था कि मैं सब कुछ समझ रहा हूँ। समय अपनी गति से बढ़ा और हीरालाल धरि-धरि १५ वर्ष के युवक हो गए। पिता के साथ व्यापार तो करते थे, किन्तु इनका चित उदासीन रहने लगा और ये अपना अधिक समय भगवान् की पूजन भक्ति एवं शास्त्र स्वाध्याय में व्यतीत करते । हीरालाल अब कोई नादान नहीं थे। वे परिवार की सारी स्थिति को समझ रहे थे। माता-पिता द्वारा विवाह के लिए दबाव डाले जाने पर भी उन्होंने सर्वधा मना कर दिया और अन्ततोगत्वा उन्होंने ब्रह्मचारी रूप में ही घर में रहते हुए माता-पिता की सेवा करना स्वीकार किया। रामसुख भी अब कुछ आश्वस्त हुए कि बहू न सही किन्तु कम से कम बेटा तो हमारे जीवन का अंग बना ही रहेगा। घर में रहकर भी हीरा अपनी चमक में निखार लाने हेतु रस परित्यागपूर्वक भोजन करना एवं शास्त्रों का मनन-चिन्तन पूर्व की अपेक्षा अधिक प्रारंभ हो गया। For Personal and Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला दिवस, मास और वर्ष व्यतीत होने लगे। कुछ दिनों के बाद ही रामसुखजी का स्वर्गवास हो गया। पितृवियोग के साथ-साथ कतिपय दिवसों ही माता भी स्वर्ग सिधार गई। अब हीरालाल के लिए मात्र बड़े भाई का ही संबल था। के पत् ज्ञानी के लिए तो सबसे प्रबल संबल उसका तत्त्वज्ञान ही होता है उसी का आधार लेकर हीरालाल ने अपनी मंजिल को अब निराबाध समझ लिया। वि०सं० १९७३ (सन् १९१६) में औरंगाबाद के निकट "कचनेर" नामक अतिशय क्षेत्र में धार्मिक पाठशाला खोलकर हीरालालजी बालकों को निःशुल्क धार्मिक शिक्षण देने लगे, पुनः औरंगाबाद में भी एक विद्यालय खोलकर उन्होंने धार्मिक अध्ययन कराया। दोनों जगह इन्होंने अवैतनिक अध्ययन कराया था और उस प्रान्त में सभी के द्वारा गुरुजी कहे जाने लगे थे। यह अध्ययन कम सात वर्ष तक चला, जिसके मध्य निःस्वार्थ सेवा भाव से जनमानस के नस-नस में जैनधर्म का अंश भर दिया था। वि०सं० १९७८ (सन् १९२१) में नांदगांव में ऐलक श्री पन्नालालजी का चातुर्मास होने वाला था। चातुमास के समाचार सुनकर हीरालाल गुरुदर्शन की लालसा से नांदगांव पहुँच गए। अब तो हीरालाल को अपनी स्वार्थसिद्धि का मानो स्वर्ण अवसर ही प्राप्त हुआ था अतः मौके का लाभ उठाते हुए आषाढ़ शुक्ला ग्यारस को ऐलक श्री पन्नालालजी के पास सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिया, पुनः नाँदग्राम के ही एक प्रसिद्ध श्रावक खुशालचंदजी को हीरालाल ने अपना साथी बना लिया अर्थात् उनके हृदय के अंकुरित वैराग्य को बौज रूप दे दिया और उन्हें भी सप्तम प्रतिमा के व्रत दे दिए। इसी प्रकार हीरालालजी को ज्ञात हुआ कि दक्षिण के कोन्नूर ग्राम में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज नाम के एक दिगम्बर मुनि विराजमान हैं। बस, फिर क्या था, दोनों ब्रह्मचारी शीघ्र ही आचार्यश्री के पास पहुँच गए। दर्शन-वंदन करके आशीर्वाद प्राप्त किया। जिस प्रकार आचार्य धरसेन स्वामी के पास पुष्पदंत और भूतबलि दो शिष्य उनकी इच्छापूर्ति के लिए पहुंचे थे, उसी प्रकार मानो आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पास युगल ब्रह्मचारी उनको अविच्छिन्न परंपरा चलाने का भावी वन संजोकर पहुँचे थे। गुरुवर की कठोर तपश्चर्या और त्याग की चरम सीमा को देखकर दोनों बड़े प्रभावित हुए और उन्हीं से दीक्षा लेना निश्चित कर लिया। आचार्यश्री ने दोनों भव्यात्माओं को दूरदृष्टि से परखकर दीक्षा देना तो स्वीकार कर लिया, किन्तु एक बार घर जाकर परिवारजनों को सन्तुष्ट करके क्षमायाचनापूर्वक आज्ञा लेकर आने का आदेश दिया। घर से वापस आने पर आचार्यदेव ने ब्रह्मचारी युगल को सर्वप्रथम श्रावकोत्तम क्षुल्लक दीक्षा देने का निर्णय किया और शुभ मुहूर्त निकालावि०सं० १९८० सन् १९२३ फाल्गुन शुक्ला सप्तमी का पवित्र दिवस। हीरालाल यद्यपि मुनिदीक्षा सर्वप्रथम धारण करना चाहते थे, किन्तु आचार्य श्री की आशनुसार शारीरिक शक्ति परीक्षण हेतु क्षुल्लव दीक्षा में ही सन्तोष प्राप्त किया। तभी गुरुदेव ने सभा के मध्य ब्र० हीरालाल को क्षुल्लक श्री वीरसागर और ब्र० खुशालचंद को क्षुल्लक चन्द्रसागर नाम से संबोधित किया, जिसका सभी ने जय-जयकारों के साथ स्वागत किया। कुछ ही दिनों में वि० सं० १९८१ (सन् १९२४) में संघ समडोली ग्राम पहुँचा और वहीं वर्षायोग स्थापना हुई। शिष्य की तीव्र अभिलाषा एवं पूर्ण योग्यता देखकर आचार्य श्री ने समोली में ही इन्हें मुनिदीक्षा प्रदान की। अब तो वीरसागरजी क्षुल्लक से मुनि वीरसागर बन गए और मानो आज तो त्रैलोक्य की सम्पदा ही प्राप्त हो गई हो, ऐसी असीमित प्रसन्नता वीरसागरजी ने अपने जीवन में प्रथम बार प्राप्त की थी। इसीलिए आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम शिष्य होने का परम सौभाग्य मुनि वीरसागर को ही प्राप्त हुआ । मुनिदीक्षा के पश्चात् आपने आचार्यसंघ के साथ दक्षिण से उत्तर तक बहुत सी तीर्थवंदना करते हुए पद विहार किया। गुरुदेव के चरणसानिध्य में अनमोल शिक्षाओं को जीवन में गांठ बांधकर आपने रखने का निर्णय किया था इसीलिए अन्त तक गुरुभक्ति का प्रवाह हृदय में प्रवाहित रहा। आचार्यश्री के साथ आपने १२ चातुर्मास किए। उन गांवों के नाम-श्रवणबेलगोल, कुम्भोज, समडोली, बड़ी नींदनी, कटनी, मथुरा, ललितपुर, जयपुर, ब्यावर, प्रतापगढ़, उदयपुर तथा देहली। वि०सं० १९९२ (सन् १९३५) में गुरु की आज्ञानुसार आपको अलग विहार करना पड़ा अतः गुरुवियोग के दुःख को सहन करते हुए मुनि श्री वीरसागरजी के संघ का प्रथम चातुर्मास गुजरात के ईडर शहर में हुआ। जहाँ अपूर्व धर्मप्रभावना हुई । वि०सं० २००० में आप खाते गाँव चातुर्मास करके सिद्धवरकूट क्षेत्र पधारे। दो चक्री दशकामकुमारों की निर्वाणभूमि के उस पवित्र स्थल पर औरंगाबाद के अन्तर्गत अड़गाँव निवासी खंडेलवाल जाति में जन्म लेने वाले वका गोत्रीय श्रावक हीरालाल को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की और उनका शिवसागर नाम रखा। शिष्य परंपरा की श्रंखला में वीरसागरजी के मुनियों में प्रथम शिष्य शिवसागर हा बने, जो भविष्य में गुरु के पट्टाचार्य पद को सुशोभित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३३९ कर संघ संचालन का श्रेय प्राप्त कर चुके हैं। बीस वर्षों के लम्बे अन्तराल के पश्चात् सन् १९५५ में कुंथलगिरी क्षेत्र पर आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने चातुर्मास किया था; इधर वीरसागर महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित जयपुर खानियों में चातुर्मास कर रहे थे। हजारों मील की यह दूरी भी गुरु शिष्य के परिणामों का मिलन करा रही थी। आचार्यश्री शांतिसागर महाराज ने अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य यमसल्लेखना ग्रहण कर ली थी। इस समाचार से उनके समस्त शिष्यों एवं सम्पूर्ण जैन समाज के ऊपर एक वज्र-प्रहार-सा प्रतीत होने लगा था। कुंथलगिरी में प्रतिदिन हजारों व्यक्ति इस महान् आत्मा के दर्शन हेतु आ-जा रहे थे। सल्लेखना की पूर्वबेला में ही आचार्य श्री ने अपना आचार्यपद त्याग कर दिया और तत्कालीन संघपति श्रावक श्री गेंदनमलजी जौहरी बम्बई वालों से एक पत्र लिखवाया। अपने प्रथम शिष्य मुनि श्री वीरसागरजी महाराज को सर्वथा आचार्य पद के योग्य समझकर एक आदेश पत्र जयपुर समाज के नाम लिखवाकर भेजा। यहाँ पर समयोचित ज्यों की त्यों वे दोनों पत्र दिये जा रहे हैं। आचार्य श्री द्वारा लिखाया गया समाज को पत्र कुन्थलगिरी, ता० २४-८-५५ स्वस्ति श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान जयपुर धर्मस्नेहपूर्वक जुहारू । अपरंच आज प्रभात में चारित्रचक्रवर्ती १०८ परमपूज्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री १०८ मुनि वीरसागरजी महाराज को आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा कर दी है। अतः उस आचार्यपद प्रदान करने की नकल साथ भेज रहे हैं। उसे चुतर्विध संघ को एकत्रित कर सुना देना। विशेष आचार्य महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि आज से धार्मिक समाज को इन्हें श्री वीरसागर जी महाराज को आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। लि. गेंदनमल, बम्बई लि० चन्दूलाल ज्योतिचंद बारामती आचार्य पद प्रदान का समारोह दिवस भाद्रपद कृष्णा सप्तमी गुरुवार निश्चय किया गया था। विशाल प्रांगण में सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री वीरसागर मुनिराज को गुरुवर द्वारा दिया गया आचार्य पद प्रदान किया गया था। उस समय पंडित इंद्रलालजी शास्त्री ने गुरुदेव द्वारा भिजवाये गये आचार्य पद प्रदान पत्र को सभा में पढ़कर सुनाया, जो कि निम्न प्रकार है कुन्थलगिरी ता० २४-८-५५ स्वस्ति श्री चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्य पद प्रदान पत्र लिखा जाता है हमने प्रथम भाद्रपद कृष्णा ११ रविवार ता० २४-८-५५ से सल्लेखना व्रत लिया है। अतः दिगम्बर जैन धर्म और श्रीकुन्दकुन्दाचार्य परंपरागत दिगंबर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण तथा संवर्द्धन के लिए हम आचार्य पद अपने प्रथम निम्रन्थ शिष्य श्रीवीरसागरजी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् दो हजार बारह बुधवार के प्रभात के समय त्रियोग शुद्धिपूर्वक संतोष से प्रदान करते हैं। आचार्य महाराज ने श्री पूज्य वीरसागरजी महाराज के लिए इस प्रकार आदेश दिया है। इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैनधर्म तथा चतुर्विध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संर्वधन करना चाहिए। ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है। आचार्य महाराज ने आपको शुभ आशीर्वाद कहा है। इति वर्धताम् जिनशासनम्। लिखी- गेंदनमल बम्बई- त्रिबार नमोस्तु लिखी- चंदूलाल ज्योतिचंद बारामती- त्रिबार नमोस्तु उपर्युक्त आचार्य पद प्रदान पत्र पढ़ने के बाद श्री शिवसागरजी मुनिराज ने उठकर पूज्य श्री आचार्य शांतिसागरजी द्वारा भेजे गए पिच्छी कमण्डलु भी श्री पूज्य वीरसागरजी मुनिराज के करकमलों में प्रदान किया। सर्वत्र सभा में आचार्य श्री वीरसागर महाराज की जयकार गूंज उठी। इसके पूर्व श्री वीरसागर महाराज ने कभी भी अपने को आचार्य शब्द से संबोधित नहीं करने दिया था, यह उनकी पद निर्लोभता का ही प्रतीक था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला - बन्धुओं ! यह भवितव्य और गुरुभक्ति का ही चमत्कार है वर्ना कौन जानता था कि छोटे से गांव में जन्मा एक बालक हम सबका मार्गदर्शक आचार्य बन जाएगा। यदि आज के दिन इनके माता-पिता जीवित होते तो उन्हें कैसी अलौकिक प्रसन्नता होती- अपने पुत्र को जगवंद्य पद में देखकर। इस खुशी का अनमान प्रत्येक माता-पिता अपने योग्य पुत्र की उन्नति से प्राप्त कर सकते हैं। माता-पिता के स्थान पर आज अग्रज गुलाबचंद जो भाई के मोह में विह्वल थे, उन्होंने उस भ्राता को अपना भी पूज्य गुरुदेव मानकर शेष जीवन का कल्याण उन्हीं के चरणसानिध्य में करने का निश्चय किया था। अब आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज अपनी गुरुपरंपरा के आधार पर अपने चुतर्विध संघ का संचालन करने लगे। वर्तमान की पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने क्षुल्लिका वीरमतीजी की अवस्था में क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ सन् १९५४ के दिसंबर महीने में “चाकसू" राजस्थान में आचार्य श्री वीरसागर महाराज के प्रथम दर्शन किए थे। पुनः चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की आज्ञा से उनकी समाधि के पश्चात् वे आचार्य श्री वीरसागर महाराज के संघ में ही पहुंच गई और सन् १९५६ की वैशाख शुक्ला दूज के दिन "माधोराजपुरा" राजस्थान में आचार्यश्री ने उन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ज्ञानमती नाम से सम्बोधित किया। उन्होंने अपनी इस नवदीक्षित शिष्या के अन्दर जाने कितने गुण अपनी रत्नपारखी दृष्टि से देख लिए थे। इसीलिए इन्हें एक लघु सम्बोधन मात्र प्रदान किया था- "ज्ञानमती ! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है, उसका ध्यान रखना।" इसके साथ उन्होंने एक आज्ञा भी प्रदान की थी कि "तुम अपने आर्यिका संघ सहित अलग विहार करना और शिष्याओं को संग्रह करना और उन्हें प्रायश्चित आदि भी स्वयं देना।" अपने जीवनकाल में ही आचार्य श्री ने इन्हें पृथक् विहार भी कराया और उनके द्वारा हुई धर्मप्रभावना सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आज गुरुदेव के वे शब्द पूज्य माताजी के जीवन में पूर्णतया फलित हो रहे हैं। ___ आचार्य श्री वीरसागर महाराज मितभाषी एवं संघस्थ शिष्यों के अनुग्रह में माता-पिता की भूमिका निभाने में कुशल एक प्रौढ़ संघनायक थे। गांव-गांव, नगर-नगर में विहार करते हुए आचार्य श्री ने जब अनेकों स्थान पर सदियों से चली आ रही हिंसक बलि परम्परा को देखा, तब उन्होंने अनेक युक्तियों से पंच पापों के दर्दनाक वर्णनपूर्वक अपने उपदेशों से बलिप्रथा बन्द करवाई। ___ आचार्य श्री द्वारा दीक्षित शिष्यों की नामावली इस प्रकार है- मुनि श्री शिवसागरजी, मुनि श्री धर्मसागरजी, मुनि श्री सुमतिसागरजी, मुनि श्री पद्मसागरजी, मुनि श्री जयसागरजी, मुनिश्री सन्मतिसागरजी, मुनि श्री श्रुतसागरजी, ऐलक श्री अजितसागरजी, क्षु० श्री सिद्धसागरजी, क्षु० श्री सुमतिसागरजी, आर्यिकाश्री वीरमतीजी, आर्यिका श्री कुंथुमतीजी, आ०श्री सुमतिमतीजी, आ० श्री पार्श्वमतीजी, आ० श्री विमलमतीजी, आ० श्री शान्तिमतीजी, आ० श्री इन्दुमतीजी, आ० श्री सिद्धमतीजी, आ० श्री वासमतीजी, आ० श्री ज्ञानमतीजी, आ० श्री सुपार्श्वमतीजी, क्षुल्लिका श्री गुणमतीजी, क्षुल्लिका श्री चन्द्रमतीजी, क्षुल्लिका श्री जिनमतीजी, क्षुल्लिका श्री पद्मावतीजी। वर्तमान युगानुसार उस समय दिगम्बरजैन साधुओं के अलग-अलग संघ नहीं थे और न उनकी कोई भिन्न-भिन्न परम्पराएं थीं, किन्तु सारे हिन्दुस्तान में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की आदर्श परम्परा वाला “आचार्यश्री वीरसागर महाराज" का संघ ही कहा जाता था। सम्पूर्ण अनुशासन पट्टाधीश आचार्य का ही चलता था, जिसका पालन आज तक भी उस पट्ट परम्परा वाले संघ में हो रहा है। उन आगमिक परम्पराओं एवं अनुशासन से संचालित संघ का वर्तमान में परमपूज्य १०८ आचार्य श्री अभिनन्दनसागर महाराज छठे पट्टाचार्य के रूप में नेतृत्व कर रहे हैं। आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने अपने चतुर्विध संघ सहित सन् १९५७ का चातुर्मास जयपुर खानियां में किया। उस चातुर्मास के मध्य आपका शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त क्षीण होने लगा और आश्विन कृष्णा अमावस्या के दिन महामंत्र का स्मरण करते हुए पद्मासन पूर्वक ध्यानस्थ मुद्रा में नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आज उन महामना आचार्यश्री का भौतिक शरीर हमारे बीच में नहीं है किन्तु उनकी अमूल्य शिक्षाएं विद्यमान हैं। उन पर अमल करते हुए हमें अपने जीवन को समुन्नत बनाना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३४१ गणिनी आर्यिकाश्री की पवित्र जन्मस्थली गौरवशाली टिकैतनगर - लालचंद जैन, टिकैतनगर "जिसको न दे मौला, उसको दे आसिफुद्दौला" जन श्रुति आज भी जनमानस में गूंजती है। अवध के हर दिल अजीज नवाब आसिफुद्दौला के शासन काल अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनेक ऐतिहासिक सुविख्यात इमारतें निर्मित की गई। लखनऊ का इमामबाड़ा आज भी नवाब की वास्तुकलाविद् स्मृति को संजोये हुए है। नवाब के मंत्री झाऊलाल जिन्हें जनता "राजा दहीगांव" कहकर संबोधित करती थी, सुयोग्य प्रशासक थे। नवाब के आला वजीर राजा टिकैतराय नवाब की इच्छानुसार अनेक कूपों, बावड़ियों, पुलों, राज-पथों का निर्माण कराते रहते थे। प्रजा इन्हें सदैव श्रद्धा और सम्मान देती थी। कतिपय विद्वेषियों ने नवाब साहब के कान भरे। हुजूर ! राजा साहब केवल हिन्दू कुएँ, पुल आदि बनवाते हैं, मुसलमान उपेक्षित हैं। इन्हें रोका जाये। कान के कच्चे नवाब ने सभी निर्माण कार्य तुरंत बंद करने का आदेश दे दिया। राजा साहब वस्तुस्थिति समझकर शांत रहे। तभी कुछ दिनों बाद नवाब साहब अपने परिकर के साथ रियासत भ्रमण के लिए निकले। आगे बढ़ते मार्ग में एक गहरे चौड़े नाले ने उनके लाव-लश्कर के बढ़ते कदम रोक दिये। नवाब ने अविलम्ब राजा साहब को पुल निर्माण कराने की आज्ञा दी। राजा साहब ने विनम्र निवेदन किया जहाँपनाह ! पुल मुसलमान बनाया जाय या हिन्दू? नवाब बौखलाए, क्या पुल भी हिन्दू-मुसलमान होते हैं? हुजूर आपका फरमान है। नवाब ने अपनी भूल का परिमार्जन किया और राजा टिकैतराय को बे-रोकटोक निर्माण कराते रहने का निर्देश दिया। फलस्वरूप राजासाहब ने बहुत कार्य किया। लखनऊ में टिकैतराय का तालाब, लखनऊ के पास ही टिकैतगंज और बाराबंकी जनपद में टिकैतनगर का निर्माण उनकी कीर्ति पताका दिग्दिगन्त में फहरा रही है। उन्होंने अपना विशेष ध्यान टिकैतनगर पर केन्द्रित किया था। इसकी रचना बड़ी कुशलतापूर्वक कराई गई थी। नगर के चारों ओर तीन हाथ चौड़ी लखौड़ी ईंटों की बाउन्डरीवाल की चूने से जुड़ाई की गई थी। मुख्य चौक सुन्दर पक्का राजपथ चारों दिशाओं में एक-एक उपचौक, आगे चारों ओर मुख्य मार्गों के प्रवेश द्वारों पर एक बुलन्द दरवाजा, दो छोटे दरवाजे जिनमें लकड़ी के मजबूत किवाड़ बाहर कांटों उभरे लगे, ऊपर नौबतखाना, ऊँची बुर्जियाँ, कंगूरे, ताखे बनाए गए थे। रात्रि में किवाड़ बन्द किए जाते थे। बाउंडरीवाल से लगे हुए चारों और निर्मल जल से भरे हुए गहरे सरोवर जिनमें कमल, कोकावेली खिले, पक्षी कलरव करते रहते थे। जिनके भग्नावशेष अभी भी सुरक्षित है। नगर को चार बार्डों में विभक्त किया गया था जिसमें प्रमुख है-सरावगीबार्ड। राजा साहब ने नगर के अन्दर केवल वैश्य वर्ण को सम्मान सहित बसाया था। गाँव के बाहर चारों ओर तत्कालीन शूद्रों की बस्ती बसाई थी। वेश्याओं को नहीं आमंत्रित किया था। टिकैतनगर से लगभग एक किलोमीटर दूर कस्बा ग्राम में लखनऊ के बड़े इमामबाड़े में बनी एशिया की सबसे बड़ी बिना एक इंच लोहा सीमेन्ट और बीच में खम्भों के बगैर लम्बी-चौड़ी छत के साथ प्रसिद्ध भूल-भूलैया की अनुकृति के समान छोटी भूलभुलैया बनाई और एक पक्के सरोवर का निर्माण कराया जिसमें कुओं से जल भरवाया गया था। राजा साहब को यह स्थान परम प्रिय था। वह जब भी टिकैतनगर आते, अपना अधिकांश समय वहीं व्यतीत करते थे। जन श्रुति है एक दिन संध्याकाल में राजा साहब वहाँ विश्राम कर रहे थे, उनके दरबारी जुड़े थे, चर्चाएं चल रही थीं एक अलमस्त फकीर विचरण करता आया, निर्भय हो सरोवर की सीढ़ियों से जल तक उतरा। हाथ-पैर-मुँह धोए, कुल्ली की और पानी पिया। राजासाहब एक टक खिन्न मन से देखते रहे और उनके धैर्य का बाँध टूट गया। जब फकीर ने गांठ खोली कुछ हरी पत्तियाँ निकाली और उन्हें सरोवर में धोने लगा। राजा के इशारे से एक दरबारी ने फकीर को जल के दुरुपयोग करने से रोका । मलंग फकीर राजा तक आया, सहास्य बोला, यदि पथिकों को सरोवर के जल को उनके उपयोग में नहीं लेने देना है तो यह सार्वजनिक जलाशय बनाने का दंभ क्यों किया राजन् ? पथिक- नाराज न हो। यहाँ अनेक तालाब हैं। मैंने इसे बड़ी लगन से बनवाया है, मेरी आत्मीयता इससे जुड़ी हुई है। जल खूब पियो, किन्तु इसमें गन्दगी न करो। यह गाँजा-भाँग न धोओ, राजा बोले। इतना विशाल जल भण्डार-मुट्ठी भर गांजा-भाँग यदि धो भी लिया तो क्या अन्तर आयेगा ? दरवेश ने तर्क किया। राजा को कोई युक्ति संगत उत्तर नहीं सूझा, बोल गए- मुझे भय है कि कहीं इसका स्वच्छ धवल जल हरित न हो जावे? एवमस्तु- तुम्हारी भावना फलीभूत हो। संत ने एक चुटकी धूल उठाकर तालाब में फेंकी और जलाशय हरा हो गया। विस्मित-भय मिश्रित सकम्प राजा अपनी मसहरी से उठे और निहंग के चरणों में लोट गए। करबद्ध क्षमा माँगी। मान, अपमान में समभाव रखने वाले वह साधू, द्रवित हो गया। बोला-वत्स ! माँग ले जो भी चाहे, इस समय वरदान माँग ले। मैं अवध की सल्तनत का आला वजीर हैं, नवाब का समस्त कोष मेरे इशारे पर व्यय होता है, मुझे कोई अभाव नहीं है। भगवन् ! हाँ, आप जो भी इच्छा करें आपके चरणों में अर्पण कर दूंगा। सदर्प राजा बोले। साधू का वचन खाली नहीं जाता; हठ मत कर, ले ले अन्यथा पछतायेगा। मैं चला। और वह निलोभी गीत गुनगुनाता चलने को उद्यत हुआ। राजा ने पैर नहीं छोड़े, अनुनय कर कहा, प्रभो! आप जल हाथ में लेकर संकल्प कर वरदान देवें तभी मैं ले सकूँगा। फकीर ने बात मान ली। घुटने टेककर बैठे राजा ने जिज्ञासा प्रकट Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला की महात्मन् जो भी जन्म लेता है उसका मरण अनिवार्य है। मैंने टिकैतनगर के सृजन में अपना हृदय उड़ेल दिया है। मेरी अन्तरात्मा से इसका लगाव है, आज एक यह समृद्ध नगर है इसकी उन्नति कब तक अक्षुण्ण रहेगी ? डेढ़ सौ वर्ष (१५० वर्ष) फकीर बोला। राजा उदास हो गये। कहा अब वरदान स्वामिन् दे देवे- मुझे कोई सन्तान नहीं होवे, एवमत्सु- ऐसा ही होगा। वर देकर वह बोला, पुत्र के लिए लोग कितनी मनौतियाँ, जप-तप, औषधि एवम् अनेक उपाय करते हैं। तुमने विपरीत क्यों किया? महात्मन् मैंने सदैव स्वार्थरहित जन कल्याण के कार्यों में अपना जीवन लगाया है। सुकीर्ति प्राप्त की है। सम्भव है मेरे वंशजों में कोई अपनी कुप्रवृत्तियों से समाज विरोधी कुकर्म करे तो जनमानस उसे मेरे नाम वंश से जोड़ेगा। यह अपयश मेरी स्वर्गस्थ आत्मा सहन न कर पायेगी, अशान्त बनी रहेगी। वंशबेल निर्मूल हो जाने से मेरी आशंका निर्मूल हो जावेगी, प्रभु अनुग्रह करें। तथास्तु कहकर फकीर अपनी रहा लगा और इतिहास ने इसे प्रमाणित किया। अब से तीन चार दशक पूर्व तक टिकैतनगर ग्राम जनपद का ही नहीं, पड़ोस के अनेक जनपदों का शिरमौर व्यापारिक केन्द्र बना रहा। पीतल के बर्तन, चांदी-सोने के जेवरात, कपड़ा, गल्ला, तिलहन की प्रसिद्ध मंडी रही है। पड़ोस के ही सत्य नाम पंथ के संस्थापक समर्थ जगजीवन साहब की समाधी कोटवा धाम में बनी हुई है जिनका धागा पहनकर लाखों-लाख उनके अनुयायी आज भी मांस, मदिरा से सर्वदा दूर रहते हैं। महाभारत काल में पांडवों ने अज्ञातवास का अधिकांश समय टिकैतनगर के समीप ही बिताया कहा जाता है कि कुन्तेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर किन्तूर में बनाया है तथा धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा रोपित नन्दन वन से लाया गया पारिजात वृक्ष विश्व में अकेला अद्वितीय विशाल प्राचीनतम पेड़ समीप वरौलिया में लगा है। जहाँ देश-विदेश के अनेक वनस्पति विज्ञानी सदैव आते रहते हैं। टाउन एरिया कमेटी टिकैतनगर ग्राम में है। आज दिगंबर जैन अग्रवाल समाज के ७५ परिवार हैं। एक विशाल अप्रतिम जिन मन्दिरजी, चार गृहचैत्यालय हैं। मुख्य मंदिर में मूलनायक सातिशय पार्श्वप्रभु जी, कृष्णवर्णी नेमिनाथ, बाहुबली जी के साथ शताधिक जिन प्रतिमाएँ हैं। यंत्रजी, पद्मावती क्षेत्रपालजी विराजमान हैं। स्फटिकमणि की १२ इंची अवगाहना की दुर्लभ प्रतिमा यहाँ बेजोड़ है। श्री जैन अकलंक सरस्वती भवन में हस्तलिखित अनेकों ग्रंथ तथा प्रकाशित जैन वाङ्मय का भंडार है। गणेशवर्णी जैन पुस्तकालय-वाचनालय स्थापित है। श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन पाठशाला, पूज्य आर्यिका रत्नमती बाल विद्या मंदिर, श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन इण्टर कालेज, जैन शिशु सदन (नर्सरी स्कूल) महावीर भवन व शीतल सदन दोनों दुमंजिली धर्मशालाएँ, अखिल भारतीय लगभग सभी जैन संस्थाओं की शाखाएँ स्थापित हैं। टिकैतनगर को अनेक तपस्वियों की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है। जम्बूद्वीप की निर्मात्री श्री १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी, आर्यिका श्री १०५ रत्नमतीजी, आ० श्री १०५ अभयमतीजी, आ० श्री १०५ चन्दनामतीजी, आ० श्री १०५ सिद्धमती जी , क्षु० श्री १०५ विवेकमतीजी, क्षु० श्री १०५ श्रद्धामतीजी, बाल ब० श्री रवीन्द्र कुमार जैन शास्त्री, बाल ब्र० कु० मालती शास्त्री, बाल ब्र० कु० मञ्जू शास्त्री आदि की जन्म भूमि यही है। समाज के गौरव सर्वश्री पन्नालालजी, जयचंदजी, नेमदासजी, बाबूलालजी, छोटेलालजी, की स्मृतियाँ जनमानस में रची हुई हैं। प्रायः अनेक तीर्थ क्षेत्रों-संस्थाओं के प्रतिनिधि आर्थिक सहायता हेतु यहाँ आते रहते हैं। समाज उदारतापूर्वक उन्हें भरपूर सहयोग देती है। प्रतिदिन शताधिक नर-नारी, युवा जिनेन्द्र की अभिषेक पूजन व्रतादिक करते रहते हैं। श्री १०८ आ० देशभूषणजी ससंघ, श्री १०८ मुनि सुबलसागरजी ससंघ, श्री १०८ आ० विमलसागरजी ससंघ, श्री १०५ आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ, श्री १०८ उपा० सुबाहुसागरजी ससंघ, भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्तिजी नागौर एवं अनेक मुनि-आर्यिकाओं का यहाँ सुखद चातुर्मास हो चुका है। यहाँ बराबर श्री सिद्धचक्र विधान, इन्द्रध्वज विधान, शांतिविधान, ऋषि मंडल विधान, कल्पद्रुम मंडल विधान आदि प्रभावनापूर्वक होते रहते हैं। धर्म की अच्छी जागृति है। हमें अपने नगर पर गर्व है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ (383 DYNAMIC JAIN SADHWI : GANINI GYANMATI JI - N.L. JAIN, REWA Importance of Women and Jain lady Saint Women have been pivotal in the society. They have been centripetal in preserving and maintaining its religiosity for its smooth physical, mental and moral running. While men had to undergo larger number of accommodations due to wider sphere of its activities, the women had little chance for it because of their limited field. That is why certain characteristics have developed in them for which they have a venerable place in the society. It is said that gods reside where women are venerated. Religiosity has been the nerve-center of women. That is why they have always outnumbered men in this field. If we look at the number of Sadhwi in the days of Lord Neminath, Parshwanath and Mahavir (40,000,38,000 and 36,000 respectively), we find a ration of 2.6 : 1 between men and women ascetics. Currently, Jain Jagat indicated a number of 6050 Sadhwi in all the Jain sects in 1982. The above ratio seems to hold even today. Scholars and canonists have pointed out that many social customs and conditions effected the status of women leading to the mentally secondary nature in the patriarchal society. This agonising point could find relief only in renouncements where women can get freedom to upgrade themselves. Ganini Gyanmati Mata ji seems to be exception to this scholarly opinion as she had an inherent desire to be a Jainist preacher aryika since her early childhood days-a rare qauality forming only ten percent of the renunciation causes in Sthananga. Ganiniji-a Shining Star among Aryikas Jain history has always been associated with lady Saints glorifying the Jain order. Arya Brahmi, Arya Rajmati, Arya Chandana, Mrgavati and others top the list in different ages. Ganini Gyanmatiji is a twentieth century addition to this illustrious list. She represents the Digambra sect while Chandanaji, Mrgavati ji and Kanakprabhaji represent the other sects in current times. Despite the fact that there are about 200 Digamber Jain lady saints Gyanmati ji is the shining star among them. She has shown tremendous capacity for ascetic practices and its attendant results for serving the society. She has attained a high state of litanic and meditational strength to give her an impressive aura pointing her high purity of mind and internal spiritual energy. She seems to have developed many inner powers equivalent to miraculous powers leading her to succeed in whatever she speaks or thinks. She has experienced tht asceticism is based more on mental strength rather than physical one. Ganiniji is a firm believer in Jain scriptures and tenets. She does not give any credit to false beliefs and practices current in the society. She realises the importance of yogic and devotional practices for inner and outer well-being of human beings. She feels that the equanimous conductal practices of laymen and ascetics are tuned towards yogic exercises. That is why most saints have high longevity.. Her continuous studies, teaching and travels have made her a scholarly Aryika rare distinction among Digambera ascetics. Actually, teaching and writing have become her habit. She feels odd if either of them is absent from her routine. This habit keeps her healthy even during her illness. She has a super memory, that is why she could narrate her autobiography so lucidly and impressively. She is fertile in imagination, dotermination and long term planning. Her dynamism is shown through her gigantic multifarious activities. Her sermons have traditionally devotional tinge and cast an ovrall impression on the listner with a popular appeal. She is staunch believer in the efficacy of different types of ritualistic observances and she has composed many of them. She has a trend of rejuvenating many older traditions. She has faced large Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 387] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला number of traditionalities, many times unplatable, suggesting her disciplinary bent. Despite this, She has many well progressive ideas tuning with times. Some of them are: (a) using handpump water for religious purposes (b) no-objection to bathing of Jina image by women (c) non-belief in astrology (d) encouraging not to follow popular belifs (e) venerating Sadhwi like monks (t) iniation of Sadhwi by nuns and the like. This suggests she is indirectly improving the status of Aryikas in the society. Her intellectual and scholarly soundness make her outspoken about difference of opinions in explaining basic religious principles and practices. She has criticised many such issues current in the Jain world today in her auto-biography. She is exponent of liberal principles of Jainism most suitable for non-Jain world. Biography • The life story of Gyanmati Mataji does not start with uncommonalities like those of many saintly personages. Still, it has some character ristics of special nature pointing towards her future spiritual career. She was born of a highly religious parents-Shri Chhotelalji and Mohinidevi in October, 1934. Her mother used to study 'Padmnandi-panchvinshatika'-a book on Jain tenets and practices- everytime she was free. This together with her religious lullabies and tales had an indirect bearing on the life-structure of Mainaji-her birth name. Her highly shining forehead indicated a brighter future for her. Her studies started at an early age under Pt. Kamtaprasadji and Jamnaprasadji who had a high opinion about her extra-ordinary intelligence and wisdom. She could remember a lesson by listening or learning once only. They expressed it a result of good merits of earlier births. She has no normal schooling but she studied at home for a good number of years. Later on she studied Jain texts under her preceptors and 108 Mahavirkirti ji Maharaj. Though her mother was trying to enage her in some sort of religion-orinted activities, she realised the dependant life of female children in the community on many occasions. She also felt about the prevalence of traditional perverse practices whenever any natural or otherwise calamity fell on neighbors and family members. Her mother's training-cum-teachings and her self-studious nature resulted in her spiritual evolutionary process. Panditji's sermons led her to believe in the infinite energy of the self, the tales of chastity (Shila) encouraged her to take a vow of lifeling chastity before the Jin-idol in the temple to be independent from social or othr tragedies and the story of Akalanka moved her to think about not to marry for the sake of religious freedom. During her formative years, 10-16, she had many opportunities to regular and home studies of many Jain books including Chhahdhala and her mother's book to make up her mind and to think about involving herself in propagating Jainism in the world through renunciatory way. She became a firm devotionalist with partial intellectual tings. Initiation Starts Her mind was building up for reminciation. She had some inkling about it through a good dream in 1952. When she told about it to her parents and brothers, they could guess about her future. They tried to let her understand the difficulties of ascetic state, but she was adament. Acharya Deshbushanji confirmed the parental guess by looking at her palms that she had a renunciatory hand. By looking a hair-plucking ceremony, she had twinkling of her left eye and arm. Thus, dreams, palmistry and prognostics-all were in conformity to her initiations. However, permission of her parents was a hurdle in they way. She could manipulate it through her religious vow not to take food until it was granted. Her brother helped her in this matter by taking her to Barabanki. She was initiated as seventh model stager celibate at the age of 18 in 1952 on her birthday and as a junior Sadhwi later in 1953 at Mahavirji by Achary Deshbhushanji with her christening as Virmatiji. She travelled with her precepter and later with her senior colleagues. She went to visit Achary Shantisagarji's holy death at Kunthalgiri (Maharastra). She desired for higher ascetic position from him but he asked her to do so from his successor Achary Virsagarji. It is during this process that she had to undergo a conflict of intellect and discipline on many issues. After Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [384 much thought, she followed discipline. Finally, she was initiated as Aryikas after some month's congregational disciplines in 1956 at the age of 22 and was again christened as Gyanmatiji the final name she still bears today. She was blessed to keep her name in quality. Thus she became the full Jain Sadhwi in the Digambera order within five years of her first initiation a rare case. Since 1953, she has about 30 rainy residenses at different places. She has widely travelled throughout the country from north to south and east to west gaining maturity and widening experience about the nature of world and its inhabitants. Self-study an teaching to juniors has been her routine besides her equanimous condustal practices. This has given her mastery over Jain texts and a capacity for writing or translating books at a faster rate. However, she has been mostly concentrating her activities in westen Uttarpradesh at Hastinapur in Merrut District a holy place of antiquity since Rsnabnea's time and associated with Mahabharat, Rakshabandhan, four auspicious events of three Jain Tirthankaras (16, 17 & 18) and many other noted and mythological incidents. She has become now the Ganini-the group leader of her number of disciples. She has passed three stages of her ascetic life-initiation, self-study and group leadership and she is to follow three others-the soul search, holy death and attaining highest place of non-return according to Mulachara. She has been highly active throughout her initiated years and her body seems to yield on occasions telling her that it cannot cope with her mentally active rate. Still, she seems not to worry about body too much, though she has many resignational activities in current times. Activities of Ganiniji The internal and external penances undertaken by a Jain ascetic make him highly energetic-both physically and spiritually. This makes one highly active. Gainiji is no exception to this issue. She works a normally 18 hours a day. Out of which about 4 hours are utilised in routine ascetic practices and 7-8 hours are utilised in self-study, writing, teaching and sermonising. She satisfies the conductal and religious quarries of visitors. Her shining aural face depiots her internal energy casting attractive impressions on her visitors. Her multifarious activities to the cause of Jainistic glorification may be summarised under some heads below. (a) Literary and academic activities While a junior Sadhwi and travelling with her preceptor, she studied Katantra Sanskrit Grammar to become well-versed in three R's of sanskrit at the age of 20. This led her to her first ever composition in Sanskrit in terms of 1000-named eulogy of Jinas at 21. Later, this was followed by many such eulogies exceeding two dozens. She studied Jain texts of logic and tenets by herself and through preceptors for ten years which gave her soundness, seriousness and depth of knowledge encouraging her to involve in literary contributions. The godess of learning bestowed eloquene upon her both in writing and speech. However, it was her rainy residence at Shravan belgola (Karnataka) that made her truly literary from the early 1965. An unparalled volume of literature covering many forms has come out from her in terms of nearly 170 books (some unpublished) during fast 25 years classified under following heads: 1. Hymns and Eulogies 2. Translations (a) Logical books (b) Grammer (c) Religious texts (d) Poetic translations 3. Original books (a) Popular religious books (b) Poetic compositions (c) Ritualistic observances (d) Children literature (e) Religious novels/dramas (f) Biographies/Autobiography Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६] वीर ज्ञानादय ग्रन्थमाला (g) Historical/Misc (h) Jain geography/cosmology 3335 82 Total: 170 The number of books is continuously growing. She has equal, command over writing in Sanskrit and hindi. She has also equal command over writing the simplest children literature and most complex logic books. However, one could easily see that the majority of her literature is devotional and observancial one. She has thus followed the traditional saintly character of propagating religious principles, though she partly reflects her scholastic tints through her translations of Astsahasri and Laghiyastray-the most difficult logic books of the Jainas. Lacs of copies of her books have been published and several have run into several editions testifying popularity of her literature. Jain Educationa International 02 She realised that writings cannot serve their purpose until they are published and brought before the public. She catalysed publication of Vir Jnanoday. Book Series with this end in view in 1972 which has about 110 publications by 1989. She has also been instrumental in bringing out a monthly "Samyak Jnan" to propagate Jainism alongwith her news and views since 1974. She has thus become a litrary institution by herself. 05 Another addition to her literary activities is the foundation of Virsagar Sanskrit Vidyapeeth in 1980 to commemorate her preceptor and with a view to prepare general and special Jainologists whose dearth has been felt for the last so many years. A large number of scholars are being trained in conducting camps, religious ceremonies and ritual observances for service to the community in different parts of the country. Regular camps and seminars have become a routine activity of this institute. Short and long term duration camps for children are also a regular feature besides regular course of studies. She has shown special interests in the education for girls in the institute. For Personal and Private Use Only But this did not seem enough for her. The saintly people are also torch bearers for the future. They have the responsibility of intellectual growth and developments of knowledge fronts. Moreover, when one becomes a true ascetic, one looses his erstwhile identity. One becomes saviour of human kind irrespective of caste and creed. Her principles must be intellectually satisfying. It is with this view that she encouraged foundation of Digambara Jain Trilok Shodh Sansthan (Dig. Jain Cosmological Research Institute) at Hastinapur in 1974. This has published books on Jain Cosmology, Mathematics, and Mathematicians in Hindi and English. It has held national and international academic seminar and camps. to discuse various aspects of Jain cosmology and relevant comparative studies. This seems to be the only Dig. jain Institute where such advanced academic activities are held. A good group of academicians are associated with this institute from all sections of academic world. This reflects an academic bent of Ganiniji- a highly encouraging feature for the current generation. A seminar was also held recently to decide about the standard consecration procedure from amongst many books in vogue where 'Pratistha Tilak' was decided to be followed. This is an attempt towards unification of jain church practices, though there has been an attempt to prepare a unified procedure in this matter. These academic pursuits of Ganiniji fine little mention in discussions about her. (b) Construction of Jambudvip Model and Journey of Light of Jambudvipal Knowledge The year 1965 will be memorable in the life of Ganiniji when she was under rainy residence at Shravanbelgola. She undertook a 15-day continuous meditation-cum-silence during which she felt visiting all the natural Jina temples. This led her to learn about Jain Cosmology through Tiloypannatti and other Jain cosmological works. She concentrated on the details of Jambudvip which is the current human-inhabited area. She decided to plan and construct canonical Jambudvip for which Hastinapur was selected after much thought. There was some murmur about reviving mythology, but she stayed on. It took about 10 years to concretise the idea. The 2500th. Mahavir Salvation Annivarsary in 1974-75 proved to be the starting point. A 25-meter high Sumeru mountain column and 16 small Jina temples could be Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ (3x built by 1979 without any natural or otherwise catastrophy. Her team of devoted persons worked for day and night to complete the first phase. This could be possible only due to her acute ascetical accomplishmental blessings. The ne project required huge finances. The jain community proved liberal enough to render all type of material assistance for such a novel cause. Additional work on the project is still continuing to canonical details. Ganiniji was highly impressed by the Mahavir Charioteering tour for propagating Jain principles and practices. It also served a fund raising device. She also thought of a similar novel plan of a 1046 day tour to highlight Jambudvip in terms of 'Light of Jambudvipal Knowledge in 1981 which was materialised in 1982 with a great start by the late prime minister Mrs. Indira Gandhi from Red Fort, Delhi. Though it served the religious propagation purpose but it did not prove that financial success. These two projects reflect Ganiniji's imagnative and executive acumen-so rare in general. (c) Religious Ceremonies and Ritualistic Performances The monks and nuns have two fold functions to perform: (i) spiritual growth of the self and (ii) kindling the torch of religiosity in the community-a function more important for the society. Ganiniji has always been ahead in performing this function prominently. This represents the devotional aspect of religion. This also reflects that religion may be renunciatory for the self but it is performing arts for the society. Ganini has felt that repeating litanies or mediation is somewhat difficult for common man. He would prefer reading or reciting venerating material easily. She has composed many such ritualistic reciting material of short and long duration towards this end to supplement that already existed. Various types of such ceremonies have been celebrated under her blessed guidance and presence at different places. Indradhwaj, Kalpadrum rituals are her creations. They are gaining popularity these days in all parts of the country. Besides many five-fold consecration cermonies have been held under her auspicios presence and guidance. Hastinapur has been the venue of many of them. These are grand festivals specific to the jainas. In addition, many smaller observances called Vidhanas are always taking place under her encouragement. A specific meritorious atmosphere has been created by her in this maeter. She had added new dimensions in this direction. (d) Glorification of Religion through Devotionalism and Meditation Her devotional and meditational practices have shown many religious glorificationary incidents at different time and places. Some examples (i) the pacification of small pox of her brothers (i) painless delivery of her sister by drinking litanised water in 1952 (iii) getting a lost boy in 1983 by following her instruction for repeating a litany 1,25,000 times (iv) normalisation of eyepower to a devotee's son by her litanic instrtuctions in 1988 (v) non-harming by serpents and scorpions many times (vi) gaining proper health by wearing her clothes by a devotee lady in 1987 (vii) attaining health by many thruogh her blessings and touching through peacock-feather broom. These beneficiary effects are due to her inner strength and psychology. There are numberless such glorification incidents occurring occasionally suggesting active internal energy due to constant devotional and meditational practices by her. (e) Continuation of Tradition One of the most important duty of ascetics has been to encourage continuation of traditon. Ganiniji has prove highly successful in this area. Besides her ever-studious nature, she had also an interest in teaching colleagues and votaries. She manifests an impressive encouragement to others for ascetic path. Her name, fame, spiritual practices and scholarship wields an all round influence on those learning from her. It is due to these qualities that she has been able to encourage many initiations under her fold-the first one being Prabhvatiji. She has been instrumental in about 50 initiations of different stages, the most important being the initiation of Ajitsagarji in 1961 who later became chief of monks. A good number of initiates are her pre-initiated stage kiths and kins who are working for her mission. It is because of these that she bears a title of group leader-Ganiniji. Her group is highly disciplined carrying out her prejects Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला for Jinistic glorification. This process results in continuation of secetic and Aryika traditions. (f) Sermons among Non-Jains Hastinapur has become now a tourist place besides a holy place for all Indians and foreigners. Many people and groups come to visit Jambudvip structure. Ganiniji has to sermonise before them in addition to nearby communities who throng now and then. This results in many of them renouncing bad habits like drinks, meat-eating, night-eating etc.. They have expressed better lives than before. She feels pleasure in addressing such non-Jain gatherings. Her sermons have been attended by many figures from all walks of life from time to time. This has resulted in creating a good atmosphere around the area about Jainism. People have begun appreciating it. (g) Canonism versus Modernism Twentieth century faces many problems which were unknown in the past. Many of them refer to some theoretical and practical issues. In a number of cases, she has preferred to be canonical, follows earlier opinions without involving her own thoughts. The question of 12-yearly holy death system assumes validity only until longevity is ascertained. Conditional following may be exceptional. She prefers older versions of Namokar Mantra in preference to modified version of later date. Secondly, she would prefer litanic repeatitions or recitations to be done with due physical and mental purity. She may not support its public tuning. It is observed that there are many contradictory statements in many texts for which many commentators like Virsen and Aparajitsuri have traditional reply to accept all of them on faith as there are no omniscient lords in this age. She also concurs with their opinion. These contradictory points are also the source of erosion of faith in courrent generation. Her literature has nothing to say about many issues facing the scientific facts and canonical opinions regarding the physical world. Per chance, she believes religion is more a spiritual or psychological phenomenon rather than that of life in totality. She is always etaploring scriptures and finds new ideas from them for practicing currently. For example, she has initiated a 5-yearly intro spective confession system. She seems to be traditional but she is not too rigid about in many practical matters. She accepts things on reasonable grounds too. For example, she has satrted taking salt in her diet when she found that it would be unwise to renounce it for all. She also realised at one point that a privately taken vow is not valid and it must be taken through a preceptor. She has been quite liberal in meeting an inviting monks of different orders and discussing theoretical problems with them. She is always pleased in the company of senior monks or precaptors. This partial modernism is one of the keys for her success. Future Prospects of Jain Asceticism Ganiniji feels Digambara ascetism to be a harsh one. Still she has a fancy to follow it as it teaches fearlessness towards most dreadful reality of death and preaches highest attainment with own efforts. Canons suggest its glorious existence to continue for the coming 18,000 years. This leads her a high optimism for this institution. The community has highest regards for the ascetics to guide the society towards the goal of self-realisation. It is hoped that Ganiniji will encourage our pace to faster towards the goal of individual inner happiness and social prosperity through her sermons and observances. She hopes that the world will ultimately be peaceful by following the jain path. May her dynamism accelerate the glory of Jainism. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३४९ पौर्णिमे चा चंद्र - सौ० शोभना शहा, (बी०ए०) अकलूज [महाराष्ट्र] सन् १९३४ मधील शरद पौर्णिमेची रात्र होती. चंद्र आपल्या संपूर्ण कलेने प्रकाशित होता. आपल्या दुग्धधवल अमृतकिरणांचा वर्षाव मनुमुरादपणेध्धरतीवर करीत होता, आणि त्याचवेळी सूर्यालाही खिजवित होता, "अरे रविराजा! दिवसभर आपल्या उष्ण उष्ण किरणानी सा-या सृष्टीला ताप देतोस तिला त्रासवून टाकतोस. तिचा करुण विलाप मला सहन होत नाही, ऐकवत नाही. आणि म्हणूनच मी माझ्या शीतल किरणांचे पांघरुन तिच्यावर टाकून तीचा दाह कमी करतो आहे. तेव्हा कुठे सर्व लोकाना शांत, सुखासमाधानाची झोप लागते. बिचारे मला किती किती धन्यवाद देत असतील आणि आता तर शरदऋतुचेही आगमन होत आहे. सारी सृष्टी-शांत-शीतल झालेली आहे. तापदायक अशा उष्णतेचा प्रवेशही होणार नाही. महिनाभर तरी. आजतर मला खूप खूप प्रसन्न वाटतय. माझ्या असंख्य किरणामध्ये थेंबाथेंबाच्या रूपांत किती सारे अमृत भरले आहे. हे अमृत सा-या सृष्टीत वाटून टाकणार आहे. हे प्राणिमात्रानो। तुमची इच्छा असेल, शक्ति असेल तेवढे अमृतकण आपल्या सर्वागामध्ये साठवून घ्या. आपल्या नयनानी हे अमृतकण आकंठ पिऊन घ्या. आजची संधी सोडून देऊ नका, कारण आजच्या नंतर मी पुनः? वनिच असा अमृत खजिना घेवून येणार आहे. तो पर्यंत जेवढा जमेल तेवठा साठा करून घ्या. वा। माझी मनोकामना लोकापर्यंत पोहोचलेलो दिसते. पहा । पहा । सारेजण आपल्या गच्चीवर बागेत, उघडया मैदानात जमले आहेत. दूथ निरनिराळे पकवाने घेऊन आले आहेत. सारे पदार्थ अनावृत्त करून ठेवले आहेत. त्यामुळे माझे अमृतकण त्यात प्रवेश करतील. लोक ते दूध प्राशन करतील, मिष्ठान्ने सेवन करतील, आणि माझे अमृतकण आपल्या तनमनात सामावून घेतील. अरे। पण आज माझे सर्वाट रोमांचित का होत आहे? अनामिक अशा सुखसंवेदनाची अनुभुतो का होत आहे? कांहीतरी विशेष मंगलमय घटना घडणार आहे काय? स्याची ही नांदी असावी कां? कुठल्या तरी अलौकीक स्वरूपाचे दर्शन घडणार आहे काय? कारण अलीकडे ब-याच वर्षात अशी संवेदना मला झाली नव्हती. __ओहो ! पहा ! पहा ! धरतीवर त्याठिकाणी एक तेजोमय वक्तव्य मला दिसू लागल आहे. नक्कीच तेथे कांहीतर मंगलमय असणार चला जाऊ या तेथे काय आहे ते पाहू या. ही तर टिकैतनगरी आणि हा प्रासाद श्रेष्ठी धनकुमारजीचा या धरातले सारे स्त्री पुरुष एवढी रात्र झाली तरी बैचेन होवून कशाची तरी वाट पहात आहे. पुरुषमंडळी बाहेर अंगणात येरझा-या घालीत आहेत. स्त्रिया माजघरात आत बाहेर करीत आहेत. ___ बरोबर आहे. धनकुमारांची लाडकी सून-पुत्र छोटेलालची धर्मपत्नी-मोहिनी देवी-भावी अपत्याच्या जन्माच्या प्रसववेदना सहन करीत होती. मनामध्ये णमोकारमंत्राचा जप चालू होता. फार वेळ वाट पहावी लागली नाही. आतून तान्हया जीवाच्या रडण्याचा आवाज आला. सर्वाच्या नजरा उत्सुकतेने प्रसुतिकक्षेकडे वळल्या. काय झाला असाव? मुलगा की मुलगी? येवढयांत आतून सुईनबाई धावत आल्या. "मुलगी झाली हो." क्षणभर शांतता पसरली नाराजीची हलकी लकेर मनातून अधावत गेली. सर्वात आधी आजी भानावर आल्या. सर्वाना सावरत त्या हर्षभराने ओरडल्या . "अरे बघता काय? पौर्णिमेचा चंद्र घरात जन्माला आलाय. पहिली बेटी धनाची पेटी. जावा, जन्मोत्सव साजरा करा. मंगलगीत गावा, गोरगरीबाना दान करा." सारेजण आजीच्या शब्दाने भानावर आते. प्रत्येकाच्या अंगाअंगात चैतन्य संचारले. आजीची आज्ञा शिरसावंध मानून उत्साहाने कामाला लागले. आजीचे म्हणणे खोटे नव्हते. खरोखरच घरांत पौर्णिमेच्या चंद्रासारखी सुंदर कन्या जन्माला आली होती. येणारे जाणारे तिच्याकडे कौतुकाने पहात. तिची मुक्तकंठाने प्रशंसा करीत. इतरांच्या मुखातून आपल्या कन्येची प्रशंसा ऐकून मोहिनी देवीचा ऊर धन्यतेने भरुन येई या मातृत्वाने स्त्री जन्माचे सार्थक झाल्यासारखे वाटे. ___ मोहिनीदेवीची जिनेंद्रदेवावर अत्यंतिक श्रद्धा होती. जेंव्हा ती माहेराहून प्रथम सासरी निघाली तेंव्हा तिला निरोप देताना तिच्या पिताजीनी "पद्मनंदि पंचविंशतिका" हा ग्रंथ दिला होता. आणि मोठया प्रेमाने तिला सांगितल होत "बेटा! या ग्रंथाचा स्वाध्याय, तू रोज भक्तिपूर्वक करीत जा. तुझे कल्याण होईल." Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला __ मोहिनीदेवी रोज नियमितपणे या ग्रंथाचा स्वाध्याय करीत असे. जिनेंद्रदेवाची आराधना, स्वाध्याय याचे फल म्हणजे या सुंदर कन्यारत्नाची प्राप्ती होय, अशी तिची गाढ श्रद्धा होती. अपत्यजस्मापूर्वी ती स्वाध्याय करीत होतीच पण आता देखिल आपल्या कन्येला मांडोवर घेऊन जिनपूजन, वंदना, स्वाध्याय आदि धार्मिक क्रिया करीत असे. यामुळे आपल्या मुलीवर उत्तम संस्कार होतील असा तिचा विश्वास होता. ___ सर्वाच्या लाडाकोडांत कौतुकांत नहात छोटूली दिवसेंदिवस कांतीमान होत चालली, आपल्या बाललीलानी घरादाराला, शेजा-या पाजा-यानी मोहवित होती खुळे करीत होती. क्षणभरहो तिचे दर्शन झाले नाहीतर सारे कासाविस होत. तिचा क्षणाचाही विरह सा-याना असहय होत असे. मोहिनीदेवीच्या माहेरी कन्यारत्नाच्या आगमनाचा शुभसमाचार गेला होताच. रिती रिवाजाप्रमाणे मोहिनीदेवीच्या पिताजीनी आपल्या चिरंजीवाला, मोहिनी देवीला आणायला पाठविले. छोटी आजोळी जाणार म्हणून घरातील सर्वाना वाईट वाटले. तिचा काही दिवसांचा विरह सहन करने सर्वाच्या जीवावर आले. तिच्या वाचून घर म्हणजे प्रकाशा वाचून अंधार रूढी परंपरेनुसार मोहिनीदेवीला माहेरी पाठविणे भागच होते. "छोटी" पण तिच्याबरोबर आजोळी गेली. छोटीने आजोळी देखिल आपल्या बाल सुलभ क्रीडानी सर्वाना वेडावून टाकले. कोणीही तिला खाली ठेवत नव्हते. तिच्याकडे कौतुकाने पहात आजीबा सुखपालदास म्हणाले मोहिनी। या छोटी ने इथं सर्वाना मोहवून टाकलय. मी तिच नांव "मैना" ठेवतो. मैनेप्रमाणे सर्व घरादाराला रिझवत असते. आजी मत्तोदेवीपदराने तोंड झाकीत हसत म्हणाली मैना नांव शोभतय खरं. केंव्हानाकेंव्हा ही घरच्या अंगणातून उडून जाणार । सर्वजण खो खो हसले. या प्रकारे हास्यविनोदात, हसी खुषीच्या वातावरणांत, आजोबा, आजी, मामा, यांच्याकडे खांद्यावर मैना माठी होवू लागली. पहाता पहाता पाळण्यातून खाली उतरून रांगू लागली. रांगायला तिला घर अंगण अपुरे पडू लागले. ___काही महिने उलटले. मोहिनीदेवी छोटया मैनेला घेवून पुनः सासरी आली. सर्वानी अत्यनंदाने मैनेचे स्वागत केले. जणु काही अमावस्या जावून पौर्णिमा आली. घर प्रकाशाने न्हाऊन निघाले. आजोबानी ठेवलेले "मैना" हेच नांव रूढ झाले. प्रत्येकाच्या तोंडी "मैना" खेरीज दुसरा शब्द नव्हता. तिच्याशी खेळताना सारेजण आपली चिंता, व्याप, थकवा विसरून जात. ___घरचा सगळा कारभार मोहिनीदेवी संभाळत होती. आला गेला पै पाहुणा आहे नाही, दुखणी खुपणी स्वयंपाकपाणी सगळ काही ती प्रसन्न चिताने करीत होती. पण या सगळया व्यापांत छोटया मैनेची एवढी देखिल आबाळ होऊ देत नव्हती. तिला दूध पाजविताना, पाळण्यांत झोके देताना, झोपविताना भक्तामरस्तोत्र, बाराभावना, शीलकया इत्यादि स्तोत्रांची अंगाई गात असे. म्हणतातच की माता ही मुलांची प्रथम "गुरु" असते. शंभर शिक्षक शिकवू शकणार नाही ते काम एकटी आई करते. मोहिनीदेवी ने आपले मातृत्व सार्थ केले. अप्रतिम संस्काराचे बाळकडू आपल्या वात्सल्यपूर्ण हातानी मैनेला पाजविले. प्रकरण २ मैत्रिणीसोबत खेळायला, फिरायला न मिळाय्यामुळे मैना कधी कधी खूप निराश व्हायची. वाटायचं, “आम्हा मुलींचं जीवन किती पराधीन आहे. धरातील जसे सांगतील तसेच वागायचे. आमच्या भावनांचा आवडणीचा काहीच विचार नाही. परंतु हे विचार तेवढयापुरतेच रहात. मातेच्या प्रेमाच्या वर्षावाखाली सारे उदास विचार धुवून जात. नैराश्य नाहिसे होई. मातेचे मैनावर एवढे प्रेम होते की तिला क्षणभरही आपल्या नजरेआड होऊ देत नसे. मोहिनीदेवी मैनेला म्हणायची “बेटा ! चल आपण दोघी मिळून लवकर लवकर काम आटपून घेऊ आणि मंदिरात आऊ, आरती करूं, स्वाध्याय करूं. ___मंदिरात जायचे म्हटल्यावर मैनेला खूप आनंद व्हायचा. उत्साहाने, आईच्या हाताखाली झटपट कामे उरकायची मग आईबरोबर मंदिरात जावून भक्तीपूर्वक भगवंताची आरती करायची स्तवने गायची नन्तर लक्षपूर्वक शास्त्र ऐकायची. मंदिरात तिच्या मैत्रिणीही यायच्या. पण त्यांच्याबरोबर कधी ती चेष्टा मस्करी, गप्पा मारणे यात वेळ घालवीत नसे. मोठया बायकांत बसून एकाग्रतेने प्रवचन ऐकत, त्यावर मनन, चिंतन करत असे. मातेच्या संस्काराचाच हा प्रभाव होता. पू० ज्ञानमती माताजी आपल्या बाल्यावस्थेतील आठवणी सांगताना एक किस्सा नेहमी सांगतात- एकदा मंदिरात रात्रीच्या वेळी प्रवचन सांगतानाएका प्रकरणांत उल्लेख आला. प्रत्येक प्राण्याचा आत्मा अनंत शक्तीशाली आहे. हे ऐकताच माझ्या मनात विचार आला "जर आत्मा अनंत तर माझ्या आत्म्याची शक्ती मला कशी प्रकट करता येईल? तेवढयांत पंडितजीच ओघात पुढे म्हणाले- आपली आत्मशक्ती आपण प्रकट करु शकतो. दुधामध्ये लपलेल्या तुपाला प्रगटरूप देण्यासाठी प्रयत्न करावा लागतो त्याप्रमाणे आत्मशक्तीला जागृत करण्या साठी प्रायास करावा लागतो". Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३५१ पंडितजींनी सांगितलेली ही गोष्ट माझ्या मनामध्ये चांगलीच कोरली गेली. नियतिच्या गर्भात काय लपलेले असते हे कुणालाच माहित नसते. नाहीतर प्राथमिक स्वरूपाचा हा स्वाध्याय मैनाच्या मनावर खोलवर ठसला जावून तिला आपल्या कुटुंबियांपासून विभक्त करण्यास कारणीभूत ठरेल याची थोडी जरी जाणीव घरच्यांना झाली असती तर मैनेवर असे संस्कार करण्याच्या भरीला ते पडले असते की नाही देवजाणे. परन्तु होणारे टळत नसते. __ ज्यांचे कल्याण होणे हे निश्चित असते अशा जीवांना त्यायोग्य निमित्त सहजतेने प्राप्त होते. मैनेलाही तहे अवसर स्वयमेव मिळत गेले. मातेच्या प्रेरणेमुळे दर्शनकथा, शीलकथा यांच्या वाचनाने तिच्या मनावर एवढा गाढ परिणाम झाला की एक दिवस अंतःस्फूर्तीने ती मंदिरात गेली. भगवंताच्या पुढे हात जोडून अंतरीक तळमयळीने ती म्हणाली हे भगवन् । मनोरमेला भेटले तसे कोणी दिगंबर साधू अजून तरी माझ्या दृष्टीपथांत आलेले नाहीत. म्हणून मी आपल्या चरणाशीचं शीलव्रताची प्रतिज्ञा घेत आहे. मी आजन्मपर्यंत शीलव्रताचे पूर्णतया पालन करीन. तसेच दर्शनकथा ऐकून नियमितपणे देवदर्शन करण्याचा निमत घेतला. याप्रमाणे घराच्या उंबरठयाआड, चार भिन्तीत राहून मैना आपण ठरविलेला जीवनमार्ग अनुसरु लागली. तिचा दृढ निश्चय पाहून नियतिही तिला आज्ञाधारक पणे साथ देऊ लागली. एकदा जैन पाठशाळेतील मुलांनी "अकलंक निष्कलंक" या नाटकाचा प्रयोग केला. त्यात एके ठिकाणी अकलंक व त्यांच्या पित्याच्या संवादांत एक ओळ या प्रमाणे होती- “प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं । “चिखलात पाय भरवून नंतर ते धुण्यापेक्षा चिखलांत पाय न ठेवलेलेच चांगले नाही का? त्याप्रमाणे विवाह करून नंतर सोडून दीक्षा घेण्यापेक्षा विवाह न केलेलाच उत्तम नाही का? या ओळी मैनेच्या मस्तकांत घट्ट पाय रोवून बसल्या. तिने ताबडतोब मनाशी संकल्प केला. हे भगवन् मी विवाह बंधनांत फसणार नाही. या घराच्या पिंज-यातून कसेही करून बाहेर पडणार आणि खुल्या आकाशांत विहार करणार. मैना माठी होऊ लागली. लडखडत् पावले टाकीत चालू लागली. बोबडया भाषेत बोलू लागली. मैनाचे पिताजी छोटेलाल मैनाच्या ओढी ने आता लवकर दुकान बंद करून घरी येत. मैना बरोबर तासन तास खेळत बसत. कधी कधी मैनेला आपल्या बरोबर दुकानीही घेऊन जात. बघता बघतां दिवस, महिने, वर्ष लोटले. मैना ५/६ वर्षाची झाली. आता शाळेत जाण्याची वेळ आली. छोटेलालजी ने कौतुकानी तिला नवीन पाटी तु पेंन्सील आपाली. नवीन कपडे शिवले. अशा नव्या जमानिम्यांत तिला नेऊन जैन पाठशालेत नांव नोंदविले. शाळेत जाण्याच्या दिवशी प्रथम तिने देवाला नमस्कार केला. नंतर घरांतील सर्वानानमस्कार करून उजवा पाय घराबाहेर टाकला. ज्ञानाच्या दालनांता फिरण्याची पावलाना घाई झाली होती. विश्ववाचे रहस्य जाणून घेण्याची आतुरता तिच्या निरागस, चमकदार डोळयांत होती. पं० कामताप्रसाद शास्त्री आणि पं० जमुनाप्रसाद शास्त्री कटनीवाले हे जैन पाठशालेचे अध्यापक होते. छोटेलालजी नी मैनाला पंडितद्वायांच्या स्वाधीन केले. थोडयाच दिवसांतम तिने आपल्या प्रखर बुद्धीने, गोड स्वभावाने, लाघवी बोलण्याने त्यांचे मन जिंकून घेतले. त्याना मैनासंबंधी बोलताना म्हणतात. "ही कन्यातर विलक्षण प्रतिभावंत. हीची प्रखरबुद्धी म्हणजे पूर्वजन्माची देन आहे. मैना म्हणजे साक्षात सरस्वतीची प्रतिमूर्ती." मैनाच्या घरांत जिनागमाला बाधा येणा-या कांही पूर्वापार परंपरेने चालत आवेल्या रूढींचे निष्ठेने पालन केले जाई. घरांत जैनतत्वाचा विशेष अभ्यास नसल्यामुळे या रूढी चुकीच्या आहेत याची कुणाला कल्पनाच नव्हती. मैना त्यावेळी केवळ आठ वर्षाची होती. तिच्या बालबुद्धीला या गोष्टी पटेनात. जैनागमात सांगितलेल्या तत्वाच्या बरोबर विरुद्ध क्रियाकांडे घरांत चालल्या होत्या. मैनेने या क्रियाकांडाना निक्षून विरोध केला आणि ही सर्व क्रियाकांडे बंद करण्यास घरातल्याना भाग पाडले. म्हातारी दादी आजी घाबरून म्हणू लागली. 'बेटा मैना ! तू हे काय करतेस? आमच्या पूर्वजांपासून चालत आलेल्या परंपरा खोटया कशा असतील? त्यातूं बंद करू नकोस. कांहीतरी अनिष्ट घडेल." मैना आपल्या आजीला प्रेमाने समजावीत म्हणाली दादी आजी ! ज्या परंपरा तू पाळतेस त्या मिथ्यामान्यतेवर आधारलेल्या आहेत. या मिथ्यात्वा मुळेच आपण अनन्त दुःखाला कारणीभूत असणा-या संसरात चारही गतीतून फिरत आहोत. दुर्लभ असा चिंतामणी समान मनुष्यजन्म मिळाला आहे, तो असा मिथ्यात्वामध्ये वाया घालवायचा का? सम्यक्दृष्टी होऊन मानवजन्माचे सार्थक नको का करायला? इवल्याशा तोंडी येवढी मोठी गोष्ट विसंगत वाटत होती. पण तो सत्य होती. मैनाची बुद्धी वयाची मर्यादा ओलांडू पहात होती. मैनाने शास्त्रीय आधारावर आपले म्हणने सर्वाना पटवून दिले. मोहिनीदेवी ने तावडतोब मिथ्यात्वाचा त्याग केला, आणि घरातील अनिष्ट परंपरा बंद केल्या. मैनाची बुद्धी प्रौढत्वाला साजेल अशी संयमी समंजस असुनही कधी कधी बालसुलभ वृत्तीमुळे आपल्या मैत्रिणीबरोबर बाहेर खेळायला जावे असे तिला बाटे. त्यावेळी मोहिनीदेवी तिला प्रेमाने म्हणे "बेटा ! या फालतु खेळयत वेळ कशाला वाया घालवितेस? त्यापेक्षा या पुस्तकातील शीलकथा वाचू या, दर्शनकथा वाचू या. पहा । यात खेळण्यापेक्षा केवढहा आनंद भरला आहे." __मैना स्वतःच धर्म स्वरूपाने जणु धमनिच धरतीवर अवतार घेतला होता, त्यात मातेच्या सुंदर संस्काराने त्या धर्मस्वरूपातून सरस्वतीची सुंदर मूर्ती निर्माण केली. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मैना आता १४ वर्षाची किशोरी झाली. घरामध्ये आगम शास्त्रांचा, अध्यात्मशास्त्रांचा मोठा संग्रह होता. दादा, परदादा पासून कोणीतरी त्याचा संग्रह करून ठेवला होता. अलीकडच्या पिढीतील कोणीही त्याला हात लावण्याचे धाडस करीत नव्हते. आपल्या आवाक्याच्या बाहेरचे ते काम आहे अशी सर्वाची समजूत होती. पण मैना याला अपवाद निघाली. मैनेने सगळी शास्त्रे अभ्यासून काढली. त्यांचे वारंवार मनन चिंतन केले. सारी शास्त्रे जणु योग्य अभ्यासकाची वाटच पहात होते. त्यांच्या सुदैवान मैनेसारखे विलक्षण प्रतिभावंत पात्र त्यांना अवचित मिळाले. त्यांनी आपले सारे ज्ञानामृत मैनेच्या ओंजळीत रिते केले. याचे फळ म्हणजे मैनेला एवढया लहान वयातही उच्च विचारांचे चितन करण्याची क्षमता प्राप्त झाली. बुद्धी प्रगल्भ झाली. मैनेच्या मातेला तिच्या पित्याकडून भेट म्हणून मिळालेल्या “पद्मनंदिपंचविंशतिका" तसेच छहढाला या ग्रंथाच्या स्वाध महत्व व मिथ्वात्वाची अयथार्थता पूर्णपणे समजली. समयकत्वावर गाढ़ श्रद्धा बसली. एकदा काय झाले, मैनेच्या शेजारी राहणा-या १६ वर्षाच्या तरूण मुलाला देवी आल्या होत्या. त्याची आई अतिशय अंधश्रद्धाळू होती. कोणी काय सांगितले ते उपाय करीत होती. कोणी म्हटलं लिंबाच्या झाडाची पूजा कर, कोणी सांगत पूजेसाठी माळिणीला पूजासामग्री दे. त्याप्रमाणे ती करू लागली. योगा योगाने त्याचवेळी मैनाच्या धाकटया भावाना प्रकाश आणि सुभाष यांना देखील मोठया प्रमाणात देवी निघाल्या. घरातले सगळे घाबरले. मोठी मंडळी शीतला मातेच्या पुजेसाठी माळिणीला पूजा सामग्री देवू लागली. पण मैनाने आणि मोहिनी देवी ने त्याना मना केली. दोघी नीही मिथ्यात्वाचा त्याग केला होता. असल्या भंकूस गोष्टीवर त्यांचा विश्वास नव्हता. दोघीही जिनेंद्र भगवानाच्या भक्तीमध्ये दृढ राहिल्या. वृद्ध सासू मोहिनीदेवीची समजूत घालू लागली. ___"बहू ! तुला पटत नसेल तर तू स्वतः पूजा करू नकोस. पण माळीणीला पूजा सामग्री देण्याला काय हरकत आहे. तुझी मुले वेदनेने तळमळत आहे, याच तुला काही नाही। स्वतःचाच हट्ट पुरा करतेस? भगवंता। या घरात काय काय अनिष्ट घड़णार आहे ते तुलाच महित." म्हातारी रोज त्रागा करीत होती. झाडावडाची मिथ्या देवीची पूजा करण्या साठी गळ घालीत होती. पण मैना व मोहिनीदेवी म्हातारीला अजिबात बधल्या नाहीत. भावंडांची गंभीर स्थिती पाहून मैना आईला धीर देत होती. जिनेंद्र भगवंताच्या ठायी दृढश्रद्धा ठेवण्यास प्रेरणा देत होती. स्वतः रोज मंदिरात जावून शीतलनाथ भगवंताची पूजा करायची, गंधोदक आणून भावंडांच्या सर्वागाला भक्तीपूर्वक लावायची. परंतु असाता कर्माच्या उदयामुळे भावंडाची तब्येत दिवसेंदिवस बिघडत चालली. त्यान्ची अवस्था चिंताजनक झाली. जगण्याचीही आशा उरली नाही. आजूबाजूचे लोक कुजबुजु लागले. "ही मैना आपल्या भावंडाना मारून टाकणार. वारे। तिचा धर्म । घरांत भावंड मरू लागलीत आणि ही नुसता धर्म धर्म करीत बसलो." असले कठोर वाकताउन ऐकून मैना मनात घाबरुन जायची. परंतु बाहेर तसे न दाखविता दृढतेने सर्वाना धीर द्यायची. आपल्या तत्वावर तिचा अटल विश्वास होता. एक दिवस भल्या सकाळी मैना मंदिरात गेली. भगवंता समीर हात जोडून कळवळून प्रार्थना करू लागली. "हे भगवन । आता माझी आणि धर्माची लाज तुझ्याच हाती आहे. जर कान या दोन बालकांचे चरे बरे वाईट झाले तर सर्वाची धर्मावरची श्रद्धा उडेल. सम्यक्त्वाला सोडून मिथ्यामार्गाचा अवलंब करती,. तुझ्या भक्तीचे महत्त्व कुणाला समजणार नाही. सर्वाची घोर फसवणूक होईल. असे अधः पतन होवू देवू नकोस ..... होऊ देवू नकोस." सादय दिलाने घातलेली साद भगवंतापर्यंत पोहोचते. मैनाच्या दृढ निश्चयाचे फल मिळाले. काही दिवसातच दीन्ही बालकांची स्थिती सुधारू लागली. आणि पहाता पहाता ते पूर्ण बरे झाले. त्या दरम्यान शेजा-याचा मुलगा . . . ज्याची आई तो बरा व्हावा म्हणून मिथ्यात्वाची उपासना करीत होती ... तो मात्र स्वर्गवासी झाला. या प्रत्यक्ष घडलेल्या घटनेन सर्वाच्या मनावर धर्माच्या, सम्यकत्वाच्या अतिशय प्रभाव पडला. सर्व गावातमैनाची, तिच्या दृढनिश्चयाची प्रशंसा होऊ लागली कितीतरी लोकानी मिथ्यात्वाचा त्याग केले आणि सम्यकत्व ग्रहण केले. मैनाची किर्ती चोहीकडे पसरली. एकदा बुंदेलेखंडेचे एक पंडीत मनोहरलालजी शास्त्री टिकैतनगरांत आले. त्यांनी मैनेच्या मुखी सम्यकत्वमिथ्यात्वाची परिभाषा ऐकली आणि ते अवाक् झाले. पंडीतजी मैनाच्या कुटुंबीजनाना उद्देशून म्हणाले “आपल्या घरी जन्मलेली ही कन्या साक्षात देवी आहे. अत्यन्त विद्वान आहे." मैनाची जन्मदात्री माता पू० आर्यिका रत्नमती माताजी मैनाबद्दलचे आपले भाव व्यक्त करताना म्हणतात. "त्यावेळी मलाच काय परंतु आमच्या परिवारालाही मैनेसारखे कन्यारत्न लाभले याचा अभिमान वाटायचा, गौरव वाटायचा. त्या लहान वयातही मैनेच विचार अत्यंत उच्च होते. तो नेहेती म्हणायची . . . . . . . ." "हे भगवन ! सा-या प्रांतातच नव्हे तर सर्व देशांत जैनधर्माचा विश्वधर्माच्या स्वरूपांत प्रचार करेन अशी मला शक्ती प्राप्त होवो. कारणसर्व प्राणिमात्रा ख-या शांती सुखाचे मधु फल देण्याचे सामर्थ्य याच एका धर्मात आहे." प्रकरण ३ जैनधर्माला विश्वधर्माच्या स्वरूपतां प्रसार करण्याची उत्कट भावना मैनाच्या मनी मानसी दृढ झाली होती. त्याला साकार रूप देण्याचे श्रेय राष्ट्रसंत आचार्यश्री देशभूषण महाराजाना आहे. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ एकदा उत्तररात्री मैनाने एक स्वप्न पाहिले. मैना श्वेतवस्त्रे परिधान करून हातामध्ये पूजासामग्री घेवून मंदिरात निघाली आहे. आकाशात बरोबर तिच्या मस्तकावर पौर्णिमिच्या पूर्ण चंद्र तेजस्वीपरन्तु शीतल किरणांचा वर्षाव करीत तिच्या संगतीने चालत आहे. फक्त मैनेवर आणि आजुबाजूच्या परिसरातच चांदण्याचा प्रकाश पडला होता. बाकी कुठेही त्याचा मागमूस नव्हता. शेजारपाजारचे लोक आश्चर्यचकित होऊन हे दृष्य पहात होते. या सुखद स्वप्रातून मैना जागी झाली. स्वप्रातही भगवंताचे दर्शन झाल्यामुळे मनोमन खूप आनंदली होती. तिचे स्वप्न साधे नव्हते. तिच्या उम्बल भविष्याचे प्रतिक होते. त्याची मैनेला पूर्ण कल्पना आली. मैनाने देवपूजनादि क्रिया आटपून आपले धाकटे बंधु कैलाशचंद्र याना आपले स्वप्न सांगितले. त्याना आपल्या जीजीचा कल कुणीकड़े आहे हे चांगले माहित होते. ते ताबडतोब म्हणाले, जीजी तुझ्या स्वप्रावरून असे वाटते की लवकरच तुझी मनोकामना पुरी होणार. [३५३ मैनाच्या आचार विचारावरून तर सर्व परिवाराला भय वाटायचे की ही घराच्या अंगणातून उडून तर जाणार नाही: भोजन वगैरे आटपून मैनाचे पिताजी माडीवर आराम करीत बसले होते. संधी पाहून मैना तेथे आली. लाडांत येऊन इकडच्या तिकडच्या थोडया गप्पा मारल्या आणि नंतर हळूच आपले स्वप्र सांगितले. स्वप्न ऐकून पिताजी मनांत उमजले. परंतु वरकरणी खळखळून हसत म्हणाले, मैना बेटा । घरातून उडून जायचा तुझा विचार दिसतोय. पण लक्षांत घे. तुझ्यावाचून या घरात राहणे आम्हाला आवडेल काय? योगायोगाने त्याचवेळी सन् १९५९ मध्ये आचार्यरत्न देशभूषण महाराज विहार करीत करीत ससंघ टिकैतनगरांत आले. मैनाला आपल्या जीवनांत प्रथमच दिगंबर मुनींचे दर्शन घडले. मुनींच्या दर्शनाने तिला कृतार्थ झाल्याचे अतीव समाधान लाभले. मैनाने आपल्या मातेजवळ ब्रह्मचर्य व्रत घेण्याची इच्छा अनकवेळा प्रकट केली. परंतु मोहिनी देवी ने प्रत्येकवेळी तिला उडवून लावले होते. तिच्या दृष्टीने ही गोष्ट अगदी असंभव होती. एकदा घरातील कामकाज आटपून मैना मोहिनीदेवी बरोबर आचार्यश्रींच्या दर्शनार्थ मंदिरात गेली. संधी पाहून आचार्यश्रींना तिने विचारले, महाराजजी मला आत्मकल्याण करण्याचा अधिकार आहे किंवा नाही? महाराजजी प्रसन्नतेने म्हणाले, जैन धर्मात तर पशुपक्षांनाही आत्मकल्याणाचा अधिकार आहे. तूं तर मनुष्य आहेस. महाराजांचे अमृतमय वचन एकून मैना अंतर्यामी आनंदाने फुलून गेली. जणु कांही तिची मनोकामना सफल होण्याचा समय निकट आला आहे. Jain Educationa International तेंव्ढयांत मोहिनीदेवी म्हणताल्या, "महाराजजी हिचा हात तरी पहा हिच्या भाग्यांत विवाह आहे किंवा नाही? आचार्यश्रींना ज्योतिषविद्येचे ज्ञान होते. त्यांनी मैनाचा हात पाहिला ते म्हणाले हिच्या हातात राजयोग आहे. ही लवकरच घराचा त्याग करणार आहे. हिचे मरण संन्यासावस्थेत आहे. घरा मध्ये नाहीं. खरे तर "ज्योतिष" या नांवाची देखिल मोहिनीदेवीला अत्यंत चीड होती. तरी देखिल दिगंबर मुनींचे वचन मिथ्या होणार नाही यावर तिचा पूर्ण विश्वास होता. महाराजजींनी मैनेची परीक्षा घेण्यासाठी दोन चार प्रश्न विचारले. मैनेने देखिल "पद्मनंदिपंचविंशतिका" ग्रंथातील श्लोकाचे दाखले देवून, वैराम्याला अनुसरून त्याची उचित उत्तरे दिली. तेव्हा महाराज म्हणाले, ठिक आहे. तुझे मन खरोखरच विरक्त झालेले आहे. आता पुरुषार्थ करण्यास उद्युक्त हो." मैना मनातून खुश झाली. यानंतर महाराजजींना आहार देण्यात, प्रवचन ऐकण्यांत तिचे दिवस व्यतीत होऊ लागले. एक दिवस मंदिरासमोरील मोठया मण्डपात आचार्यश्रींचा केशलोच चालला होता. शरीरावरील निर्मलतादर्शक केशलोच पहाण्यासाठी जैन आणि जैनेतर लोकांची खूप गर्दी मंडपात जमली होती. त्या गर्दीत मैनाही बसली होती. महाराजांचा केशलोच भक्तीपूर्वक पहात होतो. बघता बघना तिच्या मनांत वैराग्य भावना अधिकच उत्कटतेने उसळून आली. ती मनातल्या मनात विचार करू लागली- "हे भगवन । हे त्रिलोकनाथ । माझ्या जीवनांत असा शुभसमय केव्हा येईल ? हा विचार मनात येताच तिचा डावा डोळा व डावी भुजा फडफडु लागलो. हे शुभसुचक होते. त्याचा अर्थ मैनाने जाणला. ती आनंदून गेली. कांही दिवसांतच आचार्यश्रींचा टिकैतनगरीहून विहार झाला. त्यांच्या बरोबर जाण्याची मैनाची खूप इच्छा होती. परंतु सामाजिक व कौटुंबिक संर्घषामुळे ती जावू शकली नाही. जाता जाता आचार्यश्रींनी आशिर्वाद दिला. भिऊ नकोस. ते लोक आपल्या कर्तव्याचे पालन करीत आहेत. तु आपल्या कर्तव्याचे पालन कर. लवकरच सफलता प्राप्त होईल. आचार्यश्री गेले. जणू सारा प्रकाशच गेला. चैतन्य गेले. मैना अत्यन्त उदास झाली. तिला उदास पाहून तिचे माता पिताही उदास झाले. त्यांच्यावर मोठे कठिण प्रसंग आला होता. मैनाला महाराजांच्या बरोबर पाठवावे तरी दुःखच न पाठवावे तरी तिच्या दुःखी होण्याने दुःखच. परंतु घडणारे कोणी टाळू शकत नाही. ते सामर्थ्य कोणाच्याही हाती नाही. मैनाची वैराग्यभावना अत्यंत तीव्र होती. मैनाला सात कुलूप लावलेल्या कोठडीत जरी बंद करून ठेवले असते तरी तिच्या उत्कट वैराग्याने बंधन स्वरूप असलेले कुलूप स्वयमेव तुटून गेले असते. आणि तिचा मार्ग मोकळा झाला असता. For Personal and Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सर्व दुःखावर काळ हे मोठे औषध आहे. मैनाही काही काळाने सावरली. अंतर्यामी विरक्त चित्त असलेली मैना आपल्या भावंडावर प्रेमाचा वर्षाव करीत घरातील कामकाज पाहू लागली. त्याच वेळी सन् १९५२ चा आचार्यश्रींचा चातुर्मास ससंघ "बाराबंकी" या शहरात झाला. यावेळी घरामध्ये मोहिनीदेवी गर्भवती होती. मैनाला महाराजांच्या दर्शनाची ओढ होती. परंतु घरांत मातेला अशा अवस्थेत टाकून "बाराबंकी" येथे तिला जाता येत नव्हते. एक दिवस आईच्या पोटांत खूप दुखु लागले. असह्य वेदना होऊ लागल्या. प्रसुति कठिण जाणार असल्याची चिन्हे दिसू लागली. सुईणबाई पण चिंतेत पडल्या. पाई हातापाई धड हाती लागती की नाही याची सर्वाना काळजी पडली. मैना हे सर्व पहात होती. आईची परिस्थिती पाहून ती व्याकुळ झाली. तिची जिनेंद्र भगवंतावर दृढ श्रद्धा होती. ती उठली. हातात एक वाटी घेऊन त्यात शुद्ध जल घेतले. मनोभावे सहस्त्रनाम स्तोत्र म्हणु लागली. वाटीतले जल अशा रितीने मंत्रित करून मातेला पिण्यासाठी दिले. थोडयाच वेळांत आतून आजीचा आनंदाने ओरडलेला आवाज आला. मैना थाळी वावज थाळी. तुला बहिण झाली. सुईणबाई चकित झाली. तो म्हणाली, या मुलीने कसली जादु केली आईला जल पाजविलं आणि किती सुलभतेने प्रसुति झाली. मला तर या बाईचे लक्षण ठिक दिसत नव्हते. पुनः एकदा सर्वाच्या नजरेत मैनाचे महत्व वाढले. मैनाला आपला मार्ग निष्कलंक होण्याची आशा वाटू लागली. हिच्या प्रमाणे मौल्यवान असलेला एक एक दिवस वाया जाताना पाहून मैना तळमळत होती. आईच्या आग्रहाखातरतिला घरातच थांबावे लागेले. काही दिवसांतच राखी पौर्णिमा आली. मोहिनीदेवीला प्रसुति होऊन बावीस दिवस झाले होते. राखी पौर्णिमेच्या शुभमुहुर्तावर मैनाने आपल्या छोटया बहिणीचे नांव "मालती" असे ठेवले. तिच्या हातून सवर भावंडांना राखी बांधवली. घरात सर्व जण खुषीत होते. सर्वाना वाटले मैना आता घरात चांगलीच रमली. ही कांही घर सोडून जात नाही. संन्यासी होत नाही. परंतु त्यांचे हे समाधान क्षणभंगुरण ठरले. दुस-याच दिवशी मैनाने आचार्यश्रींच्या दर्शनाला जाण्याचा प्रस्ताव घरात मांडला. सर्वाना धक्काच बसला , ही कांही आपल्या निश्चयापासून हटली नाही हे त्यांच्या लक्षात आले. मातापित्यांनी तिला जाण्यासाठी विरोध केला. डोळयांत पाणी के आणले. परन्तु त्यांचे अश्रु तिला थांबविण्यास असमर्थ ठरले. मैनाने त्यांची समजूत घातली. मी फक्त दर्शनाला जात आहे असे अर्ध सत्य आश्वासन दिले. अखेर आपला धाकटा भाऊ कैलाशचंद्र याला सोबत घेऊन ती "बाराबंकीला" गेलीच. तिथे गेल्यावर मैनाने आपला संकल्प कैलाशला सांगितला. कैलाश, मी आता घरी येणार नाही. येथेच आचार्यश्रींच्या संघात राहणार आहे. हे ऐकून कैलाशला अत्यंत धक्का बसला. तो रडू लागला. त्याची कशीबशी समजूत घालून संध्याकाळी घरी पाठवून दिले. मैना ने आपल्या हृदयावर दगड ठेवला होता. लहान भावंडाचे प्रेम, आईवडिलांची माया, या सर्वाचा मोह तिने निग्रहाने दूर सारला होता. छोटा भाऊ रविंद्र तर तिच्याशिवाय झोपत नव्हता. झोपताना त्याला जीजीचा पदर आपल्या हातात धरून ठेवायची संवय होती. जणू काही जीजी आपल्या सोडून जाणार तर नाही याचे भय त्याच्या मनांत असावे. तो झोपेत असतानाच त्याच्या मस्तकावर प्रेमभराने शेवटचा हात फिरवून मैना निघून आली होती. मैना घरी आली नाही म्हणून तिचे मातापिता, सर्व कुटुंबजन बाराबंकीला गेले. सांसारिक मोहामुळे तिच्यावरील प्रेमामुळे तिला वाटेल तसे अद्वातद्वा बोलू लागले, रडू लागले. त्यांचा सगळा गोंधळ पाहून मैनाला काही सुचेनासे झाले. थोडावेळ संभ्रमावस्था झाली पण लगेच तिने स्वतःला सावरले. मनाशी निश्चय करून ती उठली, मंदिरांत भेलो. जिनप्रतिमेच्या सम्मुख होऊन तिने प्रतिज्ञा केली- जोपर्यंत मला आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत मिळणार नाही तोपर्यंत मला चतुराहाराचा त्याग आहे असे म्हणून ती तेथेच निश्चल बसली. दिवसभर गोंधळ घालून काही लोक आपआपल्या घरी निघून गेले. वातावरण बरेचसे शांत झाले. रात्री मोहिनीदेवी मंदिरात जाऊन मैनाची समजूत घालू लागल्या. नंतर एका खोलीत आऊन रात्रभर दोघी चर्चा करीत बसल्या. मैनाने युक्ती प्रयुक्तीने मातेचे मन एवढे बदलले की तिचेही मन वैराग्य भावनेने प्रभावित झाले. मैनाने अखेरचा घाव घातला. "आई। तूं जर माझी खरी आई असशील तर माझे कल्याण करण्याची मला अनुमती दे. जीवनभर तुझे उपकार मी विसरणार नाही. मैना कुठल्याही प्रकारे आहारपणी ग्रहण करण्यास तयार होत नाही हे पाहून आईने धडधडत्या हृदयाने आपली अनुमती दिली. वडील तर मुलीच्या वियोगाच्या असहय कल्पनेनेच व्याकुळ होऊन त्यावेळी कुठे निघून गेले हे कुणालाच माहित नव्हते. मैनाला सुवर्ण क्षण असल्याचाच भास झाला. तिने लगेच एक कागद पेन्सील घेतली. आईच्या हातात देत. तिच्याकडून लेखी स्विकृती मागितली. कारण आचार्यश्रींनी आधीच कल्पना दिली होती की घरण्यांची अनुमती असल्याखेरीज मी व्रत देणार नाही. माता मोहिनीदेवीने मैनाच्या सांगण्यानुसार लिहिण्यास सुरूवात केली. डोळया तून अश्रु वहात होते. हात कापत होते. तरी देखील ती लिहित होती. "पूज्य महाराजजी। माझी कन्या मैना हिला, तिला पाहिजे ते व्रत द्यावे. आपल्या व्रताचे ती दृढतेने पालन करील याचा मला पूर्ण विश्वास आहे. प्रकरण ४ या शतकांत कुमारी मुलींना मोक्षमार्ग खुला करण्यासाठी आपल्या प्रथम कन्येला मोहिनीदेवी ने समर्पित करून जणु शुभारंभ केला. मैनानंतर अनेक कुमारी मुलींना या मार्गावर जाण्याचा दरवाजा राजरोसपणे खुला झाला. त्यासाठी मोहिनीदेवीला मोठा त्याग करावा लागला. तिचा त्याग जैन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३५५ इतिहासांत सुवर्णाक्षराने कोरण्या सारखा होता. मैनाची मनोकामना आता पुरी झाली होती. आईच्या समाधाना साठी आता तिला एक नाही तर अनेक वचने देण्यासाठी मैना तयार होती. ती शरदपौर्णिमेचीच रात्र होती. मैना बरोबर सोळा वषारची झाली. पौर्णिमेचा बाह्य मुहुर्त साधून, माता पुत्री दोधीही सुस्नात होऊन आचार्यश्रींच्या जवळ गेले. मातेने आपण लिहिलेला स्विकृति कागद कंपित हाताने महाराजांनादिला आणि ती गद्गद्लेल्या स्वरांत म्हणाली, गुरुवर ! आपण हे पत्र सदैव गुप्त ठेवावे. महाराजांनी पत्र घेतले. वाचून आश्चर्यचकित होऊन मोहिनीदेवीकडे पाहूनागले. मोहिनीदेवीचा आतापर्यंत बांधलेला धीर गळून पडला. डोळयांत अश्रृंचा पूर दाटला. हुंदके देवून ती रडू लागली. तिची अशी स्थिती होणे स्वाभाविकच होते. मैनाने श्रीफळ चढवून आचार्यश्रीकडून ब्रह्मचर्यव्रतरूप सातवी प्रतिमा धारण केली आणि ती गृहविरत झाली. सारे शहरवासी मैनाच्या धैर्य आणि साहसाची प्रशंसा करू लागले. शरद्पौर्णिमेचा जन्मदिवस सप्तम प्रतिमा धारण करून मैनाने साजरा केला. माता पिता छोटी भावंडे त्यावेळी हमसून हमसून रडत होती. ते करुणमय दृश्य पाहून सा-या नगरवासियांच्या डोळे ओले झाले. परंतु मैनाच्या डोळयांत पाण्याचा एक थेंबही नव्हता. मोहासक्त असलेला तिचा परिवार मैनाला आचार्यश्रींच्या चरणावर घालून जेंव्हा निघून गेला तेंव्हा तिला पूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त झाल्याचा आनंद झाला. आता स्वाध्याय, अध्ययन हेच तिचे साथी, नातेवाईक होते. ब्रह्मचारिणी अवस्थेत देखिल तिची चर्या आर्यिकेसमान होती. दीक्षेकडे वळलेले पाऊल चातुर्मास संपल्यानंतर आचार्यश्री बाराबंकी हून लखनऊ, सोनागिरी वगैरे करीत "श्री महावीरजी" येथे आले. मैनाची उत्कट भावना पाहून चत्रकृष्ण प्रतिपदेन्सठ आचार्यश्रींनीतिला क्षुल्लिकेची दीक्षा दिली. तिची वीरता पाहून “वीरमती" हे नांव तिला प्रदान केले. मैनाच्या फलतेची ही दुसरी पायरी होती. दीक्षा घेतल्यानंतर "महावीरजी" येथेच क्षुल्लिका ब्रह्मयनी माताजींची भेट झाली. दोघी मिळून संघांत राहू लागल्या. आचार्यश्रींचा संघ वाहत्या गंगेप्रमाणे विहार करीत जनमानसाला तृप्त करीत होता. योगायोगाने संघाने पुनः उत्तरप्रदेशात पदार्पण केले. चातुर्मास जवळ आला होता. टिकैत नगरापासून ६ कि०मी० दूर असलेल्या दरियाबाद या गांवी संघाचा मुक्काम होता. टिकैतनगरीचे काही प्रमुख महानुभव आचार्यश्रीची टिकैतनगरी चातुर्मास करावा म्हणून आचार्यश्रींच्याकडे प्रार्थना करण्यासाठी गेले. मैनाचे पिताजी ही मुलीच्या मोहाने त्यात सामील होते. आचार्यश्रीनी त्यांची विनंती कबूल केली, अशा रितीने क्षु० वीरमती माताजींचा पहिला चातुर्मास आपल्या जन्मभूमीतच झाला. चातुर्मासांत तिथे त्या सतत ध्यान अध्ययन, स्वाध्याय यातच रत असत. मातापिता येत. त्यांच्याशी बोलण्याचा प्रयत्न करीत. परनतु त्यांच्याकडे फारसे लक्ष देत नसत. सन् १९५३ मध्ये क्षुल्लिका विशालमती माताजी त्याना येवून मिळाल्या. त्या वीरमती पेक्षा मोठया होत्या. वडिलकीच्या नात्याने त्यानी क्षु० वीरमती माताजीवर मातेप्रमाणे वात्सल्याचा वर्जाव केला. एकदा संघात बातमी आली की आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज कुंथलगिरी येथे यम सल्लेखना घेणार आहेत. क्षु० वीरमती माताजीना त्यांच्या दर्शनाची तीव्र इच्छा निर्माण झाली. आचार्यश्रीची आज्ञा घेवून क्षु० विशालमती माताजींच्या बरोबर दक्षिण भारताची यात्रा करीत त्या निघाल्या. विहार करीत म्हसवड येथे पोहोचल्या. येथे दीन्ही माताजीनी चातुर्मास केला. येथेच त्यानी कु० प्रभावती हिच्या अध्ययनास प्रारंभ केला. चातुर्मास अंतर्गत भाद्रपदमध्ये आचार्यश्री शांतिसागर महाराजानी यम सल्लेखना घेतल्याची अचानक बातमी आली. तेंव्हा क्षु० विशालमती माताजींच्या बरोबर क्षु० वीरमती माताजी कुंथलगिरीला आल्या. त्यांच्या सोबत सौ० सोनूबाई नांवाच्या एक महिलाही होती. कालांतराने त्यानी ज्ञानमती माताजीच्या जवळच दीक्षा धारण केली. त्या आर्यिका पदमावती नांवाने प्रसिद्ध झाल्या. कुंथलगिरीला आल्यावर माताजीनी सल्लेखनारत आचार्यश्रीचे दर्शन घेतले. सल्लेखनापूर्ण होईपर्यंत तेथेच रहाण्याचा निर्णय घेतला. सल्लेखनाच्या आधी एक दिवस क्षु० वीरमती माताजीनी आचार्यश्रींच्या जवळ प्रार्थना केली. "हे गुरुदेव ! आम्हाला संसार सागर पार करण्यासाठी आर्यिकेची दीक्षा द्यावी. अत्यंत कोमल स्वरांत आचार्यश्री म्हणाले. "आम्ही आता दीक्षा न देण्याचा नियम केलेला आहे. आमचे शिष्य मुनी वीरसागरजी महाराज यांच्या संघात जावून त्यांच्याकडून दीक्षा ग्रहण करावी." गुरुदेवांचे वात्सल्यापूर्व शब्द ऐकून क्षु० वीरमती माताजीना समाधान वाटले. सन् १९५५ च्या १८ सप्टेंबरला भाद्रपद शुद्ध बीजच्या दिवशी सकाळी सात वाजून ५० मिनीटानी "ॐ सिद्धाय नमः" या मंत्राचा उच्चार करीत आचार्यश्रीनी आपल्या नश्वर शरीराचा त्याग केला. आचार्य शांतिसागरांच्या रूपाने एक आदर्श [चारित्रा] चारित्र्याचे प्रतिक अनंतात विलीन होऊन गेले. महाराजजी गेले. पण त्यांची महानता त्यांचा आदर्श, त्यांची शिकवण मागे राहिली. या आदर्शनुसार शिकवणी अनुसार जो कोणी आपला मार्ग क्रमेल, त्याला निश्चितच आचार्यश्रींची उंची गाठता येईल. आचार्यश्रींच्या सल्खनानंतर दुःखित अंतःकरणाने दोन्ही माताजी पुनः म्हसवडला आल्या. पुनश्च रोजचा दिनक्रम सुरू झाला. अध्ययन, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अध्यापनामध्ये वेळ जावू लागला. कुं० प्रभावती व सौ० सोनूबाई माताजींच्या सान्निध्यात राहून धर्माचे मर्म जाणण्यांत प्रगल्भ झाल्या. हळूहळू त्यांच्याही हृदयांत वैराग्याचे तेजस्वी अंकूर फुटले. विरागींच्या सहवासात रात्री क्षणभरासाठी का होईना विरागी होतो. या दोघींचे तर मुळचेच परिणाम उत्तम होते. प्रभावतीचे वैराग्य पाहून क्षु० वीरमती माताजी तिला म्हणाल्या प्रभावती म्हणाली "अम्मा। मला स्वतंत्र जीवन जगणे आवडते. आपल्याजवळच रहाण्याची माझी इच्छा आहे. यापेक्षा अधिक प्रभावतीला सांगता आले नाही. अशा रितीने कुमारी बालसतीक्षु० वीरमती माताजीना प्रथम शिष्या कुमारी कन्याच मिळाली. क्षु० विशालमती माताजींच्या आज्ञेनुसार दीपावलीच्या मंगल प्रभाती प्रभावतीला आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतपूर्वक दहावी प्रतिमा प्रदान केली. त्याचवेळी सौ० सोनूबाईनी आपल्या पतीच्या आज्ञेने सहावी प्रतिमा धारण केली. चातुर्मास संपला. क्षु० वीरमती माताजीना आता "आर्यिका" पदाची उत्कट ओढ लागली. त्या ओढीनेच क्षु० विशालमती माताजीनी म्हसवड येथेच ठेवून बरोबर प्रभावती व सौ० सोनूबाई याना घेवून त्या जयपूरला आल्या. जयपूरला आचार्यश्री वीरसागर महाराजाचा ससंघ निवास होता. जयपूरला गेल्यानंतर क्षु० वीरमती माताजीनी आपल्या दोन्ही शिष्ये सहित आचार्यश्रींचे दर्शन घेतले, आणि आ० शांतिसागरजींची आज्ञा सांगून आर्यिका दीक्षा देण्याची विनंती केली. आचार्यश्री म्हणाले "येवयांत घाई करू नका. थोड यांचा संघात रहा. संघातील साधु, साध्वींचा परिचय करून घ्या. नंतर दीक्षेच पाहू. माताजीनी गुरुदेवाची आज्ञा प्रमाण मानली. त्या संघात सवर आर्यिकेच्या बरोबर राहू लागल्या. संघामध्ये असलेल्या ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध आर्यिकानी क्षु० वीरमती माताजीच्या ज्ञानाची, चर्येची, स्वभावाची परिक्षा घेतली. त्यात त्या पूर्णपणे उतरल्या. क्षु० वीरमतीमाताजीना लवकरात लवकर आर्यिकेच दीक्षा ध्यायची होतो. परन्तु आचार्यश्रींच्या आदेशानुसार त्याना चार महिने वाट पहावी लागली. शेवटी संघ जयपूरहून विहार करून माधोराजपूर येथे आला. या अवधीत आचार्यश्रीनी देखिल माताजींची गहन ज्ञानसाधना, दीक्षेची उत्कट भावना पारखली होती. ते त्यांच्यावर अत्यंत प्रसन्न होते. माताजी वयाने लहान असुनही ज्ञानाने चारित्राने महान होत्या. त्यांचे संघातील वास्तव्य हे संघाला गौरवास्पद आहे अशी आचार्यश्रींची धारणा झाली होती. चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतीसागर महाराजांचे प्रथम पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज आपल्या चतुर्विध संघासहित माधोराजपूर मध्ये विराजित होते. सारे भक्तगत, साधनेमध्ये रत असलेल्या साधु साध्वींच्या दर्शनाने कृतकृत्य होते होते. इकडे क्षु० वीरमती माताजींच्या उत्कट भावलहरी असीमित झाल्या. “आर्यिका" दीक्षेसाठी त्या बेचैन झाल्या. पुनः एक दिवस त्या आचार्यश्रींच्या चरणाशी गेल्या, आणि मोठया विनयाने प्रार्थना केली. "हे गुरुदेव ! मला आता लवकरात लवकर आर्यिका दीक्षा प्रदान करावी". महाराजजींचे माताजींच्या बाबतीत आता पूर्ण समाधान झाले होते. "आर्यिका" दीक्षा घायला काही हरकत नाही असा त्यांच्या मनाने कौल दिला. ताबडतोब त्यानी ब्र० सुरजमलजीना शुभमुहुर्त काढायला सांगितला. वैशाख शुद्ध द्वितीयेला "आर्यिका" दीक्षा समारोहाची घोषणा झाली. दीक्षेचा शुभदिन उगवला. आज आपल्या अंतिम लक्ष्याची सिद्धी होणार असल्याने ९० वीरमती माताजी अतीव प्रसन्न होत्या. त्यांच्या बरोबर त्यांची शिष्या ब्र० कु० प्रभावती ही क्षुल्लिकेची दीक्षा घेणार होती. दिवसाच्या मध्यान्हीची वेळ आचार्यश्रीनी वीरमती माताजींच्या मस्तकावर मुनीदीक्षेचे समस्त संस्कार केले. नवीन पिंछी कमंडूल प्रदान करून "आर्यिका ज्ञानमती" असे नामाभिधान केले. त्याचवेळी कु० प्रभातीला क्षुल्लिकेची दीक्षा देवून तिचे "जिनमती" नांव ठेवले. आता आर्यिका ज्ञानमती माताजी संतोषाने आपल्या अध्ययन, अध्यापन, ध्यानसाधना यात्त रत राहू लागल्या. माताजींचा ज्ञान, ध्यानाकडे असलेला तीव्र कल पाहूनच आचार्यश्रीनी त्यांचे नांव "ज्ञानमती" ठेवले. आपल्या या छोटया शिष्येला आचार्यश्री सदैव जाती ने प्रबोधन करीत. ते म्हणत, "ज्ञानमती।" तूं आपल्या नांवाकडे सतत लक्ष ठेव. त्याचा कधीही विसरपडू देवू नकोस येवढेच माझे तुला सांगणे आहे. प्रकरण ५ चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतीसागरजी महाराजांच्या आदेशानुसार चालणारे त्यांचे पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागर महाराज आपल्या चतुर्विध संघाचे कुशलतेने संचालन करीत राजस्थानीत विहार करीत होते. श्रावकगण गुरुसहवासाचा लाभ करून घेत होते. तर साधूगण पितृतुल्य अशा महान गुरुंच्या वात्सल्यमय छत्रछाये खाली आपल्या रत्नत्रयाची साधना करीत होते. आर्यिका ज्ञानमती आपल्या गुरुंच्या आज्ञेवरून आपल्या नांवाला अनुसरून ज्ञानगंगेत सदैव डुबत होत्या. धर्मग्रंथातील कठीणातल्या कठीण शब्दाचाही अर्थ जाणण्यात त्याना कुठलीच अडचण वाटत नव्हती. कारण "कातंत्ररूपमाला" व्याकरण शास्त्र आत्मसात केल्यामुळे मूळ पायाच त्याचा पक्का झाला होता. आपल्या शिष्यगणाला शिकवून शिकवून त्या आपले ज्ञान परिपक्व करीत होत्या. माताजी नेहेमीच म्हणायच्या- "ज्याप्रमाणे चाकूला दगडावर घासून धार तीक्ष्ण होते. आणि ज्ञानामध्ये वाढ होते. “माताजींचे हे आवडते तटव होते. म्हणूनच त्या सदैव दुस-याला शिकविण्यात तत्पर असत. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३५७ विहार करीत करीत संघ जयपुरला आला. तिथे संघातल्या काही साधुनी प्रतिक्रमणाचा अर्थ शिकवण्याची माताजीना विनंती केली. माताजीनी आचार्यश्रीची आज्ञाघेवून त्याना प्रतिक्रमण अर्थासहित शिकविण्यास प्रारंभ केला. त्यांच्या विद्यार्थिगणात क्षु० सन्मतिसागरजी, क्षु० चिदानंद सागरजी [क्षुल्लकावस्थेतील आचार्य कल्प श्रुतसागरजी] क्षु० चंद्रमतीजी, क्षु० जिनमती, क्षु० पद्मावती आणि अनेक वयोवृद्ध आर्यिका सामील होते. यातच पू० माताजींनी सामायिकाची शास्त्रानुसार शास्त्रोक्त विधीही सांगितला. तोपर्यत संघात शास्त्रोक्त अशी सामायिकाची विधी [इपिथ शुद्धी करून चैत्य पंचगुरुभक्ती, समाधीभक्ती सहित] प्रचलित नव्हती. या विधीचा साधुसंघात चांगलाच प्रभाव पडला. आचार्यश्रींचे अनुशासन कडक परन्तु प्रेमळ होते. त्यांच्या शिस्तीमुळे संघात एकसुत्री पणा होता. श्री सम्मेदशिखरजीवरून याचवेळी आचार्यश्री महावीर कितीजी महाराजांचा संघ विहार करीत आचार्य देवांच्या दर्शनार्थ जयपूर येथे आला. आचार्यश्री महावीर किर्तीजी महाराज संस्कृत व्याकरण, न्याय सिद्धांत ग्रंथाचे प्रकाण्ड विद्वान होते. म्हणून आचार्यश्री वीरसागर महाराजांनी त्यांना आज्ञा केली की आपण आमच्या संघातील मुनी आर्यिकांना शिकवावे. गुरु आज्ञा शिरोधार्य मानून त्यांनी साधुना शिकविण्यास सुरूवात केली. यातच श्री ज्ञानमती माताजींनी राजवार्तिक अष्टसहस्त्री आदि ग्रंथाचे अध्ययन केले. ___ इकडे आचार्यश्री वीरसागर महाराजांची तब्येत दिवसेंदिवस ढासळत चालली. प्रकृति पुनः उभारी धरेना. त्यांचा अंतिमकाल निकट आल्याचे सर्वाना जाणवले. अण्वीन कृष्ण अमावस्येच्या दिवशी आचार्यश्री पद्मासनामध्ये स्थित राहून, महामंत्राच्या घोषांत समाधिस्थ झाले. सर्व संघावर दुःखाची कु-हाड कोसळली. पोरकेपणाच्या भावनेने सारा साधुगण व्याकुळ झाला. अशा दुःखित संघपरिवाराला सावरण्याचे काम महावीर किर्तीजी महाराजांनी केले. आपल्या वात्सल्यपूर्ण अमृतवाणीने त्यांचे सांत्वन केले. द्वितीय पट्टाधीश आचार्य आचार्यश्री वीरसागरजीमहाराजांच्या समाधीनंतर संघाचे आचार्यपद मुनीश्री शिवसागरजी महाराजांना प्रदान करण्यात आले. संघाचे सूत्रसंचालन त्यांच्या अनुशासना खाली होऊ लागले. आचार्यश्रींच्या संघाबरोबर यात्रा करीत करीत तीन वर्षे होऊन गेले. त्यानंतर पू० माताजींनी श्री सम्मेदशिखरजीच्या यात्रेला जाण्याची आचार्यश्रींच्या कडून आज्ञा घेतली. त्यांच्याबरोबर त्यांचा शिष्यगण जिनमती माताजी, आदिमतिजी, पद्मावतीजी, श्रेष्ठमतीजी हे देखिल होते. तेव्हापासून आजपर्यत पू० माताजींच्या जीवनाचा अभ्यास केला तर असे दिसून येईल की या शतकात स्त्री असूनही त्यांनी अनेक अलौकीक कार्यानी आपले जीवन संपन्न केले. पू० माताजींच्या उपदेशामुळे, चर्येमुळे, जैनधर्माची प्रभावना वाढली. तसेच अनेक दुःखी लोकांच्या समस्या त्यांना मंत्रतंत्र सांगून करूणा भावनेने सोडविल्या. कितो लोकांनी त्यांच्या सिद्धीचा लाभ घेतला. याला गणतीच नाही. ही सारी उदाहरणे मी प्रत्यक्ष पाहिलेली आहेत. सन् १९६३ मध्ये कलकत्ता येथे प्रथमच पू० माताजींच्या संघाचा चातुर्मास घडला. तो चातुर्मास आजही तेथील लोकांच्या चांगलाच स्मरणांत आहे. पू० माताजींची दृढता, कडक अनुशासन, आगमाविषयी कट्टरता याच्या विषयी तेथील समाजाचे मान्यवर लोक अजुनही भक्तीभावनेन बोलतात. माताजींची महानता, ज्ञानाची प्रगल्भता पाहून माताजींच्या गुणवैभवासमोर आपोआपच मस्तक नत होऊन जाते. माताजींच्या आशिर्वादाने हरविलेल्या बालकाची प्राप्ती सन् १९८३ च्या नोव्हेंबर मधली गोष्ट. एक श्रावक वीरकुमार जैन [बेलहरा, जि० सीतापूर, अवधनिवासी] हस्तिनापुरला आले. त्यांचा १८ वर्षाचा मुलगा दिलीपकुमार कुठेतरी बेपत्ता झाला होता. तसा तो जरा विक्षिप्तच होता. तरुण मुलाच्या बेपत्ता होण्याने वीरकुमार अतिशय घाबरून गेले होते. पू० माताजींनी त्यांनी सर्व कहाणी सांगितली आणि काकूळतीला येऊन विचारले, माताजी। माझा मुलगा केंव्हा आणि कुठे सापडेल? माताजी त्यांचे सांत्वन करीत म्हणाल्या, घाबरू नका. एक मंत्र देते. त्याचा सत्रालाख जाप करा. तुमचा मुलगा स्वतः होऊन चालत घरी येईल. पू. आर्यिका रत्नमती माताजीही तेथे उपस्थित होत्या. वीरकुमारजींनी त्यांचेही दर्शन घेऊन आशिर्वाद घेतला आणि घरी निघून आले. पुत्र वियोगाने अत्यंत बेचैन झालेल्या वीरकुमारजींचे चित्र, मंत्राचा जाप देतानाही ठिकाणावर रहात नसे. मुलाच्या काळजीने त्यांचे प्राण कंठाशी येत. आपला पुत्र कुठे असेल? कशा अवस्थेत असेल? जीवंत तरी आहे की नाही या विचाराने ते व घरचे लोक व्याकुळ होऊन सारखे रडत. वीरकुमारजी प्रत्येक पोळीस ठाण्यावर जाऊन रिपोर्ट देवून आले. मुलाचातपास लागावा म्हणून प्रत्येकापुढे हात जोडले, काना कोपरा शोधून काढला. पण कुठेही त्याचा पत्ता लागला नाही. असाच एक महिना गेला. वीरकुमारजी पुनः रडत माताजींच्याकडे गेले. त्याना विनवणी करीत म्हणाले "माताजी। कांहीही करा, माझा मुलगा मला भेटवा." माताजी नम्रपणे म्हणाल्या "भाईजी। हे रडणे बंद करा. मी सांगितलेल्या मंत्राचे सधालाख जाप द्या. तुमचा मुलगा तुम्हाला नक्की मिळेल. तो जेथे आहे तिथे खुषाल आहे." Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सगळे प्रयत्न करून वीरकुमारजी थकले होते. घरी आल्यानंतर गुरुवचनावर श्रद्धा ठेवून, भक्तीपूर्वक मंत्रजापाच्या अनुष्ठानास प्रारंभ केला. आणि खरोखर चमत्कार घडला. एक दिवस सघालाख जापाचे अनुष्ठान पूर्व करून मंदिरातून घरी जात होते. रस्त्यांत एकाशी बोलता बोलता म्हणून गेले "आज माझे सघालाख जापाचे अनुष्ठान पूर्ण झाले. माझा मुलगा यायलाच पाहिजे. तसे पू० माताजी ने सांगितले आहे." नेहेमी प्रमाणे भोजन करून वीरकुमारजी दुकानी येवून बसले. आज कामकाजांत त्यांचे लक्ष नव्हते. अस्वस्थ होवून ते सारखे रस्त्याकडे पहात. मुलाला पहाण्यासाठी त्यांची नजर आतुरली होती. आतुन पक्की खात्री होती की आज आपला मुलगा येणारच. आणि खरोखरच बरोबर दोन वाजता समोरून त्यांचा मुलगा दिलीपकुमार एका व्यक्ती बरोबर येत होता. आश्चर्य। महान आश्चर्य. आपण स्वप्नात तर नाही ना? सत्य की भास? काही क्षण ते सभ्रमावस्थेत पडले. खरच कां माझा मुलगा आला? होय, खरे आहे ते अगदी खरे. आनंदाने ते बेहोस झाले. समोर दिलीप उभा होता. डोळयावरचे केस अस्ताव्यस्त विखुरले होते. चेहरा सुकला होता. किती दिवसाचा भुकेला होता कोण जाणे? __ भावना सगळया उमळून आल्या. डोळयांत अश्रुधारा बरसू लागल्या. पटकन उठून त्यानी मुलाला हृदयाशी धरले आणि ते वेडयासारखे त्याचे मुके घेत सुटले. काहीवेळाने भावनांचा आवेग कमी झाल्यावर वीरकुमारजी गद्गदून म्हणाले. "धन्य तुमची माताजी। मला पूर्ण विश्वास होता की तुमचे वचन कधी असत्य ठरणार नाही. आजच सघालाख जाप पूर्ण झाले आणि माझा पुत्र स्वतः होवून घरी आला." हे सगळे होई पर्यंत त्यांच्या दुकानापुढे शेकडो लोक जमले होते. तीन महिन्यापासून बेपत्ता झालेल्या पुत्राचे आणि डोययांत प्राण आणून त्याची वाट पहाणा-या पित्याचे हृदयंगम मीलन पाणावलेल्या डोळयानी पहात होते. दिलीप बरोबर आलेली व्यक्ती जवळच्याच गांवातली होतो. तो म्हणाला. "काल दुपारी हा माझ्या घरी अचानक आला. कुठुन भटकत भटकत आला कुणास ठाऊक? याची सगळी ओळख काढून याला मी तुमच्या जवळ घेवून आलो." सर्वानी त्याला लाख लाख दुवा दिल्या. पुत्रशोकाने दुःखित झालेल्या परिवारामध्ये त्याने पुनः चैतन्य आणले. आनंद आणला. नंतर दिलीपनेहीतीन महिन्यात काय घडले हे सांगायला सुख्खात केलो. मुलगा घरी आल्यानंतर वीरकुमारजीनी प्रथम मला पत्र लिहले. आणि थोडयाच दिवसांत ज्ञानमती माताजींच्या जवळ मुलाला दर्शनासाठी घेवून आले. बंधुनो हे पुरगुरुशक्तीचे आणि त्यानी दिलेल्या मंत्राच्या अनुष्ठानाचे फळ आहे. आज दिलीपकुमार अगदो व्यवस्थित आहे. कसलीही विकृति त्याच्या मध्ये नाही. बेलहरामध्ये आपल्या वडिलाना, कापड दुकानांत कुशलतेने मदत करीत आहे. आपल्या आई वडिलांच्या जवळ आनंदाने रहात आहे. मंत्रतंत्राची साधना आचार्यनी शास्त्रामध्ये लिहून ठेवलेलीच आहे. तरी लिहून देखील प्रत्यक्ष गुरुमुखातूनच मंत्र प्राप्त करावेत. नाहीतर अनर्थ होण्याची शक्यता असते. डॉक्टर एखाद्या रोग्याला तपासून, त्याची नाडी परिक्षा करून त्याला योग्य असेल तेच औषध देतात, आणि तेच औषध रोग्याला लागू पडते. स्वतः पुस्तकात वाचून मनाने औषध घेणे रोग्याला हितकारक नसते. त्याचप्रमाणे गुरुदेव, शिष्याची समस्या समजावून घेवून त्याला अनुकूल असेच मंत्रतंत्र देतात. गुरुदेव सांगतील तसे मंत्राचे अनुष्ठान केले तरच मंत्र फलीत होते. कुठल्याही पुस्तकांत वाचून स्वतःच्या मनाने मंत्राचे जाप कधीही करू नयेत. माझी अशी गाढ श्रद्धा आहे की गुरुदेवानी दिलेल्या मंत्राच्या पाठीशी त्यांच्या तपस्येचे सामर्थ्यही उभे असते. म्हणूनच त्यांच्या आशीर्वादाने त्यांचे मंतर फलदायी होतात. पु० माताजीनी कुठल्याही रोग्याच्या मस्तकावर आपला पिछी आशीर्वाद स्वरूप ठेवली तर ती व्यक्ती रोगमुक्त होवून जाते हे मी प्रत्यक्ष पाहिलेले आहे, अनुभवलेले आहे. दूरदूरच्या प्रदेशांतून माताजींचे भक्तगण त्यांच्या दर्शनार्थ हस्तिनापूरला सतत येतात आणि त्यांचे आशीर्वाद प्राप्त करून सन्तुष्ट होवून जातात. अगदी अलीकडची एक ताजी घटना आहे. सीतापुरचे नरेन्दरकुमार जैन व त्यांची पत्नी श्रीमती किरणदेवी यांचा दहा वर्षाचा मुलगा धनेंद्रकुमार जैन गत वर्षापासून नेत्ररोगाने बेजार झाला होता. त्याच्या एका डोळयाची दिसण्याची क्षमता कमी होत चालली होती. खूप उपचार केले. कांही फरक अपडेना. शेवटी डॉक्टरांच्या सलयाने डोळयाचे ऑपरेशन केले. ऑपरेशन करूनही फायदा झाला नाही. आलेले अंधत्व तसेच होते. मुलगा तर वेदनेने तळमळत होता. आई वडिलानी शेवटी गंडेदोरे, ताईत, हकीम दुवा असले उपाय केले. परंतु सगळे कांही व्यर्थ गेले. कित्येकानी भूतपिशाच्याची बाधा झाल्याचे सांगितले. परंतु त्यावर काय करावे हेत कुणाला सुचत नव्हते. मातापिता अत्यंत दुःखी झाले. श्रीमती किरणदेवी ही माझ्या गांवची असल्यामुळे तिचा माझा चांगलाच परिचय होता. ४/५ महिने प्रयत्न करूनही आपल्या मुलात काही सुधारणा होत नाही हे पाहून तिने मला पत्र लिहिले. आणि माताजींना सांगून हे संकट दूर करावे अशी विनवणी केली. मी० पू० माताजींना सर्व हकीकत सांगितली. माताजींनी किरणदेवीला हस्तिनापूरला बोलावून घेतले. किरणदेवीला माताजींनी आशिर्वादपूर्वक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ मंत्र व यंत्र देवून त्याचे श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करण्यास सांगितले. किरणदेवीने घरी येऊन अनुष्ठानास प्रारंभ केला. पुढच्याच महिन्यांत तिचे पत्र आले. "आता धनेन्द्राच्या डोळयांत सुधारणा होऊ लागली आहे. हळू हळू त्याला दिसुही लागले आहे. तिचे पत्र वाचून आम्हा सर्वानाच समाधान वाटले. १५ जून १९८८ रोजी किरणदेवी धनेंद्राला घेऊन माताजींच्या दर्शनार्थ पुनः हस्तिनापूरला आली. काय घडले? कसे घडले? हे माताजींना सविस्तर निवेदन केले. अत्यंत भक्तीभावाने आपल्या मुलाला माताजींच्या चरणावर घातले. माताजींनी आपली पिछी त्याच्या मस्तकावर ठेऊन मंगल आशिर्वाद दिला. किरणदेवी कृतार्थ झाली. भावनावेगाने तिचे मन भरून गेले होते. त्या भरांत तिने १५ ऑगस्ट १९८८ ते २४ ऑगस्ट पर्यत इंद्रध्वज मंडल विधान करण्याचा संकल्प केला. [३५९ अशी एक दोन किरकोळ उदाहरणे मी समक्ष पाहिलेली आपणांस सांगितली आहेत. असे कितीतरी लहान मोठे चमत्कार माताजींच्या तपस्येच्या प्रभावाने घडलेले आहेत. सारेच कांही लेखनीबद्ध करू शकत नाही. गुरुभक्तीचा महिमा अगाध आहे. हेच यावरून दिसून येते. म्हंटलेच आहे की, "गुरुभक्ती सती मुक्तयै, क्षुद्रं किं वा न साधयेत." अर्थात् गुरुभक्ती, गुरुवचन यावरची अचल श्रद्धा मुक्तीला प्राप्त करून देते. मग या क्षुद्र गोष्टींची काय कथा । ० बालसती, पू० आर्थिका ज्ञानमती माताजींच्या ३६ वर्षाच्या तपस्येमध्ये महान शक्ती असणारच. आपल्या शक्तीचा उपयोग करुणा भावनेने मानव मात्रांचे दुःख दूर करण्यासाठीच केला. प्रकरण ६ सन् १९६४ मधील गोष्ट.. कलकत्ता येथील चातुर्मास संपवून आपल्या संपासहित विहार करीत पू० माताजी आंध्रप्रदेशांत आल्या. हैद्राबाद येथे त्यांचा चातुर्मास झाला. या चातुर्मासांत माताजींना संग्रहणीच्या आचाराने गाठले. माताजींचे प्रकृति स्वास्थ्य अत्यंत बिघडले. खूप अशक्तपणा आला होता. जगताता कीं मरतात अशी अवस्था निर्माण झाली. त्यावेळी संघात पू० ज्ञानमती माताजींची धाकटी बहिण अ० मनोवती होत्या. त्यांनीच माताजींना संघसहित श्री० सम्मेदशिखरजीची यात्रा अथक परिश्रमपूर्वक करून आणली होती. या चातुर्मासांत त्या पू० माताजींच्या हस्ते क्षुल्लिकेची दीक्षा ग्रहण करणार होत्या. माताजींची परिस्थिती तर गंभीर होती. दीक्षा समारोह कसा होणार याची सर्वाना चिंता पडली. परंतु त्या स्थितीतही त्यांनी दीक्षेचा मुहूर्त काढला. त्यांची इच्छाशक्ती आत्मशक्ती जबर होती. श्रावण शुक्ल सप्तमीच्या [ मोक्षसप्तमी ] शुभमुहुर्तावर माताजी उठून बसल्या अणि अत्यंत उत्साहाने विशाल जनसमुदायाबरोबर ब्र० मनोवतीला स्वहस्ते क्षुल्लिकेची दीक्षा प्रदान केली. आचार्यश्री शिवसागरजी महाराजांच्या आज्ञेनुसार दीक्षेचे सर्व संस्कार माताजींनी स्वतः जातीने केले. दीक्षेनंतर मनोवतीचे नांव ० अभयमती ठेवण्यांत आले. तेव्हापासून हैद्राबादमधले लोक गंमतीने म्हूण लागले की जर कान माताजींना कुठल्याही आजारातून बरे करायचे असेल तर कुणाचा तरी दीक्षा समारोह करावा म्हणजे त्या औषधावाचून ठीक होतील. मुमुक्षु जीवाना त्या नेहमीच वैराग्यपूर्ण शब्दांत संबोधन करीत आणि मोक्षमार्गाला लावीत. स्वतःची तब्येत बरी नसली तरी कधी त्यात खंड पडला नाही हे मी प्रत्यक्ष अनुभवले आहे. आपल्या जीवनांत अनेक स्त्री पुरुषाना कल्याणमार्गाला लावण्यांत त्या यशस्वी झाल्या आहेत. दक्षिणेतील जंबुद्वीप उत्तरेत हैद्राबाद येथील चातुमांस संपल्यानंतर माताजी कर्नाटक प्रांती गेल्या. तेथे श्रवणबेळगोळ येथे भगवान बाहुबलींच्या पवित्र चरण सानिध्यांत १९६५ चा चातुर्मास झाला. सिद्धीची प्राप्ती होण्यासाठी साधनेच्या पाय-या ओलांडाव्या लागतात. कार्यसिद्धसाठी तन्मय होऊन कोणी कठोर साधना करील तर त्याला यश मिळाल्या शिवाय रहाणार नाही. डॉक्टर, इंजिनियर, वकील व्हायचे असेल तर बरीच वर्षे परिश्रमपूर्वक अभ्यास करावा लागतो तेंव्हा कुठे अशी पदे प्राप्त होतात. तद्वत मोक्षसाधना करण्यासाठीही कठोर परिश्रमाची आवश्यकता असते. अर्जुनाला धनुर्विद्या साध्य करताना पक्ष्याच्या डोळयातील फक्त बाहुली दिसत होती. इतर कांहीही दिसत नव्हते. त्याचप्रमाणे मोक्षार्थिना सर्व गोष्टीकडून मन हटवून केवळ वीतरागतेची आराधना केली पाहिजे. Jain Educationa International सर्व साधनेत ध्यान साधना मुख्य आहे. तसे तर संसारात राहून आम्ही प्रतिक्षण ध्यानक करीत असतो. ध्यान चार प्रकारचे आहे. आर्त, रौद्र, धर्म आणि शुक्लध्यान, आर्त, रौद्र, ध्यान या जीवाला सदासर्वदाच होत असते. किंबहूना ही दोन ध्यानेच संसाराला कारणीभूत आहेत. या दोन्ही ध्यानाचा त्याग करून पू० माताजींनी धर्मध्यानावर आपली लक्ष केंद्रित केले. कारण शुक्लध्यान श्रावकांनाच काय परंतु त्यागी मुनींनाही या कालांत होणे असंभव आहे. म्हणून धर्मध्यानच वृद्धींगत करून त्यात आत्मानंदाचा रसस्वाद घेतला पाहिजे. चातुर्मासांतर्गत माताजींनी याच ध्यानाचा आश्रय घेतला. १५ दिवस अखंड मौन धारण करून भ० बाहुबलीच्या चरणाशी त्या ध्यानरत राहिल्या. त्यांच्या एक शिष्या आर्यिका पदमावती फक्त त्यांच्याजवळ होत्या. बाकीचा संघ पहाडाखाली थांबला होता. केवळ आहारासाठी त्या खाली येत होत्या. पर्वतावरच रात्री थोडावेळ झोप घेत. बाकीचा सर्व समय ध्यान साधना करीत. For Personal and Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला __एक दिवस रात्री ध्यान करीत असताना एकाएकी तेजोमय प्रकाश पसरला. तेजःपुंज अशी अकृत्रिम चैत्यालयाची रचना डोळयासमोर दिसू लागली. उत्तुंग सुमेरु पर्वत, गंगा, सिंधु आदि नद्या विदेह क्षेत्र वगैरे कितीतरी रचनाप्रत्यक्ष डोळयापुढे उभ्या राहिल्या. जणु कुठल्यातरी सिद्धीचा तो साक्षात्कार होता. हे अलौकिक दृश्य पाहून माताजींना अपूर्व आनंद झाला. प्रातःकाली खाली येऊन भरा भरा ग्रंथ उघडून काही तरी शोधु लागल्या. निलोय पण्णति त्रिलोकसार या ग्रंथांत वर्णन केलेली लोक रचना व त्यांनी रात्री पाहिलेले दृश्य जसेच्या तसे होते. हे पाहून त्यांच्या प्रसन्नतेला पारावार राहिला नाही. आता तर प्रतिदिन त्याच अकृत्रिम चैत्यालयाचे वंदना रूपाने ध्यान सुरू झाले... या संस्थानविचय धर्मध्यानाची समाप्ती झाल्यानंतर माताजींनी आपले मौन सोडले. आपल्या शिष्यगणांना काय घडले ते सांगितले. माताजींना प्रत्यक्ष जंबुद्वीपाचे दर्शन ध्यानांत झाले हेपाहून सा-यांनाच आनंद झाला. ज्यांनी पू० माताजींच्या मुखातून हया लोकाचे अभूतपूर्व वर्णन ऐकले, ते म्हणाले या धरतीवर या रचनेला मूर्तरूप दिलेच पाहिजे. जंबुद्वीप आदि अकृत्रिम चैत्यालयाचे वर्णन करणानुयोगांत २००० वर्षापूर्वीच लिहून ठेवले आहे. परंतु तिकडे म्हणावे तसे कुणाचे लक्ष गेले नाही. भारतात अनेक ठिकाणी नंदीश्वरदीप, समवशरण इत्यादिंची रचना केली गेली. परंतु जंबुद्वीपाला साकार करून जनमानसापर्यंत तिचा परिचय करून देण्याचे श्रेय पु० जानमती माताजींच्याकडेच जाते. दक्षिनेत ध्यानावस्थेत त्यानी जंबुद्वीपाची रचना पाहिली. पण त्याला मूर्तस्वरूप मात्र उत्तरेत मिळाले. ज्याप्रमाणे भ० ाहुबलीच्या दर्शनासाठी भारतातील सारे लोग श्रवणबेळगोळ येथे येतात त्याचप्रमाणे उत्तयरेतील जंबुद्वीपाचे दर्शन घेण्यासाठी सारे भारतवासी हस्तिनापुरला येतात. एक वेळ अशी होती की हस्तिनापूरच्या भयानक जंगलात दिवसा देखिल जाण्यास लोक साहस करीत नसत. तेथेच आज मध्यरात्री देखिल ते निर्भयतेने खुषाल रहतात. हा पू० ज्ञानमती माताजींच्या तपस्येचाच प्रभाव आहे. जंबुद्वीप निर्माण करतेवेळी कित्येकवेळा विषारी साप निघाले. परंतु कोणालाही त्यांच्यापासून इजा झाली नाही. काम करण्या कारागिरानाही सदैव अंहिसेचे काटेकोरवणे पालन करण्याविषयी निक्षून सांगितले होते. त्यामुळे त्यानीहीकधी साप, विंचू आदिची हत्त्या केली नाही. एकदा पू० माताजी आपल्या वसतिकेत [रत्नत्रय निलय] संध्यासमयी प्रवेश करीत होत्या, पहातो तो त्यांच्या पायाशी, एक इंचावरच एक काळा सर्प फणा काढून पसरला होता. आम्हीतर घाबरून पळू लागलो. परंतु माताजी शांतपणे धीर देत म्हणाल्या "घाबरू नका. हा सर्प कुणालाही त्रास देणार नाही." असे म्हणता क्षणीच तोसर्प सावकाशपणे आपल्या मार्गाने निघून गेला. विंचवाचे विषही चढले नाही सन् १९७२ मधली गोष्ट. माताजींचा संघ राजस्थानातून दिल्लीकडे चालला होता. संध्याकाळची वेळ झाली म्हणून वाटेतल्या एका गावातच संघाचा मुक्काम पडला. गावातील एका घरात सर्वाची रहाण्याची व्यवस्था केली होती. बरोबर ब्र० मोतीचंदजी आणि आम्ही ७/८ ब्रह्मचारिणी होतो. माताजीना मौन होते. त्या झोपल्या होत्या. तेवढयात पायाला काहीतरी जोरात चावल्याचे त्याना जाणवले. आम्ही टॉर्च लावून पाहिले तर एक काळा विंचू त्यांच्या पाटाजवळ होता. लोकानी लगेच विंचवाला पकडले आणि बाहेर नेऊन सोडले. आता सर्वाना काळजी लागली. माताजीना विंचवाचे विष चढले तर काय होईल? त्या लहान गावात कसलीही सोय नव्हती. काही करता येत नव्हते. मग आम्ही सर्वानी णमोकार मंत्राचा जाप घायला सुरवात केली. माताजीनीही काहीवेळ ध्यान केले आणि त्या शांपणे झोपल्या. आम्हाला काही झोप आली नाही. सकाळी उठून पहातो तो माताजींची तब्येत एकदम छान होती. रात्री त्याना विषारी विंचू चावला हे सांगूनही कुणाला खरे वाटले नसते. कठहणे, कुंथणे, दुखणे वगैरे कसलाही त्रास नव्हता. नेहेमीप्रमाणे पुढे जाण्यासाठी त्यानी विहार केला. त्यांचा त्याग, तपस्या, कडक चर्या यांचाच हा चमत्कार होय. गेल्यावर्षों १९८७ मध्ये एक वृद्ध ब्रह्मचारिणीजी हस्तिनापूरला आली. ती कट्टर मुनीभक्त होती. साधु लोकाना आहारदान देण्यांत ती स्वतःला धन्य समजत असे. हस्तिनापूरला आल्यावरही तिने चौका लावला. असेच काही दिवस गेले. एक दिवस ती आजारी पडली. दोन्ही पाय इतके सुजले की तिला हिंडणे फिरणे मुश्किल झाले. तिने मला बोलविणे आणि म्हणाली "मला ज्ञानमती माताजींची याक्षणी अंगावर नेसलेली साडी मला आणून दे. तिची दुरावस्था पाहिली. मी चटकन डठले. माताजींच्याकडे गेले. त्याना दुसरी साडी नेसायला दिली आणि त्यांची नेसूची साडी घेवून ब्रह्मचारिणीला दिली. दुस-या दिवशी तीच साडी नेसून ती ब्रह्मचारिणी स्वतःच्या पायाने चालत माताजींच्या जवळ आली. त्याना वंदन करून मोठया भक्तीभावेने गद्गद्लेल्या स्वरांत म्हणाली "या माताजी तर आजच्या काळातील "विशल्या" आहेत. यांच्या शरीराने स्पर्श केलेली साडी नेसले तर माझा आजार कुठल्याकुठे पळाला. मला अगदी बरे वाटू लागले. नंतर तिने अत्यंत श्रद्धेने माताजीना नवीन पिछी दिली आणि त्यांची जुनी पिछी प्रसाद म्हणून घेतली व स्वतःला ती धन्य मानू लागली. चतुर्थकालातील साधुंचे संहनन उत्कृष्ट होते. त्यांची, त्यामुळे तपस्याही अत्यंत निर्दोष परमोत्कृष्ट, जाज्वल्य अशी होती. कठोरतील कठोर तपस्या Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तसेच गोम्मटसार कर्मकाण्ड वगैरे सारख्या ग्रंथांचा अनुवाद करून एक आदर्श पायंडा घालून दिला. त्यांच्या शिष्यवर्गातील कित्येक आर्यिका, ब्रह्मचारिणी आपल्या योग्यतेनुसार ठिकठिकाणी धर्मप्रचारामध्ये संलग्न आहेत. माताजींची साहित्यिक कामगिरी दृढ संकल्प असला की प्रत्येक कार्य अवश्य यशस्वी होते. ज्याप्रमाणे माताजी आदर्श शिष्यवर्ग निर्माण करण्यांत पूर्ण यशस्वी झाल्या, त्याचप्रमाणे उत्तम साहित्य निर्मितीमध्येही त्यांना सफलताप्राप्त झाली. चालू शतकांत कुठल्याही जैन महिलाने केव्हाही एवढी साहित्य निर्मिती केली नाही परंतु पू० ज्ञानमती माताजींनी लेखनास प्रारंभ केला तेंव्हा पासून आजपर्यंत जवळ जवळ १५० ग्रंथांची रचना केली. शेकडो संस्कृत स्तुती रचल्या. अष्टसहस्त्री सारख्या कलिष्ट ग्रंथांचे हिंदीमध्ये अनुवाद केला. अध्यात्मग्रंथ नियमसारवर "स्याद्वाद चंद्रिका" नांवाची संस्कृत टीका लिहिली. बालकांच्यासाठी "बालविकास" या पुस्तकांचे चार भाग लिहिले. कादंबरी शैलीत अनेक कथा लिहिल्या. त्यांच्या जवळ जवळ शंभर ग्रंथांच्या लांखो आवृत्ति निघाल्या आहेत. निवृत्तोमार्गावर राहून देखिल त्यांनी भक्ति मार्गाता कमी लेखले नाही. त्याचे फल स्वरूप म्हणजेच आज भारतभर जिकडे तिकडे इंद्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान साजरे केले जात असल्याचे दिसून येते. त्याचप्रमाणे, सर्वतोभद्र महाविधान, तीन लोक विधान, त्रैलोक विधान, तीस चौबीसी तसेच पंचमेरु विधान वगैरेंची विधीपूर्वक पूजाअर्चा माताजींनी पुस्तकरूपाने लिहून ठेवलेले आहे. भक्तीमार्गाचा आदर न करणारे देखिल ही विधाने ऐकून भक्तीमय होऊन जातात. भक्तीरसांत आकंठ बुडून काही क्षणांकरतां का होईना निजआत्म्यामध्ये लीन होवून जातात. धर्माचे गुढातील गूढ रहस्य या विधानांच्या जयमालामध्ये विदित केले आहे. आत्मरसिक मुमुक्षु जीवाला यातील कुठल्याही एका विधानाचे पुस्तक, चारी अनुयोगाचा अभ्यास करण्यास पुरेसे आहे. याप्रमाणे पू० ज्ञानमती माताजीनी आपल्या जीवनांत साहित्य सृजनाचे नविन कार्य केले. कित्येक आर्यिकानी त्यांचे अनुसरण करीत ग्रंथ निर्मिती करण्यात आपले पाऊन पुढे टाकले. खरोखर हा स्त्री जातीचा गौरवच समजला पाहिजे. नारी जीवनास जे समजती केवळ मधुरस । कोमल फुला समान त्या, कशा सहतील तप त्यागास । योगाभ्यासी त्या, कधी करतील को नराशी बरोबरी । अशानी ज्ञानमतीजींचे जीवन पहावे निरखुनी । जंबुद्वीप निर्माण व ज्ञानज्योती प्रवर्तन सन् १९६५ मध्ये आर्यिका ज्ञानमती माताजीनी, ५ आर्यिकासहित आपला चातुर्मास कर्नाटक प्रांतातील श्रवणबेळगोळ मध्ये केला. तेथील भगवान बाहुबलींची प्रचंड मूर्ती सर्वदूर प्रसिद्ध आहेच. त्या वीतरागी छबीला हृदयांतरी स्थापन करून, १५ दिषणाकरितां मौन धारण करून, विंध्यगिरी पर्वतावर, भगवंताच्या चरणाशी पू० माताजीनी ध्यान साधना केली. एका रात्री ध्यानमग्न अवस्थेत संपूर्ण जंबुद्विपाचे दर्शन घडले. अकृत्रिम चैत्यालयाची वंदना झाली. खरोखर अशी रचना अस्तित्वात आहे का? कां उगीचच आभास झाला माताजीनी ध्यान समाप्तीनंतर सर्प शास्त्रे धुंडाळली, तेंव्हा करणानुयोगाच्या त्रिलोकसार तसेच तिलोयपण्णन्ति मध्ये, ध्यानावस्थेत पाहिलेली जंबुद्वीप रचना जशीच्या तशी आढळली. माताजींच्या प्रसन्नतेला पारावार उरता नाही. कारण ख-या अनि त्यांची ध्यान-साधना आज सार्थक झाली. या सार्थकतेच्या पाठीशी ध्यानाची एकाग्रता, पूर्वभवाचे संस्कार, भ० बाहुबलींची देन, या त्रयीची शक्ती असली पाहीजे. यापूर्वी माताजीना असा विकल्प कधीच आला नव्हता. माताजींच्या मुखकमलांतून जंबुद्वीपाच्या रचनेचे विस्तृत वर्णन ऐकून सर्वप्रथम श्रवणबेळगोळचे पीठाधीश भट्टारक चारूकीर्ति महाराजांनी अतिशय आनंद व्यक्त केला. या रचनेला साकार रूप पायचे ठरले. कोणत्या ठिकाणी याची निर्मिती करायची यासाठी बरीच स्थाने सुचविली गेली. परंतु होणारे टळत नाही. माताजीना इकडील कुठलीच स्थाने भवती नाहीत. अखेर त्यांनी उत्तरप्रांतीहस्तिनापूर येथे १९७५ मध्ये "दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" यांच्यानांवाने एक जमीन खरेदी केली, आणि निर्माण कार्यास प्रारंभ केला. पहिल्या टप्यांत ८४ फूट उंचीच्चया सुमेरु पर्वताचे काम १९७९ मध्ये पूर्ण झाले. त्यातील १६ जिन मंदिराची पंचकल्याणक प्रतिष्ठा २९ एप्रिल ते ३ मे १९७९ पर्यंत संपन्न झाली. सुमेरु पर्वत पहाण्यासाठी अजैन सुद्धा यैवु लागले. कुतुबमिनार चढावा तसा गंमत म्हणून मेरु पर्वत चढतात. परंतु वर गेल्यानंतर जिनेंद्र भगवंताचे दर्शन घडताच आपोआप नतमस्तक होवून जातात. ज्ञानमती माताजींच्या तपस्येचे, आत्मिक बलाचा येवढा प्रभाव होता की फक्त ६ वर्षाच्या अल्पावधित संपूर्ण जंबुद्वीपाची रचना निर्माण केली गेली. ____ याच अवधित ४ जून १९८२ मध्ये, पू० माताजींच्या प्रेरणेने प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधीनी, लालकिल्याच्या मैदानातून “जंबुद्वीप ज्ञानज्योतीचे" प्रवर्तन केले. या जंबुद्वीप ज्ञानज्योतीने १०४५ दिवसायपर्यत भारतभर परिभ्रमण केले. आपल्या या यात्राकाळांत जंबुद्वीप, तसेच भ० महावीरांचा सिद्धांत, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३६३ यांचा भरपूर प्रसार, व प्रचार केला, शेवटी २८ एप्रिल १९८५ मध्ये हस्तिनापूर येथे या यात्रेचा समापन समारोह मोठया थाटांत झाला. त्यावेळी संरक्षणमंत्री पी०वी० नरसिंहराव तसेच संसद सदस्य जे०के० जैन उपस्थित होते. त्यांच्या हस्ते ज्ञानज्योतीची अखंड स्थापना केली. ही ज्योत जणू प्रत्येक प्राण्याला अहर्निश ज्ञानाचा संदेश देत आहे. याचवेळी जंबुद्वीपामधील सर्व जिनबिंबाची प्राणप्रतिष्ठा २८ एप्रिल ते २ मे १९८५ पर्यंत संपन्न झाली. "हस्तिनापूरनगरी" एकेकाळी जी राजधानी होती तिथे आता भ० शांतिनाथांचा तीर्थकाल नांदत असल्याप्रमाणे वाटते. मध्यकाळांत "हस्तिनापूरचे" महत्त्व पुराणशास्त्रापर्यंतच सीमित होते. या भूमीकडे सर्वाचे दुर्लभ झाले होते तिचे महत्त्व कमी झाले होते. आता ज्ञानमती माताजींचे पावन चरण या भूमीवर पडले आणि हिचे भाग्यच पालटले. एका दशकाच्या अल्पावधीत उन्नतीच्या शिखरावर ही नगरी जावून बसली, कविवर पानतराय ऐकेक ठिकाणी म्हणतातच की गुरु की महिमा वरणी न जाय, गुरु नाम जपो मन वचन काय। पू० माताजींच्या चरणस्पर्शन येथील माती चंदन बनली, मूक झालेली वीणा पुनः झंकारू लागली. अरे ही ती पुण्यूमी आहे, जिथे भ० वृषभदेवाना राजा श्रेयांसाने पहिल्यांदा इक्षुरसाचा आहार दिला, आणि स्वप्नांत सुमेरु पर्वत पाहिला. कदाचित यासाठीच सुमेरु पर्वताचे निर्माण या पवित्र स्थळी झाले असावे. कितीतरी महत्त्वपूर्ण घटनांचा इतिहास या भूमीने पाहिला आहे. रक्षाबंधन पर्व महाभारताची कथा, मनोवतीच्या दर्शन प्रतिज्ञेचा इतिहास, द्रौपदीचे शील महत्त्व, राजा अशोक आणि रोहिणीचा संबंध, अभिनंदन आदी पाचशे मुनींवर झालेला उपसर्ग, गजकुमार मुनींचा उपसर्ग, भ० शांतिनाथ, भ० कुंथुनाथ, अरहनाथ यांचे चार चार कल्याणिकें, हे सर्व पहाण्याचे अनुभवण्याचे भाग्य येथल्या मातीला प्राप्त झालेले आहे. अशा या परम पावन भूमीचा पुनरुद्धार, एक परमतपस्विनी, गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजीने केला. निंदा प्रशंसे पासून, अलिप्त, आत्महित व जनहित या भावनेने हृदय ओतप्रेत भरलेले आहे, अशा या रत्नमय साधनेमध्ये मग्न असणा-या माताजींच्या जवळ रोज कितीतरी लोक येतात. आपले दुःख त्यांच्या चरणाशी ठेवून त्यांच्याकडून शांती घेवून जातात. पूज्य माताजींची दैनिक चर्या कर्मभूमीमध्ये सूर्य व चंद्रामुळे काळाची, दिवस व रात्र यामध्ये विभागणी झालेली आहे. येथिल निसर्गाला तेच अनुकुल आहे. मानवप्राणी सकाळी उठल्यापासून रात्री झोपे पर्यंत जीवनाशी संघर्ष करीत असतो. थकून भागून रात्री निद्रेच्या कुशीत झोपून जातो. सकाळी उठल्याबरोबर त्याच समस्या पुनः मागे. याच क्रमाने आयुष्याची ५०/१०० वर्ष व्यवतीत होवून जातात. या क्षणिक वीनश्वर, अल्पकालीन जीवनाचा प्रत्येक क्षण कारणी लावण्याचे, त्याचा पूर्ण उपयोग करून घेण्याचे महान कार्य फक्त महापुरुषच करतात. पू० आर्यिका ज्ञानमती माताजाही त्या महापुरुषामधील एक आहेत, ज्यांनी सन्१९५२ मध्ये गृहत्याग करून आज ४० वर्ष महान साधना करून महान साधकाच्या उच्चकोटीत त्या विराजमान झालेल्या आहेत. प्रातःकालापासून रात्रीपर्यंतचा त्यांचा प्रत्येक क्षण अमूल्य असतो. या प्रमाणे पू० गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजींची जीवन कहाणी थोडक्यात सांगण्याचा मी प्रयत्न केला आहे. या पुस्तिकेचे वाचकवृद माताजींच्या जीवनवृत्तापासून लाभ घेतील, तसेच हस्तिनापूरला येवून साक्षात माताजींचे दर्शन घेवून त्यांच्या अमर कृतींची वंदना करून धर्मलाभ घेतील अशी मी आशा व्यक्त करते. श्री वीरके समक्सतिमे चंदना थी गणिनी बनीं जिनचरण जगवंदना थी । गणिनी वही पद्विभूषित को नमूं मे श्रीमत ज्ञानमती को नित ही नम मैं । "इत्यालम्" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३६१ ते करू शकत. त्यांच्या चरणी शरण आलेल्या कित्येकांचे भयंकर रोग त्यांच्या तपस्येच्या प्रभावाने नाहिसे होत. परंतु आज पंचमकालातील हीन संहनननामुळे तेवढी कठोर तपस्या होवू शकत नाही. तरी देखील अखंड ब्रह्मचर्य, रत्नमयाची निर्दोष साधना करणा-या साधुंच्या तपस्येचा प्रभाव दिसल्याशिवाय रहणार नाही. पू० ज्ञानमती माताजीनी आपल्या जीवनांत पुरुषार्थाला सदैव प्रधानता दिलेली आहे. सन् १९८२ ची गोष्ट. दिल्लीमध्ये जम्बूद्वीप ज्ञानज्योतीच्या प्रवतैनाची चर्चा चालली होती. अहिसेचा देशव्यापी प्रचार करण्याच्या दृष्टीने, त्यावेळचे प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी यांच्या हस्ते ज्ञानज्योति प्रवर्तनाचे उद्घाटन करावे अशी सर्वाची इच्छा होती. परंतु त्याचवेळी काही ज्योतिषानी येवून सांगितली की "उद्घाटनाला" प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी येण्याचा योग नाही. सर्व कार्यकर्ते हताश झाले, निराश झाले. परन्तु माताजीनी त्याना धीर दिला. त्या म्हणाल्या "तुम्ही सुमचा पुरुषार्थ करा. माझा आशीर्वाद आहेच. तुमच्या कार्यात तुम्ही नक्कीच यशस्वी व्हाल. आणि खरोखरच माताजींची वाणी सत्य ठरली. ४ जून १९८२ या दिवशी इंदिराजींनी लाल किल्ला मैदानांत येऊन ज्ञानज्योतीचे उद्घाटन केले. तेथे जमलेल्या विशाल जनसमुदायासमोर भाषणहो केले. बिच्चारे ज्योतिषी ज्यांनी इंदिराजी येणार नाहीत असे भविष्य वर्तविले होते ते त्यानंतर कित्येक दिवस माताजींना तोंड दाखवू शकले नाहीत. ज्योतिष वचनापेक्षा गुरुवचनाचा प्रभाव, महिमा, सत्यता अधिक असते याची प्रचिती देणा-या अनेक घटना माजींच्या आयुष्यात घडल्या आहेत. माताजींच्या आशिर्वादाने नैसर्गिक आपत्तीही टळल्या हस्तिनापूर येथे जंबुद्वीप निर्मितीचे काम चालू होते. ८४ फूट मेरुपर्वत उभा करताना इंजिनियर साहेब जय दिवशी लिंटर टाकण्याचा दिवस ठरवीत त्या दिवशी आकाश काळया ढगाने गच्च भरून जाई. कुठल्याही क्षणी मुसळधार पाऊस पडेल असे वाटे. काम स्थगित करावे लागेल की काय असे वाटे. ब्र० मोतीचंद, रवींद्रकुमार माताजींना प्रार्थना करीत. "माताजी। आशिर्वाद द्यावा. जर लिंटर टाकताना पाऊस पडला तर सगळे काम मातीत जाईल. माताजी आश्वासन देत म्हणत- 'काळजी करू नका. निश्चिंत रहा. सगळे काही ठिक होईल.' आणि आश्चर्य असे की जेंव्हा जेंव्हा लिंटर टाकले जाई तेंव्हा पाऊस पडायचा नाही. नंतर पडायचा. इंजिनियर साहेब म्हणत हा पाऊस अमृतासारखा आहे. केलेले काम पक्के होऊन जाईल. याप्रमाणे संपूर्ण सुमेरु उभा होईपर्यंत त्यावर पाणी टाकण्याची जास्त आवश्यकता पडली नाही. हे सर्व माताजींच्या आशीर्वादाचेच फल होय. पू० माताजी अत्यंत उदार हृदयी आहेत. आपल्या आशिर्वादाचा कृपाप्रसाद देताना गरीब श्रीमंत, शत्रुमित्र, जैन अजैन असा कधीही भेदभाव केला नाही. सूर्य ज्या प्रमाणे आपल्या किरणांचा वर्षाव सर्वाच्यावर सारखाच करतो त्याप्रमाणे माताजी आपल्या आशिर्वादरूप कारुण्याचा वर्षाव सर्वाच्यावर सारखाच करीत. समताभाव हा त्यांचा स्थायी भाव आहे. प्रकरण ७ दीपक ज्याप्रमाणे स्वतः जळून दुस-याला प्रकाश देतो, चंदन जहरील्या नागानी डसल्यावर देखिल सुगंधच देतो, त्याचप्रमाणे पू० ज्ञानमती माताजींनी कोणत्याही परिस्थितीत सदैव परोपकार करण्यातच आपल्या जीवनाची सार्थकता मानली आहे. __ कुमारी मुली, विवाहित स्त्रिया, विधवा महिला या तर संसाराच्या चिखलातून काढून मोक्षमागारला लावले, त्याचबरोबर तरूण मुले, प्रौढ पुरुष यांनाही शिकवून त्यागाच्या सर्वोच्च शिखरावर नेऊन बसविले. चरित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतीसागरजी महाराजांचे चौथे पट्टाधीश आचार्यश्री अजितसागरजी महाराज हे याचे जिवंत उदाहरण आहे. बाल ब्र० श्री राजमल याना सन् १९५८-५९ मध्ये राजवर्तिक गोम्मटसार, कर्मकांड, पंचाध्यायी वगैरे ग्रंथांचे अध्ययन करायला लावले आणि दीक्षा घेण्याविषयी सतत प्रेरणा देत राहिल्या. सतत संबोधन करीत राहिल्या. त्याचे फलस्वरूप म्हणजे ब्र० श्री राजमल यांनी १९६१ मध्ये सीकर [राज०] येथे आचार्य श्री शिवसागर यांच्याकडून मुनि दीक्षा घेतली. आणि तेच आचार्यश्री अजितसागरजी होय. ज्यावेळी त्यांनी मुनीदीक्षा घेतली त्याक्षणी माताजींनी नम्रतेने त्यांना नमोस्तु करण्यास प्रारंभही केला. जैनधर्मात जिनलिंग असा मुनीवेश सर्वात पूज्य मानलला जातो. परमपूज्य आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज नेहमीच म्हणत की, "पारसमणीलोखंडाचे फक्त सोन्यांत रूपांतर करते. पण स्वतःसारखे पारस बनवित नाही. परंतु ज्ञानमती माताजी या अशा विलक्षण "पारसमणी" आहेत की जो लोखंडाला सोनेच नाही पण पारस बनवून टाकतात. माताजी, आपल्याच शिष्यांची नाहीतर इतरानचीही उन्नती झालेली पाहून अत्यंत प्रसन्न होऊन जातात. ज्यावेळी उदयपूर येथे, १९८७ च्या वेळी, मुनीश्री अजितसागरजी महाराज यांना आचार्यपद प्रदान करण्याचा सोहळा झाला त्यावेळी माताजी हस्तिनापूर येथे होत्या. तेथूनच त्यांनी प्रसन्न होऊन महाराजांच्या दीर्घायुसाठी, आचार्यपदाची उज्जव परंपराअखंडित राहण्यासाठी मनोभावे शुभकामना करीत होत्या. पू० माताजींच्या शिष्या आर्यिका जिनमती माताजी, आदिमती माताजी यांनी माताजींच्या जवळच धर्माध्यायन केले आणि त्यांनी, प्रमेयकमलमार्तण्ड Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ಹುಣ್ಣಿಮೆಯ ಚಂದ್ರನಂತೆ ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀ. ಲೇ. ಚಂದ್ರಸಾಗರ ವರ್ಣಿಜೀ ಪ್ರಧಾನ ಸಂಪಾದಕರು. ಸಮಂತ ಭದ್ರವಾಣೀ ನಾ.ರಾ. ಪುರ, ಕರ್ನಾಟಕ ಭಾರತ ದೇಶದಲ್ಲಿ ಉತ್ತರಪ್ರದೇಶ ರಾಜ್ಯದ ಬಾರಾಬಂಕಿ ಜಿಲ್ಲೆಯ ಟಿಕೃತ ನಗರದ ವಾಸಿ ಶ್ರೀ ಧನಕುಮಾರ್ ಶ್ರೇಫ್ಟಿ ಎಂಬ ಹೆಸರಿನ ಒಬ್ಬ ವರ್ತಕನು ವಾಸವಾಗಿದ್ದನು. ಅವನು ಬಹಳ ಧರ್ಮಿಷ್ಟನು, ಜನಾನುರಾಗಿಯು ಆಗಿದ್ದನು. ಈ ಶ್ರೇಷ್ಮೆಗೆ ಯೋಗ್ಯ ಪುತ್ರನೊಬ್ಬ ಇದ್ದನು. ಅವನೇ ಛೋಟೆಲಾಲ್ ಎಂಬವನು. ಇವನೂ ಸಹ ತಂದೆಯಂತೆ ಧರ್ಮಾತನೂ, ಬುದ್ದಿಶಾಲಿಯೂ ಆಗಿದ್ದನು. ಛೋಟೆಲಾಲನು ಕಾಲಕ್ರಮೇಣ ಲೌಕಿಕ ಹಾಗೂ ಪಾರಮಾರ್ಥಿಕವಾಗಿ ವಿದ್ಯಾಭ್ಯಾಸವನ್ನು ಮುಗಿಸಿ ಯೌವನಾವಸ್ಥೆಗೆ ಕಾಲಿಟ್ಟನು. ಇದನ್ನು ಅರಿತ ಶ್ರೀ ಧನಕುಮಾರ ಶ್ರೇಷ್ಠಿಯು ಯೋಗ್ಯ ಕನ್ಯಯಾದ ಮೋಹಿನಿ ದೇವಿಯೊಡನೆ ವಿವಾಹವನ್ನು ಮಾಡಿಸಿದನು. - ಕೆಲವು ದಿನ ತಿಂಗಳು ಕಳೆದ ಬಳಿಕ ಮೋಹಿನಿ ದೇವಿಯು ಗರ್ಭಿಣಿಯಾದಳು. ಒಂಬತ್ತನೆ ತಿಂಗಳಲ್ಲಿ ಸತಿ ಶಿರೋಮಣಿ ಮೋಹಿನಿ ದೇವಿಯು ಣಮೋಕಾರ ಮಂತ್ರವನ್ನು ಸ್ಮರಿಸುತ್ತಾ ಪ್ರಥಮ ಸಂತಾನವನ್ನು ಕರ್ಮಭೂಮಿಗೆ ಕೊಡುಗೆಯಾಗಿ ಕೊಟ್ಟಳು. ಅವಳೇ ಮೈನಾದೇವೀ. ಮೈನಾಳ ಜನ್ಮ ನಕ್ಷತ್ರ, ಯೋಗ ಇತ್ಯಾದಿ. ಎಲ್ಲಾ ಶುಭ ಲಕ್ಷಣಗಳಾಗಿದ್ದವು. - ಈ ಮಗುವು ಜನ್ಮತಾಳಿದಾಗಂದಿನಿಂದ ಆ ಉರಿನಲ್ಲಿ ಜನರಿಗೆ ಎಲ್ಲಿಲ್ಲದ ಆನಂದವೇ ಆನಂದ, ಈ ಕನೈಯ ಹೊಳೆಯುತ್ತಿರುವ ಮುಖವನ್ನು ನೋಡಿದ ಒಬ್ಬ ಮಹಿಳೆ ಇಂತೆಂದಳು. ಮೋಹಿನಿ ದೇವಿಯ ಹೊಟ್ಟೆಯಲ್ಲಿ ಯಾವುದೊ ಒಂದು ದೇವಿಯೇ ಬಂದು ಹುಟ್ಟಿದೆ ಎಂದು ಹೇಳಿದಳು. ಊರಿನ ಜನರು ಈ ಮಗುವನ್ನು ಎತ್ತಿಕೊಂಡು ಆಟವಾಡಿಸುತ್ತಾ ಇರುತ್ತಿದ್ದರು, ಮಗುವು ಕೂಡ ತನ್ನ ಪೂರ್ವ ಜನ್ಮದ ಸಂಸ್ಕಾರದಿಂದ ದಿನೇ-ದಿನೇ ವಿದ್ಯಾ ಬುದ್ದಿ ಇತರ ಎಲ್ಲಾ ಗುಣಗಳನ್ನು ಪಡೆದು, ಎಲ್ಲರ ಕಣ್ಣಿಗು ಎಲ್ಲರ ಬಾಯಲ್ಲೂ ಪ್ರೀತಿಯ ಪ್ರಶಂಸೆಗೆ ಒಳಗಾಗಿತ್ತು. ಈ ರೀತಿಯ ಮಗಳ ವರ್ತನೆ ಹಾಗೂ ಜನಗಳ ಪ್ರೀತಿ ವಿಶ್ವಾಸವನ್ನು ಗಳಿಸಿದ ಮಗುವನ್ನು ನೋಡಿ, ತಾಯಿ ಮೋಹಿನೀದೇವಿಯು ತನ್ನ ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಈ ರೀತಿ ಯೋಚಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ನಾನು ನನ್ನ ಪ್ರಥಮ ಬಾರಿಗೆ ಈ ಕನೈಗೆ ಜನ್ಮ ಕೊಟ್ಟಿದ್ದು ಒಳ್ಳೆಯ ಸಾರ್ಥಕವಾಯಿತು. ನಾನೇ ಧನ್ಯಳು ಎಂದು ತಿಳಿದಳು. ತಾಯಿ ಮೋಹಿನೀದೇವಿಯು ತನ್ನ ಸಂಸಾರ ಜೀವನದಲ್ಲಿ ಕೇವಲ ಇಂದ್ರಿಯಗಳ ವಾಸನೆಗೆ ಮಗಳಾಗದೆ ಭಗವಾನ್ ಜಿನೇಂದ್ರರ ಆರಾಧನೆ ಪೂಜೆ ಹಾಗೂ ಭಕ್ತಿಗಳಲ್ಲಿ ಸಮಯವನ್ನು ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದಳು. ತನ್ನ ತಂದೆಯು ಅಳಿಯನೊಡನೆ ಬೀಳ್ಕೊಡುವಾಗ 'ಪದ್ಮನಂದೀ ಪಂಚ ವಂಶಿತಿಕಾ' ಎಂಬ ಧರ್ಮ ಗ್ರಂಥವನ್ನು ಕೊಟ್ಟು ಇಂತೆಂದರು. ಮಗಳೇ ನೀನು ಪ್ರತಿದಿನ ತಪ್ಪದೆ ಓದಮ್ಮ ಎಂದು ಕಳುಹಿಸಿದರಂತೆ. ಅವಳೂ ಸಹ ತಂದೆಯ ವಚನದಂತೆ ಭಕ್ತಿ ಶ್ರದ್ದೆಯಿಂದ ಓದಿ ತಿಳಿದುಕೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದಳು. ಈ ಸಂಸ್ಕಾರವೇ ಮಗಳ ಮೇಲೆ ಬೀಳಲು ಕಾರಣವಾಯಿತು. ಮನೆಯ ಜವಾಬ್ದಾರಿಯನ್ನು ತಾಯಿ ಮೋಹಿನೀ ದೇವಿಯು ನೋಡಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದಳು, ಈ ಮಗುವಿಗೆ ಹಾಲು ಕುಡಿಸುವಾಗ ನಿದ್ರೆ ಮಾಡಿಸುವಾಗ ತೊಟ್ಟಿಲು ತೂಗುವಾಗ ಭಕ್ತಾಮರ, ಅನುಪ್ರೇಕ್ಷೆ ಶೀಲಕಥೆ, ಇತ್ಯಾದಿ ಜೋಗುಳಗಳನ್ನು ಹಾಡಿ ಮಲಗಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ಹೀಗೆನೆ ದಿನ ಕಳೆದು ಮೈನಾದೇವಿಯು 8ನೇ ವರ್ಷಕ್ಕೆ ಕಾಲಿಟ್ಟಳು. ಅನಾದಿ ಕಾಲದಿಂದಲೂ ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಮಿಥ್ಯಾತ್ವ ಎಂಬುದು ತುಂಬಿ ತುಳುಕಾಡುತ್ತಿತ್ತು. ಇದನ್ನು ಅರಿತ ಮೈನೆಯು ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದ ಕ್ರಿಯೆಗಳನ್ನೆಲ್ಲ ಒಂದೊಂದೆಯಾಗಿ ಬಂದು ಮಾಡಿಸುತ್ತಾ ಬಂದಳು. ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಒಂದು ಅಜ್ಜಿ ಇದ್ದಳು. ಅಜ್ಜಿಗೆ ಈ ಮೊಮ್ಮಗಳ ಸಮ್ಯಕ್ಷದ ಕ್ರಿಯೆಗಳು ಸರಿಹೋಗುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ ಅದಕ್ಕಾಗಿ ಒಂದು ದಿನ ಇಂತೆಂದಳು-ಮೊಮ್ಮಗಳೇ ನೀನು ನಮ್ಮ ವಂಶ ಪರಂಪರೆಯಿಂದ ಬಂದಂತಹ ಕ್ರಿಯೆಗಳನ್ನು ನಿಲ್ಲಿಸುವುದು ಬೇಡ ಅಂತ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದಾಗ ಮೈನೆಯು ಸಮಾಧಾನದಿಂದ ಎಲ್ಲವನ್ನು ತಿಳಿಸಿ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದಳು, ಅಜ್ಜಿಯವರೇ “ಈ ಜೀವವು ಅನಂತಕಾಲದಿಂದ ಈ ಒಂದು ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದ ಕಾರಣದಿಂದ ನಾಲ್ಕು ಗತಿಯಲ್ಲಿ ಎಷ್ಟೋ ಸಲ ಅನೇಕ ರೀತಿಯ ದುಃಖಗಳನ್ನು ಸಹನೆ ಮಾಡುತ್ತಾ ಬಂದಿದೆ. ಒಂದು ವಿಶೇಷ ಪುಣ್ಯದಿಂದ ಚಿಂತಾಮಣಿ ರತ್ನಕ್ಕೆ ಸಮಾನವಾದ ಮನುಷ್ಯ ಜನ್ಮವು ಸಿಕ್ಕಿದೆ. ಈ ಜನ್ಯದಿಂದ ಸಮ್ಯಕ್ಷ ಪ್ರಾಪ್ತಿಮಾಡಿಕೊಂಡು ಆತನನ್ನು ಉದ್ಧಾರ ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಿ' ಎಂದಳು ಮೈನಾದೇವಿ. ಮೈನಾಳ ಸಿಹಿ ಹಾಗೂ ಹಿತಮಿತವಾದ ಮಾತುಗಳನ್ನು ಕೇಳಿ ಅಜ್ಜಿ ತಾಯಿ ಮೊದಲಾದವರು ಮಿಥ್ಯಾತ್ವವನ್ನು ಆ ದಿನವೇ ತ್ಯಜಿಸಿ ಎಲ್ಲೋ ಒಂದು ದಿನ ತನ್ನ ಗೆಳತಿಯರೊಡನೆ ಮೈನಾಳು ಆಟವಾಡುತ್ತಿದ್ದಳು. ಆಗ ತಾಯಿ ಮೋಹಿನಿದೇವಿಯು ಮಗಳನ್ನು ಕರೆದು ಇಂತೆಂದಳು. “ಮಗು ಈ ಆಟದಿಂದ ಏನು ಪ್ರಯೋಜನ, ಬಾ ನೀನು ಶೀಲ, ದರ್ಶನದ ಕಥೆಗಳನ್ನು ಓದಿ ಆನಂದ ಪಡು” ಎಂದಳು. ಮೈನಾಳು ತಾನೇ ಸ್ವಯಂ ಜ್ಞಾನಿಯಾಗಿದ್ದರಿಂದ ಇಂತಹದನ್ನೆಲ್ಲ ಜಲ್ಲಿ ತಿಳಿದುಕೊಂಡಳು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ಬಾಲ್ಯ ಕಾಲದಲ್ಲಿ ಮಕ್ಕಳು ತಮ್ಮ ಸಮಯವನ್ನು ಆಟದಲ್ಲಿಯೇ ಕಳೆಯುವುದು ಮಕ್ಕಳ ಸ್ವಭಾವ. ಒಂದು ದಿನ ಮೈನಾದೇವಿಯು ತನ್ನ ಗೆಳತಿಯರೊಡನೆ ಆಟವಾಡಲು ಸಮಯ ದೊರೆಯದಿದ್ದಾಗ ನಿರಾಶಳಾಗಿ ಈ ರೀತಿ ಯೋಚಿಸಿದಳು, ಬಾಲಕಿಯರ ಜೀವನವು ಪರಾಧೀನವಾದುದು ಎಂದು, ಆದರೆ ತಾಯಿಯ ಪ್ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಅವಳು ಎಲ್ಲವನ್ನು ಮರೆತು ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದಳು. ತಾಯಿ ಮೋಹಿನಿಯು ಪ್ರೀತಿಯ ಮಗಳನ್ನು ದೂರ ಕಳುಹಿಸಲು ಇಚ್ಛಿಸುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ, ಮತ್ತು ಹೀಗೆ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದಳು. ಮಗಳೇ ಬಾ ನನ್ನ ಜೊತೆ, ಬೇಗ-ಬೇಗ ಕೆಲಸಮಾಡಿ ಜಿನಮಂದಿರಕ್ಕೆ ಹೋಗಿ ಪೂಜೆ, ಆರತಿ ಮಾಡೋಣ, ಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಕೇಳೋಣ. [3€ ತಾಯಿಯ ಸಂಸ್ಕಾರಗಳೆಲ್ಲ ಒಂದೊಂದಾಗಿ ಮಗಳ ಮೇಲೆ ಪ್ರಭಾವ ಬೀರಲಾರಂಭಿಸಿದವು. ತಾಯಿಯೊಂದಿಗೆ ತಾಸ್ತ್ರ ಕೇಳಲು ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋದಾಗ ಇತರ ಮಕ್ಕಳಂತೆ ಆಟವಾಡವುದಾಗಲಿ ನಗೆ ಆಡುವುದಾಗಲಿ ಮಾಡುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ, ಬದಲು ಗಂಭೀರವಾಗಿ ಕುಳಿತು, ಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಕೇಳಿ ಮನದಟ್ಟು ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದಳು. ಪೂ. ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜಿಯವರು ಈಗಲು ಕೂಡ ತಮ್ಮ ಬಾಲ್ಯಾವಸ್ಥೆಯನ್ನು ನೆನೆಸುತ್ತಿರುತ್ತಾರೆ. ಓದು ಸಲ ಬಸ್ತಿಯಲ್ಲಿ ಶಾಸ್ತ್ರಿಜೀಯವರು ಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಓದಿ ಹೇಳುತ್ತಿರುವಾಗ ಒಂದು ಪ್ರಕರಣ ಬಂತು, ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಪ್ರಾಣಿಯಲ್ಲೂ ಆನಂತ ಶಕ್ತಿ ಇದೆ'' ಎಂದು ಆಗ ಮೈನಾಳು ಸಹ ತನ್ನ ಆತ್ಮ ಶಕ್ತಿಯ ಕಡೆಗೆ ಗಮನ ಹರಿಸಿ ಹೀಗೆಯೇ ಯೋಚಿಸಿದಳು. “ಆತವು ಅನಂತ ಶಕ್ತಿವುಳ್ಳದ್ದಾಗಿರುವಾಗ ನಾನೇಕೆ ಅದರ ಉಪಯೋಗವನ್ನು ಪಡೆದುಕೊಳ್ಳಬಾರದು' ಎಂದು ತನ್ನಷ್ಟಕ್ಕೆ ತಾನೇ ಪ್ರಶ್ನೆ ಮಾಡಿಕೊಂಡಳು. ಯಾವ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಹಾಲಿನಲ್ಲಿ ತುಪ್ಪವು ಅಡಗಿರುವಂತೆ ಈ ದೇಹದೊಳಗೆ ಆತ್ಮನು ಕರ್ಮದಿಂದ ಆವರಿಸಿಕೊಂಡು ಒದ್ದಾಡುತ್ತಿದ್ದಾನೆ. ಈ ಪ್ರಾರಂಭಿಕ ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯವು ಮೈನಾದೇವಿಯನ್ನು ತನ್ನ ಸಂಬಂಧಿಗಳಿಂದ ಇಷ್ಟು ಬೇಗ ಬಿಡಿಸುತ್ತದೆ ಎಂದು ಯಾರು ತಿಳಿದಿದ್ದರು. ಆದರೆ ವಿಧಿಯ ನಿಯಮವನ್ನು ಯಾರು ತಾನೆ ತಡೆಯಲಿಕ್ಕೆ ಸಾಧ್ಯ. ಆತ್ಮ ಕಲ್ಯಾಣವನ್ನು ಬಯಸುವ ಮನುಷ್ಯನಿಗೆ ಯೋಗ್ಯ ನಿಮಿತ್ತ ಪ್ರಾಪ್ತವಾಗಿಯೇ ಆಗುತ್ತದೆ. ಶಾಸ್ತ್ರವನ್ನು ಓದಿ-ಓದಿ ಮೈನಾಳು ಎಷ್ಟು ಪ್ರತಿಭಾವಿತಳಾದಳೆಂದರೆ ದೇವರ ಎದುರೇ ಹೀಗೆ ಹೇಳಲು ಪ್ರಾರಂಭಿಸಿದಳು. “ಭಗವಾನ್! ಎಲೇ ದೇವರೇ ಮನೋರಮೆಗೆ ಯಾವ ರೀತಿ ನಿಂಥ ಮುನಿಗಳು ಸಿಕ್ಕಿದ್ದರೋ ಆ ರೀತಿ ಇವತ್ತು ದಿಗಂಬರ ಮುನಿಗಳು ಕಾಣುವುದಿಲ್ಲ. ಆದುದರಿಂದ ಈ ದಿನ ನಾನು ತಮ್ಮ ಸಾನ್ನಿಧ್ಯದಲ್ಲಿ ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯಾ ವ್ರತವನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸುವೆನು. ದೇವರೇ ಈ ಜನ್ಮದಲ್ಲಿ ನಾನು ಪೂರ್ಣ ರೂಪದಲ್ಲಿ ಪವಿತ್ರವಾದ ಶೀಲ, ವ್ರತವನ್ನುಪಾಲಿಸುವನು. ಇದೇ ರೀತಿ ದರ್ಶನ ಪಾಠವನ್ನು ಓದಿ ನಿತ್ಯ ದೇವರ ದರ್ಶನದ ನಿಯಮವನ್ನು ಮಾಡಿಕೊಂಡಳು. ಒಂದು ಸಲ ಧಾರ್ಮಿಕಶಾಲೆಯಲ್ಲಿ ಹುಡುಗರಿಂದ 'ಅಕಲಂಕ, ನಿಷ್ಕಲಂಕ” ನಾಟಕವನ್ನು ಆಡಿಸಿದರು. ಅದರಲ್ಲಿ ಅಕಲಂಕನು ತನ್ನ ತಂದೆಗೆ ಒಂದು ಮಾತನ್ನು ದೇಳುತ್ತಾನೆ. “ಪ್ರಕ್ಷಾಲನಾಥ್ ಪಂಕಸ್ಯ ದೂರದಸ್ಪರ್ಶನಂ ವರು'" “ಅಂದರೆ ಕೆಸರಿನಲ್ಲಿ ಕಾಲನ್ನು ಹಾಕಿ ತೊಳೆಯುವುದಕ್ಕಿಂತ ಕೆಸರಲ್ಲಿ ಕಾಲು ಹಾಕದೇ ಇರುವುದೇ ಒಳ್ಳೆಯದು.” ಹಾಗೆಯೇ ಮದುವೆಯಾಗಿ ಹೆಂಡತಿ ಬಿಟ್ಟು ದೀಕ್ಷೆ ತೆಗೆದು ಕೊಳ್ಳುವುದಕ್ಕಿಂತ ಮದುವೆಯಾಗದಿರುವುದೇ ಒಳ್ಳೆಯದು. ಈ ಮಾತೇ ಮೈನಾ ದೇವಿಯ ಮಸ್ತಿಷ್ಕಕ್ಕೆ ನುಗ್ಗಿ ಅವರ ಜೀವನವನ್ನು ಸುವರ್ಣಮಯ ಮಾಡಿತು. ದೇವರಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ ಕೇಳಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದಳು-ಎಲೇ ದೇವರೇ ನನ್ನನ್ನು ಈ ಸಂಸಾರದ ಬಂಧನಕ್ಕೆ ನಿಕ್ಕಿಸದೆ ಮನೆಯೆಂಬ ಪಂಜರದಿಂದ ಹಾರಿಹೋಗುವಂತೆ ಮಾಡು ದೇವ. ಈ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ದೇವರ ಮುಂದೆ ಪ್ರಾರ್ಥಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ಈ ರೀತಿ ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಶಾಸ್ತ್ರ ಗ್ರಂಥಗಳ ವಾಚನ ಮಾಡುತ್ತಾ ಮೈನಾ 14 ವರ್ಷ ವಯಸ್ಸಿಗೇರಿದಳು. ಪೂರ್ವ ಜನ್ಮದ ಸಂಸ್ಕಾರದ ಬಲದಿಂದ ಸಮ್ಯಕ್ಷ ಮತ್ತು ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದ ಮಹತ್ವವನ್ನು ಅರ್ಥ ಮಾಡಿಕೊಂಡಿದ್ದಳು. ಒಂದು ಸಲ ಟೀಕೃತ ನಗರದಲ್ಲಿ ಭೋಟೆಲಾಲರ ಪಕ್ಕದ ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಒಬ್ಬ 16 ವರ್ಷ ಯುವಕನಿಗೆ ಸಿಡುಬು ಎದ್ದಿತ್ತು. ಆ ಯುವಕನ ತಾಯಿಗೇ ಯಾರೋ ಹೇಳಿದ್ರು ಅಂತ ನಿಂಬೆಯ ಮರವನ್ನು ಪೂಜಿಸುವುದು ಮಿಥ್ಯಾ ದೇವತೆಯ ಪೂಜಿಸುವುದು ಇತ್ಯಾದಿ ಮೂಢ ನಂಬಿಕೆಯಿಂದ ಇಂತಹ ಕ್ರಿಯೆಗಳನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಳು. ಅದೇ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ಮೈನಾಳ ತಮ್ಮಂದಿರಾದ ಪ್ರಕಾಶ್ ಮತ್ತು ಶುಭಾವನಿಗೂ ಸಿಡುಬು ಎದ್ದವು. ಅಲ್ಲಿಯ ಜನರು ಎಲ್ಲರೂ ಸೇರಿ ಮೋಹಿನಿಗೆ ಇಂತೆಂದರು. ಶೀತಲ ದೇವಿ (ಮಿಥ್ಯಾದೇವತೆ)ಗೆ ಪೂಜೆ ಮಾಡಿಸಿ ಎಂದರು, ಆದರೆ ಮೋಹಿನಿಗೆ ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದ ತ್ಯಾಗ ಇತ್ತು. ಅವರು ಮೈನಾ ಹೇಳಿದಂತೆ ಜಿನೇಂದ್ರ ಭಗವಂತರ ಭಕ್ತಿ, ಪೂಜೆಯೇ ಇವರ ದಿವ್ಯಪಧಿ ಎನಿಸಿತ್ತು. ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಎಲ್ಲರೂ ಹೆದರಿದ್ದರು. ಈ ಮಕ್ಕಳ ಪರಿಸ್ಥಿತಿ ಬಹಳ ಹದಗೆಟ್ಟಿತ್ತು. ಎಲ್ಲಾ ಭಾರವನ್ನು ದೇವರ ಮೇಲೆ ಹಾಕಿಬಿಟ್ಟಿದ್ದರು. Jain Educationa International ಈ ಕಥೆ ಮೈನಾ ದೇವಿಯು ಸಹೋದರರ ಪರಿಸ್ಥಿತಿಯನ್ನು ನೋಡಿ ತಾಯಿಗೆ ಸಮಾಧಾನ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದಳು. ಮತ್ತು ತಾನೇ ಸ್ವತಃ ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋಗಿ ಶೀತಲನಾಥರಿಗೆ ಅಭಿಷೇಕ ಪೂಜೆಯನ್ನು ಮಾಡಿ ಜಿನ ಗಂಧೋದಕವನ್ನು ತಂದು ಪ್ರತಿದಿನ ತಮ್ಮಂದಿರುಗಳ ಮೈಮೇಲೆ ಚಿಮುಕಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ಆದರೆ ಅಸಾತ ವೇದನಿಯ ಕರ್ಮದ ತೀವ್ರತೆಯಿಂದಾಗಿ ಅವರು ದಿನೇ-ದಿನೇ ಆರೋಗ್ಯದಿಂದ ಇಳಿಮುಖವಾಗಿ ಹೋದರು. ಆ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ಓರ್ವ ಮಹಿಳೆ ಹೀಗೆ ಹೇಳುತ್ತಾಳೆ. ಈ ಮೈನಾ ದೇವಿಯು ಸಹೋದರರನ್ನು ಮುಗಿಸಿಬಿಡುತ್ತಾಳೆ, ಇದು ಎಂತಹ ಧರ್ಮ, ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಮಕ್ಕಳು ಸಾಯುತ್ತಿದ್ದಾರೆ. ಇವಳು ಧರ್ಮ-ಧರ್ಮ ಎಂದು ಬೊಬ್ಬೆ ಹಾಕುತ್ತಿದ್ದಾಳೆ. ಈ ರೀತಿಯ ಕಠೋರವಾದ ಮಾತನ್ನು ಮೈನಾ ಸಹನೆ ಮಾಡಿಕೊಂಡು ದೃಢಮನಸ್ಸಿನಿಂದ ಇರುತ್ತಿದ್ದಳು. For Personal and Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ಒಂದು ದಿನ ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಮೈನಾ ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋಗಿ ದೇವರ ಎದುರಿಗೆ ತನ್ನ ದುಃಖವನ್ನು ತೋಡಿಕೊಂಡು ಕಷ್ಟಗಳ ಪರಿಹಾರಕ್ಕಾಗಿ ಹೀಗೆ ಪ್ರಾರ್ಥಿಸಿದಳು. ಎಲೈ ದೇವರೇ ಈಗ ನನ್ನ ಮತ್ತು ಧರ್ಮದ ಪ್ರತಿಮೆಯು ತಮ್ಮ ಕೈಯಲ್ಲಿದೆ. ಒಂದು ವೇಳೆ ಈ ಹುಡುಗರು ಸತ್ತು ಹೋದರೆ ಇಡೀ ಊರಿಗೆ ಊರೆ ಸಿಡುಬಿನಿಂದ ಕೂಡಿ ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದಲ್ಲಿಯೇ ಮುಳುಗಿ ಹೋಗುತ್ತದೆ. ಆದರೆ ಸಮ್ಯಕ್ಷ ತಮ್ಮ ಭಕ್ತಿಯನ್ನು ಯಾರು ತಾನೇ ತಿಳಿಯಲು ಶಕ್ಯರು.? ಸತ್ಯ ಹಾಗು ಧರ್ಮಾತನ ಕರೆಯು (ಕಂಗನ್ನು ದೇವರೂ ಸಹ ಅವಶ್ಯವಾಗಿ ಕೇಳುತ್ತಾರೆ. ಇದರಲ್ಲಿ ಸಂಶಯವಿಲ್ಲ, ಮೈನಳ ಭಾವನೆಯು ಶುದ್ಧವಾಗಿತ್ತು, ಕೆಲವು ದಿನಗಳ ಮೇಲೆ ಕ್ರಮವಾಗಿ ಈ ಬಾಲಕರಿಬ್ಬರು ಸುಧಾರಿಸಿಕೊಂಡರು. ಆ ಕಡೆ ಯಾವ ತಾಯಿಯು ಪುತ್ರನಿಗಾಗಿ ಮಿಥ್ಯಾತ್ವದ ಆರಾಧನೆ ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಳು, ಅವಳ ಮಗನು ಸ್ವರ್ಗಸ್ಥನಾದನು. ಈ ಘಟನೆಯಿಂದಾಗಿ ಆ ಊರಿನ ಜನರ ಮನಸ್ಸೆಲ್ಲಾ ಧರ್ಮದ ಕಡೆಗೆ ತಿರುಗಿತು. ಇಡೀ ಊರೇ ಧರ್ಮ ಹಾಗು ಮೈನಾಳ ಪ್ರಶಂಸೆಯನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಿತ್ತು. ಈ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಧರ್ಮದ ಪ್ರಭಾವನೆಯಿಂದಾಗಿ ಎಷ್ಟೋ ಜನರು ಮಿಥ್ಯಾತ್ಮವನ್ನು ತ್ಯಾಗಮಾಡಿ ಸಮ್ಯಕ್ಷವನ್ನು ಗ್ರಹಣ ಮಾಡಿದರು. ಮೈನಾಳ ಈ ರೀತಿಯ ದೃಢತೆಯ ಕೀರ್ತಿಯು ನಾಲ್ಕು ದಿಕ್ಕಿನಲ್ಲೂ ಹರಡಿತು. ಒಂದು ಸಲ ಬುಂದೇಲ ಖಂಡದವರಾದ ಒಬ್ಬ ಪಂಡಿತ, ಮನೋಹರಲಾಲ್ ಶಾಸ್ತ್ರೀಜೀಯವರು ಟೀಕೃತ ನಗರಕ್ಕೆ ಬಂದರು. ಅವರು ಮೈನಾದೇವಿಯ ಪ್ರವಚನವನ್ನು ಕೇಳಿ ಬೆರಗಾದರು. ಅಷ್ಟೆಯಲ್ಲ ಅಷ್ಟು ದೊಡ್ಡ ಪಂಡಿತರು, ಅವರ ಸಮ್ಯಕ್ಷ-ಮಿಥ್ಯಾತ್ಮದ ವಿವರವಾದ ಉಪದೇಶವನ್ನು ಕೇಳಿ ಮೂಕರಾದರು, ಪಂಡಿತರು ಮೈನಾಳ ಪರಿವಾರದವರನ್ನು ಸಂಬೋಧಿಸಿ ಇಂತೆಂದರು- ತಮ್ಮ ಮನೆಯಲ್ಲಿ ಜನ್ಮತಾಳಿದ ಕನೈಯು ಯಾವುದೋ ಒಂದು ದೇವತೆಯೇ ಎಂದು. ಮೈನಾಳ ತಾಯಿ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದರು. ಏನೆಂದರೆ ಮೈನಾಳನ್ನು ಪಡೆದು ನಾನಷ್ಟೆಯಲ್ಲ ಇಡೀ ಪರಿವಾರವೇ ಗೌರವವನ್ನು ಪಡೆಯಿತು. ಮೈನಾಳು ದೇವರಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ “ಎಲೇ ದೇವರೆ! ನಾನು ಈ ಊರಿನಲ್ಲಿ ಅಪ್ಪೆಯಲ್ಲ, ಇಡೀ ದೇಶದಲ್ಲಿಯೇ ಜೈನಧರ್ಮವನ್ನು ವಿಶ್ವಧರ್ಮದ ರೂಪದಲ್ಲಿ ಹರಡು (ಪ್ರಚಾರ)ವ ಶಕ್ತಿಯನ್ನು ಯಾವಾಗ ಪ್ರಾಪ್ತಿಮಾಡಿಕೊಳ್ಳುವೆನು?” ಸಂಸಾರದಲ್ಲಿ ಧರ್ಮವಂತೂ ಕಲ್ಲುಸಕ್ಕರೆಯ ಹಾಗೆ, ಎಲ್ಲಾ ಪ್ರಾಣಿಗಳು ಅದರ ಫಲವನ್ನು ಅನುಭವಿಸಲು ಇಚ್ಚಿಸುತ್ತವೆ. ಮೈನಾದೇವಿಯ ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಜೈನ ಧರ್ಮವನ್ನು ವಿಶ್ವಧರ್ಮದ ರೂಪದಲ್ಲಿ ಪ್ರಸಾರ ಮಾಡಬೇಕು ಎನ್ನುವ ಭಾವನೆಯು ತುಂಬಿ ತುಳುಕುತ್ತಿತ್ತು. ಇದನ್ನು ಕಾರ್ಯರೂಪದಲ್ಲಿ ತೋರಿಸಿಕೊಟ್ಟ ಕೀರ್ತಿಯು ರಾಹ್ಮಸಂತ ಆಚಾರ್ಯರತ್ನ ಶ್ರೀ ದೇಶಭೂಷಣ ಮಹಾರಾಜರಿಗೆ ಸಲ್ಲುತ್ತದೆ. ಒಂದು ದಿನ ಮೈನಾಳು ರಾತ್ರಿ ಬೆಳಗಿನ ಜಾವದಲ್ಲಿ ಒಂದು ಸ್ವಪ್ನವನ್ನು ಕಾಣುತ್ತಾಳೆ. ಅದು ಈ ರೀತಿ ಇದೆ. “ನಾನು ಬಿಳಿ ವಸ್ತ್ರವನ್ನು ಉಟ್ಟು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಪೂಜಾ ಸಾಮಗ್ರಿ ಹಿಡಿದುಕೊಂಡು ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದೇನೆ. ಆಗ ಆಕಾಶದಲ್ಲಿ ಹುಣ್ಣಿಮೆಯ ಚಂದ್ರನು ತನ್ನ ಜೊತೆ-ಜೊತೆಗೆ ಬರುತ್ತಾನೆ. ಮತ್ತೆಲ್ಲೂ ಆಕಡೆ-ಈ ಕಡೆಗೆ ಹೋಗುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ. ಈ ದೃಶ್ಯವನ್ನು ನೋಡಿ ನೆರೆಯ ಜನರು ಆಶ್ಚರ್ಯದಿಂದ ನನ್ನನ್ನೇ ನೋಡುತ್ತಿದ್ದರು? - ಸುಖದಿಂದ ಸ್ವಲ್ಪವನ್ನು ಕಂಡು ಎಚ್ಚೆತ್ತಳು. ಭಗವಾನರ ಹೆಸರನ್ನು ಹೇಳುತ್ತ ಆನಂದದಲ್ಲಿಯೆ ಮುಳುಗಿದ್ದಳು. ಅವಳು ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಯೋಚಿಸಿದ್ದಳು, ಏನೆಂದರೆ ನಾನು ಕಂಡ ಸ್ವಪ್ನವು ನನ್ನ ಭವಿಷ್ಯದ ಏಳಿಗೆಗೆ ಶುಭ ಚಿಹ್ನೆಯಾಗಿದೆ. ಮೈನಾಳು ತನ್ನ ದಿನನಿತ್ಯದ ಕ್ರಿಯೆ, ದೇವಪೂಜಾದಿ ಮುಗಿಸಿ ತನ್ನ ತಮ್ಮ ಕೈಲಾಸಚಂದರಿಗೆ ತಾನು ಕಂಡ ಸ್ವಪ್ನವನ್ನು ವಿವರಿಸಿದಳು. ಅವರು ಅಕ್ಕನ ಮನೋಭಾವವನ್ನು ತಿಳಿದು ಕೂಡಲೇ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. “ದೊಡ್ಡ ಅಕ್ಕ! ನೀವು ಕಂಡ ಸ್ವಪ್ನದಿಂದ ನಿಮ್ಮ ಭಾವನೆಯಂತೆ ಸಫಲರಾಗುವಿರಿ.” ಮೈನಾಳ ಈ ರೀತಿ ಸಂಸಾರದ ಉದಾಸೀನವನ್ನು ಕಂಡು ಮನೆಯವರಿಗೆಲ್ಲರಿಗೂ ಭಯವನ್ನುಂಟುಮಾಡಿತ್ತು. ತಂದೆ ಛೋಟೆಲಾಲರು ಮಗಳು ಮೈನಾಳನ್ನು ಬಿಟ್ಟು ಒಂದು ಕ್ಷಣವೂ ಸಹ ಇರುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ, ಮೈನಾಳು ತನ್ನ ಊಟ ಮುಗಿದ ಮೇಲೆ ತಂದೆಯವರಲ್ಲಿಯೂ ತಾನು ಕಂಡ ಸ್ವಪ್ಪವನ್ನು ಹೇಳಿದಳು, ಛೋಟೆಲಾಲರು ಮಗಳ ಸ್ವಪ್ನವನ್ನು ಕೇಳಿ ಎಲ್ಲಾವನ್ನು ಅರಿತಿದ್ದರೂ ಕೂಡ ಮಗಳ ಎದುರಿಗೆ ಆನಂದದಿಂದ ನಗೆಯಾಡಿದರು. ಮತ್ತು ಹೀಗೆ ಅಂದರು, “ಮಗೂ ಮೈನಾ! ನೀನು ಮನೆಯಿಂದ ಹಾರಿಹೋಗಲಿಕ್ಕಾಗಿ ನನಗೆ ತಮಾಷೆ ಮಾಡುತ್ತೀಯೆ. ಯೋಚನೆ ಮಾಡಿದರೆ ನೀನು ಇಲ್ಲದೆ ಹೋದರೆ ಈ ಮನೆಯು ಒಳ್ಳೆಯದಾಗಿ ಕಾಣಿಸುವುದಿಲ್ಲ? ಸಂಯೋಗದಿಂದ 1952 ರಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯರತ್ನ ದೇಶಭೂಷಣ ಮಹಾರಾಜರು ತಮ್ಮ ಸಂಘ ಸಮೇತವಾಗಿ ಉತ್ತರ ಪ್ರದೇಶದ ಕಡೆಗೆ ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತಾ ಟಿಕೃತ ನಗರಕ್ಕೆ ಬಂದರು, ಆವಾಗಲೇ ಮೈನಾ ದೇವಿಯು ಮೊದಲಬಾರಿಗೆ ದಿಗಂಬರ ಮುನಿಗಳನ್ನು (ನೋಡಿದ್ದು ದರ್ಶನ ಮಾಡಿದ್ದು, ಮೈನಾದೇವಿಯು ತಾಯಿಯ ಹತ್ತಿರ ಎಷ್ಟೋ ಸಲ ಹೇಳಿದ್ದಳು. ನಾನು ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯ ವ್ರತವನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸುವೆನು.” ಆದರೆ ತಾಯಿ, ಮೋಹಿನಿಯು ದಿನವನ್ನು ಮುಂದೂಡುತ್ತಲೇ ಇದ್ದಳು. ಒಂದು ದಿನ ಮನೆಯ ಕೆಲಸವನ್ನು ಮುಗಿಸಿ ಶ್ರೀ ಮುನಿ ಮಹಾರಾಜರ ದರ್ಶನಕ್ಕಾಗಿ ತಾಯಿಯೊಡನೆ ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋದಳು, ಮತ್ತು ಸಂದರ್ಭೋಚಿತವಾಗಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ ಕೆಳಿದಳು, “ಮಹಾರಾಜರೆಃ ನನಗೆ ಆತ್ಯಕಲ್ಯಾಣ ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳುವ ಯೋಗ್ಯತೆ ಇದೆಯೋ ಅಥವಾ ಇಲ್ಲವೋ ದಯವಿಟ್ಟು ಹೇಳಿರಿ” ಮಹಾರಾಜರು “ಜೈನ ಧರ್ಮವು ಪಶು-ಪಕ್ಷಿಗಳಿಗೂ ಸೀಕಾರ ಮಾಡುವದಕ್ಕು ಇದೆ”, ನೀನಂತೂ ಮನುಷ್ಯಳಿದ್ದೀಯೆ. ಮೈನಾಳಿಗಂತು ಎಲ್ಲಿಲ್ಲದ ಆನಂದವೇ ಆನಂದ. ತನ್ನ ಕಾರ್ಯದಲ್ಲಿ ಪ್ರಥಮ ಹೆಜ್ಜೆಯನ್ನು ಇಟ್ಟಳು, ತಾಯಿ ಮೋಹಿನಿಯು ಮುನಿಗಳಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ ಕೇಳುತ್ತಾಳೆ. “ಮಹಾರಾಜರೆ! ಇವಳ ಕೈ ನೋಡಿ ಹೇಳಿರಿ, ಮದುವೆಯ ಯೋಗವಿದೆಯೋ ಇಲ್ಲವೋ?'' Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३६७ ಮಹಾರಾಜರು ಜೋತಿಷ್ಯದಲ್ಲಿಯೂ ಸಹ ಬಲ್ಲವರಾಗಿದ್ದರು. “ಇವಳ ಕೈ ನೋಡಿ ಹೀಗೆ ಎಂದರು-ಇವಳಿಗೆ ರಾಜಯೋಗವಿದೆ.” ಇವಳು ಮನೆಯನ್ನು ಬೇಗ ಬಿಡುತ್ತಾಳೆ ಮತ್ತು ಇವಳ ಮರಣವು ಸನ್ಯಾಸದಲ್ಲಿ ಇದೆ.” ಮೋಹಿನಿಗೆ ಜೋತಿಷಿಗಳ ಹೆಸರು ಕೇಳಿದರೆ ಸಿಟ್ಟು ಬರುತ್ತಿತ್ತು. ಆದರೆ ಮುನಿಗಳ ಮಾತಿನಲ್ಲಿ ವಿಶ್ವಾಸ ಬಂತು, ಮುನಿಮಹಾರಾಜರು ಮೈನಾಳಿಗೆ 3-4 ಪ್ರಶ್ನೆಗಳನ್ನು ಕೇಳಿದರು. ಆಗ ಮೈನಾಳು 'ಪದ್ಮನಂದಿ ಪಂಚವಿಂಶತಿಕಾ' ಗ್ರಂಥದ ಕೆಲವು ಶ್ಲೋಕಗಳನ್ನು ಹೇಳಿದಳು. ಆಗ ಮಹಾರಾಜರು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. "ಒಳ್ಳೆಯದು, ನಿನ್ನ ಮನಸ್ಸು ನಿಜವಾಗಿಯೂ ವಿರಕ್ತಿಯ ಕಡೆಗೆ ತಿರುಗಿದೆ. ಪುರುಷಾರ್ಥವನ್ನು ಮಾಡು” ಎಂದರು. ಇದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಮುನಿಶ್ರೀಗಳ ಆಹಾರ, ದರ್ಶನ, ಪ್ರವಚನ-ಇತ್ಯಾದಿ ಕ್ರಿಯೆಗಳು ಮೈನಾಳಿಗೆ ಹಿಡಿಸಿದವು. ಒಂದು ದಿನ ಬಸ್ತಿಯ ಹೊರಗಡೆ ದೊಡ್ಡ ಪಂಡಾಲಿನಲ್ಲಿ ಮುನಿಗಳ ಕೇಶಲೋಚದ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮ ನಡೆದಿತ್ತು. ಈ ಕೇಶಲೋಚನವು ಶರೀರದ ಮಮತೆಯನ್ನು ತ್ಯಜಿಸುವ ಸೂಚನೆಯನ್ನು ತೋರಿಸುತ್ತಿತ್ತು. ಇದನ್ನು ನೋಡಲು ಜೈನ ಅಜೈನರೆಲ್ಲರೂ ದೊಡ್ಡ ಪ್ರಮಾಣದಲ್ಲಿ ಸೇರಿದ್ದರು. ಕೆಲವರು ಆಶ್ಚರ್ಯವನ್ನು ವ್ಯಕ್ತಪಡಿಸಿದರೆ, ಇನ್ನೂ ಕೆಲವರು ಮನದಲ್ಲಿ ದುಖಃಪಡುತಿದ್ದರು. ಒಬ್ಬರ ಕಷ್ಟದಲ್ಲಿ ಇನ್ನೊಬ್ಬರು ಪಾಲ್ಗೊಳ್ಳುವುದು ಮಾನವನ ಸಹಜವಾದ ಸ್ವಭಾವವೇ ಸರಿ. ಈ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮದಲ್ಲಿ ಮೈನಾಳು ಕುಳಿತಿದ್ದಳು, ಅವಳು ವೈರಾಗ್ಯದಲ್ಲಿ ಮುಳುಗಿದ್ದಳು, ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ ಯೋಚಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು, “ಎಲೈ ದೇವರೆ! ಮೂರು ಲೋಕದ ಒಡೆಯನೆ! ನನ್ನ ಜೀವನದಲ್ಲಿ ಇಂತಹ ಪರಿಸ್ಥಿತಿ ಯಾವಾಗ ಬರುತ್ತದೆ? ಅಂತ ಹೀಗೆ ಮೈನಾ ಯೋಚಿಸುತ್ತಿದ್ದಂತೆ, ಅವಳ ಎಡಭುಜ ಹಾಗು ಕಣ್ಣುಗಳು ಹಾರಲಿಕ್ಕೆ ಪ್ರಾರಂಭಿಸಿದವು. ಮೈನಾಳು ಇವು ಶುಭ ಶಕುನಗಳು ಎಂದು ತಿಳಿದು ಆನಂದಪಟ್ಟಳು. ಕೆಲವು ದಿನಗಳ ಬಳಿಕ ಆಚಾರ್ಯರ ಸಂಘವು ಬೇರೊಂದು ಕಡಿಗೆ ವಿಹಾರ ಮಾಡಿತು. ಮೈನಾಳ ಪರಿವಾರದವರೆಲ್ಲರೂ ಸಂಘದೊಡನೆ ಹೋಗಲು ನಿರಾಕರಿಸಿದರು. ಆದರೆ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಗಳು ಮೈನಾಳಿಗೆ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿ ಸಮಾಧಾನ ಮಾಡಿ ಆಶೀರ್ವಾದಿಸಿದರು, “ಇವರು ಅವರ ಕರ್ತವ್ಯವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. ನೀನು ನಿನ್ನ ಕರ್ತವ್ಯದಲ್ಲಿ ತಲ್ಲೀನಳಾಗು. ಬಹಳ ಬೇಗನೇ ನಿನ್ನ ಕಾರ್ಯವು ಫಲಕಾರಿಯಾಗುವುದು' ವಿಧಿಯ ನಿಯಮವು ಯಾರಿಂದಲೂ ತಡೆಯಲಿಕ್ಕೆ ಸಾಧ್ಯವಾಗುವುವಿಲ್ಲ ಸನ್ 1952 ರಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯರ ಸಂಘವು ಬಾರಾಬಂಕಿಯ” ನಗರದಲ್ಲಿ ಚಾತುರ್ಮಾಸ ಮಾಡಿತು. ಮೈನಾಳೂ ಕೂಡ ವಿರಕ್ತಿಯ ಕಡೆಗೆ ಮನಸ್ಸನ್ನು ಹರಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ಮೈನಾ ಮನೆಯಲ್ಲಿ ವಿರಕ್ತಳಾಗಿ ಇದ್ದುಕೊಂಡು ತನ್ನ ತಮ್ಮ ತಂಗಿಯರನ್ನು ಸ್ನೇಹದಿಂದ ಸಿಂಪಡಿಸುತ್ತಾ ಇದ್ದಳು. ಆ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ತಾಯಿ ಮೋಹಿನಿಯು ಗರ್ಭವತಿಯಾಗಿದ್ದಳು. ಆದುದರಿಂದ ಮುನಿಗಳ ದರ್ಶನ ಪಡೆಯಲು ಯಾವಾಗ ಹೋಗಬೇಕು ಅಂತ ಯೋಚಿಸುವಷ್ಟರಲ್ಲಿ ತಾಯಿಯ ಈ ಅವಸ್ಥೆಯನ್ನು ನೋಡಿ ಮನದಲ್ಲಿಯೇ ಬೇಸರಗೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದಳು. ಒಂದು ದಿನ ತಾಯಿಗೆ ಹೊಟ್ಟೆನೋವು ಬಹಳ ಜೋರಾಯಿತು. ಆಗ ಮೈನಾಳು ಸಹಸ್ರನಾಮ ಸ್ತೋತ್ರವನ್ನು ಓದಿ ಒಂದು ಲೋಟದಲ್ಲಿ ಮಂತ್ರಿಸಲ್ಪಟ್ಟ ನೀರನ್ನು ಕುಡಿಸಿದಳು. ಸ್ವಲ್ಪ ಹೊತ್ತಿನಲ್ಲಿಯೇ ರೂಂನಿಂದ ದಾದಿಯ ಶಬ್ದವು ಬಂದಿತು. “ಮೈನಾ! ಕೈ ಚಪ್ಪಾಳೆ ಹೊಡಿ, ನಿನ್ನ ತಂಗಿ ಹುಟ್ಟಿದ್ದಾಳೆ,” ಹೀಗೆ ದಾದಿ ಅಂದಳು, “ಈ ಹುಡುಗಿಯು ಏನು ಕುಡಿಸಿದಳು ತಿಳಿಯಲಿಲ್ಲ ಎಷ್ಟು ಬೇಗ ಮಗು ಹುಟ್ಟಿತ್ತು. ನನಗಂತೂ ಈ ದಿನ ಹೆರಿಗೆ ಆಗುವ ಲಕ್ಷಣಗಳೇ ಕಾಣಿಸಲಿಲ್ಲ” ಮೈನಾಳಿಗಂತೂ ಈಗ ಒಂದೊಂದು ದಿನವೂ ಸಹ ವಜ್ರಕ್ಕೆ ಸಮಾನವಾಗಿದ್ದವು. ಆದರೆ ತಾಯಿಯ ಬಲವಂತಕ್ಕೆ ನಿಂತಿದ್ದಳು. ರಕ್ಷಾ ಬಂಧನ ಪರ್ವವು ಬಂತು. ತಾಯಿಯವರಿಗೆ ಹೆರಿಗೆಯಾಗಿ 22 ದಿನ ಆಗಿತ್ತು, ಮೈನಾಳು ಆ ದಿನ ತನ್ನ ತಂಗಿಗೆ ಸ್ನಾನ ಮಾಡಿಸಿ ಬಸ್ತಿಗೆ ಕರೆದುಕೊಂಡು ಹೋಗಿ ತನ್ನ ಮನಸ್ಸಿಗೆ ಒಪ್ಪುವಂತಹ “ಮಾಲತಿ” ಎಂದು ಹೆಸರನ್ನಿಟ್ಟಳು, ಮತ್ತು ತಂಗಿಯಿಂದ ಎಲ್ಲರಿಗೂ (ತಮ್ಮಂದಿರಿಗೆ) ರಾಖಿ ಕಟ್ಟಿಸಿದಳು. ಈ ಎಲ್ಲಾ ಕಾರ್ಯಗಳು ಮುಗಿದ ನಂತರ ಕೈಲಾಸಚಂದ್ರನೆಂಬ ತಮ್ಮನನ್ನು ಕರೆದುಕೊಂಡು ಆಚಾರ್ಯ ಪುಂಗವರ ದರ್ಶನದ ನೆಲೆಯಿಂದ ಬಾರಾಬಂಕಿಗೆ ಹೋದಳು. ಈಗ ಅವಳನ್ನು ತಾಯಿ, ತಂದೆಯವರ ಮಮತೆಯು ತಡೆಯಲಿಕ್ಕೆ ಆಗಲಿಲ್ಲ ಬಾರಾಬಂಕಿಗೆ ಹೋದ ಮೇಲೆ ಮೈನಾದೇವಿಯು ತನ್ನ ಮನಸ್ಸನ್ನು ಕಲ್ಲುಮಾಡಿ ತಮ್ಮನಲ್ಲಿ ಇಂತೆಂದಳು ನಾನು ಮನೆಗೆ ತಿರುಗಿ ಬರಲಾರೆ, ನನ್ನ ಆತ್ಮಕಲ್ಯಾಣ ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಬೇಕು.” ಈ ಮಾತನ್ನು ಕೇಳಿ ಸಹೋದರ ಕೈಲಾಶಚಂದ್ರನು ಅಳಲಿಕ್ಕೆ ಪ್ರಾರಂಭಿಸಿದನು. ಎಷ್ಟು ಅತ್ತರು ಫಲಕಾರಿಯಾಗಲಿಲ್ಲ. ಕೊನೆಗಂತೂ ತಾನೊಬ್ಬನೇ ಮನೆಗೆ ಹೋಗಬೇಕಾಯಿತು. ಮೈನಾಳ ಮನಸ್ಸಂತು ವಿರಕ್ತಿಯ ಕಡೆಗೆ ತಿರುಗಿತ್ತು. ಯಾರು ಬಂದರೂ ಅವಳ ವಜ್ರದಂತಹ ಮನವನ್ನು ಬದಲಾಯಿಸಲು ಆಗಲಿಲ್ಲ. ಮೈನಾಳು ಮನೆಗೆ ಬಾರದೆ ಇದ್ದದ್ದನ್ನು ಕಂಡು ತಂದೆ ತಾಯಿ ಇತರ ಬಂಧುಗಳೆಲ್ಲರೂ ಬಾರಾಬಂಕಿಗೆ ಬಂದರು, ಮತ್ತು ಮೈನಾಳ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಸಂಸಾರಕ್ಕೆ ಸಂಬಂಧಪಟ್ಟ ಮಾತುಗಳನ್ನಾಡಿದರು. ಅವೆಲ್ಲವೂ ವ್ಯರ್ಥವಾದವು. ಆಗ ಮೈನಾಳಿಗೆ ಏನೋ ಒಂದು ಉಪಾಯ ಹೊಳೆಯಿತು. ಅಲ್ಲಿಂದ ಎದ್ದು ಬಸ್ತಿಗೆ ಹೋಗಿ ಭಗವಂತನ ಮುಂದೆ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದಳು, “ಎಲೇ ದೇವರೆ! ಎಷ್ಟರವರೆಗೆ ನನಗೆ ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯ ವ್ರತವನ್ನು ಪಡೆಯುವುದಿಲ್ಲವೋ ಅಷ್ಟರವರೆಗೆ ನಾಲ್ಕು ರೀತಿಯ ಆಹಾರವು ತ್ಯಾಗವಿರಲಿ.” ಎಂದು ಹೇಳಿ ಅಲ್ಲಿಯೇ ಕುಳಿತಳು. ಆಗ ಅಲ್ಲಿಗೆ ಬಂದ ಜನರು ಒಂದು ಜಾತ್ರೆಯೇ ಆಗಿತ್ತು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ದಿನವಿಡೀ ಗಲಾಟ್-ಗಲಾಟೆ. ಆದರೆ ಇವೆಲ್ಲ ನೀರಿನ ಮೇಲೆ ಹೋಮ ಮಾಡಿದಂತೆ ಆಯಿತು. ಕೊನೆಗೂ ಮೈನಾಳು ತಾಯಿಯನ್ನು ಒಲಿಸಿದಳು. ತಾಯಿಗೆನೇ ವೈರಾಗ್ಯ ಬರುವಂತೆ ಮಾಡಿದಳು, ತಾಯಿ, ಮಗಳಿಗೆ ರಾತ್ರಿಯೆಲ್ಲಾ ಚರ್ಚೆಯೇ ಚರ್ಚೆ, ಮೈನಾ ತಾಯಿಗೆ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದಳು. “ಅಮ್ಮಾ ನೀನು ನಿಜವಾದ ತಾಯಿಯಾದರೆ ನನಗೆ ಆತ್ಮಕಲ್ಯಾಣ ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಲು ಅನುಮತಿ ಕೊಡು. ನಿನ್ನ ಉಪಕಾರವನ್ನು ಜೀವವಿಡೀ ಮರೆಯುವುದಿಲ್ಲ'' ಮೈನಾ ಎಲ್ಲಾ ರೀತಿಯ ಆಹಾರವನ್ನು ಬಿಟ್ಟದ್ದನ್ನು ನೋಡಿ ತಾಯಿಗೆ ಬಹಳ ವ್ಯಥೆಯಾಯಿತು, ಮತ್ತು ಮಗಳ ಭವಿಷ್ಯ ಒಳ್ಳೆಯದು ಆಗಲಿ ಎಂದು ಆಶೀರ್ವದಿಸಿ ಮಗಳಿಗೆ ದೀಕ್ಷೆಗೆ ಅನುಮತಿ ಕೊಟ್ಟಳು. ತಂದೆಯಂತೂ ಮಗಳ ವಿಯೋಗವನ್ನು ಕಂಡು ದುಃಖದಿಂದ ಎಲ್ಲಿಗೋ ಹೋಗಿದ್ದರು. ಮೈನಾಳು ತಾಯಿ ಕೈಗೆ ಒಂದು ಕಾಗದ ಮತ್ತು ಬೆನ್ನನ್ನು ಕೊಟ್ಟಳು ಮತ್ತು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದಳು. ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು ಹೇಳಿದ್ದಾರೆ ಮನೆಯವರ “ಅನುಮತಿ ಇಲ್ಲದೆ ಯಾರಿಗೂ ದೀಕ್ಷೆ ಕೊಡಲು ಆಗುವುದಿಲ್ಲ ಅಂತ. - ತಾಯಿ ಮೋಹಿನೀ ದೇವಿಯು ಮಗಳ ಹೇಳಿಕೆಯಂತೆ ಕಣ್ಣಲ್ಲಿ ನೀರು ಸುರಿಸುತ್ತಾ ಬರೆಯಲಾರಂಭಿಸಿದಳು ಹೀಗೆ-'ಪ.ಪೂ, ಮುನಿ ಮಹಾರಾಜರೇ! ನನ್ನ ಮಗಳು ಮೈನಾಳಿಗೆ, ಯಾವ ವ್ರತವನ್ನು ಇಚ್ಚಿಸುತ್ತಾಳೆ ಆ ವ್ರತವನ್ನು ತಾವು ಸಂತೋಷಪೂರ್ವಕವಾಗಿ ಕೊಡಿರಿ. ನನಗೆ ನಂಬಿಕೆಯಿದೆ ಇವಳು ತಾವು ಕೊಟ್ಟ ವ್ರತವನ್ನು ನಿರ್ದೋಷವಾಗಿ ಆಚರಿಸುತ್ತಾಳೆಂದು”. ಪತ್ರವನ್ನು ಬರೆದು ಮಗಳಿಗೆ ಹೇಳುತ್ತಾಳೆ “ಪ್ರೀತಿಯ ಮಗಳೇ! ಮೈನಾ, ಹೇಗೆ ನಿನ್ನನ್ನು ನಾನು ಸಂಸಾರದಿಂದ ಬಿಡುಗಡೆ ಮಾಡಿದೆನೋ ಹಾಗೆಯೇ ನನ್ನನ್ನೂ ಕೂಡ ಸಂಸಾರ ಸಮುದ್ರದಿಂದ ನಿವೃತ್ತಿ ಮಾಡಿ ಮೋಕ್ಷದ ದಾರಿಯನ್ನು ತೋರಿಸು ಎಂದಳು. ಯಾವ ತಾಯಿಯು ಈ ಕಾಲದಲ್ಲಿ ಮಗಳನ್ನು ಕಾಡಿಗೆ ಅಟ್ಟಿಯಾಳು? ಯಾವ ತಾಯಿಯು ತನ್ನ ಮೊದಲನೇ ಮಗಳನ್ನು ಲೋಕೋದ್ಧಾರಕ್ಕಾಗಿ ಧಾರೆ ಎರೆದಿದ್ದಾಳೋ ಅದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಪ್ರತಿಯೋರ್ವ ತಾಯಂದಿರು ಒಬ್ಬೊಬ್ಬರನ್ನು ಮೋಹಿನಿಯ ಹಾಗೆ ಮಮತೆ ತೊರೆದು ಸಮಾಜದ ಉದ್ಧಾರಕ್ಕಾಗಿ ಯಾರು ಮಕ್ಕಳ ಧಾರೆ ಎರೆಯುತ್ತಾರೋ ಆ ತಾಯಿಯವರಿಗೆ ಅನೇಕ ಧನ್ಯವಾದಗಳು. ಮೈನಾಳಿಗೆ ಆಗಷ್ಟೆ 16 ವರ್ಷ ತುಂಬಿದ್ದವು. ತಾಯಿ ಮೋಹಿನೀದೇವಿ ಹಾಗು ಮಗಳು ಮೈನಾದೇವಿ ಇಬ್ಬರು ಸ್ನಾನ ಮುಗಿಸಿ ದೇವರ ದರ್ಶನ ಮಾಡಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ದೇಶಭೂಷಣ ಮುನಿಗಳ ಸನ್ನಿಧಿಗೆ ಹೋಗಿ ಭಕ್ತಿಯಿಂದ ಅವರಿಗೆ ನಮಸ್ಕರಿಸಿ, ಕೈ ನಡಗುತ್ತಾ ಈ ಕಾಗದವನ್ನು ಆಚಾರ್ಯರ ಕೈಗೆ ಕೊಟ್ಟರು, ಮತ್ತು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. “ಗುರುವರ್ಯರೇ! ತಾವು ಈ ಕಾಗದವನ್ನು ಓದಿ ಗುಪ್ತರೀತಿಯಲ್ಲಿಟ್ಟುಕೊಳ್ಳಿರಿ”, ಆಚಾರ್ಯವರ್ಯರು ಈ ಕಾಗದವನ್ನು ಓದಿ ಆಶ್ಚರ್ಯದಿಂದ ಮೋಹಿನೀ ದೇವಿಯ ಕಡೆಗೆ ತಿರುಗಿ ನೋಡಿದರು. ಆಗ ಮೋಹಿನಿಯ ಕಣ್ಣಿನಿಂದ ಟಪಟಪ ನೀರು ಬೀಳುತಿತ್ತು. ಈಗಂತೂ ಎಲ್ಲಾ ಕೆಲಸಗಳು ಒಂದು ಕ್ಷಣದಲ್ಲಿ ಆದವು. ಮೈನಾದೇವಿಯು ಆಚಾರ್ಯರಿಗೆ ಶ್ರೀ ಫಲವನೇರಿಸಿ ಆಜನ್ಮ ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯ ವ್ರತವನ್ನು ಧರಿಸಿ, ಸಪ್ತಮ ಪ್ರತಿಮೆ ಧರಿಸಿ ಗೃಹ ತ್ಯಾಗಿಯಾದಳು, ಈ ಎಳೆ ವಯಸ್ಸಿನ ಕನ್ಯಯ ಧೈರ್ಯವನ್ನು ಕಂಡು ಬಾರಾಬಂಕಿಯ ಜನರು ಆಶ್ಚರ್ಯದಿಂದ ಬೆರಗಾದರು. ಇಡೀ ನಗರವೇ ಮೈನಾದೇವಿಗೆ ಧನ್ಯವಾದವನ್ನು ಅರ್ಪಿಸಿತು. ಅವಳಿಗಷ್ಟೆಯಲ್ಲ ಹೆತ್ತು ಹೊತ್ತು ಸಾಕಿದ ಮೋಹಿನಿದೇವಿಗೂ ಕೂಡ. ಮೈನಾಳು ತಾನು ಈ ಭೂಲೋಕದಲ್ಲಿ ಹಾಗು ತನ್ನ ತಾಯಿಯ ಹೊಟ್ಟೆಯಲ್ಲಿ ಹುಟ್ಟಿದ್ದಕ್ಕೆ ಸಾರ್ಥಕವಾಯಿತು. ಎಂದು ಮನಸ್ಸಿನಲ್ಲಿ ಅಂದುಕೊಂಡಳು. ತಂದೆ, ತಾಯಿ, ತಮ್ಮ ತಂಗಿ ಇತರ ಬಳಗದವರು ಈ ದೃಶ್ಯವನ್ನು ಕಂಡು ಬಿಕ್ಕಿ ಬಿಕ್ಕಿ ಅಳುತ್ತಿದ್ದರು. ಕೊನೆಗೂ ಮೈನಾಳು ತನ್ನ ಅಭಿಪ್ಪ ಕಾರ್ಯವನ್ನು ಸಾಧಿಸಿಕೊಂಡಳು. ನೊಂದ ಪರಿವಾರದವರು ಮೈನಾಳಿಗೆ ಶುಭ ಹಾರೈಸಿ ಶ್ರೀ ಆಚಾರ್ಯ ದೇಶಭೂಷಣ ಮುನಿಗಳ ಪಾದಕಮಲದಲ್ಲಿ ಅರ್ಪಿಸಿ ತಮ್ಮ ತಮ್ಮ ಊರುಗಳಿಗೆ ತೆರಳಿದರು. ಈಗ ಮೈನಾಳು ಪೂರ್ವಾಶ್ರಮದ ಎಲ್ಲವನ್ನೂ ಬಿಟ್ಟು ಪುನರ್ಜನ್ಯವನ್ನು ತಾಳಿ ಈ ಜನ್ಮದಲ್ಲಿ ತನ್ನ ಆತನನ್ನು ಉದ್ದಾರ ಮಾಡುವುದು, ಜೊತೆಗೆ ಸಮಾಜದ ಉದ್ದಾರ ಎಂದು ತಿಳಿದು ಸದಾ ಕಾಲ ಗುರುಗಳ ಆಜ್ಞೆಯನ್ನು ಪಡೆದು ಶಾಂತ ಚಿತ್ತದಿಂದ ಧ್ಯಾನ ಮತ್ತು ಜ್ಞಾನದಲ್ಲಿಯೇ ತನ್ನ ಸಮಯವನ್ನು ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದಳು. ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯ ಅವಸ್ಥೆಯಲ್ಲಿ ಆರ್ಜಿಕಾದ, ನಿಯಮಗಳನ್ನು ಪಾಲಿಸುತ್ತಿದ್ದಳು. ಒಂದೇ ಶುದ್ಧ ಆಹಾರವನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸಿ ಶಾಂತ ಚಿತ್ತದಿಂದ ಇರುತ್ತಿದ್ದಳು. ದೀಕ್ಷೆಯ ಕಡೆ ಮನಸ್ಸು ಶ್ರೀ 108 ಆಚಾರ್ಯ'ರತ್ನ ದೇಶಭೂಷಣ ಮುನಿಮಹಾರಾಜರು ಬಾರಾಬಂಕಿಯಲ್ಲಿ ಚಾತುರ್ಮಾಸವನ್ನು ಮುಗಿಸಿ ಅಲ್ಲಿಂದ ಲಖನ, ಸೋನಾಗಿರಿ ಮೊದಲಾದ ಕ್ಷೇತ್ರಗಳನ್ನು ದರ್ಶನ ಮಾಡುತ್ತಾ “ಶ್ರೀ ಮಹಾವೀರ ಜೀ' ಕೇತ್ರಕ್ಕೆ ಬಂದರು. ಬ್ರ. ಮೈನಾದೇವಿಗೆ ಒಂದು ಶುಭ ಮುಹೂರ್ತವನ್ನು ನೋಡಿದರು. ಚೈತ್ರ, ಕೃಷ್ಣಪಾಡ್ಯ ದಿನದಂದು ಶುಭ ಮುಹೂರ್ತದಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು ಬ್ರ. ಮೈನಾಗೆ ಕ್ಷುಲ್ಲಿಕಾ ದೀಕ್ಷಾವನ್ನು ಕೊಟ್ಟು ಅವರ ಪರಾಕ್ರಮವನ್ನು ನೋಡಿದ ಆಚಾರ್ಯರು “ವೀರಮತಿ' ಮಾತಾಜಿ ಎಂದು ನಾಮಕರಣ ಮಾಡಿದರು. ಇದು ಮೈನಾಳ ಎರಡನೇ ಪುರುಷಾರ್ಥವಾಗಿತ್ತು, ದೀಕ್ಷೆಯ ನಂತರ ಈ ಹೊಸ ಮಾತಾಜಿಗೆ ಕ್ಷು ಬ್ರಹ್ಮತೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಜೊತೆಯಾದವರು. ಆಮೇಲೆ ಈ ಇಬ್ಬರು ಕ್ಷು ಮಾತಾಜೀಯವರು ಸಂಘದಲ್ಲಿ ಒಟ್ಟಿಗೆ ಇರುತ್ತಿದ್ದರು, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३६९ ಆಚಾರ್ಯ ಸಂಘವು ಹರಿಯುತ್ತಿರುವ ಗಂಗೆಯಂತೆ ಮಹಾವೀರಜೀಯಿಂದ ದಾರಿಯಲ್ಲಿ ಸಿಗುವ ಊರು-ಜನಗಳಿಗೆ ಧರ್ಮಾಮೃತದ ನೀರನ್ನು ಕುಡಿಸುತ್ತಾ ಪುನಃ ಉತ್ತರ ಪ್ರದೇಶಕ್ಕೆ ಮುಟ್ಟಿತ್ತು. ಆಗ ಚಾತುರ್ಮಾಸ ಹತ್ತಿರ ಇತ್ತು. ಟಿಕೃತ ನಗರದಿಂದ 6 ಕಿ.ಮೀ. ದೂರದಲ್ಲಿ ದರಿಯಾಬಾದ್ ಇತ್ತು. ಅಲ್ಲಿಗೆ ಆಚಾರ್ಯರ ಸಂಘವು ಬಂದು ನಿಂತಿತ್ತು. ಅಲ್ಲಿಗೆ ಟಿಕೃತ ನಗರದ ಎಷ್ಟೋ ಜನ ಊರ ಪ್ರಮುಖರು ಆಚಾರ್ಯರನ್ನು ಚಾತುರ್ಮಾಸಕ್ಕೆ ಆಹ್ವಾನಿಸಲು ಬಂದರು. 105 ಕ್ಷು ವೀರಮತಿ ಮಾತಾಜೀ (ಮೈನಾದೇವಿ)ಯ ತಂದೆ ಛೋಟೆಲಾಲರೂ ಸಹ ಮಗಳ ಮೋಹದಿಂದ ಆಚಾರ್ಯರಿಗೆ ಆಹ್ವಾನಕೊಟ್ಟರು. ಸಂಯೋಗ ವಶದಿಂದ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಜನ್ಮಭೂಮಿಯಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯರ ಜೊತೆಗೆ ಚಾತುರ್ಮಾಸವು ನೆರವೇರಿತು. ಚಾತುರ್ಮಾಸದಲ್ಲಿ ಸತತವಾಗಿ ಧ್ಯಾನ, ಅಧ್ಯಯನಾದಿಗಳೇ ಮುಖ್ಯವಾಗಿದ್ದವು. ಮಾತಾಜೀಯವರ ತಂದೆ-ತಾಯಿಯವರು ಬಂದು ಮಗಳೊಡನೆ ಮಾತಾಡಲು ಇಚ್ಚಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಆದರೆ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಉಪೇಕ್ಷಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಸನ್ 1953 ರಲ್ಲಿ ಇವರಿಗೆ ಒಬ್ಬರು ಕೈು ವಿಶಾಲಮತಿ ಮಾತಾಜೀ ಸಿಕ್ಕಿದರು. ಅವರನ್ನೆ ದೊಡ್ಡವರು ಎಂದು ತಿಳಿದು ತಾಯಿಯ ಹಾಗೆ ಪ್ರೀತಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಒಂದು ಸಲ ಸಂಘಕ್ಕೆ ಒಂದು ಸಮಾಚಾರವು ಕುಂಥಲಗಿರಿಯಿಂದ ಬಂತು. ಅಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮುನಿಮಹಾರಾಜರು 'ಯಮ ಸಲ್ಲೇಖನ ವ್ರತವನ್ನು ಧಾರಣೆ ಮಾಡುವವರಿದ್ದಾರೆ ಎಂದು. ಆಗ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಜೀಯವರಿಗೆ ಅವರ ದರ್ಶನ ಮಾಡಬೇಕೆಂಬ ಆಶೆಯು ಜಾಗೃತವಾಯಿತು. ಗುರು ಶ್ರೀ ಆಚಾರ್ಯ ದೇಶಭೂಷಣರಿಂದ ಅನುಮತಿ ಪಡೆದು ಕ್ಷು ವಿಶಾಲಮತಿಯರೊಡನೆ ದಕ್ಷಿಣ ಭಾರತದ ಯಾತ್ರೆಯನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾ ಮಸವಾಡವನ್ನು ತಲುಪಿದರು. ಅಲ್ಲಿಯೆ ಇಬ್ಬರು ಕ್ಷು ಮಾತಾಜೀಯವರು ವರ್ಪಾಯೋಗವನ್ನು ಕೈಗೊಂಡರು. ಚಾತುರ್ಮಾಸದ ಮಧ್ಯ ಭಾದ್ರಪದದಲ್ಲಿ ಅಕಸ್ಮಾತ್ ಸಮಾಚಾರ ಸಿಕ್ಕಿತು. ಆಚಾರ್ಯರು ಯಮ ಸಲ್ಲೇಖನವನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸಿದ್ದಾರೆಂದು. ಆಗ ಕ್ಷು ವಿಶಾಲಮತಿಜೀಯವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಕ್ಷು ಶ್ರೀ ವಿರಮತಿಜೀಯವರು ಕುಂಥಲಗಿರಿಗೆ ಬಂದರು. ಅವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಸೋನಾಬಾಯಿ ಎಂಬ ಮಹಿಳೆಯು ಇದ್ದಳು. ಇವರೆ ಮುಂದೆ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರಿಂದ ದೀಕ್ಷೆ ಸ್ವೀಕರಿಸಿ ಮುಂದೆ ಪದ್ಮಾವತಿ ಮಾತಾಜಿ ಆದರು. ಸಲ್ಲೇಖನಾ ವ್ರತದ ಮೊದಲು ಒಂದು ದಿನ ಕು, ವೀರಮತಿಜೀಯವರು ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರಲ್ಲಿ ಪ್ರಾರ್ಥಿಸಿಕೊಂಡು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. “ಎಲೈ ಗುರುದೇವ! ನನಗೆ ಸಂಸಾರ ಸಮುದ್ರದಿಂದ ಪಾರುಮಾಡುವಂಥ “ಆರ್ಜಿಕಾ' ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ದಯಪಾಲಿಸಿ. ಗವನ್ನು ಕೈಗೊಂಡ ಕುಂಥಲಗಿರಿಗೆ ಬಂದ ಸಲ್ಲೇಖನವನು ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು ಮೃದು ಶಬ್ದದಿಂದ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. “ಈಗ ನಾನು ಯಾರಿಗೂ ದೀಕ್ಷೆ ಕೊಡುವುದಿಲ್ಲ ಅಂತ ನಿಯಮವನ್ನು ಮಾಡಿಕೊಂಡಿದ್ದೇನೆ. ನನ್ನ ಶಿಷ್ಯ ಮುನಿ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಇದ್ದಾರೆ. ಅವರ ಸಂಘದಲ್ಲಿ ಜ್ಞಾನವೃದ್ದ ವಯೋವೃದ್ಧ ಆರ್ಯಿಕೆಯರು ಇದ್ದಾರೆ. ನೀನು ಅವರ ಸಂಘದಲ್ಲಿಯೇ ಇದ್ದು ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸು ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. ಸನ್ 1955, 18 ಸೆಪ್ಟೆಂಬರ್ ಭಾದ್ರಪದ ಶುದ್ದ ದೀತಿಯ ರವಿವಾರದ ದಿನ ಬೆಳಿಗ್ಗೆ 7.50 ಕ್ಕೆ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಶಾಂತಿಯಿಂದ “ಓಂ ಸಿದ್ಧಾಯ ನಮಃ'' ಎಂದು ಮಂತ್ರ ಉಚ್ಚಾರಣೆ ಮಾಡುತ್ತಾ ಈ ನಶ್ವರ ಶರೀರ ತ್ಯಾಗ ಮಾಡಿದರು. ಆಚಾರ್ಯರು ಮಹಾ ತಪಸ್ವಿಗಳು, ತ್ಯಾಗಿಗಳು, ವಾಗ್ರಿಗಳು, ಚಾರಿತ್ರ ಚಕ್ರವರ್ತಿಗಳು ಆಗಿ ಎಲ್ಲರಿಗೂ ಆದರ್ಶ ಆಚಾರ್ಯರು, ಮುನಿಗಳೂ ಆಗಿದ್ದರು. ವರ್ತಮಾನದಲ್ಲಿ ನಶಿಸಿ ಹೋಗುತ್ತಿರುವ ಮುನಿಝರ್ಮವನ್ನು ಪುನಃ ಪ್ರಚಾರ, ಉದ್ದಾರ ಮಾಡಿದ ಕೀರ್ತಿಯು ಶ್ರೀ. ವಿ. ಆಚಾರ್ಯ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮುನಿಮಹಾರಾಜರಿಗೆ ಸೇರುತ್ತದೆ. ಸಲ್ಲೇಖನದ ನಂತರ ಇಬ್ಬರೂ ಕ್ಷುಲ್ಲಿಕೆಯರು ಗುರುವಿಯೋಗದ ದುಃಖದಿಂದ ತಪ್ತರಾಗಿ ಮಸವಡಕ್ಕೆ ಬಂದರು. ಮೊದಲಿನಂತೆ ಧ್ಯಾನ, ಅಧ್ಯಯನದಲ್ಲಿಯೆ ಸಮಯವನ್ನು ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದರು. ಅವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಕುಂ. ಪ್ರಭಾವತಿ ಮತ್ತು ಸೋನುಬಾಯಿ ಇವರಿಬ್ಬರೂ ಸಹ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿಯೇ ಇದ್ದು ಜ್ಞಾನಾರ್ಜನೆಯನ್ನು ಮಾಡುತ್ತ ಕೊನೆಗೆ ವೈರಾಗ್ಯವನ್ನೆ ತಾಳಿದರು. ವೈರಾಗಿಯ ಹತ್ತಿರವಿರುವ ರಾಗಿಗೂ ಕೂಡ ಒಂದು ಕ್ಷಣಕ್ಕಾದರೂ ವೈರಾಗ್ಯ ಉತ್ಪನ್ನವಾಗಿಯೇ ಆಗುತ್ತದೆ. ಇದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಶಿಷ್ಯ ಪ್ರಭಾವತಿಯ ವೈರಾಗ್ಯವನ್ನು ನೋಡಿ ಒಂದು ದಿನ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಜೀಯವರು ಕೇಳಿದರು “ನೀನು ಮನೆಯನ್ನು ಏಕೆ ಬಿಡಲು ಇಚ್ಚಿಸುತ್ತಿರುವೆ? ಪ್ರಭಾವತಿ-ಅಮ್ಮಾ ನನಗೆ ಸ್ವತಂತ್ರ ಜೀವನವೇ ಒಳ್ಳೆಯದಾಗಿ ಕಾಣುತ್ತದೆ. ನಾನು ಈಗ ತಮ್ಮ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಇರಲು ಇಚ್ಚಿಸುವೆನು, ಈ ಪ್ರಕಾರವಾದ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಜೀಯವರಿಗೆ ಮೊದಲನೇ ಶಿಷ್ಯಳಾಗಿ ಕು. ಪ್ರಭಾವತಿಯು ಸಿಕ್ಕಳು. ಕ್ಷು ವಿಶಾಲಮತಿಜೀಯವರ ಅನುಮತಿಯಂತೆ ದೀಪಾವಳಿಯ ದಿನ ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಆಜೀವನ ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯ ವ್ರತವನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸಿದರು. ಚಾತುರ್ಮಾಸದನಂತರ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಜೀಯವರು ಆರ್ಜೀಕಾ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಪಡೆಯಲು ತಮ್ಮ ಸಹೋದರರೊಂದಿಗೆ ಆಚಾರ್ಯ ವೀರಸಾಗರ ಮುನಿಮಹಾರಾಜರ ದರ್ಶನಕ್ಕೆ ಜಯಪುರಕ್ಕೆ ಹೋದರು. ಜಯಪುರವನ್ನು ತಲುಪಿದ ಬಳಿಕ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಶಿಷ್ಯರುಗಳೊಂದಿಗೆ ಆಚಾರ್ಯರ ದರ್ಶನ ಮಾಡಿ, ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರ ಅಂತಿಮದ ಅನುಮತಿಯನ್ನು ತಿಳಿಸುತ್ತಾ ಆರ್ಜಿಕಾ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಕೇಳಿದರು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3Soj वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ಆಚಾರ್ಯರು ಹೇಳಿದರು - ಈಗ ಈ ಸಂಘದಲ್ಲಿರು, ನಿನ್ನ ಸ್ವಭಾವ, ಗುಣ ಇತ್ಯಾದಿಗಳನ್ನು ಎಲ್ಲಾ ತ್ಯಾಗಿಗಳು ಪರೀಕ್ಷಿಸಬೇಕು ಮತ್ತು ನೀನು ಅವರೆಲ್ಲರ ಸ್ವಭಾವ, ಗುಣ ಚರ್ಯೆಯನ್ನು ತಿಳಿಳಿದುಕೊ. ಈ ಎಲ್ಲಾ ಅನುಭವಗಳು ಆದಮೇಲೆ ದೀಕ್ಷೆಯು ಆಗುತ್ತದೆ. "ದೀಕ್ಷೆಗಾಗಿ ಆತುರಪಡುತ್ತಿರುವ ಆತನಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಶಾಂತಿ ಸಿಕ್ಕಿತು. ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಗುವರು ಅಲ್ಲಿಯ ಆರ್ಜಿಕೆಯರೊಡನೆ ಹೊಂದಿಕೊಂಡು ಇರುತ್ತಿದ್ದರು. ಆಚಾರ್ಯರ ಸಂಘದಲ್ಲಿರುವವಯೋವೃದ್ದ ಜ್ಞಾನವೃದ್ಧರಾದ ಹಾಗೂ ಗಣ್ಯರಾಗ ಆರ್ಜಿಕಾ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಹೊಸದಾಗಿ ಆಗಂತುಕರಾದ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಯನ್ನು ವಿವಿಧ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಪರೀಕ್ಷಿಸಿದರು. ಅದರಲ್ಲಿ ಇವರು ಪೂರ್ಣ ಸಫಲತೆಯನ್ನು ಪಡೆದರು. ಈಗ ಕೈು ವೀರಮತಿಯವರು ಬಹಳ ಬೇಗನೆ ಆರ್ಜಿಕಾ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಸ್ವೀಕರಿಸಲು ಆತುರ ಪಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಆದರೆ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು ನಾಲ್ಕು ತಿಂಗಳ ನಂತರ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಕೊಡಲು ನಿರ್ಧರಿಸಿದ್ದರು. ಈ ಮಧ್ಯದಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯರು ಸ್ವತಃ ಈ ಸಾದ್ವಿಯ ಜ್ಞಾನ ಸಾಧನೆ ಹಾಗು ದೀಕ್ಷೆಯ ಲವಲವಿಕೆಯ ರುಚಿಯನ್ನು ಕಂಡು ಆಶ್ಚರ್ಯಪಟ್ಟರು. ಈ ಚಿಕ್ಕ ವಯಸ್ಸಿನಲ್ಲಿಯೆ ಇಂತಹ ಸಾದ್ವಿಮಣಿಯರು ತಮ್ಮ ಸಂಘದಲ್ಲಿರುವುದರಿಂದ ಸಂಘಕ್ಕೆನೆ ಗೌರವ ಎಂದು ತಿಳಿದುಕೊಂಡಿದ್ದರು. ಚಾರಿತ್ರ ಚಕ್ರವರ್ತಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರ ಪ್ರಥಮ ಪಟ್ಟಾಧೀಶ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತಾ ಮಾಡುತ್ತಾ ಮಧೆರಾ ಪುರಕ್ಕೆ ಬಂದಿಳಿದರು. ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಯರು ಕೂಡ ಸಂಘದಲ್ಲಿ ಯೋಗ್ಯರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಹೊಂದಿಕೊಂಡು ಆನಂದದಿಂದ ಸಮಯವನ್ನು ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದರು. ಎಷ್ಟೋ ದಿನಗಳು ಕಳೆದ ಮೇಲೆ ಪುನಃ ಕ್ಷು ವೀರಮತಿಜೀಯವರು ಮೊದಲಿನಂತೆ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರಿಗೆ ವಂದಿಸಿ ವಿನಯದಿಂದ ಆರ್ಜಿಕಾ ದೀಕ್ಷೆಗಾಗಿ ಪ್ರಾರ್ಥಿಸಿದರು. “ಎಲೆ ಗುರುವರ್ಯರೇ! ಈಗ ನನಗೆ ಸಮಯ ಬಂದಿದೆ ಆರ್ಯಿಕಾ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ದಯಪಾಲಿಸಿ” ಎಂದರು. ಆಚಾರ್ಯರು ಶುಭ ಮುಹೂರ್ತವನ್ನು ನೋಡಿಸಿದರು. ವೀರಮತಿಗೆ ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಕೊಡಲು ಆಚಾರ್ಯರು ಮುಂದೆ ಬಂದರು. ಒಂದು ದಿನ ಶುಭ ಮುಹೂರ್ತದಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು ವೀರಮತಿಯವರ ನೆತ್ತಿಯ ಮೇಲೆ ಮುನಿ ದೀಕ್ಷಾ ವಿಧಿಯ ಎಲ್ಲಾ ಸಂಸ್ಕಾರಗಳನ್ನೂ ಮತ್ತು ಹೊಸ ಪಂಚ ಕಮಂಡಲಗಳನ್ನು ಕೊಟ್ಟ ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ' ಎಂದು ನಾಮ ಘೋಷಣೆಯನ್ನು ಮಾಡಿದರು ಮತ್ತು ಕು. ಪ್ರಭಾವತಿಗೆ ಕ್ಷು ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಕೊಟ್ಟು * ಜಿನಮೆತಿ” ಎಂದು ಹೆಸರನ್ನು ಇಟ್ಟರು. * ಈಗ ಆಕ್ಕತಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿಯವರು ಸಂತೋಷದಿಂದ ಅಧ್ಯಯನ, ಅಧ್ಯಾಪನದಲ್ಲಿಯೇ ಮಗ್ನರಾಗುತ್ತಿದ್ದುದನ್ನು ಕಂಡು ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರು : ಜ್ಞಾನದು' ಎಂದು ಹೆಸರನ್ನು ಇಟ್ಟರು ಮತ್ತು ಅವರು ತಮ್ಮ ಈ ಸಣ್ಣ ಶಿಷ್ಯಳನ್ನು ಹತ್ತಿರದಲ್ಲಿಯೆ ಇಟ್ಟುಕೊಂಡು ಶಿಕ್ಷಣವನ್ನು ಕೊಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಯಾವಾಗಲೂ ಹಿತೈ ಕೆಳುತ್ತಿದ್ದರು - “ಜ್ಞಾನಮತಿ” ನೀನು ಯಾವಾಗಲೂ ನಿನ್ನ ಹೆಸರನ್ನು ಧ್ಯಾನದಲ್ಲಿಯೆ ಇಟ್ಟುಕೊಂಡಿರು. ನನಗೆ ನಿನ್ನ ಹತ್ತಿರ ಇಷ್ಟು ಹೇಳಿಬೇಕಿತ್ತು ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. .. .. , 'ಫುತ್ರ ಚಕ್ರವರ್ತಿಗಳಾದ ಶಾಂತಸಾಗರ ಮುನಿ ಮಹಾರಾಜರ ಶಿಷ್ಯರಾದ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಸಂಘಸಮೇತರಾಗಿ ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತೆ ಮಾಡುತ್ತಾ ಹಜಸ್ಥಾನಕ್ಕೆ ಬಂದರು. ಸಂಘವನ್ನು ಯೋಗ್ಯರೀತಿಯಲ್ಲಿ ರಕ್ಷಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಶ್ರಾವಕರು ಕೂಡ ಯತಿಗಳನ್ನು ತಮ್ಮ ಬಂಧುಗಳಿರಿದೆ ಭಾವಿಸಿ ಸಾಧುಗಳನ್ನು ಕಾಣುತ್ತಿದ್ದರು...' ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತ್ತಿ ಮಾತಾಜಿಯವರು ಗುರು ಆಜ್ಞೆಯಂತೆ ಯಾವಾಗಲೂ ತನ್ನ (ಜ್ಞಾನಮತಿ) ಹೆಸರನ್ನೆ ನೆನಸಿ ಜ್ಞಾನಗಂಗೆಯಲ್ಲಿಯೆ ತಲ್ಲೀನರಾಗುತ್ತಿದ್ದರು. ಧರ್ಮ ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಓದಿ ಅದರಲ್ಲಿರುವ ಕಠಿನವಾದ ಶಬ್ದಗಳನ್ನು ಸಹ ತಿಳಿದುಕೊಳ್ಳುವುದರಲ್ಲಿ ಅವರಿಗೆ ಕಷ್ಟವೆನಿಸುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ ಮಾತಾಜಿಯವರು ಪ್ರಾರಂಭದಲ್ಲಿಯ 'ಕಾ ತಂತ್ರ ರೂಪ-ಮಾಲಾ' ಹೆಸರಿನ ವ್ಯಾಕರಣವನ್ನು ತನ್ನ ಕಂಠದಲ್ಲಿಯೆ ಆಳವಾಗಿ ಇಳಿಸಿಕೊಂಡಿದ್ದರು. * ಅವರು ತಮ್ಮ ಶಿಷ್ಯರುಗಳಿಗೆ ಓದಿ,ಓದಿಸಿ ತಮ್ಮಜ್ಞಾನವನ್ನು ಪರಿಪಕ್ವ ಮಾಡಿಕೊಂಡಿದ್ದರು. ಅವರು ಒಂದು ಸೂಕ್ತಿಯ ಮಾತನ್ನು ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದರು: .:: “ಯಾವ ಕ್ತಿಯಲ್ಲಿ ಕಲ್ಲಿನ ಚಾಕುವನು ತಿಕ್ಕಿ ತಿಕಿ, ಚೂಪು ಮಾಡುವಂತೆ ಬೇರೆಯವರಿಗೆ ಪದೇ-ಪದೇ ಓದಿಸುವುದರಿಂದ ತನ್ನ ಜಾನವ ಆಭಿವೃದ್ಧಿಯಾಗುತ್ತದೆ.” ಎಂಬುದನ್ನು ಮಾತಾಜೀಯವರು ಚೆನ್ನಾಗಿ ತಿಳಿದುಕೊಂಡು ತಮ್ಮ ಜೀವನದಲ್ಲಿ ಈ ನೀತಿಯನ್ನು ಅಳವಡಿಸಿಕೊಂಡಿದ್ದರು. ' ಇವರ ಜ್ಞಾನಗಂಗೆಯನ್ನು ತಿಳಿದ ಸುಘದ ಅನೇಕ ಜನ ತ್ಯಾಗಿಗಳು ಕೂಡ ಇವರಲ್ಲಿ ಕಲಿಯಲು ಇಚ್ಛೆಪಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಈ ತ್ಯಾಗಿಗಳ ಜಿಜ್ಞಾಸಾವನ್ನು ಅರಿತ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಯವರ ಅನುಮತಿ ಪಡೆದು ಸಂಘದ ಅನೇಕ ತ್ಯಾಗಿಗಳಿಗೆ ಜ್ಞಾನದ ಪಂಚಾಮೃತವನ್ನು ಕುಡಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ದಿನನಿತ್ಯದ ಕ್ರಿಯಾಖಾಂಡವನ್ನು ಎಲ್ಲಾ ತ್ಯಾಗಿಗಳಿಗೂ ಅರ್ಥವಾಗುವಂತೆ ಪಾಠಮಾಡಿ ಅದರ ಅರ್ಥವನ್ನು ವಿವರಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಇದರಿಂದ ಎಲ್ಲಾ ತ್ಯಾಗಿಗಳಿಗೂ ಒಳ್ಳೆಯ ಪ್ರಭಾವವಾಗಿತ್ತು; * ಈ Qತಿಯಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀಗಳ ಸಂಘವು ಸದಾ ಕಾಲವು ಜ್ಞಾನೋಪಯೋಗದಲ್ಲಿಯೇ ತಲ್ಲೀನವಾಗುತ್ತಿತ್ತು. ಇದೇ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ಶ್ರೀ ಸಮೆದೆ. ಶಿಖರ್ಜಿಯ ದರ್ಶನ ಮುಗಿಸಿ ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಮಹಾವೀರಕೀರ್ತಿ ಮುಸಿಮಹಾರಾಜರ ಸಂಘವು ಆಚಾರ್ಯರ ದರ್ಶನಕ್ಕೆ ಬಂತು. ಅವರೆಲ್ಲರೂ ಗುರುಗಳ ದರ್ಶನ ಪಡೆದು ತಮ್ಮನ್ನೆ ಧನ್ಯರೆದು ತಿಳಿದುಕೊಂಡರು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३७१ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಮಾಹಾವೀರಕೀರ್ತಿ ಮಾಹಾರಾಜರು ಸಂಸ್ಕೃತ ವ್ಯಾಕರಣ ನ್ಯಾಯಸಿದ್ದಾಂತ ಮೊದಲಾದವುಗಳನ್ನು ಚೆನ್ನಾಗಿ ತಿಳಿದ ಪ್ರಕಾಂಡ ವಿದ್ವಾಂಸರಾಗಿದ್ದರು. ಆದ್ದರಿಂದ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಅವರಿಗೆ ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. “ತಾವು ನಮ್ಮ ಸಂಘದ ಮುನಿ ಆರ್ಜಿಕಾ ಇವರಿಗೆ ಅಧ್ಯಾಯನ ಮಾಡಿಸಿರಿ'' ಎಂದರು. ಗುರು ಆಜ್ಞೆಯನ್ನು ಶಿರಸಾವಹಿಸಿ ಅವರು ಸಾಧುಗಳಿಗೆ ಓದಿಸಲಿಕ್ಕೆ ಶುರು ಮಾಡಿದರು. ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಕೂಡ ಗುರು ಮುಖದಿಂದ “ರಾಜವಾರ್ತಿಕ ಅಪ್ಪ ಸಹಸ್ರ” ಇತ್ಯಾದಿ ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಅಧ್ಯಯನ ಮಾಡಿದರು. ಈ ಕಡ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರ ಆರೋಗ್ಯವು ದಿನೇ-ದಿನೇ ಕುಂಠಿತವಾಗ ತೊಡಗಿತು. ಶರೀರವು ಜರ್ಜರಿತವಾಯಿತು. ಆಶೀಜ ಕೃಷ್ಣ ಅಮವಾಸ್ಯೆಯ ದಿನ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ವೀರಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಪದ್ಮಾಸನದಲ್ಲಿಯೇ ಸಮಾಧಿಸ್ಥರಾದರು. ಈ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ಎಲ್ಲಾ ತ್ಯಾಗಿ ವೃಂದದವರು ಮಹಾಮಂತ್ರದ ಪಠನೆ ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಆಗಲೇ ಆಚಾರ್ಯರ ಆತ್ಮವು ಪ್ರಯಾಣ ಮಾಡಿತು. ಆಗ ಸಂಘದ ಎಲ್ಲಾ ತ್ಯಾಗಿಗಳೂ ಕೂಡ ಅನಾಥರಾ ಧರು. ಆಗ ಆಚಾರ್ಯ ಮಹಾವೀರಕೀರ್ತಿ ಮಹಾರಾಜರಿಂದ ಅನಾಥರಾದ ತ್ಯಾಗಿಗಳಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಸಮಾಧಾನವು ಸಿಕ್ಕಿತು. ಇವರು ತ್ಯಾಗಿಗಳ ವಾತ್ಸಲ್ಯ ಮೂರ್ತಿಗಳಾಗಿದ್ದರು. ಎರಡನೆಯ ಪಟ್ಟಾಧೀಶ್ವರ ಚತುಃ ಸಂಘದ ಸಮ್ಮುಖದಲ್ಲಿಯೆ ಮುನಿ ಶ್ರೀ ಶಿವಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರಿಗೆ ಆಚಾರ್ಯರ ಪದವು ಕೊಡಲ್ಪಟ್ಟಿತು. ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಆಚಾರ್ಯರ ಸಂಘದಲ್ಲಿಯೆ ಇದ್ದು 'ಗಿರಿನಾರ್' ಮೊದಲಾದ ತೀರ್ಥಕ್ಷೇತ್ರಗಳ ದರ್ಶನ ಮಾಡುತ್ತಾ 3 ವರ್ಷ ಕಾಲ ಕಳೆದರು. ಆಮೇಲೆ ಸನ್ 1962 ರಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯರ ಆಜ್ಞೆಯನ್ನು ಪಡೆದು ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಶಿಷ್ಯರುಗಳಾದ ಜಿನಮತಿ, ಆದಿಮತಿ ಮೊದಲಾದವರನ್ನು ಕರೆದುಕೊಂಡು ಶಿಖರ್ಜಿಯ ಯಾತ್ರೆಗೆ ಹೊರಟರು. ಅಂದಿನಿಂದ ಇಂದಿನವರಿಗೂ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಒಂದು ಸ್ತ್ರೀ ಪರ್ಯಾಯದಲ್ಲಿ ಜನ್ಮತಾಳಿ ಎಷ್ಟೊಂದು ಧರ್ಮ ಪ್ರಭಾವನೆಯನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಾರೆಂದರೆ ವರ್ಣನೆ ಮಾಡಲಿಕ್ಕೆನೆ ನಾಲಿಗೆ ಬರುತ್ತಿಲ್ಲ - ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಜಿನ ಧರ್ಮದ ಪ್ರಚಾರವನ್ನು ದೊಡ್ಡ ದೊಡ್ಡ ಕಾರ್ಯ ಕಲಾಪಗಳ ಮೂಲಕ ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಾರೆ. ಇವರು ಮಹಾ ತಪಸ್ವಿಗಳು, ಯಂತ್ರ-ಮಂತ್ರ ಸಿದ್ಧಿ ಪ್ರಧಾನರು ಹೌದು. ಇವರ ತಪಸ್ಸಿನ ಶಕ್ತಿಯಿಂದ ಎಷ್ಟೋ ಜನರಿಗೆ ಲಾಭವಾಗಿದೆ. ಕೆಲವು ಉದಾಹರಣೆ ಕೊಡಬಹುದು ಆಶಿರ್ವಾದದಿಂದ. - ಆಶಿರ್ವಾದದಿಂದ ಕಳೆದ ಬಾಲಕನ ಪತ್ತೆ! 1983 ರಲ್ಲಿ ಒಂದು ದಿನ ವೀರಕುಮಾರ ಎಬ ಶ್ರಾವಕನು ಹಸ್ತಿನಾಪುರಕ್ಕೆ ಬಂದನು. ಮಾತಾಜೀಯವರಿಗೆ ವಂದನೆ ತನ್ನ 18 ವರ್ಷದ ಮಗ ದಿಲೀಪ ಕುಮಾರನು ಮಾಯವಾಗಿದ್ದಾನೆ. ಅವನ ತಲೆಯು ಸ್ವಲ್ಪ ಸರಿ ಇರಲಿಲ್ಲ ಅದಕ್ಕಾಗಿ ಅವನ ಬಗ್ಗೆ ಚಿಂತಿಸುತ್ತಿದ್ದನು. ಮಕ್ಕಳ ಹಿತಚಿಂತಕರು ಚಿಂತಿಸುವುದು ಸರ್ವೆ ಸಮಾನ್ಯ. ಅವನು ಮಾತಾಜೀಯಲ್ಲಿ ವಿನಮ್ರದಿಂದ ಕೇಳುತ್ತಾನೆ, ನನ್ನ ಮಗ ಎಲ್ಲಿದ್ದಾನೆ? ಯಾವಾಗ ಬರುವನು ಎಂದು ಕೇಳಿದನು. ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಅವನಿಗೆ ಸಮಾಧಾನದ ಮಾತನ್ನು ಹೇಳಿ ಇಂತೆಂದರು. “ಹೆದರ ಬೇಡ! ಒಂದು ಮಂತ್ರವನ್ನು ಕೊಡುವೆನು. ಅದನ್ನು ಒಂದು ಕಾಲು ಲಕ್ಷ ಜಪಮಾಡು, ಮಗನು ತಾನೇ ಬರುತ್ತಾನೆ. ಎಂದು ಆಶೀರ್ವಾದಿಸಿದರು. “ಪುತ್ರ ವಿಯೋಗದವರಿಗೆ ಶಾಂತಿ ಎಲ್ಲಿ ಸಿಗುತ್ತದೆ'', ಅವರು ಒಂದೆರಡು ಮಾಲೆ ಜಪಮಾಡಿದರೂ ಕೂಡ ನನ್ನ ಮಾಗೆ ಎಲ್ಲಿಗೆ ಹೋದ, ಅವನು ಜೀವದಲ್ಲಿದ್ದಾನೋ, ಜೀವಕ್ಕೇನಾದರು ತೊಂದರೆ ಆಗಿದೆಯೋ ಇದೇ ರೀತಿ ಯೋಚಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಮಗನ ಶೋಧನೆಗಾಗಿ ಎಲ್ಲಾ ಪ್ರಚಾರ ಮಾಡಿದರು. ಗಲ್ಲಿ ಗಲ್ಲಿ ಊರು-ಊರುಗಳಿಗೆ ಜನ ಹೋಗಿದ್ದರು, ಎಷ್ಟು ಹುಡುಕಿದರೂ ಮಗ ಸಿಗಲಿಲ್ಲ ಒಂದು ತಿಂಗಳು ಪೂರೆ ಆಯಿತು. ವೀರ ಕುಮಾರನು ಅಳುತ್ತ ಪುನಃ ಮಾತಾಜೀಯದ್ದಲ್ಲಿಗೆ ಹೋದ ಮತ್ತು ಹೇಳಿದ “ತಾವು ಏನು ಬೇಕಾದರೂ ಮಾಡಿ ಅಂತೂ ನನ್ನ ಮಗ ಸಿಗುವಂತೆ ಮಾಡಿರಿ'' ಎಂದನು. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಕೂಡ ಪುನಃ ಹೇಳಿದರು. “ಎಲೇ ಭವ್ಯನೇ ನೀನು ಅಳುವುದು, ದುಃಖಪಡುವುದನ್ನು ಬಿಟ್ಟು ಒಂದು ಕಾಲು ಲಕ್ಷ ಜಪ ಮಾಡು, ಜಪ ಮುಗಿಯುವುದರೊಳಗಾಗಿ ಮಗ ಬರುತ್ತಾನೆ. ಅವನ ಜೀವಕ್ಕೆ ಏನು ಹಾನಿಯಾಗಿಲ್ಲ, ವೀರಕುಮಾರನು ಆದಷ್ಟು ಪ್ರಯತ್ನ ಮಾಡಿ ಸೋತುಹೋಗಿದ್ದ ಆದರೂ, ಗುರುವಚನದ ಮೇಲೆ ಶ್ರದ್ದೆಯಿಟ್ಟು ತನ್ನ ಮನಸ್ಸಿಗೆ ಶಾಂತಿ ತಂದುಕೊಂಡು ಜಪಮಾಡಲು ಪ್ರಾರಂಭಿಸಿದನು. ಇದು ಆಶ್ಚರ್ಯವೆಂದೆ ತಿಳಿಯಬೇಕು. ಒಂದು ದಿನ ವೀರಕುಮಾರನು ಜಪವನ್ನು ಮುಗಿಸಿ ಬಸ್ತಿಯಿಂದ ಮನೆಯ ಕಡೆಗೆ ಬರುತ್ತಿದ್ದನು. ದಾರಿಯಲ್ಲಿ ಯಾರೋ ಅವನ ಮಗನ ವಿಷಯದಲ್ಲಿ ವಿಚಾರಿಸಿದರು. ಆಗ ವೀರಕುಮಾರನ ಬಾಯಿಯಲ್ಲಿ ಹೀಗೆ ಬಂತು- 'ಇವತ್ತು ನನ್ನ ಒಂದು ಕಾಲು ಲಕ್ಷ ಜಪ ಮುಗಿಯಿತು. ನನ್ನ ಮಗ ಅವಶ್ಯವಾಗಿ ಬರುತ್ತಾನೆ" ಎಂದನು. ಏಕೆಂದರೆ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದ್ದರು. 1-1/4 ಲಕ್ಷ ಜಪವನ್ನು ಪೂರ ಆದ ಮೇಲೆ ನಿನ್ನ ಮಗ ಬರುತ್ತಾನೆಂದು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 393] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ಪ್ರತಿದಿನದಂತೆ ವೀರಕುಮಾರನು ಊಟ ಮುಗಿಸಿ ಅಂಗಡಿಗೆ ಹೋದನು. ಅವರು ಅಂಗಡಿಯಲ್ಲಿ ಇದ್ದುಕೊಂಡು, ಮಗ ಬರುವ ದಾರಿಯನ್ನೆ ನೋಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಮಧ್ಯಾಹ್ನ 2 ಗಂಟೆ ಹೊತ್ತಿಗೆ ಯಾರೋ ಬೇರೆಯವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ದಿಲೀಪಕುಮಾರನು ಅಂಗಡಿಯ ಕಡೆಗೆ ಬರುತ್ತಿರುವುದನ್ನು ಕಂಡು, ತಂದೆ ವೀರಕುಮಾರರಿಗೆ ಎಲ್ಲಿಲ್ಲದ ಆಶ್ಚರ್ಯ ಮತ್ತು ಯೋಚಿಸುತಿದ್ದ ಇದು ಸುಳೋ, ಸತ್ಯವೋ ಇದು, ಅವನ ಆತ್ಮಕ್ಕೆ ಅವನೇ ಪ್ರಶ್ನೆ ಮಾಡಿಕೊಳ್ಳುತ್ತಿದ್ದ ಮಗ ಅಂಗಡಿಗೆ ಬಂದೆ ಬಂದ. ಅವನ ಮುಖವು ಒಣಗಿಹೋಗಿತ್ತು. ಎಷ್ಟೋ ದಿನಗಳಿಂದ ಆಹಾರ ಇಲ್ಲದ ಕಾರಣ ಅವನ ಶರೀರವು ದುರ್ಬಲವಾಗಿತ್ತು. ದಿಲೀಪಕುಮಾರನನ್ನು ನೋಡಲು ಅನೇಕ ಜನರು ಅಂಗಡಿಗೆ ಬಂದರು. ಮಗ ಸಿಕ್ಕಿದ ಮೇಲೆ ವೀರಕುಮಾರನು ಮೊದಲು ಹಸ್ತಿನಾಪುರಕ್ಕೆ ಮಗನ ಜೊತೆಗೆ ಹೋಗಿ ಪೂ. ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರ ದರ್ಶನ ಮಾಡಿ ಮಗನಿಗೆ ಆಶೀರ್ವಾದ ಕೊಡಿಸಿ ತಾನು ಆಶೀರ್ವಾದ ಪಡೆದನು, ಧರ್ಮ ಬಂಧುಗಳೇ! ಇದು ಗುರುಭಕ್ತಿ ಮತ್ತು ಅವರು ಕೊಟ್ಟ ಮಂತ್ರದ ಫಲವೇ ಸರಿ. ಈಗಲೂ ಸಹ ಆ ದಿಲೀಪನು ತನ್ನ ತಂದೆಯ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಸಂತೋಷದಿಂದ ಬಟ್ಟೆ ವ್ಯಾಪಾರ ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಾನೆ. ಯಂತ್ರ, ಮಂತ್ರಗಳ ಸಾಧನೆಯನ್ನು ಆಚಾರ್ಯರು ಶಾಸ್ತ್ರಗಳಲ್ಲಿ ಬರೆದಿಟ್ಟಿದ್ದಾರೆ. ಆದರೆ ಅವುಗಳ ವಿಧಿ-ವಿಧಾನಗಳ ಕ್ರಮವನ್ನು ಗುರುಗಳಿಂದ ತಿಳಿದರೆ ಮಾತ್ರ ಅದರ ಫಲ ಸಿಗುತ್ತದೆ. ಇಲ್ಲವಾದರೆ ಅನರ್ಥವು ಆಗುವುದುಂಟು. ಏಕೆಂದರೆ ಯಾವ ಪ್ರಕಾರ ಡಾಕ್ಟರು ರೋಗಿಗೆ ಅನುಕೂಲವಾದ ಔಷಧಿಯನ್ನು ಕೊಡುವುದರಿಂದ ರೋಗಿಯು ರೋಗ ಮುಕ್ತನಾಗುತ್ತಾನೆ, ಯಂತ್ರ-ಮಂತ್ರದ ಜೊತೆಗೆ ಗುರುಗಳ ತಪಸ್ಸಿನ ಪ್ರಭಾವ ಹಾಗು ಆಶೀರ್ವಾದ ಇದ್ದರೇನೇ ಅದು ಫಲ ಕೊಡುತ್ತದೆ. ನಾನು ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರ ವಿಷಯವನ್ನು ಎಷ್ಟೋ ಜನರ ಮುಖದಿಂದ ಕೇಳಿದ್ದೇನೆ. ಅವರು ಯಾರಾದರು ರೋಗಿಗಳಿಗೆ ಅವರ ಪಂಚೆಯನ್ನು ತಲೆಯ ಮೇಲೆ ಇಟ್ಟರೆ ಆಗ ಆ ವ್ಯಕ್ತಿಗೆ ರೋಗವೇ ಮಾಯವಾಗುತ್ತದೆ. ಇದೇ ರೀತಿ ಎಷ್ಟೋ ಜನಗಳಿಗೆ ಭೂತ-ಪಿಶಾಚಿ ಇತ್ಯಾದಿಗಳ ಪೀಡೆಯನ್ನು ಸಹ ದೂರ ಮಾಡಿರುತ್ತಾರೆ. ಇಷ್ಟೇ ಅಲ್ಲ ಕಣ್ಣಿಲ್ಲದವರಿಗೆ ಕಣ್ಣು ಬರುವಂತೆ ಮಾಡಿದ್ದಾರೆ. ಹಾಗಾದರೆ ಅವರ ತಪಸ್ಸಿನ ಶಕ್ತಿ ಎಷ್ಟರ ಮಟ್ಟಿಗೆ ಇದೆ ಎಂಬುದನ್ನು ನೀವೇ ಯೋಚಿಸುವಿರಿ. ಇದಕ್ಕೆಲ್ಲಾ ಅವರು ಇಟ್ಟ ಗುರುಭಕ್ತಿಯೇ ಕಾರಣ ಬೇರೊಂದಲ್ಲ “ಗುರುಭಕ್ತಿ ಸತೀ ಮುಕ್ತತೀ, ಕ್ಷುದ್ರಂತೆ ಕಿಂ ವಾನ ಸಾದಯೇತ್?” ಅರ್ಥ-ಗುರುಭಕ್ತಿ ಗುರುಜನರ ವಚನಗಳಲ್ಲಿ ದೃಢವಾದ ಶ್ರದ್ದೆಯನ್ನು ಇಟ್ಟರೆ ಅದು ಮೋಕ್ಷದವರೆಗೆ ದಾರಿ ತೋರಿಸುತ್ತದೆ. ಹೀಗಿರುವಾಗ ಈ ಕ್ಷುದ್ರ ಕೆಲಸ ಕಾರ್ಯಗಳು ಏಕೆ ಆಗುವುದಿಲ್ಲ? ಈ ಬಾಲಬ್ರಹಚಾರಿಣಿ ಸತಿ ಈಗ ಜನಗಳಿಗೆಲ್ಲ ತಮ್ಮ ತಪಸ್ಸಿನ ಫಲವನ್ನು ತೋರಿಸಿ ಕೊಟ್ಟಿದ್ದಾರೆ. ಸನ್ 1964 ರಲ್ಲಿ ಪೂ, ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಕಲ್ಕತ್ತದಿಂದ ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತಾ ತಮ್ಮ ಆರ್ಯಿಕಾ ಸಂಘವನ್ನು ಆಂಧ್ರಪ್ರದೇಶದ ಹೈದರಾಬಾದಿನಲ್ಲಿ ಚಾತುರ್ಮಾಸಕ್ಕೆ ನೆಲೆ ನಿಂತರು. ಈ ಚಾತುರ್ಮಾಸದಲ್ಲಿ ಸಂಗ್ರಹಣೆ ಕಾಯಿಲೆ ಪ್ರಾರಂಭವಾಯಿತು. ಆದ್ದರಿಂದ ಅವರು ಬಹಳ ನಿಃಶಕ್ತಿಯುಳ್ಳವರಾದರು. ಆಗ ಇವರು ಜೀವನ ಮತ್ತು ಮರಣದಲ್ಲಿ ಸೆಣೆದಾಡುತಿದ್ದರು. ಭಕ್ತರು ಇವರ ಸೇವೆಯನ್ನು ಅಹೋರಾತ್ರಿಯೆನ್ನದೆ ಮಾಡುತಿದ್ದರು. ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಆತ್ಮ ಸಾಧನೆಯಲ್ಲಿಯೇ ಇದ್ದರು. ಸಂಘದಲ್ಲಿ ಓರ್ವ ಬ್ರಹಚಾರಿಣಿ ಇದ್ದಳು. ಅವಳ ಹೆಸರು ಮನೋಮತಿ (ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಪೂರ್ವಾಶ್ರಮದ ಕಿರಿಯ ಸೋದರಿ). ಇವರು ಬಹಳ ಶ್ರಮದಿಂದ ಆರ್ಯಿಕಾ ಸಂಘಕ್ಕೆ ಶಿಖರಜಿಯ ದರ್ಶನವನ್ನು ಮಾಡಿಸಿದರು. ಇವರು ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ತೆಗೆದುಕೊಳ್ಳಬೇಕು ಅಂತ ಬಹಳ ಇಚ್ಚಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರ ಆರೋಗ್ಯ ಅವಸ್ಥೆ ಬಹಳ ಗಂಭೀರವಾಗಿತ್ತು. ಆದರೂ ಅವರು ದೀಕ್ಷಾ ಮುಹೂರ್ತವನ್ನು ತೆಗೆದುಕೊಟ್ಟರು. ಶ್ರಾವಣ ಶು. ಸಪ್ತಮಿ (ಮೋಕ್ಷ ಸಪ್ತಮಿ)ಯ ಶುಭ ಮುಹೂರ್ತದಲ್ಲಿ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಬಹಳ ಉಲ್ಲಾಸದಿಂದ ಸಾವಿರಾರು ಜನಗಳ ಸಮೂಹದಲ್ಲಿ ಬ್ರ, ಮನೋಮತಿಯವರಿಗೆ “ಕುಲ್ಲಿಕಾ” ದೀಕ್ಷೆಯನ್ನು ಕೊಟ್ಟರು ಮತ್ತು ಮನೋಮತಿಯವರಿಗೆ ಕ್ಷು ಶ್ರೀ “ಅಭಯಮತಿ' ಮಾತಾಜೀಯೆಂದು ನಾಮಾಂಕಿಂತವಾಯಿತು. ಆಗ ಹೈದಾರಾಬಾದಿನಲ್ಲಿ ಜನಗಳೆಲ್ಲರೂ ಹೀಗೆ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದರು: “ಮಾತಾಜೀಯವರಿಗೆ ಕಾಯಿಲೆ ಬಂದಾಗ ಯಾರಿಗಾದರೂ ದೀಕ್ಷೆ ಕೊಟ್ಟರೆ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಕಾಯಿಲೆ ಗುಣ (ದೂರ) ವಾಗುತ್ತದೆ.” ದಕ್ಷಿಣದ ಜಂಬೂದೀಪ ಉತ್ತರ ಕಡೆ ಹೈದರಾಬಾದಿನಿಂದ ಆರ್ಯಿಕಾ ಸಂಘವು ಕರ್ನಾಟಕಕ್ಕೆ ವಿಹಾರ ಮಾಡಿತು. 1965 ರಲ್ಲಿ ಶ್ರವಣಬೆಳಗೊಳದಲ್ಲಿ ಚಾತುರ್ಮಾಸವು ನೆರವೇರಿತು. “ಸಾಧನೆ, ಸಿದ್ದಿ ಪ್ರಾಪ್ತಿಗಾಗಿ ಏಕಾಂತ ಸ್ಥಳ ಹಾಗು ಒಂದು ಲಕ್ಷ ಇರುತ್ತದೆ. ಯಾವ ವ್ಯಕ್ತಿಯೇ ಆಗಲಿ ಅವನಿಗೆ ತನ್ನ ಭವಿಷ್ಮ ಜೀವನದ ಕಡೆಗೆ ರೂಪರೇಖೆಯನ್ನು ನಿರ್ಮಿಸಿಕೊಂಡು ಅದರಂತೆ ನಡೆಯುತ್ತಾನೆ. ಹೇಗೆ ಡಾಕ್ಟರ್, ಇಂಜಿನಿಯರ್, ಅಧ್ಯಾಪಕರು ಮೊದಲಾದವರು ಅವರ ವಿದ್ಯಾಭ್ಯಾಸದಿಂದಲೇ ಸಾಧನೆಯನ್ನು ಸಾಧಿಸುತ್ತಾರೆ. ಆಗ ಅವರು ತಾವು ಹಾಕಿಕೊಂಡ ಗುರಿಯನ್ನು ಸುಲಭವಾಗಿ ಮುಟ್ಟುತ್ತಾರೆ. ಮೋಕ್ಷವನ್ನು ಪಡೆಯಲು ಇಚ್ಚಿಸುವ ಸಾಧಕನು ಸದಾ ತನ್ನ ಧೇಯೋದ್ದೇಶಗಳನ್ನು ಲಕ್ಷ್ಯದಲ್ಲಿ ಇಟ್ಟುಕೊಂಡೇ ಸಾಧನೆಯನ್ನು ಸಾಧಿಸುತ್ತಾನೆ. ಹೇಗೆ ಅರ್ಜುನ, ಏಕಲವ್ಯ ಮೊದಲಾದವರು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.ainelibrary.org Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३७३ ಎಲ್ಲಾ ಸಾಧನೆಗಳಲ್ಲಿ ಧ್ಯಾನದ ಸಾಧನೆಯು ಜೀವನದ ಒಂದು ಮುಖ್ಯ ಅಂಗವಾಗಿದೆ. ನಾವೆಲ್ಲರು ಸಂಸಾರದಲ್ಲಿದ್ದುಕೊಂಡು ಪ್ರತಿ ಕ್ಷಣದಲ್ಲಿಯೂ ಒಂದಲ್ಲಾ ಒಂದು ರೀತಿಯ ಧ್ಯಾನವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತೇವೆ. ಧ್ಯಾನವು ನಾಲ್ಕು ರೀತಿ ಇದೆ. ಆರ್ತ, ರೌದ್ರ, ಧರ್ಮ ಮತ್ತು ಶುಕ್ಲ ಧ್ಯಾನ, ಆರ್ತ ಮತ್ತು ರೌದ್ರ ಧ್ಯಾನಗಳ ಸರಪಳಿಯಲ್ಲಿ ಸಿಕ್ಕಿ ಈ ಜೀವವು ಅನಾದಿಕಾಲದಿಂದ ಈ ಸಂಸಾರ ಚಕ್ರದಲ್ಲಿ ತಿರುಗುತ್ತಾ ಬಂದಿದೆ. ಈ ಸಂಸಾರಕ್ಕೆ ಆರ್ತ, ರೌದ್ರ ಧ್ಯಾನಗಳೇ ಕಾರಣ. ಇದರಿಂದ ದೂರವಿದ್ದು ಪೂಜ್ಯ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಧರ್ಮಧ್ಯಾನದ ಸಾಧನೆಯಲ್ಲಿ ತೊಡಗಿದ್ದಾರೆ. ಏಕೆಂದರೆ ಶುಕ್ಲ ಧ್ಯಾನವಂತೂ ಶ್ರಾವಕರಿಗೆ ಬಿಟ್ಟು ಈಗಿನ ಮುನಿಗಳಿಗೂ ಆಗುವುದು ಅಸಂಭವವಾಗಿದೆ. ಆದ್ದರಿಂದ ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಆತ್ಮವು ಸದಾ ಕಾಲ ಧರ್ಮ ಧ್ಯಾನದಿಂದ ಸಮಯವನ್ನು ಕಳೆಯಬೇಕು. ಈ ಚಾತುರ್ಮಾಸದ ಮಧ್ಯದಲ್ಲಿ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು 15 ದಿನ ಅಖಂಡ ಮೌನ ಆಚರಿಸಿ ವಿಂಧ್ಯಗಿರಿಯ ಪರ್ವತದಲ್ಲಿ ಭ. ಬಾಹುಬಲಿಯ ಸಮ್ಮುಖದಲ್ಲಿ ಧ್ಯಾನ ಮಾಡಲಾರಂಭಿಸಿದರು. ಅವರ ಶಿಷ್ಯರಾದ 'ಪದ್ಮಾವತೀ ಮಾತಾಜೀ' ಮಾತ್ರ ಅವರ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿ ಇರುತ್ತಿದ್ದರು, ಬಾಕಿ ತ್ಯಾಗಿಗಳು ಕೆಳಗಿರುತ್ತಿದ್ದರು. ಮಾತಾಜಿ ಕೇವಲ ಆಹಾರಕ್ಕೆ ಮಾತ್ರ ಕೆಳಗೆ ಬರುತ್ತಿದ್ದರು. ಆಮೇಲೆ ಪುನಃ ಪರ್ವತದ ಮೇಲೆ ಹೋಗಿ ಧ್ಯಾನದಿಂದಲೇ ಸಮಯ ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದರು. ರಾತ್ರಿಯಲ್ಲಿ ಸ್ವಲ್ಪ ಹೊತ್ತು ಮಲಗಿ ಬಾಕಿ ಸಮಯವನ್ನು ಧ್ಯಾನದಲ್ಲಿಯೇ ಕಳೆಯುತ್ತಿದ್ದರು. ಒಂದು ದಿನ ರಾತ್ರಿಯಲ್ಲಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಧ್ಯಾನದಲ್ಲಿರುವವರಿಗೆ ಪ್ರಕಾಶಮಾನವಾದ ಒಂದು ಜೋತಿ ಪುಂಜವು ಅಕೃತಿಮ ಜಿನ ಚೈತ್ಯಾಲಯದ ರಚನೆಯಂತೆ ಭಾಸವಾಗಿತ್ತು.” ಎತ್ತರವಾದ ಸುಮೇರು ಪರ್ವತ, ಗಂಗಾ, ಸಿಂಧು ಮೊದಲಾದ ನದಿಗಳು ವಿದೇಹ ಕೇತ್ರಗಳು, ಪ್ರಾಕೃತಿಕ ಸೌಂದರ್ಯಕ್ಕೆ ಸಂಬಂಧಪಟ್ಟ ಎಷೋ ಚಿತ್ರಗಳು ಅವರ ದೃಷ್ಟಿಗೆ ಬಂದಿವೆ. ಇದೇನೋ ಯಾವುದೋ ಸಿದ್ದಿಯಂತೆ ಈ ಅಪೂರ್ವವಾದ ದೃಶ್ಯವನ್ನು ನೋಡಿ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರಿಗೆ ಎಲ್ಲಿಲ್ಲದ ಆನಂದವೇ ಆನಂದವಾಯಿತು. ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಅವರು ಬೆಟ್ಟದಿಂದ ಕೆಳಗೆ ಇಳಿದು ಬಂದು ಅವರಲ್ಲಿರುವಂತಹ ಎಲ್ಲಾ ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಬಿಚ್ಚಿ-ಬಿಚ್ಚಿ ದೃಷ್ಟಿ ಹರಿಸಿ ನೋಡಲಾರಂಭಿಸಿದರು. ತಿರೀಯಪಣ್ಣ ಮತ್ತು ತ್ರಿಲೋರೀಕಸಾರ ಈ ಗ್ರಂಥಗಳಲ್ಲಿ ಏನು ವರ್ಣನೆಯ ರಚನೆ ಇತ್ತೋ ಹಾಗೇನೆ ಅಂತದ್ದನ್ನೆ ಇವರು ತಮ್ಮ ಧ್ಯಾನದಲ್ಲಿ ಕಂಡದ್ದು ಅದನ್ನು ನೋಡಿ ಮಾತಾಜಿಗೆ ಆನಂದವೇ ಆನಂದವಾಗಿತ್ತು, ಈಗಂತೂ ಪ್ರತಿದಿನ ಆ ಚೈತ್ಯಾಲಯಗಳ ವಂದನೆಯೇ ಇವರ ಧ್ಯಾನದ ಧಾರೆ ಹರಿಯ ತೊಡಗಿತ್ತು. ಈ ಸಂಸ್ಥಾನವಿಚಯ ಧರ್ಮ ಧ್ಯಾನವು ಮುಗಿದ ಮೇಲೆ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಮೌನ ವ್ರತವನ್ನು ಬಿಟ್ಟರು ಮತ್ತು ತಮ್ಮ ಶಿಷ್ಯರುಗಳಿಗೆ ಈ ವಿಷಯವನ್ನು ತಿಳಿಸಿದರು. ಆದರು ಈ ಜಂಬೂದೀಪ ಮೊದಲಾದ ಆಕೃತಿಮ ಚೈತ್ಯಾಲಯಗಳ ರಚನೆಯು ಕರಣಾನುಯೋಗದಲ್ಲಿ 2000 ಸಾವಿರ ವರ್ಷಗಳ ಹಿಂದೆಯೇ ಬರೆಯಲಾಗಿತ್ತು. ಹೀಗಿದ್ದರೂ ಕೂಡ ಇದನ್ನು ಯಾರು ತಮ್ಮ ಗಮನಕ್ಕೆ ತೆಗೆದುಕೊಂಡಿಲ್ಲ ಹಿಂದುಸ್ತಾನದಲ್ಲಿ ಅನೇಕ ಕಡೆಗಳಲ್ಲಿ ನಂದೀಶ್ವರದೀಪ, ಸಮವಸರಣ, ಮೊದಲಾದ ರಚನೆಗಳು ನಿರ್ಮಾಣವಾಗಿವೆ. ಆದರೆ ಜಂಬೂದ್ವೀಪದಂತೆ ಮಹಾನ್ ಕಾರ್ಯವು ಜನಸಾಮಾನ್ಯರಿಗೆ ತಿಳಿವಳಿಕೆ ಹಾಗೂ ರಚನಾತ್ಮಕ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಮಾಡಿ ತೋರಿಸಿದ ಕೀರ್ತಿಯು ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರಿಗೇನೇ ಸಲ್ಲುತ್ತದೆ. ಸಂಯೋಗವಶದಿಂದ ಪೂ, ಮಾತಾಜೀಯವರು ಜಂಬೂದ್ವೀಪದ ಚಿಂತನೆಯನ್ನು ತಮ್ಮ ಧ್ಯಾನದ ಮೂಲಕ ಮಾಡಿದ್ದು ದಕ್ಷಿಣ ಭಾರತದ ಮುಖ್ಯ ತೀರ್ಥಕ್ಷೇತ್ರವಾದ ಶ್ರೀ ಶ್ರವಣಬೆಳಗೊಳದಲ್ಲಿ ಅದರ ಸಾಕಾರ ಮಾಡಿದ್ದು ಉತ್ತರದಲ್ಲಿ - ಈ ಕಾರಣದಿಂದ ಹಸ್ತಿನಾಪುರದ ಸಂಬಂಧವು ದಕ್ಷಿಣಕ್ಕು ಸೇರಿಕೊಂಡಿದೆ. ಈ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಹಿಂದುಸ್ತಾನದ ಜನರು ಹಿಂದಿನಕ್ಕಿಂತ ಈಗ ಬಾಹುಬಲಿ ಸ್ವಾಮಿಯ ದರ್ಶನಕ್ಕೆ ಶ್ರವಣಬೆಳಗೊಳಕ್ಕೆ ಬರುತ್ತಿದ್ದಾರೆ. ಹೀಗೆಯೆ ಭಾರತದ ಆದ್ಯಂತದಿಂದ ಜಂಬೂದ್ವೀಪವನ್ನು ನೋಡಲು ಹಸ್ತಿನಾಪುರಕ್ಕೆ ಬರುತ್ತಾರೆ. ಇದು ಪೂ. ೫ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಸಾಧನೆ, ಹಾಗೂ ತಪಸ್ಸಿನ ಪ್ರಭಾವವೇ ಸರಿ. ಏಕೆಂದರೆ ಹಸ್ತಿನಾಪುರ ಒಂದು ಭಯಂಕರವಾದ ಕಾಡು, ಹಗಲಲ್ಲೂ ಜನರು ಓಡಾಡಲು ಭಯಪಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಈಗ ಜನರು ಮಧ್ಯ ರಾತ್ರಿಯಲ್ಲೂ ನಿರ್ಭಯದಿಂದ ಓಡಾಡುತ್ತಾರೆ. ಈ ಜಂಬೂದ್ವೀಪದ ರಚನೆಯನ್ನು ಮಾಡುವ ಸಮಯದಲ್ಲಿ ಎಷ್ಟೋ ಸಲ ಭಯಂಕರವಾದ ವಿಷಸರ್ಪ ಕಾಣಿಸಿಕೊಂಡವು. ಆದರೆ ಇವತ್ತಿನವರೆಗೆ ಒಂದು ಮಗುವಿಗೂ ಸಹ ಅವುಗಳಿಂದ ಆಘಾತವಾಗಲಿಲ್ಲ ಅಲ್ಲಿ ಕೆಲಸ ಮಾಡುವ ನೌಕರರಿಗೆ ಅಹಿಂಸಾ ಧರ್ಮದ ಪಾಲನೆಯ ಬಗ್ಗೆ ಉಪದೇಶ ಕೊಡುತ್ತಿತ್ತು. ಆದ್ದರಿಂದ ಅವರು ಯಾವಾಗಲೂ ಸರ್ಪ ಚೇಳುಗಳಿಗೆ ಹಾನಿ ಆಗದಂತೆ ಜಾಗ್ರತೆ ವಹಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. - ಒಂದು ಸಲ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ವಾಸಸ್ಥಳ ರತ್ನತ್ರಯ ನಿಲಯಕ್ಕೆ ಹೋಗುತ್ತಿರುವಾಗ ದಾರಿಯಲ್ಲಿ ಒಂದು ಕೃಷ್ಣ ಸರ್ಪವು ಮಾತಾಜೀಯ ಎದುರು ಕಾಲಡಿಗೆ ಸಿಕ್ಕಿತು. ಮಾತಾಜೀಯ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿರುವವರು ಹೆದರಿ ಓಡಿಹೋದರು, ಆದರೆ ಮಾತಾಜೀಯ ವರನ್ನು ನೋಡಿ ಆ ಹಾವು ಹೆಡೆ ಎತ್ತಿ ನಿಂತಿತ್ತು. ಆಗ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಜೊತೆಯಲ್ಲಿದ್ದವರಿಗೆ ಧೈರ್ಯ ಹೇಳುತ್ತಾ ನೀವು ಯಾರು ಹೆದರಬೇಡಿರಿ ನಮಗೇನು ಹಾನಿ ಮಾಡುವುದಿಲ್ಲ ಎಂದಾಗ ಅದರಷ್ಟಕ್ಕೆ ಅದು ತನ್ನ ದಾರಿ ಹಿಡಿದು ಹೋಯಿತು. ಚೇಳಿನ ಪ್ರಭಾವ ಬೀರಲಿಲ್ಲ ಸನ್ 1972 ರಲ್ಲಿ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಸಂಘವು ವಿಹಾರ ಮಾಡುತ್ತಾ ರಾಜಸ್ಥಾನದಿಂದ ಡಿಲ್ಲಿಯ ಕಡೆಗೆ ಹೋಗುತ್ತಿತ್ತು. ಒಂದು ದಿನ ಒಂದು ಹಳ್ಳಿಯಲ್ಲಿ ಸಂಘವು ತಂಗಲು ವ್ಯವಸ್ಥೆಯಾಯಿತು, ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಸಾಮಾಹಿಕದಿಂದ ನಿವೃತ್ತಿಯಾಗಿ ವಿಶ್ರಾಂತಿ ಪಡೆಯುತ್ತಿದ್ದರು. ಅವರು ಮೌನದಿಂದ ಇದ್ದರು. ಆಗ ಅವರ ಕಾಲಿಗೆ ಯಾವುದೋ ಒಂದು ಕೀಟ ಕಚ್ಚಿದ ಹಾಗೆ ಆಯಿತು. ನೋಡಿದಾಗ ಅದು ಕಪ್ಪು ಚೇಳು ಆಗಿತ್ತು. ಆ ಚೇಳು" ಕಚ್ಚಿದ ಗುರುತು ಸ್ಪಷ್ಟವಾಗಿ ಕಾಣಿಸುತ್ತಿತ್ತು. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ಸಂಘದಲ್ಲಿ ಇರುವವರಿಗೆಲ್ಲ ಗಾಬರಿಯಾಯಿತು, ಮಾತಾಜಿಗೆ ಏನು ಆಗುತ್ತದೋ ಏನೋ ಅಂತ? ಆ ಊರು ಹಳ್ಳಿ ಆದಕಾರಣ ಯಾವ ಔಷಧೋಪಚಾರಗಳು ಸಿಗುತ್ತಿಲ್ಲ. ಸಂಘದ ಎಲ್ಲ ಬ್ರಹ್ಮಚಾರಿಣಿಯವರು ಶುದ್ಧ ಮನಸ್ಸಿನಿಂದ ಭಗವಂತನನ್ನು ನೆನೆಸುತ್ತಾ ಣಮೋಕಾರ ಮಂತ್ರವನ್ನು ಪಠಿಸ ತೊಡಗಿದರು. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಸ್ವಲ್ಪ ವೇಳೆ ಧ್ಯಾನ ಮಾಡಿ ಮುಗಿಸಿದರು. ಬೆಳಿಗ್ಗೆ ಏಳುವಾಗ ಆರೋಗ್ಯದಿಂದ ಚೆನ್ನಾಗಿದ್ದರು. ಅವರಿಗೇನು ವಿಷವೇರಲಿಲ್ಲ ಮತ್ತು ಯಾವ ನೋವು ಕಾಣಿಸಲಿಲ್ಲ ನಿತ್ಯದ ಹಾಗೇನೆ ಆ ಊರಿನಿಂದ ಮುಂದೆ ವಿಹಾರ ಮಾಡಿದರು. ನಮಗೆ ಅನಿಸುತ್ತದೆ, ಇದು ಅವರ ತಪಸ್ಸು ಹಾಗೂ ತ್ಯಾಗದ ಪ್ರಭಾವ ಅಂತ. 1987 ರಲ್ಲಿ ಹಸ್ತಿನಾಪುರಕ್ಕೆ ಓರ್ವ ಮುನಿ ಭಕಳು, ವಯೋವೃದ್ದಳು ಆದ ಬ್ರಹ್ಮಚಾರಿಣಿಯು ಬಂದಳು. ಕೆಲವು ದಿನ ಅಲ್ಲಿಯೆ ಇದ್ದು ಸಾಧು ಸಂತರಿಗೆ ಆಹಾರ ದಾನಮಾಡಲು ಚೌಕ ಹಾಕಿದ್ದರು. ಅವರಿಗೆ ಒಂದು ದಿನ ತನ್ನಷ್ಟಕ್ಕೆನೇ ಕಾಯಿಲೆ ಕಾಣಿಸಿತು. ಅವರ ಕಾಲುಗಳು ಊದಿಕೊಂಡವು. ನಡೆಯಲಿಕ್ಕೆ ಅವರಿಗೆ ಆಗುತ್ತಿರಲಿಲ್ಲ. ಆಗ ಅವರು ಮಾದರಿ ಬ್ರಹಚಾರಿಣಿಯನ್ನು ಕರೆದು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು, “ನನಗೆ ಪೂ, ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತೊಟ್ಟ ಸೀರೆಯನ್ನು ತಂದುಕೊಡಿರಿ” ಅಂತ. ಆಗ ಬ್ರಹಚಾರಿಣಿಯವರು ಕೂಡಲೇ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಸೀರೆಯನ್ನು ತಂದುಕೊಟ್ಟರು. ಮಾರನೆ ದಿನ ಆ ವೃದ್ಧ ಬ್ರಹಚಾರಿಣಿಯವರು ಸ್ವತಃ ಮಾತಾಜೀ ಇದ್ದಲ್ಲಿ ನಡೆದು ಬಂದು ಹೀಗೆ ಹೇಳಿದರು. ತಮ್ಮ ಆಶೀರ್ವಾದದಿಂದ ಈ ದಿನ ಆರೋಗ್ಯದಿಂದ ಇದ್ದೇನೆ. ಎಲ್ಲದಕ್ಕು ಗುರು ಆಶೀರ್ವಾದವೇ ಮುಖ್ಯವಾದುದು. ಆನಂತರ ಆ ವೃದ್ಧ ಬ್ರ.ಯವರು ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರಿಗೆ ಹೊಸ ಪಿಂಚ್ಛೆ ಕೊಟ್ಟು ಹಳೆ ಪಿಂಚ್ಚೆ ತೆಗೆದುಕೊಂಡರು. ಮತ್ತು ತಮ್ಮ ಜೀವನವು ಸಾರ್ಥಕವಾಯಿತೆಂದುಕೊಂಡರು. 1982 ರಲ್ಲಿ ಡಿಲ್ಲಿಯಿಂದ ಪೂ, ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಜಂಬೂದ್ವೀಪದ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿ'ಯನ್ನು ಅಹಿಂಸಾ ಪ್ರಚಾರದ ದೃಷ್ಟಿಯಿಂದ ಹೊರಡಿಸಿದರು. ಇದನ್ನು ಆಗಿನ ಪ್ರಧಾನ ಮಂತ್ರಿಯಾಗಿದ್ದ ಶ್ರೀಮತಿ ಇಂದಿರಾ ಗಾಂಧಿಯವರಿಂದ ಬಿಡುಗಡೆ ಮಾಡಿಸಿದರು. ಅಲ್ಲಿ ಕೆಲವು ಜೋತಿಷಿಗಳು ಹೇಳಿದ್ದರು, ಇಂದಿರಾ ಗಾಂಧಿಯರು ಈ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮಕ್ಕೆ ಬರುವ ಯೋಗ ಇಲ್ಲ ಅಂತ, ಆಗ ಎಲ್ಲಾ ಕಾರ್ಯಕರ್ತರು ನಿರಾಶರಾದರು. ಆದರೆ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಹೇಳಿದರು, “ನೀವು ನಿಮ್ಮ ಪುರುಷಾರ್ಥವನ್ನು ಮಾಡಿರಿ. ನನ್ನ ಆಶೀರ್ವಾದದಿಂದ ಬಂದೇ ಬರುತ್ತಾರೆ.'' ಅಗ್ಗೆ ಹುಣ್ಣಿಗೆ ಕನ್ನಡಿ ಏಕೆ? ಎಂಬಂತೆ ಸಮಯ ಬಂತು. ಜೂನ್ 4, 1982 ರಂದು ಪ್ರಧಾನ ಮಂತ್ರಿ ಇಂದಿರಾ ಗಾಂಧಿಜೀಯವರು ಈ ಕಾರ್ಯಕ್ರಮಕ್ಕೆ ಬರಲು ಒಪ್ಪಿ ಬಂದು 'ಲಾಲ್‌ಕಿಲೆಯ' ಮೈದಾನದಲ್ಲಿ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿ'ಯನ್ನು ಉದ್ಘಾಟಿಸಿ, ವಿಶಾಲ ಜಿನ ಸಮೂಹವನ್ನು ಕುರಿತು ಈ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿಯ ಉದ್ದೇಶ - ದೇಶದಲ್ಲಿ ಶಾಂತಿ ಕಾಪಾಡಲು ಹಾಗೂ ಧರ್ಮ ಜಾಗೃತಿಯನ್ನುಂಟುಮಾಡುವುದೇ ಇದರ ಉದ್ದೇಶ ಎಂದು ತಮ್ಮ ಭಾಷಣದಲ್ಲಿ ಹೇಳಿದರು. ಇದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಜೀವನದಲ್ಲಿ ಅನೇಕ ರೀತಿಯ ಘಟನೆಗಳು ನಡೆದಿವೆ. ಯಾವ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ದೀಪವು ಸ್ವತಃ ಸುಟ್ಟುಕೊಂಡು ಬೇರೆಯವರಿಗೆ ಪ್ರಕಾಶವನ್ನು ಕೊಡುವಂತೆ, ಗಂಧದ ಮರವು ವಿವಧರ - ಸರ್ಪನಿಂದ ಅನೇಕ ರೀತಿಯ ಕಚ್ಚುವುದು, ಮೈಯನ್ನು ಉಜ್ಜುವುದರಿಂದ ತನಗೆ ಪ್ರಕೃತಿದತ್ತವಾದ ಸುಗಂಧವನ್ನು ಹರಡುತ್ತದೆಯೋ ಅದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಜೀವನವನ್ನೆ ಸದಾಕಾಲವು ಪರೋಪಕಾರಕ್ಕಾಗಿ ಮುಡುಪಾಗಿಟ್ಟು ತಮ್ಮ ಜೀವನವನ್ನೆ ಸಾರ್ಥಕವನ್ನಾಗಿ ತಿಳಿದುಕೊಂಡಿದ್ದಾರೆ. ತಾವು ಸಂಸಾರ ಸಮುದ್ರದಲ್ಲಿ ಬೀಳುವ ಎಷ್ಟೋ ಜನ ಕುಮಾರಿಯರನ್ನೂ ಸೌಭಾಗ್ಯವತಿಯರನ್ನು ಮತ್ತು ವಿಧವೆಯರನ್ನು ಎತ್ತಿ ಮೋಕ್ಷ ಮಾರ್ಗವನ್ನು ತೋರಿಸಿದ್ದಾರೆ. ಹಾಗೇನೇ ಎಷ್ಟೋ ಜನ ಯುವಕ, ಪುರುಷರಿಗೆ ಜ್ಞಾನಾರ್ಜನೆ ಮಾಡಿಸಿ ತ್ಯಾಗಿಯರನ್ನಾಗಿ ಮಾಡಿಸಿದ್ದಾರೆ. ಚಾರಿತ್ರ ಚಕ್ರವರ್ತಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಾಂತಿಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರ ನಾಲ್ಕನೆ ಪಟ್ಟಾಧೀಶರಾಗಿದ್ದ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಅಜಿತಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಇದಕ್ಕೆ ಸಾಕ್ಷಿಯಾಗಿದ್ದಾರೆ. ಬಾ. ಬ್ರ. ಶ್ರೀ ರಾಜಮತಿಜೀಯವರನ್ನು ಸನ್ 1958-59 ರಲ್ಲಿ 'ರಾಜವಾರ್ತಿಕ ಗೊಮ್ಮಟಸಾರ ಕರ್ಮಕಾಂಡ' ಮೊದಲಾದ ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಅಧ್ಯಯನ ಮಾಡಿಸಿ ದೀಕ್ಷೆಗಾಗಿ ಪ್ರೇರಣೆ ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದರು. ಇದರಿಂದಾಗಿ ಒಂದು ದಿನ ದೀಕ್ಷೆಗಾಗಿ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಅವರನ್ನು ತಯಾರು ಮಾಡಿಯೇಬಿಟ್ಟರು. 1961 ರಲ್ಲಿ ರಾಜಸ್ಥಾನದ ಸೀಕರ್ ಎಂಬ ಊರಲ್ಲಿ ಆಚಾರ್ಯ ಶ್ರೀ ಶಿವಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಇವರಿಗೆ ಮುನಿ ದೀಕ್ಷೆ ಕೊಟ್ಟು 'ಅಜಿತ ಸಾಗರರನ್ನಾಗಿ' ನಾಮಕರಣ ಮಾಡಿದರು, ನೋಡಿರಿ! ತ್ಯಾಗದ ವಿಶೇಷತೆ ಎಷ್ಟರವರೆಗೆ ಇದೆ. 105 ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತತ್‌ಕ್ಷಣವೇ ನಮೋಸ್ತು ಮಾಡಿದರು. ಏಕೆಂದರೆ ಜೈನ ಧರ್ಮದಲ್ಲಿ ಜಿನ ಲಿಂಗ ಮುನಿ ವೇಶಕ್ಕೆ ಸರ್ವಾಧಿಕ ಮಹತ್ವ ಕೊಟ್ಟು, ಪೂಜ್ಯತೆಯ ಭಾವನೆಯನ್ನು ತೋರಿಸುವುದೇ 'ಭಕ್ತಿ” ಎಂದಿದ್ದಾರೆ. ಪ. ಪೂ. ಆಚಾರ್ಯ ಕಲ್ಪ ಶ್ರೀ ಶೃತಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರು ಯಾವಾಗಲೂ ಹೀಗೆ ಹೇಳುತ್ತಿದ್ದರು: “ಪಾರುಶ ಮಣಿಯು ಕಬ್ಬಿಣವನ್ನು ಬಂಗಾರವನ್ನಾಗಿ ಮಾಡುತ್ತದೆ, ಪರುಶವನ್ನಾಗಿ ಮಾಡುವುದಿಲ್ಲ. ಆದರೆ, ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಪರುಶಮಣಿ ಹಾಗೆ ಕಬ್ಬಿಣವನ್ನು ಬಂಗಾರ ಮಾಡದೆ ಪರುಶ ಮಣಿಯಾಗಿಯೇ ತಯಾರು ಮಾಡಿದರು. ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮಗಿಂತ ಬೇರೆಯವರನ್ನು ಹೆಚ್ಚೆಂದು ತಿಳಿಯುತ್ತಿದ್ದರು. ನಿಜವಾಗಿ ಹೇಳುವುದಾದರೆ, ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಶಿಷ್ಯರುಗಳ ಹಾಗೂ ಇತರ ಜನಗಳ ಏಳಿಗೆಯನ್ನು ನೋಡಿ ಸಂತೋಷ ಪಡುತ್ತಿದ್ದರು. 1987 ರಲ್ಲಿ ಮುನಿ ಶ್ರೀ ಅಜಿತಸಾಗರ ಮಹಾರಾಜರಿಗೆ ಆಚಾರ್ಯಪಟ್ಟವು ಪ್ರಾಪ್ತವಾದುದನ್ನು ಕೇಳಿ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [39% ಹಸ್ತಿನಾಪುರದಿಂದಲೇ ಅವರಿಗೆ ದೀರ್ಘ ಆಯು, ಕೀರ್ತಿ ಹಾಗೂ ಸಂಘವನ್ನು ಯೋಗ್ಯ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ನಡೆಸುವಂತಹ ಶಕ್ತಿ ಧೈರ್ಯಾದಿಗಳು, ಭಗವಂತರಿಂದ ಪ್ರಾಪ್ತವಾಗಲೆಂದು ಶುಭ ಹಾರೈಸಿದರು. ಇದೇ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಅವರ ಶಿಷ್ಯ ಆರ್ಜಿಕೆಯವರಾದ ಶ್ರೀ ಜಿನಮತಿ ಮಾತಾಜಿ, ಆದಿಮತಿ ಮಾತಾಕೀ ಮೊದಲಾದವರು, ಇವರಿಂದಲೇ ವಿದ್ಯಾಭ್ಯಾಸ ಮಾಡಿ ಇವರಿಂದಲೇ ದೀಕ್ಷಿತರಾಗಿ ಧರ್ಮ ಪ್ರಚಾರವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಿದ್ದಾರೆ. ಇವೆಲ್ಲಾ ಮಾತಾಜೀಯವರ 'ವರ'ಪ್ರಸಾದವೇ ಸರಿ.. “ಜೈನಸಾಹಿತ್ಯದಕರ' ಆರ್ಯಿಕಾ ಶ್ರೀ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಶಿಷ್ಯರನ್ನು ತಯಾರು ಮಾಡುವಲ್ಲಿ ಎಷ್ಟು ಸಫಲತೆಯನ್ನು ಹೊಂದಿದ್ದರೆ ಸಾಹಿತ್ಯ ಕ್ಷೇತ್ರದಲ್ಲೂ ಅಷ್ಟೇ ಕೀರ್ತಿಯನ್ನುಹೊಂದಿದ್ದಾರೆ. ವರ್ತಮಾನ ಕಾಲದಲ್ಲಿ ಜೈನ ಮಹಿಳೆಯರಲ್ಲಿ ಸಾಹಿತ್ಯದ ರಚನೆ ಮಾಡಿದವರಲ್ಲಿ ಶ್ರೀ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರೇ ಮೊದಲಿನವರು. ಇವರು ಹೆಚ್ಚು ಕಡಿಮೆ 150 ಕ್ಕೂ ಹೆಚ್ಚು ಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ರಚಿಸಿದ್ದಾರೆ. ಸಂಸ್ಕೃತದಲ್ಲಿ ಇರುವ ಎಷ್ಟೋಗ್ರಂಥಗಳನ್ನು ಹಿಂದೀ-ಗೆ ಅನುವಾದಮಾಡಿ ಜನಗಳಿಗೆ ತಿಳಿಯುವಂತೆ ಮಾಡಿದ್ದಾರೆ. ಈಗ ಹಿಂದುಸ್ತಾನದಲ್ಲಿ (ಭಾರತ) ಎಲ್ಲಾ ಕಡೆಯಲ್ಲೂ ಪೂಜೆಗೆ ಯೋಗ್ಯವಾದ ಇಂದ್ರಧ್ವಜ, ಕಲ್ಪದ್ರುಮ ವಿಧಾನ, ಸರ್ವತೋಭದ್ರ ಮಹಾವಿಧಾನ, ತ್ರಿಲೋಕವಿಧಾನಹಾಗೂಪಂಚಮೇರುವಿಧಾನವನ್ನುಪೂ.ಮಾತಾಜೀಯವರೇ ಬರೆದಿರುತ್ತಾರೆ. - ಈ ವಿಧಾನಗಳನ್ನು ಹೇಳಿ-ಕೇಳಿ ಭಕ್ತಜನರು ಭಕ್ತಿಯಲ್ಲಿಯೇ ಮುಳುಗಿರುತ್ತಾರೆ, ಮತ್ತು ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಪ್ರಾಣಿಯು ಒಂದು ಕ್ಷಣವಾದರೂ ತನ್ನಆತನಲ್ಲಿ ತಲ್ಲೀನತೆಯನ್ನು ಹೊಂದುವುದರಲ್ಲಿ ಸಂದೇಹವಿಲ್ಲ ಆತ್ಮಾನುಭವವನ್ನು ಅನುಭವಿಸುವ ಅಪೇಕ್ಷೆಯುಳ್ಳಮೋಕ್ಷಾರ್ಥಿಗಳು ಯಾವುದೋ ಒಂದು ವಿಧಾನದ ಪುಸ್ತಕವನ್ನುಓದಿದರೂಕೂಡನಾಲ್ಕುಅನುಯೋಗಗಳಜ್ಞಾನವನ್ನುಪ್ರಾಪ್ತಿಮಾಡಿಕೊಳ್ಳಬಹುದು, ಜಂಬೂದ್ವೀಪದ ನಿರ್ಮಾಣ ಹಾಗು ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿಯ ವಿಹಾರ' ಸನ್ 1982 ಜೂನ್ 4 ರಂದು ಪ. ಪೂ. ಆರ್ಯಿಕಾ ಮಾತಾಜೀಯವರ ಪ್ರೇರಣೆಯಂತೆ ಪ್ರಧಾನ ಮಂತ್ರಿ ಶ್ರೀಮತಿ ಇಂದಿರಾ ಗಾಂಧಿಯವರು ಕೆಂಪು ಕೋಟೆಯ ಮೈದಾನದಲ್ಲಿ ಜಂಬೂದ್ವೀಪದ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿಯನ್ನು ಉದ್ಘಾಟಿಸಿದರು. ಈ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿಯು ಭಾರತಾದ್ಯಂತ 1045 ದಿನಗಳವರೆಗೆ ಸಂಚರಿಸಿ, ಭಗವಾನ್ ಮಹಾವೀರರ ಸಿದ್ಧಾಂತಗಳನ್ನು ಪ್ರಚಾರ-ಪ್ರಸಾರ ಮಾಡಿ ಅಂತ್ಯದಲ್ಲಿ 1985 ಏಪ್ರಿಲ್ 28 ರಂದು ಹಸ್ತಿನಾಪುರವನ್ನು ತಲುಪಿತು. ಆಗ ರಕ್ಷಣಾ ಮಂತ್ರಿಯಾಗಿದ್ದ ಶ್ರೀ ಪಿ.ವಿ. ನರಸಿಂಹರಾವ್ ಹಾಗೂ ಸಂಸದ್ ಸದಸ್ಯ ಶ್ರೀ ಜೆ.ಕೆ. ಜೈನ್ ಇವರು ಇಲ್ಲಿಯೆ ಜ್ಞಾನಜೋತಿ''ಯ ಸ್ಥಾಪನೆಯನ್ನು ಮಾಡಿದರು. ಈ ಜ್ಞಾನಜ್ಯೋತಿಯು ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಪ್ರಾಣಿಗೂ ಹಗಲು-ರಾತ್ರಿ ಎನ್ನದೆ ಜ್ಞಾನ ಸಂದೇಶವನ್ನು ಕೊಡುತ್ತಿರುತ್ತದೆ. ಇದೇ ಸಂದರ್ಭದಲ್ಲಿ ಜಂಬೂದ್ವೀಪದಲ್ಲಿ ವಿರಾಜಮಾನವಾದ ಎಲ್ಲಾ ಜಿನ ಬಿಂಬಗಳ ಪಂಚ ಕಲ್ಯಾಣ ಪ್ರಾಣ ಪ್ರತಿಷ್ಠೆಯು 28 ಏಪ್ರಿಲ್‌ರಿಂದ 2 ಮೇ 1985 ರ ವರೆಗೆ ನಡೆಯಿತು. ಈ ಭೂಮಿಯಲ್ಲಿಯೆ ರಾಜ ಶ್ರೇಯಾಂಶನು ಭಗವಾನ್ ಆದಿನಾಥರಿಗೆ ಮೊಟ್ಟ ಮೊದಲು ಇಷ್ಟು ರಸದ ಆಹಾರದಾನವನ್ನು ಮಾಡಿದನು. ಇಲ್ಲಿಯ ದೃಶ್ಯವನ್ನೆ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಸುಮೇರು ಪರ್ವತದ ರೂಪದಲ್ಲಿ ಸ್ವಲ್ಪವನ್ನು ಶ್ರವಣಬೆಳಗೊಳದಲ್ಲಿ ಕಂಡರು. , ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರ ದಿನಚರ್ಯೆ ಕರ್ಮಭೂಮಿಯಲ್ಲಿ ಹಗಲು ಮತ್ತು ರಾತ್ರಿಗಳ ವಿಭಜನೆಯು ಸೂರ್ಯ ಚಂದ್ರರ ಸಂಕೇತದಲ್ಲಿ ಆಗುತ್ತದೆ. ಏಕೆಂದರೆ ಪ್ರಕೃತಿಯ ನಿಯಮವೇ ಹೀಗಿದೆ. ಮನುಷ್ಯನು ಬೆಳಿಗ್ಗೆಯಿಂದ ಸಾಯಂಕಾಲದವರೆಗೆ ಶ್ರಮಪಟ್ಟು ದುಡಿದು ಸುಸ್ತಾಗಿಹೋಗುತ್ತಾನೆ. ರಾತ್ರಿ ಆದ ಕೂಡಲೆ ತಿಂದು ಉಂಡು, ಮಲಗಿ ನಿದ್ರಿಸುತ್ತಾನೆ. ಮಾರನೆ ದಿನವೂ ಇದೇ ರೀತಿ, ಆಯುಷ್ಯ ಪೂರ್ಣವಾದ ಮೇಲೆ ಆತ್ಮವು ಈ ಶರೀರವನ್ನು ತ್ಯಜಿಸಿ, ಕರ್ಮಕ್ಕೆ ಅನುಸಾರ ಬೇರೊಂದು ಶರೀರದೊಳಗೆ ಸೇರುತ್ತದೆ. ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಆತ್ಯವು ತನ್ನ ಪುರುಷಾರ್ಥದಿಂದ ತನ್ನ ಜೀವನವನ್ನು ಮಹತ್ವಪೂರ್ಣವಾಗಿ ಮಾಡಲು ಸಾಧ್ಯವಾಗುತ್ತದೆ. ಪ್ರತಿ ಕ್ಷಣದಲ್ಲಿ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಶುಭ ಚಿಂತನೆಯಲ್ಲೇ ಕಾಲ ಕಳೆಯುತ್ತಾರೆ. ಇವರು 8-9 ನೇ ವರ್ಷ ವಯಸ್ಸಿನಲ್ಲೇ ಮನೆಯನ್ನು ತ್ಯಾಗ ಮಾಡಲು ಇಚ್ಛೆಪಟ್ಟಿದ್ದರು. - ಆರ್ಯಿಕಾ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು 1952 ರಂದು ಗೃಹತ್ಯಾಗ ಮಾಡಿ ಇಂದಿಗೆ 40 ವರ್ಷಗಳು ಸಂದವು. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಪ್ರತಿ ದಿನ ಬೆಳಿಗ್ಗೆ 4 ಗಂಟೆಗೆ ಎದ್ದು ಸಾಮಾಯಿಕ, ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯ ಮತ್ತು ಪ್ರತಿಕ್ರಮಣವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. ಬೆಳಿಗ್ಗೆ 8 ಗಂಟೆಯಿಂದ 9 ಗಂಟೆಯವರೆಗೆ ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಎಲ್ಲಾ ಶಿಷ್ಯರುಗಳಿಗೆ ಸಮಯಸಾರವನ್ನು ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯ ಮಾಡಿಸುತ್ತಾರೆ. ಪರಸ್ಥಳದಿಂದ ಬಂದಿರುವ ಯಾತ್ರಿಕರಿಗೆ ಧರ್ಮೋಪದೇಶವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. 9-15 ರಿಂದ 5 ಗಂಟೆಯವರೆಗೆ ಪ್ರತಿಕ್ರಮಣ ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. ಪುನಃ 5 ರಿಂದ ಶಿಷ್ಯರೊಂದಿಗೆ ದೇವದರ್ಶನ ಹಾಗೂ ಜಂಬದೀಪದ ಪ್ರದಕ್ಷಿಣೆ ಹಾಕುತ್ತಾರೆ. ಒಂದೊಂದು ಸಲ ಸುಮೇರು ಪರ್ವತದ ಮೇಲೆ ಹೋಗಿ ದರ್ಶನ ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. 3-45 ರಿಂದ 6-45 Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૭૬] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ರ ವರೆಗೆ ಸಾಯಂಕಾಲದ ಸಾಮಾಯಿಕವನ್ನು ಮಾಡುತ್ತಾರೆ. ಪುನಃ 7 ಗಂಟೆಯಿಂದ ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯದಲ್ಲಿ ಮಗ್ನರಾಗುತ್ತಾರೆ. ಅನಂತರ ತನ್ನ ಆತನ ಬಗ್ಗೆ ಚಿಂತಿಸುತ್ತಾ 9 ಗಂಟೆಗೆ ವಿಶ್ರಾಂತಿಯನ್ನು ಪಡೆಯುತ್ತಾರೆ. ಪೂ. ಮಾತಾಜೀಯವರು ಸಾಧುವರ್ಗಗಳಿಗೆ ಅಧ್ಯಯನ ಮಾಡಿಸುವುದು ತಮ್ಮ ಆದ್ಯ ಕರ್ತವ್ಯವೆಂದು ತಿಳಿದಿದ್ದಾರೆ. ಈ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ಪೂ. 105 ಗಣಿನೀ ಆರ್ಯಿಕಾ ರತ್ನ ಶ್ರೀ ಜ್ಞಾನಮತಿ ಮಾತಾಜೀಯವರು ತಮ್ಮ ಜೀವನವನ್ನು ತನ್ನಾತ್ಮ ಕಲ್ಯಾಣ ಹಾಗೂ ಲೋಕ ಕಲ್ಯಾಣಕ್ಕಾಗಿ ಮುಡುಪಾಗಿಟ್ಟಿದ್ದಾರೆ. ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜೀಯವರು ಹಸ್ತಿನಾಪುರಕ್ಕೆ ಆಗಮಿಸಿ, ಅಲ್ಲಿಯ ನಿರ್ಜನ ವನ ಪ್ರದೇಶವನ್ನು ಅಮರಾವತಿಯ ನಗರವನ್ನಾಗಿ ಮಾಡಿ, ಎಷ್ಟೋ ಕಾಲದವರೆಗೆ ಉಳಿಯುವಂತೆ ಧರ್ಮ ಕಾರ್ಯವನ್ನು ಮಾಡಿ ಸಮಾಜಕ್ಕೆ ಅಪಾರವಾದ ಕೊಡುಗೆಯನ್ನು ಕೊಟ್ಟಿದ್ದಾರೆ. ಇಂತಹ ಕಾರ್ಯವನ್ನು ಮಾಡಿದ ಶ್ರೀ ಮಾತಾಜಿಯವರ ಚರಣಕ್ಕೆ ವಂದನೆ ಸಲ್ಲಿಸಿ ಅವರ ಆಶೀರ್ವಾದವನ್ನು ಪಡೆಯೋಣ. “ ૦ ૦૭. ૦૭. ૦૭” ભૂમિકા ગુજરાતનું પાટનગર છે અમદાવાદ મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર જૈનીને ગઢ. એક વખતે શહેરમાં બેચાર દિગંબરો વસતા હતા. પણ હમણાં દિગંબરોની પણ ખારસી વસ્તી થઈ ગઈ છે. આજે ૪૦-૫૦ નાનાં મોટાં જૈન મંદિરો ચૈતાલયોનાં દર્શન થઈ શકે છે. આ દિગંબરોમાં ધાર્મિક ચેતના જાગે તે દૃષ્ટિએ એક શૈક્ષણિક શિબિરનું આયોજન કરાયેલું ને તેમાં હજાર જેટલા જિજ્ઞાસુઓ એ ભાગ લીધેલો. આ શિબિરમાં જે ધર્મ પિયૂષ પીધેલાં તે પરથી ઘણાને આ શિબિરનાં પ્રરેક માતાજીને પરિચય પ્રાપ્ત કરવાનો ભાવ જાગેલો ને તે અંગે જે કંઈ થોડું સાહિત્ય હતું તે આપવામાં આવ્યું ને કેટલાંકને હસ્તિનાપુર મોકલી જાત અનુભવ લેવા પ્રેરિત કર્યા. વ્યાખ્યાન આજે માહુ અહોભાગ્ય છે કે સાંપ્રતની શારદા જેવી પૂજ્ય જ્ઞાનમતી માતાના જીવનની પ્રાથમિક દશાની થોડી આશ્ચર્ય કારક અને ગંભીરવાતે તમારી સૌની સમક્ષ રજૂ કરવાની મને તક મળી છે, મને આશા છે અને વિશ્વાસ છે કે આપ મને શાંતિથી સાંભળશે. ઉત્તરપ્રદેશમાં બારાબંકી નામના શહેરની પાસે ટિકેતનગર નામના કસબામાં છોટેલાલ જૈન નિવાસ કરતા હતા. તે ગોયલ ગોત્રી અને અંગ્રવાલ જાતિના એક વેપારી હતા. તેમની પત્નીનું નામ મોહિની દેવી હતું. ૧૯૩૪ની શરદ પૂર્ણિમાના દિવસે આ દંપતીને ત્યાં એક બાળકીને જન્મ થયો. આ તેમનું પ્રથમ સંતાન હતું તેથી છોટાલાલની માતાની ઈચ્છા પૂરી કરવા બાળકનો જન્મ ઉત્સવ કરાયો. ગોળ ધાણા વહેંચાયા, થાળીઓ વગડાવી તથા યથાશકિત દાન પુણ્ય કરાયું. બાળકીનું નામ મૈના રાખ્યું. મૈના ધીમે ધીમે મોટી થતી ગઈ પણ તેમાં તેની ઉંમર કરતાં સમજ વધુ મોટી થતી હોય તેમ સર્વને લાગ્યું નવજાતની માતા જિનશ્વરની ભગત હતી. અને પાકી શ્રધ્ધાળુ હતી. તેથી મંદિર જવું પૂજા પાઠ કરવા માળા ફેરવવી અને શાસવાધ્યાય કરવાનું ચૂકતી ન હતી. નાની બાળકી પણ આંગળી પકડી તેની સાથે મંદિરે જતી અને માની બધી ક્રિયાઓ ધ્યાનથી જોતી હતી. કુંદકુંદ અને ગોપીનાથની માતાઓએ પોતાના લાડલાઓને અધ્યાત્મના હાલરડાં સંભળાવેલાં તેમ મોહિની દેવીએ પણ એવાં ધર્મપ્રરેક ગીતો પારણે ઝૂલતી મૈનાને સંભળાવેલાં. અભિમન્યુએ ગર્ભમાં વિદ્યા શીખી લીધી હતી તો પછી મૈના આ ગીતોને ભાવ કેમ ગ્રહણ ના કરે? એ ભકિતભર્યા હાલરડાંએ મૈનાના મનને ધર્મપિયૂષના ઘૂંટડા પીવરાવ્યા હતા. આ મૈના એક દિવસ ગામમાં અકલંક નાટક જોવા ગઈ અને અકલંકની જેમ બ્રહ્મચારી થવાના ભાવ લઇને આવી, અને મંદિરમાં ભગવાન સમક્ષ આજીવન બ્રહ્મચર્ય પાળવાની પોતાની ભાવના વ્યક્ત કરી દીધી. દર્શનકથા તથા શીલકથા મૈનાએ વાંચી લીધી હતી તેથી તેને બળ મળી ગયેલું. મોહિની દેવીએ મતાના પિયરમાંથી “પદ્મનંદીપંચવિંશતિકા' નામનું શાસ દહેજમાં ઇ ભેટવરૂપે મળેલું તે પણ મૈનાએ વાંચી લીધું હતું. તેણે પણ આમાં ટેકો પૂર્યો હતો. માત્ર અગિયાર વર્ષની ઉંમરે દુર્ધર સંયમના ભાવ જાગવા પૂર્વભવના પુણ્યનો પ્રતાપ સમજવો. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [૩૭૭ મૈના રહી દીકરી, અને સૌથી મોટી તેથી માના બધાં જ, ઘરનાં, રસોડાનાં, ધર્મનાં, વ્યવહારનાં, અને સમાજના કામમાં તેની યથાશકિત અને મતિ મુજબ તે મદદ કરતી હતી. પણ તેનું ચિત્ત આ કાર્યોમાં ચોટતું ન હતું. તે તો ભણીગણી મોટી સાધ્વી બની જવાની ચિંતા કર્યા જ કરતી હતી. નાના ભાઈ બહેનોને ઉઠાડવાં, ઉઘાડવાં, નવરાવવાં, સાફસૂફ રાખવાં, કપડાં પહેરાવવાં, ખવરાવવાં, દૂધ પાવા વગેરે કામો તે શરીરથી કરતી હતી તે વખતે પણ રત્નકરંડ શ્રાવકાચારના શ્લોકો યાદ કરી લેતી હતી. જે કાંઈ શીખવા જેવું હોય તે જાણકારને પૂછી લઈ તેને શીખવાનો અને મનન કરવાનો પ્રછન્ન વેપાર મૈનાને હરદમ અને નિરંતર ચાલતો હતે “છહતાલા” તે સફાઈ રીતે જીભ ઉપર રમવા લાગી હતી. આમ છોટાલાલનું બીજ અંકુર રૂપે પ્રગટ થઈ આજે એક લસલસતા છોડ રૂપે પલ્લવિત થઈ રહેલ છે. કહેવાય છે કે ભાગ્યશાળી શિષ્યને ગુરુ શોધતા ફરે છે તે અનુભવવાણી મુજબ મૈનાને પ્રથમવાર આચાર્યરત્ન દેશભૂષણનાં દર્શન થયાં. મૈનાનું મન આનંદ-આનંદ બની ગયું. કયારે દિગંબર સંતનું દર્શન કરી પાવન બનું તેની સતત વિચારણા મૈનાના શરીરમાં પ્રસરવા લાગી. મૈના વૈરાગ્યના ઝરણામાં નહાઈ ચૂકી હતી તેના દિલમાં તો જો સંસારમેં સુખ હોતા તો તીર્થંકર ક્યો ત્યારે કાહકો શિવ સાધન કરતે સંજમો અનુરાગે.' ની ધૂન ચાલી રહી હતી. હિંમત કરી માને પૂછયું “મા, મહારાજનાં દર્શને જ્યારે જઈશું"? મા બેટીની ઉતાવળ સમજી શકી હતી. તેણે મીઠા શબ્દોમાં કહયું “આ વાસણ કુસણનું કામ પતે પછી જઇશું” ત્રણ વાગે મહારાજનું પ્રવચન પણ સાંભળવા મળશે. મૈના પુલકિત બની અને મિનિટને વર્ષ ગણવા લાગી પૂરા અઢીના ટકોરા ઘડિયાળમાં પડયા એટલે મોહિની દેવી અર્થને સામાન લઈને પોતાની લાડકી મૈનાને લઈ મંદિરે ગયાં ત્યાં અર્ધ ચઢાવી આચાર્યશ્રીના દર્શન કર્યા મૈનાએ પણ સમાતાનું અનુકરણ કર્યું. બીજાં થોડાં ભાઈ બહેન આજુ બાજુ બેઠેલાં હતાં છતાં મૈનાએ હિંમત કરી પૂછયું “મહારાજ હું છોકરી છું, સ્ત્રી પર્યાયમાં છું, મારા આત્માનો ઉદ્ધાર હું ન કરી શકું?" આટલી નાની છોકરીનો ખૂબ ઉપયોગ અને ટોચદાર સીધો પ્રશ્ન સાંભળી આચાયૅશ્રીજી મૈનાની સામે જોઈ રહ્યા. ફરી મૈનાએ પ્રશ્ન પૂછયો મહારાજ, ભગવાન ઋષભદેવની પુત્રીઓ બ્રાહ્મી અને સુંદરી નપુંસક તેથી તમલી શાદી ન કરેલી હતી? આચાર્યશ્રી ફરી આવો પ્રશ્ન સાંભળી આશ્ચર્ય ચકિત નજરે મૈનાને જોવા લાગ્યા. મૈનાને થોડા સમય પહેલાં તેના એક નજીકના સગાએ સમજાવેલું કે સ્ત્રી સાધુ બની શકે નહીં. તેને તે પરણી જવું જોઇએ. બ્રાહ્મી વગેરે તે નપુંસક હતી તેથી પરણી શકેલાં નહીં વગેરે આ જૂની વાતનો પડઘો મૈનાના પ્રશ્નમાં હતો. મહારાજ બોલ્યા જો બેટી, બ્રાહ્મી વગેરે નપુંસક ન હતાં પરંતુ જન્મ મરણના ફેરા ટાળવાથી સાચું સુખ મળે છે તે પાયાની વાત તેમણે તેમના પિતા અને પ્રથમ તીર્થંકર દેવથી સાંભળેલી તેથી બંને એ લગ્ન કર્યો નહીં અને ભવતારિણી જિનેશ્વરી દીક્ષા લીધેલી. દરેક જીવ શિવ બની શકે છે. સાપ, દેડ, ગાય, સુવર વગેરે કોઈપણ પ્રાણી પુરૂષાર્થ કરી ભગવાન થઈ શકે છે. તું ધારે અને યત્ન કરે તે જરૂરથી ઈશ્વર-નિરંજન પરમેશ્વર બની શકે છે આવાં સ્પષ્ટ અને આશાવાચક વાકયો સાંભળી મૈનાના મનમાં આનંદને દરિયો ઉછળી ઊઠયો. અને મનમાં નિર્ણય કરી લીધો કે મારે ગમે તે ઉપાય મહારાજની સાજે રહી આત્મકલ્યાણના માર્ગે ચાલવું. જ્યારે આચાર્યશ્રી ટિકતનગરથી વિહાર કરવા લાગ્યા ત્યારે મૈનાએ મહારાજની સાથે જવા હઠ પકડી પણ મોહી માતાપિતાએ સંમતિ આપી નહીં. તેથી મન મારીને તે બિચારી ઘરમાં બેસી રહી. થોડા દિવસ પછી મૈનાએ જાણ્યું કે આચાર્યશ્રીજીએ બારાબંકીમાં ચાતુર્માસ કર્યું છે એટલે ત્યાં જઈ તેમની પાસે રહેવાની રટ લગાવી દીધી અને માને તથા પિતાજીને અવારનવાર બારાબંકી લઈ જવા, યા મોકલવા કહેતી રહી. પણ માબાપને તેને છોડવાનો જીવ ચાલ્યો નહીં. આ છે સંસારની મોહમાયા. દરરોજ વિચાર કરે છે જ્યારે બારાબંકી પહોચી જાઉ. કોઈ ઉપાય જડતો નથી. નિરાશા પૂર્ણ વ્યાપી ગઈ છે. ત્યાં એક દિવસ નાના ભાઈ સુભાષને મૈના કહેવા લાગી. બોલ, સુભાષ તુમારો સાચો ભાઈ છે? સુભાષે પૂછયું કે તેમાં તમોને કંઈ શંકા છે? તો મેના કહે છે કે જો તું મારો ખરોભાઈ હોય તે મારું એક કામ કરને મને વચન આપ કે હું કહીશ તેમનું કરીશ. ભેળ સુભાષ કંઈ સમજ્યો નહીં છતાં ભોળપણામાં વચન આપી બોલ્યો જરૂર તમારું કામ કરીશ બોલો શું કામ છે? મેનાને આનંદ થયો અને આશા બંધાઈ અને હિંમત ભેગી કરી બોલી: મારે મહારાજનાં દર્શન કરવા બારાબંકી જવું છે. તું મારી સાથે ચાલ. દર્શન કરવા બારાબંકી જવા નીકળ્યાં ત્યાં માતાએ પૂછયું કયાં ઊપડયાં! વાતો કરો મૈનાએ સ્પષ્ટતા કરી સુભાષ સાથે છે તેથી મહારાજનાં દર્શન કરી પાછા આવીશું. તેવું કહ્યું એટલે માએ બારાબંકીમાં. તેમના સગાનું નામ ઠામ પણ તેને આખ્યા. બન્ને સાધનમાં બેસી બારાબંકી પહોચી ગયાં ત્યાં મહારાજનાં દર્શન કર્યા બેચાર કલાક નીકળી ગયા એટલે સુભાષે કહ્યું મોટીબેન ચાલો પછી બસ નહીં મળે ને રાત પડી Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૭૮] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला જશે. મેનાએ તો પહેલાથી યોજના મનમાં વિચારેલી તેમ તરત જ કહ્યું કે હું તો નહીં આવું તારે જવું હોય તો જા. થોડા દિવસ મહારાજનાં પ્રવચન સાંભળીશ. પછી તું આવીને મને લઈ જજે. સુભાષ તે રડી પડયો અને બહેન આવવાની નથી તેમ લાગતાં બસમાં ટિકેટનગર પહોચી ગયો. મૈના તેમના સગાને ત્યાં ગઈ ને ત્યાં અલગ રૂમમાં ધર્મ ધ્યાન કરવા લાગી. મહારાજ ને વંદે છે ને પ્રવચનાહિ સાંભળે છે અને કોઈ ન હોય ત્યારે મહારાજને પોતાનું હિત કેમ કરવું તે પૂછયા કરે છે. જે તેને યાદ કર્યું હતું તે મહારાજને બતાવે છે. મહારાજે કેટલાંક પ્રશ્ન પૂછયા તે તે બધાના ખરા જવાબ સાંભળી આચાર્યના મનમાં નક્કી થઈ ગયું કે કોઈ ભવ્ય જીવ છે, જિજ્ઞાસુ છે, અને મુમુક્ષુ છે તેથી તેને આશ્વાસન મળે તેવા મીઠા શબ્દોમાં તેને સમજાવતા હતા. તેમનાના મનની ઉદાસીનતાની ગાંઠ મજબૂત બનતી જતી હતી. | મના ઘેર ગઈ નહીંને સુભાષની હિંમત ચાલી નહિ – કે મોટી બહેન તેના જવાથી ને કહેવાથી ઘેર આવશે. એટલે તે પણ ગયો નહિ આમ થોડા દિવસ પસાર થઈ ગયા ત્યાં આચાર્યનો કેશલોચ છે તેમ જાણ્યું એટલે મોહની દેવી કેશલોચ જોવા અને મેનાને ઘેર લાવવા બારાબંકી પહોચી ગયાં. પાટ ઉપર આચાર્યશ્રી બેસી કેશલોન્ચ કરી રહ્યા છે સામે પહેલી હારમાં સ્ત્રી વિભાગમાં મોહિની દેવી અને મૈના બેઠાં છે. ત્યાં મેનાએ પોતાને કેશલોચ કરવો શરૂ કર્યો. બુમાબૂમ થઈ ગઈ રોકો રોકોના અવાજ નીકળ્યા પોલીસની મદદની વાત પણ ઊઠી ત્યાં મોહિની દેવીના એક સગાએ હિંમત કરી મનાને હાથ પકડી લીધા ને કેશલોચ થતો રોક્યા. મહારાજનો કેશલોચ પૂરો થયો પણ મેનાએ મંદિરમાં જઈ ભગવાન સમક્ષ નિયમ લીધો કેમને પ્રતાદિ નહીં મળે ત્યાં સુધી ચારે આહારને મારે ત્યાગ છે. મોહિની દેવી અને બીજાઓએ ઘણું સમજાવી પણને સંમત ન થઈ તેથી સારું કહી મૈનાને તેના સગાને ઘેર લઈ ગયાં. રાત્રે મૈનાએ તેની માતાને સમજાવી લખાવી લીધું કે “મહારાજ આપ મારી દીકરી મૈનાને બ્રહ્મચર્ય પ્રશ્ન આખી તેને સાચા માર્ગે ચઢાવે તેમાં મારી સંમંતિ છે.' બીજા દિવસે બપોરના સામાયિક બાદ મૈના પોતાની માતાને લઈ આચાર્ય પાસે જઈને પેલો લખેલો કાગળ મહારાજ સમક્ષ રખાવ્યો. મહારાજે વાં, વિચાર્યું અને પછી મેનાને બ્રહ્મચર્ય વ્રત આપ્યું અને પછીથી આશીર્વાદ આપ્યા ને આગળ વધવા હિંમતથી કામ લેવાની શીખ આપી અને એજ ઉત્તમ કાર્ય છે તેમ ઠસાવ્યું. અનેક તીર્થંકરોનો જન્મ દિવસ તેમને તપ કલ્યાણક દિન બન્યો છે તેવો યોગ અહીં બને છે. કારણકે મૈના જ્યારે દ્વિજ બની તે દિવસ પણ શરદં પૂર્ણિમાનો હતો તે સુયોગને જોતાં મૈનાએ તે દિવસથી દિનમાં માત્ર એકવાર ભોજન કરવાને યમ ધારણ કર્યો. આચાર્યશ્રી વિહાર કરતા કરતા શ્રી મહાવીરજી ક્ષેત્ર પર આવ્યા મૈના પણ સાથે હતી ને વચ્ચે વચ્ચે મને દીક્ષા આપો ની જલદ ઉઘરાણી કર્યા કરતી હતી તેથી આચાર્યશ્રીજી એ તેને મહાવીરજી ક્ષેત્ર પર મુલ્લિકા દીક્ષા આપી. તેની અપૂર્વ વીરતા અને બહાદુરી જોઈ તેનું નામ : “અવીરમતી” જાહેર કર્યું. હવે મૈના મૈના નથી. મૈ..., ના, એટલે હું નથી, હું શરીર નથી. મૈના તે શરીરનું નામ છે તેમ તે વિચાર્યા કરે છે. અનામી આત્માને-પરમાત્મા બનાવવાના પથમાં હવે વીરમતિએ પ્રયાણ શરૂ કર્યું. ભણવું, ભણાવવું એજ કામ અને ગુરૂની આજ્ઞા મુજબ ધર્મધ્યાન, વ્રત પાલન આદિ કર્યા કરવાં તેજ તેમની નિયમિત ચર્યા બની ગઈ. વચ્ચે સમાચાર મળ્યા, ચારિત્ર ચક્રવર્તી આચાર્ય શાંતિસાગરજીએ સંલેખના શરૂ કરી છે. આ અપૂર્વ અવસર જોવા અને માણવાને ભાવ વીરમતિને થયો. આચાર્યની સંમતિ મખી એટલે શુલ્લિકા વિશાલમતીને સાથે લઈ દક્ષિણની રેલયાત્રા શરૂ કરીને સોલાપુર પાસે હસવડ ગામે વર્ષાયોગ શરૂકર્યો. ત્યાં હું પ્રભાવતી તેમની પ્રથમ શિલ્યા બની જે હાલમાં “જિનમતી" માતાજી રૂપે પોતાની અને પોતાના શિક્ષા ગુરૂની ગરિમા અને જ્ઞાનચારિત્રાચરણ વડે દીપાવી રહી છે. વાવડ સાંપડયા કે તરતજ બન્ને યુલ્લિકાઓ કુંથલગિરિ પહોચી ગઈ. વરસાદની ભારે હેલી અને માનવોની અસીમ ભીડ જોઈ. અનેક દીક્ષા પ્રતિકૂળતાઓ હોવા છતાં બન્ને જણાંએ કુંથલગિરિમાં પડાવ નાંખ્યો. વિશાલમતિને સાથે લઈ આચાર્ય શ્રીનાં દર્શન કરી આર્થિકા દિશાની વિનંતી કરી પણ હવે હું દીક્ષા નથી આપવાનો. નવા આચાર્ય વરસાગર પાસે દીક્ષા લેજેની સલાહ વીરમતીએ મન મોજીને માન્ય રાખી. આચાર્ય શ્રીને અપૂર્વ સંખના પૂર્વક સ્વર્ગવાસ થઈ જતાં વીરમતી મુંબઈ થઈ જયપુર આવીને ત્યાં વીરસાગર આચાર્યશ્રી પાસે ૧૯૫૬ માં આદેશ અને આજ્ઞા મુજબની શરતનું પાલન શરૂ કરીને આર્થિકા દીક્ષા ગ્રહણ કરી અને “જ્ઞાનમતી” નામ પામીને ધન્ય બની આપને લાંબો સમય લીધો માટે ક્ષમા કરશો. પૂ. આચાર્ય વરસાગરજીનું સમાધિમરણ થતાં તેમના પદે મુનિશ્રી શિવસાગરજી આચાર્ય બન્યા. પુણ્યાશાલી જીવો માટે કહેવત છે કે “ન માંગે દોડતું આવે" તેમ નિવાઈના બ્ર. શેઠ હીરાલાલે પૂરા સંધને ગિરનાર ક્ષેત્રની યાત્રા કરાવવાનો પ્રસ્તાવ મૂક્યો. ને સર્વાનુમતે મંજૂર થયો. યાત્રા શરૂ થઈ. જ્ઞાનમતી સૌથી નાનાં સાધુ રૂપે પણ એક યાત્રી છે. નાની ઉંમર, દુર્બળની શરીર, ચાલવાની ટેવ નહીં છતાં મનોબળની મદદથી જ્ઞાનમતી પણ સૌની સાથે ગિરનાર પહોચી ગયાં પાલીતાણા ક્ષેત્રનાં પણ સંઘે દર્શન કર્યા. સોનગઢ ભાવનગર ઘોઘા પણ વચ્ચે આવરી લેવાયાં અમદાવાદ તરફ જવું એવો વિચાર ઉદ્યો. કેટલાક સાધુ તૈયાર પણ થઈ ગયો. કેટલાકે તો ગમે તેમ થાય અમદાવાદ તે જવું ને જવું જ તેમ ખરું કરી લીધું પણ સંઘપતિ તો સંધને ફરીથી રાજસ્થાનમાં જ લઈ જવા મથતા હતા. ને છેવટે તેમનો વિજય થયો. છતાં બે સાધુઓને અમદાવાદ જવાની માન પ્રતિજ્ઞા સચવાય તેવી વ્યવસ્થા પણ કરવામાં આવી. તે બન્ને સાધુ અમદાવાદ જઈ ફરી સંઘમાં આવી ગયા સંઘ સંઘપતિની ઇચ્છા મુજબ વાવર વગેરે થઈ અજમેર Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [૩૭૨ આવી પહો, ત્યાં શેઠ શ્રી ભાગચંદ સોની વગેરેએ શહેરમાં ધર્મની પ્રભાવના સારૂં અનેકવિધ કાર્યક્રમ યોજ્યા. પછી ચાતુર્માસ નિમિત્તે સંઘ જયપુર આવી ગયો. એક દિવસ મોટા માતાજીએ આચાર્યશ્રીને વિનંતી કરી કે “જ્ઞાનમતી”ને વ્યાકરણ ભણવું છે. તે કોઈ વ્યવસ્થા કરે. આચાર્યવયોવૃદ્ધ પંડિત ઇન્દ્રલાલ શાસ્ત્રીને તે કામ સોપ્યું પણ જ્ઞાનમતીની ભસ્મકવ્યાધિ જેવી ભૂખને તેઓ સંતુષ્ટ કરી શક્યા નહીં એટલે એક અનુભવી વૈયાકરણી શ્રીધમોદર દાસજીને “કા તંત્ર” ભાણાવવાનું કામ સોપાયું ને બે વર્ષને કોર્સ માતાજીએ પોતાની તીક્ષણ બુદ્ધિથી અને અજબ યાદશક્તિ ના બળે બે માસમાં પૂર્ણ કરી પોતાની ગજબની અનિવિઘા ને સૌને પરિચય કરાવ્યો. ૫. ખૂબચંદજી, ૫ લાલારામે પણ માતાજીને થોડું થોડું અધ્યયન કરાવેલું ને અનુભવ્યું કેઆત વ્યત્યનમતિજ છે. શ્ચરણ કે પાછળથી માતાજીએ “કા તંત્ર" નો હિંદી અનુવાદ કરી પ્રકાશિત કરી તમામ નવાવિધાર્થી ઓને જરૂરી પાઠય પુસ્તકની ગરજ સંતોષી છે. - આચાર્યશ્રીની સંમતિ મેળવી જ્ઞાનમતી માતાજીએ. સમ્મદશિખરજીની યાત્રા કરવાનું આયોજન કર્યું એક શેઠને આર્થિક સહારો પણ સાંપડયો. પણ ઉપડવાનું સો ટકા નિશ્ચિત થતાં શેઠ પાણીમાં બેસી ગયા. છતાં દૃઢ મનવાળી માતાજીએ પોતાની યાત્રાનો વિચાર બદલ્યો નહીં. બ્ર. સુનંદચંદ્ર તથા કુ. મનોમતી વગેરેની સહાયથી જ્ઞાનમતીના ખૂબ નાના અને નવા સંઘે સમ્મદ શિખરજીની યાત્રા શરૂ કરી. તે વખતે સંઘના સઘળા લોકોને પ્રતિજ્ઞા લેવડાવી કે વિહારમાં કોઈથી પૈસાની માગણી કરવી નહીં અને કોઈ આપે તો પણ લેવા નહીં આવી દૃઢ પ્રતિજ્ઞા પાળીને સંધે પૂરા પાંચ વર્ષમાં ઘણી લાંબી યાત્રા કરીને ચાર ચાતુર્માસ વિધવિધ જગ્યાઓએ વ્યતીત કર્યો. નૌઆથી ઉપડી દિલહી અયોધ્યા પટણા રાજ હી પાવાપુરી ચંપાપુરીનાં દર્શન કરી સંધ છેવટે સમેદશિખરજી પહો ને ત્યાં ૧૯૬૨માં પૂરો ચાતુર્માસ વનીત કર્યો. પછી કલકત્તા પહોચી ૧૯૬૩નું ચાતુર્માસ ભારતના સૌથી મોટા ભયંકર ગીચને ગંદકીવાળા શહેરમાં પૂર્ણ કર્યો. કલકત્તામાં વીસપંથ ને તેરાપંથ ચાલે છે. ત્યાં પેજલેટ બાજી પણ થઈ પણ માતાજીના આગમજ્ઞાન આગળ સૌ ઝુકી ગયા ને જે કટ્ટર વિરોધી હતા તેમણે પણ ચોકા કરી આહાર દાનનાં પુણ્ય પ્રાપ્ત કર્યા ભગતજીએ માતાજીના જ્ઞાનગરિમાંથી પ્રભાવિત થઈ, માતાજી દ્વારા થતી પ્રભાવવાનામાં પૂર્ણ મદદ કરી અને એકાંતવાદીઓને સમજાવટ અને શાસાધારે, સંતોષિત કર્યા, ખંડગિરિ ક્ષેત્રનાં દર્શન કરી સંઘ હૈદ્રાબાદ પહો. ત્યાં ૧૯૬૪નું ચાતુર્માસ ભવ્ય રીતે અને દબદબા પૂર્વક ઉજવ્યું. માતાજી મરણ પથારીએ હતાં ને જીવનની આશા ન હતી છતાં તપ અને ચારિત્રના બળે કું. મનમતીની સુલ્લિકા દીક્ષા વખતે બધી જ ક્રિયા જાતે કરી ને મને બળ અને આત્મબળનું અદ્વિતીય દૃષ્ટાંત પુરું પાડયું. પૂરો જૈન સમાજ માતાજીની ચર્ચા અને જ્ઞાનથી એટલો પ્રભાવિત થયો કે ગીનીચ બુકમાં નોંધવા જેવો બનાવ યાને પૂરા ચોમાસામાં અહવાન વિધાનોના ઉત્સવો થયા જે જૈન ઇતિહાસમાં અદ્વિતીય છે. તથા હૈદ્રાબાદના મંદિરેએ શિખર ન હતાં તેમના નિર્માણનું કામ પણ કરાવી લીધું પછી સંઘ ગોમટેશ્વરની યાત્રાએ પ્રયાણ કરી ગયોને ૧૯૬૫ નું ચાતુર્માસ મઠાધીશ ભટ્ટારકશી વગેરેની આગ્રહભરી વિનીથી શ્રવણ બેલગોલામાં પસાર કર્યું. અઠ્ઠાવન - ચાતુર્માસમાં એક અદભૂત અને અપૂર્વ બનાવ બન્યો જ્ઞાનમન્દિર માતાજીએ બાહુબલી ભગવાનની પ્રતિમા સમક્ષ પંદર દિવસનું મૌન ધ્યાનનું અધિન શરૂ કર્યું માત્ર આહાર સમયે નીચે આવી તે કાર્ય પતાવી પુન: પર્વત ઉપર ચાલી જતાં હતાં. પૂરા બાવીસ કલાક ઉગ ભવ્ય વિશાલકાય અપ્રતિમ પ્રતિમા સમક્ષ ને પસાર કરતાં હતાં ધ્યાનમાં એકાગ્રતા વધતી ગઈ. એક દિવસે ધ્યાનમાં માતાજીને અકૃત્રિમ ચૈતાલનાં પુનીત દર્શન થયાં. બીજા દિવસે પહાને દેશ્ય ચાલુ રહ્યાં. વારંવાર તેને અને બીજાં વિવિધ દૃશ્ય દૃષ્ટિયોચર થતાં ગયાં. માતાજી જ્યારે આહારચર્યા માટે નીચે આવ્યાં ત્યારે સંઘશ્ય આર્થિકાઓ વગેરેને ધ્યાનમાં જોયેલ ચૈત્યોની ચૈતાલયોની સવિસ્તર વાત કરી. શિષ્યા અને કુતુહલ અને આનંદ થયો. પણ તેના સત્યપણાની ખાત્રી શી? તે પ્રશ્ન ઉઠો. તરતજ શાસોને આધાર લેવા વિચાર સૂઝયો. પાનાં ફેરવ્યાં. ગાથાઓવાંચી, અર્થ સમજયાં તે જે.જે. અને જેવું જેવું જોયાનું વર્ણન માતાજીએ કરેલું તેવુંજ આબેહુબ અને સકબંધ ગાથાઓમાં મળી આવ્યું. અધિકાન પૂર્ણ થયું ત્યાં મનમાં માતાઅજીએ સંકલ્પ કરી લીધો કે ધ્યાનમાં જેએલાં દેશ્યોને આ ભારત ભૂમિ ઉપર કોઈક જગ્યાએ સાકાર બનાવી દેવાં. આ જોયેલાં દૃશ્યોની એક ફિલ્મની રીલ માતાજીની પ્રશાએ બનાવી લીધી અને તે શ્રવણબેલગોલાના ભટ્ટારાકાહિ અનેક ભકો સમક્ષ માનસ ચક્ષુ વડે જોવા માટે રજૂ કરી. સાંભળનારા બે આંખ મીચી માતાજી ની આગામી પકડી ચાલવાનું હતું ને તે ટૂંકો પ્રવાસ પુરો થતાં બધાને હર્ષનો પાર ન રહ્યો. મહાસભાના તે વખતના પ્રમુખ ચાંદમલ શેડીની મંડળીને પણ આ આકૃત્રિમ ચેતાલયોની ફીલ્મ જોવાનો લ્હાવો મળેલો. પછી સોલાપુરમાં શ્રાવિકાશ્રમની સંચાલિકા અને અન્ય ભકતોને આ અદ્ભુત અને અશક્ય દશ્યોની ફીલ્મ જેવા અને સાંભળવા મળી અને ત્યાં પરમશ્રી સુમતિબેન શાહે માતાજીને જંબુદ્વિપનું મોડલ સોલાપૂરમાં ઊભું કરવાની વિનંતિ અને આગ્રહ કર્યો. પણ પછી માતાજી સસંધ પતીના પોતીકા સંઘમાં પહોચી ગયાં વચ્ચે બાવરવાળા તથા અજમેરવાળાઓ તેમજ મહાવીરજી ક્ષેત્રવાળાઆજે પણ અકૃત્રિમ ચૈતાલયની રચના પોત પોતાને ગામે કરવાની માતાજીને વિનંતિ કરી. પરંતુ જે નિમિત હોય છે ને ત્યાં જ નિયતિના ન્યાય અનુસાર થાય છે. તેથી દિલ્હી નજીક નજફગઢમાં ૨૫-૪૦ હજારનો ખર્ચો થઈ ગયો હતો છતાં ત્યાં તે કામ અટકી ગયું, અટકાવી દેવું પડયું ને જ્યાં ધરતી પોકારતી હતી તેવી પાવન પવિત્ર હસ્તિનાપુરની ધરતી પર જે વિશ્વની એક નૂતન અજાયબીળી સમાન શોભે છે. પાંચ વર્ષની સેકંડો માઈલની પવિત્ર યાત્રામાં બિમારીના. ભયના, આશ્ચર્યના, હર્ષના, કૌતુકના અને અનેક ખાટામીઠા અનુભવો થયા છે તે Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला બધા જાણવા - સાંભળવા જેવા છે. અને અનેક પ્રકારની પ્રેરણા આપનારા છે. પણ તે બધા મહાભારત જેવા પ્રસંગે અહી થોડા સમયમાં વર્ણણ મુશ્કેલ તથા અશક્ય છે. પિશાબ બંધ થઈ જતાં ભકતામરનો પાઠ કરવાની શીખ આપનાર બ્રાહ્મણ વૈદ્યનો કિસ્સો, સંસ્કૃતની પાઠશાળા ચલાવનાર બ્રાહ્મણ પંડિત સાથે થયેલી સંસ્કૃતમાં વાતચીત ને તેથી પ્રભાવિત થઈ તે બ્રાહ્મણ જૈન ધર્મના પાકો પ્રેમી બની ગયો. તે બનાવ, ભાષાની અજ્ઞાનતાને કારણે ઊભી થયેલી રમૂજવાળા કિસ્સાઓ તથા મંદિરમાં રાત્રે દારૂડિયો ઘૂસી જાય છતાં પુણ્ય યોગે કોઈ ઉપદ્રવ ઉપસર્ગ ન થવો તે કિસ્મતનો ખેલ, પોતાની સગી દીકરી જે આર્થિકા બની ગઈ છે તેની મૃત્યુ આખ્યાને જોવા ના પાડનાર માતાપિતાઓ કિસ્સો. મુનિરાજોને સંઘમાં રહેવા માટે વિનંતિ છતાં ન માને ત્યારે નમક તથા જીવનદોરી સમાન છાશને જીવન ભરના ત્યાગનો નિર્ણયને અજામવી ભર્યો બનાવ, પોતાની નાની બહેનોની મુલાકાતમાં તેમને ન અઓળખાવાની નિર્લેપ વૃત્તિનાં દર્શન, રોગગ્રસ્ત અવસ્થામાં ભરઉગ્રમામાં એક માસમાં ૩૦૦-૪૦૦ માઈલનો ઉગ્ર વિહાર. કૈલાશ પાસે એક કલાક મંત્ર જાપ કરાવી સુલ્લિકા દીક્ષામાં મુશળધાર વરસાદને થોડો સમય રોકી રાખવાનો ચમત્કાર આટતા વિકટ અને દીર્ધ વિહારમાં આહાર સંબંધી પાપના ભયથી સંકેત પણ ન કરવાનો દૃઢ નિર્ણય વગેરે અનેક પ્રસંગો પર ઘણું કહી શકાય તેમ છે પણ સમયના કાંટાનો સંકેત છે કે હવે બસ. તેથી પૂજય માતાજીની જાવ સાથે વિરામ લઉ છું. વસુબેન બેઠાં કે તરત જ લાઉડસ્પીકર ઉપર સંચાલક શ્રી બોલ્યા, એ ભાઈ, હવે લાઉડસ્પીકર કુ. હેતલ સમક્ષ મૂકો. તે હવે માતાજીની મૂર્તિકાર તરીકેની ઓળખ આપશે. હેતલ બહેન ઊભા થયાં સભાને નમન કરી બોલવા માંડયાં: અનુપમ મૂર્તિકાર: આપ સૌએ પુ. જ્ઞાનમતિ માતાજીમાં અથાક પ્રવાસની અદ્ભુત શક્તિઓનાં વર્ણન સાંભળયાં. હવે તેમની અનુપમ રચનાકારની સિદ્ધઓ વિષે સાંભળે. “સાધુ તે ચલતા ભલા” પણ ચાલતાં ચાલતાં સર્જન ન થાય તેથી મનથી ને કાયાથી માતાજી સ્થિર થયાં ને તેમના અંત: કરણમાંથી બે રૂપે પ્રગટ થયાં એક છે સાહિત્યકારનું અને બીજું છે શિલ્પકારનું આ બે જાતની સુપ્રસિદ્ધિમાંથી માતાજી અદ્ભૂત શિલ્પી અનોખાં મૂર્તિકાર આગમ પરંપરાનાં ઉત્તમ સંવાહકની સ્થિતિનું પાલન કરતાં કરતાં અદ્રિતીય બહુશ્રુત વિદુષી, સાહિત્ય સૃષ્ટા અને ભાવિ તીર્થકર એવા સમતભદ્ર પછીના અજોડ સ્તુતીકાર છે. જેની અનુપમ રચનાઓ આપણાં સૌને સાંપડી છે. સાહિત્ય ક્ષેત્રે લગભગ નાના મોટા ૧૫૦ જેટલાં ગ્રથોની રચના થઈ ગઈ છે. ને ભાવિમાં કેટલા થશે તે નક્કી નથી. આ સાહિત્યમાન કાવ્યો છે, નાટકો છે, વાર્તા છે, નિબંધો છે, પૂજા નથી તો પણ છે વિવેચન, ગાઈડ અને બાળ સાહિત્ય પણ છે અને છેલ્લે જીવન કથાકારનું કામ પણ તેઓશ્રીએ કરી બતાવ્યું છે. પૂરા સાહિત્યમાં પ્રવાસી છતાં પ્રૌઠ શૈલી દેખાય છે. કિલષ્ટતાની જગ્યાએ સરળતા તેનો સ્વભાવ છે. સુલસિત ભાષા, , દોનું વૈવિધ્ય અને મનમોહક ગેયશીલતા પણ તેમાં સર્વત્ર દેખાય છે. અને તેને પટ એટલો વિસ્તૃત છે કે કોઈ વિદ્યાર્થીને મહાનિબંધ લખી પી.એચ.ડી.ની પદવી પણ અપાવી શકે, તેટલી ક્ષમતાવાળો છે. નિયમસારની સંસ્કૃત ટીકા લખી તો સમય સારની ટીકાનો અનુવાદ કર્યો. અષ્ટસહસ્ત્રી અને ન્યાયસાર જેવા તાર્કિક ગ્રંથો આપ્યાં જંબુદ્ધિ હસ્તિનાપુરાદિ ભૂગોળના ગ્રંથો સાંપડયા. ઇન્દ્રધ્વજ, કલ્પદ્રમ અને સર્વતોભદ્ર જેવા વિધાની તદ્દન નવેસરથી પ્રાપ્ત થયાં છે. દેવ ગુરુ અને શાસ્ત્રોની સ્તુતિઓ રચી અને ગોમટેશ્વરના મહામસ્તિકાભિષેક સમયે બાહુબલી નાટક સ્તુતિ, ચરિવાહિ દ્વારા લાખોની સંખ્યામાં પ્રકાશને પ્રસિદ્ધ કરાવ્યા. “મેરી સ્મૃતિયા” નામક આઠસો પૃષ્ઠોનું નિર્લેપ જીવન ચરિત્ર આપી બનારસી દાસ અને વર્ણજીની જીવનકક્ષાઓની હરોળમાં પોતાને સ્થાપી દીધાં. આમાં તેમની હિંદી મરાઠી કનડી વગેરે ભાષાઓનું જ્ઞાન જવલંતરીતે પ્રગટ થઈ સાહિત્ય પ્રાસાદની શોભામાં વૃદ્ધિ કરે છે. એમનું બીજુ પડખું છે શિલ્પકાર તરીકેનું. કાતંત્ર વ્યાકરણની રચનામાં જેટલી ઝીણવટવાળી અને સૂક્ષ્મ પ્રજ્ઞાની આવશ્યકતા છે તેથી એ વધારે આવશ્યકતા દરેક ભાવિક ભકતોના હૃદય પટલ પર શ્રદ્ધાનાં ચિત્રો અંકિત કરનાર મૂર્તિ અને મંદિરોની બનાવટમાં. માતાજીએ પોતાની અંતરની સૂઝ વડે હસ્તિનાપુરમાં જંબુદ્વિપની અનુપમ અને અભૂત રચના કરાવી તે સાથે મહાવીર મંદિર, કમલમંદિર, ત્રિમૂર્તિ મંદિર, હી મંદિર વગેરેની રચના અને તેમની પ્રતિષ્ઠામાં છ-છ સમારંભ આયોજ્યા અને પૂર્ણ રીતે સફલતાને પમાડયા. આ ઉપરાંત “સમ્યક જ્ઞાન” નામક માસિક માટે લાખોની સંખ્યામાં વાંચનારા શ્રતપ્રેમી સજજાનો ઊભા કર્યા. ભાવિ વિદ્વાન અને સાચા શ્રાવકો તૈયાર કરવા ‘ત્રિલોક શોધ સંસ્થાન" અંતરતાત વીર સાગર વિદ્યાપીઠ પણ સ્થાપી. ઝરતી ચાલતી જ્ઞાનપીઠનું કામ બતાવવા અનેક સ્થળો એ ધાર્મિક શિક્ષણ શિબિરો યોજી-જાવી ભારતભરમાં “જ્ઞાનજ્યોતિ'નું પ્રસરણ કરાવી દેશમાં અજોડ ધાર્મિક ચેતનાના પ્રાણ સંચારિત કર્યા ને છેલ્લે આ દોઢ બે કરોડની ભૌતિક સામગ્રીને તેનાં મીઠાં અને મધુર ફળ હિંદ ભરની શ્રદ્ધાળુ જનતા ને હરહંમેશા આરોગવા મળે તે માટે સાચા મોતી જેવા મોતીચંદને શું મોતિસાગર રૂપે પીઠાધીશ બનાવ્યા. આ બધી શકિતઓ અને તેની તમામ પ્રગટ થયેલી પર્યાયોની કથા લાંબી લાંબી છે જે સમયના સંભાવને કારણે મારે મારી સ્મૃતિ મંજુષામાં જ રાખવી પડે છે. તેના અફસોસ સાથે હવે હું વિરામ લઉં . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [૨૮૨ મુંડન પ્રિયા માતાજી: હવે આપસૌને માતાજીના મુંડન પ્રવીણા નામક નવતર બિરૂદની થોડી વાતો કરીશ. “તારે તે તીર્થ કરે" પતે તરેને બીજાને તારે તે સાચો તારક કહેવાય જે સંસારમાં સુખ નથી તેવા સંસારમાં કોઈપણ જીવ સડયા કરે તે સાચા મુમુક્ષને ગમે નહી તેથી માતાજીએ પોતાના સમગ્ર જીવનમાં પૂરા પચાસ બ્રહ્મચારી અને સી બહેનોને ભવ કરવાનો માર્ગ બતાવ્યો, સૂચવ્યો, અપનાવવા આગ્રહ કર્યો, સમજણ આપી, સ્વીકાર કરાવ્યો. પોતાની માતાને “રત્ન મોતીબનાવી મનોમતિને અભયમતિ કરી દીધી માધુરીને ચંદનાની સુવાસ આપી માલતી તથા રવીન્દ્રને શાસ્ત્રીપદ તથા બ્રહ્મચારીપદ સુધી ખેંચી લાવ્યાં છે. શાંતિમતિ શ્રીમતિ, કુમુદિની વગેરે બહેનો માત્ર છોટેલાલની તકદીરાથી જ બચી ગઈ છે. ભણતાં-ભણાવતાં વિહાર કરતાં, ચર્ચા કરતાં જે કોઈ ઝાપટમાં આવ્યું તેને આ મુકિત માર્ગને પકડવા નો અનુરોધ કર્યા વિના રહી શકેલ નથી. તેથી તે રાજ્યબાજી આ. અજીતસાગર, શ્વેતાંબર શ્રાવક શ્રતસાગર અને નટખટ યશવંતકુમાર વિવાદી આચાર્ય વર્ધમાનસાગર બની ગયા. સંભવસાગર ભવ્યસાગર ને તેવા બીજા કેટલાય મુનિરાજની તે પ્રેરણા દાતા છે. આદિમતિ, જિનમતિ, પદ્યાવતી શ્રુતમતિ, શિવમતી, જપમતી, યશોમતી, શ્રધ્ધામતી, સંભવમતી શ્રેષ્ઠમતી, શુભમતિ, શ્રેયસમતી વગેરે અનેક આર્થિકાઓની દીક્ષાઓ માતાજીના પ્રેરણા પિયૂષને કારણે શક્ય બની છે. ને તો ચુંબકનું કામ કરે છે. ગજવેલી લોઢું પણ જરાક નજીક ગયું તો તે ખેંચાયા વગર રહ્યું નથી. જે જે ખેંચાયાં તે બધાંને લાભ જ લાવ્યો છે. હવે આપ સૌને માતાજીના ગુણ નિધાન યાને ગુણ ભંડારનાં દર્શન કરાવું છું આત્મા અનંત શકિતઓનો ધારક છે. પણ દુનિયાના મૂઢ જીવોને તેની પંચમાત્ર ખબર નથી પૂર્વભવના ભણે અને પુરાણા ઉત્તમ સંસ્કારોએ સંસારી પાંજરાને મેનાએ ન્યજી દઈ ધર્મ ગઝનમાં વિહાર શરૂ કર્યો છે. તેમાં કહી મોહી ન હોય તેવી મોહિનીદેવો એ ઇચ્છા અનિચ્છાએ મદદ કરી છે, પ્રોત્સાહન આપ્યું છે. ને જે કંઈ કર્યું તેને શાબાશી દ્વારા બિરદાવ્યું છે. તેથી આજે ભારતભરના ન્યાયીઓ, વિદ્વાનો, શ્રેષ્ઠીજનો ને આમજનતાએ આ આર્થિકાજીને અનેક પદવીઓ, વિધાવિધ ઇલ્કાબો અને જુદી જુદી પ્રશસ્તિઓ દ્વારા નવાજી છે. એક સરરવતીપુત્રે કહ્યું કે તે સરસ્વતી પુત્ર છું પણ આપતો સાક્ષાત્ સરસ્વતી સમાન છે. માતાજીએ પ્રતિભા અને પોતાની પ્રખર પ્રજ્ઞાવડ જે કંઈ ધાર્મિક જગતને આપ્યું છે તેથી તેમને અભિક્ષણ જ્ઞાનયોગી, જિનશાસન પ્રભાવિકા, સિદ્ધાંત વાસ જ્ઞાનમૂર્તિ, ઉત્તમ અધ્યાપક, જંગમ વિધાપીઠ અને પ્રબુદ્ધ ઉપદૃષ્ટાના બીરૂદ અપાયાં છે. ન્યાય પ્રભાકર અને ભારત ભૂષણના ઇલ્કાબ તેમની અનોખી બુદ્ધિચાતુર્ય જ સ્વયં ખેંચી લાવ્યાં છે. જ્ઞાન સાથે મતિ આવી પછી બાકી શું રહ્યું? બીજા અસંખ્યા ગુણોનું પ્રગટીકરણ ત્યાં શકય છે ને પોતે સ્ત્રીરત્ન છે, તેથી આર્થિકારત્ન પણ કહેવાયું. શ્રધ્ધા અને ચારિતાની પણ ત્યાં ઉણપ નથી. તેથી તે રત્નગમતિ પણ નામ પામે છે. મંગલમૂર્તિ, વાત્સલ્યમૂર્તિ આદિ વિશેષણો પણ તેમના ઋજુ અને પ્રેમભર્યા સ્વભાવનાં કારણો છે. સ્વધ બિમારી પાલક છતાં અથક પ્રવાસી અને સર્વસહા સહિષ્ણુતાનું ઘર બની અનેકની સાચી માતા તથા પરમ હિતૈષી મહિલા રત્ન સાબિત થયાં છે. પોતાની શિષ્યાઓની જે વૈયાવૃદ્ધિ વૃત્તિથી તેમને સેવા કરી છે તે કોઈથી અજાણી નથી. ને છેવટે પોતાની માતાજીને ક્ષપક બનાવી પોતે કડક છતાં માયાળું નિર્યાપકાર્થનો પાઠ ઉત્તમ રીતે ભજવી બતાવ્યો જે અન્યત્ર અસંભવ છે. આમ માતાજીના અંગણિત ગુણોનું ગાન થડા સમયમાં પુરૂ કરવું શકય નથી ને તેવું મારું સામર્થ્ય નથી. શ્રધ્ધાના ચમત્કાર: (૧) હવે સૂત્રરૂપે આપની સમક્ષ તેમના જીવનન પ્રસ્તુત કરું છું. આઠ વર્ષની ઉમર માતાજીએ પિતાગૃહેથી મિથ્યાત્વના ઉચાળા ભરાવ્યા હતા. (૨) કથાઓ ઘણા વાંચે છે અને નાટક પણ ઘણાં જુએ છે પણ તેમાંથી બ્રહ્મચર્ય જેવાં દુર્ધર વ્રતોનો માતાજી જેવાં ભગ્યશાળી જ અંગીકાર કરે છે. (૩) જીવનભર નાના મોટા રોગોથી ગ્રસીત રહ્યાં છતાં અને સંગ્રહણી જેવા જીવલેણ રોગથી પીડાતાં છતાં માતાજીએ કદી હિંમત હારીનથી અને વૈર્ય છોડયાં નથી. અને પોતાની સાધુચર્યા ખાંડાની ધાર જેમ પાળી બતાવી છે. (૪) ગામમાં ઓળીનો પ્રકોપ થયો. પ્રકાશ અને સુભાષ ઝપટાઈ ગયા. આડોશી પાડીશીઓ રેપરીમાતાજીની બધા રાખવા વેગેરીની ઘણી સલાહ આપી પણ માતાજીએ મિયા દેવોને છોડી માગ જિનેન્દ્ર દેવની આસ્થા અને ભકિતવડે બને ભાઈઓને હમખેમ બચાવાવી લીધી (૫) પીછીનો સ્પર્શ કરાવી તથા આશીર્વાદ આપી ઘણાને રોગથી મુક્ત કર્યા. (૬) એક દંપતીને લાડકવાયો કંઈ ગુમ થઈ ગયેલો જેને જાપ કરવાના ભકિત-ઔષધવડ પરત બોલાવી દંપતિને સ્વભકત બનાવ્યાં (૭) સીતાપુરમાં એક જણની આંખની જ્યોતિ ચાલી ગઈ તને મંત્રના જાપને સહારે દેખતો કર્યા. (૮) એક બિમાર બ્રહ્મતર્થી માતાજીની પહેરવાની સાડી પહેરી લીધી અને રોગમુક્ત બની ગઈ (૯) જંબુદ્રિપની લીટર ભરવાના હતાં ત્યાં મેધરામ નારાજ થઈ બાજી બગાડવા આવેલા, પણ દેવાધિદેવના મંત્ર જાપે બે કામ હેમખેમ પાર પડાવ્યું (૧૦) જ્ઞાનજ્યોતિનું ઉદ્ઘાટન કરવા વડા પ્રધાન શ્રીમતી ઇન્દોરાજીને નવ લાખ જાપની અખંડ ધારા વડે ખેંચી લાવ્યાં (૧૧) સ્વપ્નમાં ગાથાઓ યાદ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.ja nelibrary.org Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SR) वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला કરી નવી બનાવી અને જંબુદ્વિપના સર્જનનાં બીજ શોધી કાઢયાં (૧૨) સ્વપ્ન સંકેતોથી આગળના કાર્યક્રમ તય કરાવ્યા અને ભાવિ સંકટોના નિવારણ કર્યા (૧૩) એકી સાથે ચૌદ સાધુઓને આહારદાન દેવાની હિંમત. માધુરીને આપી (૧૪) તપ ન્યાગના બળે મોતીચંદની દીક્ષામાં ચાલીસ પીછીની હાજરી ઊભી કરી (૧૫) નિરસ ભોજન, ઘણાં આત્મબળ વધાર્યું (૧૬) મૃત્યુ જપ મંત્ર વડે ન થવાના કાર્યોને સફળતા પૂર્વક પાર પાડયાં (૧૭) નાની ઉંમરે પણ રત્નકરંડ તથા અમરકોષના ૨૦-૨૫ શ્લોક દરરોજ યાદ કરી લેવા (૧૮) માતાજીએ મ મળી રહે તે માટે જે ગાય દૂધ આપતી ન હતી તેણે પણ દૂધ આપ્યું. વિહાર થતાં ગાય દૂધ આપવું બંધ કર્યું (૧૯) સહસ્ત્રનામ સ્તોત્રના પાઠની મદદથી મોહિની દેવીની પ્રસ્તુત સહેલાઈથી કરાવી આપી (૨૦) લૌકાંતિક દેવ બનવાની નિરંતર ભાવના ભાવી મનને ધર્મમય અને પાપભીરૂ બનાવ્યું (૨૧) પ્રકાશને પાંચ અણપ્રિતી બનાવી આર્થિક સંપન્નતા મેળવવા શીખ આપી ને તે સફળ કરાવી. ' આ બધુ પરભવના પુણ્ય અને આ ભવના ચારિત્રાને કારણે બન્યું છે. વર્તમાન જીવનમાં જેટલી આચાર શુદ્ધિ જળવાય છે તેનાં મીઠાં ફળ ભાવિમાં સાંપડયા વિના રહેતાં નથી તે કર્મને અટલ સિધ્ધાંત પૂજય જ્ઞાનમતિ માતાજીના જીવનમાંથી ફલિત થાય છે. તેવી પ્રેરણાદાયી જ્ઞાનમયી અને ચારિત્ર મૂર્તિ માતાજીની જપ સાથે હું વિરામ લઉં છું. வந்தனைக்குறிய ஆர்யிகைமணி ஸ்ரீ ஞானமதி மாதாஜீ அவர்களின் வாழ்கை வரலாறும் சாதனைகளும். எ.எஸ். ஜைன் சாஸ்திரி, சென்னை: முகவுரை பகவான் விருஷபதேவர் காலம் முதற்கொண்டு இன்றையவரை சாது மற்று இல்லறத்தாரின் தொடர்பு இடை விடாது வந்துக் கொண்டே இருக்கிறது. இவ்விரு சமூகத்தின் தொடர்பை எற்படுத்துவதற்கு அறம் ஒரு இணைப்புப் பாளமாக உள்ளது. அறம் ஒரு போதும் அழிவதில்லை அது அனாதியும் அகண்டமும் ஆகும். ஆனால் மக்கள் அறத்தை மறந்து அறநெறியிலிருந்து நழுவி நிற்கும்போது அறவோர்களும் ஆசார்யர்களும் சாதுக்களும் அறத்தை போதித்து மக்களிடம் அறவுணர்வை வளர்த்து அதன் பயனைப் பெறச் செய்வர் என்று ஆசார்ய அகளங்க தேவர் குறியுள்ளார். லாளறிவு பெற்ற தீர்தங்கரர்கள் உண்மை தத்துவங்களை தம் அனுபவத்திற்கு கொண்டுவந்து அதன்வழி நடந்து அதை மக்களுக்கும் அறிவுருத்தியுள்ளார். அவர் காட்டிய பாதையில் நடந்த ஆசார்யர்கள் அவற்றை ஆகம வடிவில் வடிந்து மக்களுக்குக் கொடுத்துள்ளனர். வண்டியை செய்பவன் ஒருவன் அதை ஓட்டுபவன் ஒருவன் அதுபோல தீர்தங்கரர்கள் அறத்தை அமைத்துத் தந்தனர். ஆசார்யர்கள் அவ்வற வழி நடந்தினர். மக்களுக்கும் போதித்தனர். போருத்து வண்டியை ஓட்டுபவன் விழிப்புடன் ஓட்டுகிறான். அதில் அமர்ந்து பயணம் செய்யும், மக்கள் அவனால் காப்பாற்றப்படுவராக உள்ளனர். அது போல ஆசார்யர்கள் நல்லொழுக்கப் பாதையில் சென்று அறம் என்னும் வண்டியை நடத்தினர். அவ்வழி நடக்கும் மனித சமூகம் நல்ல பாதுகாப்போடு உள்ளது . சமுதாயத்திற்கென அறம் இரண்டுவதையாகப் பிரிக்கப்பட்டுள்ளது அவை இல்லறம் துறவரம் என. இல்லற நெறியில் ஒழுகுபவர் இல்லறத்தார் அவர். அவர்களில் ஆண்கள் ஸ்ராவகர் எனவும் பெண்கள் ஸ்ராவகியர் எனவும் அழைக்கப்படுகின்றனர். துரவறத்தில் ஒழுகுபவர் துறவறத்தார் என்பர். அவர்களில் ஆண்துறவறத்தார் சாது (அ) முனி எனவும் பெண் துற்வறத்தார் ஆர்யிகை எனவும் அழைக்கப்படுவர். இல்லறத்தாருக்கும் துறவறத்தாருக்கும் உள்ள தொடர்பு கடலுக்கும் நீருக்கும் உள்ளதுபோன்றாகும். கடலிலிருந்து ஒரு துளி நீரை பிரித்து தரையில் போட்டுவிட்டால் பகலவன் அந்நீரை விரைவில் உலர்த்தி விடுவான். அது போல இல்லறத்தார் சறவறத்தாரை விட்டு பிரித்து விட்டால் அநீதியாலும் அறவின்மையாலும் ஆட்கொள்ளப்படுவர் அந்திலையில் சமுதாயம் தழைத்தோங்காது நளிந்துவிடும். Jain Educationa international For Personal and Private Use Only . Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ (RR இல்லறம் துறவறம் நெறிகளைப் பின்பற்றுபவர் நான்கு சங்கங்களாக வகுபப்பட்டுள்ளனர். முனிவர் ஆர்யிகை ஸ்ராவகர் ஸ்ராவிகியர் என இந்நான்கு சங்கமும் இருக்கும் இடம் அறவளர்ச்சி பெற்றதாக இருக்கும். ஆற்றில் இரு கரைகளுக்குட்பட்டு ஓடும் நீர் கடலை அடைகிறது. அது போல இல்லறம் துறவறம் என்னும் இருகரைகளுக்குட்பட்டு நடக்கும் மக்கள் சமுதாயம் சித்த லோகத்தை அடையும். இல்லறத்தாருக்கு திறவறத்தாரின் தொடர்பு விடுபட்டுவிடின் கரையை அறுத்துக் கொண்டு ஓடும் நீர் எங்கு செல்லுமோ? அதுபோல இவர்கள் நிலையும் ஆகிவிடும். தற்பொழுது நிகழும் பஞ்சமகாலத்தில் தீர்தங்கரர்கள் தோன்றுவதில்லை. ஆனால் அவர்கள் வகுத்துத் தந்த அறப்பாதையைப் பரப்பும் துறவியர் இக்காலத்தில் அவசியம் உள்ளனர் இடையில் விடுபட்டிருந்த அத்துறவியர் பாரம்பர்யத்தை மறுபடியும் துவக்கி வைத்தவர் ஆசார்ய சாந்தி சாகர முனிபுங்கவராவர். அவர் தம் பரம்பரையில் வந்த அமரர் ஆசார்ய தேசபூஷன் முனிவராவர். அவர் சிடரில் பெண்துறவியாகிய ஆர்யகைமணி ஞானமதி மாதஜீ அவர். அரயிகை ரத்ன ஞானமதி மாதாஜீ உத்தர பிரதேசத்தில் டிகைத் நகரம் என்னும் இடத்தில் கி.பி. 1934-ஆம் ஆண்டு சரத்பூர்ணிமா என்னும் பௌர்ணமி நாளன்று இம்மண்ணுலகில் தனகுமார் என்னும் ஸ்ரேஷ்டியின் புதல்வராதிய திரு சோடேலால் அவருக்கும் திருமதி மோகினி அம்மையாருக்கும் பிறந்த இந்த பெண்குழந்தை வின்னுலகத்து தேவி போன்று காட்சி அளித்தது. அக்குழந்தைக்கு மைனா எனப் பெயர் சூட்டப்பட்டது. வின்னிலக தேவியறைப் போன்று தோன்றிய இந்த குழந்தையைக் கண்ட ஊர் மக்கள் பாராட்டாதவர் எவரும் இல்லை. ஒரு விட்டில் பெண் குழந்தை பிறந்தால் பொதுவாக கொஞ்சம் நாட்கள்வரை மகிழ்ச்சியற்ற சூழ்நிலை நிலவும். ஆனால் இவ்வில்லத்தில் அத்தகு சூழ்நிலை இல்லை. தொடக்கமற்ற காலம் தோட்டு இவ்வுலகில் ஆண்களைப் போன்று பெண்களும் மாபெரும் வீரதீரச் தெய்தளைச் செய்து இம்மண்னுலகிற்கு பேரும் புகழும் தந்துள்ளனர் என்பதை வரலாற்று மூலம் அறியலாம் அந்நிலையில் பெண் குழந்தை பிறநாதால் சோகம் கெள்ளுவது பொருத்தமா?. அன்னை மோகினி தேவி மைனா குழந்தையை நன்குபராமரித்து வந்தார். தொட்டிலில் குழந்தையை உறங்க வைக்கும்போது தொட்டிலை ஆட்டிக் கொண்டே பக்காமரம் ஈறாறு சிந்தனைப்பாட்டு நல்லொழுக்கம் நிறம்பிய அறநெறிக்கதைகலை ஆதாரமாகக் கொண்ட தாலாட்டு பாட்டு பாடுவது வழக்கம். 'குழந்தைக்கு முதல் ஆசான் அதன் அன்னையே' என்கிற பழமொழிக்கு ஏற்க அன்னை மோகினி அம்மையார் மைனா நங்கைக்கு குழந்தை பருவத்திலேயே நல்ல பழக்க வழக்கங்களை ஊட்டி வந்தார். எட்டு வயதிலேயே வீட்டிலிருந்த பொய் நெறிகளையப் பட்டது. மைனா நங்கை எட்டு வயதை அடைத்ததுமே நல் ஞானத்தின் பயனால் தன்னுடைய வீட்டில் பாரம்பர்யமாக நிகழ்ந்துவந்த பொய்மை (மித்யாத்வம் (அ) கண்மூடித்தனம்) நிரம்பிய கிரியைகளை நீக்கி நன்னெறிகளைப் பறப்பிய நல்லற நங்கை ஆனார். இவர் செய்த இச்செயலைக் கண்ட இவர் பாட்டி அம்மையார் கூறியதாவது பரம்பரையாகவந்த பழக்க வழக்கங்களை நீக்கிவிடாதே. இதைக் கேட்ட மைனா நங்கை கூறியதாவது, அனந்த காலமாக தொன்று தொட்டு இந்த ஜீவன் குருட்டுநம்பிக்கையை பின்பற்றி வந்ததால் தான் அனந்த பிறவிச்சுழலில் உழுன்று துன்புற்றுக்கொண்டே வருகிறது. உலகிலேயை மிக அரிதாக கிடைக்கக் கூடிய சிந்தாமணி ரத்தினத்திற்கு ஒப்பான எளிதில் கிடைக்காத மனிதப் பிறவி இப்பொழுது கிடைத்துள்ளது. இப்பிறவியில் நன்நெறிப் பாதையாகிய நற்காட்சி பெறாவிடில் மேலும் மேலும் அனந்த பிறவிச் சுழலில் (சம்சார துன்பத்தில்) உழல நேரிடும் என்கிற பல திருத்தங்களுடன் கூடிய வார்த்தைகளைக் கூறி தன் பாட்டி அம்மையாரை பொய்நெறியிலிருந்து நன்நெறிப் பாதைக்குக் கொண்டுவந்தாள். மைனா நங்கை இளம் வயதிலேயே எப்பொழுதும் நல்லொழுகம் நிறம்பிய நன்நெறிக் கதைகளையும் தோத்திரப் பாக்களையும் படிப்பது வழக்கம். இதனால் இளம் வயதிலேயே ஜினவாணியின் வரபிரசாதத்தைப் பெற்றாள் வீட்டுப்பணிகளில் தன்னுடைய தாயாருக்கு உதவி செய்துக் கொண்டே மான்புமிக்க மங்கையர் படிக்கும் ஆகம நூல்களில் உள்ள நுண்ணிய கருத்துக்களைக் கேட்டு களிப்படைவது வழக்கம். ஆன்மிக ஞானத்தில் கவரப்பட்ட நங்கை. ஒருநாள் ஜினாலத்தில் ஒரு வித்வான் சாஸ்திரம் படித்துக் கொண்டிருந்தார். அப்பொழுது அவர் கூறியாதாவது ஒவ்வொரு பிராணியின் ஆன்மாவில் அனந்த சக்தி (வரைக்கு அப்பார்பட்ட சக்தி) உள்ளது பாலில் நெய் மறைந்து இருப்பது போள்து இப்பொழுது அது உள்ளது. இதைக் கேட்ட செல்வி மைனா சிந்திக்கலானாள். இந்த ஆன்மாவில் மறைந்து இருக்கும் அனந்த சக்தியை நாம் வெளிப்படுத்த வேண்டும் என்கிற திட எண்ணம் கொண்டு அன்றையலிருந்து பெரிய பெரிய ஆகம நால்களைப் படிக்கத்துவங்கினாள். Jain Educationa international For Personal and Private Use Only . Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 'விளையும் பயிர் முளையிலேயே' என்கிறபழுமொழிக்கு ஏற்க மைனாவிற்கு தன்னுடைய ஆன்ம சக்தியை வெளிப்படுத்துவதற்கு எற்ற சூழ்ந்லையும் கிட்டியது நற்சீல கதை. நற்காட்சிக்கதை ஆகியவைகளைப் படித்துவந்து அந்த செல்வியின் உள்ளத்தில் அசையா அறநெறிப்பற்று ஏற்பட்டுவிட்டது, ஒருநாள் பகவான் எதிரில் நின்றுகொண்டு நங்கை மைனா கூறியதாவது, பகவன்! இப்பொழுது எனகு திகம்பர குடுயாடும் கிடைக்கவில்லை ஆதலால் நான் உன் எதிரில் நின்று சீலவிரதத்தை ஏற்றுக்கொள்ளுகிறேன் என்று கூறி விரதம் ஏற்றாள். அன்று முதல் நல்வொமுத்த நெறியில் ஒழுகலானாள். அகளங்கர் நாடகக் காட்சியால் ஆன்மநெறிப்பெற்ற அதிசயம். ஒருநாள் தருமபாடசாலையில் பயின்ற பிள்ளைகள் அகளங்கர் நிஷ்களங்கர் நாடகம் நடத்தினர். அதைப் பார்க்கும் வாய்ப்பு மைனாவிற்குக் கிடைத்தது. அந்த நாடகத்தின் ஒருகாட் இயில் அகளங்கர் கூறியதாவத். 'பஷாலநார்த்தி பங்கள்ய தூராத ஸ்பர்சனம் வரம்' இதன் பொருள். சேற்றில் காலைவைத்த பிறகு அதை கழுவுவதைக் காட்டிலும் சேற்றில் சைலை வைக்காமலேயே இருப்பது நல்லது. இந்த நீதிவாக்கியத்தைக் கேட்டகெல்வி மைனா) முடிவுகொண்டதாவது திருமணம் செய்துகொண்டு துள்புற்ற பிறகு தீனக்ஷ ஏற்பதைக் காட்டிலும் திருமணம் செய்துக் கொள்ளாமலேயே தீக்ஷை ஏற்பது சாலச் சிறந்தது என்பதாம். இந்த மிடிவிற்கு வந்துமைனா மங்கைக்கு வயது பதிநானகு. அன்று முதல் பத்மந்தி பஞ்சவிடம் சதிகா சஹடால் ஆகிய அறநால்களை வாகித்து நற்காட்சியின் மாட்சியை அறிந்து ஆன்ம் இத்தனையில் ஆழ்ந்தாள். பொய் நெறியைப் போக்கிய பெண் உருவதைய்வம். ஒருநாள் டிகைத் நகரத்தில் சோடேலால் அவர்கள் விட்டிற்கு பக்கத்து வீட்டு பதினாறு வயது இளைஞனுக்கு அம்மை நோய் கண்டது அதைப் போக்க அவ்விட்டிலுள்ளவர்கள் வேப்ப மரத்தையும் சிதலாமாதா வையும் பூஜித்து வந்தனர். அப்பொழது மைனாவின் சகோதரர்களாகிய பிரகாசுக்கும் சுபாசுக்கம் அதே நோய் கண்டது அந்த நோயைப் போக்கிவர்தம் குடும்பத்தும் உள்ளார் உறவினரும் சிதளாமாதாவுக்கும் வேப்ப மரத்திற்கும் பூஜை செய்ய முற்பட்டனர் அதைக் கண்ட மைனா இது பொய்நெறி தினந்தோறும் ஜினாலயம் சென்று சீதளநா பகவானுக்கு அபிஷேக மும்ழஜையும் செய்து கந்தோதகத்தைக் கொண்டு வந்து அம்மை நோய்கண்ட சகோதரர்கள் மீது தெளித்துவந்தாள் ஆனால் நோய்குணமடையவில்லை அதிக மாய்விட்டது விட்டிலுள்ளவர்கள் மைனாவை கடிந்து பேச ஆரம்பித்தனர். நீ சகோதரர்களை சாகவைக்கத் துணிந்து விட்டாய் இதளாமாதா தெய்வத்தையும் வேம்புவையும் பூஜித்தால் தான் இந்த நோய் நீங்கும் இதுதான் வழக்கமாக நடந்து வருகிறது என்றனர் இதற்கெல்லாம் மைனா அஞ்ஜவில்லை உற்றாருடைய வார்த்தைகலையும் நம்பவில்லை. ஒரு நாள் அதிகாலை நீராடி வழக்கம்போல் ஜினாலயத்திர்குச் சென்று பகவானிடம் முறையிட்டாள் மைனா. பகவான்! இப்பொழது நன்நெறியைக் காப்பது உன்கையில் தான் உள்ளது என்றுடைய சகோதரர்களுக்கு நேரக் கூடாத்து நேர்ந்து விட்டால் அம்மை நோய் நிங்க மக்கள் பொய்நெறியை தழுவுகிறார்களே அது உண்மையாகிவிடும் மித்யாத்வம் தான் அதிகமாக பரவ ஆரம்பிக்கும் இது நியாயம்தானா? என்றெல்லாம் கூறி நன்நெறி வழிதான் சாலச்சிறந்த்து என்பதை நீ திருபித்துக் காட்டவேண்டும் என்றெல்லாம் முறை இட்டனள். உண்மை பக்திக்கு உயர்வு உண்டு என்கிர நீதிக்கு எடுத்துக் காட்டாக இல நாட்டகளுக்குப் பிறகு அந்த இரண்டு சகோதரர்ரகளும் அம்மை நோயிலிருந்து தேறிவிட்டனர் ஆரோக்கியமடைந்தனர் ஆனால் பக்கத்து வீட்டு இளைஞள் இறந்துவிட்டான் இந்த சம்பவத்தனால் எல்லாவருடைய மனதிலும் தன்தெறியில் பற்று ஊண்றியது நல்லறம் காப்பாற்றப்பட்டது கிராம மக்கள் அனைவரும் மைனாவை பாராட்டினர் எல்லோரும் பொய் நெறியை விட்டு நன்நெறிவழி திரும்பினர். மித்தியாத்வத்தைப் போக்கிய சிறப்பு மைனாவிற்கே கிடைத்தது. ஒருநாள் பண்டித மணோஹர் லால்ஜீ என்பவர் மைனாவின் வாயிலாக பொய்நெறியின்விளக்கம் கேட்டு வியப்படைந்தார் இளம் வயது பெண்னிடம் இவ்வளவு ஞானமா பலே பலே என்றல்லாம் பாராட்டி அவருடைய குடும்பத்தினரை அழைத்து உங்கல் வீட்டில் பிறந்த மைனா ஒரு பெண் அல்ல ஒரு தேவியே பிறந்துள்ளது என்று கீறி அவர்களை மகிழச் செய்தார். சிறிய வயதிலிருந்தே மைனாக் கண்டவாது பகவானிடம் முறையிடுவது வழக்கம். பகவன்! நான் இந்த மாநிலமட்டுமல்ல தேசம் முழுதும் ஜைன நெறியை உல்கநன் நெறியாக ஆகும்படி பரப்ப வேண்டும் அதற்கு ஏற்ற அற்றல் எனக்கு எப்பொழுது கிடைக்கும் உன்னுடைய அருள்நெறிதான் எநக்கு துணை நிற்கவேண்டும் என. கண்ட கனவின் பலன் பெறப்பட்டது. ஒருநாள் மைனா நங்கை கனவில் கண்தாவது தான் வெள்ளைப் புடவை அணிந்து கொண்டு கையில்பூசனைப் பொருட்களை. ஏந்திக் கொண்டு ஆலயம் செல்வது போலவும் ஆதாயத்தில் ஒளிதரும் முழுநிலா தன்னைத் தொடர்ந்து வந்துக் கொண்டு அதன் ஒளி தன்மீதுமட்டும் விழுவது போலவும் இக்காட்சியை அக்கம்பக்கத்து மக்கள் கண்டு வியப்புடன் தன்னையே பார்த்தக் கொண்டிருப்பது போலவும் இருந்த்து கனவு காட்சி. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only . Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ மறுநாள் தான் கண்ட கனவின் காட்சியை தன்னுடைய குடும்பத்தாருக்குத் கூர இதை கேட்ட குடும்பத்திநர் இந்த மைன விட்டை விட்டுஎன்று பறந்து போய்விடுமோ என்கிற ஐயம் கொண்டிருந்தனர். [324 ஆசார்யரத்ன தேச பூஷண முனிபுங்கவர்தம் சங்கத்துடன் கி.பி. 1952 ஆம் ஆண்டு உத்திரப்பிரதேச மாநிலங்களில் சுற்றுப் பயணம் செய்துக் கொண்டு எதிர்பாராத வகையில் டிகைத் நகரம் வந்து சேர்ந்தார். ஒருநாள் மைனா தன்னுடைய கைரேகையைப் பார்க்கும்படி ஆசார்யரிடம் முறையிட ஆசார் ஸ்ரீ அவர்களும் இவள்கை நேகையைப் பார்த்து உன்னதையில் ராஜயோகம் உள்ளது வெருவிறைவில் நீ வீட்டை விட்டு வெளியேறி விடுவாய் உனது மரணம் சன்னியாச நிலையில் தான் உண்டு வீட்டில் இல்லை என்றார். இதன் விறைவாக அதே ஆண்டு ஆகார்ய ஸ்ரீ அவர்கள் பாராபங்கி நகரத்தில் சாதுர்மாத வர்ஷாயோகம் செய்யதம் சங்கத்துடங்கி இருந்தார். அப்பொழுது செல்வி மைன அவரிடம் சென்று வாழ்நாள் முழுதும் பிரம்மசரிய விரதம் கடை மிடிப்பதாகக் கூறி விரம் ஏற்முள் அப்பொழுது மைளுவிற்கு வயது 16 மட்டும். இது துறவுப் பாதையில் செல்லும் முதல்கட்ட மாரும். அவள்கண்ட கனவின்பலன் நிடைத்துவிட்டது. இந்த விரதம் ஏற்றபிறகு பிரம்மசாரிணி மைனா அல்லும்பகலும் நேரம் வாய்த்த போதெல்லாம் ஆகமநூல்களைப் படிப்பது தத்துவ சர்சை செய்வது அறநெறியில் ஆழ்ந்த சிந்தனைச் செய்வது போன்ற புனிதச் செயலிலேயே ஈடுபட்டு இருப்பதை வழக்கமாகக் கொண்டிருந்தார். அதுமட்டுமின்றி ஆர்யிகை நெரிக்கு ஏற்றவாறு ஒரேவேளை அகாரம் ஏற்று ஆத்ம சிறந்தனையில் ஆழ்ந்து இருந்து காலத்தை கழிக்கலானார், துரவற நெறிப்பயை நோக்கி : ஆகார்ய ரத்ன தேசபூஷண முனிகவர் பாராபங்கி நகரத்தில் சாதுர்மாத காலத்தை கழுத்துவிட்டு தம்சங்கத்துடன் இராஜஸ்தான் மாநிலத்தில் அறப்பயணத்தை துக்கி. 'மகாவீரஜி' என்னும் திருத்தலம் வந்து சேர்நிதார், பிரம்மசாரிணி மைளுவும்ட அங்கு சென்று அவரிடம் ஆசிபெற்று சைத்திர கிருஷ்ண ஏகாதமி நன்நாளில் சுபமுகூர்த்த வேலையில் ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்களிடம் க்ஷஷூல்லிகை தீனக்ஷ ைஏற்றார். திஷை கொடுத்த ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்கள் அறத்தில் இவருடைய வீரநெரியைக் கண்டு இவருக்கு (மைனாவுக்கு) ‘க்ஷூல்லிகை வீரமதி' எனதிருநாமத்தை சூட்டினார். இது இவருடைய அறநெறிப்பாதையில் இரண்டாவது வெற்றி ஆகும். எமசல்லேகனை ஏற்ற ஆசார்ய ஸ்ரீ சாந்தி சாகர முனிபுங்கவர் தரிசனம். மகாராஷ்டிர மாநிலத்திலுள்ள குந்தவகிரி என்னும் திருத்தவதில் ஆசார்ய ஸ்ரீ சாந்திதாகர முனிபுங்கவர் எமசல்லேகனை ஏற்ற செய்தி க்ஷூல்லிகை வீரமதித்திக்கு கிடைத்தது. முனிபத்தியுள்ள இவர் ஆசார்ய ஸ்ரீ தேசபூஷன் முனிவரிடம் அனுமதிபெற்று மகாராஷ்டிர மாதிலத்தை நோக்கி பயணமானர் அப்பொழுது இவர்தம் சஹ்கத்தில் க்ஷல்லிகை விசாலமதியும் குமாரி பிரபாவதி யும் இருந்தனர். குஞ்தகிரி திருத்தலத்தை அடைந்து சல்லேகளை ஏற்ற ஆசார்ய ஸ்ரீ மகானை தரிசித்துமே க்ஷ. வீரமதிக்கு விரத்தி எண்ணம் வளற ஆரம்பித்தது சிலநாட்கள் அங்கு தங்கினார். ஒருநாள் இவர் ஆசார்யரிடம் தளக்கு ஆரயிகை தீஷை கொடுக்கும்படி வேண்டினர் இவருடைய பத்தியையும் துறவுநெறியில் இருந்த நன நம்பிக்கையும் கண்ட ஆசார்யமகான் கூறினார் நான் சல்லேகளை விரதம் ஏற்றுக் கொண்டேன். நான்யாருக்கும் தீக்க்ஷை கொடுப்பதில்லை என்கிறவிரதமும் ஏற்றுள்ளோல் என்னுடைய சீடர் வீரசாகரமனிவர் உள்ளார் அவரிடம் சென்று தீர்க்ஷை ஏற்றுக்கொள் என்றார். குருதேவர் வார்த்தையைக் கேட்ட க்ஷூரு வீரமதிக்கு அளவிலா ஆனந்தமும் தைரியமும் உண்டாயின்று. ஆசார்ய ஸ்ரீ சாந்தி சாகர மகராஜ் சல்லேகளை மரணம். யம சல்லேகளை ஏற்ற சாரித்திர சக்ரவர்த்தி -ஆசார்ய ஸ்ரீ சாந்திதாகர மகராஜ் அவர்கள் கி.பி. 1955 ஆம் ஆண்டு செப்டம்பர் திங்கள் 18 ஆம்நால் பாத்திரபத மாதம் சுக்ல பக்ஷம் த்விதியை ஞாயிற்று கிழமை அன்று காலை 7.50 மணிக்கு 'நம் இத்தாய நம்', 'என்று உச்சிரித்துக் கொண்டே உடலை விட்டார். இருபதாம் நூற்றண்டின் அரும்பெரும் தவமூர்த்தியாகிய ஆசார்யர் தான் இவ்வுலகை விட்டு சென்ற போதிலும் அவர் போதித்த நன்நெறியும். தியாகமும் துறவறத்தின் மேன்மையும் இன்றும் ஒளிமயமாகத் திகழ்கிறது என்றால் மிகையாகாது. ஆர்யிகை தீக்ஷைப் பெற்ற பெருமை. Jain Educationa International சாரித்திர சக்ரவர்த்தி ஆசார்ய ஸ்ரீ சாந்திசாகர மகராஜ் அவர்கள் சல்லேகளை மரணம் அடைந்த பிறகு குருவின் பிரிவால் துயரமுற்ற க்ஷுல்லிகை வீரமதி அம்மையார் தம் சங்கத்துடன் அங்கிருந்து புறப்பட்டு ஆசார்ய ஸ்ரீ வீரசாகர முனிவர் இருக்கும் இடத்தை நோக்கி அறப்பயணம் செய்தார். அங்கிருந்து பம்பாய் வழியாக ஜயபூர் நகரத்தை அடைந்தார். அங்கு ஆசார்ய ஸ்ரீ வீரசாகர முனிவர்தம் சங்கத்துடன் தங்கி இருந்தார். ஷூல்லிகை விரமதி அம்மையார் ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்களை தரிசித்து ஆசார்ய சாந்திசாகர முனிவர் இட்ட கட்டளையைக் கூறி தனக்கு ஆர்யிகை தீக்ஷைத் தரும்படி வேண்டினார். ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்கள் உடனே தீக்ஷை கொடுக்க இசையவில்லை. சிறிது நாட்கள் தம் சங்கத்தில் க், விரமதி அம்மையாரை வைத்துக்கொண்டு இவருடைய ஒழுக்கநெறி அளிவுத் திறன் நற்குணம் அறப்பற்று சறவற நெறியில் ஆர்வம் ஆகியவற்றை சோதிக்கலாளூர், For Personal and Private Use Only / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34) वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला சிறிதுநாட்கள் கழிந்த பிறகு ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்கள் சங்கம் ஜயபூர் நகரத்திலிருந்து புறப்பட்டு மாதோ ராஜபுரா' என்னும் இடத்தில் தங்கியது. அங்குவந்த பிறகு ஷூ. வீரமதி அம்மையார் தனக்கு ஆர்யிகை தீக்ஷை கொடுக்கும்படி மன்றாடி கேட்க ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்களுக்கும் அம்மையார் ஆர்யிகைத் துறவு நெறியை தி.நம்பிக்கயுடன் காப்பாற்றுவார் என்கிற நம்பிக்கையும் ஏற்பட்டது. வைசாக மாதம் சுக்ல பக்ஷம் த்விதியையன்று நல்ல முகூர்த்த வேளையில் ஆர்யிகை தீக்ஷை கொடுத்து ஆர்யிகை ஞானமதி எனப் பெயர் சூட்டினார். ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்கள் ஆர்யிகை தீக்ஷை கொடுத்து ஆசீர்வதிக்கும்போது கூறியாதாவது, ஞானமதி நீ தன்னுடைய பெயருக்கு ஏற்றவாறு நல்ஞானம்பெற்று பாரததேசம் முழுதும் ஞான ஒளி பரப்பும் செயலில் ஈடுபடுவாயாக என்றார். இது இவருடைய அறப்பாதையில் கண்ட மூன்றாவது வெற்றியாகும். ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்களின் நல்லாசி பெற்ற ஆர்யிகை ஞானமதி அம்மையார் தம் ஞானத்தை வளர்த்துக் கொள்ளும் நற்பணியில் ஈடுபட்டு சித்தாந்த நூல்களை வசிப்பது தவம் தியானம் தத்துவசர்சை செய்வது தம் சங்கத்தாருக்கு கற்பிப்பது பிரவசனம் செய்வது ஆகிய ஞான வளர்சிக்கு ஏற்ற செய்ல்களைச் செய்துவந்தார். ஆசார்ய ஸ்ரீ அவர்களின் ஆசிர்வாதத்தின் பயனால் பூஜிய மாதாஜீ அவர்கள் தம் வாழ்க்கையில் ஞானஜோதியை வளர்ந்து இன்று அவர் செய்துவரும் நற்பனிகள் கலங்கரை விளக்கம்போல் காட்சி அளிக்கிறது என்றால் பிகையாகாது. தன்னுடைய பெயருக்கு ஒத்த பணியில் ஈடுபட்டு ஞானக்கடலில் முழ்கி இருந்த அம்மையார் அறநூல்களில் உள்ள கடினமான சொற்களின் பொருளையும்கூட நன்கு விளக்கிக் கூறும் அற்றல் பெற்றார். அவர் தம் இளம்வயதில் போட்ட கல்வியின் அடிப்படையை உறுதிபடுத்த 'காதந்திர ரூபமாலா' என்னும் சமஸ்கிருத இலக்கண நூலை படித்து படித்ததை சிந்தித்து அவைகளை உள்ளத்தில் பதிய வைத்தக் கொண்டார். தம் சீடருக்கு படம் கற்பிக்கும் மணியில் ஈடுபாடு கொண்டிருந்ததினால் அவருடைய ஞானம் மேன் மேலும் வளர்ந்து பலம் வாயந்ததாக அமைந்த்து. சாணக்கல்லில் அடிக்கடி தீட்டிய கத்தி கூர்மை ஆவது போன்று பிறருக்கு தற்பித்து கற்பித்து தன்னுடைய ஞானத்தை உறுதிபடுத்திக் கொண்ட இவர் இந்த முறையையே தம் வாழ்க்கையில் அன்றாடக் கடமையாக இன்றும் செய்து வருகிறார். சங்கத்திலிருந்த துறவறம் மேற்கொண்ட ஆண்பெண் இருபாவாருக்கும் அவர்களின் வேண்டுகோளுக்கிணங்க பிரதிக்ரமணம் கர்பித்து வந்தார். அப்பொழுது சங்கத்தில் ஷுல்லக் சன்மதிசாகர்ஜீ. ஷூ, சிதாநந்தஜீ (அசார்ய கல்பஸ்ருத சாகர் ஷுல்லக்காக இருந்தபோது) ஷல்லிகை சந்திரமதிஜீ, க்ஷ. ஜினமதிஜீ, பத்மாவதீஜீ ஆகியோர் இருந்தனர். இவர்களைத் தவிர மதியவயதை அடைந்த ஆர்யிகைகளும் இருந்தனார். மேலும் இவர் பூஜ்ய மதாவீர கீர்த்தி முனிபுங்தவரிடம் ராஜவார்திகம் அஷ்டசகஸ்ரி முதலிய மாபெரும் தத்துவ நூல்களையும் பயின்றார். மேலும் இவர் ஆசார்ய சிவசாகர் முனிவர் சங்கத்தில் இருந்துகொண்டு 'கிர்நார்' யாத்திரை செய்தார். சிலநாட்கள் அவர் சங்கத்தில் இருந்த பிறகு ஆசார்யரிடம் அனுமதிபெற்று சில ஆர்யிகைகளுடன் 'சம்மே தசிகர' யாத்திரைக்குப் புறப்பட்டார். இவர் கி.பி. 1963ல் கல்கத்தா நகலில் முதல் சாதுர்மாத வர்ஷாயோக தவம் நகர ஜைனப் பெருமக்கள் இவரை பாராட்டிப் புகழ்ந்தனர். தென்னிந்திய திருப் பயணம். வந்தனைக்குறிய ஞானமதி மாதாஜீ அவர்கள் தென்னிந்திய திருத்தலங்களை தரிகிக்க வேண்டுமென்கிற அவர் கொண்டு கல்கத்தா நகரத்தில் தம் சாதுர்மாத விரதத்தை முடித்துக் கொண்டு தென்னிந்திய பயணத்தைத் துவங்கினார். தம் ஆர்யிகை சங்கத்துடன் ஆந்திர மாநிலத்தில் உள்ள 'ஹைதராபாத்' நகரம் வந்துசேர்ந்தார். அங்கு கி.பி. 1964 ஆம் ஆண்டு இரண்டாம் சாதுர்மாத தவம் மேற்கொண்டார். அப்பொழுது இவருக்கு 'சங்கிரஹணி' என்னும் கடும் நோய் ஏற்பட்டது. இந்த நோயினால் துண்பப்பட்ட இவர் பிழைப்பாரா என்னும் கேள்வி பக்தர்க', 'டய உள்ளத்தில் ஏற்பட்டது. பக்தர்கள் இவருக்கு சேவை செய்துக்கொண்டே வந்தனர். மாதாஜீ அவர்கள் தம் ஆன்மசிந்தனையில் ஆழ்ந்து இருந்தார். இவர் சாதனையின் நற்பயனாக ஸ்ராவண மாதம் சுக்லபக்ஷம் சப்தமியன்று முழு ஆரோக்கியம் பெற்று உத்சாகமாக காணப்பட்டார். அப்பொழது ஆசார்ய ஸ்ரீ சிவசாகர் மகாராஜரிடம் அனுமதி பெற்று (தம் குடும்பத் தொடர்பில் தங்கையாகிய) பிரம்மசாரிணீ மனோவதிக்கு ஷுல்லிகை தீக்ஷை விதிகளை தம் கைகளாலேயே நிறைவேற்றி தீக்ஷை கொடுத்து டி. அபயமதி எனப் பெயர் வைத்தார். அதன் பிறப் பூஜ்ய ஞானமதி மாதாஜீ அநேக ஆண் பெண் இருபாலாருக்கும் அறபோதனை செய்து அவர்களை ஆன்மநலம் பெரும் பாதையில் திருப்புவதில் வெற்றி பெற்றார். Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमता अभिवन्दन ग्रन्थ [R09 கர்நாடக மாநிலத்தில் அறப் பயணம் ஹைதரபாத் நகரத்தில் சாதுர்மாத தவத்தையும் தீக்ஷை கொடுக்கும் வைபவத்தையும் முடித்துக் கொண்டு கர்நாடக மாநிலம் நோக்கி அறப் பயணத்தைத் துவக்கினார். பாதயாத்திரையாகவே அதிசய க்ஷேத்திரமாகிய 'ஸ்ரவணபௌகுளம்' வந்து அங்கு கி.பி. 1965 ஆம் ஆண்டு சாதுர்மாத தவத்தை மேற்கொண்டார். தியான சாதனை ஆன்மாவில் ஆழ்ந்த சிந்தனையே அழியா இன்பத்திற்கு அற்புதத் திரவுகோல். ஒருவர் தம் பணியில் வெற்றிபெற ஆழ்ந்த சிந்தனையும் அயரா உழைப்பும் அவசியம் தேவை. ஒவ்வொருவரும் ஆன்ம நலம் பெறவேண்டிய சாதனையில் அயராது உழைக்க வேண்டும். எல்லாசாதனைகளிலும் தியான சாதனைதான் வாழ்க்கையின் குறிக்கோளாக அமைய வேண்டும். நாம் எல்லொரும் ஒவ்வொரு நொடியிலும் ஏதாவது ஒரு தியானத்தைச் செய்துக் கொண்டே தான் இருக்கிறோம். ஆனால் அந்த தயானம் நல்ல தியானமாக இருக்க வேண்டும். தியானம் நான்கு வகைப்பட்டு (1) ஆர்த்த தியானம் (2) ரௌத்திர தியானம் (3) தரம் தியானம் (4) சுக்லதியானம் என. இவைகளில் முதல் இரண்டு தியானத்தை அல்லும் பகலும் அயராது நாம் செய்துதான் வருகிறோம். ஆனால் இவ்விரண்டும் பிறவிச் சுழலுக்குதான் காரணம் என்பதை நன்கு அறிந்த ஞானமதி மாதாஜீ இவைகளை விட்டு தர்மதியானத்தில் ஆழ்ந்தார். அதற்கு ஏற்ற ஸ்வணபௌகுளம் திருத்தலமும் சிறப்பாக அமைந்த்தது. சுக்ல தியானமோ இக்காலத்தில் யாருக்குமே ஏற்படுவதில்லை. இது காலத்தின் கோலம். ஒவ்வொருவரும் ஆர்த்த ரௌத்திர தியானங்களை விட்டு தர்மதியானத்தில் ஈடுபட்டு தன்னுடைய அறிய நேரத்தை - ஆன்மநலம் பெற முயல்வது சாலச்சிறந்தது. சாதுர்மாத காலங்களில் தர்ம தியானசாதளையில் ஈடுபாடு கொண்ட பூ. மாதாஜீ 15 நாட்கள் முழு நேரமும் மௌனவிரத்ம் ஏற்று விந்தியகிரி மலைமீது சென்று பகவான் பாகுபலி சுவாமியின் திருவடி அருகில் அமைந்து தியானம் செய்து வந்தார். இவருடன் ஆர்யிகை பத்மாவதி மாதாஜீ மட்டும் இருந்தார். சங்கத்திலுள்ள மற்ற துறவிகள் கிராமத்திலேயே தங்கி இருந்தனர். ஆகாரம் ஏற்பதற்கு மட்டும் கீழே வருவது, மற்ற நேரங்களில் இரவும் பகலும் மலை மீதே தங்கி தியைன சாதனையில் அயராது ஆழ்ந்து இருந்து வந்தார். இரவில் சிறிது நேரம் மட்டும் உறங்குவது மற்ற நேரங்களில் தியான சாதனையிலேயே ஈடுபட்டிருந்தார். தியானத்தில் கண்ட அற்புதக் காட்சி. பல நாட்கள் வரை இந்த தியான சாதனையில் தொடர்சி இருந்து வந்தது. ஒருநாள் அவர் தம் தியானத்தில் ஒளிமயமான அக்ருத்திம சைத்தியால்யம் காணப்பட்டது. உயரமான மேரு பர்வதம் ஜம்பூத்வீபம் கங்கை சிந்து நதிகள் விதேக க்ஷேத்திரம் அங்குள்ள எழல்மிகு இயற்கை காட்சி ஆகியவையும் காணப்பட்டன. இந்த அற்புதமான ஒப்பற்ற காட்சியைக் கண்ட பூஜ்ய ஞானமதி மாதாஜிக்கு ஏற்பட்ட ஆனந்தத்திற்கு அளவே இல்லை. மறுநாள் காலை மலையிலிருந்து கீழே வந்து பல ஆகம நூல்களை புறட்டிப்பர்த்தார். அவைகளில் திரிலோகசாரம் திலோய பண்ணத்தி ஆகிய கரணனுயோக நூல்களில் அவர் தியானத்தில் கண்ட காட்சி அளைத்தும் அப்படிக்கப்படியே இருப்பதைக் கண்டு மட்டற்ற மகிழ்ச்சி கொண்டார். தினந்தோரும் இதே தியானத்தின் தொடர்ச்சி இருந்துக் கொண்டே வந்து இதில் அன்று கண்ட அக்குத்திம சைத்தியாலயத் தொடர்ச்சியும் பிறதிபலித்துக் கொண்டே இருந்தது. தர்மதியானத்தின் ஒரு அங்கமாகிய சம்ஸ்தான விசயதர்ம தியானத்தையே அவர் செய்து வந்தார். அந்த தியானத்தில் தான் இத்தகு காட்சிகள் காணப்பட்டடன. பூ. மாதாஜீ அவர்கள் கைகொண்ட மௌண விரத நாட்களும் முடிவு பெற்றன. அத்துடன் மேற்கூறிய தியான தொடர்ச்சியும் முடிவு பெற்றது. இந்த தியானத்தின் ஒருநிலை உணர்வு முற்பிறவியில் கிடைத்த நல்வினைப் பயனால்தான் கிடைத்தது என நன் நம்பிக்கை கொண்ட மாதாஜீ இதைப்பற்றி தம் சங்கத்தாருக்கும் ஸ்ரவணபௌகுளம் பீடாதிபதியாகிய சாருகீர்திபட்டாரக சுவாமியார் அவர்களுக்கும் கூறினார். இதைக்கேட்ட பட்டாரக சுவாமியார் அவர்கள் மிக்க மகிழ்ச்சியடைந்து மாதாஜீ அவர்களை பாராட்டினார். சங்கத்திலிருந்த தியாகிகளும் கூட இரும்பூதடைந்து தியானத்தில் கண்ட அக்ருத்திம சைத்தியாலயத்தின் அமைப்பு யாவும் இந்த பாரதபூமியில் உள்ள மக்கள் காணும் வண்ணம் உருவமாக அமைக்கவேண்டும் என்று பேராவல் கொண்டு கூறினர். தென்னிந்தியாவில் கண்ட தியானத்தின் காட்சி வட இந்தியாவில் உருவம் கொண்டது. தென்னிந்தியாவில் கர்நாடக மாநிலத்தில் உள்ள ஸ்ரவணபௌகுளம் திருத்தலத்தில் பூஜ்ய மாதாஜீ அவர்கள் தியான சாதனையில் கண்ட ஜம்பூத்வீபம் சுமேரு பர்வதம் ஆகியவைகளை உருவமாக பாரத பூமியில் அமைத்து உலக மக்களுக்கு தான் பெருமையையும் மகிமையையும் சிறப்பினையும் எடுத்துக் காட்டவேண்டும் எள்கிற ஆவலுடன் இதற்கு ஏற்ற தகுதி வாய்ந்த இடத்தை தேர்ந்தெடுக்கும் எண்ணத்தில் ஆழ்ந்து கர்நாடக மாநிலத்திலிருந்து புறப்பட்டு வட இந்தியாவில் வந்த மாதாஜீ அதற்கென ஹஸ்தினாபுரம் சிறந்த இடம் என முடிவெடுத்து கி.பி. 1975ல் அங்கு திகம்பர ஜைன மூவுலக ஆய்வுக்கழகம் (Shree Digambar Jain Threelok Sohda Samsthan) என்கிற நிருவனத்தை துவக்கி அதற்கென சொந்தமான நிலத்தையும் வாங்கி ஜம்பூத்வீப நிர்மாபண பணியை அரம்பிக்கச் செய்தார். அதில் முதல் Jain Educationa international For Personal and Private Use Only / Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sld) वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला கட்டமாக 84 அடி உயரமுள்ள சுமேருமலையின் அமைப்பு கி.பி. 1979ல் உருவாகியது. அதில் அமைந்த 16 ஜினாயங்களின் பஞ்ச கல்யாணப் பெருவிழா அதே ஆண்டு ஏப்ரல் திங்கள் 29 முதல் மே திங்கள் 3 முடிய நடைபெற்றது. இந்த அமைப்பு பாரத தேசம் மட்டுமல்லாமல் இந்த மண்ணுலகிற்கே அற்புதச் சின்னமாக காட்சி அளிக்கிறது. இதைக் காண வருவபவர்களில் ஜைனர்கள் மட்டுமல்ல ஜைனரல்லாதாரும் கூட இது குதுப் மீனார் போன்றுள்ளது என கற்பனை செய்துகொண்டு இதன் மீது ஏறி வலம் வந்து பகிதிவசப்பட்டு தேவ தரிசனம் செய்து பெருமைப் படுகின்றனர். பூஜ்ய ஞானமதி மாதாஜீயின் தவ வலிமையாலும் ஞானத்தின் மகிமையாலும் ஆசீர்வாதத்தின் பலத்தாலும் இந்த ஜம்பூத்வீப அமைப்பின் நிர்மாணப்பணி தொடர்ந்து ஆறு ஆண்டுகாலம் இடைவிடாது நடைபெற்று முடிவுபெற்றது. ஜம்பூத்வீப ஞானஜோதி ரதம் சுற்றுலா (Jamboodvip Gyanjyoti Pravartan) ஜம்பூத்வீபத்தின் அமைப்பைப்பற்றி பாரத தேச முழுதும் உள்ள மக்கள் அறியவேண்டும் தென் பெருமையை உணரவேண்டும் என்கிற பேரெண்ணம் கொண்ட பூஜ்ய ஞான மதி மாதாஜீ அவர்கள் ஜம்பூத்வீப அமைப்பை ஒரு பெரிய ஊர்தியில் அமைத்து சுற்றுலா வர ஏற்பாடு செய்தார். அப்பொழுது பாரத தேச பிரதமராக இருந்த திருமதி இந்திரா காந்தி அம்மையார் அவர்கள் பூஜ்ய மாதாஜியின் ஆசீர்வாதம் பெற்று கி.பி. 1982 ஆம் ஆண்டு ஜூன் திங்கள் 2ஆம் நாள் டில்லியுலுள்ள செங்கோட்டை மைதானத்தில் சுற்றுலா ஊர்தியை துவக்கி வைத்தார்கள். இந்த சுற்றுலா ஊர்தி சுமார் 1045 நாட்கள் வரை பாரததேச முழுதும் பவணிவந்து பகவான் மகாவீரரின் அறபோதனைகளையும் பொன்மொழிகளையும் நல்லறத்தையும் பரப்பி மக்களிடத்தில் அறவுணர்வு ஊட்டி ஜம்பூத்வீபத்தின் சிறப்பினை உணர்த்தி கி.பி. 1985 ஆண்டு ஏப்ரல் திங்கள் 28 ஆம் நாள் ஹஸ்தினாபுரம் திருத்தலம் வந்தடைந்தது. சுற்றலாவும் முடிவு பெற்றது. அவ்வமயம் பாரததேச பாதுகாப்பு அமைச்சராக இருந்த P.V. நரசிம்மராவ் அவர்களும் நாடாளுமன்ற உருப்பினர் J.K. ஜைன் அவர்களும் ஞானஜோதி என்கிற நந்தாவிளக்கை ஏற்றிவைத்து திரிலோக சோத சம்ஸ்தான் பணிகளைப் பற்றியும் பூ. மாதாஜீ அவர்களையும் பாராட்டி மகிழ்ந்தனர். அந்த ஞானஜோதி இப்பொழுதும் கூட அல்லும் பகலும் ஞான ஒளியை அள்ளி வீசிக் கொண்டே இருக்கிறது. ஜம்பீத்வீப அமைப்பின் நிர்மாணப்பணி முட்வுபெற்று அதில் நிருவிய அனைத்து தேவபவனம் ஜினபிம்பம் ஆகியவைகளின் பஞ்ச கல்யாண பிரதிஷ்டைப் பெருவிழா கி.பி. 1985 ஏப்ரல் 28 முதல் மே திங்கள் 2ம் நாள் முடிவு மிகச் சிறப்பாக நடந்தேறியது. இப்பொழுது ஹஸ்தினாபுரம் பகவான் சாந்தி நாதர் காலத்தில் இருந்த ராஜதானியின் உருவத்தை மேற்கொண்டுள்ளது. அக்காலத்து பெருமையின் வர்ணனை புராணங்கலில் மட்டும் இருந்து வந்தது ஆனால் தற்போதுள்ள இதன் வளர்ச்சியையும் பூஜ்ய மாதாஜீ அவர்கள் ஆசீர்வாதத்தால் நிகழ்ந்துள்ள சிறப்பு மிக்க நற்பணிகளையும் மக்கள் கண்டு பாராட்டுகின்றனர். மாதாஜீ அவர்களின் திருவடிபட்ட இந்த இடத்தின் மண்துகல்கள் ஒவ்வொன்றும் தூய்மைபெற்று கடந்தகால வரலாற்றை நிகழ்கால வரலாற்றுடன் பிணைத்து இனிய புனித நாதம் எழுப்புகின்றன என்றால் மிகையாகாது. பூஜ்ய மாதாஜியின் வாழ்க்கையில் நிகழ்ந்த அற்புதச் சம்பவங்கள். வந்தனைக்குறிய ஆர்யிகாரத்ன ஞானமதி மாதாஜீ அவர்கள் பாரத தேசம் முழுதும் அறப்பயணம் செய்து அறம் பரப்பி அற்புதமான பணிகளைச் செய்துள்ளார் என்பதை இதுவரை படித்தீர்கள். இவரை நாடி வந்தவரும் கூட தங்கள் வாழ்நாளில் லௌகிக. ஆன்மீக துறையிலும் கூட பேருதவி பெற்றனர் என்பதைப் பற்றிய சில சம்பவங்களைக் காணலாம். காணாமற்போன இளைஞன் மீண்டும் வீடு திரும்பிய அதிசயம். கி.பி. 1983ல் நடந்த சம்வம் இது. அவதநாட்டிள் சீதாபூர் மாவட்டத் திற்குட்பட்ட 'பேல்ஹரா' என்னும் கிராமத்தைச் சார்ந்த வீரகுமார் என்னும் ஸ்ராவகர் ஒருவர் ஹஸ்தினாபுரம் வந்தார். பூ. மாதாஜியை தரிசித்து கூறினார். மாதாஜி! பதினெட்டு வயது நிரம்பிய என்னுடைய மகன் எங்கோ போய்விட்டான், எங்கு தேடியும் கிடைக்கவில்லை. மனதிற்கும் நிம்மதி இல்லை என்று கூறி கலங்கி அழ ஆரம்பித்தான். பூ. மாதாஜீ அவர்கள் அவருக்கு தைரியமுட்டி கூறினார். மனம் கலங்கவேண்டாம், நான் ஒரு மந்திரம் தருகிறேன். அதை ஒன்னேகால் இலக்ஷம் முறை ஜபிப்பாயாக. உங்கள் மகன் தன்னம் தானே வீடு வந்து சேர்ந்துவிடுவான் என்றார். வீரகுமார் அவர்களும் மாதாஜியின் வார்த்தையில் நம்பிக்கைவைத்து வீடுவந்து ஜபம் செய்ய ஆரம்பித்தார். ஆனால் மகன் பிரிவினால் மனநிம்மதி ஏது சிறிது நேரம் ஜபம் செய்வார். சோர்வு அடைந்து தன்னுடைய மகனைப் பற்றியே சிந்திப்பார். மகன் வருவானோ வரமாட்டானோ அவன் என்ன தொல்லையில் உள்ளானோ பாவம் என்றெல்லாம் சிந்திக்கலானார். இது போன்று ஒருமாதம் கழிந்தது. காவல் நிலையத்திலும் புகார் கொடுத்தார். Jain Educationa international For Personal and Private Use Only | Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ தேடித்தேடி அலைந்தார். பலன் இல்லை. மறுபடியும் மாதாஜியிடம் வந்து புலம்பினார். மாதாஜி! என் மகனை எப்படியாவது எனக்கு கிடைக்கச் செய்யுங்கள் என்றார். [369 மாதாஜி அவர்கள் கூறினார்கள் அழுவதையும் புலம்புவதையும் விட்டுவிட்டு ஒன்னேகால் இலக்ஷம் ஜபத்தை பூர்த்திசெய், உங்கள் மகன் கிடைத்துவிடுவான் என்றார். இதைக் கேட்ட அவர் குருவின் வார்த்தையில் நம்பிக்கைவைத்து ஜபம் செய்வதில் தன்மயமாய்விட்டார். ஒருநாள் ஜபத்தை பூரத்தி செய்துவிட்டு ஆலயத்திலிருந்து விடு திரும்பினார். வழியில் யாருடனோ பேசிக்கொண்டே அவர்கூறினார். இன்று ஒன்னேகால் இலக்ஷம் ஜபம் பூர்த்தி ஆய்விட்டது என் மகன் வருவானா? அவசியம் வரவேண்டும் என்று கூறிக்கொண்டே விடு சென்று உணவு உண்டு கடைக்குச் சென்று கடையில் உட்கார்ந்தார். என்ன வியப்பு. ஒரு நபர் வந்து வீரகுமாரிடம் குரினர் உன் மகன் வந்துவிட்டான். என்று இதைக் கேட்ட அவர் இரும்பூமடைந்து ஆவலுடன் தெருவில் வரும் போகும் நபர்களைப் பார்கலானார். மூன்று மாதங்களுக்கு முன்பு பிரிந்து சென்ற அவர் மகன் திலீப் குமார் வந்தேவிட்டான். இதனால் ஞானமதி மாதாஜியின் தவவலிமை சொல் வன்மை ஞானபலம் எவ்வளவு சிறந்தது என்பது தெரிகிறது. தேளின் விஷம் ஏறவில்லை. கி.பி. 1972ஆம் ஆண்டு பூஜ்ய மாதாஜியின் சங்கம் இராஜஸ்தான் மாநிலத்திலிருந்து டில்லியை நோக்கி சென்றுக்கொண்டிருக்கும்போது ஒரு நாள் இரவு ஒரு கிராமத்தில் சங்கம் தங்கியது. அப்பொழுது சங்கத்தில் பிரம்மசாரி மோதிசந்தஜி அவர்களும் ஏழு எட்டு பிரம்மசாரிணிகளும் இருந்தனர், மாதாஜி மௌனத்தில் இருந்தார். அவர் படுத்திருந்த பலகையின் அருகில் ஏதோ மாதாஜியின் காலை கடிப்பதாக தெரிந்தது. டார்ச் (Battery) எடுத்து பார்த்தபோது ஒரு பெரிய சுருந்தேன் இருந்தது. உடன் இருந்தவர்கள் அதை அப்புறப்படுத்தி விட்டனர் மாதாஜியின் காலில் தேள் கொட்டிய அடையாளம் நன்கு தெரிந்தது. விஷம் ஏறிவிட்டால் மாதாஜிக்கு துன்பம் உண்டாகுமே என்று எல்லோரும் பயந்தனர். சிறிய கிராமம் எந்தவிதமான அனுகூலமும் இல்லை, ஏதும் செய்ய முடியவில்லை. ணமோங்கார மந்திரத்தை ஜபிப்பதை தவிர வேறு உபாயம் இல்லை, எல்லோரும் ணமோங்கார மந்திரத்தையே உச்சரித்தனர். மாதாஜி நியானம் செய்துவிட்டு உறங்கிவிட்டார். மறுநாள் காலை ஆரோக்கியமாக காணப்பட்டார். அங்கிருந்து புறப்பட்டுவிட்டனர். தேளின் விஷம் ஏறவில்லை இதுவும் கூட மாதாஜியின் நியாகத்தின் வலிமையே ஆகும். வயது முதிர்ந்த அம்மையாரின் நோய் நீங்கியது. கி.பி. 1987ல் வயது முதிர்ந்த ஒரு பிரம்மசாரிணீ அம்மையார் ஹஸ்தினாபுரம் வந்தார். அவர் முனிபத்தர். ஒரு நாள் அவர் திடீரென். நோய் வாய்ப்பட்டார். அவருடைய இரண்டு கால்களும் அதிகமாக வீங்கிவிட்டன. அவர் மாதாஜியின் பழைய புடவையை பிரம்மசாரிணியிடம் கேட்டுவாங்கி அணிந்துக்கொண்டார். உடனே அவர் ஆரோக்கியமடைந்து மாதாஜியிடம் வந்து அவருக்கு புதிய மயிற்பீலியை கொடுத்து பழைய மயிற்பீலியை வாங்கிக்கொண்டார். எவர் முழுதளவும் பிரம்மசரியம் ஏற்று ரத்னதிரயத்தை ஆராதிக்கிறரோ ஆன்மநலம் பெறும் சாதனையில் ஈடுபாடு கொண்டுள்ளாரோ அவர்கள் செய்யும் தவவலிமையால் அவர்களை நாடிவந்தவர்களும் கூட பலநன்மைகளைப் பெறுகின்றனர். அதுபோலவே வந்தனைக்குறிய ஞானமதி மாதாஜியின் அருகில் எவர் வருகிறர்களோ அவர்களும் கூட லௌகே துரையிலும் ஆன்மீக துறையிலும் பல நற்பயன்களைப் பெறுகின்றனர். அம்மையாரின் ஆசீர்வாதத்தால் இயற்கையின் சீற்றம் தணிந்தது. ஹஸ்தினாபுரத்தில் ஜம்பூத்வீப நிர்மாணப்பணி நடைபெற்றுக் கொண்டிருந்தது. 84 அடி உயரமுள்ள சுமேரு பர்வதம் அமைக்கும் பணியில் நூற்றுக்கணக்கான ஆட்கள் ஈடுபட்டிருந்தனர். பொறியாளர்கள் விருப்பப்படி வின்டல் (பலகை) பொருத்தும் வேலை நடைபெற்றிக்கொண்டிருந்தது. அப்பொழுது ஆகாயத்தில் திடீரென கருமேகும் சூழ்ந்தது. அதிக வேகமாக பெய்யும் மழை வருமோ என பயம் ஏற்பட்டது. எல்வோரும் பயந்தனர். மழைபெய்தால் விண்டம் எல்லாம் விழுத்துவிடுமே அளவிலா நஷ்டம் ஏற்பட்டுவிடுமோ? என அஞ்சி திரு மோதீசந்தஜீ அவர்களும் திரு ரவிந்திர குமார்ஜி அவர்களும் மாதாஜியிடம் சென்று வருத்தத்துடன் கூறினர். அம்மையீர்! அதிக மழை பெய்தால் எல்லா வேலையும் கெட்டுவிடுமே இந்த கவலை எங்களை வாட்டுகிறதே என்றனர். மாதாஜி அவர்கள் கூறிஞர்கள், கவலைப்படாதே எல்லாம் நல்லதாகவே அமையும். என்ன அதிசயம்-அன்று இரவு கனத்த மழை கொட்டியது. ஆனால் எவ்வித நஷ்டமும் ஏற்படவில்லை. அப்பொழுது பொறியாளர் கூறினர் இந்த மழை அமிருதத்திற்கு ஒப்பாடும் கட்டிய இந்த சென்டிரிங்குக்கு எவ்வித நஷ்டமும் இல்லை. இந்த அதிசயம் எல்லாம் மாதாஜியின் ஆசிர்வாதத்தின் நற்பலனே ஆகும். Jain Educationa International பூஜ்ய ஞானமதி மாதாஜீ எவ்வளவு கருணை உள்ளம் படைத்தவர் என்பது நேரிடையாக வந்து அனுபவம் பெற்றவர்களுக்குத்தான் தெரியும். இவரிடம் வந்தவர்கள் ஏழை. செல்வந்தன் நண்பன் விரோதி ஜைன் ஜைனரல்லாதார் எவராய் இருந்தாலும் சரி எல்லோருக்கும் சமதா பாவத்துடன் பேசுவது இவருடைய இயல் குணமாகும். For Personal and Private Use Only / Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला மாதாஜியின் பேருரையால் பலருக்கு நன்மை. விளக்கு தன்னையும் பிறபொருட்களையும் பிரகாசிப்பது போலவும் சந்தனமரம் நஞ்சுள்ள் பாம்பின் தொடர்ப்பு கொண்டபோதும் அதிக மணம் தருவது போலவும் வந்நனைக்குறிய மாதாஜீ அவர்கள் பிறருக்கு உதவி செய்வதே தன்னுடைய வாழ்க்கையின் குறிக்கோலாகக் கருதி வந்தார். பலகுமரிப் பெண்களையும் மாதர்களையும் விதவைகளையும் சம்சாரமென்னும் சகதியிலிருந்து முக்திப் பாதையில் திருப்பினார். இளைஞர்களையும் முதியோர்களையும் ஞானமார்கத்தில் ஈர்ந்து தியாகமென்னும் உச்சிக்கு கொண்டு போனார். இதற்கு எடுத்துக்காட்டாக ஆசார்ய சாந்திசாகரின் நான்காவது பட்டசீடராகிய ஆசார்ய அஜிதசாகரர் அவர்கள் ஒருவரே சான்றாகும். பாலபிரம்மசாரி திரு ராஜமல்ஜீ அவர்களுக்கு கி.பி. 1958-59ல் ஆகம நூலாகிய ராஜவார்திகம் கோமட சாரம் கர்மகாண்டம் பஞ்சாத்யாயி முதலிய நூல்களை கற்பித்து துறவு ஏற்கும் வண்ணம் அவருடைய மணதை மாற்றி முனிதிக்ஷைக்கு ஏற்ற மனப்பக்குவமடையச் செய்து கி.பி. 1961ல் ராஜஸ்தானில் உள்ள சீகர் என்னுமிடத்தில் ஆசார்ய சிவசாகர் முனிவரிடம் தீக்ஷைப்பெற்று அஜிதசாகர் முனிவராவதற்கு காரணகர்த்தாவாக இருந்தவர் பூஜ்ய ஞாமைதி மாதாஜீ அவர்களை அவர். தியாகத்தின் சிறப்பினாலும் பெண் உள்ளத்தில் ஏறப்பட்ட உதார குணத்தாலும் ஆர்யிகை ஞானமதி மாதாஜீ அவர்கள் தன்னிடம் பயின்று முணி தீக்ஷைய் பெற்ற ஆசார்ய அஜித சாகர முனிபுங்கவருக்கு அவர் தீக்ஷைப்பெற்ற உடனே நமோஸ்து செய்தார். பூஜ்ய மாதாஜியின் சீடர்களாகிய ஸ்ரீ ஜினமதி மாதாஜீ ஆதிமதி மாதாஜீ அவர்கள் இவரிடம் கல்வி பயின்று 'பிரமேய கமலமார்தண்டம் கோமடசாரம்' முதலிய மிக மிக கடினமான நூல்களை இந்தியில் மொழிபெயர்க்கும் ஆற்றலைப் பெற்றுள்ளனர். இவருடைய சீடராகிய பல ஆர்யிகைகளும் பிரம்மசாரிணிகளும் தங்கள் தங்கள் தகுதிக்கு ஏற்றவாறு ஆங்காங்கு அறப்பிரசாரம் செய்து வருகின்றனர். இலக்கிய உலகில் ஈடற்ற சேவை. உருதி உள்ளம் கொண்ட உத்தமருக்கு உயர்வு அவசியம் உண்டு என்பதற்கு ஏற்ற 'பூய ஞானமதி மாதாஜி அவர்கள் சீடர்களை தயார் செய்வதில் ஏற்ற மிக்க வெற்றி கண்டவர் மட்டுமல்லாமல் இலக்கிய உலகிலும் கூட ஈடற்ற சேவை செய்துள்ளார். இவர் இதுவரை சுமார் 150 புத்தகங்களை இயற்றியுள்ளார், நூற்றுக் கணக்காண சமஸ்கிருத கவிதைகளையும் படைத்துள்ளார். அஷ்ட சகஸ்ரீ போன்ற கஷ்டமான நூலுக்கு இந்தி உரையும் ஆன்மீக நூலாகிய 'நியமசாரம்' என்னும் நூலுக்கு சமஸ்கிருத மொழியில் உரை எழுதியுள்ளார். பாலர்களுக்கு ஏற்ற 'பாலவிகாஸ' என்னும் புத்தகம் கதை வடிவில் வடித்து சமுதாயத்திற்குத் தந்துள்ளார். பக்தியின் மார்க பிரபாவனையாக இந்திர த்வஜவிதானம் கல்பதரும விதானம் போன்ற பூஜைபுத்தகங்களையும் தயார் செய்து பக்தி உலகத்து பக்தர்களின் மனதை மலரச் செய்துள்ளார், புகழுக்கும் இசுழுக்கும் இசையாத இவர் ஆன்ம நன்மைக்காகவும் மக்கிளின் மேன்பாட்டற்காகவும் அல்லும் பகலும் அயராது உழைத்து இரத்னதிரயமென்னும் மும்மணியின் சாதனையில் முழுமூச்சியுடன் ஈடுபட்டு முக்தி உலகையடைய முயலும் அம்மையார் வாழ்க வாழ்க. அபலைகள் அழகு மலர்கள் மோகத்தின் வலைகள். ஆன்ம நெறியும் தியாக உணர்வும் அவர்களுக்கில்லை என் தரணி மக்கள் கூறும் தவரான வார்த்தையை தள்ளி எரிந்தது ஞானமதியின் தளராத பணிகள், Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३९१ ਮਾਤਾ ਸ੍ਰੀ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਅਭਿਨੰਦਨ ਗ੍ਰੰਥ ਦੇ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਨ ਹੇਤੁ ਕਾਂਤੀਕਾਰੀ ਜੈਨ ਮਾਤਾ ਸ੍ਰੀ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਜੀ ਲੇਖਕ : ਪਰਸ਼ੋਤਮ ਜੈਨ, ਰਵਿੰਦਰ ਜੈਨ, ਮਾਲੇਰਕੋਟਲਾ। ਜੈਨ ਧਰਮ ਤੇ ਇਸਤਰੀ ਜੈਨ ਧਰਮ ਵਿੱਚ ਅਧਿਆਤਮਿਕ ਤੇ ਸਮਾਜਿਕ ਪਖੋਂ ਇਸਤਰੀ ਦਾ ਸਰਵਉੱਚ ਸਥਾਨ ਹੈ। ਅੱਜ ਜਦ ਇਸਤਰੀ ਸੁੰਦਰਤਾ ਦੀ ਗੱਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਸਾਡਾ ਧਿਆਨ ਜੈਨ ਮਣ ਪ੍ਰੰਪਰਾ ਦੀ ਸਾਧਵੀ ਪ੍ਰੰਪਰਾ ਤੇ ਸਾਵਿਕ (ਉਪਾਸਿਕਾ) ਪਰਾ ਵੱਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜੈਨ ਤੀਰਥੰਕਰਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਧਰਮ ਤੀਰਥ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਵੇਲੇ ਸਾਧੂ-ਸਾਧਵੀ, ਸ਼ਾਵਕ ਤੇ ਸਾਵਿਕਾ ਰੂਪੀ ਧਰਮ ਤੀਰਥ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਇਸੇ ਸੱਚੇ ਤੀਰਥ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕਾਰਨ ਰਿਸ਼ਵਦੇਵ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਵਰਧਮਾਨ ਮਹਾਂਵੀਰ ਤੱਕ ਸਾਰੇ ਜਿਨੇਸਵਰਾਂ ਨੂੰ ਤੀਰਬੰਕਰ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਇਹ ਚਾਰ ਤੀਰਥ ਜੁੜਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਜੈਨ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਵਿੱਚ ਇਸਨੂੰ ਸਿੰਘ ਆਖਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਸੰਘ ਵਿੱਚ ਪੁਰਸ਼ਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਇਸਤਰੀਆਂ ਵੀ ਧਾਰਮਿਕ ਤੇ ਸਮਾਜਿਕ ਆਨੰਦ ਮਾਣਦੀਆਂ ਹਨ। ਪਹਿਲੇ ਤੀਰਥੰਕਰਾਂ, ਭਗਵਾਨ ਰਿਸ਼ਵਦੇਵ ਦੀਆਂ ਦੋ ਸਪੁੱਤਰੀਆਂ ਬ੍ਰਹਮੀ ਤੇ ਸੁੰਦਰੀ ਇਸ ਯੁੱਗ ਦੀਆਂ ਮਹਾਨ ਸਾਧਵੀਆਂ ਸਨ। ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਬ੍ਰਹਮੀ ਤੋਂ ਬ੍ਰਹਮੀ ਲਿਪੀ ਦੀ ਉਤਪੱਤੀ ਹੋਈ। ਜੈਨ ਪ੍ਰੰਪਰਾ ਵਿੱਚ ਤੀਰਥੰਕਰਾਂ ਦਾ ਬਹੁਤ ਸਨਮਾਨ ਨਾਲ ਵਰਨਣ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ। 22ਵੇਂ ਤੀਰਥੰਕਰ ਭਗਵਾਨ ਨੇਮਨਾਥ ਦੀ ਮੰਗੇਤਰ ਸਾਧਵੀ ਰਾਜੂਲ ਦਾ ਆਪਣਾ ਇਤਿਹਾਸ ਹੈ। ਭਗਵਾਨ ਪਾਰਸਨਾਬ ਦੇ ਧਰਮਸੰਘ ਵਿੱਚ ਸਾਧਵੀ ਪੁਸ਼ਪਚੁਲਾ ਸਾਧਵੀ ਜਿਹੀਆਂ ਅਨੇਕਾਂ ਵਿਦਵਾਨ ਸਾਧਵੀਆਂ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਹੈ। ਭਗਵਾਨ ਮਹਾਂਵੀਰ ਦਾ ਯੁੱਗ ਧਾਰਮਿਕ ਤੇ ਸਮਾਜਿਕ ਪਖੋਂ ਭਾਰਤੀ ਇਤਿਹਾਸ ਦਾ ਹਨੇਰ ਭਰਪੂਰ ਯੁੱਗ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਉਸ ਯੁੱਗ ਵਿੱਚ ਇਸਤਰੀ ਨੂੰ ਦਾਸੀ ਬਣਾਕੇ ਗੁਲਾਮਾਂ ਦੀ ਮੰਡੀ ਵਿੱਚ ਪਸ਼ੂਆਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੇਚਿਆ ਜਾਂਦਾ ਸੀ। ਇਸਤਰੀ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਮਾਜਿਕ ਤੇ ਧਾਰਮਿਕ ਅਧਿਕਾਰ ਹਾਸਲ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਭਗਵਾਨ ਬੁੱਧ ਨੇ ਵੀ ਇਸਤਰੀਆਂ ਨੂੰ ਬੜੀ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਧਰਮ ਵਿੱਚ ਦੀਖਿਅਤ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਅਜਿਹੇ ਸਮੇਂ ਭਗਵਾਨ ਮਹਾਂਵੀਰ ਨੇ ਆਪਣੀ 36000 ਹਜ਼ਾਰ ਸਾਧਵੀਆਂ ਦੀ ਵਾਗਡੋਰ ਇੱਕ ਬਾਜ਼ਾਰ ਵਿੱਚ ਵਿਕੀ, ਦਾਸੀ ਚੰਦਨਾਂ ਦੇ ਸਪੁਰਦ ਕਰਕੇ ਦਾਸ ਪ੍ਰਥਾ ਦਾ ਅੰਤ ਕੀਤਾ। ਅੱਜ ਵੀ ਭਗਵਾਨ ਮਹਾਂਵੀਰ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾਲ ਸਾਧਵੀ ਪਰਿਵਾਰ ਸਾਰੇ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਵੇਖਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਮਾਤਾ ਸ੍ਰੀ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਜੀ ਜੈਨ ਪ੍ਰੰਪਰਾ ਵਿੱਚ ਦੋ ਮੁੱਖ ਫਿਰਕੇ ਹਨ: ਦਿਗੰਬਰ ਅਤੇ ਸ਼ਵੇਤੰਬਰ । ਦੋਹਾਂ ਫਿਰਕਿਆਂ ਵਿੱਚ ਸਾਧਵੀਆਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਸਾਧੂਆਂ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਹੈ। ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਹਸਤਨਾਪੁਰ ਦੀ ਨਿਰਮਾਤਾ ਮਹਾਨ ਕ੍ਰਾਂਤੀਕਾਰੀ ਮਾਤਾ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਜੀ ਦਾ ਸਬੰਧ ਜੈਨ ਦਿਗੰਬਰ ਸਾਧਵੀ ਪ੍ਰੰਪਰਾ ਨਾਲ ਹੈ। ਆਪ ਦੀ ਮਹਾਨਤਾ ਦਾ ਅੰਦਾਜ਼ਾ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਤੀਰਥ ਨੂੰ ਵੇਖ ਕੇ ਅਤੇ ਆਪ ਦੁਆਰਾ ਰਚਿਤ ਵਿਸ਼ਾਲ ਸਾਹਿਤ ਪੜ ਕੇ ਅਤੇ ਆਪ ਦੇ ਮਹਾਨ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਕੇ ਹੀ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਗੁਨਗਾਨ ਕਰਨਾ, ਸੂਰਜ ਨੂੰ ਦੀਵਾ ਦਿਖਾਉਣ ਦੇ ਤੁਲ ਹੈ। | ਅਜਿਹੀ ਮਹਾਨ ਆਤਮਾ ਦਾ ਜਨਮ ਸਾਵਣ-ਸ਼ੁਕਲਾ ਪੂਰਨਮਾਸੀ ਸੰਨ 1934 ਨੂੰ ਟਿਕੈਤਨਗਰ (ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼) ਵਿਖੇ ਲਾਲਾ ਛੋਟੇ ਲਾਲ ਦੀ ਧਰਮਪਤਨੀ ਮਾਤਾ ਮੋਹਨੀ ਦੇਵੀ ਦੀ ਪਵਿੱਤਰ ਕੁਖੋਂ ਹੋਇਆ। ਇਹ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਕੋਈ ਮਾਮੂਲੀ ਲੜਕੀ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਇਹ ਲੜਕੀ ਤਾਂ ਜੈਨ ਧਰਮ ਦਾ ਭਵਿੱਖ ਸੀ। ਲੜਕੀ ਦੇ ਜਨਮ ਦਿਨ ਤੇ ਲੜਕੀ ਦੇ ਬਾਬਾ ਸ੍ਰੀ ਧਨ ਕੁਮਾਰ ਜੈਨ ਨੂੰ ਮਿੱਤਰਾਂ ਵਲੋਂ ਵਧਾਈਆਂ ਮਿਲੀਆਂ। ਆਪ ਦੇ ਮਾਤਾ ਪਿਤਾ ਨੇ ਆਪ ਦਾ ਨਾਮ ਮੈਨਾ ਰਖਿਆ। ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਹੀ ਮੈਨਾ ਨੂੰ ਜੈਨ ਧਰਮ ਦੇ ਸੱਚੇ ਸੰਸਕਾਰ ਤੇ ਵਾਤਾਵਰਣ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ। ਮੈਨਾ ਦਾ ਜ਼ਿਆਦਾ ਸਮਾਂ ਜੈਨ ਮੰਦਿਰ ਵਿੱਚ ਪੂਜਾ ਤੇ ਸ਼ਾਸਤਰ ਪੜਨ ਤੇ ਸੁਣਨ ਵਿੱਚ ਗੁਜ਼ਰਦਾ। ਸਮਾਂ ਬੀਤਦਾ ਗਿਆ। ਮੈਨਾ ਦੇ ਮਾਤਾ ਪਿਤਾ ਨੇ ਮੈਨਾ ਦੀ ਸਿਖਿਆ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕੀਤਾ। ਸਿਖਿਆ 5-6 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਵਿੱਚ ਹੀ ਆਪਨੇ ਜੈਨ ਧਰਮ ਦੇ ਮੁਢਲੇ ਸਿਧਾਂਤ ਯਾਦ ਕਰ ਲਏ। ਆਪ ਦੀ ਬੁੱਧੀ ਤੇਜ਼ ਦੇਖ ਕੇ ਆਪ ਦੇ ਪਿਤਾ ਨੇ ਪੰਡਿਤ ਕਾਮਤਾ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਜੀ ਅਤੇ ਪੰਡਿਤ ਜਮਨਾ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਤੋਂ ਆਪ ਨੂੰ ਜੈਨ ਧਰਮ ਸ਼ਾਸਤਰਾਂ ਦਾ ਸੂਖਮ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ. ਇਹ ਦੋਵੇਂ ਵਿਦਵਾਨ ਆਪਣੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਜੈਨ ਵਿਦਵਾਨ ਸਨ, ਮੈਨਾ ਨੂੰ ਸਿਖਿਅਤ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਪੂਜਨੀਕ ਮਾਤਾ ਦਾ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਹੱਥ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਹੋ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਆਪਦੇ ਘਰ ਵਿਚੋਂ ਆਪ ਦੇ ਹੋਰ ਪਰਿਵਾਰ ਵਾਲਿਆਂ ਨੇ ਦਿਗੰਬਰ ਜੈਨ ਦਿਖਿਆ ਗ੍ਰਹਿਣ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਛੋਟੀ ਉਮਰ ਵਿੱਚ ਹੀ ਆਪ ਦੀ ਮਹਾਨਤਾ ਦੇ ਲੱਛਣ ਪ੍ਰਗਟ ਹੋਣੇ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਏ ਸਨ। ਆਪਨੇ ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਅੱਜ ਤੱਕ ਕਦੇ ਵੀ ਗਲਤ ਸਿਧਾਂਤਾ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਾ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ। ਆਪਨੇ ਧਰਮ ਨੂੰ ਆਤਮਾ ਵਿੱਚ ਉਤਾਰਿਆ ਹੈ। ਛੋਟੀ ਉਮਰ ਵਿੱਚ ਹੀ ਆਪਨੇ, ਆਪਣੇ ਘਰ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਗਲਤ ਅਤੇ ਸਿਧਾਂਤਹੀਨ ਮਾਨਤਾਵਾਂ ਨੂੰ ਤਿਆਗਣ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਣਾ ਦਿੱਤੀ ਸੀ। ਵੈਰਾਗ ਵੈਰਾਗ ਸਾਧੂ ਜੀਵਨ ਦੀ ਪਹਿਚਾਨ ਹੈ, ਆਤਮਾ ਹੈ ਅਤੇ ਤਿਆਗੀ ਜੀਵਨ ਦਾ ਮੂਲ ਆਧਾਰ ਹੈ। ਵੈਰਾਗ ਦਾ ਸਾਧੂ ਨਾਲ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸਬੰਧ ਹੈ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਫੁੱਲਾਂ ਦਾ ਖੁਸ਼ਬੂ ਨਾਲ। ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਹੀ ਮੈਨਾ ਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਕਾਮ ਭੋਗਾਂ ਤੇ ਸੰਸਾਰਿਕ ਸੁਖਾਂ ਤੋਂ ਨਫ਼ਰਤ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਆਪਣੇ ਆਤਮਾ ਦੇ ਕਲਿਆਣ ਦੀ ਚਿੰਤਾ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀ। ਮੈਨਾ ਦਾ ਯੁੱਗ ਇਸਤਰੀਆਂ ਪਖੋਂ ਕਾਫ਼ੀ ਪਿਛੜਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਇਸਤਰੀਆਂ ਦੀ ਤਰਸਯੋਗ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਬਹੁਤ ਹੀ ਨਜ਼ਦੀਕੋ ਵੇਖਿਆ। ਇੱਕ ਛੋਟੀ ਜਿਹੀ ਘਟਨਾ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸਾਧੂ ਜੀਵਨ ਦਾ ਕਾਰਨ ਹੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਘਟਨਾ ਤੋਂ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਮਹਾਨ ਚਿੰਤਨ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ। “ਇੱਕ ਵਾਰ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਇੱਕ ਪੰਡਿਤ ਜੀ ਧਰਮ ਪ੍ਰਚਾਰ ਲਈ ਜੈਨ ਮੰਦਿਰ ਪਧਾਰੇ। ਉਹਨਾਂ ਆਪਣੇ ਉਪਦੇਸ਼ ਵਿੱਚ ਕਿਹਾ, “ਹਰ ਪ੍ਰਾਣੀ ਅਨੰਤ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ ਮਾਲਕ ਹੈ।) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ੩੧੨] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ਉਸੇ ਸਭਾ ਵਿੱਚ ਬੈਠੀ ਮੈਨਾ ਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਨੇ ਹੋਰ ਸੋਚਣ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਮੈਨਾ ਸੋਚਣ ਲੱਗੀ ਕਿ ਜੇ ਹਰ ਜੀਵ ਵਿੱਚ ਅਨੰਤ ਸ਼ਕਤੀ ਹੈ, ਤਾਂ ਮੈਂ ਇਸਨੂੰ ਜ਼ਰੂਰ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਾਂਗੀ, ਚਾਹੇ ਇਸ ਲਈ ਮੈਨੂੰ ਕਿੰਨੀ ਵੀ ਕੁਰਬਾਨੀ ਕਿਉ ਨਾ ਦੇਣੀ ਪਵੇ। ਮੈਨਾ ਨੂੰ ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਹੀ ਝੂਠੇ ਪਖੰਡਾਂ ਤੋਂ ਬਹੁਤ ਹੀ ਨਫ਼ਰਤ ਸੀ। ਉਸਨੇ ਛੋਟੀ ਉਮਰ ਵਿੱਚ ਹੀ ਸਮੱਕਤਵ ਦਾ ਸਰੂਪ ਸਮਝ ਲਿਆ ਸੀ। ਇੱਕ ਵਾਰ ਆਪਨੇ ਬੁੰਦੇਲ ਖੰਡ ਦੇ ਪੰਡਿਤ ਮਨੋਹਰ ਲਾਲ ਸ਼ਾਸਤਰੀ ਜੀ ਨੂੰ ਜੈਨ ਧਰਮ ਦੇ ਸਮਿੱਕਤਵ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਸੁਣਾਈ। ਪੰਡਿਤ ਜੀ ਆਪਦੀ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਨੂੰ ਸੁੱਣ ਕੇ ਬਹੁਤ ਖੁਸ਼ ਹੋਏ, ਉਹਨਾਂ ਭਵਿੱਖ ਬਾਣੀ ਕੀਤੀ, “ਇਹ ਲੜਕੀ ਸਾਧਾਰਨ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਇਹ ਤਾਂ ਇੱਕ ਦੇਵੀ ਹੈ, ਇਹ ਆਪ ਦਾ ਨਾਂ ਧਰਮ ਪ੍ਰਚਾਰ ਰਾਹੀਂ ਰੋਸ਼ਨ ਕਰੇਗੀ। ਗੁਰੂ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਭਾਰਤੀ ਧਰਮ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿੱਚ ਗੁਰੂ ਦਾ ਆਪਣਾ ਸਥਾਨ ਹੈ। ਭਗਤ ਕਬੀਰ ਨੇ ਤਾਂ ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿਹਾ ਹੈ, ਜੋ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਰੁੱਸ ਜਾਏ, ਤਾਂ ਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਜੇ ਗੁਰੂ ਰੁੱਸ ਜਾਏ ਤਾਂ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਵੀ ਜੀਵ ਦੀ ਮਦਦ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ”। ਜੈਨ ਧਰਮ ਵਿੱਚ ਵੀ ਗੁਰੂ ਨੂੰ ਅਗਿਆਨ ਦਾ ਵਿਨਾਸ਼ਕ ਅਤੇ ਮੋਕਸ਼ ਮਾਰਗ ਦਾ ਉਪਦੇਸ਼ ਦੇਣ ਵਾਲਾ ਮੰਨਕੇ ਸਨਮਾਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਗੁਰੂ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਬੜੇ ਭਾਗਾਂ ਨਾਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਇਸੇ ਲਈ ਗੁਰੂ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਸਾਰੇ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਤੋਂ ਮਹਾਨ ਮੰਨਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਅਚਾਰੀਆ ਸ੍ਰੀ ਦੇਸ਼ਭੂਸ਼ਨ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਦਾ ਨਾਂ ਕਿਸੇ ਵਾਕਫ਼ੀ ਦਾ ਮੁਹਥਾਜ ਨਹੀਂ। ਮਹਾਂਵੀਰ ਨਿਰਵਾਨ ਸ਼ਤਾਬਦੀ ਸਮੇਂ, ਆਪਜੀ ਵਲੋਂ ਕੀਤੀ ਜੈਨ ਧਰਮ ਤੇ ਸਾਹਿਤ ਦੀ ਸੇਵਾ ਅਨਮੋਲ ਹੈ। ਸੰਨ 1952 ਵਿੱਚ ਟਿਕੈਤਨਗਰ ਵਿਖੇ ਮੈਨਾ ਨੇ ਸਾਰੇ ਪਰਿਵਾਰ ਸਮੇਤ ਮਹਾਰਾਜ ਸ਼ੀ ਦੇ ਦਰਸ਼ਨ ਕੀਤੇ। ਮਹਾਰਾਜ ਸ਼ੀ ਜੀ ਦੇ ਪਹਿਲੇ ਉਪਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਿਤ ਹੋਕੇ, ਮੈਨਾ ਨੇ ਬ੍ਰਹਮਚਰਜ ਵਰਤ ਧਾਰਨ ਕੀਤਾ। ਆਪਨੇ ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ ਸਮੁੱਚਾ ਜੀਵਨ ਗੁਰੂ ਚਰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਸਮਰਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਫ਼ੈਸਲਾ ਕਰ ਲਿਆ। ਇਸੇ ਸਮੇਂ ਮੈਨਾ ਦੇ ਘਰ ਉਸਦੀ ਭੈਣ ਮਾਲਤੀ ਦਾ ਵੀ ਜਨਮ ਹੋਇਆ। 1952 ਦਾ ਚੋਮਾਸਾ ਅਚਾਰੀਆ ਸ੍ਰੀ ਦੇਸ਼ਭੂਸ਼ਨ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਨੇ ਬਾਰਾਬੰਕੀ ਵਿਖੇ ਕੀਤਾ। ਮੈਨਾ ਨੇ ਇਸ ਚੋਮਾਸੇ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਵਕ ਵਰਤ ਦੀ ਸਤਵੀਂ ਤਿਮਾ ਧਾਰਨ ਕੀਤੀ। ਇਹ ਆਪਦਾ ਸੰਜਮ ਵੱਲ ਪਹਿਲਾ ਕਦਮ ਸੀ। ਸ਼ੁਲੀਕਾ ਦੀਖਿਆ | 16 ਸਾਲ ਦੀ ਉਮਰ ਵਿੱਚ ਮੈਨਾ ਨੇ ਸ੍ਰੀ ਮਹਾਂਵੀਰ ਜੀ ਤੀਰਥ (ਰਾਜਸਥਾਨ) ਵਿਖੇ ਅਚਾਰੀਆ ਦੇਸ਼ਭੂਸ਼ਨ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਤੋਂ ਚੇਤ ਕ੍ਰਿਸ਼ਨਾ 1 ਨੂੰ ਦਿਗੰਬਰ ਜੈਨ ਸੂਲੀਕਾ ਦੀਖਿਆ ਗ੍ਰਹਿਣ ਕੀਤੀ। ਆਪ ਦਾ ਨਾਂ ਗੁਰੂ ਜੀ ਨੇ ਵੀਰਮਤੀ ਰਖਿਆ। ਆਪ ਦੀ ਸਹਿ ਗੀ ਮਾਤਾ ਬ੍ਰਹਮਮਤੀ ਜੀ ਸਨ। 1953 ਵਿੱਚ ਆਪ ਸੂਲੀਕਾ ਵਿਸ਼ਾਲਮਤੀ ਜੀ ਨਾਲ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋ ਗਏ । ਅਚਾਰੀਆ ਸ਼ਾਂਤੀ ਸਾਗਰ ਜੀ ਦੇ ਸਮਾਧੀ ਮਾਰਗ ਸਮੇਂ, ਆਪ ਨੇ ਦੱਖਣ ਭਾਰਤ ਵਿੱਚ ਕਈ ਤੀਰਥਾਂ ਦੀ ਯਾਤਰਾ ਕੀਤੀ, ਅਨੇਕਾਂ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਤੇ ਜੈਨ ਗ੍ਰੰਥਾਂ ਦਾ ਸੂਖਮ ਅਧਿਐਨ, ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਪਾਸੋਂ ਕੀਤਾ। ਇਸ ਸਮੇਂ ਆਪ ਪਾਸ ਮਾਤਾ ਪਦਮਾਵਤੀ ਨੇ ਦੇਖਿਆ ਗ੍ਰਹਿਣ ਕੀਤੀ। ਆਰਜਿਆ ਦੀਖਿਆ ਤੇ ਧਰਮ ਪ੍ਰਚਾਰ ਅਚਾਰੀਆ ਸ਼ਾਂਤੀ ਸਾਗਰ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਦੇ ਦੇਵਲੋਕ ਜਾਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਆਪਦੇ ਵਿਦਵਾਨ ਚੇਲੇ ਵੀਰਸਾਗਰ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਅਚਾਰੀਆ ਬਣੇ । ਮਾਧੋਰਾਜਪੁਰਾ ਵਿਖੇ ਆਪਨੇ ਅਚਾਰੀਆ ਵੀਰਸਾਗਰ ਤੋਂ ਆਰਜਿਕਾ ਦੀਖਿਆ ਗ੍ਰਹਿਣ ਕੀਤੀ। ਆਪ ਦਾ ਨਾਂ ਬਦਲ ਕੇ ਮਾਤਾ ਸ੍ਰੀ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਜੀ ਰਖਿਆ ਗਿਆ। ਇਥੇ ਰਹਿ ਕੇ ਆਪਣੇ ਵਿਆਕਰਣ, ਨਿਆਏ ਤਰਕ, ਜੋਤਿਸ਼ ਤੇ ਹੋਰ ਜੈਨ ਅਤੇ ਅਜੈਨ ਗ੍ਰੰਥਾਂ ਦਾ ਅਧਿਐਨ ਕੀਤਾ। ਆਪਨੇ ਲੰਮੀਆਂ ਜੈਨ ਤੀਰਥਾਂ ਦੀਆਂ ਯਾਤਰਾ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ। ਆਪਦੇ ਵਿਦਿਆ ਗੁਰੂਆਂ ਵਿੱਚ ਅਚਾਰੀਆ ਸ਼੍ਰੀ ਮਹਾਂਵੀਰ ਕੀਰਤੀ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਅਤੇ ਅਚਾਰੀਆ ਸ੍ਰੀ ਸ਼ਿਵ ਸਾਗਰ ਜੀ ਮਹਾਰਾਜ ਦੇ ਨਾਂ ਵਰਨਣ ਯੋਗ ਹਨ। 1963-64 ਵਿੱਚ ਆਪ ਕਲਕੱਤਾ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ, ਸਮੇਤ ਸ਼ਿਖਰ ਤੀਰਥ ਪਹੁੰਚੇ। ਉਥੇ ਆਪਨੇ ਸੂਲੀਕਾ ਅਭੈਮਤੀ ਨੂੰ ਦੀਖਿਅਤ ਕੀਤਾ। 1965 ਦਾ ਚੋਮਾਸਾ ਆਪਨੇ ਕਰਨਾਟਕ ਦੇ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਤੀਰਥ ਸ੍ਰਵਨ ਬੇਲਰਿਲਾ ਵਿਖੇ ਕੀਤਾ। ਇਹ ਤੀਰਥ ਗੋਮਟੇਸ਼ਵਰ ਬਾਹੂਬਲੀ ਦੀ 57 ਫੁੱਟ ਉੱਚੀ ਮੂਰਤੀ ਕਾਰਨ ਸੰਸਾਰ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹੈ। ਇਥੇ ਹੀ ਜੈਨ ਰਾਜਾ ਚੰਦਰਗੁਪਤ ਮੋਰੀਆ ਦੀ ਸਮਾਧੀ ਹੈ। ਇਸ ਜਗ੍ਹਾ ਵਿੰਧਿਆ ਗਿਰਿ ਪਹਾੜੀ ਤੇ ਆਪਨੇ 15-15 ਦਿਨ ਮੌਨ ਵਰਤ ਧਾਰਨ ਕਰਕੇ, ਧਿਆਨ ਕੀਤਾ। ਉਸ ਸਮੇਂ ਆਪ ਦੇ ਮਨ ਵਿੱਚ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਦਾ ਨਕਸ਼ਾ ਸਾਹਮਣੇ ਆ ਗਿਆ। ਆਪਨੇ ਵਿਚਾਰ ਕੀਤਾ ਕਿ ਸ਼ਾਸਤਰਾਂ ਵਿੱਚ ਵਰਨਣ ਕੀਤੇ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਦੀ ਰਚਨਾ ਧਰਤੀ ਤੇ ਕਿਉਂ ਨਾ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ? ਆਪ ਦਾ ਇਹ ਸੁਪਨਾ 1975 ਵਿੱਚ ਸਾਕਾਰ ਰੂਪ ਲੈ ਗਿਆ, ਜਦੋਂ ਆਪਨੇ ਹਸਤਨਾਪੁਰ ਵਿਖੇ ਸ਼੍ਰੀ ਦਿਗੰਬਰ ਜੈਨ ਤਰਲੋਕ ਸ਼ੋਧ ਸੰਸਥਾਨ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ । ਪਹਿਲੇ ਗੇੜ ਵਿੱਚ 84 ਫੁੱਟ ਉੱਚੇ 16 ਮੰਦਿਰਾਂ ਵਾਲੇ ਸਮੇਰੂ ਪਰਬੜ ਦੀ ਰਚਨਾ 1979 ਵਿੱਚ ਹੋਈ। 6 ਸਾਲ ਦੇ ਘੱਟ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਹੀ ਪੂਰਾ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਿਆ। 28 ਅਪਰੈਲ ਤੋਂ 2 ਮਈ 1985 ਤੱਕ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਦੀ ਪੰਚ ਕਲਿਆਨਕ ਪੂਜਾ ਹੋਈ। ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਵਿੱਚ ਹੀ ਗਿਆਨ ਜਿਓਤੀ ਅਤੇ ਕਮਲ ਮੰਦਰ ਜਿਹੀਆਂ ਸੁੰਦਰ ਇਮਾਰਤਾਂ ਹਨ, ਧਰਮਸ਼ਾਲਾ, ਭੋਜਨਸ਼ਾਲਾ, ਗੈਸਟ ਹਾਊਸ ਅਤੇ ਹਸਪਤਾਲ ਜਿਹੀਆਂ ਕਈ ਪਰਉਪਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਭਗਵਾਨ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨਾਬ, ਭਗਵਾਨ ਕੁੰਬੂ ਨਾਥ ਤੇ ਭਗਵਾਨ ਅਰਹ ਨਾਥ ਦੀ ਜਨਮ ਭੂਮੀ ਤੇ ਕੰਮ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਮਾਤਾ ਜੀ ਜੈਨ ਤਰਕ, ਧਰਮ, ਦਰਸ਼ਨ, ਇਤਿਹਾਸ, ਭੂਗੋਲ, ਖਗੋਲ ਆਦਿ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਤੇ ਮਹਾਨ ਵਿਦਵਾਨ ਹਨ। ਆਪਨੇ 150 ਦੇ ਕਰੀਬ ਗੰਥ ਲਿਖੇ ਹਨ। ਆਪਨੇ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਦੀ ਰਚਨਾ ਕਰਕੇ ਦੇਸ਼ ਤੇ ਵਿਦੇਸ਼ਾਂ ਦਾ ਧਿਆਨ ਜੈਨ ਭੂਗੋਲ ਤੇ ਗਣਿਤ ਵੱਲ ਖਿਚਿਆ ਹੈ। ਦੁਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਆਪਣੀ ਮਿਸਾਲ ਆਪ ਹੈ। ਮਾਤਾ ਜੀ ਦੇ ਕਈ ਗ੍ਰੰਥਾਂ ਦਾ ਅਨੁਵਾਦ ਹੋਰ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਹੈ। ਅਨੇਕਾਂ ਅੰਤਰਰਾਸ਼ਟਰੀ ਗੋਸ਼ਟੀਆਂ ਤੇ ਸੈਮੀਨਾਰ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਤੇ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਕਈ ਰੰਥ ਤਾਂ ਲੱਖਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿੱਚ ਛਪੇ ਹਨ। ਮਾਤਾ ਗਿਆਨ ਮਤੀ ਜੀ ਇੱਕ ਸਰਲ ਆਤਮਾ ਸਨ। ਆਪਦਾ ਸਾਰਾ ਜੀਵਨ ਮਾਨਵਤਾ ਲਈ ਸਮਰਪਿਤ ਹੈ। ਆਪ ਸਭ ਦੀ ਗੱਲ ਪਿਆਰ ਨਾਲ ਸੁਣਦੇ ਹਨ। ਸਹਿਣਸ਼ੀਲਤਾ, ਪੱਕਾ ਇਰਾਦਾ, ਸੱਚ ਲਈ ਲੜਨਾ, ਗਰੀਬਾਂ ਦੀ ਮਦਦ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਸਮਾਜਿਕ ਬੁਰਾਈਆਂ ਰੋਕਣਾ ਆਪ ਦੇ ਜੀਵਨ ਦੇ ਪ੍ਰਮੁੱਖ ਉਦੇਸ਼ ਹਨ। ਸਵਰਗੀ ਪ੍ਰਧਾਨ ਮੰਤਰੀ ਸ੍ਰੀਮਤੀ ਇੰਦਰਾ ਗਾਂਧੀ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਹੁਣ ਤੱਕ ਸਾਰੇ ਕੇਂਦਰੀ ਵਜ਼ੀਰ ਅਤੇ ਉੱਤਰ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਵਜ਼ੀਰ ਹਸਤਨਾਪੁਰ ਵਿਖੇ ਆਉਂਦੇ ਹਨ। ਮਾਤਾ ਜੀ ਰਾਹੀਂ ਸਥਾਪਿਤ ਜੰਬੂ ਦੀਪ ਸਮੇਤ ਸਾਰੀਆਂ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਵੇਖਦੇ ਹਨ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਤਰੱਕੀ ਵਿੱਚ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਯੋਗਦਾਨ ਪਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਮਾਤਾ ਜੀ ਹਰ ਗਰੀਬ-ਅਮੀਰ ਨੂੰ ਧਰਮ ਉਪਦੇਸ਼ ਰੂਪੀ ਆਸ਼ੀਰਵਾਦ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ 25ਵੀਂ ਮਹਾਂਵੀਰ ਨਿਰਵਾਨ ਸ਼ਤਾਬਦੀ ਸੰਯੋਜਿਕਾ ਸਿਮਿਤ ਪੰਜਾਬ ਵਲੋਂ ਵਿਧੀ ਅਨੁਸਾਰ ਆਪ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਵਿੱਚ ਬੰਦ ਕਰਕੇ ਸ਼ੁਭ ਕਾਮਨਾਵਾਂ ਭੇਜਦੇ ਹਾਂ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WEANIA मूलाचार कालन्य रुपमाला विधान कल्पना ACCIA विधान 56द्रव TWLATI EMPIRE विधान Nep फलपतला HCHE मानामृE दशधर्म समावि प्रतिज्ञा Jain Educationa international Unive Sandipanajabe Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३९३ अष्टसहस्त्री ग्रंथराज है ! समीक्षक- बाल ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये ॥ आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र के प्रारंभ में इस "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगलाचरण को किया था। इस “महाशास्त्र" के ऊपर "महाभाष्य" लिखते हुए श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इस एक मंगलाचरण श्लोक की व्याख्या करते हुए “आप्तमीमांसा' नाम से एक ग्रंथ ही रच दिया। जैसाकि अष्टसहस्री ग्रन्थ के टिप्पणीकार श्री लघु समंतभद्र ने भी इसे स्पष्ट किया है। यथा "इह हि खलु पुरा . . . . . . उमास्वामिपादाचार्यवरासूत्रितस्य तत्त्वाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमुपनिबन्धन्तः . . . . . श्रीस्वामिसमंतभद्राचार्यवर्यास्तत्र मंगलपुरस्सर-स्तवविषयपरमाप्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिप्तवंतो देवागमाभिधानस्य प्रवचनतीर्थस्य सृष्टिमापूरयांचक्रिरे।" तत्त्वार्थाधिगमरूप मोक्षशास्त्र के ऊपर "गंधहस्ति" नामसे महाभाष्य लिखते हुए श्रीसमंतभद्र स्वामी ने मंगलाचरण में स्तुति के विषय को प्राप्त परम आप्त के गुणों के अतिशयों की परीक्षा करते हुए देवागमस्तोत्र नामक प्रवचनतीर्थ की सृष्टि को बनाया है अष्टसहस्री ग्रंथ के कर्तास्वयं श्रीविद्यानंद महोदय ने अंतिम एक सौ चौदहवीं कारिका की टीका में कहा है "शास्त्रारम्भे भिष्टतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभृद्भेत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरा परीक्षेयं विहिता।" शास्त्र के आरम्भ में स्तुति को प्राप्त जो आप्त हैं, वे मोक्षमार्ग के प्रेणेता, कर्मपर्वत के भेत्ता और विश्वतत्त्व के ज्ञाता, इन तीन विशेषणों से युक्त भगवान अहंत सर्वज्ञ ही हैं अन्य कोई नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार अन्य योग का निराकरण करके भगवान अहंत में ही इन विशेषणों की व्यवस्था को करने में तत्पर यह परीक्षा की गई है। इस उद्धरण से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह मंगलाचरण श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा ही रचित है और इस मंगलाचरण पर ही "आप्तमीमांसा" बनी है। ऐसे ही अनेक प्रकरण अष्टसहस्री ग्रंथ में हैं ही, “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक" आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथों में भी हैं जो कि इस "मोक्षमार्गस्य" आदि श्लोक को श्री उमास्वामी आचार्यकृत सिद्ध कर रहे हैं। अतः इस विषय को यहां अधिक नहीं लेना है। ये श्री उमास्वामी आचार्य "नंदिसंघ" की पट्टावली के अनुसार श्रीकुंदकुंदाचार्य के पट्ट पर वि०सं० १०१ में आसीन हुये हैं, ऐसा उल्लेख है। आप्तमीमांसा- श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इस मंगलाचरण पर आप्त की मीमांसापरीक्षा करते हुये ११४ कारिकायें बनाई हैं और उसका नाम "आप्तमीमांसा" दिया है इसके प्रारंभ में “देवागम" पद आ जाने से इसका “देवागमस्तोत्र" यह नाम भी प्रसिद्ध है। ये ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी में माने गये हैं। अष्टशती- इनके इस स्तोत्र पर श्री अकलंकदेव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण में "अष्टशती" नाम से भाष्य लिखा है। ये आचार्य श्री ईस्वी सन् की ६२० से ६८० में हुये हैं ऐसा पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने सिद्ध किया है। अष्टसहस्री- इसके बाद ईस्वी सन् ८०० में श्रीविद्यानंद आचार्य हुये हैं जिन्होंने “अष्टशती" समेत इस आप्तमीमांसा पर आठ हजार श्लोकप्रमाण “अष्टसहस्री' नाम से टीका लिखी है। अतः यह अष्टसहस्री ग्रंथ चार महान् आचार्यों की अद्भुत रचना है। वर्तमान में पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने "स्याद्वादचिंतामणि" नाम से हिंदी टीका लिखी है। अष्टसहस्त्री ग्रन्थ का विषय- श्री समंतभद्रस्वामी ने पहली कारिका में कहा है देवागमनभोयान- चामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ।।१॥ इसकी उत्थानिका में श्री विद्यानन्दाचार्य उत्प्रेक्षालंकार में कहते हैं- "कस्मद् देवागमादिविभूतितोऽहं महान्नामिष्टुत इति स्फुट पृष्टा इव स्वामिसमन्तभद्राचार्या : प्राहुः" मानो भगवान ने प्रश्न ही किया कि हे समन्तभद्र ? देवागम, आदि विभूति से मैं महान् हूं पुनः आप मेरी स्तुति क्यों नहीं करते हैं ? इस प्रकार स्पष्टतया भगवान के प्रश्न करने पर ही मानो श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं ___ आपके जन्म कल्याणक आदिकों में देवों का आगमन, आपका आकाशमार्ग में गमन एवं समवशरण में चामर-छत्र आदि अनेक विभूतियों का होना, यह सब बाह्य वैभव मायावी-विद्याधर, मस्करी आदि में भी पाया जा सकता है, अतः हे भगवन् ! हम लोगों के लिये आप महान नहीं हैं- स्तुति के योग्य नहीं हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आगे इसी प्रकार मानो भगवान के प्रश्नों का उत्तर देकर नाना वैभव व अतिशयों से भी नमस्कार के योग्य न सिद्ध करते चौथी पांचवीं कारिका में कहते हैं- "दोष और आवरण ही हानि पूर्णतया हो जाने से कोई न कोई आत्मा शुद्ध हो जाती है पुनः सूक्ष्मादि पदार्थों का शता हो जाने से सर्वश हो जाता है।" आगे छठी कारिका में कहते हैं- "स त्वमेवासि निर्दोषो. ..." हे भगवन् ! वे निर्दोष आप ही हैं अतः आप हमारे स्तुति के योग्य हैं इत्यादि । इस प्रकार श्रीसमंतभद्रस्वामी ने आप्त सच्चे देव की मीमांसा- परीक्षा करते हुए उन्हें सच्चे देव सिद्ध किया है। इस ग्रंथ में दश परिच्छेद हैं। दश परिच्छेद के विषय : प्रत्येक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खंडन में उपयैकाल्य तथा अवाच्य एकांत का खंडन करते हुये "विचारोधानोभयैकाल्य स्वाद्वादन्यायविद्विषां अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति बुज्यते इस कारिका को प्रत्येक अध्याय में लिया है अतः यह कारिका दस बार आई है। प्रथम परिच्छेद में २३ कारिकायें हैं। इसमें मुख्यता से भावैकान्त और अभावैकान्त का खंडन करके स्याद्वाद प्रक्रिया में सप्तभंगी को घटित किया है। द्वितीय परिच्छेद में १३ कारिकाओं में एकत्व और पृथक्त्व को एकान्त से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व पृथक्त्वरूप ही है यह प्रगट किया है। तृतीय परिच्छेद में २४ कारिकाओं में नित्यानित्य को अनेकान्तरूप से दिखाया है। चतुर्थ परिच्छेद में १२ कारिका में एकांत से भेद - अभेद का निराकरण कर भोदाभेदात्मक वस्तु को सिद्ध किया है। पांचवें परिच्छेद में ३ कारिका में एकांत का निराकरण कर कथंचित् आपेक्षिक- अनापेक्षिकरूप वस्तु को सिद्ध किया है। छठे में ३ कारिकाओं में हेतुबाद और आगम को स्वाद्वाद से सिद्ध करके सप्तभंगी प्रक्रिया घटायी है। सातवें में ९ कारिका में अंतस्तत्त्व - बहिस्तत्त्व को अनेकांत से सिद्ध किया है। आठवें में ४ कारिकाओं में दैव- पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रकट किया है। नवमें परिच्छेद में ४ कारिकाओं द्वारा पुण्य-पाप का अनेकांत उद्योतित किया है और दशवें परिच्छेद में १९ कारिकाओं द्वारा ज्ञान अज्ञान से मोक्ष और बंध की व्यवस्था को प्रकाशित किया है तथा स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। श्रीविद्यानन्दाचार्य ने स्वयं इस अष्टसहस्री की विशेषता को प्रकट करते हुये कहा है श्रोतव्याष्टसहस्त्री, श्रुतैः किमन्यैः सहस्वसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव, स्वसमय-परसमयसद्भावः ॥ इस एक अष्टसहस्त्री को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों ग्रंथों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्त्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है। आचार्यदेव की यह गर्वोक्ति नहीं है, प्रत्युत् स्वभावोक्ति ही है। अंत में इसमें "कष्टसहस्री सिद्धाः साष्टसहस्त्रीयमत्र मे पुण्यात्।" शश्वदभीष्टसहली, कुमारसेनोक्ति वर्द्धमानार्थी यह श्लोक लेकर इसको सहस्रों कष्ट से सिद्ध होने वाली ऐसी “कष्टसहस्री” यह विशेषण देकर इस ग्रंथ की क्लिष्टता को भी दिखा दिया है और ये हजारों मनोरथों को सफल करे ऐसी भावना व्यक्त की है। स्याद्वादचिन्तामणि टीका चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के तृतीय पट्टाचार्य श्रीधर्मसागरजी महाराज का चतुर्विध संघ सहित सन् १९६९ का चातुर्मास जयपुर शहर में हुआ था। उन दिनों संघ मुनियों, आर्थिकाओं, ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों को आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अनेक ग्रंथों का अध्ययन करा रही थीं। प्रातः अष्टसहली ग्रंथ के समय मुनिश्री अभिनंदनसागरजी (वर्तमान में छठे पटदाचार्य) मुनिश्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी बैठते थे कई एक आर्थिकयें एवं ब्रह्मचारी मोतीचंद भी पढ़ते थे। मोतीचंदजी ने बंबई परीक्षालय से शास्त्री का एवं कलकते से न्यायतीर्थ परीक्षा का फार्म भरा था। मूल संस्कृत से अष्टसहस्री पढ़ते समय मोतीचंद बार-बार परीक्षा देने की असमर्थता व्यक्त किया करते थे । इधर माताजी को अष्टसहस्त्री पढ़ाने में बहुत ही आनंद आ रहा था अतः माताजी ने अष्टसहस्त्री का भुवाद प्रारंभ कर दिया। इस अनुवाद में लिखे गये सारांशों को पढ़कर संघस्थ विद्यार्थियों ने शास्त्री और न्यायतीर्थ की परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की थी। माताजी का परिश्रम सन् १९६९ में श्रावणमास में इसका अनुवाद प्रारंभ किया था। उस समय माताजी की दिनचर्या ऐसी थी कि "प्रातः ७.०० बजे से ९.३० बजे तक साधु-साध्वियों को अष्टसहस्त्री तत्त्वार्थराजवार्तिक, आदि का अध्ययन कराना। मध्याह्न में १.०० बजे से ४.३० बजे तक गोम्मटसार, गद्यचिन्तामणि, व्याकरण आदि का अध्ययन कराना । पुनः रात्रि में सामायिक के बाद लगभग ८.०० बजे से प्राय: ११.०० बजे तक अष्टसहस्त्री ग्रन्थ का अनवाद, पुनः पिछली रात्रि में प्रायः ३.०० बजे से उठकर नित्य आवश्यक क्रियाओं को करके ६.०० बजे से ७.०० बजे तक अनुवाद करती थीं। यह अनुवाद कार्य सन् १९७० में टोडारायसिंह गांव में पौष शु० १२ के दिन पूर्ण किया है। टोंक में सन् १९७० में सर्दी के दिनों में प्रतिदिन प्रातः बाहर शौच के लिये जाती थीं तब वहां की बर्फ जैसी ठंडी-ठंडा रेत में एक-एक फुट पैर धंस जाते थे। उन दिनों की ठंडी ऐसी लगी कि माताजी को बहुत जोर से जुखाम, खांसी का प्रकोप इतना अधिक हो गया था कि वैद्यों द्वारा बतायी गयी कोई भी काढ़ा आदि औषधियां गुण नहीं कर रही थीं। डॉक्टर वैद्यों ने बहुत बार निवेदन किया कि माताजी बैठकर झुककर जो लिखाई कर रही हैं इससे यह नजला रोग बढ रहा है इन्हें दिन में भी घण्टे दो घण्टे विश्राम अवश्य करना चाहिये। किंतु माताजी ने किसी की भी न सुनकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मध्याह्न १२.१५ बजे सामायिक पूर्ण हो जाती तो अनुवाद लिखने बैठ जातीं। इसमें माताजी को नये विषयों को पढ़ने-लिखने में आनंद भी आता था और यह भावना थी कि इस अनुवाद को पूरा करके ही छोड़ना है बीच में अधूरा नहीं छोड़ना है। यही कारण है कि अपनी आवश्यक क्रियाओं को करते हुये, ४-५ घण्टे तक साधुवर्ग को ऊंचे-ऊंचे ग्रंथों का अध्ययन कराते हुए पुनः ४-५ घंटे अनुवाद कार्य करते हुए माताजी को थकान महसूस नहीं होती थी । वास्तव में "ज्ञानामृत" भोजन आत्मा को बहुत ही पुष्टि तुष्टि प्रदान करने वाला है। यह माताजी का स्वयं का अपना अनुभव है । गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ अष्टसहस्त्री प्रकाशन : यह अष्टसहस्त्री ग्रन्थ अनुवाद सहित तीन भागों में प्रकाशित है। प्रथम भाग में ४४४ पृष्ठ हैं। छह कारिकायें हैं, एक सौ इक्यासी शीर्षक हैं, भावार्थ और विशेषार्थ एक सौ सत्रह हैं और सारांश तेरह हैं। द्वितीय भाग में ४२४ पेज हैं। इसमें प्रथम परिच्छेद पूर्ण किया गया है अतः इसमें सत्रह कारिकायें हैं, एक सौ चार शीर्षक हैं, एक सौ उनंचास भावार्थ - विशेषार्थ हैं और सत्रह सारांश हैं। तृतीय भाग में ६०८ पेज हैं। इसमें द्वितीय से दशम परिच्छेद तक ग्रंथ पूर्ण हो गया है, अतः इसमें इक्यानवें कारिकायें हैं, एक सौ साठ शीर्षक है, इक्यावन भावार्थ- विशेषार्थ हैं और इकतीस सारांश हैं। इस प्रकार इस पूरे ग्रन्थ में एक सौ चौदह कारिकायें हैं, चार सौ पैंतालीस शीर्षक तीन सौ सत्रह भावार्थ-विशेषार्थ और इकसठ सारांश है कारिकाओं का पद्यानुवाद भी चौबोल छंद में पूज्य माताजी द्वारा रचित है। मंगलाचरण करते हुए चौबीस श्लोकों में माताजी ने भूमिका बनाई है जिसमें सत्रहवां श्लोक इस प्रकार है स्याद्वादचिंतामणिनामधेया, टीका मयेयं क्रियतेऽल्पबुद्धया । चिंतामणिः चिंतितवस्तुदाने, सम्यक्त्वशुद्धयै भवतात् सदा मे ।। १७ ।। पूज्य माताजी कई बार बतलाया करती हैं कि इस क्लिष्ट न्याय ग्रंथ का अनुवाद करते समय मुझे जितना आनंद प्राप्त हुआ है और जितनी सम्यक्त्व की विशुद्धि हुई है वह मेरे ही अनुभव गम्य है उसका वर्णन लेखनी द्वारा या वचनों द्वारा संभव ही नहीं है। इसमें जो शीर्षक हैं उन्हें माताजी ने प्रकरण के अनुसार बनाया है तथा कोष्ठक में इसीलिये रखा है कि जिससे वे मूल ग्रंथ के अंग न बन जावें । उसका एक नमूना देखिये, प्रथम भाग में पृ० २६० पर श्री अकलंकदेव ने अहराती भाष्य में कहा है (अधुना मीमांसकाभिमत सर्वशाभावस्य मीमांसां कुर्वन्ति जैनाचार्याः 1) कुछ भावार्थ आदि के नमूने देखिये "देवागमेत्यादिमंडलपुरस्सर श्रद्धागुणज्ञातालक्षणं प्रयोजनमाक्षिप्तं लक्ष्यते।" इसका भावार्थ देखिये - [३९५ "इस ग्रंथ में आप्त- अर्हत भगवान की परीक्षा करने में श्रद्धा और गुणज्ञाता ये दो ही प्रयोजन मुख्य हैं। यदि हमारे में श्रद्धा और भगवान के गुणों का ज्ञान नहीं है तो कथमपि उनको परीक्षा नहीं की जा सकती है। यदि श्रद्धा या गुणज्ञाता इन दोनों गुणों में से एक गुण नहीं हो तो भी आप्त की परीक्षा नहीं हो सकती है। इस कथन से यह भी जाना जाता है कि श्री समंतभद्रस्वामी भगवान के गुणों में विशेष रूप से अनुरक्त हो करके ही व्यंग्यात्मक शैली से आप्त की परीक्षा के बहाने से उनके महान गुणों की स्तुति कर रहे हैं। इससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि जो व्यक्ति किसी देव शास्त्र या गुरुओं की परीक्षा को करने में रुचि रखते हैं उन्हें श्रद्धालु एवं गुणग्राही होना चाहिए, न कि अश्रद्धालु या दोषज्ञ।" 1 वेद को अपौरुषेय मानने पर उसके खंडन का विस्तृत विशेषार्थ दिया गया है। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखो, "उन वेदों के व्याख्यान करने वाले अल्पज्ञ हैं या सर्वज्ञ ? सर्वज्ञरूप पक्ष तो आपको अनिष्ट ही है एवं अल्पज्ञ को वेद का व्याख्याता मानने से तो अन्यथा - विपरीत अर्थ की भी संभावना हो सकती है।" इत्यादि Jain Educationa International प्रथम भाग पृ० २३२ पर जो विशेषार्थ है उसमें विज्ञानाद्वैतवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्याद्वैतवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, शब्दाद्वैतवाद, इनके लक्षण दे-देकर इनका अच्छा खंडन किया गया है। किंचित् नमूना देखिये- "यदि आप जगत् को शब्दरूप मानते हो तब तो यह भी प्रश्न होता है कि यह शब्दब्रह्म जगत्रूप परिणत होता है, तब अपने स्वभाव को छोड़कर होता है या बिना छोड़े ? यदि छोड़कर कहो तो शब्दब्रह्म अनादिनिधन कहां रहा ? यदि शब्द अपने स्वभाव को छोड़े बिना भी जगत्रूप होता है तब तो बहिरे को, एकेन्द्रिय आदि को, और तो क्या पत्थर को भी सुनाई देना चाहिये,, क्योंकि सभी चेतन-अचेतन पदार्थ शब्दब्रहम से तन्मय हो तो हैं, किंतु ऐसा दिखता तो है नहीं इत्यादि । प्रथम भाग पृ० २५० के भावार्थ में इन्द्रियों के भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रियों के लक्षण को तत्त्वार्थसूत्र के आधार से खुलासा किया है। प्रथम भाग के पृ० २९२ पर भावार्थ में "अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिमान कर्मों से पराजित होना स्पष्ट है इस बात को तत्त्वार्थराजवार्तिक, द्रव्यसंग्रह ग्रंथ से सिद्ध किया है। मूल में अष्टशती पंक्ति देखिये १- अष्टसहस्त्री भाग-१, पृष्ठ- १० २ अष्टसहस्त्री भाग-१, पृ० १७८ - For Personal and Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६] "यस्य हानिरतिशयवती तस्य कुतश्चित्सर्वात्मना व्यावृत्ति, यथा बुद्धयादिगुणस्याम्नः " जिसकी हानि अतिशयरूप से है उसका कहीं न कहीं परिपूर्णरूप से अभाव पाया ही जाता है। जैसे कि पाषाण में बुद्धि आदि (प्राणों) का सर्वथा अभाव पाया जाता है। प्रथम भाग के पृ० ३०० पर जो भावार्थ है उसमें मिट्टी के ढेले को सर्वधा निर्जीव सिद्ध किया है। इसमें तत्त्वार्थवार्तिक के आधार से पृथ्वी पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक एवं पृथ्वीजीव ऐसे प्रत्येक स्थावर के चार-चार भेद बतलाकर पृथ्वीकाय-मिट्टी के ढेले को निर्जीव बतलाया है। इससे जो पृथ्वी या पत्थर के कण-कण में जीव मानते हैं उनको अपनी श्रद्धा आगमानुकूल बनानी चाहिये । अभव्य जीवों में मिथ्यात्वादि का परम प्रकर्ष है वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला (प्र०भा०१० ३१४) इस प्रकरण में विशेषार्थ में माताजी ने तत्त्वार्थराजवार्तिक के प्रमाण उद्धृत कर अभव्यों में भी शक्तिरूप में मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान सिद्ध किया है हो इन अभव्यों में इनकी व्यक्ति प्रकटता नहीं हो सकती है यही भव्यों से अभव्यों में अंतर है, इत्यादि प्रथम भाग पृ० ३१९ | के भावार्थ में तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार के आधार से सर्वज्ञ भगवान धर्म को भी जानते है इत्यादि सिद्ध किया है। द्वितीय भाग में पृ० ७६ पर विशेषार्थ में "प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव, इन चारों अभावों का अच्छा खुलासा किया है इसी ग्रन्थ में पृ० १५२ पर शब्दों को नित्य एवं सर्वव्यापी मानने वाले मीमांसक की मान्यता का अच्छा निराकरण है। I सारांश में सरलीकरण . सारांशों में विषय को बहुत ही सरल किया गया है। इन सारांशों को पढ़कर ही हम ब्रह्मचारी विद्यार्थियों ने अष्टसहस्त्री का रहस्य समझकर सोलापुर परीक्षालय के शास्त्रीखंड की परीक्षा देकर उत्तीर्णता प्राप्त की है। इसी से इन सारांशों का महत्त्व समझ में आ जाता है एक उदाहरण देखिये "नैयायिकाभिमते शब्दनित्यत्व का सारांश" नैयायिक शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है। उनका कहना है कि शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है . .। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द पुद्गल की ही पर्याय है अतः मूर्तिक हैं . शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है। कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी रखा रहा है उसके कुड़कुड़ शब्दों से प्रायः प्रतिघात देखा जाता है एवं भवन भित्ति आदि से भी प्रतिघात देखा जाता है । इत्यादि।" (अष्टसहस्री द्वितीय भाग पृ० १७३ ) इसी प्रकार "इतरेतराभाव के सारांश में सत्ता में भी "तिष्ठति" आदि प्रकार से ८१ भेद करने का स्पष्टीकरण है। पुनरपि 'इतरेतराभाव और अत्यंताभाव' की सिद्धि का जो सारांश है उसमें अतीव सरलता से "इतरेतराभाव" और "अत्यन्ताभाव" को दिखाया है (द्वि० भा० ० २१४ से २२० तक) पद्यानुवाद इस ग्रन्थ की मूल कारिकायें ११४ हैं, उनका पद्यानुवाद पूज्य माताजी ने सन् १९७१ में ब्यावर (राजस्थान) में किया था। फिर भी अष्टसहस्त्री प्रथम भाग के प्रथम संस्करण में जो कि सन् १९७२ से ही छपना शुरू हो गया था उसमें देना रह गया। पुनः अभी सन् १९८९ में प्रथम भाग का द्वितीय संस्करण एवं द्वितीय भाग छपा उसमें भी पद्यानुवाद देना रह गया। अतः दोनों ग्रंथों की प्रस्तावना में कारिका सहित पद्यानुवाद दे दिया है। तृतीय भाग में कारिकाओं के साथ ही पद्यानुवाद दे दिया है। यह पद्यानुवाद चौबोल छंद में है जो कि कारिका के मर्म को बहुत ही स्पष्ट कर रहा है। देखिये यथा Jain Educationa International तीर्थकृत्समयानांच, परस्परविरोधतः । सर्वेषामापतता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरूः ॥ ३ ॥ सभी मतों में सभी तीर्थकृत्, के आगम में दिखे विरोध । सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते अतः जिनेश । मंगलश्लोक : प्रत्येक परिच्छेद के प्रारंभ में माताजी ने मंगलाचरण हेतु संस्कृत श्लोक बनाया है। इसे श्री विद्यानंदसूरी के "मंगलश्लोक" के पहले दिया है। इन सब में से कोई एक ही, आप्त- सत्यगुरू हो सकता । चित् सर्वज्ञदेव परमात्मा, सत्व हितंकर जग भर्ता ॥ ३ ॥ अद्वैतद्वैतनिर्मुक्तं, शुद्धात्मनि प्रतिष्ठितं । ज्ञानैकत्वं परं प्राप्त्यै नुमः स्याद्वादनायकम् ।। १ ।। [तृ०भा० पृ० १] For Personal and Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [३९७ यद्यपि इसकी टाइप बदल दी है फिर भी हिंदी अनुवाद में कोष्ठक में ऐसा दिया है-यथा- (यह मंगलाचरण हिंदी टीकाकर्वी द्वारा किया गया है) यह माताजी की अत्यर्थरूप से पापभीरुता का ही सूचक है। अष्टशती भाष्य : श्रीअकलंकदेव ने "आप्तमीमांसा" ग्रंथ पर अष्टशती नाम से जो भाष्य लिखा है। श्रीविद्यानन्दसूरि ने उसे अपनी अष्टसहस्री में ऐसा गूंथ लिया है या अनुस्यूत कर लिया है कि जैसे बेला के पुष्पों की माला में चमेली के पुष्प एकमेव हो जाते हैं अतः उन्हें अलग से समझना अत्यंत कठिन हो सकता था । इसीलिये मूल अष्टसहस्री में "अष्टशती" की टाइप मोटी रखी गई है और हिंदी अनुवाद में भी अष्टशती के अर्थ की टाइप ब्लैक रखी गई है। उद्धृत श्लोक इस अष्टसहस्री ग्रंथ में श्री विद्यानन्द आचार्य ने जितने भी श्लोक उद्धृत किये हैं यद्यपि मूल ग्रंथ में उनकी टाइप अलग दी है ५ नं० ब्लेक में उन्हें अलग से दिया है फिर भी उन सभी का संकलन परिशिष्ट में कर दिया है। तृतीय भाग में अंत में “आप्तमीमांसा" की सभी ११४ कारिकायें एक साथ दे दी हैं। जिससे एक साथ "स्तोत्र" का पाठ करने वालों को सुविधा रहेगी। नियोग विधि भावनाधिकार बंबई परीक्षालय के शास्त्री कोर्स में अष्टसहस्री के विषय में लिखा था "नियोग विधिभावनाधिकार वर्जित ।" इसलिये माताजी ने अष्टसहस्री का अनुवाद करते हुये तृतीय कारिका के मध्य का यह सारा प्रकरण छोड़ दिया था। जब अनुवाद कार्य पूरा होने को था तभी माताजी ने ब्र० मोतीचंद से, पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य, फिरोजाबाद वालों के पास पत्र लिखाया कि आप यह नियोगादि के प्रकरण का हिंदी अनुवाद कर दीजिये। उनका उत्तर आया। माताजी ! मैंने जब तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक का हिंदी अनुवाद किया था तब पाव-पाव बादाम खाकर पचा लेता था अब वह शक्ति नहीं है, अतः मैं इस कार्य में असमर्थ हूं। तब माताजी ने पं० जीवंधर कुमारजी उज्जैन वालों को पत्र लिखाया। उनका भी उत्तर आया कि मुझे अष्टसहस्री का अध्ययन छोड़े तीस वर्ष के ऊपर हो गये हैं अतः मैं इस कार्य में असक्षम हूँ। तब माताजी स्वयं इस प्रकरण को लेकर जिनमंदिर में जाकर बैठ गईं और जिनेंद्रदेव को अपने हृदय में विराजमान कर लिखना शुरू कर दिया। आश्चर्य है कि जिस प्रकरण को माताजी ने अतीव दुरूह समझकर छोड़ दिया था वह बिल्कुल सरल प्रतीत हुआ और सात दिन में ही इसका अनुवाद पूर्ण हो गया। यह प्रकरण अष्टसहस्री भाग-१ ग्रंथ में पृ० २५ से लेकर पृ० १७१ तक है। इसमें अनेक भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश भी दिये गये हैं। पाठकों को इसे पढ़कर स्वयं ही अनुभव आयेगा कि यह अत्यन्त जटिल प्रकरण भी कितना अच्छा, सरल और सुंदर बन गया है। अष्टसहस्री में खंडन-मंडन : इस ग्रंथ में चार्वाक, सांख्य, बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक और वैशेषिक इन सबकी एकांत मान्यताओं का खंडन करके सर्वत्र अनेकांतरूप जैनधर्म का मंडन किया गया है। जैसे कि कोई एकांत से दैव-भाग्य को ही सब कुछ कहते हैं तो कोई पुरुषार्थ को ही सब कुछ कहते हैं, किंतु आचार्यदेव ने दोनों के एकांत का खंडन करके बहुत ही सुंदर समन्वय किया है। यथा अबुद्धिपूर्वापेक्षाया-मिष्टानिष्टं स्वदैवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षाया -मिष्टान्टिं स्वपौरुषात् ॥ अबुद्धिपूर्वक- बिना सोचे-समझे जो अच्छे या बुरे कार्य हो जाते हैं उनमें अपना भाग्य प्रधान है और जब बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा होने से इष्ट या अनिष्ट कार्य होते हैं तब पुरुषार्थ प्रधान माना जाता है। इत्यादि। सन् १९७३ में इस ग्रन्थ के ८-१० छपे फर्मे देखकर पं० कैलाशचंद सिद्धांत शास्त्री ने बहुत ही प्रसन्न होकर कहा था कि "अनेकों विद्वान् मिलकर इतना सुंदर अनुवाद कार्य नहीं कर सकते थे कि जैसा माताजी ! आपने किया है . . . . ।" ___ आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज, पं० कैलाशचंद सिद्धांत शास्त्री, डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य आदि ने इसके प्रकाशन के लिये बहुत बार प्रेरणायें दी हैं। आज यह संपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित होकर जन-जन में स्याद्वादमय अनेकांत धर्म का उद्योत कर रहा है। इसके विषयों को जितना भी अधिक प्रकाशित किया जाये वह थोड़ा ही है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन से सभी भव्यात्मा अपने सम्यक्त्व को निर्मल बनावें यही मंगलकामना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जैन न्याय की सर्वोत्कृष्ट कृति अष्टसहस्त्री और उसका अनुवाद समीक्षक-डा० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसी पूर्ववृत्तजैन वाङ्मय में आचार्य विद्यानन्द का बहुत सम्मान पूर्ण स्थान है और उनकी कृतियों को आप्तवचन जैसा माना जाता है। इनके उल्लेखानुसार स्वामी समन्तभद्र ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-स्तुतिग्रन्थ देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा की रचना आचार्य गृद्धपिच्छ रचित तत्त्वार्थसूत्र के आरम्भ में किए गए 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मंगलाचरण में स्तुत आप्त की मीमांसा के रूप में की थी। उनके वे उल्लेख निम्न प्रकार हैं१. शास्त्रावतार रचित स्तुति गोचराप्तमीमांसितं कृति। अष्टस. मङ्गलश्लोक २ पृ. २। २. शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्ग प्रणेतृतया कर्मभूभृद्वेतृतया विश्वतत्त्वानी ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्य योग व्यवच्छेद्देन व्यवस्थापन परा परीक्षेयं [आप्तमीमांसेयं] विहिता। विद्यानन्द ने अपने इस कथन को साधार और परम्परागत बतलाने के लिए उसे अकलङ्कदेव के 'अष्टशती' गत उस प्रतिपादन से भी प्रमाणित किया है, जिसमें अकलङ्कदेव ने आप्त की मीमांसा (परीक्षा) करने के कारण समन्तभद्र पर किए जाने वाले अश्रद्धालुता और अगुणज्ञता के आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहा है कि ग्रन्थकार ने देवागमादि.......मङ्गलपूर्वक की गई 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलस्तोत्र के विषयभूत परमात्मा के गुणविशेषों की परीक्षा [ऊहापोह पूर्वक चिन्तन] को स्वीकार किया है इससे उनमें श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों बातें स्वयं सिद्ध हो जाती हैं क्योंकि उनमें से एक की भी कमी रहने पर परीक्षा संभव नहीं है। निश्चय ही ग्रन्थकार ने न्यायशास्त्र [तत्त्वार्थ शास्त्र की पद्धति मङ्गल विधान पूर्वक शास्त्रकरण] का अनुसरण करके ही आप्तमीमांसा की रचना का उपक्रम किया है और इससे सहज ही जाना जा सकता है कि ग्रन्थकार में श्रद्धा और गुणज्ञता दोनों हैं जो किसी सम्यक् परीक्षा के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं। अकलङ्क का वह प्रतिपादन इस प्रकार हैदेवागमेत्यादिमङ्गलपुरस्सरस्तवविषयपरमात्मगुणातिशयपरीक्षा....... -अष्टशती, अष्टस. पृ. २ विद्यानन्द ने अकलङ्कदेव के इस प्रतिपादन और अपने मंगलाचरण में उक्त शास्त्रावतार आदि कथन का इसी अष्टसहस्री [पृष्ठ-३] में समन्वय भी किया है और इस तरह अपने निरूपण-आप्तमीमांसा का मूलाधार [जनक] तत्त्वार्थसूत्र का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि मङ्गलस्तोत्र है इस कथन को उन्होंने परम्परागत सिद्ध करके उसमें प्रामाण्य स्थापित किया है। साथ ही उसे स्वरुचि या मनगढन्त होने का निरसन किया है। इसके अतिरिक्त उपसंहार में भी कहा है कि आ० गृद्धपिच्छ ने अपने तत्त्वार्थसूत्र [निःश्रेयस-शास्त्र] के आदि में उसका कारण और मङ्गल रूप होने से जिन चमत्कार शून्य गुणों द्वारा भगवान आप्त का स्तवन किया है उन गुणों की परीक्षा के लिए स्वामी समन्तभद्र ने श्रद्धा और गुणज्ञतापूर्ण हृदय से आप्तमीमांसा रची है। 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' स्तोत्र तत्त्वार्थसूत्र का मङ्गलाचरण जहाँ विद्यानन्द और अकलङ्कदेव के उपर्युक्त उल्लेखों से सिद्ध है कि स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमांसा 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि स्तोत्र के व्याख्यान में लिखी गई है वहीं यह भी स्पष्ट है कि उक्त स्तोत्र तत्त्वार्थसूत्र का मङ्गलाचरण है। तथा तत्त्वार्थसूत्र से उन्हें तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थ शास्त्र विवक्षित है, जो आचार्य गृद्धपिच्छ रचित दशाध्यायीरूप है। इस सम्बन्ध में पर्याप्त ऊहापोह एवं "मोक्षमार्गस्य नेतारम्" मंगलश्लोक को गृद्धपिच्छाचार्यकृत तत्त्वार्थशास्त्र का मंगलाचरण बतलाने वाला एक अतिस्पष्ट एवं अभ्रान्त उल्लेख और प्राप्त हुआ है। वह इस प्रकार है"गृद्धपिच्छाचार्येणापि तत्त्वार्थशास्त्रस्यादौ । “मोक्षमार्गस्य नेतारम्" इत्यादिना अर्हन्नमस्कारस्यैव परममंगलतयाप्रथममुक्तत्वात् ' ___ गो.जी.,म.प्र.टी.पृ.४। यह उल्लेख सात आठ सौ वर्ष प्राचीन गोम्मटसार जीवकाण्ड की मन्द प्रबोधिका टीका के रचयिता सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य अभयचन्द्र (१२वीं-१३वीं शती) का है। इसमें उन्होंने दो बातें स्पष्ट कही हैं। एक तो यह कि "मोक्षमार्गस्य नेतारम्" आदि मंगलाचरण तत्त्वार्थशास्त्र के आदि में किया गया है, जो आचार्य गृद्धपिच्छ की रचना है। वह पूज्यपाद-देवनन्दि की तत्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) का मंगलाचरण नहीं है। दूसरी बात यह है कि तत्तवार्थसूत्र का १. "तदेव निःश्रेयसशास्त्रस्या दो तत्रिबन्धनतया मंगलार्थतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भगवताप्तेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छतां सम्यग्मिथ्योपदेशार्थ विशेषप्रतिपत्यर्थमाप्तमीमांसांविदधानाः श्रद्धागुणज्ञताभ्यां प्रयुक्तमनसः...... २. "कथं पुनस्तत्त्वार्थः शास्त्र-इति चेत् तल्लक्षणयोगत्वात्।... तत्त्व तत्त्वार्थस्य दशाध्यायीरूपस्यास्तीतिशास्त्रं तत्त्वार्थः ।" - त.श्लो. पृ. २ । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ दूसरा नाम तत्त्वार्थशास्त्र है। प्राचीन समय में यह इस नाम से अधिक प्रचलित रहा। इसके सिवाय इसका एक नाम " तत्त्वार्थ" भी है, जिसे आचार्य गुद्धपिच्छ के किसी टीकाकार ने भी दिया है और जो इस प्रकार है: 'दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ॥ इस पद्य में तत्त्वार्थसूत्र का "तत्त्वार्थ" नाम स्पष्ट समुल्लिखित है तथा उसे “दश अध्यायों वाला" बतलाया गया है। आप्तमीमांसा की व्याख्याएँ: इस आप्तमीमांसा पर भी तीन व्याख्याएँ उपलब्ध है १. आप्तमीमांसा (देवागम) - विवृत्ति (अष्टशती) २. आप्तमीमांसालंकृति (देवागमालंकृति), जिसे अष्टसहस्री भी कहा गया है और जो इस नाम से सर्वाधिक विश्रुत है तथा तीसरी व्याख्या है, ३. देवागमवृत्ति (आप्तमीमांसावृत्ति) । 1 १. आ. विद्यानन्द ने अहसहसी के अन्त में आ. अकलंकदेव के समाप्ति मंगल से पूर्व "केचित" शब्दों के साथ देवागम के किसी पूर्ववर्ती अशत व्याख्याकार का "जयति जगति" आदि समाप्ति-मंगलपा दिया है उससे प्रतीत होता है कि अकलंकदेव के पूर्व भी देवागम पर किसी आचार्य की व्याख्या रही है। लघु समन्तभद्र (१३वीं शती) ने अपने अष्टसहस्री - टिप्पण) पृ. १ ) में वादीभसिंह द्वारा देवागम के उपलालन (व्याख्यान) करने का उल्लेख किया है। पर यह भी अनुपलब्ध है। अकलंकदेव ने अष्टशती (कारिका ३३ की विवृत्ति) में एक स्थान पर "पाठान्तरमिदं बहुसंग्रहीतं भवति" शब्दों का प्रयोग किया है, जिससे देवागम के पाठ भेदों तथा उसकी अनेक व्याख्याओं के होने का स्पष्ट संकेत मिलता है। देवागम के महत्त्व को देखते हुए उसकी अनेक व्याख्याओं के होने में आश्चर्य नहीं है। १. आप्तमीमांसा (देवागम) विवृत्ति - यह आप्तमीमांसा की उपलब्ध व्याख्याओं में सबसे प्राचीन और अत्यन्त दुरूह व्याख्या है। इसके रचयिता आ. अकलंकदेव हैं, जिनके न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थवार्तिक आदि अन्य दुरवगाह दार्शनिक ग्रन्थ हैं। इसके परिच्छेदों के अन्त में जो समाप्ति-पुष्पिका वाक्य पाये जाते हैं उनमें इसका "आप्तमीमांसा भाष्य (देवागम-भाष्य) के नाम से भी उल्लेख हुआ है।' आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्त्री के तृतीय परिच्छेद के आरम्भ में, जो ग्रन्थ प्रशंसा में पद्य दिया है, उसमें उन्होंने इसका "अष्टशती" नाम भी निर्दिष्ट किया है। " सम्भवतः आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से उन्होंने "अष्टशती" कहा है। लगता है कि अष्टशती को ध्यान में रखकर ही अपनी "आत्मामीमांसालंकृति" व्याख्या को इन्होंने आठ हजार श्लोक प्रमित बनाया और "अष्टसहस्त्री" नाम रखा इस तरह अकलंकदेव की यह "आप्तमीमांसाविवृत्ति" देवागम-विवृत्ति, आप्तमीमांसाभाष्य (देवागम भाष्य) और अष्टशती इन तीन नामों से जैन वाड्मय में विश्रुत है इसका प्रत्येक स्थल इतना जटिल और गम्भीर है कि साधारण विद्वानों का उसमें प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को अष्टसहस्त्री के सहारे ही ज्ञात किया जा सकता है। भारतीय दर्शन - साहित्य में इसकी जोड़ की दुरुह रचना मिलना प्रायः दुर्लभ है। अष्टसहस्त्री के अध्ययन में जिस प्रकार कष्ट का अनुभव होता है उसी प्रकार बल्कि उससे अधिक कष्ट का अनुभव इस व्याख्या के अध्ययन में उसके अध्येता को होता है। दूसरी व्याख्या अष्टसहस्त्री है, जो हमारी समीक्षा का विषय है और माताजी द्वारा किया गया उसका हिन्दी अनुवाद भी समालोच्य है। इनकी समीक्षा आगे करेंगे। उससे पूर्व तीसरी व्याख्या आप्तमीमांसावृत्ति [देवागमवृत्ति ] पर संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है। [३९९ ३. आप्तमीमांसावृत्ति-नीसरी व्याख्या आप्तमीमांसावृत्ति (देवागमवृत्ति) है। यह लघु परिमाण रचना है। यह न अष्टशती की तरह दुरुह है और न अष्टसहस्री के समान विस्तृत एवं गम्भीर है। कारिकाओं की व्याख्या भी लम्बी नहीं है और न दार्शनिक ऊहापोह पूर्ण विवेचन है मात्र कारिकाओं और उनके पद-वाक्यों का शब्दार्थ और कहीं-कहीं अतिसंक्षेप में फलितार्थ प्रस्तुत किया है। पर हाँ, कारिकाओं का अर्थ समझने के लिए यह वृत्ति उपयोगी है। इसके कर्ता आचार्य वसुनन्दि (१२वीं शती) हैं, जिन्होंने वृत्ति के अन्त में लिखा है ' कि मैं मन्दबुद्धि और विस्मरणशील व्यक्ति हूँ। मैंने अपने उपकार के लिए ही देवागम-आप्तमीमांसा की यह वृत्ति लिखी है।" वृत्तिकार के इस आत्म-निवेदन से इसकी लघुरूपता और उसका प्रयोजना अवगत हो जाता है। उल्लेखनीय है कि वसुनन्दि के समक्ष देवागम की ११४ कारिकाओं पर ही लिखी अष्टशती और अष्टसहस्त्री उपलब्ध होते हुए तथा "जयति जगति" आदि पद्य को विद्यानन्द के उल्लेखानुसार किसी पूर्ववर्ती आचार्य की देवागम व्याख्या का समाप्ति-मंगल पद्य जानते हुए भी उन्होंने उसे देवागम की ११५वीं कारिका किस आधार पर माना और उसकी वृत्ति लिखी। यह विचारणीय है। हमारा विचार है कि प्राचीनकाल में साधुओं में चारित्रभूष मुनिराज की तरह देवागम का पाठ करने और उसे कण्ठस्थ रखने की परम्परा रही है। वसुनन्दि ने देवागम को ऐसी प्रतिपद के कण्ठस्थ किया होगा, जिसमें मूलमात्र देवागम की ११४ कारिकाओं के साथ उक्त अज्ञात देवागम व्याख्या का समाप्ति-मंगलपद्य "जयति जगति" आदि भी अंकित होगा और उस पर ३. "इत्याप्तमीमांसा भाष्ये दशमः परिच्छेदः (६) (१०) ४. " अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात् । विलसदकलंकधिषणैः प्रपंचनिचिनावबोद्धव्या ॥ " (अष्टस. पृ. १७८) “श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य.... देवागमाख्यातकृतेः संक्षेपभूतंविवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन वसुनन्दिनाजड़मतिनाऽऽ, त्मोपकाराय।” - वसुनन्दि, देवागमवृत्ति, पृ. ५०, सनातन जैन प्र. काशी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४००] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ११५ संख्या का अंक डाल दिया होगा। वसुनन्दि ने अष्टशती और अष्टसहस्री टीकाओं पर से इसकी जानकारी एवं अनुसंधान किये बिना देवागम का अर्थ हृदयंगम रखने के लिए यह देवागमवृत्ति लिखी होगी और उसमें उपलब्ध सभी कण्ठस्थ ११५ कारिकाओं का अर्थ लिखा होगा। यही कारण है कि प्रस्तुत वृत्ति में न अष्टशती के पद-वाक्यादि का उल्लेख मिलता है और न अष्टसहस्री के। यह आश्चर्य ही है। अस्तु । २. आप्तमीमांसालंकृतिः अष्टसहस्त्री-अब हम अपने अभिप्रेत विषय पर विचार करेंगे। आप्तमीमांसा की दूसरी व्याख्या आप्तमीमांसालंकृति है। इसे आप्तमीमांसालंकार, देवागमालंकार और देवागमालंकृति इन नामों से भी व्यवहृत किया जाता है। आठ हजार श्लोक प्रमाण होने से इसे विद्यानंद ने स्वयं "अष्टसहस्री" भी कहा है। इस नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है। जैन दर्शन की जो महनीय कृतियाँ हैं उनमें यह अप्रतिम कृति है और इसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। परम वन्दनीय श्री गणेशप्रसाद वर्णी (मुनि गणेश कीर्ति) के न्याय विद्यागुरु और बीसवीं शती के प्रख्यात वैदिक नैयायिक श्री अम्बादास शास्त्री इसकी प्रशंसा करते हुए कहा करते थे कि “समस्त भारतीय वाङ्मय में "अष्टसहस्री" एक ऐसा दार्शनिक प्रौढ़ ग्रन्थरत्न है, जिसकी तुलना करने वाला कोई अन्य ग्रन्थ कम से कम मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इसमें सभी का प्रवेश सम्भव नहीं है। यह "लोहे का चना" है, जिसे चबाना दुष्कर है।" वस्तुतः “अष्टसहस्री" जैन-जनेतर न्यायशास्त्र और दर्शनशास्त्र के विशिष्ट मनीषी आचार्य विद्यानंद (९वीं शती) की जैन प्रमाणशास्त्र पर प्रौढ़ संस्कृत में लिखी गयी एक ऐसी महत्त्वपूर्ण, गरिमामण्डित एवं विशाल व्याख्या है, जिसकी प्रतिनिधि कृति भारतीय दर्शन-वाङ्मय में अलभ्य है। विषय, भाषा और प्रवाहपूर्ण प्रौढ़ प्रतिपादनशैली तीनों की दृष्टि से यह अपनी गरिमा, स्वस्थ, प्रसन्न और गम्भीर विचारसणिका विद्वन्मानस पर अमिट प्रभाव अंकित करती है। सम्भवतः इसी से यह अतीत में विद्वत्प्रिय एवं ग्राह्य रही है और वर्तमान में भी विद्वानों द्वारा अध्येतव्य एवं प्रशंसनीय है। देवागम की व्याख्याओं में यह प्रमेयबहुल व्याख्या है। इसमें देवागम की कारिकाओं और उनके प्रत्येक पदवाक्यादि का विस्तारपूर्वक विशद अर्थोद्घाटन तो किया ही गया है। अष्टशती के भी दुरुह पदवाक्यादिकों का अर्थ एवं रहस्य बड़ी कुशलता से स्पष्ट किया है। अष्टशती को अष्टसहस्री में इस तरह आत्मसात् कर लिया गया है कि यदि दोनों को भेदसूचक पृथक्-पृथक् संकेतों में न रखा जाये, तो पाठक को यह जानना कठिन है कि यह अष्टशती का अंश है और यह अष्टसहस्री का । यथार्थ में विद्यानन्द ने अष्टशती के आगे-पीछे की और मध्य की आवश्यक एवं प्रकरणोपयोगी (सान्दर्भिक) वाक्यरचना करके उसे इसमें मणिप्रवालन्याय से ऐसा मिला लिया है कि उन्हें दो ग्रन्थकारों की रचना नहीं समझा जा सकता । यह विद्यानन्द की तलस्पर्शिनी अद्भुत प्रतिभा का वैशिष्ट्य एवं चमत्कार है। यदि विद्यानन्द यह अष्टसहस्री न रचते तो अष्टशती का गूढ़ रहस्य उसी में छिपा रहता और मेधावियों के लिए वह रहस्यपूर्ण एवं अज्ञेय बनी रहती। देवागम और अष्टशती के व्याख्यानों के अतिरिक्त इसमें विद्यानन्द ने कितना ही नया, अपूर्व और विचारपूर्ण प्रमेय तथा अभिनव चर्चाएँ प्रस्तुत की हैं। उदाहरणार्थ- नियोग, भावना और विधि वेद वाक्यार्थ की चर्चा को,जिसे प्रभाकर और कुमारिल मीमांसक विद्वानों तथा मण्डन मिश्र आदि वेदान्त दार्शनिकों ने जन्म दिया और जिसकी सामान्य आलोचना बौद्ध मनीषी प्रज्ञाकर ने की। उसे विद्यानन्द ने इसमें विस्तार से समाहित किया, तथा सूक्ष्मता से उसकी समीक्षा की। इसी तरह अनेकान्तवाद में एकान्तवादियों द्वारा उद्भावित किये जाने वाले विरोध, वैयधिकरण्य आदि आठ दोषों को विद्यानन्द ने ही सबसे पहले इसमें प्रदर्शित किया और उनका निराकरण भी किया। उनकी उपादान-निमित्त आदि की अपूर्व चर्चाएँ भी इसमें समाहित हैं। वस्तुतः अष्टसहस्री विद्यानंद के काल तक विकसित अनेक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक चर्चाओं एवं विचारों का आकर-ग्रन्थराज है। अष्टसहस्त्री की व्याख्याएँ: यद्यपि यह स्वयं एक व्याख्या है। किन्तु इस पर भी दो व्याख्याएँ हैं। एक है "अष्टसहस्री-विषमपद-तात्पर्य टीका" और दूसरी "अष्टसहस्री-तात्पर्य-विवरण" । प्रथम के रचयिता हैं लघु समन्तभद्र (१३वीं शती) और दूसरी के लेखक हैं यशोविजय (१७वीं शती) । लघुसमन्तभद्र ने जहाँ अपनी तात्पर्य-टीका में अष्टसहस्री के विषम (कठिन) पदों का अर्थ एवं अतिसंक्षेप में स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है वहाँ यशोविजय ने अष्टसहस्री के जटिल स्थलों का तात्पर्य दिया है। साथ ही नव्य-न्याय-शैली से उन स्थलों को परिष्कृत किया है। लघुसमन्तभद्र की टीकामुद्रित अष्टसहस्री में उसके पाद-टिप्पण के रूप में प्रकाशित है। अध्येता को इन टिप्पणों से मूल का अर्थ अच्छी तरह लग जाता है और विषय सरलता से स्पष्ट हो जाता है। यशोविजय की टीका विद्वत्तापूर्ण और ज्ञानवर्द्धक है। यह भी स्वतन्त्र प्रकाशित है। अष्टसहस्री का प्रमाणशास्त्रीय आकलन: अष्टसहस्री का प्रमाणशास्त्रीय आकलन उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना इसमें प्रतिपादित प्रमेयशास्त्र का है। भारतीय दर्शनों में प्रमाण पर सर्वाधिक चिन्तन एवं ऊहापोह हुआ है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि मनुष्य को अपने इष्ट-सुख, अनिष्ट-दुःख और उनके कारणों की जिज्ञासा होती है। ६. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्त्रसंख्यानैः । विज्ञायते ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।। -अष्ट स.पृ. १५७, परिच्छेद २, आरम्भ। ७. विद्यानन्द को यह नाम इतना प्रिय रहा कि सभी परिच्छेदों के आरम्भ में इसी नाम से अपनी इस यशस्वी व्याख्या की गरिमा को प्रकट किया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४०१ यह जिज्ञासा उसे जन्म से लेकर मरण तक बनी रहती है। इतना ही नहीं, उसे जन्म क्यों लेना पड़ता है और मरण क्यों होता है? इसको जानने की भी बलवती इच्छा उसमें समायी रहती है। इस जिज्ञासा और इच्छा ने ही प्रमाण को खोज निकाला है और उसे एक कसौटी के रूप में मान लिया गया है। उत्तरकाल में प्रमाण के चिन्तन में विकास होता गया। फलतः भारतीय दार्शनिकों ने उस पर संख्याबद्ध (विफलराशि में) ग्रन्थ लिखे हैं। लगता है कि जहाँ आत्मा, संसार और मोक्ष विचार के केन्द्र बने वहाँ प्रमाणशास्त्र भी एक ऊहापोह का विषय बना, क्योंकि वह उनके विचार का साधन है। जैन दर्शन भी उसके विचार से अछूता नहीं रहा और वह रह भी नहीं सकता था। वह मनुष्य के चरमोत्कर्ष को प्राप्त अनुभव को स्वीकार करता है और उसे ही मुख्य साधन मानता है। जैन मोक्षमार्ग में त्रिरत्नों का समावेश है। इस त्रिरत्न में उसके मध्य में सम्यग्ज्ञान देहली-दीप न्याय से सम्यक्दर्शन और सम्यक् चारित्र दोनों का प्रकाशक तथा संग्राहक है। अतएव जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना और उसका विस्तृत एवं विशद विश्लेषणात्मक विवेचन किया है। ___ इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयत्न आचार्य गृद्धपिच्छ (९वीं शती) ने किया है। उन्होंने संस्कृत भाषा में निबद्ध आद्य सूत्र ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र में जहाँ सिद्धांत का निरूपण किया वहाँ दर्शन और न्याय को भी सूत्र बद्ध किया है। आगम में वर्णित मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा उसे ही प्रमाण कहकर उसके उन्होंने दो भेद प्रतिपादित किये-१. परोक्ष और २. प्रत्यक्ष । इन्द्रिय व मन सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहकर उल्लिखित ज्ञानों में आदि के मति और श्रुत इन दो को उसके भेद बतलाये और इन्द्रिय व मन निरपेक्ष अवधि, मनः पर्यय तथा केवल इन तीन शेष ज्ञानों को उन्होंने प्रत्यक्ष कहा। इसके साथ ही स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) इन परापेक्ष ज्ञानों को गति के ही अवान्तरभेद बतलाकर उन्हें भी परोक्ष में समावेश कर लिया इसके अतिरिक्त उनकी दृष्टि सम्यग्ज्ञान की तरह मिथ्याज्ञान को भी बताने की ओर गयी और उन्होंने मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों को विपर्यय (मिथ्या) प्रमाणाभास भी निरूपित किया। इसका उन्होंने कारण भी बताया। कहा कि ये तीन ज्ञान सम्यक्निमित्त मिलने पर सम्यक् (यथार्थ प्रतिपत्ति कराने वाले) होते हैं और दोषपूर्ण निमित्त मिलने पर मिथ्या (अयथार्थ प्रतिपत्ति कराने वाले) भी होते हैं। उन्मत्त पुरुष का उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे मद्यादि का नशा करने वाला या विकृत मस्तिष्क वाला व्यक्ति अपनी भार्या को माता कहता है और कभी भार्या ही कहता है। पर उसका यह कथन सम्यक् नहीं माना जाता है। उसी प्रकार ये तीन ज्ञान भी मिथ्या निमित्त मिलने पर यथार्थप्रतिपत्ति नहीं कराते। उस स्थिति में इन्हें प्रमाणाभास कहा गया है। आ. गृद्धपिच्छ में वस्तु प्रतिपत्ति के लिए जहाँ प्रमाण का साधन रूप में वर्णन किया है वहाँ नय को भी वस्तु धर्मों की प्रतिपत्ति का एक सबल साधन निरूपित किया। ___ "अभिनिबोध" ज्ञान द्वारा उन्होंने अनुमान का भी संग्रह किया है, जिसका प्रयोग उनके तत्त्वार्थ सूत्र में अनेक स्थलों पर हुआ है। उसका एक उदाहरण है अनुमान द्वारा मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन की सिद्धि करना । यथा १. पक्ष- तदनन्तरं (मुक्तः) ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात्। २. हेतु-पूर्व प्रयोगात्, असंगत्वात्, बन्धच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च । ३. उदाहरण-आविद्धकुलालचक्रवत्, व्यपगतलेपालाबूवत् एरण्डबीजवत्, अग्निशिखावच्च ।। यहाँ अनुमान के तीन अवयवों-पक्ष, हेतु और उदाहरण द्वारा मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन सिद्ध किया गया है। प्राचीन समय में इन्हीं तीन अवयवों से अनुमान सम्पन्न होता था। "उत्तरकाल में दो ही (पक्ष और हेतु) अवयव आवश्यक माने जाने लगे। उदाहरण को निकाला दिया गया और उसे मात्र अव्युत्पत्रों के लिए सार्थक मान गया। इससे प्रकट है कि दर्शन और न्याय का तत्त्वार्थसूत्रकार के काल (पहली शती) से विकसित होना प्रारंभ हो गया था। उनके मार्ग पर चलकर समन्तभद्र स्वामी ने आप्तमीमांसा में उनका पर्याप्त विकास किया। समन्तभद्र के उत्तरकालीन आ. अकलंकदेव को नहीं भुलाया जा सकता, जो जैन दर्शन और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। अष्टशती, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लघीयस्त्रय, तत्त्वार्थवार्तिक जैसे अनुपमेय दर्शन एवं न्याय के ग्रन्थों की रचना करके उनसे जैन वाङ्मय को उन्होंने समृद्ध एवं ज्योतिर्मय बना दिया। आचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री में मूलानुसार प्रथमतः प्रमेय का विस्तारपूर्वक कथन किया और उसके अनन्तर आप्तमीमांसा कारिका १०१वीं की व्याख्या करते हुए तत्त्वज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहकर मूलकार द्वारा अभिहित प्रमाण के अक्रमभावि और क्रमभावि इन दो भेदों को अपनाते हुए भी तत्तवार्थसूत्र ८. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानिज्ञानम्" "तत्प्रमाणे, "आद्येपरोक्षम्" प्रत्यक्षमन्यत्-त.सू. १-९, १०, ११, १२ ९. "मतिःस्मृतिःसंज्ञा चिन्ताभिनिबोधइत्यनान्तरम् तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्, -त.सू. १-१३, १४ । १०. मतिश्रुतावधयोविपर्ययश्च" "सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत्" त.स. १-३१, ३२, ११. "प्रमाणनयरधिगमः", -त.सू. १-६, नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रश ब्दसमभिरूद्वैवंभूतानयाः -वही १-३३, १२. त. सू. १-१३, १३. वही १-३१, ३२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के अनुसार प्रमाण के उल्लिखित प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भेदों का समर्थन ही नहीं किया, अपितु उनका विस्तार के साथ विशद प्रतिपादन भी किया है। इसके अतिरिक्त अन्य दार्शनिकों के मान्य प्रमाणों की संख्या की समालोचना भी की है। अष्टसहस्री का यह सयुक्तिकं एवं मौलिक प्रमाण निरूपण उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ। आचार्य माणिक्यनन्दि ने अपना परीक्षामुख, आ. प्रभाचन्द्र ने उसकी व्याख्या प्रमेयकमलमार्तण्ड और आचार्य वादिराज ने प्रमाण-निर्णय अष्टसहस्री के आलोक में लिखे हैं। ___ अकलंकदेव के दिशा निर्देशानुसार इन्द्रिय व्यवसाय (मति) स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क और अनुमान को परोक्ष के अन्तर्गत सिद्ध करते हुए उनका सबलता के साथ युक्तिपूर्वक प्रमाण्य निर्णीत करना अष्टसहस्री की मौलिक विशेषता है। ध्यातव्य है कि इनके प्रामाण्य का प्रयोजक तत्त्व विद्यानन्द ने अविसंवादित्व को बतलाया है, जिसे बौद्ध दार्शनिक स्वयं स्वीकार करते हैं और यह "अविसंवादित्व" स्मृति आदि पाँचों ज्ञानों में पाया जाता है। अतः इन्हें प्रमाण माना ही जाना चाहिए और चूंकि इनका प्रतिभास अविशद होता है, अतः वे प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष हैं। पर जो ज्ञान इन्द्रिय-मन निरपेक्ष तथा आत्मसापेक्ष होते हैं वे प्रत्यक्ष हैं। और वे हैं अवधि, मनः पर्यय और केवल। ___अष्टसहस्रीकार ने कारिका १०१ द्वारा मूलानुसार प्रमाण का लक्षण, प्रमाण की संख्या और प्रमाण का विषय इसमें विशदतया विवेचित किया है और कारिका १०२ के द्वारा प्रमाण का फल साक्षात् अज्ञान निवृत्ति और परम्परा उपेक्षा उपादान तथा हानज्ञान बतलाया है। इनमें अनुक्रम भावि (केवल) का साक्षात् फल तो अज्ञान नाश ही है और परम्परा फल मात्र उपेक्षा है पर क्रमभावि मति आदि ज्ञानों का साक्षात्फल अज्ञान निवृत्ति और परम्परा फल उपेक्षा उपादान और हानबुद्धि तीनों हैं। स्मरणीय है कि केवलज्ञानियों का सभी विषयों में प्रयोजन सिद्ध हो चुका है। अतएव उनके लिए न कोई ग्राह्य है और न कोई हेय है- मात्र सर्वत्र उपेक्षा (न राग और न द्वेष) है। यह भी उल्लेखनीय है कि अष्ट सहस्री में सर्वज्ञ में केवल दर्शन और केवलज्ञान दोनों का युगपद् सद्भाव समर्थित है क्रमभाव की समालोचना करते हुए कहा गया है कि केवल दर्शन और केवलज्ञान को क्रमशः मानने पर सदा सर्वज्ञता और सदा सर्वदर्शिता सिद्ध नहीं हो सकेगी जबकि दोनों के आचरण एक साथ क्षय को प्राप्त होते है। अतः दोनों का योगपद्य प्रमाण सिद्ध है। इस तरह हम देखते हैं कि तार्किक शिरोमणि आचार्य विद्यानन्द की यह गौरवपूर्ण दार्शनिक एवं तार्किक कृति जैनवाङ्मय की सर्वोत्कृष्ट और अमर रचना है। अष्टसहस्री की हिन्दी व्याख्या स्याद्वाद-चिन्तामणि विगत जैन साहित्य के इतिहास में हमें ऐसी कोई विदुषी महिला दृष्टिगोचर नहीं होती जिसने सिद्धान्त, दर्शन, तर्क, काव्य, व्याकरण आदि साहित्य के किसी अङ्ग या अङ्गों पर विद्वत्तापूर्ण मौलिक या व्याख्या रचना या रचनाएँ लिखी हों। हर्ष की बात है कि इस बीसवीं शती में इस क्षेत्र में अनेक विदुषी नारियां अग्रसर हुई हैं। इन्होंने सिद्धान्त और पुराणादि शास्त्रों का अध्ययन किया और उनमें अच्छा प्रवेश किया। वन्दनीया गणिनी माता ज्ञानमतीजी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से धर्म, दर्शन, तर्क, व्याकरण, काव्य जैसे साहित्य क्षेत्र में साहस पूर्ण और विस्मयजनक कार्य किया है। समाज के क्षेत्र को भी उन्होंने अनछुआ नहीं रखा । जम्बूद्वीप की रचना उन्हीं के अद्भुत चिन्तन का प्रयास है। प्रकृत में उनके द्वारा किया गया उल्लिखित अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद जिसे उन्होंने 'स्याद्वाद चिन्तामणि' व्याख्या नाम दिया है, समीक्ष्य है। यह तीन भागों में प्रकाशित है और वे तीनों भाग मेरे सामने हैं। वस्तुतः 'अष्टसहस्री' जैसे दुरुह एवं जटिल तर्क ग्रन्थ का जिसमें अकलंकदेव की दुरवगाह कृति 'अष्टशती' भी समाविष्ट है, हिन्दी अनुवाद करना 'लोहे के चने चबाना है पर माताजी ने उसे कर दिखाया है। उन्होंने इसका अनुवाद ई. सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास में आरम्भ किया था और ई. सन् १९७० में टोंक (राजस्थान) के चातुर्मास में उसे पूरा कर लिया था। पर प्रकाशन का योग तत्काल नहीं मिला। चार वर्ष बाद १९७४ में उसका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ और दूसरा (का० ७ से २३) तथा तीसरा (का० २४ से ११४) ये दोनों भाग ई० सन् १९८७ से १९९० में प्रकाशित हुए। यह माताजी की दीर्घ साधना का सुफल है। हमें स्मरण है कि माताजी से इस बीच मिलने का हमें दो बार सौभाग्य मिला। एक बार लाला श्यामलाल जी ठेकेदार दिल्ली के साथ ई० १९७४ में दिल्ली में और दूसरी बार ला. प्रेमचन्द जी अहिंसा मंदिर नई दिल्ली के साथ सन् १९७८ में हस्तिनापुर में। दोनों बार देखा कि माताजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में संलग्न हैं। उनकी इच्छा थी कि हम उनके इस हिन्दी अनुवाद को देख लें। पर माताजी चाहती थीं कि उनके सानिध्य में रहकर ही देखें। किन्तु मेरे लिए वाराणसी छोड़ना सम्भव नहीं था। मुझे बहुत प्रमोद है कि माताजी ने साहस जुटाकर इस विशाल एवं जटिल ग्रन्थ का अपनी शक्ति, प्रतिभा और योग्यता से सरल हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया। अनेक अध्येताओं को अष्टसहस्री के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया और अब वे विभिन्न दर्शनों की चर्चाओं को इस हिन्दी अनुवाद के माध्यम से अवगत कर सकेंगे। मुझे तो आश्चर्य है कि माता जी बह प्रवृत्तियों में व्यस्त होते हुए भी इस तर्क ग्रन्थ की सरल हिन्दी व्याख्या करने में सक्षम हो सकी है। मैं उन्हें बहुशः नमन करता हुआ उनकी चतुर्मुखी प्रतिभा को हृदय से सस्तुति करता हूँ। इति शम्। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४०३ अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिन्तामणि टीका समीक्षक-डॉ० रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वामि कृत तत्त्वार्थसूत्र उपलब्ध जैन संस्कृत साहित्य में आद्य रचना है। यह सूत्रात्मक शैली में रची गई है। इसके आदि में 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि पद्यमयमङ्गल पाठ है। इस पाठ में मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले तथा विश्वतत्त्वों के ज्ञाता को नमस्कार किया गया है। इसी के व्याख्यान स्वरूप आचार्य समन्तभद्र ने देवागम स्तोत्र की रचना की । देवागम स्तोत्र का दूसरा नाम आप्तमीमांसा भी है। इसमें आप्त की मीमांसा के बहाने स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने समय तक प्रचलित सभी वादों की समीक्षा कर समग्र भारतीय दर्शन का आलोडन विलोडन किया है। आप्तमीमांसा में ११४ कारिकायें हैं। इनका कथन संक्षिप्त है तथापि इसमें निर्दोष सर्वज्ञ की संस्थिति, भावैकान्त अभावैकान्त की सदोषता, अस्तित्व धर्म की नास्तित्व धर्म के साथ अनिवार्यता, वस्तु की अर्थ क्रियाकारिता है। द्वैत और अद्वैत एकान्त की सदोषता, ज्ञान और ज्ञेय की भिन्नभिन्नता सामान्यविशेष तथा एकत्व-पृथक्त्व एकान्तों की सदोषता, नित्यैकान्त-अनित्यैकात्त की सदोषता कार्य-कारणादि का एकत्व मानने पर दोष सिद्धि के आपेक्षिक-अनापेक्षिक एकान्तों की सदोषता, हेतु तथा आगम से निर्दोष सिद्धि, अन्तरङ्गार्थ और बहिरङ्गार्थ एकान्त की सदोषता,जोव शब्द की संज्ञा होने से सबाह्यार्थता, दैव और पौरुषैकान्त की सदोषता, दूसरे में दुःख-सुख से पाप पुण्य के एकान्त की सदोषता स्व में दुःख-सुख से पुण्य-पाप के एकान्त की सदोषता, पुण्य पाप की निर्दोष व्यवस्था, अज्ञान से बन्ध और अल्पज्ञान से मोक्ष के एकान्त की सदोषता, शुद्धि-अशुद्धि दो शक्तियों की सादि-अनादि व्यक्तिप्रमाणों का फलस्यात् निपात की व्यवस्था, स्याद्वाद का स्वरूप, नय हेतु का लक्षण, द्रव्य का स्वरूप, निरपेक्ष और सापेक्ष नय, स्याद्वाद और केवल ज्ञान में भेद निर्देश इत्यादि विषयों की चर्चा है। उभयैकान्त तथा अवक्तव्यैकान्त का भी यहाँ भिन्न-२ स्थानों पर निषेध किया गया है। इस प्रकार यह एक सर्वाङ्ग उपयोगी रचना है। देवागम स्तोत्र की उपयोगिता लोकप्रियता एवं महत्ता को ध्यान में रखते हुए अनेक आचार्यों ने इस पर व्याख्यायें लिखीं सम्प्रति तीन व्याख्यायें उपलब्ध हैं-१. देवागम विवृति या अष्टशती भाष्य २. देवागमालङ्कार या अष्टसहस्री और ३. देवागमवृत्ति । ये क्रमशः भट्ट अकलङ्कदेव, आचार्य विद्यानन्द और आचार्य वसुनन्दि द्वारा लिखी गई हैं। देवागम की सबसे प्राचीन और दुरूह व्याख्या देवागम विवृत्ति या आप्तमीमांसा भाष्य है। आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से इसे अष्टशती कहते हैं। इसके गूढ अर्थों को समझने में कष्टशती का अनुभव होता है। देवागमालङ्कार को आप्तमीमांसालङ्कृति और आप्तमीमांसालङ्कार भी कहा जाता है। आठ हजार श्लोक प्रमाण रचना होने से स्वयं ग्रन्थकार ने इसे अष्ट सहस्री कहा है। उनका कहना है श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमय परसमय सद्भावः ।। अर्थात् अष्ट सहस्री सुनना चाहिए, हजार शास्त्रों को सुनने से क्या लाभ है? जिस अष्टसहस्री के सुनने से स्वसमय और परसमय का सद्भाव जाना जाता है। अष्टशती में अन्तर्निहित गूढ पदों की व्याख्या के लिए ही इसकी रचना की गई थी। इसकी जोड़ की रचना समग्र भारतीय दर्शनों में दूसरी नहीं है। यह अष्टसहस्री भी इतनी कठिन है कि विद्वानों को भी इसे समझने में कष्टसहस्री का अनुभव होता है। इसके अर्थों को विस्तार से समझने की आवश्यकता है, यह बात ग्रन्थकार ने स्वयं कही है अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात्। विलसदकलकधिषणैः प्रपञ्चनिचिताव द्रव्या।। अर्थात् श्री अकलङ्कदेव द्वारा रचित अष्टशती अपने प्रसिद्ध अर्थ सहित है, उस पर मैंने अष्टसहस्री नामक संक्षिप्त टीका की है। उत्तम बुद्धि के धारकों को उसे विस्तार से समझना चाहिए। सम्भवतः इसी प्रेरणा से उपाध्याय यशोविजय जी ने अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण नामक व्याख्या लिखी। देवागमवृत्ति आचार्य वसुनन्दि की देवागमस्तोत्र पर संक्षिप्त व्याख्या है। यह देवागमस्तोत्र की कारिकाओं को समझने में उपयोगी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अष्टसहस्री की उपयोगिता को ध्यान में रखते हए लम्बे समय से इसके प्रामाणिक संस्करण और मूलानुगामी विशद हिंदी अनुवाद की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। प्रमेयरत्नमाला के हिन्दी टीकाकार सिद्धान्ताचार्य पं. हीरालाल शास्त्री ने लिखा है कि उनके गुरु श्रद्धेय पं. घनश्यामदास जी न्यायतीर्थ अष्टसहस्री का अनुवाद करने का विचार कर रहे थे। वृद्धावस्था के कारण वे अपने विचार को मूर्त रूप नहीं दे सके। आत्ममीमांसा की पं. जयचन्द्र जी छाबड़ा ने वचनिका लिखी। आधुनिक काल में आदरणीय पं. जुगलकिशोर मुख्तार, पं. मूलचन्द्र शास्त्री एवं पं. उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य ने भी आत्ममीमांसा पर अपनी व्याख्यायें लिखीं। इन सबका आधार अष्टशती, अष्टसहस्री तथा देवागमवृत्ति ही रही। अष्टसहस्री का स्वतंत्र अनुवाद नहीं हो सका था। हमारे गुरुवर्य श्रद्धेय धं. कैलाशचन्द्र शास्त्री न्याय के प्रौढ़ विद्वानों को अष्टसहस्री का प्रामाणिक संस्करण निकालने की प्रेरणा देते रहते थे। विद्वानों के मुख से सुना भी कि वे अष्टसहस्री पर कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनका कार्य समाज के सामने नहीं आया। एक बार जैन विश्वभारती द्वारा आयोजित संगोष्ठी में भाग लेने हेतु जब मैं दिल्ली गया तो मुझे ज्ञात हुआ कि अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अष्टसहस्री ग्रंथ का अनुवाद किया है तो सुनकर मेरा हृदय प्रसन्नता से भर गया; क्योंकि अष्टसहस्री आचार्य के पाठ्यक्रम में थी और बिजनौर आ जाने के कारण उसका गुरुमुख से अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका था, स्वयं की इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि मूल ग्रंथ को बिना अनुवाद का सहारा लिए समझ सकता। ऐसी स्थिति में अष्टसहस्री प्रकाशन की चर्चा सुन मैं पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी के दर्शन हेतु उनके ठहरने के स्थल पर जा पहुँचा; क्योंकि सौभाग्य से माताजी उन दिनों दिल्ली में ही थीं। जाकर माताजी के चरणों में नमस्कार कर निवेदन किया कि माताजी आपके द्वारा अनूदित अष्टसहस्री चाहिए। माताजी से मेरा यह प्रथम परिचय था, किन्तु माताजी ने वात्सल्य भाव से मुझे अष्टसहस्री देने की कृपा की। यह उनकी अनूदित रचना का प्रथम भाग था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि शेष भाग अभी छपे नहीं हैं। तब से अन्य भागों को मुद्रित देखने की अभिलाषा जारी रही, इस बीच माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण प्रारम्भ हो गया और माताजी का वह ग्रंथ किसी कारणवश प्रकाशित न हो सका। इस बीच यद्यपि वे अन्य ग्रंथों की रचनायें करती रहीं, अनेक ग्रंथ प्रकाश में भी आए, किन्तु अष्टसहस्री के शेष भागों के प्रकाशन में विलम्ब हो गया। एक बार अपने डी.लिट. के शोधकार्य हेतु अष्टसहस्री के पूरे अनुवाद को देखने की मुझे आवश्यकता पड़ी। इसके लिए मैं १५, २० दिन हस्तिनापुर रहकर माताजी की हस्तलिखित अनुवाद की कापियाँ देखकर उपयोगी नोट्स लेता रहा । यहाँ भी माताजी ने मेरे प्रति अत्यधिक उदारता का परिचय दिया। एक बार मैंने माताजी से कहा था-माताजी! आपके अष्टसहस्री के अनुवाद का कार्य इस जम्बूद्वीप रचना (जो हस्तिनापुर में उस समय हो रही थी) से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। आप शेष भागों का भी प्रकाशन कराइए। अन्त में वह सुदिन भी आया कि माताजी द्वारा अनूदित पूरी अष्टसहस्री का प्रामाणिक संस्करण अनुवाद के साथ तीन भागों में प्रकाशित हुआ । यद्यपि न्याय के ग्रंथों की भाषा कठिन होती है, किन्तु माताजी ने अत्यन्त सरल भाषा में अष्टसहस्री का अनुवाद किया है। उन्होंने अपनी टीका का नामकरण "स्याद्वाद चिन्तामणि" किया है, जो सार्थक है। इस ग्रंथ के अनुवाद में शब्दशः अर्थ करके यथास्थान भावार्थ और विशेषार्थ देकर विषय को स्पष्ट किया गया है। प्रायः प्रकरणों के पूर्ण होने पर उन-उन विषयों के सारांश दिए गए हैं। मुद्रित मूल प्रति के साथ हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग करते हुए पादटिप्पणियाँ भी सम्मिलित हैं। अनुवाद १९७० में पूर्ण हो गया था। १९९० तक यह तीन भागों में छपा । इन वर्षों में माताजी ने ग्रंथ को और भी अधिक उपयोगी बनाने की दृष्टि से उसके पाठान्तर लिए और आवश्यक संशोधन किए। इस ग्रंथ में चार आचार्यों की रचनाएं हैं, उन्हें पृथक-पृथक रूप में टाइप बदलकर दिखाया गया है। श्री समन्तभद्र स्वामी की कारिकाओं को २४ नं. काले टाइप में लिया गया है, अष्टशती को १६ नं. काले टाइप में लिया है और अष्टसहस्री को १६ नं. सफेद टाइप में दिया गया है। इसकी हिन्दी ४ नं. सफेद टाइप में है। ग्रंथ में जितने शीर्षक हैं, वे सब माताजी द्वारा बनाए गए हैं। अनुवाद से पूर्व माताजी ने मुनि, आर्यिका और व्रती श्रावकों को अष्टसहस्री पढ़ाई थी। अध्यापन के समय ग्रंथ का जैसा विशद व्याख्यान अपेक्षित होता है, उसी का प्रभाव अनुवाद में स्थान-स्थान पर लक्षित होता है। तृतीय भाग के पुरोवाक् में माताजी ने प्रथम से लेकर दशम परिच्छेद तक के वर्ण्य विषय पर अतिसंक्षेप रूप में प्रकाश डाला है। अनन्तर आचार्य उमास्वामि, आचार्य समन्तभद्र, भट्ट अकलङ्कदेव और आचार्य विद्यानंद का जीवन परिचय उनकी रचनाओं के परिचय के साथ प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत किया है। अनन्तर आर्यिका चन्दनामती ने अष्टसहस्री की महिमा और टीकाकर्ची गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का परिचय प्रस्तुत किया है। चूँकि हस्तिनापुर में रहते हुए माताजी ने इसका प्रकाशन कराया है, अतः क्षु, मोतीसागर जी दानतीर्थ हस्तिनापुर का भी संक्षिप्त परिचय दिया है। अनन्तर उन्होंने अष्टसहस्री रचना में पूज्य माताजी के श्रम का आकलन करने का प्रयास किया है। अष्टसहस्री की महत्ता के विषय में उन्होंने स्व. पं. जुगलकिशोर मुख्तार की पुस्तक देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा के अनुवादकीय का हवाला देते हुए लिखा है कि एक बार खुर्जा के सेठ पं. मेवाराम जी ने बतलाया था कि जर्मनी के एक विद्वान ने उनसे कहा है कि जिसने अष्टसहस्री नहीं पढ़ी, वह जैनी नहीं और अष्टसहस्री पढ़कर जो जैनी नहीं हुआ, उसने अष्टसहस्री को समझा नहीं। ऐसे ग्रंथ के संशोधन में माताजी को कठिन परिश्रम करना पड़ा। अंतिम प्रूफ भी माताजी को स्वयं देखने पड़े। द्वितीय भाग का पुरोवाक् माताजी ने लिखा। इसमें उन्होंने मोक्ष के कारण की समीक्षा, संसार की समीक्षा, संसार के कारण की समीक्षा, प्रागभाव, शब्द की मूर्तिकता तथा भावाभावाद्यनेकान्त पर प्रकाश डालते हुए अष्टसहस्री ग्रंथराज का महत्त्व बतलाया है। क्षुल्लक मोतीसागर जी ने ग्रंथ का अनुवाद तथा प्रकाशन क्यों? कब एवं कैसे? शीर्षक लेख लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने भी अनूदित कापियों के कुछ पृष्ठ पढ़कर संतोष व्यक्त किया था। एक अन्य बात मोतीसागर जी ने लिखी है कि भगवान महावीर से लेकर आज तक जितने भी ग्रंथ लिखे गए, सब पुरुष वर्ग द्वारा ही लिखे गए, किसी श्राविका अथवा आर्यिका द्वारा लिखित एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। महिलाओं द्वारा किसी जैन ग्रंथ के लिखे जाने का शुभारंभ आर्यिका ज्ञानमती जी ने किया। अष्ट Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४०५ सहस्री के अनुवाद को देखकर सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी ने कहा था-"सौ विद्वान मिलकर जिस कार्य को नहीं कर पाते, उसे अकेली ज्ञानमती माताजी ने कर दिया।" द्वितीय भाग की प्रस्तावना में डॉ. पं. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली ने माताजी के वैदुष्य की जो प्रशंसा की है, वह पठनीय है। जैन वाङ्मय में मीमांसा दर्शन भावना-नियोग-विधि की चर्चा सर्वप्रथम तीक्ष्ण बुद्धि विद्यानंद द्वारा की गई है। मीमांसा दर्शन की जैसी और जितनी सबल मीमांसा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में है, उतनी और वैसी मीमांसा जैन दर्शन की अन्य कृतियों में नहीं है। इनका समझना मीमांसा के तलस्पर्शी विद्वान् का कार्य है। इस प्रकार के प्रकरण अष्टसहस्री में भी आए हैं, माताजी ने इनका सफल अनुवाद किया है और ऐसी चर्चाओं के भावार्थ भी दे दिए हैं। इस प्रकार अष्टसहस्री की स्याद्वाद चिन्तामणि टीका सर्वाङ्ग सुन्दर है। मूलाचार समीक्षक-डा. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, अधिष्ठाता-वर्णी दि. जैन गुरुकुल पिसनहारी की मड़िया, जबलपुर। साधु संहिता का अनमोल ग्रंथद्वादशांग में आचारांग को प्रथम स्थान दिया है। इससे सिद्ध है'आचारः प्रथमो धर्मः" आचार आद्य धर्म है। मूल संघ में दीक्षित साधु का आचार कैसा होना चाहिए? इसका दिग्दर्शन कराने के लिए वट्टकेराचार्य ने मलाचार मूलाचार की रचना की है। ___ मूलाचार जैन साधुओं के आचार विषय का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण, प्रामाणिक प्राचीन ग्रंथ है। यह वर्तमान में दिगम्बर साधुओं का आचारांग सूत्र माना जाता है। इसकी कितनी ही गाथाएं उत्तरवर्ती ग्रंथकारों ने अपने-अपने ग्रंथों में उद्धृत ही नहीं की हैं, अपितु उन्हें प्रकरणानुरूप अपने ग्रंथों का अंग बना लिया है। जैन मलाचा वाङ्मय में साधुओं के आचार का वर्णन करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। इसके बाद मूलाराधना, आचारसार, चारित्रसार ग्रंथ रचे गये हैं, उनका आधार मूलाचार ही है। यह न केवल चारित्र विषयक ग्रंथ है, किन्तु ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहने वाले साधुओं की ज्ञानवृद्धि में सहायक अनेक विषयों के समाविष्ट होने से 'आकर' जैसा ग्रंथ है। इसका पर्याप्त्यधिकार द्रव्यानुयोग और करणानुयोग की चर्चाओं से परिपूर्ण है। मूलाचार ग्रंथ निम्नलिखित बारह अधिकारों में विभाजित है१. मूलगुणाधिकार-यह ३६ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। इसमें मुनियों के २८ मूलगुणों तथा उनका स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। २. बृहत्प्रत्याख्यान-संस्तर स्तवाधिकार-इसमें ७१ गाथाएं हैं, जिनमें मृत्यु के समय समस्त पापों का परित्याग कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप आराधना में स्थिर रखने का उपदेश है। सल्लेखना धारण करने के पूर्व निर्यापकाचार्य के सामने अपने समस्त पापों का प्रत्याख्यान करना आवश्यक बताया गया है। ३. संक्षिप्त प्रत्याख्यानाधिकार-यह १४ गाथाओं में पूर्ण हुआ है। इसमें आकस्मिक मृत्यु का प्रसंग उपस्थित होने पर पांच पापों का त्याग कर संन्यस्त होने की विधि का वर्णन है। ४. समाचाराधिकार-यह अधिकार ७६ गाथाओं में पूर्ण है। इसमें समाचार शब्द के चार अर्थ इस प्रकार बताये हैं-रागद्वेष का त्याग कर समता भाव, मूलगुणों का निर्दोष पालन, समस्त साधुओं का समान निर्दोष आचरण और सभी क्षेत्रों में कायोत्सर्गादि के परिणामरूप आचरण । ५. पंचाचाराधिकार-यह अधिकार २२२ गाथाओं में पूर्ण हुआ है तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य आचार का वर्णन विस्तार से करता है। ६. पिण्डशुद्धि अधिकार-इसमें ८३ गाथाएं हैं, जिनमें साधुओं के ४६ दोष रहित आहार का वर्णन है। ४६ दोषों का भी स्पष्ट वर्णन है। ७. षडावश्यकाधिकार-इसमें १९३ गाथाएं हैं, जिनमें सामायिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, इन छह आवश्यकों का निरूपण है। ८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार-इसकी ७६ गाथाएं हैं, जिनमें साधु के वैराग्य भाव की वृद्धि के लिए अनित्य-अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। ९. अनगारभावनाधिकार-इसमें १२५ गाथाएं हैं, जिनमें अनगार-साधु के स्वरूप, लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा आदि दश शुद्धियों का वर्णन है। १०. समयसाराधिकार-इसमें १२४ गाथाएं हैं, जिनमें साधु को लौकिक व्यवहार से दूर रहने का उपदेश है। चारित्र और तप से ही ज्ञान की सार्थकता बतलायी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ११.शीलगुणाधिकार-इसकी २६ गाथाओं में शील के अट्ठारह हजार भेदों का वर्णन करते हुए चौरासी लाख उत्तरगुणों की चर्चा की गई है। १२. पर्याप्त्यधिकार-इसमें दो सौ छह गाथाएं हैं, जिनमें पर्याप्ति आदि के अन्तर्गत द्रव्यानुयोग और करणानुयोग संबंधी विशद चर्चाएं की गयी है। इन चर्चाओं से ग्रंथ की गरिमा वृद्धिंगत हुई है। सब अधिकारों की कुल गाथा संख्या १२५२ है। वर्तमान आर्यिकाओं में प्रबुद्धतम् गिनी आर्थिक श्री १०५ ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार ग्रंथ का विस्तृत प्रामाणिक अनुवाद कर विद्वजनों और स्वाध्यायशील भव्यजनों का बड़ा उपकार किया है। माताजी ने अपने आद्य उपोद्धात में सब अधिकारों के वर्णनीय विषय का अच्छा उल्लेख किया है। इन अधिकारों में ग्रंथकर्ता श्री वट्टकेर आचार्य ने साधु को पद-पद पर सावधान किया है। ग्रंथ का हार्द तो स्वयं स्वाध्याय करने से ही ज्ञात हो सकता है, फिर भी बीच-बीच से कुछ आवश्यक, उपयोगी विषयों की चर्चा प्रस्तुत की गई है। जो दृष्टव्य है चत्तारि पटिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुवण्हे अवरहे किदियम्मा चोद्दसा होति ॥६०२ ॥ अर्थात् प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन ये पूर्वान्ह और अपरान्ह से संबंधित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं। इस गाथा की वसुनन्दि कृत आचारवृत्ति का अनुवाद करते हुए पूज्य माताजी ने लिखा है कि सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तवपर्यन्त जो क्रिया है, उसे "कृतिकर्म" कहते हैं। प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वान्ह संबंधी कृतिकर्म सात होते हैं तथा अपरान्ह संबंधी कृतिकर्म भी सात होते हैं। ऐसे कुल चौदह कृतिकर्म होते हैं। पुनः इन कृतिकर्मों को स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म बतलाती हैं। आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है, वह एक कृतिकर्म हुआ। प्रतिक्रमण भक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है, वह दूसरा कृतिकर्म हुआ। वीर भक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग है, वह तृतीय कृतिकर्म हुआ तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के करने में शांति के लिए जो कायोत्सर्ग है, वह चतुर्थ कृतिकर्म है। स्वाध्याय के तीन कृतिकर्म-स्वाध्याय आदि के कृतिकर्मों का भी वर्णन आचारवृत्ति टीका में उपलब्ध है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण पूज्य माताजी ने स्वयं के शब्दों में भी किया है मुनि के अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं। उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है। यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतिक्रमण संबंधी कायोत्सर्ग ८, त्रिकालदेव वन्दना संबंधी ६, पूर्वान्ह, अपरान्ह तथा पूर्वरात्रिक और अपररात्रिक इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय संबंधी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति संबंधी २, कुल मिलाकर २८ होते हैं। अनगार धर्मामृत में भी इनका उल्लेख है, यथा स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वंदने ष्टौ प्रतिक्रमे । कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचराः ॥७५ ॥ अर्थ-स्वाध्याय के बारह, वंदना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र संबंधी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः मूलाचार की गाथा में कृतिकर्म का प्रयोग आया है। दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य। चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे ॥६०३ ॥ गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें। इसका वसुनन्दि की आचारवृत्ति में स्पष्टीकरण किया गया है, किन्तु माताजी ने इसका विशेषार्थ निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है। ___ "एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है, उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववंदना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारंभ में की जाती है। जैसे देववंदना में चैत्यभक्ति के प्रारंभ में अथ पौर्वान्हिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं ।" - यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें। यह एक अवनति हुई। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके "णमो अरिहंताणं-चत्तारिमंगलं-अड्ढाइजदीव-इत्यादि पाठ बोलते हुए-दुच्चरियं वोस्सरामि" तक पाठ बोले यह "समायिकस्तव" कहलाता है। पुनः तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई । पुनः नौ बार णमोकार मंत्र को सत्ताईस श्वासोच्छवास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें। इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४०७ बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके "थोस्सामि स्तव' पढ़कर अन्त में तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं। ये सामायिक स्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयी। इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है। यहाँ पर टीकाकार ने मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति का करना आवर्त कहा है, जो कि उस क्रिया के करने में होना ही चाहिए। ___इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके "जयतु भगवान्" इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है। मूलाचार के चतुर्थ अध्याय, समाचाराधिकार में मुनि विहार के प्रसंग में कहा है कि एकल विहारी कौन हो सकता है? "तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य। पविआआगमबलिओएयविहारीअणुण्णादो" ॥१४९ ॥ अर्थात् जो बारह प्रकार के तपों में तत्पर रहते हैं, द्वादशांग और चौदहपूर्व के ज्ञाता हैं, अथवा क्षेत्र-काल के अनुसार आगम के ज्ञाता हैं, प्रायश्चित्त शास्त्र में कुशल है, शारीरिक शक्ति से युक्त है, निर्मोह है, एकत्व भावना का सदा चिन्तन करते हैं, संहनन से सुदृढ़ हैं, धैर्यशाली है तथा क्षुधादि परीषहों के सहन करने में समर्थ है, उसे एकलविहारी होने की आज्ञा है। वह भी गुरु की आज्ञानुसार एकलविहार को स्वीकृत करता है। इसी समाचाराधिकार में एकलविहारी साधु के दोषों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि आयरिय कुलं मुच्चा विहरदि समणा य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उपदेस पाप स्स्मणोत्ति वुच्चदि दु॥ आचार्य कुल को छोड़कर जो श्रमण एकाकी विहार करता है और गुरु के उपदेश को ग्रहण नहीं करता वह पाप श्रमण है। "सच्छंदगदागदीसयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे। सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी" ॥१५० ॥ · गमन, आगमन, शयन, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना-इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, और बोलने में भी स्वच्छंद रुचि रखता है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकविहारी न होवे। मूलाचार ग्रंथ पर सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनन्दि आचार्य ने आचारवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखी है। यह वसुनन्दि आचार्य वसुनन्दि श्रावकाचार के कर्ता हैं तथा १२ वीं शताब्दी के आचार्य हैं। दूसरी टीका मेघचन्द्राचार्य रचित कनड़ भाषा में है। इस टीका का नाम "मुनिजन चिन्तामणि' है। वसुनन्दि कृत टीकावाली प्रति में १२५२ गाथाएं हैं और मेघचन्द्राचार्य कृत कन्नड़ टीका में १४०३ गाथाएं हैं। ___मूलाचार के कर्ता के विषय में आचारवृत्ति के कर्ता वसुनन्दि आचार्य ने वट्टकेराचार्य, वट्टकेर्याचार्य और वढेरकाचार्य का नामोल्लेख किया है। पहला रूप टीका के प्रारंभिक प्रस्तावना वाक्य में, दूसरा ९ वें अधिकार, १० वें और ११ वे अधिकार के संधि वाक्यों में तथा तीसरा ८ वें अधिकार के संधि वाक्य में किया है। स्व. पं. नाथूराम जी प्रेमी, पं. कैलाशचंद जी तथा पं. परमानन्द जी शास्त्री ने भी वट्टकेराचार्य को ही मूलाचार का कर्ता घोषित किया है। माणिकचन्द्र ग्रंथमाला से प्रकाशित मूलाचार की प्रति के अन्त में प्रकाशित निम्नलिखित पुष्पिका वाक्य है "इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत मूलाचारख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य" इस पुष्पिका वाक्य के आधार पर तथा मेघ चन्द्राचार्य कृत मुनि जनचिन्तामणि टीका के प्रस्तावना में "कोण्डकुन्दाचार्येण इस उल्लेख से स्व. पं. जिनदास जी फडकुले सोलापुर ने मूलाचार को कुन्दकुन्दाचार्य की कृति माना है तथा इन्हीं के नाम से विरचित मूलाचार की टीका के आधार पर गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी ने भी इसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानकर अपने आद्यउपेद्धात में उनका परिचय दिया है। आर्यिकाओं की चर्चा करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि एसो अजाणंपि य सामाचारो जंहक्खिओ पुव्वं । सव्वहिम अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोगं ॥१८७॥ जहाजोगं-यथायोग्यं आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहितः । सर्वस्मिन्नहोरात्रे एषोपि सामाचारो यथायोग्यमार्यिकाणां आर्यिकाभिर्वा प्रकटयितव्यों विभावयितव्यों वा यथाख्यातः पूर्वस्मिन्निति। 'अर्थात् पूर्व में जैसा कहा गया है, वैसा ही यह समाचार आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण अहोरात्र में यथायोग्य करना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इसकी आचारवृत्ति टीका का हिन्दी अनुवाद निम्रवत् पूर्व में जैसा समाचार प्रतिपादित किया है, आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण काल रूप दिन और रात्रि में यथायोग्य-अपने अनुरूप अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों से रहित वही सम्पूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए। भावार्थ-इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औधिक पदविभागिक समाचार माने गये हैं, जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र "यथायोग्य" पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रंथ नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशनभारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली के न्यासियों ने पूज्य माताजी से विशेष निवेदन एवं आग्रह कर मूलाचार ग्रंथ की टीका भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करने हेतु अनुमति प्रदान करने का प्रस्ताव किया था। पूज्य माताजी से अनुमति प्राप्त होने पर इसे भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया। पू. आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी द्वारा कृत टीका की पांडुलिपि, भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष स्व. साहू श्रेयांस प्रसाद जी की सम्मति के अनुसार मुद्रण से पूर्व वाचन और मार्जन के लिए सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री और मेरे, इन तीन विद्वानों के पास भेजी गयी। उपर्युक्त तीनों विद्वानों ने कुण्डलपुर में एकत्रित हो सम्मिलित रूप से पाण्डुलिपि का वाचन किया। कुछ स्थलों पर विशेषार्थ को स्पष्ट करने के लिए माताजी को सुझाव भी दिया। माताजी ने भी सम्पादक मंडल के सुझावों पर ध्यान देकर विशेषार्थों को स्पष्ट किया। उपरान्त सम्पादक मंडल की अनुमति से ग्रंथ प्रकाशित हुआ। सम्पादक मंडल ने अपनी अनुशंसा निम्नलिखित पंक्तियों में ज्ञानपीठ को प्रेषित की थी "हमें प्रसन्नता होती है कि कुछ आर्यिकाओं ने आगम ग्रंथों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उन पर टीकाएं लिखना प्रारंभ किया है। उन आर्यिकाओं के नाम इस प्रकार हैं-गणिनी आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी (अष्टसहस्री, नियमसार, कातंत्र रूपमाला, मूलाचार, समयसार आदि), आर्यिका श्री १०५ विशुद्धमती माताजी (शिष्या आचार्य शिवसागरजी) त्रिलोकसार, सिद्धान्तसार दर्पण, तिलोयपण्णत्ति आदि । श्री १०५ आर्यिका जिनमती माताजी (प्रमेय कमल मार्तण्ड), श्री आर्यिका १०५ आदिमतीजी (गोम्मटसार कर्मकांड) श्री १०५ आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी (सागारधर्मामृत, राजवार्तिक आदि) ये माताएं ज्ञानध्यान में तत्पर रहती हुई जैन वाङ्मय की प्रभावना करती रहें, यही आकांक्षा है। मूलाचार अनेक सुभाषितों का भण्डार भी है, अतः दोनों भागों के प्रारंभ में "कण्ठहार" के नाम से ऐसी गाथाओं का प्रकाशन किया है, जिससे पुण्य पाठ करने के लिए सुविधा हो गई। इस ग्रंथ के अन्त में टीकाकों ने प्रशस्ति के माध्यम से स्वयं एवं ग्रंथ के इतिहास को श्लोकबद्ध किया है, इससे उनका संस्कृत काव्य रचना का कौशल प्रकट होता है। समीक्षा का सार यह है कि आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती जी अपने कार्य में पूर्ण सफल हैं। उनके प्रति निम्न श्लोक समर्पित है आर्यिका गणिनी जीयात्, ज्ञानमत्याह्वया चिरम्। वर्धयन्ती निजाचार-मेधयन्ती जिनागमम् ॥ दिगम्बरमुनि -दिगम्बरा समीक्षक-डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, जबलपुर। कुंद-कुंद स्वामी ने प्रवचनसार के चारित्राधिकार संबंधी प्रथम गाथा में कहा है-"सामष्णं पडिक्जजह जइ इच्छसि दुःख परिमोक्खं"-यदि दुःखों से छुटकारा चाहता है तो श्रामण्य-मुनिपद स्वीकार करो। तात्पर्य यह कि गृहस्थी के महापडक में फंसा हुआ मानव दुःखों से निवृत्त नहीं हो सकता। अणुव्रतों का निरतिचार पालन करने वाला मनुष्य सोलहवें स्वर्ग से आगे नहीं जा सकता । इससे आगे जाने के लिए महाव्रति होना अनिवार्य आवश्यक है। महाव्रतियों में भी यदि कोई भद्र परिणामी मिथ्या दृष्टि मुनि हैं तो वह नवम ग्रैवेयक तक हो जा सकता है। अनुदिश और अनुत्तर विमानों में नहीं है। अनुदिश और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाला सम्यग्दृष्टि भी वहाँ से आकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसका नियम नहीं है, क्योंकि अनुदिश और सर्वार्थसिद्धि को छोड़ कर शेष अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाला प्राणी द्विचरम भी होता है। भाव यह है कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए भावलिंगी मुनिपद धारण करना आवश्यक है। अनंत बार मुनिपद धारण कर नवम ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वालों की जो चर्चा है, वह द्रव्य लिंगी मुनियों की चर्चा है। भावलिंगी मुनिपद तो बत्तीस बार से अधिक धारण नहीं करना पड़ता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संसार विनिवृत्ति का मार्ग मुनि लिंग ही है। इसके बिना रत्नत्रय की उत्कृष्ट आराधना संभव नहीं है। यद्यपि मुनिलिंग वाह्य वेश है तथापि अंतरंग शुद्धि के लिए उसका ग्रहण करना आवश्यक है। दिगम्बर मुनि की चर्या खड्गधार पर चलने के समान कठिन है। इसे वही धारण कर सकता है, जो संसार शरीर और भोगों से अत्यंत निर्विण्य हो साथ ही प्रबल शक्ति का धारक हो । आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने "दिगम्बर मुनि" नामक ३०४ पृष्ठ का महान् ग्रंथ लिखकर यह स्पष्ट किया है कि दीक्षा कौन ले सकता है? दीक्षा लेने की पात्रता किसे है? कैसे गुरु के पास जाकर दीक्षा लेनी चाहिए? दीक्षा लेते समय क्या-क्या विधि होती है? तथा साधु के क्या-क्या मूल गुण हैं? यह सब विस्तार से इस ग्रंथ में स्पष्ट किया गया है। 1 समयसार मूर्धि "दिगम्बर मुनि' ग्रंथ में तीन अवान्तर भाग हैं। इन भागों में माताजी ने मुनिधर्म से संबंध रखने वाले प्रत्येक विषय की स्पष्ट चर्चा की है। मुनियों के कितने भेद हैं? उनका क्या स्वरूप है और उनकी क्या-क्या आचार विधि है? इसका सांगोपांग निरूपण किया है। जिनकल्पी और स्थविरकल्पी तथा पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इन सबका स्पष्ट विवरण संकलित है अंतिम खंड में ख. डॉ. नेमीचंदजी शास्त्री द्वारा लिखित और अ. भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के द्वारा प्रकाशित तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा के चार भागों के आधार पर मुनियों का ऐतिहासिक वर्णन दिया है, जो सर्वमान्य है। स्वनाम धन्य आचार्य शांतिसागर से लेकर आचार्य धर्मसागर तक के आचार्यों का परिचय दिया है। ग्रंथ की रचना में ६५ ग्रंथों का सूक्ष्मावलोकन किया गया है तथा उनके संदर्भानुसार प्रमाण पाद टिप्पणी में दिये गये हैं। वस्तुतः यह ग्रंथ मुनिचर्या पर प्रकाश डालने वाला अद्वितीय ग्रंथ है। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का सृजन कर आपने विद्वानों पर बहुत उपकार किया है। ग्रंथ संग्रहणीय है । [४०९ समयसार (पूर्वार्द्ध) समीक्षक- आर्यिका चन्दनामतीजी, संघस्थ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जी किया है, जो "वीरज्ञानोदयग्रंथमाला" हस्तिनापुर का ११५ व पुष्प है। Jain Educationa International प्रथम सर्वांगीण समयसार जैन जगत् के उपलब्ध विशाल साहित्य के अन्तर्गत श्री कुन्दकुन्दाचार्य की अनमोल कृति समयसार ने विशेष लोकप्रियता प्राप्त की है। इस आध्यात्मिक ग्रंथ पर वर्तमान शताब्दी में अनेकों मनीषियों ने अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं, अतः एक ही आगम पर सैकड़ों कृतियाँ उपलब्ध हैं । इन समस्त उपलब्ध कृतियों के अवलोकन से पता चलता है कि किसी ने आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी की टीका को अधिक महत्त्व दिया है, किसी ने श्री जयसेनाचार्य की सरल टीका को प्रधानता दी है। इसी प्रकार कोई समयसार के कलश-काव्यों पर अनुसंधान कर रहे हैं तो कोई उनके पद्यानुवादों से जनमानस को ज्ञानामृत का रसपान कराना चाहते हैं तथा कुन्दकुन्दस्वामी की मूलगाथाओं पर भी अनेकों पद्य रचनाएं देखी जा रही है। इसी श्रृंखला में पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से भी वह महानुकृति अछूती न रही, उन्होंने पहले अपने दीक्षित जीवन के लगभग चालीस वर्षों में पच्चीसों बार समयसार का सूक्ष्म अध्ययन किया, पुनः अन्तस्तल तक पहुँचाने वाले सिद्धान्त रहस्य को उद्घाटित करने वाली "ज्ञानज्योति” हिन्दी टीका का सृजन आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। आज हमारी समाज को दोनों आचार्यों की संस्कृत टीकाओं का शब्दार्थ हिन्दी अनुवाद एवं गुणस्थान प्रकरण से युक्त समयसार की अत्यंत आवश्यकता थी। जब से पू. ज्ञानमती माताजी ने अष्टसहस्त्री की हिन्दी टीका एवं नियमसार ग्रंथ की "स्याद्वादचन्द्रिका " संस्कृत टीका रची है, तभी से विद्वानों की दृष्टि प्रत्येक जटिल कार्य के लिए आर्यिका श्री के प्रति केन्द्रित रहती है। समयसार को भी आगम के परिप्रेक्ष्य में सर्वांगीण उपयोगी बनाने हेतु माताजी की बहुत दिनों से इच्छा थी, शायद उसी के प्रतिफलस्वरूप समयसार का नवीन पूर्वार्द्ध संस्करण मई, १९९० में सुन्दर मुद्रण एवं बाइंडिंग के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है। इस ग्रंथ के सृजन में टीकाकर्त्री का मूल अभिप्राय यही है कि कुन्दकुन्द स्वामी की प्रत्येक गाथा के साथ ही दोनों टीकाओं का यदि अध्ययन किया जाए तो कभी भी एकान्तपक्ष का दुराग्रह नहीं रहेगा। बात यह है कि समय और शिष्यों की ग्राहक शक्ति के अनुरूप ही आचार्यगण संक्षेप और विस्तार कथन करते थे। आचार्य श्री अमृतचन्द्रजी विद्वानों के मतानुसार ईसवी सन् की १०वीं शताब्दी में हुए हैं और श्रीजयसेनाचार्य ने ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी में समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है, जबकि गाथासूत्र कुन्दकुन्दाचार्य ने २००० वर्ष पूर्व लिखे हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि उनके समय में तो लोग सूत्ररूप में कही गई वाणी को अवधारण करने में सक्षम थे और १००० वर्षों के पश्चात् जब मात्र गाथाओं से अर्थ समझना कठिन For Personal and Private Use Only . Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हो गया तो आचार्य अमृतचन्द्रजी ने आत्मख्याति टीका एवं कलशकाव्यों में भाव खोले। इसके पश्चात् २०० वर्ष और व्यतीत होने के साथ ही कुछ अल्पबुद्धियों द्वारा समयसार ग्रंथ का दुरुपयोग देखकर श्रीजयसेनस्वामी ने कुन्दकुन्दाचार्य के अभिप्राय को गुणस्थानों में खोलकर महान् उपकार किया है। आज ८०० वर्षों के पश्चात् उनकी खुलासेपूर्ण टीका को लुप्तप्राय देखकर पू. ज्ञानमती माताजी ने दोनों टीकाओं की हिन्दी एक साथ एक ही ग्रंथ में स्थान देकर समयसार पाठकों को आज्ञासम्यक्त्व धारण करने की प्रेरणा दी है। लेखिका ने स्थान-स्थान पर विशेषार्थ लिखकर अनेकों आगम के उदाहरणों द्वारा विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्यत्रय के भावों का समादर किया है, यथा पृ. नं. ५१९ पर अमृतचंद्रसूरि के अनुसार गाथा नं. १५४ और जयसेनाचार्य के अनुसार गाथा नं. १६१ का विशेषार्थ द्रष्टव्य है परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसारगमणहेर्दू वि मोक्खहेउं अजाणता ॥ इस गाथा का अर्थ यही है कि “जो परमार्थ से बहिर्भूत हैं, वे अज्ञान से मोक्ष के हेतु नहीं जानते हुए संसारगमन के हेतु भी पुण्य की इच्छा करते हैं।" इसके विशेषार्थ में आर्यिकाश्री ने खोला है कि यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि पुण्यक्रियाएं भले ही सम्यक्त्वसहित हों, फिर भी तत्काल में तो बंध के लिए ही कारण हैं। हाँ, परम्परा से मोक्ष के लिए कारण हैं, क्योंकि कर्मक्षय का साक्षात् कारण तो निर्विकल्प ध्यानरूप शुद्धोपयोग ही है और उस शुद्धोपयोग को प्राप्त कराने के लिए ये मुनिव्रत, बाह्यतप और आवश्यक क्रियाएं हैं, अतः ये कारण की कारण होने से परंपरा से कर्मक्षय के लिए कारण हैं। बात यह है कि पाप रूप अव्रत तो बुद्धिपूर्वक छोड़ने होते हैं और पुण्यरूप व्रत छोड़े नहीं जाते हैं, प्रत्युत् ध्यान में तन्मय होने पर ये स्वयं छूट जाते हैं। जैसे फल के आने पर फूल स्वयं झड़ जाता है, उसे तोड़ा नहीं जाता है और यदि फल आने के पहले ही फूल को तोड़ देवें तो उसमें फल आएगा ही नहीं। ठीक यही स्थिति यहाँ है, यदि निर्विकल्प ध्यान होने के पहले ही पुण्य क्रियाएं छोड़ दी जावें तो पुनः निर्विकल्प ध्यान की प्राप्ति होगी ही नहीं। देखो, तीर्थंकरों ने भी निर्विकल्प ध्यान की सिद्धि के लिए हजारों वर्ष तपश्चरण किया है। समंतभद्र स्वामी ने भी कहा है बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्यतपसः परिबृहणार्थम् । अर्थात् हे भगवन्! आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिए आपने घोरातिघोर तप को तपा था इत्यादि रूप से इस भावार्थ में दोनों आचार्यों के भावों को अच्छी तरह खोला गया है। यह तो रचनाकार की प्रतिभा शक्ति का ही द्योतक होता है कि वे प्राचीन गुरु परम्परा को पुष्ट करने हेतु किन-किन आगम ग्रन्थों को प्रमाण दे सकते हैं। पू० ज्ञानमती माताजी तो यूँ भी इस कार्य में सिद्धहस्त मानी जाती रही हैं क्योंकि उन्होंने चारों अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान अर्जित किया है। पूर्व जन्मों के ज्ञानदान के फलस्वरूप ही उनको यह प्रथम श्रेय प्राप्त हुआ है क्योंकि चार कक्षा की लौकिक शिक्षा प्राप्त करने वाली किसी भी नारी से ऐसी आशा नहीं की जा सकती है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग ही लेखिका के जीवन का प्रमुख अंग रहा है। इनकी कठिन से कठिन और सरल से सरल कृतियों को देखकर कोई पाठक सहज अनुमान नहीं लगा सकता है कि अष्टसहस्री जैसे क्लिष्ट न्यायग्रन्थ का अनुवाद करने वाली ज्ञानमती माताजी ने ही बालविकास और उपन्यास शैली का साहित्य रचा है। कहाँ न्याय और सिद्धांत की उच्चप्रौढ़ भाषा और कहाँ बालसुलभ सरल हिन्दी भाषा? यह उनकी आलंकारिक विद्या का ही प्रतीक है। कुन्दकुन्दस्वामी ने भी जहाँ निर्विकल्प ध्यान जैसी उच्च अवस्था का प्रतिपादन करने वाले समयसार, प्रवचनसार, नियमसार ग्रन्थ लिखे, वहीं आचारग्रन्थ मूलाचार, रयणसार, अष्टपाड़ आदि भी लिखे । लेखन शैली प्रसंग के अनुसार अलग-अलग हैं अतः कुछ लोग दिग्भ्रमित भी हो जाते हैं। आचार्य श्री के अभाव में तो प्राचीन शिलालेखों को ही प्रमाण मानना पड़ता है। किन्तु आज की रचयित्री तो हम सबके पुण्ययोग से विद्यमान हैं अतः उनकी किसी कृति में भी संदेह होने पर तत्काल समाधान प्राप्त हो सकता है। वैसे ज्ञानमती माताजी ने कई ग्रन्थों की प्रशस्तियों में अपना साधारण-सा परिचय और गुरुपरम्परा का उल्लेख भी किया है। साहित्यिक क्षेत्र में इनका प्रवेशकाल सन् १९५५ से माना जा सकता है। जब इन्होंने क्षुल्लिका वीरमती की अवस्था में म्हसवड़ (महाराष्ट्र) में सहस्रनाम के १००८ मंत्र बनाए थे, उन मंत्रों की पुस्तक क्षुल्लिका विशालमतीजी की प्रेरणा से म्हसवड़ में ही प्रकाशित हुई थी जो कि अब अप्राप्य है नमूने के तौर पर जम्बूद्वीप की लाइब्रेरी में १-२ पुस्तकें हैं। इसके पश्चात् १० वर्षों का काल मुख्य रूप से शिष्यों के संग्रह और उनके पठन-पाठन में व्यतीत हुआ। सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में आपने अपनी पांच आर्यिका क्षुल्लिका शिष्याओं के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोल तीर्थ पर चातुर्मास किया। वहां बाहुबलि के चरणसानिध्य से वास्तविक साहित्य सृजन का शुभारम्भ हुआ। "सिद्धिप्रदं... "इत्यादि संस्कृत बाहुबलि स्तोत्र के ५२ पद्यों ने सचमुच ही आपको सरस्वती की सिद्धि प्रदान की है। इसलिए सन् १९६५ से ज्ञानमती माताजी द्वारा साहित्य रचना का प्रारंभिक काल भी माना जा सकता है। २५ वर्ष की अवधि में १५० से अधिक ग्रन्थों का सृजन इनकी शुद्धप्रासुक लेखनी से हुआ है। ___इसी श्रृंखला में यह ११५ नं. का ग्रन्थ समयसार हैं इसमें शान्तरस की प्रधानता है जब योगी जन परमशान्तभाव का आश्रय लेते हैं तब वे ही असली समयसार को प्राप्त करते हैं। प्रस्तुत समयसार ग्रन्थ का १-१ शब्द पठनीय और चिन्तनीय है ताकि अपने पथ से हम स्खलित न होने पावें। इसमें जो आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने कलशकाव्य रचे हैं उनमें अगाध रहस्य छिपा हुआ है प्रत्येक कलशकाव्य कण्ठस्थ करने योग्य है। इन कलशों का पद्यानुवाद पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने किया था जिन्हें इस ग्रन्थ में प्रत्येक कलशकाव्यों के साथ नीचे प्रकाशित किया गया है। ज्ञानामृत प्रदात्री, भवजलधितारिका, पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से मैंने समयसार की गाथाओं का पद्यानुवाद किया, उन पद्यों को भी गाथाक्रम से यथास्थान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४११ इस ग्रन्थ में समाहित किया गया है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में पूरे अध्याय के सार को प्रकट करने वाले सारांश बनाए हैं जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन 'सभी कारणों से अब इस ग्रन्थ को सर्वांगीण कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ग्रन्थ समायोजना का क्रम इस प्रकार बनाया गया है कि प्रत्येक पाठक ग्रन्थ खोलकर सहज ही महत्त्वपूर्ण अर्थ का रसास्वादन ले सकता है। यह पुष्प ६६० पत्रों में संवर अधिकार तक समयसार पूर्वार्द्ध के रूप में हस्तिनापुर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान से प्राप्य है, उत्तरार्द्ध भी इन्हीं समस्त विशेषताओं के साथ प्रकाशनाधीन है। इसके स्वाध्याय से निश्चित ही आपका अन्तःकरण पवित्र होगा और समयसारमय-निर्विकल्पध्यानी महामुनि बनने की भावना जाग्रत होगी। ___ कलिकाल के सर्वज्ञ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की मूल कृति पर पांच लेखक साधुओं (दो दिगम्बर मुनि एवं तीन आर्यिका) की समष्टि का अनोखा स्वरूप पूज्य ज्ञानमती माताजी ने एक ही ग्रन्थ में समाहित किया है। ज्ञानज्योति टीका से समन्वित प्रस्तुत अध्यात्मग्रन्थ हम सबके जीवन में ज्ञान और वैराग्य की ज्योति को प्रस्फुटित करे यही अन्तर्भावना है। 'नियमसार' की आर्यिका ज्ञानमतीकृत 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका समीक्षक- डॉ० जयकुमार जैन स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग सनातन धर्म कालेज,मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) 'मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गोतमो गणी। मङ्गलं कुन्दकुन्दायो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम्॥ किसी भी मङ्गल कार्य के पूर्व जैनधर्मावलम्बियों में उक्त श्लोक के पुण्यस्मरण की परम्परा है। स्पष्ट है कि भगवान् महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक एवं द्वादशाङ्ग आगम के प्रणेता गौतम गणधर के बाद जैनधर्म में कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता दी गई है । कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभू तथा तर्कप्रधान आध्यात्मिक साहित्य के युगप्रधान आचार्य हैं। अध्यात्म जैन वाङ्मय एवं प्राकृत साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है। उनका माहात्म्य इसी से जाना जा सकता है कि उनकी पश्चाद्वर्ती आचार्य परम्परा दो हजार वर्ष बाद भी अपने को कुन्दकुन्दान्वयी या कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवित समझती है। विपुल साहित्य निर्माण की दृष्टि से न केवल प्राकृत भाषा में, अपितु सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में कुन्दकुन्दाचार्य अग्रणी हैं। उन्होंने अध्यात्मविषयक और तत्त्वज्ञान विषयक दोनों प्रकार के साहित्य की रचना की है। निम्नलिखित ग्रन्थ निर्विवाद रूप से कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रणीत माने जाते हैं--प्रवचनसार, समयसार, पञ्चासितकाय , द्वादशानुप्रेक्षा, अष्टप्राभृत एवं दशभक्ति। इनके अतिरिक्त रयणसार को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत माना जाता है, किन्तु भाषा-शैली आदि में अन्तर होने से कुछ विद्वान् इसे कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत होने में संदेह करते हैं। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी मूलाचार को भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानती हैं। ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद ने १९१५ ई० में प्रकाशित नियमसार की भूमिका में लिखा है कि- "आज तक श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार-यह तीन रत्न ही अधिक प्रसिद्ध हैं। खेद की बात है कि उन्हीं जैसा, बल्कि कुछ अंशों में उनसे भी विशेष नियमसार रत्न है। उसकी प्रसिद्धि इतनी अल्प है कि कोई-कोई तो उसका नाम भी नहीं जानते।" श्री ब्रह्मचारीजी का यह कथन असत्य नहीं है। नियमसार की इस अप्रसिद्धि का कारण संभवतः यही है कि इसकी कोई ऐसी संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं रही है, जो आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक दोनों हस्तियों को सुस्पष्ट करती हो। नियमसार पर ईसा की बारहवीं शताब्दी (११४० ई०) के श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित एकमात्र संस्कृत टीका "तात्पर्यवृत्ति' उपलब्ध थी। इस टीका में कुन्दकुन्द के प्रसिद्ध टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य की आध्यात्मिक पद्धति का अनुसरण करते हुए उसी सरणि को अपनाया गया है। अमृतचन्द्राचार्य द्वारा अपनी टीका में प्रयुक्त कलशों के समान तात्पर्यवृत्ति में भी अपसंहृति में श्लोकों द्वारा उसके हार्द को प्रकट किया गया है। ये आलंकारिक श्लोक गूढ तत्त्वज्ञान को सरल एवं रोचक तो बनाते हैं, किन्तु अध्यात्म के साथ सिद्धान्त की संगति में अधिक सहायक नहीं हैं। 'तात्पर्यवृत्ति' मात्र अध्यात्मपरक है। कदाचित् इसी कमी को पूरा करने के लिए पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने नियमसार पर 'स्याद्वादचन्द्रिका' नामक टीका लिखी है, जो Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला १९८५ ई० में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुई है। पूज्य माताजी ने कुन्दकुन्दाचार्य के सुपरिचित एवं स्फुट्टीकाकार जयसेनाचार्य का अनुकरण करते हुए खण्डान्वय एवं दण्डान्वय की पद्धति को अपनाया है। इससे मूल गाथा का शाब्दिक अर्थ एवं उसका विशेष अभिप्राय एकदम स्पष्ट हो जाता है। उनकी इस ‘स्याद्वादचन्द्रिका' में आध्यात्मिक दृष्टि के साथ-साथ सैद्धान्तिक दृष्टि भी समन्वित है। अतः यह टीका सिद्धान्तशास्त्र के अध्येताओं तथा अध्यात्मशास्त्र के रसिकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। अध्यात्म में प्रवेशेच्छुओं के लिए तो यह अत्यन्त सहायक है। जो लोग अमृतचन्द्राचार्यकृत समयसारादि की आध्यामिक टीकाओं के आधार पर शुभोपयोग को हेय समझने लगते हैं, उन्हें प्रवचनसार की ७७वीं गाथा को सावधानी से हृदयङ्गम करना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि पुण्य और पाप में अन्तर न समझने वाले मोही अपार घोर संसार में सतत परिभ्रमण करते रहते हैं। कुन्दकुन्द का यह हार्द माताजी द्वारा विरचित नियमसार की टीका में अत्यन्त स्पष्ट है । जो 'स्याद्वादचन्द्रिका' को पढ़ने के पश्चात् अमृतचन्द्राचार्यकृत अध्यात्मपरक टीकाओं को पढ़ेंगे, वे निश्चित रूप से कुन्दकुन्द के अभिप्राय को स्वाभिप्रायी बनाने से तथा अपने एकान्त दृष्टिविष से समाज को दग्ध करने से भीत होंगे। नियमसार नाम के सार्थक्य को स्पष्ट करते स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है "णियमेण यजं कजं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।" अर्थात् नियम से जो कार्य करणीय है, वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। विपरीत की निवृत्ति के लिए इसमें सार शब्द जोड़ा गया है। स्याद्वादचन्द्रिका' में इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर १२वें क्षीणकषाय या १३वें अयोगकेवली गुणस्थान-पर्यंत सभी मुनिराज भेदाभेदरत्नत्रय के अनुष्ठाता होने से नियमसार कहलाते हैं। 'स्याद्वादचन्द्रिका' किसी जैन साध्वी द्वारा विरचित प्रथम संस्कृत टीका होते हुए भी अपनी सरलता, प्रासादिकता, प्रभावकता एवं प्राञ्जलता के कारण संस्कृत टीका साहित्य में निश्चित ही महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होगी। इसका नामकरण सार्धक है। माताजी ने स्वयं लिखा है कि यह ग्रन्थ नियम रूपी कुमुद को विकसित करने के लिए चन्द्रमा का उदय है, अतः नियम कुमुदचन्द्रोदय है। अथवा यति रूपी कैख को विकसित करने के लिए पूर्णिमा का निशीथचन्द्र होने से यतिकैरवचन्द्रोदय है। इसमें पद-पद पर व्यवहार-निश्चय नयों की, व्यवहार-निश्चय क्रियाओं की और व्यवहार-निश्चय मार्ग की पारस्परिक मैत्री स्याद्वाद पद्धति से वर्णित है। यह टीका चन्द्रोदय की चन्द्रिका के समान सुशोभित है, अतः यह 'स्याद्वादचन्द्रिका' इस सार्थक नाम को प्राप्त है।२ ___ सम्पूर्ण नियमसार की १८७ गाथायें बारह अधिकारों में विभक्त हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं- १. जीव, २. अजीव, ३. शुद्धभाव, ४. व्यवहारचारित्र, ५. परमार्थप्रतिक्रमण, ६. निश्चय प्रत्याख्यान, ७. परम आलोचना, ८. शुद्ध निश्चय प्रायश्चित, ९. परम समाधि, १०. परम भक्ति, ११. निश्चय परम आवश्यक, १२. शुद्ध उपयोग। अन्तिम शुद्धोपयोग अधिकार को माताजी ने मोक्षाधिकार कहा है, क्योंकि इसमें निर्वाण का वर्णन है। तथापि परम्परा प्राप्त शुद्धोपयोगाधिकारत्व भी सिद्ध किया गया है। सम्पूर्ण १८७ गाथाओं को माताजी ने व्यवहार मोक्ष-मार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष नामक तीन महाधिकारों में विभक्त करके उनमें क्रमशः ७६, ८२ और २९ गाथायें रखी हैं, यह माताजी द्वारा किया गया उनका अपना विभाजन है, जो सम्पूर्ण ग्रन्थ की मोक्षपरकता सुस्पष्ट कर देता है। अधिकारों में भी ३७ अंतराधिकारों के समावेश से टीका की उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। कुन्दकुन्दाचार्य की समयसार 'प्रवचनसार' नियमसार आदि सभी रचनाओं में यथावश्यक व्यवहारनय और शुद्धनय का अवलम्बन लिया गया है। स्याद्वादचन्द्रिका टीका में सर्वत्र नयविवक्षा की स्पष्ट संघटना दृष्टिगोचर होती है, अतः इसमें एकान्त में भटकाव का सन्देह नहीं रहता है। माताजी ने आद्य उपोद्घात में स्वयं लिखा है- 'इस टीका में एकान्त दुराग्रह को दूरकर उभयनयों में परस्पर मैत्री स्थापित की गई है, अतः यह ग्रन्थ सर्व अध्यात्मप्रियजनों को प्रिय होगा-ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।' विभिन्न प्रकरणों में गुणस्थानों में की गई सैद्धान्तिक संघटना से विषयवस्तु एकदम ज्ञात हो जाती है। 'स्याद्वादचन्द्रिका' के पञ्चश्लोकात्मक मङ्गलाचरण में जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी, गणधर एवं कुन्दकुन्दाचार्य को नमस्कार करके देव-शास्त्र-गुरु के प्रति श्रद्धा प्रकट करके माताजी ने भेदाभेदरत्नत्रय को पाने की अभिलाषा व्यक्त की है। गाथा के पूर्व प्रयुक्त उत्थानिकायें गाथा के प्रतिपाद्य को कहने में समर्थ हैं। माताजी द्वारा विरचित 'स्याद्वादचन्द्रिका' में प्राचीन आचार्यों की शैली का अनुकरण करते हुए शब्दों की व्याकरणसम्मत व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं, जो शास्त्रज्ञों को भी मस्तिष्क का व्यायाम करा देती हैं। इस सन्दर्भ में प्रथम गाथा की टीका में 'वीर' शब्द की व्युत्पत्तियां द्रष्टव्य हैं १. 'वि विशिष्टा ई लक्ष्मीः अंतरङ्गानन्तत्रचतुष्टय-विभूतिः बहिरङ्गसमवसरणादिरूपा च सम्पत्तिः तां राति ददातीति वीरः।' अर्थात् विशिष्ट लक्ष्मी अन्तरङ्ग अनन्तचतुष्टय विभूति और बहिरङ्ग समवसरणादिरूप सम्पत्ति को जो देते हैं, वे वीर हैं। २. 'विशिष्टेन ईर्ते सकलपदार्थसमूहं प्रत्यक्षीकरोतीति वीरः।' अर्थात् जो विशेष प्रकार से सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं, वे वीर हैं। ३. 'वीरयते शूरयते विक्रामति कर्मारातीन, विजयते इति वीरः।' अर्थात् जो कर्मशत्रुओं को जीतते हैं,वे वीर हैं। १. 'प्रमत्तसंयतगुणस्थानात् प्रारभ्यायोगकेवलिपर्यन्ताः संयता नियमसारा भवन्ति क्षीणकषायान्ता वा, भेदाभेदरत्नत्रयानुष्ठानत्वात्।'-नियमसारप्राभृत गाथा ३ की स्याद्वादचन्द्रिका पृ० ११. २. नियमसार, गाथा १८७ की टीका, पृ० ५५३. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१३ ४. 'वकारेण चतुरङ्को रशब्देन च द्वयङ्कस्तथा 'अङ्कानां वामतो गतिः' इति न्यायेन चतुर्विंशत्यङ्केन वृषभादि-महावीरपर्यन्तचतुर्विंशतितीर्थङ्कराणामपि ग्रहणं भवति।' अर्थात् व से ४ अंक और र से २ अंक लेकर 'अंकों की उल्टी गति' नियमानुसार २४ संख्या से ऋषभदेव से महावीरपर्यन्त २४ तीर्थङ्करों का भी ग्रहण होता है। 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका की अन्त्यप्रशस्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें २४ तीर्थङ्करों, ९५८०००० गणधरादि संयमियों तथा ३६००५६५० आर्यिकाओं की वन्दना करने के अनन्तर कुन्दकुन्दाचार्य एवं उनके सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के आचार्य शान्तिसागर, आचार्य वीरसागर, आचार्य शिवसागर एवं आचार्य धर्मसागर तथा आचार्य देशभूषणजी का पुण्यस्मरणपूर्वक संक्षिप्त परिचय दिया गया है। तदनन्तर संघस्थ आर्यिका रत्नमती, आर्यिका शिवमती, ब्र० मोतीचन्द्र, ब्र० रवीन्द्रकुमार, ब्रह्मचारिणी माधुरी एवं ब्रह्मचारिणी मालती की वृद्धिकामना की गई है। इसके बाद गणतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह एवं प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी का उल्लेख करते हुए हस्तिनापुर में वीर नि० सं० २५११ में टीका पूर्ण करने का कथन है। इसमें जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन, जम्बूद्वीपनिर्माण आदि की विस्तृत जानकारी भी दी गई है। सैंतीस श्लोकों में लिखित यह अन्त्यप्रशस्ति इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा लेखकों में बढ़ रही ऐतिहासिक चेतना का सुपरिणाम है। काश, संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में भी ऐसी विस्तृत प्रशस्तियाँ होती तो भारतवर्ष का इतिहास इतना धूमिल न होता। टीकाप्रशस्ति में चित्रित तत्कालीन अवस्था भविष्य में बीसवीं शताब्दी की स्थिति के जिज्ञासुओं का निश्चित ही मार्ग प्रशस्त करेगी। माताजी की इस टीका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने कथन के समर्थन में अध्यात्म, आगम, न्याय, दर्शन, आचार एवं स्तोत्र आदि जैन धर्म के ६२ प्रामाणिक ग्रन्थों के सन्दर्भ एवं उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। कुछ लोग ऐसी आशंका करते हैं कि सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन क्या साध्वियों द्वारा किया जा सकता है? अन्तिम गाथा की टीका में माताजी ने लिखा है कि आर्यिकायें भी ११ अंग तक पढ़ने-पढ़ाने की अधिकारिणी हैं। अतः वे सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़-पढ़ा सकती हैं। निश्चित ही नयों में मैत्रीस्थापना के कारण जो स्थान समयसारादि के टीकाकार के रूप में जयसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है, वही स्थान नियमसार की टीकाकर्ती के रूप में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती माताजी को प्राप्त होगा। सरल एवं सुबोध भाषा में ऐसे दुरूह विषयों का प्रतिपादन पूज्य माताजी सदृश विदुषी एवं आत्मबली आर्यिका द्वारा ही संभव हो सका है। पूज्य माता जी के चरणकमलों में इस भावना के साथ विनम्र अभिवन्दन "या वाङ्मयोद्धरणरक्षणकार्यदक्षा, याऽचालयत्तदनु शिक्षणपूतकार्यम् । श्रामण्यधर्मगतगौरवकारणं या, सा भारते, विजयते खलु आर्यिकेयम् ॥" 'नियमसार' समीक्षा-शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी हिन्दी टीका, अमृतमंथन वर्तमान में परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी चारित्र-भूषित ज्ञानपुञ्ज हैं। आर्षमार्ग एवं जैन सिद्धान्त को यथावत् बनाये रखने के लिए आपका महान् उपकार है। आपने शताधिक ग्रन्थ रचना कर सरस्वती के भण्डार को अभिवृद्ध किया है। अष्टसहस्री जैसे गूढ़ एवं क्लिष्टम न्याय के महासमुद्र में प्रवेश करने हेतु आपने समाज को उसकी सुबोध हिन्दी टीका प्रदान की है। वे चतुरनुयोग की सार्थकता की प्रबल पक्षधर हैं। वे अनेकान्त का सदैव ध्यान रखती हैं। नियमसार टीका प्रशस्ति में उन्होंने कहा भी है ज्ञानमत्याख्ययैषाहमार्यिका भुवि विश्रुता । चतुरनुयोगवार्धावावगाहन - तत्परा ॥ ६ ॥ कष्टसहस्रीनाम्नाष्टसहस्री ग्रन्थमप्यमुम्। अनूद्याध्यात्मग्रन्थश्चानूदितो मातृभाषया ॥७॥ आचार्य कुन्दकुन्द प्रमाण-परम्परा-गगन में शाश्वत जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उन्होंने जिनवचन को अमृत की संज्ञा दी है:--- Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सदहागा। जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अभिपभूयं । जरमरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥ उन्होंने उस ज्ञानामृत को भव्य जीवों हेतु करुणाकर प्रस्तुत किया है। नियमसार उनके अध्यात्म का सुस्पष्ट नियामक है, नियम से उपयोगी है। नियमसार के अध्यात्म-अमृत को काव्यकलशों में भरते हुए आ० पद्मप्रभ मलधारीदेव ने संस्कृत भाषा गद्य टीका रूप में प्रकट किया है। प० पू० ज्ञानमती माताजी ने सम्यक् रीत्या अध्यात्मामृत का मन्थन कर इस महान् ग्रन्थराज की हिन्दी भाषा टीका की रचना की है, जैसा कि उपर्युक्त श्लोक में उन्होंने उद्गार व्यक्त किए हैं। __वर्तमान में ग्रन्थ प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी एकान्तिक एवं पूर्वाग्रह युक्त मान्यताओं की पुष्टि करने हेतु मूल, टीका, भावार्थ और टिप्पणी आदि में अर्थ को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने का फैशन-सा आ गया है, यह वस्तुतः चिन्ता का विषय है। ऐसे प्रकाशनों की विसंगतियों के विषय में प्रबुद्धजन समाज को सदैव सावधान करते आ रहे हैं। परमपूज्य माताजी ने नियमसार की पूर्व टीकाओं का सावधानी से अवलोकन कर उपयोगी जानकर व्याकरण भाषा की दृष्टि से शुद्ध व सामान्य जनोपयोगी हिन्दी भाषा में यह महान् कृति समाज को प्रदान की है। उपर्युक्त अमूल्य निधि मेरी दृष्टि के समक्ष विद्यमान है। यह आचार्य कुन्दकुन्द और पद्मप्रभदेव के मन्तव्य को यथावत् प्रकट करती है। माताजी ने अन्य स्थान से प्रकाशित टीका के गाथा नं. ३ के उद्धरण द्वारा उसकी विसंगति का उल्लेख किया है वह ठीक ही है। मैंने भी उस टीका में अनेक स्थलों पर जानबूझ कर किए गए अर्थ के अनर्थ को समझा है। ऐसी स्थिति में माताजी की टीका दर्पणवत् उपयोगी सिद्ध होगी। प्रारम्भ में मुद्रित 'आद्य उपोद्घात्' में प० पू० माताजी ने नियमसार की उपयोगी गाथाओं को विषयवार पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। यदि पूर्व में ही ध्यानपूर्वक इसका पारायण कर लिया जावे तो नियमसार का हार्द समझने में सरलता होगी। इसमें माताजी ने कुछ गाथाओं यथा अरसमरूवमगंध... आदि का एकाधिक ग्रन्थों में उपलब्ध होने का उल्लेख किया है वह भी पाठकों को कुन्दकुन्द स्वामी के गुण को आत्मसात् करने में लाभदायक होगा। । प्रस्तुत ग्रन्थ में डा० पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा लिखित प्रस्तावना अवश्यमेव पठनीय है। पं० जी जैन जगत् के लब्ध प्रतिष्ठ वरिष्ठ विद्वान् हैं। उन्होंने इसमें नियमसार जी के १२ अधिकारों की विषयवस्तु का विवेचन कर अध्ययन को गति प्रदान की है। मूलगाथा-पाठान्तरों की चर्चा भी करके जिज्ञासा-वर्द्धन किया है। उन्होंने प० पू० माताजी के श्लाघ्य प्रयास का समुचित मूल्यांकन किया है। 'नियमसार' की विषयवस्तु नियम से करने योग्य व्यवहार एवं निश्चय दोनों रूपों अर्थात् साधन-साध्य रूप में मान्य दर्शन-ज्ञान चारित्र हैं। इनका प्रामाणिक व्याख्यान अव्रती के बजाय व्रती के मुख से होना शोभनीय व प्रभावनीय होता है। माताजी को इसका श्रेय है। प्रस्तुत टीका ग्रन्थ में उन्होंने २७ ग्रन्थों से सहायता ली है व यथास्थान उनका उपयोग किया है। वह उनकी ज्ञान गरिमा व अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, जो तप एवं त्याग की सीमा में अक्षुण्ण रहता है, को प्रकट करता है। माताजी ने संस्कृत टीकाकार आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव के कलशों का स्वरचित पद्यानुवाद भी समाविष्ट किया है। यह अत्यन्त रुचिवर्द्धक है। अन्वयार्थ, शब्दाथ व भावार्थ सुबोध शैली में लिखे गए हैं। ___ ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही माताजी ने अपने अगाध संस्कृत ज्ञान के बल से ग्रन्थराज के प्रति भक्ति को प्रकट करते हुए स्वरचित नियमसार वन्दना प्रस्तुत की है। इसने ग्रन्थ में चार चाँद लगा दिए हैं। एक पद्य देखिए नयद्वयात्मकं तत्त्वं स्वात्मानन्दैकनिर्भरं । अनन्त दर्शन ज्ञान सौख्यवीर्यात्मकं ध्रुवम् ॥ मैं प० पू० माता जी के प्रखर पाडित्य पर सभक्ति गद्गद हूँ। ग्रन्थ के अंत में परिशिष्ट में महत्त्वपूर्ण ३७ गाथायें व २४ श्लोक मुद्रित हैं। यह संकलन कर्ताओं के हेतु बड़ी सुविधा है। ग्रन्थ में मुद्रण शुद्धि का यथासंभव ध्यान रखा गया है। गेटअप, कागज, बाह्य परिवेश आदि सभी श्रेष्ठतर हैं। गाथा सूची, श्लोक सूची उद्धृत श्लोकों की वर्णानुक्रम सूची एवं शुद्धि पत्रक भी समाविष्ट किए हैं जिनसे संदर्भ ज्ञात करने में सुविधा होती है। पृष्ठ संख्या ५३० है। यह ग्रन्थ अवश्य पठनीय एवं संग्रहणीय है। त्रिलोक शोध संस्थान अपने आप में इस प्रकाशन हेतु धन्यवादाह है। अंत में मैं प० पू० माताजी को बहुमानपूर्वक नमन करता हूँ। नियमस्य मातृभाषायां रचितेयं मधुरा कृतिः । जयेत् लोके चिरं तावत् यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ [इत्यलम्] Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१५ नियमसार पद्यावली समीक्षक- डॉ० कमलेश कुमार जैन, वाराणसी आचार्य कुन्दकुन्द की शौरसेनी प्राकृत आगम परम्परा-दिगम्बर जैन परम्परा में मूर्धन्य स्थान है। तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के बाद, उनकी आचार्य परम्परा में कुन्दकुन्द संभवतः प्रथम ऐसे चिन्तक मनीषी हैं, जिन्होंने तत्त्व, अध्यात्म-योग, चारित्र-आचार एवं ज्ञान-प्रमाण विषयक सिद्धान्तों की सूक्ष्म, व्यवस्थित, विस्तृत तथा हृदयग्राही विवेचना प्रस्तुत की है। ऐसी चर्चा अन्यत्र देखने को प्राप्त नहीं होती। णियमसारो (नियमसार) आचार्य कुन्दकुन्द की अध्यात्मप्रधान महत्त्वपूर्ण कृति है तथा उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक है। कुन्दकुन्द ने प्रमुख रूप से इसमें श्रमणाचार अर्थात् मुनि के चारित्र का निश्चय और व्यवहार दोनों आधारों पर विवेचन किया है। उपलब्ध ग्रन्थ का परिमाण एक सौ सतासी प्राकृत-गाथा मात्र है। नियमसार कुन्दकुन्द की अन्य प्रमुख रचनाओं-पंचत्थियसंगहो (पंचास्तिकायसंग्रह) पवयणसारो (प्रवचनसार) एवं समयपाहुड़ (समयसार) की तुलना में सरल रचना है। नियमसार में विभिन्न परिभाषाएं सरल तथा सीधे शब्दों में प्रतिपादित की गई हैं। अनेक परिभाषाएँ सर्वथा नवीन प्रतीत होती हैं। जिनमें स्वाभाविक सरल भाषा एवं शैली का प्रयोग हुआ है। ग्रन्थकर्ता आचार्य से पग-पग पर सावधान किया है कि यह बात मैंने निश्चयनय के आधार पर कही है और यह बात व्यवहारनय की अपेक्षा से। अथवा, अमुक क्रियायें व्यवहारगत क्रियायें हैं तथा अमुक स्थिति निश्चयनयाश्रित है। नियमसार पर पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका है। यह टीका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, जो कि गद्य-पद्यमय शैली में लिखी गयी है। और कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रन्थों पर अमृतचन्द्रसूरि द्वारा लिखित टीका की पद्धति पर लिखी गई प्रतीत होती है। टीकाकार ने नियमसार की गाथा १८६ की टीका में इसे परमागम, परमेश्वर शास्त्र एवं भागवत् शास्त्र आदि संज्ञाएँ दी हैं। पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी यथानाम तथागुण विदुषी साधिका हैं। उन्होंने साहित्यजगत् को अनेकानेक मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं और कई महान् ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया है। नियमसार पर ही उन्होंने स्याद्वाद चन्द्रिका' नामक स्वतंत्र एवं महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका का प्रणयन किया है। नियमसार-पद्यावली माताजी द्वारा नियमसार की प्राकृत गाथाओं का हिन्दी गद्य-पद्यमय काव्यानुवाद-भावानुवाद है। जिसकी भाषा सरल एवं मधुर है। इस पद्यानुवाद में वसंततिलका, रोला, शंभु, स्रग्विणी, नरेन्द्र, गीता एवं चाल आदि अनेक छन्दों का प्रयोग किया गया है। इस छंदविधान के कारण अनुवाद में अर्थ सुगमता, सरलता एवं भावपूर्णता आ गयी है। प्रत्येक अधिकार के अन्त में उसका सारांश किया गया है। साथ ही साथ उनके ऐसे प्रसंगों का सयुक्तिक एवं सप्रमाण स्पष्टीकरण किया है, जिनके आधार पर अपने एकान्तमय पक्ष के पोषण हेतु बलात् ग्रन्थ के हार्द से विपरीत उसकी व्याख्यायें कर ली जाती हैं। माताजी ने इस पद्यानुवाद में कुन्दकुन्द के अभिप्राय को स्पष्ट करने का समुचित प्रयास किया है और उनके निश्चय तथा व्यवहारनय के आधार पर विवेचित विषयों का पद्यमय संतुलित व्याख्यान किया है। मूलग्रन्थ में यद्यपि अधिकार आदि के रूप में कोई विभाजन नहीं है। माताजी ने नियमसार पद्यावली को अधिकारों में वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण संस्कृत टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ने प्रारंभ किया है। ग्रन्थारंभ में ग्रंथकर्ता आचार्य ने वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके केवली और श्रुतकेवली द्वारा प्रणीत नियमसार को कहने की प्रतिज्ञा की है। नियम पद की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि जो नियम से करने योग्य है, वह नियम है। वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। आगे कहते हैं कि विपरीत का परिहार करने के लिए ही 'सार' पद का ग्रहण किया गया है। यहाँ विपरीत से परिहार का अर्थ संशय, विमोह और विभ्रम से रहित होना है, (गाथा ५१) न कि व्यवहार रत्नत्रय का परिहार । मूल गाथा इस प्रकार है णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥३॥ इस गाथा का सरल तथा स्पष्ट हिन्दी पद्यानुवाद करते हुए माताजी कहती हैंशेरछंद जो करने योग्य है नियम से वोहि नियम है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला वो ज्ञान दर्श और चरित्र रूप धरम है। विपरीत के परिहार हेतु सार शब्द है। अतएव नियम से ये नियमसार सार्थ है। उपर्युक्त गाथा में कुन्दकुन्द आचार्य ने 'नियम' शब्द का प्रयोग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मोक्षमार्ग के अर्थ में किया है। यह प्रयोग सर्वथा नवीन एवं विशिष्ट है। अन्यत्र प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में ऐसा प्रयोग कहीं देखने को नहीं मिलता है। कुन्दकुन्द ने नियम को मोक्ष का उपाय तथा उसका फल परमनिर्वाण बताया है। कुन्दकुन्द ने नियमसार में जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन छह द्रव्यों को 'तत्त्वार्थ' कहा है। ये तत्त्वार्थ विविध गुण और पर्यायों से संयुक्त बताये हैं। यहाँ तत्त्वार्थ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। पश्चात् क्रमशः प्रत्येक तत्त्वार्थ का निश्चय एवं व्यवहार नय की दृष्टि से सम्यक् विवेचन किया है। कहा है कि आपके मुख से निकले हुए पूर्वापर दोष से रहित शुद्ध वचन आगम हैं तथा आगम में कहे गये वचनों को तत्त्वार्थ कहते हैं। इस प्रकार नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। इसी विषय को सरल एवं भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त करते हुए माताजी ने लिखा है इनके मुखारविन्द से निकले हुए वचन । जो पूर्व अपर दोष रहित शुद्ध हैं वरण ॥ आगम ये नाम उसका ऋषियों ने बताया । उसमें कहे गये को तत्त्वार्थ है गाया ॥ (८) जो जीव पुद्गलकाय, धर्म और अधर्म हैं। आकाश और काल ये तत्त्वार्थ कहे हैं। नानागुणों व पर्ययों से युक्त ये रहें। इन्हीं छहों को द्रव्य नाम से मुनी कहें ॥(९) नियमसार में गाथा ७७ से ८१ तक निश्चयप्रतिक्रमण का विवेचन किया गया है। इन पांच गाथाओं को टीकाकार ने 'पंचरत्न' की संज्ञा दी है। इन गाथाओं में बताया गया है कि वस्तुतः यह जीव नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि पर्याय रूप ही नहीं है। इन गाथाओं के पद्यानुवाद में शंभुछंद का प्रयोग किया गया है अतः वह अधिक भावपूर्ण तथा ज्ञेय बन गया है। इनमें से कुछ की बानगी देखिए मैं नहीं नारकी नहिं तिर्यक् नहिं मनुज नहीं हूँ देव कभी। नहिं इन पर्यायों का कर्ता नहिं इन्हें कराने वाला भी॥ नहिं इनके करने वालों का अनुमोदन करने वाला हूँ। मैं तो निश्चय से चिन्मूरत निजतनु से भिन्न निराला हूँ॥७७ ॥ मैं बालक नहिं मैं वृद्ध नहीं मैं नहीं तरुण हूँ इस जग में। नहिं इनका कारण हो सकता यह सब पुद्गल के रूप बने । नहिं इन पर्यायों का कर्ता, नहिं कभी कराने वाला हूँ। नहिं इनका अनुमोदन कर्ता मैं सबसे भिन्न निराला हूँ॥७९ ॥ मैं क्रोध नहीं मैं मान नहीं मैं नहिं माया मैं लोभ नहीं। नहीं इनका कर्ता नहीं कराने-वाला नहिं अनुमोदक ही॥ ये सब कर्मोदय से होते और कर्म नहीं मेरे कुछ भी। मैं निश्चयनय से पूर्ण शुद्ध नहिं किंचित् हुआ अशुद्ध कभी ॥८१॥ कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में "वोच्छामि" एवं "भणियं" आदि क्रियावाचक शब्दों का प्रयोग मिलता है। इस दृष्टि से नियमसार के उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों में "मएकदं" शब्द का उल्लेख विशेष महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कहा गया है कि पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेश को जानकर मैंने अपनी भावना के निमित्त नियमसार नामक श्रुत को किया है। अंत में तीन दोहों द्वारा आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने अपने नियमसार-पद्यानुवाद का समापन किया है। जिसमें इस नियमसार की हिन्दी भाषामय छन्दबद्ध रचना का कारण अपनी भाव शुद्धि बताया है और यह पद्यमय रचना संसारी जीवों को संसार पार करने का सेतु बने, ऐसी कामना की है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१७ प्रथम समापन पद्य में ग्रन्थ के पूर्ण होने की सूचना दी गई है। उसके अनुसार यह नियमसार-पद्यानुवाद वीर निर्वाण संवत् २५०४ की ज्येष्ठ सुदी श्रुतपंचमी को पूरा हुआ है। निष्कर्षतः नियमसार कुन्दकुन्द की ऐसी महत्त्वपूर्ण रचना है, जिसमें अनेक विषयों को नये रूप में प्रस्तुत किया गया है और अनेक विषयों की नवीन परिभाषाएँ तथा व्याख्यायें दी गयी हैं। नियमसार अध्यात्म प्रधान कृति होने पर भी इसमें सरल एवं स्वाभाविक शैली का प्रयोग हुआ है, जिससे उसकी गूढ़ता भी स्पष्ट एवं सहज बन गयी है। नियमसार की भाषा प्राकृत है। प्राकृत भाषा तत्कालीन व्यवहार का माध्यम होने के बावजूद भी कालक्षेप के कारण उसे सामान्य जनों को समझने में आज कठिनाई होती है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने इसका हिन्दी भाषामय पद्यानुवाद-भावानुवाद करके तत्त्व जिज्ञासुओं एवं साधकों को सरलता प्रदान की है। माताजी शतायु हों तथा अपने साहित्य सृजन एवं अन्य प्रवृत्तियों के द्वारा जनकल्याणोपयोगी कार्य करती रहें, ऐसी मंगलकामना है। इति शुभम् । "आराधना" समीक्षक- डॉ. जयकुमार जैन, एस०डी० कालेज, मुजफ्फरनगर जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। इसमें जो कुछ प्रवृत्तिपरक दृष्टिगोचर होता है, वह भी निवृत्ति का ही सहायक है। अशुभ से सप्रयास निवृत्ति तथा शनैः शनैः शुभ से भी स्वतः निवृत्ति ही जैन धर्म का लक्ष्य है। यतः पूर्ण निवृत्ति या मुक्ति परमसुखस्वरूप है, अतः जैनधर्म प्राणीमात्र को मुक्ति प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ को हितकारी मानता है। सामर्थ्य के आधार पर जैनधर्म मुनिधर्म और श्रावक धर्म के रूप में विभक्त है। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित 'आराधना' शास्त्र में ४४४ श्लोकों में मुनिधर्म का सरल एवं प्रसादगुण समन्वित शैली में वर्णन किया गया है। सम्यक् चारित्र के निरन्तर विकास के लिए पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत, आचारसार एवं रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि ग्रन्थों में जो विषय वर्णित है, उसका सार ग्रहण कर पूज्य माताजी ने उसे एकत्र सुबोध रीति में प्रस्तुत करके आज के तिलतण्डुललवणचिन्तावितान में व्यस्त मानव का परम उपकार किया है। इसमें धर्म के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों का ऐसा मनोरम एवं सरल वर्णन है कि जिज्ञासा के साथ ही व्यक्ति की इसमें स्वतः प्रवृत्ति होने लगती है। पूज्य माताजी द्वारा विरचित 'आराधना' एक शास्त्र है। किसी कार्य में प्रवृत्ति और किसी कार्य से निवृत्ति रूप शासन करने से 'आराधना' में 'शासनात् शास्त्रम्' निरुक्ति तथा आत्मा आदि सूक्ष्म एवं इन्द्रियातीत तत्त्वों के कथन से 'शंसनात् शास्त्रम्' निरुक्ति समीचीन एवं सर्वथा सुसङ्गत है। इस ग्रन्थ या शास्त्र के प्रारम्भ में “सिद्धार्थं सिद्ध सम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते। शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः" नियम के अनुसार अनुबन्धचतुष्टय का उल्लेख किया गया है। अनुबंधचतुष्टय के अन्तर्गत विषय सम्बन्ध, प्रयोजन और अधिकारी का उल्लेख होना चाहिए। 'आराधना' के द्वितीय श्लोक में इसका उल्लेख है 'रत्नत्रयं तदाराध्यं भव्यस्त्वाराधकः सुधी। आराधना भ्यूपायः स्यात् स्वर्गमोक्षौ च तत्फलम्॥ प्रस्तुत शास्त्र 'आराधना' का विषय नाम से ही ज्ञातव्य है। आराधना का विवेचन इसका विषय है। विषय और शास्त्र में वाच्यवाचकभावसम्बन्ध तथा विषय और अधिकारी में आराध्याराधक भाव सम्बन्ध है। बुद्धिमान् भव्य आराधक इस शास्त्र का अधिकारी है और स्वर्ग एवं मुक्ति की प्राप्ति इसका प्रयोजन है। ___ 'आराधना' पद आ उपसर्गपूर्वक राथ् धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ पूजा, उपासना या अर्चना है। निश्चय की अपेक्षा आराधना एक ही है, क्योंकि निश्चय नय अभेद रूप होता है। किन्तु व्यवहार की अपेक्षा से आराधना के चार भेद हैं-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप । प्रकृत 'आराधना' शास्त्र में दर्शन आराधना के प्रसङ्ग में सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित आदि आठ अङ्ग एवं पच्चीस मलदोषों (आठ दोष + आठ मद + छः अनायतन + तीन मूढ़ता) का वर्णन करने के बाद फल के रूप में सिद्धगति की प्राप्ति का वर्णन किया गया है। ज्ञान आराधना में अष्टविध सम्यग्ज्ञान की आराधना तथा ज्ञान की सिद्धि के लिए ज्ञातव्य चार अनुयोगों का वर्णन है। यहाँ मुमुक्षुओं को यह ध्यातव्य है कि यद्यपि सिद्धान्त ग्रन्थों का Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अकाल में पठन-पाठन निषिद्ध माना गया है, किन्तु आराधना विषयक शास्त्र अकाल में भी पठनीय है। चारित्र आराधना के अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति-इन तेरह प्रकार के चारित्र का वर्णन है। पूज्य माताजी महाव्रत के वर्णन में उसका अन्वर्थक नाम महाव्रत इसलिए कहा है, क्योंकि ये व्रत महापुरुषों द्वारा सेवित हैं 'तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादिमहापुरुषसेवितम्। तस्मान्महाव्रतं ख्यातमित्युक्तं मुनिपुङ्गवैः ॥५५ ।। तेरह व्रतों के अतिरिक्त चारित्र आराधना में पञ्चेन्द्रियविषयानिरोध, षड् आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितभोजन एवं एक भुक्ति का सयुक्तिक विवेचन किया है। क्योंकि ५ व्रत + ५ समिति + ५ इन्द्रियनिरोध + ६ आवश्यक + लोच आदि ७ अन्य गुणों को साधु के मूलगुण माना गया है। ये मूलगुण साधु की स्थिति में मूल या नींव के समान हैं तथा मोक्ष के मूल कारण हैं। पूज्य माताजी ने एक उपजाति में इसका बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। यथा "मूलं विना वृक्ष इवालयो च भवेन लोके च तथैव साधुः । न जायते मूलगुणान् विनाऽस्माद् एते विमुक्तेरपि मूलमेव ॥८८ ॥ इसी सन्दर्भ में समाचारविधि, नित्य कर्म एवं नैमित्तिक कर्मों का भी विवेचन हुआ है। इस सम्पूर्ण प्रकरण पर मूलाचार का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है। तथापि मूलाचार के इतस्ततः व्यस्त विषय को सामस्त्येन एकत्र सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों की परम्परानुसार एकल विहारी साधु को गुरुनिन्दा एवं श्रुतविच्छेद आदि दोषों को करने वाला कहा गया है। केवल उत्तमसंहननी जिनकल्पी धीर साधु ही एकल विहार कर सकता है। अतः साधुओं को एकलविहार के विषय में शास्त्र की आज्ञा पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए। अट्ठाईस मूलगुणों में आर्यिका माताओं को दो साड़ियों के ग्रहण एवं बैठकर करपात्र में आहारग्रहण की छूट दी गई है। आहारशुद्धि के आठ भेदों के साथ सोलह उद्गमदोष, सोलह उत्पादनदोष, दस एषणादोष, संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम इन छयालीस दोषों का सविस्तार विवेचन इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। साधु के आहारग्रहण के कारणों तथा आहारत्याग के कारणों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि नवकोटिविशुद्ध आहार ही साधु को ग्राह्य है। नवधा भक्तिपूर्वक प्रदत्त आहार को ग्रहण करने वाला साधु शीघ्र ही रत्नत्रय को शुद्ध कर लेता है। इस शास्त्र में नित्य कर्मों के अन्तर्गत कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण एवं कृतिकर्म आदि का विवेचन करते हुए उनके दोषों का विस्तृत वर्णन निश्चय ही साधु को सावधान करने में समर्थ है। नैमित्तिक कर्मों में चतुदर्शी, अष्टमी तथा विशिष्ट पर्यों की विशिष्ट क्रियाओं के वर्णन के साथ-साथ व्रतों की भावनाओं का सुन्दर वर्णन साधुओं को सहज ही बोधगम्य है। चारित्र आराधना का फल भी मुक्ति की प्राप्ति है। तप आराधना के विवेचन में छः बाह्यतप और छः आभ्यन्तरतपों का सभेदोपभेद वर्णन प्रशस्य है। तपों के अतिरिक्त बाईस परीषहजय, दस धर्म तथा षोडशकारण भावनाओं का सुन्दर वर्णन हुआ है। बारह तप और बाईस परीषहजय ये चौंतीस साधु के उत्तरगुण हैं। अन्त में निश्चय आराधना के फल के कथन के पश्चात् चतुर्विध आराधनाओं के आराधक आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के गुणों, उनके चतुर्विध संघ, सल्लेखना, पञ्चविध मरण आदि के समावेश से यह 'आराधना' शास्त्र पूर्णाङ्ग एवं अधिक उपादेय हो गया है। यह शास्त्र पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अपार वैदुष्य, मौलिक कर्तृव्य, विषयसंग्राहित्व, ग्राह्य प्रस्तुतीकरण एवं भाषा पर अप्रतिम अधिकार का सूचक है। 'आराधना' साधुमात्र को तो पठनीय है ही, श्रावकों को भी इसका अन्यून महत्त्व है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१९ जिनस्तोत्र संग्रह समीक्षक-डॉ० जयकुमार जैन, मुजफ्फरनगर | जिनस्तोत्र संग्रह भारतीय चिन्तनधारा मौलिक रूप में अध्यात्मवादी रही है। फलतः भारतीय मनीषा ने काव्य को केवल आनन्द या उपदेश का साधन न मानकर परम पुरुषार्थ मोक्ष का भी साधन स्वीकार किया है। भारतीय दृष्टि से काव्य का प्रयोजन भौतिकवादी पाश्चात्य विचारकों के समान केवल प्रेय एवं लौकिक ही नहीं, श्रेय एवं आमुष्मिक भी है। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत स्तोत्रों में उभयविध प्रयोजन समाहित हैं। धर्मनिष्ठ साहित्य होने से जहाँ एक ओर ये स्तोत्र प्रत्यक्ष रूप से धर्म, सत्य, अहिंसा, सदाचार, भक्ति आदि के माध्यम से श्रेय के साधक हैं; वहाँ दूसरी ओर काव्यसरणि का अवलम्बन लेने से प्रेय अर्थात् सद्यः आनन्द प्राप्ति में भी सहायक हैं। धार्मिक साहित्य में तो इनकी स्थिति प्रथम श्रेणी की है ही, इनका काव्यात्मक वैभव भी अन्यून है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती 'स्तोत्र' शब्द अदादिगण की उभयपदी स्तु धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त 'स्तुति' शब्द 'स्तोत्र' का ही पर्यायवाची है। गुणसंकीर्तन आराधक द्वारा आराध्य की भक्ति का एक प्रकार है और यह भक्ति विशुद्ध भावना होने पर भवनाशिनी होती है। वादीभसिंहसूरि ने क्षत्रचूड़ामणि नीतिमहाकाव्य के मङ्गलाचरण में भक्ति को मुक्तिकन्या के पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। इससे स्पष्ट है कि भक्ति का लौकिक फल शिवेतरक्षति एवं सद्यः पर निवृत्ति के साथ आमुष्मिक फल परम्परा या मुक्ति है। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ) उ०प्र० द्वारा जून १९९२ ई० में प्रकाशित जिनस्तोत्रसंग्रह एक विशाल ग्रन्थ है, जो छह खण्डों में विभक्त है। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित इस ग्रन्थ के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ खण्डों में उनके स्वयंरचित हिन्दी एवं संस्कृतभाषा के स्तोत्रों की समाहिति है। इनकी संख्या अर्द्धशतक को भी पार कर गई है। द्वितीय खण्ड के अन्त में कन्नड़ भाषा में लिखित 'बारह भावना' है। पूज्य माताजी की मातृभाषा हिन्दी है, किन्तु ज्ञान के अतिशय क्षयोपशम से उनका अनेक भाषाओं पर अप्रतिम अधिकार जान पड़ता है। यद्यपि मुझे कन्नड़ भाषा का प्रारंभिक ज्ञान भी नहीं है, तथापि 'बारहभावना' की श्रुतिमधुरता एवं सुकुमार शब्दों की चित्ताकर्षक लड़ी कोमल कान्त पदावली का भव्य निदर्शन है। साथ में दिया गया हिन्दी अनुवाद उसकी भावगरिमा को अभिव्यक्त करने में पूर्णतया समर्थ है। यहाँ पर पूज्य माताजी द्वारा चरित स्तोत्रों विशेष रूप से संस्कृत भाषा के स्तोत्रों की सावधान तथ्यनिष्ठापूर्ण संक्षिप्त समीक्षा ही प्रकृति लेख का विषय है। हिन्दी भाषा के स्तोत्रों की मात्र चर्चा की जा रही है, उनकी समीक्षा तो हिन्दी भाषा के अधिकारी भावकों से ही अपेक्षित है। वर्ण्य क्षेत्र की-दृष्टि से माताजी द्वारा रचित स्तोत्र बहुआयामी हैं। इनमें जैन धर्म मान्य वर्तमान चौबीसी की समष्टि रूप से तथा व्यष्टिरूप से स्तुति के साथ भगवान् बाहुबलि, तीर्थङ्करों की दिव्य ध्वनि के धारक गणधर, सिद्धप्रभु, सिद्धक्षेत्र, जिनधर्म, जैनसिद्धान्त तीनों लोकों के समस्त चैत्य, षोडशकारण भावना, दशधर्म, पञ्चमेरु, जम्बूद्वीप, जिनशास्त्र तथा वर्तमान में जैन धर्म के प्रभावक दिगम्बर आचार्यों की स्तुति की गई है। तीसरे खण्ड के उपान्त्य में कनड़ की बारहभावना के पूर्व चतुर्थ काल की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माताजी की संस्कृत भाषा में रचित स्तुति है। मुनिवरों की स्तुति के बाद आर्यिका माताजी की भी स्तुति लिखकर श्री ज्ञानमती माताजी ने पूज्यताक्रम का शास्त्रानुमोदित परिपालन किया है। विपुल साहित्य सपर्या की दृष्टि से पूज्य माताजी का बीसवीं शताब्दी के साहित्यकारों में तो शीर्षस्थ स्थान है ही, वैविध्यपूर्ण साहित्य संरचना में भी वे अग्रणी हैं । सम्पूर्ण संस्कृत-हिन्दी वाङ्मय में एक व्यक्ति द्वारा रचित इतने स्तोत्रों की उपलब्धि तो दूर सूचना भी प्राप्त नहीं है। उनके द्वारा प्रणीत देव-शास्त्र-गुरुओं की ये स्तुतियाँ न केवल रचनाक: पूज्य माताजी को अपितु श्रद्धालु पाठकों को भी भवसागर को पार करने में तरणि रूप हैं। जिनस्तोत्रसंग्रह के द्वितीय खण्ड में सर्वप्रथम माताजी द्वारा हिन्दी में रचित उषा वन्दना है। २५ चौबोल छन्दों में रचित इस वन्दना में सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना की गई है तथा अन्तिम छन्द में भव्यों को उषाकाल में तीर्थवन्दना को पूर्वजन्मों के पापों को हरने वाली कहा है। इसके बाद आठ वसन्ततिलका तथा एक अनुष्टुप् में सुप्रभातस्तोत्र है। प्रत्येक वसन्ततिलका के अन्तिम पाद में माताजी ने “उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्' कहकर भव्यों को प्रभात की प्रकाशमय वेला में जाग्रत होने का सन्देश दिया है। आलंकारिक शैली में लिखित यह स्तोत्र आकार में छोटा होने पर भी भावगाम्भीर्य की दृष्टि से बेजोड़ है। उपमा और अंलकारों का बड़ा ही मनोरम प्रयोग हुआ है। उपमा और रूपक की उन्नत छटा में एक श्लोक द्रष्टव्य है, जिसमें कहा गया है कि स्याद्वाद रूपी सूर्य के उदित हो जाने पर कुवादिगण वैसे ही निष्प्रभ हो गये हैं, जैसे शशि-द्रोही सूर्य के उदित हो जाने पर तारागण निष्प्रभ हो जाते हैं१. 'श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद भक्तानां वः समीहितम्। यदभक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ।।' Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "तारागणा अपि विलोक्य विधोः सपक्षं खे निष्प्रभं विमतयोऽपि च यान्ति नाशम्। स्याद्वादभास्वदुदये त्यज मोहनिद्रां उत्तिष्ठ भव्य! भुवि विस्फुरितं प्रभातम्॥" सुप्रभातस्तोत्र, ५ अन्तिम अनुष्टुप में तो गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ प्रतीत होती है। इसमें कहा गया है कि जिनमन्दिर की घण्टाध्वनि से प्रतिवादी तिमिर समान नाश को प्राप्त हो जाते हैं 'जिनस्य भवने घण्टानादेन प्रतिवादिनः । तमोनिभाः प्रणष्टा हि, ते जिनाः सन्तु नः श्रियै ।। सुप्रभातस्तोत्र ९, सुप्रभात स्तोत्र का हिन्दी पद्यानुवाद हार्द को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ है तथा मौलिक रूप से स्तोत्र भी है। इसके बाद एक नवपद्यात्मक वन्दना है। एक शार्दूलविक्रीडित एवं आठ अनुष्टुप् छन्दों में निबद्ध इस वन्दना में तीन लोक के सभी जिनचैत्यों की वन्दना की गई है। तदनन्तर नव स्तोत्र तीर्थङ्करपरक हैं, जिनमें दो में चौबीस तीर्थङ्करों की समष्टि रूप से, एक-एक में चन्द्रप्रभ एवं शान्तिनाथ की, दो में पार्श्वनाथ एवं तीन में महावीर की व्यष्टि रूप से स्तुति की गई है। ये सभी संस्कृतभाषा में निबद्ध हैं, जिनमें पांच स्तोत्रों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। शान्तिजिनस्तुति में पद्यानुवाद के साथ अर्थ भी दिया गया है। हिन्दी पद्यानुवाद एवं अर्थ संस्कृत के हार्द को समझाने में पर्याप्त सहायक है। चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रों में २४ उपजाति छन्दों में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है। अन्त में एक अनुष्टुप् में ग्रन्थकर्जी ने नित्य स्वात्मलक्ष्मी की याचना की है। इस स्तोत्र में अनुप्रास, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। मल्लिनाथ भगवान् की स्तुति में अनुप्रास की छटा द्रष्टव्य है 'यः कर्ममल्लं प्रतिमल्ल एव, श्रीमल्लिनाथो भुवनैकनाथः । संसारवल्लिं च लुनीहि मे त्वं, मनः प्रसक्तिं कुरु मे समन्तात् ।।१९।।।' अठारहवें श्लोक में अरनाथभगवान् की स्तुति करते हुए जैनधर्म के स्वारस्यभूत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कहा गया है कि हे भगवान् आप स्तुति से संतुष्ट होकर न तो सुख देते हैं और न द्वेष से दुःख प्रदान करते हैं। आप तो वीतराग हैं। यतः आप अचिन्त्य माहात्म्य हैं, अतः मैं आपकी स्तुति करता हूँ। चन्द्रप्रभस्तुति में १७ भुजंगप्रयात, ११ द्रुतविलम्बित, ३ पृथ्वी, १ शिखरिणी और १ शार्दूलविक्रीडित कुल ३३ पद्य हैं। इस स्तोत्र में स्याद्वाद, अनीश्ववाद, ईश्वरकर्तृत्वनिषेध, नयसापेक्षत्व, भेदविज्ञान आदि सिद्धान्तों का सरल, किन्तु सयुक्तिक विवेचन किया गया है। बाईसवें पद्य में सांख्यदर्शनमान्य प्रकृति-पुरुष के भेदज्ञानजन्य मुक्ति का निषेध करते हुए कहा गया है कि यदि ऐसे ही मुक्ति प्राप्त हो जाये तो फिर रत्नत्रय को कौन धारण करेगा? दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने पर भी इस स्तोत्र की भाषा सरल एवं प्रसादगुण समन्वित है। शान्तिजिनस्तुति में ३४ पृथ्वी छन्द हैं। पूज्य माताजी ने उनकी स्तुति में अपनी अशक्ति प्रकट करते हुए कहा है कि क्या कोई वृक्ष पर चढ़कर अनन्त गगन को पा सकता है। प्रसाद, माधुर्य, सौकुमार्य, कान्ति का एकत्र प्रस्तुतिकरण द्रष्टव्य है अनन्तगुणसागर! त्रिभुवनैकनाथस्य ते ___ चिकीर्षति विभो! स्तवं विगतबुद्धितः कोऽपिचेत् । नभोऽन्तमपि गन्तुमंघिशिरः समारोहति अशक्तिकतनं ततोऽस्तु तव शान्तिनाथ स्तुतिः ।।२ ।।।" यहाँ प्रतिवस्तुपमा अलंकार की छटा भी अनोखी है। इस स्तोत्र के प्रथम श्लोक में सन्देह, चतुर्थ में काव्यलिङ्ग, नवम में उदात्त, दशम में अर्थान्तरन्यास एवं द्वादश श्लोक में उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकार सहज ही सामाजिकों के हृदय को आकृष्ट कर लेते हैं। बीसवें श्लोक में सुन्दर भावसंयोजन द्रष्टव्य है। जैसे ध्वनिक्षेपणयन्त्र से शब्द सुदूर पहुँच जाता है वैसे ही भक्ति से स्तोत्र के शब्द सिद्धाशिला तक भगवान् तक पहुँच जाते हैं तथा पतनशील स्वभाव से वापिस आकर अभीष्ट फल प्रदान करते हैं सुभक्तिवरयन्त्रः स्फुटरवाध्वनिक्षेपकात् सुदूरजिनपार्श्वगा भगवतः स्पृशान्ति क्षणात्। पुनः पतनशीलतोऽवपतिता नु ते स्पर्शनात् भवन्त्यभिमतार्थदा स्तुतिफलं ततश्चाप्यते ॥२०॥' पार्श्वनाथविषयक दो स्तोत्र में प्रथम उपसर्गविजयि श्री पार्श्वनाथ जिनस्तुति है। इसमें २३ उपजाति छन्द तथा १ शार्दूलविक्रीडित छन्द है। द्वितीय Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४२१ श्री पार्श्वजिनस्तुति में १२ पृथ्वी छन्द तथा १ अनुष्टुप् छन्द है। इन दोनों स्तोत्रों में उपसर्ग विजय रूप पारम्परिक घटना का मनोहारी चित्रण किया गया है। शब्दों का चयन इतना उत्तम है कि घटना चलचित्र की तरह सामने उपस्थित हो जाती है। महावीर भगवान् की तीन स्तुतियाँ हैं। प्रथम वीरजिनस्तुति में तीन-तीन वसन्ततिलका, शिखरिणी, द्रुतविलम्बित एवं मन्दाक्रान्ता, सात श्री, तीन तोटक, छह भुजंगप्रयात, सात पृथ्वी और अन्त में एक आर्या, कुल ३६ पद्य हैं। इसमें महावीर के वंश, माता-पिता आदि के कथन के साथ उनकी स्तुति करते हुए उनके जीवन की विविध वीरतापूर्ण घटनाओं का चित्रण किया गया है। इसके अठारहवें पद्य में उल्लेख अलंकार, उन्नीसवें में उपमा तथा छब्बीसवें में लाटानुप्रास का सुन्दर प्रयोग हुआ है। लाटानुप्रास की छटा द्रष्टव्य है 'महाधीरधीरे महावीरवीरं, महालोकलोकं महाबोधबोधम्। महापूज्यपूज्यं महावीर्यवीर्य, महादेवदेवं महान्त महामि ।।२६ ।' द्वितीय महावीरस्तवन पांच स्रग्धरा एवं एक अनुष्टुप् छन्द में है। इसमें उनकी कल्याणकतिथियाँ एवं कल्याणकस्थान वर्णित हैं। तृतीय महावीरस्तुति भरतेशवैभवकाव्य की तर्ज पर सांगत्यराग में रचित है। इसके बारह पद्यों में महावीर की उदात्त स्तुति की गई है। इसके आगे एक समष्टिरूप से तीर्थङ्करस्तुति है। इसमें २५ अनुष्टुप् छन्द हैं। २४ छन्दों में क्रमशः २४ तीर्थंकरों का संक्षिप्त स्तवन है तथा अन्तिम एक पद्य में स्तुति की प्रशस्ति है । कुन्थुनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए कहा गया है कि कुन्थुजीवों की अहिंसा से आप कुन्थुजिन हुये। हे कुन्थुनाथ! आप नित्य मेरी रक्षा करें 'अहिंसा कुन्थुजीवेषु कृत्वा कुन्थुजिनोऽभवत्। रक्षां विधेहि मे नित्यं कुन्थुनाथ! नमोऽस्तु ते ।।१७। तीर्थङ्करो की स्तुति के बाद चैत्यवन्दना एवं सम्मेदशिखर वन्दना है। पहले चैत्यवन्दना हिन्दी के नौ पद्यों में है तथा फिर त्रैलोक्य चैत्यवन्दना त्रेसठ आर्यास्कन्धों में है। इसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। इनमें तीनों लोकों के जिनभवनों की वन्दना की गई है। जिनभवनों की इस वन्दना में माताजी का असीम भक्तिभाव परिलक्षित होता है। अन्तिम तीन पद्यों में पञ्चपरमेष्ठी, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर, आचार्यवीरसागर एवं परम्परागत अन्य आचार्यों एवं मुनियों को वन्दन करते हुए चैत्यवन्दना का फल कहा गया है। श्री सम्मेदशिखरवन्दना ८४ अनुष्टुप् एवं आर्याओं में रचित है। इसमें सम्मेदशिखर से मुक्ति पाने वालों के साथ-साथ अन्य सिद्धक्षेत्रों की भी स्तुति की गई है। यह स्तुति वर्णनप्रधान है, अतः इसमें काव्यात्मक वैभव अधिक नहीं है। ___चैत्यवन्दन एवं तीर्थवन्दन के पश्चात् पूज्य माताजी द्वारा विरचित एक महत्त्वपूर्ण स्तवन बाहुबलिस्तोत्र है। ५९ वसन्ततिलका छन्दों में गुम्फित तथा हिन्दी पद्यानुवाद एवं अर्थ से समन्वित इस स्तोत्र में ऋषभदेव भगवान् के पुत्र बाहुबलि की स्तुति अत्यन्त शोभन एवं आलंकारिक है। इसमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनन्वय, निदर्शना आदि औपम्यमूलक अर्थालङ्कारों की चारु स्वाभाविक संयोजना है। निदर्शना का एक सुन्दर प्रयोग द्रष्टव्य है, जिसमें बाहुबलि की स्तुति को अन्धे द्वारा गगनचारी पक्षियों की गणना के समान कहा है 'किं शक्यते गुणकथा जिन! मद्विधैस्ते साक्षादहो सुरगुरुः क्षमते न वक्तुम् । उद्गच्छतो वियति पक्षिगणानचक्षुः मीयेत चेबजति किं नहि हास्यतां सः॥५॥' सप्तम श्लोक में बाहुबलि को ही उपमेय और उन्हें ही उपमान बनाकर अनन्वय अलंकार की अनोखी प्रस्तुति की गई है-- के कामदेव! शुभवर्णहरित्सुगात्र! केनोपमा तवकरोमि समोऽपि कश्चेत् । नूनं भवान्खलु भवादृश एव लोके तृप्यन्ति नो जनदृशो मुहुरीक्षमाणाः ॥७॥' इसी प्रकार दशम श्लोक में प्रयुक्त उत्प्रेक्षा तथा तेईसवें श्लोक में प्रयुक्त रूपक सहृदयों के हृदय को आह्लादित करता है। इस स्तोत्र में कर्म सिद्धान्त के सोदाहरण वर्णन के साथ अन्य जैनसिद्धान्तों का भी हृदयहारी प्रतिपादन है। तदनन्तर २४ शार्दूलविक्रीडित छन्दों में निबद्ध मंगलचतुर्विंशतिका पाँच उपेन्द्रवज्रा छन्दों में निबद्ध मंगलस्तुति, नव अनुष्टुप् वृत्तों में गुम्फित मंगलाष्टक तथा आठ इन्द्रवज्रा एवं एक अनुष्टुप् वृत्त में प्रणीत स्वस्ति स्तवन है। भाषा एवं भावों की दृष्टि से इन स्तवनों का महत्त्व कम नहीं है। मंगलस्तुति के निम्नांकित पद्य में व्यतिरेक अलङ्कर की छटा एवं भाव संयोजना अत्यन्त मनोरम है "सुचन्द्रांशुगन्धाम्बुतः शीतला या, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भवव्याधिशान्त्यै सुपीयूषवाक् सा। सरित्सप्तभङ्गयात्मका मां पुनातु, सुवाणी च कुर्यात्सदा मङ्गल मे ॥२॥" उक्त मंगल स्तवनों के पश्चात् पूज्य माताजी के द्वारा रचित प्राकृत भाषा में लिखित अंचलिकाओं के साथ संस्कृत में प्रणीत सोलहकारण भक्ति, दशलक्षणभक्ति, पञ्चमेरुभक्ति, जम्बूद्वीपभक्ति तथा सुदर्शनमेरुभक्ति है। सोलहकारण भक्ति में १७ उपजाति छन्द तथा १ अनुष्टप है। नरेन्द्र छन्द में प्रणीत हिन्दी पद्यानुवाद भी मनोरम है। इसमें दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का अच्छा चित्रण हुआ है। दशलक्षणभक्ति में १० वसन्ततिलका एवं अन्त में दो अनुष्टुप् हैं। इनका शंभु छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद है। दशलक्षण धर्म का कम शब्दों में स्वरूप समझने के लिए इस भक्ति का अप्रतिम महत्त्व है। पञ्चमेरुभक्ति में ३५ पद्य हैं, जिनमें १४ पृथ्वी, ९० अनुष्टप, ५ भुजंगप्रयात, ३ उपजाति, २ आर्यास्कन्ध तथा १ शार्दूलविक्रीडित छन्द है। इस भक्ति का चौबोल छन्द में पूज्य माताजी द्वारा विरचित हिन्दी पद्यानुवाद की मौलिकता भक्तों को भक्ति में लीन करने में सक्षम है। जम्बूद्वीपभक्ति में ७ उपजाति, ५ अनुष्टुप् तथा २-२ पृथ्वी, तोटक, मन्दाक्रान्ता और आर्या वृत्त हैं। इस भक्ति का भी हिन्दी पद्यानुवाद किया गया है। सुदर्शनमेरु भक्ति में ५ वसन्ततिलका छन्द हैं। इसका पद्यानुवाद नहीं है। अन्य भक्तियों की तरह इसका भी पद्यानुवाद होता तो समीचीन रहता तथा प्रक्रमभंग न होता। इन पाँचों भक्तियों के अन्त में प्राकृत अंचलिका है। आगे ९ पद्यों की एक हिन्दी भाषा की सुमेरुवन्दना है। उपर्युक्त पाँचों भक्तियों की कदाचित् सर्वप्रथम पूज्य माताजी ने ही प्राकृत अंचलिका के साथ रचना की है। इससे माताजी की अकृत्रिम चैत्यालयों के प्रति विशेष भक्ति ज्ञात होती है। इसके आगे ४१ अनुष्टुप् वृत्तों में गणधरवलयस्तुति, ४१ हिन्दी चौबोल छन्द एवं १ दोहा में गणधरवलय मन्त्रस्तुति है। तत्पश्चात् ८ मालिनी एवं १ अनुष्टुप् में जम्बू स्वामी स्तुति है। जम्बूस्वामीस्तुति में भरतक्षेत्र के अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी का सुरुचिपूर्ण स्तवन है। ५१ अनुष्टुप् वृत्तों में गुम्फित निरंजनस्तुति में सिद्ध परमेष्ठी की आराधना की गई है। तदनन्तर हिन्दी भाषा में प्रणीत ३३ पद्यात्मक निरंजनस्तुति एवं ४५ पद्यात्मक अध्यात्मपीयूष (शुद्धात्मभावना) के बाद पुनः संस्कृत की स्तुतियों का क्रम आता है। अष्टसहस्री ग्रन्थ के प्रणयन हेतु एवं रचनास्थान के विवेचनपूर्वक १८ अनुष्टुप, २-२ उपजाति एवं मन्दाक्रान्ता तथा १-१ आर्या एवं वसन्ततिलका छन्दों में ग्रन्थराज अष्टसहस्री की वन्दना और १० अनुष्टुप् एवं १ मन्दाक्रान्ता में समयसार की वन्दना है। समयसारवन्दना में पूज्य माताजी ने समवसार का सार उद्घाटित करके अपनी आत्मा को समयसार रूप बनाने की मङ्गलकामना की है। तत्पश्चात् पूज्य माताजी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती १०८ श्री शान्तिसागर महाराज, उनके प्रथम पट्टाधीश तथा अपने दीक्षागुरु आचार्य की श्रीवीरसागर महाराज और इसी निर्मल परम्परा के आचार्य शिवसागर महाराज, आचार्य धर्मसागर महाराज एवं आचार्य श्री देशभूषण महाराज की स्तुति की है। ये स्तुतियाँ माताजी की गुरुभक्ति की निदर्शन हैं। अथ च चतुर्थ काल की प्रथम गणिनी आर्यिका ब्राह्मी माता की स्तुति के माध्यम से उन्होंने मुनियों के साथ आर्यिकाओं की पूज्यता की प्रतिष्ठा की है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्रीशान्तिसागर स्तुति में ६ भुजंगप्रयात, १ पृथ्वी और १ अनुष्टुप् है। इसके प्रथम श्लोक में ही अनुप्रास की शोभा पाठकों के हृदय में अलौकिक आनन्द का संवर्धन करती है "सुरत्नत्रयैः सद्वतै जमानः, चतुःसंघनाथो गणीन्द्रो मुनीन्द्रः। महामोहमल्लैकजेता यतीन्द्रः, स्तुवे तं सुचारित्रचक्रोशसूरिम्॥" आचार्यवीरसागरस्तुति प्रथम १० पद्यात्मक तथा द्वितीय छह पद्यात्मक है। प्रथम में उपजाति तथा द्वितीय में वसन्ततिलका छन्द प्रयुक्त है। दोनों के अन्तिम पद्य में अनुष्टुप् है। आचार्य शिवसागरस्तुति १० वसन्ततिलका एवं १ अनुष्टुप् परिमाण है। आचार्य श्री धर्मसागर की दो स्तुतियाँ हैं। प्रथम में ८ वसन्ततिलका और द्वितीय में १० उपजाति, १ पृथ्वी एवं १ अनुष्टुप् है। द्वितीय स्तुति का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। आचार्यश्री देशभूषण स्तुति में ८ अनुष्टुप्, १ वसन्ततिलका एवं १ पृथ्वी छन्द का प्रयोग हुआ है। ब्राह्मी माताजी स्तुति में १० अनुष्टुप् हैं। इन सभी स्तुतियों में शब्दालंकारों की झंकृति एवं चमत्कृति से जहाँ माताजी के अगाध पाण्डित्य का पता चलता है, वहाँ अर्थालंकारों के समुचित प्रयोग से वर्ण्य भावों की मंजुल अभिव्यंजना होती है। इस खण्ड के अन्त में हिन्दी अर्थ के साथ कन्नड़ की बारहभावना है। इसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। जिनस्तोत्रसंग्रह के इस द्वितीय खण्ड में माताजी द्वारा विरचित कुल ४४ स्तोत्र हैं, जिनमें ३७ संस्कृति, ६ हिन्दी और १ कनडभाषा में प्रणीत है। जिनस्तोत्रसंग्रह के तृतीय खण्ड में माताजी द्वारा विरचित सात स्तोत्र हैं। इसका प्रारंभ जिनेन्द्र भगवान् की पावन भक्ति में प्रणीत एक हजार आठ नाम मन्त्रों से हुआ है। आगे तीस चौबीसी नाममन्त्र एवं तीस चौबीसी नामावली स्तोत्र हैं। इस स्तोत्र में कुल १२९ अनुष्टुप् हैं। तदनन्तर हिन्दी का तीस चौबीसी स्तोत्र है, जिसमें ५९ शंभु छन्द और अन्तिम प्रशस्ति में ३ दोहे हैं। तदनन्तर १४ अनुष्टुप् प्रमाण संस्कृत की बीस तीर्थंकर नाम स्तुति तथा हिन्दी की ७ पद्यात्मक बीस तीर्थंकर नाम स्तुति है। अन्त में हिन्दी भाषा में ही निबद्ध माता के सोलह स्वप्नों के साथ १ सोरठा और ८ शंभु छन्दों में रचित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४२३ श्रीतीर्थंकर स्तवन है। काव्यत्व की दृष्टि से इस खण्ड का महत्त्व भले ही नगण्य कहा जाये, किन्तु भक्तों के लिए तो उसका असीम माहात्म्य है। क्योंकि जिनसहस्रनाम, तीन चौबीसी नामावली एवं विदेह क्षेत्रस्थ बीस तीर्थंकरों के नामों के स्मरण से उन्हें तद्रूप होने की प्रेरणा मिलती है। आराध्य के नामों का स्मरण आराधना का ही एक प्रकार है, जो आराध्य की स्तुति, भक्ति या पूजा ही है और मनोवांछित की सफलता का निमित्त होता है। तीर्थंकर की माता के सोलह स्वप्न और उनका फल जानने के लिए हिन्दी का 'श्रीतीर्थंकरस्तवन' जिज्ञासुओं को विशेष रूप से पठनीय है। जिनस्तोत्रसंग्रह के चतुर्थ खण्ड का न केवल जैन स्तोत्र साहित्य में, अपितु सम्पूर्ण विश्व के स्तोत्र वाङ्मय में अप्रतिम सर्वातिशायी महत्त्व है। । यद्यपि इसमें कल्याणकल्पतरु नामक एक संस्कृत भाषा के एवं एक हिन्दी भाषा की कुल दो स्तोत्र ही संकलित हैं, किन्तु उनका आकार विशाल है। संस्कृत के कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में २१२ पद्य और हिन्दी के कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में १३२ पद्य हैं। दोनों स्तोत्र मौलिक हैं और दोनों में ही ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यन्त २४ तीर्थकरों की स्तुति की गई है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से संस्कृत के इस स्तोत्र का महनीय योगदान है। इसमें एक अक्षर वाले छन्द से लेकर सत्ताईस अक्षर वाले छन्द तक के १४३ पद्य तथा तीस अक्षर वाले एक अर्णोदण्डक छन्द का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति संस्कृत के स्तोत्रसाहित्य में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है। इस स्तोत्र की यह अपनी अप्रतिम विशेषता है। छन्दों के इस उपवन में माताजी ने अध्यात्म, दर्शन एवं इतिहास के पुष्प गुंफित करके भारत की विद्वत्परम्परा में अपनी अगाध पैठ बनाई है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतिपरक इस कल्याणकल्पतरु में तीर्थंकरों के पञ्चकल्याणक की तिथियाँ, माता-पिता, जन्म स्थान आदि के नाम, शरीर का वर्ण अवगाहना एवं आयु भगवज्जिनसेनकृत महापुराण (आदिपुराण) और गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण के अनुसार हैं। टिप्पणियों में यथास्थान मतान्तर देकर शोधार्थियों के मार्ग को प्रशस्त बना दिया गया है। इसकी अलंकार योजना भी प्रशस्य है। एकमात्र इस स्तोत्र के समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन से सभी शास्त्रों का ज्ञान हो सकता है। गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने भाषा को संगीतमय, भावों को सशक्त एवं हार्द की अभिव्यंजना के लिए वर्ण्यविषयानुसार १४४ छन्दों का प्रयोग किया है। अन्य स्तोत्रों में जिन छन्दों का प्रयोग हुआ है, वे सब कल्याणकल्पतरु में प्रयुक्त हैं। अद्यावधि उपलब्ध संस्कृत वाङ्मय में एकाक्षरी छन्द का प्रयोग मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। माताजी ने इस स्तोत्र का प्रारम्भ श्रीनामक एकाक्षरी छन्द से किया है,जो उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है। भगवान् ऋषभदेव की स्तुति में एकाक्षरी 'श्री' छन्द का प्रयोग द्रष्टव्य है "ऊँ, माम् । सोऽव्यात्॥" माताजी ने दो अक्षर वाला छन्द स्त्री; तीन अक्षर वाले छन्दों में केसा, मृगी एवं नारी; चार अक्षर वाले छन्दों में कन्या, व्रीडा, लासिनी, सुमुखी, सुमति एवं समृद्धि; पाँच अक्षर वाले छन्दों में पंक्ति, प्रीति, सती एवं मन्दा; छह अक्षर वाले वृत्तों में शशिवदना, तनुमध्या, सावित्री, नदी, मुकुला, मालिनी, रमणी, वसुमती एवं सोमराजी; सप्ताक्षरी वृत्तों में मदलेखा, कुमारललिता, मधुमती, हंसमाला एवं चूड़ामणि; अष्टाक्षर छन्दों में अनुष्टुप, प्रमाणिका, चित्रपदा, विधुन्माला, माणवक, हंसरुत, नागरक, नाराचिका, समानिका एवं वितान; नवाक्षर वृत्तों में हलमुखी एवं भुजंगशिशुभृता; शाक्षरी छन्दों में शुद्धविराट्, पणव, मयूरसारिणी, रुक्मवती, मत्ता, मनोरमा, मेघवितान, मणिराग, चम्पकमाला एवं त्वरितगति; एकादशाक्षरी वृत्तों में दोधक, उपस्थिता, एकरूप, इन्द्रवज्रा उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, सुमुखी, शालिनी, वातोर्मि, भ्रमरविलसित, स्त्री (श्री), रथोद्धता, स्वागता, पृथ्वी (वृत्ता), सुभद्रिका (चन्द्रिका), वैतिका (श्येनिका) एवं मौक्तिकमाला; बारह अक्षर वाले छन्दों में चन्द्रवर्त्म, वंशस्थ, इन्द्रवंशा, द्रुतविलम्बित, पुट, तोटक, प्रमुदितवदना, उज्ज्वला वैश्वदेवी, कुसुमविचित्रा, जलधरमाला, नवमालिनी, प्रभा, मालती, भुजंगप्रयात, तामरस, स्रग्विणी, मणिमाला, प्रमिताक्षरा, जलोद्धतगति, प्रियवंदा एवं ललिता; तेरह अक्षर वाले छन्दों में क्षमा, प्रहर्षिणी, अतिरुचिरा, चंचरीकावली, मंजुभाषिणी, मत्तमयूर एवं चन्द्रिका, चतुर्दशाक्षर वृत्तों में वसन्ततिलका, अलोला, इन्दुवदना, प्रहरणकलिका, अपराजिता एवं असंबाधा; पञ्चदशाक्षर छन्दों में मालिनी, शशिकला, चन्द्रलेखा, प्रभद्रक, सक्, मणिगुणनिकर, कामक्रीडा एवं एला (अतिरेखा); सोलह अक्षर वाले छन्दों में ऋषभगजविलसित एवं वाणिनी; सत्तरह अक्षर वाले वृत्तों में शिखरिणी, पृथ्वी, मन्दाकान्ता, वंशपत्रपतित एवं हरिणी; अठारह अक्षर वाले छन्दों में कुसुमलतावेल्लिता, सिंहविक्रीडित, तत्कुटक, कोकिलक एवं हरनर्तक; उन्नीस अक्षरों वाले छन्दों में शार्दूलविक्रीडित एवं मेघविस्फूर्जित; बीस अक्षर वाले वृत्तों में मत्तेभविक्रीडित, सुवदना, वृत्त एवं प्रमदानन; इक्कीस अक्षर वाले छन्दों में स्रग्धरा एवं मत्तविलासिनी; बाईस अक्षर वाला वृत्त प्रभद्रक; तेईस अक्षर वाले वृत्तों में अश्वललित, मत्ताक्रीडा एवं मयूरगति; चौबीस अक्षर वाला छन्द तन्वी; पच्चीस अक्षर वाला वृत्त क्रौञ्चपदा; छब्बीस अक्षर वाले वृत्तों मे अपवाह एवं भुजङ्गविजृम्भित; सत्ताईस अक्षर वाले चण्डवृष्टिप्रयातदण्डक एवं प्रचितकदण्डक और तीस अक्षरों वाले अर्णोदण्डक का कल्याणकल्पतरु स्तोत्र में प्रयोग किया है। संस्कृत साहित्य में इतने अधिक छन्दों वाले स्तोत्र तो क्या कदाचित् मेरी निगाह में कोई महाकाव्य भी नहीं है। इस दृष्टि से पूज्य माताजी का यह महनीय अवदान है। कल्याणकल्पतरु नामक हिन्दी स्तोत्र भी अत्यन्त रोचक और वर्ण्यविषय की दृष्टि से संस्कृत के कल्याणकल्पतरुस्तोत्र के ही समान है। उपर्युक्त स्तोत्रों के पर्यालोचन को एक लघु निबन्ध में प्रस्तुत करना सर्वथा दुष्कर है। ग्रन्थ प्रकाशन की अत्यन्त त्वरा से इसका यथेष्ट अध्ययन भी न हो सका। "भविष्य में किसी भी को माताजी के संस्कृत स्तोत्रों पर पी-एच०डी० हेतु शोध कराने की भावना है। यदि यह कार्य सुसम्पन्न करा सका तो मैं अपना गारव समझूगा।" इन स्तोत्रों पर डाली गई विहंगम दृष्टि से स्पष्ट हो जाता है कि पूज्य माताजी प्रतिभाशालिनी, विविध प्रकार की घटनाओं के वर्णन करने में दक्ष, सर्वथा लोकहितकारिणी, सर्वशास्त्रों के अवेक्षण से कुशाग्रबुद्धि को प्राप्त तथा व्याकरण-न्याय आदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४] 1 शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलन से व्युत्पत्तिमती उत्तम कवयित्री हैं। उनमें कारयित्री प्रतिभा अनोखी है। आचार्य अजितसेन ने कविस्वरूप का जो विशद विवेचन अलंकारचिन्तामणि में किया है, पूज्य माताजी में वह अक्षरशः दृष्टिगोचर होता है उनके द्वारा प्रणीत स्तोत्रों में शान्तरस एवं वैदर्भी रीति प्रमुख रूप से है। प्रसाद गुण सर्वत्र सद्यः अर्थ की प्रतीति में साधन है तो माधुर्य के कारण शब्द नाचते से प्रतीत होते हैं। सूक्तियों के समावेश ने स्तोत्रों में और अधिक रमणीयता ला दी है। इस प्रसङ्ग में कतिपय सूक्तियाँ द्रष्टव्य है मुनिचर्या (यतिक्रियाकलाप) इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्य गाणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित स्तोत्रसाहित्य का विषयवस्तु की व्यापकता, सैद्धान्तिक पक्ष प्रतिपादन की विचक्षणता, अलंकारयोजना, छन्दोवैशिष्ट्य आदि के कारण भारतीय साहित्य को एक महनीय एवं स्पृहणीय अवदान है। इससे बीसवीं शताब्दी का संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य अवश्य समृद्धतर होगा । वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संकलन एवं गणिनी आर्यिका ज्ञानमती बिरोधसंस्थान alsoje (A31, 32. 'न जातु विगुणेऽपि निष्ठुरवती हि माताङ्गजे ।' (श्रीशान्तिजिनस्तुति, २८.) 'पीयूषबिन्दुरपि तृप्तिकरो न किंवा ।' 'अस्त्येव वात्र महिमा महतामचिन्त्यः । श्रीबाहुबलिस्तोत्र ६ एवं १६) मुनिचर्या जिस प्रकार राष्ट्रीय संविधान में राष्ट्र के बड़े से लेकर छोटे तक समस्त अधिकारियों के लिए कुछ आवश्यक नियम-कानून निश्चित किए गए हैं, उसी प्रकार जैन साधुओं के लिए भी पूर्वाचार्यों ने मूलाचार, आचारसार, चारित्रसार, अनगार धर्मामृत आदि संहिताग्रंथों में कुछ आवश्यक नियम बनाये हैं। जैसे रीढ़ की हड्डी हमारे शरीर की आधार शिला है, नींव मकान की आधारशिला होती है, उसी प्रकार साधु-सन्त हमारे समाज के सच्चे आधार होते हैं। इनकी चर्चा जब तक निर्दोष, निर्मल बनी रहेगी, तब तक ही देश में धर्म और मानवता का संचार रहेगा। जैसे अनेक अंगों के संकलन समूह से शरीर बना है, उसी प्रकार अनेक ग्रंथों के मूलभूत सिद्धान्तों ने ही "मुनिचर्या" वृहत्काय ग्रंथ का रूप धारण कर लिया है। सुन्दर आकर्षक बाइंडिंग के साथ-साथ ६२८ पृष्ठों का यह ग्रंथ केवल मुनि और आर्यिका की विभिन्न चर्या को अपने में समाहित किए हुए है। इसलिए मात्र साधुओं के पास ही इसे पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। इस ग्रंथ का मंगलाचरण मंगलमंत्र णमोकार से किया गया है, क्योंकि प्रातःकाल उठते ही सर्वप्रथम णमोकार मंत्र ही प्रायः सभी साधु पढ़ते हैं। संस्कृत, प्राकृत भक्तियाँ एवं दैवसिक (रात्रिक) पाक्षिक प्रतिक्रमण आदि सभी पाठ इस ग्रंथ में "क्रिया कलाप" ग्रंथ के आधार से ही लिए गए है, अतः इसमें जहाँ कहीं अरिहन्तार्ण और अरहन्ताणं ऐसे दो तरह के पाठ आए हैं, पूज्य माताजी ने उन्हें ज्यों के त्यों रखे है, उसमें एकरूपता लाने का प्रयास नहीं किया है, क्योंकि पूर्वाचार्यों की कृति में संशोधन परिवर्तन या परिवर्द्धन करना उनकी प्रतिभा के सर्वदा विरुद्ध है, अर्थात् वे किचित् भी परिवर्तन पसंद नहीं करती है। Jain Educationa International समीक्षिका आर्थिका चन्दनामती प्रातः काल से उठकर रात्रि विश्राम तक प्रत्येक प्राणी कुछ न कुछ आचरण-क्रिया-चर्या करते देखे जाते हैं, जो कि उनकी दैनिक चर्या कहलाती है। इसी चर्या की श्रृंखला में हमारा समीक्ष्य ग्रंथ है - "मुनिचर्या । " इस ग्रंथ में तीन खंड है। प्रथम खंड में साधुओं की सुबह से लेकर रात्रि तक करने वाली नित्य क्रियाएं है, जिसमें अहोरात्र के २८ कायोत्सर्ग के अनुसार ही क्रियाओं की प्रधानता है। ये २८ कायोत्सर्ग प्रतिदिन प्रत्येक साधु को करने आवश्यक होते हैं। प्रातःकाल उठते ही सबसे पहले जो स्वाध्याय किया जाता है उसे वैरात्रिक या पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय कहते हैं। इस एक स्वाध्याय में प्रारंभ और समापन के ३ कायोत्सर्ग माने गए हैं, जो ग्रंथ के पृ. १६ से २२ तक द्रष्टव्य हैं। इसके पश्चात् प्रायः साधुसंघों में सामायिक एवं पुनः प्रतिक्रमण की परंपरा देखी जाती है, किन्तु आगमानुसार तो पहले रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए, पुनः सामायिक करना चाहिए। एक विषय इस ग्रंथ में विशेष द्रष्टव्य है कि वैरात्रिक स्वाध्याय के बाद और रात्रिक प्रतिक्रमण से पहले पौर्वाहिक For Personal and Private Use Only . Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४२५ स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि की विधि बताई है, जो कि शायद साधुवर्गों को भी नवीन प्रतीत होगी, किन्तु इस विषय में पूज्य माताजी ने आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी के मूलाचार ग्रंथ का प्रमाण भी उद्धृत किया है णवसत्तपंचगाहापरिमाणं दिसि विभागसोधीए। पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए ॥२७३ ॥ इस गाथा का स्पष्टीकरण इस प्रकार है वैरात्रिक स्वाध्याय के अनन्तर साधुओं को अपनी वसतिका से बाहर निकलकर पूर्वाहकाल के स्वाध्याय हेतु दिग्विभाग शुद्धि के लिए प्रत्येक दिशा में कायोत्सर्ग से स्थित होकर ९-९ गाथा प्रमाण (णमोकार मंत्र का) २७ श्वासोच्छवासपूर्वक जाप्य करना चाहिए। ऐसे ही पौर्वाहिक स्वाध्याय के पश्चात् अपराण्ह स्वाध्याय हेतु प्रत्येक दिशा में ७-७ बार णमोकार मंत्र २१ उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए और अपराण्हिक स्वाध्याय के पश्चात् तत्काल ही पूर्वरात्रिक स्वाध्याय की दिक्शुद्धि हेतु ५-५ बार णमोकार मंत्र चारों दिशाओं में खड़े होकर १५ उच्छ्वासों में पढ़ना चाहिए। पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय हेतु दिक्शुद्धि का विधान नहीं है, क्योंकि उस समय सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ने का निषेध है । उस काल में भी सिद्धान्त ग्रंथों के अधिकारी ऋद्धिधारी मुनि आदि ही हैं, ऐसा आचारसार ग्रंथ में कहा है। इसकी पूर्ण प्रयोग विधि मुनिचर्या ग्रंथ के पृ. २३ पर है, वहाँ से देखें। रात्रिक (दैवसिक) प्रतिक्रमण का हिन्दी पद्यानुवाद भी पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ के छपते समय ही तैयार किया था, वह पूरा हिन्दी पद्य प्रतिक्रमण सरल भाषा में पृ. ५४ से ८० तक दिया गया है। जो कि संस्कृत-प्राकृत व्याकरण से अनभिज्ञ साधुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अपने जिन दोषों की आलोचना साधुगण सुबह-शाम प्रतिक्रमण के माध्यम से करते हैं, उन दोषों को समझते हुए उसकी आलोचना करने में निश्चित ही कर्मनिर्जरा अधिक होती है, इसी दृष्टि से हिन्दी प्रतिक्रमण श्री गौतमस्वामी की भाषा का ही सरलीकरण है। इस नित्य क्रिया वाले प्रथम खंड में २८ कायोत्सर्ग यथाक्रम . वर्णित हैं और सब जगह वे क्रियाएं भी दी गई हैं कि किसके बाद क्या करना चाहिए। सामायिक विधि एवं सामायिक संस्कृत-हिन्दी दोनों प्रकार की दी गई हैं। आचार्यवंदना प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार कृतिकर्मपूर्वक करने का भी यथास्थान प्रयोग विधिपूर्वक वर्णन है। इन्हीं दैनिक क्रियाओं के अन्तर्गत “साधुओं की आहारचर्या कब और कैसे होनी चाहिए" इस विषय पर भी पृ. १४७ से १५६ तक आगमोक्त प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार १७७ पृष्ठों तक समस्त दैनिक क्रियाओं का वर्णन है, इसमें समस्त क्रियाओं के साथ हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रकाशित किया गया है, जिससे क्रियाओं की पूर्णता में कोई संदेह नहीं रह जाता। इस मुनिचर्या के द्वितीय खंड में नैमित्तिक क्रियाओं का प्रकाशन है, जिसमें चतुर्दशी पर्व क्रिया से शुभारंभ किया गया है। यूँ तो चतुर्दशी के दिन पाक्षिक प्रतिक्रमण तो सभी साधु करते हैं, तथापि “चारित्रसार" ग्रंथ के प्रमाणानुसार चतुर्दशी को तीनों काल की सामायिक में चैत्यभक्ति के बाद श्रुतभक्ति करने का विधान बताया है, उसकी प्रयोगविधि मुनिचर्या ग्रंथ के पृ. १७८ से १८० तक वर्णित है। यदि कोई साधु चतुर्दशी के दिन सामायिक में श्रुतभक्ति करना भूल जावे तो दूसरे दिन उसे "पाक्षिकी' नामक क्रिया करने का आदेश दिया है, इस विषय में अनगार धर्मामृत का प्रमाण भी पूज्य माताजी ने पृ. १८० पर उद्धृत किया है। अष्टमी पर्व के दिन भी विशेष क्रिया की जाती है, उस पूरी क्रिया का भक्ति और दण्डक सहित पूरा हिन्दी पद्यानुवाद भी साथ-साथ यथास्थान ही प्रकाशित है। पद्यानुवादक, गणिनी आर्यिका श्री का यह पुरुषार्थ सतत सराहनीय है कि उन्होंने सभी भक्तियों एवं प्राकृत के क्लिष्ट दंडकों का अर्थ हम सभी को समझाने हेतु यह अनन्य उपकार किया है। पाठक साधुवृन्द उनका आनन्द तो यथास्थान ही प्राप्त करेंगे। जैसे-पूज्यपाद स्वामीकृत संस्कृत सिद्धभक्ति के प्रथम श्लोक "सिद्धानुद्भूतकर्मप्रकृति-इत्यादि का पद्यानुवाद यहाँ प्रस्तुत हैशम्भुछंद-(पृ. १८३ से उद्धृत) सब सिद्ध कर्मप्रकृती विनाश निज के स्वभाव को प्राप्त किये। अनुपम गुण से आकृष्ट तुष्ट मैं वंदूं सिद्धी हेतु लिये॥ गुणगण आच्छादक दोष नशें सिद्धी स्वात्मा की उपलब्धी। जैसे पत्थर सोना बनता हो योग्य उपादान अरू युक्ती ॥१॥ इन कठिन संस्कृत भक्तियों का यह सरल पद्यानुवाद हम सभी के लिए बिना परिश्रम के फल खाने सदृश है, अतः इनका सदुपयोग तो हमें अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार श्री पूज्यपाद स्वामी की ही श्रुत और चारित्र भक्ति के भी एक-एक हिन्दी पद्य यहाँ प्रस्तुत हैंश्रुतभक्ति- (१८९ से उद्धृत) १. मध्याह्न सामायिक के बाद १ बजे से लेकर शाम को प्रतिक्रमण से पूर्व तक जो स्वाध्याय किया जाता है, वह अपराहकालीन स्वाध्याय कहलाता है। मध्याह्न का लीन स्वाध्याय नहीं होता है, मध्यान्ह काल में सामायिक होती है। २. यह दिकशुद्धि सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए की जाती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला चौबोल छन्द लोकालोक विलोकन लोकित, सल्लोचन है सम्यग्ज्ञान । भेद कहे प्रत्यक्ष परोक्ष, द्वय हैं सदा नमूं सुखदान ॥१॥ चारित्रभक्ति-(पृ. १९५ से उद्धृत) चमकितमुकुट मणि की प्रभ से, व्याप्त सु उन्नत है मस्तक । कंकणहारादिक से शोभित, त्रिभुवन के इन्द्रादिक सब ।। जिससे उनको स्वपद कमल में, नमित किया नित मुनियों ने। उन अर्चित पंचाचारों को, कथन हेतु अब नमूं उन्हें ॥१॥ इसी द्वितीय खण्ड में पाक्षिक प्रतिक्रमण दिया गया है, जो पृ. २४४ से प्रारंभ होकर ४४३ पृ. तक २०० पृष्ठों में है। इस पूरे प्रतिक्रमण के साथ पूज्य माताजी ने अपने अथक परिश्रमपूर्वक किये गये हिन्दी पद्यानुवाद को दिया है तथा प्राकृत पाठ के नीचे उसकी संस्कृत छाया भी दी गई है, जो कि संस्कृत भाषाविद् साधुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यह प्रतिक्रमण प्रत्येक चतुर्दशी को तो किया ही जाता है तथा इसी में चातुर्मासिक सांवत्सरिक आदि शब्द पाक्षिक के स्थान पर जोड़कर चार महीने में और एक वर्ष में भी किया जाता है। कार्तिक शु. १४ को एवं फाल्गुन शु. १४ को इस प्रकार वर्ष में दो बार तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण होता है तथा आषाढ़ शु. १४ को सांवत्सरिक-वार्षिक प्रतिक्रमण होता है। यमसल्लेखना से पूर्व क्षपक साधु को यही प्रतिक्रमण "औत्तमार्थिक" के रूप में कराया जाता है, तब पाक्षिक के स्थान पर "औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण क्रियायां" बोलते हैं। इस प्रतिक्रमण में पाँचों महाव्रत और छठे अणुव्रत के छह दण्डक रहते हैं, जिनमें व्रतों के समस्त अतिचारों को छोड़ने की प्रेरणा गौतमस्वामी ने प्रदान की है। उन गणधरस्वामी के मुखकमल से प्रकट हुए दण्डकों में से एक का पद्यानुवाद मैं यहाँ दे रही हैं, ताकि आप यह समझ सकें कि मात्र प्राकृत् शब्दों का उच्चारण ही पर्याप्त नहीं है, प्रत्युत जिन्हें हम छोड़ने और ग्रहण करने का संकल्प ले रहे हैं, उन्हें समझें तो सही, तभी पढ़ना सार्थक हो सकता है-(पृ. ३५३ से उद्धृत) "असंजमंवोस्सरामि संजमं अब्भुढेमि ... . " इत्यादि। "मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ। सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निर्ग्रन्थ में स्थिर होता हूँ। सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हैं। मैं अलोच को परिहरता हूँ, लोच क्रिया में स्थिर होता हूँ ॥१५॥" प्रत्येक १५ दिनों में किये जाने वाले इस वृहत् प्रतिक्रमण के द्वारा ज्ञात-अज्ञात में हुए समस्त दोषों का क्षालन तो होता ही है, इसके अतिरिक्त आचार्य या गणिनी के सानिध्य में किये गए इस प्रतिक्रमण के मध्य में यथास्थान १५ दिनों का प्रायश्चित भी आचार्य या गणिनी से लिया जाता है, तभी दोषों की शुद्धि मानी जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक अष्टान्हिका पर्व में साधुओं द्वारा की जाने वाली नंदीश्वर क्रिया दी गई है। श्रुतपंचमी क्रिया, वर्षायोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन क्रिया, वीर निर्वाण क्रिया, निषद्यावंदना क्रिया, केशलोंच प्रारंभ-समापन क्रिया आदि अनेक क्रियाएं इस द्वितीय खंड में हिन्दी सहित दिए गए हैं, इसीलिए इस खंड का विषय काफी बढ़ गया है। पृ. १७८ से ५६९ तक द्वितीय खंड नैमित्तिक सर्वक्रियाओं के लिए अत्यंत उपयोगी है। आगे तृतीय खंड में सुप्रभात स्तोत्र, चतुर्दिग्वंदना, सर्वदोषप्रायश्चित्तविधि व कल्याणालोचना हिन्दी पद्यानुवाद सहित हैं तथा इसमें पूज्य माताजी ने स्वरुचि के आधार पर स्वरचित सोलह कारण पर्व, दशलक्षण पर्व, पंचमेरुवंदना, जम्बूद्वीपवंदना तथा सुदर्शनमेरुवंदना आदि क्रियाएं, उनकी भक्तियाँ आदि दी हैं, जो समयानुसार की जा सकती हैं। अन्त में सरस्वती स्तोत्र है, ग्रंथ के समापन में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने इस मुनिचर्या ग्रंथ की प्रशस्ति संस्कृत के ९ श्लोकों में दी है, जो ग्रंथ की प्रामाणिकता का दिग्दर्शन कराती है। पृ. ५७० से ६२८ तक यह तृतीय खंड ग्रंथ की पूर्णता की सीमा बताता है। इस ग्रंथ में प्रत्येक क्रिया किसी न किसी आचार ग्रंथ के आधार से ही दी गई है, इसीलिए यह संकलित ग्रंथ का आवरण पहनकर एक “संहिताग्रंथ" के रूप में साधु समाज के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। समस्त क्रियाओं की प्रामाणिकता के लिए यथास्थान मूलाचार,अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों के उद्धरण दिये गये हैं। इस ग्रंथ की प्रस्तावना में पूज्य माताजी ने लिखा है कि "इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है, वह सब पूर्वाचार्यों का ही है, फिर भी पद्यानुवाद आदि में यदि कोई कमी रह गई हो तो विद्वान् साधुवर्ग मुझे अवश्य ही सूचित करें, जिससे आगे उस पर विचार कर संशोधित किया जा सके।" मैं समझती हूँ कि यह उनकी उदारता और महानता ही है। ___इस ग्रंथ के लेखन में क्रियाकलाप, मूलाचार, आचारसार, अनगारधर्मामृत, चारित्रसार, प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी, सामायिक भाष्य, दशभक्त्यादिसंग्रह, धवला पुस्तक कुंदकुंद भारती आदि १० ग्रंथों का आधार लिया गया है, इससे स्वयमेव प्रकट हो जाता है कि गौतम स्वामी से लेकर प्रायः सभी आचार्यों Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४२७ ने साधुओं की चर्या पर प्रकाश डाला है। इन सबको एक जगह संकलित करने का श्रेय पूज्य माताजी ने प्राप्त किया। उनके इस कठिन परिश्रम का मूल्यांकन कर इस युग के समस्त साधुवर्ग "मुनिचर्या" नामक इस वृहत्काय ग्रंथ का सदुपयोग करेंगे, यह मुझे पूर्ण विश्वास है। जिस नगर, गाँव या शहर में दिगम्बर मुनि-आर्यिकादि विराजमान हों, वहाँ के श्रावक जम्बूद्वीप संस्थान, हस्तिनापुर से सम्पर्क करके "मुनिचर्या" ग्रंथ मंगाकर साधुओं को समर्पित करें, इससे ज्ञानदान का महान् पुण्य अर्जित होगा। "इति शुभम्" कुन्दकुन्दमणिमाला : समीक्षा -डॉ. जयकुमार जैन एस.डी. कालेज, मुजफ्फरनगर कुन्दकुन्द किसी भी मङ्गल कार्य को प्रारम्भ करने के पहले जैन धर्मावलम्बियों में एक श्लोक पढ़ने की परम्परा है "मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गलं कुन्दकुन्दाों जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥" स्पष्ट है कि महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक गौतम गणधर के बाद जैन परम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । कुन्दकुन्दाचार्य श्रमणसंस्कृति के उन्नायक जैन धर्म के अग्रणी प्रतिभू एवं दान्तिक शैली में लिखित आध्यात्मिक साहित्य के युगप्रधान आचार्य हैं। भारत के अध्यात्म-वाङ्मय के विकास में उनका महनीय एवं अप्रतिम योगदान रहा है। उनकी महत्ता इसी से जानी जा सकती है कि उनके पश्चाद्वर्ती आचार्य अपने को कुन्दकुन्दान्वयी/कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवान्वित समझते हैं। उच्चकोटि के विपुल साहित्य के प्रणयन में कुंदकुंदाचार्य भारतीय वाङ्मय में अग्रणी हैं। उन्होंने अध्यात्म विषयक एवं तत्त्वज्ञानविषयक चौरासी प्राभृतों की रचना की थी। दुर्भाग्य से आज उनके सभी ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ इस प्रकार हैं-दशभक्ति, अष्टप्राभृत, प्रवचनसार, समयसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा एवं रयणसार । मूलाचार कुंदकुंदाचार्य की रचना है या नहीं यह अत्यन्त विवादास्पद है? पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी मूलाचार को कुंदकुंदाचार्य द्वारा प्रणीत स्वीकार करती हैं। 'कुंदकुंदमणिमाला' एक संकलन है, जिसमें पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार सहित कुंदकुंदाचार्य के उपर्युक्त ग्रंथों से अत्यन्त उपयोगी एवं सारभूत १०८ गाथाएं गुम्फित की हैं। इन गाथाओं का महत्त्व सम्प्रति और अधिक बढ़ गया है, क्योंकि एकान्तपथकूप में पतितजनों को उबारने में ये सोपान या रजु के समान हैं। इन गाथाओं में महाव्रती मुनि-आर्यिकाओं एवं अणुव्रती श्रावक-श्राविकाओं को अपने मोक्षमार्ग में दृढ़ता की प्रेरणा संदिष्ट है। विषयवस्तु के अनुसार भक्ति अधिकार में १५, श्रावकधर्माधिकार में २१, मुनिधर्म सरागचारित्राधिकार में २४, वीतरागचारित्राधिकार में ४० और वीतरागचारित्र फलाधिकार में ८ गाथायें हैं। भक्ति अधिकार की गाथायें दशभक्ति, मूलाचार एवं नियमसार से संकलित हैं। इनके अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यद्यपि वीतराग भगवान् 'अन्यथाकर्तुम्' समर्थ नहीं हैं, तथापि भक्तिवश जिनेन्द्र भगवान् से की गई आरोग्य, बोधि एवं समाधि की प्रार्थना निदान रूप न होने से दोषप्रद नहीं है। इस संबंध में मूलाचार की एक गाथा को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि “जिनवरों की भक्ति से पूर्वभवों में संचित कर्म क्षय हो जाते हैं तथा आचार्यों की प्रसन्नता से विद्यायें एवं मंत्र सिद्ध हो जाते हैं"-इस बात का महत्त्व बताने के लिए पू. माताजी ने यह गाथा दी है 'भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्मं । आयरियपसाएण य विज्जा मंता य सिझंति ॥" (कुंदकुंदमणिमाला, १३) गुरुओं की भक्ति से कर्मनिर्जरा तो होती ही है, नियमसार में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो श्रावक या मुनि रत्नत्रय में भक्ति करते हैं, उन्हें मुक्ति की प्राप्ति होती है Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 'सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदित्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥' (कुंद. १५) श्रावकधर्म अधिकार में अष्टप्राभृत, रयणसार, द्वादशानुप्रेक्षा, नियमसार, प्रवचनसार तथा मूलाचार की गाथायें संगृहीत हैं। इनके अध्ययन से स्पष्ट होता है कि दान और पूजा श्रावक का प्रमुख धर्म है। इनके बिना व्यक्ति श्रावक नहीं हो सकता है। पात्रापात्र का विचार किये बिना श्रावक को मुनि के लिए आहारदान देना योग्य है। रयणसार की चौदहवीं गाथा में कथित इसी भाव को उपासकाध्ययन में 'भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्' कहकर समुद्घाटित किया गया है। अतएव समाज को एकान्तवादियों के कुप्रचार से बचकर मुनि-आर्यिकाओं को भक्तिभाव से आहार देना ही चाहिए। आज कुछ तथाकथित आत्मवादी अकालमृत्यु का शाब्दिक प्रतिषेध करके लोगों को पुरुषार्थ से विमुख एवं अकर्मण्य बनाकर एकान्तवह्नि में ढकेलने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। अतएव मुमुक्षुओं को भावप्राभृत की इस पच्चीसवीं गाथा को हृदयङ्गम जरूर कर लेना चाहिए, जिसमें विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र, संक्लेश, आहारनिरोध और श्वासोच्छास को आयु क्षीण होने का कारण माना गया है। मुनिधर्म सरागचारित्र अधिकार में द्वादशानुप्रेक्षा, नियमसार, समयसार, मूलाचार, प्रवचनसार एवं मोक्षप्राभृत से गाथायें संकलित हैं। इनमें सरागचारित्र के विविध पक्षों के समुद्घाटन के साथ एकलविहारी मुनि की पात्रता-अपात्रता, मुनिनिन्दक का भववन में परिभ्रमण तथा पंचमकाल के अन्त तक आत्मस्वभावी मुनिराजों के सद्भाव का कथन किया गया है। मोक्षपाहुड़ की सतत्तरवी गाथा में स्पष्टतया कहा गया है कि आज भी मुनि इन्द्रपद और लोकान्तिक देव पद को प्राप्त कर सकते हैं तथा वहाँ से च्युत होकर निर्वाण पा सकते हैं 'अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाए वि लहहि इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिब्बुदिं जंति ॥' (कुंदकुंद, ५६) वीतरागचारित्राधिकार में नियमसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, द्वादशानुप्रेक्षा, समयसार, रयणसार और सूत्र-प्राभृत से गाथायें संग्रह की गई है। इनमें अधिकांश गाथायें समयसार की हैं। इसमें प्रधानतया निश्चय चारित्र और निश्चय मोक्षमार्ग का कथन है। निश्चय के साधन के रूप में व्यवहार मोक्षमार्ग का भी विवेचन हुआ है। व्यवहारनय की उपयोगिता समयसार की छिहत्तरवी गाथा से एकदम स्पष्ट है, जिसमें कुंदकुंदाचार्य ने कहा है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना उसी प्रकार असंभव है, जिस प्रकार अनार्य को अनार्यभाषा के बिना कुछ भी समझाना असंभव है 'जह णवि सक्कमणज्जो अणजभासं विणा उ गाहेड़ें। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ॥" (कुन्द.७६) व्यवहार एवं निश्चय की भूतार्थता एवं अभूतार्थता के विषय में समयसार की ७७वीं गाथा की जयसेनाचार्यकृत टीका जिज्ञासुओं द्वारा द्रष्टव्य एवं ध्यातव्य है। अपरमभाव (सप्तम गुणस्थान तक) में स्थित जीवों को तो कुंदकुंदाचार्य ने स्पष्ट रूप से व्यवहारनय प्रयोजनीभूत माना है। इस अधिकार में संकलित गाथाओं के अध्ययन से कुंदकुंदाचार्य की दृष्टि में निश्चय एवं व्यवहारनय की अवधारणा सुस्पष्ट हो जाती है। समयसार की संकलित ४१४वीं गाथा में तो व्यवहारनय की अपेक्षा मुनिलिङ्ग एवं श्रावकलिङ्ग को मोक्ष का कारण कहा है तथा निश्चय ही अपेक्षा मोक्षमार्ग में किसी भी लिङ्ग को स्वीकार नहीं किया गया है। इस अधिकार के नैर्मल्यभाव से अध्ययन करने पर एकान्तवादियों के अनेक गृहीतमिथ्यात्व समाप्त हो सकते हैं। पञ्चम फल अधिकार में प्रवचनसार, नियमसार, मूलाचार एवं द्वादशानुप्रेक्षा से संकलित ८ गाथाओं में स्पष्ट किया गया है कि शुद्धोपयोगी मुनि ही केवलज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। पुण्य को सर्वथा हेय मानना जिनेन्द्रदेव की आज्ञा नहीं है, क्योंकि अरिहन्तपद की प्राप्ति भी पुण्य का ही फल है। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित कुंदकुंदमणिमाला भव्यजनों को संसारसागर पार कराने में वृहन्नौका है। मुमुक्षु इसको हृदयङ्गम करके मुक्तिपद को प्रशस्त कर सकते हैं। पूज्य माताजी ने शताधिक ग्रंथों के प्रणयन, संपादन एवं संकलन से भारतीय वाङ्मय की जो सेवा की है, उसे भारतीय जन-मानस यावच्चन्द्रदिवाकर विस्मृत नहीं कर सकेगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४२९ JAINA BHUGOLA (जैन भूगोल) Dei SS. LIS Deptt. of Maths, Govt. In-Service Teacher Training Centre, Patiala (Pb.) India. Service Tem Jaina Bhugola (Jaina Geography) is the sixtysecond presentation of 'Veer Jnanodya Granthamala' which undertakes the publication of Digamber jain texts both in original and translation with commentary as well in several languages like Hindi, Sanskrit, Prakrit, Kannada and Marathi etc. These works are often related to the field of spiritualism, geography, astronomy, and grammer etc. However sometimes booklets are published for the benefit of layman also. The present volume is a unique contribution of Her Holiness Arvikaratna Jnanamati Mataji in highlighting the role of Jainacharyas in understanding the geographical structure of this earthly planet. The learned editor of the Granthamala, Sri Ravinder Kumar Jain has rightly observed in Prakasakiya (Publisher's note) that Jainacharyas, through their intuitive powers had made an absolutely objective study which is yet to be properly decoded by modern scientists. It is indeed the sublime knowledge of Pujya Mataji who has authored a long list of works in this field as evident from brief sketch of her life penned by Sri Moti Chand Jain, one of the editors of the granthamala. Prastavana (foreword) by Kumari Madhuri Shastri (At Present-Aryika Sri Chandanamatiji) has added a glamour to the book as it serves a food for thought for the reader to make an earnest attempt to delve deep into the secrets of Jaina Bhugola based on the works like Tiloya Pannatti, Trilokasara. Lokavibhaga. Slokavartika, Jambudvipa Pannatti etc., belonging to karananuyoga, one of the four divisions of Jaina classical literature. There are three lokas, viz. adholoka, madhyaloka and urdhvaloka occupying 343 cubical raju. The measure of Madhyaloka is one raju only. Madhyaloka includes Jambudvipa (an isle of Jamby tree) measuring one lac yojanas. Further 190th part of Jambudvipa is called Aryakhanda which comprises the whole world around us. Evidently, the modern scholars study the geography of Aryakhanda only. There lies a world even beyond the stars which only the Jainacharyas could perceive through their celestial intuitive faculty of mind. Pujya Mataji has successfully synthesizd the diverse texts and developed a comprehensive view of geographical knowledge of the universe under the title of Jaina Bhugola'. It comprises of eight chapters viz. Jambudvipa, Bharataksetra, Aryakhanda, Lavanasamudra, Madhyloka, Nandisvaradvipa, Teena loka and Dimensions of mounts in Jambudvipa. In every chapter, there is geographical description of rivers and mounts etc. coupled with mathematical ddata regarding their measurements. The whole is not a mere concidence but it represents a unique picture with mathematically precise modelling. The nomenclature of the rivers, mounts and dvipas (islands) presents a very fascinating picture which appears to be highly sophisticated so far as the question of mathematical consistency is concerned. One wonders that there are sixteen dvipas and the first two and a half dvipas viz. Jambudvipa, Dhatakikhanda dvipa and a half of puskaravara dvipa form the abode of the human species. It is worth-mentioning that the modern scientists have been conceiving the existence of human species elsewhere in the cosmos but they have not as yet reached the lands of Dhatakikhanda dvipa and a half of Puskaravara dvipa wherein human species reside as enunciated by the learned Jainacharyas. To our surprise, we have discovered millions of glaxies and we know not at present that which glaxy of this known set of glaxies or of some other set of glasxies yet to be discovered may prove to be the Dhatakikhandadvipa of Jainacharyas. Everyone knows that Jainacharyas had predicted life in plants many centuries before C.V. Raman won Nobel Prize on merely rediscovering the same fact with the help of modem instruments. Scientific knowledge is all tentative and always subject to change and modification. A superstition of yesterday becomes a hard fact of science of today. A mere ignorance of a fact is no proof for its denial. Besides, the modem scientists hold different views about the cosmos whether it is limited or unlimited. The bigbang theory holds a prominent place. Many scholars are of the view that the universe is ever expanding and the rate of recession of a glaxy is proportional to its distance from the earth. The constant of prop Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ortionality is known as Hubble's constant after the name of the discover of this law. But to our surprise, some 'one recently calculated a much different value of Hubble's constant. Where does then the beauty of its constancy lie? Moverover, Heisenberg's Principle of uncertainty is the most scientific principle of modem science. The more we discover, the more we approach the mataphysical stage of knowledge about modern science. Thus it is worthy of note that the apparently metaphysical description as given in jaina Bhugola must not disappoint us, rather we should eulogize the intuitive approach of Jainacharyas. Now it is a big challenge before us to understand the rationale of dimensions of the three lokas spread over 343 cubical Raju. Will the glaxies stop receding away beyond this limit and then return whereby Hubble's law will begin to fail and cease to work? This is a big task ahead as how to understand the limitedness of the cosmos implied in the concept of dimensions of three lokas. Pujya Mataji has initiated a strenuous task in unraveiling the mysteries of Jaina Geography. The work 'Jaina Bhugola' serves a great food for the academic world of science. However, Jaina terminology and symboligical representations have to be properly decoded in relation to time and space. An interdiscipilinary approach has to be adopted, of course. Such studies will not only benefit the material science but also the world of spiritual flights. Here it is worth mentioning that Pujya Mataji has paved the way to understand Jaina Geography by erecting the Holy mount meru placed at the centre of jambudvipa at the holy land of Hastinapur. Such an endeavour is a landmarking step in this direction. The book is printed nicely with a fine get-up. Everyone must possess this jewel. A layman can eulogise the fineness and precision of Jaina thinkers. A scholar gets an ample food for thought for furthering the cause of understanding the deep secrets of not Jainsim alone but also the mysteries of modern scinence growing metaphysically day-by-day. May her Holiness bless us for further exploration in this field! ज्ञानामृत समीक्षक-डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर। नकिशोध संस्थान 'ज्ञानामृत' यथा नाम तथा गुण है, इसमें ज्ञानरूपी अमृत भरा हुआ है। पौराणिक वैदिक परंपरा की कथा है कि समुद्र मंथन से अमृत निकला था, इसी काल्पनिकता के आधार पर इस ग्रंथ के प्रणयन के समय आर्यिका ज्ञानमती ने इसे अर्हन्तदेव के वचन समुद्र से निकला हुआ मानकर मङ्गलाचरण में इसकी महिमा का यशोगान किया अर्हन्तदेव को नित्य नमूं, जिनके वचनाम्बुधि मंथन से। निकला यह 'ज्ञानामृत' सुमधुर तुम पियो इसे मन अंजलि से॥ यह सूक्ति सुधा निर्झरिणी है, परम्भनंदामृत भर देगा। आत्मा को परम शुद्ध करके यह सिद्धिधाम में धर देगा ॥१॥ आत्मा का परम हित मोक्ष है। यह ऐसा अमृत है जो मोक्षधाम में रखने की सामर्थ्य से युक्त है। इसमें महामंत्र णमोकार के अर्थ से लेकर शांति भक्तिपर्यन्त पच्चीस विषय हैं। ये विषय एक-दूसरे से संबंधित न होकर अपने आपमें स्वतंत्र हैं। इन सबके लेखन का आधार आगम ग्रंथ है। १. णमोकार मंत्र का अर्थ-णमोकार मंत्र जैनों का मूलमंत्र है। यह समस्त पापों का विनाश करने वाला है। समस्त मङ्गलों में आद्य मंगल है। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु शब्दों की व्युत्पत्ति देते हुए, इसके स्वर और व्यंजनों की संख्या ६४ बतलाई गई है। उक्त चौंसठ अक्षरों का विरलन करके प्रत्येक के ऊपर दो का अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दो के अंकों का गुणा करने से लब्धराशि में एक घटा देने से जो प्रमाण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञान के अक्षर होते हैं। २. गृहस्थ धर्म-समस्त श्रावकाचारों में सागर धर्मामृत का विशिष्ट स्थान है। यह श्रावकाचारों का निचोड़ है। इसके आधार पर आर्यिकारत्न ज्ञानमती ने ज्ञानामृत में गृहस्थ धर्म का प्रतिपादन किया है। जो स्त्री. पुत्र. धन आदि के मोह से ग्रसित हैं, वे सागार या गृहस्थ कहलाते हैं। यहाँ श्रावक के पाक्षिक, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३१ नैष्ठिक और साधक भेद किए गए हैं तथा अष्ट मूल गुणों का वर्णन कर दान तथा उसके भेदों को स्पष्ट किया गया है। अन्य स्थानों पर आहारदान, औषधि दान, अभयदान और ज्ञानदान, दान के ये चार भेद निरूपित हैं। यहाँ पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और अन्वयदत्ति इस प्रकार चार भेद किए गए हैं। सत्कन्या दान की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उत्तम कन्या को देने वाले साधर्मी गृहस्थ के लिए तीनों वर्ग सहित गृहस्थाश्रम ही दिया है, क्योंकि विद्वान् लोग गृहिणी को ही घर कहते हैं, दीवाल और वासादि के समूह को घर नहीं कहते हैं। गृहस्थों के छह आर्यकर्म होते हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। प्रारंभ में चार आश्रम वैदिकों के यहाँ माने जाते थे। यहाँ चारित्रसार के आधार पर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुकाश्रम या संन्यस्त आश्रम इन चार भेदों का विश्लेषण किया गया है। ३. सम्यक्त्वसार-आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि तीन लोक और तीन काल में सम्यक्त्व के समान कोई वस्तु सुखदायी नहीं है। इस सम्यग्दर्शन के आत्मानुशासन में दस भेद कहे गए हैं-आज्ञा समुद्भव, मार्ग समुद्भव, उपदेश समुद्भव, सूत्र समुद्भव, बीज समुद्भव, संक्षेप समुद्भव, विस्तार समुद्भव, अर्थ समुद्भव, अवगाढ़ और परमावगाढ़। चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान तक व्यवहार सम्यक्त्व ही होता है। इसके आगे रत्नत्रय की एकाग्र परिणति में निश्चय सम्यक्त्व होता है, उसे वीतराग सम्यक्त्व भी कहते हैं। निश्चय नय से निश्चय चारित्र के बिना न होने वाला निश्चय सम्यक्त्व ही वीतराग सम्यक्त्व कहलाता है, जो कि शुद्धोपयोगी मुनियों के होता है। उसके पहले के सम्यक्त्व का नाम सराग सम्यक्त्व या व्यवहार सम्यक्त्व है। ४. चारित्रप्राभृतसार-इसका आधार आचार्य कुंदकुंद का षट्प्राभृत तथा उसकी श्रुतसागरी टीका है। चारित्र के भेद हैं-(१) सम्यक्त्वचरण चारित्र और संयमचरण चारित्र । इनमें से यहाँ सम्यक्त्वचरण चारित्र का अच्छा प्रतिपादन है। ५. बोध प्राभृतसार-इसके प्रतिपादन में आचार्य कुंदकुंदकृत बोधपाहुड़ की श्रुतसागरी टीका तथा आदिपुराण का सहारा लिया गया है। इसमें इन ग्यारह महत्त्वपूर्ण स्थानों का प्रतिपादन है-१. आयतन, २. चैत्यग्रह, ३. जिनप्रतिमा, ४. दर्शन, ५. जिनबिम्ब, ६. जिनमुद्रा, ७. ज्ञान, ८. देव, ९. तीर्थ, १०. अरहंत और ११. प्रव्रज्या। जिनमुद्रा के प्रसंग में कहा गया है कि मुनियों का आकार जिनमुद्रा है और ब्रह्मचारियों का आकार चक्रवर्ती मुद्रा है। ये दोनों ही मुद्रायें माननीय हैं—पद के अनुकूल आदर के योग्य हैं। ६. उपासक धर्म-इस विषय का आधार पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका है। इसमें षट्कर्म, सात व्यसन, आठमूल गुण, बारहव्रत तथा अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। ७. दान-इस विषय का आधार पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका है। यहाँ भगवान ऋषभदेव और कुरुवंशी राजा श्रेयांसकुमार को क्रमशः व्रत और दान रूप दो तीर्थों का आविर्भावक माना गया है। दान की महिमा के प्रसंग में कहा गया है कि जिसके क्रोधादि विकार भाव विद्यमान हैं, वह क्या देव हो सकता है? जिस धर्म में प्राणियों की दया प्रधान नहीं है, वह क्या धर्म कहा जा सकता है? जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं, क्या वह तप और गुरु हो सकता है तथा जिस सम्पत्ति में से पात्रों के लिए दान नहीं दिया जाता है, वह सम्पत्ति क्या सफल हो सकती है? अर्थात् नहीं। यहाँ पात्र के उत्तम, मध्यम और जघन्य तीन भेद किए गए हैं। ८. समयसार का सार-यहाँ समयसार के सार को निश्चय और व्यवहार उभयनय के आश्रित प्रतिपादित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र और जपसेन दोनों आचार्यों का आशय एक ही है, वास्तव में दोनों में कोई भेद नहीं है, इस बात का भी यहाँ स्पष्टीकरण है। ९. सप्तपरम स्थान-सज्जाति, सद्गृहस्थता, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रपद, साम्राज्य, अरहंतपद और निर्वाण पद ये सात परम स्थान हैं । इनका विवेचन आदिपुराण के अनुसार किया गया है। दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति परमस्थान होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि होती है, उसे कुल और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सजाति कहते हैं। इस सजाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। लेखिका के अनुसार जितने भी सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होंगे, उन सबने प्रथम स्थान सज्जाति, तृतीय स्थान पारिव्राज्य और छठे स्थान आर्हन्त्य को अवश्य ही प्राप्त किया है। १०. सुदं मे आउस्संतो-गौतम स्वामी का कहना है कि हे आयुष्मान्! मैंने भगवान् के मुख से गृहस्थ धर्म सुना है। इसी गृहस्थ धर्म का यहाँ प्रतिपादन है। इसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत देववंदना तथा सल्लेखना का वर्णन किया गया है। यहाँ यह कहा गया है वस्त्रधारी क्षुल्लक, ऐलक आदि जो कि संयमासंयम को धारण करने वाले पंचम गुणस्थानवर्ती है, ये सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इन कल्पों के ऊपर दिगम्बर मुनि ही जा सकते हैं। भले ही कोई द्रव्यलिङ्गी ही क्यों न हो, वह भी अंतिम ग्रैवेयक तक जाने की योग्यता रखते हैं। ११. गतियों से आने-जाने के द्वार-इस विषय का प्रतिपादन चौबीस दंडक नाम के लघु प्रकरण से तथा त्रिपोकसार और तिलोयपण्णत्ति से किया गया है। एक-एक गति से आने के और जाने के कितने द्वार हैं, इसकी इसमें जानकारी दी गई है। १२.जीव के स्वतत्त्व-औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के स्वतत्त्व अर्थात् स्वभाव हैं। इनका विश्लेषण यहाँ तत्त्वार्थवार्तिक के आधार पर किया गया है। १३. द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का विषय-श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेदों पर धवला तत्त्वार्थभाष्य आदि ग्रंथों के आधार पर प्रकाश डाला गया है। १४. श्रुतपञ्चमी-ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को श्रुतपञ्चमी पर्व मनाया जाता है। इस पर्व के इतिहास पर धवला तथा इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के आधार पर वर्णन किया गया है। १५. पंचकल्याणक-तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणकों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकरण में है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] १६. जैनधर्म- इसमें जैनधर्म क्या है? काल कितने भागों में विभक्त है? तथा चारों अनुयोगों का क्या स्वरूप है? इसका वर्णन है। अंत में आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में भेद किए गए हैं। १७. मुनिचर्या - रत्नत्रय की साधना करने वाले नग्न दिगम्बर मुनि होते हैं। उनके २८ मूलगुण, बाह्य चिह्न, समाचारी विधि, पुलाक आदि भेदों का यहाँ प्रतिपादन है। अन्त में कहा गया है कि आज भी इस पंचमकाल में सच्चे भावलिङ्गी मुनि होते हैं। १८. आर्यिकाचर्या – आर्यिकाओं की चर्या पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि ये उपचार से महाव्रती हैं, अतः एक साड़ी धारण करते हुए लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य है। १९. त्रिलोक विज्ञान- इसमें तीन लोकों का संक्षिप्त वर्णन है। २०. मानव लोक -मनुष्य जहाँ-जहाँ रहते हैं, उसका यहाँ नियमसार तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों के आधार पर वर्णन है। २१. जम्बूद्वीप – मध्यलोक में एक लाख योजन वाला जम्बूद्वीप है, उसका यहाँ संक्षिप्त वर्णन है। २२. अलौकिक गणित - जैन आचार्य अन्य विषयों के साथ गणित शास्त्र के भी अच्छे विद्वान् थे। उन्होंने लौकिक गणित के साथ अलौकिक गणित का भी प्रयोग किया है। उनके अलौकिक गणित की एक झाँकी यहाँ प्रस्तुत की गई है। २३. दशलक्षण धर्म - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिञ्चन्य तथा ब्रह्मचर्य दस धर्म हैं ये भव आताप का निवारण करने में समर्थ हैं । गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी गद्य रचना के साथ पद्य रचना में प्रवीण हैं। उपर्युक्त दस धर्मों पर इन्होंने पद्यरचना द्वारा अच्छा प्रकाश डाला है। २४. अध्यात्म पीयूष - अध्यात्म पीयूष आ० ज्ञानमतीजी की अध्यात्म रस में सराबोर एक उत्तम कृति है। यह प्रतिदिन पाठ करने वालों के लिए उपयोगी है, इसमें शुद्ध, बुद्ध, निरञ्जन, एकत्वविभक्त परमात्म तत्व का अच्छा वर्णन है। चेतना के प्रवाह को प्रवाहित करने की यह एक सुंदर कृति है। २५. शान्ति भक्ति - आचार्य पूज्यपाद की दशभक्तियों में शांति-भक्ति विशिष्ट है। इसका पाठ करने से अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक बाधाएं शांत होती है। यह मूल संस्कृत में है। इसका पद्यानुवाद कर संस्कृत नहीं जानने वाले पाठकों के ऊपर श्रद्धेय आर्थिका ज्ञानमतीजी ने परम उपकार किया है। - वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ग्रंथ के अंत में रचनाकर्त्री आर्यिका माता ज्ञानमतीजी ने अपना संक्षिप्त परिचय पद्य रूप में दिया है। आर्यिका श्री का व्यक्तित्व इस परिचय की अपेक्षा बहुत महान् है। ज्ञानामृत ग्रंथ की रचना उनके निरंतर स्वाध्याय और ज्ञानगरिमा का सुफल है। इसके स्वाध्याय करने से जैन तत्त्वज्ञान का सामान्य और विशिष्ट परिचय प्राप्त किया जा सकता है। पूज्य माताजी ने जिन विषयों का चुनाव किया है, उनमें से एक-एक पर अच्छी चर्चा हो सकती है। इस विषयों पर शिविर में व्याख्यान किए जा सकते हैं। दैनिक स्वाध्याय करने वालों को इसके स्वाध्याय से कुछ नूतन बातें ज्ञात हो सकती हैं, इस प्रकार यह ग्रंथ अत्यंत लाभप्रद है। यद्यपि इसकी रचना पूर्वाचार्यों की कृतियों के आधार पर की गई है, तथापि माताजी के विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण की शैली से यह उनकी स्वतंत्र कृति प्रतीत होती है माताजी की प्रतिपादन शैली विशद और सुबोध है इस प्रकार यह एक उत्तम कृति है। 1 सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण सामायिक प्रतिक्रण Jain Educationa International संस्थान समीक्षिका न. कु. आस्था शास्त्री ( संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी) आचार्य श्री कुंदकुंददेव ने रयणसार गाथा नं. १० में श्रावकों का मुख्य कर्तव्य दान और पूजा लिखा है "दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । ज्ञानाज्झययं मुक्खे, जइ धम्मे तं विणा तहा सोवि ॥" आचार्य श्री पद्मनन्दि ने छह आवश्यक क्रियायें बताई है— देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, तप और दान आर्यग्रंथ जयधवला, आदिपुराण आदि ग्रंथों में भी श्रावकों के ४ कर्तव्य माने हैं—दान, पूजा, शील और उपवास । प्रस्तुत पुस्तक "सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण" में पूज्य माताजी ने श्रावकों की आवश्यक क्रियाओं को बतलाते हुए श्रावक प्रतिक्रमण पाठ दिया है। श्रावकों के बारह व्रतों में "सामायिक" पहला शिक्षावत है और ग्यारह प्रतिमाओं में "सामायिक" तृतीय प्रतिमा का नाम है। " श्रावक प्रतिक्रमण" पू. माताजी ने "क्रियाकलाप" ग्रंथ से लिया है। मुनिप्रतिक्रमण के समान ही इसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति के "निषीधिका दंडक" वीरभक्ति, चौबीस तीर्थंकर भक्ति और समाधि भक्ति हैं। किए गए दोषों का प्रायश्चित करना For Personal and Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "प्रतिक्रमण" कहलाता है। इस पुस्तक में सर्वप्रथम पू. आर्यिका श्री ने मंगलाचरण में सिद्धों को, अर्हन्तों को नमस्कार कर सामायिक की सिद्धि के लिए सरस्वती माता को हृदय में विराजमान किया है "सिद्धान्तत्वार्हतचापि सम्मति हृदि धारये श्रुतदेवी मुनीन्द्र सामायिकस्य सिद्धये ॥१॥ सामायिक कब और कैसे करें? इसी का नाम सामायिक है। "सत्त्वेषु नहीं है प्रत्युत् त्रिकाल सामायिक के समय ही तीन बार देव वंदना का विधान है। प्रमाण देखिए आचारसार ग्रंथ में सामायिक आवश्यक का वर्णन करते हुए सिद्धांत चक्रवर्ती श्री वीरनन्दि आचार्यदेव तीर्थ क्षेत्र या जिनमंदिर में जाकर विधिवत् यशुद्धि और चैत्य-पंचगुरुभक्ति करने का आदेश दे रहे हैं। यथा उदाहरण के लिए एक श्लोक है - इस विषय पर पूज्य माताजी ने लिखा है साधुओं की सामायिक और देववंदना एक है। विधिवत् देववंदना करना मैत्री" आदि पाठ पढ़कर जाप्य आदि करके सामायिक करना और देवदर्शन के समय देववंदना क्रिया करना, ऐसा "समोपेतचित गः स तत्परिणताहयः प्रकृतोऽत्रायमन्यासु क्रियास्वेवं निरूपयेत् ॥२२॥" आद्यवक्तव्य में पूज्य आर्यिका श्री ने लिखा है देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया ॥” (भावसंग्रह) देवपूजा के बिना श्रावकों की सामायिक क्रिया दूर ही है और भी अनेक ग्रंथों के आधार से स्पष्ट है कि सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्तिपूर्वक विधिवत् अभिषेक पूजा करना ही श्रावकों की सामायिक है। इसी विधि को पू. माताजी ने इस सामायिक पुस्तक के अंत में पृष्ठ ९४, ९५, ९६ पर दिया है और कहा है कि श्रावकों को प्रातःकाल में तो देवपूजापूर्वक सामायिक करना चाहिए और मध्याह्न और सायंकाल में इस पुस्तक के पृ. १४ पर देववंदना (सामायिक) करना चाहिए। इसमें मंदिर में जाकर सामायिक करने में पहले दृष्टाष्टक स्तोत्र पढ़ें। पृ. ५ पर देखिए "दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि भव्यात्मनां विभवसंभवभूरिहेतु। दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलकूटकोटि-नद्धध्वजप्रकरराजिविराजमानम् ॥१ ॥ पुनः ईर्वापथ शुद्धि पृ. ७ पर जो कि आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित है, पढ़ें "निःसगोहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिः परीत्येत्य भक्त्या । स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मम् " [४३३ Jain Educationa International श्रावकों की सरलता के लिए पू. माताजी ने इसका बहुत ही सरल और स्पष्ट अक्षरों में हिन्दी पद्यानुवाद कर महान् उपकार किया है। इसका नमूना देखिए “आज पवित्र हुआ तनु मेरा नेत्र युगल भी विमल हुए। धर्मतीर्थ में मैं स्नान किया, जिनवर ! तव दर्श किए ॥६॥ इसको पढ़कर विधिवत् सामायिक करना चाहिए। दो प्रतिमा वाले श्रावकों को २ बार और तीन प्रतिमा से ग्यारह प्रतिमा वालों को और मुनि आर्यिका को तीन बार सामायिक करने का ग्रंथों में विधान है। सामायिक विधि में पू. माताजी ने आचार्यग्रंथों के अनुसार किस मुख खड़े होकर या बैठकर सामायिक शुरू करे? कब कायोत्सर्ग करें? कम आवर्त दें? कितनी बार पंचांग नमस्कार करें? कब कौन से आसन से बैठकर सामायिक करें? कौन-सी भक्ति में किस मुद्रा से पढ़ें। आदि प्रयोगात्मक रूप से लिखा है। सामायिक विधि में जो चैत्यभक्ति है, वह श्री गौतमस्वामीजी द्वारा रचित है। सौधर्म इन्द्र की प्रेरणा से ये भगवान महावीर के समवसरण में पहुँच दिगम्बर दीक्षा धारणकर भगवान के प्रथम गणधर हुए भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, जिसे सुनकर इन्होंने ग्यारह अंग चौदह पूर्वो की रचना की। "हरिणीछंद" में "चैत्यभक्ति" का एक श्लोक जयति भगवान् भोजप्रचारविजेभिता, चमरमुकुटादोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ । For Personal and Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४] वीर. ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कलुषहृदया मानोद्धान्ताः परस्परवैरिणो। विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु ॥१॥ अपने मौलिक भावों को पद्य में लिखना तो सरल है, लेकिन श्री गौतम स्वामीजी जैसे महान् गणधरों द्वारा रचित पंक्तियों को काव्य में ज्यों का त्यों रखना एक दुरूह और अतिसाहस का कार्य कर दिखाना है। “गागर में सागर" भरने की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूज्य माताजी ने "चौबोल छंद" में चैत्यभक्ति का बहुत सुंदर वर्णन किया है और इसमें "संस्कृत पंक्ति" का एक अर्थ झलक रहा है "जय हे भगवन्! चरण कमल तव, कनक कमल पर करें विहार। इन्द्रमुकुट की कांति प्रभा से, चुंबित शोभे अति सुखकार ॥ जातविरोधी कलुषमना, क्रुध मान सहित जन्तु गण भी। ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेम भाव को धरें सभी ॥१॥ श्रावकों को बिना परिश्रम के ही इसका अर्थ समझ में आ जाता है। अर्थ-हे भगवन! आप जयशील होवें। आपके चरण कमल स्वर्ण कमलों पर विहार करते हैं। इन्द्र आपको मुकुट झुकाकर नमस्कार करते हैं। पशुगण भी जाति वैर को छोड़कर आपके चरणों का आश्रय लेकर प्रेमभाव को धारण करते हैं। इसी प्रकार से ३५ श्लोकों में निबद्ध "चैत्यभक्ति" का सरल पद्यानुवाद कर पू. माताजी ने महान् उपकार किया है। सामायिक पाठ में चैत्यभक्ति के पश्चात् "पंचगुरुभक्ति" पढ़ते हैं। "पंचगुरुभक्ति" प्राकृत में आचार्य श्री कुंदकुंददेव द्वारा रचित है। जिसे पढ़कर शायद ही कोई उसका अर्थ समझ सके। लेकिन पू. माताजी ने उसका भी पद्यानुवाद कर अर्थ स्पष्ट कर दिया है, जैसे मणुयणाइंदसुरधरियछत्तत्तया पंचकल्लाणसोक्खावली पत्तया । दसणं णाण झाणं अणंतं बलं, ते जिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं ॥१॥ हिन्दी पद्यानुवाद सुरपति नरपति नागइन्द्र मिल, तीन छत्र धारें प्रभु पर । पंचमहाकल्याणक सुख के, स्वामी मंगल मय जिनवर ॥ अनन्त दर्शन ज्ञान वीर्य सुख, चार चतुष्टय के धारी। ऐसे श्री अहंत परमगुरु, हमें सदा मंगलकारी ॥१॥ चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति पढ़ने के पश्चात् अंत में समाधिभक्ति पढ़ते हैं। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित "समाधिभक्ति" है। यह सभी क्रियाओं के अंत में की जाती है। समाधि भक्ति का एक श्लोक देखिए तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनं । तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद्यावनिर्वाणसम्प्राप्तिः ॥२॥ हिन्दी पद्यानुवाद तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरण युग में। तावत् रहे जिनेश्वर यावत्. मोक्ष प्राप्ति नहिं हो जग में ॥२॥ इस प्रकार देव वंदना (सामायिक) में ईर्यापथ शुद्धि, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और समाधि भक्ति पढ़ने के पश्चात् जितनी देर चाहे, उतनी देर पिंडस्थ, पदस्थ रूपस्थ या रूपातीत ध्यान करें अथवा जाप्य करें। पृ. ४० पर पू. माताजी ने लिखा है कि सामायिक के पश्चात् गुर्वावली पढ़ें। क्योंकि जिस गुरु परम्परा में हमने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की है, उन्हें हम नमस्कार करें। यदि गुरु प्रत्यक्ष में विराजमान हो तो समीप जाकर गुरु वंदना करें, अन्यथा परोक्ष में ही लघु तीन भक्तियां पढ़कर विधिवत् गुरुवंदना करें। पृ. ४१-४२ पर गुरुवंदना कब और कैसे करें? विधिपूर्वक लिखी है। पृ० ४३ से पृ० ४८ तक प्रायोगात्मक रूप से गुरूवंदना (आचार्यक्दना) लिखी है। जिसे करके हम समुचित रूप से अपने पापों का क्षालन कर सकते हैं। इन लघु भक्तियों का भी नीचे हिन्दी पद्यानुवाद कर पृ. माताजी ने गुरुवंदना भी सरल भाषा में प्रस्तुत की है। जैसा कि पू. माताजी को प्रारंभ से ही सभी व्यावहारिक क्रियाओं में शास्त्रीय विधि प्रिय और मान्य रही है उसी में एक विधि और विशेष है पृ. ४८ पर-चतुर्दशी के दिन सामायिक विधि-इसमें पू. माताजी ने बताया है कि प्रत्येक चतुर्दशी के दिन श्रावकों को तीनों समय मामायिक में श्रुतभक्ति का भी पाठ करना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३५ पृ.६३ पर-श्रावक प्रतिक्रमण कौन-कौन करें और कब करें? इसका पूर्णरूप से दिग्दर्शन कराया गया है। श्रावक प्रतिक्रमण पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक तीनों ही प्रकार के श्रावक करें। पृ. ५४ से पृ. ९३ तक "श्रावक प्रतिक्रमण"-मूल श्री गौतम स्वामी द्वारा प्रतिपादित और उसके सामने पृ. पर चौबोल छंद, शंभुछंद आदि में पूज्य माताजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है। इसका भी एक नमूना देखिए "खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूदेसु वेर मज्झं ण केणवि ॥३॥ हिन्दी पद्यानुवादसभी जीव पर क्षमा करूँ मैं, सब मुझ पर भी क्षमा करो। सभी प्राणियों से मैत्री हो, बैर किसी से कभी न हो ॥३॥ अभी तक यह प्रतिक्रमण केवल मूल में ही था, लेकिन कतिपय व्रतिकों के आग्रह पर पू. माताजी ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है। जिसे पढ़कर श्रावक उसके अर्थ को समझकर अपने दोषों का अधिक क्षालन कर लेते हैं। इसमें ग्यारह प्रतिमाओं तक के व्रतों में लगने वाले क्षमायाचना की गई है। इसमें बताया गया है कि जो श्रावक जितनी प्रतिमा का धारी है, वहीं तक के दण्डकों को पढ़ें। जैसे सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक सात दंडकों तक पढ़ें और ग्यारह प्रतिमाधारी क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका पूरे दंडक पढ़ें। उदाहरण के लिए जैसे तीसरी प्रतिमा वाले को प्रथम दो दंडक पढ़कर फिर पृ. ७६ पर लिखे तीसरे दंडक को पढ़ना चाहिए पडिक्कमामि भंते! सामाइयपडिमाए मणदुप्पणिधाणेण वा वायदुप्पणि-वा कायदुप्पणिधाणेण वा अणादरेण वा सदि अणुवट्ठवणेण वा जो मए देवसियो अइचारो मणसा वचिया काएण कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥३॥ इसका हिन्दी पद्यानुवाद देखिए हे भगवन! प्रतिक्रमण करता तीजी सामायिक प्रतिमा में। मन दुष्परिणति वच दुष्परिणति तनुदुष्परिणति के करने में । याकिया अनादर विस्मृति करके पढ़ा पाठ सामायिक में। दिन संबंधी अतिचार किये जो मन वच काया से मैंने ॥ करवाया या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो ॥३॥ इसे पढ़ने से तीसरी प्रतिमा के धारी श्रावक के जो दोष लगते हैं, वे दूर हो जाते हैं। ११ प्रतिमाओं के दण्डक पढ़ने के पश्चात् मुनिव्रत धारण करने की भावना भाई गई है। पृ. ८० पर इच्छामि भंते! इमं णिग्गथं पावयणं अनुत्तरं केवलियं....। हे भगवन्! इच्छा करता हूँ, ऐसे निर्ग्रन्थरूप की ही। जिन आगम कथित अनुत्तर यह केवलि संबंधी पूर्ण यही ॥ रत्नत्रमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक है। संशुद्ध शल्ययुतजन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है ॥१॥ पुनः वीरभक्तिः (पृ. ८४), चतुर्विंशतितीर्थकर भक्तिः (पृ.८८) पर पढ़कर समाधिभक्तिः (पृ. ९२) पर पढ़ी जाती है। इस पुस्तक के अंत में पृ. ९४ से ९५ तक श्रावकों की "पूजामुखविधि" और "पूजा अन्त्य विधि" का शास्त्रोक्त वर्णन किया है। जो व्रती या अव्रती श्रावक इस विधि को कर पूजा करते हैं, उनकी प्रातःकालीन सामायिक विधि पूरी हो जाती है। ऐसा श्री पूज्यपाद आदि आचार्यों का उपदेश है। विधि तो सभी लोग कुछ न कुछ करते हैं लेकिन पू. माताजी का कहना है कि शास्त्रोक्त विधि करने से उससे प्राप्त पुण्य में महान् अंतर पड़ जाता है। इस पूजामुख और पूजाअन्त्य विधि में भी माताजी ने “वसंततिलका" आदि छंद में अनुवाद कर सरल भाषा में कर दिया है। जैसेसंसार के भ्रमण से अति दूर है जो। ऐसे जिनेंद्र पद में नित ही नमूं मैं॥ सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को। व, सदा सकल कर्म विनाश हेतु ॥१॥ इस प्रकार से पू. माताजी ने सभी बालक, युवा, वृद्ध, विद्वान्, व्रती अव्रती श्रावकों के लिए उपयोगी पुस्तकें लिखकर संस्कृत, प्राकृत भाषा का हिन्दी में पद्यानुवाद कर सभी को सरलता से समझ लेने का भी एक कीर्तिमान स्थापित किया है। पूज्य माताजी अपनी सतत चल रही लेखनी से अपनी अमृतमयी वाणी से अनेकों जीवों का कल्याण करती हुई मोक्षमार्ग में अग्रसर है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य माताजी द्वारा संकलित और अनुवादित इस "सामायिक एवं श्रावक प्रतिक्रमण" का अध्ययन कर हम और आप सभी सच्चे श्रावक बनकर अपना आत्मकल्याण करें। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ मैं पूज्य माताजी के चरणकमलों में कोटिशः नमन करती हूँ। जम्बूद्वीप समीक्षक-जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर (उदयपुर) प्रस्तुत पुस्तक ८-१/२" x ५-१/२" साइज की तथा ८० पृष्ठ प्रमाण प्राक्कथन प्रस्तावना सहित है, जो आर्यिका १०५ पू. ज्ञानमतीजी द्वारा प्रणीत है। इसमें जंबूद्वीप का वर्णन है। यह भौगोलिक वर्णन आज के लौकिक LMS DVIP AND HASTINAPUR भूगोल से अत्यन्त भिन्नता रखता है। जम्बूद्वीप हमारा जैन भूगोल काल्पनिक नहीं, बल्कि ठोस सत्य है। क्योंकि सांसारिक ज्ञान की सीमाएं हैं और आध्यात्मिक अथवा आत्मज्ञ-प्रणीत ज्ञान असीम होता है। समीक्ष्य पुस्तक "जंबूद्वीप" में जंबूद्वीप तथा पृथ्वी को चपटी, गोल तथा अभ्रमणशील साधा है। यही बात यथा-लेखनी-यथाप्रणयन, माताजी की अमर कृति जंबूद्वीप (ऐतिहासिक रचना, हस्तिनापुर) से भी प्रत्यक्षतः स्पष्ट होती रहती है। जागतिक वैज्ञानिकों का ज्ञान तो अस्थिर होता है। कुछ समय पूर्व भूगोल-वेत्ता पृथ्वी को गतिमान मानकर भी सूर्य को स्थिर मानते थे। किन्तु अब विकसित विज्ञान के अनुसार सूर्य की गति २०० मील प्रति सैकंड सिद्ध की गई है। पहले प्रकाश सीधी रेखाओं में चलता था। विज्ञान अब उसे ही वक्रगतिशील भी मानने लगा है। जगदीश चन्द्र वसु के पूर्व वनस्पति को निर्जीव तथा इसके बाद वनस्पति को सजीव माना जाने लगा है। विज्ञान स्वयं कहता है कि हम जो कुछ तथ्य खोज निकालते हैं, उसे हम स्वयं भी अंतिम सत्य नहीं मानते। १५०० ई.पू. मिस्रवासी पृथ्वी को चपटी मानते थे। पाइथोगोरस (५८२-५०७ ई.पू.) ने पृथ्वी को गोल माना। आटिस्टोरस ने (३०० ई.पू.) सर्वप्रथम पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर भ्रमणशील कहा। पर टॉलेमी, अरस्तु आदि पृथ्वी को स्थिर मानते थे। परन्तु गैलिलियो (इटली, १५६४-१६४२), न्यूटन, आइंस्टीन जर्मनी (१८७९-१८५५) आदि ने पृथ्वी को गतिमान माना। इस तरह विज्ञान में तो अनेक मतभेद हैं। एक वैज्ञानिक का चिरकाल साध्य परिणाम भी सुनिए-एडगल ने ५० वर्ष तक लगातार चेष्टा की। उसने रात्रि के समय आकाश की परीक्षा के लिए कभी बिछौने पर न सोकर कुर्सी पर ही रातें बिताई। उसने अपने बगीचे में एक ऐसा लोहे का नल गाढ़ा, जो कि ध्रुव तारे की तरफ उन्मुख था और उसके भीतर से देखा जा सकता था। इस उत्साही निरीक्षक ने आखिर इस सिद्धान्त का अन्वेषण किया, "पृथ्वी थाली के आकार की चपटी है, जिसके चारों तरफ सूर्य उत्तर से दक्षिण की तरफ घूमता है। सत्य भी यही है कि पृथ्वी चपटी है तथा अभ्रमणशील है, जिसे महाविदुषी लेखिका ने इस पुस्तक द्वारा साबित-प्रमाणित किया है। माताजी ने सिद्ध किया है कि पृथ्वी जंबूद्वीप की अपेक्षा थाली के समान और भरत क्षेत्र की अपेक्षा अर्द्धचन्द्र जैसी है। पूज्य ज्ञानमतीजी (सन् १९३४ में जन्म, वि.सं. २०९३ में आर्यिका दीक्षा, भारत में सर्व-प्राचीन आर्यिका, स्व. जैन तिलक मक्खनलालजी शास्त्री मोरेना के शब्दों में श्रुतकेवली-कल्प, अष्टसहस्री सदृश क्लिष्टतम महाकाय ग्रंथ की अनुवादिका तथा इतर लघु-महत् १०० पुस्तकों की प्रणेत्री, भारत ख्यात तथा सर्वश्रेष्ठ न्यायग्रंथ विज्ञा) ने प्रकृत ग्रंथ में जम्बूद्वीप का मुख्यतया वर्णन किया है। जिसे चपटा गोल तथा १ लाख योजन व्यास वाला बताया है। आपने इस लघु पुस्तिका की रचना में तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, महापुराण, राजवार्तिक व लोकविभाग नामक ग्रंथों का सहारा लिया है। इसमें जंबूद्वीप के ७ क्षेत्र, ६ पर्वत, ६ सरोवर, १४ नदियों, सुमेरु आदि कुल ३११ पर्वत सम्पूर्ण १७९२०९० नदियों, ३४ कर्मभूमि, ६ भोगभूमि, जंबूवृक्ष, आर्य-म्लेच्छ खण्ड तथा विविध कूटों का वर्णन अत्यन्त सहज, प्रामाणिक, सरल, आबालगम्य तथा सर्वत्र योजन के मील परिवर्तनपरक वर्णन किया है। इससे यह पुस्तक परमार्थतः जंबूद्वीप का एक तरह से साकल्येन वर्णन करने वाली पुस्तक बन पड़ी है। फिर आपके उपदेशात्मक मार्ग दर्शन से भौतिक मॉडल भी, जंबूद्वीप का हस्तिनापुर में बना है। तब फिर ऐसे अनुभव वाले पुरुष द्वारा तद्विषयक रची गई पुस्तक में किसी सैद्धान्तिक दोष होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अंत में लवणसमुद्र का संक्षिप्त व रोचक वर्णन किया है। लवणसमुद्र संबंधी सूर्य, चन्द्रमा आदि तो जल में घूमते हैं। (रा.वा.) रावण की लंका भी लवणसमुद्र में थी (प.पु.) । किनरियों के नृत्य के कारण इस समुद्र के जल में वृद्धि होती है (रा.वा.), आदि रोचक व संक्षिप्त वर्णनों के बाद ४ १ तीर्थकर अगस्त ८२ पृ. ६७ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३७ बेस प्रमाणों द्वारा आपने भू-भ्रमण का खंडन किया है तथा वैज्ञानिक (चार्वाक) सम्मत पृथ्वी में आकर्षण शक्ति के हेतुत्व का खंडन बड़ी बखूबी के साथ किया है और अंत में चार्ट से विविध गणितीय मान दिग्दर्शित किए हैं। तथैव अंतमंगल "जंबूद्वीपस्तुति" नाम से किया है। प्रस्तुत ग्रंथ की विशेषताएं: १. आपने वर्तमान रैखिक भाव से आगमिक माप की तुलना करके स्थूलतः साम्य की सिद्धि की है। (देखिए पृ. ९) २. आज के अनुसंधानप्रिय विद्वानों को आज के बाल की मोटाई के हिसाब से आगे के अंगुल, पाद, हाथ आदि बनाकर योजन के हिसाब को समझने के लिए आगाह किया है। (देखिए पृ. ९) । ३. प्रायः हर एक स्थल (जंबूवृक्ष हो कांचन गिरि, कूट हो या पर्वत, नदी हो या पाताल) चित्र बनाकर समझाया है, जो आपके अपार श्रम का सूचक है-विद्वान्नेव विजानाति विद्वज्जपरिश्रमम् । न हि वंध्या विजानाति पुत्रप्रसववेदनाम्॥ ४. "आज का सारा विश्व आर्य खंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं। अयोध्या से दक्षिण की ओर ४७६०० मील जाने पर लवण समुद्र आता है।" इत्यादि वर्तमान बसे स्थलों का आगमानुसारी स्थलों से परिचय-संबंध बताया है। (देखिए पृ. ५३ आदि) ५. सम्पूर्ण जंबूद्वीप की इतने छोटे में सचित्र किसी ने भी इससे पूर्व प्रस्तुति नहीं की। जंबूद्वीप समीक्षक-डॉ. अनुपम जैन, अध्यक्ष गणित विभाग, शासकीय महाविद्यालय, सारंगपुर परम्परित एवं प्रामाणिक कृति वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन धर्म ग्रंथों के उल्लेखों एवं सभ्यता के प्रारंभिक युग के अवशेषों से यह स्पष्टतः LAMBO CHIP AND HASTINAPUR प्रमाणित हो चुका है कि जैन धर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इस प्राचीन धर्म के विशाल वाङ्मय, द्वादशांग जम्बूद्वीप वाणी के दृष्टिवाद अंग के अंतर्गत परिकर्म एवं "पूर्व साहित्य" में लोक के स्वरूप एवं विस्तार की व्यापक रूप से चर्चा है। 'करणानुयोग' संस्थान विचय नामक धर्मध्यान का प्रमुख अंग होने के कारण जैनाचार्यों ने इसे अपने अध्ययन में प्रमुख स्थान दिया। वस्तुतः कर्मों की क्रमिक निर्जरा के उपरांत आत्मा की स्थिति, सिद्ध परमेष्ठियों के वर्तमान निवास स्थान, बीच तीर्थंकरों के समवशरणों की स्थिति एवं तीर्थंकरों की जन्मकालीन घटनाओं को समीचीन रूप से हृदयंगम करने हेतु लोक संरचना का ज्ञान अपरिहार्य रूप से आवश्यक है। काल परिवर्तन के साथ ही जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत एतद् विषयक ग्रंथों की भाषा एवं शैली में तो परिवर्तन हुआ है। तथापि ग्रंथों की विषयवस्तु एवं विचारों की एकरूपता इतर समाजों द्वारा अपने विचारों में अनेकशः परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण रही है। लोक के स्वरूप एवं विस्तार के अध्ययन की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी आ. पूज्यपाद, आचार्य अकलंक एवं आचार्य विद्यानंद कृत टीकायें, लोक विभाग, तिलोयपण्णति, जंबूद्वीप पण्णतिसंग्रहों, तिलोयसार आदि दिगंबर परम्परा के ग्रंथ विशेष रूप से पठनीय हैं। जम्बूद्वीप लोक का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसके बिना मध्यलोक का अध्ययन असंभव है। इस आवश्यकता का अनुभव कर जन सामान्य एवं प्रबुद्ध शोधकों की सुविधा हेतु वर्तमान सदी की सर्वप्रमुख, परमविदुषी, बहुश्रुत आर्यिका, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने उपर्युक्त ग्रंथों का आडोलन विडोलन कर जम्बूद्वीप विषयक विवेचनों का संकलन किया है। समीक्ष्य कृति, जम्बूद्वीप में इन विवेचनों को सरल, सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण भाषा में प्रामाणिक रूप में संकलित किया गया है। ५६ पृष्ठों में जम्बूद्वीप के छह कुलाचलों, छह सरोवरों, सात क्षेत्रों के विस्तृत विवेचन के उपरांत षट्काल परिवर्तन तथा लवण समुद्र का भी परिचय दिया गया है। एक स्वतंत्र शीर्षक के अंतर्गत भूभ्रमण की वर्तमान मान्यता का तार्किक आधार पर खंडन किया । वस्तुतः इस शीर्षक में शंका समाधान की प्राचीन शैली में संकलित विचार पं. माणिकचन्द्रजी, न्यायाचार्य द्वारा लिखित तत्वार्थ श्लोक वार्तिक की टीका में भी उपलब्ध है। सम्प्रति यह विषय आधुनिक वैज्ञानिकों के मध्य पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुका है। इसका कारण स्पष्ट है कि पृथ्वी के संदर्भ में वैज्ञानिकों के मंतव्य प्रारंभ से परिवर्तनशील रहे हैं। पाइथागोरस (छठी श.ई.पू.) ने पृथ्वी को गोल माना तो अरिस्टोरस (तीसरी श.ई.पू.) ने भ्रमणशील एवं सूर्य के चतुर्दिक चलने वाली, टालेमी एवं अरस्तु ने स्थिर तो गैलीलियो ने भ्रमणशील। गैलीलियो की मान्यता का ईसाई पादरियों द्वारा घोर विरोध हुआ था। आज भी वैज्ञानिक समुदाय में कई ऐसे विद्वान् हैं, जो Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इसके भ्रमणशील होने पर शंकित हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक के अंत में ९ पृष्ठों में ४ विस्तृत चार्ट दिये हैं, जिनका निर्माण प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध जंबूद्वीप की नदियाँ, सरोवरों, पर्वतों, क्षेत्रों के विवेचनों के गणितीय रूपांतरण से किया गया है। गणितीय आधार पर इन चार्टों की शुद्धता लेखिका की विषय में गहन अभिरुचि, लगन, गणितीय क्षमता एवं दक्षता को अभिव्यक्त करती है। ग्रंथ के आरंभ में लेखिका द्वारा लिखा गया आद्यमिताक्षर, जंबूद्वीप स्तुति भी पठनीय है। प्राचीन भारतीय भूगोल की अद्यावधि प्रकाशित पुस्तकों में जैन भूगोल को अपेक्षित महत्त्व न प्राप्त हो सका है। फलतः जैन भूगोल का ज्ञान प्रदान करने वाली किसी प्रामाणिक पुस्तक का लगभग अभाव था। लेखिका की ही एक अन्य पूर्व प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक भास्कर को अपवादस्वरूप माना जा सकता है। जैन धर्म की मूल, दिगम्बर परम्परा में दीक्षित लेखिका की इस कृति का विवेचन परम्परित, किन्तु प्रामाणिक है। इस लघु पुस्तिका में माताजी ने गागर में सागर भर दिया है। विद्वानों की ओर से इस कृति सृजन हेतु लेखिका एवं आकर्षक मुद्रण हेतु मुद्रक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। त्रिलोक भास्कर समीक्षक-प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन, निदेशक-आचार्य श्री विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपुर [म.प्र.] अभूतपूर्व, अमर एवं आधाभूत प्रयासउक्त ग्रंथ वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का तृतीय पुष्प है, जो हिन्दी में त्रिलोक विषयक प्रायः समस्त करणानुयोग ज्ञान सामग्री को दिगम्बर जैन परम्परानुसार द्वारा सरल भाषा में लोकप्रिय विवेचन द्वारा दिया गया है। जैसा इस ग्रंथ का नाम है तदनुसार यह मौलिक कृति जो आगम ग्रंथों का आधार लेकर रची गई है। प्रारम्भ में श्री सुमेर चन्द्र जैन द्वारा "त्रिलोक भास्कर-एक अध्ययन" भूमिका रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें दृष्टिवाद के परिकर्मादि का वर्णन देते हुए लोकविषयक विभिन्न धर्मों में प्रचलित मान्यताएं बतलाई गई हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में जैन आगम की लोक विषयक मान्यताओं का विशद विवरण देते हुए समन्वय प्रस्तुत किया गया है। अगले पृष्ठ में ब्र. मोतीचंद्र जैन (पू.क्षु, मोतीसागर) द्वारा प्राक्कथन दिया गया है जिसमें महायोजन, कोस, योजन, गज, मील आदि इकाइयों के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हुए योजन का परिष्कृत बोध कराया गया है। योजन का मान अनेक विद्वानों ने अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है और यह सुनिश्चित है कि तीन प्रकार के अंगुलों पर आधारित योजन के प्रमाण लोक, गणित, ज्योतिष तथा गणित भूगोल के अनुसार अलग-अलग होते हैं। योजन का आधार विभिन्न योजनाएं प्रतीत होती हैं। आगे पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी का जीवन परिचय एवं कृतित्व दिया गया है। तत्पश्चात् उन्हीं के द्वारा रचित त्रैलोक्य चैत्य वंदना पद्य में दी गयी है, जिसमें तीनों भुवन के जिनभवनों आदि की समस्त विराजित प्रतिमाओं की वंदना दी गयी है। प्रारम्भ सामान्य लोक में वर्णन से है जिसमें लोक के तीन विभाग, त्रसनाली, विभिन्न अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक संबंधी रचनाएं वातवलय आदि के माप, लंबाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल और मान फल रूप में दिये गये हैं। कोस, योजन, अंगुल, पल्य, सागर आदि के प्रमाणों को निकालने की विधियाँ दी गयी हैं। तत्पश्चात् अधोलोक का वर्णन प्रारम्भ होता है, जिसमें पृथ्वियों के नाम, मोटाई, नरक बिल, बिलों के प्रकार, संख्या, विस्तार, प्रमाण अन्तराल पटलान्तर आदि का विशद वर्णन है। नरक में उत्पत्ति दुःख सम्यक्त्व के कारण, शरीर अवगाहना, लेश्या, आयु आदि का विवरण है। इसके बाद अगले परिच्छेद में भवनवासी देवों का विवरण है। जिसमें उनके स्थान, भेद, चिह्न, भवन संख्या, इंद्र भवन, जिनमन्दिर, परिवार देव, पारिषद देव, आहार उच्छ्वास, इन्द्र वैभव, आयु अवगाहना, ज्ञान, विक्रिया आदि का चार्ट सहित वर्णन है। इसी प्रकार का विवरण व्यन्तरवासी देव सम्बन्धी है। मध्यलोक के विवरण में जंबूद्वीप, भरतक्षेत्र, हिमवन पर्वत, गंगादि नदी, सरोवर, कूट, सुमेरुपर्वत, पांडुक शिला, वन, चैत्यवृक्ष, मानस्तम्भ, सौमनस भवन, नन्दनवन, हरित एवं सीतादा नदियों का वर्णन है। कुरु, वृक्ष, विदेह, पर्वत, नदी, द्वीप आर्यखण्ड, आदि का संख्यामानादि सहित एवं चित्रोंसहित वर्णन है। पुनः विभिन्न षट्कालों में होने वाले परिवर्तनों का भी विवरण दिया गया है। तत्पश्चात् जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र, बत्तीस विदेह, चौंतीस कर्मभूमि आदि का विवरण है। लवणसमुद्र, पाताल, धातकी खंड द्वीप एवं पुष्कर द्वीप, उनके विभिन्न क्षेत्र, पर्वतविस्तार आदि का विवरण दिया गया है। मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्यों का अस्तित्व, सम्यक्त्व के कारण आदि दिये गये हैं। पुनः Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४३९ नन्दीश्वर द्वीप का सुचारू वर्णन देते हुए अंजनगिरि, बावड़ी आदि की सुन्दर रचनाओं का विवरण है। यहाँ तक ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र संख्या, परिवार, गलियाँ तारा आदि का संख्या सहित पूर्ण विवरण दिया गया है। इसके बाद ऊर्ध्वलोक परिच्छेद में वैमानिक शीर्षक से कल्प के १२ भेद कल्पातीत देवों के भेद, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर, विमान संख्या, इंद्रक प्रस्तार , विमानों के नाम, संख्या, इंद्रों के चिह्न, उनके नगरों आदि का विवरण है। देवों के विशद विवरण में उनकी आयु, जन्म सुख, आहार, उच्छ्वास, प्रवीचार, लेश्या, अवधिज्ञान, विक्रियाशक्ति, परिवार, इंद्र की महादेवियां, वल्लभिका, सम्यक्त्व के कारण, गमन, शक्ति आदि का वर्णन दिया गया है। तत्पश्चात्, ऊर्ध्वलोक के चैत्यालय, सिद्ध शिला, सिद्धलोकादि के विवरण से ग्रंथ समाप्त होता है। अंत में अनेक सारणियों एवं चार्टी द्वारा संक्षेप में विविध वर्णन है। ___इस प्रकार जिनागम प्रणीत तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, लोकविभाग जम्बूद्वीप पण्णति संगहों आदि करणानुयोग विषयक ग्रंथ एवं सामग्री को सुचारू एवं अत्यंत सुस्पष्ट रूप से रचितकर यह सर्व गुणसम्पन्न कृति बनाई गयी है। इसे समस्त विषय विषयक संख्याएं विविध प्रकार के प्रमाणों का विभिन्न इकाइयों में निरूपण करती हैं। सभी वर्णन प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। सामान्य गृहस्थों के अध्ययन के लिए यह नितान्त आवश्यक तो है ही, साथ ही विद्वद्वर्ग द्वारा भी इससे लाभ लिया जा सकता है। विधानादि के लिए नक्शे सर्वांगपूर्ण सुन्दर एवं स्पष्ट बनाये गये हैं। चार्ट, चित्र, सारणी, भौगोलिक, ज्योतिष्क एवं लोक सम्बन्धी विभिन्न नक्शों तथा संख्याओं द्वारा इस ग्रंथ की उपयोगिता अतुलनीय हो गयी है। इसी प्रकार करणानुयोग विषयक शेष सभी जिनागम की सारभूत सामग्री संक्षिप्त एवं संख्यासहित वर्णन को प्राप्त हुई है जो सुरुचिकर हो गयी है। इस प्रकार पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी ने इस ग्रंथ की रचनाकर करणानुयोग के सागर को गागर में भर दिया है। विश्व के इतिहास में वे ही प्रथम महिला हैं जिन्होंने करणानुयोग जैसे अमूर्त विषय को न केवल इस ग्रंथ द्वारा वरन्, साक्षात् जम्बूद्वीप की अप्रतिम रचना हस्तिनापुर में कराने की प्रेरणा देकर जैन गणित के लोकोत्तर दृश्य को स्वप्र से जाग्रत अवस्था में ला दिया है। गणित की रुक्षता में जो स्निग्धता आज आई दिखाई दे रही है और दूसरों के द्वारा अनुकरणीय बनती जा रही है वह पूज्य माताजी का ही अगम्य भूमि पर अद्वितीय प्रयास रूप बना है। गणित की निष्पक्षता, दुरूहता, सर्वतोभद्रमयी उपयोगिता को उनकी अभिरुचि ने कृतकृत्य कर दिया है। उनका यह प्रयास सर्वोत्तम, सर्वग्राह्य एवं सर्वप्रिय है, साथ ही वह अभूतपूर्व अमर एवं आधारभूत है। हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं। उन्होंने ऐसे ही अन्य विलक्षण कृतियों की भी रचनाकर समाज एवं विद्वद्वर्ग को चिर कृतज्ञ बना दिया है। विदेह क्षेत्र के अंतर्गत उत्तर कुरु क्षेत्र में जम्बूवृक्ष एवं देव कुरु क्षेत्र में शाल्मलि वृक्ष हैं। जो कि विभिन्न रत्नों द्वारा निर्मित हैं। वायु के झोंकों द्वारा इनमें से सुगंधित वायु निकलती रहती है। हमारा वर्तमान विश्व भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में ही स्थित है। इस प्रकार भरत क्षेत्र का आर्य खण्ड ही हमें दृष्टिगोचर होता है, किन्तु ५ म्लेच्छ खण्डों के बारे में हमारी जानकारी कुछ भी नहीं है। उसी प्रकार जम्बूद्वीप के अन्य क्षेत्र भी हमें इस विश्व में नहीं दिखते हैं। अतएव अधिकांश व्यक्ति इस जानकारी पर संदेह करने लगते हैं। समाज के विद्वतजनों से अपेक्षा है कि इस विषय पर शोध करें और जैन भूगोल को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करें। हस्तिनापुर गाइड के दूसरे भाग में प्राचीन हस्तिनापुर का वर्णन है। हस्तिनापुर के इतिहास पुरुषों में राजा सोमप्रभ के लघु भ्राता श्रेयांस कुमार का वर्णन है। इन्होंने प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को इक्षुरस का आहार हस्तिनापुर में ही दिया था। चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार, १६, १७ एवं १८वें तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ के प्रथम चार कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। ये तीनों तीर्थंकर क्रमशः ५, ६ एवं ७वें चक्रवर्ती एवं कामदेव भी थे। आठवें एवं नवें चक्रवर्ती सुभौम एवं महापद्म की जन्मस्थली का श्रेय भी इसी हस्तिनापुर नगरी को है। २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय क्षत्रिय राजा पांडव एवं कौरवों की राजधानी भी हस्तिनापुर ही थी और महाभारत युद्ध करने का अंतिम निर्णय इसी धरा पर हुआ था। वर्तमान हस्तिनापुर में प्रमुख जैन मंदिर में मूलनायक प्रतिमा भगवान् शांतिनाथ की है जो कि एक टीले की खुदाई से प्राप्त हुई थी। अब इस टीले पर श्वेतांबर समाज ने मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण किया है। इससे कुछ ही दूरी पर आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से त्रिलोक शोध संस्थान ने ८४ फीट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण किया है। जिसमें भद्रसाल, नंदन, सौमनस एवं पांडुक वन दर्शाये गये हैं। पांडुक वन के चारों दिशाओं में चार अर्धचंद्राकार शिलाएँ स्थापित की गई हैं। ऊपर तक पहुँचने का रास्ता अंदर से सीढ़ियों द्वारा तय किया जाता है। यह सुमेरु पर्वत जम्बूद्वीप के केन्द्र पर विदेह क्षेत्र में स्थित है। जम्बूद्वीप के सभी खंड, पर्वत एवं प्रमुख नदियों को दर्शाया गया है। इसके चारों ओर लवण समुद्र भी बनाया गया है। विदेह क्षेत्र में जम्बूवृक्ष एवं शाल्मलि वृक्षों का भी निर्माण किया गया है। यह वास्तव में एक अनूठी, अनुपम एवं अद्वितीय रचना है । सन् १९८५ में यह बनकर पूर्ण हो गया था। इस रचना से जम्बूद्वीप की रचना आसानी से समझी जा सकती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला जम्बूद्वीप गाइड समीक्षक-डा. रमेश चन्द्र जैन, उज्जैन DONARASINORINE प्रस्तुत पुस्तक वीर ज्ञानोदय अर्थमाला का पुष्प नं. ५५ है। कुल २५ पृष्ठों की पुस्तक वास्तव में गागर में सागर है। परम पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी एक महान् विदुषी लेखिका हैं। जिनकी १२५ से अधिक रचनाएँ अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं और ५० से अधिक रचनाएँ प्रकाशन की ओर हैं। वर्तमान समय में ज्ञानमती माताजी ही एक ऐसी आर्यिका हैं जिन्होंने जैन दर्शन एवं धर्म के विभिन्न अंगों पर अधिकारपूर्वक लगभग २०० ग्रन्थ रचकर समाज को दिए हैं। प्रस्तुत रचना की सामग्री तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीप पण्णत्ति आदि अनेक ग्रन्थों से ली गई हैं। जम्बूद्वीप गाइड में जैन भूगोल के अनुसार जम्बूद्वीप का विस्तार, प्रमुख पर्वत, क्षेत्र, नदियों एवं जिनमंदिरों का वर्णन है। जैन भूगोल के अनुसार लोक तीन हैं। जिनके नाम क्रमशः ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं अधोलोक हैं जिसमें मध्यलोक का विस्तार दोनों लोकों की अपेक्षा से कम है। तीनलोक संबंधी अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजन पर्वो पर की जाती है। इस मध्यलोक में ३२ द्वीप और ३२ समुद्र हैं। जिसमें प्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और थाली के समान गोल है। इसके चारों ओर लवण समुद्र है। इसके केन्द्र में ९९००० योजन विस्तार वाला विशाल सुमेरू पर्वत है। छह प्रमुख पर्वतों के कारण (हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि एवं शिखरी) यह द्वीप सात प्रमुख खण्डों (भरत, हेमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् एवं ऐरावत क्षेत्र) में विभाजित हैं। भरत क्षेत्र का विस्तार ५२६.३२ योजन है और इससे दूने विस्तार वाला पर्वत हिमवान है। इससे दूना हेमवत् क्षेत्र है और ऐसे विदेह क्षेत्र तक दूना विस्तार है। तत्पश्चात् आधा-आधा हो गया है। अंतिम क्षेत्र ऐरावत का विस्तार ५२६.३२ योजन है। इन सातों क्षेत्रों में अनेक नदियाँ एवं पर्वत हैं जिनमें से दो प्रमुख नदियाँ पूर्व एवं पश्चिम के लवण समुद्रों में गिरती हैं। विशेष जानकारी निम्न तालिका से प्राप्त की जा सकती है। क्षेत्र क्रमांक क्षेत्र का नाम खण्डों की संख्या दो प्रमख नदियों के नाम काल । भरत गंगा एवं सिन्धु षट्काल १ आर्य खण्ड ५म्लेच्छ खण्ड सम्पूर्ण हेमवत् हरि सम्पूर्ण रोहित एवं रोहितास्या. हरित एवं हरिकांता सीता एवं सीतोदा तीसरा दूसरा चतुर्थ विदेह ३२ आर्य खंड १६० म्लेच्छ खंड संपूर्ण रम्यक हैरण्यवत् ऐरावत संपूर्ण १ आर्य खण्ड ५म्लेच्छ खण्ड नारी एवं नरकांता स्वर्णकूला एवं रूप्यकूला रक्ता एवं रक्तोदा दूसरा तीसरा षट्काल इस द्वीप में तीर्थंकरों की जन्म स्थली भरत. विदेह एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में ही हैं। भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में तीसरे काल के अंत में और चतुर्थ काल तक २४ तीर्थकर जन्म लेते हैं, जबकि विदेह क्षेत्र में २० तीर्थंकर हमेशा विद्यमान रहते हैं। विदेह क्षेत्र के विद्यमान २० तीर्थंकर से सम्बंधित नित्य पूजा प्रत्यक मंदिर में होती है। ऐरावत क्षेत्र के भूत, वर्तमान एवं भविष्य के तीर्थंकरों की जानकारी अनुपलब्ध है। समेरू पर्वत विदेह क्षेत्र में स्थित है और तल पर भद्रसाल नाम का वन है। इससे ५०० योजन ऊपर जाने पर नन्दन वन है और ६२५०० योजन ऊपर की ओर सौमनस वन है। पुनः ३६००० योजन ऊपर पांइक वन है। प्रत्येक वन में अनेक चैत्यालय हैं जिनका वर्णन पंचमरू संबंधी पूजन में आता है। पांइक वन में चार दिशाओं में चार अर्द्ध चन्द्राकार शिलाएं हैं। विशेष जानकारी निम्न तालिका से प्राप्त की जा सकती है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ४ि४१ विवरण क्रमांक दिशाएं ईशान आग्नेय नैऋत्य वायव्य शिलाएं पांडुक शिला पांडुक कंबला रक्ता रक्ता कंबला भरत क्षेत्र के २४ तीर्थंकर के जन्माभिषेक का स्थान । पश्चिम विदेह क्षेत्र के दस तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान पूर्व विदेह क्षेत्र के दस तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान । ऐरावत क्षेत्र के २४ तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का स्थान। "न्यायसार" समीक्षक- डॉ० दरबारीलाल कोठिया, बीना, सागर "यह ग्रन्थ न्याय की कुंजी है" न्याय-विद्या- अन्य विद्याओं की तरह न्याय-विद्या भी एक विद्या है। इसे हेतुविद्या, हेतुवाद, आनवीक्षिकी, तर्कशास्त्र और न्यायशास्त्र भी कहा गया है। आचार्य माणिक्यनंदि ने तो इस विद्या को “परीक्षा-मुख" तत्त्व और अतत्त्व को जानने वाला प्रवेशद्वार कहा है। बौद्ध-विद्वान् दिङ्नाग ने भी "न्यायमुख" कहकर उसका महत्त्व प्रकट किया है। लघु अनन्तवीर्य परीक्षामुख की व्याख्या प्रमेयरत्नमाला का आरम्भ करते न्यायसार हुए उसे "न्यायविद्यामृत' बतलाते हैं। तात्पर्य यह है कि न्याय-विद्या वह विद्या है जिसके द्वारा पदार्थों का निर्णय किया जाता है। यही कारण है कि आचार्य गृद्धपिच्छ ने प्रमाण और नय इन दो को न्याय कहा है, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का निश्चय किया जाता है। न्याय-सार-उसी दिशा में प्रस्तुत "न्यायसार" की रचना की गई है। न्याय और न्याय-विद्या से सम्बन्धित मार्थिवाजावानी उसके सभी उपकरणों का इसमें वन्दनीय गणिनी आर्यिका माता ज्ञानमतीजी ने विवेचन किया है। प्रमाण क्या है, उसके भेद कितने और कौन से हैं? उनका क्या स्वरूप है? प्रमाण का विषय क्या है? और वह कैसा है? क्या सामान्यरूप है? क्या विशेष रूप है? अथवा निरपेक्ष उभयरूप है? चूंकि प्रमेय अनेकान्तरूप हैं, इसलिए प्रमाण एकान्त को विषय न करके अनेकान्त को विषय करता है। भले ही ज्ञाता अन्य को गौण करके विवक्षित एक को जीने या वक्ता अन्य सबको गौण करके किसी एक विवक्षित को कहे। पर वस्तु का स्वरूप अनेकान्त रहेगा- जानने या कहने में गौण हए वे सभी धर्म उसमें विद्यमान रहेंगे-उसके अनेकान्त स्वरूप का कभी विघटन नहीं होगा। अनुमान प्रमाण का विशाल परिवार है। इन सबका इसमें बड़ी सरलता से प्रतिपादन किया गया है। इतर दर्शनों में अभिमत प्रमाण के स्वरूपों की भी मीमांसा इसमें समाहित है। इसकी एक अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वह यह है कि संक्षेप में चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसा, वेदान्तदर्शनों की मान्यताओं को देकर जैन दर्शन को भी प्रस्तुत किया है। सब मिलाकर पुस्तक प्रमाण सामान्य समीक्षा इन चार प्रकरणों (परिच्छेदों) में समाप्त हुई है। न्यायशास्त्र में प्रवेशेच्छुक छात्र, छात्राओं और सामान्यजनों के लिए निश्चय ही उपादेय है। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ के सृजन में न्यायदीपिका, परीक्षामुख, प्रमेय रत्नमाला आदि ग्रन्थों के मूल सूत्रों को ग्रहण कर उनका सार प्रस्तुत किया है वस्तुतः इस ग्रंथ में इन समस्त ग्रन्थों का मंथन कर अमृत रूप विषय संकलित है। यह माताजी का स्तुत्य प्रयत्न है, जो उन्होंने न्याय जैसे दुष्कर एवं रूक्ष विषय को सुबोध एवं सहजगम्य बना दिया है। १. ल.सू. १-६ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] कल्पद्रुम विधान गणिनी आर्यिका ज्ञानमती कल्पद्रुम विधान वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला - एक अलौकिक महाकाव्य Jain Educationa International समीक्षिका आर्थिका चन्दनामती -- कल्पना मात्र से ही इच्छित फल को प्रदान करने वाला कल्पद्रुम- कल्पवृक्ष कहलाता है। लोक में यह प्रसिद्धि है कि चिन्तामणिरत्न चिन्तित वस्तु को प्रदान करता है और कल्पवृक्ष के पास याचना करने पर मनवाञ्छित वस्तु की प्राप्ति होती है। वर्तमान युग में न तो चिन्तामणि रत्न ही प्राप्य है और न कल्पवृक्ष ही उपलब्ध हैं तो " कल्पद्रुम नामका विधान कहाँ से आया?” इस विषय पर सहज की प्रश्न उठता है । किन्तु आगम के अवलोकन से ज्ञात होता है कि कल्पवृक्ष तो याचना करने पर इच्छित फल प्रदान करता है, चिन्तामणि रत्न भी चिन्तन मात्र से ही कुछ देता है, लेकिन जिनेन्द्र भगवान् की पूजा भक्ति वह अद्वितीय कल्पवृक्ष है जो बिना मांगे ही कल्पनातीत फल को प्रदान करने वाली है। उसी जिनेन्द्र पूजा पर आधारित है "कल्पद्रुम महामण्डल विधान परमपूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की मौलिक काव्यकृति है, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपनी लोकप्रियता के कारण अत्यधिक प्रख्यात हो चुकी है। काव्य की मौलिकता का रहस्य जैन आगम में पूजा पांच प्रकार की मानी है - नित्यमह, आष्टान्हिक, चतुर्मुख, इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम । इनमें से नित्यमह और आष्टान्हिक पूजाओं को करने की परम्परा तो प्रचलित थी, किन्तु अन्य पूजाओं के बारे में लोगों को ज्ञात ही नहीं था कि ये कैसे की जाती हैं? हाँ, इन्द्रध्वज विधान की १-२ संस्कृत की हस्तलिखित प्रतियाँ कहीं-कहीं मन्दिरों में देखी गई थीं जिनमें "श्री विश्वभूषण' नामक भट्टारक के द्वारा इन्द्रध्वज की विधि का उल्लेख था । सन् १९७६ में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने उसी संस्कृत प्रति के आधार से हिन्दी में सरस काव्य शैली का "इन्द्रध्वज विधान" रचा जिससे आज जनमानस परिचित है। पूज्य आर्यिका श्री ने पांचों प्रकार की पूजाओं का सृजन किया है। जो चक्रवर्तियों के द्वारा किमिच्छक [मुंहमांगा] दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत् के समस्त जीवों की आशाएं पूर्ण की जाती हैं उसे 'कल्पद्रुमयज्ञ' कहते हैं। यह यज्ञ चक्रवर्ती ही कर सकते हैं। हमारा समीक्ष्य काव्य 'कल्पद्रुम विधान" जो दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान - हस्तिनापुर से प्रकाशित है उसके आद्य वक्तव्य में रचयित्री ने स्वयं कल्पद्रुम विधान के बारे में लिखा है, काव्य ग्रन्थ की मौलिकता का परिचय मिलता है। यथा "बहुत दिनों से मेरे मन में 'कल्पद्रुम' विधान रचने की इच्छा थी। जिस प्रकार इन्द्रध्वज विधान इन्द्रों द्वारा किया जाता है अथवा पञ्चकल्याणक महोत्सव इन्द्रों द्वारा ही मनाया जाता है फिर भी आज स्थापना निक्षेप से इन्द्र बनकर श्रावक लोग इन्द्रध्वज विधान करते हैं अथवा इन्द्र बनकर पंचकल्याणक महोत्सव रचाते हैं। वैसे ही अपने में चक्रवर्ती का निक्षेप कर श्रावक कल्पद्रुम विधान कर सकते हैं।" कल्पद्रुम विधान में किनकी पूजा करें एवं किस विधि से करें? इस पर माताजी ने चिन्तन किया और स्वयं के चिन्तन एवं अगाध शन के बल पर कवयित्री आर्यिका श्री ने इस कृति के विषय का चयन किया है। जैसा कि उन्होंने स्वयं आद्यवक्तव्य में लिखा है "इस विधान के नायक धर्मचक्र के स्वामीतीर्थंकर ही हो सकते हैं क्योंकि इनसे बड़े पूज्य और महान् तीनों लोकों में कोई भी नहीं है। तथा तीर्थंकर के समवशरण से बढ़कर अन्य कोई धर्मसभा स्थान नहीं है न अन्य कोई वैभव ही है। इसीलिए इस विधान में तीर्थंकर भगवान के महान् वैभवपूर्ण समवशरण की ही पूजाएं हैं। पुनः तीर्थंकर प्रभु के गुण, पुण्य, कल्याणक आदि व उनके तीथों में होने वाले मुनियों की भी पूजाएं हैं।" यह तो हुई काव्यकृति की मौलिक महानता, अब किंचित् दृष्टि कवयित्री की काव्यरचना पर डालें जो विविध छंद एवं अलंकारों में निबद्ध है। "सिद्ध शब्द से काव्य का प्रारम्भीकरण "सिद्धों को करूँ नमस्कार भक्ति भाव से" इत्यादि शेर छंद की पंक्तियों से कल्पद्रुम विधान के मंगलाचरण (पीठिका) का शुभारम्भ हुआ है। १४ पृष्ठों की इस छंदोबद्ध भूमिका में मंगलाचरण के साथ-साथ पूज्य, पूजक, पूजाविधि, पूजा का फल इन सभी बातों पर प्रकाश डाला गया है और समवशरण के चारों ओर १०८ दीपक जलाना, अनेक प्रकार के संगीत वाद्यों की शुद्धि करना, मण्डल की चारों दिशाओं में बैठने वाले समस्त इन्द्र गणों द्वारा घुटने टेक कर मुकुट समेत शिर झुकाकर भगवान को नमस्कार करने एवं चारों निकाय के इन्द्र जो जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं उन सभी का अपनी-अपनी सेनाओं सहित आने का सम्पूर्ण वर्णन "शंभु छंद" में किया गया है। यथा सुरपति आज्ञा से चउ निकाय के देव सपरिकर आते हैं। For Personal and Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ अच्युते स्वर्ग तक के इन्द्रादिक देव सपरिकर आते हैं ।। । आकाश व्याप्त कर असंख्यात सुर मध्यलोक में आते हैं। जिन समवशरण को देख दूर से नमते शीश झुकाते हैं ॥३७॥ प्रभु समवशरण रचना लखकर अतिशय विस्मित हो जाते हैं। टिमकार रहित हो बार-बार दर्शन करते हर्षाति हैं । निज जन्म सफल करते सुरगण अतिशय आनन्द मनाते हैं। क्रम से वंदन पूजन करते तीर्थंकर सन्निध आते हैं ॥ ३८ ॥ इस मंगलाचरण एवं ग्रन्थ भूमिका को विधान के प्रारंभ में सामूहिक रूप से आद्योपान्त अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें रचयित्री के करणानुयोग विषयक सूक्ष्मज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। जिस प्रकार की विधि इसमें वर्णित है यदि सम्पूर्ण उसी विधि को ध्यान में रखते हुए इस 'महायज्ञ' का आयोजन किया जावे तो निश्चित रूप से अचिन्त्य फल को प्राप्ति हो सकती है। इस काव्य में नायक के रूप में तीर्थंकर भगवान् हैं, नायिका शिवलक्ष्मी हैं। रसों में नवों रस हैं फिर भी शांतरस, अध्यात्मरस और करुणरस इसमें प्रधान रूप से मिलता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, यमक आदि अलंकार तथा ५० से अधिक छन्दों का प्रयोग इसे "महाकाव्य" की श्रेणी में स्वयमेव ला देता है। इसके पश्चात् "मंगलस्तोत्रम्" नाम से संस्कृत के २४ श्लोक है, ये श्लोक भी पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं "शार्दूलविक्रीडित" छंद के इन २४ श्लोकों का शुभारंभ “सिद्धेः कारणमुत्तमा जिनवरा आर्हन्यलक्ष्मीवराः" इत्यादि रूप से किया है इसमें श्री प्रारंभ में सिद्ध शब्द का प्रयोग रचयित्री ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी को "सिद्ध" शब्द अत्यन्त प्रिय है। इनकी अन्य कई काव्य रचनाओं में भी मैंने सिद्ध पद की प्रमुखता देखी है। शायद कार्य की निर्विघ्न समाप्ति एवं अत्यंत मंगलसूचक यह लघु मंत्र आर्यिका श्री के सर्वतोमुखी विकास का ही सूचक है क्यों बीसवीं शताब्दी भूत और भविष्य दोनों के लिए आर्यिका श्री की अद्वितीय साहित्य देन के लिए स्वर्णिम इतिहास को प्रस्तुत करने वाली रहेगी इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस मंगल स्तोत्र के २४ छंदों में पूरे समवशरण का वर्णन आ गया है। यथा पूज्यां गंधकुटीं दधाति कटनी रत्नादिभिर्निर्मिता 1 एतस्यां हरिविष्टरे मणिमये मुक्ताफलाद्यैर्युते ॥ आकाशे चतुरंगुले जिनवरास्तिष्ठति धर्मेश्वराः । एते गंधकुटीश्वराः वरजिनाः कुर्वन्तु नो मंगलम् ॥ १३ ॥ माधुर्य रस से ओतप्रोत उपर्युक्त संस्कृत छंद भी सहजरूप से अर्थबोध करा देता है। Jain Educationa International [४४३ २४ संख्या का व्यापक प्रयोग चौबीसों तीर्थंकर की संख्या को प्रकाशित करने वाली "२४" की अंक संख्या जैनधर्म में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है। प्रस्तुत काव्यकृति "कल्पद्रुम विधान" में सर्वप्रथम यह २४ संख्या मंगलस्तोत्र में आई है। इस पूरी कृति में २४ संख्या १०८ बार प्रयुक्त हुई है। २४ ही इसमें पूजाएं हैं, अंत की "समवशरण चूलिका" नामक बड़ी जयमाला में २४ ही पद्य [शंभु छंद में] हैं। प्रत्येक पूजा के मध्य में जो मंत्र है वह भी २४ अक्षरी है एवं इस विधान में २४२४ अर्घ्य संख्या है उसमें भी १०१ बार २४ की संख्या हो जाती है, ७२ पूणार्घ्य हैं अतः ३ बार २४ की संख्या हो जाती है। इस प्रकार १०१+३+१+१+१+१=१०८ बार २४ की संख्या अपूर्व अतिशय को प्रकट करती है। काव्यकृति का द्वितीय चरण समवशरण की समुच्चय पूजा से प्रारंभ होता है। प्रथम पूजा में सामान्य रूप से चौबीसों तीर्थंकरों के समवशरण का वैभव दर्शाया गया है। इस पूजन की स्थापना गीता और दोहा छंदों में निबद्ध है जिसमें मुख्य रूप से चार घातिया कर्मों के नाश से अनन्त चतुष्टय को प्राप्त तीर्थंकर भगवान का आह्वानन स्थापन कर हृदय में विराजमान करने की प्रेरणा भक्त को प्रदान की है। यथा दोहा अनन्तचतुष्टय के धनी तीर्थंकर चौबीस 1 आह्वान कर मैं जूं नमूं नमूं नत शीश ॥ २ ॥ जिनेन्द्र प्रभु बाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी से सहित होते है समवशरण आदि तो बाह्य विभव है और अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख, अनंतवीर्य ये चार चतुष्टय अंतरंग लक्ष्मी हैं। यही लक्ष्मी उनके लिए वास्तविक धन है इसी भाव से कवयित्री ने "अनन्तचतुष्टय के धनी " For Personal and Private Use Only . Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रभु को नमन कर स्वयं भी इसी धन की प्राप्ति हेतु कामना की है। आगे अष्टक में तो अपूर्व काव्यप्रतिभा का परिचय कराया है जहाँ जल, चंदन आदि आठों द्रव्यों की उपमा जिनेन्द्र गुणों के साथ की है जिन्हें पढ़कर कैसा भी नास्तिक व्यक्ति हो वह भी अपने मिथ्यात्व का शमन करके जिन गुणों में अनुरक्त होने लगता है। एक अष्टक से ही भक्तिरस का अनुमान लगाया जा सकता है। देखेंनंदीश्वर पूजा की चाल- जिन तनु की कांति समान, दीपक ज्योति घटे। मैं करूं आरती नाथ, मम सब आर्त हरे॥ जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव घटे। जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें ॥६॥ उपमा अलंकार और शांत रस से गूंथा गया यह छंद तीर्थंकर के शरीर की अतिशय कांति को दर्शाता है जिसे सौधर्म इन्द्र हजार नेत्रों से देख कर भी तृप्त नहीं होता है। उस अतुलनीय, अवर्णनीय, कांति के सदृश दीपक कहाँ से भक्त पुजारी लाएगा? अर्थात् इसमें तो कवयित्री के भावों की परमोत्कृष्ट उज्ज्वलता प्रतिभासित होती है उस भावना से ओत-प्रोत भक्त द्वारा जलाया गया मिट्टी का दीपक भी संसार के समस्त आर्त-कष्टों का नाश कर देता है। तात्पर्य यही है मोह अंधकार के विनाशन हेतु दीपक पूजा अष्ट द्रव्य में एक द्रव्य है इसके बिना पूजा अधूरी रहती है। इस दीपक से भगवान के सामने आरती करना ही दीपक पूजा है। इसी प्रकार नीचे की दोनों पंक्तियों में जिनेन्द्र भगवान से पवित्र समवशरण की भूमि का अतिशय बताया है एवं भक्त को पूजा का फल भी बतला दिया है कि आप समवशरण वैभव से संयुक्त तीर्थंकर के चरण कमल की पूजा से निजआत्मिक वैभव को प्राप्त करेंगे। यह तो उत्कृष्ट फल बताया है, सांसारिक वैभव तो स्वयमेव प्राप्त हो ही जाता है उसे मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पूजा प्रकरण में यह भी उल्लेखनीय है कि पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित समस्त पूजाओं में अष्टक के पश्चात् शांतिधारा-पुष्पांजलि के छंद भी हैं, जो दोहा या सोरठा छंदों में निबद्ध हैं। श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित अभिषेक पाठ के अंत में अष्टद्रव्य पूजा है पुनः अर्घ्य के बाद शांतिधारा और पुष्पांजलि है उसी के आधार से सभी पूजन में शांतिधारा पुष्पांजलि की परंपरा पूज्य माताजी ने रखी है। प्रकृति का सौंदर्य फूलों की सुगंध में छिपा होता है पुष्पांजलि में मानो कवि का प्राकृतिक स्नेह ही छिपा हुआ है। यथादोहा लाल श्वेत पीतादि बहु, सुरभित पुष्प गुलाब । पुष्पांजलि से पूजते, हो निजात्म सुख लाभ । भक्ति और पूजा के साथ-साथ उपचार महाव्रत धारिणी आर्यिका श्री की आत्मिक रुचि “हो निजात्म सुख लाभ" से परिलक्षित होती है क्योंकि वास्तविक भक्ति का अभिप्राय भी यही होना चाहिए। इसके पश्चात् चौबीस अक्षरी जाप्य मंत्र है जो १०८ बार जपा जाता है। अन्तर जयमाला के १४ छंदों में अत्यंत सरस और सरल रूप में समवशरण रचना का वर्णन है। पूरी जयमाला का आनन्द तो उसे पढ़ और समझकर ही लिया जा सकता है यहाँ मात्र नमूने के तौर पर निम्न छंद देखेंशंभुछन्द जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्मचक्र के कर्ता हो। जय जय अनन्तदर्शनसुज्ञान सुखवीर्य चतुष्टय भर्ता हो । जय जय अनन्त गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभान्यारी । सुरपति की आज्ञा से धनपति रचता है त्रिभुवन मनहारी ॥२॥ भक्ति के बहाने से मानो कवयित्री ने इस जयमाला में सारा करणानुयोग ही भर दिया है। इसी प्रकार चतुर्थ छन्द है पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्णरत्ननिर्मित सुन्दर । कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर ।। इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तम्भ बने ऊँचे। ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊंचे ॥४॥ ऐसा लगाता है कि माताजी ने किसी तीर्थंकर के समवशरण को साक्षात् देखकर ही उसे अपने शब्दों में बांधा है। परन्तु इस पंचम काल के मानव को समवशरण का दर्शन तो सुलभ ही नहीं है। अतः आगम दर्पण में ही समवशरण का अवलोकन एवं पूर्वजन्मों के समवशरण दर्शन का संस्कार ही Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४४५ इस लेखनी में प्रबल निमित्त मानना पड़ेगा। हरिवंश पुराण के आधार से माताजी ने इसमें यह विशेष बात बतलाई है कि वहां पर बने हुए मानस्तम्भ १२ योजन [४८ कोस] दूर से ही दिखने लगते हैं तथा मानस्तम्भों की ऊंचाई तीर्थंकर की ऊंचाई से बारह गुणी ऊंची होती है अर्थात् आदिनाथ भगवान ५०० धनुष [२ हजार हाथ] ऊंचे थे तो उनके समवशरण में मानस्तंभ छह हजार धनुष ([२४ हजार हाथ] ऊंचे बने थे एवं महावीर भगवान की ऊंचाई ७ हाथ की थी अतः उनके मानस्तंभ ८४ हाथ ऊंचे थे। अवसर्पिणी काल में तीर्थंकरों की ऊंचाई, आयु आदि घटती चली गई है। जयमाला के आखिरी श्लोक में आर्यिका श्री ने भगवान को अनेक नामों से संबोधित किया है जो कि एक शक्तिमान आत्मा के उपादान का द्योतक हैदोहा चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्ही, ज्ञान व्याप्तजग विष्णु। देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु ॥१४ ॥ तीर्थंकर भगवान को चतुर्मुखी ब्रह्मा की उपमा दी है। इस एक संबोधन में सब कुछ समा जाता है। यद्यपि तीर्थंकर का मुंह तो एक ही होता है किन्तु समवशरण की बारहों सभा में बैठे समस्त जीवों को उनके परम सौन्दर्यशाली मुख का दर्शन होता है जिससे सभी लोग यह अनुभव करते हैं कि भगवान् मेरी ओर देख रहे हैं, यह तो केवल ज्ञान होने के पश्चात् का दिव्य अतिशय ही है इसीलिए उन्हें चतुर्मुखी ब्रह्मा कहकर स्तुति की जाती है। द्रव्य और भावों की पूर्ण शुद्धिपूर्वक जब समवशरण में राजित कल्पद्रुम-जिनेन्द्र की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से कथित फल भी प्राप्त होता है। इसी बात का संकेत “इत्याशीर्वादः" के अन्तिम श्लोक से मिलता हैगीता छंद जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह "कल्पद्रुम" पूजा करें। मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें । फिर पञ्चकल्याणक अधिप् हो, धर्मचक्र चलावते। निज "ज्ञानमति" केवल करें, जिनगुण अनन्तों पावते ॥ काव्य कृति और काव्यकर्ती दोनों के नामों का एक साथ उच्चारण करके भक्त पुजारी फूला नहीं समाता है। भक्ति एवं भाक्तिक शिल्पी के प्रति जहाँ मस्तक श्रद्धा से नत होता है वहीं आत्मनिधि को पहचानने का स्वर्ण अवसर भी प्राप्त होता है। रचयित्री ने निश्छद्म भाव से कृति को प्रामाणिक बनाने हेतु अपना नाम भी दे दिया है एवं अपनी मति को पूर्ण ज्ञान में परिणत करने की भावना भी व्यक्त कर दी है, जो उनके जीवन का परम लक्ष्य है। नवनिधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है अर्थात् स्थापना निक्षेप से चक्रवर्ती बनकर जो भव्य प्राणी "कल्पद्रुम" नामकी महापूजा रचाएंगे वे बिना याचना के ही चक्रवर्ती का पद प्राप्त करेंगे एवं अन्त में उस छह खण्ड के आधिपत्य को भी छोड़कर जिनदीक्षा धारण करके परम्परा से अगले भवों में तीर्थंकर बनकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करेंगे तथा केवल ज्ञान की प्राप्ति करके अनन्त गुणों से अलंकृत अरिहंत-सिद्ध की पदवी प्राप्त करेंगे। यही पूजन करने का फल है। यह कल्पद्रुम विधान की मात्र प्रथम पूजा तक कुछ भाव मैंने खोलने का प्रयास किया है। मैं यह अनुभव करती हूँ कि 'कल्पद्रुम' जैसे सुदृढ़ विशाल महाकाव्य की यह प्रारम्भिक समीक्षा जल में चन्द्र बिम्ब देखने जैसा बालप्रयास है। क्योंकि इस रचना पर तो यदि कोई विद्वान् लेखक लिखने बैठे तो इससे चार गुणा मोटा ग्रन्थ तैयार हो सकता है। चारों अनुयोगों के सार रूप में निबद्ध इस पूजा काव्य के हर पन्ने को पढ़ें, समझें और भक्ति क्रिया में अपने को निमग्न करें इसी मंमल कामना के साथ लेखनी को विराम देती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कल्पगम की काव्य भक्ति समीक्षक-विमल कुमार जैन सोरया, एम०ए० शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य, टीकमगढ़ (म.प्र.) मणिनी आर्यिकाका भावानुभूति को शब्दों में व्यक्त करना नैसर्गिक प्रतिभा का उपकार है। काव्यरचना दो प्रकार की होती है एक तो तथ्य को शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत करना उसकी कलात्मक चतुरता है। दूसरा तथ्य को सत्य तक ले जाकर कल्पद्रम हृदय में अनुभूति प्रदान करना यह नैसर्गिक प्रतिभा है। आर्यिकारत्न परम-विदुषी ज्ञानमती माताजी ने अपनी विधान काव्य प्रतिभा को भक्ति के रूप में अभिव्यक्ति दी है जो नैसर्गिक प्रतिभा के रूप में साकार हो उठी है। भावनाओं की अभिव्यक्ति जिस काव्य में होती है उस काव्य को बार-बार पढ़ने पर निरन्तर नई-नई चिन्तानुभूति का अव्यक्त आनंद पाठक स्रोता को उपलब्ध होता है। किसी तथ्य पर स्वतन्त्र चिन्तन कर प्रस्तुतीकरण करना एक सौम्य प्रयत्न है, परन्तु आगम आज्ञानुसार वर्णित तथ्य को इस ढंग से प्रस्तुत किया जाए जो हमारे विचारों में नई चेतना के स्वर दें जिन स्वरों से हम अपने आपको भावनाओं की सुनहली धूप में खड़ाकर अपार प्रकाश की आभा का बोध करा सकें। यह एक प्रतिभापूर्ण प्रयास या नैसर्गिक कविता का प्रवाह माना जा सकेगा। कल्पद्रुम विधान की गरिमा इस तथ्य से अक्षरशः संयुक्त है। विभिन्न छन्दों का प्रयोग और छन्द रचना में वर्णित मात्रों की शालीनता कवयित्री की अपार विलक्षणता को प्रस्तुत करती है। काव्य की संगति में जब कल्पद्रुम विधान नामक भक्ति के इस अपूर्व ग्रंथ का हम सस्वर वाचन करते हैं तो पाठक और श्रोता पर मुख्यतः ४ रूपों का परिबोध एक साथ परिलक्षित होता हुआ दिखाई पड़ता है। प्रथम पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विषय वस्तु का यथावत् चित्रण दूसरा उस चित्रण के साथ हमारी अन्यतम भक्ति की गहनता, तीसरा भक्ति के साथ गहरी भावनाएँ जो आराध्य के प्रति हमारे अन्तर्मन को पावनता तक ले जाती है और चौथा अर्थबोध की प्रस्तुत भावनाओं से वात्सल्यता के उस सागर में पहुँचा देती है जो हमारी रागभोग की प्रवृत्ति को विसर्जित करने में सक्षम है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रचना अपने उद्देश्य की साकारता में पूर्णतः सफल और सुखकर है। कवयित्री ने अपने काव्य में जहाँ एक ओर सुन्दर भावों की संयोजना की है वहाँ दूसरी ओर उसमें सौन्दर्य वृद्धि के लिए भी प्रयत्नशील रही है। प्रत्येक काव्य की श्रेष्ठता उसके कलापक्ष और भाव पक्ष के निर्वाह पर है। भावपक्ष के अन्तर्गत रस, भाव, अनुभाव और संचारी भाव आदि आते हैं और कलापक्ष के अन्तर्गत अलंकार, भाषा, छन्द पर विचार किया जाता है। कल्पद्रुम विधान भक्ति काव्य के दोनों पक्ष अपने आप में प्राणवान हो उठे हैं। रचना में भाव प्रवणता तो है ही, अलंकृत सज्जा भी है। अलंकारों का प्रयोग भावों की सौन्दर्य वृद्धि के लिए किया है। कल्पद्रुम में जहाँ भक्ति भावना का सागर लहराता है वहाँ उनकी वचन चातुरी भी दर्शनीय है, इस पूजा काव्य में जितनी सहृदयता और भावुकता है उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है। इनके पदों में आत्मानुभूति, संगीतात्मकता और कोमलकान्त पदावली जैसे प्रमुख तत्त्व विद्यमान हैं। संक्षिप्तता और भावों का केन्द्रीकरण तथा भाषा और भावों की स्पष्टता इनकी भक्ति काव्य की गुणज्ञता के प्रतीक हैं। शान्त रस का स्थाई भाव निर्वेद है जो तत्त्व ज्ञान से उत्पन्न होता है। इसलिए वैराग्य, विनय, भक्ति आदि से प्रेरित होकर माताजी ने जिन पदों की रचना की उनकी गणना शान्तभक्ति के अर्न्तगत की जाएगी। प्रारम्भिक भक्तिपूर्ण धार्मिक जीवन की आधारशिला संसार के प्रति वैराग्य भावना है। सम्पूर्ण भक्तिकाव्य का अवलोकन करने पर पाया कि भाषा में ओज की अपेक्षा प्रसाद और माधुर्य गुण अधिक मात्रा में विद्यमान है। भाषा अत्यन्त प्रवाहमयी और संगीतात्मक है। सार्थक शब्द योजना के कारण भाषा अत्यन्त सशक्त हो गई है। भावों एवं प्रसंगानुकूल भाषा होने से दृश्य चित्रण जैसा आनंद प्रदान करती है। दार्शनिक दृष्टि से जिनेन्द्रभक्ति के इन भावमयी ज्ञानबोधक पदों का पाठन अन्तस में एक निर्मलता प्रदान करते हैं जो हमारे अनन्त अशुभ कर्मों की एक देश निर्जरा एवं शुभकर्मों के शुभाश्रव के कारण हैं। यही शुभाश्रव आत्मसिद्धि के हेतु होते हैं। अतः माताजी का पूजाभक्ति का यह काव्य हमारी आत्मा की सिद्धि के सोपानों पर ले जाने का साक्षात् कारण है। इसलिए यह एक अलौकिक सातिशय ग्रंथ के रूप में समाहार है। जितने बार भी इस ग्रंथ का पाठ किया गया नई-नई अनुभूतियाँ नया-नया चिन्तन और नए-नए विचारों के प्रकीर्णन हमारे अन्तर्मन में जाग्रत हुए। भावों की निर्मलता से प्राप्त आनन्दानुभूति से यह भक्ति काव्य ग्रंथ जन-जन के लिए आराधना का हेतु बन गया। यही कारण है एक वर्ष में इसके दो संस्करण विपुलमात्रा में प्रकाशित होकर जन-जन के लिए पठन के हेतु बन गये। भक्ति काव्य की सफलता भावनाओं की प्रधानता, शब्दों की सरलता-पदों की गम्यता और भाषा की प्रवाहता के कारण ही लोकप्रिय होता है और Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४४७ कल्पद्रुम भक्ति काव्य में इन सभी तथ्यों की साकारता समाई हुई है। इस काव्य के पाठन में दृश्य काव्य जैसी सुखानुभूति प्रत्येक पाठक या श्रोता को समुपलब्ध होती है। जिससे पूजा आराधना के परिप्रेक्ष्य में इसकी वृहत्तर लोकप्रियता बढ़ी है तथा जिनागम पद्धति के अनुसार इसका व्यापक प्रभावना के साथ पाठ किया जाता है। हमारे पूर्वाचार्यों ने श्रावक के दैनिक कर्तव्यों के सन्दर्भ में लिखा है: देव पूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ श्री बनारसीदास जी ने समयसार नाटक में पूजा की महत्ता दर्शाते हुए कहा है: लोपे दुरित हरै दुःख संकट आपे रोग रहित नितदेह। पुण्य भण्डार भरै यश प्रकटै मुकति पंथ सो करै सनेह ॥ रचै सुहाग देय शोभा जग परभव पहुंचावत सुरगेह । कुगति बंध दलमलहि 'बनारसि' वीतराग पूजा फल ऐह ।। लोक में चतुर्निकाय के जीवों में मनुष्य और देव ही जिनेन्द्र की भक्ति करके उत्तम सुख रूप, मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करते हैं। मनुष्यों को जिनेन्द्र भक्ति के विषय में हमारे पूर्वाचार्यों ने अनुग्रहपूर्वक पंचविंशति तथा अमित गति श्रावकाचार नाम के ग्रंथों में कहा है: ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषांधिक् च गृहाश्रमम्॥ अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च। यो भुञ्जीत गृहस्थः सन् न भुञ्जीत परं तपः ॥ अर्थात् जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहस्थ को धिक्कार है। जो गृहस्थ जिनदेव की पूजा और मुनियों की उपचर्या किए बिना अन्न का भक्षण करता है वह सातवें नरक के कुम्भीपाल बिल में दुःख को भोगता है। पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य ने महान्ग्रंथराज धवला में कहा है जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। अहंत नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का कारण है। जो भव्य भक्तिपूर्वक जिन भगवान की पूजा-दर्शन स्तुति करते हैं वह तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन-पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं। वर्तमान काल में मुनिराजों के चलते-फिरते अहेत की संज्ञा से अभिभूत कर उनकी उपासना करने की आज्ञा आगम में है। आज एकान्त मिथ्याभाषी जन मुनिराजों की अवज्ञा कर अहंत मुद्रा की अवज्ञा करते देखे जाते हैं ऐसे अधम जनों को धवला महान् ग्रंथ में आचार्यों ने कहा है कि-सकल जिनों के समान देशजिनों (मुनिराजों) को नमस्कार करने से सबकों का क्षय होता है। क्योंकि ज्ञान दर्शन और चरित्र के संबंध में उत्पन्न हुई समानता उनमें पाई जाती है और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण अग्नि के द्वारा किया जाने वाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है। अतः धवला में देवशास्त्र और मुनिराजों का अष्ट द्रव्य जल, चन्दन, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप, फलों से अपनी भक्ति प्रकाशित करने की आज्ञा दी है। वसुनन्दि आचार्य ने लिखा हैजल से पूजन करने से पाप रूपी मैल का संशोधन होता है। चन्दन चढ़ाने से मनुष्य सौभाग्य से सम्पन्न होता है, अक्षत चढ़ाने से अक्षयनिधि रूप मोक्ष को प्राप्त करता है, वह चक्रवर्ती होता है और सदा अक्षोभ रोग शोक रहित निर्भय रहते हुए अक्षीण लब्धि से युक्त होता है। पुष्प से पूजन करने वाला कामदेव के समान समर्चित देह वाला होता है। नैवेद्य चढ़ाने से मनुष्य शक्ति, कान्ति और तेज से सम्पन्न होता है, दीप से पूजन करने वाला केवलज्ञानी होता है, धूप से पूजन करने से त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है तथा फलों से पूजन करने वाला परम निर्वाण सुखरूप फल को पाने वाला होता है। . तिल्लोयपण्णत्ति ग्रन्थ में नंदीश्वर एवं पंचमेरु स्थित अकृत्रिम जिनालयों में स्थित जिन भगवन्तों की स्तुति का वर्णन आचार्यों ने किया है। जिसमें कहा गया है कि नंदीश्वर द्वीप स्थित जिनमंदिरों की यात्रा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में भवनवासी देव दक्षिण दिशा में व्यंतर देव पश्चिम में और ज्योतिष देव उत्तर दिशा में मुख से बहुत स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग महिमा को करते हैं। यह सभी देव कार्तिक, आषाढ़, फाल्गुन माह की अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वाह्न अपराह्न पूर्व रात्रि और पश्चिम रात्रि में दो दोपहर तक उत्तर भक्तिपूर्वक प्रदक्षिण क्रम से जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। श्रावक के षट् कर्तव्यों में प्रथम कर्त्तव्य देव पूजा ही है। आगम में पूजा के पाँच अंग कहे हैं १- आह्वानन २- स्थापना ३- संनिधीकरण ४- पूजन ५- विसर्जन इन्हीं पाँच अंग रूप पूजन करने का विधान आगम में कहा गया है। भगवान जिनेन्द्र देव की पूजन असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा का कारण करते है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला है। राग भाव के उपशमन के लिए पूजन प्रधान कर्म है। पूजन में ही पंचपरमेष्ठियों की प्रतिमाओं का ही आश्रय होता है, नित्य नैमेत्तिक भेद से वह अनेक प्रकार की है, जो जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल से की जाती है। जिनाभिषेकपूर्वक संगीत के साथ की जाने वाली पूजन प्रचुर फलदायी कही गई है। महापुराण में चार प्रकार की पूजा कही गई है। १- सदार्चन इसे नित्यमह भी कहते हैं अर्थात् जो प्रतिदिन हम अपने घर से अष्ट द्रव्य ले जाकर जिन प्रतिमा के सम्मुख पूजन करते हैं। जिन प्रतिमा का निर्माण मंदिर निर्माण तथा धनादि देना सदार्चन है। मुनिराजों की पूजन भी इसके अन्तर्गत है। २- चतुर्मुख या सर्वतोभद्र वह पूजन है जो विशेष रूप से तीन लोक के कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों एवं उनमें स्थापित जिनप्रतिमाओं की पूजन मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा विशेष रूप से जो महायज्ञ किया जाता है वह सर्वतोभद्र पूजन की जाती है। ३- कल्पद्रुम तीर्थंकर के समवशरण की रचना कर आगम वर्णित पूज्य जन की पूजन करना कल्पद्रुम है। यह पूजन चक्रवर्तियों द्वारा किमिच्छक दान देकर की जाती है। सबकी आशाएँ पूर्ण होती हैं। ४अष्टान्हिक-जो अष्टान्हिका पर्व में की जाती है जो सब लोग करते हैं और जगत् में प्रसिद्ध है। इसके अलावा सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज आदि अनेक प्रकार की विशेष पूजाएँ हैं जो इन्हीं चार भेदों के अन्तर्भूत हैं। वसुनन्दी श्रावकाचार में निक्षेपों की अपेक्षा पूजन के छह भेद कहे गये हैं। १- नाम पूजा-अर्हतादि का नाम उच्चारण करके जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं वह नाम पूजा है। २- स्थापना पूजा-आकारवान अर्हतादि के गुणों का आरोपण करना सद्भाव स्थापना पूजा है तथा अक्षत, पुष्प आदि में अपनी बुद्धि से किसी देव का संकल्प करके उच्चारण करना असद्भाव स्थापना पूजा है । ३- द्रव्य पूजा-अष्टद्रव्य चढ़ाकर पूजन करना द्रव्य पूजा है। अमितगत श्रावकाचार में अष्टांग नमस्कार करना प्रदक्षिणा देना जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन करना द्रव्य पूजा के अन्तर्गत समाहार किया गया है। ४- क्षेत्र पूजा-तीर्थंकरों की पंचकल्याणक भूमि पर पूजन करना क्षेत्र पूजा के अन्तर्गत समाहार है। ५- कालपूजा-तीर्थंकरों के कल्याणक दिवस के दिन अथवा अष्टान्हिकादिक पर्व के दिन जो जिनेन्द्र की महिमा की जाती है काल पूजा है। ६- भावपूजा-मन से अर्हतादि के गुणों का चिन्तन करना भाव पूजा है। चार प्रकार का ध्यान भी भाव पूजा के अन्तर्गत है । जाप करना, जिनेन्द्र स्तवन पढ़ना भी भाव पूजा के अन्तर्गत आता है। प्रस्तुत ग्रंथ में महान् विदुषी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने ४५ प्रकार के छन्दों को प्रयोग किया। २४ पूजाएँ ७२ पूर्णाऱ्या के पद एवं २४२४ गुण गरिमा भक्ति के पद लिखकर कुल मिलाकर २७३६ पदों में इतने ही मंत्रों को समाहार कर अपने आराध्य के अ य आराधन में समर्पण के प्रसून प्रस्तुत किए हैं जो आत्मसिद्धि के लिए सबल सोपान हैं। महान् विदुषी कवयित्री की यह रचना अवश्य भव्यों को सालात समवशरण में अधिष्ठित देव भक्ति की उत्कृष्ट श्रृंखला में ले जाती है। पूजन भक्ति के क्षेत्र में यह कृति जब तक धर्म शाश्वत रहेगा तब तक श्रावकों द्वारा आराधित की जाती रहगा। इन्द्रध्वज विधान समीक्षक-पं० मोतीलाल, मार्तण्ड, एम.ए., शास्त्री, ऋषभदेव [राजस्थान] "विधानों में 'इन्द्रध्वज' नाम का विधान भी है और पूर्व में हुआ भी है।" ऐसी चर्चा जैन जगत् में प्रायः सुनने को मिलती थी। यह भी सुना जाता था कि महान् विद्वान् पं. टोडरमलजी ने अपने कार्यकाल में बड़े ठाठबाट से जयपुर में 'इन्द्रध्वज विधान' कराया था। लोगों में यह धारणा भी थी कि इन्द्रध्वज विधान करने से वर्षा का संकट दूर हो जाता था ।संस्कृत भाषा में हस्त लिखित प्रतियों के द्वारा विधान होने से यह यदा-कदा ही विधान हो सकता था। भट्टारक विश्वभूषणजी रचित विधान की प्रतियाँ मिलना सबके लिए कठिन था। ऐसी स्थिति में यह अनुभव किया जा रहा था कि यदि राष्ट्रभाषा में इस विधान की रचना हो जाय तो इस विधान से धर्म-प्रभावना हो सकती है, किन्तु कौन करे? प्रश्न का समाधान अपूर्ण ही रहा। विधान की आवश्यकता को पूर्ण करने का कार्य पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने १९७६ में किया और सर्वप्रथम हस्तिनापुर में १९७७ में यह विधान हुआ, तबसे इस विधान की लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती रही। विधान की कई हजार प्रतियाँ तीन चार संस्करणों के रूप में प्रकाशित हुई और उत्तर से दक्षिण तक सर्वत्र विधानों के आयोजन होने लगे। इस प्रकार के आयोजनों से धर्म की प्रभावना होने लगी। उपयोगिता की दृष्टि से-जैन दर्शन की भौगोलिक स्थिति को विधान ने इतना सरल बना दिया कि जिज्ञासुओं एवं भक्तों को समझने में पर्याप्त सरलता हो गई। संगीत की थिरकती स्वर लहरी में माताजी विरचित "इन्द्रध्वज विधान" ने जैन जगत् में पंच मेरु, जम्बूद्वीप, विदेहादि क्षेत्र, विजयार्द्ध पर्वत, षट् कुलाचल, सोलह वक्षारगिरि मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वरादि द्वीप, समुद्र नदियाँ आदि मध्यलोक सम्बन्धी समस्त भौगोलिक ज्ञान सुलभ करा दिया। प्रथमानुयोग के पाठकों को ज्ञानवर्द्धन में पर्याप्त सुविधा हो गई। सैद्धान्तिक शास्त्रीय ज्ञान समझने हेतु “इन्द्रध्वज विधान" एक व्यावहारिक ज्ञान का सुलभ साधन मिल गया। मध्यलोक में स्थित ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों में स्थित शाश्वत जिनबिम्बों की वंदना करने की दशा में, राष्ट्रीय भाषा में रचे गये माताजी के 'इन्द्रध्वज विधान' की जो उपयोगिता सिद्ध हुई उसे समस्त जैन जगत् परम पूज्य आर्यिका रत्न माताजी श्री ज्ञानमतीजी के परम उपकार को कभी नहीं भूल सकता। भक्ति के क्षेत्र में पूजन-साहित्य हेतु यह विधान Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४४९ प्रभावी महाकाव्य-सा प्रतीत होता है। इस ग्रंथ की उपयोगिता सर्वत्र सदाकाल तक अभिनंदनीय रहेगी। रचना-कौशल-"इन्द्रध्वज विधान" की लोकप्रियता का मुख्य कारण इस ग्रंथ का प्रशंसनीय रचना-कौशल है। सामान्य जनता करणानुयोग को सरलता से समझते हुए भक्ति-काव्य का रसास्वादन कर सके इस हेतु बोधगम्य सरल भाषा में रचना अनिवार्य थी क्योंकि धर्म-प्रभावना की दिशा में भाषा का भावों के साथ समन्वय लिये हुए सरल रूप होना नितान्त आवश्यक था। यह आवश्यकता विधान को लोकप्रिय बनाने में सार्थक सिद्ध हुई। छन्दों का चयन करने में पूज्य माताजी का दृष्टिकोण शत-प्रतिशत सफल रहा क्योंकि चयनित छन्दों को संगीत की विभिन्न शैलियों में ढालना विधानाचार्यों के लिए इतना सुलभ हो गया है कि विधान के कर्ता एवं श्रोतागणों को प्रभावित करने में पूर्ण सफलता मिलती है। भाषा-सौष्ठव, छन्द-ज्ञान एवं शब्द चयन देखकर इस विधान को पढ़ने-सुनने एवं सक्रिय रूप देने में नाटकीयता बनी रहती है। पढ़ते हुए-श्रवण करते हुए, व्यक्ति भक्ति भावों में अवगाहन करते हुए नहीं अघाते। रचना-प्रणाली में भक्ति-रस महाप्राण होकर काव्य की सरसता में उभर रहा है। परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का उद्देश्य काव्यसृजन में साकार हुआ है, बस इसीलिए 'इन्द्रध्वज' सभी विधाओं में अत्यन्त लोकप्रिय बन गया। काव्यात्मक वैशिष्ट्य- काव्य की विशिष्टता का मापदण्ड उसकी लोकप्रियता पर निर्भर करता है। इस दृष्टि से न केवल उत्तर, अपितु दक्षिणी भारत में भी इस विधान की सर्वत्र ऐसी लोकप्रियता बढ़ी कि अनेक नगरों ग्रामों-तीर्थक्षेत्रों में विशाल स्तर पर कई-कई बार भव्य आयोजन हो चुके हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। वर्णन करने का चमत्कारपूर्ण ढंग काव्य की विशिष्टता में मुखरित हुआ है। सहज स्वाभाविक अलंकारों ने काव्य की विशिष्टता में पूर्ण योगदान दिया है। जयमाला वर्णन में तो काव्य की विशिष्टता ने गजब कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो स्वयं माताजी उन चैत्यालयों को प्रत्यक्ष देखती हुई वर्णन कर रही हों। तब विधान के इन्द्र-इन्द्राणियों श्रोताओं को ऐसा लगता है, जैसे वे सभी उन चैत्यालयों के वैभव को प्रत्यक्ष देख रहे हों और वहीं मानो पहुँच गये हों। विस्तृत वर्णन में भी बोझिलता-थकावट नहीं लगती और काव्यानन्द में झूमते रहते हैं। शान्त रस के झरने बहते रहते हैं और विधानकर्ता भक्ति की तरल तरङ्गों में मस्त हो जाते हैं। आध्यात्मिक प्रवाह में कभी-कभी तो चारों अनुयोगों का सुन्दर संगम हो जाता है। व्याकरण की दृष्टि से भी शब्द-गठन, वाक्य-विन्यास का सृजन काव्य-वैशिष्ट्य में सहायक ही हुआ है। माताजी के अपने उद्देश्य में काव्यात्मक, वैशिष्ट्य सहायक सिद्ध हुआ है, जोकि प्रशंसनीय है। भक्ति प्रधान मौलिक रचना-"इस ग्रंथ का आधार यद्यपि मूल संस्कृत कृति ही है, फिर भी यह रचना मौलिक है।" क्षु. श्री मोती सागरजी महाराज का यह कथन सत्य है। क्योंकि मूलकूति का यह ग्रंथ मात्र रूपान्तरण ही नहीं है, अपितु सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने 'तिलोयपण्णत्ति', 'त्रिलोकसार' आदि के गहन अध्यनन से स्वतंत्र रूप में मौलिक सृजन किया है। पूज्य माताजी की जिनेन्द्र भक्ति असीम-असीम है, जो काव्य रूप में मुखरित हो उठी है। भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों दृष्टि से यह भक्तिप्रधान मौलिक काव्य-ग्रंथ अपने आप में अनूठा बन पड़ा है। ५० महापूजाओं एवं ५१ जयमालाओं से परिपूर्ण ग्रंथ के आधार पर विधान करने वालों के रोम-रोम में भक्ति भावना इस प्रकार व्याप्त हो जाती है कि समस्त मण्डप भक्ति के शान्त रत्नाकर में निमग्न हुए बिना नहीं रहता। ऐसी स्थिति में भक्त समुदाय के अन्तःकरण में जिनेन्द्र भक्ति तो प्रधान रूप में बनी रहती ही है, किन्तु रचयित्री के प्रति भी श्रद्धा से नत मस्तक हुए बिना नहीं रहता। वाणी-वीणा के तार झंकृत होते ही इन्द्रध्वज-विधान का मण्डप ऐसा लगता है मानो इन्द्रादि देव समूह प्रत्यक्ष ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना-पूजा का महोत्सव कर रहे हों। भक्ति ही सुर सरिता में अवगाहन करते हुए भक्त-समुदाय जिनेन्द्र भक्ति के प्रशस्त राग-रंग में नृत्य-गीतादि द्वारा मस्त हो जाते हैं। सारा वातावरण भक्ति-संगीत में सराबोर हो जाता है। लोकोपयोगी स्वरूप-सम्यग्दर्शन का आठवां अंग धर्म-प्रभावना माना जाता है। 'इन्द्रध्वज विधान' इस हेतु सक्षम आयोजन है। यही कारण है कि यह विधान राष्ट्रभाषा हिन्दी में सुलभ होते ही प्रत्येक मन्दिर एवं संस्था में पहुँच गया। हमने अपने आचार्यत्व में पंचकल्याणक प्रतिष्ठोत्सव स्तर पर विशाल, विशाल रूप में कई तीर्थ क्षेत्रों, नगरों-महानगरों एवं ग्रामों में महान्-महान् आचार्य-मुनि-संतों के सानिध्य में 'इन्द्रध्वज विधान' सानन्द सम्पन्न कराकर अपूर्व धर्म-प्रभावना की। श्री सम्मेदशिखर तीर्थ क्षेत्र, देवगढ़ अतिशय क्षेत्र, आगरा, अहमदाबाद, हिम्मतनगर आदि कई स्थानों पर ऐतिहासिक अपूर्व प्रभावनात्मक 'इन्द्रध्वज' हुए। देवगढ़ (उ.प्र.) क्षेत्र के शिखर पर मुनि श्री सुधासागरजी महाराज के सानिध्य में विश्व में प्रथम बार एक हजार आठ इन्द्र-इन्द्राणियों ने ऐसा इन्द्रध्वज विधान (हमारे विधि विधान में) किया कि उसी के परिणामस्वरूप देवगढ़ क्षेत्र के ५१ मन्दिरों का जीर्णोद्धार हो गया और ५०० विशाल प्रतिमाजी की प्रतिष्ठापना होकर विश्व में प्रथम बार पंच गजरथ महोत्सव हुआ। यह सब गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की मौलिक कृति 'इन्द्रध्वज विधान' का ही मूल प्रभाव था। माताजी ने इसमें दक्षिण की परम्परानुसार शान्तिधारा-पुष्पाञ्जलि-विधि जाप्यादि देकर समन्वय अच्छा किया है। इससे ग्रंथ सबके लिए उपयोगी सिद्ध हुआ। निष्कर्ष रूप में - पूजा-साहित्य की कृतियों में माताजी विरचित 'इन्द्रध्वज विधान' अन्य सभी विधान ग्रंथों में अधिक प्रचलित हुआ और भारत के सभी क्षेत्रों में इसका आयोजन विशाल स्तर पर होने से सर्वत्र जिन धर्म की महत्त्वपूर्ण प्रभावना हुई। लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती रही। जिन धर्म की प्रभावना में 'इन्द्रध्वज विधान' के आयोजनों की स्वतंत्र भारत में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। जैन जगत्, पूज्य माताजी के इस उपकार के प्रति सदैव ऋणी , रहेगा। समीक्षा के आलोक में 'इन्द्रध्वज विधान' उच्चकोटि के पूजा-साहित्यान्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रंथ है। इस ग्रंथ में करणानुयोग का Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५०] - वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सुन्दर विवेचन भक्तिरस में हुआ, किन्तु भावपक्ष इतना प्रवल रहा कि आध्यात्मिक प्रवाह भी खूब प्रवाहित हुआ है। काव्य के दोनों पक्ष भाव एवं कला से सुन्दर समन्वित इन्द्रध्वज विधान' माताजी की अमरकृति के रूप में सदैव अमर रहेगा और चिरकाल तक जिन धर्म की प्रभावना होती रहेगी। जैन दर्शन के चिन्तन-मनन एवं शोध प्रबन्ध की दिशा में यह कृति उपयोगी सिद्ध हुई है। इस बहुमूल्य रचना के लिए परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणारविन्द में वंदन-अभिनंदन । "त्रैलोक्य विधान, सर्वतोभद्रविधान एवं तीन लोक विधान" लोक्य विधान तीन लोक विधान सर्वतोभद्र | विधान समीक्षक-डॉ० दयाचन्द्र जैन साहित्याचार्य, सागर विधानग्रन्थत्रयी का समीक्षात्मक अनुशीलन विश्व में भारतवर्ष एक धर्मप्रधान राष्ट्र है इसमें अनेक धर्मों, सम्प्रदायों और विचारों का संगम है। इस राष्ट्र में निवास करने वाले मानवों ने सदैव धार्मिक एवं नैतिक परम्परा का निर्वाह किया है। उस धर्मसंगम में धर्मतीर्थ (जैनधर्म) एक महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है, कारण कि इस विश्वधर्म का उद्भव तीर्थंकर जैसी २४ महान् पुण्यात्माओं से हुआ है। तीर्थंकरों ने यथार्थतः दोषरहित पवित्र आत्मा को धर्म कहा है परन्तु जब मानवीय आत्मा में मिथ्यात्व, अभिमान, क्रोध, माया, हिंसा, लोभ, असत्य आदि दोष कर्म के कारण प्रविष्ट हो जाते हैं, तब मानव, मन से दूषित विचार करता है, असत्यवचनों का प्रयोग करता है एवं शरीर से हिंसात्मक कार्य करता है। संस्कृतज्ञ नीतिकारों का नैतिकवचन भी इस विषय में प्रसिद्ध है मानसं उन्नतं यस्य, तस्य सर्वं समुन्नतम्। मानसं नोन्नतं यस्य, तस्य सर्वमनुनतम् ॥ तात्पर्य- जिस मानव का मानस निर्दोष-पवित्र है उसके वचन परम हितकर होते हैं और वह शरीर से स्व-पर उपकार के कार्य अपने जीवन में करता है और जिसका मन दूषित एवं अशुद्ध होता है उसके वचन अहितकर तथा शरीर से वह हिंसा असत्यमय कार्य करता है, वह मानव उभयलोक में दुर्गति का पात्र होता है। मानव के मन, वचन, शरीर रूप योगत्रय को शुद्ध करने के लिये ऋषभदेव आदि तीर्थंकर महापुरुषों ने षट् कर्तव्यों का निर्देश किया है। इसी विषय का प्रतिपादन, भ० महावीर की शिष्यपरम्परा के अन्तर्गत आचार्य सोभप्रभ ने दर्शाया है जिनेन्द्रपूजा गुरुपर्युपास्तिः, सत्तवानुकम्पा शुभपात्रदानम्। गुणानुरागः श्रुतिरागमस्य, नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ।। (आ० सोमप्रभ-सूक्तिमुक्तावली) सारांश- (१) जिनेन्द्रपूजा, (२) सद्गुरु उपासना, (३) प्राणियों पर अनुकम्पा, (४) श्रेष्ठपात्र में दान तथा करुणादान, (५) अरहन्त आदि पंच परमदेवों में भक्ति, (६) हितप्रदशास्त्र का स्वाध्याय। ये ६ मानवजीवनरूपी वृक्ष के श्रेष्ठफल हैं। इन षट् कर्तव्यों में भगवत्पूजन को प्रथम (मुख्य) कर्तव्य कहा गया है। मानव या श्रावक के दैनिक जीवन में परमात्मपूजन की प्रथम आवश्यकता है। भारतवर्ष में भगवत्पूजा के विविध रीतिरिवाज प्रचलित हो रहे हैं यथा वैदिक संस्कृति में यज्ञपूजा का प्रमुख स्थान है और श्रमणसंस्कृति में भगवत्पूजा में यज्ञपूजा का प्रमुख स्थान माना है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड के द्वारा अग्नि, चन्द्र, सूर्य आदि देवताओं को प्रसन्न करना प्रयोजन है और श्रमणसंस्कृति में भगवत्पूजा का प्रयोजन पुण्योपार्जन, आत्मशुद्धि, स्वर्ग-प्राप्ति और अन्तिमफल मुक्ति की प्राप्ति है। भारत के अन्य प्रान्तों की अपेक्षा द्रविड़देश में प्राचीन काल में भगवत्पूजा का प्रचार-प्रसार अधिक था। इसका कारण यह है कि दक्षिण भारत में श्रमण-संस्कृति का व्यापक प्रसार था, अतएव दक्षिणभारत श्रमणसंस्कृति और पुरातत्त्व का प्रमुख केन्द्र कहा जाता है। वर्तमान में भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में श्रमणसंस्कृति के अनुरूप पूजाकर्म का प्रचार एवं प्रसार हो रहा है। पूजा की परिभाषा "अहंदाचार्यबहुश्रुतेषु प्रवचनेषु वा भावविशुद्धियुक्तः अनुरागो भक्तिः”। (आचार्यपूज्यपादः सर्वार्थसिद्धिः अ,६, सूत्र २४) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५१. अथवा- “पूज्येषु गुणानुरागो भक्तिः" । सारांश- पूज्यपरमात्मा, महात्मा, परमगुरु अथवा उनके सिद्धान्तों के गुणों का श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भावों से कीर्तन करना अथवा अभिरुचि लेना पूजा की परिभाषा कही जाती है। पूजा के पर्यायवाचक शब्दः- पूजन, पूजा, तपस्या, अपचिति, सपर्या, अर्चा, अर्चन, अर्हणा, स्तवन, कृतिकर्म, कीर्तन, भक्ति, श्रद्धा, आदर, उपासना, वन्दना, स्तुति, स्तव, स्तोत्र, नुति, ध्यान, चिन्तन, अर्चना, प्रणाम, नमोस्तु, प्रतिष्ठा, विधान, अभिरुचि, अनुराग आदि शब्दों के प्रयोग। पूजा कर्त्तव्य के प्रयोजन: ___ पूजाकर्त्तव्य जिस प्रयोजन या लक्ष्य से किया जाता है, वे प्रयोजन सप्त प्रकार के हैं- (१) निर्विघ्न इष्ट सिद्धि, (२) शिष्टाचार परिपालन (३) नास्तिकता परिहार, (४) मानसिक शुद्धि, (५) मोक्षमार्ग सिद्धि, (६) श्रेष्ठगुणलब्धि, (७) कृतज्ञताप्रकाशन। इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिये मानव को दैनिक अर्चा करना अनिवार्य है। पूजा साहित्य एवं पूजाकर्म का मूल उद्भवः वेद, भारतीय साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व, शिलालेखों, मूर्तिलेखों और तीर्थ क्षेत्रों से २४ तीर्थंकरों की सत्ता सिद्ध होती है और तीर्थंकरों के सतत पुरुषार्थ से अहिंसा, स्याद्वाद, अपरिगतवाद, अध्यात्मवाद जैसे लोकोपकारी श्रेष्ठ सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है और इन्हीं सिद्धान्तों के अन्तर्गत पूजा साहित्य एवं पूजाकर्म का उद्भव हुआ है। इससे पूजा साहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है, पूजा साहित्य आजकल का नहीं है। ___अधर्म का निराकरण, दुर्जनों का परिहार और सम्मानवों का संरक्षण करने के लिये जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, उन महान् आत्माओं को तीर्थकर कहते हैं-"धर्मतीर्थ करोतीति तीर्थंकरः" । इस प्रकार संस्कृत व्याकरण से तीर्थकर शब्द निष्पन्न होता है। आचाराणां विद्यातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा। धर्मग्लानि परिप्राप्तं, उच्छ्यन्ते जिनोत्तमाः ॥ (रविषेणाचार्यकृत-पद्मपुराण पर्व ५, पद्य) इस विश्व में जब सदाचार का विघात हो जाता है, अज्ञानी दुर्जनों द्वारा अधर्म एवं अन्याय वृद्धिंगत हो जाता है, धर्ममित्र का लोप हो जाता है उस समय तीर्थंकरों का उदय होता है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी कहा है: यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के अस्तित्व की सिद्धिः आर्ष भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत भिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रह में २४ तीर्थंकरों का तथा जिनसेन आचार्य प्रणीत आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का गर्भदशा से-निर्वाणदशापर्यन्त सम्पूर्ण वर्णन सम्प्राप्त है। ___भागवतपुराण के पंचमस्कन्ध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवनवृत्त, तपश्चरण आदि का विस्तृत वर्णन है जो प्रायः सभी मुख्य तत्त्वों में जैन पुराणों के समान है। "अपमवतारो रजसोपप्लुतकेवल्योपशिक्षणार्थम्"। (श्रीमद्भागवतपुराण-५/६/९२) तात्पर्य-ऋषभदेव का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए मानवों को केवल्य (पूर्ण केवलज्ञान) की शिक्षा देने के लिये हुआ था। केशाग्निं केशी विषं विभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वर्दशे, केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥ (ऋग्वेद-१०/१३६/१) तात्पर्य-केशी (कुटिल केशधारी ऋषभदेव) मुनिदशा में अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथिवी को धारण करते हैं। वह विश्वद्रष्टा प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्राचीनता की दृष्टि से ऋषभदेव का अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला समस्त प्राचीन वाङ्मय-वैदिक जैन एवं बौद्धग्रन्थों में तथा अभिलेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण दोनों सम्प्रदायों के स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उक्त कथनों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्राचीन उद्धरणों से भी यह सिद्ध होता है कि वैदिक जैन और बौद्धपुराणों के आधार से तीर्थंकर ऋषभदेव की मान्यता अति प्राचीन काल से ही लोक में प्रवाहित हो रही है। इससे प्रमाणित होता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही पूजासाहित्य का मूल-उद्भव या मूल प्रवर्तन हुआ है। तत्पश्चात् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर तक पूजासाहित्य की विकसित परम्परा प्रवाहित होती रही है। (डॉ० नेमिचन्द्रः तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भा.२) २४वें तीर्थंकर भ० महावीर का प्रमाणित अस्तित्व: २४वे तीर्थंकर भ० महावीर का अस्तित्व इतिहास, पुरातत्त्व, शिलालेख, मूर्तिलेख, स्तम्भलेख और पुराणों से सिद्ध होता है:-तथाहि-कंकाली टीला मथुरा उ.प्र. से भ० महावीर की एक मूर्ति, कनिष्क नृप के राज्यकाल ईसापूर्व ५३ की प्राप्त हुई है, वह सर्वप्राचीन मूर्तियों में से एक मूर्ति है। राजगृह नगर (बिहार) के मणियार मठ वाले शिलालेख में विपुलाचल और उस पर राजा श्रेणिक की अवस्थिति निदर्शित है। कारण कि भ० महावीर के अनन्यतम भक्त मगधदेश के महाराजा श्रेणिक थे और भ० महावीर का सर्वप्रथम उपदेश राजगृह के विपुलाचल पर स्थित समवशरण में हुआ था। जिस मूर्ति पर यह शिलालेख अभिलिखित है उसका पादपीठ का अंश ही शेष है। इस पर कुशाणकालीन (ईसा प्र० शती) लिपि में यह लेख अंकित है। “पर्वतो विपुल-राजा श्रेणिक"(जैनशिलालेख सं.भा. २: शिलालेख नं. ५: पृ० १२; बम्बई)। भ० महावीर से पूर्व मध्यएशिया के नगरों में जैन धर्म का प्रसार था, यूनान के इतिहास में अहिंसाधर्म का उल्लेख प्राप्त होता है। यूनान के दार्शनिक विद्वान् पैथेगोरस भ० महावीर के समकालीन थे। वे पुनर्जन्म तथा कर्मसिद्धान्त को मान्य करते थे। इस विषय में एक उद्धरण यह है पूरी संभावना है कि भ० महावीर से पहिले मध्यएशिया के स्पिया, अमन, समरकन्द, वलाख आदि नगरों में जैनधर्म फैला था। ई० पूर्व छठी शताब्दी में यूनान के इतिहासकार हेरोडोनस ने अपने इतिहास में एक ऐसे भारतीय धर्म का उल्लेख किया है जिसमें मांस वर्जित था, जिसके अनुयायी पूर्ण शाकाहारी थे। ५८० ईसा पूर्व० उत्पन्न दार्शनिक पैथेगोरस, जो भ० महावीर व महात्मा बुद्ध के समकालीन थे, जीवात्मा के पुनर्जन्म व आवागमन तथा कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते थे। जीवहिंसा व मांसाहार के त्यागने का उपदेश देते थे। कुछ वनस्पतियों को दार्शनिक दृष्टि से अभक्ष्य मानते थे।" (जैन धर्मः सं. रतनलाल जैन अधिवक्ताः प्र. परिषद् पब्लिशिंग हाऊस देहलीः पृ० १९४-९५, सन् १९७४) भ. महावीर की शिष्यपरम्परा में उद्भूत गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह में तथा जिनसेनाचार्य प्रणीत संस्कृत आदिपुराण आदि पुराणों में आदिनाथ से लेकर महावीर तीर्थकर पर्यन्त २४ तीर्थंकरों का जीवनचरित्र जगत्प्रसिद्ध है। इन तीर्थंकरों के माध्यम से ही न केवल जैन पूजा साहित्य का, अपितु अहिंसा, अनेकान्तवाद, अपरिग्रहवाद, अध्यात्मवाद आदि विश्वहितकारी सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है। पूजा साहित्य की विकास परम्परा. पूजासाहित्य के उद्भव के पश्चात् तीर्थंकरों की गणधरं प्रतिगणधर प्रशिष्य, शिष्य परम्परा के द्वारा समयानुसार पूजासाहित्य का विकास होता गया। अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर की गणधर-प्रतिगणधर-श्रुतधर-सारस्वत-प्रशिष्य और शिष्य परम्परा के द्वारा अन्य सिद्धान्तों के साथ ही जैन पूजासाहित्य का क्रमशः विकास होता आया है। विकास में शिष्यपरम्परा का क्रम, भ० महावीर से लेकर वर्तमान काल तक इस प्रकार है: भ० महावीर के निर्वाण (कार्तिककृष्णा अमावस्या-ईसापूर्व ५२७ वर्ष) के पश्चात् ३ केवल ज्ञानी महापुरुष, ५ श्रुतज्ञानी, ११ दश पूर्वज्ञानधारी आचार्य, ग्यारह अंगज्ञानधारी आचार्य-५, अनेक अंग ज्ञानधारी आचार्य-४, आचारांगज्ञानधारी आचार्य-५, श्रुतज्ञान के अन्तर्गत पूजासाहित्य का प्रसार करते रहे। तदनन्तर विक्रमपूर्व प्रथम शती से लेकर १३वीं शती तक आचार्य श्रीधरसेन से लेकर महाकवि श्री हस्तिमल्ल तक १८ आचार्यों ने यथासमय संस्कृत-प्राकृतसाहित्य, पौराणिक साहित्य, पूजासहित्य, दर्शन और आध्यात्मिक साहित्य की रचना कर विश्व में श्रुतज्ञान की धारा को प्रवाहित किया। जो ज्ञान का साहित्य प्रायः वर्तमान में उपलब्ध है। तत्पश्चात् २८ संस्कृत साहित्यकार विक्रम की ८वीं शती से १७वीं शती तक संस्कृतसाहित्य के अन्तर्गत पूजा साहित्य को और वि० की षष्ठशती से १७ शती तक प्राकृत तथा अपभ्रंशभाषाविज्ञ अपनी प्रतिभा द्वारा प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य एवं पूजासाहित्य की गंगा को प्रवाहित करते रहे। इन साहित्यकारों की संख्या ५१ प्रसिद्ध है। इसके पश्चात् १८वीं शती से लेकर २०वीं शती तक कविवर वृन्दावन, महाकवि द्यानत राय से लेकर कांववर रघुसुत कुंजीलाल तक अनेकों कवियों द्वारा ब्रज भाषा, ढूंठारीभाषा, बुन्देली भाषा, मराठी, हिन्दुस्तानी, हिन्दी आदि भाषाओं में धार्मिक एवं पूजासाहित्य Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ का सृजन कर भारतीय साहित्य को समृद्ध किया गया है ईसा की २०वीं तथा विक्रम की २१वीं शती में अपनी त्याग-तपस्या एवं प्रतिभा द्वारा, संस्कृत-हिन्दी भाषा में धार्मिक एवं पूजासाहित्य का सृजन कर आचार्यपरम्परागत पूर्व साहित्य को आर्यिकारत्न गणिनी श्री १०५ ज्ञानमती माताजी ने विकसित और वृद्धिंगत किया है। आपने पूजा-विधानसाहित्य के अनेकों प्रन्थों की रचनाकर वर्तमान में पूजासाहित्य एवं पूजाकर्म को भारतीय जैन समाज के प्रांगण में रचनात्मकरूप में प्रस्तुत किया है। अर्थिकारल द्वारा विरचित पूजा प्रन्थों में हमारे समक्ष मात्र तीन ग्रन्थ है (१) त्रलोक्यविधान, (२) सर्वतोभद्रविधान, (३) तीनलोकविधान (१) त्रैलोक्यविधान - इस ग्रन्थ को "लघुत्रैलोक्यविधान" भी कह सकते हैं कारण कि इसमें मुख्य रूप से त्रिलोक के अकृत्रिम जिनचैत्य एवं चैत्यालयों का अर्चन है तथा संक्षेप में कृत्रिम जिनचैत्य चैत्यालयों की अर्चा लिखित है अतः इस प्रन्थ का सार्थक नाम रखा गया है। भक्तिपूर्णभावों से विरचित इस विधान में ३२ पूजा, ३३ जयमालाएं ५६७ अर्घ्य, ७४ पूर्णार्घ्य और ३० प्रकार के छन्दों के प्रयोग किये गये हैं। जिनके माध्यम से इस ग्रन्थ में प्रायः १५५१ पद्मों की रचना कर विधान के शाब्दिक शरीर को परिपुष्ट किया गया है। श्री गौतमस्वामीकृत चैत्यभक्ति और स्वरचित मंगलाष्टक संस्कृत में होने से इसकी विशेष शोभा द्योतित होती है। पद्मों में छन्द, रस, अलंकार, रीति, गुण और काव्य के लक्षणों के यथायोग्य अनुप्रयोगों से इस ग्रन्थ की कविताकामिनी ने भक्तजनों के हृदयों को आकर्षित कर लिया है। इन छन्दों की एक विशेषता यह भी ज्ञातव्य है कि हारमोनियम, वेला, सितार आदि वाद्यों के साथ इस विधान के पद्यों की स्वरलहरी जब सभा के मध्य ध्वनित होती है उस समय भक्ति से आह्लादित होकर इन्द्र-इन्द्राणी और भक्तजन नृत्य करने में तन्मय हो जाते हैं। यही इन छन्दों की रमणीयता है। विधान के कतिपय विशिष्ट छन्दों के उदाहरणः गंगानदी का नौर निर्मल बाह्यमल धोवे सदा, अन्तरमलों के छालने को नीर से पूजूं सदा। नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें सब सिद्धि नवनिधि रिद्धिमंगल पाय शिवकान्ता वरें ॥ नवदेवतापूजन में जल अर्पण करने का यह पद्य नरेन्द्रछन्द में रचित है, इसमें भक्तिरस, रूपकालंकार, अनुप्रास, प्रसादगुण, कार्यलक्षण और वैदर्भी रीति के प्रयोग से यह पद्य आनन्द की वर्षा कर रहा है Jain Educationa International जो भव्य श्रद्धा भक्ति से त्रलोक्यजिन पूजा करें, सब रोग शोक विनाशकर, भवसिन्धुजल सूखा करें। चिन्तामणी चिन्मूर्ति को वे स्वयं में प्रकटित करें, 'सुज्ञानमति' रविकिरण से, त्रिभुवनकमल विकसित करें। ४५३ त्रैलोक्यजिनालय पूजा का यह आशीर्वाद पद्य है। गौताछन्द में रचित यह पद्य रूपकालंकार, उत्प्रेक्षालंकार की पुट से तथा अर्थव्यक्तिगुण, पांचाली रीति शोभालक्षण और भारतीवृत्ति के उपयोग से शान्तरस का वर्षण कर मानवसमाज को आनन्दित कर रहा है। आगे मध्यलोक जिनालयपूजा की जयमाला का चतुर्थ पद्य देखिये स्वात्मानंदैक परम अमृत - झरने से झरते समरस को, जो पीते रहते ध्यानी मुनि, वे भी उत्कण्ठित दर्शन को । ये ध्यानधुरन्धर ध्यानमूर्ति यतियों को ध्यान सिखाती है, भव्यों को अतिशय पुण्यमयी, अनवधि पीयूष पिलाती हैं । शभुंछन्द में शोधित यह विशाल पद्यरूपकालंकार एवं उत्प्रेक्षा हेतु अलंकारों से शोभित होता हुआ प्रसादगुण, पांचालोरोति, कार्यलक्षण एवं भारतीवृत्ति का अनुकरण कर शान्तरस का सरोवर ही हो रहा है। इसमें अनुप्रास शब्दालंकार भी अपनी छटा प्रदर्शित कर रहा है। पूजा नं. १५ के अन्तर्गत जयमाला के ७वें पद्य का चमत्कार भक्तजनों को आनन्दविभोर कर रहा है ये जिनमन्दिर शिवललना के श्रंगार विलास सदन माने, भविजन हेतु कल्याण भवन, पुण्यांकुर सिंचन वन माने । इनमें हैं इक सौ आठ कहीं, जिनप्रतिमा रतनमयी जानो, मुझ ज्ञानमती को रत्नमय-सम्पति देवें यह सरधानो || ७ || For Personal and Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस पद्य में शंभुछन्द स्वरलहरी व्यक्त कर रहा है। रूपकालंकार से शब्दों में विप्रलंभश्रंगार, भावों में विरागता झलकती है। उत्प्रेक्षालंकार से जिनमन्दिर कल्याण के भवन और मानवों को पुष्पांकुर सिंचन के उद्यान हैं काव्य का कान्तिगुण, पांचालीरीति, काव्य का युक्ति चिह्न और भारतीवृत्ति इस सामग्री ने इस पद्य को भक्तिरस का शीतल सरोवर रूप में लवालव भर दिया है। इसी कारण से विधानरचयित्री माताजी ने श्रद्धापूर्वक रत्नमयनिधि को प्राप्त करने की कामना की है। पूजा नं. २६ में रुचकगिरि के जिनालयों का अर्चन है इसके प्रत्येक अर्घ्य प्रकरण में प्रथम पद्य का अनुभव करें जो मुक्तिकन्या परिणयन हित, अतुल मण्डप सम दिखें, जिनवरजिनालय सासता, मुनिगण जहां निजरस चखें। जल गन्ध आदिक अर्घ लेकर, पूजते निधियां मिलें, मनकामना सब पूर्ण होकर, हृदय की कलियां खिलें। पद्य में गीताछन्द के द्वारा जिनवर के गीतों की लहर उठ रही है। यहां पर रूपकालंकार ने मुक्ति को कन्या का रूप दे दिया है तथा उपमालकार ने, मुक्तिकन्या के साथ विवाह करने के लिये शाश्वत जिनालयों को विशाल मण्डप के समान कल्पित कर दिया है यहां शब्दों में कल्पित श्रृंगार और भावों में वैराग्य की भावना झलक रही है इसलिये तपस्वी इन मन्दिरों में आत्मरस का प्याला पीते हैं। काव्य का उदारता गुण, पांचाली रीति, काव्य का सिद्धिगुण, भारतीवृत्ति ये सभी प्रत्यंग अपने-अपने प्रभाव से भक्तिरस गंगा को तंरगित कर रहे हैं। उसमें भक्तजनों के स्वान्तकमल की कलियां खिल जाती हैं। इसी विधान की पूजा नं. २८ की जयमाला के १२वें पद्य का भाव सौन्दर्य भक्तजनों को सम्बोधित करता है धन धन्य है यह शुभ घड़ी, धन धन्य जीवन सार्थ है, जिन अर्चना का शुभ समय आया उदय में आज है। जिनवन्दना से आज मेरे चित्त की कलियां खिली मैं ज्ञानमति विकसित करूं अब रतनत्रय निधियां मिलीं। इस सुन्दर पथ के गीता छन्द ने जिनेन्द्र अर्चना के गीत गाये हैं। उल्लेखालंकार ने विविध उल्लेखों के द्वारा भक्तिरस के झरनों को प्रवाहित किया है। प्रसादगुण ने प्रसन्नता को वृद्धिंगत किया है, वैदर्भीरीति सिद्ध लक्षण ने सरलता को द्योतित कर दिया है, भारतीवृत्ति ने वाणी को हर्षप्रद बना दिया है, जिनेन्द्रवन्दना का इस पद्य से सिद्ध होता है। इस विधान की विशेषता यह भी ज्ञातव्य है कि गणिनी माताजी की विज्ञानमय मति ने प्रत्येक पूजा के अन्त में पूज्यपरमात्मा के प्रसाद से गुणों की प्राप्ति हेतु आशीर्वादपट्टा, विश्वप्राणियों के दुःखों की शान्ति के लिये शान्तिधारापद्य और विश्वप्राणियों के कल्याण के लिये पुष्पांजलि पद्यों का निर्माण किया है। (२) सर्वतोभद्र विधान का अनुशीलन श्री पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत इस द्वितीय विधान का नाम 'सर्वतोभद्रविधान' प्रसिद्ध है, इसका द्वितीयनामधेयं वृहत् तीन लोकविधान' पुनः पुनः स्मरणीय है। प्रथम नाम इस दृष्टि से सार्थक सिद्ध होता है कि यह विधान विश्व के अखिल प्राणियों का सर्वतोमुखी कल्याण करने वाला है। द्वितीयनामधेय इस कारण सार्थक है कि इसमें तीनलोकों के सम्पूर्ण अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्यालयों का विस्तृत पूजन लिखा गया है। इस विधान के अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि पूज्य माताजी ने स्वकीय श्रुतज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के सम्पूर्ण चैत्यालयों के भावपूर्वक दर्शन कर लिये हैं अतएव आप लोकत्रय के सम्पूर्ण चैत्यालयों के विस्तृत वर्णन, दर्शन, पूजन एवं लेखन करने में सक्षम हो सकी हैं, यह वृत्त दुर्लभ और स्मरणीय है। शास्त्रों में इस विधान का एक नाम 'चतुर्मुखयज्ञ' भी प्रसिद्ध है इसको महामुकुट नरपतियों द्वारा बड़ी योजना एवं समारोह के साथ किया जाता है। इस महाविधान के प्रारंभ में हिन्दीमंगलाचरण, संस्कृतस्वस्तिस्तव, मंगलस्तव (प्राकृत) सामायिकदण्डक, धोस्सामिस्तव और संस्कृतचैत्यभक्ति का पाठ दर्शाया गया है। इस विधान में सम्पूर्ण १०१ पूजाएं, उनमें १८११ अर्घ्य और १९० पूर्णार्ध्य-इस सर्व सामग्री के द्वारा तीनलोकों के सम्पूर्ण ८५६९७४८१ अकृत्रिम तैत्यालयों का अर्चन किया गया है। ८९७ पृष्ठों में समाप्त हुए इस महाविधान में ३७ प्रकार के छन्दों में विरचित ४२३० सुन्दर पद्य त्रिलोक के चैत्र एवं चैत्यालयों की महत्ता एवं पूज्यता को घोषित कर अन्तिम परमात्मपद की प्राप्तिरूप फल को दर्शाते हैं। इस महा पूजा में सविधि प्रयुक्त ८ प्रहाध्वजाएं एवं १०८ लघुध्वजाएं अमूल्य सिद्धान्तों को, समर्पित १०८ स्वस्तिक विश्वकल्याण को घोषित करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५५ जिस प्रकार लोकोक्तिरूप में विधाता ने जगत्त्रय की रचना कर तीन लोक में अपना अधिकार स्थापित कर लिया है उसी प्रकार विधान की विधात्री ने वृहत् तीन लोक विधान की रचना कर जगत् के विधान (राजनीतिशास्त्र अथवा पूजा विधानशास्त्र) में अपना अधिकार चिरस्थायी कर लिया है यह आश्चर्य है। माताजी ने वी.नि.सं. २५१३ में यह त्रिलोक विधान समाप्त कर स्वकीय मानवजीवन को उच्चश्रेणी में उज्जीवित किया है। विधान की विशेषता के कतिपय उद्धरण इस प्रकार हैं पूजाक्रमांक १-त्रैलोक्यपूजा के जल अर्पण करने का पद्यभर जावे पूरा त्रिभुवन भी, प्रभु इतना नीर पिया मैंने, फिर भी नहिं प्यास बुझी अब तक, इसलिये नीर से पूजूं मैं। त्रैलोक्य जिनालय जिनप्रतिमा कृत्रिम अकृत्रिम अगणित हैं, अर्हन्त सिद्ध साधू आदिक, इन सब की पूजा शिवप्रद है।९॥ शुभ एवं भावसौन्दर्य से पूर्ण इस पद्य पर विचार किया जाये तो गंभीर अर्थ ज्ञात होता है - जैसे कोई रोगी रोगविनाशार्थ डाक्टर के पास जाता है, डाक्टर दवा देता है, दवा सेवन से जब लाभ नहीं, तब रोगी पुनः ऊंचे डाक्टर के पास जाता है और कहता है कि ७ दिनों में दवा से कोई लाभ नहीं। आप इससे ऊंची दवा दीजिये। डाक्टर ने ऊंची दवा दे दी। रोगी ने ऊंची दवा के सेवन से अपना रोगनाश किया और स्वस्थ हो गया। उसी प्रकार इस जगत् के प्राणी ने तृषारोग की दवा जल किसी डाक्दर से ली, जब रोगी ने बहुत जल पिया और प्यास शान्त नहीं हुई तो वह ऊंचे डाक्टर परमगुरु के पास गया और जल सामने रखकर कहा-गुरुदेव! इस जल से प्यास शान्त नहीं हुई, दूसरी कोई ऊची दवा कहिये, तब गुरुदेव ने समतारुपी जल दिया और उससे वह स्वस्थ हो गया। इसी प्रकार इस पद्य में भी यही भाव दर्शाया गया है। शंभुछन्द से शोभित यह पद्य विशेषालंकार समाधिगुण वैदर्भी रीति, सिद्धलक्षण और भारतीवृत्ति से अनुप्राणित होकर भक्तिरस की सरिता को प्रवाहित कर रहा है। पूजा नं. ९१ की जयमाला का १४वां पद्य (पृ. ७९९) का भावसौन्दर्य जिनभक्ती गंगा महानदी, सब कर्ममलों को धो देती, मुनिगण का मन पवित्र करके, तत्क्षण शिवसुख भी दे देती। सुरनर के लिये कामधेनु, सब इच्छित फल को फलती है, मेरे भी ज्ञानमती सुख को पूरण में समरथ बनती है। भावसौन्दर्य-जिनेन्द्रभक्तिरूपी गंगानदी, द्रव्यकर्म, भावकर्म नोकर्मरूपी मल का प्रक्षालन करती है। आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं आर्यिकाओं के मन को पवित्र कर सहसा मुक्तिसुख को प्रदान करती है, देवों और मानवों के लिये इच्छित श्रेष्ठफल को प्रदान करती है और ज्ञानमती आर्यिका के क्षायोपशमिक ज्ञान एवं सुख को क्षायिक (सम्पूर्ण) सुख एवं ज्ञान को करने में समर्थ है। इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक जिनेन्द्रभक्ति से विश्व की भव्य आत्मा ही परमात्मपद को प्राप्त करती है। इस पद्य में रूपकालंकार, तद्गुणालंकार के प्रभाव से शान्तरस की शीतलता प्रवाहित होती है। उदारता गुण, पांचालीरीति सिद्धि लक्षण, भारती वृत्ति की पुट से शान्तरस का फब्बारा धुंआधार चल रहा है। पूजा नं. ८७ ग्रह जिनालय पूजा पृष्ठ ७६१ का ७वां पद्य जिनभक्ति अकेली ही जन के, सब ग्रह अनूकूल बना देती, जिनभक्ति अकेली ही जन को, दुर्गति से शीघ्र बचा लेती। जिनभक्ति ओकली ही जन के, तीर्थंकर आदि पुण्य पूरे, जिनभक्ति अकेली ही जन को शिवसुख देकर भवदुख चूरे ।। शंभुछन्द में विरचित इस पद्य का यह चमत्कार पूर्ण अर्थ द्योतित होता है कि कारण एकमात्र जिनभक्ति है और उसके कार्य चार हैं (१) ग्रहों की शान्ति (२) दुर्गति से सुरक्षा (३) तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि उच्च पद प्राप्ति, (४) भक्तिपद की सम्प्राप्ति । विशेष यह की जिनेन्द्र भक्ति इतना प्रबल एक कारण है कि उससे अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं। द्वितीय चमत्कार यह प्राप्त होता है कि जिन भक्ति रूप श्रेष्ठ कारण किसी स्थान पर विद्यमान है और कार्य किन्हीं अन्य स्थानों पर होते हैं यह चमत्कार साहित्य के असंगति अलंकार से अलंकृत होता है। इस विशिष्ट अर्थ से भक्तिरस और शान्तरस का समन्वय सिद्ध होता है। काव्य की अन्यसामग्री का भी इसमें समावेश हो जाता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६] पूजा नं. ४८ मंदरमेरुपूजा, जयमाला, पद्य नं. ७, पृ. ४३३ का उद्धरणः गुणगण वे वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मणिमाला, परमरसाला, जो भविजन निजकण्ठ शीघ्र शमनकर, मुक्तिरमा को स्वयं इस विधान के कतिपय रम्य पद्यों का उद्धरण - मंगलाचरण का आठवां पद्यः भवदावानल यत्ताछन्द में निबद्ध इस पद्य में रूपकालंकार, परिकरालंकार की संसृष्टि से अन्यसामग्री के सहयोगपूर्वक शान्तरस की वर्षा हो रही है। अनुप्रास नाम अलंकार भी शब्दों में अपना चमत्कार प्रदर्शित कर रहा है 1 (३) तीनलोक विधान का समीक्षात्मक परिशीलनः / इस विधान का प्रथम नाम 'तीनलोक विधान' प्रसिद्ध है, इसका द्वितीय अभिधान 'मध्यम तीन लोक विधान' निश्चित किया गया। यह विषय तो पौराणिक, सैद्धान्तिक और वैज्ञानिक दृष्टि से प्रसिद्ध है कि यह लोक अत्यन्त विशाल है, परिमाण से ३४३ राजू घनाकार है इतने विशाल लोक का श्रुतज्ञान से अवलोकन पर उसके चैत्य एवं चैत्यालयों का वर्णन, पूजन, भजन वृहत्-मध्यम-लघु रूप में कर देना अर्थात् तीन विधानों का सृजन करना यह विधात्री माताजी के ज्ञान की विलक्षण प्रतिभा समझना महान् आचर्य का विषय है, यह तो दीपक के द्वारा सूर्य की पूजा करना है। वी.नि.सं. २५१३ में इसकी रचना पूर्ण होकर २५१४ में यह प्रकाशित हो गया। इस विधान में कुल ६४ पूजाएं, ८८४ अर्घ्य एवं १४० पूर्णार्घ्य लोकत्रय के चैत्य- चैत्यालयों का अर्चन करते हैं, ६५ जयमालाएं परमात्मा के श्रेष्ठगुणों का चिन्तन करने में संलग्न हैं। इस विधान का द्रव्य शरीर ३५ प्रकार के छन्दों में निबद्ध २४४८ पद्म प्रमाण है, जो पद्य संगीत की रम्य स्वरलहरी लहराते हुए जनता द्वारा गेय-शेव एवं ध्येय है, नियमतः पद्य भक्तभव्यों के स्वान्तसरोज को प्रफुल्लित करते हैं। मैं यही परोक्ष भावपूर्वक कर जोड़ शीश नावूं वन्दू, जिनमन्दिर जिनप्रतिमाओं को मैं वन्दूं कोटि कोटि वन्दूं । जिनवर की भक्तीगंगा में अवगाहन कर मल धो डालूं, निज आत्मसुधारस को पीकर चिन्मय चिन्तामणि को पालूं ॥ शंभु छन्द में निबद्ध इस पद्य में विधानविधात्री माताजी ने ग्रन्थरचना का कारण और कारण का कारण भी स्पष्ट लिख दिया है। अर्थात् प्रथम अन्तरंग कारण है अकृत्रिम एवं कृत्रिम चैत्य चैत्यालयों का विशुद्धभावपूर्वक दर्शन-वन्दन-पूजन-नमन है। वीतराग परमात्मा की भक्तिगंगा में कर्ममल का प्रक्षालन शुद्धात्मसुधारस का पान और शुद्ध चैतन्य चिन्तामणि को प्राप्त करना । द्वितीय बहिरंग कारण ग्रन्थ की रचना कर प्राणियों का कल्याण करना। पूजा नं. १- णमोकार महामंत्रपूजा की जयमाला का ९वां पद्यः Jain Educationa International इस पद्म में कारणमाला एवं रूपकालंकार की संसृष्टि से और प्रसाद गुण, पांचलीरीति, सिद्धिलक्षण, भारतीवृत्ति इस काव्य की सामग्री से शान्तसुधारस का शीतल प्रवाह भक्तजनों को आनन्दित करता है। - इस मंत्र के प्रभाव श्वान देव हो गया, इस मंत्र से अनन्त का उद्धार हो गया। इस मंत्र की महिमा को कोई गा नहीं सके, इसमें अनन्तशक्ति पार पा नहीं सके ।। दीनबन्धु की चाल में निबद्ध इस पद्य में महामंत्र की महिमा का वर्णन किया गया है। उदात्तालंकार ने इसकी महिमा को उदात्त रमणीय बना दिया है। भारतीवृत्ति, वैदर्भीरीति कार्यलक्षण, प्रसादगुण के आलोक में शान्तरस की शीतक वृष्टि इस पद्य उद्यान में की गई है। पूजा नं. ६१; नव अनुदिश जिनालय पूजा; जयमाला पद्य-६ वां: धरें । करें ।। - । सोहं शुद्धहं सिद्धोह, चिन्मय चिन्तामणि रूपोह, नित्योहे ज्ञानस्वरुपोर्ट आनन्त्यचतुष्टय रूपोह मैं नित्य निरंजन परमात्मा का ध्यान करूं गुणगान करूं, सोहं सोहं रटते रटते, परमात्म अवस्था प्राप्त करूं ॥ For Personal and Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५७ यह पद्य शंभुछन्द में निबद्ध होकर भी शुद्धात्मा का अबद्धरूप से आख्यान करता है। आत्मा से परमात्मा बन जाने का यह सहज ही मार्ग दर्शाता है। स्वभावोक्ति अलंकार आत्मा को स्वभाव से ही अलंकृत करता है। समता और समाधिगुण शब्दार्थ चमत्कार है। लाटी या रीति शब्दों की क्लिष्टता को दर्शाती है। निरुक्त लक्षण शब्दों की निरुक्ति का कथन करती है और भारतीवृत्ति भारत में भारतीयों को शान्त एवं वीररस का सन्देश दे रही है। इन उद्धरणों से यह प्रतीत होता है कि माताजी की काव्य शक्ति प्रतिभासम्पन्न है। वस्तुतः वे विधान काव्य की विधात्री स्मरणीय हैं। प्रत्येक पूजा के अन्त में आशीर्वाद पद्य, पुष्पांजलि पद्य और शान्तिधारा पद्य सप्रयोजन कथित हैं। आप संस्कृत साहित्य की भी विदुषी होकर संस्कृतकाव्य का सृजन करती हैं। इस विधान में प्रारंभमंगलरूप में संस्कृत मंगलाष्टक स्तोत्र और चैत्यभक्ति का दर्शन आप ने कराया है। अन्य पूजा विधानों में भी आर्यिका जननी ने भाषाजननी में काव्यों एवं स्तोत्रों की रचना कर विद्वानों का मानस प्रमुदित किया है। ___ तीनों विधानों के अन्त में कु० माधुरी शास्त्री द्वारा (वर्तमान में श्री आ. चंदनामती) आरती एवं भजन के माध्यम से स्वकीय मधुर भक्तिभाव दर्शाया गया है। ऋषिमण्डल विधान, शान्ति विधान समीक्षक - प्रो० निहालचन्द जैन, प्राचार्य, बीना (म०प्र०) जिनेन्द्र भक्ति मुक्ति सोपान का प्रथम मांगलिक चरण है। जिस प्रकार मयूर के आगमन से चन्दन के R EPEATE वृक्षों से लिपटे विषधरों के निविड़ बंधन स्वयमेव ढीले पड़ने लगते हैं उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान की भक्ति दिना विधानजाविधान से आत्मा को कसे पाप और असाता रूप कर्मों के विषधर अपने आप निर्बन्ध होने लगते हैं। जिनेन्द्र भक्ति का मूल आधार 'देवशास्त्र गुरु' की पूजन का विधान श्रावकों के लिए है। देवपूजन के अन्तर्गत इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र शान्ति मण्डल और ऋषिमण्डल आदि विधान है, जो नैमित्तिक पूजन के रूप में प्रत्येक श्रावक को करणीय हैं तथा इनके आराधन से आत्मा में विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने सर्वप्रथम इन्द्रध्वज मण्डल विधान की सरल बोधगम्य हिन्दी भाषा . में रचनाकर इसकी गुणवत्ता को सर्वजनशान्तिकराय व मंगल भूत बनाकर देश के दिग्दिगन्त में इसकी सुरभि विकीर्ण की है। प्रस्तुत समीक्षात्मक ग्रन्थ - "ऋषिमण्डल पूजा विधान", "शान्तिनाथ पूजा विधान" - इन्द्रध्वज महामण्डलविधान कल्पद्रुम मण्डल विधान, तीस चौबीसी विधान और त्रैलोक्यमण्डल विधान की श्रृंखला की दो श्रेष्ठ कड़ियाँ हैं। इनका प्रणयनकर पूज्य माताजी ने मनोवाञ्छित कार्य की सिद्धि, आत्मशक्ति एवं सर्वोपद्रव विनाशन हेतु दो अमोघ अस्त्र श्रावकों के हाथ सौंप दिए हैं। ___ इन समीक्षा ग्रन्थों के प्रणयन में प्रेरणास्वरूप आर्यिका चन्दनामती माताजी रहीं । मूलतः ऋषिमण्डल पूजा विधान - श्री गुणनन्दि मुनीन्द्र विरचित है और श्री शान्ति विधान - श्री महाज्ञानी मुनि सकलकीर्ति के शिष्य ब्र. जिनदास के शिष्य ब्र. शान्तिदास विरचित संस्कृत भाषा में है। शताधिक आगम ग्रन्थों की प्रणेत्री-पू० आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा उक्त 'पूजा विधान ग्रन्थों' का सरस एवं बोधगम्य हिन्दी पद्यानुवाद एवं भावानुवाद है जो एक उपादेय ग्रन्थ बन गया है। प्रथम समीक्ष्य ग्रन्थ - ऋषिमण्डल पूजा विधान का शुभारम्भ नवदेवता (अरिहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय) की पूजन से किया गया है जो गीता छंद में निबद्ध है। जिनागम में इन नवदेवताओं की अचिंत्य महिमा वर्णित है और आत्म शान्ति विशुद्धि के लिए "ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म जिनागम जिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नमः" की १०८ बार जाप्य सर्वसिद्धदायक प्रमाण है। ऋषिमण्डल पूजा विधान में सर्वप्रथम ऋषिमण्डल मंत्र की स्थापना की जाती है जिसका मॉडल ग्रन्थ के प्रारम्भ में सचित्र दर्शाया गया है। यंत्रोद्धार विधि (यंत्र बनाने की सरल विधि) पृथक् टिप्पणी के रूप में वर्णित है। मॉडल के बीचोंबीच 'ह्रीं वर्ण लिखा जाता है जिसके बाहर वलयाकार क्रमशः ८, ८, १६ और २४ कोठे बने होते हैं। 'ह्रीं वर्ण को परिवेष्टित कर २४ लघु कोठे-चौबीस तीर्थंकरों के नाम के प्रथम अक्षर या पूरे नाम सहित होते हैं और अन्त के २४ कोठों में चौबीस देवताओं (२४ देवियों) के नाम 'ॐ ह्रीं' मंत्राक्षर के साथ तथा ८-८ कोठे क्रमशः देवनागरी वर्णमाला के सभी स्वर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८] सोलह कोठों में सोलह मंत्र व्यंजन तथा ॐ ह्रीं के साथ अर्हदभ्यो सिद्धेभ्यो आचायेभ्यो पाठकेभ्यो सर्वसाधुभ्यो तत्त्वदृष्टिभ्यो, सम्यग्ज्ञानेभ्यो तथा सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः लिखा जाता है। चार प्रकार के इन्द्रों के लिए चार प्रकार के अवधिज्ञान के लिए और आठ ऋद्धियों के लिए नमस्कार रूप हैं । इसके बाद संस्कृत में ऋषिमण्डल स्तोत्र अस्सी श्लोकों में वर्णित है। वस्तुतः यह स्तोत्र ग्रन्थ का हार्द है जिसमें ऋषिमण्डल का आध्यात्मिक रहस्य एवं पूजा का फल वर्णित है। इसका आराधन ऐहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों के साथ इष्ट मनोरथ की प्राप्ति एवं कार्यसिद्धिदायक है। ग्रन्थ में आगे पाँच पूजाओं का वर्णन है। ये पूजाएं चौबीस कोठों चौबीस तीर्थंकर पूजा आठ कोठे में अष्टबीजाक्षर पूजा, पुनः आठ कोठे अर्हन्तादि की पूजा, सोलह कोठे में भावनेन्द्रदि पूजा और अन्तिम पांचवीं पूजा २४ देवताओं की पूजा है जो गीता छंद, रोला छंद, नरेन्द्र छंद शंभुचंद और कुसुमलता छंदों में वर्णित है। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला उक्त वर्णित छन्दों में निखरकर उद्वेलित हुई है। पू० आर्यिकारत्न माताजी की कवित्व प्रतिभा एवं धारा प्रवाह समरसता चौबीस तीर्थंकरों की पूजा में प्रत्येक तीर्थंकर के लिए शंभु छंद में काव्य संरचना पू० ० माताजी के कविहृदय की दर्पणवत् निर्मलाछवि प्रस्तुत करती है। भाषा सधी हुई अलंकारों की छटा से युक्त प्रवाहमयी है भावों की उत्कर्षता में ये पद तीर्थकरों की स्तुतिरूप ही हैं जो विधानकर्ता को भावविभोर किए बिना नहीं रह सकता। इसी प्रकार रोला छंद में २४ देवियों के गुणगान कम से कम शब्दों में अभिव्यक्ति का आकाश प्रस्तुत करता है मानो गागर में सागर उड़ेल दिया हो श्री ह्रीं धृति, लक्ष्मी, गौरी, सरस्वती, चंडिका, जया, अम्बिका, विजय आदि देवियों को उनके परिवार सहित यज्ञविधि में सम्मिलित होने के लिए एवं जिनेन्द्र पूजार्चन के लिए बुलाया गया है। बानगी के लिए 'रौद्री देवी' का आमंत्रण देखिये - सम्पूर्ण ऋषिमण्डल पूजा विधान में मंत्रों के जाप्य को प्रधानता दी गई है। ध्यान को साधने के लिए इन विविध मंत्रों की जाप्य आराधक के लिए बताई गयी है। अन्त में ऋषिमण्डल यंत्र का १०८ पार जाप्य स्थिर आसन व एकाग्रतापूर्वक करने का विधान किया गया है। रोलाछन्दः आर्तरौद्र से दूर धर्म शुक्ल को करके। किया मोहमदचूर, मुक्ति लिया निज बल से। ऐसे जिन को नित्य श्रद्धा से भजती जो । रौद्री देवी नाम अर्थदान दूँ उसको।। ग्रन्थ का समापन ऋषिमण्डल स्तोत्र का हिन्दी भावानुवाद से किया गया है, जो ४२ पदों में वर्णित है । ५० पृष्ठों का यह लघुकाय ग्रन्थ एक ही दिन में सम्पन्न किया जाने वाला पुण्यवर्द्धक विधान है। - द्वितीय समीक्ष्य ग्रन्थ श्री शान्तिनाथ पूजा विधान जो ५० पृष्ठों का है तथा आत्मिक शान्ति प्रदाता एक दिन में सम्पन्न होने वाला वैभवपूर्ण विधान है। इसकी प्रशस्ति में आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने काव्यग्रन्थ का सृजन श्री शान्तिनाथ की भक्ति का पुरुषार्थ कहा है जो वीर निर्वाण संवत् २५०६ की वैशाख शुक्ला दशमी को पूर्ण किया गया था। I ――― Jain Educationa International विधिवत् शान्ति विधान यह करो करावो भव्य । सर्व व्याधि दुःख दूरकर फल पावो नित नव्य ।। अर्थात् यह विधान सर्वव्याधि रूप दुःखों को हरण करने वाला है ऐसा इसका फल बताया है। श्री शान्तिनाथ की पूजन सकल विघ्नों को हरण करने वाली, उपद्रवों को शान्त करने वाली तथा लक्ष्मी लाभ देने वाली है, ऐसी लौकिक मान्यता श्रद्धा है, परन्तु जो साधक शान्तिविधान के मंत्र का जाप्य अनुष्ठानपूर्वक करता है। उसके विघ्न स्वयमेव नष्ट होकर सर्व सम्पदायें प्राप्त होती हैं, साथ ही साधक का आत्म वैभव वृद्धिंगत होता है। इस विधान में भी शान्ति यंत्र और झल्लरी यंत्र की स्थापना की जाती है। जिसका यंत्र ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिया गया है। पहिले अति संक्षेप में शान्तिनाथ विधान की आमुख कथा और विधान के मंत्रराज की अनुष्ठान विधि व झल्लरी यंत्रोद्धार का खुलासा किया है। श्री शान्ति विधान के प्रारम्भ में भगवान शान्तिनाथ की भक्ति रूप स्तवन संस्कृत के अष्टकों का शार्दूलविक्रीडित छंद में सुरुचि पूर्ण हिन्दी For Personal and Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ पद्यानुवाद किया गया है। जो माताजी की काव्य सिद्धहस्त प्रतिभा का एक अनुपम उदाहरण है। निर्दोष काव्य विधान से सम्पूरित यह रचना अत्यन्त भावोद्रेक/श्रद्धामूलक है। उदाहरण के लिए लोकालोक निरन्तर व्यापी ज्ञानमूर्तिमय शान्ति विभो । नानारत्न जटित दण्डे युत रुचिर श्वेत छत्रत्रय है || तव चरणाम्बुज पूतगीत रव से झटरोग पलायित हैं। जैसे सिंह भयंकर गर्जन सुन वन हस्ती भगते हैं ।। श्री शान्तिनाथ मण्डल विधान के शान्ति यंत्र में चार वलय हैं जिनमें क्रमशः ८, १६, ३२ और ६४ कोठे हैं। क्रमशः प्रत्येक वलय में ८, १६, ३२ और ६४ अयों के लिए १२० पदों की रचना शंभुचंद, नरेन्द्र छंद, रोला छंद, चालछंद एवं गीता छन्द में निबद्ध है। प्रथम वलय के ८ कोठों में 'ड' भं मेरे घं झं से और खं इन आठ बीजाक्षरों के लिए अर्घ्य समर्पित हैं। द्वितीय वलय के १६ कोठों में अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु रूप पंचपरमेष्ठी तथा सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय एवं ज्ञानवरणादिक अष्ट कार्यों के विपाक से उत्पन्न उपद्रव के निवारण के लिए श्री शान्तिनाथ भगवान के लिए अर्घ्य समर्पित किए गए हैं। तृतीय क्लब के ३२ कोठों में ३२ प्रकार के देवेन्द्रों को उनके परिवार सहित भगवान शान्तिनाथ के पादपद्म के अर्चन के लिए आहूत किये गए हैं। अन्तिम चतुर्थ वलय के ६४ कोठों में ६४ प्रकार के उपद्रवों के निवारण के लिए शान्तिनाथ भगवान को अर्घ्य समर्पित हैं। एक-एक उपद्रव के निवारण के लिए पद बहुत सटीक बन पड़े हैं। प्रत्येक पद की अन्तिम पंक्ति समान है, जबकि तीसरी पंक्ति थोड़े हेर-फेर साथ लगभग समान रूप से है। जैसे दुर्भिक्षोपद्रव निवारण के लिए रचित पद देखिए Jain Educationa International [४५९ गीताछन्द अतिवृष्टि या नहिं वृष्टि हो दुर्भिक्ष से जन हो दुःखी । खेती न हो नहिं जल मिले तब कष्ट हो सबको अती ॥ तुम पाद पंकज अर्चते यह सब उपद्रव शान्त हो । श्री शान्तिनाथ नमोऽस्तु तुमको नित्य बारम्बार हो । इन चार वलयों के १२० कोठों को अर्घ्य देने के बाद सम्पूर्ण जयमाला ९ पदों व २ दोहों में समाविष्ट है जिसकी प्रत्येक पंक्ति में 'जय शांतिनाथ !' का अनुवाद गुंजित है और संगीत के लय ताल का एक अलौकिक आनन्द प्रदान करता है। अन्त में मूल ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति से ग्रन्थ का समापन किया गया है। समीक्ष्य दोनों कृतियों का प्रकाशन दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) से किया गया है, जिसके अन्तर्गत संचालित वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के ये क्रमशः ३४वें व ३५वें पुष्प हैं। इन ग्रन्थों के समायोजन में आर्यिका चन्दनामती माताजी का योगदान स्तुत्य है। सम्पादक ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन जो संस्थान के विश्रुत विद्वान् है छपाई स्वच्छ, निर्दोष तथा गेटअप नयनाभिराम है मूल्य लागत से भी कम रखी गयी जान पड़ती है [प्रत्येक ५-५रु.] - पूज्य माता ज्ञानमतीजी इस ग्रन्थ को रचकर देव पूजन में श्रावकों के लिए एक सक्रिय निमित्त बनी हैं। इस उपकार के लिए सकल दि० जैन समाज उपकृत है। साहित्यिक प्रतिभा और आध्यात्मिक गहराई से सम्पूरित माताजी का करुणाशील अनुकम्पामयी व्यक्तित्व जैन श्रावकों के लिए महान अवदान है। For Personal and Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तीस चौबीसी विधान समीक्षक - डा० भागचन्द भागेन्दु, प्राध्यापक एवं अध्यक्षः संस्कृत, प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह (म०प्र०) पूजा-विधान परम्परा का पुनर्जीवन मानव जीवन की सार्थकता व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में है। व्यष्टि से समष्टि में लीन होना ही जीवन का चरमोत्कर्ष तीस चौबीसी है। भक्ति की पवित्र पयस्विनी में अनेक सन्तों, महर्षियों, मनीषियों व रससिद्ध कवीश्वरों ने अवगाहन करके स्वयं को कर्ममल से मुक्तकर मुक्तिवधू का वरण किया तथा आगे आने वाली भव्य भक्त सन्तति का भी मार्ग विधान प्रदर्शित किया है। मानव अपनी उत्कृष्ट जिज्ञासा को इष्ट के प्रति समर्पित करना चाहता है। जब हृदय का उद्रेक प्रस्फुरित होता है तब मानव मन के उद्गारों को व्यक्त करता हुआ स्वयं के ममकार को विगलित कर उसी में तन्मय हो ...आयिका ज्ञानमती --- जाता है। पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने पूजन-विधान के क्षेत्र में भी अद्वितीय प्रतिभा का दिग्दर्शन कराया है। नित्यमह पूजाओं तथा विधानों की रचना कर पूजन-विधान परम्परा को पुनर्जीवन प्रदान किया है। प्रस्तुत कृति “तीस चौबीसी विधान" एक ऐसी ही अनुपम कृति है। इसका प्रकाशन वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के उनतीसवें पुष्प के रूप में हुआ है। प्रतिपाद्य विषय-ग्रन्थ का सम्पूर्ण विषय ३१ पूजाओं के माध्यम से विधान तथा तीस चौबीसी विधान का नक्शा (मॉडल) भी निदर्शित है। ग्रन्थ में यह प्रदर्शित है कि तीस चौबीसी कहाँ-कहाँ विद्यमान हैं। जम्बूद्वीप का एक भरत क्षेत्र, धातकी खंड के दो भरत क्षेत्र और पुष्कराध के दो भरत क्षेत्र इस प्रकार ये सब पाँच भरत क्षेत्र हैं। इसी भाँति पाँच ऐरावत क्षेत्र हैं। इन प्रत्येक क्षेत्र के आर्य खण्ड में भूतकाल में हुए चौबीस तीर्थंकर, वर्तमान काल में हुए चौबीस तीर्थकर तथा भविष्यत् काल में हुए चौबीस तीर्थंकर, इस प्रकार तीनकाल सम्बन्धी तीर्थंकरों की अपेक्षा तीस चौबीसी' हो जाती है। इस तीस चौबीसी विधान में सर्वप्रथम समुच्चय पूजा है। तदनन्तर एक-एक चौबीस की, कुल मिलाकर तीस पूजाएं हैं। अन्त में एक बड़ी जयमाला है। अतः इस विधान में ३१ पूजाएं और ३०४२४-७२० अर्घ्य हैं। ३० पूर्णार्ध्य तथा ३२ जयमालाएं हैं। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इस वर्तमान चतुर्थकाल में ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। उनकी भी पूजा इसमें आ जाती है। ग्रन्थ के अन्त में बीस तीर्थंकर की पूजा दी गई है बीस तीर्थंकर कहाँ-कहाँ पर विद्यमान हैं। पूजा के माध्यम से इसका विशद विवेचन मिलता है। लेखन शैली-आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित यह कृति भाषा और विषय दोनों दृष्टियों से मनोरम है। इसमें माताजी की भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा का उच्चकोटिक निदर्शन हुआ है। उनकी हिन्दी पद्य-रचना में प्रसाद और माधुर्य गुण विद्यमान है। इसमें पच्चीस छन्दों का प्रयोग हुआ है। यथा-नरेन्द्र, गीता, स्रग्विणी, चाल, अडिल्ल, अनंगशेखर, पृथ्वी, चामर, रोला, शंभु, भुजंगप्रयात, चौपाई, पद्धड़ी, द्रुत, विलम्बित, सखा, धत्ता, पंचचामर, तोटक, मोतीदाम, बंसततिलका, नाराच, कुसुमलता, दोहा, सोरठा । देखिए अनंगशेखर छन्द का उदाहरण सुतत्त्व सात नौ पदार्थ पाँच अस्तिकाय और । द्रव्य छह स्वरूप को भले प्रकार से गुने ।। निजात्म तत्त्व को सँभाल तीन रत्न से निहाल । बार-बार भक्ति से मुनीश हाथ जोड़ते॥ (जम्बूद्वीप-भरत क्षेत्र-भूतकाल-तीर्थकर, पूजा नं. २, जयमाल प.सं. ३. पृ.सं. १३) इनकी रचना शैली पूर्व परम्परा के अनुरूप है। इसका प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है। समुच्चय रूप से त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों को वंदन करके क्रमशः प्रत्येक का विवेचन है। प्रत्येक पूजन के अन्त में आशीर्वादात्मक छन्द का प्रयोग तथा सर्वशान्ति कामना के लिए 'शान्तये शान्तिधारा' जैसे मन्त्र का प्रयोग किया है। देखिए जो तीस चौबीसी महापूजा महोत्सव को करे। वर पंचकल्याणक अधिप जिननाथ के गुण उच्चरें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६१ वे पंचपरिवर्तन मिटाकर पंकल्याणक भरें। निर्वाण लक्ष्मी 'ज्ञानमति' युत पाय निज संपति वरें ।। (समुच्चय पूजा नं. १, पृ.सं. ५) मुद्रण-साज सज्जा तथा प्रस्तुति-२७० पृष्ठों में मुद्रित इस विधान ग्रन्थ की छपाई एवं साज-सज्जा ग्रंथ के प्रकाशक दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर की अपनी परम्परा के अनुरूप है। अतः ग्रन्थ का 'गेट-अप' भी आकर्षक है। प्रारम्भ में पूज्य आर्यिकारत्न गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का मनोहर चित्र दिया गया है। इससे ग्रन्थ का सौन्दर्य और अधिक बढ़ गया है। भाषा पूर्णतः शुद्ध और प्रांजल है। अन्त में तीस चौबीसी विधान का नक्शा रेखाचित्र के माध्यम से बनाया गया है। विषय का महत्त्व एवं उपयोगिता-प्रस्तुत ग्रन्थ में रचयित्री ने पूजन की जयमालाओं में तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों के आधार से समवशरण विभूति आदि का कहीं-कहीं वर्णन किया गया है। किन्हीं-किन्हीं जयमालाओं में भक्ति-रस विशेष है, किन्हीं में वैराग्य रस, किन्हीं में स्याद्वाद सिद्धान्त वर्णित है तो कहीं नयों की अपेक्षा से अध्यात्म की झलक भक्ति रस समन्वित स्वमोह बेल को उखाड़ मृत्यु मल्ल को पछाड़। मुक्ति अँगना निमित्त लोक शीश जा बसें ॥ प्रसाद से ही आपके अनन्त भव्य जीव राशि। आपके समान होय आप पास आ लसें ।। (तत्रैव-पूजा नं. २, प.सं. ४, पृ० १४) अध्यात्म रस समन्वितमैं शुद्ध बुद्ध हूँ अमल अकल अविकारी ज्योति स्वरूपी हूँ। निज देह रूप देवालय में रहते भी चिन्मयमूर्ती हैं। इस विधि से आतम अनुभव ही पर मैं सब ममत हटाता है। यह निज को निज के द्वारा ही बस निज में रमण कराता है। (पूर्व पुष्करार्ध द्वीप भरत क्षेत्र भावी तीर्थंकर पूजा नं. २२, जयमाल प. सं. ५, पृ. १८३) स्यावाद नय समन्वितप्रत्येक वस्तु है अस्ति रूप औ नास्ति रूप भी है वो ही। वो ही है अभय रूप समझो फिर अवक्तव्य है भी वो ही॥ वो अस्ति रूप औ अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंगधरे। फिर अस्ति नास्ति और अवक्तव्य ये सात भंग हैं खरे खरे ।। (पूर्व धातकी भरत क्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर पूजा जयमाल नं. ९, प.सं. ३, पृ. ६३) विवेच्य कृति के छन्दोवैविध्य से जहाँ ग्रन्थ के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है और माताजी के प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा काव्य कौशल का निदर्शन हुआ है वहीं भक्त रसिक इसे पढ़कर भाव विभोर भी हो उठता है। भक्त भक्ति रूपी गंगा में अवगाहन करके कृतकृत्य हो जाता है और वह आनन्द उसके असंख्यात गुणी कर्म की निर्जरा कर देता है। उस समय असीम पुण्य का संचय होता है, आते हुए अशुभ कर्म रुक जाते हैं। जीवन की ग्रंथिलता की कटु औषधि को काव्य-शर्करा के आवरण में जन-जीवन के लिए सहज पेय बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया है। हिन्दी पद्यानुवाद करके भक्ति संयुक्त उपदेश की सामग्री का काव्य की भाव-चेतना के धरातल पर हृदयार्जक संचयन किया है। इस प्रकार विधान का माहात्म्य अचिन्त्य है। प्रसन्नता की बात यह है कि विद्वत्समाज और साधारण जनता ने जगह-जगह यह तीस चौबीसी पूजन विधान समारोहपूर्वक आयोजित करके जहाँ इसके प्रति आदर व्यक्त किया है, वहीं जिनशासन की महती प्रभावना की है और स्वयं के कर्मों की निर्जरा का महनीय निमित्त भी उपलब्ध किया है। ब्र० कु. माधुरी शास्त्री ने ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखकर विषय का स्पष्टीकरण प्रारम्भ में ही कर दिया है तथा माताजी के जीवन-दर्शन की संक्षिप्त झलक देकर वर्तमान काल में उन्हें मोक्षमार्ग की समीचीन विश्लेषिका निरूपित किया है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने साधु जीवन में बहुविध Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला साहित्य का निर्माण किया है। आगम वर्णित जम्बूद्वीप की रचना को मूर्तरूप प्रदान कर अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों के प्रति भक्तों के हृदय में श्रद्धा का भाव जाग्रत किया है। इस महाविभूति के आशीर्वाद से जैन संस्कृति का इतिहास अनन्तकाल तक गौरवान्वित रहेगा। . इस प्रकार परम पूजनीया गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित 'तीस चौबीसी विधान' समग्र जैन संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसके प्रणयन से जैन पूजन-विधान साहित्य भाण्डार की अक्षय्य श्री वृद्धि हुई है। वैदर्भी रीति और माधुर्य तथा प्रसाद गुण में उपन्यस्त यह ग्रन्थ भारतीय काव्य-साहित्य की एक विशष्टि कृति के रूप में समादरणीय है तथा इस महनीय योगदान के लिए सम्पूर्ण साहित्य संसार पूज्य माताजी का चिर कृतज्ञ रहेगा। पंचपरमेष्ठी विधान समीक्षक - पं० नाथूराम डोंगरीय - सुदामानगर, इन्दौर जिनशासन में अरहंतसिद्ध आचार्यउपाध्याय एवं निग्रंथ साधुओं का पद सर्वोत्कृष्ट माना गया है। जैन दर्शन में प्रत्येक भव्यात्मा परमात्मा बन सकता है। इस सिद्धान्त का प्रमुखता के साथ प्रतिपादन किया गया है। अतः अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु इन वीतराग और वीतरागता के उपासक परमेष्ठियों की आदर्श के रूप में आराधना परमेण्टी करने के लिए दर्शन पूजन वंदन गुणस्मरण आदि विधाओं द्वारा उपासना करने की श्रमणों और श्रावकों को प्रेरणा दी गई है। यहाँ तक कि परमेष्ठियों की वंदना व स्मरण हेतु पंचनमस्कार मंत्र युगों से जपाजाकर मानव विधान के पापों के विनाश का सर्वोत्तम माध्यम भी बना हुआ है। प्रस्तुत पंचपरमेष्ठी विधान की रचना परमेष्ठियों की भक्ति में विभोर होकर पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने की है। इस रचना में अरहंत भगवतों के छियालीस, सिद्ध भगवंतों के आठ, आचार्यों के ३६, उपाध्यायों के २५ एवं निग्रंथ साधुओं के २८ मूल गुणों की पृथक्-पृथक् पूजा का निर्माण किया गया है। इसके पूर्व नवदेवता पूजन भी मुद्रित है। जिसमें उल्लिखित पंचपरमेष्ठियों के सिवाय जिनवाणी, जिनधर्म, जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर को भी आत्मोत्थान में सहायक होने से देव के समान ही पूज्य मानकर पूजा लिखी गई है। पूज्य गणिनी माताजी ने स्वपर कल्याण हेतु इस विधान की रचना का जो पुनीत कार्य किया है वह निश्चय ही भाव भक्ति निरत साधुओं की आत्मसाधना व आराधना का माध्यम बन गया है एवं चिरकाल तक बना रहेगा। ___ यह सच है कि प्रत्येक प्राणी सुखी बनना चाहता है, किंतु मोहमाया के भ्रमजाल में फंसे होने से न तो उसे स्वयं के ज्ञानानंद स्वरूप का भान है और न भौतिक इन्द्रियाँ विषयों के स्वाद में उलझे रहने के कारण इस ओर उसका ध्यान ही जा पाता है। मोह जाल में फंसे हुए प्राणियों को रागद्वेष से मुक्ति पाने के लिए वीतरागता की उपासना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसके लिए पंचपरमेष्ठियों की शरण लेकर उनकी और उनमें वीतरागता की पूजन-वंदन, गुणस्मरणादि द्वारा आराधना करने से स्वरूपानुभूति प्राप्तकर वीतरागता को आत्मसात् करना सरल हो जाता है। अतः जैन दर्शन में इनकी उपासना करने का विधान किया है। 34 पूज्य गणिनी माताजी ने प्रस्तुत रचना में इसी पवित्र उद्देश्य को लेकर पंच परमेष्ठियों के गुणगान द्वारा अपनी श्रद्धा और पवित्र भावना को अभिव्यक्त करते हुए अन्य जनों के लिए भी उसे उपासना का माध्यम बनाया है। रचना में उन्होंने गीता, कुसुमलता, शंभु, दोहा, सोरठा, अडिल्ल, नाराच आदि विविध छंदों का प्रयोग किया है। इससे भक्तजनों को पूजा करते समय संगीत में विविध लय, ताल, स्वरों आदि के परिवर्तन द्वारा राग-रागनियों के माध्यम से भक्ति में तल्लीन होने की सुविधा भी प्राप्त है। उपमा आदि अलंकारों से अलंकृत पद्यों से माताजी की निसर्गज काव्यकला का सहज ही आभास होता है। रचना की भाषा बोलचाल की हिन्दी है तथा प्राचीन पूजाओं में विद्यमान भावाभिव्यक्ति की समानता भी दिखाई देती है। पूजन करते समय छंदों का गायन किन स्वरों और चाल में करना चाहिए इसका संकेत भी प्रचलित स्तुतियों [हे दीन बंधु आदि] की ओर संकेत कर दिया गया है, जिससे गायक को पाठ पढ़ने में चाल संबंधी असमञ्जस में न पड़ना पड़े। जैन साहित्य में प्रायः सभी पूजाओं, विधानों, भजनों, प्रार्थनाओं या स्तुतियों का निर्माण कवि वृन्दों ने गद्य में न कर पद्यों के माध्यम से ही किया है।पद्यों मे होने से भक्तों व उपासकों को संगीत के माध्यम से गा-बजाकर भक्ति भाव में विभोर हो जाना भी सहज हो जाता है और इससे जो अलौकिक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६३ आध्यात्मिक शांति का उपासक को अनुभव होता है वह अनुभवी ही जानता है। भगवत्भक्ति के प्रसाद से तत्काल तो शांति मिलती ही है उससे पूर्वकाल में संचित पापों का नाश तथा कुछ पाप कर्मों का पुण्य रूप संक्रमण एवं उनकी स्थिति व अनुभाग में कमी भी स्वयमेव सम्पन्न हो जाती है। अतः पू० गणिनी जी ने विधान की रचना पद्यों में की है। इन्होंने इस रचना के सिवाय कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज, ऋषिमंडल, त्रैलोक्यमंडल, शान्तिविधान आदि अनेक वृहद् विधानों की रचना कर पूजा साहित्य के भंडार को तो भरा ही है, किंतु प्रथमानुयोग,करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग से संबंधित अन्य डेढ़-दो सौ ग्रन्थों की रचना और अनुवाद कर अपनी बहुआयामी सर्वतोमुखी विलक्षणप्रतिभा का जो परिचय दिया है उससे वे गणिनी होने के अतिरिक्त सरस्वती के रूप में भी वे वंदनीय बन गई हैं। __ अष्टसहस्री एक बहुत ही दुरूह एवं गंभीर न्याय शास्त्र है। इसका अनुवाद करके आपने अपनी ज्ञानगरिमा से विद्वत् समाज को भी चकित किया है। जम्बूद्वीप और उसमें उत्तुंग विशाल सुदर्शन मेरु की अद्भुत रचना आपकी ही सूझ-बूझ का परिणाम है, जो भविष्य में एक अनूठा ऐतिहासिक एवं देश-विदेश की जनता को दर्शनीय व आदर्श स्थल के रूप में माना जाता रहेगा। समाज का सौभाग्य है कि ऐसी बाल ब्रह्मचारिणी, आदर्श विदुषी एवं धर्म परायणा निःस्वार्थ समाज सेविका गणिनी आर्यिका श्री इस युग में विद्यमान जिससे न केवल जैन, प्रत्युत भारतीय समस्त महिला समाज भी गौरवान्वित है। आप चिरकाल तक इसी प्रकार आत्मसाधना एवं तपाराधनापूर्वक धर्म प्रभावना करती रहें इसी सत्कामना के साथ आपके श्री चरणों में नमन करता हूँ। जिनसहस्रनाम मंत्र समीक्षिका - आर्यिका चन्दनामती प्रथम कृति पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उत्तुंग वैराग्य पर्वत से अनेकों भक्ति रूपी नदियाँ प्रवाहित हुई हैं जिनमें नान करके आज कितने ही नर-नारी अपने तन-मन-धन को पवित्र कर रहे हैं। वर्तमान युग में जिनेन्द्र भक्ति ही कर्मों को काटने के लिए अमोघ शस्त्र है, आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी जैसे महान् आध्यात्मिक सन्तों ने भी भक्ति को अपने जीवन में स्थान देकर निवृत्ति मार्ग को सुदृढ़ किया है। ___यहाँ हमारा समीक्ष्य पुष्प “जिनसहस्रनाममंत्र" जिनके सृजन से ज्ञानमती माताजी की पवित्र लेखनी को असीमित संबल प्राप्त हुआ है। प्रथमकृति जिनसहस्रनाममंत्र का अदभुत अतिशय ईसवी सन् १९५३ चैत्र कृ. एकम को श्रीमहावीरजी अतिशय क्षेत्र पर आचार्य श्री देशभूषण महाराज के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् क्षुल्लिका वीरमतीजी ने अपने ज्ञान में अतिशयकारी वृद्धि की। सन् १९५५ के जयपुर चातुर्मास में इन्होंने कातन्त्ररूपमाला नामक संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया तथा सन् १९५५ में क्षुल्लिका श्री विशालमती माताजी के साथ "म्हसवड़" महाराष्ट्र में चातुर्मास किया। इस चातुर्मास के मध्य क्षुल्लिका श्री वीरमतीजी ने अपने व्याकरण ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए भगवान के एक हजार आठ नाम मंत्रों की रचना की थी, उसी समय विशालमती माताजी की प्रेरणा से उन नाम मंत्रों की छोटी-सी पुस्तक भी प्रकाशित हो गई थी। पुनः सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा के पश्चात् शायद ज्ञानमती माताजी स्वयं अपनी उस प्रथम कृति को भूल ही गई थीं। उन्होंने सन् १९६५ तक ९ वर्षों के अन्तराल में कुछ संस्कृत स्तुतियों के अतिरिक्त कोई विशेष लेखन कार्य नहीं किया। शिष्य-शिष्याओं को अध्ययन कराने का उस समय आपका प्रमुख लक्ष्य रहा। दिन में लगभग ७-८ घण्टे मुनि-आर्यिकादिकों को अध्ययन कराते तो मैंने सन् १९६९ जयपुर चातुर्मास में स्वयं देखा है। इसी चातुर्मास में आपने अष्टसहस्री ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद कार्य शुरू किया था। उसके पश्चात् तो आज तक डेढ़ सौ से भी अधिक ग्रन्थों का लेखन आपकी शुद्ध प्रासुक लेखनी से हो चका है। यह विपुल साहित्य सृजन देखकर मुझे यह दृढ़ विश्वास होता है कि जिस लेखनी का श्रीगणेश ही भगवान के एक हजार आठ पवित्र नामों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हुआ हो वह लेखनी सौ-दो सौ ग्रन्थों में भला कैसे थक सकती है। यदि प्रकृति द्वारा प्रदत्त नींद, क्षुधा, शारीरिक व्याधियाँ आदि उन्हें किसी कारणवश प्राप्त न हुई होती तो इस लघु जीवन में वे एक हजार आठ ग्रन्थ भी अवश्य अपनी लेखनी से प्रसूत करतीं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। "जिनसहस्रनाम मन्त्र" की इस लघुकाय कृति को दीर्घकाल पश्चात् अब दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर ने अपनी "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" द्वारा प्रकाशित कर पुनरुद्धार किया है। ३७ वर्षों के पश्चात् प्रकाशित होने वाले इस संस्करण में पूज्य माताजी ने सहस्रनाम के १००८ मंत्रों के पश्चात् सहस्रनाम पूजा और सहस्रनामव्रतविधि भी पृ. १९ से २७ तक दी है। पृ. २८ पर प्रतिष्ठा तिलक ग्रन्थ से सरस्वती स्तोत्र उद्धृत किया है। इस स्तोत्र में सरस्वती माता को वस्त्राभरणों से अलंकृत कर उसे श्रुतदेवी की संज्ञा प्रदान की है। इसके आगे सरस्वती के १०८ नाम मंत्र देकर स्वरचित सरस्वती पूजा दी है। पुस्तक के अन्त में ज्ञानपचीसी व्रत विधि देकर ज्ञानपिपासुओं पर महान् उपकार किया है। जहाँ सहस्रनाम मंत्रों का पाठ ज्ञान की अपूर्व शक्ति प्रदान करता है, वहीं सरस्वती के १०८ नाम मंत्र कंठ में सरस्वती का वास कराते हैं। ज्ञान-पचीसी व्रत में मात्र २५ उपवास या एकासन करने होते हैं तथा ११ अंग, १४ पूर्वो से सम्बन्धित २५ जाप्य हैं। प्रत्येक व्रत में उनमें से एक-एक जाप्य की जाती है। परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने के इच्छुक तथा शिक्षा के क्षेत्र में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि की इच्छा से जो बालक-बालिकाएं सहस्रनाम एवं सरस्वती के नाम मंत्रों का पाठ करेंगे वे नियम से मनवांछित फल की प्राप्ति करेंगे। ___ संस्कृत के सहस्रनाम स्तोत्र पाठ की परम्परा उच्चारण की कठिनता के कारण आज लगभग समाप्त-सी हो गयी है। अतः मुझे विश्वास है कि इस सहस्रनाम मंत्र पुस्तक से पुनः जनसामान्य में नई आशा का संचार होगा क्योंकि अत्यंत सरल एवं लघु मंत्रों ने जब अपना अप्रतिम अतिशय ज्ञानमती माताजी में दिखाया है तब हम सबको भी अवश्य उसका लाभ प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। पूज्य माताजी की यह ३६ पृष्ठों में पुनः प्रकाशित प्रथम कृति सहस्रों वर्षों तक पृथ्वीतल पर जीवन्त रहे तथा यह सहस्रनाम मंत्र सहस्रों जिह्वाओं को पवित्र करे, यही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है। सोलहभावना समीक्षक - डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर मानवीय क्षमता की प्रकर्षता भावनायें व्यक्ति के भावात्मक अस्तित्व की सूचनायें देती हैं जिसमें स्थायी भाव के रूप में शान्ति और अहिंसा की सूचना देने वाला आत्मतत्त्व मौजूद है। स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन ही यथार्थ सुख है। स्वानुभूति के माध्यम से राग-द्वेष रूप विकारी भावों को दूरकर साहसपूर्वक संघर्षों का सामना कर स्व-पर प्रकाशक भेदविज्ञान को जाग्रत करता है और पाता है शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के उस पुनीत मार्ग को जो परमात्म स्थिति तक संसारी को पहुंचा देता है। मनुष्य गिरगिट स्वभावी है, अनेक चित्त वाला है। इन्द्रिय, मन, चित्त या बुद्धि के माध्यम से उसके व्यक्तित्व को परखा जा सकता है। इन तीनों तत्त्वों को संयमित रखना और पर की ओर न झांकने देना, स्व-पर के चिन्तन में स्वयं को समर्पित कर देना एक ऐसा अहिंसक उपाय है जिससे सभी उपाधियां, दुःख व्याधियां दूर हो जाती हैं और वस्तुनिष्ठ चिन्तन का प्रारम्भ हो जाता है। दश धर्मों के अनुपालन के बाद भावनाओं के अनुचिन्तन से साधक मानवीय क्षमता की प्रकर्षता को पा जाता है। मानवीय क्षमता का दिग्दर्शक है तीर्थंकर पद, जो परिपूर्णता, पवित्रता, अहिंसात्मकता और कारुणिकता का संदेशवाहक है। तीर्थकर एक अनुपम आध्यात्मिक महासन्त होते हैं जो संसार में रहते हुए भी पूर्ण वीतरागी बनकर प्राणियों को सन्मार्ग दिखाते हैं। वे संसार के दुःख-दर्द को दूर करने का यथार्थ पथ प्रदर्शित करते हैं और निर्मित कर देते हैं ऐसा चौड़ा रास्ता जिस पर सभी लोग बिना किसी भेदभाव के चल सकें और आनन्दपूर्वक अपनी वास्तविक सुखद मंजिल को पा सकें। जैनधर्म में तीर्थंकर बनने के लिए सोलह भावनाओं को माना और उनमें गहराई से तन्मय हो जाना एक अटूट शर्त है। इसे जैन दार्शनिक शब्दावली Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६५ में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कहते हैं। सोलह भावनाओं की एकाकारता इसी तीर्थंकरत्व रूप परमात्म स्थिति को पाने का अनुपम साधन है। जैसे स्वाति नक्षत्र का जल यथा निमित्त पाकर तथा रूप हो जाता है वैसे ही ये भावनायें व्यक्ति को तीर्थकर बना देती हैं। इन भावनाओं में दर्शन विशुद्धि प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि से है जो समत्व की साधना पर अवलम्बित है। साधक इस साधना से पूर्ण निरमय और निःशंक हो जाता है। उसमें किसी प्रकार का मंद नहीं रहता । वह वास्तविक देव-शास्त्र गुरु को पहचानता है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य जैसी मार्मिक भावनाओं का पारंगत हो जाता है। सम्यक्त्व की पहचान इसी पारंगतता से हो पाती है। माताजी ने पौराणिक उदाहरणों द्वारा इसी सम्यक्त्व की सुन्दर मीमांसा की है। साधना की प्रबलता और विशुद्धता व्यक्ति में विनम्रता को जन्म देती है जिससे साधक कषायों से निर्मुक्त होकर दूसरों का आदर-सत्कार करता है। उसका दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप मद का कारण नहीं बनते । इस प्रसंग में माताजी ने मूलाचार को उद्धृत किया है और उसे आचार्य कुन्दकुन्द कृत बताया है (पृ. १२) आगे बहुश्रुत भक्ति के प्रसंग में उन्होंने उनका समय द्वितीय शती माना है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार का अनुवाद भी किया है जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ से हो चुका है। ___पंच महाव्रतों का निरतिचारपूर्वक पालन शील कहलाता है अथवा २८ मूलगुणों का पालन और कषायों से विरमण होना शील है। शील की यह व्याख्या बौद्धधर्म में आये शील को स्मृति पथ पर ला देती है। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग का सम्बन्ध सतत स्वाध्याय से है। संवेग वैराग्य का दूसरा नाम है। संसार और शरीर के स्वरूप पर विचार करने से संवेग भाव का जन्म होता है। यह तथ्य सनत्कुमार और वज्रदन्त चक्रवर्ती के उदाहरण देकर पुष्ट किया गया है और साथ ही आचार्य शान्तिसागरजी की परम्परा में रहने वाले वर्तमान साधुओं की आचरण की प्रशंसा की गई है और मुनि निन्दकों की अच्छी खबर ली गई है। शक्ति, त्याग का सम्बन्ध दान के चार प्रकारों से है-आहार, ज्ञान, औषधि और अभय दान । इनमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम का उदाहरण देकर आहारदान की महत्ता को अधिक सिद्ध किया गया है। शक्तितस्तपो भावना की व्याख्या करते हुए रोहिणी व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया है। आचार्य समन्तभद्र का उदाहरण देकर यह भी कहना चाहा है कि अतिथि संविभाग व्रत की अपेक्षा दुःखियों की वैयावृत्ति करना अधिक अच्छा है। अर्हद् भक्ति में जिनबिम्बदर्शन की महिमा को माताजी ने मेंढक का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। इसके बाद आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, स्वसमय-परसमय के ज्ञाता उपाध्यायों की भक्ति, प्रवचनभक्ति (जिनोपदिष्ट प्रवचन में अनुराग करना) आदि भावनाओं पर प्रकाश डाला गया है। समूची पुस्तक सोलह भावनाओं पर प्रवचन का आकार लिए पौराणिक जैन कथाओं को प्रस्तुत करती है। अतः अपने उद्देश्य की पृष्ठभूमि में पुस्तक अपनी सार्थकता और उपयोगिता लिये हुए है। जैन भारती H समीक्षक-गणेशीलाल रानीवाला, कोटा जैन धर्म को एक ही स्थान पर सम्पूर्ण रूप से संक्षेप में समझाने का प्रयास "जैन भारती" ग्रन्थ की रचना के रूप में सुफलित हुआ है। सुप्रसिद्ध लेखिका, महान् विचारिका एवं गहन साधिका परम विदुषी पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती माताजी की यह रचना हर दृष्टि से प्रामाणिक एवं पूर्ण है। जैन दर्शन को सर्वांगीण समझने के लिए चार अनुयोगों को माध्यम बनाना आवश्यक है। भगवान् जिनेन्द्र देव की वाणी बारह अंगों में विभाजित है। पूर्वाचार्यों ने इसे ही चार अनुयोगों में अनुबद्ध किया है। इन अनुयोगों की वेद संज्ञा दी गई है तथा इस वेद के प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे चार भेद माने गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन चारों अनुयोगों को ही संक्षेप में, किन्तु स्पष्ट एवं प्रामाणिक विवरण के साथ दिया गया है। प्रथमानुयोग में सृष्टि का क्रम बताया गया है तथा महापुरुषों के चरितों और पुराणों का प्रतिपादन किया गया है। अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। अवसर्पिणी काल के ६ भेद हैं तथा उत्सर्पिणी काल के भी ६ भेद हैं कि उत्सर्पिणी काल के ६ भेदों के विपरीत हैं। उदाहरण के लिए अवसर्पिणी काल का प्रथम भेद है सुषमा-सुषमा जबकि उत्सर्पिणी काल का प्रथम भेट दुषमा-दुषमा है। इसके पश्चात् ग्रन्थ के इन छह-छह भेदों के लक्षणों एवं चिह्नों का वर्णन है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इस अनुयोग में कुलकरों की उत्पत्ति और उनके द्वारा दी गई समस्त व्यवस्था का वर्णन है। तिरेसठ शलाका पुरुषों की उत्पत्ति तथा उनके विभिन्न रूपों का वर्णन है, जो २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रति नारायण नामों से प्रसिद्ध है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म अन्तिम कुलकर महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी से हुआ। प्रजा को असि, मषि, कृषि आदि आजीविका के छह उपाय बतलाने से भगवान प्रजापति कहलाए। आपने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से तीन वर्णों का स्थापना की। चतुर्थ वर्ण • ब्राह्मण वर्ण की स्थापना उनक पुत्र सम्राट् भरत ने की ग्रन्थ की पुरोवाक् के विद्वान् लेखक ने अनेक प्रमाणों के आधार पर महादेव शिव को ही भगवान ऋषभदेव बताया है। इस अनुयोग में भगवान ऋषभदेव का जीवनवृत अंकित है। भगवान का गर्भावतार, माता के सोलह स्वप्न भगवान का जन्म, इन्द्र का आगमन, भगवान की बाल्यावस्था, विवाह, सन्तानोत्पत्ति, वैराग्य, दीक्षा, तपश्चर्या, केवलज्ञान का उदय आदि का वर्णन है। तदन्तर भगवान महावीर के जन्म से पूर्व का प्रसंग, जन्म तथा उनके जीवन की विविध प्रेरक घटनाओं का विस्तृत वर्णन है। प्रथमानुयोग के अंत में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र का जीवन वृत्त है। इस प्रकार प्रथमानुयोग में पुराण एवं इतिहास से लिये गये उद्धरणों और दृष्टान्तों से जीव के वस्तुरूप को समझाया गया है। महापुरुषों के जीवन चरित्र से वस्तु के स्वरूप को समझने में सुगमता रहती है क्योंकि उनके अनुभव व्यवहार की कसौटी पर कसे हुये होते हैं। अतः प्रथमानुयोग साधक को व्यावहारिक ज्ञान का प्रामाणिक लाभ प्रदान करता है। - द्वितीय अनुयोग — करणानुयोग में लोक और अलोक का विभाग, युगों का परिवर्तन, चारों गतियों आदि के स्वरूप का निरूपण हुआ है। इसी से सम्पूर्ण विश्व रचना का ज्ञान किया जाता है। इस अनुयोग का प्रारम्भ सामान्य लोक की ऊंचाई, चौड़ाई घनत्व आदि के वर्णन से प्रारम्भ होता है। फिर इसके विभिन्न भागों के नाम तथा उसकी व्यवस्था का विवरण है। मध्य लोक तथा उसके बीचोंबीच स्थित जम्बूद्वीप तथा सुमेरु पर्वत का संक्षिप्त तथा सम्पूर्ण वर्णन इस अनुयोग में प्राप्त है। मध्यलोक के चैत्यालय, देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकीय के भेद, जन्म, आकार, निवास स्थान, आहार, अवधिज्ञान, शक्ति और विक्रिया इत्यादि का विस्तृत ज्ञान है। इसके पश्चात् जीव के पंच परिवर्तन का विवरण है। इस अनुयोग में आर्यखण्ड में नाना भेदों से संयुक्त जो काल प्रवर्तता है उसके स्वरूप का वर्णन है। विशेष रूप से यहाँ व्यवहार काल जिसमें घड़ी, घण्टा, दिन, वर्ष आदि आते हैं, का वर्णन है। अंतिम दो पाठों में स्थान विस्तार एवं काल विस्तार तथा सिद्ध जीवों के निवास स्थानों का विवरण है। इस प्रकार इस अनुयोग में लोक, पंच परिवर्तन, पल्य सागर आदि का तथा सिद्ध लोक का वर्णन है। जब तक व्यक्ति को संसार की स्थिति का ज्ञान नहीं होगा तथा यह सृष्टि किस प्रकार की है, यह ज्ञान नहीं होगा तब तक उसे अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं हो सकता। उसे इस सृष्टि में अप अस्तित्व के उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इस सृष्टि की रचना का ज्ञान होना आवश्यक है। अतः इस अनुयोग को उसके जीवन के उद्देश्य के प्रति सजग कर उसका उचित मार्ग दर्शन करता है। तृतीय अनुयोग चरणानुयोग में सम्यक्त्व का वर्णन धर्म के भेद, श्रावक एवं साधक के भेद, आश्रमों का कथन, श्रावकों की षट् आवश्यक क्रियाओं का विवरण तथा ग्यारह प्रतिभाओं का संक्षिप्त दिशा निर्देश है दश धर्म तथा सोलह कारण भावनायें इसी अनुयोग में वर्णित है। साथ ही गृह तथा मुनियाँ के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के उपायों का वर्णन किया गया है। इस अनुयोग में कहे गये धर्मों का आचरण करने वाला व्यक्ति भी क्रम से चरण-चरण चरित्र का विकास करता हुआ तथा आगे बढ़ता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है। इसी कारण इस अनुयोग को चरणानुयोग नाम दिया गया है । सूतक - पातक का वर्णन, तीन प्रकार की क्रियाओं- गर्भान्वय, आधान, दीक्षान्वय का वर्णन, बारह अनुप्रेक्षा, मुनिधर्म, पिंड शुद्धि, समाचार का वर्णन, साधु की दिनचर्या, ऋद्धियों का वर्णन, सल्लेखना, पांच प्रकार के मुनियों का वर्णन इस अनुयोग में संक्षेप में किया गया है। इस प्रकार यह अनुयोग व्यक्ति को उचित कर्म में प्रवृत्त होने की दृष्टि देता है, यदि व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं होगा तो वह पथ भ्रष्ट हो जायेगा तथा अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकेगा। अंतिम अनुयोग अर्थात् द्रव्यानुयोग में सर्वप्रथम छहों द्रव्यों का नाम दिया गया है। छह द्रव्यों-जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का प्रमुचित ज्ञान है। जीव के अतिरिक्त शेष पांच द्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अजीव द्रव्य कहे गये हैं। इनमें पुद्गल द्रव्य मातक है तथा शेष चार अमूर्तिक हैं। आगे प्रमाण और नय का वर्णन किया गया है जिनके द्वारा जीवादि पदार्थों का बोध होता है। प्रमाण के भेदों-प्रभेदों का पहले सिद्धांत ग्रन्थों तत्पश्चात् न्याय ग्रन्थों के आधार पर वर्णन किया गया है। नयों के नव प्रकारों का वर्णन करते हुए उनके अनेक भेदों व उपनयों का वर्णन है। स्याद्वाद को सिद्ध करते हुये सप्त भंगी का सुन्दर और सुबोध विवेचन है। तदन्तर विदुषी लेखिका ने विभिन्न भारतीय दर्शनों का विवरण दिया है। ये दो प्रकार के दिये गये हैं- वैदिक एवं अवैदिक वैदिक दर्शन में मुख्यतः सांख्य, वेदांत, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन लिये जाते है । अवैदिक दर्शन में जैन, बौद्ध और चार्वाक् माने गये हैं। जैन दर्शन के अनुसार जैन धर्म अनादिनिधन है। इसकी स्थापना किसी ने नहीं की है। इस सिद्धांत में सात तल, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पांच अस्तिकाय माने गये हैं। स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह आदि इसके मौलिक सिद्धान्त है। सम्यग्दर्शन, मन्यक्ज्ञान, सम्यकचरित्र की एकता ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६७ प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधी हुई है, जो पुरुषार्थ के बल से परमात्मा बन जाती है। ऐसे अनन्तों परमात्मा हैं और संसारी जीन राशि भी अनंत हैं। आत्मा के बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा भेद.करके इन तीनों का विवेचन किया गया है। मोक्ष मार्ग, कर्म सिद्धान्त तथा सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुये चरित्र की प्राप्ति के कारणों को बतलाया गया है। मुक्त हुए जीवों का स्थान, उसकी अवगाहन संख्या और सिद्ध का वर्णन व भगवान के गुणों का निरूपण किया गया है। इस प्रकार चारों अनुयोगों के सम्पूर्ण संक्षिप्त विवरण को संजोये हुये यह ग्रन्थ जैन धर्म की एक अमूल्य निधि बन गया है। गागर में सागर भर लेने के पश्चात् भी हर संदर्भ में पूर्ण यह ग्रन्थ अपने आप में अनूठा है। जैन दर्शन का सम्पूर्ण एवं सटीक ज्ञान न होने पर जिज्ञासु आगे नहीं बढ़ सकता बल्कि भटकने का खतरा है। अतः द्रव्यानुयोग जैन दर्शन को स्पष्ट एवं सुबोध बनाकर व्यक्ति को उसके उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मार्ग प्रशस्त करता है। इतने महत्त्वपूर्ण और हर जिज्ञासु के लिये आवश्यक यह ग्रन्थ हर व्यक्ति के द्वारा खरीद कर घर में पहुंचे तो इस ग्रन्थ की रचना में किया गया श्रम अधिक सार्थक हो सकेगा। जैनधर्म, तीर्थंकरत्रय पूजा एवं जम्बूद्वीप मंडल विधान समीक्षक-डॉ. प्रकाश चन्द्र जैन, तिलकनगर, इंदौर (म.प्र.) य HinE मैना से माताजी तक छ: दशकों की साधना यात्रा की एक लम्बी कहानी है। अपने जीवन के अट्ठावन में से अड़तीस मधुमास, माँ शारदा की उपासना में लगाकर उन्होंने डेढ़ सौ से भी ऊपर ग्रंथ लिखे। उनकी यह साधना ही उनका परिचय है। उन्होंने चारों अनुयोगों पर लेखनी चलाकर, हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़ आदि भाषाओं में दर्शन और चारित्र पर ही नहीं, उपन्यास एवं बालोपयोगी साहित्य का भी सृजन किया, जो प्रकाश स्तम्भ बनकर सदैव हमारे जीवन को आलोकित करता रहेगा। ग्रंथ का प्रारंभ णमोकार महामंत्र के मंगलाचरण से करते हुए सबसे पहले लेखिका ने-कारातीन् जयति इतिजिनः" लिखकर जिनकी परिभाषा दी। ऐसे जिन जिनके आराध्य हैं। आगे धर्म को परिभाषित करते हुए वह लिखती हैं-संसार दुःखतः सत्वान् यो उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः । संसार के दुःखों से जीव को उत्तम सुखों में पहुँचाए वही धर्म है। ऐसे केवली द्वारा प्ररूपित धर्म- "केवली पण्णत्तो धम्मो" अर्थात् जैन धर्म की मूलभूत बातों, काल परिवर्तन से लेकर आत्मा को परमात्मा बनाने का उपाय आदि का वर्णन इस पुस्तक के चार परिच्छेदों में किया गया है। प्रथम परिच्छेद, 'षट्काल-परिवर्तन' में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के छः-छः भेदों का परिचय देते हुए कुलकरों की उत्पत्ति के साथ-साथ तीर्थंकर ऋषभदेव और भरत का परिचय, तीर्थंकरों के शरीर की अवगाहना तथा हुण्डावसर्पिणी काल की विशेषताएं आदि का परिचय तिलोयपण्णत्ति पुराण के आधार पर दिया है। द्वितीय परिच्छेद, 'सामान्य लोक' में लोक का सामान्य परिचय है, लोक और मनुष्य के संबंधों को लेकर अनवरत चली आ रही ऊहापोह के बाद भी वैज्ञानिक, अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। आखिर कब तक हम यह रोना रोते रहेंगे-'हम तो कबहुं न निज घर आये' हमारे ये प्रश्न मैं हूँ कौन, कहाँ ते आये। कौन हमारो ठौर" कब तक अनुत्तरित रहेंगे। असल में इन प्रश्नों का उत्तर विज्ञान के पास है ही नहीं। दर्शन ही इन प्रश्नों के उत्तर दे सकता है। संस्कृत की लोक धातु के साथ 'घ' प्रत्यय के संयोग से निष्पन्न लोक शब्द का अर्थ है-“दर्शन" । जैन भूगोल भूगोल न होकर जीवन दर्शन है। वह निजघर की स्थिति बोध का दर्शन है। तभी तो जैनाचार्यों का अनुसरण करते हुए पू. माताजी ने भी इस परिच्छेद में लोक का खुलासा करते हुए मध्यलोक, ढाईद्वीप, भोगभूमि व कर्मभूमि, नन्दीश्वरद्वीप आदि का परिचय देते हुए गति परिवर्तन में नरकादि गतियों का अच्छा वर्णन किया है। तृतीय परिच्छेद, 'मोक्षप्राप्ति के उपाय' अन्तर्गत, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में सकल व निकल चारित्र के अन्तर्गत अणुव्रत. महाव्रत, षट् आर्यकर्म, दशधर्म, सोलह कारण भावना आदि का अच्छा वर्णन किया है। चतुर्थ एवं अंतिम परिच्छेद 'छहद्रव्य' के अंतर्गत जीवादि द्रव्यों, उनके प्रदेशों की संख्या, अस्तिकाय, सातत्त्व, पुण्य, पाप, आत्मा की बहिंगम आदि तीन अवस्थाओं का सटीक वर्णन किया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला यथा स्थान संदर्भग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत करके गद्य जैसी शुष्क विधा में लिखी इस कृति को सरस और सरल बना दिया है। लेखिका के ग्रंथों की सूची देकर सम्पादक मंडल ने स्तुत्य कार्य किया है। आज ऐसी छोटी-छोटी परिचयात्मक पुस्तकों की भी जरूरत है। समस्त द्रव्यों का क्रीड़ास्थल 'लोक' धार्मिक भूगोल का विषय है। इसका सीधा संबंध कर्म-सिद्धान्त से है। कर्म ही हमारी लोक यात्रा का नियामक तत्त्व है। स्वर्ग, नरक की व्याख्या, कर्म सिद्धान्त से ही संभव है। दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्घटना आदि का उत्तर विज्ञान के पास नहीं, धर्म अध्यात्म के पास है। कमोंदयजन्य इन सारे प्रकोपों की ही नहीं, कर्म के ही सर्वथा अभाव की युक्ति भक्ति है, तभी तो आचार्य पूज्यपाद जिन भक्ति को मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं जिनेभक्तिर्जिनेभक्ति जिनभक्ति सदास्त मे सम्यक्त्वमव संसारवारणं मोक्ष कारणं ॥ अर्थात् मुझमें जिनेन्द्र की भक्ति का भाव सदा बना रहे, क्योंकि अरहन्त भक्ति ही सम्यक्त्व है और सम्यक्त्व ही संसार परिभ्रमण का नाशक और मोक्ष का कारण है। गृहस्थ के षट् आवश्यक में भी देवपूजा (भक्ति) को प्रथम स्थान प्राप्त है। अध्यात्मवादी जैन दर्शन में परमात्मा की भक्ति, उसे रिझाने के लिए न होकर, अपने आराधक (परमात्मा) के गुणों को प्राप्त करने की भावना से ही की जाती है— बन्दे तद्गुणलब्धये वीतराग परमात्मा को हमारी पूजा या निन्दा से कोई भी प्रयोजन नहीं है, फिर भी श्रद्धापूर्वक की गई भक्ति या गुणस्मरण से हमारे भीतर आने वाली पवित्रता ही हमारा मोक्षमार्ग प्रशस्त करती है "न पूज्यार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवांत वैरे । तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरितांजनेभ्यः ॥" - आ. समन्तभद्रवृहद्स्वयंभू स्तोत्र इन तत्त्वों से परिचित लेखिका के तीर्थंकरत्रय पूजा और जम्बूद्वीप मंडल विधान भी भक्ति से संबंधित रचनाएं ही हैं। तीर्थंकर त्रयपूजा इस छोटी-सी पुस्तक में माताजी द्वारा रचित शांति, कुंथु, अर तीन तीर्थंकरों को पूजा शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ की अलग-अलग पूजा, भगवान बाहुबली पूजा के साथ-साथ कुछ आरतियाँ भी संकलित हैं। प्रारम्भ में कु. माधुरी शास्त्री (वर्तमान आर्यिका श्री चन्दनामती) द्वारा किया गया हस्तिनापुर का परिचय तो श्रावक की भक्ति को द्विगुणित कर देता है। अंतिम पृष्ठ पर दी गई माताजी की पुस्तकों की सूची तथा सम्यग्ज्ञान विषयक जानकारी हमें सतत स्वाध्याय की प्रेरणा देती है। इन पूजाओं में कवयित्री ने अपने लक्ष्य के प्रति सतर्क रहने के लिए भक्त को सदा निज स्वरूप का बोध कराया है, कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है। "मैं शुद्ध बुद्ध हूं सिद्धसदृश, मैं गुण अनन्त के पुञ्जरूप। मैं नित्य निरंजन अधिकारी, चिच्चिंतामणि चैतन्य रूप ॥ निश्चय नय से प्रभु आप सदृश, व्यवहार नयाश्रित संसारी । तव भक्ती से यह शक्ति मिले, निज संपत्ति प्राप्त करूँ सारी ॥ " श्री शान्ति कुंथु अरतीर्थंकर पूजा" चिच्चैतन्य स्वरूप, चिन्मय चिंतामणि प्रभो शान्तिनाथ पूजा जयमाला इन उद्धरणों में अलंकारों की स्वाभाविक छटा भी द्रष्टव्य है। कवयित्री की इस कृति में प्रसाद गुण से परिपूर्ण, नरेन्द्र, गीता, रोला, सोरठा, स्त्रग्विणी, वसंततिलका, शिखरिणी, अडिल्ल, सखी और शंभु आदि छंदों का सुंदर प्रयोग किया है। जम्बूद्वीप मंडल विधान - जम्बूद्वीप क्या है? कहाँ व कैसा है? इस संबंध में प्राचीन वैदिक और श्रमण (जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में जगह-जगह विस्त की गई है। आज भी आ. ज्ञानमती, डॉ. राधाचरण, डॉ. प्रो. अली ने तो अपना शोध प्रबंध ही, “पुराणों में वर्णित जंबूद्वीप" विषय पर लिखा . से होता है। समीक्षार्थ प्रस्तुत पुस्तक । यही नहीं, हमारा प्रत्येक मांगलिक कार्य का प्रारंभ ही इस संकल्प मंत्र - जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे 'जंबूद्वीप मंडलविधान' मध्यलोक के प्रथमद्वीप, इसी जम्बूद्वीप के जिनबिम्बों की पूजा से सम्बद्ध है। Jain Educationa International यह ३८६ पृष्ठों की पद्यबद्ध रचना है। प्रारंभिक बीस पृष्ठों के बाद पीठिका से ग्रंथ का प्रारंभ होता है। इसमें कवयित्री ने जंबूद्वीप के अट्ठत्तर शाश्वत जिनमंदिरों की उत्तम मुहूर्त में विधि विधानपूर्वक पूजा का निर्देश दिया है। उसके बाद मंगलाचरण करते हुए सिद्ध परमात्मा, ऋषभदेव, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अनाथ तीर्थंकरों और भगवान् बाहुबली को प्रणाम करके इस विधान की महत्ता बताते हुए कहा है - जम्बूद्वीप विधान से मिठे उपद्रव रोग इति-भीति सब ही टलें, मिले शीघ्र सब सौख्य । For Personal and Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४६९ इस विधान में सबसे पहले जम्बूद्वीप भक्ति है, उसके बाद रक्षाविधि में जंबूद्वीप के रक्षक अनावृत यक्ष का आह्वान कर उन्हें यज्ञ भाग दिया गया है। ऐसे ही चार गोपुर द्वार के देवों को व श्री ह्री आदि छह देवियों का आह्वान करके उन्हें भी यज्ञार्थ अर्पित किया है। पूजन के प्रारंभ में जम्बूद्वीप की समुच्चय पूजा है। इसके आगे सबसे पहले जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में होने वाली तीस चौबीसी की तीन पूजायें हैं। फिर वहीं हुए अनंत चौबीसी केवली गणधर, मुनिगण तथा वर्तमान काल के गणधर, तीर्थक्षेत्र और भावी चौबीसी की एक पूजा व कई अर्घ्य हैं। इसके बाद जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में होने वाली तीस चौबीसी की तीन पूजाएं और वहाँ के आर्यखण्ड के भूत व भविष्यत् काल की अनन्त चौबीसी तथा गणधर, मुनिगण आदि की पूजा व अर्ध्य हैं। तदनन्तर विदेहक्षेत्र के विद्यमान सीमंधरादि चार तीर्थंकरों की पूजा, बत्तीस विदेहों के तीर्थंकर, केवली साधुपूजा के अर्घ्य, फिर चौंतीस कर्मभूमि में होने वाले जिनागम में बारह अंग, बारहवें अंग के पांच भेद-प्रभेदों के अर्घ्य चौदह प्रकीर्णकों के अर्घ्य हैं। उसके बाद जंबूद्वीप के अकृत्रिम अठत्तर जिनमंदिरों की पूजा में सबसे पहले सुदर्शन मेरु की पूजा में १६ चैत्यालय की पांडुक आदि शिलाओं के अर्घ्य हैं। इसी तरह षट् कुलाचल चार गजदंतों जंबू व शाल्मली वृक्षों की पूजा, सोलह वक्षारों तथा चौंतीस विजयाओं की पूजा व अर्घ्य हैं। इसमें छह पूजाओं में अठत्तर अर्घ्य हैं। इसके बाद हिमवान् पर्वत आदि के देव भवनों के गृह चैत्यालयों की एक पूजा में १७५ अर्घ्य हैं। इसके बाद नंदनवन के देव भवनों के चैत्यालयों, चौंतीस कर्मभूमियों के अकृत्रिम जिन मंदिरों की जिन प्रतिमा की एक पूजा व कई अर्घ्य हैं। बाद में समवसरण की एक पूजा वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के समवसरण के १०१ अर्घ्य हैं। अंत में सिद्ध पूजा तथा जंबूद्वीप से मुक्ति प्राप्त सिद्धों को अर्घ्य हैं, उसके पश्चात् एक समुच्चयात्मक बड़ी जयमाला है। अंत में प्रशस्ति तथा भजन व आरती के साथ यह ग्रंथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी वीर निर्वाण सं. २५१२ ई. सन् १९८६ को पूर्ण होता है। जिसमें गत १०-१२ वर्षों में पूज्य माताजी ने कई पूजा विधानों की रचना की, जिसमें सबसे पहला था इंद्रध्वज विधान, पूजन के माध्यम से उन्होंने सारे जिनागम का सार ही अपनी कृति में भर दिया है। पूजा की हर पंक्ति ही अध्यात्म के रस से सराबोर है। कुछ उदाहरण देखिए “परमानंद स्वरूप, परमज्योति परमात्मा । परमदिगंबर रूप, पुष्पांजलि अर्पण करूँ। आत्मा निश्चय से शुद्ध कहा, फिर भी अशुद्ध संसारी है। व्यवहार नयाश्रित ही कर्मों का कर्ता है भवहारी है। कवयित्री की इस अमरकृति में शंभु, दोहा, अनुष्टुप, सोरठा, अडिल्ल, अनंगशेखर, नरेन्द्र, पृथ्वी, घत्ता, चौबोल, भुजंगप्रयात, चौपाई, पद्धड़ी, वसंततिलका, पंचचामर, वीर, तोटक, त्रिभंगी, चाल आदि विभिन्न छंदों में इस कृति की रचना की है। छंद और अलंकारों की दृष्टि से हर पूजा सहज और सरस है, अनुप्रास की एक छटा देखिए। जय जय जिनेश्वर तीर्थंकर, जय केवली जिन साधुवर । जय जय गणीश्वर ऋद्धि धरा श्रुतकेवली श्रुतज्ञानधर ॥ चार चतुष्टय के धनी, नमूं चार तीर्थेश। चारों गति के नाशने, चउ आराधन हेत ।। इस विधान के करने से भौगोलिक ज्ञान के साथ-साथ अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन का आनंद भी सहज प्राप्त हो जाता है। यह सारे मनोरथों को पूर्ण करने वाला, समस्त अमंगलों को नष्ट करने वाला, सारी आपत्तियों को दूर करके परम सुख का देने वाला है। माताजी की सभी रचनाएं आर्षमार्गिक होते हुए भी पूर्वाचार्यों की पद्धति के अनुरूप ही हैं, यह रचना तो भक्तों को सम्यक्त्व प्राप्त कराने में परम कारण है। ग्रंथ की छपाई आदि भी उत्तम है, मुख्य पृष्ठ सजिल्द होने से पुस्तक की उम्र बढ़ जाती है। इसका ध्यान रखते हुए इस ग्रंथ को सजिल्द मुख पत्र के रूप में छापा गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] गोम्मटसार कर्मकाण्ड सार गोम्मटसार कण्ड सार L गुणस्थान मिध्यात्व सासादन मिश्र असंयत net वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला गोम्मटसार जीवकाण्ड सार एवं कर्मकाण्ड सार समीक्षक - डॉ. पारसमल अग्रवाल आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रंथ के प्रति जैन समाज में यह धारणा है कि यह एक अति कठिन ग्रंथ है माताजी ने उक्त ग्रंथ के जीवकाण्ड से १४९ गाथाएं चुनकर १५८ पृष्ठों का ग्रंथ जीवकाण्डसार रचा है। इस ग्रंथ में इन गाथाओं के अर्थ, भावार्थ एवं आवश्यक टिप्पणी के साथ प्रत्येक अध्याय का सारांश भी दिया है। इसी प्रकार गोम्मटसार के कर्मकांड की १३३ गाथाएं चुनकर ११० पृष्ठों का ग्रंथ गोम्मटसार कर्मकाण्डसार रचा है। कर्म प्रकृतियों के बंध, अबंध, उदय, सत्ता, बंध व्युच्छित्ति आदि की गाथाओं में वर्णित जानकारी को ४७ कोष्ठकों (Tables) के माध्यम से भी कर्मकांडसार में व्यक्त करके माताजी ने पाठकों की कठिनाई बहुत कम कर दी है। कोष्ठक की एक झलक दिखाने हेतु यहाँ कोष्ठक क्र. ४७ का अंश प्रस्तुत है इन दोनों ग्रंथों को पढ़ने के बाद मैं यह पाता हूँ कि माताजी ने एक महान् एवं अत्युपयोगी कार्य किया है । इनके माध्यम से एक तरफ नये जिज्ञासुओं को गोम्मटसार पढ़ने का सरल मार्ग मिला है तो दूसरी तरफ विस्तृत गोम्मटसार पढ़े हुए विद्वानों को भी कम समय में ही पुनरावृत्ति करने का अवसर मिल सकेगा। इनके अतिरिक्त कई गाथाओं पर माताजी की व्याख्याएं एवं विचार भी जानने का अवसर पाठकों को इन ग्रंथों के माध्यम से मिल सकता है। Jain Educationa International असत्व सत्व १४८ १४५ १४७ १४८ जीवकांडसार में मुख्यतया २० प्ररूपणाओं १ गुणस्थान, २ पर्याप्ति, ३ प्राण ४ संज्ञा, ५-१९-१४ मार्गणा एवं २० उपयोग का वर्णन २० अध्यायों में हुआ है। सत्व व्युच्छिति ० आज समाज में चारित्र व अचारित्र के नाम पर बहुत भ्रांतियां फैली हुई हैं। माताजी ने इन दोनों ग्रंथों में गाथाओं का संकलन निष्पक्ष भाव से किया है। एक तरफ जीवकाण्डसार में चारित्र प्रधान छठे, सातवें, आठवें और नवमें गुणस्थान का विस्तृत वर्णन परिशिष्ट के रूप में किया है तो दूसरी तरफ मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी यानि असंयत या अविरत सम्यग्दर्शन यानि चतुर्थ गुणस्थान का महत्त्व एवं स्वरूप स्थान-स्थान पर बताया है। कर्मकांडसार में | पृष्ठ ३१ पर गांधा ३२ एवं ३३ में स्पष्ट किया है कि असंयत सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) के भी तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य बंध हो सकता है एवं पृष्ठ- ३७ पर गाथा- ४६ में चतुर्थ गुणस्थान वाले नरक के जीव के भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध की संभावना उजागर करके चतुर्थ गुणस्थान का महत्व प्रतिपादित किया है। स्वतंत्र रूप से भी जीवकांडसार में पृष्ठ- १२४ पर सम्यग्दर्शन की महत्ता को अध्याय-१७ के उपसंहार के रूप में माताजी लिखती है - "णो इंदियेसु विरदो णो जीवे धावरे तसे वापि । जो सहहृदि जिगुतं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥" विशेष "एक बार जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो जाता है, वह जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। कम से कम अन्तर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक वह संसार में रह सकता है। इसलिए करोड़ों उपाय करके सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।" For Personal and Private Use Only ३ (आहारकद्विक, तीर्थंकर) १ (सीर्थंकर) १ (नरकायु) चतुर्थगुणस्थान के असंयम का स्वरूप जीवकाण्डसार में पृष्ठ- १०१ पर गाथा - १०८ में बताया है एवं इसी ग्रंथ में पृष्ठ १२ पर गाथा - १३ में इसका स्वरूप निम्रानुसार है Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७१ अर्थ-जो इंद्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में प्रथम दर्शन प्रतिमाधारी को भी जीवकांडसार के पृ. २६ के अंतिम पैरा में पांचवां गुणस्थान वाला बताकर चतुर्थ गुणस्थान वाले सम्यग्दृष्टि एवं दर्शन प्रतिमाधारी जीव का भेद माताजी ने रेखांकित किया है। शायद कुछ लोग दूसरी प्रतिमा से पाँचवां गुणस्थान मानते हैं। ऐसे लोग आचार्य कुंदकुंद के अष्टपाहुड़ के चारित्रपाहुड़ की गाथा २२ देखकर माताजी के कथन से संतुष्ट हो सकते हैं। संयम हेतु प्रेरणा भी माताजी ने कई स्थानों पर दी है । जीवकांडसार के आठवें अध्याय के उपसंहार के रूप में पृष्ठ ७४ पर माताजी लिखती हैं "यद्यपि यह काय मल का बीज और मल की योनिस्वरूप अत्यन्त निंद्य है, कृतघ्न सदृश है, फिर भी इसी काय से रत्नत्रय रूपी निधि प्राप्त की जा सकती है, अतः इस काय को संयम रूपी भूमि में बो करके मोक्ष फल को प्राप्त कर लेना चाहिए । स्वर्गादि अभ्युदय तो भूसे के सदृश स्वयं ही मिल जाते हैं। इसलिए संयम के बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए।" इस पैरा में माताजी ने स्वर्गादि अभ्युदय को भूसे के सदृश बनाकर आत्म तत्त्व एवं आश्रव तत्त्व को यथास्थान प्रदान किया है। कुल मिलाकर ये ग्रंथ अत्युपयोगी हैं । माताजी के ये ग्रंथ आगामी कई वर्षों तक भव्य जीवों को लाभान्वित करते रहेंगे एवं शांति प्रदान करते रहेंगे। आर्यिका समीक्षक-डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत आर्यिका चरित्र प्रकाशिका श्रमण संस्कृति की प्रभाविका, व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि परस्पर निरपेक्ष शास्त्रों की अधिवेत्ता सिद्धांत अध्यात्म की अधिष्ठात्री बहुमुखी प्रतिभा की. मान्य व्यक्तित्व आर्यिकारत्न १०५ गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने रत्नत्रयाराधक दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित आचार संबंधी ग्रंथों के आधार पर “आर्यिका" नामक ७८ पृष्ठीय पुस्तक लिखी है। इसमें उपचार महाव्रतिका आर्यिका माताओं की समग्र चर्या सरलतम शब्दों में वर्णित है। यह आर्यिकाओं एवं क्षुल्लिकाओं के लिए अपनी निर्दोष चर्या पालन हेतु सुंदर निर्देशिका है। श्रावकों को आर्यिका चरित्र का परिज्ञान इसके माध्यम से सरल रीति से होना निश्चित है। प्रस्तुत कृति दिगम्बर परम्परा की साध्वी "आर्यिका" के समग्र जीवन दर्शन को उपस्थित करने वाली श्रेष्ठतम रचना है। यह जनसामान्य की भाषा में लिखी गयी कृति आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व की परिचायिका है। आर्यिकाओं की सम्पूर्ण क्रियाओं की विस्तार के साथ इसमें जो प्रस्तुति है, वह माताजी के स्वयं का जीवनदर्शन भी है। इस कृति का मूल उद्देश्य नारियों को यह बताना है कि नारियां भी चेतना के ऊर्ध्वारोहण में कैसे बढ़ सकती हैं, नारियों का सर्वश्रेष्ठ पद क्या है? उस सर्वश्रेष्ठता को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? स्त्रीपर्याय की सर्वश्रेष्ठ अवस्था “आर्यिका" जीवन है। इसका स्वरूप क्रिया आदि जानने के लिए कृति का संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत है। जैन दर्शन के ध्रुव सिद्धान्त धर्म की अनादिनिधन अवस्था की स्थापना करते हुए जिन और जैन शब्दों की व्युत्पत्ति प्रस्तुत कर वैराग्यभावना का चिन्तन उपस्थित किया गया है। जिसके मन में वैराग्य सागर हिलोरें ले रहा हो, ऐसी भव्यात्मा नारी संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर मुनि संघ में प्रवेश कर जब प्रधान आर्यिका के पास पहुँचती है। गणिनी आर्यिका उसका परीक्षण/निरीक्षण कर आचार्य श्री के पास अपने साथ उस नव वैराग्यवती को लेकर पहँचती हैं और दीक्षा प्रदान करने का निवेदन करती हैं। दीक्षा संबंधी सम्पूर्ण विधि मूलाचार, भगवती आराधना, प्रवचनसार की चारित्र चूलिका, आचारसार आदि आर्ष ग्रंथों के आधार पर ही प्रस्तुत कृति में विदुषी लेखिका ने प्रस्तुत की है। चेतना के ऊर्ध्वारोहण में नारियां किस प्रक्रिया से बढ़ सकती हैं? “आर्यिका" के व्रत आत्मविकास की चरम अवस्था नारी के लिए है। आर्यिकाएं मुनियों के समान ही मूलगुणों का पालन करती हैं। बैठकर आहार ग्रहण करना और एक श्वेत साड़ी का धारण करना इनके मूलगुणों में गर्भित है। ऐसा गुरुपदेश के आधार पर माताजी ने इसमें लिखा है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पृष्ठ २४ पर प्रायश्चित' ग्रंथ के आधार से स्पष्ट किया है कि आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर ही प्रायश्चित का विधान है। संयम ही मनुष्यावस्था की सार्थकता है, अतः पुरुष और स्त्री दोनों को ही संयम मार्ग पर चलना चाहिए, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग मन-वचन, काय, रूप व्यापार से निवृत्ति सो अनारम्भ, हन्द्रिय विषयों से विरक्त, कषायों का क्षय, उपशम यह संयम का स्वरूप है, जो स्त्रीपर्याय में आर्यिका के संभव है। आर्यिका जीवन ही स्त्रियों के लिए श्रेष्ठतम है। प्रस्तुत कृति में आर्यिका की चर्या का निरूपण सूक्ष्मता से किया गया है। इसमें परिग्रह रखना यहाँ दोष बताया, किन्तु जिन उपकरणों से संयम का विनाश न होता हो, ऐसे उपकरण या अन्य वस्तु को काल और क्षेत्र के अनुसार ग्रहण करने में मुनि/आर्यिका को दोष नहीं है। अतः पिच्छी कमण्डलु के अतिरिक्त पुस्तकें-चश्मा लेखनी मसि आदि आर्यिका रख सकती हैं, ऐसी प्रस्तुति न्याय संगत है। माताजी ने आर्यिकाओं की नवधाभक्ति वाले प्रकरण को सप्रमाण प्रस्तुत किया है। आहार विधि का समग्र निरूपण मूलाचार आदि ग्रंथों के आधार पर ही वर्णित है, अतः ग्रंथ की उपादेयता बढ़ गयी है। यह कृति आर्यिकाओं के लिए ही कार्यकारी है, ऐसा नहीं, किन्तु श्रावक-श्राविकाओं के ज्ञानवर्धन हेतु प्रामाणिक है। स्वाध्याय की सम्पूर्ण विधि बतायी गयी है। कुछ लोग आर्यिकाओं को सिद्धान्त ग्रंथ पढ़ने का निषेध करते हैं, उनको हरिवंश पुराण में वर्णित एकादश अंगों की धारिका सुलोचना का उद्धरण देकर आर्यिका सिद्धान्त ग्रंथों के स्वाध्याय की पूर्ण अधिकारिणी है, यह स्पष्ट कर दिया। आर्यिकाओं को भी स्वाध्याय आवश्यक है, क्योंकि जिस प्रकार बिना प्रकाश के अंधेरे में रखे हुए पदार्थों का नेत्रों को पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, उसी प्रकार बिना शास्त्रों के रहस्य को जाने सत्यासत्य का यथार्थ परिज्ञान नहीं होता । आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने अष्टपाहुड़ में इस पंचमकाल के भयात्माओं को संहननहीन होने से निरंतर चिन्तन व स्वाध्याय करने और मुख्यतया सर्वकाल स्वाध्याय पठन अनुप्रेक्षा धारण आदि का आधार लेने की प्रेरणा दी है। यही कारण है कि माताजी ने वर्तमान आर्यिकाओं के ज्ञान संवर्द्धन हेतु स्वाध्याय की विधि पर इस पुस्तक में विशेष प्रकाश डाला है। जो निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है। "आर्यिका" पंचम गुणस्थानवर्ती होती है, अतः उपचार से धर्मध्यान की ध्याता होती है। ध्यान संबंधी प्रकरण को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करना आवश्यक था, अतः इसमें किया भी गया है। सल्लेखना का प्रकरण संक्षिप्त लिया गया है, जिसके विस्तार की अपेक्षा थी, क्योंकि सल्लेखना या समाधिमरण ही पंचमकाल में कल्याणकारी है। सम्पूर्ण जीवन संयमपूर्वक बीतने पर भी योग्य समाधिमरण से कुछ प्राणी वंचित रह जाते हैं। . इसमें स्त्रीमुक्ति निषेध प्रकरण को निरपेक्ष दृष्टि से प्रस्तुत किया है। आर्ष ग्रंथों के विविध उद्धरणपूर्वक स्त्रीमुक्ति निषेध करना इसकी विशिष्टता है। आर्यिकाओं के साथ क्षुल्लिका या श्राविका की क्रियाओं का संक्षिप्त वर्णन, ऐतिहासिक आर्यिकाओं का जीवन परिचय आदि की प्रस्तुति इसकी विविधता सूचित करती है। माताजी ने यह लघु कृति सिद्धान्त सम्मत वर्णन से महान् बना दी है। आर्यिका चर्या जानने के इच्छुक भव्यात्माओं के लिए यह सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। किसी भी ग्रंथ की उपादेयता, उस ग्रंथ की लोकप्रियता पर विशेष निर्भर होती है। जो ग्रंथ विद्वान् तथा अविद्वान् दोनों को समान रूप से प्रिय होते हैं, वही ग्रंथ प्रशंसनीय होता है और उसी की उपादेयता मान्य होती है। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित यह “आर्यिका" नामक आर्यिका चरित्र प्रकाशिका निश्चित ही उपादेय है। जिन्होंने सिद्धान्त का उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है, ऐसी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमतीजी का ज्ञान सूर्य की किरणों के समान निर्मल है। अतः सिद्धान्त के आलोक में आर्यिका की समस्त क्रियाओं का वर्णन अनुपम है। मुनि हो या आर्यिका क्रियाएं तो आवश्यक ही हैं, क्योंकि जब तक आत्मा के साथ पुद्गलों का संयोग रहता है, तब तक क्रियाएं रहती हैं। पात्रता और विशुद्धि के आधार पर क्रियाओं में विशिष्टता आती जाती है। . आर्यिका जीवन दर्शिका यह कृति महत्त्वपूर्ण है। मौलिकता के कारण सबके आकर्षण और अध्ययन की विषय बनी हुई है। इसका स्वतंत्र अस्तित्व है। आधुनिक प्रस्तुति, निर्दोष छपाई और उचित मूल्य के कारण भी इसकी श्रेष्ठता है। १. साधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च । दिनस्थानत्रिकालीनं प्रायश्चितं समुच्यते ॥११४ ॥ जैसा प्रायश्चित साधुओं के लिए कहा गया है, वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है, विशेष इतना है कि दिनप्रतिमा त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा ग्रंथान्तरों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षाच्छेद) मूलस्थान तथा परिहार के प्रायश्चित भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं। २. द्वादशांगधरोजातः क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी। एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना ।।हरिवंश पृ. २१३॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७३ व्रत विधि एवं पूजा समीक्षक-जयसेन जैन, संपादकः सन्पति वाणी, इंदौर व्रत विधि एवं पूजा आकार जैन धर्म में व्रतों का विशेष महत्त्व है। अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म के व्रतों का पालन कुछ कष्टसाध्य भी है। इस पुस्तिका में व्रतों के ग्रहण करने की विधि, जाप्य एवं उनसे संबंधित पूजाओं का उल्लेख सुंदर, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। पुस्तिका में णमोकार महामंत्र पूजा, जिनगुण संपत्ति व्रत पूजा, रोहिणी व्रत में की जाने वाली वासुपूज्य जिन पूजा, श्री पंच परमेष्ठी पूजन एवं सप्त परम-स्थान पूजा समाविष्ट की गई है। जैन धर्म में इन पूजाओं का विशेष महत्त्व भी है। पूजन के साथ ही जाप्य मंत्र भी यथास्थान दिये गये हैं, परिणाम स्वरूप पूजन करने वालों को बड़ी सुविधा होती है। जैसे-णमोकार मंत्र पूजन की जयमाला का शेर छंद में निबद्ध एक पद द्रष्टव्य हैइक ओर तराजू पे अखिल गुण को चढ़ाऊँ। इक ओर महामंत्र अक्षरों को धराऊँ । इस मंत्र के पलड़े को उठा न सके कोई। महिमा अनन्त यह धरे न इस सदृश कोई ॥८॥ (पृ.८) यह है महामंत्र की महिमा । इसी प्रकार जिनगुणसम्पत्तिव्रत पूजा की जयमाला का निम्न श्लोक बरबस ही उस व्रत को करने की प्रेरणा प्रदान करता हैशंभुछंद इस विधि से जो नरनारी गण उपवास सहित व्रत करते हैं। अथवा एकाशन से करके जिनगुणसंपति भी वरते हैं। धनधान्य समृद्धि सुख पाते चक्री की पदवी पाते हैं। देवेन्द्र सुखों को भोग भोग तीर्थंकर भी हो जाते हैं ॥६॥ आगे रोहिणी व्रत की पूजा तो अपने व्रत संबंधी पूरे इतिहास को समेटे हुए है, जो व्रत के अतिरिक्त भी पठनीय है। पूजन एवं व्रतों से संबंधित कथाएं भी प्राचीन पुराणों के आधार पर प्रामाणिक रूप से संदर्भ सहित दी गई हैं। जिससे व्रत धारकों को व्रत पालने में, उसका महत्त्व एवं लक्ष्य समझने में बड़ी सुविधा मिलती होगी। श्री वीर निर्वाण संवत् २५१३ में इस पुस्तिका का "पंचम" संस्करण प्रकाशित होना ही पुस्तिका का उपयोगी, लोकप्रिय एवं महत्त्वपूर्ण होना दर्शाता है। पुस्तिका की रचयित्री पूज्य माताजी विलक्षण प्रतिभाओं की धनी हैं। उनके धार्मिक संस्कार, आचार-विचार, अध्ययन, साधना, साहित्य के प्रति समर्पण, लेखन एवं प्रवचन शैली, सभी कुछ तो श्लाघनीय एवं अनुकरणीय है। श्रमण संस्कृति की महिला साधकों में आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमतीजी का नाम सर्वोच्च भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि "व्रत विधि एवं पूजा" नामक यह पुस्तिका यथा नाम तथा गुण वाली उक्ति को सार्थक ही करती है। भाषा-शैली सरल-सुबोध एवं रोचक है। मुद्रण शुद्ध एवं स्पष्ट है। आवरण का कागज उत्तम किस्म का तथा अन्य आतंरिक पृष्ठों का सामान्य स्तर है। प्रस्तुत पुस्तिका सस्ती, सुंदर, उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कुन्दकुन्द का भक्ति राग समीक्षिका-डॉ० नीलम जैन, देहरादून - कली का रंग जब भीतर सिमट नहीं पाता उसकी गन्ध जब बाँधे नहीं बंधती और उसका मकरन्द जब हल्का-हल्का फूट पड़ता है तो वह पुष्प बन जाती है। नन्हें-नन्हें बीज धरती का वक्षस्थल फोड़कर अंकुरित होते हैं। देखते ही देखते दूर-दूर तक हरी-भरी फसल लहलहाने लगती है। पर्वत के हृदय में बसी सजल करुणा पत्थर तोड़कर बह निकलती है। पूर्व दिशा में बूंघट उठाकर उषा सुन्दरी झांकती है तो पक्षियों का उल्लास कलवर बनकर फूट पड़ता है। प्रकृति में सर्वत्र यही दिखाई देता है। हर वस्तु अपने अन्तस का सब कुछ बाहर व्यक्त करने को उद्यत है। इसी उदात्त भाव ने जब मानव को प्रेरित किया तो विविध कलाओं का जन्म हुआ। इन कलाओं एवं भावनाओं का सिरमौर है साहित्य । साहित्य में मानव स्वयं को, स्वयं के जीवन को एवं सम्पूर्ण युग को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। मानव प्रगति के लिए, सामाजिक उत्थान के लिए साहित्य दर्पण भी है, दीपक भी है। भावी दिशा निर्देशन के लिए वह दीपक होता है, उसकी गुत्थियों को सुलझाने और समस्या का समाधान करने के लिए वह प्रतिबिम्ब का कार्य करता है। ऐसा ही युगीन कालजयी साहित्यकार युगों-युगों तक आराध्य रहते हैं। मानवीय प्रकृत्यानुसार साहित्य के अनेक वर्ग और विधा हो जाती है; सामाजिक, धार्मिक या लौकिक-पारलौकिक । भारत में सभी प्रकार का साहित्य प्रचुरता में उपलब्ध है। अहर्निश जिन्होंने आत्मकल्याण की साधना की एवं संसारी प्राणियों को भी सच्चे सुख का प्रशस्त मार्ग बताया, धर्म का सत्य रूप समाज के सम्मुख रखा, भटकते मानव को स्थिर एवं समीचीन राह दिखाई। आज से २००० वर्ष पूर्व ज्ञान चक्र प्रर्वतक [भगवान महावीर की परम्परा के सच्चे संवाहक, तपोनिधि कलिकालसर्वज्ञ तरण-तारण ऋषिवर, साधु हुए आचार्य कुन्दकुन्द.] जैन परम्परा भगवान महावीर के साथ समाप्त नहीं हुई, अपितु गुरु-शिष्य के मध्यगत होती हुई विद्यमान रही। भगवान महावीर के मुख्य गणधर थे गौतम स्वामी । आपने भगवान महावीर के केवलज्ञान को स्वयं में समाहित किया तदुपरान्त श्रुतकेवली के पंचाचार्यों ने इसे सुनकर ज्यों का त्यों जाना। तदनन्तर सम्पूर्ण ज्ञान को लिपिबद्ध किया गया, जिससे भावी पीढ़ी भी इस ज्ञान को सुरक्षित ग्रहण कर सके। इस परम्परा में आचार्य धरसेन, भूतबलि एवं पुष्पदन्त आचार्य के बाद आचार्य कुन्दकुन्द देव ने इस परम्परा के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा शास्त्रों को व्यवस्थित ढंग से लिपिबद्ध किया। आपकी प्रमुख रचनाएं हैं- 'समयसार', 'प्रवचनसार', 'रयणसार', 'अष्टपाहुड़', 'नियमसार' 'पंचास्तिकाय' आदि फुटकर रचनाएं भी प्राप्त होती है आपने भक्ति के दो मागों निश्चय और व्यवहार को पूर्ववत् श्रेद्धय माना है। हमारा निश्चय, दृढ़ श्रद्धान जब तक तथानुरूप आचरण नहीं करेगा तब तक हम अभीष्ट ध्येय को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इस संदर्भ में व्यवहार पद्धति की एक फुटकर रचना है। आपकी लेखनी से प्रस्फुटित भक्तियाँ-भक्ति में समर्पण भाव प्रधान होता है। भक्त भगवान से तदाकार होकर ही अपना जीवन सार्थक मानता है। भक्ति उन आराध्य देव की होती है, जिनके अनुरूप बनना मानव जीवन का लक्ष्य है। इसीलिए धार्मिक साहित्य में भक्ति रचनाओं को भी परम स्थान प्राप्त है। जैन आचार्यों ने "राग" को यद्यपि बन्धन का कारण कहा, किन्तु वीतरागी में किया गया राग परम्परा से मोक्ष देता है। इसीलिए केवल ज्ञानी गौतम गणधर द्वारा रचित 'चैत्य भक्ति' "वीर भक्ति" भी उपलब्ध हैं तो आचार्य कुन्दुकुन्द देव द्वारा रचित सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योग, आचार्य, तीर्थकर, पंचगुरु एवं निर्वाण भक्ति । आचार्यप्रवर पूज्यपादकृत भक्तियां भी परवर्ती आचार्यों ने भी भक्तिरस में अनेक भावनाएं प्रवाहित की। ये भक्तियां आचार्यों ने युगीन भाषा में लिखी थीं। यथा प्राकृत, संस्कृत आदि । चूँकि इन भक्तियों में अभूतपूर्व दर्शन, आत्मा और परमात्मा का समन्वय, सर्वोत्कृष्ट शान्त भाव तथा भक्त के अवलम्बन का मार्ग निहित है परन्तु भाषा की विषमता वर्तमान के भक्तों के आड़े आती है। इसीलिए अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, परमविदुषी, गणिनी, आर्यिका पू. ज्ञानमती माताजी ने सरसपद्यानुवाद के अपने क्रम में इन भक्तियों के अनुवाद कर हम गृहस्थों को भी भक्ति करने का समीचीन मार्ग सुझाया। सरल भाषानुवाद से भाव सरलता बोधगम्य हो गए हैं। भक्तिमार्ग आसान, सीधा और सरस है । जनसाधारण के मार्ग को रुचता है। ज्ञानप्रधान जैन धर्म में उसका विधान बहुत बड़े आश्वासन की बात है।' जैन सिद्धान्त में कहा है- वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं "स्व" आत्मा ही है। आत्म प्रेम का अर्थ है आत्मसिद्धि, जिसे मोक्ष कहते हैं। आचार्य फूज्यवाद में 'राग' को भक्ति कहा है, किन्तु उस राग को जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में शुद्ध भाव से किया जाय। १. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि : डा. प्रेमसागर जैन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृष्ठ ७ २. सर्वार्थसिद्धि : आचार्यपूज्यपाद ६१२४ का भाष्य Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७५ जैन भक्तों के समर्पण में निराला सौन्दर्य है, यहां केवल भक्ति साधारण मानवों की नहीं, अपितु अपने मान बिन्दुओं की नव देवताओं की ही की जाती है। यथा- पंचपरमेष्ठी (अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) श्रुत, चैत्य, जिनमन्दिर, जिनबिम्ब, जैन सिद्धान्त में प्राणियों के दो मार्ग हैं "श्रावकाचार" एवं “श्रमणाचार"। दोनों ही वर्गों की आचरण संहिता भिन्न-भिन्न हैं, तदपि दोनों ही के मध्य भक्ति का प्रावधान है, इसीलिए आचार्यों ने भी भक्ति लिखी हैं-आचार्य समन्तभद्र ने स्तुति विद्या में लिखा है - "प्रज्ञासास्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदीयत्नाश्रिते ते पदे मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव यात्वास्तते ते ज्ञा या प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते" प्रस्तुत पद्यानुवाद में पूज्य मातुश्री ने किन-किन क्रियाओं में कौन-कौन-सी भक्ति करनी चाहिए की पूर्ण तालिका दी है। चूंकि सुसमय सुव्यवस्थित ढंग से की गई क्रिया ही यथेष्ट फल देती है। आचरण विधि उपयुक्त होने से लाभ भी अपूर्व प्राप्त होता है, यहीं से प्रारम्भ हो जाता है,पूज्यमातुश्री का हम पर उपकार है वर्तमान में हम भले ही यह न समझ पायें "जरमरणजम्मरहिया ते सिद्धा मम सुभत्तिजुत्तस्स दितु वरणाणलहं बुहयण परिपत्थणं परमसुद्धं ।"४ किन्तु हम सहजता से यह तो हृदयगंम कर सकते हैं "वे जन्म मरण औ जरा रहित सब सिद्धि भक्ति सेनुत उनको, बुध जन प्रार्थित औ परमशुद्ध वर ज्ञान लाभ देवो मुझको।" इसी प्रकार अन्यच्च "सजदेण मए सम्यं, सव्वसंजम भाविणा, सव्व सञ्जयसिद्धीओ, लब्भदे मुत्तिजं सुहं ।"५ "सब संयम की भावना लिये मैं संयम और मुमुक्षु हूँ मुझको सब संयम सिद्धि मिले, मैं मुक्ति सुख का इच्छुक हूँ।" "ईदृशगुणसंपन्नान्युष्मान्भक्तया विशालया स्थिर योगान, विधिनाना रतमग्यान्मुकुलीकृतहस्तकमल शोभित शिरसा ।" "इन सब गुण से युक्त तुम्हें स्थिर योगी प्राचार्य प्रधान, बहुत भक्तियुत विधिवत् मुकुलित करपटुकमल धरूँ शिरधान।" "धर्मानास्त्यपरः सुहृदभव भृतां धर्मस्य मूलं दया, धमें चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म! मां पालय।" धर्म से अन्य मित्र नहीं जग में, दयाधर्म का मूल कहा मन को धरूँ धर्म में नित है धर्म! करो मेरी रक्षा । इस प्रकार पद्यानुवाद के माध्यम से हम शब्दों का अर्थ भली-भांति समझते हैं तथा अपने भावों को तदनुरूप ढालते हैं। हमारा भक्ति का लक्ष्य भी सिद्ध हो जाता है। अपने भावों को यथानुरूप प्रकट करना सरल है, किन्तु अनुवाद करना एक दुष्कर श्रमसाध्य कार्य है। कृति के एक-एक शब्द और एक-एक भाव के साथ-साथ सरसता और अनुरूप शब्दों का चयन करना तपस्या से कम नहीं। पूज्य मातुश्री सिद्धहस्तता से, अधिकारी विद्वान् की भांति यह कार्य करती हैं। न कहीं भाषा बोझिल है, न भाव छिपते हैं और न ही शब्दों की कहीं कमी दिख पड़ती है। पू० मातुश्री का अक्षयगुण भंडार, कवित्व, विद्ग्धता अनुवादकार्य की श्रीवृद्धि कर रहा है। आज गूढ़ संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों को भी आपने हिन्दी अनुवाद से सरल एवं पठनीय बना दिया है। स्वाध्याय में रूचि बढ़ी है। अपने शास्त्रों में छिपे ज्ञानकोष से श्रावकों को साक्षात्कार हुआ है। प्रस्तुत कृति भक्तिराग से तो मानो हमको चिंतामणि ही मिल गई है। एकान्तवादियों की एकांगी चिन्तनप्रणाली पर कुठाराघात करने में सक्षम, अद्वितीय एवं प्रासंगिक ग्रन्थ बन पड़ा है। अन्तरंग में विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रदीप्त करने में सक्षम है। अल्पमूल्य में अमूल्य साहित्य प्रकाशित करने वाले ३. स्तुतिविद्या : आचार्य समन्तभद्र : ११३वा श्लोक ४. कुन्दकुन्द का भक्तिराग : पद्यानुवाद आर्यिका ज्ञानमती (सिद्ध भक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द) : पृष्ठ ११ ५. चारित्र भक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द : पृष्ठ १४, वही ६. आचार्य भक्ति : पूज्यपादकृत : पृष्ठ ७४, वही ७. वीर भक्ति : गौतम स्वामी : पृष्ठ १३२, वही Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६] संस्थान दिगम्बर जैन त्रिलोक संस्थान, हस्तिनापुर, मेरठ के भी हम ऋणी हैं। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के ८० वें पृष्ठ की न्यौछावर राशि मात्र है १०रु० । सम्पादक ब्र० रवीन्द्र जैन भी तन्मयता एवं समर्पण भाव से कार्यरत हैं, आपको श्रुत भक्ति श्लाघनीय है। कु० माधुरी शास्त्री (वर्तमान में आर्यिका चन्दनामतीजी जी की प्रस्तावना तथा श्री मोतीचन्द्र जैन सर्राफ (वर्तमान में श्रुल्लक मोतीसागर जी का लेखिका परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ में अतिरिक्त सौन्दर्यवृद्धि करता है, पूज्यमातुश्री जीवन्त हो- हम अल्पवृद्धि, अल्पक्षयोपशमी जीवों पर वात्सल्य बनाये रखें, पुस्तक का शीर्षक "कुन्दकुन्द का भक्तिराग" प्रभावी एवं सार्थक है। कुन्दकुन्दाचार्य को मात्र निश्चयनय का पक्षधर मानने वालों के लिए चुनौती भी है। द्रव्यसंग्रह दुव्य संग्रह (पद्यादसहित) आयिका ज्ञानमती वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला समीक्षक- पं० सत्यन्धर कुमार सेठी, उज्जैन दिगम्बर जैन समाज में द्रव्यसंग्रह एक ऐसा ग्रंथ है. जो बच्चे से लेकर बूढ़े तक बहुचर्चित है। इस ग्रन्थ के प्रणेता है दिगम्बर जैन आचार्य परम्परा के महाविद्वान् सिद्धांत चक्रवर्ती १०८ श्री नेमीचंद्राचार्य जिन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड जैसे सिद्धांत ग्रंथों की रचना करके जैन वाङ्मय का वैभव बढ़ाया है। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय करने से मानव हृदय में वे भावनायें उदित होती हैं जिनके उदित होने पर मानव का चिंतन अनेक विकल्पों से हटकर एकाग्र हो जाता है। द्रव्य संग्रह की रचना प्राकृत भाषा में है। परम श्रद्धेय माताश्री ज्ञानमती ने पद्य रचना करके उसको इतना सुलभ बना दिया है कि छोटे से छोटा बालक भी उनको गुनगुनाने लगता है। देखिये ग्रंथ का मंगलाचरण जिसमें प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ को नमस्कार किया है और बतलाया है कि देव इन्द्रों कर वंदित जीवादि तत्त्वों का जिन्होंने निर्देश दिया है। वह गाथा इस प्रकार है Jain Educationa International जीवमजीवं दव्वं जिणवर व सहेण जेण णिद्दिट्ठे । देविदंविंद वंदे, वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ उसी का पद्यानुवाद देखें जिनवर में श्रेष्ठ सुतीर्थंकर जिनने जग को उपदेशा है। बस जीव अजीव सुद्रव्यों को विस्तार सहित निर्देशा है ॥ सौ इन्द्रों से वंदित वे प्रभु उनको मैं वंदन करता हूँ । भक्ति से शीश झुकाकर के नित प्रति अभिनंदन करता हूँ ॥ इस पद्म में माताजी ने मूल मंगलाचरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण शब्दों में भगवान् ऋषभदेव के प्रति श्रद्धा प्रकट की है। शब्दों के विन्यास भी बड़े मार्मिक हैं। माताजी की तर्कणा शक्ति भी बड़ी बेमिशाल है। इसी तरह आप गाथा ४ का भी अवलोकन कीजिये। मूल ग्रंथ निर्माता ने तो सिर्फ उपयोगों का ही वर्णन किया है— जैसे अब माताजी की पद्यरचना का आस्वादन लीजिए उवओगो दुवियप्पो दंसण णाणं च दंसणं चदुधा । चक्खु अचक्खु ओही दंसण मध केवल ये || उपयोग कहा है दो प्रकार दर्शन औ ज्ञान उन्हें जानो, पहले दर्शन के चार भेद उससे आत्मा को पहिचानो ॥ चक्षु दर्शन बस नेत्रों से होता अचुक्ष दर्शन सबसे, अवधि दर्शन केवल दर्शन ये दोनों आत्मा से प्रगटें। माताजी ने बतलाया है कि उपयोग के भेद-प्रभेद तो समझो, लेकिन समझने पर स्वयं की आत्मा को पहिचानो यह निर्देश कितना महत्त्वपूर्ण है। माताजी ने पाठक को इशारा किया है कि भेद और प्रभेद का ज्ञान करके स्वयं की आत्मा को पहिचानना आवश्यक है। क्योंकि मोक्ष मार्ग में सबसे बड़ा For Personal and Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७७ महत्त्व ही स्वयं को पहचानने का है। माताजी की स्वयं की साधना का ही प्रतीक है यह इशारा । इसी तरह सोलहवीं गाथा में पुद्गल द्रव्यों की पर्यायों का वर्णन किया है। वहाँ भी माताजी ने पद्य रचना में बतलाया है कि ये पर्यायें तो विनश्वर हैं। इन पर्यायों से हे आत्मा! तेरे से कोई संबंध नहीं। इन सबसे तू निराला है। इसलिये निजआत्मा को पहिचानो। और भी कई गाथाओं की पद्य रचना में माताजी ने अनेक विशेषताओं को लेकर मानव को संबोधित किया है। मेरा तो मत यह है कि माताजी एक स्वतंत्र निश्चल विचारों की साधिका हैं और ज्ञान-ध्यान, तप ही उनका जीवन है। इन पद्य रचनाओं में माताजी ने अंत में पाठ करने वालों से भी कहा है कि ज्ञानमती साध्वी किया, भाषामय अनवाद । गद्य पद्य रचना मधुर करो, भव्य जन पाठ। माताजी ने इस महान् ग्रंथ की पद्य रचना करके साहित्य जगत् का बहुत बड़ा उपकार किया है। साथ ही माताजी ने यह भी बतलाने का प्रयास किया है, द्रव्य संग्रह सैद्धांतिक ग्रन्थ है, जिसमें वस्तुस्वरूप को समझाते हुए आचार्य नेमीचंद्रजी ने बतलाया है कि व्यवहार और निश्चय दो दृष्टि हैं। एकांत दृष्टि से वस्तु स्वरूप सही रूप से नहीं समझा जा सकता। माताजी की यह एक अनुपम देन है जो हम सबको सदा स्मरणीय रहेगी। "तीर्थंकर महावीर और धर्मतीर्थ" समीक्षक-पं० सत्यन्धर कुमार सेठी, उजैन आरतीर्थ परम श्रद्धेया १०५ श्री गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा विरचित "तीर्थकर महावीर" और धर्म तीर्थ नामक पुस्तिका पढ़ने का मुझे सौभाग्य मिला। पूज्य माताजी ने अनेक बड़े-बड़े ग्रंथों की टीकायें की हैं तथा स्वतंत्र साहित्य सर्जन भी किये हैं। लेकिन यह पुस्तिका अपने आप में अनोखी है। इस छोटी-सी रचना को तीर्थङ्कर महावीर रचकर पूज्य माताजी ने “गागर में सागर" भर दिया यह कहावत चरितार्थ कर दी है। विश्ववंद्य भगवान महावीर के जीवन और उनके सिद्धांतों पर तो प्रकाश डाला ही है लेकिन माताजी ने भगवान् ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के बाद तक संक्षिप्त में पूरा जैन इतिहास का चित्रण करके सामान्य स्वाध्याय प्रेमी को यह समझने का अपूर्व अवसर दिया है कि जैन धर्म का उद्गम भगवान महावीर से नहीं, अनादिकाल से ही वह प्रचलित है। साथ में यह भी समझने की बात है कि भगवान् ऋषभदेव ने राष्ट्र निर्माण के लिये मानव को वे शिक्षायें प्रदान की जिनसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाईचारा, प्रेम वात्सल्य और अस्तित्व की भावनाओं का उदय हुआ और सम्पूर्ण राष्ट्र में नवजीवन की भावनाओं का प्रचार और प्रसार हुआ। माताजी ने इस छोटी-सी पुस्तक में संक्षेप रूप में स्याद्वाद को समझाने का जो प्रयास किया है वह इतना सरल है कि सहजतया यह समझ में आ जाता है कि जैनों का यह स्याद्वाद मानव जीवन को एक ऐसा चिंतन देता है जिससे मानव में कभी भी पंथ भेद जातिगत भेद व एकांत पक्ष की भावनायें ही पैदा नहीं हो सकतीं। इसी तरह अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का संक्षिप्त वर्णन करके यह बतला दिया है कि अनादिकाल से सृष्टि में अपने आप परिवर्तन होता आ रहा है। इसमें कोई भी ईश्वरीय शक्ति काम नहीं देती। न सृष्टि का कोई संहार करता और न इसकी रचना करता है। इस तरह चारों तरफ दृष्टिकोण को रखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस संक्षिप्त जीवनी में पूज्य माताजी ने सारभूत तथ्य को बतलाते हुए जैन जगत् को एक अमूल्य भेंट दी है। जो हमारे लिए हमेशा ही स्मरणीय रहेगी। मैं तो इसको अनूठी रचना मानता हुआ उन महासती के चरणों में श्रद्धा प्रकट करता हुआ अपने आपको धन्य मानता हूँ। 38कासनसनी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] दीपावली पूजन वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला दीपावली पूजन समीक्षिका - आर्यिका चंदनामती दीपावली पर्व प्रतिवर्ष आता है और सारे हिन्दुस्तान में असंख्य दीपों की जगमगाहट के साथ खुशियां मनाई जाती हैं। जैन समाज में भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण कल्याणक के प्रतीक में कार्तिक कृ. अमावस्या की प्रत्यूष बेला पर भक्तगण निर्वाण लड्डू चढ़ाते हैं। लोक परम्परानुसार कुछ लोग दीपावली के दिन गणेश और लक्ष्मीजी की पूजा करते हैं तथा लक्ष्मी का बसेरा अपने घर में कराने हेतु लोग महीनों पूर्व से घर की सफाई-रंगाई आदि करवाने लग जाते हैं क्योंकि हृदय में यह भावना रहती है कि गन्दे स्थान पर लक्ष्मीजी नहीं आती हैं। यहाँ मुख्य रूप से गणेश और लक्ष्मी पूजन का अभिप्राय समझना है। हमारी समीक्ष्य कृति “दीपावली पूजन" में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने जहाँ दीपावली पूजन की आगमोक्त विधि दर्शाई है वहीं नई-नई छन्दों की पूजाएं एवं नया निर्वाणकाण्ड लिखकर प्रदान किया है। आज से पच्चीस सौ सत्रह वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा अमावस्या को प्रातः काल जब भगवान महावीर स्वामी को पापुर नगरी से निर्वाण पद की प्राप्ति हुई थी उसी समय से दीपावली पर्व का शुभारम्भ हुआ है। इन्द्रों ने जिस पावापुर में साक्षात् आकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया था वह पावापुर आज तक विद्यमान है, जहाँ प्रतिवर्ष हजारों भक्तगण निर्वाण लाडू चढ़ाकर दीपमालिका पर्व मनाते हैं। दीपावली पर्व के साथ दीपकों का, गणेश और लक्ष्मी का क्या सम्बन्ध है? यह विषय समझने का है Jain Educationa International अमावस्या की घोर अंधियारी रात्रि में देवों ने पुरी पावापुरी नगरी को असंख्य दीपों से अलंकृत किया था उसी खुशी में उस दिन दीपक जलाए जाते हैं इसीलिए इस "वीरनिर्वाणोत्सव" के इस मूल पर्व को दीपावली के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हो गई। उस अमावस्या की सन्ध्या में गौतम गणधर को केवलज्ञान महालक्ष्मी की प्राप्ति हुई। गणधर का एक नाम गणेश भी है क्योंकि वे समवशरण में बारह गणों के ईश-स्वामी होते हैं अतः गणानां ईशः गणेशः नाम सार्थक हो जाता है यह हुआ गणेश और लक्ष्मी का दीपावली से सम्बन्ध । पूज्य माताजी ने गणधर की पूजा के प्रथम श्लोक में ही उनके अनेक नाम दर्शाए हैं गीता छन्द गणपति गणीश गणेश गणनायक गणीश्वर नाम हैं। गणनाथ गणस्वामी गणाधिप आदिनाम प्रधान है । उन इन्द्रभूति गणीन्द्र गौतम स्वामि गणधर को जजूँ । स्थापना करके यहाँ सब कार्य में मंगल भजे ॥ १ ॥ इन १० नामों से समन्वित गणधर स्वामी की अष्टद्रव्य से पूजन की जाती है तथा केवलज्ञान लक्ष्मी की भी अलग से पूजन है जिसे करने से अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होती है। इस केवल ज्ञानलक्ष्मी पूजन की जयमाला में पू. ३७ पर एक बड़ी सुन्दर पंक्ति आई है शेर द केवलरमा को सेवर्ती सम्पूर्ण ऋद्धियाँ। उस आगे आगे दौड़ती हैं सर्व सिद्धियाँ आगे जयमाला के अन्त में दोहा छंद का एक श्लोक है केवलज्ञान महान में, लोकालोक समस्त । इक नक्षत्र समान है, नयूँ नमूँ सुखमस्तु ॥ अर्थात् इस महान् केवलज्ञान में तीनों लोक एवं अलोक के सभी रूपी अरूपी पदार्थ नक्षत्र के समान दिखने लगते हैं। दीपावली के शुभ दिन ही गौतम गणधर को इस कैवल्य लक्ष्मी के प्राप्त हो जाने से लक्ष्मी पूजन का महत्त्व इस पर्व के साथ जुड़ गया। For Personal and Private Use Only . Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७९ पूज्य ज्ञानमती माताजी ने आगम आधार पर इसी कैवल्यलक्ष्मी की पूजा करने की प्रेरणा प्रदान की है। पूजा के अन्त में उन्होंने उसके फल का वर्णन किया हैनरेन्द्र छन्द केवलज्ञान महालक्ष्मी की, पूजा नित्य करें जो। इस जग में धन धान्य रिद्धि निद्धि, लक्ष्मी वश्य करें सो दीपावलि दिन लक्ष्मी हेतु, इस लक्ष्मी को ध्याके। केवल "ज्ञानमती" लक्ष्मी को, वरें सर्वसुख पाके ॥ संसार में चक्रवर्ती सरीखी सम्पत्ति एवं मोक्षलक्ष्मीजी भी इस पूजन के प्रसाद से प्राप्त होती है तो छोटी-छोटी सम्पत्तियों के बारे में क्या सोचा जाए? अर्थात् वे तो बिना मांगे ही मिल जाती हैं। इसलिए दीपावली के दिन प्रातः भगवान महावीर की पूजन करके निर्वाणलड्डू चढ़ाते हैं और शाम को गणधर स्वामी एवं केवलज्ञान लक्ष्मी की पूजन की जाती है। उस समय विनायक यंत्र सिंहासन पर विराजमान करके पूजन क्रिया करनी चाहिए। उसी समय बही पूजन भी की जाती है, इसकी सम्पूर्ण विधि इस पुस्तक में दी गई है। ___ इसमें भगवान महावीर स्वामी की भी एक सुन्दर पूजन है जिसमें उन्हें “निर्वाणलक्ष्मीपति" नाम से सम्बोधित किया गया है। केवलज्ञान और निर्वाण इन दोनों विभूतियों को यहाँ लक्ष्मी की उपमा प्रदान की है जो कि विशेष ज्ञातव्य है। महावीर स्वामी पूजन के अष्टक में दो पंक्तियाँ बार-बार दुहराई गई हैंउपेन्द्रवज्रा छन्द निर्वाणलक्ष्मीपति को जनूँ मैं, निर्वाणलक्ष्मी सुख को भनूँ मैं। अर्थात् निर्वाणलक्ष्मीपति तीर्थंकर की पूजा से निर्वाण लक्ष्मी का सुख हम भी प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार हिन्दी निर्वाणकाण्ड प्राकृत निर्वाणभक्ति के आधार पर पूज्य माताजी ने शेर छन्द में बनाया है, जो कि बहुत ही सरस भाषा में बना हुआ है। नमूने की दृष्टि से उस निर्वाण काण्ड का भी एक छन्द यहाँ प्रस्तुत है वृषभेष गिरिकैलाश से निर्वाण पधारे। चंपापुरी से वासुपूज्य मुक्ति सिधारे । नेमीश ऊर्जयंत से निर्वाण गये हैं। पावापुरी से वीर परमधाम गये हैं ॥१॥ इस प्रकार से पूरी पुस्तक दीपावली पर्व के लिए तो अत्यन्त उपयोगी है ही, साथ ही प्रतिदिन भी इसमें से कोई भी पूजन की जा सकती है एवं निर्वाणकाण्ड तो श्रद्धापूर्वक रोज पढ़ना ही चाहिए जिससे सभी मुक्तात्माओं की वंदना एवं निर्वाण क्षेत्रों के दर्शन घर बैठे हो जाएंगे। दीपावली पूजन की सम्पूर्ण विधि एवं पूजाओं से समन्वित इस कृति का प्रकाशन सन् १९९१ के दीपावली पर्व पर हुआ है, जब पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का चातुर्मास सरधना (जि. मेरठ) में हो रहा था। वीर निर्वाण सम्वत् ने अपने २५१७ वर्ष पूर्ण करके अब २५१८ वें में प्रवेश किया है। वर्तमान में प्रचलित सभी संवतों में वीर निर्वाण सम्वत् सर्वाधिक प्राचीन सम्वत् है, जोकि कलियुग के प्रारम्भ से ही चला आ रहा है अर्थात् इससे यह जाना जाता है कि पंचमकाल के २५१८ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं अभी १८४८२ वर्ष इस काल में और शेष हैं, तब तक यह सम्वत् निर्बाध रूप से चलता रहेगा। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से प्रकाशित "दीपावली पूजन" नाम की इस लघु पुस्तक को मंगाकर सभी श्रद्धालु नर-नारी पर्व के महत्त्व और विधि को समझकर उसे कार्यान्वित करें यही मंगल भावना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला समाधितन्त्र एवं इष्टोपदेश समीक्षक-डॉ० रूद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, निदेशक ब्रजमोहन बिरला, शोध केन्द्र, उज्जैन । TERRORIES समाधितंत्र SOWOWOWOWOWOWO सत्य एवं सफल पद्यानुवाद जैनाचार्य श्री पूज्यपाद द्वारा विरचित "समाधितन्त्र" और "इष्टोपदेश" नामक दोनों लघुग्रन्थ जैन-सम्प्रदाय के अनुयायियों की आध्यात्मिक चेतना को वास्तविक मार्ग दिखाने के लिये अत्युत्तम ग्रन्थ माने जाते हैं। संस्कृत-भाषा WOWOWOWONI के अनुष्टुप् छन्द में विरचित ये ग्रन्थ क्रमशः १०४ पद्य एवं ५१ पद्यों में अपने वक्तव्य अंशों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। दिगम्बर जैन साधकवर्गों के ये कण्ठहार हैं। इनके रचयिता ईसा की पाँचवीं शती में श्रमण-परम्परा के दिग्गज आचार्य हुए हैं। आपने जैन-सिद्धान्त, व्याकरण, वैद्यक तथा अध्यात्म-दर्शन के अनेक अप्रतिम ग्रन्थों का निर्माण किया था। आपकी (पद्यानुवाद सहित "जैनेन्द्र-प्रक्रिया-व्याकरण" तथा "सर्वार्थसिद्धि" आदि कृतियां जैन आगम की प्राण हैं। इन उपर्युक्त दोनों कृतियों के मौलिक तत्त्वों से सर्वसाधारण जनों को सुपरिचित कराने तथा इनके द्वारा दिये जाने वाले उपदेशों को आत्मसात् कराने के लिये-परमविदुषी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने संस्कृत पद्यों का हिन्दी में पद्यानुवाद करके एक महान् लोकोपकारी कार्य किया है। यह अनुवाद पद्यात्मक होने पर भी अत्यन्त सुबोध एवं अतिसरल भाषा में रचित है। संस्कृत-पद्यों की भाषा दार्शनिक विषयों के गूढ़ रहस्यों को संकलित करने की दृष्टि से कहीं-कहीं जटिल भी है, किन्तु पद्यानुवाद हिन्दी भाषा के ३० मात्रा वाले मात्रिक छन्द में प्रत्येक पद्य के भावार्थ को विशदरूप से समझाने में पर्याप्त सफल हुए हैं। लोक बोध्य भाषा के प्रयोग की सधी हुई भाषा में माताजी ने प्रत्येक पद्य के आन्तरिक रहस्यों को तथा व्यंग्य रूप में ग्राह्य भाषा के प्रयोग से अध्यात्म तथा रत्नत्रय के रहस्यों को समझाने की दृष्टि इतनी सरल सुगम बना दी गई है कि रहस्यपूर्ण शास्त्रीय ग्रन्थियाँ स्वयं खुल गई हैं। जो वाक्यावली दार्शनिक शब्दों से ग्रथित होकर समस्त पदों के कारण जटिल बनी हुई थीं, उन्हें अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास अनुवादिका के स्वात्मबोध से सम्बद्ध है। उदाहरणार्थ यह पद्य देखिये नरदेहस्थमात्मानमविद्वान् मन्यते नरम्। तिर्यंचं तिर्यगङ्गस्थं सुरांगस्थं. सुरं तथा ।। अर्थात्जिस गति में जीवन चला जावे, उसको ही अपनी मान रहे। नरतन में स्थित आत्मा को, मूढ़ात्मा जन नर मान रहे ॥ तिर्यक् शरीर में स्थित को, मूढ़ात्मा तिर्यग् मान रहे। जो सुर के तन में राजित है, उस आत्मा को ही देव कहे ॥ जहाँ संस्कृत-पद्य की उक्ति में जो अध्याहार की अपेक्षा बनी हुई थी, उसकी पूर्ति एवं गद्यगत गूढार्थ की स्पष्टता भी हिन्दी पद्यानुवाद में की गई है। इसी प्रकार आत्मा एवं गुरु के महत्त्व की प्रस्तुति में कहा गया है। कि नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः ।।७५ ।। इसी का हिन्दी छंद देखें आत्मा ही आत्मा को सचमुच, बहु जन्म प्राप्त करवाता है। यह आत्मा ही सचमुच निज को, निर्वाण स्वयं ले जाता है । इसलिये स्वयं यह आत्मा ही, आत्मा का गुरू कहाता है। परमार्थरूप से देखें तो, नहिं अन्य गुरू बन पाता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८१ यही भाव गीता में भी व्यक्त हुआ है। यह शाश्वत सत्य सर्व-स्वीकार्य है जिसे अनुवाद के द्वारा सुलभबोध किया गया है। यह "मणिकांचन" योग ही कहा जाना चाहिये कि आचार्य श्री पूज्यपाद ने जिस गुरुता से आत्मबोध की दिशा में समाधितन्त्र का उपदेश किया है, उसी गौरवपूर्ण अनुभव से आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद के द्वारा मूलग्रन्थ को हृदयंगम कराने में अपूर्व योगदान किया है। सांसारिक प्राणियों को आत्मानन्द की प्राप्ति का मार्ग इससे सुगम हो गया है। - पूज्यपाद आचार्य की द्वितीय कृति “इष्टोपदेश" मुमुक्षुजनों के लिये आवश्यक उपदेश-प्रद है। आत्मा साधना-उपासना के द्वारा परमात्मा कैसे बन जाता है?" यह समझाने की दृष्टि से इसमें कथन हुआ है। जैन-शास्त्रानुसारी तत्त्वों का प्रतिपादन इस कृति का प्रमुख लक्ष्य है। श्री माताजी ने "इष्टोपदेश" के भी पद्यानुवाद से रचनाकार के तलस्पर्शी दार्शनिक विचारों को भावपूर्ण शब्दों में यथावत् उतारने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। ___ अनुवाद के लिये पूर्ववत् वही ३०-३० मात्राओं वाला छन्द अपनाया है; किन्तु बहुधा दो-दो चरणों में ही एक-एक अनुष्टुप् पद्य का अनुवाद प्रस्तुत किया है। यथा विपद्भव-पदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते। यावत् तावद्भवंत्यन्याः प्रचुराः विपदः पुरः ॥१२ ।। हिन्दी पद्य भव-विपदामय आवों में यह पुनः पुनः ही फँसता है। जब तक विपदा इक गई नहीं, आ गई हजारों दुखदा हैं। यहाँ "एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं" इत्यादि सूक्ति का सार बहुत ही सरलता से व्यक्त हो रहा है। इसी प्रकार पुद्गल के पर्यायों को समझाते हुए कहा गया है न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥२९॥ पद्य नहिं मृत्यु मुझे फिर भय किससे, नहिं रोग पुनः पीड़ा कैसे? नहिं बाल, युवा नहिं बुड्ढा हूं, ये सब पुद्गल की पर्यायें ॥२७॥ यह अनुवाद, कितना सारग्राही है, यह पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं? अच्छे अनुवाद का लक्षण है "मूल का अनुसरण तथा उसके सारतत्व का उपस्थापन।" ये दोनों बातें पूज्य माताजी ने “समाधितन्त्र और इष्टोपदेश" के इस पद्यानुवाद में सत्य, सफल सिद्ध हुई हैं। अतः आपके वैदुष्य के प्रति पाठकों की हार्दिक प्रणतियाँ अर्पित हैं। जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्ति प्रवीणचंद्र जैन, एम.ए., शास्त्री, जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर जम्बूद्वीप का संक्षेप में दिगदर्शन कराने वाली लोकोपयोगी सार्वभौमिक लघु पुस्तिका है। इसमें ६ पृष्ठ तक रचयित्री का फोटो, जीवन परिचय व प्रस्तावना है, ७ पृष्ठ से ११ पृष्ठ तक जम्बूद्वीप के सभी कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालय तीर्थंकर केवली सर्व साधु की पूजा है। जो कि अत्यंत सुन्दर सांगोपांग एवं भावपूर्ण है। १२ से १७ पृष्ठ तक जम्बूद्वीपों की भक्ति पूज्य माताजी द्वारा संस्कृत के इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप्, वसंततिलका ' आदि छंदों में रचित है। उन्हीं का भावानुवाद सुंदर राग में संस्कृत के छंदों के नीचे दिया गया है। यह भी पूज्य · माताजी के द्वारा रचित है। प्राकृत की अंचलिका व भावानुवाद भी अत्यंत मनोहारी है। १८ से २३ पृष्ठ तक ज़म्बूद्वीप के विदेह क्षेत्रों में होने वाले विद्यमान सीमंधर युगमंधर, बाहुस्वामी व सुबाहू स्वामी की चित्ताकर्षक पूजा है। २४ से २६ पृष्ठ तक जम्बूद्वीप के मध्य स्थिति सुमेरु पर्वत की स्व रचित भक्ति तथा हिन्दी गद्यानुवाद दिया है। अंचलिका व उसका अर्थ भी दर्शाया गया है। २७ से ३० पृष्ठ तक कु० माधुरी शास्त्री द्वारा रचित हस्तिनापुर व जम्बूद्वीप संबंधित भजन दिये गये हैं। कुल मिलाकर पुस्तक समाज के लिए प्रत्येक दृष्टिकोण से उपयोगी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला मेरी स्मृतियाँ समीक्षक-डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल સ્કૃતિમાં शताब्दी की रोचक जीवन गाथा जीवन के खट्टे, मीठे एवं कडुए संस्मरण लिखना आसान कार्य नहीं है। यद्यपि यह सही है कि मानव जितना अपने बारे में जानता है, अपनी अच्छाइयों एवं बुराइयों को पहिचानता है उतना अच्छा अन्य कोई नहीं जानता, लेकिन व्यक्ति अपने बारे में बताना कहाँ चाहता है। वह तो अपनी कमजोरियों को छिपाना चाहता है और । मेरी अवगुणों पर पर्दा डालना चाहता है। इसलिए विरले व्यक्ति ही आत्म चरित्र लिख पाते हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में उपलब्धियों की संख्या ही नगण्य रहती है। पढ़ना-लिखना, खाना-कमाना जीवन की उपलब्धियों में कहाँ आ पाता है? आत्म कथा लिखने के लिए विलक्षण स्मरण शक्ति, लेखन शक्ति, दैनिक डायरी लिख पाने की क्षमता, आदर्श जीवन सभी की आवश्यकता होती है। जिसके जीवन में उतार-चढ़ाव नहीं आये हों, विपत्तियों का सामना नहीं किया हो, विलक्षण एवं अभूतपूर्व कार्य का सम्पादन नहीं किया हो, वह व्यक्ति भी अपनी आत्म शिळीमका सानाति कथा में क्या लिख सकता है, इसलिए अधिकांश व्यक्ति तो जीवन गाथा लिखने का विचार ही नहीं कर पाते। __ जैनाचार्यों एवं विद्वानों द्वारा अपनी कृतियों के अन्त में अपना एवं तत्कालीन शासन, समाज नगर आदि का परिचय देने की परम्परा रही है, लेकिन उसे हम आत्मचरित की संज्ञा न देकर उसका एक अंश कह सकते है। आचार्य समन्तभद्र ने “वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं" जैसे पद्य में अपनी विद्वत्ता, शास्त्रार्थ कुशलता एवं निर्भीकता का जो परिचय दिया है वह भी उनके आत्मचरित का अंश मात्र ही है। १५वीं शताब्दी के पश्चात् अपभ्रंश, संस्कृत एवं हिन्दी के कितने ही जैन कवियों ने अपनी कृतियों के अन्त में लम्बी-लम्बी प्रशस्तियां लिखना प्रारंभ कर दिया था। इन प्रशस्तियों से कवि के जीवन, माता-पिता, लेखन, ग्राम, नगर, शासक, व्यापार आदि के सम्बन्ध में अच्छी जानकारी मिल जाती है, जो एक लघु परिचय के समान है, लेकिन ऐसी प्रशस्तियों में कवि के कडुवे-मीठे संस्मरण नहीं होते इसलिए ये प्रशस्तियाँ परिचयात्मक होते हुए भी आत्मचरित की श्रेणी में भी नहीं आ सकतीं। भट्टारक युग में इस प्रकार की प्रशस्तियाँ लिखने की अच्छी परम्परा रही। भट्टारकों ने अपने ग्रन्थों के अंत में पूर्व भट्टारकों सहित अपना परिचय लिखने की परम्परा को विकसित किया। जिसका अनुसरण कर उनके पीछे होने वाले कवियों ने जैसे महाकवि दौलतराम कासलीवाल, पं. जयचंद छाबड़ा, पं. सदासुख कासलीवाल, पं. बख्ताराम साह आदि हिन्दी विद्वानों ने अपनी कृतियों में विस्तृत प्रशस्तियाँ लिखीं, लेकिन कविगण अपने सामान्य परिचय के अतिरिक्त वास्तविक परिचय नहीं दे सके, जयपुर के किसी विद्वान् द्वारा महापंडित टोडरमल झा जैसे विद्वान् का जन्मस्थान जानने एवं मृत्युतिथि का नहीं लिख पाना तत्कालीन शासन का भय एवं आक्रोश प्रकट करता है। अपभ्रंश के महाकवि रइधू ने भी अपने ग्रंथों में विस्तृत प्रशस्तियाँ लिखी हैं, लेकिन वे भी आत्मचरित की श्रेणी में नहीं आतीं। आत्मचरित की दृष्टि से महाकवि बनारसीदास का “अर्द्ध कथानक" एक निराला एवं शुद्ध आत्मचरित है। उसमें न किसी की प्रशंसा है और न किसी की निन्दा, किन्तु वह एक कवि एवं असफल व्यापारी की आत्मकथा है, जिसमें जो जैसा है उसे वैसा ही चित्रण किया गया है। हिन्दी जगत् में बनारसीदास का यह आत्मचरित हिन्दी का सर्वोत्तम आत्मचरित माना जाता है। बनारसीदास के पश्चात् भट्टारक क्षेमकीर्ति का एक और आत्मचरित मेरे देखने में आया है। यद्यपि उसमें अर्द्ध कथानक जैसा स्तर तो नहीं आ पाया है, लेकिन भट्टारक क्षेमकीर्ति का ६० वर्ष का (संवत् १६९७ से १७५७) पूरा जीवन वृत्त लिखा हुआ है। क्षेमकीर्ति का जन्म, शिक्षा, साधु जीवन, विहार एवं कृतित्व का एक-एक वर्ष के आधार पर परिचय दिया हुआ है। यह कृति हिन्दी गद्य में है, जिस पर गुजराती का पूर्ण प्रभाव है। इस प्रकार संपूर्ण जीवन और वह भी विस्तृत विवरण के साथ लिखा हुआ आत्मचरित प्रथम बार देखने में.ना है। यह आत्मचरित अभी तक अप्रकाशित है। इसकी एक पाण्डुलिपि उदयपुर के संभवनाथ दि० जैन मंदिर में संगृहीत है। वर्तमान शताब्दी में कवीन्द्र रवीन्द्र, महात्मा गाँधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं पं. जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथायें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं तथा देश में सभी वर्गों में समादृत हैं। वैसे इस युग में जीवन गाथायें एवं डायरी लिखने की रुचि जागृत हुई है जो अवश्य ही प्रशंसनीय है। जैन जगत् में स्व० गणेश प्रसादजी वर्णी की आत्मकथा को सबसे उत्तम स्थान दिया जा सकता है, जो "मेरी जीवन गाथा" के नाम से दो भागों में प्रकाशित हो चुकी है और समाज में पर्याप्त रुचि से पढ़ी जाती है। वर्णीजी ने अपने जीवन की घटनाओं को जिस प्रकार लिपिबद्ध किया है वह अत्यधिक प्रशंसनीय है। स्व. गणेशपसादजी वर्णी के पश्चात् आर्यिका गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित “मेरी स्मृतियां' दूसरी जीवन गाथा है जो इस शताब्दी की बेजोड़ कृति है। माताजी ने इस जीवन गाथा में अपने ५६ वर्ष की जीवन कहानी इतनी अधिक सुगम शैली में लिखी है कि उसे पढ़ते ही जाइए कभी छोड़ने को मन नहीं चाहता। उपन्यास पद्धति में लिखी गयी "मेरी स्मृतियाँ' ने वर्तमान शताब्दी में निबद्ध आत्म कृतियों में अपना विशेष स्थान बना लिया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८३ इस विशालकाय जीवन कहानी को छह खण्डों एवं १०० अध्यायों में विभक्त किया गया है और अपने जीवन के संस्मरणों का बिना किसी लाग-लपेट, राग-द्वेष भय एवं स्नेह रहित निर्भीकतापूर्वक लिखा है, जिससे यह पुस्तक वर्तमान समाज एवं विशेषतः साधु-समाज के लिए एक दस्तावेज बन गया है क्योंकि इसमें एक ओर आचार्य शान्तिसागरजी, वीरसागरजी, शिवसागरजी, धर्मसागरजी एवं अजितसागर जी तक सभी आचार्यों का तथा दूसरी ओर आचार्य शान्तिसागर छाणी एवं उनकी परम्परा के आचार्यों, मुनियों का, आदिसागरजी अंकलीकर, आचार्य महावीर कीर्तिजी साथ ही में आचार्य देशभूषणजी, आचार्य विद्यानंदजी आदि सभी प्रमुख आचार्यों, मुनियों आर्यिकाओं की चर्या, विहार, स्वाध्याय पर खूब चर्चा हुई है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ली तथा आर्यिका दीक्षा आचार्य वीरसागरजी महाराज से प्राप्त की। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी एवं शिवसागरजी महाराज की सल्लेखना देखी और इसके पश्चात् आचार्य वीरसागरजी एवं शिवसागरजी महाराज को समाधिमरण करते हुए देखा । दक्षिण भारत, गिरनारजी एवं सम्मेदशिखरजी की यात्राएं की। प्रारंभ में क्षुल्लिका अवस्था एवं फिर आर्यिका बनने के पश्चात् भी खूब ज्ञानार्जन किया तथा अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति का परिचय दिया। पांचवें खण्ड में २५ अध्याय हैं। यह सबसे बड़ा अध्याय है। सन् १९७४ से लेकर सन् १९८६ तक के माताजी के संस्मरण लिपिबद्ध है। ये १२-१३ वर्ष माताजी के साहस एवं सूझ-बूझ के वर्ष हैं। यही नहीं, सामाजिक इतिहास की दृष्टि से भी ये १२ वर्ष अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन वर्षों में माताजी ने जम्बूद्वीप निर्माण स्थल के लिये हस्तिनापुर क्षेत्र को चुना और उसका निर्माण प्रारंभ करवाया। इसी वर्ष २७ अक्टूबर १९७४ को अष्टसहस्री ग्रंथ का विमोचन कराया। भगवान महावीर के २५००वें परिनिर्वाण महोत्सव पर माताजी ने अपने जो संस्मरण दिये हैं वे आज इतिहास बन गये हैं। माताजी के आर्यिकारत्न एवं मुनि श्री विद्यानंदजी को उपाध्याय पद प्राप्त होने के संस्मरण भी पढ़ने योग्य हैं। इस अवधि में माताजी ने इन्द्रध्वज विधान को सुललित भाषा में छंदोबद्ध करके एक प्रशंसनीय कार्य किया। इस विधान को समाज ने जितनी शीघ्रता एवं श्रद्धाभक्ति के साथ अपनाया उससे माताजी की लोकप्रियता में चार चांद लग गये। सन् १९८१ की २१ फरवरी को भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक सहस्त्राब्दि समारोह के अवसर पर पूरे जैन समाज के जिस तत्परता से लाखों की संख्या में श्रवणबेलगोला पहुँचकर महामस्तकाभिषेक में भाग लिया वह सामाजिक इतिहास की एक धरोहर बन गई है। इस अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा वायुयान से पुष्पवर्षा करना तथा लाखों जन समूह के साथ भगवान बाहुबली के चरणों में अपनी श्रद्धा समर्पित करने का माताजी ने अपने संस्मरणों में अच्छा उल्लेख किया है। इसके पूर्व २९ सितम्बर १९८० को मंगल कलश का श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा उद्घाटन किया जा चुका था। इस उद्घाटन पर माताजी ने अपने तीन मिनट के प्रवचन में कहा था, "जिस प्रकार गुल्लिकायिज्जी नाम की वृद्धा ने भगवान बाहुबली का अभिषेक करके धर्म प्रभावना की थी ऐसा लगता है मानो उस गुल्लिकायिज्जी ने ही इन्दिरा जी को यहाँ भेजकर इस मंगल कलश का उद्घाटन कराया है।" श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषक के शुभ अवसर पर दिगम्बर जैनमुनि, आर्यिकायें, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं की संख्या १५१ थी। यह साधु सम्मेलन कई दिनों तक चला और कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये। माताजी ने इस बीच नियमसार पर संस्कृत टीका लिख कर एक नई उपलब्धि प्राप्त की। उन्होंने आर्यिका रत्नमती माताजी का जिस प्रकार शांतिपूर्वक समाधिमरण कराया उसके विस्तृत संस्मरण माताजी ने लिखे हैं। जम्बूद्वीप प्रतिष्ठापना महोत्सव का आयोजन जब जम्बूद्वीप स्थल पर हुआ तो लाखों स्त्री-पुरुषों ने भाग लेकर माताजी के प्रति अपनी विनयांजलि प्रस्तुत की। मेरी स्मृतियां में इसका विस्तार से वर्णन करके माताजी ने उसे ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान किया है। इस ऐतिहासिक पंचकल्याणक के पश्चात् माताजी भयंकर रूप से अस्वस्थ हो गईं। जिसके कारण सारे समाज में चिन्ता व्याप्त हो गई। माताजी ने अपनी बीमारी के बहुत अच्छे एवं रोचक शब्दों में संस्मरण लिखे हैं। गंभीर बीमारी में भी माताजी ने जिस दृढ़ता से अपनी चर्या का पालन किया उन सबका माताजी ने स्पष्ट वर्णन किया है। जब माताजी को डाक्टरों द्वारा दिन में दो-चार बार औषधि ग्रहण करने की प्रार्थना की गई तो माताजी का उत्तर पठनीय है "दिगम्बर संप्रदाय में चर्या कठोर है। हमें समाधि से मरना इष्ट है, किन्तु बार-बार दवा आदि लेकर अपने नियम में बाधा लाना इष्ट नहीं है। यह संयम बार-बार नहीं मिलता है। शरीर तो इस संसार में अनंत-अनंत बार मिल चुका है।" अंतिम खंड में जुलाई ८६ से मार्च ९० तक के संस्मरण लेखबद्ध हैं। इसमें ७ अध्याय हैं। इसमें अन्य संस्मरणों के अतिरिक्त अन्त में वर्तमान शताब्दी के दिगम्बर जैनाचार्य संघ पर जो माताजी ने प्रकाश डाला है वह वर्तमान आचार्यों की जीवन पद्धति को जानने के लिए अच्छा लेखा-जोखा है। इसमें आचार्य अजित सागरजी महाराज के पट्ट पर आचार्य श्रेयांससागरजी महाराज को अभिषिक्त करने को भी माताजी ने उचित ठहराया है। इसी खण्ड में कुमारी माधुरीजी की आर्यिका दीक्षा का भी अच्छा वर्णन है। इस प्रकार मेरी स्मृतियों के अन्त में माताजी की निम्न भावना पठनीय हैं: "हे भगवन्! आपकी कृपा प्रसाद से अंत तक मेरा संयम निराबाध पलता रहे और मेरा उपयोग अपनी आत्मशुद्धि में ही लगा रहे । इन कार्यकलापों से ही क्या शरीर से भी निर्ममता बढ़ती रहे बस आपसे यही एक इस दीक्षादिवस पर याचना है, भावना है।" इस "मेरी स्मृतियाँ" को भी मैंने शिष्यों के हठाग्रह, विद्वानों के विशेष आग्रह से एक अरुचिपूर्ण भाव से ही लिखा है। स्वप्रशंसा के भाव से नहीं, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इसका अनुभव मुझे ही है। इससे अतिरिक्त मैंने जो भी ग्रंथ व पुस्तकें लिखी हैं उनमें से किसी के लिए भले ही किसी की प्रेरणा रही हो, फिर भी मैंने अतीवरुचि से आत्मा की शुद्धि व परोपकार की भावना से भी लिखे हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। इस "मेरी स्मृतियाँ" से यदि कोई भी कुछ प्रेरणा ग्रहण करेंगे तो मैं अपना प्रयास सफल समशृंगी। भाषा- मेरी स्मृतियाँ अत्यधिक सरल भाषा में निबद्ध आत्मचरित है। पूरी कृति हिन्दी गद्य में निबद्ध है। यद्यपि बीच-बीच में माताजी ने संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी पद्यों का उपयोग किया है, लेकिन यह तो अपने कथनों को प्रामाणिकता देने के लिए है। मेरी स्मृतियाँ एक आर्यिका माताजी द्वारा निबद्ध आत्मचरित है, इसलिए यह पूर्णतः माताजी की जीवनचर्या पर आधारित है। अपने ५६ वर्ष के जीवन में प्रारंभ के ६ वर्ष निकाल देने के पश्चात् यह उनका ५० वर्ष का स्वयं का एवं साधु समाज का सिंहावलोकन है। माताजी ने इसे एक गति में निबद्ध किया है। लेकिन यह आत्मचरित जैसा प्रारंभ में संवेदनशील लगता है। मन में चुभन पैदा करता है, वैसा अन्त का अध्याय नहीं बन सका है। फिर भी प्रस्तुत मेरी स्मृतियाँ को वर्तमान आत्मचरितों में उच्च एवं लोकप्रिय स्थान प्राप्त होगा तथा भविष्य में दिन-प्रतिदिन लोकप्रियता प्राप्त करेगा ऐसा हमारा विश्वास है। लिए हा ११ उपन्यास साहित्य समीक्षिका-डॉ० कु० मालती जैन, मैनपुरी HAMARTHIL NONS I बाहुबली -भार में "आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी की कथा-सृष्टि" आर्यिका ज्ञानमती माताजी के कथा-साहित्य के विवेचन का दुधमुंहा प्रयास करते समय अनायास ही मुझे महाकवि तुलसीदास की यह पंक्ति स्मरण हो आई है: "कीरति भनति भूति मल सोई, सुरसरि सम सब कर हित होई।" सत्साहित्य वही है जो गंगा के समान सबका हित करने वाला हो। कोरे कागजों पर कलम की पिचकारी से स्याही की होली खेलने वाले तथाकथित साहित्यकारों की कमी नहीं है, किन्तु ऐसे साहित्यसेवी कभी-कभी ही जन्म लेते हैं जिनका साहित्य "सत्यं शिवं सुन्दरं" का संवाहक बनकर जीवन में अशुभ का निवारण कर, शुभ को प्रतिष्ठित करता है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी आर्यिका ज्ञानमतीजी की तपःपूत लेखनी ने साहित्य की विविध विधाओं-उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, कविता, स्तोत्र-साहित्य, पूजा-साहित्य, बाल-साहित्य, अनुवाद आदि को अलंकृत किया है। उनकी प्रत्येक कृति का अपने क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। गहन गम्भीर चिन्तन में प्रतिक्षण आकंठ निमग्न रहने वाली आर्यिकाजी की अभिरुचि जैन दर्शन के विलष्ट ग्रन्थों के अनुवाद में रमती है, फिर भी जनसाधारण को जैन पौराणिक साहित्य से परिचति कराने के उद्देश्य से उन्होंने कथा-साहित्य का भी सृजन किया है, जिसकी अपनी उपयोगिता है, अपना आकर्षण है। आज के भौतिकवादी युग में जब बेचारे व्यक्ति के सुनहले दिन को दो रोटियों की तलाश छीन लेती है और रूपहली रातें टी०वी० के रंगीन पर्दै के नाम कर दी जाती हैं तब किसे फुरसत है भारी-भरकम पुराणों को पढ़ने-सुनने की? वैसे तो पढ़ने का अवकाश ही कहां है और यदि कभी मनोरंजन के लिए कुछ पढ़ा भी जाता है तो जासूसी, अपराध-प्रधान कहानियां, सस्ते अश्लील उपन्यास और कॉमिक्स ही युवापीढ़ी के हाथों में नजर आते हैं। नैतिक मूल्यों के ह्रास के साथ इस समय में आवश्यकता थी-ऐसे उपयोगी कथा-साहित्य के सृजन की, जो अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से अनगि भ्रमित युवा पीढ़ी को अपने पूर्वजों के दिव्य आदर्श चरित्रों का ज्ञान करा सके, जिनका अनुसरण कर वह अपने जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग को सुगम बना सके। पूजनीया आर्यिकाजी ने कथा पुस्तकों की रचना कर आधुनिक युग की इस ज्वलन्त मांग की पूर्ति कर नई पीढ़ी को अपने उपदेशों द्वारा जो पाथेय प्रदान किया है, उसके लिए मानव समाज उनका सदैव ऋणी रहेगा। माताजी द्वारा प्रणीत कथा-साहित्य की कुछ पुस्तकों की समीक्षा निम्नवत् है:- 'प्रतिज्ञा', 'भगवान ऋषभदेव', 'जीवनदान', 'उपकार', 'परीक्षा', 'योगचक्रेश्वर', 'बाहुबली', 'कामदेव बाहुबली', 'आदिब्रह्मा', 'आटे का मुर्गा', 'सती अंजना', 'भरत का भारत'। प्रतिज्ञा : "प्रतिज्ञा" हस्तिनापुर के सेठ महारथ की सुशील, धर्मपरायण पुत्री मनोवती के दृढ़प्रतिज्ञा, निर्वाह और उसके पुण्यफलों का कथा वृतान्त है। मनोवती अपने बाल्यकाल में ही दिगम्बर जैन मुनि के समक्ष यह नियम लेती है- "जब मैं जिनमन्दिर में जिनेन्द्रदेव के समक्ष गजमोती चढागी, तभी भोजन करूँगी" इस कठोर प्रतिज्ञा-निर्वाह में उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है, पर वह विचलित नहीं होती। विवाह के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८५ उपरान्त ससुराल में संकोचवश अपनी प्रतिज्ञा का उद्घाटन न करने के कारण, वह ३ दिन का उपवास करती है। चौथे दिन गजमोतियों से प्रभु की पूजा करके ही अन्न-जल ग्रहण करती है। तदनन्तर अपने पति के देश निर्वासन के परिणामस्वरूप नंगे पैर जंगलों में भटकती हुई, जिनदर्शन के अभाव में ७ दिन का व्रत रखती है। इस दृढ़-प्रतिज्ञ नारी की तपस्या से स्वर्ग में देवताओं का आसन कम्पित होता है और वे सघन वन में जिन मंदिर का निर्माण कर गजमुक्ताओं की व्यवस्था करते हैं। इसी प्रतिज्ञा-निर्वाह के पुण्यफल से भविष्य में मनोवती के पति उन्नति के शिखर पर आरुढ़ होते हैं। इस पौराणिक कथा के माध्यम से लेखिका का उद्देश्य जनमानस में प्रतिज्ञा-पालन और देव-दर्शन के महात्म्य का प्रतिपादन करना है। लेखिका के ही शब्दों में "बिना नियम के यह मनुष्य जीवन व्यर्थ है इसलिए कुछ न कुछ नियम अवश्य लेना चाहिए।" "हमें दृढ़ श्रद्धानपूर्वक जिनदर्शन की प्रतिज्ञा लेकर अपना संसार स्वल्प कर लेना ही चाहिए।" "यह जिनदर्शन ही तो एक दिन अपनी आत्मा का दर्शन कराकर अपने अंदर ही परमानंदमय परमात्मा को प्रकट कराने वाला है।" (पृष्ठ १२८) भगवान वृषभदेवः- ६७ पृष्ठों की इस लघु पुस्तक में युग प्रवर्तक, विधिवेत्ता, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव के जीवन और पूर्वभवों की रोचक एवं शिक्षाप्रद कथा है। इस उपन्यास की रचना संवादशैली में हुई है। संतोष कुमार मुनिराज की वंदना कर उनसे अनेक प्रश्न पूछता है, उत्तर में मुनिराज भगवान वृषभदेव के पूर्वजन्मों और वर्तमान जीवन का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करते हैं। आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण रूपी महासागर के मंथनस्वरूप लेखिका ने जिस अमृत तत्त्व को प्राप्त किया है उसे इस सारगर्भित उपन्यास में रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक की उल्लेखनीय उपलब्धि कतिपय प्रचलित भ्रान्तियों का निराकरण एवं भगवान वृषभदेव के कर्मभूमि के प्रवर्तन में महान् योगदान का सही मूल्यांकन है। लेखिका ने वैज्ञानिक ढंग से लोक में प्रचलित भगवान के दशावतारों की व्याख्या की है। अन्य धार्मिक मतों में विष्णु के दश अवतार माने गये हैं। आचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव के दश पूर्व भवनों को उनके दश अवतार बताकर उन्हें विष्णु सिद्ध किया है। लेखिका ने इसी मत का समर्थन किया है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के सम्बन्ध में प्रचलित लोकधारणा का खण्डन करते हुए लेखिका ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है “अन्य मतावलम्बी ईश्वर को सारे जगत् की सृष्टि रचना का कर्ता-बनाने वाला मानते हैं, किन्तु यह बात सर्वथा अघटित है। जैन सिद्धान्त में तो मात्र वृषभदेव को कर्मभूमि के प्रारम्भ में आजीविका के साधन का उपदेशक और विदेह क्षेत्रवत् वर्ण व्यवस्था का व्यवस्थापक माना गया है, किन्तु सृष्टि का कर्ता सृष्टा नहीं।" (पृष्ठ ३८) उपन्यास के अन्त में आदिब्रह्मा वृषभदेव के जीवन के घटनाक्रमों से सम्बन्धित तथ्यों एवं तिथियों की तालिका उनके सम्पूर्ण चरित्र के महासागर को गागर में समेटने का प्रशंसनीय प्रयास है। जीवनदान:- जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से स्पष्ट है-"जीवनदान देने से बढ़कर और कोई दान व पुण्य इस विश्व में नहीं है।" इस शाश्वत् सत्य का उद्घाटन ही इस कृति का प्रमुख उद्देश्य है। मृगसेन धींवर के जीवन वृत्तांत के माध्यम से इस सत्य को रोचक शैली में अभिव्यक्त किया गया है। ____ "अहिंसा व्रत का माहात्म्य देखो, मृगसेन धींवर ने पाँच बार जाल में आई हुए एक मछली को जीवनदान दिया था। उसी के पुण्य प्रभाव से उसे पाँच बार मृत्युकारी आपत्तियों से स्वयं जीवनदान मिला है।" (पृ. ३४) जीवरक्षा जैसे पुण्य कार्यों को करने की प्रेरणा देती हुई लेखिका कहती हैं "पूर्व पुण्य से जीवों के लिए कालअग्नि भी जल हो जाती है, समुद्र भी स्थल बन जाता है, शत्रु भी मित्र के समान व्यवहार करने लगता है। हलाहल विष भी अमृत बन जाता है इसीलिए भाई! हमेशा पुण्य का संचय करना चाहिए।" ___ (पृ० ३५) उपकारः- वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला के इस ४४वें पुष्प में महापुरुष कुमार जीवंधर के परोपकारमय जीवन पर प्रकाश डाला गया है। जीवंधर चम्पू, छत्रचूड़ामणि आदि जितने भी उनके जीवन से सम्बन्धित पुराण ग्रन्थ हैं उनके आधार पर इस पुस्तक की रचना हुई है। कुमार जीवंधर का जीवन “परोपकाराय सतां विभूतयः" का प्रत्यक्ष उदाहरण है। बचपन में ही उन्होंने एक कुत्ते जैसे पामर प्राणी को महामन्त्र णमोकार सुनाकर उसका जो उपकार किया, वह कुत्ता उस उपकार को जन्म-जन्मांतर तक विस्मृत नहीं कर सका और अवसर प्राप्त होने पर उन उपकारों का बदला चुकाता रहा। कहा भी गया है "न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति"। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला कथाप्रसंग में जहाँ कहीं लेखिका को अवसर मिला है उसने जीवन की दार्शनिक व्याख्या करने वाले संस्कृत श्लोकों को उद्धृत किया है "संयुक्तानां वियोगश्च भविता ही नियोगतः । किमन्यै रंगतोऽप्यंगी, निःसंगो हि निवर्त्तते ॥" त्यज्यते रज्यमानेन, राज्येनान्येन वा जनः मज्यते त्याज्यमानेन, तत्त्यागोस्तु विवेकिनाम्" (पृ० १४, १५) परीक्षाः- दया, ममता, सहनशीलता और क्षमा की साकार प्रतिमा, पतिव्रता सीता की पावन जीवन-गाथा पर आधारित यह उपन्यास वह आलोक स्तम्भ है, जिसके प्रकाश में भारतीय नारी-समाज युग-युगों तक अपना जीवन पथ आलोकित करता रहेगा। उपन्यास की कथावस्तु सीता के स्वयंवर से प्रारम्भ होकर, उनकी अग्नि परीक्षा एवं अन्त में जिनदीक्षा लेने तक के दीर्घ घटनाक्रमों को अपने में समेटे है। इस कथावस्तु का मूल आधार जैन ग्रन्थ पद्म पुराण है। जैन रामायण को रोचक शैली में प्रस्तुत करने के इस सफल प्रयास के लिए विदुषी लेखिका बधाई की पात्र हैं। सीता की अग्नि परीक्षा का प्रसंग अत्यधिक मर्मस्पर्शी है। अग्नि परीक्षा की संकट की घड़ी में भी सीता अपना धैर्य नहीं खोती। वह प्रसन्नचित्त हो एकाग्रता से श्री जिनेन्द्र देव की स्तुति कर अपने प्राणपति श्री रामचन्द्रजी को नमस्कार करके कहती हैं “हे अग्निदेवते! राम के सिवाय यदि स्वप्न में भी मैंने किसी अन्य पुरुष को मन से भी चाहा हो तो तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा तू शीतल हो जा।" इतना कहकर सीता अग्नि कुण्ड में कूद जाती हैं। सती का सतीत्व रंग लाता है। उसके सतीत्व के प्रभाव से अग्नि की लपलपाती लपटों के स्थान पर जल की उत्ताल तरंगें नर्तन करने लगती हैं, कमल मुस्कराते हैं, देवियाँ चमर ढोरती हैं, देवतागण दुन्दुभि बाजे बजाते हुए पुष्पवर्षा करते हैं। आकाश से भूतल तक समस्त दिग्मण्डल सती के जय-जयकार से प्रतिध्वनित हो उठता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सीता से क्षमा याचना कर क्रोध का परित्याग कर, राजमहल में चलने का आग्रह कहते हैं। इस अवसर पर सीता के मुख से उच्चारित शब्द भारतीय नारी को महानता के उस शिखर पर प्रतिष्ठापित करते हैं, जिसकी ऊँचाई अकल्पनीय है। "हे नाथ! मैं किसी पर भी कुपित नहीं हूँ। इसमें न तुम्हारा ही कुछ दोष था न देश के अन्य लोगों का । यह तो मेरे पूर्व संचित कर्मों का ही विपाक था, जो मैंने भोगा है। हे बलदेव, मैंने तुम्हारे प्रसाद से देवों के समान अनुपम भोग भोगे हैं, इसलिए अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वही कार्य करूँगी कि जिससे पुनः मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त न हो। अब मैं समस्त दुःखों का क्षय करने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूंगी। (पृ० १३६) सीता का यह संवाद जैनदर्शन के कर्मफल सिद्धांत का सुंदर उदाहरण है। __ योगचक्रेश्वर बाहबली:- कर्नाटक प्रदेश के श्रवणबेलगोल स्थान में स्थित योग चक्रेश्वरी बाहुबली की ५७ फीट ऊँची मनोज्ञ पावन प्रतिमा के समक्ष लेखिका की निरन्तर एक वर्ष की ध्यान साधना का प्रतिफल, यह उपन्यास युगपुरुष भगवान वृषभदेव के पुत्र प्रथम कामदेव भगवान बाहुबली की जीवन कथा है। इस पुस्तक में आगम, सिद्धान्त एवं पुराण एक साथ समाविष्ट हैं। लेखिका ने बाहुबली के केवलज्ञान के सम्बन्ध में प्रचलित शल्य का खण्डन आदिपुराण के निम्न श्लोक के आधार पर किया है "संक्लिष्टो भरताधीशः सोडस्मन्त इति यत्किल। हृद्यस्य हार्द तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम्॥ (आदिपुराण ३६, १,८६) अर्थात् वे भरतेश्वर मेरे से संक्लेश को प्राप्त हुए हैं-मेरे निमित्त से इन्हें दुःख पहुँचा है यह विचार बाहुबली के हृदय में आ जाया करता था जो कि भरत के प्रति सौहार्द रूप था। इसलिए केवलज्ञान होने में भरत की पूजा की अपेक्षा रही थी। लेखिका का विषय प्रतिपादन का ढंग तार्किक है। देखिए "मैं भरत की भूमि में खड़ा हूँ" बाहुबली के मन में यह शल्य थी इसलिए उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ था। ऐसी जो किम्वदन्ती है वह भगवजिनसेनाचार्य के आदिपुराण ग्रन्थ से मेल नहीं खाती है। क्योंकि इस प्रकार की शल्य होने पर उन्हें मनःपर्ययज्ञान और अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ नहीं हो सकती थीं। उनके ध्यान को धर्मध्यान संज्ञा नहीं दी जा सकती थी और उनके ध्यान के प्रभाव का ऐसा चमत्कार भी नहीं हो सकता था जैसा कि आदिपुराण में वर्णित है। अतः बाहुबली के शल्य मानना असंगत है। __ (पृष्ठ ६३) ___ बाहुबली की श्रवणबेलगोल स्थित प्रतिमा चन्द्रगुप्त वस्ती तथा गुल्लिका अज्जी के मनोरम चित्रों के संकलन से विवेच्य पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८७ कामदेव बाहुबली:- इस लघुकाय पुस्तिका में इस युग के प्रथम मोक्षगामी सिद्ध पुरुष बाहुबली के समग्र जीवनवृत्त पर प्रकाश डाला गया है। भगवान ऋषभदेव ने १००० वर्ष तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त किया और बुहत समय पश्चात् उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई किन्तु बाहुबली ने मात्र एक वर्ष की कठोर तपस्या से ही केवलज्ञान की प्राप्ति की और अपने पिता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से पूर्व मोक्षगामी हुये। बाहुबली की जीवन वृत्त के साथ ही पुस्तक के अन्त में श्रवणबेलगोल में स्थित गोम्मटेश्वर मूर्ति स्थापना एवं प्रथम अभिषेक की कथा के समावेश ने इस पुस्तक की उपादेयता में चार चाँद लगा दिये हैं। मूर्ति के विभिन्न अंगों का माप भी पुस्तक में दिया गया है। वसन्ततिलका छंद में संस्कृत भाषा में लिखा गया श्री बाहुबली अष्टक एवं उसका हिन्दी अनुवाद और श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित श्री गोम्मटेश स्तुति विवेच्य पुस्तक के विशिष्ट आकर्षण हैं। . आदिब्रह्मा:- औपन्यासिक शैली में लिखी गई १६४ पृष्ठों की इस पुस्तक में भोगभूमि की परम्परा के लुप्त हो जाने पर, कर्मभूमि की प्रतिष्ठा करने वाले ऋषभदेव के महानचरित्र को आदि ब्रह्मा के रूप में चित्रित कियागया है। कृतयुग के आदि में जन्म लेने के कारण ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा कहा जाता है। ऋषभदेव ने जहां एक ओर अपनी प्रजा को असि, मसि, कृषिविद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छः क्रियाओं द्वारा आजीविका उपार्जन के उपाय बताये, वहाँ दूसरी ओर अपनी पुत्री ब्राह्मी एवं सुन्दरी को अक्षर लिपि एवं अंक विद्या सिखाकर नारी शिक्षा के महान कार्य का भी सूत्रपात किया। आज भी प्रचलित ब्राह्मी लिपि का नामकरण ऋषभदेव की पुत्री ब्राहमी के नाम पर ही हुआ है। ऋषभदेव ने कर्म से निर्धारित वर्ण व्यवस्था को भी प्रारम्भ किया। विवेच्य पुस्तक अत्यधिक ज्ञानवर्द्धक है। समवशरण एवं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की रचना का विस्तृत एवं स्पष्ट वर्णन वैज्ञानिक ढंग से इस पुस्तक में किया गया है। पुस्तक के अन्त में लेखिका स्वयं ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा की संज्ञा से विभूषित किये जाने के कारणों पर प्रकाश डालती हुई लिखती है। "इस युग के आदि में जन्म लेकर प्रभु ने प्रजा को असि, मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन छः प्रकार की आजीविका का कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन छ: प्रकार की आजीविका का उपाय बताया। पुनः श्रावकों की देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और ज्ञान इन छ: क्रियाओं का तथा सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: प्रकार की मुनियों की क्रियाओं का उपदेश देकर मोक्षमार्ग का विधान किया था। इसलिये वे प्रभु ऋषभदेव "आदिब्रह्मा" युगसृष्टा, विधि और ब्रह्मा आदि नामों से पुकारे गये हैं। (पृ० १६४) आटे का मुर्गाः- हिंसा की विभीषिका से त्रस्त मानव जाति के लिये अहिंसा और जीव दया का उपदेश देने वाली यह पुस्तक लेखिका की मर्मस्पर्शी कृति है। पुस्तक का कथानक पुराणों में वर्णित महाराज यशोधर के जीवन से सम्बन्धित है। यशोधर राजा ने अपनी माता चन्द्रवती के आग्रह पर आटे के मुर्गे की बलि चढ़ायी थी, जिसके परिणामस्वरूप माता चन्द्रवती एवं यशोधर दोनों ने तिर्यंच योनियों के असंख्य दुःखों को भोगा और स्वयं अपनी सन्तान के द्वारा बलि में अर्पित कर दिये गये। महाराज यशोधर के माध्यम से बलि प्रथा के विरोध में मानो आर्यिकाजी की अपनी वाणी ही मुखरित हो उठी है यह बलि प्रथा महा निकृष्ट है। मांसाहारी पापियों द्वारा कल्पित है। 'देवी पशुबलि से तुष्ट होती है' ऐसी बात मिथ्या है। उनके लिए फल नैवेद्य चढ़ाना चाहिए। बलि में भी जीववध दुर्गति को ले जायेगा ऐसा दयामयी अर्हन्त देव के शासन में कहा गया है"। (पृ. १५) यह कथा वृत्तान्त "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" के सिद्धांत पर करारी चोट है। हिंसा के परिणाम स्वरूप होने वाली दुर्गतियों का वीभत्स चित्रण और अहिंसा के सुखद परिणामों का दिग्दर्शन कराना ही इस पौराणिक उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य है। हिंसा और अहिंसा के तुलनात्मक विवेचन में लेखिका अतिशय भावुक हो उठी हैं "अहो! हिंसा पाप से होने वाली दुर्गतियाँ कहाँ! जहाँ कि दुःख ही दुःख है और अहिंसा धर्म से होने वाली उत्तम गतियाँ कहाँ जहाँ कि सुख ही सुख है।" । . सती अंजना:- जैन धर्म के कर्म सिद्धान्त की विभिन्नता को बतलाने वाली यह मर्मस्पर्शी औपन्यासिक कृति सती अंजना का जीवन चरित्र है। अपने पूर्व जन्म में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा को किंचित् समय के लिए बावड़ी में डाल देने के पाप के फलस्वरूप अंजना को २२ वर्षों तक अपने पति के वियोग को सहना पड़ा। अंजना का यह जीवन वृत्तान्त “जो जस करिय तो तस फल चाखा" के सिद्धान्त का रोमांचकारी उदाहरण है। अंजना के ही शब्दों में "प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व संचित कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है।" भारतीय सती नारियों में अंजना का नाम बड़े गौरव से लिया जाता है। पुस्तक में अंजना पुत्र हनुमान की वीरता का भी विस्तृत वर्णन है। हनुमान के जीवन-चरित्र का आधार पद्मपुराण है। वैदिक रामायण में हनुमान को पवन सुत मानकर उनकी वानर रूप में पूजा की गई है, किन्तु जैन रामायण के अनुसार हनुमान पवनंजय के पुत्र वानर वंशी थे, न कि स्वयं वानर रूप । वे तो कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले थे। जैन रामायण पर आधारित अंजना के इस रोमांचक कथानक को पुराणों से निकालकर औपन्यासिक रूप में प्रस्तुत कर लेखिका ने आधुनिक नारी-समाज पर महान् उपकार किया है। अंजना की क्षमा और सहनशीलता आधुनिक नारियों के लिए अनुकरणीय है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला भरत का भारत:- २६७ पृष्ठों की इस पुस्तक को यदि जैन भूगोल की एटलस कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा उस चक्रवर्ती राजा भरत की दिग्विजय के सन्दर्भ में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का भौगोलिक विवरण प्रस्तुत करने वाली यह पुस्तक जैन भूगोल के विद्यार्थियों के लिए संग्रहणीय है। लेखिका ने स्वयं इस पुस्तक-रचना के आशय को निम्न शब्दों में प्रकट किया है "कोई भी चक्रवर्ती चक्र रत्न को प्राप्त कर जब दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हैं तब किस क्रम से भरत क्षेत्र की छः खण्ड भूमि जीतते हैं तिलोयपण्णत्ति नाम के महान् करणानुयोग ग्रन्थ में इसका बहुत ही अच्छा वर्णन है। इस "भरत का भारत" पुस्तक में आप इसी क्रम को देखेंगे।" (पृ०.७) भौगोलिक पुस्तक होने के नाते लेखिका को इस पुस्तक में भारत की मनोहारी प्रकृति के चित्रण का सुन्दर अवसर प्राप्त हुआ है। उसका वैरागी मन भी प्रकृति नटी की माया में उलझ गया है। आलंकारिक शैली में किये गये प्रकृति-चित्रण की एक झाँकी देखिए "उस वन की वायु इलायची की सुगन्ध से मिश्रित, तालाब के जलकणों से शीतल और सौम्य होकर बहती हुई, चक्रवर्ती की मानो सेवा ही कर रही थी। वायु से हिलती हुई शाखाओं के अग्र भाग से फलों की अंजलि बिखेरता वह वन मानो चक्रवर्ती की अगवानी ही कर रहा हो।" विवेच्य पुस्तक मानो ज्ञान का खजाना है। कहीं श्रावकाध्याय संग्रह के आधार पर गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रियाओं के विभिन्न भेदों का विस्तृत वर्णन है तो कहीं ऋद्धियों और सिद्धियों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। कहीं चक्रवर्ती की नवनिधि और १४ रत्नों का उल्लेख है तो कहीं भरत चक्रवर्ती द्वारा देखे गये सोलह स्वप्रों की व्याख्या की गई है। भरत और बाहुबली के विग्रह का मर्मस्पर्शी वर्णन भी पुस्तक का प्रमुख आकर्षण है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की रचना इसी पुस्तक का जीवंत संस्करण है। इस सम्पूर्ण कथा-साहित्य के अध्ययन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आर्यिकाजी के कथा-साहित्य की कसौटी कल्पना या भावुकता नहीं, अपितु खरी अनुभूति है । लेखिका ने अत्यधिक परिश्रम एवं एकाग्र मनोयोग से जैन पुराणों का अध्ययन किया है। तत्पश्चात् विशालपुराण-साहित्य के आदर्श महापुरुषों एवं सतियों के अनुकरणीय चरित्रों को सरल, सुबोध एवं हृदयग्राही तथा तथात्मक शैली में चित्रित किया है। कथासाहित्य के तथ्यों की कसौटी पर भी ये सभी पुस्तकें खरी उतरती हैं। सुसंगठित कथानक, मर्मस्पर्शी चरित्र-चित्रण, भावानुकूल संक्षिप्त सारगर्भित संवाद, कथानक के अनुरूप देश काल का स्वाभाविक चित्रण, विषयानुकूल सुबोध भाषा, रोचक शैली एवं लोकहित का पावन उद्देश्य-इन सभी विशेषताओं ने लेखिका की सम्पूर्ण कथा-सृष्टि को जैन साहित्य की बहुमूल्य धरोहर बना दिया है। इस समग्र कथा-साहित्य के सृजन में लेखिका का प्रमुख उद्देश्य आधुनिक युवा पीढ़ी को जैन धर्म के दार्शनिक एवं व्यवहारिक ज्ञान से परिचित कराना रहा है। विज्ञान की चकाचौंध में फंसी आधुनिक युवा पीढ़ी को धर्म की व्याख्या कुनैन की तरह कड़वी प्रतीत होती है। लेखिका ने बड़े चातुर्य से इस कुनैन को कथा की शर्करा में आंवृत्त परोसा है। “हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः" हितकारी और मनोहारी वचन दुर्लभ होते हैं। ___संस्कृत की यह सूक्ति आर्यिकाजी के कथा-साहित्य की सटीक व्याख्या है। इस कथा-साहित्य में मनोरंजन और उपदेश दोनों का मणिकांचन सहयोग दृष्टिगत होता है। लेखिका ने अपने भावित और अनुभूत सत्य की परिधि न लांघी और न अर्द्धपरीक्षित या अपरीक्षित सिद्धान्त ही बटोर कर एकत्रित किये हैं, किन्तु अनेक मनीषियों, तपस्वियों और आचार्यों द्वारा निगदित तथ्यों को "नद्या नव घटे नीर" के समान रखा है। जैन पराणों के विशाल चित्र फलक पर कल्पना की तूलिका से आर्यिकाजी द्वारा उकेरे गये ये कथा-चित्र अमिट हैं, शाश्वत हैं, इन्हें समय की धूल मलिन नहीं कर सकेगी। ____इन शब्दों के साथ मैं महिला रत्न पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी का अभिनन्दन करती हूं। मेरी हार्दिक शुभकामना है कि आपकी कल्याणकारिणी लेखनी सुदीर्घ काल तक ज्ञान गंगा प्रवाहित करती रहे जिसमें निमजन कर मानव जाति अपने क्लेश कर्म का क्षय और गुणों का विकास कर सके। विश्व में आपकी ज्ञानधारा सर्वत्र व्याप्त हो और आप दीर्घायु होकर जैन-साहित्य की श्री वृद्धि करती रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८९ श्रीवीरजिनस्तुति समीक्षक-डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद स्तुति साहित्य भक्ति की कोमलतम भावनाओं का प्रस्तुतिकरण होता है। फिर कोई मोक्षपथ का पथिक हो... तो उसकी भक्ति भावना का क्या पूछना? आर्यिका महाव्रती इसी पथ की पथानुगामिनी हैं; अतः उनकी स्तुति, प्रार्थना में भक्ति की धारा का प्रवाहित होना स्वाभाविक ही है। भगवान् महावीर के शासन में उनकी पूजा अर्चा, वंदना, गुणगान गाने का सौभाग्य हमें मिला है। उन्हीं वीरप्रभु के २५०० वें निर्वाणोत्सव पर यह स्तुति गीत श्रद्धा-भक्ति सुमन के रूप में अर्पित किया है। यह कवयित्री की काव्यांजलि है तो भक्त की भावांजलि भी है। लघु पुस्तिका में मात्र ३६ चतुष्पदियों में महावीर के जन्म आदि पंचकल्याणक, उनके अतिशय, तत्कालीन युगीन परिस्थितियां, उनकी जगत् उद्धारक वाणी, करुणा, क्षमा, स्याद्वाद, समता आदि के संदेश का समावेश कर दिया है। सिद्धहस्त कवयित्री का काव्य सौष्ठव इस स्तुति की विशेषता है। संस्कृत गर्भित तत्सम पदावली सर्वत्र द्रष्टव्य है। "दुरित पंक से पंकिल पृथ्वी, कीच सहित सर्वत्र अहो! केवल ज्ञान सूर्य किरणों से, सदा सुखाते रहते हो!" उनके गुण देखिए"महामोह व्याधि नाशन को, वैद्य मदनभट विजयी हो, ईर्ष्या मान असूया विजयी, त्रिभुवनसूर्य मुक्ति पति हो। भव समुद्र में पतित जनों को, अवलंबन दाता तुम ही, करूँ संस्तुति सदा वीर प्रभू, की मुझको दीजे सुमति ॥ कवयित्री की उपर्युक्त दो पंक्तियों में श्री मानतुङ्गाचार्य के भक्तामर की भाव छाया ही उतर पड़ी है। देखिए आराध्य के प्रति भावविभोर होकर विशेषणों की झड़ी लगा दी "वीतराग! हे वीतद्वेष! हे वीतमोह! हे वीतकलुष । हे विजिष्णु! हे भ्राजिष्णु! हे विजितेन्द्रिय! हे स्वस्थ सुचित्त! सदानंदमय ज्ञानी ध्यानी जग में परम ब्रह्म भगवान, भक्ति से मैं करूं वंदना मेरा मन पवित्र हो जिन!" जन्मोत्सव का वर्णन भी बड़ा मनोहारी है। समवशरण में बैठे प्रभु का सौन्दर्य देखिए "समवशरण में द्वादश परिषद, मध्यरत्न सिंहासन पर, चतुरंगुल के अंतराल से, शोभें प्रभू राशि सम सुंदर। इस स्तुति की दूसरी विशेषता है साध्वीजी की इस भवबंधन से छूटने की अभिलाषा। वे निर्भीक होकर अपने सांसारिक कृत्यों के प्रति प्रायश्चित्त के भाव भी व्यक्त करती हैं। यह तो परम सौभाग्य है कि तीर्थंकर प्रभू की वंदना, पूजा आराधना का अवसर मिला-अंतिम इच्छा तो मृत्यु को महोत्सवपूर्ण प्राप्त करने की है "जन्म-मरण से तथा विविध, रोगों से पीड़ित भव वन में, कुमरण के ही कारण जिनवर! दुखी हुआ तनु घर-घर मैं। आज कदाचित दुर्लभता से, जिन! तब धर्म को पाया है, अंत समय में श्रेष्ठ समाधि, होवे यही याचना है। हे प्रभू! मेरे मरण समय में, मोक्ष कषायें प्रकट न हो। रोग जनित पीड़ा नहिं होवे, मूर्छा आशा भी नहिं हो। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्राण निकलते समय वीर! मम कठ अकुंठितं बना रहे, महामंत्र को जपते-जपते, प्रभु समाधि उत्तम होवे ॥ इस प्रकार अंतिम सल्लेखना की कामना करते-करते पुनः आराध्य के रूप गुण में लीन हो जाती हैं "हे प्रभु! तव शरीर कांति है, सुवर्ण सम अतिशय सुन्दर । चन्द्र समान धवल तव कीर्ति, व्याप्त हो रही त्रिभुवन पर ।। धर्म-सुधा बरसाने को प्रभू, पूर्ण चन्द्रमा तुम ही हो। मोह महातम से अंधे हैं, त्रिभुवन के सब प्राणीगण, ज्ञानौषधि से चक्षुखोलने, तुम्हीं चिकित्सक हो भगवन्। इस प्रकार ऐसे विश्वरोग से मुक्ति दिलाने वाले चिकित्सक का सानिध्य प्राप्त कर वे बार-बार नमनकर अपनी भक्ति प्रगट करती हैं। अंतिम पदों में उन प्रभू की शक्ति का गुणगान करती हैं जिनकी भक्ति से आधि-व्याधि उपाधि से मुक्ति मिलती है। प्रभू का भक्त कालजयी बन जाता है तीन लोक में घूम-घूमकर, निगल रहा सब प्राणीगण । क्रूर सिंह सम महाभयंकर काल शत्रु सम्मुख लखकर ॥ उसको भी तव भक्त जीतकर, मृत्युंजय बन जाते हैं, स्मरजित्! मृत्युञ्जय! नमोऽस्तु मम, मृत्यु नाश के हेतु हैं। इन वीर प्रभु की शुद्ध मन से दृढ़तापूर्वक भक्ति करने वाला, कर्मक्षय कर अमरपद प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है। इस लघु पुस्तिका में कवयित्री ने जम्बूद्वीप स्तुति प्रस्तुत करते हुए पूरे जम्बूद्वीप की रचना और वहाँ विविध द्वीप, पर्वतों पर स्थित मंदिरों को वंदन किया है। वहाँ विराजमान तीर्थंकर प्रभू की स्तुति की है। यद्यपि पूरी स्तुति स्थल वर्णन की स्तुति है पर उसमें काव्य छटा की महत्ता है "षट् कुल पर्वत पर चैत्यालय रत्नमयी शोभे शाश्वत । उन गृह में प्रतिमाएं इक सौ आठ प्रमाण सभी में नित ॥ वे सुदर्शन गिरि, विविध दिशाओं के गजदंताचल, षोडशवक्षार गिरि, बत्तीस रजताचल पर्वत, भरत ऐरावत में स्थित दो विजया पर्वत, जंबू-शाल्मलि पर स्थित चैत्यालय, घातकि, पुष्कर द्वीप सभी पर स्थित भगवंतों को श्रद्धा से वंदन करती हैं और अंतिम भावना तो पाप विच्छेद कर मुक्ति की है, जिसे व्यक्त करना नहीं भूलती "नमोऽस्तु जिन प्रतिमा को मेरा सकल ताप विच्छेद करो। नमोऽस्तु जिन प्रतिमा को मेरा सकल दोष से शुद्ध करो।" इसी प्रकार तीसरी मंगल स्तुति है इसमें भगवान की त्रैलोक्यमयी करुणा दृष्टि का गुणगान है। उनकी वाणी "चन्द्र किरण चन्दन, गंगाजल से भी जो शीतल वाणी, जन्म मरण भय रोग निवारण, करने में हैं कुशलानी । सप्तभंग युत स्याद्वादमय गंगा जगत पवित्र करें। सबकी पाप धूलि को धोकर, जग में मंगल नित्य करें । इस स्तुति में कवयित्री अपने कर्ममल का क्षयकर आत्ममंगल की भावना तो भाती ही हैं, विश्व के प्राणीमात्र के मंगल की शुभकामना भी व्यक्त करती हैं- . "धर्म वही है तीन रत्नमय त्रिभुवन की सम्पति देवे । उसके आश्रम से सब जन को भव-भव में मंगल होवे ॥ - वे सम्पत्ति भी याचती हैं तो तीन उन रत्नों की, जो मोक्षमार्ग के संबल बनें। सांसारिक भौतिक सम्पत्ति की चाह नहीं है। सर्वकल्याण भावना साधु की सरल वृत्ति का परिचायक भाव है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवदन ग्रन्थ [४९१ आत्मा की खोज [परमात्मा की भक्ति] समीक्षक-डॉ० शेखर जैन, अहमदाबाद प्रस्तुत लघु काव्यकृति में पू० गणिनी माताजी ने अपने हृदय के भक्ति सुमन चौबीस तीर्थकों के चरणों में समर्पित किए हैं। साध्वी का मन तो सदैव पंचपरमेष्ठी के ही चरणों में ध्यानस्थ रहता है। आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर तक सभी की वंदना चौबीस स्तुतियों में प्रस्तुत की है। कवयित्री ने सभी तीर्थंकरों के पांचों कल्याणकों का वर्णन किया है। उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान व निर्वाण को तिथियों को प्रस्तुत कर मानो चौबीस तीर्थंकरों का इतिहास प्रस्तुत किया है। इसमें हमें तीर्थंकरों के समय आदि का ज्ञान होता है। साथ ही साथ उनके जन्मस्थल, वंश, माता-पिता, साधु-साध्वी, गणधर आदि का उल्लेख इसी ज्ञानवर्द्धन का ही साधन है। तीर्थंकरों के शरीर के रंग, उनकी दुर्धर तपस्या, उनकी उपसर्गजयिता एवं उपदेशों को प्रस्तुत कर, उनके गुणगान किए हैं। प्रत्येक तीर्थंकर हर युग का पुनरुद्धारक होता है। उसका जन्म धरती पर समता, क्षमता का पोषक होता है। युग को नयी राह प्रशस्त करता है। देखें भगवान् ऋषभदेव का रूप "ये कनक वर्ण धनुपंचशतक, तनु वे युग के अवतारी थे। आयु चौरासी लाख पूर्व, धारक वृष लक्षण धारी थे।" "षट् मास योग में लीन रहे, लंबित भुज नासा दृष्टि थी। निज आत्म सुधारस पीते थे, तन से बिल्कुल निर्ममता थी।" इसी प्रकार के रूप, गुण, प्रभाव का वर्णन प्रायः सभी तीर्थंकरों की स्तुतियों में विद्यमान है। श्री समुच्चय 'चौबीस जिनस्तुति' में एक साथ चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। जिसमें एक-एक पद एक-एक तीर्थकर की गुण महिमा से मंडित है। वर्तमान शासन श्री महावीर प्रभू का है। उनकी सुखद भावना है "श्री वीर प्रभू का यह शासन, सब जग में मंगलकारी है। सब जग में उत्तम मान्य हुआ, सब ही जन को सुखकारी है। इन पच्चीस स्तुतियों में महत्त्वपूर्ण है कवयित्री की काव्य सम्पन्नता । उत्तम उपमा आदि से तीर्थंकरों के रूप-गुण का वर्णन हृदयग्राही है। वे यथास्थान प्रकृति का भी अवलोकन लेकर तीर्थकर महिमा को प्रस्तुत कर सकी हैं। भाषा की तत्सम पदावली द्वारा मनोहर चित्रण भाषा की चित्रात्मकता का प्रतीक है "जिनके वक्त्राम्बुज से निकली, दिव्यध्वनि अमृतरस झरिणी। जो चिरा कुमति हरणी मन में, चैतन्य सुधारस की भरणी ॥ उन सुमतिनाथ को वंदूं मैं, वे ज्ञान ज्योति आनंदघन हैं। निज शुद्धात्मा को ध्या-ध्याकर, कारिनाश शिवधाम रहें ॥" "तरुवर अशोक था शोक रहित, सिंहासन रत्न खचित सुन्दर । छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर ॥ सुर दुंदुभि बाजे बाज रहे, दुरते हैं चौंसठ श्वेत चमर । सुर पुष्प वृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि फैले योजन भर ॥" प्रत्येक स्तुति से अनेक उद्धरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। कृति में अंतिम आत्मपीयूष (शुद्धात्म भावना) लंबी स्तुति या प्रार्थना बड़ी ही सुन्दर है। कविता का प्रारंभ ही रूपक से किया है "मेरा तनु निज मंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर। उस पर मैं ही भगवान् स्वयं, राजित हैं चिन्मय ज्योतिप्रवर ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 'मैं स्वयं आत्मा हूँ' का उद्घोष हमारी स्वतंत्र सत्ता, आत्मा का शरीर से निलेपभाव एवं स्वयं भगवान् बन सकने की आस्था का परिचायक भाव है। जो आर्यिकाजी ने बड़े ही उत्तम शब्दों में व्यक्त किया है। पूरी स्तुति इसी आत्मा की स्वतंत्र, निश्चल, निष्काम, अनंत, अखण्ड, प्रकाशवान, देहातीत स्थिति की परिचायक है। एक उदाहरण देखिए "मैं नित्य निरंजन परं ज्योति, मैं चिच्चैतन्य चमत्कारी । मैं ब्रह्मा विष्णु महेश्वर हूँ, मैं बुद्ध जिनेश्वर सुखकारी॥ मैं ही निज का कर्ता धर्ता, मैं अनवधि सुख का भोक्ता हूँ। मैं रत्नत्रय निधि का स्वामी, अगणित गुणमणि का भर्ता हूँ॥ परिषह मनुष्य की आत्मा को निखारते हैं। साधु उन्हें सहकर और भी दृढ़ बनता है। यह भाव इस कविता में यत्र-तत्र व्यक्त हुए हैं। मेरा आत्म स्वभाव तो दशलक्षण युक्त धर्मों से आवेष्टित है। क्रोध आदि तो परभाव हैं। उन्हें दूर करके ही इसे पुनः चमकाना है "मैं क्षमा मूर्ति हूँ गुण ग्राही, क्रोधादि पुनः कैसे होंगे? मैं इच्छा रहित तपोधन हूँ, फिर कर्म नहीं क्यों छोड़ेंगे? मैं आर्तरौद्र से रहित सदा, हूँ धर्म शुक्ल ध्यानी ज्ञानी। मैं आशा तृष्णा रहित सदा, हूँ स्वपर भेद का विज्ञानी ॥ मैं निज के द्वारा ही निज को निज से निज हेतु स्वयं ध्याकर । निज में ही निश्चल हो जाऊँ, पाऊँ स्वात्मैक सिद्धि सुन्दर ॥ कितनी सुन्दर व उच्च भावना है कि स्वयं को सर्वकर्ममल से मुक्त करके स्वयं में निश्चल हो जाना। आवागमन से मुक्ति पाना । मृत्यु के भय से भी आत्मध्यान से विचलित न होने की दृढ़ता के स्वर इस भक्ति गीत का मूल स्वर बन गया है। कर्मरूपी बाह्य रजकणों को क्षय करना ही तो मेरा लक्ष्य हो। जो भी इस प्रकार की आत्मसाधना में लीन होता है, वही आनंद रस चख सकता है "इस विध एकाग्रमना होकर, जो निजगुण कीर्तन करते हैं। वे भव्य स्वयं अगणित गुणमणि, भूषित शिवलक्ष्मी वरते हैं। वे निज में रहते हुए सदा, आनंद सुधारस चखते हैं। आर्हन्त्य श्री 'सज्ज्ञानमती' पाकर निज में ही रमते हैं।" ४५ चतुष्पदी की यह भक्ति सरिता कवयित्री के भाव और भक्ति की उत्तम कृति है। पूरी स्तुति पढ़ने से व्यक्ति अपने सच्चे आत्म स्वरूप को परख सकता है-निरंतर आराधना से आत्ममय बन सकता है। जिनस्तवनमाला (चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः) जिन स्तवन माला समीक्षक-डॉ० शेखरचन्द्र जैन, अहमदाबाद आर्यिका गणिनी ज्ञानमतीजी संस्कृत साहित्य की अधिकृत विदुषी हैं। भाषा के ज्ञान का उत्तम स्वरूप होता है काव्य-रचना। भाषा की प्रांजलता इसी विधा में झलकती है। माताजी ने अनेक वंदना, स्तुति, तीर्थ स्तुति आदि रचनाएं उत्तम संस्कृत शब्दावली में की हैं। उनकी उन कृतियों को पढ़कर, जिनकी रचना संस्कृत में की है और स्वयं उसका भावानुवाद भी किया है। मेरा यह अवलोकन रहा है कि संस्कृत का काव्यवैभव हिन्दी में उस सक्षमता से कम उतरा है, जितना काव्यवैभव मूल संस्कृत रचनाओं में है। इस भक्ति प्रचुर कृति में चौबीस तीर्थंकर की स्तुति चौबीस पदों में उत्तम संस्कृत के उपजाति छन्द में की है। हर शब्द उनके अन्तर की भक्ति से समर है। आराध्य के चरणों में नतमस्तक वे उनकी भक्तिप्रसाद की चाहना करती रही हैं। समुच्चय चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के उपरांत संग्रह में श्रीचन्द्र प्रभस्तुतिः श्री शांतिजिनस्तुतिः, उपसर्गविजयि श्री पार्श्वनाथ जिनस्तुतिः, श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुतिः, श्री वीरजिनस्तुतिः, शांतिभक्ति एवं बारह भावना का समावेश है। बारह भावना के अलावा सभी स्तुतियों व शांतिभक्ति की रचना मूल संस्कृत में की है। स्वयं उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रस्तुत किया है। चरमशरीरी तप के तेज से दैदीप्यमान तीर्थंकर प्रभू को शांत, सौम्य मुद्रा भक्त के आकर्षण का केन्द्र Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४९३ रही है। मनोज्ञ मूर्ति हृदय को भक्ति में आबद्ध कर लेती है। अपने आराध्य का वह निर्मल सौन्दर्य देखकर भक्त भावविभोर होकर गा उठता है। यही भावगीत उसकी स्तुति बन जाते हैं। __चन्द्र प्रभू की ऐसी ही छवि भक्ति के लिए वाचाल बना देती है "गुनिमन समुद्रवर्धन को शशि, मदनजयी मन तमहारी। चपल चित्त गति हरन हेतु, चन्द्रप्रभ स्तुति सुखकारी ॥" ऐसे सौन्दर्य सम्पन्न प्रभु भक्तों की भवाग्नि को शान्त करते हैं "शशि सेवित पद परमशांतियुत, भव्य भवाग्नि शान्त करो। यति मन कमल विकासी शशिसम, धवल वर्ण नमुचन्द्र प्रभो ॥" भक्त कवि की वाणी आराध्य के दर्शन से गद्गद हो उठती है। भव-भव में भटका भक्त अब भव भ्रमण से थक गया है अब तो वह मुक्ति की चाह से ही द्वार पर आया है। समवसरण में विराजमान प्रभू ऐसे शोभित हैं जैसे तारों की सभा में चन्द्र शोभित होते हैं। वे ऐसे चन्द्र हैं जिनकी कांति कभी भी न्यूनाधिक नहीं होती। अपर प्रातिहार्यों के वर्णन द्वारा वे उनके महान् अतिशय का वर्णन करती हैं। इसी संदर्भ में वे जैन दर्शन के ईश्वर, संसार रचना आदि तत्त्वों पर भी प्रकाश डालती हैं। भव्यजनों की यही प्रकृति होती है कि वे सदा लघु बने रहते हैं। यही लघुता उनकी आत्मा की महानता है "राशिसम धवल गुण स्तुति में, तव महर्षि भी असमर्थ रहें। मैं फिर कैसे समर्थ होऊँ, नहिं बुद्धि किंचित् मुझमें ॥" स्वपर भेद के ज्ञाता प्रभू के दर्शन-अर्चन से पूर्ण सौख्य की प्राप्ति होती है। ऐसे प्रभू में जो लीन हो जाये-प्रभूमय बन जाय वह स्वयं अतुल कांति का धारी बन जाता है-ऐसी प्रभू की महिमा है। भक्त तो प्रभू के समान–'तुम सम मैं बनना चाहता है। अपने आराध्य को विविध विशेषणों से 'संबोधन करके भी उसका मन तृप्त नहीं होता- उसके आराध्य तो उसके लिए-"मदनजयी जिनपति! दुरितंजय! करुणाहृद, त्रिभुवन पति" हैं। मोह रूपी सर्प को मूर्च्छित या विष रहित करने वाले प्रभू की आराधना में जैसे साध्वी का भक्त हृदय बंध ही गया है। ___ भावों की यही सरिता अन्य स्तुतियों में भी अबाध रूप से प्रवाहित हुई है। श्री शांतिनाथ जिन स्तुति में उनकी भक्ति का प्रवाह आवेग द्रष्टव्य है। भगवान शांतिनाथ तो विश्वशांति के प्रतीक हैं। उनका आचरण मात्र प्राणी को शांति प्रदान करता है। विश्व-शांति के भाव जागते हैं "जिनकी नाम स्तुति भी हदि में, सकल ताप को शांति करी। अहो मुदित उन शांतिनाथ की, करूं संस्तुति सौख्य करी ॥" वीतराग प्रभू तो शांति करुणा के प्रतीक हैं। शस्त्रों से रहित द्वेष मुक्त हैं। "सकल परिग्रह त्याग दिया, अतएव राग नहिं लेश तुम्हें । आयुध गदा रहित निर्भय हो, अतः द्वेष भी नहीं तुम्हें ॥" वे शांतिनाथ के पूर्व भव के तपस्यारत परिषह सहन करने वाले रूप का स्मरण करते हुए उनकी दृढ़ता का परिचय देती है। तीर्थंकर के जन्म से पूर्व छह माह तक होने वाले रत्नवर्षा आदि सुखमय वातावरण का चित्रण कर यही तो प्रस्तुत करती हैं कि भव्य जीव के अवतरण से पूर्व ही धरती पर सुख की वर्षा होने लगती है। प्राणीमात्र कष्ट से राहत प्राप्त करने लगता है। भगवान शांतिनाथ तो चक्रवर्ती थे, फिर भी उस अटूट-अपार वैभव को त्यागकर मुक्त वधू के कंत बने । षट्खंड विजयी ने अंत में अपनी ही आत्मा पर विजय प्राप्त कर कैवल्य प्राप्त किया। ऐसे प्रभू के चरणों में प्राणीमात्र अशोक बन जाता है "तब संनिध आया जड़ तरु भी, जब अशोक हो जाता है। क्योंकि जगत में कारण के बिन, कार्य नहीं हो पाता है।" समवरण में विराजे अष्ट प्रातिहार्यों से सुशोभित प्रभू की छवि भक्त को हर्षाश्रुमय बना देती है। उसका मन मयूर नाच उठता है "हे प्रभू! तव छत्रत्रय को शुभ, श्वेत लटकती मुक्ताएं। भव्य जनों के नेत्रों से, हर्षाश्रु अमृत बर्षायें।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रभू की इस धर्म सभा में हर प्राणी जन्म जात बैर भूलकर परस्पर शांति सौम्यता से बैठकर धर्मश्रवण करता है "जातविरोधी नकुल-सर्प गज, सिंह हरिण प्राणी गण भी। गाय वत्स सम परम प्रीति से, सुख अनुभव करते सब ही ॥" प्रभू तुम तो माता के समान वात्सल्य के मूर्ति रूप हो। मैं अनभिज्ञ बालक हूँ यदि मेरी गलती हो जाए तो आपको तो क्षमा ही करना है। पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं होती। इस कहावत का कितना सुन्दर प्रयोग हुआ है। "सदोष भी मेरी रक्षा करिए चित्तज रागादिक से। क्योंकि निर्गुणी भी सुत से, नहिं माता निष्ठुर हो जग में।" वर्तमान युग में उत्कृष्ट तप करना कठिन है। शक्तिहीनता के इस काल में प्रभू भक्ति का प्रसाद ही मिल जाय, वही उत्तम है। इस सीमा को जानकर वे अपनी लघुता प्रकट करती हुई भक्ति को ही दृढ़ करती हैं। "द्वादशांग श्रुत ज्ञान तथा कुछ, तत्त्व नहिं मुझमें। दुषम काल में मुक्तिप्रद, चारित्र नहीं हो सकता है। नहिं उत्तम संहनन शक्ति भी, उग्र उग्र तप करने की। अतः प्रभो! तव भक्ति एक ही, शिव सुखदायक रहे बनी।" भगवान शांतिनाथ की स्तुति से पूज्यपाद स्वामी दृष्टि सम्पन्न हुए थे, ऐसी ही ज्ञानदृष्टि मुझे भी प्रदान करें। यही शुभ आकांक्षा भक्त कवयित्री की है। उपसर्ग विजयि श्री पार्श्वनाथ जिन स्तुति एवं श्री पार्श्वनाथजिन स्तुति में भक्ति का वही भाव मुखरित हुआ है। भगवान पार्श्वनाथ की महिमा व मान्यता सर्वाधिक है। भगवान महावीर से पूर्व २३वें तीर्थकर भ. पार्श्वनाथ ऐतिहासिक युगपुरुष हुए। उनकी सर्वाधिक पूजा, मूर्ति विविध नामों से की पूजा-अर्चा हुई है, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं। आज भी भगवान ऋषभ और महावीर की तुलना में पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ अधिक व विविध नामों युक्त प्राप्य है। वे विघ्रहर हैं, चिंतामणि हैं, सहस्रफणा है। उपसर्ग विजयि पार्श्वनाथ उपसर्गजय के प्रेरणास्रोत रहे हैं। इस स्तुति में वे पार्श्वनाथ भगवान के जीवन चरित्र को भी प्रस्तुत करती हैं उन पर हुए घोर उपसर्ग का रौद्ररस में वर्णन करती हैं "विद्युत चमके दशदिश में, आंधी अंधियारी काल समान । गरजे मेघ भयंकर वायु, वृक्ष उखाड़े शैल समान।" पर इस आंधी में भी पार्श्वप्रभू तो धीर-वीर-गंभीर तपस्या में रत हैं। इस सहनशक्ति व दृढ़ता के सामने पद्मावती देवी का आसन भी कंपायमान हो उठा। धरणेन्द्र-पद्यावती ने अपनी भक्ति और शक्ति से इस उपसर्ग का निवारण किया, केवलज्ञान प्राप्त होते ही इन्द्रों द्वारा रचित समवसरण की शोभा का वर्णन कवयित्री ने बड़े ही साहित्यिक ढंग से कियाहै। ऐसा ही वर्णन प्रायः हर तीर्थंकर के समवसरण-वर्णन में है। हाँ! सभी वर्णनों में भाषा, भावों व शल्यवृष्टि अवश्य वैविध्यपूर्ण है। इन वर्णनों में उनका काव्य कौशल निखरा है। भक्त से अधिक कवि जागरूक है "माणिक रत्न गुरूत्मणि मुक्ता, हीरकमणि वैडूर्यों से। इन्द्राज्ञा से धनपति रचियों, समवसरण गगनांगण में। अति ऊँचे मानस्तंभों से, पुष्पवाटिका सरवर से। परकोटे सालत्रय शोभे, वापी रम्य स्वच्छ जल से।" "रत्नमणीमय कमलासन पर, चतुरंगुल ऊपर राजें। तीन छत्र 'त्रिभुवनपति' सूचक, उन प्रभु को हम नित वंदें।" उन प्रभू की प्रभावना देखिये कि सारा हिंसक वातावरण ही बदल गया है "निर्मल दिश सब स्वच्छ सरोवर, शाली आदिक खेत फलें। प्राणी हिंसा कभी ने होती, षट ऋतु के फल फूल खिलें।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४९५ प्रभु के गमन का दृश्य कितना मनोहारी है "प्रभु बिहार में आगे चलता, धर्मचक्र राजे सुखकर । कनक कमल पर प्रभुपग धरते, गमन गमन करते मनहर।" इन पार्श्वनाथ प्रभू की भक्ति जिन्हें प्राप्त हो गयी है वे संसार के मोह-माया से स्वयं मुक्त बन जाते हैं। उसके रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं "नाथ! आपको पाकर नहि, कोई मोही होता जग में। नाथ! शोक से रहित तुम्हें लख, नहिं जन शोक करे मन में। राग रहित पा नाथ! तुम्हें, नहिं राग भाव धारे कोई। तंद्रा रहित नाथ को पा, तंद्रा निद्रा खोते सब ही।" संग्रह में संगृहीत श्री वीरजिनस्तुति पृथक् से लघु संग्रह के रूप में प्रकाशित रचना है, जिनकी पृथक् समीक्षा की जा चुकी है। शांतिभक्ति में भक्तहृदय की भक्तिधारा ही प्रवाहित है। ये समस्त भाव श्री शांतिजिन स्मुति में प्रकट हो चुके हैं। एक प्रश्न मन में उठ सकता है कि कवयित्री ने बार-बार पुनरार्वतन क्यों किया? भक्ति का एक ही स्वर पुनः पुनः क्यों छेड़ा? तो उसका उत्तर बड़ा ही सटीक यह है कि भक्ति कभी पुनरावर्तित नहीं होती, वह तो पुनःपुनः भी चिरनूतन रहती है। यह तो भक्त के मन की अतृप्ति ही है कि निरंतर आराधना के बाद भी तृप्ति न हो। अतृप्ति ही तो निरंतर आराधना की प्रेरणा स्थली है। सूरदास की भाषायें-"ज्यों-ज्यों डूबे श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जवल होय" की बात यहां चरितार्थ होती है। भक्ति तो वह शर्करायुक्त रोटी है जहां से भी तोड़ें मीठी ही मीठी लगेगी। भक्त का यह भक्तिभाव का पुनरावर्तन उसकी भक्ति को दृढ़ ही बनाता है। अधिक आस्थावान बनाता है। इस परिप्रेक्ष्य में ज्ञानमती माताजी की भक्ति पुनरार्वतन की भावना व वर्णन योग्य ही है। उनकी भक्ति की यह उत्कृष्टता है। आराध्य के प्रति समर्पण की अभिलाषा है। मन की प्रफुल्लता ही इसमें व्यक्त है। प्रायः सभी स्तुतियों-वंदना गीतों को पढ़कर उन पर प्राचीन भक्तामर, विषापहार, एकीभाव आदि स्तोत्रों का प्रभाव दृष्टिगत होता है। मैं पहले स्पष्ट कर चुका है कि यह नकल नहीं है, पर भक्त का भाव हर काव्य में एक-सा होता है अतः रचना में साम्यता होना स्वाभाविक है। आराध्य के रूप, गुण, अतिशय, प्रभाव, शक्ति, भक्ति आदि के वर्णन में यह सब समानतत्त्व है, कविता का माध्यम भी समान है अतः यह सामान्य गुण होना असमान्य नहीं हो सकता। मुझे तो लगा कि एक बार पुनः मानतुंग की भक्ति सजीव होकर प्रवाहमान हो उठी है। इस कृति में बारह भावना को नए ढंग से प्रस्तुत किया है। यद्यपि साधक इन्हीं द्वादश अनुप्रेक्षा भावनाओं का निरंतर चिंतन करे तो वह आत्म चिन्तक बनकर मुक्ति की ओर अग्रसर हो सकता है। संसार के धन वैभव, कुटुम्ब, परिवार, अरे! यह देह कुछ भी तो मेरा नहीं। कर्म इस आत्मा को निरन्तर कष्ट दे रहे हैं उनका क्षय करना है। मैं अकेला ही जन्मा हूँ अकेला ही मरना है। मैं स्वयं परमात्मस्वरूप हूँ। यह चिंतन बढ़ाकर धर्म को ही आश्रय बनाता है उसके ही आश्रित बनना है। यही भावनाएं कविता में बड़े ही भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत हुई हैं। "मेरी आत्मा से भिन्न सभी, किंचित् अणुमात्र न मेरा है। मैं सबसे भिन्न अलौकिक हूँ, बस पूर्ण ज्ञानसुख मेरा है। मैं अन्य सभी पर द्रव्यों से, सम्बन्ध नहीं रख सकता हूँ। वे सब अपने में स्वयं सिद्ध मैं निज भावों का कर्ता हूँ।" "जो भव समुद्र में पतित जनों, को निज सुख पद में धरता है। है धर्म वही मंगलकारी, वह सकल अमंगल हर्ता है। यह लो में है उनम सबमें औ वही शरणतै सब जन को। निज धर्ममयी नौका चढ़कर, मैं शीघ्र तिरूँ भव सिंधू को।" पूज्य माताजी के साथ जो भी इस भक्ति की नौका में आरूढ़ होगा वह निश्चय से भवसागर से पार होने की संभावनाओं को प्राप्त कर सकेगा। ऐसी रचनाएं हमें भक्ति-ज्ञान और काव्य की त्रिवेणी में अवगाहन कर पवित्र बनाने में सक्षम होती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रभावना समीक्षिका-ब्र. मालती शास्त्री, दिल्ली प्रमावताः जैन धर्म की ध्वजा को दिग्दिगन्त व्यापी बनाने वाले आचार्य श्री अकलंक देव का नाम आज कौन नहीं जानता? आठवीं शताब्दी में भारतवर्ष में बौद्धधर्म का काफी जोर था। उस समय अन्य धर्मी भाइयों की क्या स्थिति थी तथा उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार होता था. इसकी जानकारी के लिए 'प्रभावना' कथानक एक ऐसा अनूठा उदाहरण है, जिसे पूज्य माताजी ने 'आराधना कथाकोष' के आधार से बनाया है। इसमें अनेक स्थल इतने छहत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं कि व्यक्ति इसे पढ़कर स्वयं शिक्षा ग्रहण कर सकता है। वैराग्य उत्पन्न करने वाली एक सूक्ति जिसे एक बार पूज्य माताजी ने भी 'अकलंक-निकलंक' नाटक देखकर उसमें अकलंक के मुख से सुनकर वैराग्य भाव से ओत-प्रोत होकर आजीवन शादी न करने का निश्चय कर लिया था। देखिए पृ. १८-१९ अकलंक कहते हैं-"पूज्य पिताजी! सूक्ति तो यही है कि-प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्। कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में नहीं फंसना ही अच्छा है। हे तात्! उसी प्रकार विवाह करके बंधन में फंसकर पुनः छोड़ना और ब्रह्मचर्य व्रत लेकर तपश्चरण करना इसकी अपेक्षा गृहस्थाश्रम में नहीं फंसना ही श्रेयस्कर है।" और फिर माता-पिता को भी उनके दृढ़ संकल्प के आगे झुकना पड़ता है। अनेकों ग्रंथों का अध्ययन करते हुए अकलंक-निकलंक जब देखते हैं कि बौद्ध संप्रदाय का प्रचार-प्रसार बहुत ही जोरों से बढ़ता जा रहा है, जैनों पर तो उन लोगों का आतंक मचा है, तब किस तरह जैन धर्म का प्रचार-प्रसार हो? इसके लिए बौद्ध धर्म के दर्शन शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए बौद्ध विद्यालय में जाने के लिए माता-पिता से आज्ञा मांगते हैं, तब माता-पिता मोह से विह्वल होकर कहते हैं, देखिए पृ. २४ पर “पुत्रो! पहले तो तुम दोनों ने विवाह का प्रस्ताव ठुकरा दिया, उससे हम दोनों को बहुत ही कष्ट हुआ। फिर भी तुम दोनों का मुख देखते हुए हम दोनों जैसे-तैसे संतोष को धारण करते रहते हैं। ओह! अब तुमने हमारी आँखों से भी ओझल होना सोच लिया है! क्या तुम दोनों मुझे अब जीवन भर रुलाना ही चाहते हो?" पुनः कहती हैं-"प्यारे पुत्रो! पता नहीं, विदेशियों के स्थान पर रहकर तुम्हें किन-किन कष्टों का सामना करना पड़े। मेरी दाहिनी भुजा भी पता नहीं क्या कह रही है?" उस समय वीर बालक के मुख से क्या शब्द निकलते हैं, जिसे पू. माताजी ने कितने ठोस और सुंदर शब्दों में संजोया है। देखिए पृ. २४-२५ पर-"माताजी! आप केवल मोह के वश होकर ही ऐसा सोच रही हैं। अरे! भला आप जैसी 'वीर प्रसूता' माता की संतान होकर हम लोग कष्टों से घबराने वाले हैं। मात! हम दोनों वीर बालक तो कष्टों का आह्वान करके उनसे टक्कर लेंगे और एकांत क्षणिक मत का विध्वंस करके अपने जैन शासन को विश्वव्यापी बनायेंगे। जिस जैन धर्म की शरण में आने से मनुष्य क्या पशु-पक्षी भी परम्परा से अपनी आत्मा को परमात्मा बना चुके हैं।" जब बौद्ध विद्यालय में अध्ययन करते हुए इनका भेद खुल जाता है कि ये लोग जैन हैं, तब बौद्ध गुरु उन्हें बुद्ध भगवान् के भक्त बनने की प्रेरणा देते हैं। लेकिन अकलंक उन्हें निडरतापूर्वक उत्तर देते हैं, जिसे पूज्य माताजी ने पृ. ४२ पर अनेकान्तमय शब्दों में दर्शाया है "गुरुजी! यह जैन धर्म आत्मा के अनंत अस्तित्व को स्वीकार करता है, यह प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बना देता है। इसलिए हम स्वयं तो इसके आश्रय में हैं ही, अन्य अनंत प्राणियों को इसके आश्रय में रहने की कामना करते हैं। किन्तु आत्मा के अस्तित्व से शून्य केवल नैरात्म्य रूप यह बौद्ध धर्म किसी को शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं करा सकता है।" अकलंक निकलंक जब बौद्ध गुरु की आज्ञा नहीं मानते हैं, तब उन्हें जेल में बंद कर दिया जाता है, वहाँ पर वे णमोकार मंत्र का स्मरण करते हुए हाथ जोड़कर जिनेन्द्र देव से प्रार्थना करते हैं। पृ. ४५ पर जिसे पू. माताजी ने पद्य में निबद्ध किया है नाथ! तेरे सिवा कौन मेरा। आके विपदा ने हमको है घेरा ॥ आके भगवन्! हमें अब बचाओ! जेल बंधन से हमको छुड़ावो॥ प्रार्थना के समाप्त होते ही उनके बंधन और ताले स्वयं खुल जाते हैं और वे मौका देखकर निकल भागते हैं। लेकिन जैसे ही बौद्धों को ज्ञात होता है, वे तुरन्त सिपाहियों को घोड़ों पर दौड़ा देते हैं और तब निकलंक अपने प्राणों की परवाह न कर अकलंक से कहता है। पृ. ४९ पर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "मेरे अग्रज ! मेरी प्रार्थना स्वीकार करो, आप जल्दी से सरोवर में उत्तर जावो, इसमें बहुत सारे कमल खिल रहे हैं, इनमें छिपकर तुम अपने प्राण बचाओ।" भैया! तुम एक पाठी हो, तुम्हारे द्वारा जितनी जैन शासन की सेवा हो सकती है, मेरे द्वारा उतनी नहीं । कितना सुंदर, निकलंक की उदारता का चित्र खींचा है। जब निकलंक और धोबी का सिर तलवार से अलग कर सिपाही चले जाते हैं, तब अकलंक भाई के धड़ को देख मूर्च्छित हो गिर जाते हैं, पुनः होश में आने पर विलाप करने लगते हैं। कितना मार्मिक वर्णन है, जिसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, देखिए पृ. ५१ पर - क्यों छोड़ चला भाई, निकलंक मेरा प्यारा । तू कहाँ गया भाई, निकलंक मेरा प्यारा ॥ अकलक देव भाई का दाह संस्कार कर अन्यत्र चले जाते हैं और जैन धर्म की ध्वजा फहराने में लगे हैं कि एक घटना घटती है। रत्नसंचयपुर नगर में जैन धर्मपरायणा रानी मदनसुंदरी आष्टान्हिका महापर्व में जैन रथ निकलवाना चाहती थी, लेकिन पतिदेव के कहने पर कि जैन धर्म में कोई महापुरुष बौद्ध गुरु 'संघ श्री' के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित न कर दे, तब तक हमारा जैनरथ नहीं निकल सकता है। तब मदनसुंदरी प्रभु के सम्मुख दृढ़ प्रतिज्ञा कर रथ निकलने तक चतुर्विध आहार त्याग देती है। पद्मावती माता का आसन कम्पायमान हो जाता है और वह आकर रानी से बताती है कि तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। और फिर निश्चित दिन अकलंकदेव और बौद्धगुरु 'सर्वश्री' का शास्त्रार्थ प्रारंभ होता है। पहले ही दिन अकलंक देव सर्वश्री को परास्त कर देते हैं। लेकिन वह कपट जाल से तारादेवी को घड़े में अधिष्ठित कर परदे के पीछे से शास्त्रार्थ करता है। लेकिन अंत में अकलंक देव तारादेवी को भी निरुत्तर बौद्ध गुरु को परास्त कर देते हैं। चारों ओर जैन धर्म की जय-जयकार की ध्वनि होने लगती है। पृ. ७९ पर कितने सुंदर तर्ज में जिनेन्द्र देव की प्रार्थना की है Jain Educationa International [४९० मेरा जैन का शासन बढ़ता जाये धर्मध्वजा फहराये मेरा जैन का शासन ! “प्रभावना” पुस्तक अपने आप में एक अनूठी ही पुस्तक है, जिसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक का मन वीर रस, वात्सल्य रस, करुण रस, वीभत्स रस आदि रसों से आप्लावित हो जाता है। पू. माताजी ने ऐसे अनेक कथानकों को लिखकर हम सभी पर महान् उपकार किया है। चारों ही अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाली माताजी ने भावों को बहुत ही सुंदर शब्दों में मोती की माला के समान पिरोया है। पू. माताजी शतायु होकर हम सभी को मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्रदान करती रहें, यही जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है। भक्ति For Personal and Private Use Only समीक्षक - अभय प्रकाश जैन, ग्वालियर मुक्ति का सोपान सृष्टि कभी भी ज्ञान मूल जिनवाणी अथवा उसके शिक्षकों से रहित नहीं रही है। उसके संप्रेषण के स्तर और विधि में अवश्य उसे ग्रहण करने वाले व्यक्तियों की योग्यता के अनुसार अंतर रहा है। यही अंतर उन प्रतीकों 1. में रहा है, जिनके माध्यम से ज्ञान का संप्रेषण किया जाता रहा है। पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शब्द कथानकों के माध्यम से अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। आत्मसाधना, चिंतन और स्वाध्याय के क्षण हमारे मन-मस्तिष्क के सामने मेहमान की तरह आते हैं और अचानक हमारे द्वार खटखटाते हैं। यदि हम सोते रहे या जरा-सी देर की द्वार खोलने में कि वह ओझल हो जाते हैं मस्तिष्क समूचे शरीर का यदि चेतना केन्द्र है तो फिर इस समझ के बाद उसके आदेशों के संकेतों को समझने की चेष्टा हर क्षण करनी चाहिए। पूज्य आर्थिकाजी की हर पंक्ति में ऐसा उद्बोधन है। "भक्ति" नामक पुस्तक में चार महापुरुषों के कथानकों को बड़ी सुगम्य एवं रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। “सेठ सुदर्शन" और "अंजन से निरंजन" को आद्योप्रान्त पढ़ने से ज्ञात होता है कि एक भ में गुरु के द्वारा ग्रहण किया गया मंत्र यदि श्रद्धा आस्था के साथ स्मरण किया जाये तो भव-भव के संकट अनायास ही टल जाते हैं । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अब प्रश्न उठता है कि इस महामंत्र में ऐसा क्या है, जो सर्वसिद्धि प्रदाता बन जाता है। मंत्र क्या है? कुछ वर्षों का समाहार । वर्ण क्या है? जिसे हम अक्षर कहते हैं। अक्षर का अर्थ है जिसका क्षय नहीं हो। लिपि बदलती है, भाषा बदलती है, पर ये अक्षर नहीं बदलते, ये ध्वनि रूप में नित्य हैं। नाद-ध्वनि या अक्षर रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करता है। ब्रह्मा अक्ष-माला के रूप में इन अक्षरों को धारण करते हैं। नाद अब नाभिकमल से उठकर अनाहत चक्र को अतिक्रम करता हुआ कण्ठ में आकर आहत होता है तो ये अक्षर बन जाते हैं। जो प्रथम अक्षर या ध्वनि हम प्राप्त करते हैं वह है "अ"। यह आद्य अक्षर है, समस्त वर्गों का मूल । वेदान्ती इसे सगुण ब्रह्म कहते हैं। इसी सगुण ब्रह्म से जगत् विस्तृत होता है। पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में बताया है कि किस प्रकार जगत् विस्तृत होता है और किस प्रकार वह समेटा जाता है, इसीलिए तो व्याकरण को अपवर्ग या मोक्ष का द्वार कहा गया है। इस महामंत्र के दो पहलू हैं; एक ध्वनि, दूसरा अर्थ। आप जब "ह्रीं" मंत्र का जाप करते हैं तो उसके उच्चारण से आपके आज्ञा चक्र में जो "ह" बीज है, वह स्पंदित होता है और स्पंदित होने का अर्थ है कि वह आपके जीवन में प्रभावदायी हो जाता है। अन्य वर्ण जो आपके चक्रों में हैं, जो कि आपकी आत्मा को मलिन कर रहा था, उसे दबा देता है, पर इसके साथ-साथ अर्थ भावना भी होनी चाहिए कि मुझे शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त करना है और उसी के अनुरूप करना है अपने जीवन का निर्माण । यदि आपकी यह भावना नहीं है तो "ह" स्पंदित होने पर भी अंकुरित नहीं हो पायेगा। वह तो होगा पाषाण में बीज बोने जैसा । जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने मुख-विवर में माता यशोदा को समस्त विश्व दिखाया था, उसी प्रकार पूज्य आर्यिकारत्न, माताश्री ने आस्य प्रयत्न द्वारा समग्र विश्व ही दिखाया है। कारण, समस्त वर्ण जिसमें जगत् बनते हैं, वह है मुखविवर । हम णमो का अर्थ समझ लें। हम अपने जगत् “ण” को "म" में लय करके “ओम” हो जाएं “ओम् हो जायेगा ॐ । बस आप तब उत्पाद व्यय धौव्य को देखते हुए आनंद से अभिसिंचित हो जायेंगे। पर कहा करते हैं हम जीवन का अंत और जगत् का लय । क्या हमने वस्तुतः नचिकेता की भांति जीवन की बाजी लगाकर कभी यम का द्वार खटखटाया है कि मैं आत्मा को जानना चाहता हूँ, सिवाय इसके और कुछ भी नहीं चाहता। तब कहिये हम णमोकार मंत्र को सिद्ध करने की आशा किस धरातल पर कर सकते हैं? आप लाख बार जप करें, कुछ नहीं होगा, होगा तो एक ही “णमो" में हो जायेगा। प्रथम कथानक में सुदर्शन सेठ की नगर देवता ने आकर जल्लादों से रक्षा की। इसी सेठ को राजा ने शूली पर चढ़वाया। महामंत्र के स्मरण से शूली सिंहासन बन गयी। आत्मा की महामंत्र पर श्रद्धा उसे अमर कर गई। वृषभदास सेठ के घर सुदर्शन कुमार जैसा यशस्वी कीर्तिमान पुत्ररत्न हुआ। वह सुदर्शन कुमार ग्वाला की ही पर्याय से आया था। अंजन से निरंजन कैसे बना? वारिषेण आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर रहा था, परन्तु मन की शंका उसे उद्वेलित कर रही थी। अंजन को सेठ जिनदत्त ने अपना मंत्र दिया, ताकि मंत्र की परीक्षा हो जाये, परीक्षा ने ही अंजन को अवबंधन से मुक्त कर दिया। अंजन चोर का उदाहरण तो निःशंकित अंग में भी समंतभद्र स्वामी ने रखा है, इसीलिए यह कथा अत्यधिक प्रसिद्धि पा चुकी है। निःशंकित अंग के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, न ही उसके बिना सम्यक्त्व मोक्ष को प्राप्त कराने में समर्थ होता है। अंजन की कहानी से मातुश्री का उद्बोधन है कि हम अनंत से अपरिचित हैं। अनंत से अपरिचित होने का अर्थ अपने आपसे अपरिचित होना है। हमारा अस्तित्व अनंत है, किन्तु हम शरीर की सीमा में बंदी हैं, इसलिए अपने आपको ससीम महसूस करते हैं। शरीर की सीमा के दो प्रहरी हैं अहंकार और ममकार । अहंकार समानता के सत्र को काट देता है। ममकार विजातीय में सजातीय की भावना भर देता है। असीम का बोध अनन्त की अनुभूति द्वारा होता है। उसके साधन हैं संयम, तप, ध्यान, मंत्र और तंत्र । मंत्र की अचिन्त्य शक्ति है। मंत्र प्रतिरोध शक्ति भी है और चिकित्सा भी है। अहं के विसर्जन और ममत्व के विसर्जन की पद्धति है, प्रक्रिया है। अनन्त की अनुभूति तब तक नहीं होती, जब तक अपूर्णता है । अपूर्णता के तीन लक्षण हैं अज्ञान-मूर्छा-अंतराय विघ्न । सुकुमाल मुनि की कथा भी अद्वितीय है। श्रीमुनि गुणधराचार्य चातुर्मास में उज्जैन नगरी में सुकुमाल के बगीचे में निवास करते हैं, वे उनके मामा थे। वे जानते थे कि सुकुमाल की आयु के बस तीन दिन बाकी हैं और सुकुमाल के आत्म कल्याण की घड़ी आ गई है। मुनि श्री ने उच्चस्तर से लोक प्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू कर दिया, सुकुमाल की नींद टूटी, नींद क्या टूटी बस, भवकथानक की कड़ियाँ टूटने लगी, उन्हें जाति स्मरण हो आया कि पिछले भव में महर्द्धिकदेव रहकर भी तो अतुल वैभव भोगकर भी तृप्ति नहीं हुई थी तो अब इस तुच्छ वैभव से क्या तृप्ति हो सकती है, इतना सोचते-सोचते तो अनेकानेक भवों की स्मृतियाँ अनवरत चलचित्र की भाँति घूमने लगी, उन्हें वैराग्य हो गया । वे तन, मन और समाज के कारागार से मुक्त होकर जैन दिगम्बर मुनि हो गये। अब परिषह का समय आया, सुकुमाल की परीक्षा का समय, एक सियारनी अपने बच्चों के साथ अपने पूर्वभव के प्रतिशोध कर उनके शरीर को खाती है और उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। फलस्वरूप अच्युत् स्वर्ग में उनकी आत्मा आश्रय पाती है। जीवन में नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ भी होती हैं और आत्मोपलब्धि की अनन्त संभावनाएं भी, बात यह है कि हम इन दोनों में से कौन-सा मार्ग चुनते हैं। हमने अपने मन-मस्तिष्क को कहाँ बैठाया है? शरीर एक माध्यम/साधन है साध्य नहीं। यह एक जटिल मंत्र है, इसे गहरे में जानना-समझना अत्यन्त आवश्यक है। हम ध्यान द्वारा इसे समझ सकते हैं, मूल्यांकन कर सकते हैं। मानव देह मात्र देह नहीं है, वह ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण उदात्त शक्तियों का Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ (४९९ सूक्ष्मतम सम्पूर्ण संक्षेप है। शरीर की दासता से मुक्त होकर ही इस सोपान पर चढ़ने का मार्ग प्रशस्त होता है। जो ब्रह्माण्ड में है, वह शरीर में और पिण्ड में है। जो ध्वनि प्रकम्पन ब्रह्माण्ड में समाये हैं, वैसे ही इस शरीर में प्रतिक्षण घटित होते रहते हैं। आर्यिकाजी ने इस कथानक के माध्यम से जनमानस को संबोधित किया है कि भाई! जरा सोचो, "मैं शरीर से भिन्न हूँ, यह शरीर शरण योग्य नहीं है, यह तो दुःख रूप है। यह अनात्म है, अतः सम्यक्त्व भावना ही आत्मोत्थान देगी, शरीर से ऊपर ले जायेगी। हम सोचें कि इसमें क्या, कैसा भरा है? सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) के अलावा इसमें कुछ भी तो नहीं है। आश्चर्य है इन सात धातुओं का नाम लेते ही विरक्ति होती है, लेकिन सात धातुओं वाले का नाम लेते ही राग होता है। स्थिरता भेद विज्ञान से बनेगी। इसका अनुचिंतन जरूरी है। फलतः समता भाव और क्षमा भाव स्वतः होंगे, जो जैन चिंतन के मूक हैं। रक्षाबंधन कथानक अकंपन महाराज और उनके संघ के सात सौ मुनियों का विशाल संघ है। उन पर राजा और मंत्री ने उपसर्ग किया। यह घटना उज्जयिनी नगर की है। हस्तिनापुर के महाराजा महापद्म और विष्णुकुमार महामुनि श्रुत कुमार सूरि के चरण सानिध्य में जिनेश्वरी दीक्षा ले लेते हैं और पद्म को राजगद्दी पर बैठा देते हैं। उनके मंत्री कपटी और दंभी हैं, वे फिर मुनिसंघ को अपने षड्यंत्र से पशुमेध यज्ञ में फंसा देते हैं। ऐसे समय में अकंपनाचार्य और संघ आगमानुसार संल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। इधर विष्णु कुमारजी को विक्रिया ऋद्धि सिद्धि हो जाती है। इस माध्यम से वे अवधिज्ञान से और सिद्धि से हस्तिनापुर पहुँचते हैं और अपने भाई पद्म को संबोधते हैं और वे मुनि संघ की रक्षा करते हैं। रक्षाबंधन उत्सव का यही तात्पर्य है। बच्चे का जन्म क्रंदन से होता है, अर्थात् जन्मना हर संघर्ष के लिए क्रंदन हमारी नियति है, उससे उबर सकें, इसके लिए कठिन श्रम की अपेक्षा है। श्रम कमल है जन्म कीचड़ में, पत्ते गंदे पानी में, सौंदर्य बोधक पुष्प पानी के ऊपर, यही ऊपरी सतह क्रंदन और श्रम के बाद की स्थिति है हमारी सबकी। इस स्थिति को स्वीकार लें तो जीवन सहजता की ओर उन्मुख होगा। अपने जन्म की क्रंदन प्रक्रिया से लेकर शांति की दुर्गम तलाश तक और फिर संघर्ष के बाद कुसुमित कमल बन पा सकने की क्षमता को जानने के लिए हमें अपने भीतर जाना होगा, प्रेक्षा ध्यान के माध्यम से, फिर कठिन नहीं है यह सब समझना, यही आत्मशोधन का मार्ग है। आर्यिकाजी का तात्पर्य है कि जीवन में दीवारें आड़े आती हैं। एक दीवार अपने अंदर है, जो अपनेपन से साक्षात्कार नहीं होने देती, वही दीवार सबके अंदर है। जिन्होंने अपने अंदर की दीवार को गिराया है, वही बंधनमुक्त हुए हैं। उसी दीवार पर आघात करो। संसार से साक्षात्कार करने का एक मात्र मार्ग स्वयं से साक्षात्कार करना है। धैर्य हमारा संकल्प है। मुनि विष्णुकुमार और अंकपन आचार्य के चरित्र से हमें शिक्षा मिलती है कि हम अन्याय, अंधकार-शोषण से समझौता न करें, सफलता के लिए वक्त के अतिरिक्त जो अन्य दो तत्त्व अनिवार्य होते हैं, वे हैं सतर्कता और शत्रु को चमत्कृत करने की क्षमता, मुनि संघ तो समता से स्वागत करते हैं, उन क्रूर आतताइयों का भी, क्योंकि उनने ही मुनियों के गुणों को उभारने-निखरने का अवसर प्रदान किया था, धन्य थी उनकी क्षमाशीलता। उनका कहना था संस्कारहीन शक्ति का गर्जन जब अपराध है तो शक्तिहीन संस्कार की घिघियाहट भी कम अपराध नहीं है। हम सबका यह सद्भाग्य है कि जिनके हम उत्तराधिकारी हैं, वे सब अतिवीर महावीर ही रहे हैं। अंधकार से लड़ने में समय और शक्ति और शब्द का अपव्यय न हो, क्योंकि लड़ना नकारात्मक है और जो नकारात्मक है, वह न ऊर्ध्वमुख है और न अभिमुख। करना केवल यह है कि जहाँ एक दीप है, वहाँ दूसरा भी रखना है और जो एक मुख का उसे चार मुख का करना है। प्रकाश आवृत्त बढ़ा दें तो अंधकार की सीमाएं स्वतः संकुचित हो जायेंगी। प्रकाश को अंधकार से भय नहीं है, क्योंकि अंधेरे के विस्तार से या घनत्व से आज तक कोई दीप नहीं बुझा-यह बड़ा अटपटा सत्य है। दीप जब भी बुझे हैं स्नेह तथा संरक्षण के अभाव में ही बुझे हैं। यह अभाव न रहे-इतनी जागरूकता जीवन का दायित्व भी है और उसकी अनिवार्यता भी है। रक्षाबंधन कथानक का यही मूल मंत्र है, जो आर्यिकाजी ने सहज शैली में निरूपित किया है। इस प्रकार अनेक कथानकों को अपने में समेटे हुए यह "भक्ति" नामक पुस्तक आबाल-गोपाल के लिए उपयोगी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५००] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पुरुदेव नाटक समीक्षिका-श्रीमती रूबी जैन, १२६७/३४-सी, चण्डीगढ़। TUI विद्वत्शिरोमणि सिद्धहस्त लेखिका, ज्ञान की सरिता, सरस्वतीपुत्री गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित "पुरुदेव नाटक" भरत, वामन, कालिदास से चली आ रही नाट्य परम्परा का निर्वाह करता है। पुरुदेव नाटक तीन अंकों में है। नाटक का कथानक पौराणिक है और यह जैन पौराणिक चरित काव्यों की परिपाटी का निर्वाह करते हुए भगवान् ऋषभदेव के चरित के विभिन्न पहलुओं एवं तत्कालीन, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दशाओं पर प्रकाश डालता है। नाटक का प्रारंभ मंगलाचरण से होता है। जिसमें सूत्रधार के द्वारा-"पुरुदेव नाटक" के शुभारम्भ की सूचना दी जाती है। सर्वप्रथम इन्द्र अयोध्या आकर भगवान् ऋषभदेव के गर्भ-कल्याणक महोत्सव को मनाता है। वह भरतक्षेत्र में अयोध्या नगरी का निर्माण व नाभिराजा व मरुदेवी के सुन्दर महल का निर्माण करता है और माता की सेवा में श्री देवी आदि बहुत-सी देवियाँ नियुक्त कर स्वर्ग लोक चला जाता है। गर्भ कल्याणक के ९ माह पश्चात् भगवान् का जन्मकल्याणक अयोध्या आकर मनाता है। इन्द्र भगवान् को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से प्रभु का अभिषेक कर ऋषभदेव व पुरुदेव दो नामों से अलंकृत करता है। ८३ लाख वर्ष पूर्व में आयु पूरी हो जाने पर नीलांजना के नृत्य को देखकर प्रभु को वैराग्य हो जाता है और वे वन में जाकर देवताओं के साथ जिनधर्म की दीक्षा धारण करते हैं। इन्द्र और सभी देवतागण प्रभु का दीक्षा कल्याणक मनाकर स्वर्ग लोक वापस चले जाते हैं। क्रमशः भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने पर भगवान् के समवसरण की रचना स्वयं इन्द्र देव करते हैं, जिसमें उनकी पुत्रियाँ ब्राह्मी तथा सुंदरी जिनधर्म की दीक्षा ग्रहण करती हैं। भरत, बाहूबली और सभी पुत्र समवसरण में जाते हैं। भरत को पुण्योदय से चक्ररत्न की प्राप्ति होती है और वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर अयोध्या वापस आते हैं। उनके सभी भाई भरत के आधिपत्य को स्वीकार करते हैं, परन्तु बाहुबली एवं भरत के मध्य युद्ध छिड़ जाता है, लेकिन विजय श्री बाहुबली को प्राप्त होती है। तत्क्षण वैराग्य उत्पन्न होने पर बाहुबली मुनिदीक्षा धारण करते हैं और भरत चक्ररत्न सहित अयोध्या में प्रवेश करते हैं। अंततः ८४ लाख वर्ष की आयु पूर्ण हो जाने पर प्रभु को निर्वाण प्राप्त हो जाता है, इन्द्र प्रभु का मोक्षकल्याणक धूमधाम से मनाते हैं। पुरुदेव नाटक के अनुशीलन से पता चलता है तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक दशा बहुत अच्छी थी। राज्य में राजा सर्वोच्च था, उसकी राज्य कार्य में सहायता के लिए मंत्रीगण (अमात्य) होते थे। राज्य का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र होता था। समाज प्रायः तीन वर्षों में बंटा था-क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । बाद में भरत ने 'ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना की। मनुष्य चारों पुरुषार्थों व चारों आश्रमों का पालन करते थे। उस समय बहुपत्नी प्रथा थी। ऋषभदेव की यशस्वती व सुनन्दा दो रानियां थीं। उस समय समाज की आर्थिक दशा अच्छी थी। लोग धर्मपरायण थे व व्रत नियमों का पालन करते थे। लेखन शैलीपुरुदेव नाटक की शैली गवेषणात्मक है, कथानक यद्यपि पौराणिक एवं गंभीर है, परन्तु नाटक में सर्वत्र सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। वाक्य कहीं दुरूह तथा बहुत लम्बे नहीं हैं। पग-पग पर लिखित सुन्दर भजन नाटक में सरसता एवं सुंदरता प्रदान करते हैं। जैसे मणियों के पालने में आदि । भाषा यद्यपि संस्कृतनिष्ठ है, परन्तु सरल है। जैसे-- पुष्टिदेवी-का प्रेयसी विधेया? माता-करुणा दाक्षिण्यमपि मैत्री। नाटक का अंगीरस शांत है। नाटक में यमक, रूपक, अनुप्रास, विशेषोक्ति एवं अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है। छन्दों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ है। नाटक वैदर्भी रीति में लिखा है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०१ - 'लेखिका की प्रतिभा सम्पन्नता'पुरुदेव नाटक' इस शीर्षक से ही लेखिका की प्रतिभा सम्पन्नता स्पष्ट झलकती है। नाटक में लिखित गीत आर्यिका श्री की काव्य प्रतिभा की सुंदर झलक प्रस्तुत करते हैं। लेखिका ने अपनी काव्य प्रतिभा के बल पर ही नीरस एवं गंभीर विषय को इतना रोचक बनाया है। 'पुरुदेव नाटक' के प्रदर्शन में कहीं पर कोई त्रुटि न हो जाए, इसके लिए पग-पग पर निर्देश दिए गए हैं। जैसे-दीक्षा के दृश्य के समय मंच पर अंधकार कर भगवान् का चित्र दिखाना चाहिए। नाटक का परिमाण यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, परन्तु लेखिका के ज्योतिष, व्याकरण, अलंकार, छन्द, गणित एवं भौगोलिक ज्ञान का परिचय प्राप्त करते हैं। भौगोलिक ज्ञान जैसे-प्रथम अंक के सप्तम दृश्य हैं। प्रथम देव-भगवन्! इस मध्यलोक में कितने द्वीप हैं? - ऋषभदेव-पच्चीस कोड़ा-कोड़ी उद्धार पल्यों में जितने रोमखंड होते हैं, उतने ही द्वीप होते हैं। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करद्वीप, पुष्कर समुद्र आदि। असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र । नाटक के प्रारम्भ में हस्तिनापुर निर्मित जम्बूद्वीप का परिचय बड़ी शालीनता से दिया है। गणित-देव-भगवन्! गणित विज्ञान के मूल में कितने भेद हैं? ऋषभदेव-आठ भेद हैं। गुणकर, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, चिति या संकलित और व्युत्कलित अर्थात् शेष इसी प्रकार व्याकरण आदि के भी पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। नाटक को पढ़कर लेखिका के ज्ञान का इतना विस्तृत क्षेत्र देखकर गागर में सागर वाली लोकोक्ति चरितार्थ होती है। धरती के देवता समीक्षिका-डॉ. नीलम जैन, देहरादून वस्तुस्थिति की परिचायक उपयोगी पुस्तकपरमपूज्या, ज्ञानागार, गुणनिधान, न्यायप्रभाकर, गणिनी वात्सल्यमयी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी के रूप-स्वरूप में अल्प-सी दिखाई देने वाली इस लघुकाय पुस्तिका में सम्पूर्ण विश्व को नंदनकानन बनाने का सिद्धान्त-बीज स्थापित किया है, स्वर्ग में देवताओं की उपस्थिति तो सर्वमान्य है, परन्तु इस दुःख, शोक, क्रोध, धरती के देवता वैर, घृणा, अहंकार, आतंक से जलते-झुलसते संसार में देवत्व-कल्पना ही प्रतीत होता है, पूज्या मातुश्री ने इस संसार को ही कर्मस्थली रण क्षेत्र बताते हुए कहा है-रे मानव! तू ही तो सर्वोपरि देवता है, अनन्त सुख का कोष है, इन्द्र के भी भोग तुच्छ हैं तेरे सुख के सम्मुख और जो नररत्न देख लेते हैं, अन्तर्निहित अपना वैभव, आत्म-सुख वे तो बन जाते हैं राही आत्मकल्याण के। सदावाही, शाश्वत शान्ति, स्थायी विभूति पर उन्हीं का तो अधिकार रहता है, किन्तु एक विधान और आचरण संहिता अथवा प्रायोगिक धरातल होता है, एक मापदंड होता है यह जानने और पहचानने का कि इस धरा के वे देवता, वे मानव शिरोमणि हैं कौन? कैसा रूप-स्वरूप होता है इनका? इन्हीं सबको व्याख्यायित करते हुए माताजी कहती हैं "जो महापुरुष पंचेन्द्रियों की इच्छा समाप्त करके सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर देते हैं, वे ही मुक्तिपथ के साधक होने से सच्चे साधु कहलाते हैं।" ऐसे ये नराभरण सभी वर्गों, सम्प्रदायों से परे होते हैं माताजी वेदों, उपनिषदों, कुरान, बाईबिल के उदाहरण देकर स्पष्ट करती हैं कि ऐसे पुरुषोत्तम दिगम्बर होते हैं और सभी एकमत से इस मुद्रा को ही महान् बताते हैं। अनेक पीर, पैगम्बर, देव, भले ही किसी भी जाति कुलोत्पन्न हों, परन्तु उन्होंने नग्न मुद्रा को ही पूज्य बतलाया है। ऐसे दिगम्बर साधु घोर परीषहों को शांति से सहते हैं, महाव्रतों का पालन करते हैं तथा एक निश्चित आचरण संहिता का मन-वचन-काय से पालन करते हैं। ___ धरा पर यदि कुछ सार है तो यही दिगम्बर मुद्रा जो पंचमहाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह) पंच समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण एवं उत्सर्ग) पांच इंद्रिय निरोध, षट् आवश्यक, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, केशलोंच, स्थिति भोजन एवं एक भुक्त इन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२] नियमों का प्रतिदिन पालन करते हैं। बाईस परीषह सहन करते हैं, प्रणम्य होती है। इनका धरा पर विचरण सुख-समृद्धिदायी, शांतिवर्द्धक एवं लोकमंगलकारी होता है, इसीलिए कहते हैं 4 "पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छसि दुक्खपरिमोक्खं" यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो श्रामण्य (दिगम्बर साधुत्व) को स्वीकार करो। पूज्य मातुश्री जी कहती हैं— "ऐसे साधुओं को इन्द्र, देव और दानव भी नमस्कार करते हैं, यही कारण है कि इस धरती पर विचरण करते हुए ये धरती के देवता माने जाते हैं।" वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्रस्तावक के रूप में "युवामनीषी डॉ. अनुपम जैन ने पुस्तक की महत्ता और सामयिकता के संदर्भ में उचित ही लिखा है- "दिगम्बरव के संदर्भ में व्याप्त भ्रांतियों के निराकरण हेतु एवं वस्तुस्थिति के व्यापक प्रचार की दृष्टि से पुस्तक अत्यंत उपयोगी है।" सभी स्वाध्यायप्रेमी पुस्तक को पढ़ते ही जहाँ एक ओर दिगम्बर चरणों में स्वयं को प्रणमित पायेंगे, वहीं आत्मविश्लेषित करते हुए अपने दानवत्व को तिरोहित करते हुए देवत्व की ओर अग्रसर होंगे वन्दनीया, परमपावन मां- श्री के चरणों में कोटिशः वन्दामि । जैन হ3 লক शिक्षण पद्धति Jain Educationa International समीक्षक डॉ. राममोहन शुक्ल, सारंगपुर (म.प्र.) आधुनिक युग में विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के माध्यम से शिक्षण कार्य किया जा रहा है। इससे ज्ञान का विस्फोट तो हो रहा है, परन्तु नैतिक स्तर का ह्रास भी परिलक्षित है। विशेषतः जो नैतिक स्तर व धार्मिक जीवन कुछ वर्ष पहले विद्यार्थियों में पाया जाता था, वह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। धार्मिक अध्ययन या तो बंद होता जा रहा है या वह अधिकांश विद्यार्थियों को नीरस मालूम होता है, बालकों में प्राथमिक स्तर से प्रारंभ नीरसता का अहसास अंत तक उनमें बना रहता है। दुर्बोधता और नीरसता का बात से प्रायः कोई संबंध नहीं होता कि पढ़ने वाला बुद्धिमान् है या मंदबुद्धि । बचपन में हुआ यह प्रथम परिचय भय की या कम से कम विरक्ति की ऐसी गहरी छाप मन पर छोड़ जाता है कि इस विषय के बारे में जानने की उत्सुकता कभी नहीं जागती। दूसरे भी कुछ कारण हैं, जिनसे इस अज्ञान और अरुचि का भाव जीवन भर बना ही रहता है। ऐसी स्थिति में ग्रंथ में वर्णित विषय अवकाश में विद्यार्थियों में शिविरों के माध्यम से धर्माध्ययन की रुचि उत्पन्न करने की दिशा में सराहनीय प्रयत्न है वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का २७वां पुष्प 1 " शिक्षण पद्धति" इस पुस्तिका में लेखिका ने बहुत परिश्रम से भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट पाँच शिक्षाएँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को देश व राष्ट्रहित में आवश्यक निरूपित किया है। पुस्तक में बाल विकास भाग १, २, ३, ४ के पाठों की पद्धति सरल एवं रोचक शैली में लिखी गयी है। जैन धर्म की जानकारी न रखने वाले पाठक भी आसानी से जिन्हें पढ़ व समझ सकें, ऐसी पुस्तक बहुत कम देखने को मिलती है और यह पुस्तक उस तरह की है। इस पुस्तक में जिस पुस्तक की पाठ शैली दी गयी है, वह पुस्तक भी साथ में पढ़ना अनिवार्य है। अध्यापक आदि विद्वान् वर्ग और विदुषी महिलाएं बाल विकास, छहढाला, द्रव्य संग्रह आदि पुस्तकों को पढ़ाते समय सामान्य अर्थ का ज्ञान कराकर, विशिष्ट अर्थ को समझाने के लिए यह पुस्तक सर्वोत्तम है। छहढाला की छहों ढालों में प्रत्येक पद्धति का विवेचन भी पुस्तक में किया गया है। इस पुस्तक में तीसरा ग्रंथ द्रव्य संग्रह पर दृष्टि डाली गयी है। द्रव्य संग्रह जैन वाङ्मय का लघुकाय एक ऐसा ग्रंथ है, जिसे सभी स्वाध्याय प्रेमी समझना चाहेंगे, क्योंकि द्रव्यों का स्वरूप समझे बिना आगम की कोई बात समझ में नहीं आ सकती। पुस्तक इतनी सरल और रोचक शैली में लिखी गयी है कि कहानी की तरह पढ़ी जा सके। पुस्तक कई दृष्टियों से सराहनीय है, क्योंकि शिक्षक वर्ग के लिए यह शिक्षण पद्धति लघु पुस्तिका रूप में अध्यापन में सहायक सिद्ध होगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में ऐसे प्रयास हों अथवा इस ओर ऐसी पुस्तकों का भाषान्तर हो, यह बहुत जरूरी है। यदि भाषान्तर को साथ-साथ ही प्रकाशित करवायें तो यह एक सार्थक पहल होगी। - For Personal and Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०३ अभिषेक पूजा समीक्षिका-ब्र. कु. बीना जैन (संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी) "अभिषेक पूजा" नामक प्रस्तुत संस्करण में पू. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित अभिषेक पाठ का हिन्दी में अनुवाद करके अत्यंत रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। इसमें पू. माताजी ने शुरू में पूजामुखविधि दी है। इसको करने से श्रावक की सामायिक भी हो जाती है और पूजन भी। इस विधि को करने से स्वस्ति-स्वस्ति आदि प्रचलित पूजा की प्रारम्भ विधि करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। माताजी ने इसमें पूजा मुखविधि का हिन्दी अनुवाद भी किया है और पंचामृत अभिषेक पाठ का भी हिन्दी अनुवाद किया है, इसमें जो शांतिधारा दी है। उसको भी बहुत सरल रूप में वर्तमान के संकटों को दूर करने के लिए नया रूप प्रदान किया है। इसमें नव देवता पूजा है, इसकी जयमाला में एक पंक्ति आती है। शैर छन्द नव देवताओं की जो नित आराधना करें। वे मृत्युराज की भी तो विराधना करें। मैं कर्मशत्रु जीतने के हेतु ही जनँ। सम्पूर्ण ज्ञानमती सिद्धि हेतु ही भनूँ। अर्थात् जो नव देवताओं की आराधना करता है, वह मृत्युराज को भी जीत सकता है। इसीलिए ज्ञानमती माताजी ने कर्मशत्रु को जीतने के लिए, मुक्तिपथ को प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र देव से इन पंक्तियों में प्रार्थना की है। इसी प्रकार माताजी ने सिद्ध पूजा बनायी, उसमें भी सरल और सुन्दर वर्णन किया है। पूजा की स्थापना में एक ऐसी पंक्ति लिखी है, जिसे पढ़कर मन प्रसन्नता से भर जाता है। सिद्धि के स्वामी सिद्धचक्र, सब जनको सिद्धी देते हैं। साधक आराधक भव्यों के भव-भव के दुःख हर लेते हैं। निज शुद्धात्मा के अनुरागी, साधूजन उनको ध्याते हैं। स्वात्मैम सहज आनंद मगन होकर वे शिवसुख पाते हैं। अर्थात् सिद्धी के स्वामी सिद्ध भगवान् सभी को सिद्धि प्रदान करते हैं और सभी भव्य जीवों के दुःखों का हरण करते हैं। पू. माताजी ने इन दोनों पंक्तियों में कितना सुंदर अर्थ संजोया है कि जो अपनी आत्मा से अनुराग करने वाले साधुजन हैं, वे उनका ध्यान कर और अपनी आत्मा में मग्न होकर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। इसी स्थापना में वे आगे की पंक्तियों में दोहा छंद लिखती हैं सिद्धों का नित वास है, लोक शिखर शुचि धाम । नमूं नमूं सब सिद्ध को, सिद्धे करो मम काम ।। मनुज लोक भव सिद्धगण, त्रैकालिक सुखदान । आह्वानन कर मैं जनँ, यहाँ विराजो आन ॥ लोक शिखर पर सिद्धों का हमेशा पवित्र धाम है और वहाँ पर सिद्धों का हमेशा वास रहता है। उन सिद्धों को नमस्कार हो, जो हमारे काम को सिद्ध कर देते हैं। यहाँ पर सिद्ध भगवान की आह्वानन स्थापना और सन्निधीकरण में से ये पंक्ति ली हैं। जो कभी भूली नहीं जा सकती हैं। इसी प्रकार भगवान बाहुबली की पूजन में भी एक पंक्ति ऐसी है, देखिए पृ. ४५ पर : शंभु छन्द-प्रभु एक वर्ष उपवास किया हुई कायबली ऋद्धी जिससे। बाहुबली भगवान ने एक वर्ष तक ध्यान किया, तब उन्हें ऋद्धियाँ प्राप्त हुई-अणिमा महिमादिक ऋद्धियाँ प्रकट हुईं । ऐसे ही पू. माताजी ने बाहुबली भगवान के चरण सानिध्य में १५ दिन तक ध्यान किया तो उनके ध्यान में जंबूद्वीप आया, जो आप साक्षात् रूप में देख रहे हैं। इसी प्रकार श्री शांति कुंथु Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४] अर तीर्थंकर पूजा में भी एक पंक्ति है, जो आप देखिए - ५२ पृ. पर: दोहा हस्तिनापुर एक ऐसा महान् तीर्थक्षेत्र है, जहाँ पर शांति, कुंधु, अरनाथ तीर्थंकर के चार-चार कल्याणक हुए हैं। ऐसे ही महावीर भगवान्, जिनके पाँच नाम हैं, आप लोगों ने भी सुना होगा – सन्मति, महावीर, वीर, अतिवीर, वर्धमान। ये महावीर प्रभु गुणों के सागर हैं और इनकी माता का नाम त्रिशला है। इनके गुणों का व्याख्यान आप लोगों ने सुना होगा और पढ़ा भी होगा। अब आप देखिए कि इस पुस्तक की आखिरी पूजा है। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला निर्वाण क्षेत्र पूजा, इसकी जयमाला में चार लाइन ऐसी हैं कि जिसको यह नहीं मालूम हो कि कौन से तीर्थंकर भगवान् कहाँ से मोक्ष गये हैं, वे भी इस पूजा को करके जरूर बता देंगे - देखिए पृ. ७२ पर चौबीस शांति कुंथु अरनाथ के गर्भ जन्म तप ज्ञान । हस्तिनागपुर में हुए, चार कल्याण महान् । Ade अर्थात् पहले आदिनाथ भगवान् कैलाश पर्वत से मोक्ष गये हैं। नेमिनाथ गिरनार से वासुपूज्य चंपापुर से और महावीर भगवान पावापुर से मोक्ष गये हैं। और बाकी के तीर्थकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गये हैं उन सबको मेरा कोटि-कोटि नमन इस पूजा के बाद कुछ भगवानों के अर्घ्य है, फिर पुस्तक के अन्त में पूजा अन्त्य विधि है, इसको करने से प्रातः काल की सामायिक हो जाती है। नित्यप्रति जिनेंद्रदेव के अभिषेक पूजन हेतु यह पुस्तक अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 1 इसमें जो अभिषेक से पूर्व पूजामुखविधि एवं पूजा अन्त्य विधि दी गई है, ये दोनों विधि पूज्यपाद स्वामी रचित अभिषेक पाठ के प्रारंभ और अंत में दिये गये अभिप्राय अनुसार ही हैं। यह पूजामुखविधि और अन्त्यविधि श्रीनेमिचन्द्र कृत प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में भी इसी प्रकार से पाई जाती है। अतः यह विधि शास्त्रसम्मत प्रामाणिक है। पूजा के आदि अंत में इसे अवश्य करना चाहिए प्रतिदिन पूजा करने वाले श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह अत्यंत उपयोगी पुस्तक है, जंबूद्वीप हस्तिनापुर से मंगाकर आप इससे लाभ प्राप्त करें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है। चौबीस तीर्थंकर नमो ऋषभ कैलाश पहारं, नेमिनाथ गिरनार निहार, वासुपूज्य चंपापुर बंदी, सन्मति पावापुर अभिनंदी। Jain Educationa International समीक्षक डॉ. प्रेमचंद रांवका, जयपुर भारतीय धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति की दो प्रमुख विचारधाराएं हमें आदिकाल से मिलती हैं। एक विचारधारा ब्रह्मवादी रही तो दूसरी पुरुषार्थवादी - श्रमणधारा रही, जिसमें आत्मोत्थान हेतु शुद्धाचरण को प्रमुखता दी गयी। ये दोनों वैदिक एवं श्रमण विचारधाराएं इस राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास में अति प्राचीन काल से निरंतर प्रवाहमान रही हैं। इस राष्ट्र के बौद्धिक स्तर को बनाए रखने में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने 'संस्कृति' के चार अध्याय में लिखा है कि बौद्धधर्म की अपेक्षा जैन धर्म बहुत अधिक प्राचीन है, बल्कि यह उतना ही पुराना है, जितना वैदिक धर्म जैन धर्म की परंपरा अत्यन्त प्राचीन है। भगवान महावीर तो अंतिम तीर्थंकर थे, जिनकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है। इनसे पूर्व तेतीस तीर्थकर और हो चुके हैं। इनमें ऋषभ प्रथम तीर्थंकर थे जिन्हें आदिनाथ भी कहा जा सकता है। 1 1 जैन आगमों के अनुसार मनु चौदह हुए हैं, उनमें अंतिम मनु नाभिराय थे, उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव हुए जिन्होंने कर्म की महत्ता प्रतिपादित की। भारतीय कलाओं में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत एवं पुराणों में अनेक प्रसंगों पर इनका उल्लेख मिलता है। भागवत् में तो विस्तार से ऋषभदेव के चरित्र के साथ उनके शतपुत्रों में ज्येष्ठ भरत तथा उनके नाम पर भारत देश का उल्लेख है 1 ऋषभदेव के पश्चादवर्ती तीर्थकरों में भगवान नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान महावीर तो भारतीय इतिहास में बहुश्रुत है, परन्तु मध्यवर्ती तीर्थकरों के विषय में जैनेतर इतिहास मौन है। For Personal and Private Use Only . Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०५ जैनागम, समाज एवं कतिपय इतिह सज्ञ विद्वानों को छोड़कर अभी तक भी सामान्य लोक समुदाय अंतिम तीर्थंकर भ. महावीर को ही जैन धर्म का संस्थापक मानता है। यह विडम्बना तर और बढ़ जाती है, जब पाठ्य-पुस्तकों में भी ऐसा लिखा जाता है। इससे जैन धर्म की प्राचीनता पर संदेह होने लगता है। इस परिप्रेक्ष्य में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की लघु पुस्तिका "चौबीस तीर्थंकर" अपरिहार्य कृति है, जो उक्त भ्रामकों का निराकरण करती है। भारतीय अध्यात्म-परंपरा में चौबीस तीर्थंकर प्रत्येक मुमुक्षु के लिए परम आराध्य हैं। इनकी पावन कथा के पठन, श्रवण एवं मनन से मानव-मात्र का परिष्कार होता है। महापुराण आदि ग्रंथों में चौबीस तीर्थंकरों का विशद वर्णन उपलब्ध होता है, परन्तु आज के इस कम्प्यूटर युग में सर्वत्र ही लघु मार्ग (Short Cut) की अपेक्षा से जन-सामान्य के अवबोध की दृष्टि से जिज्ञासुओं की पूर्ति हेतु आर्यिका श्री ने उक्त पुस्तक के निर्माण से एक महती आवश्यकता की पूर्ति की है। इस लघु पुस्तिका में पूज्य आर्यिका श्री ने अपने उत्कृष्ट ज्ञानाराधना से प्राप्त नवनीत को इस तरह प्रस्तुत किया है कि सर्व-सामान्य पाठक चौबीसों तीर्थंकरों के पावन चरित्र को पढ़कर आत्म-हित की प्रेरणा प्राप्त करता है। पुस्तक में २४ तीर्थंकरों के अतिरिक्त ग्यारह अंग, चौदह पूर्व, त्रेसठ शलाका पुरुषों के नाम, १४ कुलंकरों एवं वर्तमान चौबीसी का वर्णन भी दिखाया गया है, जो अत्यंत उपयोगी है! बहुभाषाविद् विदुषी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपनी अनवरत संयमाराधना, ज्ञानाराधना के साथ साहित्य-साधन में लगी रहती हैं। उनका विशाल परिमाण में सृजित साहित्य-भारतीय वाङ्मय के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उल्लेख्य है। आपका बहु आयामी व्यक्तित्व श्रावकों एवं श्रमणों दोनों के लिए प्रेरणा पुञ्ज है। उनके महनीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रति हम नतमस्तक हैं, वे वंदनीय हैं। जैन महाभारत समीक्षिका-श्रीमती सुमन जैन, कंचन बाग, इंदौर। मलिक आधिकाराम श्रीamarathe भारत में वैदिक और जैन संस्कृति प्राचीन काल से विद्यमान रही है। इस देश में जन्मे महापुरुषों को दोनों संस्कृतियों में आदरपूर्वक चित्रित किया गया है, जहाँ वेद एवं पुराणों में भगवान ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ Sywwications आदि का चरित अत्यन्त आदर के साथ उल्लेखित किया है, वहीं जैन संस्कृति में ६३ शलाका पुरुषों के रूप जैन महाभारत में मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं योगिराज कृष्ण को आदर सहित चित्रित किया है। पद्मपुराण, पउमचरिउ आदि में राम और कृष्ण के चरित्र की विस्तार से चर्चा की गई है। समीक्ष्य कृति जैन महाभारत कथानक का मूल स्रोत है। महाभारत की कथा जैन परम्परा में वैदिक परंपरा से कुछ भिन्न है। उदाहरण के तौर पर वैदिक परंपरा में द्रौपदी के पाँच पति बताये गये हैं। जबकि जैन परम्परा में यह उचित नहीं माना है। पाँच पति की कल्पना भारतीय संस्कृति के अनुकूल नहीं है और यह मात्र कल्पना ही है। __ हमारे पुराणों में अटूट सामग्री बिखरी पड़ी है, जो यदि नई पीढ़ी के सामने सही ढंग से प्रस्तुत की जाय दिवाब मेव त्रिलोक जोयाबी तो नई पीढ़ी में धर्म और संस्कृति के प्रति निष्ठा, श्रद्धा और नैतिक आस्था जाग्रत हो सकती है। पूज्य आर्यिका traige मेरा 3000 ज्ञानमतीजी ने प्रथमानुयोग के शास्त्रों का गहन अध्ययन कर प्रामाणिकता के साथ सरल और सुबोध शैली में उपन्यास एवं कहानियों के माध्यम से जो अनेक रचनाएं प्रस्तुत की, उसी श्रृंखला की एक कड़ी जैन महाभारत है। इसे रोचक और सहज रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी यह कृति पाठक जगत् के लिए सराहनीय प्रयास है। मैं अत्यन्त विनयपूर्वक यह आशा करती हूँ कि यह कृति जैन जगत् की ही नहीं, मानव मात्र के लिए उपकारक होगी। क्या ही अच्छा हो कि विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कराकर इसका व्यापक और निर्दोष मुद्रण कराया जाये। कुछ चित्रों का संयोजन कृति में किया जाना इसकी रोचकता को और बढ़ाएगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला नारी आलोक-भाग-१,२ समीक्षिका-श्रीमती कल्पना जैन, भोपाल (म.प्र.) कथापूर्ण शिक्षाकुंजसंस्कार और संस्कृति का संरक्षण और संवर्द्धन करने में नारी की सदैव प्रमुख भूमिका रही है। धर्म और विश्वासों की सुरक्षा नारी ने कठोर तपस्या का पालन कर और व्रत-उपवासों की प्रतिमूर्ति बनकर किया है। चिन्तन और सृजन की ऊँचाइयों को छूने वाले महापुरुषों को जन्म देने वाली के रूप में ही नारी प्रसिद्ध नहीं है, अपितु महापुरुषों के पूर्ण विकास की यात्रा में भी नारी आर्यिका जैसे श्रेष्ठ पद को धारण कर उनके साथ गतिशील हुई है। अतः ज्ञान और चरित्र, धर्म और दर्शन, आचरण और व्यवहार, व्यवस्था और संचालन आदि अनेक क्षेत्रों में विभिन्न युगों में नारी ने कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं। वर्तमान में जो कतिपय नारी आदर्श व्यक्तित्व उभर कर सामने आये हैं, उनमें पूज्या गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी माताजी प्रमुख हैं। ___आर्यिका-रत्न परमपूज्या ज्ञानमती माताजी केवल विदुषी जैन साध्वी ही नहीं, अपितु उनका सृजनशील लेखकीय व्यक्तित्व ही मुखर हुआ है। उन्होंने केवल धर्म और दर्शन के कठिन ग्रंथों का लेखन ही नहीं किया, अपितु बालकों और नारी जगत् के नैतिक उत्थान हेतु उन्होंने ज्ञानवर्द्धक और आकर्षक ललित साहित्य भी लिखा है। उनके द्वारा लिखित जैन बाल-भारती (भाग-१,२,३) बाल विकास (भाग-१,२,३,४) एवं नारी आलोक भाग-१ एवं २ प्रसिद्ध रचनाएं हैं। यहाँ नारी आलोक के प्रतिपाद्य विषय और प्रस्तुतिकरण पर ही किंचित् विचार अभिव्यक्ति प्रस्तुत की जा रही है। 'नारी आलोक' नामक ये पुस्तिकाएं वास्तव में वे बोधकथाएं हैं, जो जीवन के कंटकाकीर्ण मार्ग में पाथेय और प्रकाश का कार्य करती हैं। इन लघु, किन्तु सारगर्भित पुस्तकों से नारी जगत् का गौरव बढ़ा है। ___ नारी आलोक भाग एक में महासती चंदना, सती सुलोचना, रानी चेलना, नागश्री, अहिल्या, द्रौपदी, आदि जैन संस्कृति में प्रतिष्ठित नारियों के जीवन, चरित्र का सहज और सुबोध शैली में सुंदर चित्रण किया गया है। यह पुस्तक महामंत्र णमोकार के महत्त्व और स्वरूप को उद्घाटित करती है तो दूसरी ओर जैन दर्शन की कई मूलभूत बातों की जानकारी भी इससे होती है। गुरुओं की भक्ति आत्मा के स्वरूप को दर्शाने वाली है। गुरु के महत्त्व को प्रकट करते हुए पुस्तक की लेखिका पूज्या माताजी ने यह ठीक ही कहा है "सदैव गुरुओं की भक्ति करना चाहिए। गुरु अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं, इसलिए दीपक हैं, सबका हित करते हैं, इसलिए बंधु हैं और संसार-समुद्र से पार करने वाले होने से सच्चे कर्णधार हैं। अतः तन, मन, धन से ऐसे सच्चे गुरुओं की सेवा, शुश्रूषा, आराधना, भक्ति आदि करते रहना चाहिए।" (पृ. १५) ___यह पुस्तक बालिकाओं के जीवन को संवारने वाली है। गृहस्थी के उपवन में केवल पुत्र ही नहीं, अपितु पुत्रियां भी मूल्यवान् रत्न की तरह कीमती हैं। आदिपुराण का उद्धरण देते हुए यहाँ कहा गया है कि समुद्र ही केवल रत्नाकर नहीं है, अपितु जिनके घर में कन्या रूपी रत्न उपस्थित है, वे माता-पिता भी रत्नाकर की तरह सुशोभित होते हैं। पूज्या माताजी ने आधुनिक नारी जगत् को हृदयग्राही शब्दों में जो जीवनयापन करने का उद्बोधन दिया है, वह आज अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष क अवसर पर नारी समाज के लिए दीक्षान्त भाषण की तरह है। यथा-"प्रिय बालिकाओ, फिर भी तुम सभी को अपना इस लोक और परलोक सर्वोत्कृष्ट बताने का ही पुरुषार्थ करना चाहिए। सुनो, तुम सब मिलकर महिला समाज को संगठित करो। दहेज प्रथा का विरोध पुत्रों की माताओं से कराओ, साहस-पूर्वक धर्म मार्ग में दृढ़ रहो, अपने सम्यक्त्व की और शीलरत्न की रक्षा करके परलोक में स्त्री पर्याय को जलांजलि दे दो। देवपूजा और गुरुभक्ति को अपना दैनिक कर्त्तव्य समझो, नित्य ही स्वाध्याय करो, घर में स्वस्थ और प्रसन्न वातावरण निर्मित करने के लिए अच्छी कथाएं सुनाओ, स्वयं प्रसन्नचित्त रहकर सबको प्रसन्न रखो। ब्याह के बाद जिस घर में पहुँचो, उसे स्वर्ग सदृश बनाने की चेष्टा करो, कलह-अशांति को छोड़कर धर्म की रक्षा में रानी चेलना का उदाहरण सामने रखो। अपने पति को यदि श्रेणिक समक्ष धर्मनिष्ठ न बना सको तो कम से कम आप उनके साथ अधार्मिक मत बनो।" (पृ.६५) नारी आलोक के दूसरे भाग में जैन परम्परा की प्रतिष्ठित नारी रत्नों के जीवन प्रसंगों को आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस उपयोगी पुस्तिका से ज्ञात होता है कि नारियां प्रत्येक युग में प्रेरणादायक और पुरुष की सहचरी रही हैं। जैन धर्म के इतिहास में जिन प्रमुख नारियों की भूमिका रही है, उनमें से अधिकांश जीवन प्रसंग इस पुस्तिका में प्रस्तुत किये गए हैं। नारी आलोक का यह द्वितीय भाग प्रकारान्तर से जैन धर्म दर्शन की सभी महत्त्वपूर्ण बातों को भी हृदयंगम करा देता है। उपवास के गुण के विवेचन में सती सीता का उदाहरण प्रेरणादायक है। मानव जीवन का सार स्पष्ट करते हुए पूज्या Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०७ माताजी ने यह ठीक ही कहा है कि "प्रत्येक प्राणी का यह कर्त्तव्य है कि जाति मद आदि को छोड़कर मुनि आर्यिका आदि की निंदा से दूर रहते हुए भी अपने में सम्यग्दर्शन को प्रकट करे। पुनः ज्ञान की आराधना करते हुए अणुव्रतों का पालन करे और शक्ति हो तो महाव्रती मुनि या आर्यिका बनकर अपने संसार की परम्परा को घटाने का प्रयत्न करे, यही मानव जीवन का सार है।" इस भाग में अनेकान्त, तप सम्यक्दर्शन, जीव दया, ध्यान आदि अनेक जीवन-मूल्यों पर कथोपकथन शैली में विचार व्यक्त किये गये हैं। व्यक्तित्व के विकास में गुण-ग्राहकता जितनी उपयोगी है,दोषारोपण की प्रवृत्ति उतनी ही हानिकारक है। दोषारोपण करने वाला व्यक्ति ज्ञानी नहीं हो सकता और ज्ञान के अभाव में वह जिनमत का अनुयायी भी नहीं कहा जा सकता। (पृष्ठ ६४) दोषारोपण से बचने पर ही साधक का ध्यान स्वाध्याय की ओर हो सकता है। स्वाध्याय का सार जीवन में जीव दया के पालन के रूप में प्रस्तुत होती है। जीव दया से युक्त व्यक्ति ही रात्रि भोजन त्याग का पालन कर सकता है। त्याग की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे विकसित करनी चाहिए। इस पुस्तक में जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण विषय ध्यान-साधना पर सूक्ष्म जानकारी दी गई है। एक ओर निर्मल ध्यान में जहाँ आत्मस्वरूप की जानकारी , संभव है, वहाँ सांसारिक जीवन के विभिन्न तनावों से मुक्ति भी मिल सकती है। इन दार्शनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हुए विदुषी आर्यिकाजी ने नारी व्यक्तित्व के विकास की भी अनेक बातें इन पुस्तकों में कही हैं। वे तपस्वी जीवन को व्यतीत करने वाली आर्यिकाओं को जितना महत्त्वपूर्ण मानती हैं, उतना ही गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने वाली श्राविकाओं को भी। क्योंकि उनका मानना है, अच्छी श्राविका साधक जीवन और गृहस्थ जीवन दोनों के निर्वाह के लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करती है। नारी आलोक में प्रस्तुत इन विभित्र कथाओं में माताजी ने शीलवती नारियों के महत्त्व को विभिन्न उदाहरणों से उजागर किया है। चरित्रयुक्त नारियाँ ही बच्चों को सुसंस्कारित कर सकती हैं। ऐसी श्राविकाओं को सदैव आर्यिकाओं से सम्पर्क रखना चाहिए। माताजी ने निष्कर्ष रूप में कहा है कि ___ “आज भी चन्दनबाला, अनन्तमती जैसी कन्याएं हैं। सीता, मैना, मनोरमा जैसी पतिभक्ता हैं, चेलना जैसी कर्तव्यपरायणा हैं और बाह्मी, सुंदरी के पदचिह्नों पर चलने वाली आर्यिकाएं हैं। हमारी बहनों को उनसे शिक्षा लेनी चाहिए। प्रतिवर्ष एक माह नहीं, तो कम से कम एक सप्ताह उनके सानिध्य में जाकर उनसे कुछ सीखना चाहिए।" (पृष्ठ-१०६) इस प्रकार पूज्या माताजी द्वारा लिखित ये नारी-आलोक कथापूर्ण शिक्षापुंज है। पतिव्रता समीक्षिका-श्रीमती त्रिशला जैन, लखनऊ संत नारी का बलिदान कभी इस जग में व्यर्थ नहीं जाता। उनके गौरव गरिमा से ही हर देश नया गौरव पाता ॥ ब्राह्मी, सुंदरी, चंदनबाला, अंजना, सीता, द्रौपदी और मैना संदरी आदि का इतिहास किसी से छिपा नहीं है। इन सतियों ने धर्म और आत्मबल के सहारे अपने सतीत्व की रक्षा की है। प्रस्तुत पुस्तक "पतिव्रता" में पूज्य माताजी ने सती मैनासुंदरी का जीवन चित्रण बड़े ही रोमांचक ढंग से प्रस्तुत किया है। मैनासुंदरी ने जैनगुरु (आर्यिका) के पास रहकर अध्ययन किया, जिससे उसे कर्मसिद्धान्त पर अटल विश्य हो गया। जब उसके पिता ने उसे इच्छानुसार वर चुनने को कहा, तब उसने कहा, "पिताजी आप चाहे जिसके साथ विवाह कर दें, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, वही होगा।" पिता ने क्रोध में कहा कि यह सभी उत्तमोत्तम सुख सामग्री क्या तुझे तेरे कर्म से मिली है। तब मैना ने साहस कर क्या कहा । देखिए पृ.-२१ पर कर्मसिद्धांत की प्रमुखता "पिताजी! आप नाराज न होइए। मैं जो आपके घर में जन्मी हैं, तो यह सब मेरे पूर्व के पुण्य का ही फल है। अन्यथा मैं किसी गरीब या भिखारी के यहाँ जन्म ले लेती। मेरी गुर्वानी आर्यिकाजी ने मुझे कर्म-सिद्धान्त को अच्छी तरह से पढ़ा दिया है। आप क्या और मैं क्या? इस संसार में तीर्थकर भी कर्म के ही आधीन रहते हैं, तभी तो भगवान् ऋषभदेव को छह महीने तक आहार नहीं मिला था ....।" जब राजा ने कुष्ठ रोगी श्रीपाल के साथ मैनासुंदरी का विवाह निश्चित कर दिया और मैना सुंदरी से कहा तू मेरा कहना मान ले, अन्यथा मैं तेरे भाग्य की कड़ी परीक्षा लेउँगा। तब भी मैना ने धैर्य नहीं छोड़ा और दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] वार ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ___ "पिताजी! आपने जो भी निर्णय लिया है, मुझे स्वीकार है। मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि शुभ कर्म के उदय से अनिष्ट वस्तु भी इष्ट हो जाती है और अशुभ कर्म के उदय से इष्ट भी अनिष्ट अशोभन हो जाते हैं . . . .।" (पृ.-२७) मैना सुंदरी और श्रीपाल का विवाह हो जाता है। पतिव्रता नारी का कर्त्तव्य कितने सुंदर और स्पष्ट शब्दों में पू. माताजी ने पृ. २९ पर खींचा है, जिसे पढ़ प्रत्येक पतिव्रता नारी अपना जीवन आदर्श बना सकती है "मैना सुंदरी अपने पति की सेवा में अहर्निश लगी रहती थी। घाव धोकर औषधि लगाती, पट्टी बांधती और प्रकृति के अनुकूल भोजन कराती थी। वह रंचमात्र भी ग्लानि नहीं करती थी। कभी-कभी अनेक तत्त्व चर्चा और धर्म कथाओं के द्वारा पति का मन अनुरंजित किया करती थी। कभी-कभी रात्रि में भी नींद न लेकर सेवा में संलग्न रहती थी।" मैना सुंदरी एक दिन मुनिराज से कुष्ठरोग का निवारण कैसे हो, इसके लिए उपाय पूछती है, तब मुनिराज आष्टान्हिक पर्व में नंदीश्वर व्रत करके सिद्धचक्र पाठ करने को कहते हैं। तब मैना पूर्ण विधिपूर्वक व्रत पाठ कर जिनगंधोदक से पतिदेव का कुष्ठरोग ठीक कर देती है। साथ में ७०० वीर योद्धाओं का भी कुष्ठरोग ठीक हो जाता है। मैना सुंदरी के माता-पिता भी श्रीपाल को स्वस्थ जानकर प्रसन्न हो जाते हैं। लेकिन एक दिन श्रीपाल को चिंता होती है कि मुझे राजमाता के नाम से सभी जानते हैं, मेरे पिता का कोई नाम नहीं। तब वह अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त करने के लिए अन्यत्र जाना चाहता है, मैना सुंदरी भी साथ चलने का अनेक प्रकार से अनुरोध करती है, किन्तु श्रीपाल उसकी बात नहीं स्वीकारता। उस समय पतिव्रता मैना अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा साथ में रख देती है। देखिए पृ. ४३ पर "हे नाथ! यदि आप बारह वर्ष के पूरे होने पर अष्टमी को नहीं आए तो नवमी के दिन ही प्रातः मैं आर्यिका की दीक्षा ले लूंगी।" श्रीपाल के जाने का निर्णय पक्का हो जाने पर मैना का मन नहीं मानता है कि पति को कहीं प्रवास में विघ्न नहीं आने पाए, इसलिए शिक्षास्पद वचन कहती है। यद्यपि आप स्वयं प्रबुद्ध हैं, फिर भी मेरी यही प्रार्थना है कि प्रवास में आप कहीं पर क्यों न रहें। देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति को अपने हृदय से दूर न करें और सतत सिद्धचक्र मंत्र का स्मरण करते रहें। .... चाटुकार लोगों पर विश्वास न करें और अपने कुल की मर्यादा के विरुद्ध कोई भी कार्य न करें। (प.-४४)। और फिर श्रीपाल के प्रवास में १२ वर्ष व्यतीत हो जाते हैं। इस बीच वे आठ हजार रानियों के स्वामी हो जाते हैं। १२वें वर्ष का अंतिम दिन आ जाता है, तब रात्रि के अंतिम प्रहर में पतिव्रता मैना सुंदरी अपनी सास को अपनी प्रतिज्ञा याद दिलाती है। "हे माताजी! आज बारह वर्ष बीत चुके हैं। आपके पुत्र आज तक नहीं आए हैं। उनसे मैंने कह दिया था कि यदि आप कही हुई अपनी निश्चित अवधि तक नहीं आयेंगे तो मैं आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लूंगी। इसलिए आप मुझे अब आज्ञा प्रदान करें, मैं प्रातःकाल ही दीक्षा लेउँगी। (पृ.-६९) । लेकिन श्रीपाल जो कि द्वार पर खड़े सब कुछ सुन रहे थे, प्रकट होकर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। मैना सुंदरी और श्रीपाल का मिलन पाठक के हृदय को एक अपूर्व आनंद से भर देता है। सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ जाती है। अब श्रीपाल अपनी बाहुबल और अतुल सेना के बल पर अपने चाचा वीरदमन को भी जीतकर अपना खोया राज्य प्राप्त कर लेते हैं। कोटिभर श्रीपाल महामंडलेश्वर राजा के नाम से प्रसिद्ध हो जाते हैं। एक दिन बादलों में सहसा बिजली चमकी और क्षण भर में लुप्त हो गयी, जिसे देख महाराज श्रीपाल को वैराग्य हो जाता है और वे राजपाट पुत्र को सौंप दीक्षा धारण कर लेते हैं। राजा श्रीपाल के साथ ७०० वीरों ने और माता कुंदप्रभा, मैना सुंदरी आदि आठ हजार (८०००) रानियों ने भी दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। आज हमें छोटे-छोटे संघों को देखकर आश्चर्य होने लगता है, पहले के बड़े-बड़े संघों को देखकर लोगों का मन कितना प्रफुल्लित हो उठता होगा। पू. माताजी ने पृ. ९१-९२ पर इस कथानक का सार कितने अल्प शब्दों में गागर में सागर की तरह भर दिया है इस प्रकार मैना सुंदरी के बचपन में आर्यिका के पास विद्या अध्ययन करके धार्मिक संस्कारों को दृढ़ किया था। पुनः कर्म सिद्धांत पर अटल रहकर पिता के रोष को सहन किया। कुष्ठी पति को पाकर भी दुःखी न होकर अपने पातिव्रत्य गुण से नारी सृष्टि में मणि के समान सुशोभित हुई । पुनः सिद्धचक्र की आराधना के प्रभाव से पति के कुष्ठ को दूर करने से प्रत्येक आष्टान्हिक पर्व में प्रतिदिन जैन समाज की महिलाएं मैना सुंदरी के गुणों का गान करती रहती हैं। श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी । फल पायो मैना रानी ॥ इस प्रकार मैना सुंदरी ने पतिदेव के कुष्ठरोग को दूर करने के लिए सिद्धचक्र पाठ किया। पू. माताजी अपने प्रवचनों में अक्सर बताया करती हैं कि इस तरह के कार्यों के लिए भगवान से याचना करना दोष या मिथ्यात्व नहीं है, बल्कि भोग-उपभोग की सामग्री के लिए भगवान से याचना करना अवश्य दोषास्पद है। पू. माताजी ने आज इतने ग्रंथ रच डाले कि उनके किसी शिष्य ने भी सभी ग्रंथों को पढ़ा नहीं, सभी को देखा नहीं। पू. माताजी का सम्पूर्ण जीवन धर्म-संस्कृति एवं आत्मसाधना के लिए समर्पित है। हम भी पूज्य माताजी के चरण की धूल बनकर अपना आत्मकल्याण करें, यही जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०९ भगवान महावीर कैसे बने? समीक्षक-अरविन्द कुमार जैन, इंदौर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित "भग महावार कैसे हो?" पुस्तक का पूर्णरूपेण अवलोकन किया, जिसके प्रारंभ में भगवान महावीर का जीव पुरूरवा नील से लेकर मरीचि, विश्नंदी, त्रिपृष्ठ, मृगेन्द्र, मरीचि कुमार आदि अनेक भव धारण कर नरक में अनंत दुःख व स्वर्ग के सुखों को भोगता हुआ बारंबार जैनेश्वरी दीक्षा धारण करता हुआ तीर्थकर प्रकृति को धारण कर २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर बना। भगवान भगवान महावीर बनने से पूर्व उस जीव ने कितने ही भवों को धारण किया। अनेक बार नरकों के दुःखों को सहन किया, वैभव व स्वर्ग का सुख प्राप्त किया और अंत में किस तरह सातिशय तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर मोक्ष प्राप्त किया, का वर्णन सुबोध व सरल भाषा शैली में किया गया है। इसकी भाषा इतनी मधुर है कि एक बार अवलोकन करने पर बारंबार मन-मस्तिष्क उन स्थितियों के गूढ़ रहस्यों की ओर मुड़ जाता कैसबने है। इस चालीस पृष्ठीय पुस्तक पर यदि शोध ग्रंथ लिखें तो अनेकों ग्रंथों की रचना की जा सकती है। लेखन कला ने पुस्तक में वह रोचकता प्रदान की है कि धर्म से विमुख व्यक्ति भी यदि एक बार उसका अवलोकन कर ले तो वह इस जीवन में तो जैन धर्म से विमुख नहीं हो सकता। एक ओर तो मुनि दिग्दर्शन, नरक गति के दुःखों का वर्णन, संसार परिभ्रमण, स्वर्ग के सुखों का वर्णन किया गया है, वहीं दूसरी ओर क्रूर जीव का भी हृदय परिवर्तन व जैनेश्वरी दीक्षा का मार्मिक वर्णन निहित है। पुस्तक को सांगोपांग बनाने में चित्रों का चयन भी आकर्षणीय है, प्रसंगानुसार चित्र भी मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ते हैं। अज्ञानी व्यक्ति को जैन धर्म का मर्म समझाने में चित्रों की अहम् भूमिका है, जो इसमें विद्यमान है। वास्तविकता यह है कि पुस्तक के नाम की सार्थकता में पूज्य आर्यिका गणिनीजी ने वह सब इसमें लिखने का प्रयास किया, जो भगवान बनने में सहायक है। जिसका वर्णन सूक्ष्म, सरल व मृदु भाषा में है। बाहुबली नाटक समीक्षिका-ब्र. सुमन शास्त्री, पटेरा बाहुबली नाटक परम विदुषी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की अपनी नाट्य शैली की प्रेरणा स्रोतस्विनी एक विशिष्ट कृति है, जिसमें "स्वात्म जागरण" की अनेकानेक संभावनाएं सन्निहित हैं। बाहुबली यह संज्ञा श्रवणपुर का विषय बनते ही आबाल वृद्ध के चित्तपट पर "तन लिपटी माधवी लता" वाला चित्र उभर आता है। साथ ही जिन्हें दर्शन के पावन प्रसंग प्राप्त हुए हैं, उनके मन-मस्तिष्क पर श्रवणबेलगुल के बाहुबली तरंगायित हो जाते हैं। काव्य की दो प्रमुख विधाएँ हैं । दृश्य काव्य एवं श्रव्य काव्य । दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाटक की गणना की गई है। श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य अधिक प्रभावकारक हुआ करते हैं। अपढ़, ग्रामीण बालक भी नाटक में प्रस्तुत की गई भाव-भंगिमाओं द्वारा वस्तुस्थिति समझ जाते हैं। उनकी मनोभूमि पर वे अभिव्यक्त भाव अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। प्रस्तुत कृति श्रव्य काव्य के साथ-साथ दृश्य काव्य की वह विधा है, जो कामदेव बाहुबली से मृत्युमयी बाहुबली का दर्शन कराती हुई गोम्मटेश बाहुबली एवं बुढ़िया की लुटिया तक पाठक/दर्शक को ले जाती है। बाहुबली नाटक तीन क्रमवर्ती अंकों में विवृत है। प्रथम दो अंकों में पाठक/दर्शक/श्रोता को बाहुबली की चरम भव्यता दृष्टिगोचर होती है। मुख्य पात्र की वृद्धिंगत आत्म विशुद्धि के साथ-साथ आत्मीय विशुद्धि Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला की मंजिलों पर मुक्ति की मंगल यात्रा में पग बढ़ाती हुई श्रावकानुकूल लोक मंगलमयी "साधना की प्रार्थना" का हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। अंतिम अंक में सन् १९८१-८२ के गोम्मट के ईश्वर, अर्थात् चामुण्डराय के आराध्य गोम्मटेश बाहुबली का अद्भुत चित्रण किया है। आज मानव के नैतिक मूल्यों के बिखराव के जो श्यामल सघन बादल मनुष्य की चेतना पर मंडरा रहे हैं, वे वस्तुतः प्रलय के मेघ हैं। जहाँ एक ओर हिंसा के घृणित नग्न तांडव एवं दूसरी ओर भौतिकता की बढ़ती तृषा ने सब ओर से आबाल वृद्ध को अपने विषाक्त पंजों में धर दबोचा हो । जहाँ मानव-मानव का दुश्मन बना हुआ हो, वहाँ ऐसी विषम परिस्थितियों में बाहुबली नाटक जिन्होंने "राज पथ छोड़ विराग पथ चुना, उसे ही सर्वस्व माना/समझा" की नितांत आवश्यकता है। प्रथम पृष्ठ खोलते ही मंगल भाव मुखरित हो उठता है। यथा-मिट जाये अज्ञान अंधेरा, प्रकटे ज्ञान प्रभात उजेला। द्वितीय दृश्य में पहुँचकर पाठक/दर्शक एक स्थल पर अचानक अपनी श्वांस रोक लेता है। अब क्या होगा? जब ६०००० वर्ष पश्चात् चक्ररत्न अपने ही घर के आंगन में आकर रुक जाता है। जिज्ञासा बढ़ जाती है और यहीं से इस नाटक का सूत्रपात हो जाता है। सम्राट् की निस्पृहता एवं आत्मीयता का विरोधाभास क्रमशः राज्य और भ्राता के प्रति स्पष्टरूपेण झलक रहा है। इन शब्दों के साथ मंत्रियों राज्य वैभव की सफलता तो यही है कि भाई-भाई मिलकर उसका उपयोग करें। "पुनश्च : भाइयों के प्रति कड़ा कदम उठाना मुझे अच्छा नहीं लगता।" आर्यिका श्री ने इन पंक्तियों में भ्रातृत्व भाव को पूर्णतः सुरक्षित रखा है। तृतीय दृश्य में आर्यिका श्री ने अपने कितने सुंदर वाक्चातुर्य से दूत के वाक्चातुर्य को प्रकट किया है, जिसमें दूत की स्वामी भक्ति इष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए बाहुबली के मंतव्य का रहस्योद्घाटन की कुशलता दिखलाई पड़ती है। एक झलक देखिए दूत-प्रभो! आपके शब्द रूप दर्पण में ही उनका आगे का कार्य स्पष्ट झलक रहा है। वह आगे कहता है आप दोनों भाइयों से सारा जगत् मिलकर रहेगा। संगठन में प्रेम और विनय पाये जाते हैं। संगठन विघटित होते हैं। दोनों समाप्त हो जाते हैं। जब तक धर्मनीति है, तभी तक सब कुछ सुव्यवस्थित रहता है। जैसे ही धननीति प्रवेश पाती है, सब कुछ मृतप्राय जैसा होने लगता है। भ्रातृप्रेम घुटने टेक देता है। लोभ जब अन्तस में रुधिर की तरह व्याप्त हो जाता है, तब व्यक्ति का ह्रास विनाश नियामक हो जाता है। बाहुबली दूत को सचेत करते हुए कहते हैं। 'हे पूज्य पिता भगवान् वृषभदेव द्वारा दी गई भूमि को जो छीनना चाहता है, उस महालोभी का तिरस्कार करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं दिखता। संसारी प्राणी विडम्बना युक्त है। भरत चक्री का मन दोलायित है। चक्रवर्तित्व प्राप्त करने की अदम्य अतृप्त लालसा तथा प्राप्त हुए को एकाकी नहीं भोगने की अक्षम्य व्यथा । निस्पृही तरंगों ने भरत के विशाल मन सरोवर को मथ डाला। भरत कहते हैं-छोटी-सी बात रह-रह कर चुभती है ओह! इतने विशाल वैभव को अपने भाइयों में बाँट न सका। द्वितीय अंक की अपनी अलग पहचान है, जो समग्र काव्य की चमक आभा लिए हुए है। जन श्रुतियाँ हैं कि दीक्षितोपरान्त बाहुबली को संवत्सर तक कैवल्य बोध नहीं हुआ, जिसका मूल कारण है कि उनके मन में शल्य थी कि "मैं भरत भूमि पर खड़ा हूँ।" समझ में नहीं आता कैसा मन गढन्त गणित है दुनिया का। सर्वार्थ सिद्धि से अवतरित क्षायिक क्षम्यदृष्टि बाहुबली जिनका सम्यक्त्व अडिग है, वे चतुर्थ गुणस्थान से नीचे कैसे उतर सकते थे। शल्य उन्हें कैसे चुभन पैदा कर सकती थी। क्योंकि शल्य की भूमिका प्रथम गुणस्थान तक ही सीमित है, जो बाहुबली को अनंतकाल तक स्पर्श नहीं कर सकती। किसी ने कहा, उनका मन मान से पीड़ित था, पर श्रमणी श्रेष्ठा आ इन तमाम भ्रमों का पर्दाफाश कर महापुराण कार का अनुकरण कर एवं उनकी बात को पुष्ट करते हुए बाहुबली को मान मुक्त बतलाया है। द्रष्टव्य है इन्द्र-कुबेर का वार्तालाप-कुबेर । बाहुबली को योग साधना करते हुए आज एक वर्ष पूर्ण हो चुका है। दीक्षा लेते ही एक वर्ष का उपवास ग्रहण किया था और एक ही स्थान पर निश्चय योग में आरूढ़ हो गये थे। उनके मन में कदाचित् यह विकल्प उठ जाया करता था कि 'भरत को मुझसे क्लेश हो गया है।" यही कारण था, वे निर्विकल्प शुक्ल ध्यान में नहीं पहुँच सके। मणि कांचन योग भरत के पूजा कर रहे हैं। मन से विकल्प निकल चुका है और प्रभु को कैवल्य लाभ हो रहा है। कितना सुंदर सामयिक तर्कसंगत समाधान है। इसमें वीतराग साधु की गरिमा प्रतिष्ठित है यथावत्। तृतीय अंक-गोम्मट के ईश्वर अर्थात् चामुण्डसय के आराध्य गोम्मेटेश्वर बाहुबली का चित्रण किया है। यह अंक त्याग, संकल्प एवं भक्ति की त्रिवेणी का संगम स्थल है। त्याग और संकल्प एक-दूसरे के पूरक हैं। किसी इच्छा की पूर्ति बिना त्याग एवं संकल्प के संभव नहीं है। इच्छा पूर्ति एवं त्याग यद्यपि एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, किन्तु अद्भुत समागम है इन दोनों का । चामुण्डराय की माता को गुरुमुख से बाहुबली का माहात्म्य सुन दर्शनेच्छा जाग्रत हुई, तभी से जब तक उनका दर्शन नहीं होगा। इच्छा पूर्ति नहीं होगी, दूध का त्याग। इस इच्छा, संकल्प और त्याग ने विंध्यगिरी के पाषाण खंड को मूर्ति का रूप दे दिया। इस अंक में आर्यिकाजी ने कई जनोपयोगी बातों का समावेश किया है। यथा१. मुनि देवों द्वारा आहार नहीं लेते हैं। यदि अज्ञातावस्था में आहार लेने में आ जाये तो पश्चात् प्रायश्चित करते हैं। २. उपासना में अहं बाधक है। यहाँ वस्तु का नहीं, वरन् भावों का महत्त्व है। भक्ति का फल अलौकिक होता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५११ ओहो : यह कैसा चमत्कार हैः १. बुढ़िया के एक कलशी दूध ने तो जादू ही कर दिया है। ३. बाहुबली का नाम गोम्मेटेश्वर क्यों पड़ा? ४. मातृ भक्ति कैसी होनी चाहिए। चामुण्डराय की मातृ भक्ति का अमर संदेश बाहुबली की ५७ फुट ऊँची विशालकाय प्रतिमा आज भी जन-जन को दे रही है। ५. कूष्माण्डिनी शासन देवी ही चामुण्डराय के अहं को चूर करने के लिए वृद्धा गुल्लिकायिज्जी का रूप धारण कर आई थी। इस तरह आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी ने लघुकाय पुस्तिका में वृहत्काय भरत एवं बाहुबली के विशाल जीवन को अपनी सुविज्ञ ज्ञानांजलि में समेट कर जन-जन को धन्य किया है। जिन्होंने ज्ञान एवं त्या आत्मगत किया है, उन आर्यिका श्री के श्रीचरणों में श्रद्धा भाव समर्पित कर चरणों में वंदन करती हुई उनके स्वस्थ एवं दीर्घायु होने की मंगलकामना करता हूँ। साथ ही यह भावना रखती हूँ कि माताजी द्वारा रचित रचनाएँ इसी प्रकार तमसाथ लोक को ज्ञानालोक से प्रकाश प्रदान करती रहें। योग चक्रेश्वर बाहुबली समीक्षक-रामजीत जैन एडवोकेट दानाओली-लश्कर-ग्वालियर ज्ञान में चेतना, साधना व आराधना का भाव है। इन्हीं भाव-विभाग की परिणित "योग चक्रेश्वर बाहुबली" है। वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर, उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती तथा दूसरे पुत्र प्रथम शेजाचा बा कामदेव का जीवन इस काल का दर्पण है। आइये देखें भगवान वृषभदेव भरत को अर्थशास्त्र और नृत्यशास्त्र पढ़ाते हैं। बाहुबली को कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद,-धनुर्वेद, तंत्रशास्त्र और रत्न परीक्षा आदि शास्त्र पढ़ाते हैं। सभी पुत्रों को सभी विद्यालयों ली का ज्ञान देते हैं। (पृ. २५) परन्तु इस ज्ञान पर विजय पाई साम्राज्य पिपासा ने- पुरोहित ने कहा- "राज्य और कुलवती स्त्रियां ये दोनों ही पदार्थ साधारण नहीं हैं। इनका उपभोग एक ही पुरुष कर सकता है।" (पृ. २७) । बस यही भावना को वर्तमानकाल की आदर्श बनी। बाहुबली का आदर्श- "दूसरे के अहंकार के अनुसार प्रवृत्ति करना हमारे लिये असंभव है।" (पृ.३४)। परन्तु युद्ध, भाई का भाई से युद्ध संसार चक्र की अनिवार्यता। ज्ञान से चेतना जाग्रत होती है- "अहो। देखो, हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर राज्य के लिये यह कैसा लज्जाजनक कार्य किया है। यह साम्राज्य फलकाल में बहुत ही दुःख देने वाला है, इसलिये इसे धिक्कार हो। सचमुच में यह राज्य कुल्टा स्त्री के सृदश है।" (पृ. ४१) भरत को सम्बधोन- “इसका तूने आदर किया है और इसे अविनश्वर समझ रहा है, यह राज्य लक्ष्मी अब तुझे प्रिय रहे, अब यह मेरे योग्य नहीं है क्योंकि बन्धन सज्जन पुरुषों का आनन्द करने वाला नहीं होता है। (पृ.-४३) बस । साधना का क्षेत्र आ गया और बारह भावना की आराधना प्रारम्भ हुई। "उधर बाहुबली अपने गुरु भगवान वृषभदेव के चरणों की आराधना करके सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर एक ही स्थान पर निश्चल खड़े हो जाते हैं। "इसके बाद पृष्ठ ४५ से पृष्ठ ६० तक योग साधना का विवरण । तथा पृ. ६० से पृ. ६७ तक योग साधना का अतिशय वर्णन है तथा केवलज्ञान, गंधकुटी, विहार एवं उपदेश। कालान्तर में योग निरोधकर अघातिया कर्मों का नाश कर शाश्वत मुक्ति साम्राज्य को प्राप्त कर लेते हैं। वहाँ पर सदा-सदा के लिये अपने ही आत्मा से उत्पन्न हुए सहज परमानन्दामृत का पान कर रहे हैं। अब उन्हें न जन्म लेना है, न मरना है, न संसार के सुख-दुःखों को ही भोगना है। वहाँ न उन्हें भूख है, न प्यास है, न चिंता है न पराजय है, न व्याधि है और न क्लेश ही है। अक्षय, अव्याबाध,अनन्त सुख का अनुभव करते हुए वे भगवान अनन्तकाल तक वहीं पर होंगे। (पृ. ६७) अनंत साम्राज्य की लिप्सा से मोह-त्याग की प्रवृत्ति पर अनंत सुख साम्राज्य की प्राप्ति ही तो इसका उद्देश्य है जिससे चक्रवर्ती के चक्र को भी परास्त कर योग चक्रेश्वर कर रूप धारण किया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बाहुबली की कठिन योग साधना का सरल व सुगम बोधगम्य भाषा द्वारा प्रतिपादन करना अनवरत ज्ञान साधना का परिणाम है। शब्द चयन सरल, परन्तु वाक्य विन्यास का उपयोग बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। यथा- "महाराजा नाभिराज पुत्र का 'बाहुबली' नामकरण कर देते हैं सो ऐसा मालूम पड़ता है कि ये अपनी भुजाओं से चक्रवर्ती को उठा लेंगे।" "तुम दोनों अपने शील और गुण के कारण इस किशोरावस्था में भी वृद्धा के समान हो।" "जो पूर्व-पश्चिम समुद्र में कहीं नहीं रुका, विजया की गुफाओं में नहीं रुका, वह "चक्ररत्न' आज मेरे घर आंगन में ही क्यों रुक रहा है।" आदि आगे आने वाली घटनाओं का पूर्वाभास करा देते हैं। साधना की दृष्टि द्वारा साधना का जो मूल्यांकन किया है वह एक सफल साधक का ही प्रयत्न हो सकता है। इस प्रकार की लेखनकला संस्कृति को जीवित रखती है नष्ट नहीं होने देती। पुस्तक में इसका विशेष ध्यान रखा गया है। अंत में बाहुबली की ५७ फीट ऊंची श्रवणबेलगोल मूर्ति का विवरण उनके जीवन की विशाल ऊँचाइयों का तदाकार स्वरूप दिग्दर्शन करा रहा है। हाँ, एक बात अवश्य लिखना आवश्यक है। "भगवान बाहुबली को शल्य नहीं थी" विषय के द्वारा जिस भ्रांति को दूर करने का प्रयत्न किया है वह विशेष द्रष्टव्य है। पुस्तक का विषय पठनीय एवं आचरण करने योग्य है। समस्त जानकारियों का समावेश करने का प्रयत्न किया गया है। पुस्तक के शब्दों के साथ ही विराम लेता हूँ "इस युग के चरमशरीरियों में सर्वप्रथम मोक्ष जाने, वाले ऐसे बाहुबली भगवान हमें भी सुगति प्रदान करें।" दशधर्म समीक्षक - डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर मानवीय अन्तः स्वर का संगीत तात्तमाकिन्य मार्दव आरिडा. धर्म अन्तश्चेतना का मानवीय स्वर है जो संकल्प, श्रम और पवित्रता के संगीत से गुंजित होता है, अहं त्याग से उपलब्ध होता है, स्वत्व के प्रकाशित हो जाने पर अभिव्यक्त होता है और विसर्जन से फलित होता है। उसका सम्बन्ध जन्म से नहीं। कर्म से है, शिक्षा से नहीं, अनुभूति से है, क्रियाकाण्ड से नहीं, सद्भावों से है। वह विवेक और विचार को जन्म देता है, भेद विज्ञान होने की शक्ति पैदा करता है, सरलता को नया प्राण देता है और आत्मज्ञान को विविध आयामों में पहुंचा देता है। दशधर्म पुस्तक ऐसे ही आयामों को खोलती है जिनमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, तात्मा समल त्याग, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस मानवीय धर्मों पर साधार चिन्तन किया गया है। इसकी लेखिका उत्ता संया आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी स्वयं विदुषी और तपस्विनी हैं, धर्म मार्ग पर पदारूढ़ हैं, स्वानुभूति- संपन्न हैं, इसलिए इन धर्मों के विवेचन में उनका आन्तरिक पवित्र स्वर मुखरित हो उठा है। जैन सम्प्रदाय में पर्युषण पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से एक आध्यात्मिक पर्व के रूप में बड़ी धूमधामपूर्वक समाजाती मनाया जाता है। यह दिन परम्परानुसार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के आरम्भ का दिन है, सृष्टि का आदि दिन है। इसलिए उसका आध्यात्मिक साधना में विशेष महत्त्व माना जाता है। सभी लोग दसों दिन अपना कारोबार सीमित कर आत्मचिन्तन में जुट जाते हैं। इन दिनों मन्दिरों में इन्हीं दस धर्मों पर सांगोपांग विवेचन किया जाता है और यह आशा की जाती है कि हर व्यक्ति इन धर्मों की आराधना करे और विराधना से बचकर जीवन के मर्म को समझे। प्रस्तुत पुस्तक की पृष्ठभूमि में माताजी का उद्देश्य यह रहा है कि प्रवचन करने वाले विद्वानों को दस धर्मों पर विवेचनात्मक सामग्री उपलब्ध करायी जाये ताकि जगह-जगह जाकर वे जनता को अधिक से अधिक लाभान्वित करा सकें । सन् १९८३ में इसी उद्देश्य से उन्होंने हस्तिनापुर में एक प्रशिक्षण शिविर भी लगाया था जिसमें तरुण विद्वानों को सुशिक्षित किया गया था और इस पुस्तक के माध्यम से उन्हें सामग्री उपलब्ध कराई गई थी। यद्यपि यह सामग्री अपर्याप्त है पर उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं किया जा सकता है। ___महाकवि रइचू ने बड़ी गंभीरता पूर्वक इन दस धर्मों का विवेचन किया है। माताजी ने उनकी सामग्री को आधार बनाकर उसे स्वयंकृत संस्कृत श्लोकों, जैन पौराणिक आख्यानों तथा आगमिक उदाहरणों द्वारा परिपुष्ट किया है। इसलिए उसकी उपयोगिता और अधिक बढ़ गई है। इन धर्मों के लक्षणों को सर्वार्थसिद्ध, ज्ञानार्णव और आत्मानुशासन से तथा पौराणिक उदाहरणों पद्मपुराण, हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण से अधिक लिये गये हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गपिनो आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१३ उदाहरणार्थ क्षमा को स्पष्ट करने के लिए कमठ और मरुभूति, पंच पाण्डव, तुंकारी, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। इन्द्र विद्याधर और सिन्धुमती रानी के कथानकों से रूपमद का स्वरूप समझाया गया है। यहाँ जाति, कुल, धन, बल, ऐश्वर्य तथा विद्या मद को लेखिका ने कदाचित् विस्तार भय से छोड़ दिया है। आर्जव के संदर्भ में सगर, वसु के उदाहरण दिये गये हैं। बाह्य और आभ्यन्तर शुचि को समझाते हए धन की आशा और लोभ से संबद्ध अनेक कथानक प्रस्तुत हुए हैं। सत्य-असत्य के भेद-प्रेभदों को गिनाकर श्रीवंदक और वसु की कथायें, संयम का मीमांसा करते समय वसुपाल आदि की कथायें, तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेद बताते हुए चक्रवर्ती भुवनानन्द और आचार्य शांतिसागर महाराज के उदाहरण त्याग के सन्दर्भ में चार दानों का उल्लेख करते हुए आहारदान की विशेष कथाओं को उपस्थिन किया है। अकिंचन्य व्रत की व्याख्या के बीच दृढ़ग्रही राजा का उदाहरण देते हुए जमदग्नि ऋषि का उल्लेख किया, जिनकी भोगवासना से प्रभावित होकर ऋषियों में विवाहप्रथा का प्रारम्भ हुआ। ब्रह्मचर्य व्रत की विवेचना के प्रसंग में मुनि शिवकुमार, जंबूकुमार. भीष्म-पितामह आदि के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने आजन्म इस व्रत को स्वीकार किया था। पुस्तक आद्योपान्त पढ़ने के बाद यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि विदुषी माताजी ने जन-साधारण को दृष्टि -पथ में रखकर विद्वत्तापूर्ण विवेचन से अपने को दूर रखा है। श्रद्धा और भक्ति को जाग्रत करने/बनाये रखने के लिए पौराणिक आख्यानों का प्रस्तुतीकरण निश्चित ही सहायक होता है, पर इससे पुरानी पीढ़ी तो आकर्षित होती है, परन्तु नई पीढ़ी को उसमें विशेष रस नहीं आ पाता । इसलिए दस धर्मों के विवेचन में यदि इतिहास के उदाहरण भी इसमें सम्मिलित कर दिये गये होते और जैनेत्तर महापुरुषों के जीवन प्रसंगों का स्थान भिन्न होता तो इस विवेचन में और भी व्यापकता आ गई होती। ये धर्म यद्यपि जैन धर्म से सम्बद्ध हैं पर उन्हें सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में स्वीकारा है। इसके बावजूद ग्रन्थ जिस उद्देश्य से लिखा गया है उस उद्देश्य में माताजी को निश्चित ही भरपूर सफलता मिली है। अतः ग्रन्थ संग्रहणीय है। संस्कार समीक्षक-पं. नरेश जैन शास्त्री-जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर सरा समीक्ष्य उपन्यास ग्रन्थ जो कि संस्कार नाम से जगत् प्रसिद्ध है जिसके नाममात्र से ही ज्ञात होता है कि संस्कार जीवन का वह अमूल्य रत्न है जिससे मानव अपनी आत्मा की संस्कारित करके परमात्मपद को भी प्राप्त कर सकता है जैसे कि एक पत्थर को मूर्तिकार अपनी छैनी से मूर्ति का रूप दे देता है और प्रतिष्ठाकार मंत्रों द्वारा संस्कार करके एक पाषाण को भगवान बना देता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृ. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान पार्श्वनाथ एवं कमठ के दस भवों को आज के युवा वर्ग की रुचि के अनुरूप सरल सुवोध उपन्यास शैली में प्रस्तुत करके धर्म से विमख युवा वर्ग को धर्म की ओर आकर्षित करने का अति उत्तम सुन्दर सरल मार्ग चुना। आज के भौतिकवादी मानव की धारणा है कि शत्रुता बैर भाव आपस में दोनों ओर से ही चलता हैं. परन्तु इस संस्कार नामक उपन्यास को पढ़कर यह धारणा निराधार हो जाती है, क्योंकि कमठ ने पिछले दन भवों से मम्मृति (भ. पार्श्वनाथजी के जीव का भव भवों में कष्ट देते हुये भी मामूर्ति के जीव ने क्षमादान ही दिया यह एक महान् आदर्श भ. पार्श्वनाथजी ने प्रस्तुत किया और अतं में एक तरफा बैर जोतकर केवल ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करके मोक्ष रूपी लक्ष्मी का आलिंगन करके अनंत सुरन को प्राप्त किया। . प्रस्तुत पुस्तक के कवर पर उस समय का चित्रण किया जब भामूर्ति -रकर हाथी हुआ, महाराज' श्री अरविन्द ने राज्य का त्याग कर दीक्षा धारण की और उस बन में पहुंच जहाँ परमूर्ति के जीव हाथी ने मदोन्मत होकर जंगल में उपद्रव करने लगा परन्तु मुनि दर्शन मात्र से जातिम्मपरण को प्राप्त होकर अणुव्रतों को अंगीकार करते हुय का चित्रण किया है परम पूज्य माताजो की लेखनी से प्रमत उक्त पुस्तक दिल जैन त्रिलोक शोभ मंग्थान ने बड़े ही आकर्षक रंगीन कवर पृष्ठ के साथ स्वाध्याय प्रेमी बंगुओं के लिए अति रोचक भाषा में प्रस्तुत यह कनि जीवन निर्माण में अन्नत उपयोगी मावित होगी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भगवान बाहुबली समीक्षक - डॉ. शेखर जैन, अहमदाबाद भगवान बाहुबली गणिनी ज्ञानमतीजी की काव्यकृति का प्रतिबिंब है। कवयित्री ने भरत-बाहुबली की पौराणिक कथा को इतिवृत्तात्मक रूप से कविता द्वारा प्रस्तुत किया है। जहाँ तक कथा तत्त्व की बात है वह पौराणिक कथा है जो बहुश्रुत है, प्रायः सभी इस कथा से परिचित हैं। पर ऐसे महापुरुषों की कथा प्राचीन होने पर भी चिर नूतन बनी रहती है। उसका संदेश हर युग के अनुरूप होता है। सच तो यह है कि ऐसे चरित्र ही हमारी संस्कृति की धरोहर होते हैं। बाहुबली का जीवन आज भी त्यागतप का संदेश दे रहा है। कृति का प्रारम्भ आदिनाथ की वंदना से किया गया है, जो मंगलाचरण है। जैन दर्शन के मूल में ही विश्व मंगल की कामना निहित है। कवयित्री आदि जिनेश्वर की परम्परा में तीर्थंकर, आचार्यों की गुरुवंदना करके कृति की रचना का संकल्प व्यक्त करती हैं। भ. ऋषभदेव इस काल के आदि प्रवर्तक तो थे ही-संस्कृति के पुरस्कर्ता भी थे। लोगों को जीवन यापन की शिक्षा-विद्या आदि ज्ञान देकर स्वावलंबन का बोध दिया। यह स्वावलंबन उनकी त्रिकालजयी शिक्षा है, जो आज भी प्रस्तुत है। ___भ० ऋषभदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्यारूढ़ करके एवं बाहुबली को दक्षिण का राज्य देकर आत्म कल्याण के पथ पर आरूढ़ हुए। भरत चक्रवर्ती हुए, राज्य सुख के साथ धर्माराधना को करते रहे। "चौदह रत्न के सहस-सहस सुर रक्षक विभव विशालता । भरतेश्वर प्रमुदित मन अनुदिन रुचि से जिनपूजन करता ।। दानशील उपवास महोत्सव गृहि षट्कर्मी उदारता । बहु पुण्योदय भोगी ज्ञानी चित्सुख अनुभव सुलीनता ।। भरतेश्वर का वैभव बढ़ा। पर अभी पूर्ण चक्रवर्ती कहाँ बन पाये थे तभी तो चक्ररत्न पुर के बाहर ही रुक गया। कारण था, अभी तक बाहुबली पराजित कहाँ हुए थे? मंत्रणा हुई और दूत को भेजा गया बाहुबली के पास। प्रच्छन्न आदेश था शरणागति स्वीकारने का । धक्का-सा लगा बाहुबली को। राजसी स्वभाव सागर में स्वाभिमान की तरंगें उठीं। हृदय आलोडित हो उठा षट् खंडधिप चक्रेश्वर हैं रहे हमें तो क्या करना। राजनीति से राज राज कह नहिं लेना उनका शरना । पूज्य पिता कृत है गौरव मम फिर भी यदि गर्विष्ठ भरत । वश करना चाहें मुझको तो रण में ही हो शक्ति विदित ॥ आखिर राज्य सत्ता के अहम् ने भरत को युद्ध करने को प्रोत्साहित किया। रणभेरी बज उठीं। दोनों महान् योद्धाओं के इस जय-पराजय की संभावनाओं से भरे युद्ध को देखने सुर-नर इन्द्र सभी दौड़ पड़े। दोनों और चतुरंगिणी सेना का सागर ही लहर उठा। वीरों की हुँकारे गूंज उठीं। दोनों ओर से अपने-अपने महावीर की शक्ति के गुणगान विरुदावली के स्वर मुखरित होने लगे। दोनों ही महान् योद्धा थे। "चरम शरीर आदीश्वर सुत आदि चक्रपति आदि मदन । उभय भ्रात को इस ही भव में करेगी मुक्ति रमावरण ॥ युद्ध की भयानकता और दुष्परिणाम से सभी चिंतित थे। रक्त की नदियां बहने की कल्पना से लोग भयभीत थे। आखिर दो भाइयों के झगड़े में व्यर्थ का रक्तपात क्यों हो? यह शुभ विचार आने पर दोनों ओर के मंत्रीगणों ने विमर्श किया, वे जानते थे कि युद्ध विनाश ही लायेगा असंख्य प्राणी-हिंसा होगी महा कदन यह करने से। प्रजा हानि सर्वस्य हानि सम धैर्य हानि के बढ़ने से ॥ - आखिर निर्णय हुआ कि कि दोनों भाई युद्ध कर लें। जो जीतेगा उसी की विजय मानी जायेगी। निश्चय किया गया कि दोनों में दृष्टि युद्ध, जल युद्ध व मल्लयुद्ध किया जाये। दोनों ओर से स्वीकृति प्राप्त हुई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१५ बाहुबली भरत से अधिक लंबे होने से दृष्टि युद्ध में विजयी हुए और इसी तरह जल प्रहार में भी विजयी रहे । मल्लयुद्ध में भी अधिक शक्तिशाली होने से उन्होंने एक दांव लगाकर भरत को दोनों हाथों से ऊपर उठा लिया। सभी लोग स्तब्ध रह गए। बस, एक क्षण बाद ही बाहुबली भरत को धरती पर पछाड़ देंगे, इन्हीं संभावनाओं-आशंकाओं से लोग भयभीत थे। तभी लोगों ने देखा बाहुबली ने भरत को अपने कंधों पर वैसे ही बैठा लिया जैसे कोई अपने पूज्य को ससम्मान कंधे पर बैठा ले। ज्यों ही बाहुबली ने भरत को ऊपर उछालकर बाहों में उठाया तभी उनका विवेक जाग्रत हो उठा वे सोच सके। “छ खंड वसुधापति अग्रज की अविनय करना उचित नहीं। अतः बिठाया निज कंधे पर गौरव को रख लिया सही॥ पर बाहुबली का यह विवेक भरत को अपमान ही लगा। पराजित भरत को क्रोध ने अंधा कर दिया और वह अपकृत्य कर बैठे जिसकी कल्पना ही नहीं थी। वे चक्ररत्न का प्रहार कर बैठे। पर चक्ररत्न ने अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी। कुटुंब पर नहीं चला। उल्टे बाहुबली की दक्षिणा देकर लौट आया। यद्यपि बाहुबली की कोई क्षति नहीं हुई पर उनका मन खिन्न हो उठा। इस घटना ने उनका मन वैराग्य से भर दिया। संसार के व्यवहार, धनलिप्सा इतना नीचे गिरा सकती है यह भाव उन्हें संसार से विरक्त कर गया "धिक धिक राज्य योग सुख वैभव भ्रात प्रेम का घात करें। धिक् धिक् मोह महामायामम इन्द्रिय सुख बहुदुख भरे ॥ बस! वैराग्य की परतें खुलती चली गईं। संसार की मोह माया, स्वार्थ भोग-विलास सभी की क्षणभंगुरता, विनाश के दृश्य मूर्त होते गये। वैराग्य की दृढ़ता बढ़ी---भोगों की परतें टूटी एक ही विचार दृढ़ हुआ कि यह वैभव भोग निरर्थक हैं क्षणभंगुर हैं। "वेश्या सम इस लक्ष्मी को पा इसको अचला मान अरे । अच्छिष्ट भोगी बन करके भी वैभव का अभिमान करे। अथिर राज्य है इन्द्र जाल सम स्वप्र सदृश हैं भोग मधुर । पुत्र मित्र परिजन पुरजन सब प्रेम करें हैं स्वार्थ चतुर ॥ इस प्रकार समस्त वैभव को त्याग कर बाहुबली अपने तपस्वी पिता के पद चिन्हों पर चल पड़े। इधर क्रोध शांत होते ही भरत अपने कृत्य पर पछताने लगे। उनका मन पश्चाताप से भर गया वे विह्वल हो उठे "भरत हृदय में चक्ररत्न भी असह्य दुख स्वरूप हुआ। बाहुबली वच श्रवण से हृदय शोक पूर्ण दुखरूप हुआ। भातृप्रेम की गंगा ही क्या भीतर नहीं समाती है। नेत्र मार्ग से बहकर के ही पृथ्वी तल पर आती है। क्रोध मान कुछ क्षण पहले का मोद प्रेम में बदल गया। मन बहु पश्चाताप कर रहा बंधु भाव भी प्रखर हुआ। अहो भ्रात! तुम बिन पृथ्वी पर भोग मुझे क्या रुचिकर है? दीक्षा का यह समय नहीं है यह चर्चा मम दुखकर है। पर वैरागी मन अब संसार में था ही कब? बाहुबली ने सबकी क्षमा याचना की और दीक्षा ग्रहण की। पूरे परिवार में मोहवश रुदन-हाहाकार मच गया। एक क्षण पूर्व जो समरभूमि थी वह वियोग-विलाप की भूमि बन गई। बाहुबली कामदेव का दीक्षा ग्रहण तीन लोक के लिए कितना विलापमयी था। "परिजन रोये पुरजन रोये जग का भी कण कण रोया। भरत हृदय अति द्रवित हो गया देवों का भी मन रोया ॥ अरे! प्रकृति का कण-कण भी इस वियोग में द्रवित था "उसी समय से पृथ्वी देवी नदियों के कल कल रव से। रुदन कर रही है ही मानो शोक पूर्ण कष्ट स्वर से ॥" आखिर बाहुबली ने कैलाश पर्वत पर जाकर दीक्षा ग्रहण की और एक वर्ष का महायोग धारण कर निश्चल खड़े रहे। इधर चक्रवर्ती का वैभव भोगते हुए भी भरत जल में कमलवत् धर्माराधना में जीवन व्यतीत करते रहे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला तपस्या में लीन बावली के तन की शोभा-द्रम की हरीतिका और सूर्य की किरणों ने अनुपम सौन्दर्य की सृष्टि की है रहसि खड़ निश्चल कल्पद्रुम हरित वर्ण तनु शोभ रहा। लता छदम मुक्की कन्या सवर्ण प्रभू को देख अन्ना । तप के प्रभाव से किमना निवर वातावरण बन गया है "बड़े प्रेम से हरिणी भी सिंहों के बच्चे पाल रही। व्याघ्रशिशु को दूध पिलाकर गाय अहो फिर चाट रही। जात विरोधी जीवन सभी आपस में मैत्री भाव धरै । हाथी सिंह श्रृगाल मर्प नागोश सभी मिलकर विचरे।" योगीश्वर बाहुबली के दर्शन से सो वन का प्रकृति भी प्रफुल्लित हो उठी है। इधर तपस्या में लीन बाहुबली के शरीर पर बेलें चढ़ गईं। पांव के पास वाल्मीकि बनाकर जोवजन्त सुख पा रहे है...... "योग लीन तन पर बिच्छु सादिक क्रीड़ा करते हैं। लता भुजाओं तक चढ़ती है बहु वनजन्तु विचरते हैं। तपस्या की धूनी में बाहुबली ने अपने कर्मों का क्षय किया। चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अब वे पी रहे हैं स्वात्म सुधारस । शरीर का ध्यान ही कहाँ ? "शीत तुषार ग्रीष्म वर्षादिक सभी परीषह सहते हैं। महा परीपह विजयी स्वामी महोग्रोग्रतप करते हैं। इस प्रकार एक वर्ष की तपस्या उन्हें शुक्लध्यान में प्रतिष्ठित करती है। भरत योगीश्वर बाहुबली की आकर विधिवत् पूजन करते हैं और बाहुबली को उसी क्षण केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। तप ने अनुज को भी पूज्य बना दिया। केवली बाहुबली की वंदना करते हैं। देवगण केवल ज्ञान की पूजा करते हैं। यह तप का ही प्रभाव है कि पखंडाधिपति स्वयं पुजारी बना है। अंत में वे कैलाश पर्वत से कर्मक्षय कर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त करते हैं। भ. बाहुबली की विश्व प्रसिद्ध प्रतिमा श्रवलबेलगोल में आज भी मानो इंगित करती है कि जीवन की अंतिम साधना ही मुक्ति है। कवयित्री आर्यिकाजी ने इस कथानक के माध्यम से वर्तमान युग को यह संदेश दिया है कि संसार का वैभव शाश्वत नहीं है। धन सम्पत्ति, राज्य य सभी व्यक्ति, समाज, राज्य और देशों के बीच वैमनस्य संघर्ष, उत्पन्न करने वाले तत्त्व हैं। युद्ध की पीठिका ही य भौतिक सम्पत्ति की एषणा है। भाई-भाई के बीच तनाव का मूल हो ये हैं। दूसरे युद्ध कितने भयानक और विनाशक हो सकते हैं। उनके परिणाम सृष्टि के विनाश के लिए कितने घातक हैं। यह समझाते हुए मानो युद्ध ज्वर से पीड़ित शासकों से कहना चाहती है कि अपने निजी स्वार्थ के लिए निर्दोष मानव का रक्त क्यों बहाते हो? अपनी समस्या स्वयं हल करो। विश्व शांति के लिए इससे अच्छा मार्ग ही क्या है। यदि इस सत्य को आज का युग समझे तो युद्ध और विनाश के भय से बच जाये। तीसरा संदेश है कि वैभव धन में नहीं, वैराग्य रे है। मुख भोग में नहीं योग में है-त्याग में है। अंतिम सुख मुक्ति है और उसका माध्यम है कर्ममल को क्षय करने के लिए तपाराधना । कृति में कवयित्री ने श्रवलबेलगोल पर स्थित भ पाहबली की मूर्ति का बड़ा ही काव्यमयी भाषा में वर्णन किया है। लगता है यह वर्णन भाव नहीं है, अपितु साध्वी के हृदय का भक्ति पूण भावावेग कविता की सरिता बन कर प्रस्फुटित हो उठा है। कुछ पंक्तियां देखें "पूर्ण चंद्र रात्री में आकर भक्ति भाव से मुदित हुआ। दुग्धाब्धि अमृतमय किरणों से प्रभू का बहु न्हवन किया । राशि-ज्योत्स्न, शुक्ल ध्यान सम शुभ्र दही ले आती है। भक्ति भाव से स्नपन करती रहती तृप्ति न पाती है। प्रकृती देवी निज सुषमा से नित प्रति पूजन करती है। मधुर हास्यमय सुमन दा कर जन-जन का मन हरती है।" इस मन के दर्शन करक जैन ही नहीं जैनेतर भारतीय व विदेशी सभी गौरव का अनुभव करते हैं। उन्हें शक्ति मिलती है। अरे! मूर्ति भंजक भी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञाममती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१७ यहां नतमस्तक हो जाते हैं। इसका संदेश ही है "युग युग से यह मूर्ति जगत को शुभ संदेश सुनाती है। यदि सुख शांति विभव चाहो सब त्याग करो सिखलाती है। कवयित्री तो दर्शन करके ही प्रेमाश्रु से भीग उठती हैं। उनकी तो भावना है कि वे भी मुक्ति प्राप्त करें। वे चाहती हैं-. "ज्ञानमति' प्रभू दीजिए हरिये तम अज्ञान। पढ़िये भविजन भाव से लहिए पर निर्वाण।" जहाँ तक भाव का संबंध है कृति लघु होने पर भी प्रभावोत्पादक है। ज्ञान-वैराग्य भक्ति का समन्वय हुआ है। मुक्ति का संदेश और भोग पर वैराग्य की विजय को प्रस्थापित किया है। कवयित्री ने अपने भावों की वाटिका के रूप में प्रकृति को आलंबन बनाया यह उनके प्रकृति प्रेम का परिचायक भी है। यही प्रकृति प्रेम उनके जम्बूद्वीप स्थान पर मूर्तरूप ले रहा है। उन्हें प्रकृति से कितना स्नेह है यह तो वहीं जाकर देखा जा सकता है। . कृति की भाषा सरल होने से वह लोक योग्य कृति बनी है। चंद कठिन शब्दों का प्रयोग हुआ है, पर उनके अर्थ देकर उसे भी सरल बना दिया है। . अंत में इतना ही कि यह कृति मात्र कथा न रहकर,जीवन जीने की कला सिखाते हुए गंतव्य मुक्ति की ओर जाने की प्रेरणा देती है। भक्ति कुसुमावली समीक्षक-डॉ० शेखर चन्द्र जैन, अहमदाबाद भक्ति कुसुमावलि आर्यिका ज्ञानमती माताजी के भक्तिकाव्य की नवीनतम कृति है। संग्रह का प्रारंभ उषा वंदना से किया गया है। जीवन में जब ज्ञान की उषा का प्रकाश फैलने लगता है तभी मिथ्यात्व, कषाय आदि का अंधकार दूर होता है। कवयित्री ने नये काव्य प्रवाह में 'निर्वाणकाण्ड' स्तुति ही प्रस्तुति की है। तीर्थवंदन! हमार पुण्योपार्जन एवं संचित पाप प्रक्षालन का माध्यम है। पूजा, स्तुति, विधि-विधान के आयोजन की भाँति तीर्थ वंदना की महत्ता है। जब मन में भक्ति का भाव और पुण्यकर्म का उदय आता है तभी व्यक्ति में तीर्थयात्रा के शुभ भाव जाग्रत होते हैं। तीर्थ वे स्थान होते हैं जहां से महान् तपस्वी तीर्थंकर, मुनिगण कर्मक्षय करने हेतु तपाराधना में दृढ़ होकर दुर्धर तप तपते-तपते मुक्ति प्राप्त करते हैं। ऐसे तपस्वियों के तप से तपःपूत भूमि का कण-कण पवित्र होता है। अब हम ऐसे तीर्थस्थानों पर जाते हैं तो उस पवित्रता से हमारा मानसिक संबंध जुड़ता है। उन महान् आत्माओं के गुण-जीव का स्मरण हमें उन्हीं के पथानुगामी बनने की प्रेरणा देता है। उतने क्षण हम संसार से विरक्ति का अनुभव करते हैं। हम धन्य हो जाते हैं ऐसी भूमि के स्पर्शन और दर्शन से। हम जिनवरमय होने लगते हैं "उठो भव्य! खिल रही है उषा, तीर्थं वंदना स्तवन करो। आर्त-रौद्र दुर्ध्यान छोड़कर, श्री जिनवर का ध्यान करो। सर्वप्रथम वे २४ तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि कैलाश, चंपापुर, गिरनार, पावापुर व तीर्थराज सम्मेदशिखर को वंदन करती हैं। इन पुण्य भूमियों से अन्य जो भी केवली मुक्ति प्राप्त कर मुक्त बने हैं उन सबको श्रद्धापूर्वक वंदन करती हैं। वे उन सभी निर्वाणभूमियों का उल्लेख कर वहाँ से मोक्षप्राप्तकर्ताओं को अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करती हैं। और अंत में उन सभी सिद्ध आत्माओं को वंदन करती हैं जिनके नाम अज्ञात हैं "त्रिभुवन के मस्तक पर, सिद्ध शिला पर सिद्ध अनंतानंत । नमो-नमो त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अंत ॥ दूसरी वंदना भक्ति चैत्याष्टक में वे त्रिभुवन के समस्त कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करती हैं। जैनधर्म के क्रियाकलावों में तीर्थवंदना की भांति चैत्यवंदना का भी बड़ा महत्त्व है। चैत्य या मंदिर वे स्थान हैं जहां तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं निरंतर मानो पवित्रता, मुक्ति का संदेश देती हैं। वे निरंतर आत्मोन्नयन के लिए प्रेरित करती हैं। इस अष्टक में साध्वीजी ने असुर, नाग, वायुसुर, विद्युत, अग्नि भवनवासी आदि में स्थित समस्त लाखों की व स्थान हजहां तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाएं निरंतर मानो पवित्रता, मुक्ति का संदेश देती है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संख्या में स्थित जिनालयों के प्रति अपनी भक्ति प्रस्तुत की है। तीनों लोकों में स्थित चैत्यों की वंदना की है। इनमें मध्यलोक के पंचमेरु, कुलाचल के ८३, रजताचल के १७०, वक्षाराचल के ८०, गजदंतगिरि के २०, जबूं-शाल्पलि के १० के उपरांत नंदीश्वर द्वीप के ५२, इस प्रकार मध्यलोक के ४५८ जिनालयों की वंदना की है। ऊर्ध्वलोक के व्यंतर, भवनवासी, सौधर्म इन्द्र, ईशान इन्द्र, सानत्कुमार, आनत, प्राणत, अच्युत, ग्रैवेयक आदि सभी जिनालयों की वंदना करते हुए वास्तव में तो तीन लोक में स्थित जिनालयों का सविस्तार परिचय दिया है। ये जिनालय स्वयं प्रेरणा के स्रोत हैं "सब जिनगृह में अनुपम शाश्वत, मानस्तभादिक रचनाए । वर्णन पढ़ते ही जन मन में, दर्शन की इच्छा प्रकटायें ॥ जिनबिंब पांच शत धनुष तुंग, उन वीतराग छवि मनहारी। मैं केवल ज्ञानमती हेतु, नित नमूं जिनालय सुखकारी ॥" त्रैलोक्य चैत्यावंदना' स्तुति गीत में प्रथम व द्वितीय स्तुति का पुनरावर्तन ही है। विशेषता यह है कि यह चैत्य वंदना मूलतः संस्कृत में आर्यास्कन्ध छंद में लिखी है और कवयित्री ने स्वयं उसका पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। विदुषी आर्यिका का संस्कृत व हिन्दी काव्यकला पर समान अधिकार है। संस्कृत का पद्यानुवाद संस्कृतमय आंनद प्रदान करता है। शब्द चयन सौन्दर्य वृद्धि करता है "महावीर प्रभु को वंदन कर, त्रिभुवन के जिन भवनों की। करूँ वंदना भक्ति भाव से, राजित सब प्रतिमाओं की ॥ इसके पश्चात् उन्होंने तीन लोक के विविध स्थानों पर स्थित चैत्यों की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उसमें स्थित मनोज्ञ जिनबिम्बों की सौम्यता को प्रस्तुत करते हुए वंदना की है। वर्णन कौशल बड़ा ही चित्रात्मक व मूर्त स्वरूप है 'अभिषेक प्रेक्षागृह क्रीडन, संगीत नाटक लोकगृह, रत्नरचित वेदी मंडप मणि, मंगल घट और धूपसुघट । मणिमाला ध्वज तोरण शोभित, घंटा किंकणि ध्वनि सहित । शालत्रय मानस्तभं-स्तूपादि उपवनों से वेष्टित ॥ अपने पापकर्मों के क्षय के लिए वे तीनों काल की मुक्त आत्माओं का वंदन करती हैं "भूत भविष्यत् वर्तमान त्रैकालिक, त्रिभुवन तिलक महान । चौबीसी तीसों वंदू मैं, पापकर्म की होवे हान ।। वे गोम्मटेश्वर की वंदना करना नहीं भूलती-उनकी श्रद्धा और भक्ति उसी से और दृढ़ जो हुई है। स्तुति के अंत में वे उन सभी आचार्य, उपाध्याय मुनि की वंदना करती हैं जो जिनपथ के अनुगामी व पथ प्रशस्ता हैं। सम्मेदशिखर पर हर जैन की श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है। यहां का कण-कण पावन है। यह वह निर्वाण भूमि है जहां से २० तीर्थकर और असंख्य केवली मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक जैन की यही भावना होती है कि जीवन में एक बार इस पुण्यभूमि के दर्शन करके कृतार्थ हो । संचित पापों का क्षय करे। कहा भी है कि एक बार यदि कोई भाव से इस तीर्थराज की वंदना करे तो उसके जन्म-जन्मांतर के पाप क्षय तो होते ही हैं व नरक और पशु गति से बच जाता है। इस पर्वत का हर पत्थर, रेत का हर कण मानो उन पावन आत्माओं की चरण रज से पावन हो गया है। हर दर्शनार्थी इन पाषाणों में पवित्रता महसूस करता है। भक्त अपने सांसारिक व्यवहारों को त्याग कर इस पावन भूमि पर आकर अपने आप को धन्य समझने लगता है। उसके मन में स्वयं ही प्रफुल्लता उमड़ने लगती है। ऐसे पावन तीर्थ की वंदना करते हुए आर्यिका श्री उन बीस तीर्थंकरों की वंदना करते हुए यही कामना करती हैं कि कब वे भी इस आवागमन से मुक्ति प्राप्त करें। संस्कृत काव्य की मनीषा विदुषी ज्ञानमतीजी ने ८४ श्लोकों में सम्मेदशिखर तीर्थ की वंदना की है। अधिकांशतः अनुष्टुप् छंद में लिखी यह वंदना संस्कृत साहित्य की उत्तम कृति है। स्वयं उन्होंने इन श्लोकों का भावानुवाद प्रस्तुत किया है। भावानुवाद में मौलिक हिन्दी काव्य रचना की गरिमा निहित है। १ से ४ श्लोकों में सिद्ध भूमि का समग्रता में वंदन किया है। ५ से ६२ तक के श्लोकों में एक-एक टोंक का वर्णन, वहां से मुक्ति प्राप्त तीर्थंकर व अय भुनि भगवंतों का उल्लेख करते हुए वंदना की है। सहज ही पाठक यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है कि किस टोंक से कौन से तीर्थकर व अन्य मुनि मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१९ ६३ से ६७ तक ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ व महावीर की निर्वाणभूमि का परिचय देकर वंदना की है "इस भरत क्षेत्र में चौबीस, तीर्थंकर का मुक्त क्षेत्र शाश्वत । गिरि सम्मेद शिखर ही काल, दोष से ये शिव गए पृथक ॥" इस तीर्थराज से भूतकाल में वर्तमान काल में और भविष्यकाल में मुक्ति प्राप्त करने वाले सभी सिद्धात्माओं की वे श्रद्धा से वंदना करती हैं। इस तीर्थ की वंदना का अधिकारी भव्य जीव ही हो सकता है, मिथ्यात्वी नहीं। उसका फल भी कितना भव्य है "भव्य जीव ही दर्शन पाते, नहिं अभव्य को मिल सकते। एक बार वंदना करे जो, गति नरक तिर्यंच टले, उनचास भव के अंदर, मुक्ति श्री निश्चित उसे मिले। असंख्य उपवासों का फल, इस पर्वत वंदन से मिलता। अधिक और क्या जब त्रिभुवन, साम्राज्य सौख्य निश्चित मिलता। अंत में वे वर्तमान युग के आचार्य अपने गुरु आदि मुनिवरों का वंदन करती हैं। वसंततिलका छंद में 'श्री बाहुबली स्तोत्रम्' की रचना उनकी संस्कृत काव्य प्रतिभा का परिचायक स्तोत्र है। उसे पढ़कर लगा कि यह जैनधर्म की नहीं, अपितु संस्कृत स्तोत्र साहित्य की अमूल्य धरोहर बन सकता है। मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि गणिनीजी संस्कृत हिन्दी की उच्चकोटि की कवयित्री हैं। उनकी भक्ति-सलिला निरन्तर काव्य भूमि पर प्रवाहित होती रहती है। साधारण भक्तजनों के लिए संस्कृत का हिन्दी पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। साथ ही उसका गद्यात्मक विवरण प्रस्तुत करके उसे जनस्वाध्याय योग्य बनाया है। यद्यपि भगवान बाहुबली काव्य पुस्तक में व उनके गुण, रूप, तप आदि का वर्णन कर चुकी हैं, तथापि यह संस्कृत का काव्य स्वयं में मौलिकतासम्पन्न है। पूरा बाहुबली का जीवन काव्य में गुंफित है। मानतुंगाचार्य की भाँति अपनी अल्पज्ञता प्रस्तुत करते हुए कहती हैं "हे जिन! कर्म उदय से मैं हूँ शक्ति हीन औ बुद्धि विहीन । फिर भी तव भक्ति वश होकर स्तुति करने को उद्यमलीन ॥ शक्ति विचारे बिन मेंढक भी भक्ति वश हो तुरत चला। मारग में ही मरकर सुरपद पाया क्या नहिं अहो भला ॥" इसी प्रकार उनके स्मरणमात्र से रसना पावन हो जाती है। उन कामजयी बाहुबली के गुणों का वर्णन सुरगुरु भी नहीं कर सकते, फिर मैं तो अल्पज्ञ हूँ। इसमें कवयित्री की निरभिमानता प्रकट हुई है। अरे! उन बाहुबली की स्तुति तो दूर की बात है, उनका नाम स्मरण ही सिद्ध रसायन स्वरूप है। उनके सौन्दर्य के लिए उपमान ही कहाँ ? पुनःपुनः दर्शन से भी आंखें कहां तृप्त होती हैं। 'हे प्रभु कामदेव! अति सुंदर हरित वर्ण शुभ तनु शोभित । किससे उपमा करूं तुम्हारी यदि तुम समजन हो इस जग। उनके रूप के लिए सूर्य-चन्द्र के उपमान भी फीके हैं, जिनका क्षय होता है। देवगण भी वैसी दीप्ति कहाँ रखते हैं? बाहुबली भगवान आपका मुखमंडल तो सभी उपमानों से भी ऊपर है "नाथ आपका मुख है धवलोज्ज्वल कीर्ति कांति से कांत । अति रमणीय विकार शोक भय मद विषाद से दूर नितांत । मंदहास्य युत अतुल सुभग हैं, सौम्य शांतमय महाप्रशांत । हर्षोत्कट से नित प्रति सबजन, मन को हरता है भगवान ॥ कवयित्री का हृदय उन बाहुबली भगवान के दर्शन से इतना प्रसन्न है कि उनकी वाणी भक्ति रस से ओत-प्रोत हो गई है। कभी उनके कामदेव-स्वरूप का विविधि उपमानों से वर्णन करती हैं तो कभी सारे उपमान फीके लगते हैं। कभी बेलों से मंडित शरीर में अलौकिक कांति के दर्शन करती हैं तो कभी चरणों में वन वाल्मीकि को निहारती हैं, वहां परस्पर वैर भूलकर प्राणी किल्लोल करते हैं। उनकी भक्ति की नदी आज भावातिरेक में भावों की नदी बनकर उछल रही है। हृदय की यह विह्वलता उन्हें भक्ति रस में प्लावित करती है। ऐसे नाथ के चरणों में भक्त के कष्ट स्वयं तिरोहित हो जाते हैं। असाता कर्म For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का हो जाता है, ऐसे टूढ रूप में आरूढ़ प्रभू की वंदना को सुरगण धरती पर आकर अपना गौरव समझते हैं। वे उनका वेष्टित रूप देखकर मोहित हैं 'शालिधान अकुंर राम सुंदर रूप अहो! बाहुबल ईश योग लीन में लता और सर्पों से वेष्टित प्रीति सहित । एक वर्ष की इस साधना से उनमें अलौकिक अनुपम ज्ञान प्रकट हुआ। प्रकृति भी अपनी श्रद्धा को झूम-झूमकर व्यक्त करने लगी "आप ध्यान से हर्षित वन के षट् ऋतु के तरु बेल सभी । पुष्प फलों से सहित भार से नत हो मानो झुकें सभी ॥ पुष्पों से वर्षा तव ऊपर फल से पूजा भक्ति करें। इनके भार से प्रणमन करते शोभें मानो भक्ति भरें ॥" 1 केवलज्ञान प्राप्त भगवान अष्ट प्रातिहार्यों से शोभित हो रहे हैं। उनकी दिव्यध्वनि सच्चे धर्म को व्यक्त करके सन्मार्ग प्रशस्त करती है। कवयित्री भक्ति में इतनी लीन है, आराध्य के चरणों में इतनी रम गई है कि बस अब तो वे उनकी वह कृपादृष्टि चाहती है जिससे वे मुक्ति पथ पर निर्विघ्न अवसर हो सकें. "कृपा सिंधू हे कृपा करो झट मेरी भी रक्षा कीजे । हो प्रसन्न अब मुझ पर भगवन्! अनंत शांति को दीजे ॥ वे इसी भक्ति प्रवाह में संसार के विषचक्र का स्मरण करती हैं और पुनः पुनः उससे छूटने का प्रयास करती हैं। यह भवभ्रमण तो प्रभू के वाम्बु में ही छूट सकता है। क्योंकि तुम्हारा आश्रय ही मुक्तिदाता है Jain Educationa International "जो जन दृढ़ भक्ति से निर्भर तेरा आश्रम लेते हैं। त्रिभुवन जन को आश्रय देने में समरथ होते हैं। बाहुबली की स्तुति ध्यान वंदन ही तो कल्मषता को धोयेंगे। भ बाहुबली की महिना व दर्शन से कटने वाले पाप, प्राप्त होने वाली मुक्ति का उन्होंने पुनःपुनः वर्णन किया है। इन पुनरुक्ति में उनके हृदय की भक्ति की ही उत्कृष्टता है। भक्त को कहाँ ध्यान रहता है कि वह आराध्य के किन गुणों को गा रहा है। भक्ति में बेभान हो जाना ही भक्ति का आनंद है। कवयित्री इस आनन्द को पा सकी हैं अतः यह पुनरुक्ति होना स्वाभाविक है । पूरे स्तोत्र पर मानतुङ्गाचार्य के भक्तामर की झलक है। इसका अर्थ मानतुंगाचार्य की नकल नहीं, पर उसी कोटि का यह काव्य बन सका है। इन श्लोकों में कवयित्री की भक्ति के साथ उनका साहित्यिक पहलू भी स्पष्ट हुआ है। विविध अलंकारों रूपकों ही छटा द्रष्टव्य है। मुझे तो भक्ति ओर साहित्य का यह उत्कृष्ट काव्य लगा। ऐसे काव्य ही साहित्य की श्री वृद्धि करते हैं। साध्वीजी की भक्ति, आराध्य के प्रति समर्पण, गुणकथन, अतिशय एवं प्रभावना आदि के भाव प्रत्येक पद का लालित्य प्रकट करते हैं For Personal and Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२१ प्रवचन निर्देशिका समीक्षक-प्रो. टीकमचंद जैन नवीन शाहदरा, दिल्ली। धाला 'प्रवचन निर्देशिका' नामक ग्रंथ इस युग की महान् लेखिका जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका परम विदुषी गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की शुद्ध प्रासुक लेखनी से प्रसूत एक मौलिक रचना है, जिसमें प्रवचनकर्ता विद्वानों के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश दिये गये हैं, ताकि वे आगमोक्त विषयों को श्रोताओं की पात्रता के अनुरूप सही रूप में समझा सकें और अपने आदर्श चरित्र का उदाहरण पेश कर श्रोताओं में जिनधर्म के प्रति श्रद्धा दृढ़ कर सकें। सर्वतोमुखी उत्थान की पुनीत भावना से परमोपकारी माताजी ने अपनी अनवरत चलने वाली दिव्य लेखनी से निःसृत ज्ञान प्रवाह को विभिन्न साहित्यिक कृतियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है तथा कृशकाय होते हुए भी निरन्तर सर्वोपयोगी साहित्य सृजन में लीन रहती हैं। उसी श्रृंखला में इस 'प्रवचन निर्देशिका' ग्रंथ की रचना हुई। सार रूप में अभिव्यक्त विस्तृत ज्ञान के इस अनुपम कोष की संक्षिप्त समीक्षा करना मेरे लिए अशक्य है, तथापि ग्रंथ की विषयवस्तु का किञ्चित् परिचय प्रदान करता हूँ, ताकि विज्ञ पाठकगण इस अनुपम कृति को पढ़ने के लिए प्रेरित हों तथा आद्योपान्त पढ़कर स्व-पर कल्याण कर सकें। आज के युग में दाम और नाम के लोभ में तथाकथित पंडित लोग निजवाणी को जिनवाणी बताकर सामान्य जन को सन्मार्ग से उन्मार्ग की आर प्रेरित कर रहे हैं तथा कुछ विद्वान् प्रवचन कला में दक्ष न होने के कारण श्रोताओं को बिल्कुल प्रभावित नहीं कर पाते। इसलिए विद्वानों को व्यवस्थित दिशा निर्देश प्रदान करने हेतु माताजी ने इस अनुपम ग्रंथ की रचना कर एक अमूल्य धरोहर विद्वद् समाज को प्रदान की है। पू. माताजी इतनी दक्ष एवं सिद्धहस्त लेखिका होते हुए भी आगम की परिधि को नहीं लांघतीं। प्रस्तुत ग्रंथ में ६८ प्राचीन ग्रंथों के प्रमाण प्रस्तुत करके माताजी ने इसकी प्रामाणिकता रिद कर दी है। प्रस्तुत ग्रंथ गागर में सागर के समान अपने में विशाल ज्ञान को समेटे हुए है। यह ग्रंथ प्रवचन की कुंजी है। प्रस्तुत ग्रंथ लगभग २५० पृष्ठों में निबद्ध है। इसमें अध्यायों में अलग-अलग महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है। प्रवचन पद्धति नामक प्रथम अध्याय में प्रवचनकर्ता के वांछनीय गुण तथा प्रवचन की विषय सामग्री (जिनवाणी) के बारे में, दूसरे अध्याय में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारणों तथा तीसरे अध्याय में सम्यक्त्व के लक्षण एवं महिमा का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय में व्यवहार नय व निश्चय नय का विस्तृत विवेचन कर बताया गया है कि सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने में समीचन हैं तथा मोक्ष के कारण हैं। श्रावक तो व्यवहार नय के आश्रित एक देश चारित्र को ही धारण कर सकते हैं। निश्चय का तो उनके मात्र श्रद्धान ही हो सकता है। पंचम अध्याय में निमित्त-उपादान जैसे गूढ़ विषय को सप्रमाण एवं सोदाहरण बड़े सरल एवं बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक कार्य में निमित्त एवं उपादान दोनों की प्रधानता होती है। सहकारी कारण निमित्त और जो स्वय कार्य रूप परिणित हो जावे, उसे उपादान कहते हैं। मोक्ष के लिए निमित्त रत्नत्रय है, जिसमें भक्ति, पूजा, दान, संयम आदि गर्भित है।म अध्याय में चारों अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग) की सार्थकता बताते हुए कहा गया है कि इनका क्रमपूर्वक अध्ययन सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण तथा मोक्षमार्ग में चलने के लिए दीपक है। सातवें अध्याय में पंचमकाल में मुनियों के अस्तित्व का आगमोक्त वर्णन करते हुए उनकी उत्कृष्ट चर्या पर प्रकाश डाला गया है, ताकि ऐसे महान् तपस्वी वर्तमान के साधुओं के प्रति अगाध श्रद्धा सहज ही उत्पन्न हो सके। व अध्याय में ग्रंथों के अध्ययन-अध्यापन की शैली का विस्तृत वर्णन किया गया है। शास्त्रों में वर्णित विषयों को जनमानस के समक्ष प्रवचन के मायाम से इस तरह प्रस्तुत करना कि वे विषय को पूर्णतः समझ सकें। ऐसा तभी संभव है, जबकि स्वयं विषय का जानकार प्रवचनकर्ता श्रोताओं की ना के अनुरूप पूर्वापर संबंध स्थापित कर नय विवक्षा का आश्रय लेकर विषय को प्रस्तुत करे। अंतिम नवम अध्याय में धर्म ध्यान की उपयोगिता का बताकर आतं-राद्र ध्यान को हटाने को कहा गया है, ताकि साधक क्रमशः कर्मों की निर्जरा कर मोक्ष पथ की ओर अग्रसर हो सके। प्रस्तुत प्रथ का आद्योपान्त अध्ययन समस्त प्रबुद्ध वर्ग के समीचीन ज्ञानवर्द्धन में सहायक होगा, उनको प्रवचन कला में निपुण, कायेगा, उनका भी बनाकर आगम विरुद्ध बोलने पर अंकुश लगायेगा तथा मात्र इसके ज्ञान से परमपूज्य गप्पिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के असीम ज्ञान का लाभ नवनीत रूप में हमें सहज ही प्राप्त हो सकेगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला हस्तिनापुर से प्रकाशित एवं पूज्यगणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रणीत ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुति–पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागरजी अष्टसहस्त्री प्रथम भाग:- जैन न्यायदर्शन का अतिप्राचीन ग्रंथ है। सर्वप्रथम उमास्वामी के मंगलाचरण पर टीका रूप में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने ११४ कारिकायें लिखकर "आप्त मीमांसा" नाम से रचना की। इन्हीं कारिकाओं पर आचार्य अकलंकदेव ने अष्टशती नाम से टीका लिखी। पुनः कारिकाओं एवं अष्टशती को लेकर अब से १२०० वर्ष पूर्व आचार्य विद्यानंद स्वामी ने अष्टसहस्री नाम से विस्तृत टीका का निर्माण किया तथा स्वयं आचार्य महोदय ने उसे कष्टसहस्री नाम दिया। पूज्य माताजी ने इस ग्रंथ की हिन्दी टीका करके जन-जन के लिए सुगम सहस्री बना दिया। इस प्रथम भाग में ६ कारिकाओं की टीका हुई है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९७४ में । पृष्ठ संख्या ४५६ । मूल्य ५१/- रु० । इस प्रथम संस्करण में अंत में १२० पृष्ठीय न्यायसार ग्रंथ को भी जोड़ दिया गया है। द्वितीय संस्करण का प्रकाशन मार्च १९८९ में/पृष्ठ संख्या ४४४+७६/ मूल्य ६४/- रु० । जैन ज्योतिलोकः- पूज्य माताजी द्वारा सन् १९६९ में बक्सी चौक जयपुर में ज्योतिलोंक पर शिक्षण शिविर में दिये गये प्रवचनों के आधार पर इस पुस्तक का सृजन किया गया है। सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि के विषय में सरलतापूर्वक जानकारी देने वाली यह पुस्तक अति उपयोगी है। लेखक-मोतीचंद जैन सर्राफ/द्वितीय संस्करण फरवरी १९७३ में/पृष्ठ संख्या-८२+३६/ मूल्य १.५० रु०। त्रिलोक भास्करः- वैसे तो तीनलोक का विस्तृत वर्णन तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोक विभाग आदि अनेक ग्रंथों में पूर्वाचार्यों ने किया है, किन्तु सुगमता की दृष्टि से पूज्य माताजी ने सरल हिन्दी उन्हीं ग्रंथों का सार इसमें लिया है। यथा स्थान चार्ट एवं चित्रों को देकर इसे विशेष रूप से पठनीय बना दिया है। प्रथम संस्करण सन् १९७४ में, पृष्ठ संख्या २८०+४०, मूल्य १२/- रु०। ४. सामायिक (एवं श्रावक प्रतिक्रमण)- सामायिक पाठ अनेक प्रकार के प्रचलित हैं, इस पुस्तक में प्राचीन क्रियाकलाप ग्रंथ से प्राप्त सामायिक पाठ व उसका माताजी द्वारा अनुवादित हिन्दी पद्यानुवाद दिया गया है साथ ही श्रावक प्रतिक्रमण व उसका हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। हिन्दी पद्यानुवाद हो जाने से साधुवर्ग एवं श्रावकों के लिए सामायिक पाठ सुरुचिकर हो गया है। इसी प्रकार से श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण पाठ भी अच्छी तरह से समझ में आ जायेगा। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सितंबर १९७२ में, पृष्ठ संख्या ७२+६०, मूल्य १.५० रु०। द्वितीय संस्करण अगस्त १९९१ में, पृष्ठ संख्या ९६+१६, मूल्य १२/- रु०।। न्यायसार- पूज्य माताजी की यह भौतिक कृति है। जैन न्यायदर्शन में प्रवेश करने के लिए यह कुंजी के समान है इसमें जैन न्यायदर्शन में प्रयुक्त होने वाले अनेक शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं। अनंतर अन्य दर्शनों की मान्यता को दर्शाते हुए वे असमीचीन क्यों हैं उसे दिया गया है। न्याय की शैली में उनका खण्डन किया गया है। इस ग्रंथ के निर्माण में माताजी ने बहुत परिश्रम किया है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ७/- रु०।। भगवान् महावीर कैसे बने:- भगवान महावीर की जीवनी-पुरूरवा भील से महावीर बनने तक का विवरण संक्षेप में बहुत ही सुगम शैली में दिया गया है। भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर अक्टूबर सन् १९७४ में इस पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन किया गया। द्वितीय संस्करण नवम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या ४०/- मूल्य २/- रु०। जम्बूद्वीप पूजन विधानः- अकृत्रिम जिन चैत्यालयों की भक्ति से सराबोर होकर जम्बूद्वीप रचना निर्माण कराने की अतिउत्कट भावना से पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर के प्राचीन शांतिनाथ जिनालय में भगवान के समक्ष बैठकर जीवन में पहली बार पूजन की रचना की। इसके बाद तो माताजी ने अनेकों पूजाएं व विधानों की रचना की। इस लघु विधान में जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों के अतिरिक्त जम्बूद्वीप में स्थित समस्त देव भवनों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की भी पूजा दी गई है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में। पृष्ठ संख्या ६४ । मूल्य १.५० रु०। तीर्थकर महावीर और धर्मतीर्थः- भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के पावन प्रसंग पर भगवान महावीर के जीवनचरित्र एवं जैन धर्म का जन-जन को परिचय प्रदान कराने के लिए यह छोटी-सी पुस्तक लिखी थी। बड़ी संख्या में इसका प्रकाशन हुआ। प्रथम संस्करण सितम्बर १९७४ में, पृष्ठ संख्या-१६, मूल्य ५० पैसे। श्री वीरजिन स्तुति- भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के पावन अवसर पर पूज्य माताजी द्वारा ३६ पद्यों में भगवान की गुणस्तुति रूप में लिखी गई भावांजलि, २८ पद्यों की जम्बूद्वीप स्तुति तथा ५ पद्यों की मंगल स्तुति इस लघुकाय पुस्तक में दी गई है। प्रथम संस्करण विजया दशमी-अक्टूबर १९७४, पृष्ठ संख्या ३२, मूल्य २५ पैसा । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२३ १५. १०. ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर- हस्तिनापुर की ऐतिहासिक घटनाओं का इस पुस्तक में शास्त्रों के आधार से संक्षेप में उल्लेख किया है। इस तीर्थक्षेत्र पर वर्तमान में उपलब्ध मंदिरों का भी दिग्दर्शन कराया है। द्वितीय संस्करण सन् १९७९ में, पृष्ठ संख्या ६०, मूल्य १.५० रु० । द्रव्य संग्रह- इसके मूलकर्ता आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती हैं। इसमें प्राकृत भाषा में रचित ५८ श्लोक हैं। मूज्य माताजी ने प्राकृत श्लोकों का सरल हिन्दी में पद्यानुवाद तथा संक्षेप में प्रत्येक श्लोक का अर्थ व भावार्थ भी दिया है। परीक्षालयों के पाठ्यक्रम में इसे रखा गया है। विद्यार्थियों के लिए सहज पठनीय व स्मरणीय है। प्रथम संस्करण सन् १९७६ में, पृष्ठ ४४, मूल्य १.०० रु० । चतुर्थ संस्करण सितंबर १९९० में, पृष्ठ संख्या ४८, मूल्य ३/- रु० । आत्मा की खोज:- चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस स्तुतियों में तीर्थंकरों का पूरा परिचय आलंकारिक शैली में दिया गया है। पुस्तक के अंत में आत्म पीयूष नाम से ४५ पद्यों की एक भावपूर्ण स्तुति है, जिसमें शुद्धात्मा की भावना भाई गई है। नित्य पाठ करने योग्य है। प्रथम संस्करण १९७५ में । द्वितीय संस्करण सन् १९८२ में, पृष्ठ संख्या ३६, मूल्य १.०० रु०। जम्बूद्वीपः- तीनलोक विषयक अनेक ग्रंथों में जम्बूद्वीप का विस्तृत विवेचन पढ़ने को मिलता है, उन ग्रंथों को पढ़कर, अच्छी तरह से मननचिंतन, अध्ययन करके माताजी ने यह जम्बूद्वीप नाम की छोटी-सी पुस्तक तैयार की है। “गागर में सागर" के समान जम्बूद्वीप विषयक पर्याप्त जानकारी इस पुस्तक से प्राप्त हो जावेगी। यथास्थान तत् संबंधि कुछ चित्र भी दिये गये हैं। प्रथम संस्करण १९७४ में, तृतीय संस्करण मार्च १९८४ में, पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य ३/- रु० । बाल विकास भाग-१:- जैन धर्म का प्रारंभिक ज्ञान अर्जन करने के लिए इस सचित्र पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९७४ में हुआ था, जिसका मूल्य ५० पैसे था, वर्तमान में इसका १४ वाँ संस्करण अगस्त १९९१ में प्रकाशित हुआ है। पृष्ठ संख्या-२०, मूल्य २/- रु०। बाल विकास भाग-२:- इसके प्रथम भाग की श्रृंखला में और आगे का ज्ञान अर्जन कराने के लिए दूसरे भाग का प्रकाशन हुआ था । वर्तमान में इसका १३वाँ संस्करण मई १९९२ में प्रकाशित किया गया, पृष्ठ संख्या ३६, मूल्य ३/- रु० । बाल विकास भाग-३:- इसके दो भागों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए इसका तीसरा भाग पकाशित किया गया। दशम संस्करण का प्रकाशन अगस्त १९९१ में। पृष्ठ सं. ६४ । मूल्य ५-०० रु०। बाल विकास भाग-४:- ज्ञानार्जन की श्रेणी को आगे बढ़ाते हुए इस चौथे भाग का प्रकाशन किया गया। वर्तमान में इसके ग्यारवें संस्करण का प्रकाशन मई १९९२ में हुआ है। पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य ६/- रु० । नोटः- इन चार भागों को पढ़कर कोई भी विद्यार्थी/पाठक जैनधर्म के अच्छा ज्ञाता बन सकते हैं। समाधितंत्र-इष्टोपदेश:- आचार्य पूज्यपादकृत इन दोनों ग्रंथों का इसमें मूल श्लोकों सहित पद्यानुवाद दिया गया है। समाधितंत्र में १०५ श्लोक तथा इष्टोपदेश में ५१ श्लोक हैं। प्रारंभ में अध्यात्म प्रवेश के लिए ये ग्रंथ अति सुगम हैं। प्रथम संस्करण १९७६ में, पृष्ठ संख्या ४०, मूल्य १.०० रु०। आर्यिकाः- प्रस्तुत पुस्तक के सृजन की एक विशेष स्मरणीय घटना रही। एन. शान्ता नामक एक फ्रांसिसी महिला जैन साध्वी एवं क्रिश्चियन साध्वी पर शोध प्रबंध लिख रही थी। बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें दिगम्बर साध्वियों के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही थी। दैवयोग से उनकी भेंट बनारस में डॉ० गोकुलचंद जैन से हुई। उन्होंने इसके लिये पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम सुझाया। वे ढूँढकर माताजी के पास आई और आर्यिका चर्या की जानकारी के लिये अनेक प्रश्न किये। कुछ प्रश्नों के उत्तर माताजी ने तत्काल दिये एवं शेष प्रश्नों के समाधान रूप में "आर्यिका" नाम से यह पूरी पुस्तक ही तैयार कर दी। जब वे दूसरी बार आईं तो पुस्तक देखकर बहुत प्रसन्न हुई । “एक पंथ दो काज" हो गये। एक बहुत बड़ी कमी की पूर्ति हुई। आर्यिकाओं की चर्या का ज्ञान कराने वाली एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो गई। प्रथम संस्करण सन् १९७६ में, पृष्ठ ८०, मूल्य २/- रु०। २०. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती जीवन दर्शन:- जैन समाज के सुप्रसिद्ध कवि सकरार (झांसी) म०प्र० निवासी स्व० श्री शरमनलाल "सरस" ने पूज्य माताजी की भक्ति से ओत-प्रोत होकर १२८ पद्यों में उनकी भावपूर्ण जीवनगाथा लिखी, जो सन् १९७६ में माताजी के जन्मदिन शरदपूर्णिमा पर प्रकाशित की गई। प्रथम संस्करण सन् १९७६ में, पृष्ठ संख्या ४४, मूल्य १.२५ रु०।। व्रत विधि एवं पूजा:- दिगंबर जैन समाज में विधिपूर्वक व्रतों को करने की अतिप्राचीन परम्परा है। इस पुस्तक में णमोकार व्रत, जिनगुणसंपत्ति, रोहिणी, पंचपरमेष्ठी एवं सप्त परमस्थान व्रतों में की जाने वाली पूजाएं दी हैं जो कि पू० माताजी द्वारा बनाई गई हैं। इन व्रतों की विधि, व्रतों से संबंधित जाप्य मंत्र तथा कुछ की संक्षिप्त कथा भी दी है। इनके अतिरिक्त वृहतपल्य व्रत की विधि भी दी गई है। प्रथम संस्करण सन् १९७७ में, नवम संस्करण जुलाई सन् १९९२ में, पृष्ठ संख्या ५२, मूल्य ३/- रु० । २२. इन्द्रध्वज विधान:- सन् १९७६ में पहली बार स्वतंत्र रूप से इसे हि दी भाषा में पूज्य माताजी द्वारा लिखा गया। तब से सारे देश में इस विधान की धूम मची हुई है। इसमें मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की पूजा है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९७८ में, पृ. संख्या ४९६+४८, मूल्य ५/- रु., पंचम संस्करण अप्रैल १९९१ में, पृ. संख्या ३६८+४८, मूल्य ३२/- रु.। १८. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला २७. २३. प्रतिज्ञाः- "मनोवती की दर्शन कथा" के आधार पर लिखा हुआ यह रोमांचक उपन्यास है। पंचम संस्करण-सितम्बर १९८९ में. प. संख्या १२८, मूल्य ५/- रु.। प्रवचन निर्देशिका:- पूज्य माताजी के सानिध्य में हस्तिनापुर में सन् १९७८ के अक्टूबर माह में शांतिवीर सिद्धांत संरक्षिणी सभा व दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के संयुक्त तत्त्वावधान में एक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया था। शिविरार्थियों को प्रवचनकला का शिक्षण देने के लिए माताजी ने शिविर से पूर्व यह पुस्तक मात्र दो माह में लिखकर तैयार कर दी। इसमें ५० ग्रंथों से संकलन है। प्रवचन कर्ताओं के लिए अति उपयोगी हैं। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९७७ में, तृतीय संस्करण नवम्बर १९९१ में, पृ. संख्या २२८. मूल्य २०/- । २५. चौबीस तीर्थकरः- चौबीस तीर्थंकरों का अलग-अलग संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत पुस्तक में दिया गया है। प्रत्येक तीर्थंकरों की पूर्व पम्। सं आगमन, पांच कल्याणकों के स्थान, तिथियाँ आदि दी गई हैं। तीर्थंकरों के जीवन की लगभग सभी प्रमुख घटनाएँ प्रत्येक परिचय में एक ही पुस्तक में माताजी ने संगृहीत कर दी हैं। प्रथम संस्करण सन् १९७९ में, द्वितीय संस्करण जनवरी १९८२ में, पृष्ठ संख्या ८८, मूल्य २.५० रु.।। आराधना (अपरनाम-श्रमणचर्या):- दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की दीक्षा से समाधिपर्यंत प्रतिदिन प्रातः से सायंकाल तक की जाने वाली चर्या एवं क्रियाओं को दर्शाया गया है। गणिनी माताजी ने अपने संस्कृत-व्याकरण छंद का पूर्ण रूप से इसमें सदुपयोग किया। संपूर्ण ४५१ संस्कृत श्लोक स्वयं माताजी द्वारा रचित हैं। प्रत्येक श्लोक का हिन्दी में अर्थ तथा जगह-जगह भावार्थ भी उन्हीं का है। श्लोकों के शीर्षक भी दिये हैं। साधु-साध्वियों के लिए एवं उनकी चर्या को जानने वाले जिज्ञासु श्रावक-श्राविकाओं के लिए यह छोटा-सा ग्रंथ अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण १९७९ में, पृ. सं. १४३, मूल्य २.५० रु. । शिक्षण पद्धति :- बालक-बालिकाओं तथा जैन धर्म का प्रारंभिक ज्ञान अर्जन करने वाले युवा एवं प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों को किस प्रकार से शिक्षण देना चाहिए कि जिससे उनको समीचीन ज्ञान की प्राप्ति हो तथा जिन धर्म के दृढ़ श्रद्धानी बनें। इस पुस्तक में बालविकास चार भाग, छहढाला तथा द्रव्य संग्रह पुस्तकों को किस प्रकार से पढ़ाना चाहिए, उसकी पद्धति शिक्षकों के लिए दी गई है। प्रथम संस्करण सितम्बर, १९७९ में, पृ. संख्या-३२, मूल्य १.०० रु.।। पंचपरमेष्ठी विधान:- पंचपरमेष्ठी जैन धर्म के मूल आधार हैं। प्रत्येक संज्ञी जीव (मनुष्य या तिर्यंच) इन्हीं का नाम जपकर, पूजा भक्ति करके अपने पापों का नाश करते हैं। इस विधान में भी पंचपरमेष्ठी के गुणों की आराधना की गई है। प्रथम संस्करण मार्च १९८२ में, पृ. संख्या ६८, मूल्य ३/- रु. । तृतीय संस्करण अप्रैल १९९१ में, पृ.सं. ६२+८, मूल्य ६/- रु.। तीसचौबीसी विधानः- इस ग्रंथ में पंचमेरु संबंधि वर्तमान, भूत एवं भविष्यकालीन तीस चौबीसी के ७२० तीर्थंकरों की पूजाएं हैं। प्रथम संस्करण जनवरी १९८१ में, पृ. संख्या २५६, मूल्य ८/- रु., तृतीय संस्करण अप्रैल १९९२ में, पृष्ठ संख्या २६०+२६, मूल्य २५/- रु.। भगवान बाहुबली:- भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक श्रवणबेलगोल के पावन प्रसंग पर भगवान बाहुबली की जीवन गाथा तथा ५७ फुट ऊँची अति मनोज्ञप्रतिमा का प्रत्यक्ष या परोक्ष दर्शन का आनंद प्रदान कराने के लिए यह पुस्तक तैयार की गई। इसमें १११ पश्यों में बाहुबली लावणी तथा गद्य में जीवन चरित्र दिया गया है। दोनों रचनाएं पूज्य माताजीकृत हैं। बाहुबली लावणी का सृजन सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल में साक्षात् बाहुबली की प्रतिमा के समक्ष बैठकर माताजी ने किया था। सन् १९८१ में इसी लावणी को संगीतबद्ध करके ७ सप्ताह तक आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित किया गया था, जिसका शीर्षक था "पाषाण बोलते हैं।" प्रथम संस्करण मार्च १९८०, पृ. संख्या ५६, मूल्य २.०० रु.। रत्नकरंड श्रावकाचार:- तार्किक शिरोमणि आचार्य समंतभद्रकृत सर्व परिचित रत्नकरंड श्रावकाचार ग्रंथ के १५० श्लोकों का माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद किया है। इसमें हिन्दी पद्य तथा पद्यों के सामने संक्षेप में अर्थ दिया गया है। शिक्षण शिविरों तथा विद्यालयों के लिए विशेष उपयोगी है। रत्नकरंड पद्यावली के नाम से प्रथम संस्करण मई १९८० में, पृ. संख्या १०६, मूल्य २.५० रु., द्वितीय संस्करण में हिन्दी पद्यानुवाद तथा अर्थ के साथ-साथ आचार्य श्री कृत संस्कृत श्लोक भी दिये गये हैं। द्वितीय संस्करण मई १९९२ में, पृ. संख्या ९४ मूल्य ६/- रु.। ३२. भक्ति:- यह भी उपन्यास है, जिसमें सेठ सुदर्शन, महामुनि सुकुमाल, रक्षाबंधन एवं अंजन चोर की कथाएं हैं। इस ग्रंथमाला से कम्प्यूटर कम्पोजिंग करवाकर ऑफसेट से छपने वाली यह प्रथम पुस्तक है। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में, पृ. संख्या १०६, मूल्य १.५० रु. ! द्वितीय संस्करण सन् १९९२ में । पृ. संख्या १०३, मूल्य ५.०० रु.। प्रभावना:- इस उपन्यास में अकलंक-निकलंक का जीवन-वृत्त दिया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९८० में। द्वितीय संस्करण सन् १९८२ में। पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य २.५० रु.। ऋषि मंडल विधान पूजन:- यह विधान दिगम्बर जैन समाज में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सुख, शांति व समृद्धि के लिए इस विधान की पूजन व ऋषिमंडल स्तोत्र का पाठ किया जाता है। माताजी ने विधान पूजन का हिन्दी व स्तोत्र भी हिन्दी में बना दिया है, जिससे पढ़ने वालों को विशेष आनंद प्राप्त होता है । प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९८१ में, तृतीय संस्करण अप्रैल १९९१ में । पृ. संख्या ५२+८, मूल्य ५/- रु. । ३०. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनो आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२५ ४०. ४२. ३५. शांति विधानः- सुख शांति की प्राप्ति के लिए भगवान शांतिनाथ की पूजा है, इसमें १२० अर्घ्य हैं। प्रथम संस्करण सन् १९८० में। तीसरा संस्करण अप्रैल १९९१ में । प. संख्या ४४-८, मूल्य ५/- रु.। नित्य पूजा:- इस पुस्तक में सर्व जनप्रिय मवदेवता पूजन, सिद्ध पूजा एवं बाहुबली पूजा तथा कुछ भजन व आरती हैं। तीनों पूजाएं पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण १९८० में । द्वितीय संस्करण १९८१ में । पृष्ठ संख्या २८, मूल्य ५० पैसे। ३७. सुदर्शन मेरु पूजाः- पूज्य माताजी द्वारा लिखित सुदर्शन मेरु पूजा एवं सुमेरु वंदना के अतिरिक्त अन्य लेखकों की कविताएं व भजन भी इसमें दिये गये हैं। प्रथम संस्करण १९८० में । द्वितीय संस्करण सन् १९८२ में । पृष्ठ संख्या ५४, मूल्य ५० पैसा। सोलह भावना:- जिनकी भावना भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है, ऐसी सोलह भावनाओं का स्वरूप एवं एक-एक भावना संबंधि कथा इस पुस्तक में दी गई है। कथाएँ पुराण ग्रंथों से माताजी ने स्वयं संकलित की हैं। स्वाध्याय के लिए तो उत्तम है ही, प्रवचनकार विद्वानों के लिए भी विशेष रूप से उपयोगी है। प्रथम संस्करण फरवरी, १९८५ में, पृष्ठ संख्या १००, मूल्य ८/- रु. । ३९. तीर्थंकर त्रय पूजा:- भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ की सामूहिक पूजा व अलग-अलग पूजा, भगवान बाहुबली की पूजा तथा हस्तिनापुर क्षेत्र का संक्षेप में प्राचीन-अर्वाचीन परिचय दिया है। सभी पूजाएं माताजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण १९८१ में। पृष्ठ संख्या ४०, मूल्य १.०० रु.। भगवान् वृषभदेवः- जैन संस्कृति के प्रथम तीर्थंकर युग प्रवर्तक देवाधिदेव भगवान आदिनाथ का जीवन वृत्त-पांचों कल्याणक तथा उनके पूर्व भव इस उपन्यास में दिये गये हैं। पुस्तक छोटी होते हुए भी सारगर्भित है। पूज्य माताजी की अपनी यह एक विशिष्ट शैली है कि पुस्तक . छोटी हो या बड़ी, पूजाएं हों या स्वाध्याय के ग्रंथ, सभी में सुगमता से जैन धर्म के चारों अनुयोगों का समावेश कर देती हैं। माताजी द्वारा लिखी प्रत्येक पुस्तक को पढ़ने से जीवन जीने की कला प्राप्त होती है। प्रथम संस्करण सन् १९८१ में । पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य २.५० रु.। रोहिणी नाटकः- महारानी रोहिणी जो कि महाराजा अशोक की पत्नी थी, जिसके पुण्य का इतना प्रबल उदय था कि उसे यह भी मालूम नहीं था कि रोना किसे कहते हैं? उसने ऐसे महान् पुण्य का बंध रोहिणी व्रत करके किया था, उस व्रत की महिमा इस नाटक में दिखाई गई है। तृतीय संस्करण सन् १९८८ में। पृ. ७२, मूल्य ३/- रु.। जिनस्तोत्र संग्रहः- पूज्य माताजी द्वारा लिखी हुई स्तुतियों एवं स्तोत्रों का यदा-कदा प्रकाशन विभिन्न पुस्तकों में किया गया। प्रत्येक स्तुतियाँ अतिभावपूर्ण हैं। उनका सबका एक साथ प्रकाशन इस स्तोत्र संग्रह में किया गया है। इसके प्रकाशन से माताजी द्वारा लिखी हुई स्तुतियों व स्तोत्रों पर शोध करने वाले शोधकर्ताओं को भी सुगमता हो गई है। इसमें प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र, स्वयंभू स्तोत्र आदि कुछ सुप्रसिद्ध स्तोत्र भी दिये गये हैं। प्रथम संस्करण जून १९९२ में। पृष्ठ संख्या ५३२-३६ । मूल्य ६४/- रु.।। जीवन दान:- जीव दया पर लिखे गये इस उपन्यास में मृगसेन धींवर द्वारा ली गई छोटी-सी प्रतिज्ञा उसे अगले भव में पाँच बार जीवन रक्षा में सहकारी होती है। इस घटना को बहुत ही सरल भाषा में प्रदर्शित करता है। प्रथम संस्करण १९८१ में। चतुर्थ संस्करण १९९२ में। पृ. ३६, मूल्य २.५० रु.। उपकार:- जीवंधर कुमार के जीवन के उतार-चढ़ाव को दर्शाने वाला यह उपन्यास सुकृत की महिमा को प्रकट करता है। द्वितीय संस्करण सन् १९८२ में। पृष्ठ संख्या ६०. मूल्य २.५० रु.। परीक्षा:- "पद्म पुगण' के आधार से उपन्यास की शैली में मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी एवं सीताजी का जीवनवृत्त इसमें है। पंचम संस्करण अप्रैल १९९१ में, पृष्ठ संख्या १६०, मूल्य ६. र. । नियमसार पद्यावली:- आचार्य कुंदकुंदकत आध्यात्मिक ग्रंथ नियमसार की १८७ गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद माताजी ने किया है। इसमें मूल गाथाएं, पद्यानुवाद तथा गाथाओं के नीचे संक्षेप में अर्थ भी दिया है। अध्यात्म रस का आनंद लेने के लिए पद्यानुवाद सुरुचिकर है। प्रत्येक अधिकार के अंत में सारांश भी दिये हैं। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९८.० में। पृष्ठ संख्या ११२, मूल्य ५/- रु.। दिगम्बर मुनि:- वैसे तो दिगम्बर मुनि आर्यिकाओं की चर्या संबंधी अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं जैसे मूलाचार, अनगार धर्मामृत इत्यादि, किन्तु ये ग्रंथ बड़े-बड़े हैं। सामान्यजन इन ग्रंथों को पढ़कर संक्षेप में मुनिचर्या की जानकारी प्राप्त नहीं कर पावेंगे। इसे लक्ष्य में रखकर माताजी ने उक्त ग्रंथों के सार में, न बहुत संक्षिप्त न अति विस्तृत अपितु मध्यम रूप में इस "दिगम्बर मुनि' नाम से ग्रंथ को लिखकर तैयार किया। जिन-जिन ग्रंथों से जिस विषय को इसमें लिया है नीचे टिप्पणी में उन ग्रंथों का नाम दे दिया है। समस्त विश्व के लोगों के लिए दिगम्बर मुनि आर्यिकाओं की दीक्षा से समाधिपर्यंत प्रतिदिन प्रातः से रात्रि तक की जाने वाली क्रियाओं का सरलता से बोध कराया गया है। स्वयं मुनि-आर्यिकाओं के लिए भी यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी है। द्वितीय संस्करण १९८२ में, पृष्ठ संख्या ३०४-२८, मूल्य १०/- रु० । ४८. जैन भारती:- पूज्य माताजी ने अपने दीक्षित जीवन में सैकड़ों ग्रंथों का अध्ययन, स्वाध्याय किया है उनमें से सार रूप यह ग्रंथ माताजी ने लिखा है। इसमें एक-एक अनुयांग के विषय प्रारंभ से अंत तक संक्षेप में दिये हैं। चार खण्डों में चार अनुयोगों को बहुत ही सुगम शैली में प्रतिपादित किया है। जैन धर्म का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन एवं जैनेतर सभी के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका अध्ययन, स्वाध्याय Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ५५. दो-चार बार करने से जैनधर्म की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है। प्रथम संस्करण सन् १९८१ में । तृतीय संस्करण अक्टूबर १९९० में। पृष्ठ संख्या २४४+३२, मूल्य ३६/- रु०। पूजा अभिषेक:- इस पुस्तक में पूजा मुख विधि, पूजा अंत्य विधि प्रतिष्ठातिलक से लेकर माताजी ने उसका हिन्दी पद्यानुवाद किया है, पंचामृत अभिषेक पाठ हिन्दी पद्यानुवाद तथा माताजी द्वारा ही रचित कुछ पूजाएं हैं, जो कि अच्छी लय में बनाई गई हैं भावपूर्ण भी हैं। चतुर्थ संस्करण नवम्बर १९८७ में, पृष्ठ संख्या ९६, मूल्य ४/- रु० । बाहुबली पूजाः- भगवान बाहुबली सहस्रादि महामस्तकाभिषेक के पावन प्रसंग पर इस छोटी-सी पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। इसमें भगवान् बाहुबली की पूजन के अतिरिक्त बाहुबली अष्टक एवं कई आरतियाँ दी गई हैं। प्रथम संस्करण सन् १९८१ में। पृष्ठ संख्या ३२, मूल्य-भक्ति। बाहुबली नाटकः- भगवान बाहुबली का जीवन चरित्र तथा उनकी प्रतिमाओं के निर्माण का इतिहास, विशेषकर कर्नाटक प्रदेश में श्रवणबेलगोल स्थित ५७ फुट ऊंची प्रतिमा के निर्माण का इतिहास इस लघुकाय पुस्तक में नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९८१ में। पृष्ठ ७२, मूल्य २/- रु०। ५२. योग चक्रेश्वर बाहुबली:- भगवान बाहुबली की जीवनी एवं श्रवणबेलगोल की प्रतिमा निर्माण का रोचक प्रसंग उपन्यास की शैली में निरूपित है। प्रथम संस्करण सितंबर १९८० में। पृष्ठ संख्या ११५, मूल्य २/- रु०। ५३. कामदेव बाहुबली:- भगवान् बाहुबली जिन्होंने जीतकर भी अस्थिर राज्य संपदा का त्याग कर इस भारत भूमि पर एक महान् परम्परा का बीजारोपण किया जिसका भारत के शासक आज भी अनुकरण कर रहे हैं, उनका प्रेरणास्पद कथानक इस छोटे से उपन्यास में अवतरित किया है। यह उपन्यास हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, कन्नड़ एवं मराठी भाषाओं में प्रकाशित किया गया सन् १९८१ में, भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक महोत्सव श्रवणबेलगोल के अवसर पर । प्रथम संस्करण सन् १९८१ में। पृष्ठ संख्या ३९, मूल्य १.०० रु०। ५४. बाहुबली स्तोत्र एवं पूजा:- इसमें दिया गया ४४ पद्यों में संस्कृत में रचित बाहुबली स्तोत्र माताजी ने सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल में लिखा था, तभी छप भी गया था। यह पुनर्मुद्रण है । अंत में बाहुबली की पूजा हैं। प्रथम संस्करण सन् १९८१ में । पृष्ठ संख्या ६८, मूल्य १.५० रु० । जम्बूद्वीप गाइड (जम्बूद्वीप एवं हस्तिनापुर):- इस लघु पुस्तिका में माताजी ने जम्बूद्वीप को जानने के लिए सरल भाषा में जम्बूद्वीप के चैत्यालय, नदी, पर्वत, क्षेत्र आदि का दिग्दर्शन कराया है। साथ ही जिस पावन भूमि पर भव्य जम्बूद्वीप रचना का निर्माण हुआ है उसकी प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं का भी अतिसंक्षेप में वर्णन किया है। अंत में जम्बूद्वीप रचना से संबंधित कुछ भजन भी दिये हैं। प्रथम संस्करण जनवरी १९८१ में। पृष्ठ संख्या २४, मूल्य ५० पैसा । जैन बाल भारती भाग-१:- जैन परम्परा में सुप्रसिद्ध महापुरुषों की जीवनी से सम्बन्धित १७ शिक्षास्पद कथानक इस पुस्तक में दिये गये हैं, जो कि रोचक व सुगम हैं। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९८२ में। पृष्ठ संख्या ४४+८, मूल्य २/- रु०। जैन बाल भारती भाग-२:- इस भाग में १४ कथानक हैं। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९८२ में, पृष्ठ संख्या ५६, मूल्य २/- रु० । जैन बाल भारती भाग-३:-इस भाग में १३ कथानक हैं। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९८२ में । पृष्ठ संख्या ६२+१०, मूल्य २.५० रु०। नारी आलोक भाग-१:- इस पुस्तक में प्रश्नोत्तर के माध्यम से अनेक विषयों का एवं इतिहास प्रसिद्ध महिलाओं एवं महापुरुषों के जीवन वृत्त का बोध कराया गया है। २५ लेख हैं प्रत्येक लेख रोचक एवं प्रेरणास्पद है। प्रथम संस्करण सन् १९८२ में । पृष्ठ संख्या ७५, मूल्य ३/-रु० । ६०. नारी आलोक भाग-२:- प्रथम भाग की तरह दूसरे भाग में भी २४ लेख हैं जिनमें भिन्न-भिन्न विषयों को सुगम भाषा में प्रश्नोत्तर के माध्यम से खोला गया है तथा कुछ में कथाएं भी दी गई हैं। लेख आबाल-गोपाल, स्त्री-पुरुष सभी के पढ़ने योग्य हैं। प्रथम संस्करण १९८२ में। पृष्ठ संख्या १०६, मूल्य ३.५० रु०।। दशधर्म:- उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के विवेचन रूप में छोटी-बड़ी अनेक पुस्तकों का प्रकाशन विभिन्न स्थानों से विभिन्न लेखकों के द्वारा हुआ है, किन्तु यह अपने प्रकार की एक अलग ही पुस्तक है। इसमें प्राकृत वाली दशधर्म की पूजा के एक-एक धर्म के अर्घ्य के श्लोकों को प्रारंभ में देकर उसका अर्थ, उस धर्म से संबंधित कथाएं एवं इस धर्म का विवेचन दिया है। पुस्तक के अंत में माताजी द्वारा रचित दशधर्म की एक-एक हिन्दी कविता भी दी गई है। प्रवचनकर्ताओं के लिए यह पुस्तक विशेष उपयोगी है। प्रथम संस्करण १९८३ में। द्वितीय संस्करण जून १९८६ में। पृष्ठ संख्या ११०, मूल्य ६/- रु०। जैन भूगोल:- इस छोटी-सी पुस्तक में अनेकों ग्रंथों के साररूप में सरल भाषा में जम्बूद्वीप, नंदीश्वर द्वीप, तेरहद्वीप व तीनलोक का अतिसंक्षिप्त वर्णन किया है। इस पुस्तक को पढ़कर पृथ्वी मंडल का सहज ज्ञान प्राप्त हो सकता है। प्रथम संस्करण मार्च १९८४ में। पृष्ठ संख्या ६०, मूल्य ४/- रु०। ५९. ६२. जन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२७ . ६३. आदिब्रमाः - जैन संस्कृति के वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का चरित्र संक्षेप में दिया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में। पृष्ठ १६४, मूल्य ४/- रु०। ज्ञानज्योति गाइड:- ४ जून १९८२ को दिल्ली के लाल किला मैदान से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के करकमलों से एवं पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभांरभ हुआ था। संपूर्ण भारतवर्ष में १०४५ दिनों तक भ्रमण हुआ। आवश्यकता को देखते हुए १९८४ में इस ज्ञानज्योति गाइड पुस्तक का सृजन माताजी ने किया। इसको पढ़ने से हस्तिनापुर का इतिहास, जम्बूद्वीप रचना का परिचय तथा ज्योति रथ पर दिये गये चित्रों का परिचय प्राप्त होता है। हिन्दी के अतिरिक्त मराठी व असमिया भाषा में भी इसका प्रकाशन किया गया। प्रथम संस्करण १९८४ में। पृष्ठ संख्या ४४, मूल्य १.०० रु०। ६५. भरत बाहुबली (चित्र कथा):- बालक-बालिकाओं को भगवान भरत बाहुबली की जीवन का सुगमता से परिचय कराने के लिए चित्रों के माध्यम से कथा लिखी, जो कि अति आधुनिक शैली में है। इसका प्रकाशन नवभारत टाइम्स से प्रकाशित होने वाले इन्द्रजाल कामिक्स की श्रृंखला नं. ३६८ में फरवरी १९८१ में भगवान बाहुबली सहस्राब्दि महामहोत्सव के पावन अवसर पर हिन्दी व अंग्रेजी में किया गया। मूल्य १.५० रु०। धरती के देवताः- देव स्वर्ग में भी रहते हैं व पृथ्वी पर भी, किन्तु यहाँ धरती के देवता का तात्पर्य है मानव शरीर को धारण करने वाले दिगम्बर मुनि। पूज्य माताजी ने अति संक्षेप में इस छोटी-सी पुस्तक में यह बताया है कि दिगम्बर मुनि कैसे बनते हैं? प्रातः से रात्रि तक क्या करते हैं? किन महान् गुणों का पालन करते हैं? इत्यादि । अन्य धर्मावलम्बियों ने दिगम्बर मुनि अवस्था को सर्वश्रेष्ठ माना है यह बताया गया है। यह पुस्तक जैन व जैनेतर सभी के लिए पठनीय है। प्रथम संस्करण जून १९८२ में। पृष्ठ संख्या ४०, मूल्य १.०० रु०। पतिव्रताः- उपन्यासों की श्रृंखला में यह भी अपना विशेष महत्त्व रखता है। अपने कोढ़ी पति कोटिभट श्रीपाल का एवं उसके सैकड़ों योद्धा साथियों का कुष्ठ रोग दूर करने वाली शील शिरोमणि मैना सती को जैन समाज का ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो न जानता हो। जिसने सिद्धचक्र विधान रचाकर भगवत् भक्ति के प्रभाव के अभिषेक का गंधोदक लगाकर महारोग को दूर कर दिया। अतिरोमांचक कथानक है। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में। पृष्ठ संख्या ९२, मूल्य १.५० रु०। आटे का मुर्गाः-यशोधर चरित्र पर लिखा गया यह उपन्यास हिंसा के दुष्परिणाम को बताने वाला है। आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बली करना भी कितने महान् पाप बंध का कारण बना? अति रोमांचक कथानक है। तृतीय संस्करण-अगस्त १९९१ में । पृष्ठ १४८, मूल्य ६/- रु० । एकांकी प्रथम भागः- इसमें तीन कथानक लघु नाटिकाओं के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। (१) दृढ़सूर्य चोर एवं णमोकार महामंत्र का प्रभाव (२) अहिंसा की पूजा (यमपाल चांडाल की दृढ़ प्रतिज्ञा) (३) सती चंदना। प्रथम संस्करण-अक्टूबर १९८३ में । पृष्ठ ४८, मूल्य २/- रु०। ७०. एकांकी द्वितीय भागः- इसमें भी तीन कथानक लघु नाटिकाओं के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं- (१) तीर्थंकर ऋषभदेव, (२) अकाल मृत्यु विजय (पोदनपुर नरेश विजय महाराज), ३- प्रत्युपकार पूर्व भव में राजा मेघरथ के रूप में भगवान शांथिनाथ । प्रथम संस्करण-अक्टूबर १९८४, पृष्ठ संख्या ६४, मूल्य २.५० रु०।। ७१. पुरुदेव नाटकः- भगवान ऋषभदेव के परम पावन जीवनवृत्त को प्रदर्शित करने वाले इस नाटक का प्रकाशन भी उपर्युक्त महोत्सव के शुभ अवसर पर किया गया। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में। पृष्ठ संख्या १२२ । मूल्य ३.००। जैनधर्मः- भगवान जिनेन्द्र के द्वारा प्रतिपादित धर्म को जैन धर्म कहते हैं। जैन धर्म प्राणीमात्र का धर्म है। इसे तो पशु-पक्षियों तक ने धारण किया है। संसार का प्रत्येक मनुष्य इसे धारण कर सकता है। इसलिए माताजी ने यह छोटी-सी पुस्तक लिखी है। जैन धर्म का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत अच्छी पुस्तक है। प्रथम संस्करण जुलाई १९८४ में। पृष्ठ संख्या ४४, मूल्य १.०० रु० । जम्बूद्वीप एंड हस्तिनापुर (अंग्रेजी):- जम्बूद्वीप गाइड का यह अंग्रेजी भाषांतर है। अंग्रेजी अनुवादक श्रीमती राजरानी जैन मोरीगेट दिल्ली। प्रथम संस्करण नवम्बर १९८३ में। पृष्ठ संख्या ३६, मूल्य ५० पैसा। ७४. जिनगुणसम्पत्ति विधान:- इस विधान में भगवान जिनेन्द्र के गुणों की पूजा है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् १९८५ में । पृष्ठ संख्या-४८, मूल्य २.५० रु०॥ नियमसार:- आचार्य कुन्दकुन्द के इस ग्रंथ की आ. पद्मप्रभमलधारीकृत प्रथम संस्कृत टीका की हिन्दी टीका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अतीव सुगम शैली में अथक परिश्रम करके की है। इसमें भावार्थ-विशेषार्थ भी दिये हैं। अनेक स्थलों पर गुणस्थानों का स्पष्टीकरण किया है। प्रथम संस्करण फरवरी १९८५ में। पृष्ठ संख्या ५२+५३० । मूल्य ३५/- रु०।। जैन जाग्रफी (अंग्रेजी):- पूज्य माताजी द्वारा जम्बूद्वीप के विषय में संक्षेप में लिखी गई पुस्तक जैन भूगोल का यह अंग्रेजी अनुवाद है। अनुवादक डॉ० एस.एस. लिस्क पटियाला (पंजाब) हैं। प्रथम संस्करण सन् १९८५ में। पृष्ठ संख्या ६०, मूल्य १०/- रु०। (पुस्तकालय संस्करण १५/- रु०) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ८०. ७७ कम्पेशियन:- मृगसेन धींवर की प्रतिज्ञा के सुफल को प्रदर्शित करने वाले जीवनदान उपन्यास का यह अंग्रेजी रूपांतर है। प्रथम संस्करण मार्च १९८४ में, पृष्ठ संख्या ३३, मूल्य १.५० रु०। जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्तिः- जम्बूद्वीप के कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयों की एक पूजा तथा जिनालयों की एवं सुमेरु की भक्ति पूज्य माताजी द्वारा रचित है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में, पृष्ठ संख्या ३२ मूल्य १.०० रु० । हस्तिनापुर पूजा:- हस्तिनापुर क्षेत्र की पूजन, आदिनाथ, भरत, बाहुबली पूजन तथा शांति, कुन्थु, अरनाथ की पूजन दी गई हैं जो कि पूज्य माताजी द्वारा रचित हैं। पूजाओं को पढ़ने से तत् सम्बंधि पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में। पृष्ठ संख्या २४, मूल्य १.०० रु०। कुन्दकुन्द का भक्तिरागः- भक्ति मार्ग का प्रचार-प्रसार आज से नहीं, आचार्य कुन्दकुन्द के समय से था। वीतराग मार्ग का अनुशरण करते हुए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने भक्ति पाठों की रचना की। ये भक्तियाँ प्राकृत भाषा में रचित हैं। आर्यिका रत्नमतीजी के विशेष आग्रह से पूज्य माताजी ने इनका हिन्दी पद्यानुवाद सन् १९७२ में कर दिया था, किन्तु उनका प्रकाशन सन् १९८५ में हो पाया। इस पुस्तक में आचार्य पूज्यपाद कृत संस्कृत भक्तियों का तथा गौतम गणधर रचित दो भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण अप्रैल सन् १९८५ में, पृष्ठ संख्या १३३+१८ मूल्य ८/- रु०। ८१. नियमसार प्राभृतः- नियमसार की आ. पद्मप्रभमलधारीदेव कृत टीका की हिन्दी करने के बाद माताजी के भाव नियमसार पर ही पुनः संस्कृत टीका लिखने के हुए। तदनुसार संस्कृत टीका लिखकर स्वयं ही माताजी ने उसकी हिन्दी टीका भी कर दी। हिन्दी टीका के साथ-साथ आवश्यकतानुसार भावार्थ-विशेषार्थ देकर विषय को अच्छी तरह से स्पष्ट कर दिया है। अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए यह नियमसार प्राभृत टीका अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन अप्रैल १९८५ में | पृष्ठ संख्या ५७८+३६, मूल्य ७०/- रु०। ८२. सती अंजनाः- जैन जगत् में सती अंजना का नाम सुपरिचित है। इस उपन्यास में अंजना की जीवनी अति सुंदर एवं आकर्षक शैली में दी गई है। प्रथम संस्करण १९८८ में। पृष्ठ संख्या १२८, मूल्य ४/- रु०। कातंत्ररूपमाला:- (व्याकरण) श्री सर्ववर्म आचार्य प्रणीत यह कातंत्ररूपमाला नाम की व्याकरण दि० जैन परंपरा में संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए सबसे सरल व्याकरण है। इसमें कुल १३८३ सूत्र हैं। आचार्य भावसेन त्रैविद्य ने इसकी टीका लिखी है। इस पर दौर्गसिंह कृत टीका भी प्राचीन ग्रंथ भंडारों में मिलती है । सन् १९५४ में जयपुर में माताजी ने इस व्याकरण को मात्र २ माह में कण्ठस्थ कर लिया था। यही व्याकरण माताजी के ज्ञानरूपी महल की नींव का प्रथम पत्थर है। अनेक विद्यार्थियों की इस व्याकरण को पढ़ने की रुचि एवं आग्रह से माताजी ने सन् १९७३ में इसके सूत्रों व टीका का हिन्दी अनुवाद किया। बहुत चाहते हुए भी १४ वर्ष के पश्चात् मार्च १९८७ में इसका हिन्दी टीका सहित प्रकाशन हुआ। वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला के १३५ पुष्पों में मात्र एक यही ग्रंथ ऐसा रहा, जिसकी ५०० प्रतियाँ छपाई गईं यह सोचकर कि इसको पढ़ने वाले बहुत कम मिलेंगे। एक वर्ष में ही सारी प्रतियाँ समाप्त हो गईं यदि शीघ्र पुनर्मुद्रण हो जाता तो शायद हजार प्रतियाँ और समाप्त हो जाती किन्तु व्यस्तता के कारण अभी तक द्वितीय संस्करण नहीं छप सका है। प्रथम संस्करण मार्च १९८७ में, पृष्ठ संख्या ४५८+२६, मूल्य ५१/- रु०। जम्बूद्वीप विधान:- इस विधान में जम्बूद्वीप के अकृत्रिम व कृत्रिम चैत्यालयों की पूजाएं हैं। इसका प्रथम संस्करण मार्च १९८७ में प्रकाशित हुआ। पृष्ठ संख्या ३६+१८, मूल्य १५/- रु०। कल्पद्रुम विधान:- सन् १९८६ में यह विधान पहली बार पूज्य माताजी की कलम से लिखा गया। इससे पहले इस नाम से कोई भी रचना देखने में नहीं आई। इसमें समवसरण की पूजा है। प्रथम संस्करण १९८७ में, तृतीय संस्करण मई १९९२ में, पृष्ठ सं.४६४, मूल्य ४०/-रु.। ८६. मण्डल विधान प्रारंभ एवं हवन विधिः- मंडल विधानों के प्रारंभ में सकलीकरण, मंडप प्रतिष्ठा इन्द्रप्रतिष्ठा आदि कराने की विधि वैसे तो विस्तारपूर्वक प्रतिष्ठा ग्रंथों में दी गई है किन्तु उतनी बड़ी विधि विधानों में करा पाना कठिन है तथा आज विधि विधान कराने वाले विद्वानों का संस्कृत भाषा का ज्ञान भी अल्प है, अतः माताजी ने अधिकांश का हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है तथा क्रियाओं के कराने का संकेत भी हिन्दी में दे दिया है। जिससे कि कराने वाले तथा करने वाले उन क्रियाओं को अच्छी तरह से समझ जाते हैं। पुस्तक के अंत में हवन कराने की विधि व हवन कुंड बनाने के चित्र भी दिये हैं। इस प्रकार विधिविधान कराने की यह एक प्रामाणिक पुस्तक तैयार हो गई है। प्रथम संस्करण जनवरी १९८८ में। पृष्ठ संख्या १२८+२८, मूल्य ८/- रु० । ८७. सामायिक पाठ (देववंदना):- सामायिक का दूसरा नाम देववंदना भी शास्त्रों में आया है। इस पुस्तक में शास्त्रोक्त विधि से सामायिक करने की प्रक्रिया दी गई है। माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद कर दिया है। प्रथम संस्करण अक्षय तृतीया सन् १९८८ में, पृष्ठ संख्या १६, मूल्य १/-रु० । गोम्मटसार जीवकांडसार:- आचार्य नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार जीवकांड ग्रंथ ७३४ प्राकृत गाथाओं में रवित है। अति दुरूह होने से इसे हृदयंगम करना जनसाधारण के बस की बात नहीं है इस दृष्टि से माताजी ने ७३४ गाथाओं में से १४९ गाथाएँ चयनकर इस Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५२९ ९२. सार रूप पुस्तक का सृजन किया है। यह भी विद्यार्थियों के लिए एवं संक्षेप रुचि वालों के लिए अति उपयोगी है। प्रथम संस्करण अक्टूबर, १९८८ में। पृष्ठ संख्या १५८, मूल्य ८/- रु० । गोम्मटसार कर्मकाण्डसारः- आचार्य नेमीचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार कर्मकांड नामक ग्रंथ में नौ अध्यायों में ९७२ गाथाएं प्राकृत में हैं। यह ग्रंथ भी उपर्युक्त की तरह सरलता से समझ में आ जावे इसे दृष्टि में रखकर पूज्य माताजी ने पूरे ग्रंथ से १३३ गाथाओं को सार रूप छांटकर लघुकाय बना दिया है। परीक्षार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९८९ में, पृष्ठ संख्या ११२, मूल्य ७/- रु०। ९०. सम्मेदशिखर टोंक पूजन:- पूज्य माताजी ने महान् सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर की भक्ति से ओत-प्रोत होकर वहाँ की प्रत्येक टोंक के अर्घ्य चढ़ाने के लिए सुन्दर पद्य बनाए हैं। अधों के पश्चात् बख्तावर कवि रचित प्रचलित पार्श्वनाथ पूजा एवं शांति विसर्जन पाठ दिया गया है। प्रथम संस्करण १९८८ में। पृष्ठ संख्या ६८, मूल्य १/- रु०। सर्वतोभद्र विधान:- इस विधान की रचना सर्वप्रथम पूज्य माताजी ने की। इसमें तीन लोक के समस्त अकृत्रिम जिनचैत्यालयों की १०१ पूजाएं हैं। अर्घ्य २००० हैं। प्रथम संस्करण सितम्बर, १९८८ में, द्वितीय संस्करण मई १९९२ में, पृष्ठ संख्या ८३६+३४, मूल्य ६४/- रु०। तीनलोक विधान:- (मध्यम तीनलोक विधान) इसमें तीनलोक संबंधी ६४ पूजाएं हैं। अर्घ्य ८८४ एवं पूर्णार्घ्य १४० हैं। प्रथम संस्करण सितंबर १९८८ में। पृष्ठ ३०८, मूल्य १५/- रु० । द्वितीय संस्करण अप्रैल सन् १९९२ में। पृष्ठ संख्या ५२०+२८, मूल्य ४०/- रु० । ९३. त्रैलोक्य विधान- (लघु तीनलोक विधान):- इस विधान में भी तीनलोक की समस्त अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की पूजा हैं। इसमें ५६७ अर्ध्य व ७४ पूणार्घ्य हैं। यह लघु तीनलोक विधान है। प्रथम संस्करण सन् १९८८ में। पृष्ठ ३०८, मूल्य १५/- रु०। जैन महाभारत:- विश्व विख्यात कौरव-पांडवों की जीवन कथा जैन पांडव पुराण में विस्तार से दी गई है उसी को संक्षिप्त सरल एवं सुबोध शैली में इस उपन्यास में दिया है। प्रथम संस्करण दिसंबर १९८९ में। पृष्ठ संख्या ८०, मूल्य ४/- रु०। पंचमेरु विधानः- अढ़ाई द्वीप में सुदर्शन आदि पांच मेरु अवस्थित हैं। प्रत्येक मेरु के चार-चार वन में १६-१६ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। इस प्रकार ८० चैत्यालयों में विराजमान अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की इसमें पूजा की गई है। आज इन पंचमेरुओं के साक्षात् दर्शन को शक्ति नहीं है। अतः इनकी भक्तिभाव से पूजा करके साक्षात् दर्शनों का पुण्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है, इन्हीं भावों से माताजी ने इस विधान की रचना की है। प्रथम संस्करण १९८८ में, पृष्ठ संख्या ६४, मूल्य ४/- रु० । जम्बूद्वीप पूजांजलि:- दिगंबर जैन समाज में पूजा एवं नित्यपाठ विषयक गुटके व जिनवाणी संग्रह प्राचीन समय से हस्तलिखित व छपे हुए प्रकाशित होते रहे हैं। फिर भी भक्तों का वर्षों से आग्रह था कि माताजी की लिखी हुई पूजाओं का संग्रह जम्बूद्वीप संस्थान से प्रकाशित किया जावे। तदनुसार जम्बूद्वीप पूजांजलि नाम से प्राचीन एवं नवीन पूजाओं, स्तुति एवं स्तोत्रों का मिला-जुला प्रकाशन प्रथम संस्करण नवम्बर १९८८ में प्रकाशित हुआ। पृष्ठ संख्या ५२४+१६, मूल्य २५/- रु०। ९७. भावत्रिभंगी:- आचार्य श्रुतमुनि विरचित इस कृति में क्षायिक आदि ५ भावों में मार्गणाओं व गुणस्थानों को घटित किया है। इसमें ११६ गाथाएं हैं। पूज्य माताजी ने इसका अनुवाद करके सैद्धांतिक चर्चा प्रेमियों के लिए इसे सुगम बना दिया है। प्रथम संस्करण नवम्बर १९८८ में। पृष्ठ संख्या ८०+१६, मूल्य ५/- रु०। अष्टसहस्री द्वितीय भागः- पूर्ण अष्टसहस्री की टीका तो सन् १९७० में ही माताजी ने लिखकर तैयार कर ली थी, किन्तु इस दूसरे भाग के प्रकाशन में अप्रत्याशित विलम्ब हो गया। सबसे बड़ी कठिनाई प्रूफरीडिंग की भी थी। अंततोगत्वा पूज्य माताजी से ही यह श्रम लेना पड़ा। इस द्वितीय भाग में कारिका ७ से २३ तक की टीका है। प्रथम संस्करण मार्च १९८९ में, पृष्ठ संख्या ४२४+६४, मूल्य ६४/- रु०। कुन्दकुन्द मणिमाला:- आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार आदि ९ ग्रंथों में से भक्तिपरक एवं निश्चय व्यवहार समन्वयपरक १०८ गाथाओं को लेकर उनका अर्थ एवं विशेषार्थ दिया गया है। पुस्तक के अंत में श्लोकों का हिन्दी का पद्यानुवाद भी दिया गया है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९९० में किया गया । पृष्ठ संख्या १५०+१६, मूल्य ५/- रु०। अष्टसहस्त्री तृतीय भागः- इसमें कारिका २४ से ११४ की टीका हुई है। तीनों भागों में पूज्य माताजी ने जगह-जगह विशेषार्थ व भावार्थ ता दिये ही हैं, सारांशों के दे देने से परीक्षा देने वाले विद्यार्थियों को अतीव सुगमता हो गई है। प्रथम संस्करण मार्च १९९० में। पृष्ठ संख्या ६०८+७६, मूल्य १००/- रु०। जम्बूद्वीप परिशीलन:- जम्बूद्वीप के विषय में अन्य परम्पराओं में क्या मान्यता है, पृथ्वी मंडल के विषय में वैज्ञानिकों की मान्यता आदि के विषय में सुन्दर संकलन है। लेखक-डॉ० अनुपम जैन, प्रथम संस्करण मई १९८२ में । पृष्ठ संख्या ६२, मूल्य ३.०० रु०। १०२. समयसार कलश पद्यावली:- आर्यिका श्री अभयमती माताजी द्वारा समयसार के कलशकाव्यों की पद्यावली है। प्रथम संस्करण-सन् १९८२ में। पृष्ठ संख्या १८५, मूल्य ५.०० रु०। १००. १०१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला १०३. भजन संग्रहः- जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के पावन प्रसंग पर इस भजन संग्रह का प्रकाशन किया गया, इसमें ज्ञानज्योति प्रवर्तन, जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर तीर्थ तथा ज्ञानमती माताजी पर लिखे गये विभिन्न लेखकों के गीत व भजन दिये गये हैं, जिन्हें सैकड़ों नगरों में ज्योति प्रवर्तन के अवसर पर गाया गया। प्रथम संस्करण का प्रकाशन फरवरी १९८३ में। पृष्ठ संख्या ६४, मूल्य १.५० रु०। १०४. मातृभक्तिः- पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की पूजा, जीवन झांकी, भजन आदि तथा रत्नमती माताजी का गद्य-पद्यमय जीवन परिचय दिया गया है। लेखिका एवं संकलनकी कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण सन् १९८० में। द्वितीय संस्करण नवम्बर १९८२ में। पृष्ठ संख्या ४८, मूल्य १.५० रु०।। १०५. आर्यिका रत्नमती:- इस कृति में रत्नों की जन्मदात्री माता मोहिनी देवी (रत्नमती माताजी) का जीवनवृत्त विस्तारपूर्वक दिया गया है। परमविदुषी पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी जैसी कन्यारत्न को प्रथम सन्तान के रूप में जन्म देकर जिन्होंने अपने मातृत्व को धन्य कर लिया। गृहस्थाश्रम का भलीभांति परिपालन करके सन् १९७१ में ५८ वर्ष की आयु में जगत् पूज्य आर्यिका दीक्षा धारण कर १३ वर्षों तक निर्बाधरूप से व्रतों का पालन करके १५ जनवरी १९८५ के दिन अत्यंत शांत परिणामों से समाधिमरण प्राप्त किया। प्रथम संस्करण सन् १९८४ में। पृष्ठ २५६, मूल्य ६.०० रु० । लेखक मोतीचंद जैन सर्राफ (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागर) १०६. बाल ब्र० मोतीचंद जैन एक परिचयः- लेखिका कु० माधुरी शास्त्री। प्रकाशन जनवरी १९८७ में। पृष्ठ संख्या २०, मूल्य निःशुल्क। १०७. सुमेरुवंदनाः- शाश्वत तीर्थधाम सुदर्शन मेरु (सुमेरु) की वंदना पूज्य ज्ञानमती माताजी तथा अन्य अनेक भक्तिकों ने लिखी है। उनका संकलन कु० माधुरी शास्त्री ने किया है। ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित सभी पुष्पों में यह सबसे छोटी साइज (जेबी साइज) की पुस्तक है। (२.८४४.५ इंच) प्रथम संस्करण शरद् पूर्णिमा सन् १९८४ में, पृष्ठ संख्या ३२, मूल्य ५० पैसे। १०८. ज्ञानरश्मिः - पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उपदेशों का संकलन । संकलनकर्ती बाल ब्र० कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण सन् १९८७ में। पृष्ठ संख्या ५२, । द्वितीय संस्करण अक्टूबर १९८८ में, मूल्य १.५० रु०।। १०९. चर्चा शतक:- कविवर द्यानतरायजी ने इस कृति में तीनलोक, गुणस्थान, मार्गणा, जीव समास, चार गति आदि विभिन्न विषयों पर १०० श्लोकों की रचना ढुंढारी भाषा में की है जिनसे अनेक प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है। श्लोकों का हिन्दी अर्थ भी दिया गया है। वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला से इसका प्रथम बार प्रकाशन हुआ है। चर्चा प्रेमियों के लिए यह अच्छा ग्रंथ है। प्रथम संस्करण फरवरी १९८९ में। पृष्ठ संख्या १४६, मूल्य ६/- रु०। पूनों का चाँदः- पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का संक्षिप्त जीवन परिचय । लेखिका कु० माधुरी शास्त्री। प्रथम संस्करण जन, १९८९ में। पृष्ठ संख्या ५६, मूल्य ३/- रु०। १११. आर्यिका रत्नमती पूजन:- पूज्य ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री मां रत्नमतीजी की पूजन व जीवन परिचय का संग्रह इसमें है। इसकी लेखिका कु० माधुरी शास्त्री हैं। प्रथम संस्करण जनवरी १९८९ में। पृष्ठ संख्या २०, मूल्य १/- रु० । ११२. कुन्दकुन्द के भक्तिप्रसूनः- भक्तिमार्ग सुगम है। भक्ति पाठ में तन्मयता आती है। भक्तियों का पाठ सभी वर्ग के लिए लाभप्रद है। आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि महोत्सव के पावन प्रसंग पर उन्हीं की रचित भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद सहित प्रकाशन करवाकर माताजी ने उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८९ में। पृष्ठ संख्या ४८, मूल्य ३/- रु०। ११३. ज्ञानामृत:- अनेकों ग्रंथों का सार सरलता से इस ग्रंथ में दिया गया है। ग्रंथ का संपूर्ण विषय आचार्य प्रणीत शास्त्रों के आधार से लिया गया है। गूढ़ तत्त्वों को सरलता से समझने के लिए यह ग्रंथ अति उपयोगी है। नित्य स्वाध्याय के लिए अच्छा ग्रन्थ है। प्रथम संस्करण मई १९८९ में । पृष्ठ संख्या ३६८+२८, मूल्य ४४/- रु०। ११४. छन्द शतक:- रचयिता श्री वृंदावन कवि वि.सं. १८४८ में जन्मे कविवर वृंदावन ने अनेक पूजाएं व भक्तिपरक स्तुतियाँ लिखीं। कविवर ने इस छन्द शतक में छंदों का लक्षण निरूपित करते हुए उसी में भगवान जिनेन्द्र की स्तुति भी कर दी। इसी दृष्टिकोण से पूज्य माताजी ने इसे परीक्षा के पाठ्यक्रम में रखवाया है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९८९ में। मूल्य ४/- रु०। ११५. समयसार पूर्वार्द्ध:- आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार पर आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन ने संस्कृत में विस्तृत टीकाएं लिखी हैं। वर्तमान में जयपुर के विद्वान् पं. जयचंदजी छाबड़ा ने आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका का ढुंढारी भाषा में अनुवाद किया। आ. अमृतचन्द्र कृत टीका का नाम "आत्मख्याति" है। इसकी कई हिन्दी टीकाएं प्रकाशित हुई हैं, किन्तु आ० जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका की हिन्दी स्व० आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने की है। अब तक दोनों आचार्यों की अलग-अलग टीकाएं छपती रहीं। कुछ विद्वानों की यह धारणा बनी हुई है कि दोनों अवार्यों की टीका में मतभेद हैं किन्तु इस धारणा को दूर करने के लिए पू० माताजी ने दोनों आचार्यों की संस्कृत टीका व उन पर लिखी गई अपनी हिन्दी टीकाएं एक साथ इस कृति में प्रकाशित की हैं। आवश्यकतानुसार स्पष्टीकरण के लिए जगह-जगह भावार्थ-विशेषार्थ भी दिये गये हैं तथा प्रत्येक अधिकार के अंत में सारांश भी दिये Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५३१ ११७. १२१. हैं जिनके कारण यह कृति अतिविशिष्ट बन गई है। इस ग्रंथ का यह पूर्वार्द्ध प्रकाशित हुआ है। इसमें आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार १९२ गाथाओं की तथा आचार्य जयसेन के अनुसार २०१ गाथाओं की टीका छपी है। शेष उत्तरार्द्ध में प्रकाशित होगी। दोनों आचार्यों की टीका का हिन्दी अनुवाद एक साथ पहली बार प्रकाशित हुआ है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन जनवरी १९९० में । पृष्ठ संख्या ६६०+४८, मूल्य ६४/- रु० । ११६. समयसार उत्तरार्द्ध:- [यह अभी अप्रकाशित है शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है।] भक्तामर मण्डल विधानः- आचार्य मानतुंग विरचित भक्तामर स्तोत्र जैन समाज में चिरपरिचित है। घर-घर में नित्यप्रति इसका पाठ करने की परम्परा है। इसके अनेकों हिन्दी पद्यानुवाद भी हुए हैं। वर्तमान में भक्तामर स्तोत्र के चौबीस घंटे से लगाकर सप्ताह भर या इससे भी अधिक समय तक, ४८ दिन तक अखण्ड पाठ जोरों से हो रहे हैं। भक्तामर स्तोत्र के मूल श्लोक व उसके हिन्दी पद्यानुवाद सहित ४८ अर्घ्य तथा अष्टक व जयमाला देकर इसे विधानपूजन का रूप दे दिया गया है। इसमें अष्टक व जयमाला आर्यिका श्री चंदनामतीजी द्वारा रचित हैं। प्रथम संस्करण सितंबर १९९१ में । पृष्ठ संख्या ५२, मूल्य सदुपयोग । ११८. ज्ञानमती माताजी की पूजन एवं भजन:- रचयित्री आर्यिका चन्दनामती माताजी। प्रथम संस्करण सन् १९९० में। पृष्ठ १६, मूल्य १/- रु. द्वितीय संस्करण सितंबर १९९१ में। पृष्ठ संख्या १६, मूल्य १/- रु०। ११९. अष्टमूलगुण:- मूलगुण मुनियों के भी होते हैं व श्रावक के भी। यदि मूलगुणों का पालन मुनि नहीं करें तो वे मुनि कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते, उसी प्रकार यदि श्रावक भी मूलगुणों का पालन नहीं करें तो वह श्रावक कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकते। श्रावक के इन मूलगुणों का पालन प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। उसी का दिग्दर्शन इस छोटी-सी पुस्तक में किया गया है। लेखिका-आर्यिका चंदनामतीजी हैं। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में। पृष्ठ संख्या १६, मूल्य-सदुपयोग। १२०. महावीराचार्य व समीक्षात्मक अध्ययन:- दिगम्बर जैन मुनि महावीराचार्य ८वीं शताब्दि के माने जाते हैं। उन्होंने गणितसार संग्रह नाम से ग्रंथ लिखा है जिसमें गणित सम्बंधि विविध क्रियाओं को स्पष्ट किया है। इस पुस्तक के युवा लेखक डॉ० अनुपम जैन ने गणितसार संग्रह का आधुनिक गणित की दृष्टि से एक समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। महावीराचार्य की यह कृति वर्तमान में विश्व मान्य है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९८५ में। पृष्ठ संख्या ८४, मूल्य १०/- रु० (पुस्तकालय संस्करण २०/- रु०) फिलासफर मेथेमेटिशयन (अंग्रेजी में):- इसके लेखक प्रो० लक्ष्मीचंद जैन व डॉ० अनुपम जैन हैं। इसमें आ. यतिवृषभ, वीरसेन स्वामी एवं नेमीचंद्राचार्य द्वारा रचित ग्रंथों में प्रयुक्त गणित का दिग्दर्शन कराया है। प्रथम संस्करण १९८५ में। पृष्ठ संख्या ४४, मूल्य १०/- रु० । १२२. आत्मानुशासन पद्यावली:- आचार्य श्री गुणभद्रस्वामी द्वारा रचित इस आत्मानुशासन ग्रन्थ के संस्कृत श्लोकों का पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी द्वारा पद्यानुवाद किया गया है। प्रथम संस्करण सन् १९९० में, पृष्ठ संख्या १७२, मूल्य २०/- रु० । १२३. आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रंथ:- पूज्य माताजी के दीक्षागुरु (चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के प्रथम शिष्य) आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए माताजी की विशेष प्रेरणा से कई वर्षों के अथक प्रयास के पश्चात् इस ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में | पृष्ठ संख्या ५९६+२४+चित्रावली, मूल्य १०१/- रु०। मेरी स्मृतियाँ:- संघ के सदस्यों तथा समाज के वरिष्ठ श्रेष्ठी, विद्वान् एवं कार्यकर्ताओं के विशेष आग्रह पर पूज्य माताजी ने अपने दीर्घ जीवन की आत्मकथा लिखी है। यह एक श्रमसाध्य कार्य था-भूली बिसरी स्मृतियों को याद कर उन्हें लिपिबद्ध करना और वह भी पाठकों की दृष्टि से। इसे लिखते समय माताजी के मस्तिष्क पर बहुत जोर पड़ा। इस ग्रंथ में अपने बाल्यकाल से (सन् १९४० से) सन् १९९० तक की घटनाओं को तो दर्शाया ही है। साथ ही देशकाल की परिस्थितियों पर भी दृष्टिपात किया है। यह केवल स्मृति ग्रंथ ही नहीं है, अपितु विगत ५० वर्षों का दिगंबर जैन समाज का इतिहास है। इन विगत वर्षों में हुई विशेष घटनाओं को भी अपने अनुभवों के आधार पर अंकित किया है। प्रथम संस्करण अप्रैल १९९० में। पृष्ठ संख्या ८४४+२६, मूल्य १०१/- रु० । १२५. मुनिचर्या:- मुनि-आर्यिकाओं की नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रकाशन विभिन्न स्थानों से समय-समय पर हुआ है, किन्तु वे भक्तियाँ आदि संस्कृत-प्राकृत में हैं जिनका अर्थ बहुत कम त्यागी वर्ग समझ पाते थे। इस कमी की पूर्ति माताजी ने की। सभी भक्तियों का, दैनिक व पाक्षिक प्रतिक्रमण पाठों का हिन्दी में पद्यानुवाद कर दिया है उसी का यह प्रकाशन है। अब इन पाठों को पढ़ने वाले प्रत्येक साधू को यह सहज रूप में समझ में आ जावेगा कि वे क्या पढ़ रहे हैं। दिगंबर मुनि-आर्यिकाओं के लिए यह ग्रंथ विशेष रूप से उपयोगी है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन अगस्त १९९१ में । पृष्ठ संख्या ६२८+६४ मूल्य ६०/- रु०। १२६. दशलक्षण धर्म पूजाः- पूजा विधान के क्षेत्र में माताजी ने अभूतपूर्व क्रांति उत्पन्न कर दी है। नित्यनियम पूजा में देवशास्त्र गुरु पूजा की जगह बहुतायत से अब माताजी द्वारा लिखी हुई नवदेवता पूजा नगर-नगर में होने लगी है। इसी श्रृंखला में पूज्य माताजी ने दशलक्षण धर्म की पूजा सरस छंदों में लिखी है। पुस्तक के अंत में आर्यिका श्री चन्दनामतीजी कृत चौबीस तीर्थकर समन्वित "ह्रीं" की पूजा दी गई है। प्रथम संस्करण अगस्त १९९० में । पृष्ठ संख्या २४ । मृल्य २/- रु०। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला भरत का भारत:- भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) के ज्येष्ठ पुत्र भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा जो कि इस युग के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् हुए एवं अंत में दैगम्बरी दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया, उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया गया है। प्रथम संस्करण अक्टूबर १९९२ में । पृष्ठ संख्या २६०, मूल्य १०/- रु० । १२८. दीपावली पूजन:- कई वर्षों से जैन समाज में जैन पद्धति में दीपावली पूजन की पुस्तक की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी, जिसकी पूर्ति माताजी ने कर दी। प्रथम संस्करण नवम्बर १९९१ में, पृष्ठ संख्या ४०+१२, मूल्य ३/- रु०।। १२९. . प्रोसीडिंग ऑफ इण्टरनेशनल सेमिनार ऑन जैन मेथेमेटिक्स एंड पास्मोग्राफी:- सन् १९८५ में जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान पर जो अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार हुआ था उसमें पढ़े गये लेखों एवं अन्य सम्बद्ध सामग्री का संग्रह इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। संपादक डॉ० अनुपम जैन हैं। सन् १९८१ एवं १९८२ में सम्पन्न जम्बूद्वीप सेमिनारों की विस्तृत रिपोर्ट भी परिशिष्ट रूप में दी गई है। प्रथम संस्करण सन् १९९१ में । पृष्ठ संख्या २६०+१६, मूल्य २००/- रु०। १३०. चतुर्दशी व्रत कथा:- चतुर्दशीव्रत की महत्ता को प्रदर्शित करने वाली बहुत ही सुन्दर कथा पद्य में दी गई है। कथा प्राचीन है। लेखक अज्ञात है। प्रथम संस्करण सितम्बर १९९१ में, पृष्ठ संख्या २८, मूल्य २/- रु०। १३१. जिनसहस्रनाम मंत्रः- पूज्य माताजी ने क्षुल्लिका दीक्षा लेने के दो वर्ष पश्चात् अपनी लेखनी से सर्वप्रथम भगवान् के १००८ नामों के मंत्र बनाये। जिसका प्रकाशन सन् १९५५ में म्हसवड़ (सोलापुर) महा० से हुआ था। उसके बाद अब यह दूसरी बार उसका प्रकाशन हुआ है। इस पुस्तक में माताजी द्वारा रचित जिनसहस्रनामपूजा तथा सरस्वती पूजा भी दी गई है। सहस्रनाम मंत्र नित्य पठनीय हैं। द्वितीय संस्करण, मार्च १९९२ में। पृष्ठ संख्या ३६+१२, मूल्य ५/- रु०। १३२. भक्ति कुसुमावली:- सन् १९६५ से १९६७ के मध्य माताजी ने जो हिन्दी-संस्कृत की स्तुतियाँ बनाई थीं उनमें से कुछ इसमें दी गई हैं। जो कि नित्य पाठ करने लायक हैं। प्रथम संस्करण "भक्ति सुमनावली" नाम की पुस्तक के रूप में सोलापुर (महा०) से सन् १९६५ में हुआ था। द्वितीय संस्करण मार्च १९९२ में। पृष्ठ संख्या ६०+२, मूल्य ६/- रु०। १३३. जिनस्तवन माला:- पूज्य माताजी ने अपने जीवन में अनेक संस्कृत हिन्दी स्तुतियों का सृजन किया। माताजी ने प्रारंभ से ही भक्ति मार्ग को प्राथमिकता दी। भगवान जिनेन्द्र की भक्ति से बड़े से बड़े संकट दूर हो जाते हैं तथा सभी प्रकार से सुख, संपत्ति, संतति की प्राप्ति होती है। माताजी द्वारा रचित कुछ स्तुतियों को सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास में इसके प्रथम संस्करण में प्रकाशित किया था। द्वितीय संस्करण अप्रैल १९९२ में। पृष्ठ संख्या ६०+१२, मूल्य ६/- रु० । १३४. भक्तिसुधाः- लगभग १२ संस्कृत-हिन्दी स्तुतियों को इसमें पूज्य माताजी ने संकलित किया है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९७९ में प्रकाशित किया गया था। पुनः कतिपय परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण मई १९९२ में प्रकाशित हुआ है। पृष्ठ संख्या-४०, मूल्य ३.०० रु०। १३५. जिनस्तोत्र संग्रहः- पूज्य गणिनी आर्यिका श्री की संस्कृत काव्यप्रतिभा का परिचायक यह अभूतपूर्व ग्रन्थ है। इसमें उनके द्वारा रचित समस्त संस्कृत एवं हिन्दी स्तुतियों का समावेश है। ग्रन्थ के चतुर्थखंड में एक “कल्याणकल्पतरु" नामक संस्कृत स्तोत्र है। छन्दशास्त्र की दृष्टि से इस स्तोत्र का विद्वज्जगत् विशेष मूल्यांकन करेगा क्योंकि इस पूरे स्तोत्र में १४४ छन्दों का प्रयोग किया गया है। कुल छह खण्डों में निबद्ध यह ग्रन्थ है, जिसमें द्वितीय खण्ड से चतुर्थखण्ड तक पूज्यमाताजी द्वारा ही रचित स्तोत्र हैं तथा प्रथम, पंचम एवं छठे खण्डों में अन्य आचार्यों तथा विद्वानों के संस्कृत-हिन्दी स्तोत्र हैं। प्रथम संस्करण जून सन् १९९२, पृ. ५३२+१६=५४८, मूल्य ६४.०० रु० । इस प्रकार मैंने वीरज्ञानोदयग्रन्थमाला से प्रकाशित इन एक सौ पैंतीस पुष्पों का अतिसंक्षिप्त परिचय पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है। इनमें अधिकांश ग्रन्थ तो पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा ही लिखित हैं तथा लगभग १५-२० पुस्तकें अन्य लेखकों की हैं। इस ग्रंथमाला से सतत प्रकाशन आज भी चल रहा है और लगभग २० लाख की संख्या में पुस्तकें देश के समस्त प्रान्तों एवं विदेशों में भी अपनी प्रतिभा दर्श चुकी हैं। ग्रन्थमाला इसी तरह से दिन-प्रतिदिन गतिशील होती रहे यही मंगलकामना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५३३ अप्रकाशित ग्रंथ लघीयस्त्रयादि संग्रहः- श्री अकलंकदेव ने इसमें प्रमाण, नय और प्रवचन इन तीन विषयों का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। इसमें इन्हीं आचार्य देव की स्वोपज्ञविवृत्ति नाम से टीका का भी हिंदी अनुवाद किया है। श्री अभयनंदिसूरि ने इस पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इन दोनों टीकाओं का उसमें अनुवाद है। २. अष्टसहस्रीसार:- अष्टसहस्री ग्रंथ के जो मुख्य-मुख्य विषय आये हैं उनको सार रूप में इसमें दिया गया है ऐसे ये त्रेसठ सारांश हैं। जैसे नैयायिक ने शब्द को आकाश का गुण अमूर्तिक माना है, जैनाचार्य ने इसका खंडन करके शब्द को पुद्गल की पर्याय होने से मूर्तिक सिद्ध किया है। आप्तमीमांसा:- इसमें श्रीसमंतभद्र स्वामी ने आप्त को न्याय की कसौटी पर कसकर सच्चे देव सिद्ध किया है। इसमें ११४ कारिकाओं का अन्वयार्थ, पद्यानुवाद, अर्थ और भावार्थ भी दिया गया है। पात्रकेसरी स्तोत्र:- श्रीपात्रकेसरी आचार्य ने ५० श्लोकों में अर्हतदेव की स्तुति करते हुये अन्य संप्रदायों का निराकरण करके जैन संप्रदाय को सार्वभौम धर्म सिद्ध किया है। इस स्तुति का माताजी द्वारा रचित पद्यानुवाद स्तुति के भाव को अच्छा प्रस्फुटित कर रहा है। आलापपद्धतिः- इसमें श्री देवसेन आचार्य ने नयों के नव भेद करके उनके अवान्तर भेद चौंतीस किये हैं। आस्तित्व वस्तुत्व आदि सामान्य गुण और चेतनत्व आदि विशेष गुणों का नाना पर्यायों का भी विवेचन है। इसका हिंदी अनुवाद माताजी ने सनावद के सन् १९६७ के चातुर्मास में किया था। ६. भावसंग्रहः- श्रीवामदेव पंडित ने संस्कृत में इस पंथ को रचा है। इसमें औषशमिक आदि पाँच प्रकार के भावों का चौदह गुणस्थानों में विवेचन है। विशेष कर पांचवें गुणस्थान के वर्णन में श्रावकों की पूजा, दान आदि क्रियाओं का अच्छा विवेचन है। विधिपूर्वक देवपूजा को ही श्रावक की सामयिक क्रिया कहा है। इसका अनुवाद माताजी ने सन् १९७३ में किया था। एक प्रकार से यह बहुत ही सुंदर श्रावकाचार है। ७. आस्तवत्रिभंगी:- पांच मिथ्यात्व आदि से आस्तव के ५७ भेद हैं। इन्हें चौदह गुणस्थान और मार्गणाओं में घटाया है और चार्ट भी दिये गये हैं। यह श्रीश्रुतमुनि की रचना है। माताजी ने सन् १९७३ में इसका अनुवाद किया है। नियमसार कलश:- नियमसार श्री कुंदकुंददेवकृत है। इसकी टीका श्रीपद्यप्रक्षमलधारी देव नाम के आचार्य ने की है। इस टीका में बहुत ही सुंदर पद्य आये हैं। उन्हें लेकर 'नियमसार कलश' नाम देकर माताजी ने हिंदी अर्थ किया है। सन् १९७६ में यह अनुवाद हुआ है। समयसार प्राभृतः- इस श्री कुंदकुंददेवकृत समयसार में श्री अमृतचंद्रसूरि और श्री जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीकायें हैं। इन पर माताजी ने 'ज्ञानज्योति' नाम से टीका लिखी है। पूर्वार्द्ध में संवर अधिकार तक लिये हैं, वह सन् १९९० में छप चुका है। उत्तरार्द्ध अभी अप्रकाशित है। जैनेन्द्र प्रक्रिया पूवार्द्ध:- श्री पूज्यपाद स्वामीकृत 'जैनेन्द्र व्याकरण' के सूत्रों पर श्री गुणनन्दि आचार्य ने 'जैनेन्द्र प्रक्रिया' नाम से टीका रची है। इसको संघ में माताजी ने मुनियों-आर्यिकाओं आदि को पढ़ाया था। सन् १९७५ में हस्तिनापुर में माताजी ने इसका अनुवाद किया है। द्रव्यसंग्रहसार:- श्री नेमिचन्द्राचार्य रचित द्रव्यसंग्रह का माताजी ने पद्यानुवाद किया था, उनके साथ ही कुछ विशेष विस्तार करके यह द्रव्य संग्रह सार पुस्तक लिखी है। तत्त्वार्थसूत्र एक अध्ययन:- श्रीउमास्वामी आचार्य द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर यह विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ के आधार से है। समयसार का सार:- श्रीकुंदकुंददेव विरचित समयसार का सार रूप यह नवनीत माताजी द्वारा लिखा गया है। इसको पढ़कर यदि समयसार का स्वाध्याय करेंगे तो बहुत ही सुगमता रहेगी। अतः यह समयसार की कुंजी ही है। मूलाचार का सार:- मुनियों के आचार ग्रंथों में सर्वोपरि यह मूलाचार ग्रंथ माताजी द्वारा अनुवादित होकर 'भारतीय ज्ञानपीट' से छप चुका है। इस पूरे ग्रंथ का सार लेकर नवनीत रूप में यह मूलाचार का सार बताया है। इसको पढ़कर मूलाचार ग्रंथ का स्वाध्याय करने से बहुत ही सरलता रहेगी। षट्आवश्यक क्रियाः- मूलाचार ग्रंथ के आधार से मुनि-आर्यिकाओं की छह आवश्यक क्रियाओं का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। नवदेवता विधानः- ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियाँ हैं। इनमें होने वाले अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय इन नवदेवताओं की इस विधान में छह पूजायें हैं। १७. बीस तीर्थकर विधानः- पाँच महाविदेहों में ४-४ तीर्थंकर आज भी विहार कर रहे हैं। इन विद्यमान बीस तीर्थंकरों की पूजायें हैं। इस विधान में छह पूजायें हैं। नंदीश्वर विधान:- इसमें आठवें नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनमंदिरों की ५ पूजायें हैं। १९. पंच कल्याणक विधानः- इसमें उत्तर पुराण के आधार से चौबीस तीर्थंकरों के पाँचों कल्याणकों को पाँच पूजायें एवं एक समुच्चय पूजा ऐसी छह पूजायें हैं। २०. श्रुतस्कंध विधान:- इसमें ग्यारह अंग, चौदह पूर्व और पाँच चूलिकाओं के अर्घ्य हैं । पूजा एक है। यह विधान श्रुतज्ञान को वृद्धिंगत करने वाला है। १०. १३. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला २१. चौंसठ ऋद्धि विधानः- इसमें तिलोयपण्णत्ति के आधार से चौंसठ ऋद्धियों के अर्घ्य हैं। पूजायें नव हैं। इस पूजा से अनेक रोग-शोक-दुःख दूर हो जाते हैं। -भगवान नेमिनाथ:- हरिवंश पुराण के आधार से इसमें भगवान नेमिनाथ का जीवन चरित्र वर्णित है। आगम दर्पण:- वर्तमान में दिगम्बर संप्रदाय में तेरापंथ और बीसपंथ चल रहे हैं। इस छोटी-सी पुस्तक में जैन शास्त्रों के आधार से पूजाविधि का वर्णन है, अतः इसका आगम दर्पण यह नाम सार्थक है। . समवसरण:- तिलोयपण्णत्ति के आधार से तीर्थंकर भगवान के समवसरण का इसमें संक्षिप्त वर्णन है। आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि ग्रंथों के आधार भी लिए गए हैं। गणधरवलय मंत्र (अर्थ सहित):- धवला पुस्तक नवमी के आधार से ‘णमो जिणाणं' आदि गणधर वलय मंत्रों के अर्थ का सुंदर विवेचन है। कई एक प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। दिगंबर जैनाचार्यः- श्री गुणधर आचार्य, श्रीधरसेनाचार्य आदि प्राचीन महान् ऐसे १४ आचार्यों का जीवनवृत्त वर्णित है। २७. ऐतिहासिक आर्यिकायें:- इसमें आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों के आधार से ब्राह्मी-सुंदरी आदि लगभग २७ महान्-महान् आर्यिकाओं का सुंदर वर्णन है। ध्यान साधना:- इसमें ज्ञानार्णव आदि ग्रंथों के आधार से पिंडस्थ पदस्थ ध्यान का वर्णन है। पिंडस्थ ध्यान की पार्थिवी आदि धारणाओं के एवं ह्रौं के ध्यान हेतु चित्र भी दिये गये हैं। अध्यात्मसार:- परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथों के आधार से इसमें आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अच्छा विवेचन है, अतः इसका अध्यात्मसार यह नाम सार्थक है। सप्त परमस्थान:- महापुराण के आधार से सज्जाति, सद्गार्हस्थ्य, आदि सात परमस्थानों का विवेचन है। एक-एक विषय को पुष्ट करने हेतु जयधवला आदि अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये गये हैं। ३१. व्रतविधि एवं पूजाः- इसमें मुक्तावली आदि व्रतों की विधि एवं उन व्रत संबंधी पूजायें भी दी गई हैं। इसमें रोहिणी व्रत की विधि भी दी गई है। ३२. रोहिणी कथा:- 'बृहत्कथाकोश' संस्कृत पुस्तक से इस कथा का हिन्दी अनुवाद है। यह अच्छी रोचक कथा है। गृहस्थ धर्म:- इसमें वसुनन्दि श्रावकाचार आदि के आधार से गृहस्थ के धर्म-कर्त्तव्य का संक्षिप्त व सरल विवेचन है। ३४. बोध कथायें:- इसमें संक्षेप से कतिपय पौराणिक लघु कथायें दी गई हैं। कुछ संस्कृत में रचित लघु कथायें भी हैं। जैनदर्शन:- इसमें जैनदर्शन के मूल ऐसे कर्म सिद्धांत का संक्षिप्त व सरल विवेचन है। दिव्यध्वनिः- अरिहंत देव की दिव्यध्वनि कब, कैसे व कितनी भाषाओं में खिरती है। इसका सरल विवेचन है। ३७. ज्ञानामृत:- इसमें आगम के आधार से अनेक प्रकरण संकलित हैं। अतः नाम के अनुसार ज्ञानरूपी अमृत भरा हुआ है। ३८. जैनगणितः- इसमें तिलोयपण्णत्ति आदि के आधार से जैनगणित का सुंदर विवेचन है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ Balram Singh Yadava Jain Educationa International संदेश जाने राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) खान मंत्रालय शास्त्री भवन, नई दिल्ली- ११०००१ भारत MINISTER OF STATE (INDEPENDENT CHARGE) MINISTRY OF MINES SHASTRI BHAWAN, NEW DELHI-110001 INDIA 14 सितम्बर, 1992 गणिनी आर्यिकारत्न श्रीमती ज्ञानमती माताजी के सम्मान में प्रकाशित होने वाली अभिनंदन ग्रन्थ के लिए आप सभी बधाई के पात्र हैं। मुझे उम्मीद है कि यह ग्रन्थ परमपूज्या माता जी के अद्वितीय प्रतिभा एवं समाज को दी गई प्रेरणा का मुख्य-प्रोत होगा और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल होगा। अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशन समिति के सभी पदाधिकारियों एवं सदस्यों को मेरी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित । शुभकामनाओं सहित For Personal and Private Use Only आपका 19 [५३५ and बलराम सिंह यादव ! Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ अवध की अनमोल मणि : ज्ञानमती माताजी - रचयित्री-आर्यिका चंदनामती जिस धरती ने अनेक अमूल्य हीरे [तीर्थंकर] दिए जिस माटी ने अपने पावन गर्भ से दो दिव्य मोती [ब्राह्मी-सुन्दरी] दिये उसी वसुन्धरा ने कोड़ाकोड़ी वर्ष बाद ईस्वी सन् उन्नीस सौ चौतिस में एक अनमोल माणिक्य प्रदान किया और, उसे अपनी मूक वाणी के द्वारा सारा पिछला इतिहास सुना दिया शरद पूर्णिमा रात्रि का प्रथम प्रहर सवा नौ बजे का सुखद क्षण जब अवध प्रान्त में उत्तर प्रदेश के जिला बाराबंकी में टिकैतनगर ग्राम में श्रेष्ठी धनकुमारजी के पुत्र छोटेलालजी ने जन्मोत्सव मनाया पुष्पांजलि बरसाया और फिर ! अपनी प्रथम कली का कीर्तिस्थली का नाम रखा मैना जिसने सन् बावन में कह दिया मैं -ना अर्थात् मैं नहीं रहूंगी गृहस्थी में, बैठू न अब मैं संसार की किस्ती में फिर ! एक दिन सन् उनिस सौ त्रेपन में चैत्र कृष्णा एकम को जब दुनिया रंगों की होली खेल रही थी सुन्दरियां, रंग रंगोली खेल रही थीं और मैना, ज्ञान के रंग से कर्मों के संग में सच्ची होली खेल रही थी वह तो महावीर जी क्षेत्र पर केशलुंचन कर रही थी रत्नत्रय की प्रथम सीढ़ी पर चढ़ रही थी क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर रही थी बस, यही तो था उनका प्रथम लक्ष्य गूंज उठा अतिशय क्षुल्लिका वीरमती की जय हो गई साधु साधना शुरू इतने में भी संतोष कहाँ था? वैरागी मन को नारी के तन को अपना चरम लक्ष्य प्राप्त करना था चल पड़ी पुनः चारित्रचक्रवर्ती के पास शताब्दी के प्रथम आचार्य श्री शांतिसागर महाराज समाधिसम्राट जिन्होंने उत्तर की इस लघुवयस्का ज्ञान सरिता को अंतःकरण से आशीष दिया अपने पट्टशिष्य के पास भेज दिया आज्ञा गुरुवर्य की शिष्या ने शिरोधार्य की गुरुदेव की बारहवर्षीय सल्लेखना के पश्चात् वीरमती जी, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५३७ जयपुरखानियां आ गई मन में आर्यिका दीक्षा की धुन समा गई आचार्य श्री वीरसागर जी अब इस निष्कलंक परंपरा के प्रथम पट्टाचार्य थे चतुर्विध संघ के नायक आचार्य थे उन्होंने इस बाल ब्रह्मचारिणी शिष्या की किंचित् परीक्षा की आर्यिका दीक्षा दी कहाँ और कब? माधोराजपुरा राजस्थान में वैशाखवदी दूज के मंगल प्रभात में सन् उन्नीस सौ छप्पन में अरमान बचपन के पूर्ण हुए आज मिल गया साम्राज क्योंकि, स्त्रीलिंग से छूटने का यही मात्र साधन है संयमीजीवन ही आत्मा का आराधन है गुरुदेव कृपासिन्धु ने नाम दिया ज्ञानमती अध्ययन की देख गती अध्यापन की अद्भुत छवी मन्दमुस्कान से लघु सम्बोधन दिया शिष्या की योग्यता में गुरु ने उद्बोधन दिया बोलेज्ञानमती ! निजनाम का ध्यान रखना परम्परा का मान रखना बस ! शुरू हो गया अब नाम का कमाल जल गई हृदय में ज्ञान की मशाल चुम्बकीय व्यक्तित्व लुभावना कृतित्व पढ़ना और पढ़ाना यही था जिनका दैनिकक्रम इसीलिए, ज्ञानमती माता में होता था आर्यिका ब्राह्मी माता का पूरा भ्रम भ्रम ही क्यों? सच भी तो है शताब्दी की पहली बालसती वो हैं समाज की कोमल कलियों को विकसित करने में प्रधान निमित्त ही वो हैं देखो न, आज कुमारिकाओं में होड़ लगी है दीक्षा धारण करने की भावनाएं जगी हैं इन सभी में प्रधान गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजा ये कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका हैं कलियुग की ब्राह्मी माता हैं चारित्र चक्रवर्ती परम्परा की कुशल संवाहिका है सन् उन्नीस सौ बहत्तर में, अपनी जननी माता मोहिनी को आर्यिका दीक्षा दिलवाया और उन्होंने आचार्य धर्मसागर जी से रत्नमती नाम पाया चार पुत्र नौ पुत्रियाँ तेरह सन्तानों की जन्मदात्री उस माँ ने तेरह वर्षों तक तेरह विध चारित्र पालन किये थे फिर ! पन्द्रह जनवरी उनिस सौ पचासी को माता ज्ञानमती जी के सानिध्य में समाधिस्थ हो गई पुत्री को गुरु मान समर्पित हो गई इसी समर्पण ने सार्थक कर दिया नाम क्योंकि दीक्षा के लक्ष्य ने पूरा कर दिया काम हे माता की माता ज्ञानमती ! हे युग की पहली बालसती ! त्यरत्न चंद्रिका रत्नमती ! हे भक्ति चन्द्रिका सरस्वती ! तेरे जग में नाम अनेक तू सबमें है केवल एक तेरे सारे कार्य भी तो प्राथमिकता के सूचक हैं जम्बूद्वीप की रचना ज्ञानज्योति की जलना विस्तृत साहित्य की सृजना Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ विधानों की नूतन रचना कहाँ तक गिनाऊँ मैं जगत तो स्वयं देख रहा है देख क्या? अपनी सहस्रों आखों से निहार रहा है तेरी कृतियाँ भी तो अनमोल हैं शताब्दी में बेजोड़ हैं मैं सोचती हूँ कि क्या तू ब्राह्मी माता है या चन्दनबाला है। हाँ, तू शांतिसिन्धु की परम्परा में चारित्रचक्रवर्ती की चलती फिरती पाठशाला है चार जून उन्नीस सौ ब्यासी को, प्रधानमंत्री इन्दिरा जी ने ज्ञानज्योति रथ चलाया दिल्ली में लाल किले पर ज्योति उद्घाटन बेला में ज्ञानमती माताजी का स्नेहिल आशीर्वाद पाया इसीलिए देश भर में ज्ञानज्योति ने अपना अलख जगाया राजनीति और धर्मनीति की दो महान विभूतियों का यह अपूर्व मिलन था व्यक्तिगत वार्ता का सुन्दर जो क्षण था उसके बाद इकतीस अक्टूबर उन्नीस सौ ब्यासी को राजीव गांधी का क्रम आया जम्बूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन किया और तपस्विनी माता का शुभाशीष पाया फिर तो राजनेता आते ही रहे जगह-जगह ज्ञान की ज्योति जलाते रहे प्रत्येक प्रान्त में शहर और गांव में मंत्रियों का सिलसिला जारी रहा ज्योति रथ के दर्शन का उत्साह भारी रहा एक हजार पैंतालिस दिन के बाद वह ज्योति अट्ठाइस अप्रैल उन्नीस सौ पचासी को हस्तिनापुर में आई तब केन्द्रीय रक्षामंत्री नरसिंहाराव ने अखंड ज्योति जलाई वह जल रही है जलती रहेगी जम्बूद्वीप और ज्ञानमती माता का नाम अमर करती रहेगी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड पर and "प्रचानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी जत मनाना Haiden c e AVINA ज्ञानज्योति की भारतयाता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भारत यात्रा मंगलाचरण तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र ॥ •नादि अनन्त विश्वतत्त्वों के ज्ञाता भगवान् जिनेन्द्रदेव, उनकी दिव्य वचनामृत रूपी जिनवाणी तथा जिनेन्द्र की मुद्रा को साक्षात् धारण करने वाले अ निर्ग्रन्थ दिगम्बर गुरुओं को मन, वचन, काय पूर्वक नमस्कार करके जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का संक्षिप्त इतिहास प्रारंभ करती हूँ। पुरा सिद्धान्तों में छिपे हुए भूगोल को पृथ्वी पर साकार रूप देने वाली तथा मेरी लेखनी की प्रेरणास्त्रोत परमपूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के श्रीचरणों में मेरी सादर प्रणामांजलि प्रेषित है। आशा है गुरु का शुभाशीर्वाद अवश्य ही मेरी लेखनी को बल प्रदान करेगा। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति जहाँ से प्रादुर्भूत हुई, उस पावनस्थली का सर्वप्रथम परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। अतः मैं सबसे पहले पाठकों को हस्तिनापुर की वसुन्धरा पर ले चलती हूँ । Jain Educationa International प्रस्तुति - आर्यिका चन्दनामती हस्तिनापुर की प्राचीनता - आज से कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व तृतीय काल के अंत में इन्द्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका महापुरुषों के लिए अयोध्या, सम्मेदशिखर, कुण्डलपुर, चंपापुर, पावापुर, उज्जयिनी, हस्तिनापुर आदि नगरियों की रचना की थी। अनादिकालीन परम्परा के अनुसार अयोध्या हमेशा ही तीर्थकरों की जन्मभूमि रही है और सम्मेदशिखर निर्वाणभूमि रही है, किंतु वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से कुछ तीर्थंकरों ने अन्यत्र जन्म लिया और मोक्ष भी अन्य क्षेत्रों से प्राप्त किया। यही कारण है कि हस्तिनापुर की पुण्यभूमि को भी तीर्थंकर की जननी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ इन तीर्थंकरजय ने जन्म लेकर इसी भूमि पर एकछत्र राज्य किया, ये तीनों ही चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारी हुए। हस्तिनापुर इनकी राजधानी थी। चक्रवर्ती का वैभव भोगकर, पुनः उसका त्याग कर, जैनेश्वरी दीक्षा लेकर घाति अघाति कर्मों का नाश करके सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया। इससे भी पूर्व प्रथम तीर्थंकर भ० आदिनाथ भी वर्षोपवास के अनंतर हस्तिपुर नगरी में चर्चा के लिए आए थे, राजा श्रेयांस और सोमप्रभ ने अपने पूर्वभव के जातिस्मरण हो जाने से उन्हें विधिवत् नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहन कर इक्षुरस का आहार दिया, आज भी वह पवित्र दिवस, अक्षयतृतीया के नाम से जगप्रसिद्ध है हल्लिनापुर और उसके चारों ओर आज भी इक्षु [गन्ने] की सघन खेती देखी जाती है। यहाँ पर आने वाले हर यात्री का मुँह अनायास ही मीठा हो जाता है। इस प्रकार अयोध्या के समान ही हस्तिनापुर की भी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। हाँ, काल प्रभाव से ये नगरियाँ अब छोटी हो गई है। इनके आस-पास का बहुभाग पर्वत, नदां तथा अन्य प्रदेशों में विभक्त हो गया है। यहीं पर अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर राजा बलि ने उपसर्ग किया था। विष्णुकुमार मुनि ने उपसर्ग का निवारण कर, रक्षाबन्धन पर्व का शुभारंभ किया। जिसे आज भी लोग श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन परस्पर रक्षासूत्र बाँध कर मनाते हैं। अभिनंदन आदि पाँच सौ मुनियों को राजा की आज्ञा से यहीं पर घानी में पेला गया था तथा इसी धरा पर कौरव तथा पांडवों का महाभारत युद्ध भी हुआ। इस प्रकार अनेक इतिहास यहाँ से जुड़े हुए होने से यह क्षेत्र ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र माना जाता है। For Personal and Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ इतिहास का प्राचीन पृष्ठ होते हुए भी यह क्षेत्र वर्तमान के जनसंपर्क से दूर रहा। इसका कारण है जैन समाज द्वारा इसे विशेष प्रकाश में नहीं लाया जाना । आज से १० वर्ष पूर्व हस्तिनापुर आस-पास के मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बड़ौत आदि क्षेत्रों के अतिरिक्त लोगों के लिए मात्र शास्त्रगत विषय था। केवल पुराणों में इसका नाम पढ़ने-सुनने को मिलता था। होनहार की बात होती है, कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व जिस सुदर्शन मेरु पर्वत को हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने अपने स्वप्न में देखा था उसे साकार करने का श्रेय पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को मिला। जंबूद्वीप की प्रारंभिक उपज कहां से? ईसवी सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने संघ सहित कर्नाटक के श्रवणबेलगोला तीर्थक्षेत्र पर भ० बाहुबली के चरण सानिध्य में चातुर्मास स्थापना की। उस समय माताजी के संघ में आ० पद्मावतीजी, आ० जिनमती माताजी, आर्यिका आदिमतीजी, क्षु० श्रेयांसमती एवं क्षु० अभयमतीजी थीं। आ० आदिमतीजी व क्षु० अभयमतीजी की अस्वस्थता के कारण माताजी को वहाँ पूरे एक वर्ष रुकना पड़ा। जिसके मध्य कई बार विंध्यगिरि पर्वत पर भ० बाहुबली के चरण सामीप्य में माताजी को ध्यान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ध्यान की धारा निरन्तर बढ़ती गई। एक बार १५ दिन तक मौनपूर्वक लगातार पहाड़ पर रहकर ध्यान किया। मात्र आहार के समय नीचे उतरना, आहार के अनंतर पुनः ऊपर जाकर रात्रि वहीं व्यतीत करती थीं। आर्यिका पद्मावतीजी हमेशा माताजी के साथ ही रहती थीं। इसी मध्य एक दिन माताजी ने भ० बाहुबली का ध्यान करते-करते उसी ध्यान की धारा में तेरहद्वीप के चार सौ अट्ठावन जिनचैत्यालयों की वंदना, वहां की अकृत्रिम छटा, वन खण्ड, स्वयंसिद्ध प्रतिमाएं सब कुछ यथावत् मस्तिष्क में दृष्टिगत होने लगा। विशेष आनन्दानुभव के साथ ध्यान सन्तति समाप्त हुई। माताजी के हर्ष का पारावार नहीं था; जब प्रातःकाल आहार के समय पहाड़ से नीचे आई तो करणानुयोग के त्रिलोकसार ग्रंथ को उठाकर उसमें ज्यों की त्यों रचना का वर्णन पढ़कर अत्यधिक प्रसन्न हुई। १५ दिन बाद मौन की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने अपनी शिष्या आर्यिकाओं को एवं कुछ श्रावकों को भी सारी घटना बताई। माताजी की शिष्या आर्यिका जिनमतीजी ने कहा कि यह रचना पृथ्वी पर अवश्य साकार होनी चाहिए। माताजी अपने प्रवचनों में भी जब अकृत्रिम चैत्यालयों का वैभव, उनकी प्राकृतिक छटा का वर्णन करतीं, उस समय सभी श्रोता मानो एक क्षण को वहीं पहुँचकर स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं के ध्यान में लीन हो जाते। जैसी कि यह सूक्ति प्रसिद्ध ही है कि "वक्त्रं वक्ति हि मानसम्" ठीक इसी प्रकार माताजी के अन्तःकरण से निकले हुए शब्द श्रोताओं को प्रभावित किये बिना नहीं रहते। आज भी उनकी यही अंतरंग भावना रहती है कि "कब उन अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात् करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा।" भगवान उनकी इस भावना को अवश्य पूर्ण करेगा। कुछ दिनों बाद श्रवणबेलगोला से विहार करके आर्यिका संघ सोलापुर (महाराष्ट्र) आया। यहाँ पर एक श्राविकाश्रम है, जिसकी संस्थापिका पद्मश्री पं. सुमतिबाई शहा कर्मठ महिला हैं, साथ में बाल ब्र. कु. विद्युल्लता शहा भी माताजी की अनन्य भक्तों में से हैं। इनकी माँ आ० चन्द्रमती जी माताजी के साथ ही आचार्य वीरसागर के संघ में रहती थीं और ज्ञानमती माताजी से कुछ न कुछ अध्ययन भी करती थीं। यही कारण था कि उनकी माताजी के प्रति विशेष भक्ति थी। अतः इन लोगों के आग्रह से माताजी ने सोलापुर के महिलाश्रम में ही चातुर्मास स्थापन किया। उसी समय आ० श्री विमलसागरजी महाराज का संघ सहित चातुर्मास सोलापुर शहर में ही हुआ। दोनों संघों का संगम वहाँ की धर्म-प्रभावना में विशेष सहकारी बना। ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में शिक्षण शिविर का आयोजन हुआ, जिसमें प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों ने सक्रिय रूप से भाग लेकर ज्ञानार्जन किया। माताजी प्रतिदिन विभिन्न विषयों के साथ-साथ जैन भूगोल पर अच्छा प्रकाश डालतीं, जिससे ब्र. सुमतिबाई के हृदय में भी इस रचना को पृथ्वी पर बनाने की लालसा जाग्रत हुई। उन्होंने सोलापुर में इस रचना हेतु कई स्थल चयन किए और माताजी से कुछ दिन यहीं रहकर मार्गदर्शन देने के लिए निवेदन किया। उन्होंने बहुत आग्रह किया कि माताजी हम आपकी चर्या में किसी प्रकार का दोष नहीं लगने देंगे। हमें मात्र आपके द्वारा दिशा-निर्देश चाहिए; क्योंकि यह रचना आज तक कहीं भी बनी नहीं है। किसी इंजीनियर या आचींटेक्ट के गम्य भी यह विषय नहीं है। नंदीश्वर द्वीप की रचना, समवशरण की रचना तो कई जगह निर्मित हो चुकी है; अतः उसकी नकल करने में हमें कोई परेशानी नहीं होगी, किन्तु यह रचना मात्र आपके मस्तिष्क में है, आप ही इसका सही मार्ग-दर्शन दे सकती हैं। किंतु माताजी के वहाँ नहीं रुकने के कारण वहाँ का कार्य संभव न xperinted Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५४१ हो सका। सोलापुर में ब्र० सुमतिबाई और कु० विद्युल्लताजी ने जिस तन्मयता से पू० माताजी की व संघ की वैयावृत्ति की उसका उदाहरण माताजी के प्रवचन में कई बार सुनने को मिलता है। “विद्वत्ता के साथ-साथ साधु सेवा का गुण वास्तव में सोने में सुगन्धि का कार्य करता है।" इस प्रकार से सोलापुर का चातुर्मास माताजी के जीवन का अविस्मरणीय पृष्ठ है। माताजी की हार्दिक इच्छा तो हमेशा रही कि मेरे मस्तिष्क की रचना कहीं न कहीं पृथ्वी पर अवश्य साकार हो जाए, किन्तु वे इसमें माध्यम नहीं बनना चाहती थीं। उनकी इच्छा थी कि कोई इसे स्वयं अपनी जिम्मेदारी पर करवाए। यही कारण रहा कि कहीं इसका योग नहीं बना। वैसे तो ऐसे-ऐसे महान् कार्य किसी साधु-सन्तों के आश्रय के बिना असंभव ही होते हैं। इस शताब्दी के पुराने इतिहास को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि धार्मिक साहित्य तथा तीर्थों का उद्धार साधुओं के द्वारा ही हुआ है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य सम्राट् श्री शांतिसागर महाराज की प्रेरणा से प्राचीन सिद्धांत ग्रंथ धवला ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण हुआ, जो फलटण में आज भी विराजमान है। युगों-युगों तक यही साहित्यिक धरोहर जैनधर्म की प्राचीनता को दर्शाएगा। इसी प्रकार से कुंथलगिरी में देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों की प्रतिमाओं की स्थापना भी आ० श्री की प्रेरणा से ही हुई। वह तीर्थ आ० श्री को अत्यंत प्रिय था, इसीलिए उन्होंने वहीं पर सल्लेखनापूर्वक अपने अंतिम शरीर का त्याग किया। कुम्भोज बाहुबली जो महाराष्ट्र का जीवन्त तीर्थ है उसका उत्थान भी आचार्य श्री की प्रेरणा से ही हुआ। इसका सुन्दर ज्यों का त्यों वर्णन डॉ० श्री सुभाषचन्द अक्कोले ने "आ० शांतिसागर जन्मशताब्दी महोत्सव स्मृति ग्रंथ" में किया है। उन्होंने किस प्रकार से मुनि समन्तभद्रजी को कुम्भोज में बाहुबली की प्रतिमा स्थापित करने की प्रेरणा और आशीर्वाद प्रदान किया। देखिये "तुमची इच्छा येथे हजारों विद्यार्थ्यांनी राहावे शिकावे . . . . . हा तुम्हा सर्वांना आशीर्वाद आहे।" इसका हिन्दी अर्थ यह है “आपकी आन्तरिक इच्छा यह है कि यहाँ पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँ। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है। यथासंभव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिए।" मुनिश्री समन्तभद्रजी की ओर दृष्टिकर संकेत किया-"आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थभूमि है। मुनियों को विहार करते रहना चाहिए, इस प्रकार सर्वमान्य नियम है फिर भी विहार करते हुए जिस प्रयोजन की पूर्ति करनी है, उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थ-क्षेत्र है, एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। जिस प्रकार से हो सके कार्य शीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करना । कार्य अवश्य ही पूरा होगा, सुनिश्चित पूरा होगा। आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।" इस तीर्थ को मुनि श्री समन्तभद्रजी ने एक महान् तीर्थ बना दिया। आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज ने अयोध्या में १००८ भ० आदिनाथ की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई, जयपुर खानिया का चूलगिरि पर्वत उन्हीं की देन है। उन्होंने अपनी गृहस्थावस्था की जन्मभूमि कोथली में कितना विशाल कार्य करवाया। गुरुओं की प्रेरणा व आशीर्वाद भक्तों के कार्यकलापों में संबल प्रदान करता है। आचार्य श्री विमलसागर महाराज ने सम्मेदशिखर में समवशरण की रचना बनवाई, सोनागिरी में उनकी प्रेरणा से नंग-अनंग की मूर्ति तथा गुरुकुल की स्थापना हुई। इसी प्रकार जगह-जगह आ० श्री की प्रेरणा से बहुत से धार्मिक कार्य होते रहते हैं। आ० श्री विद्यासागर महाराज की प्रेरणा से सागर एवं जबलपुर (म०प्र०) में ब्राह्मी विद्या आश्रम की स्थापना हुई, जिसमें सैकड़ों अल्पवयस्क बालिकाएं ज्ञानार्जन करके आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर हैं। इसी प्रकार से धर्मगुरुओं की प्रेरणा से हमेशा समाज एवं धर्म की उन्नति हुई है। निन्दा और प्रशंसा की ओर इन साधुओं का लक्ष्य न होकर आत्म और पर के कल्याण की ओर ही होता है। निन्दा करने वाले मात्र अपने कर्म का बन्ध कर लेते हैं जो कि उन्हें भव-भव में स्वयं को भोगना पड़ता है। एक भव की अज्ञानता अनेक भव परिवर्तनों का कारण बनती है। तभी तो आचार्यों ने कहा है "भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ॥" अर्थात् गृहस्थ को साधुओं की निंदा करने से क्या प्रयोजन ? वह तो आहारदानादि अपनी क्रियाओं को करके शुभ भावों का बन्ध कर ही लेता है, साधु में यदि साधुता नहीं है तो उसका फल उन्हें स्वयं भोगना पड़ेगा, श्रावक तो उसके फल में हकदार हो नहीं सकता। वर्तमान में मनुष्यों की स्थिति यह है कि व्यापारिक उलझनों में उलझकर रिश्वत में हजारों, लाखों रुपया देकर भी चैन की नींद नहीं सो सकते। जबकि सुबह से शाम तक एड़ी से चोटी तक परिश्रम करके खून-पसीना बहा करके केवल पारिवारिक संतुष्टियों के लिए सब कुछ किया जाता है। यदि इसकी जगह संतोषपूर्वक न्याय से थोड़ा धन कमाया जाए, उसी में से थोड़ा धर्मकार्यों में दान किया जाए, साधुओं की प्रेरणा से किसी धर्मतीर्थ का जीर्णोद्धार करा दिया जाए तो वह अधिक श्रेयस्कर है। लेकिन इसका मूल्यांकन कोई विरले पुरुष ही कर सकते हैं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जब तक इस रचना कार्य में स्वयं को नहीं डाला, तब तक वह प्रादुर्भूत न हो सकीं। सोलापुर से विहार करके Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ , माताजी भ्रमण करते-करते मध्यप्रदेश सनावद में अपने संघ सहित आ गई। यहाँ पर चातुर्मास के पूर्व विशिष्ट व्यक्तियों ने जब माताजी के मस्तिष्क की रचना को सुना और समझा तो रुचिपूर्वक वहीं पर इसे बनवाने का विचार करने लगे। पास में ही सनावद से ८-१० कि०मी० दूर सिद्धवरकूट सिद्ध क्षेत्र पर स्थान भी चयन किया गया। सनावद वालों की प्रेरणा से माताजी ने ज्येष्ठ मास में सिद्धवरकूट यात्रा के लिए विहार किया। साथ में श्री रखबचंदजी, कमलाबाई, ब्र० मोतीचंदजी, श्रीचंदजी, त्रिलोकचंदजी, देवेन्द्र कुमार आदि बहुत से लोग थे। सिद्धवरकूट नर्मदा नदी के तट पर बसा होने के कारण विशेष आकर्षण का केन्द्र है। नाव से ५-६ मील नदी के रास्ते को तय करके यात्रीगण उस क्षेत्र पर पहुँचते हैं। यात्रा संघ में गए हुए मोतीचंद आदि सभी लोगों ने इस दृष्टि से उस स्थान को रचना निर्माण के लिए चुना, जहाँ नर्मदा का जल सुविधापूर्वक प्राप्त करके अपने निर्माण में नदी-समुद्रों के लिए तथा फौव्वारों की सुन्दरता के लिए जल पर्याप्त अवस्था में प्राप्त कर सकें। बहुत लम्बी-चौड़ी जगह का माप लिया गया। रमणीक स्थान होने के कारण चहुँमुखी दृष्टियों का केन्द्र बनता, किन्तु वहाँ का भी योग नहीं था। अचानक आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के संघ से सूचना आ गई कि शानमती माताजी से कहो कि यह रचना महावीरजी तीर्थक्षेत्र पर बनेगी, अतः वे शीघ्र ही आर्यिका संघ सहित यहाँ आने का प्रयास करें माताजी के हृदय में प्रारंभ से ही अटूट गुरुभक्ति थी, गुरु भाई आचार्य श्री का संदेश मिलते ही जल्दी ही संघ में जा पहुँची। तब तक तो माताजी के मन में १३ द्वीप की रचना का ही प्लान था । 1 होनहार बहुत बलवान् होती है। आचार्य संघ महावीरजी पहुंचा ही था कि वहाँ पर आकस्मिक आ० श्री शिवसागर महाराज बीमार पड़ गए और देखते ही देखते फाल्गुनी अमावस्या को उनकी समाधि हो गई। अब उस संघ का नेतृत्व आ० श्री धर्मसागरजी महाराज के हाथों में आ गया। आ० श्री की समाधि से संघ का वातावरण शोकाकुल-सा रहा। अतः आगे कोई बात नहीं चलाई गई। माताजी भी संघ के साथ में बिहार व धर्मप्रभावना करती रहीं । महावीरजी के बाद सन् १९६९ में जब संघ का चातुर्मास जयपुर (राज०) में था, माताजी ने वहाँ पर ज्योतिर्लोक विषय पर शिविर लगाया। उस समय विद्वानों एवं जनता को करणानुयोग के विषय में नया दिशाबोध मिला संघस्थ ब्र० मोतीचंदजी ने परिश्रमपूर्वक कुछ विशेष नोट्स भी तैयार किए। कुछ दिनों बाद उन्हीं नोट्स के आधार पर एक पुस्तक "जैन ज्योतिलोंक" लिखी, जो आज भी दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान की वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला के द्वितीय पुष्प के रूप में उपलब्ध है। माताजी को तो जैसे करणानुयोग का सारा विषय हृदयंगम ही हो चुका था, यदि स्वप्न में भी कोई तत्संबंधी प्रश्न कर देवे तो उसका उत्तर आगम आधारपूर्वक प्रस्तुत रहता था। अवश्य ही इन्हें कोई न कोई पूर्व भव के प्रबल संस्कार ही कहना पड़ेगा। सन् १९७० का चातुर्मास टोंक में हुआ। पुनः सन् १९७१ का चातुर्मास आ० संघ के साथ ही अजमेर (राज०) में हुआ। वहाँ के सर सेठ भागचंदजी सोनी और उनकी धर्मपत्नी ज्ञान से प्रभावित होने के कारण पू० माताजी के पास अधिक समय निकाल कर स्वाध्याय आदि का लाभ लेते। चातुर्मास सोनीजी की नशिया में ही हुआ था; अतः वहीं पर प्रवचन भी होते थे। एक दिन सेठजी के सामने माताजी की बात हुई। उन्होंने बड़ी रुचिपूर्वक माताजी को उसी नशिया में ऊपर कमरे में बनी हुई रचना को खोल कर दिखाया उसमें भी कुछ-कुछ वही झलक थी, बीच में पाँच मेरु भी बनाए गए थे आज भी उधर के आस-पास के लोग उसे देखने आते है और उसे अयोध्या एवं पांडुक शिला की रचना कहते हैं। पू० माताजी की मनोभावना थी कि कहीं खुले स्थान पर पृथ्वी पर यह रचना बने, लेकिन तेरहद्वीप की रचना उस समय के लिए करोड़ों की लागत का कार्य था; अतः प्रश्नवाचक चिह्न बनकर खड़ा होता कि यह राशि कहाँ से आयेगी ? कौन इसकी जिम्मेदारी लेगा ? अन्ततोगत्वा ब्र० मोतीचंदजी के निवेदन पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि केवल जम्बूद्वीप की योजना को साकार करना चाहिए। अजमेर चातुर्मास समाप्त होने पर संघ का बिहार हुआ। यहाँ से कुछ दूर ही "पीसांगन" नाम के गाँव से पू० आचार्य श्री धर्मसागर महाराज का संघ कालू चला गया एवं माताजी ने ब्यावर की ओर विहार कर दिया। वहाँ पर पंचायती नशिया में एक कमरे में छोटा-सा जम्बूद्वीप मॉडल वहाँ के जैन समाज ने बनवाया, जिसमें शास्त्रोक्त विधि से जिनमंदिर एवं देवभवन आदि बने हैं और बिजली तथा फव्वारों से सुन्दर लवणसमुद्र तथा नदियों के दृश्य भी दिखाए गए हैं। ब्यावर में एक बार माताजी के पास दिल्ली से श्री परसादी लालजी पाटनी आदि कई सज्जन दर्शनार्थ पधारे। उन्होंने [वहाँ पर बनती हुई रचना को देखकर) माताजी से निवेदन किया कि दिल्ली में २५०० वे निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आप अपने संघ सहित अवश्य पधारें। वहाँ पर विशाल पैमाने पर इस रचना का निर्माण कार्य अधिक लोकोपयोगी सिद्ध होगा। दिल्लीवासियों की अधिक प्रेरणा से पू० माताजी ने दिल्ली की ओर विहार किया। उस समय माताजी के साथ मुनि श्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी, आर्यिका आदिमतीजी, आर्यिका श्रेष्ठमतीजी एवं आर्यिका रत्नमती माताजी थीं। सन् १९७२ का चातुर्मास पूरे संघ का दिल्ली पहाड़ी धीरज की नन्हेमल घमण्डी लाल जैन धर्मशाला में हुआ। सन् १९७३ का चातुर्मास दिल्ली नजफगढ़ में हुआ। "जो होता है सो अच्छा ही होता है" यही कहावत चरितार्थ हुई पू० माताजी प्रारंभ से ही अटल पुरुषार्थी रही है। सन् १९७४ में उन्होंने हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की ओर विहार किया । पूज्य माताजी के पास फिलहाल उस समय ब्र० मोतीचंद के सिवाय कोई पुरुषार्थी शिष्य नहीं था। रवीन्द्रजी भी उस समय घर गए हुए थे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला 1 माताजी की इच्छा व आज्ञानुसार मोतीचंदजी हस्तिनापुर के आस-पास की भूमियों को देखने लगे। अब उनके साथ मेरठ के बाबू सुकुमार चंदजी व मवाना के सेठ मूलचंदजी, लखमीचंदजी आदि लोगों का सहयोग मिलने लगा। पूज्य माताजी के आशीर्वाद और लगन का फल रहा कि हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर ही मंदिर से आधा फलांग दूर छोटी-सी भूमि क्रय की गई। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि सन् १९७२ में दिल्ली पहाड़ी धीरज पर डॉ० कैलाशचंद, लाला श्यामलाल वैद्य शांतिप्रसाद, श्री कैलाशचंदजी करोल बाग आदि महानुभावों को प्रमुख करके एक संस्था की स्थापना की गई जिसका नाम "दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" रखा गया। उसकी नॉमिनेटेड कमेटी का गठन भी किया गया। उसी समय "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की भी स्थापना हुई एवं जम्बूद्वीप की पूर्व भूमिका के रूप में लकड़ी का एक सुन्दर जम्बूद्वीप मॉडल भी बनवाया गया था, जो वर्तमान में सिद्धवरकूट में रखा हुआ है। सन् १९७४ में उसी संस्थान के नाम से हस्तिनापुर की प्रारंभिक भूमि क्रय की गई उस भूमि के केन्द्र बिन्दु [बीचोंबीच ] में सुदर्शन मेरु पर्वत का शिलान्यास करवा कर माताजी निर्वाणोत्सव के निमित्त से पुनः दिल्ली आ गई। तब तक आ० धर्मसागर महाराज का विशाल संघ भी दिल्ली पदार्पण कर चुका था। आचार्य संघ के साथ ही माताजी ने भी दिल्ली में चातुर्मास स्थापना की विभिन्न आचार्य और मुनियों के सानिध्य में राजधानी में चारों संप्रदायों की ओर से भ० महावीर का २५०० वाँ निर्वाण महोत्सव राजनेताओं के सौजन्य से आशातीत सफलताओं के साथ सम्पन्न हुआ। पू० मुनि श्री विद्यानंदि महाराज कई विषयों में माताजी से परामर्श करते-करते अकसर कहते कि माताजी! हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर इस रचना की महत्ता अत्यधिक बढ़ेगी। सौभाग्य से सन् १९७५ के प्रारंभ में ही आ० श्री धर्मसागरजी का संघ और उपाध्याय विद्यानंदजी महाराज भी हस्तिनापुर पधारे और बड़ी रुचिपूर्वक रचना स्थल पर भ० महावीर स्वामी की प्रतिमा की स्थापना होते समय आ० श्री ने प्रतिमा के नीचे अचलयंत्र स्थापित किया वह छोटा सा महावीर मंदिर जम्बूद्वीप रचना की चहुँमुखी उन्नति में अनुपम प्रभावशाली सिद्ध हुआ। आज उसका विशाल कमल मंदिर बन चुका है। आ० श्री धर्मसागरजी का संघ हस्तिनापुर में लगभग ४ महीने रहा। सरधना के निवासियों ने उस समय बड़ी तत्परता से वैयावृत्ति की और चौके लगाकर आहारदान का लाभ लिया। आचार्य श्री जब हस्तिनापुर से मंगल विहार करने लगे, उस समय माताजी को आशीर्वाद प्रदान करके जम्बूद्वीप रचना के निमित्त हस्तिनापुर में ही रहने की प्रेरणा प्रदान की। अब माताजी के संघ में आर्यिका श्री रत्नमती माताजी और आर्यिका शिवमती जी रहीं। इन दोनों आर्यिकाओं और ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों सहित माताजी तीर्थक्षेत्र के बड़े मंदिर में रहती थीं। मंदिर से जम्बूद्वीप स्थल पर जाने में घने जंगल के कारण भय प्रतीत होता था। हम लोग भी कभी अकेले यहाँ तक आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। माताजी के साथ लगभग प्रतिदिन या एक-दो दिन बाद आते रहते थे। जंबूद्वीप स्थल पर मात्र एक चौकीदार का परिवार रहता था। ऑफिस के मैनेजर के रहने के लिए स्थल पर अभी तक कोई निर्माण नहीं हो सकने के कारण वे भी बड़े मंदिर में ही बाहर के एक कमरे में रहते थे । बाबू सुकुमारचंदजी माताजी तथा हम लोगों का विशेष ध्यान रखते और आवश्यकतानुसार सारी सुविधाएं भी प्रदान करते उनकी धर्मपत्नी प्रतिमाधारी व्रतिक महिला हैं। वे जब भी हस्तिनापुर आतीं, हमेशा आहारदान तथा वैयावृत्ति के भावों से माताजी की सेवा करतीं। कभी स्वयं अपना चौका लगाती और कभी हमारे चौके में आकर आहार देतीं। [ ५४३ पूज्य माताजी के निमित्त से अब हस्तिनापुर में राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, आसाम और उत्तर प्रदेश सभी ओर से लोग आने लगे। पिछड़ा और विस्तृत क्षेत्र अब प्रकाश में आने लगा तीर्थक्षेत्र कमेटी के सभी सदस्य और सुकुमारचन्दजी बड़े प्रसन्न होते और कहते कि माताजी आपके निमित्त से हमारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र अवश्य ही शीघ्र टूरिस्ट सेंटर बन जाएगा। इस क्षेत्र के मंदिर में दान की रकम तो हमारी बढ़ती जा रही है, आपका जंबूद्वीप बन जाने पर तो विदेशी पर्यटकों का भी यहाँ पर आना-जाना रहेगा और तब यह जैनभूगोल के अनुसंधान का विशेष केन्द्र बन जाएगा। बाहर से आने वाले हर दर्शनार्थी के मुँह से भी यही सुना जाता कि हम लोग मेरठ- सरधना तक तो हमेशा व्यापारिक निमित्तों से आते रहते थे, लेकिन हस्तिनापुर के दर्शन कभी नहीं किए थे। ज्ञानमती माताजी के दर्शनों के निमित्त से हमें दोहरा लाभ प्राप्त हो रहा है, यह खुशी की बात है माताजी ने कभी भी किसी से जंबूद्वीप रचना तथा अन्य किसी निर्माण आदि के लिए पैसे की बात नहीं कहीं। चूँकि माताजी भी बड़े मंदिर में ही रहती थीं अतः यात्री वहीं पर दान की रकम देते थे और अपनी इच्छानुसार जंबूद्वीप में भी दान देते जंबूद्वीप स्थल पर सुमेरुपर्वत का निर्माण कार्य यथाशक्ति चल रहा था। यहाँ पर एक ऑफिस की अत्यन्त आवश्यकता महसूस हो रही थी, जिससे निर्माण की गतिविधि सुचारु रूप से चल सके। Jain Educationa International 1 सन् १९७५ में ऑफिस की नींव रखी गई। कुछ दिनों में वह तैयार हो गया। तब से लेकर आज तक उसी कार्यालय की गतिविधियों से छोटे-बड़े समस्त आयोजन सफल हो रहे हैं संस्थान के मैनेजर अब कार्यालय में बैठते और दोनों संघस्थ ब्रहाचारी (मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार ) सुबह से शाम तक स्थल पर निर्माण आदि की कार्यवाही देखते और रात को सोने के लिए बड़े मंदिर के परिसर में आ जाते मैं प्रातःकाल पू० माताजी के साथ ही बड़े मंदिर से पूजन सामग्री और बाल्टी में शुद्ध जल तथा मंदिर की चाबी लेकर जंबूद्वीप स्थल पर आती; क्योंकि हम सभी लोग भगवान् महावीर के मंदिर में ही अभिषेक पूजन करते थे माताजी को शुरू से ही धार्मिक अनुष्ठानों, विधि-विधानों में अधिक रुचि रही है, उसी के अनुसार हम लोगों से भी सिद्धचक्र, गणधरवलय, शांतिविधान, ऋषिमंडल आदि अनेक विधान करवाए। For Personal and Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ माताजी स्वयं भी लाखों मंत्रों का जाप्य किया करती थीं। मैं समझती हूँ कि उनकी तपस्या एवं मंत्रों का ही प्रभाव है कि त्रिलोक शोध संस्थान के सभी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुए हैं। जंबूद्वीप स्थल पर सुमेरु पर्वत का कार्य द्रुत गति से चल रहा था। दिल्ली के इंजीनियर श्री के०सी० जैन, के०पी० जैन, एस०एस० गोयल तथा रुड़की के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री डॉ० ओ०पी० जैन की विशेष देख-रेख में ८४ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण हुआ। जिसमें नीचे से ऊपर तक १३६ सीढ़ियां बनाई गईं। गुलाबी संगमरमर पत्थर से जड़ा हुआ सुमेरु पर्वत भक्तों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इसमें १६ जिनप्रतिमाएं हैं, जो अकृत्रिम बिम्बों के समान ही वीतरागी छवि से युक्त हैं। यह एक अनुभव गम्य विषय है कि जो भी दर्शक इन प्रतिमाओं के समक्ष नजदीकी से जाकर दर्शन कर आत्मावलोकन करते हैं, उन्हें अभूतपूर्व शांति प्राप्त होती है। ज्ञानमती माताजी इस पर्वत के ऊपर पांडुकवन में जाकर बहुधा घंटों ध्यान किया करती थीं। आज भी यदा-कदा करती हैं। प्रातः, मध्याह्न और सायं तीनों समय यह पर्वत रंग बदलता हुआ-सा प्रतीत होता है। पूर्व दिशा के उगते सूर्य की लालिमा जब सुमेरु पर्वत पर पड़ती है, तब उसकी आभा केसरिया रंग से युक्त हो जाती है। सामने भद्रसाल वन की प्रतिमा का दर्शन करते हुए पीछे सूर्य का प्रतिबिम्ब चमकते भामंडल जैसा प्रतीत होता है। मध्याह्न ११ बजे के अनंतर तप्तायमान सूर्य की किरणें उस पूरे पर्वत को स्वर्णिम रूप में परिवर्तित कर देती हैं। पुनः संध्याकाल में विशेष रूप से शुक्ल पक्ष की चांदनी रात्रि में धवल दुग्ध के समान चंद्रमा की शीतल किरणे अभिषेक करती हुई प्रतीत होती हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि सुमेरु पर्वत में विराजमान स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं का अतिशय ही इसे चमत्कृत कर रहा है। सूर्योदय और सूर्यास्त के मनोरम दृश्यसुमेरु पर्वत में ऊपर पांडुक वन में चढ़ने पर प्रातः सूर्य के उदय का और शाम को अस्ताचल की ओर जाते हुए सूर्य बिम्ब का दर्शन बड़ा सुन्दर लगता है। अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की भांति इसका भी विशेष महत्त्व प्रदर्शन किया जा सकता था, किन्तु हस्तिनापुर में इस विषय का प्रचार इसलिए नहीं किया गया कि ऊपर चढ़ते हुए स्थान अत्यन्त संकुचित रह गया है जहाँ अधिक लोग एक साथ न चढ़ सकते हैं और न वहाँ बैठने की ही पर्याप्त जगह है, वर्ना यह जंबूद्वीप माउण्ट आबू जैसी ख्याति को प्राप्त हो सकता था। ख्याति तो यूं भी बहुत है। इस रम्य क्षेत्र में लोग जंबूद्वीप के दर्शन करने प्रातः ५ बजे से ही आने प्रारंभ हो जाते हैं। मध्याह्न की कड़कड़ाती धूप में भी सतत सुमेरु पर्वत पर यात्रियों का आवागमन चला करता है। रात्रि होते-होते भी यात्रियों के दिल में दर्शन की एवं सुमेरु पर चढ़ने की उत्कण्ठा बनी रहती है, किन्तु व्यवस्था की दृष्टि से अंधकार होने से पूर्व ही जंबूद्वीप के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं। सुदर्शन मेरू पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवउपर्युक्त वर्णित सुमेरु पर्वत का निर्माण सन् १९७९ में हुआ। पुनः उसका पंचकल्याणक महोत्सव भी २९ अप्रैल से ३ मई, १९७९ तक संपन्न हुआ था। इस महोत्सव से पूर्व ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित दिल्ली में धर्मप्रभावना कर रही थीं। संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पू० माताजी से मेले में पधारने का आग्रह किया। उस समय प्रथम बार माताजी के संघ को जंबूद्वीप स्थल पर ही ठहराया गया। स्थल पर फ्लैट का प्रथम निर्माणसन् १९७८ में हस्तिनापुर में पू० आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज पधारे। उसी समय दिल्ली से सेठ उम्मेदमलजी पांड्या सपरिवार दर्शनार्थ आए थे। महाराज श्री ने यहाँ पर स्थानाभाव देखकर पांड्याजी को प्रेरणा दी, उनकी प्रेरणानुसार दो कमरे, बॉथरूम, लैट्रीन, रसोई, स्टोर सहित फ्लैट का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे और प्रगति हुई, दानियों की भावनाएं हुईं। अतः इन्हीं फ्लैट के ऊपर २-३ कमरे बनाए गए। सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा महोत्सव का समय नजदीक आ रहा था। माताजी के संघ का आगमन होने वाला था। संघ को ठहराने के लिए इन्हीं फ्लैट के सामने फूस की दो झोपड़ियाँ बनाई गईं। उन्हीं में माताजी को ठहराया गया। प्रतिष्ठा के २-४ दिन पूर्व उम्मेदमलजी पांड्या दर्शनार्थ हस्तिनापुर आये और उन्होंने माताजी को आग्रहपूर्वक फ्लैट में ठहराया। स्वयं वे टेण्टों में ठहरे। यह उनकी गुरुभक्ति का नमूना था। सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक महोत्सव के कार्यक्रम प्रारंभ हुए। इसी सुअवसर पर पूज्य मुनि श्री श्रेयांस सागरजी महाराज, जो १० जून, सन् १९९० को चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के पंचम पट्टाचार्य बने, अपने संघ सहित पधारे। मुनि श्री के साथ में आर्यिका श्री अरहमती माताजी और श्री श्रेयांसमती माताजी थीं (जो क्रम से उनकी गृहस्थावस्था की मां और पत्नी थीं) पू० ज्ञानमती माताजी के साथ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी और शिवमती माताजी थीं। यह तो सर्वविदित ही है कि रत्नमतीजी ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माँ हैं, जो स्वयं ज्ञानमती माताजी का शिष्यत्व स्वीकार करके रत्नत्रय साधना की ओर अग्रसर थीं। पू० रत्नमती माताजी ने अपनी शारीरिक अस्वस्थता के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५४५ कारण जंबूद्वीप रचना के निमित्त हस्तिनापुर में सर्दी, गर्मी, मच्छर आदि अनेकों कष्टों को सहन करके सदैव माताजी को सहयोग दिया, तभी निर्विघ्र रूप से जंबूद्वीप का सफलतापूर्वक निर्माण हो सका। भारत के समस्त जैनसमाज एवं महोत्सव समिति के सफल संयोजन में यह प्रतिष्ठा महोत्सव सानंद संपन्न हुआ। प्रतिष्ठाचार्य ब्र० श्री सूरजमलजी ने तन्मयता के साथ महोत्सव सम्पन्न कराया। इस प्रतिष्ठा में भगवान शांतिनाथजी विधि नायक थे, जिनके माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कटक निवासी सेठ श्री पूषराजजी एवं उनकी धर्मपत्नी को। सर्वोत्तम दर्शनीय सीढ़ियां (पैड़)इस महोत्सव में सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र वह पैड़ बनी, जिसके द्वारा ८४ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत के ऊपर पांडुक वन में जाकर भगवान का जन्माभिषेक किया गया। यह पैड़ लोहे के पाइपों से दिल्ली निवासी श्री नरेश कुमारजी बंसल ने अथक परिश्रमपूर्वक बनवाई। इस पैड़ को देखने के लिए हजारों नर-नारी प्रतिदिन आकर ऊपर चढ़कर भगवान का अभिषेक करके आनंदित होते थे। ३० अप्रैल, १९७९ को भगवान शांतिनाथ का जन्म अभिषेक महोत्सव इसी मेरु की पांडुक शिला पर सौधर्मादि इन्द्रों द्वारा किया गया था। वह मनोरम दृश्य साक्षात् अकृत्रिम मेरु पर चढ़ते हुए इन्द्र परिकर का-सा आनंद उपस्थित कर रहा था। इस प्रकार से विविध आयोजनों के साथ में प्रतिष्ठा महोत्सव का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। ३ मई, ७९ को १६ जिनबिम्ब सुदर्शन मेरु के भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक वनों में विराजमान हो गईं, जिसके फलस्वरूप जीवन्त मेरु अप्रतिम प्रतिभा का धनी हो गया और मानवमात्र के मनोरथ सिद्ध करने लगा। इसके पश्चात् जंबूद्वीप स्थल पर मई सन् १९८५ में "जंबूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव" विशाल स्तर पर हुआ, जिसमें देशभर से लाखों यात्रियों ने हस्तिनापुर पधारकर जम्बूद्वीप रचना के दर्शन किये। आचार्य श्री परम पूज्य धर्मसागरजी महाराज के संघस्थ साधुगेण इस महामहोत्सव में पधारे। पुनः मार्च सन् १९८७ में "श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं ब्र० श्री मोतीचंदजी की क्षुल्लक दीक्षा सम्पन्न हुई। इस महोत्सव में परमपूज्य आचार्यरत्न श्री विमलसागरजी महाराज का ससंघ पदार्पण हुआ। इसके बाद मई सन् १९९० में "श्री महावीर जिन पंचकल्याणक महोत्सव" हुआ। यह मेला "जम्बूद्वीप महामहोत्सव" के नाम से आयोजित किया गया था। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के निर्देशानुसार प्रत्येक पांच वर्षों के बाद यह "जम्बूद्वीप महामहोत्सव" व्यापक स्तर पर मनाया जाता रहेगा। इसी श्रृंखला में सन् १९९० का प्रथम महामहोत्सव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। __ पूज्य माताजी के सानिध्य में जंबूद्वीप स्थल पर मुख्य रूप से चार पंचकल्याणक महोत्सव हुए हैं, किन्तु सन् १९७५ में बड़े मंदिर और जल मंदिर की प्रतिष्ठा के साथ ही यहाँ के कल्पवृक्ष भगवान महावीर स्वामी भी प्रतिष्ठित हुए थे। इस अपेक्षा से यहाँ की पांच पंचकल्याणकों में पूज्य माताजी के आर्यिका संघ का सानिध्य प्राप्त हो चुका है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के प्रतिष्ठाचार्य १. कल्पवृक्ष भगवान महावीर प्रतिष्ठा सन् १९७५-६० वर्धमानपार्श्वनाथ शास्त्री-सोलापुर (महाराष्ट्र) २. सुदर्शनमेरु पंचकल्याणक महोत्सव मई सन् १९७९-७० सूरजमल बाबाजी-निवाई (राजस्थान) ३. जंबूद्वीपजिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव मई सन् १९८५-ब्र० सूरजमल बाबाजी-निवाई (राजस्थान) ४. श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक महोत्सव मार्च सन् १९८७-पं० शिखरचंद जैन-भिण्ड (मध्यप्रदेश) ५. जंबूद्वीप महामहोत्सव एवं कलशारोहण मई सन् १९९०-पं० फतेहसागरजी –उदयपुर (राजस्थान) एवं प्रतिष्ठाचार्य प्रदीप कुमार जैन-कुसुम्बा (महाराष्ट्र) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ एक ज्योति से ज्योति सहस्रों जलती जाएं अखिल विश्व में [रचयित्री-आर्यिका चन्दनामती] एक नहीं कितनी गाथाएं इतिहासों में छिपी हुई हैं। वीर शहीदों की स्मृतियां स्वर्णाक्षर में लिखी हुई हैं। नहीं पुरुष की पौरुषता से केवल देश का मस्तक ऊंचा। बल्कि नारियों ने हँस हँस कर माँगों के सिन्दूर को पोंछा ॥ १ ॥ दोनों के सर्वोच्च त्याग ने भारत को आजाद कराया। ब्रिटिश राज्य परतंत्र बेड़ियों के बंधन से मुक्त कराया। आजादी की परिभाषा ने गांधी का अस्तित्व बताया। रानी लक्ष्मी के रणकौशल ने जग को नारित्व दिखाया ॥ २ ॥ रंग भूमि हो धर्मभूमि या कर्मभूमि की किसी डगर पर। नहीं भेद है कहीं देख लो ब्राह्मी और सुन्दरी का स्वर ॥ वीर प्रभू निर्वाण दिवस से अब तक का इतिहास खुला है। साहित्यिक निर्माण बालसतियों के द्वारा नहीं मिला है॥ ३ ॥ इसी देश की कन्या मैना ने धार्मिक इतिहास को बदला। ज्ञानमती बनकर दिखलाया भारत में अब भी हैं सबला ॥ उन्हीं की पुष्टी में इंदिरा जी के बढ़ते कदमों को देखो। आज हमें सिखलाती हैं कि देश में शासन करना सीखो॥ ४ ॥ ज्ञानमती ने जंबूद्वीप ज्ञानज्योति का रथ चलवाया। वरदहस्त पा माताजी का इंदिराजी ने हाथ लगाया ॥ धर्मनीति और राजनीति के शुभ भावों का मधुर मेल है। जन-जन को आलोकित करना ज्ञानज्योति का यही खेल है॥ ५ ॥ एक ज्योति से ज्योति सहस्रों जलती जाएं अखिल विश्व में। अन्धकार का नाम नहीं रहने पाए इस अवनीतल में। यूं तो जुगनूं का किंचित् टिमटिम प्रकाश होता रहता है। किन्तु सूर्य की प्रखरकांति से उसका बल खोता रहता है ॥ ६ ॥ चलो बन्धुओ बढ़ते जाओ कभी शूल से मत घबराना । शूल के पथ को तुम फूलों की कोमलता से भरते जाना ॥ यही महानता है जीवन की ज्ञानमती ने सिखलाया है। अमर विश्व में रहे “चन्दना" जो प्रकाश हमने पाया है॥ ७ ॥ ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभ संकल्प१८ जुलाई, १९८१ का वह शुभ दिवस, हस्तिनापुर में जंबूद्वीप स्थल पर नवनिर्मित धर्मशाला नं० २ के कमरा नं० १२ में प्रथम मीटिंग थी। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने मस्तिष्क में जंबूद्वीप के मॉडल को संपूर्ण भारत में भ्रमण कराने हेतु एक भाव संजोया था। उसी को मूर्त रूप देने हेतु यह मीटिंग बुलाई गई थी। ८ दिन पूर्व से आयोजित इन्द्रध्वज मंडल विधान विशाल पैमाने पर चल रहा था। अनेक स्थानों के महानुभाव विधान में भाग लेने आए हुए थे। मीटिंग के विषय से प्रभावित होकर कई विद्वान् एवं श्रीमान् भी आज की तारीख में हस्तिनापुर पधारे। मध्याह्न १.०० बजे से मीटिंग प्रारंभ हुई। मंगलाचरण किया पंडित श्री कुंजीलालजी गिरिडीह वालों ने। संस्थान के मंत्री रवीन्द्र कुमारजी ने कार्यक्रम की रूपरेखा बताई-माताजी की यह इच्छा है कि जम्बूद्वीप के एक मॉडल को रथ के रूप में सुसज्जित करके सारे हिन्दुस्तान में उसका भ्रमण कराया जाए ताकि अहिंसा और नैतिकता का व्यापक प्रचार होकर जंबूद्वीप का महत्त्व जनसामान्य तक पहुँच सके। सर्वप्रथम उस भ्रमण करने वाले रथ के नाम पर विचार करने का निर्णय हुआ, तदनुसार उपस्थित समस्त महानुभावों ने नाम प्रेषित किए Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला १. जम्बूद्वीप रथ, २. जम्बूद्वीप ज्ञान रथ, ३. ज्ञानचक्र, ४. जम्बूद्वीप चक्र, ५. जम्बूद्वीप शन चक्र इत्यादि कई नाम प्रेषित हुए, किन्तु कोई नाम निश्चित नहीं हो सका। अंत में एक नाम आया - जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति । जो सर्वसम्मतिपूर्वक पास किया गया। उसमें यह निर्णय लिया गया कि जम्बूद्वीप का मॉडल बनाकर बिजली, फौव्वारों से सुसज्जित करके एक वाहन पर समायोजित किया जाए ज्ञान के प्रतीक में विस्तृत साहित्य का प्रचार किया जाए एवं ज्योति शब्द को द्योतित करने के लिए एक विद्युतज्योति प्रज्वलित की जाए। यह तो रहा जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के रथ के समायोजन का शुभसंकल्प अब इस महती योजना को सफलतापूर्वक संचालन करने के लिए उपस्थित समस्त विद्वानों ने सहयोग प्रदान करने हेतु अपने-अपने अभिप्राय व्यक्त किए - सर्वप्रथम पं० बाबूलालजी जमादार, पं० कुंजीलालजी, श्री नरेन्द्र प्रकाश जी प्राचार्य फिरोजाबाद, डॉ० श्रेयांस कुमार बड़ौत, डॉ० सुशील कुमार मैनपुरी, श्री शिवचरण जी मैनपुरी आदि अनेक विद्वानों ने अपना पूर्ण सहयोग देने को कहा। सफलतापूर्वक मीटिंग की कार्यवाही चली, जिसमें कतिपय श्रीमन्तों की ओर से यह एक सुझाव भी आया कि यह सब कुछ करने का प्रयोजन तो एक ही है-जम्बूद्वीप का निर्माण कराना। अतः इन सब झंझटों और ऊहापोहों से तो अच्छा है कि हम ५० श्रेष्ठियों से एक-एक लाख रुपया लेकर ५० लाख रुपया एकत्र करके जम्बूद्वीप को बना देंगे। ज्ञानज्योति के भ्रमण में तो पैसा और शक्ति दोनों लगेगा, जो बड़ा कठिन कार्य है। पूज्य माताजी ने उनके इस प्रस्ताव को सुना, किन्तु माताजी के गले यह बात नहीं उतरी। उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा-हमें मात्र जम्बूद्वीप नहीं बनाना है, प्रत्युत सारे देश में जैन भूगोल, अहिंसा, धर्म और चरित्र निर्माण की योजना का प्रचार करना है। जैन समाज में पैसे की कमी नहीं है, किन्तु जन-जन का आर्थिक एवं मानसिक सहयोग पाकर यह रचना संपूर्ण विश्व की बने, मेरी यह भावना है माताजी के पास में मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार ये दो प्रमुख स्तम्भ ऐसे रहे जिनके सबल कंधों पर जम्बूद्वीप निर्माण जैसे महान कार्य को प्रारंभ किया था और उन्हीं के ऊपर ज्योति प्रवर्तन के कार्य का बीड़ा उठाया। कमेटी तो कार्य प्रारंभ होने पर सहयोग देती ही रही है और देगी ही । इन्हीं दृढ़ संकल्पों के आधार पर माताजी ने निर्णय लिया कि ज्योति का प्रवर्तन अवश्य होगा। कुल मिलाकर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की बात तय हुई। अब प्रश्न यह उठा कि इसका उद्घाटन कहां से और किसके द्वारा कराया जावे ? ज्योति प्रवर्तन राजधानी से त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पू० माताजी के समक्ष निवेदन किया कि आपकी भावनानुसार इस ज्योतिरथ का प्रवर्तन देहली से राजनेता के द्वारा कराया जाए तो इसका राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान भी होगा और व्यापक रूप में अहिंसा, धर्म का प्रचार भी होगा। इसकी प्रारंभिक रूपरेखा एवं प्रवर्तन उद्घाटन जैसा महान् कार्य आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है अतः आप दिल्ली बिहार का विचार बनाइए। यद्यपि पू० माताजी की इच्छा दिल्ली के लिए बिहार करने की बिल्कुल भी नहीं थी, किन्तु लोगों के अति आग्रह से चातुर्मास के पश्चात् दिल्ली के विहार का प्रोग्राम बनने लगा । संघस्थ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी दिल्ली जाने की; क्योंकि दिल्ली का वातावरण उनके स्वास्थ्यानुकूल नहीं पड़ता था, लेकिन इस महान् कार्य की रूपरेखा सुनकर वे भी मना न कर पाईं और आर्यिका संघ का मंगल विहार फाल्गुन वदी ३ सन् १९८२ मार्च में हो गया। १५ दिन में माताजी दिल्ली पहुँच गई। [५४७ ऐतिहासिक प्रवर्तन का पूर्व संचालन मोरीगेट से - दिल्ली मोरीगेट के जैन समाज के विशेष आग्रह पर संघ वहीं पर जैन धर्मशाला में ठहरा। अब तो सबका यही लक्ष्य था कि जम्बूद्वीप का सुन्दर मॉडल शीघ्र तैयार कराया जाए और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर कमलों से ज्योति का उद्घाटन कराया जाए। Jain Educationa International श्रेयांसि बहुविप्रानि बड़े-बड़े कार्यों में प्रायः विन भी आया ही करते हैं। ज्ञानज्योति प्रवर्तन की व्यापय रूपरेखा सुन-सुनकर कतिपय विप्रसंतोषियों ने अपना कार्य शुरू कर दिया। कई ज्योतिषियों की भविष्यवाणी हुई कि ज्योति प्रवर्तन कदापि नहीं हो सकता है इंदिरा जी किसी कीमत पर नहीं आ सकती है। एक ज्योतिषाचार्यजी ने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का तो कोई प्रश्न ही नहीं है एवं ढाई महीने से अधिक रथ का भ्रमण हो ही नहीं सकता है— इत्यादि अनेक बातें अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लोग कहने लगे, किन्तु ज्ञानमती माताजी के ऊपर किसी की बात का कभी असर नहीं हुआ। उन्होंने सदा संस्था के कार्यकर्ताओं को भी यही उपदेश दिया है कि "अपने कार्य में सदा लगे रहो, बुराई करने वाले का कभी प्रतिकार मत करो, संघर्षों को चुनौती समझकर पुरुषार्थ करने में पीछे मत रहो" इन्हीं सूक्तियों के अनुसार मोतीचंदजी, रवीन्द्र कुमारजी व पं० बाबूलालजी जमादार तथा अन्य पदाधिकारीगण अपने कार्य में लगे रहे। For Personal and Private Use Only . Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ प्रधानमंत्री के पास डेपुटेशनत्रिलोक शोध संस्थान का एक डेपुटेशन प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर उद्घाटन प्रस्ताव लेकर पहुँचा। थोड़ी देर की बातचीत के बाद इंदिराजी ने स्वीकृति नहीं दी। कई बार उच्चाधिकारियों के द्वारा कोशिशें कराई गई, किन्तु सफलता नहीं मिली। जब प्रधानमंत्री के आने की विशेष उम्मीद नहीं दिखी, तब कई लोगों ने माताजी से अनुरोध किया कि इसका प्रवर्तन किसी सामाजिक व्यक्ति से करवा कर प्रारंभ किया जाए, किन्तु माताजी ने यही कहा कि यह धर्म प्रचार का कार्य है, इंदिराजी अवश्य आयेंगी, यह मुझे विश्वास है। जे०के० जैन सांसद का अमूल्य सहयोगप्रधानमंत्रीजी को लाने के प्रयास बराबर जारी रहे । एक बार यह ज्ञात हुआ कि संसद सदस्य जे०के० जैन इंदिराजी के निकटवर्ती हैं; अतः उनसे सम्पर्क किया गया, उन्होंने प्रयास करने का वचन दिया । होनहार की बात, उन दिनों मोतीचंदजी, रवीन्द्रजी और हम लोग कोई दिल्ली में नहीं थे। अथक प्रयासों के बाद २५ मई, संस्थान का एक शिष्ट मंडल प्रधानमंत्री के निवास स्थल पर, साथ में हैं त्रिलोकचंद कोठारी, डा. कैलाशचंद जैन राजा टॉयज के ४ सुपुत्र सपत्नीक, चक्रेश जैन, कु मालती शास्त्री, ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, ब्र. मोतीचंद १९८२ को जे०के० जैन का टेलीफोन डॉ. कैलाशचंद जैन, साहू रमेशचंद जैन न.भा.टा., राजेन्द्र प्रसाद जैन कम्मोजी, डा. कैलाशचंद जैन, देशपांडे। जी के पास पहुँचा कि प्रवर्तन के लिए इंदिराजी ने स्वीकृति प्रदान कर दी है। डॉ० साहब ने आकर माताजी को खुशखबरी सुनाई और दूसरे दिन हम लोग जब जयपुर से आए तो यह समाचार ज्ञात हुआ। पुनः २-३ दिन बाद ४ जून, ८२ के उद्घाटन की तारीख निश्चित हो गई। बस, क्या था सबकी भावनाएं सफल हुईं। तैयारियां अब बहुत जोरों से होने लगीं। समय भी अल्प ही था, किन्तु मोतीचंद, रवीन्द्र कुमारजी के साथ समस्त कार्यकर्ता उत्साहपूर्वक जुटे हुए थे। सारी देहली में प्रचारार्थ खूब बैनर लगाए गए, पूरे देश में खबरें भेजी गई, दैनिक अखबारों में प्रतिदिन विज्ञापन छपने लगे और नये ट्रक चेसिस में जम्बूद्वीप का सुन्दर मॉडल सुसज्जित किया गया, जिसका "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति" रथ के नाम से प्रवर्तन प्रारंभ होने वाला था। ऐतिहासिक दिवसदेखते ही देखते ४ जून की तारीख भी आ गई। २ जून से ही लाल किला मैदान में विशाल पंडाल और मंच बनाने की व्यवस्था चल रही थी। सुमेरु पर्वत के आकार का सुन्दर द्वार पंडाल के प्रमुख प्रवेश द्वार पर बनाया गया। सारी देहली में प्रधानमंत्री के स्वागतार्थ तरह-तरह के सुन्दर तोरण बनाए गए। मंच की सारी व्यवस्थाएं जे०के० जैन देख रहे थे। वह फूलों से और दीपों से सजा हुआ मंच अपने अतिथि की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा था। सभा मंच के बायीं ओर पूज्य ज्ञानमती माताजी, रत्नमती माताजी और शिवमती माताजी के लिए अलग मंच बनाया गया एवं मंच के दायीं ओर एक फूस की झोपड़ी थी, जहाँ माताजी सभा से पूर्व बैठी हुई थीं। आने-जाने वाले दर्शनार्थियों को उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा था। इंदिरा जी का आगमन और सर्वप्रथम माताजी का आशीर्वादपूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से वार्तालाप करती हई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा जी। दिन के ठीक ४.०० बजे जन-जन का स्वागत स्वीकार करती हुई प्रधानमंत्री की कार उस ऐतिहासिक लाल किला मैदान में प्रविष्ट हुई। उनके साथ में गृहमंत्री Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्री प्रकाशचंद सेठी, केन्द्रीय मंत्री एवं कई संसद सदस्य भी आये। श्री जे०के० जैन ने सर्वप्रथम इंदिराजी व सभी साथियों को पू० माताजी के दर्शन कराए। अनंतर सभी लोग मंच पर आ गए, किन्तु इंदिराजी माताजी से कुछ व्यक्तिगत वार्ता करने हेतु वहीं रुक गईं। एक महिला होने के नाते उन्होंने पूज्य माताजी से अपने हृदय के कुछ उद्गार व्यक्त करते हुए समाधान पूछा, बातें तो जो और जिस रूप में उन्होंने की हों, यह मुझे नहीं मालूम, किन्तु इंदिराजी की धर्म के प्रति जो निष्ठा और विश्वास मैंने देखा, वह सचमुच अविस्मरणीय है। पूज्य माताजी ने एक पैण्डन में यंत्र रखकर दिया, जिसे उन्होंने श्रद्धावनत होकर तत्काल गले में पहन लिया। इसके साथ ही माताजी ने एक मूंगे की माला पर करोड़ों मंत्रों का जाप्य किया था, उस माला को उन्हें देते हुए कहा कि इस माला के द्वारा प्रतिदिन "ॐ नमः" मंत्र की एक माला अवश्य फेरें, इंदिराजी सिर झुकाकर सहर्ष उस माला को भी गले में डालकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने २० मिनट तक माताजी से बातचीत की और असीम शांति का अनुभव किया। इस मध्य माताजी और इंदिराजी के सिवाय अन्य कोई भी वहाँ उपस्थित नहीं था। उधर माताजी और प्रधानमंत्री का वार्तालाप चल रहा है। इधर हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमुदाय आतुरतापूर्वक अपने प्रिय नेता की प्रतीक्षा कर रहा है। २० मिनट बाद पू० माताजी अपने मंच पर पधारी और प्रधानमंत्री अपने मंच पर। इनके पदार्पण करते ही सारी जनता ने करतल ध्वनि की गड़गड़ाहटपूर्वक स्वागत किया। उस स्वागत का प्रत्युत्तर इंदिराजी ने हाथ जोड़कर अभिवादनपूर्वक दिया। कार्यक्रम का शुभारम्भसभा के सफल संचालन का भार माननीय जे०के० जैन के ऊपर था; अतः उन्होंने उपस्थित विशाल समुदाय को शांत करने हेतु अहिंसा धर्म की जयकारों के नारे लगाए। जनसमूह शांत हुआ। अब सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुईसर्वप्रथम ज्ञानमती माताजी की संघस्थ कु० मालती एवं कु० माधुरी शास्त्री ने मंगलाचरण किया ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः त्वयाधीमन् ब्रह्मप्रणिधिमनसा जन्म निगलन् , समूलं निर्भिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी। त्वयि ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणैर्भाति भगवन् , नभूवन् खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः । अर्हतो मंगलं कुर्युः, सिद्धाः कुर्युश्च मंगलम्। आचार्याः पाठकांश्चापि, साधवो मम मंगलम् ॥" मंगलाचरण के अनंतर गृहमंत्री श्री प्रकाश चंद सेठीजी ने गुलाब के सुन्दर पुष्पहार द्वारा प्रधानमंत्रीजी का स्वागत किया। उस स्वागत की श्रृंखला में ज्योति प्रवर्तन के अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार सेठी, महामंत्री श्री मोतीचंदजी व रवीन्द्र कुमार आदि पदाधिकारियों ने प्रधानमंत्रीजी का पुष्पहार द्वारा स्वागत किया, तत्पश्चात श्री जे०के० जैन ने स्वयं इंदिराजी को माला पहनाई और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती निर्मल जैन ने इंदिराजी को बैज लगाकर स्वागत किया। स्वागत की श्रृंखला को संक्षिप्त रूप देते हुए अन्य और अतिथियों को भी फूलों की मालाएं पहनाकर सम्मान दिया गया। श्री निर्मल कुमार सेठी ने अभिनंदन पत्र पढ़ा, जिसे श्री अमरचंदजी पहाड़िया, कलकत्ता समारोह के स्वागताध्यक्ष ने इंदिराजी के करकमलों में भेंट किया एवं गृहमंत्रीजी द्वारा इंदिराजी को जंबूद्वीप की प्रतिकृति रूप सुमेरु पर्वत का रजत मॉडल भेंट कराया गया। इंदिराजी ने प्रसन्नतापूर्वक उस प्रतिकृति का अवलोकन किया। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन समिति के महामंत्री ब्र० श्री मोतीचंदजी एवं ब्र० श्री रवीन्द्र कुमारजी ने क्रम से ज्ञानज्योति प्रवर्तन का प्रारूप एवं त्रिलोक शोध सभा मंच पर प्रधानमंत्री जी को जम्बूद्वीप का प्रतीक भेट करते हुए गृहमंत्री श्री प्रकाशचंद सेठी, साथ में खड़े हैं श्री जे.के, जैन सासद। संस्थान हस्तिनापुर का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ आर्यिका श्री का मंगल उद्बोधनश्रीमती इंदिरा गांधी एवं उपस्थित समस्त जनता पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का मंगल उद्बोधन सुनने को आतुर थी। वे सभी शायद पूज्य माताजी के श्रीमुख से ही ज्योति प्रवर्तन की वृहद् योजना का उद्देश्य जानना चाहते थे। इसलिए अब आर्यिका श्री का आशीर्वादात्मक प्रवचन हुआ। पुनः प्रधानमंत्री ने समस्त जनता को संबोधित करते हुए जैन धर्म की प्राचीनता तथा जैन धर्म की अहिंसा का महत्त्व बतलाया। अन्त में ज्ञानज्योति रथ के पास जाकर इंदिराजी ने अपने हाथों से स्वस्तिक बनाकर, श्रीफल चढ़ाकर विधिवत् धार्मिक अनुष्ठान के द्वारा ज्योति प्रवर्तन का शुभारंभ किया। यह धार्मिक अनुष्ठान कु० मालती एवं कु० माधुरी द्वारा सम्पन्न कराया गया। समस्त कार्यक्रम आशातीत सफलता के साथ निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। आज के इस समारोह मंच पर श्री जे०के० जैन, साहू श्री श्रेयांस प्रसादजी जैन, साहू श्री अशोक कुमार जैन, श्री अमरचंदजी पहाड़िया, श्री श्यामलालजी ठेकेदार, श्री निर्मल कुमार सेठी, पं० श्री बाबूलालजी जमादार, ब्र० श्री मोतीचंदजी, ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जी, वैद्य श्री शांतिप्रसाद जी, श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन (कम्मौजी), श्री कैलाश चंद जैन, श्री के०सी० जैन तथा श्री हेमचंद जैन आदि महानुभावों का माल्यार्पण द्वारा स्वागत श्री त्रिलोकचंद कोठारी, श्री चैनरूप जी बाकलीवाल, श्री कैलाशचंद सर्राफ, श्री सुमतप्रकाश जैन ने किया। ज्योति रथ के पीछे बने इन्द्रों के आसन पर सर्वप्रथम सौधर्मइन्द्र के रूप में श्री निर्मलजी सेठी, ईशानइन्द्र श्री विमल प्रसादजी जैन, मोरीगेट-दिल्ली, सानत्कुमार इन्द्र श्री सतवीर सिंह जैन, मोरीगेट-दिल्ली, ४ जून, ८२ को ज्ञानज्योति के सभा मच पर विराजमान मणि-मा आर्यका श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ। माहेन्द्र कुमार इन्द्र श्री अनन्तवीर्य जैन-हस्तिनापुर तथा माताजी के साथ है आर्यिका श्री रनमती जी. आर्यिका श्री शिवमती जी। पास में है.---कु मालतो शास्त्री एवं कु. माधुरी शास्त्री। कुबेर के पद पर श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार–दिल्ली सपत्नीक विराजमान हुए। इन समस्त इन्द्रों का चयन बोलियों द्वारा ३ जून की रात में ही दिगम्बर जैन लाल मंदिर में हो चुका था; अतः इन्हें यह प्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। राजधानी में प्रथम शोभायात्रापूज्य आर्यिकारत्न श्री १०५ ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटित arhi ज्ञानज्योति रथ का प्रथम ऐतिहासिक जुलूस लाल किला मैदान, दिल्ली से प्रारंभ हुआ, जो चांदनी चौक, खारी बावली, सदर बाजार, मॉडल बस्ती, बाड़ा हिन्दूराव, अजमल खाँ पार्क होती हुई छप्पर वाला, करोलबाग रात्रि में ९.३० बजे पहुँची। वहाँ आरती के पश्चात् कार्यक्रम सम्पन्न किया गया। जुलूस के समस्त मार्ग में सुन्दर-सुन्दर तोरणद्वार, स्वागत बैनर्स आदि के द्वारा दिल्ली महानगरी आज वास्तविक राजधानी प्रतीत हो रही थी। हजारों नर-नारी इस स्वागत जुलूस में निरंतर चलते रहे, मानो सभी की क्षुधा-तृषा भी शान्त ही हो गई थी। ज्ञानज्योति रथ के शिखर पर विराजमान सुमेरुपर्वत Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला का प्रतिष्ठित धातु मॉडल उसके अतिशय को वृद्धिंगत कर रहा था। प्रथम दिवस के ही इस विशाल जुलूस एवं समस्त सुनियोजित कार्यक्रमों से प्रभावित जनसमूह ने इसे महावीर के समवशरण की उपमा प्रदान की थी, सो समुचित ही प्रतीत हो रही थी। EARCH ग्रीनपार्क दिल्ली में शोभायात्राज्योतिरथ की द्वितीय शोभायात्रा ग्रीनपार्क एक्स, नई दिल्ली में ६ जून को निकाली गई, जिसमें दक्षिण दिल्ली निवासियों ने खूब उत्साहपूर्वक भाग लिया। ग्रीनपार्क का जैन समाज तो यूं भी पूज्य माताजी के अपरिमित गुणों से पूर्वपरिचित है; क्योंकि सन् १९७९-८० के शीतकालीन प्रवास में उनके आर्यिका संघ का मंगल सानिध्य वहाँ के निवासियों को प्राप्त हो चुका था। उस समय वहाँ आर्यिका श्री ने सामायिक शिक्षण-शिविर, ध्यान शिविर, द्रव्यसंग्रह का शिक्षण आदि के द्वारा समाज में नई चेतना जाग्रत की थी तथा उनके सारगर्भित प्रवचनों से दक्षिण दिल्लीवासियों ने अप्रतिम लाभ प्राप्त किया था। ग्रीनपार्क का वह अल्पकालीन प्रवास इसलिए भी राजधानी में ज्योतिरथ का प्रथम जुलूस । रथ पर बैठे हुए इन्द्र है-श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार सपत्नीक, उल्लेखनीय बन गया कि जैन समाज के वर्तमान शीर्ष दिल्ली एवं श्री विमल प्रसाद जैन जौहरी सपत्नीक, मोरी गेट, दिल्ली आदि। नेता साहू अशोक जैन पूज्य माताजी के दर्शनार्थ कई बार ग्रीनपार्क पधारे और माताजी उन्हें सदैव धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में अपने पिता श्री साहू शांतिप्रसादजी के समान भाग लेने की प्रेरणा प्रदान किया करती थीं। पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से साहू श्रेयांस प्रसादजी एवं साहू अशोकजी ने दिनांक ३१ जनवरी, १९८० माघसुदी पूर्णिमा को हस्तिनापुर पधारकर जम्बूद्वीप रचना के द्वितीय चरण का शिलान्यास किया। आज प्रसन्नता की बात है कि साहू श्री अशोक कुमारजी अपने पूज्य पिता के आदर्शों पर चलते हुए जैन-समाज के समस्त कार्यों में प्रमुखता से भाग ले रहे हैं। ज्ञानज्योति प्रवर्तन के समय ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन द्वारा दिया गया दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान का परिचय आज से ८ वर्ष पूर्व भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से एक नितान्त वैज्ञानिक एवं अनुसंधानपरक उद्देश्य को लेकर “दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" की स्थापना की गई थी। इस संस्थान के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु जम्बूद्वीप रचना का निर्माण दिल्ली से मात्र १०० कि०मी० दूर महान् ऐतिहासिक नगर हस्तिनापुर में हो रहा है। भारतीय संस्कृति की जैन, बौद्ध एवं वैदिक आदि अनेक परम्पराओं में जम्बूद्वीप एवं उसके अन्य क्षेत्रों, पर्वतों, नदियों आदि के उल्लेख लगभग समान रूप से पाये जाते हैं, किन्तु इन धर्म ग्रंथों, पुराणों आदि में उपलब्ध विवेचन वर्तमान में वैज्ञानिकों के लिए अनुसंधान के विषय हैं। आज विज्ञान ने असाधारण सफलता प्राप्त की है। अतः विज्ञान के माध्यम से हम उनकी खोज कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से जम्बूद्वीप की प्रतिकृति का सूक्ष्म रूप से निर्माण हस्तिनापुर में किया जा रहा है। इस रचना के निर्मित हो जाने पर जैनाचार्यों द्वारा मान्य भूगोल, खगोल विषयक मान्यताओं के विषय में वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं को विशिष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त होगा एवं अंतर्राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा। जम्बूद्वीप की यह रचना अत्यन्त आकर्षक है। अभी तक हस्तिनापुर में जितनी भी बन चुकी है, उससे इसकी रमणीयता का आभास प्राप्त हो जाता है एवं यह सुनिश्चित है कि इस रचना का निर्माण पूर्ण हो जाने पर यह भारत के अन्य विश्व-विख्यात दर्शनीय स्थलों के समान ही पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बन जायेगी। आपको बताते हुए प्रसन्नता होती है कि हस्तिनापुर के पुनर्विकास की आधारशिला भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री माननीय पं० श्री जवाहरलाल Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२] नेहरू के कर कमलों द्वारा सन् १९४९ में रखी गई थी। पिछले ३३ वर्षों में हस्तिनापुर में बहुत विकास हुआ है। फिर भी अभी विकास की अत्यन्त आवश्यकता है। पं० श्री जवाहरलाल नेहरू के समान ही देश की दृढ़ प्रतिज्ञ कर्मठ एवं विश्व विख्यात प्रधानमंत्री माननीया श्रीमती इंदिरा गांधी जी का सहयोग भी हस्तिनापुर के विकास में एक बड़ी बात है। यह सभी के लिए विशेष गौरव की बात है। इस विशाल कार्य के साथ ही संस्था से पूज्य माताजी द्वारा लिखित ६० पुस्तकें लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुकी हैं तथा ४० पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं, जिसके माध्यम से आत्मा के साथ लगे हुए इस नश्वर शरीर की रचना का तथा पुण्य और पाप का ज्ञान प्राप्त होता है एवं विषय-वासनाओं से संत्रस्त वर्तमान विश्व को भारत की प्राचीन आध्यात्मिकता से शांति की प्राप्ति हो सकती है। गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ संस्थान द्वारा प्रतिमाह प्रकाशित लोकप्रिय पत्रिका "सम्यग्ज्ञान" संस्थान के उद्देश्यों की पूर्ति में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई है। भारतीय संस्कृति के विकास में प्राचीन भाषाओं संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि का भारी योगदान रहा है आज समाज में इन भाषाओं के विद्वानों की कमी होती जा रही है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संस्थान ने संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की है, जिससे इन भाषाओं के पठन-पाठन को अक्षुण्ण रखने में सक्षम अधिकारी विद्वानों का सृजन किया जायेगा। इन सभी कार्यों में पूज्य माताजी के आशीर्वाद के साथ ही समाज एवं शासन का सहयोग समय-समय पर हमें प्राप्त होता रहा है। एतदर्थ हम समाज तथा शासन के बहुत आभारी हैं। इस भूगोल - खगोल के शोध संबंधी महान् कार्य में हम शासन के सहयोग की अपेक्षा रखते हुए शासन से यह अनुरोध करते हैं कि हमें ऐसी शक्ति प्रदान करे कि हम वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के समक्ष भारतीय संस्कृति के इस उपेक्षित अंग को सिद्ध करने में सफल हो सकें। ज्ञानज्योति प्रवर्तन मंच पर ४ जून को ब्र. मोतीचंद जैन द्वारा दिया गया जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन का परिचय जम्बूद्वीप का जन-जन में प्रसार करने के लिए जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन योजना बनाई गई है। इसके माध्यम से भगवान महावीर के अहिंसामय विश्वधर्म को ग्राम - ग्राम में जन-जन तक पहुँचाया जायेगा और सत्साहित्य के द्वारा जनता में सम्यग्ज्ञान की ज्योति जलाई जायेगी। आज का मानव सुख सामग्री जुटाने के लिए इतना प्रयत्नशील हो रहा है कि वह अपनी स्वाभाविक शांति खो बैठा है उसके लिए मनुष्य चोरबाजारी, अनैतिकता, धोखेबाजी आदि दुष्कर्मों को करने में भी विचारहीन होता जा रहा है। वास्तव में सुख तो शांति एवं संतोष में है, ऐसी ज्ञान की ज्योति हर दिल में जगाना है। लोगों को बताना है कि व्यक्ति के अपने ही अच्छे एवं बुरे विचार अपनी जीवनधारा का निर्माण करने वाले होते हैं। अगर हम अपने को सुखी रखना चाहते हैं तो किसी को दुःखी न करें। साथ ही हर व्यक्ति धन संग्रह की प्रवृत्ति छोड़कर एवं धर्म के हित में प्राण न्यौछावर कर दे, यही भारत की प्राचीन परंपरा रही है। महर्षियों ने कहा है कि "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" अर्थात् मनुष्य एक दूसरे का उपकारक है। अतः अपने संकीर्ण विचारों एवं दुराग्रहों को छोड़कर आपस में भाईचारे का व्यवहार रखें, इसी में धर्म, समाज एवं राष्ट्र की उन्नति निहित है। इन्हीं सद्भावनाओं के प्रचार- प्रसार, राष्ट्रीय एकता के विकास एवं प्राचीनतम भूगोल का दिग्दर्शन कराने हेतु जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रवर्तन किया जा रहा है। साहित्य समाज का दर्पण है। बिना धार्मिक साहित्य के प्राचीन संस्कृति का ज्ञान संभव नहीं है। इसलिए इस “ज्योति” के भ्रमण में सरल अनेक चित्रों से सुसज्जित ज्ञानज्योति रथ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५५३ भाषा का साहित्य भी वितरित किया जायेगा। हमारे सौभाग्य से दिगम्बर जैन समाज की महान् साधिका २५०० वर्षों में प्रथम जैन महिला साध्वी लेखिका के रूप में पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का पावन आशीर्वाद हमारे साथ है। इसके साथ ही देश की बहुश्रुत माननीया प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधीजी ने जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन योजना का उद्घाटन करके हमारे उत्साह में अगुणित वृद्धि की है। उनका यह सहयोग हमारा सम्बल होगा, जिससे हम इस योजना को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में सक्षम हो सकेंगे। कोस्मोलोजी, कोस्मोग्राफी एवं कोस्मोगोनी अर्थात् सृष्टि रचना, सृष्टिवृत्त एवं सृष्टि की आयु के संदर्भ में विश्व वैज्ञानिक समुदाय अनेकशः अपनी धारणाओं को परिवर्तित एवं संशोधित करने के उपरान्त भी मतैक्य नहीं कर पा रहा है। सैद्धान्तिक विज्ञान के अन्य क्षेत्रों के समान ही अलौकिक विश्व से संबंधित इस क्षेत्र में भी विज्ञान के नवीनतम अनुसंधान पूर्ववर्ती अनुसंधानों को अस्तित्वविहीन करते जा रहे हैं। इस श्रृंखला की इतिश्री कहां होगी, कहा नहीं जा सकता, किन्तु मैं यह अवश्य कहना चाहूंगा कि दार्शनिक दृष्टि सम्पन्न प्रख्यात पाश्चात्य वैज्ञानिकों बरटेंडसेलर, जेम्स जीन, जोन मैक्डोनोल्ड आदि के विचारों के अनुरूप दर्शन को विज्ञान से संबंधित कर अलौकिक विश्व की प्रकृति का अध्ययन करना समीचीन ही होगा। इस संदर्भ में विज्ञान की कसौटी पर अनेकशः खरे उतरने वाले जैन दर्शन के इस विषय से संबंधित धारणाओं के नवीन तथ्यों एवं विरोधाभासों के संदर्भ में अध्ययन उपयोगी ही होगा। जैनाचार्यों की जम्बूद्वीप विषयक मान्यताओं का परिचय देने हेतु ही जम्बूद्वीप की हस्तिनापुर में रचना की गई है, जिसकी प्रतिकृति का आज प्रवर्तन हो रहा है। यह ज्ञान ज्योति वैज्ञानिक समुदाय को चिन्तन की नवीन सामग्री प्रदान करने के साथ ही धार्मिक सहिष्णुता, पारस्परिक बंधुत्व एवं चरित्र निर्माण में सहायक होगी, यही इसका उद्देश्य एवं इसी में इसकी सफलता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ॥ श्री महावीराय नमः ॥ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन समारोह के शुभ अवसर पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की सेवा में सादर समर्पित सम्मान-पत्र महामना! भारत वसुन्धरा की अनुपम तेजोमयी पुण्यशालिनी धर्म-निरपेक्षता की साक्षात् प्रशम विभूति। आज हम जैन समाज के सभी नर-नारी आपको अपने मध्य पाकर भाव-विभोर होकर आपका स्वागत करते हुए हर्षायमान हैं। भारतरत्न! आर्यावर्त की परम तपस्विनी, न्याय प्रभाकर, विद्यावाचस्पति पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शुभाशीर्वाद से जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति का प्रवर्तन समस्त भारतवर्ष में आपके उद्घोषक २० सूत्री कार्यक्रम को सत्य, अहिंसा के माध्यम से चरित्र निर्माण करने में सहायक होगा। इसी भावना से जम्बूद्वीप का इतिहास हमारे वैज्ञानिक समझ सकेंगे और उसकी पूर्ण खोज करके विश्व को भूगोल की सही स्थिति बता सकेंगे। इस परम पुनीत विचार को आपके कर-कमलों द्वारा मूर्तरूप प्राप्त हो रहा है, यह हमारा सौभाग्य है। श्रद्धामयी! आपने सदैव ही भगवान महावीर के पावन संदेश को विश्व के सम्मुख अपने भूत, वर्तमान गौरव की श्रृंखला में रखा है। भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर धर्मचक्र का प्रवर्तन, भगवान बाहुबली स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठापना सहस्राब्दि समारोह एवं जन-मंगलकलश का प्रवर्तन आपके प्रधानमंत्रित्वकाल में जिस प्रभावना एवं राष्ट्रीय चेतना के साथ सम्पन्न हुआ है, उसे समस्त विश्व श्रद्धा से सदैव स्मरण करता रहेगा। आज यह जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति का प्रवर्तन भी उसी श्रृंखला की मजबूत कड़ी के रूप में चिरस्मरणीय रहेगा। राष्ट्रनायक! आपने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को राष्ट्र के लिए समर्पित करके स्वतंत्रता एवं गणतंत्र की मर्यादा सुरक्षित रखी है उससे समस्त भारत गौरवान्वित है। जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति का प्रवर्तन दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान के तत्वावधान में हस्तिनापुर में बन रही जम्बूद्वीप रचना को अजर-अमर रखेगा, ऐसी आशा है। आपका शुभ मार्ग-दर्शन हम भारतवासियों को सदैव मिलता रहे, ऐसी कामना है। हम सभी यह मंगलकामना करते हुए आपका अभिनंदन करते हैं कि आप चिरायु हों। ४ जून, १९८२ हम हैं आपके गुणानुरागी : जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के पदाधिकारी एवं सदस्यगण Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५५५ जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन के शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वचन "ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः" तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्त पर्यायैः। दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ युग के आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव जब राज्य सभा में विराजमान थे, प्रजा ने आकर अपनी समस्या रखी कि हे देव! अभी तक हम लोग कल्पवृक्ष से भोजन आदि सामग्री प्राप्त करते आये थे और आज वह कल्पवृक्ष फल नहीं दे रहे हैं, तो हम अपनी आजीविका का पालन कैसे करें तथा अपना जीवनयापन कैसे करें ? तीर्थंकर ऋषभदेव उसी समय उसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत विदेह क्षेत्र में जो स्थिति है, वह सोचते हैं कि आज इस पृथ्वी पर वही विदेह क्षेत्र की स्थिति प्रवृत्त करना योग्य है और उनके स्मरण मात्र से इन्द्र आ जाता है। अयोध्या, हस्तिनापुर आदि नगरी की रचना करता है और भगवान प्रजा को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, कला इन ६ प्रकार की आजीविकाओं का उपाय बतलाते हैं। मैं आपको यह बतला रही थी कि जिस विदेह की स्थिति को देखकर सोचकर तीर्थंकर ऋषभदेव ने युग की आदि से इस पृथ्वीतल पर ६ क्रियाओं का उपदेश दिया, वह विदेह क्षेत्र इसी जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में है। उसी विदेह क्षेत्र में सुमेरु पर्वत है, जो एक लाख योजन ऊँचा है, उससे और स्वर्ग में मात्र केवल एक बाल का अन्तर है, यानी वह मध्यलोक का मापदण्ड है। उस सुमेरु पर्वत पर ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों का जन्माभिषेक मनाया जा चुका है। अनेक-अनंत-अनंत तीर्थंकरों का जन्माभिषेक उस पर मनाया जा चुका है और भविष्य में भी इसी पर्वत पर अनंत-अनंत तीर्थंकरों का जन्माभिषेक मनाया जायेगा। यही कारण है कि यह पर्वत महान् पूज्य है, जो कि जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में है। आज भी आप लोग पंडितों के मुख से, पुरोहितों के मुख से सुनते होंगे। प्रशस्ति के उच्चारण में किसी भी संकल्प में जम्बूद्वीपे, भरत क्षेत्रे, आर्यखण्डे इत्यादि रूप से। तो यह भरत क्षेत्र इसी जम्बूद्वीप का ही एक हिस्सा है। जो कि जम्बूद्वीप के एक सौ नब्बेवां भाग प्रमाण है। इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही आज का उपलब्ध सारा विश्व है। इस जम्बूद्वीप की रचना में आज उपलब्ध पृथ्वी के अतिरिक्त भी पृथ्वी इस भूमण्डल पर है, यह दिशा निर्देश वैज्ञानिकों को दिया जा रहा है। हमारे यहाँ साधन कुछ अल्प हैं। वैज्ञानिकों के यांत्रिक साधन विशेष हैं और वे खोज में आगे बढ़कर के आपके सामने कुछ न कुछ नई चीज उपस्थित करेंगे, ऐसा पूर्ण विश्वास है। हमारे महर्षियों ने यह बतलाया था कि पेड़ और पौधों में भी जीव है। आज के युग में वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर बतलाया कि हां पेड़ और पौधों में भी जीव है। ऐसे अनेक विषय हैं जिन्हें वैज्ञानिकों ने सिद्ध करके स्वीकार कर लिया है कि महर्षियों का कथन सत्य है। इस प्रकार से मैं बतला रही थी कि जो आर्यखण्ड है, जिसमें हम लोग रहते हैं, अनादिकाल से और इस युग की आदि से यह समझिए अनेक महापुरुषों ने यहाँ जन्म लिया है। यह महर्षियों का, पुण्यशाली तपस्वियों का क्षेत्र है। यहाँ पर अपनी साधना और तपस्या के बल से अपने को तो पवित्र बनाया ही बनाया, परन्तु देश में सत्चारित्र का निर्माण करके तमाम प्राणियों को पवित्र बनाया है और सुखशांति की स्थापना की है। मुझे जैन रामायण की एक सूक्ति याद आती है यस्य देशं समाश्रित्य साधवः कुर्वते तपः। षष्ठमंशं नृपस्तस्य लभते परिपालनात्॥ जिस देश का आश्रय करके साधु तपस्या करते हैं, वहाँ के शासक उनका प्रतिपालन करने से उन साधुओं की तपश्चर्या का छठा भाग पुण्य प्राप्त कर लिया करते हैं। तो मैं ये स्पष्ट कहूँगी कि साधुओं के तपश्चरण का पुण्य इंदिराजी को स्वयं ही मिल रहा है। वे उस पुण्य को स्वयं ही ले लिया करती हैं, यह इस भारत भूमि का एक विशेष माहात्म्य है। वास्तव में यह तो कहना ही पड़ेगा कि इंदिराजी का बहुत बड़ा सौभाग्य है। इस दशक में मैंने अनुभव किया कि अनेक धार्मिक आयोजनों में वे अपने अमूल्य समय को निकाल कर भाग लेती आ रही हैं। जैन समाज का भी यह गौरव कम नहीं है कि जैन समाज के प्रति उनकी कितनी प्रीति है और उनके प्रति जैन समाज की कितनी प्रीति है यह तो आप लोगों के अनुभव में ही आ रहा है। धर्मचक्र का प्रवर्तन भी उन्हीं के हाथ से होना, मंगलकलश का प्रवर्तन भी उन्हीं के हाथ से होना और आज देखिए यह जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन का पुण्य अवसर भी उन्हीं को मिल रहा है। आप सोचेंगे एक प्रधानमंत्री के प्रधानमंत्रित्वकाल में इतने-इतने आयोजन होवें और उन्हें ही पुण्य अवसर मिले, यह कम पुण्य की बात नहीं है। मैं यही कहूँगी कि सचमुच में इंदिराजी जैसी साहसी महिला नारीरत्न, जिनने इस युग में एक क्रांति लाई है, सचमुच में यह ज्योति उनके हाथ से प्रवर्तित होकर न जाने भारत के कितने प्राणियों के हृदय के अंधकार को दूर करेगी, कितने मानुष के अंधकार को दूर करेगी। देखिये संसार में अज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई अंधकार नहीं है और ज्ञान से बढ़कर विश्व में दूसरा कोई प्रकाश नहीं है। यह ज्ञानज्योति सारे भारतवर्ष में भ्रमण कर कोने-कोने में प्राणियों के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करे और ज्ञान का प्रचार करे, उसके साथ ही साथ सुख और शांति की सारे विश्व में स्थापना करे और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शुभ हस्तों से ऐसे-ऐसे पुण्य कार्य सदैव होते रहें तथा यह जनतंत्र शासन जनता में धर्मनीतिमय अनुशासन करता रहे । मेरा यही शुभाशीर्वाद । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन के शुभ अवसर पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी का भाषण पूज्य ज्ञानमती माताजी और उपस्थित सज्जनो, भाइयो और बहनो! के मुझे बहुत प्रसन्नता है कि इस शुभ अवसर पर आपने मुझे बुलाया है। जब ऐसा अवसर होता है, विशेष करके धार्मिक अवसर, जब देश दूर-दूर से बहन और भाई सब लोग आते है तो भारत की एकता का एक दृश्य देखने को मिलता है हमारा भारत एक ऐसा देश है, जहाँ प्रायः विश्व के सभी धर्म हैं। हमारी नीति रही है कि सभी धर्मों का आदर हो, किसी का भी किसी प्रकार से न अपमान हो, न नीचा करने की कोई बात हो क्योंकि सभी धर्म में कुछ ऐसे हिसाब होते हैं, जो व्यक्ति को ऊपर उठाने की कोशिश करते हैं। जो उसकी आत्मा को शक्ति देते हैं, ताकत देते हैं और जो जीवन की सख्त कठिनाइयां होती हैं, जैसे सभी के जीवन में होती हैं, चाहे कोई बड़ा हो या छोटा हो, उसका सामना करने की ताकत देता है। जैसे व्यक्ति को मिलता है, उसी प्रकार से अगर सारे देश में धर्म का आदर होगा तो सारा देश ऊपर उठेगा। हमारा प्रयत्न यही है कि इस देश को ऊंचा उठाया जाये। आर्थिक दृष्टिकोण से लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठे, गरीबी कम हो, पिछड़ापन हट जाये, लेकिन केवल आर्थिक प्रगति काफी नहीं है, यह शुरू से ही गांधीजी तथा अन्य नेताओं ने हमको बतलाया कि संग-संग भारत की संस्कृति, भारत की सभ्यता, भारत की परम्परा और भारत के ऊँचे विचार इन चीजों पर यदि ध्यान ही नहीं दिया जायेगा तो केवल आर्थिक प्रगति से देश महान् नहीं हो सकेगा। Jain Educationa International 1 जम्बूद्वीप का वर्णन हमारे सभी शास्त्रों में है, जैसे बौद्धिक, जैन धर्म के और वैदिक में जो वर्णन है, वह केवल भारतवर्ष का नहीं है, उससे बहुत बड़ा है। इससे कोई यह न समझे कि हमारी नीयत दूसरों पर है या हम दूसरों से कुछ चाहते हैं। हम अपनी धरती से और अपनी जनता से ही संतुष्ट हैं। और यूं तो इनकी सेवा करना इतना बड़ा काम है कि प्रयत्न ही हम कर सकते हैं। यह सारी सफलता एक पुस्त या सारी पुस्त में भी नहीं मिल सकती है लेकिन कम से कम गांधीजी तो कहते थे कि वह इतनी बड़ी ही लड़ाई है जैसे स्वतंत्रता संग्राम सम्मुख लड़ाई के लिए भी जो शक्ति चाहिए और जो साहस चाहिए, वह धर्म के द्वारा ऊँची विचारधारा, ऊँचे मूल्यों के द्वारा मिल सकते हैं। यह बड़े दुःख की बात है कि मनुष्य जाति एक ऐसे समय जब विज्ञान के द्वारा जानकारी बहुत बड़ी है, जब बहुत-सी प्राकृतिक ताकतें काबू में आई है, बड़े-बड़े काम मनुष्य कर सकता है, ऐसे समय बजाय इसके कि इस ताकत को वो उसमें लगायें जो हमारे दुर्बल भाई और बहन हैं, उनको उठायें, जो दुर्बल देश है उनकी सहायता करें मनुष्य जाति इस ताकत को अकसर लड़ाई-झगड़े में लगाती है, एक-दूसरे से मुकाबला करने में, नीचे घसीटने में लेकिन कभी-कभी धर्म के बारे में भी आपने देखा होगा कि इधर कुछ कौमी दंगे हुए, जिससे कुछ ऐसी घटनाएँ हुई, जिससे किसी न किसी धर्म का, लगता था कि कोई अपमान करना चाहता है। यह हमारी भारतीय परम्परा में नहीं है और न किसी भी धर्म में ऐसा कहा है और मेरी जब-जब बातें हुई लोगों से, तो देखा कोई ऐसा नहीं चाहता है। हम सब लोगों की बड़ी कोशिश होनी चाहिए कि हम कौमी एकता एवं सब धर्म में आदर विशेष करें; क्योंकि ये अफवाह उड़ाई गई है कि शायद मैं हिन्दू धर्म को नहीं चाहती। यह कैसे हो सकता है? मैं एक धार्मिक परिवार से आई हूँ, एक परम्परा में मेरा पालन-पोषण हुआ, जिसमें धर्म का, भारत की संस्कृति, सभ्यता का आदर, यहाँ यह सिखलाया गया कि ऊँचा रखने के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार होना चाहिए। तो हम तो ऐसा विचार कर ही नहीं सकते कि किसी भी प्रकार से धर्म पर कोई हमला हो, अपमान हो या नीचा दिखाया जाये हमारी उल्टी यही कोशिश है कि धर्म ऊँचा होगा तो हम समझते हैं समाज ऊंचा होगा, देश ऊँचा होगा और देश को बल मिलेगा जो अपने देश के भीतर की कठिनाइयां और अंतर्राष्ट्रीय कठिनाई का भी वह सामना कर सकेगा। जैन धर्म के जो कैचे विचार है, वे भी भारत की धरती से निकले हैं भारत की विचारधारा से निकले और स्वयं उसी विचारधारा पर अपना प्रभाव गहरा डाले है आप सबका जो भारत है व जो किसी का भी कुछ धर्म है मैं सोचती हूँ कि वे जैन धर्म के ऊँचे विचार है, उसको सभी मानें। हमें मालूम है कि हमारी आजादी की लड़ाई में कितना महत्व इन विचारों को गांधीजी ने दिया। ये चूँकि हमारे नेता थे और उनके चरणों में बैठ के हमने सीखा, तो हमारे भी रोयें-रोयें में ये चीजें आती है। हमारा आंदोलन अहिंसा का था, जो कि दुनिया के इतिहास में कभी नहीं देखा था सबसे पहले बड़ा आंदोलन इस रास्ते से हुआ। इसी प्रकार से हमें देखना है कि आजकल के जीवन में चाहे गरीबी हटाने का कार्यक्रम हो, दूसरा कार्यक्रम हो, देश को बलवान बनाने का कार्यक्रम हो, इसी रास्ते से बन सकता है अहिंसा के रास्ते से, सहनशीलता के रास्ते से, सादगी में रहने से, इतनी बातें भगवान महावीर ने अपने जो वचन से छोड़ी हैं हमारे संग वो चीजें हैं, जो देश को मजबूत करती हैं, ऊपर उठाती हैं। यह प्रसन्नता का विषय है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी ने यह जम्बूद्वीप का मॉडल बनवाकर तथा जो हस्तिनापुर में बनाया जा रहा है, इससे लोग इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा ठीक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और जहाँ-जहाँ यह रास्ते में जायेगी, वहाँ भी इसके द्वारा एक नई धार्मिक भावना जगेगी। मैं आपके सामने आभार ही प्रकट कर सकती हूँ कि ऐसे शुभ अवसर पर आपने मुझे बुलाया कि मैं इसका प्रवर्तन करूँ। यह देखकर मुझे बहुत खुशी है और माताजी को भी धन्यवाद देती हूँ। 1 For Personal and Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५५७ प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के कर-कमलों से सम्पन्न धार्मिक शुभारम्भ विधि ज्योर्तिव्यंतरभावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ तथा जंबूशाल्मलिचैत्यशाखिषुतथा वक्षाररूप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरौ च कुंडलनगे द्वीपे च नंदीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वंतु ते मंगलम्॥ १ ॥ अथ श्रीमज्जिनशासने भगवतो महतिमहावीर वर्द्धमानतीर्थंकरस्य धर्मतीर्थस्य श्रीमूलसंघे मध्यलोके जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे इन्द्रप्रस्थनगरे ज्येष्ठमासे शुक्लपक्षे त्रयोदश्यां तिथौ शुक्रवासरे शुभलग्ने मंगलबेलायां आर्यिकारत्नश्रीज्ञानमतीमातुः सन्निधौ भारतदेशस्य प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी अस्याः करकमलाभ्यां जंबूद्वीपज्ञानज्योतिषः प्रवर्तनं कारयिष्यामहे। श्रीजिनेन्द्रदेवाः जगतां सर्वशांतिं कुर्वंतु, तुष्टिं कुर्वंतु, पुष्टिं कुर्वंतु सर्वजनमनसि सम्यकज्ञानज्योतिः प्रद्योतनं कुवैतु स्वाहा। संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम्। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ ] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ श्री जे. के. जैन [ संसद सदस्य ] का सम्मान समारोह ५ जून को मोरीगेट स्थित जैन धर्मशाला में श्री जे. के. जैन का उनकी परिश्रमशीलता के लिए संस्थान की ओर से भव्य स्वागत किया गया। इस अवसर पर संस्थान के अध्यक्ष श्री अमरचंदजी पहाड़िया, प्रवर्तन अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार सेठी, संरक्षक श्री सेठ पूनमचंदजी गंगवाल आदि अनेक गणमान्य पदाधिकारी एवं सदस्य उपस्थित थे। सर्वप्रथम संस्थान के अनेक सदस्यों ने श्री जे. के. जैन का माल्यार्पण द्वारा भावभीना स्वागत किया। पं. श्री बाबूलालजी जमादार ने भाषण करते हुए कहा कि इतना विशाल कार्य जो निर्विघ्न सम्पन्न हुआ, वह पूज्य माताजी की साधना एवं श्री जे.के. जैन के परिश्रम का ही सुफल है श्रीमान् सेठ अमरचंदजी पहाड़िया कलकत्ता, श्री निर्मल कुमारजी सेठी तथा श्री मोतीचंदजी जैन आदि ने श्री जे. के. जैन के सहयोग के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए भविष्य में इसी प्रकार से सहयोग देने के लिए अनुरोध किया। इस शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी भी विराजमान थीं। पूज्य माताजी ने श्री जे. के. जैन को उनके कार्यों के प्रति सराहना करते हुए मंगलाशीर्वाद प्रदान किया और अपने आशीर्वाद प्रवचन में कहा कि जिस प्रकार अभी इस प्रवर्तन समारोह में तन-मन-धन लगाकर श्री जे. के. जैन ने सहयोग प्रदान किया है, उसी प्रकार इस ज्योति के प्रवर्तन काल (डेढ़ वर्ष) तक हर प्रकार से सहयोग करना है तथा राष्ट्रीय एवं समाज के कार्य के साथ-साथ इस धर्म कार्य के द्वारा अपने जीवन को समुन्नत करना है। पूज्य माताजी के कर कमलों से जम्बूद्वीप के संबंध में लिखी हुई स्विट्जरलैंड से प्रकाशित दि. जैन कास्मोलोजी पुस्तक श्री जे. के. जैन को प्रदान की गई। श्री जे. के. जैन ने आभार प्रदर्शित करते हुए कहा कि यह जो मेरा सम्मान हो रहा है, यह मेरा अपना सम्मान नहीं है, बल्कि यह धर्म का सम्मान है। मैं कई वर्षों से पूज्य माताजी के संबंध में उनकी ज्ञान एवं साधना के संबंध में सुनता आ रहा था। इस समारोह के सम्पर्क से मैं पूज्य माताजी के ज्यादा निकट में आया, जिससे उनको त्याग, तपस्या व ज्ञान का सर्वांगीण रूप देखने को प्राप्त हुआ। आपने कहा कि मेरा सौभाग्य है कि मैंने इस कार्य में कुछ भी सहयोग प्रदान किया है और पूज्य माताजी की आज्ञानुसार जो भी सहयोग मुझसे बन सकेगा, मैं हमेशा देने के लिए तैयार रहूंगा। आपने कहा पं. श्री बाबूलालजी जमादार ने ज्योति के संचालन का जो इतना गुरुतर भार ग्रहण किया, वह बहुत ही प्रशंसनीय है। आपके इस कार्य में समाज का बच्चा बच्चा एवं शासन का हर प्रकार सहयोग आपके साथ है आप निश्चिन्त होकर इस ज्ञानज्योति प्रवर्तन द्वारा धर्म का खूब प्रचार करें तथा ज्योति के उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न रहें। इस शुभ अवसर पर श्री जैन की धर्मपत्नी श्रीमती निर्मल जैन भी उपस्थित थीं। उन्हें भी पूज्य माताजी ने अपना मंगलाशीर्वाद प्रदान करते हुए धर्म कार्य में पति के साथ सहयोग इसी प्रकार करते रहने की प्रेरणा प्रदान की। Jain Educationa International पूज्य माताजी के सानिध्य में श्री जे. के. जैन सांसद का स्वागत करते हुए श्री निर्मल कुमार सेठी, जैन धर्मशाला, मोरीगेट, दिल्ली ५.६.१९८२ । For Personal and Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५५९ फरीदाबाद में ज्योति जलीदिल्ली के प्रमुख मार्गों से विहार करती हुई ज्ञानज्योति ९ जून को फरीदाबाद पहुँचती है, जहाँ पलकपांवड़े बिछाकर जनता प्रतीक्षा में खड़ी हुई थी। आज सौभाग्यवश सभी को ज्योतिरथ में अपनी पुष्पांजलि, भावांजलि, अर्थांजलि और प्रणामांजलि प्रकट करने का अवसर प्राप्त हुआ था; क्योंकि पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने इन्हीं व्यापक उद्देश्यों को लेकर ही इसका प्रवर्तन कराया है। वे जम्बूद्वीप रचना को किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत संस्था नहीं बनाना चाहती थीं, प्रत्युत सारे भारत के दिगम्बर जैन समाज का पत्रम् पुष्पम् स्वीकार करने वाली जम्बूद्वीप रचना का उन्होंने व्यापक दृष्टिकोण रखा। ज्योतिरथ के प्रथम संचालक पं. श्री बाबूलालजी जमादार ने यहाँ अपने वक्तव्य में बतलाया कि आज भी हमारे जैन समाज में उद्योगपति, करोड़पति और लखपतियों की कमी नहीं है। उनके अपरिमित धन से कुछ ही दिनों में जम्बूद्वीप रचना बन सकती है, किन्तु हमें मात्र पैसा नहीं चाहिए, बल्कि जन-जन की आत्मीय भावनाएं एवं सहयोग लेना है तथा प्रवर्तन के माध्यम से जैन भूगोल का ज्ञान कराना है। हम इसमें प्रत्येक जैन की भावनानुसार एक पैसे से एक लाख तक देने वालों को भी धन्यवाद तथा साधुवाद देंगे। सबसे बड़ी बात यह है कि "जम्बूद्वीप" शब्द से हमारे भारतवासी अब तक अपरिचित हैं, वे उसका अर्थ और महत्त्व जान सकेंगे कि जम्बूद्वीप तो हमारी मातृभूमि है। इसी के एक छोटे से हिस्से में आज के उपलब्ध छहों महाद्वीप विद्यमान हैं। पंडितजी ने अपने ओजस्वी भाषण में यह भी कहा कि हमें तो उन पूज्य ज्ञानमती माताजी का यह महान् उपकार मानना चाहिए कि जिन्होंने जैन भूगोल को शास्त्र, पुराणों से निकालकर हमें इतने सुन्दर रूप में प्रदान किया है। हरियाणा प्रान्त के बल्लभगढ़ नगर में ९ जून को सायं ७ बजे से ज्ञानज्योति रथ के विद्युत् प्रकाश एवं फौव्वारे प्रारंभ होते ही एक विशाल जनसमूह रथ के चारों तरफ एकत्रित हो गया; क्योंकि रथ तो न जाने कितने देखे गए थे, किन्तु संसार का यह पहला अद्वितीय रथ था, जिसमें चलते हुए फौव्वारे, रंग-बिरंगे विद्युत् प्रकाश तथा रचना के अन्दर नृत्य करती हुई देवकन्याएं आदि अनेक अभूतपूर्व दृश्य दिखाए गए थे। रात्रि में यह शोभा विशेष आनन्द प्रदान करने वाली हो गई। अतः अनेक स्थानों से तो यही मांग रही कि हमारे यहाँ रात में ही ज्योतिरथ का पदार्पण होना चाहिए, किन्तु भला यह संभव कैसे हो सकता था? हाँ, बल्लभगढ़ निवासियों को यह रंगीला अवसर प्राप्त हुआ, रथ यात्रा का आयोजन एवं स्वागत सभा वहाँ रात्रि में हुई। पुनः १० जून को पलवल का कार्यक्रम अपूर्व सफलताओं के साथ सम्पन्न हुआ। लोगों ने इन्द्रों की बोलियाँ लेकर रथ में बनी सीटों पर अपना स्थान ग्रहण किया और तोरण द्वारादिकों से सजे हुए पूरे शहर का भ्रमण कर अपना सौभाग्य सराहा। रात्रि में भी विद्युज्ज्योति का प्रदर्शन नगरवासियों ने देखा। रथ की समुचित व्यवस्था, कार्य के सफल संचालन, बिजली-फौव्वारों से युक्त रचना मॉडल की सुन्दरता आदि की चर्चाएं बिजली की भांति सभी जगह फैल रही थीं; अतः आगे-आगे शहरों के आयोजकगण अपने शहर में पूरे दिन भर के कार्यक्रम चाहने लगे। प्रारंभिक उत्साह, जनता का स्नेह और धार्मिक भावनाओं को ठुकराया भी नहीं जा सका; अतः पलवल प्रवर्तन के बाद ११ जून को ही रथ का भ्रमण होडल में हो सका। फरीदाबाद जिले के इस नगर में उत्साहपूर्वक ज्योतिरथ की स्वागत-सभा एवं शोभायात्रा सम्पन्न हुई। १२ जून गुड़गांवा जिले का “नह" नगर, १३ जून को सोहना एवं बादशाहपुर में ज्ञानज्योति रथ प्रवर्तन से अहिंसा धर्म की व्यापक प्रभावना हुई। पुनः १४ जून को गुड़गांवा शहर में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का पदार्पण हुआ। स्वागत-सभा एवं शोभायात्रा में हजारों नर-नारियों ने भाग लिया। इसके पश्चात् ज्योतिरथ का प्रान्तीय भ्रमण राजस्थान के अतिशय क्षेत्र “तिजारा" से १६ जून से प्रारम्भ होता है। ज्योतिवाहन का संक्षिप्त परिचयज्ञानज्योतिरथ के पीछे बोली लेने वाले इन्द्रों के बैठने का स्थान बनाया गया था तथा कांच से ढका हुआ जम्बूद्वीप का सुन्दर प्लास्टिक मॉडल जनमानस का चित्त आकर्षित करता था। इस रथ की लम्बाई २५ फुट, चौड़ाई ८ फुट एवं ऊँचाई १० फुट थी। रथ के ऊपर तीन फुट ऊँचा धातु का सुमेरु पर्वत विराजमान किया गया गया था, अतः उसकी कुल ऊँचाई १३ फुट हो गई थी। शिखर पर जलती हुई रोशनी ज्ञानज्योति के नाम को सार्थक कर रही थी। ज्योतिवाहन के चारों तरफ सुन्दर-सुन्दर १० बड़े चित्र बनाए गए तथा अनेक शिक्षाप्रद सूक्तियाँ भी लिखी गई थीं। ज्ञानज्योति के १०४५ दिनों के भारत भ्रमण के पश्चात् हस्तिनापुर के त्रिमूर्ति मंदिर में वे सभी चित्र सुरक्षित रूप से लगे हुए हैं तथा ज्ञानज्योति का वह ऐतिहासिक मॉडल भी यहीं पर तीर्थयात्रियों के लिए दर्शनीय केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। रथ के उन चित्रों का पाठकों को परिचय कराना मैं समयोचित समझती हूँ, जिनका परिचय प्राप्त कर शायद आपकी भी पुरानी स्मृतियाँ ताजी होंगी और एक बार पुनः उस ज्ञानज्योति प्रवर्तन में पहुँच सकेंगे। प्रथम चित्र था(एक तरफ राजा "श्रेयांस" राजमहल में सोए हुए पिछली रात्रि में सात स्वप्न देख रहे हैं)-हस्तिनापुर का करोड़ों वर्ष का प्राचीन इतिहास इस चित्र में दर्शाया गया है जो कि आधुनिक जम्बूद्वीप के साथ अनायास जुड़ गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ द्वितीय चित्र(तीर्थंकर ऋषभदेव को सोमप्रभ उनकी पत्नी और भ्राता श्रेयांस कुमार इक्षुरस का आहार दे रहे हैं। आकाश से देवगण पंचाश्चर्य वृष्टि कर रहे है)-उपर्युक्त कथानक से ही इसका संबंध जुड़ा है। एक वर्ष के उपवास के पश्चात् मुनिराज वृषभदेव का प्रथम आहार हस्तिनापुर में ही हुआ है। इसके पूर्व कोई भी श्रावक आहारदान की विधि नहीं जानते थे। उस आहारदान के निमित्त से वह पावन दिवस भी अक्षय तृतीया नाम से प्रसिद्ध हो गया है। चित्र नं.३(शांति, कुन्थु, अरहनाथ की पद्मासन प्रतिमाएं)-हस्तिनापुर में इन तीनों तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार-चार कल्याणक हुए हैं। चित्र नं. ४(इस शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी (दक्षिण) महाराज)-आज जितने भी मुनि-आर्यिका आदि के संघ दिख रहे हैं, वे प्रायः सभी इन्हीं आचार्यश्री की देन हैं। इनकी समाधि सन् १९५५ में कुंथलगिरि क्षेत्र पर हुई है। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने इन्हीं की आज्ञा से इनके पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिका ज्ञानमती नाम प्राप्त किया था। चित्र नं. ५(अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को पढ़ाते हुए भगवान आदिनाथ)-इसमें अयोध्या नगरी का दृश्य है, नारी शिक्षा का अनुपम उदाहरण भी है। चित्र नं. ६(अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग निवारण)-इसमें रक्षाबंधन का इतिहास छिपा है, जो आज से लाखों वर्ष पूर्व हस्तिनापुर से प्रारंभ हुआ है। चित्र नं. ७(द्रौपदी का चीरहरण)-यह हस्तिनापुर के महाभारत युद्ध से संबंधित है तथा नारी सतीत्व का प्रतीक है। चित्र नं. ८(सुमेरु पर्वत की पांडुक शिला पर जिन भगवान का जन्माभिषेक) अकृत्रिम सुमेरु पर्वत जो कि एक लाख योजन अर्थात् ४० करोड़ मील ऊँचा है, उसकी पांडुक शिला पर समस्त तीर्थंकरों का जन्माभिषेक इन्द्र करते हैं। क्षीरोदधि से भरकर जल लाते हुए एवं अभिषेक करते हुए इन्द्र भी इस चित्र में दर्शाए हैं। इसी की प्रतिकृति के रूप में हस्तिनापुर में ८४ फुट ऊँचा समेरुपर्वत बनाया गया है। चित्र नं. ९(पद्म सरोवर से निकली हुई गंगा-सिन्धु नदी की धारा से जिनप्रतिमा का अभिषेक दृश्य) जम्बूद्वीप रचना के अन्दर का ही एक लघु दृश्य इस चित्र में है। हस्तिनापुर की रचना में भी यह दृश्य बड़ा सुन्दर दिखाया गया है। चित्र नं. १०(भगवान बाहुबली का ध्यान करती हुई ज्ञानमती माताजी) जम्बूद्वीप रचना का प्रारंभिक केन्द्रबिन्दु जहाँ से इस इतिहास का प्रारंभीकरण होता है तथा एकाग्रध्यान का महत्त्व भी इस चित्र से परिलक्षित होता है। इन वृहद् चित्रों के अतिरिक्त कई छोटे-छोटे सुन्दर चित्रों से यह ज्ञानज्योति रथ सुसज्जित किया गया था तथा अनेक सारगर्भित सूक्तियां तो मानो बिना बोले ही ज्ञानज्योति का सम्पूर्ण महत्त्व बतला रही थीं। लगभग २५ सूक्तियां उसमें लिखी गई थी, किन्तु मैं यहाँ उनमें से कुछ नमूना प्रस्तुत करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५६१ १. "यह मेरु सुदर्शन त्रिभुवन में सबसे ऊँचा कहलाता है। तीर्थकर के जन्माभिषेक से महातीर्थ बन जाता है।" २. "सब द्वीपों में पहला जम्बूद्वीप देख कर आयेंगे। श्री सुमेरुगिरि वन्दन करने हस्तिनापुर जाएंगे।" ३. "हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप सर्वथा त्याग करने ___योग्य हैं।" ४. “यस्य देशं समाश्रित्य, साधवः कुर्वते तपः। षष्ठमंशं नृपस्तस्य, लभते परिपालनात्।" अर्थात् “जिस देश में साधु तपश्चरण करते हैं उस देश के शासक को उनके तपश्चरण का छठा भाग पुण्य अनायास ही मिल जाता है।" ५. "ज्ञानमती माताजी से पूछे जग सारा, जम्बूद्वीप नामका ये कौन द्वीप प्यारा।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ राजस्थान में ज्ञानज्योति प्रवर्तन "राजस्थान मरुस्थल का कण-कण भी मुखर रहा है। ज्ञानज्योति के स्वागत को जनमानस उमड़ रहा है।" जहाँ राजस्थान प्रान्त अपनी शुष्कता, नीरवता से प्रसिद्ध रहा है, वहीं अपने निवासियों की गुरुभक्ति-वैयांवृत्ति आदि गुण सरसता के भी मूकगीत गाता हुआ इतिहास के पृष्ठों में अग्रणी रहता है। शुभारंभराजधानी देहली एवं हरियाणा के कतिपय नगरों का स्वागत स्वीकार करती हुई जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति १६ जून, १९८२ को अतिशय क्षेत्र तिजारा पहुंची। तीर्थकर चन्द्रप्रभ की अतिशय स्थली पर ज्ञानज्योति का भव्य स्वागत हुआ। पं. बाबूलालजी जमादार के कुशल संचालन में सभा का आयोजन हुआ। ज्योतिरथ की शोभायात्रा निकली। राजस्थान की इस प्रथम यात्रा में ब्र. मोतीचंदजी, रवीन्द्रजी के साथ मुझे भी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चन्द्रप्रभ भगवान की केवल ज्ञानज्योति को प्रसारित करने वाली ज्ञानज्योति यात्रा वास्तविक आनंद को प्रदान करने वाली थी। अलवर में विशाल शोभा यात्रा :फिरोजपुर, नौगाँवा, रामगढ़ में अपनी दिव्य ज्योति प्रज्वलित करती हुई ज्ञानज्योति अलवर नगर में पधारी, जहाँ स्वागत सभा के पश्चात् विशाल शोभायात्रा निकली। शोभायात्रा में अनेक झाँकियाँ दर्शकों का मन मोह रही थीं, भजन मंडलियाँ सुमधुर भजनों से जुलूस को विशेष आनन्द विभोर कर रही थीं। पूरा नगर कलात्मक तोरणों से सजाया हुआ नई दुल्हन के सदृश प्रतीत हो रहा था। प्रधान शचि इन्द्राणी के नेतृत्व में इन्द्राणियों का शतक स्वर्ग की अप्सराओं का दृश्य उपस्थित कर रहा था। दो किलोमीटर लम्बा यह जुलूस शहर में प्रथम बार निकल रहा था; अतः बालक, वृद्ध, जैन, अजैन सभी अतिशयकारी ज्योतिरथ को देखने हेतु अतिशय क्षेत्र तिजारा से राजस्थान प्रवर्तन प्रारंभ। उमड़ रहे थे। श्री खिल्लीमल जैन एडवोकेट के विशेष नेतृत्व में हुआ यह अभूतपर्व कार्यक्रम अलवर के इतिहास में सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। इन्द्रों की बोलियाँ प्राप्त करके ज्ञानज्योति रथ में बैठने वाले सौभाग्यशाली दम्पतियों ने अपनी अर्थांजलि प्रदान कर मनुष्यपर्याय को धन्य समझा। इसी प्रकार से खेरली, भरतपुर, धौलपुर, करोली आदि ग्रामों में प्रवर्तन करके जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति भगवान महावीर के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करती हुई पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की असली जन्मभूमि पर पहुंच गई। अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी मेंहमारे पाठक सोच रहे होंगे कि ज्ञानमती माताजी का जन्मस्थान राजस्थान में कहाँ से आ गया? अतः यहाँ यह रहस्य स्पष्ट करना मैं अपना कर्तव्य समझती हूँ। सन् १९५३ में चैत्र कृ. १ सोलहकारण पर्व का प्रथम दिवस श्री महावीरजी क्षेत्र के लिए अमिट छाप छोड़ गया है; क्योंकि उस For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५६३ दिन बालयतियों की प्रथम प्रेरणास्रोत बाल ब्रह्मचारिणी कु. मैना ने श्री महावीरजी क्षेत्र पर ही आचार्य श्री १०८ देशभूषणजी महाराज के कर-कमलों में क्षुल्लिका दीक्षा धारण की थी। उनके असीम वीरत्व के कारण ही उन्हें वीरमती नाम प्राप्त हुआ था। . वर्तमान में प्रायः ऐसा सुना जाता है कि कोई भी शुभ कार्य शुक्ल पक्ष में करना चाहिए, कृष्णपक्ष में नहीं। पूज्य माताजी का दीक्षा दिवस इस पक्ष का साक्षात् खण्डन करता है; क्योंकि कृष्णपक्ष के प्रारंभिक दिवस की ली हुई दीक्षा ने माताजी के जीवन में उत्तरोत्तर वृद्धि ही नहीं की, प्रत्युत् लोकोत्तर वृद्धि का इतिहास ही कायम कर दिया है। इसीलिए ज्ञानमती माताजी उस तीर्थक्षेत्र श्री महावीरजी को अपनी वास्तविक जन्मभूमि मानती हैं। श्री ज्ञानमती माताजी की झुल्लिका दीक्षात्यली श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र' हाँ, तो अब विषय पर आती हूँ कि ज्ञानज्योति रथ का मंगल आगमन पर ज्ञानज्योति। २३ जून, १९८२ को श्री महावीरजी में हुआ, जहाँ तीर्थक्षेत्र कमेटी, ब्र. कृष्णाबाई आश्रम, ब्र. कमलाबाई द्वारा संचालित आदर्श महिला विद्यालय, श्री शांतिवीरनगर आदि विभिन्न संस्थानों ने जीभर कर उसका स्वागत किया। वह अतिशय क्षेत्र तथा वहाँ के वासी ज्ञानज्योति को अपनी पूज्य ज्ञानमती माताजी का रूप मानकर तन-मन-धन से अगवानी करने में जुट गए थे। दिगम्बर जैन नवयुवक मंडल एवं आदर्श महिला विद्यालय की बालिकाओं ने इस पावन प्रसंग पर सुन्दर गीत प्रस्तुत किये, जो प्रसंगोपात्त यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। ज्ञानज्योति भ्रमण के दौरान ये दोनों गीत जनमानस के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे है ज्ञानज्योति भजन रचयिता-चक्रेश कुमार जैन, श्रीमहावीरजी ज्ञानज्योति, जय ज्ञान ज्योति, मम हृदय विराजे-विराजे। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो। हो नगर-नगर में ज्ञान ज्योति, सबका जीवन अति उज्ज्वल हो। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो॥ तीनलोक के मध्य एक लख योजन जम्बूद्वीप है। हां योजन जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के मध्य में देखो एक सुमेरु पर्वत है। हां एक सुमेरु पर्वत है॥ जहां तीर्थकर के जन्म समय का इन्द्र अभिषेक करते हैं। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो॥ इस जम्बूद्वीप की रचना की प्रतिकृति बनवायी ज्ञानमती। प्रतिकृति बनवायी ज्ञानमती । सबके अन्तर्मन में देखो यह जले हमेशा ज्ञान ज्योति ॥ यह जले हमेशा ज्ञानज्योति ॥ इनके दर्शन से प्राप्त हमें-२, आओ सब मिलकर करते हैं। हम यही भावना भरते है, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो॥ इस रचना को हस्तिनापुर में देखो करा रही है ज्ञानमती। हां करा रही है ज्ञानमती। और ज्ञानमती के शुभाशीष से भारत की इंदिरा गांधी ॥ हां भारत की इंदिरा गांधी ॥ इन करकमलों से चला दिया-२, यह जम्बूद्वीप का मॉडल हो। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ इस ज्ञानज्योति का देश के चारों ओर भ्रमण करवाया है। हां चारों ओर भ्रमण करवाया है। इनके दर्शन से अन्तर्मन में ज्ञान ज्योति हो पाया ॥ हां ज्ञान ज्योति हो पाया। देखो सत्य अहिंसा आदि भाव-२, ये सबके अन्तर्मन में हो। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो। यह नगर-नगर में घूम-घूम कर महावीर में आया है। हां महावीर में आया है। स्वागत करते हम सब मिलकर, यही भाव दरशाया है। हां यही भाव दरशाया है। इस ज्ञान ज्योति की दिव्य प्रभा से-२, सबको आतम ज्ञान मिले। हम यही भावना भरते हैं, भरते हैं ऐसा आने वाला कल हो ॥ [आदर्श महिला विद्यालय की बालिकाओं द्वारा पठित] तुम ज्ञान की ज्योति को सभी मिल फैलाओ। तुम ज्ञानमती मां के गुणों को विकसाओ॥ तुम........ क्रोध की अग्नी को क्षमा से बुझाके दया अपनाओ। राग द्वेष को दूर हटाकर समताभाव जगाओ। तुम वीर की नीति को सभी मिल अपनाओ ॥ तुम........ ममता भाव बढ़ाकर तुम सब जन-जन को हरषाओ। दीन दुःखी को गले लगाकर सत्य को तुम अपनाओ ॥ इन निर्मल भावों को सभी मन में लाओ ॥ तुम........ गुणों की कलियों से तुम सब मिल जीवन बगिया सजाओ। फूलों जैसी सुगन्धी से तुम कण-कण को महकाओ॥ फूलों जैसी महकान सभी को दे जाओ ॥ तुम.......... ज्ञानज्योति के स्वागत हेतू सब जन मिल यहां आये। चम्पा आदि सुमन की कलियां अभिनंदन को लाये॥ महिलाश्रम का यह भाव जगत में दरशाओ॥ तुम........ तुम ज्ञान की ज्योति को सभी मिल फैलाओ। तुम ज्ञानमती मां के गुणों को विकसाओ ॥ पूरे राजस्थान के प्रत्येक नगर एवं वहाँ के निवासियों की भक्त्यंजलि व उत्साह का वर्णन तो करना यहाँ शक्य नहीं है; अतः मात्र प्रमुख नगरों कास्वागत ही मैं आपके समक्ष प्रस्तुत करती हूँ। अब पहुँचते हैं राजस्थान की गुलाबी नगरी जयपुर मेंनारीशक्ति प्रदर्शिका श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद और राजनयिक शक्ति श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा प्रवर्तित ज्ञानज्योति अपने लक्ष्य को पूर्ण करती हुई आगे बढ़ रही थी; क्योंकि वाणीभूषण पं. बाबूलाल जमादार ने ज्ञानज्योति के सफल संचालन की बागडोर संभालने का शुभ संकल्प लिया था। ज्ञानज्योति प्रचार का केन्द्रीय कार्यालय संभालते हुए ज्योति प्रवर्तन समिति के महामंत्री ब्र. मोतीचंदजी व रवीन्द्रजी भी स्थान-स्थान पर पहुँच कर आयोजनों को सफल बनाते थे तथा आगे की गतिविधियों को सुचारू रूप प्रदान करते थे। ज्योति प्रवर्तन से पूर्व कुछ लोगों द्वारा अनेक भयावह स्थितियाँ दर्शाई गई थीं। इस जयपुर में ज्योतिरथ की शोभायात्रा में ज्योतिरथ पर बैठे हुए सपत्नीक श्री चैनरूप बाकलीवाल, कारण प्रत्येक व्यवस्था को और भी सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया गया। जिसका श्री वीरेन्द्र कुमार रानीवाला आदि। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५६५ प्रतिफल यहीं देखने को मिला कि ज्योति प्रवर्तन का कार्य दिन-प्रतिदिन सरल होता जा रहा है। प्रत्येक गाँव और शहर निवासी चाहे, वे तेरहपंथी रहे या बीसपंथी, कानजीपंथी अथवा अन्य कोई भी, सभी ने जिस सहृदयता एवं स्नेहपूर्वक सहयोग दिया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यही कारण था कि संचालक महोदय के साथ-साथ ज्योति प्रवर्तन का सारा स्टाफ असीम प्रसन्नता के साथ नगर-नगर की यात्रा का आनंद लेता रहा। अपने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार यह मंगल-यात्रा हिण्डौन, महुआ, सिकन्दरा, बाँदीकुई, दौसा, लालसोट, गंगापुर, सवाई-माधोपुर, उनियारा, पीपलू, मालपुरा, चाकसू, पद्मपुरी, सांगानेर में प्रोग्राम करती हुई ३ जुलाई, १९८२ को सायंकाल जयपुर शहर में पहुँच गई। रात में ही सभा का आयोजन हुआ। इस माह के इस प्रवास में एक ज्योति ने लगभग ६० स्थानों पर ज्योति प्रस्फुरित कर ज्ञान का संदेश दिया। शहर में प्रवेश से पूर्व ही रथ के अन्दर बैठे संचालक पं. जमादारजी ज्ञानज्योति के बारे में बताना प्रारंभ कर देते थे; अतः सभास्थल तक पहुँचते-पहुँचते हजारों की संख्या में जनसमूह उमड़ पड़ता था। इसी उत्साह के साथ प्रायः ८ बजे जुलूस के पश्चात् जयपुर के रामलीला मैदान में आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के संघ सानिध्य तथा आर्यिका श्री अभयमती माताजी एवं क्षुल्लक श्री सन्मतिसागरजी के सानिध्य में विशाल सभा का आयोजन हुआ। राजस्थान के राज्यपाल महोदय ने ज्ञानज्योति का भव्य स्वागत किया। अपार जनसमूह जुलूस के साथ था एवं हजारों स्त्री-पुरुष मकान की छतों पर चढ़कर ज्योति दर्शन का आनंद प्राप्त कर रहे थे। वह स्थल भी धन्य हो गया, जहाँ बनी थीं ज्ञानमतीमाधोराजपुरा (राज.) जिसने आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी का निर्माण स्वयं किया था, वह अपनी ज्ञानज्योति के प्रकाश से अछूती कैसे रह सकती थी? ७ जुलाई को उस पवित्र नगरी में अभूतपूर्व स्वागत हुआ। ज्ञानज्योति का तथा ज्ञानमती माताजी का संदेश विद्वान् पंडित बाबूलाल जमादार के माध्यम से जनमानस ने श्रवण किया कि इस संसार में निवास कर रहे प्रत्येक प्राणी जम्बूद्वीप के ही निवासी हैं, जम्बूद्वीप के ही छोटे से हिस्से में भारत जैसे अनेक देश एवं राजस्थान सरीखे हजारों प्रदेश हैं, जो कि विज्ञान की खोज के विषय हैं। ज्ञानमती निर्माण की संक्षिप्त कहानीसन् १९५६ में बैशाख कृष्ण दूज को चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के प्रथम पट्टाधीश, विशाल चतुर्विध संघ के अधिनायक आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने क्षुल्लिका वीरमतीजी को इसी माधोराजपुरा नगरी में आर्यिका की दीक्षा प्रदान कर "ज्ञानमती" नाम प्रदान किया था एवं उनकी तीक्ष्ण ज्ञानप्रतिभा को देखकर संक्षिप्त संबोधन भी प्रदान किया था कि "ज्ञानमती ! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है उसका सदैव ध्यान रखना।" गुरुदेव की दूरदर्शिता ने जाने उनमें क्या-क्या विशेषताएं देखी थीं। यह तो सौभाग्य का ही विषय मानना पड़ेगा कि उसी निर्माण भूमि पर ज्ञानमती की विस्तृत ज्ञानप्रभा से प्रकटित ज्ञानज्योति का पदार्पण हुआ है। आकाशवाणी जयपुर केन्द्र से ज्ञानज्योति प्रायोजित कार्यक्रम रिले हुआजुलाई, १९८२ से अगस्त, १९८२ तक जयपुर आकाशवाणी (विविध भारती) से बुधवार की रात्रि ९.४५ बजे से १०.०० बजे तक १५ मिनट का प्रायोजित कार्यक्रम प्रसारित हुआ। पहले से ही सम्यग्ज्ञान तथा अन्य अखबारों में इस कार्यक्रम की सूचना प्रचारित हो जाने से हिन्दुस्तान के अधिकाधिक जैन बंधुओं ने उसे सुना तथा प्रशंसात्मक पत्र भी भेजे। अजमेर महानगरी में भी ज्योतिरथ का आगमन हुआ१ अगस्त, १९८२ को राजस्थान की गली-गली में सर्वोदय तीर्थ का प्रचार करती हुई ज्ञानज्योति ने अजमेर में मंगल प्रवेश किया। इस शुभ अवसर पर पूर्व संध्या में केशरगंज दिगम्बर जैन मंदिर के प्रांगण में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें सरसेठ भागचंदजी सोनी आदि विशिष्ट सम्माननीय महानुभावों ने जम्बूद्वीप एवं ज्ञानज्योति के विषय में प्रकाश डाला। आस-पास काभवच मन के गांवों से भी जनता ने पधारकर धर्मलाभ प्राप्त किया। अजमेर समाज के विशेष आग्रह पर ब्र. मोतीचंदजी व रवीन्द्रजी दिल्ली के गणमान्य श्रेष्ठियों के अजमेर (राज.) में ज्ञानज्योति स्वागत सभा में प्रवचन करते हए क्षुल्लकरत्न श्री सिद्धसागर जी। साथ वहाँ पहुँचे। इसी प्रकार से जयपुर, कोटा, ब्यावर, रामगंजमंडी आदि अजमेर (राज. स्थानों से भी ज्ञानज्योति समिति के पदाधिकारियों ने अजमेर पहुँचकर ज्योति - HTND Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ RA A प्रवर्तन में चार चाँद लगाए। यहाँ के समस्त कार्यक्रम आचार्य श्री धर्मसागरजी के शिष्य क्षुल्लक श्री सिद्धसागरजी के सानिध्य में सम्पन्न हुए। आर्यिका रत्नमतीजी की चिरस्मरणीय दीक्षास्थलीज्ञानज्योति के पदार्पण से सहज ही यहाँ की पूर्व स्मृति जाग्रत हो गई। अजमेर की जनता वचनों से कह-कह कर भी संतुष्ट न हो पा रही थी कि ज्ञानमती माताजी की माँ सरीखी दीक्षा शायद ही किसी की हुई होगी। दीक्षा के प्रत्यक्षदृष्टा सरसेठ भागचंदजी सोनी उस दीक्षा का बखान करते हुए स्वयं भावविह्वल हो कहने लगे कि माँ मोहिनी ने १३ संतानों को जन्म देने के पश्चात् हमारी अजमेर नगरी में पारिवारिक संघर्ष तथा बच्चों के करुण क्रंदन पर विजय प्राप्त कर आर्यिका दीक्षा धारण की है। हम उस घड़ी को कभी नहीं भूल सकते हैं, जब एक बेटा तीन दिन से बेहोश पड़ा था, अन्य पुत्र, पुत्रियाँ, बहुएँ, नाती-पोते, भाई सभी उन्हें चिपक-चिपक कर रो रहे थे, अजमेर में ज्ञानज्योति सभा के मध्य सभाध्यक्ष कैप्टन श्री सरसेठ भागचंद जी सोनी श्री पूनमचंद गंगवाल, पास में खडणे हैं-कर्मठ कार्यकर्ता श्री पदमचंद जी वकील। उनके मुख से मात्र यही शब्द निकल रहे थे-मेरी माँ, मेरी दादी, मेरी नानी, मेरी जीजी की दीक्षा नहीं हो सकती, हम तो इन्हें घर ले जाएँगे। घर वालों की बिना आज्ञा के आचार्य श्री दीक्षा नहीं दे सकते, किन्तु मोहिनी माता बिल्कुल पत्थर की भाँति कठोर बन चुकी थीं, उन्होंने अपने आत्मबल का परिचय देकर सबको रोता-बिलखता छोड़कर निश्चित तिथि पर (मृगशिर कृ. ३, नवम्बर सन् १९७१) दीक्षा धारण कर ली, तब आचार्य श्री धर्मसागरजी ने उन्हें "आर्यिका रत्नमती" नाम से अलंकृत किया। माँ की इस दृढ़ता के संस्कार ज्ञानमती माताजी में होना स्वाभाविक ही है। ज्ञानमूर्ति ज्ञानमती माताजी को प्रदान करने वाली रत्नमती माताजी को सेठ साहब ने ज्ञानज्योति का मूलस्रोत बताया तथा हस्तिनापुर में विराजमान आर्यिकाद्वय को शत-शत नमन किया। राजस्थान भ्रमण के प्रथम चरण का समापन बिजौलिया में२ अगस्त से १४ अगस्त के बीच लगभग ३० नगरों का भ्रमण करती हुई ज्ञानज्योति १५ अगस्त, १९८२ को बिजौलिया (राज.) में पधारी। स्वतंत्रता दिवस पर इस मंगल आयोजन को सम्पन्न करते हुए वहाँ के अजमेर (राज.) में ज्ञानज्योति पर माल्यार्पण करते हुए प्रान्तीय स्वायत्तमंत्री श्रीरामजी गोटे वाला। लोग अति हर्षित थे। यहाँ के उत्साह को लेखनीबद्ध करना भी मुश्किल-सा प्रतीत होता है। सारा दिन जैनियों की दुकानें बन्द रहीं। मध्याह्न में सभा के पश्चात् जुलूस निकाला गया। शोभायात्रा के उद्घाटनकर्ता श्री रामकल्याणजी आकोदिया मुन्शीफ मजिस्ट्रेट थे तथा भारतसिंहजी चौधरी अध्यापक माध्यमिक उच्चतर विद्यालय मुख्य अतिथि थे। पदाधिकारियों ने भी संचालन का भार संभाला४ जून, १९८२ से १ अगस्त तक ज्ञानज्योति का संचालन वाणीभूषण पं. बाबूलाल जमादार ने किया। इसके पश्चात् अस्वस्थता के कारण १ अगस्त को अजमेर से प्रस्थान कर पंडितजी बड़ौत विश्राम हेतु आ गए। अतः २ अगस्त से १५ अगस्त तक ज्योतिभ्रमण का समस्त संचालन ब्र. मोतीचंद जैन महामंत्री तथा श्री धर्मचंदजी मोदी ब्यावर (संयोजक राजस्थान प्रांतीय ज्योति समिति) द्वारा किया गया। ब्यावर सरस्वतीभवन के विद्वान् श्री अरुण कुमार शास्त्री तथा विजयनगर (राज.) के विद्वान् श्री जयकुमार अजमेरा का भी सहयोग प्राप्त हुआ। ज्ञानज्योति के स्वागत के साथ-साथ अनेक स्थानों पर पं. जमादारजी, ब्र. मोतीचंदजी एवं धर्मचंदजी मोदी का भावभीना स्वागत भी हुआ। कई जगह अभिनंदन पत्र भेंट किए गए। अपने ओजस्वी वक्तव्यों से जन-जन को जम्बूद्वीप एवं अहिंसामयी सिद्धान्तों को बतलाकर न जाने कितने भव्य प्राणियों को मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान आदि व्यसनों से मुक्त कराया। यही तो ज्ञानमती माताजी ने ज्योतिभ्रमण का प्रमुख उद्देश्य बनाया था। अतः इस प्रगतिपूर्ण प्रवर्तन से पूज्य माताजी का रोम-रोम पुलकित हो उठता था। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के प्रथम चरण का समापन बिजौलिया नगर में किया गया। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५६७ पर्युषण पर्व के पश्चात् द्वितीय चरण का शुभारम्भदिनांक १२ सितम्बर, १९८२ को जिला बूंदी से ज्ञानज्योति प्रवर्तन के द्वितीय चरण का शुभारम्भ वाणीभूषण पंडित जमादारजी के नेतृत्व में हुआ। जिलाधीश श्री सज्जनसिंह राणावत, एस.एस.पी. श्री नारायण सिंहजी एवं मुख्य न्यायाधीश श्री दीनदयालजी खुरेटा ने पधारकर ज्योतिरथ का स्वागत किया तथा सभा में सभी ने अपने-अपने विचार भी प्रस्तुत किये कि सर्वधर्म समभाव का यह उदाहरण अद्वितीय आदर्श को उत्पन्न करने वाला है। वास्तव में आज हम लोगों ने समझा है कि जैनधर्म सार्वभौम सिद्धांतों के ऊपर टिका हुआ है। वह किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, प्रत्युत् प्राणिमात्र के कल्याण की बात सिखाता है। जिलाधीश महोदय ने कहा कि इस ज्योतिरथ की योजना बनाने वाली साध्वी श्री ज्ञानमती माताजी कितनी महान् होंगी. यह अनुमान भी सहज नहीं लगाया जा सकता है। इसी प्रकार बूंदी जिले के अलोद, नैनवां, लाखेरी, इन्द्रगढ़, करवर, कापरेन, केशोरायपाटन, तालेड़ा आदि ग्रामों में असीम उत्साहपूर्वक शोभायात्राएं निकली एवं प्रवचन सभाओं के आयोजन हुए। जिसमें संचालकजी ने सामयिक विषयों पर उद्बोधन प्रदान किया। कोटा के भी भाग्य जग गए दिनांक १९ सितम्बर, १९८२ को कोटा (राज.) में ज्ञानज्योति का मंगल पदार्पण हुआ। वहाँ दो दिवसीय कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। राजस्थान के पिछले सभी समारोहों में कोटा का समारोह विशेष प्रशंसनीय रहा। दिल्ली से संसद सदस्य श्री जे.के. जैन भी कोटा ज्ञानज्योति के स्वागत हेतु पधारे, उनकी अध्यक्षता में १९ ता. को प्रातः ८ बजे गीता भवन के विशाल प्रांगण में एक सभा का आयोजन हुआ। परमपूज्य मुनिराज श्री मल्लिसागरजी के सानिध्य में सभा एवं जुलूस का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसी शुभ अवसर पर माननीय मुख्य अतिथि श्री जे.के. जैन के सम्मान में कोटा समाज की ओर से अभिनंदन पत्र भेंट कर स्वागत किया गया। ज्ञानज्योति स्वागत सभा कोटा (राज.) में दिल्ली से पधारे सांसद श्री जे.के. जैन एवं श्री ब्र. मोतीचंदजी, रवीन्द्रजी तथा पं. बाबूलालजी के ओजस्वी वक्तव्य बज-कोटा तथा संस्थान के पदाधिकारी श्री ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, त्रिलोकचंद कोठारी हुए। जे.के. जैन ने भी अपने वक्तव्य में समस्त जनसमूह को बतलाया कि जिस प्रकार धर्मचक्र, मंगलकलश के प्रवर्तन से धर्मप्रभावना का विशेष कार्यक्रम हुआ था, वैसे ही ज्ञान-ज्योति के भ्रमण से उससे भी अधिक धर्मप्रचार का कार्य हो रहा है। मुनि श्री मल्लिसागरजी ने ज्योतिरथ को अपना आशीर्वाद देते हुए कहा जिस प्रकार एक हजार वर्ष पूर्व भगवान् बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण श्रवणबेलगोला में हुआ था, उसी प्रकार हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का जो निर्माण हो रहा है, वह बहुत समय तक जैनधर्म की ध्वजा को दिग्दिगन्त में फहराता रहेगा। २० ता. को प्रातः कलेक्टर साहब के करकमलों से उद्घाटन होकर गीता भवन से ज्ञानज्योति की शोभायात्रा प्रारंभ होकर कोटा के प्रसिद्ध क्षेत्रों से निकलती हुई हजारों दर्शकों को आकर्षित कर रही थी। स्थान-स्थान पर लगभग डेढ़ सौ तोरणद्वार बनाए गए थे तथा गीता भवन को बिजली की जगमगाहट से दुल्हन जैसा सजाया गया था। श्री जम्बू कुमार बज, श्री त्रिलोकचंद कोठारी, श्री गणेशीलाल रानीवाला कोटा तथा दिल्ली से पधारे हुए लाला सुमतप्रकाश जैन, श्री जिनेन्द्र प्रकाश जैन ठेकेदार, श्री कैलाशचंद जैन आदि महानुभाव जुलूस के साथ-साथ चल रहे थे। दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के ये पदाधिकारी प्रमुख-प्रमुख स्थानों पर जाकर ज्ञानज्योति संचालन की गतिविधियों पर नजर डालते थे तथा आवश्यकतानुसार संशोधन आदि भी करते थे; क्योंकि पूज्य माताजी द्वारा संकल्पित प्रत्येक कार्य को आज भी ये सभी पदाधिकारी एवं सदस्यगण अपना कार्य समझकर विशेष भक्तिपूर्वक उसे सम्पन्न करने में संलग्न रहते हैं। प्रोफेसर टीकमचंद जी द्वारा संचालन बागीदौरा (राज.) में ज्ञानज्योति प्रवर्तन के अस्थाई संचालक प्रो. श्री टीकमचंद जैन दिल्ली का स्वागत स्वास्थ्य की गड़बड़ी के कारण ज्ञानज्योति के संचालक वाणीभूषण पं. श्री बाबूलाल जमादार को २० अकूटबर, १९८२ के पश्चात् लगभग एक माह के लिए बड़ौत Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जाना पड़ा। अतः इस मध्य संचालन हेतु अन्य विद्वानों का सहयोग प्राप्त हुआ, जिनमें से प्रोफेसर टीकमचंदजी (प्रो. श्यामलाल कालेज, दिल्ली) ने २१ अबूटबर से कुछ दिनों तक ज्ञानज्योति का सफल संचालन किया। बाह्यदृष्टि से ज्ञानज्योति रथ प्रवर्तन हेतु प्रोफेसर साहब का सहयोग प्राप्त हुआ एवं अंतरंग दृष्टि से उन्होंने स्वयं अपने हृदय में ज्ञानज्योति का अविस्मरणीय प्रकाश फैलाया। लोहारिया (राज.) में तीर्थद्वय का अपूर्व संगमज्ञानज्योति रथ के ऊपर अग्रभाग पर निरन्तर जलती हुई विद्युत ज्योति के समीप ही सोलह चैत्यालय युक्त ३ फुट ऊँचे धातु निर्मित सुमेरु पर्वत ने रथ को मात्र दर्शनीय रूप में ही नहीं, प्रत्युत् तीर्थ सदृश वंदनीय बना दिया था। इसीलिए सभी जगह रथ के आगे आरती करके जनमानस वास्तविक सुमेरु पर्वत दर्शन सदृश पुण्य प्राप्त करते थे। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने कल्पद्रुम विधान की मानस्तंभ नामक द्वितीय पूजा की जयमाला में ये पंक्तियां लिखी हैंलोहारिया (राज.) में ज्ञानज्योति का अवलोकन करते हुए पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी जिनवर सन्निध का ही प्रभाव, जो मानस्तंभ मान हरते। यदि सुरपति भी अन्यत्र रचे, नहिं यह प्रभाव वे पा सकते ॥ इसी प्रकार से प्रतिष्ठित सुमेरु पर्वत से स्पर्शित ज्ञानज्योति का रथ भी महान् तीर्थस्वरूप अतिशयकारी बन गया था। लोहारिया पदार्पण करके वह तीर्थ एक महान् चेतन तीर्थ में विलीन हो गया था। कैसा चेतनतीर्थ था वह ?चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की वंशावली में तृतीय पट्टाधीश आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज एवं आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज अपने विशाल चतुर्विध संघ सहित उस लोहारिया नगर में चातुर्मास सम्पन्न कर रहे थे। दिगम्बर जैन साधु, साध्वियों को आगम में जंगम-चेतन तीर्थ की उपमा दी है। पुनः जहाँ साक्षात् आचार्य परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी विराजमान हों, वह भूमि भी यदि तीर्थ कही जावे तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इसीलिए तीर्थद्वय का यह मिलन अभूतपूर्व दृश्य को उपस्थित कर रहा था। २७ अक्टूबर, १९८२ को ज्ञानज्योति रथ तथा उसके सहयोगी समस्त कार्यकर्ताओं को आचार्य श्री का मंगल आशीर्वाद प्राप्त हुआ। इस नगर के लोहारिया में ज्ञानज्योति का अवलोकन करते हए आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी परिचय में हमें यह भी नहीं भूलना है कि परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज के संघस्थ पूज्य उपाध्याय मुनि श्री भरतसागरजी महाराज की जन्मभूमि होने के नाते लोहारिया नगरी तो पहले से ही एक पावन भूमि थी; अतः यह त्रिवेणी का संगम आज के कार्यक्रम को और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना रहा था। ब्र. मोतीचंदजी दो-चार दिन पूर्व से ही संचालन व्यवस्था के अवलोकनार्थ गए हुए थे। मैं (ब्रह्मचारिणी माधुरी के रूप में) ब्र. रवीन्द्रजी के साथ उस दिन लोहारिया पहुँची। दिल्ली से और भी कई महानुभाव एवं महासभा के वरिष्ठ पदाधिकारीगण भी इस स्वर्ण अवसर पर वहाँ पधारे। आचार्यश्री के आशीर्वचनआश्विन शु. १० (विजयादशमी) को राजस्थान प्रवर्तन की विजयपताका फहराती हुई ज्ञानज्योति के मंगल आगमन पर लोहारिया दिगम्बर जैन समाज ने विशाल सभा का आयोजन किया, जिसमें आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज सहित समस्त संघ विराजमान हुआ। वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमलजी सहित विभिन्न वक्ताओं के वक्तव्यों के पश्चात् आचार्य श्री ने अपने ओजस्वी प्रवचन से सभी को आप्लावित कर दिया। इसके पश्चात् ज्ञानज्योति की बोलियाँ हुई तथा मंगल जुलूस प्रारंभ हुआ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५६९ मानो आया समवशरण हीजुलूस में आचार्य श्री सहित समस्त संघ जिस समय ज्ञानज्योति के आगे-आगे चल रहा था, उस समय ऐसा मनोहारी दृश्य देखने को मिल रहा था, जैसे साक्षात् समवशरण ही पृथ्वी पर अवतीर्ण हुआ हो। क्योंकि एक बड़ी संख्या में दिगम्बर मुनिराज, श्वेतवस्त्रधारिणी आर्यिकाओं की लम्बी कतार, क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं का लघु समूह तथा ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणियों का विशाल समूह ही आधे जुलूस का अंग बना हुआ था। बीचोंबीच में ज्ञानज्योति रथ के ऊपर विराजमान श्रीजी की प्रतिमा किसी रूप में भगवान् महावीर के समवशरण का ही दिग्दर्शन करा रही थी। गाँव की छोटी-बड़ी गलियों में लगभग एक कि.मी. तक केशरिया वस्त्रों में सजी इन्द्राणियाँ, कुमारी कन्याएं एवं अपने-अपने व्यवसाय बन्द करके लोहारिया का बच्चा-बच्चा आनंदमग्न होकर जुलूस में चल रहा था। जुलूस वापस जैन मंदिर के पास आने पर आचार्यश्री, आचार्यकल्प श्री एवं अनेक साधुओं ने ज्ञानज्योति वाहन के अत्यंत नजदीक पधारकर जम्बूद्वीप मॉडल का सूक्ष्मावलोकन किया। बिजली लोहारिया में ज्योतिरथ के जुलूस में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज अपने विशाल एवं फौव्वारों के चलित दृश्य को देखकर सभी लोग अत्यंत प्रसन्न हुए तथा संघ सहित। पूज्य ज्ञानमती माताजी के जादुई मस्तिष्क की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस प्रकार लोहारिया कार्यक्रम का संक्षिप्त दिग्दर्शन मैंने कराया। हम लोग उसी दिन शाम को दिल्ली के लिए रवाना हो गए; क्योंकि पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का चातुर्मास दिल्ली में ही चल रहा था। संचालक जी भी बदल गएलोहारिया के पश्चात् दिनांक २८ अकूटबर, १९८२ से ८ नवंबर, १९८२ तक ज्ञानज्योति का संचालन किया पं. श्री गणेशीलालजी साहित्याचार्य आगरा वालों ने। जो उन दिनों हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर चल रहे आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ के प्राचार्य थे। बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर जिले में विभिन्न ग्रामों में ज्ञान का दीप प्रज्वलित करती हुई ज्ञानज्योति ८ नवम्बर को हथाई पहुँची, जहाँ समाज की ओर से ज्योति रथ का भावभीना अभिनंदन हुआ। ८ नवम्बर की संध्या में ही ज्ञानज्योति डूंगरपुर पहुँच गई। यहाँ सामाजिक स्तर पर ज्योतिरथ एवं संचालकजी का स्वागत हुआ। विशाल सभा के आयोजनपूर्वक शोभायात्रा निकाली गई। दीपावली तक रथ विश्राम९ नवम्बर से १८ नवम्बर तक दीपावली पर्व के उपलक्ष्य में ज्ञानज्योति के साथ चल रहे समस्त सहयोगियों को अपने-अपने घर जाने हेतु अवकाश प्रदान किया गया। अतः ज्योतिवाहन डूंगरपुर में ही अवस्थित रहा। राजस्थान प्रवर्तन का तृतीय चरण१९ नवम्बर, १९८२ से पुनः ज्ञानज्योति के तृतीय चरण का प्रवर्तन डूंगरपुर जिले के सागवाड़ा नगर से शुभारंभ हुआ, अब तो पं. श्री जमादारजी पुनः स्वास्थ्य लाभ करके आ गए थे, अतः उनके कुशल नेतृत्व में ज्योतिरथ ज्ञान का अलख जगाता हुआ आगे बढ़ने लगा। सागवाड़ा में श्रीमान् डिटी साहब के करकमलों द्वारा ज्ञानज्योति का स्वागत हजारों नर-नारियों के मध्य हुआ। उदयपुर शहर भी जगमगा उठा ज्ञानज्योति के प्रकाश सेउदयपुर जिले के लगभग ४० गाँवों का भ्रमण करती हुई ज्ञानज्योति का प्रवेश १८ दिसम्बर, १९८२ की संध्या में उदयपुर शहर में कुछ इस प्रकार हुआ, उदयपुर (राज.) में ज्ञानज्योति स्वागत सभा में आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी। मानो रात्रि का समस्त अंधकार इसी विद्युत् ज्योति के द्वारा प्रकाश में परिवर्तित होने वाला है तथा जनमानस का मिथ्यात्व अंधकार ज्ञानज्योति के अमर संदेशों Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ द्वारा सम्यक्त्व रूप में परिवर्तित होने वाला है; क्योंकि वहाँ पर भी करणानुयोग के मर्म को प्रकाशित करने वाली आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी विराजमान थीं (जो आ. श्री शांतिसागर महाराज के द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज की शिष्या हैं)। आर्यिकाश्री के पावन सानिध्य में १९ दिसम्बर को मध्याह्न- १.०० बजे से ज्योति स्वागत सभा का आयोजन जैन समाज ने किया। श्री बाबूलालजी जमादार की ओजस्वी वाणी तो रोते हुए प्राणियों को भी हँसाती थी तथा हँसते दिलों को भी एक बार गंभीरतापूर्वक चिन्तन को मजबूर करने वाली थी। इसीलिए आज का प्रबुद्ध वर्ग पंडितजी के ओजस्वी वक्तव्यों को अब भी भुला नहीं पाता है। जमादारजी ने ज्ञानमती माताजी की ज्ञानप्रतिभा का जो वर्णन उस सभा में किया, उससे प्रत्येक नारी का हृदय बलात् ही ज्ञानमती सदृश बनने को आतुर हो उठा। ब्र. मोतीचंदजी ने ज्ञानज्योति का प्रारूप अपने भाषण में बताया। श्री धर्मचंदजी मोदी-ब्यावर, शांतिलालजी बड़जात्या-अजमेर, पं. फतेहसागरजी-उदयपुर आदि कई वक्ताओं ने अपने वक्तव्यों द्वारा ज्ञानज्योति के प्रति अप्रतिम सम्मान व्यक्त किया। आर्यिकाश्री के हृदयोद्गारश्री विशुद्धमती माताजी ने अपने मंगल प्रवचन में जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा-जंबूद्वीप का अध्ययन यदि ठीक प्रकार से कर लिया जावे तो चारों अनुयोगों का अध्ययन हो जाता है। जो लोग जम्बूद्वीप को स्वीकार नहीं करते हैं, वे चारों अनुयोगों एवं समस्त आचार्यों की अवहेलना करते हैं। जो लोग जम्बूद्वीप में रहकर ही जम्बूद्वीप का विरोध करते हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे अपना ही स्वयं विरोध करते हैं। आर्यिका जी ने परमपूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के इस देशव्यापी कार्यक्रम की बहुत सराहना की तथा ज्योतिप्रवर्तन समिति को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। [नोट-उन दिनों एक जैन अखबार में पं. कैलाशचंद सिद्धान्त शास्त्री ने जम्बूद्वीप के विरोध में एक लेख प्रकाशित किया था। पता नहीं क्यों? बेचारे कोंदयवश तत्त्वार्थसूत्र की तृतीय अध्याय का निषेध करते हुए भी संकोच नहीं कर रहे थे। उन्होंने लिखा था कि नंदीश्वरद्वीप और जम्बूद्वीप में उतना ही अन्तर है, जैसे कि सम्मेदशिखर का पर्वत और एक साधारण गाँव । जम्बूद्वीप पूज्य नहीं है, नंदीश्वर द्वीप पूज्य है। पक्ष दुराग्रह में वे यह भी भूल गए कि जम्बूद्वीप में ७८ अकृत्रिम मंदिर हैं तथा नंदीश्वर में ५२ ही हैं। मोक्ष की परंपरा जम्बूद्वीप में ही रहती है, जबकि नंदीश्वरद्वीप में तो मनुष्य जा ही नहीं सकते हैं। उनके लेख को पढ़ने से ही पूज्य आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ने आगम के परिप्रेक्ष्य में उपर्युक्त प्रवचन किया था। हालांकि कुछ दिनों बाद वे पंडितजी स्वयं हस्तिनापुर आकर जम्बूद्वीप स्थल पर पधारे थे। पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से उनकी सौहार्दपूर्ण वार्ता भी हुई, माताजी ने उन्हें कम से कम ६ माह तक साधुओं का विरोध न करने का नियम भी दिया। परिणामस्वरूप उसके पश्चात् पंडितजी ने पुनः छः महीने तक किसी भी साधु के प्रति विरोधात्मक लेखनी नहीं चलाई। उन्होंने बड़ी रुचि से जम्बूद्वीप रचना का अवलोकन किया और बड़े प्रसन्न हुए। विरोध का कारण पूछने पर पंडितजी कुछ शर्मिन्दा हो गए तथा अपनी गलती महसूस की। उदयपुर में इस स्वागत सभा के पश्चात् विशाल मनोहारी जुलूस निकाला गया। जिसमें अनेक प्रकार के बैंड, हाथी, घोड़े, बग्घियों पर सुसज्जित स्त्री-पुरुष जुलूस के आकर्षण को बढ़ा रहे थे। जगह-जगह लगे हुए ठण्डाई एवं शरबत के प्याऊ जनमानस की प्यास बुझाकर स्वागत कर रहे थे। जादू रो खेल (गणनौर) चलो हस्तिनापुर राज्य, सभी मिल चलो हस्तिनापुर राज्य है, श्री ज्ञानमती जी रचवायो जम्बूद्वीप . . . . . सभी अद्भुत दुनियां रचाई खोई जूनी निधि पाई देखो-देखो अतीत ने आज, जी आयो उमड़-घुमड़ के समाज . . . . . सभी दर्शन पूजन कराला जीताजी यूँ तराला हरसी मुनिगण जीवन रो क्लेश, है जो सुणश्यां शास्त्रा रा सद् उपदेश . . . . .सभी वैभव भारत रो देखो अपणा गौरव रो लेखो ज्ञान भक्ति कला रो भण्डार, है जी ऊँची संस्कृति रो प्रचार . . . . . सभी आखो विश्व चकरावे म्हाको पार न पावे प्रकृति प्रभु माया, ब्रह्मरो मेल है जी देखा समझा जादू रो खेल . . . . . सभी For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशरियाजी में राजस्थान प्रान्तीय प्रवर्तन का समापन २० दिसम्बर, १९८२ को जम्बूद्वीप शनज्योति राजस्थान प्रवर्तन के अन्तिम चरण में महान् तीर्थ केशरियानाथ पहुँच गई, जहाँ समापन समारोह उल्लासपूर्वक वातावरण में मनाया गया । स्वागत सभा का आयोजन गुरुकुल के प्रांगण में किया गया, जहाँ मुख्य अतिथि के रूप में राजस्थान सरकार के मंत्री श्री हीरालालजी देवपुरिया पधारे मंत्री महोदय ने देश की प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित शनज्योति का हार्दिक सम्मान करते हुए ज्योतिरथ पर पुष्पांजलि समर्पित की तथा अपने ओजस्वी भाषण के द्वारा जनमानस को संबोधित किया। वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सम्पूर्ण प्रांत का सम्मान जब ज्ञानज्योति राजस्थान से विदा ले रही थी, तब भगवान आदिनाथ की छत्रछाया में एक बार पुनः सम्पूर्ण राजस्थान का भक्तसमूह एकत्रित हुआ था । मानो वे अपनी प्रिय ज्योति से बिछुड़ना ही नहीं चाहते थे। सदा-सदा के लिए अपना राजस्थान अनमोल ज्ञान की ज्योति से प्रकाशित कर देने का सुखद संकल्प वहाँ के निवासियों ने ले लिया था। इसीलिए छह मास की दीर्घ अवधि तक ज्ञानज्योति प्रवर्तन का सौभाग्य राजस्थानवासियों को प्राप्त हुआ। आज के इस समापन अवसर पर पूरे राजस्थान प्रान्त में जिन्होंने पाँच हजार से अधिक राशि की बोलियां लेकर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति को सहयोग प्रदान किया था, उन सभी लोगों को केन्द्रीय प्रवर्तन समिति की ओर से प्रशस्ति पत्र भेंट कर सम्मानित किया गया। जो महानुभाव उस समय उपस्थित न हो सके थे, उनको भी अप्रत्यक्ष रूप से सम्मानित कर प्रशस्ति-पत्र उनके यहाँ भेज दिये गए। इसी के साथ ज्ञानज्योति के संचालक पं. बाबूलाल जमादार का तथा अनन्य सहयोगी श्री धर्मचंदजी मोदी, श्री शांतिलाल बड़जात्या आदि कतिपय विशिष्ट सहयोगियों के प्रति भी सम्मान प्रदर्शित किया गया। उपर्युक्त तीनों महानुभावों ने अपने-अपने विचार व्यक्त करके ज्ञानज्योति की महिमा का सबको दिग्दर्शन कराया। जयपुर (राज.) में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ज्योतिरथ के कार्यकर्ताओं को आशीर्वाद प्रदान करते हुए। -- [५७१ विशाल जुलूसपूर्वक सम्पन्नता सभा के पश्चात् एक विशाल जुलूस भी निकाला गया। हजारों जैन तथा जैनेतर बंधुओं ने जुलूस में शामिल होकर ज्ञानज्योति का भव्य स्वागत किया। इस समारोह में केशरियानाथजी के अतिरिक्त राजस्थान प्रांत के अनेक महानुभाव तथा केन्द्रांचल दिल्ली से ब्र. मोतीचंद जैन के साथ मोतीचंद कासलीवाल जौहरी, सुरेशचंद गोटेवाले, विजय लुहाड़िया, हेमचंद जैन महानुभाव भी उपस्थित हुए, जिनका राजस्थान प्रवर्तन समिति की ओर से सम्मान किया गया। Jain Educationa International केशरिया जी में राजस्थान प्रान्तीय ज्ञानज्योति प्रवर्तन के समापन पर राजस्थान के मंत्री देवपुरिया का स्वागत करते हुए श्री शांतिलाल जी बड़जात्या, अजमेर। भगवान आदिनाथ की जय-जयकारों के साथ राजस्थान का प्रवर्तन यहीं पर सम्पन्न हुआ। एक प्रदेश में निर्विघ्न प्रवर्तन समापनपूर्वक विजय प्राप्ति हेतु सभी ने प्रजापति ऋषभदेव के चरणों में नमन कर स्व-स्व स्थान के लिए प्रस्थान किया । वरदहस्त श्री गुरू का पाया राजस्थान के विभिन्न नगरों में दिगम्बर जैन संतों एवं आर्थिकाओं के सानिध्य प्राप्त हुए, जिनमें से कतिपय नाम प्रस्तुत हैं - For Personal and Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२] सानिध्य साधु का नाम १. आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज ससंघ २. आचार्यश्री धर्मसागर महाराज ससंघ ३. आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज ससंघ ४. उपाध्याय श्री अजितसागर महाराज ससंघ ५. मुनि श्री आनन्दसागर महाराज ६. मुनि श्री पार्श्वकीर्ति महाराज ७. मुनि श्री मल्लिसागर महाराज ८. आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ९. आर्यिका श्री अभयमती माताजी क्षु.. सन्मतिसागर महाराज १०. ११. क्षुल्लक श्री सिद्धसागर महाराज गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ गुरु प्रशस्त वाणी कल्याणी आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरुओं का लक्षण बताते हुए कहा है विषयाशावशातीतो, निरारंभो ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स परिग्रहः । प्रशस्यते ॥ केशरिया जी में ज्योतिरथ के संचालक पंडित श्री बाबूलाल जमादार का स्वागत करते हुए मंत्री श्री हीरालाल Jain Educationa International नगर नाम जयपुर लोहारिया लोहारिया सलूम्बर अलवर मदनगंज किशनगढ़ कोटा अर्थात् पंचेन्द्रिय विषयों की अभिलाषा से रहित, आरंभ और परिग्रह के त्यागी नग्न दिगम्बर मुनिराज निरन्तर ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहने वाले तपस्वी साधु कहलाते हैं। इन्हीं तपस्वियों की श्रृंखला में वर्तमान युग भी गौरवशाली है, जिसे कतिपय विशिष्ट ज्ञानी साधुओं का समागम है । प्राप्त हुआ उदयपुर जयपुर जयपुर अजमेर 1. भारतगौरव आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने जयपुर के रामलीला मैदान में आयोजित विशाल सभा के मध्य ज्ञानज्योति प्रवर्तन समारोह के आयोजकों को तथा समस्त जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा "यह ज्ञानज्योति भगवान महावीर की ज्योति है। जिस प्रकार भगवान महावीर ने अपनी आत्मा में ज्ञानज्योति को प्रकट करके उस ज्ञानज्योति के द्वारा सारे संसार को शांति के मार्ग पर लगाया था, उसी प्रकार इस ज्ञानज्योति के भ्रमण से अनेक भव्य प्राणियों का अज्ञान दूर होकर उनके अन्दर ज्ञानज्योति होवे' आचार्यश्री ने ऐसा आशीर्वाद दिया तथा ज्ञानज्योति प्रवर्तन की पावन प्रेरिका परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के लिए बारम्बार आशीर्वाद प्रदान करते हुए उन्होंने अपनी ओजस्वी एवं सरस वाणी में बताया कि "ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन समाज की वह महिलारत्न हैं, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी के इतिहास को भी बदलकर नारी जाति के लिए एक आदर्श उपस्थित किया है। मै तो उन्हें सन् १९५२ से जानता हूँ, जब उनने असीम संघर्षो पर विजय प्राप्त कर अपनी वीरता का परिचय दिया था। For Personal and Private Use Only जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के राजस्थान प्रवर्तन के मध्य राजस्थान प्रांत में विराजमान साधुओं का जहाँ सानिध्य प्राप्त हुआ, वहीं उनके दिव्य उपदेशों का सुअवसर भी मिला था। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की संप्रेरणा से प्रवर्तित ज्योतिरथ के प्रति समस्त साधुसमूह की वात्सल्यपूर्ण सद्भावना रही है। अतः सभी ने खुले दिल से मंगल ज्योति के विषय में उद्गार व्यक्त किए थे। जिनमें से कतिपय प्रवचनांश यहाँ प्रस्तुत है- ज्ञानसाधना के प्रति उनकी तीक्ष्ण अभिरुचि देखकर मैं प्रारम्भ से ही सोचा करता था कि यदि यह स्त्री की बजाय पुरुष होतीं तो पता नहीं क्या करतीं? उसके राजयोग के विविध चिह्नों से यह स्पष्ट झलकता था कि राष्ट्रीय ख्याति के अनेकानेक कार्य इन कोमल हाथों से सम्पन्न होंगे। आचार्य श्री आज बहुत ही प्रसन्न नजर आ रहे थे तथा उन्हें न जाने कितनी पुरानी स्मृतियाँ याद आने लगीं। उन्होंने अन्त में कहा कि शनमती की ज्ञानज्योति सारे विश्व को आलोकित करे, यही मेरा मंगल आशीर्वाद है। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला २. धर्म के सागर से प्रवाहित कल्याणी वाणी लोहारिया (राज.) में ज्ञानज्योति सभा को आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज का जो अनमोल आशीर्वाद प्राप्त हुआ, वह इस इतिहास की अमिट लेखनी में सदैव स्वर्णकित रहेगा। प्रस्तुत है प्रवचनांश सम्पूर्ण राजस्थान में ज्ञानज्योति के द्वारा जैन तथा अजैनों को अभक्ष्य भक्षण का त्याग तथा अनेकानेक व्यसनों का त्याग कराकर उन्हें सन्मार्ग पर लगाया जा रहा है, यह जानकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई है ज्ञानमती माताजी तो मेरे हो गुरु (आचार्य श्री वीरसागरजी) की शिष्या हैं। वे आगम तथा गुरुपरम्परा को निभाने में अत्यंत दृढ़ हैं। अतः उनके द्वारा प्रेरित कोई भी कार्य अवश्य ही सर्वतोमुखी विकास में सहायक होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। मैंने सन् १९७४ में भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव पर देहली में उनके द्वारा अनुवादित अष्टसहस्त्री की प्रकाशित प्रति को देखकर अत्यंत गौरव का अनुभव किया था कि हमारी इस परम्परा में ऐसी विदुषी आर्यिका की प्रगति को यदि गुरुदेव स्वयं देख लेते तो कितने प्रसन्न होते ? जो भी हो, गुरुवर्य ने कुछ सोचकर ही इन्हें ज्ञानमती नाम दिया था। [५७३ पुनः शायद आचार्यश्री के समक्ष महासभा द्वारा 'समन्वयवाणी' अखबार प्रस्तुत किया गया था, जिसमें कुछ पंडितों द्वारा मुनियों के विरोध में लिखा गया लेख था । अन्य प्रवचनों के मध्य उस लेख को पढ़कर आचार्यश्री के अन्दर चन्द्रसागर महाराज जैसी सिंहवृत्ति जाग्रत हो उठी (क्योंकि इन्होंने आ.कल्प श्री चन्द्रसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ली थी, गुरु का कुछ असर तो शिष्य पर आता ही है) अतः अपने अत्यंत जोशीले प्रवचन में आचार्यश्री ने स्पष्ट कहा "हम वीर की संतान हैं, अतः वीरत्व का कार्य करना चाहिए। जो लोग आगम का, निर्दोष साधुओं का निज के हठाग्रहवश विरोध करते है, उनका अवश्य ही डटकर विरोध होना चाहिए। जो लोग पूर्वाचार्यो की स्याद्वादमयी वाणी का निषेध करते हैं, वे जैनी कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। धर्म विरोधी तो स्वयं अपना पतन करते हैं। आचार्यश्री ने अपनी भोली-भाली मारवाड़ी भाषा में कहा - "जे विरोध करसी नरक जासी" । आज विजयदशमी के दिन जिस प्रकार से भगवान राम की विजय हुई थी एवं रावण का संहार हुआ था, उसी प्रकार मेरा यही आशीर्वाद है कि धर्मकार्य करने वालों को विजय प्राप्त होवे। जैनधर्म वीतराग धर्म है। जो लोग रात्रि भोजन करते हैं, संयम को धारण नहीं करते हैं, होटलों में खाना खाते हैं, उन्हें साधुओं की निन्दा करने का कोई अधिकार नहीं है। पहले निज पर दृष्टि डालो, तभी कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।" ३. उपाध्याय श्री अजितसागरजी के उद्गार - राजस्थान के सलूम्बर नगर में जिस समय ज्ञानज्योति पहुँची थी, उस समय संयोगवश वहाँ आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज के शिष्य परमपूज्य उपाध्याय श्री अजितसागर महाराज अपने संघ सहित विराजमान थे। अतः मुनि श्री एवं चतुर्विध संघ के पुनीत सानिध्य में ज्ञानज्योति की स्वागत सभा दिगंबर जैन समाज द्वारा आयोजित की गई। जिसमें विभिन्न वक्ताओं के भाषणोपरान्त उपाध्याय श्री का मंगल उद्बोधन सभी को प्राप्त हुआ । पूज्य उपाध्यायश्री ने अपने प्रवचनों में ज्ञानज्योति की बहुउद्देशीय योजनाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा यह ज्योतिरथ एक चलता-फिरता तीर्थ है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने इस वृहत् कार्य में अपनी प्रेरणा प्रदान करके निज नाम को सार्थक किया है। माताजी के उच्चकोटि के ज्ञान से भला कौन ऐसा व्यक्ति है, जो परिचित नहीं होगा। मुनिश्री ने इस प्रवर्तन के साथ ही विशाल साहित्य का विस्तृत प्रचार-प्रसार करने की प्रेरणा प्रदान की तथा उन्होंने कहा कि जो जम्बूद्वीप रचना छिपा पड़ा था, वह इस युग में धरती पर साकार हो रहा है, यह बड़ी प्रसन्नता का इतिहास तिलोयपणत्ति, त्रिलोकसार, मोक्षशास्त्र आदि ग्रंथों में की बात है । हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना के बाद निश्चित ही वैज्ञानिक लोग वहाँ खोज करने के उद्देश्य से पहुँचेंगे, क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान के बाद साक्षात् रूप से वस्तुतत्त्व को देख लेने पर उसका रहस्य सहज ही समझ में आ जाता है। सलूम्बर (राज.) में उपाध्याय श्री अजितसागर जी महाराज ज्ञानज्योति का अवलोकन करते हुए। Jain Educationa International परमपूज्य श्री अजितसागरजी महाराज ने पं. बाबूलाल जमादार को एवं ज्ञानज्योति के समस्त सहयोगियों को खूब ज्ञान का प्रचार करने हेतु अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया तथा ज्योतिवाहन के निकट जाकर सूक्ष्मदृष्टि से मॉडल का अवलोकन भी किया। For Personal and Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ आर्यिका श्री अभयमती माताजी की अभय वाणीजयपुर (राज.) में ज्ञानज्योति सभा को आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज के साथ-साथ परमपूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज की प्रथम आर्यिका शिष्या श्री अभयमती माताजी का संघ सानिध्य भी प्राप्त हुआ। अतः पूज्य माताजी का मंगल-आशीर्वाद ज्ञानज्योति को मिला तथा उन्होंने ओजस्वी प्रवचन में कहा कि कई महीनों से ज्ञानज्योति की योजनाओं के बारे में सुना तो करती थी किन्तु साक्षात् देखने का सुअवसर आज ही प्राप्त हुआ है। ज्ञानमती माताजी तो स्वयं ही ज्ञान की जीवन्त ज्योति हैं, मुझे भी उनके सानिध्य में १० वर्ष तक रहने का तथा उनके श्रीमुख से अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। पूज्य माताजी द्वारा प्रेरित यह ज्ञानज्योति का रथ जन-जन को ज्ञान प्रकाश देगा तथा इसके माध्यम से नारी शक्ति को भी पहचानने का अवसर प्राप्त होगा। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आर्यिका श्री अभयमती माताजी पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की लघु बहिन हैं। सन् १९७१ में इन्होंने राजस्थान से बुंदेलखण्ड की यात्रा हेतु पृथक् विहार किया था। १० वर्ष तक निर्विघ्न पदयात्रा सम्पन्न करने के पश्चात् पुनः राजस्थान के जयपुर शहर में पधारी थीं। अतः ज्ञानज्योति की सभा को पूज्य माताजी का सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य भी मिल गया। आपके साथ क्षुल्लिका श्री शांतिमती माताजी हैं, वे भी सभा में उपस्थित थीं। क्षुल्लक श्री सिद्धसागरजी के प्रभावी प्रवचनअजमेर (राज.) में ज्ञानज्योति की स्वागत सभा में पूज्य क्षुल्लक श्री सिद्धसागरजी महाराज (आचार्य श्री धर्मसागरजी के शिष्य) का सानिध्य प्राप्त हुआ। पूज्य क्षुल्लकजी ने विशाल सभा को अपनी ओजस्वी वाणी में संबोधन प्रदान किया तथा ज्ञानज्योति को महायज्ञ की उपमा देते हुए कहा कि "ऐसे लोग जो साधुओं पर कीचड़ उछालते हैं, वे धर्म तथा समाज के दुश्मन हैं। हमेशा साधुओं के निमित्त से ही अनेक मानवों का एवं तीर्थक्षेत्रों का उद्धार हुआ है।" चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की प्रेरणा से कुंथलगिरि, मुनि श्री समंतभद्र महाराज की प्रेरणा से कुंभोज बाहुबली, आचार्यश्री देशभूषण महाराज के निमित्त से कोथली, आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज की प्रेरणा से सम्मेदशिखर आदि तीर्थ कितने विकसित हुए हैं, यह आप सभी के सामने है। इसी श्रृंखला में पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर नगरी का जम्बूद्वीप निर्माण से पुनरुद्धार हो रहा है, यह महान् प्रसन्नता की बात है। मुझे भी हस्तिनापुर में पूज्य ज्ञानमती माताजी के एवं सुमेरु पर्वत के साक्षात् दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। मैंने देखा है कि माताजी दृढ़ता की साकार प्रतिमा हैं। हम सभी को उनके मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। राजस्थान प्रान्त के कतिपय साधुओं की अमृतवाणी के कुछ कण मैंने यहाँ प्रस्तुत किये हैं। पाठकगण इन्हीं कणों से साधु समूह की सर्वजनहिताय भावना का सार ग्रहण करें, यही मंगल-कामना है। नेता स्वागत हेतु पधारेजो अमर ज्योति देश की लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के कर-कमलों द्वारा प्रज्वलित एवं प्रवर्तित की गई थी उसका प्रदेश के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, डी.एम., एस.डी.एम. आदि स्वागत करें, यह कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं है। दिल्ली के मंच पर तो प्रधानमंत्री के साथ-साथ गृहमंत्री आदि अनेक केन्द्रीय नेता विद्यमान थे ही, उसके पश्चात् राजस्थान के विभिन्न नगरों में जिस छोटे-बड़े नेता को ज्ञानज्योति आगमन की सूचना मिलती थी, वह तुरन्त अपना कर्त्तव्य समझकर स्वागत हेतु सभा में पधारता एवं जम्बूद्वीप की आरती कर ध्यानपूर्वक उसका अवलोकन भी करता था। सभी नगरों में सभागत नेताओं का आगमन तो लिपिबद्ध कर पाना कठिन है, किन्तु कतिपय प्रमुख स्थानों पर स्वागतार्थ पधारे राष्ट्रीय नेता एवं अधिकारी कार्यकर्ताओं की सूची निम्न प्रकार हैक्र.सं.नेता का नाम नगर का नाम १. राजस्थान के महामहिम राज्यपाल श्री ओ.पी. मेहरा जयपुर २. अलवर के जिलाधीश एवं कार्यकारिणी नगर प्रशासक श्री विजयशंकर सिंह आई.ए.एस. अलवर ३. श्रीराम गोटे वाले (स्वायत्तमंत्री राजस्थान) अजमेर ४. श्री भूटानी सिंह राठौड़ बी.डी.ओ. पीसांगन ५. जिलाधीश श्रीवास्तव जी दादिया ६. भीलवाड़ा के एस.पी. महोदय गुलाबपुरा ७. श्रीमान् एस.एस. कक्कड़ एस.डी.ओ. शाहपुरा ८. मजिस्ट्रेट श्री अनिल कुमार जी मिश्रा जहाजपुर ९. श्रीमान् तहसीलदार कोटडी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. नेता का नाम १०. जिलाधीश महोदय ११. श्रीमान् रामकल्याणजी आकोदिया मुंसिफ मजिस्ट्रेट १२. श्री जे. के. जैन संसद सदस्य, दिल्ली १३. श्री सज्जन सिंह राणावत जिलाधीश, श्री नारायण सिंह, एस.एस.पी. बूँदी तथा श्री दीनदयाल खुरेटा, मुख्य न्यायाधीश, बूँदी १४. श्रीमान् रामप्रसाद गुप्ता जज (नैनवां) १५. नगरपालिका चेयरमैन १६. श्री कल्याण सिंह जी तहसीलदार १७. श्री तहसीलदार महोदय १८. रिटायर्ड मजिस्ट्रेट श्री सोमदत्त शर्मा १९. जिला मजिस्ट्रेट श्री ओमप्रकाश गुप्ता २०. जिलाधीश महोदय २१. तहसीलदार साहब २२. जिला प्रमुख श्री सुजान सिंह जी २३. श्री सुशील कुमार बाकलीवाल अधिशासी अभियंता २४. सेशन जज श्री सुन्दरलाल मेहता २५. श्री मनोहरलाल जी विरानी अध्यक्ष नगरपालिका २६. मुंसिफ मजिस्ट्रेट, एस.डी.ओ. चेयरमैन २७. जिलाधीश श्री दीपचन्दजी जैन २८. श्रीमान् डिप्टी साहब २९. चेयरमैन श्री किशनलालजी जैन ३०. श्री हीरालालजी देवपुरिया मंत्री राजस्थान सरकार वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "भारत में जो भी महात्मा, संत, पैगम्बर आए, उन्होंने हमें जो रास्ता दिखाया, उन्हीं के रास्तों पर चलकर हमें शांति प्राप्त हो सकती है। कोई मजहब Jain Educationa International नगर का नाम भीलवाड़ा बिजौलिया कोटा बूँदी For Personal and Private Use Only नैनवां कापरेन केशोरायपाटन छीपाबड़ोद कैथुन सांगोद झालावाड़ चांदखेड़ी झालरापाटन चित्तौड़ बाँसवाड़ा निम्बाहेड़ा कुशलगढ़ साबला इसके अतिरिक्त लगभग समस्त छोटे-बड़े स्थानों पर गाँव के सरपंच, ग्राम प्रधान आदि स्वागत हेतु पधारे, जिनके नाम भी ज्ञानज्योति के इतिहास में जुड़ गए। अतः यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सभी लोगों ने ज्ञानज्योति का खुले दिल से जो स्वागत किया है, वह राजस्थान के इतिहास में सदैव अविस्मरणीय रहेगा। मेरा भी सौभाग्य जगा है (राज्यपाल श्री ओ.पी. मेहरा) ज्ञानज्योति के स्वागत में पधारे सभी मुख्य अतिथियों ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त कर असीम प्रसन्नता एवं विश्वबंधुत्व का परिचय दिया था; क्योंकि उन्होंने अपनी उपस्थिति को अपना सौभाग्य मानकर स्वयं को ज्ञान की मंगलज्योति से आलोकित करने के शुभ भाव हृदय में संजोए थे। मैं समझती हूँ कि यहाँ कतिपय मुख्य नेताओं के शब्द- प्रसून राजस्थान सम्पूर्ण ज्योतिभ्रमण की सार्थकता को बतलाने में सक्षम होंगे। अतः प्रस्तु हैं श्रद्धा की कतिपय शब्दावलियाँ जयपुर के रामलीला मैदान में ४ जुलाई, १९८२ को राजस्थान के महामहिम राज्यपाल श्री ओ.पी. मेहरा ने विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा सागवाड़ा डूंगरपुर केशरिया जी जयपुर की स्वागत सभा में राजस्थान के राज्यपाल श्री ओ.पी. मेहरा। [५७५ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ या कोई पैगम्बर हमें यह नहीं सिखाते कि हम आपस में एक-दूसरे से घृणा करें या एक-दूसरे की बुराई करें या एक-दूसरे को नीचा दिखाएं। मुझे विश्वास है कि ज्ञानज्योति जिन-जिन गाँवों में जायेगी, वहाँ के लोग खुदकिस्मती होंगे एवं उनके यहाँ खुशहाली होगी। हम तो आप लोगों से यही आशीर्वाद चाहते हैं कि इस ज्योति के भ्रमण में हम अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर सकें, जिससे ज्ञानज्योति का स्वागत राजस्थान के हर नगर में पूरी सफलता के साथ सम्पन्न होवे। यदि कोई भी इस ज्योति को बुझाने का प्रयास करेगा तो वह स्वयं बुझ जाएगा, किन्तु ज्योति कभी नहीं बुझ सकती, वह तो निरन्तर अधिकाधिक प्रकाश फैलाती हुई अपने लक्ष्य को पूर्ण करेगी; क्योंकि एक महान् तपस्विनी नारी शक्ति की प्रतीक ज्ञानमती माताजी के अन्तर्मन की प्रेरणा से जलाई गई यह पवित्र ज्योति है। वे माताजी कितनी उदारमना होंगी, इसका अनुमान मैं उनकी इसी कृति से लगा सकता हूँ। मैं राजस्थान की अपनी समस्त जनता से अपील करता हूँ कि जहाँ-जहाँ यह रथ जाए, आप लोग इसका खूब स्वागत करें और तन-मन-धन से इस प्रोजेक्ट को सफल करें। ज्योति प्रवर्तन समिति को मेरी बहुत-बहुत बधाई है। आप लोगों ने इस महान कार्य का जो बीड़ा उठाया है, वह सराहनीय है। आप लोगों ने इस धर्मसभा में मुझे बुलाया, इसके लिए मैं आप सभी का अत्यंत आभारी हूँ। जब भी राजस्थान में मेरी आवश्यकता होगी, मैं सेवा हेतु अवश्य उपस्थित होने में अपना सौभाग्य समझूगा।" स्वायत्तमंत्री श्रीराम गोटे वाले के मार्मिक उद्गार"जो कार्य करते हैं वे देवता हैं, जो विघ्न डालते हैं वे राक्षस हैं।" १ अगस्त, १९८२ को अजमेर (राज.) में उपर्युक्त उद्गार प्रकट करते हुए राजस्थान प्रदेश के स्वायत्तमंत्री श्रीराम गोटे वालों ने अपना वक्तव्य प्रारंभ किया ___आज हमारे देश में नैतिकता का पतन होता जा रहा है, जिसके कारण लड़ाई, झगड़े एवं अराजकता के कण सभी जगह फैल रहे हैं। इस ज्ञानज्योति के माध्यम से निश्चित रूप से नैतिकता का व्यापक प्रचार होगा, यह मुझे पूर्ण विश्वास है। जिस प्रकार प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इस ज्योति का प्रवर्तन करके देश की धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया है, उसी प्रकार से इस ज्योति का सारे देश में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि एकजुट होकर स्वागत कर रहे हैं। इससे और अधिक धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण कहाँ मिल सकता है ? जैसा कि मैं पढ़ता और सुनता हूँ कि जैनधर्म सार्वभौम एवं प्राकृतिक धर्म है, वह प्राणिमात्र के हित का सिद्धान्त बतलाता है। वह आज मुझे प्रत्यक्ष देखकर अत्यंत प्रसन्नता होती है। इस अजमेर नगरी में ज्ञानज्योति के स्वागत हेतु उमड़ रहे विशाल जनसमुदाय का दिग्दर्शन मुझे गौरव का अनुभव करा रहा है कि हमारे राजस्थान में आज भी जनता का हृदय भक्ति से ओत-प्रोत है। मैं आज अपना अहोभाग्य समझता हूँ कि इस धर्मसभा में आकर मुझे आप लोगों के समक्ष अपने उद्गार व्यक्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी से परोक्ष रूप में यही आशीर्वाद चाहता हूँ कि मेरे हृदय में भी ज्ञान की ज्योति प्रस्फुरित होवे। श्री हीरालालजी देवपुरिया (राजस्थान के मंत्री) द्वारा समापन अवसर पर उद्गारअतिशय क्षेत्र श्री केशरियानाथ में ज्ञानज्योति के राजस्थान प्रांतीय समापन के अवसर पर श्री देवपुरियाजी पधारे और सभा को संबोधित करते हुए कहा ६ महीने से हमारे राजस्थान में जो चहल-पहल इस ज्ञानज्योति के कारण थी, आज उस रौनक को विदाई देते हुए मुझे दुःख भी हो रहा है। प्रधानमंत्रीजी के करकमलों से प्रवर्तन के पश्चात् यह ज्ञानज्योति सर्वप्रथम हमारे राजस्थान प्रान्त में पधारी थी। यहाँ की जनता ने पत्रम् पुष्पम् के रूप में जो भी स्वागत किया है, वह पर्याप्त तो नहीं रहा है, किन्तु हम लोगों ने अपने दिलों में जो ज्ञान की ज्योति जलाई है. उससे हमारे हृदय सदैव आलोकित रहेंगे। मैं ज्योति प्रवर्तन की केन्द्रीय समिति और राजस्थान प्रान्तीय समिति को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ कि आप लोगों ने हमारे प्रांत में अहिंसा धर्म का, नैतिकता का तथा चरित्रनिर्माण का जो महान् आयोजन किया, उससे जनता को अपूर्व लाभ मिला है तथा जम्बूद्वीप के पुराणगत इतिहास को समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की महानता का परिचय प्राप्त कर नारी की नारायणी शक्ति को जाना है। इस ज्योतिरथ के राजस्थान भ्रमण में व्यवस्थापकों को यदि किसी तरह का कष्ट हुआ हो. राजस्थान सरकार की ओर से स्वागत आदि में कोई न्यूनता रही हो, तो मैं उन सबके लिए आप लोगों से क्षमा चाहता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५७७ "तीरथ कर लो पुण्य कमा लो" (राजस्थान के पावन तीर्थक्षेत्र) १. तिजारा २. श्री महावीरजी ३. जयपुर खानिया (चूलगिरि) ४. मौजमाबाद ५. आमेर ६. सरवाड़ ७. बघेरा ८. बड़ागाँव ९. बिजौलिया १०. केशोरायपाटन ११. चांदखेड़ी १२. चित्तौड़ १३. अंदेश्वर पार्श्वनाथ १४. केशरियानाथ (अतिशय क्षेत्र) -उपर्युक्त-उपर्युक्त-उपर्युक्त- उपर्युक्त-उपर्युक्त-उपर्युक्त-उपर्युक्त(अतिशय क्षेत्र) -उपर्युक्त-उपर्युक्त(ऐतिहासिक तीर्थ) (अतिशय क्षेत्र) - उपर्युक्त राजस्थान यात्रा एक नजर मेंजयपुर संभाग, बागड़ एवं मेवाड़ इन तीन श्रेणियों में विभक्त राजस्थान प्रान्त में ज्ञानज्योति का प्रवास १६ जून, १९८२ से २० दिसम्बर तक (लगभग ६ महीने तक) रहा। इस मध्य आचार्यश्री धर्मसागरजी महाराज संघ आ० श्री देशभूषणजी महाराज ससंघ तथा अनेक मुनि आर्यिकाओं का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। चौदह तीर्थक्षेत्रों की पावन रज से ज्योतिरथ पवित्र हुआ। प्रदेशस्तरीय मंत्रियों तथा सरकारी अधिकारियों ने प्रधानमंत्री द्वारा प्रवर्तित ज्ञानज्योति का भावभीना स्वागत किया। सरकारी सुरक्षा विभाग का पूर्ण सहयोग रहा। सम्पूर्ण राजस्थान में सरकार की ओर से ज्ञानज्योति के साथ पुलिस की गाड़ियां चलीं; अतः कभी किसी प्रकार की जोखिम महसूस नहीं हुई। ज्ञानज्योति के प्रधानसंचालक पं. बाबूलालजी जमादार के अतिरिक्त प्रोफेसर श्री टीकमचंदजी, दिल्ली, पं. गणेशीलालजी साहित्याचार्य, हस्तिनापुर, सेठ श्री शांतिलालजी बड़जात्या, अजमेर, सेठ श्री धर्मचंदजी मोदी, ब्यावर आदि महानुभावों ने समय-समय पर ज्योति संचालन का भार वहन किया तथा ज्ञानज्योति के केन्द्रीय महामंत्री ब्र. मोतीचंदजी ने समस्त व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संभाला। इसी के साथ हस्तिनापुर केन्द्रीय कार्यालय से ब्र. रवीन्द्र कुमारजी ने प्रचारात्मक कार्यकलापों से राजस्थान प्रवर्तन को प्रभावक बनाया। सम्पूर्ण राजस्थान में ज्ञानज्योति की स्वागत श्रृंखला में कोटा शहर का प्रथम स्थान रहा, जहाँ डेढ़ सौ तोरण द्वारों में से ज्योतिरथ को प्रवेश कराकर सारे नगर में घुमाया गया था। इसी प्रकार से अर्थांजलि प्रदान करने में आनन्दपुरकालू का प्रथम स्थान रहा। यहाँ पर साधुओं के प्रति भी अनन्य श्रद्धा भक्ति है। इसीलिए पाली जिले का यह छोटा-सा गाँव अपने आप में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लेखनीय हो गया है। राजस्थान के प्रान्तीय कार्यालय को अजमेर निवासी श्री शांतिलालजी बड़जात्या ने अथक परिश्रमपूर्वक संभालकर राजस्थान प्रवास को विशेष प्रभावपूर्ण बनाया था। अजमेर जिले के दादिया नामक एक ग्राम में जब ज्ञानज्योति रथ पहुँचा तो मंदिर के शिखर के कलश पर एक मयूर नाचता दिखाई दिया। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहाँ विगत सौ वर्षों से प्रतिदिन एक मयूर शिखर के कलश आनंदपुर कालू (राज.) में ज्ञानज्योति रथ पर आसीन इन्द्र-इन्द्राणी।' पर आकर बैठा रहता है. यहाँ की यही विशेषता है। RAND Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ६ महीने में ३५० ग्रामों में अपनी प्रभा फैलाती हुई ज्ञानज्योति ने अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के अतिरिक्त भी अनेक भाक्तिक नगरों एवं श्रावकों के द्वारा प्रदत्त सम्मान को स्वीकार किया। कहीं-कहीं तो बीच में ही लोग ज्योतिरथ को रोककर खड़े हो जाते और व्यवस्थापकों को उनके आग्रह पर उनकी भावनानुसार ज्ञानज्योति का महत्त्व, प्रवर्तन की योजना आदि के बारे में बताना पड़ता। उनकी अतिरिक्त भक्तिभावना बरबस ही सबके हृदयों को आकर्षित कर लेती थी। __अगस्त और सितम्बर में राजस्थान के ५-७ स्थानों पर ज्ञानज्योति का प्रत्यक्ष चमत्कार देखने को मिला। जब ज्योतिरथ का जुलूस गाँव में निकल रहा होता या नगर में प्रवेश के समय पूरे नगर में बरसात देखी जाती, वितु जितनी दूर तक ज्योतिरथ और उसका जुलूस रहता, उतनी दूर एक बूंद भी पानी की नहीं रहती थी, बल्कि कुछ दूर आगे-पीछे की बरसात से जुलूस का आनन्द अधिक वृद्धिंगत हो जाता था। लोगों ने इसे जम्बूद्वीप रचना की पूज्यता का प्रभाव एवं पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के तपःपूत आशीर्वाद का ही फल माना था। विभिन्न समारोह एवं अतिशयों के साथ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का भ्रमण अति संक्षिप्त रूप में यहाँ लेखनीबद्ध किया गया है, इसी में सम्पूर्ण राजस्थान का भावभीना स्वागत अन्तर्निहित है। अन्त में राजस्थान की कतिपय झलकियों को प्रस्तुत करता है-एक लघु भजन । भजन तर्ज : जैनधरम के हीरे मोती . . . . राजस्थान का भाग्य जग गया, जहाँ ज्ञान की ज्योति जली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ टेक ॥ अतिशयक्षेत्र तिजारा से मंगलप्रवेश था हुआ कभी। जयपुर महानगर भी देख रहा स्वागत की श्रेष्ठ घड़ी। श्री आचार्यरत्न के आशीर्वादों की जहाँ लहर चली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ १ ॥ कोटा हो अजमेर या बूंदी, महावीरजी तीर्थ महा। ज्ञानज्योति रथ वीर प्रभू के संदेशों को सुना रहा ॥ श्रद्धा भक्ती की अजस्रधारा जनता के बीच चली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ २ ॥ बागड़ लोहारिया ग्राम में ज्ञानज्योति का नाम हुआ। श्री आचार्य धर्मसागरजी ने मंगल आशीष दिया | ज्ञानमती की ज्ञानज्योति में संघ चला था गली गली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ ३ ॥ नहीं बचा मेवाड़ प्रान्त भी उसको नया प्रकाश मिला। नेता भी सौभाग्य मानकर, आए निज मन कमल खिला ॥ केशरिया के नाथ प्रभू के पास समापन ज्योति जली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ ४ ॥ कहाँ हस्तिनापुर नगरी कैसी है जम्बूद्वीप कला। गणिनी ज्ञानमती माता ने इसीलिए रथ दिया चला ॥ चार जून को दिल्ली से, "चन्दनामती" यह ज्योति जली। स्वागत अभिनन्दन बेला में, धूम मची थी गली गली ॥ ५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५७९ ज्ञानज्योति स्वागत सभा रामगंज मंडी (राज.) में भूतपूर्व अध्यक्ष (दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान) ज्योति संचालक का स्वागत करते हुए ब्यावर (राज.) में श्री धर्मचंद जी मोदी। मदनलाल जी चांदवाड़ एवं अन्य विशिष्ट अतिथिगण। राजस्थान के वे नगर जहाँ-जहाँ ज्योतिरथ का प्रवर्तन हुआ १. तिजारा (अलवर), २. फिरोजपुर (अलवर), ३. नौगाँव (अलवर), ४. रामगढ़ (अलवर), ५. अलवर, ६. खेरली (भरतपुर), ७. भरतपुर, ८. धौलपुर, ९. करोली (सवाई-माधोपुर), १०. महावीरजी, ११. हिण्डौन (महावीरजी), १२. महुआ (महावीरजी), १३. सिकन्दरा (जयपुर), १४. बांदीकुई (जयपुर), १५. दौसा (जयपुर), १६. लालसोट (जयपुर), १७. गंगापुर (सवाई माधोपुर), १८. बोली (सवाई माधोपुर), १९. सवाई माधोपुर, २०. चौथ का बखाड़ा (सवाई-माधोपुर), २१. अलीगढ़ (टोंक), २२. उनियारा (टोंक), २३. ककोड़ (टोंक), २४. बनेठा (टोंक), २५. पीपलू (टोंक), २६. लावा (टोंक), २७. डिगी (टोंक), २८. मालपुरा (टोंक), २९. टोडारायसिंह (टोंक), ३०. मेंदवास (टोंक), ३१. देवली (टोंक), ३२. निवाई (टोंक), ३३. चाकसू (जयपुर), ३४. पदमपुरा (जयपुर), ३५. शिवदासपुरा (जयपुर), ३६. सांगानेर (जयपुर), ३७. जयपुर, ३८. विश्राम (जयपुर), ३९. बगरू (जयपुर), ४०. दूदू (जयपुर), ४१. मौजाद (जयपुर), ४२. फागी (जयपुर), ४३. माधोराजपुरा (जयपुर), ४४. माजीकारेनवाल (जयपुर), ४५. पचेवर (टोंक), ४६. नरेणा (जयपुर), ४७. साम्भर (जयपुर), ४८. फुलेरा (जयपुर), ४९. जोबनेर (जयपुर), ५०. किशनगढ़ रेनवाल (जयपुर), ५१. खाचरियावास (जयपुर), ५२. पचार (जयपुर), ५३. सुरेरामढ़ा (नागौर), ५४. मारोठ (नागौर), ५५. लूणवा (नागौर), ५६. नावां (नागौर), ५७. कुचामन (नागौर), ५८. पांचवा (नागौर), ५९. कुकनवाली (नागौर), ६०. चितावा (नागौर), ६१. अकसर (नागौर), ६२. लालास (सीकर), ६३. दाता (सीकर), ६४. रायगढ़ (सीकर), ६५. कुली (सीकर), ६६. बाय (सीकर), ६७. खाटू (सीकर), ६८. चौमू (सीकर), ६९. रींगस (सीकर), ७०. सीकर, ७१. लक्ष्मणगढ़ (सीकर), ७२. फतेहपुर (सीकर), ७३. रामगढ़ (सीकर), ७४. बीसव (सीकर),७५. चूरू, ७६. रतनगढ़ (चूरू),७७. सुजानगढ़ (चूरू),७८. लाडनू (नागौर), ७९. डेह (नागौर),८०. नागौर, ८१. मेड़तासिटी (नागौर), ८२. मेड़तारोड (नागौर), ८३. जोधपुर (जयपुर), ८४. आबू (सिरोही), ८५. पाली, ८६. कालू (पाली), ८७. बलून्दा (पाली), ८८. निमाज (पाली), ८९. ब्यावर (अजमेर), ९०. पीसांगन (अजमेर), ९१. जेठानामांगलियावास (अजमेर), ९२. अजमेर, ९३. ऊंटड़ा (अजमेर), ९४. कुचील (अजमेर), ९५. रूपनगढ़ (अजमेर), ९६. किशनगढ़ (अजमेर), ९७. अरांई (अजमेर), ९८. छोटालांबा (अजमेर) ९९. दादिया (अजमेर), १००. मोराझड़ी (अजमेर), १०१. सनोद (अजमेर), १०२. जराठू (अजमेर), १०३. नसीराबाद (अजमेर), १०४. सरवाड़ (अजमेर), १०५. केकड़ी (अजमेर), १०६. जूनियां (अजमेर), १०७. बघेरा (अजमेर), १०८. सावर (अजमेर), १०९. चांपानेरी, ११०. विजयनगर, १११. बड़ागाँव, ११२. गुलाबपुरा, ११३. राज्ययस, ११४. अरडियाघोड़ा, ११५. कोठिया, ११६. शाहपुरा, ११७. पण्डेर एवं खजूरी, ११८. जहाजपुर, ११९. पारौली, १२०. रौंपा, १२१. सरस्या, १२२. कोटडी, १२३. भीलवाड़ा, १२४. माडलगढ़ (पं. आशाधरजी की कर्मभूमि जहाँ उन्होंने सागारधर्मामृत लिखा), १२५. बिजौलिया, १२६. बूंदी, १२७. अलोद, १२८. नैनवा, १२९. लाखेरी, १३०. इन्द्रगढ़, १३१. करवर, १३२. कारपेन, १३३. केशोरायपाटन, १३४. तालेड़ा, १३५. कोटा, १३६. इटावा, १३७. अयना, १३८. बारा, १३९. छीपा बड़ोद, १४०. छबड़ा, १४१. कैथुन, १४२. सांगोद, १४३. रामगंज मंडी, १४४. झालावाड़, १४५. चांदखेड़ी, १४६. सारोला, १४७. झालरापाटन, १४८. पिड़ावा, १४९. भवानी मंडी, १५०. सिंगोली (म.प्र.), १५१. चित्तौड़, १५२. निम्बाहेड़ा, १५३. प्रतापगढ़, १५४. खमेरा,.१५५. घाटोल, १५६. बांसवाड़ा, १५७. खान्दू, १५८. बड़ोदिया, १५९. कलिंजरा, १६०. बागीदौरा, १६१. नौगामा, १६२. कुशलगढ़, १६३. अंदेश्वर, १६४. तलवाड़ा, १६५. परतापुर, १६६. लोहारिया, १६७. गढ़ी, १६८. बोरो, १६९. आंजना, १७०. अरथूना, १७१. डडूका, १७२. भीमपुर, १७३. चंदूजी का गढ़ा, १७४. साबला, १७५. रीछा, १७६. निठाउआ, १७७. गामडी, १७८. मुंगेड, १७९. आसपुर, १८०. रामगढ़, १८१. हथाई, १८२. सागवाड़ा, १८३. भीलूड़ा, १८४. चिरवली, १८५. पीठ, १८६.डूंगरपुर, १८७. सालाशाहठाणा, १८८. कनवा, १८९. ओबरी, १९०. सदौदा, १९१. सलूम्बर, १९२. झलारा, १९३. खूता, १९४. धरियावद, १९५. मुंगाना, १९६. पारसोला, १९७. कुण, १९८. कानोद, १९९. लूणदा, २००. भिण्डर, २०१. मोड़ी, २०२. बाठेड़ा, २०३. गुडली, २०४. जगत, २०५. गींगला, २०६. करावली, २०७. बड़गांव, २०८. सलाड़ा, २०९. झाडौल, २१०. ठाणा, २११. सगतड़ा, २१२. केजड़, २१३. पिलादर, २१४. देवपुरा, २१५. चावंड, २१६. सराड़ा, २१७. सेमारी, २१८. रठौड़ा, २१९. ठोकर, २२०. कल्याणपुर, २२१. नयागांव, २२२. छाणी, २२३. भावन्दा, २२४. बाबलवाड़ा, २२५. खेरवाड़ा, २२६. परसाद, २२७. उदयपुर, २२८. केशरियानाथजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ ज्ञानज्योति की बंगाल यात्रा २८ जनवरी, १९८३ को बंगाल के आसनसोल नगर से ज्ञानज्योति की बंगाल यात्रा प्रारंभ हुई, जो २८ फरवरी तक एक माह में सम्पन्न हुई। इस यात्रा के दौरान कतिपय स्थानों की स्वागत झलकियां प्रस्तुत हैं "बंगला देश कथा इतिहासों में पाई जाती है। ज्ञानज्योति स्वागत यात्रा भी उसमें जुड़ जाती है।" रानीगंज में ज्योति पदार्पण३० जनवरी को ज्ञानज्योति का मंगल पदार्पण रानीगंज में हुआ। यह बंगाल यात्रा वाणीभूषण पं. बाबूलालजी जमादार के संचालन में प्रारंभ हुई तथा श्री धर्मचंदजी मोदी ब्यावर वालों ने भी अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया। यहाँ पर एक स्वागत सभा का आयोजन हुआ, जिसमें स्थानीय नगरपालिका के उपाध्यक्ष “श्री शम्भूनाथ मण्डल" ने बंगला भाषा में अपने उद्गार व्यक्त किए। पं. बाबूलालजी एवं मोदीजी के ओजस्वी भाषण हुए। जिनके द्वारा जनता को जम्बूद्वीप और ज्ञानज्योति के बारे में विशद् ज्ञान प्राप्त हुआ। समस्त जैन-अजैन जनता ने उस बिजली फौव्वारों से युक्त जम्बूद्वीप मॉडल का दर्शन किया तथा श्रद्धा भक्तिपूर्वक मंगल आरती उतारकर ज्योतिरथ का स्वागत किया। बैंड, बाजों एवं संगीत की धुनों में ज्योतिरथ का जुलूस पूरे नगर में निकला, जो सभी के आकर्षण का केन्द्र था। रानीगंज के अतिरिक्त कलकत्ता तथा आस-पास के गाँवों के व्यक्ति भी इस कार्यक्रम में पधारे। पुरलिया में भी ज्योति जलीपश्चिम बंगाल के इतिहास में प्रथम बार इन छोटे-छोटे गांवों में इस प्रकार के मंगल आयोजन संजोए गए थे। इसी श्रृंखला में ३१ जनवरी को पुरलिया में भी ज्योतिरथ का पदार्पण हुआ। __ वहाँ श्री रवीन्द्र भवन में सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में वहाँ के एस.पी. श्री अग्रवाल साहब पधारे। सभा में पं. बाबूलाल जमादारजी का सारगर्भित वक्तव्य सभी ने सुना। वैसे बंगाल की अजैन जनता प्रायः मांसाहारी है, अतः अहिंसा धर्म पर वहाँ विशेष रूप से भाषण होते थे। जिससे प्रभावित होकर प्रत्येक नगर में सैकड़ों नर-नारी मांसाहार का त्याग करते थे। पुरलिया में भी पंडितजी के भाषण सुनने के बाद कितने ही स्त्री-पुरुषों ने आजन्म और कई, लोगों ने कुछ समय तक के लिए मांसाहार और मद्यपान का त्याग किया। मैं समझती हूँ कि वास्तविक ज्योति तो उन्हीं के हृदय में जली थी, जो बेचारे अब तक धर्मज्ञान से शून्य एवं भक्ष्याभक्ष्य के विवेक से रहित थे। इस त्यागमय दृश्य से एस.पी. महोदय बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने अपने ओजस्वी वक्तव्य में जैनधर्म को प्राणिमात्र का कल्याणकारी धर्म बताया तथा अहिंसा के बल पर ही हमारे देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, इस बात पर बल दिया। यहाँ पर शोभायात्रा का दृश्य भी बड़ा प्रभावक रहा। हजारों नर-नारियों ने ज्ञानज्योति का दर्शन कर धर्म लाभ प्राप्त किया। जुलूस का समापन स्टेडियम पर हुआ। खड़गपुर में ज्ञान का खड्ग लेकर आई ज्ञानज्योतिज्ञानरूपी खड्ग-तलवार से ही अज्ञानरूपी शत्रुओं को पराजित किया है अनन्त महापुरुषों ने। उन्हीं का संदेश प्रसारित करने हेतु श्री ज्ञानमती माताजी ने ज्ञानज्योति का प्रवर्तन प्रारंभ किया था। अतः खड्गपुर में २ फरवरी, १९८३ को जो ज्ञान का प्रचार हुआ, वह वचनों के द्वारा अकथनीय है। मात्र सभा आयोजित कर लेने या शोभायात्रा निकाल लेने में ही बंगाल की जनता तृप्त नहीं थी, बल्कि वह ज्ञान का अमृत पीने हेतु लालायित हो उठी थी। अपने पिछले गाँवों में ज्योति का महत्त्वपूर्ण स्वागत और प्रचार सुन-सुनकर अगले गाँव की ज्ञानपिपासा और भी अधिक बढ़ जाती थी। पहा की शोभायात्रा में भारी उत्साह था। अनेक स्थानों पर ज्योतिरथ की आरती उतारी गई, रात्रि में विशाल जनसभा हुई, जिसमें वक्ताओं के ओजस्वी भाषण हुए। कोलाघाट३ फरवरी को ज्ञानज्योति कोलाघाट पहुँची। यहाँ ज्योति आगमन से लोगों में विशेष उत्साहपूर्ण वातावरण का निर्माण हो गया था। सभी नर-नारी ज्योति के स्वागत हेतु प्रातःकाल से ही तत्पर थे। उनके चिरपिपासु नेत्रों ने उस ज्ञानज्योति के दर्शन कर नेत्रों को धन्य-धन्य माना और तभी उनके मुख से निलल पड़ा, भक्ति का स्रोत उमड़ पड़ा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५८१ "अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देवत्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन ।' भक्तों के इन शब्दों में यह भाव छिपा था कि "कब हमें असली, अकृत्रिम जम्बूद्वीप एवं सुमेरु पर्वत के दर्शन प्राप्त होंगे।" कई भावविह्वल महानुभाव हर्षाश्रु छलकाते हुए हाथ जोड़-जोड़ कर कह रहे थे हे माता ज्ञानमती जी! जैसे आपने हम लोगों को जम्बूद्वीप के इस मॉडल के दर्शन कराए हैं, वैसे ही एक दिन असली जम्बूद्वीप भी दिखा देना। हम आपका उपकार अनन्त जन्मों में भी नहीं भूलेंगे। जहाँ श्री ज्ञानमती माताजी की जय-जयकारों से सारा नगर गुंजायमान हो रहा था, वहीं ज्ञानज्योति के विद्युत् प्रकाश एवं फौव्वारों से कोलाघाट की गली-गली आलोकित हो रही थी। ज्योति का स्वागत बंगाल विधान सभा के सदस्य श्री संदेश रंजन मांझी ने किया। उन्होंने रात्रि में अपने वक्तव्य में कहा कि "बंगाल की जनता का यह परम सौभाग्य है कि ज्ञानमती माताजी ने हमारे प्रदेश में ज्योति यात्रा का समय प्रदान किया है। यह सामाजिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता तथा प्रेम का संदेश लेकर सारे देश में भ्रमण कर रही है। आज से पहले मैंने बंगाल की जनता में किसी धार्मिक आयोजन के प्रति इतनी भावना कभी नहीं देखी थी। मुझे विश्वास है कि यह ज्योति जहाँ-जहाँ जाएगी, मानवमात्र को एक सूत्र में बाँधकर जातीय एकता स्थापित करेगी। यहाँ के प्रसिद्ध कार्यकर्ता श्री विजय कुमार जैन का विशेष सहयोग रहा। बंगाल यात्रा की श्रृंखला में दिनांक ९ फरवरी, १९८३ को जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का खगड़ा कासिम बाजार में पदार्पण हुआ, जहाँ समाज ने भरपूर स्वागत किया। जैसा कि प्रत्येक स्थान पर ज्योतिरथ में बैठने वालों की बोलियां चलती थीं, यहाँ भी उसी क्रम में उत्साहपूर्वक इन्द्र-इन्द्राणियों की बोलियां हुईं। रथ में उन्हें बिठाकर पूरे नगर में अपार जनसमूह के साथ जुलूस निकाला गया। बंगला भाषा में ज्योति की महत्ता बताने वाले पम्फलेट नगर भर में बांटे गए। यहाँ इसी शुभ अवसर पर श्री गुलाब चंद ठोलिया ने अपनी स्व. धर्मपत्नी गौरा देवी की पुण्य स्मृति में स्थानीय धर्मशाला में एक कमरा तथा कुआँ बनाने के लिए सोलह हजार रुपये की राशि समाज को भेंट की। कलकत्ता महानगरी में विशाल जुलूस द्वारा ज्ञानज्योति का स्वागत कलकत्ता (प. बंगाल) ज्ञानज्योति के प्रथम स्वागतकर्ता श्री मिश्रीलाल जी काला, साथ में कलकत्ते में ज्योतिरथ पर बैठे इन्द्र-इन्द्राणी। सुपुत्र गणपतराय जी काला एवं श्री अमरचंद जी पहाड़िया। यह कलकत्ता नगरी पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आदर्शों, उपदेशों एवं सिंहवृत्ति से चिरपरिचित था। क्योंकि सन् १९६३ में यहाँ उन्होंने स्वयं पधारकर जिस जीवन्त ज्योति को जलाया था, वह अभी तक जनमानस के अन्तस् में जल रही थी। सभी के मन में पूज्य माताजी के उस ऐतिहासिक चातुर्मास की झलकियाँ बिल्कुल ताजी हो गईं, मानो ज्ञानज्योति के बहाने उन्होंने अपनी ज्ञानमती माताजी को ही पा लिया था। एक दिन पूर्व से ही वहाँ (१२ फरवरी को) ज्ञानज्योति के स्वागत में "मैना सुन्दरी नृत्यनाटिका" का आयोजन रात्रि में हुआ। श्री दिगम्बर जैन बालिका विद्यालय की बालिकाओं द्वारा श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर में यह नाटिका प्रस्तुत की गई, उस समय वहाँ का स्थान भी अपर्याप्त प्रतीत हुआ। सुन्दर नाटिका को जनता ने खूब सराहा। १३ फरवरी को दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर में ही एक स्वागत सभा का आयोजन हुआ, जिसमें प्रो. कल्याणमल लोढ़ा, ब. मोतीचंद शास्त्री, श्री धर्मचंद मोदी ने जम्बूद्वीप रचना व ज्ञानज्योति के महत्त्व पर प्रकाश डाला। इसके पश्चात् श्री सत्यनारायण बजाज, त्रिलोकचंदजी डांगा, श्री हिम्मतसिंह जैन व श्री धन्नालाल काला आदि के भी भाषण हुए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ स्वागताध्यक्ष श्री अमरचंद पहाड़िया ने अपने स्वागत भाषण में पूर्व स्मृतियों को बताते हुए कहा पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी वास्तव में हमारी समाज की एक महान् विभूति हैं। उन्हें देखकर आज भी आ. श्री शांतिसागर और चन्द्रसागरजी की सिंहवृत्ति स्मृति में आ जाती है। कलकत्ता चातुर्मास में हम लोगों ने माताजी का उच्च ज्ञान, अनुशासनबद्धता, सतत् पठन-पाठन, प्रवचन की अपूर्वकला आदि गुण प्रत्यक्ष में देखे हैं। उस चातुर्मास जैसी धर्मप्रभावना इस नगरी में पहले कभी भी मैंने नहीं देखी। इत्यादि .....।" इस स्वागत सभा के पश्चात् विशाल जुलूस निकाला गया, जो कलकत्ते के मुख्य बाजारों से निकला। जुलूस में विभिन्न झांकियां विशेष आकर्षण का केन्द्र थीं। विभिन्न मार्गों में जुलूस का आरती एवं पुष्पवर्षा द्वारा जनता ने स्वागत किया। यहाँ पर प्रथम स्वागतकर्ता श्री मिश्रीलाल काला थे। जियागंज-"जैसे सूर्य किरणों के उगते ही समस्त संसार का अंधकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान सूर्य के उदित होते ही अज्ञान अंधकार स्वयमेव पलायित हो जाता है।" ज्ञानज्योति भगवान् महावीर की सच्ची, अनेकान्तमयी वाणी के द्वारा मानव हृदयों में ज्ञान का प्रकाश फैलाती हुई पश्चिम बंगाल में भ्रमण कर रही थी। दिनांक १४ फरवरी को कलकत्ते से वह ज्योतियात्रा जियागंज में पहुँच गई, जहाँ जनता ने तन-मन-धन से उसका स्वागत किया। ब्र. मोतीचंदजी ने अपने वक्तव्य में जनता को संबोधित करते हुए कहा कि "जिस मॉडल को आप इस ज्योतिरथ पर देख रहे हैं, उसका नाम है जम्बूद्वीप। जम्बूद्वीप इस पृथ्वी मंडल का ही नक्शा है, जहाँ हम और आप रहते हैं। अभी तक इसके बारे में किसी विद्वान् ने खोज नहीं की थी। वर्तमान में पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने बड़े-बड़े ग्रंथों का अध्ययन करके जम्बूद्वीप रचना को हस्तिनापुर की पृथ्वी पर साकार करने का संकल्प संजोया है, ताकि विज्ञान की दृष्टि भी अप्राप्त ब्रह्माण्ड की खोज में अग्रसर होवे . . . . . इत्यादि।" रात्रि में विद्युत् प्रकाश एवं फौव्वारों से सुसज्जित ज्ञानज्योति को हजारों नर-नारियों ने देखकर अभूतपूर्व आनन्द प्राप्त किया। लालगोला में स्वागतदिनांक १५ फरवरी को जिला मुर्शिदाबाद के लालगोला नामक ग्राम में पलक पांवड़े बिछाकर जनता ज्ञानज्योति का इंतजार कर रही थी, उसका यह उत्साह अपूर्व धार्मिक भावना का परिचय दे रहा था। काफी दूर से ही ज्योति रथ को गाजे-बाजे के साथ मंदिर तक लाया गया। मध्याह्न ३ बजे स्वागत सभा के पश्चात् जुलूस निकाला गया। रात्रि में भी विद्वानों के प्रवचन हुए। ज्ञानज्योति अपने तेज पुंज के द्वारा बंगाल प्रदेश के नगर-नगर को आलोकित करती हुई २८ फरवरी तक बंगाल प्रान्त में घूमी। इस एक माह के अन्तराल में लगभग ४० नगरों में स्वागत सभाएं आयोजित हुई, विशाल जुलूस निकाले गये तथा जहाँ जनता में नैतिकता और चरित्र निर्माण के भाव जाग्रत हुए, वहीं जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर, ज्ञानमती माताजी के विषय में भी विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। पश्चिम बंगाल के इस प्रवास में किसी भी साधु-साध्वी का सानिध्य नहीं प्राप्त हुआ, किन्तु अहिंसा और शाकाहार के विस्तृत प्रचार से जो वहाँ की जनता ने त्याग का परिचय दिया, वह अविस्मरणीय है। इसके पश्चात् ज्ञानज्योति बिहार प्रान्त के लिए रवाना हो गई। संगम सब जैनधर्म की जय बोलो, शुभ जम्बूद्वीप बनाया है। शोध इतिहास पुराण कई, माँ ज्ञानमती की सूझ नई। भूगोल, खगोल प्रकरती का, यों भेद साफ समझाया है। . . . . सब सागर सुमेरु वन निर्झर है कई मंदिर कई तीर्थंकर हैं। यह रचना क्या है संगम है बिन्दु में सिन्धु समाया है। . . . . सब यह जैन संस्कृति दिग्दर्शक यह प्रतिनिधि है, यह संरक्षक। दर्शन, सिद्धान्त, मान्यता मत, अति श्रद्धा सहित बताया है। . . . . सब है बना, कल्पना तर्क सहित दर्शक का हर दृष्टि से हित । यो स्वर्ग धरा पर उतर गया वह परमानन्द वर्षाया है। . . . . सब -त्रिलोक गोया Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५८३ बंगाल के वे नगर जो ज्ञानज्योति की दिव्य प्रभा से आलोकित हुए [२९ जनवरी, १९८३ से २८ फरवरी, १९८३ तक] १. आसनसोल, २. दुहमुहानी, ३. पूचड़ा, ४. मिहिजाम, ५. रानीगंज, ६. दुर्गापुर, ७. पुरलिया, ८. खड़गपुर, ९. बेलदा, १०. कोलाघाट, ११. बंडिल, १२. बाली उत्तरपाड़ा, १३. कलकत्ता, १४. शांतिपुर, १५. कृष्णनगर, १६. बेल्डांगा, १७. खगड़ा, १८. बरहमपुर, १९. कासिम बाजार, २०. जियागंज, २१. लालगोला, २२. सन्मति नगर, २३. जंगीपुर, २४. अडंगाबाद, २५. मिर्जापुर, २६. धूलियान, २७. पाकुड़, २८. रायगंज, २९. कालियागंज, ३०. कानकी, ३१. दलखोला, ३२. किशनगंज, ३३. ठाकुरगंज, ३४. फारबिसगंज, ३५. इस्लामपुर, ३६. सिलिगुड़ी, ३७. कूचविहार, ३८. दीनहटा। बिहार प्रान्त में ज्ञानज्योति जहाँ अनन्तों तीर्थंकर ने सिद्धधाम पाया है। सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर सिरमौर तीर्थ गाया है। उस बिहार प्रान्त ने पावनता का ध्वज लहराया। ज्ञानज्योति यात्रा ने जिसका अन्तस अलख जगाया । भागलपुर से चला ज्योतिरथअपनी बंगाल यात्रा को पूर्ण करके जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का बिहार प्रान्त के प्रसिद्ध नगर भागलपुर में २ मार्च, १९८३ को मंगल पदार्पण हुआ। सिद्धक्षेत्र चंपापुर की छत्रछाया में बसा यह नगर स्वयमेव पवित्रता को प्राप्त है। ज्ञानज्योति ने वहाँ ज्ञान का अलख जगाकर उसे अपनी सौभाग्यशीलता का पुनः स्मरण करा दिया था। विशाल संख्या में उपस्थित जनसमुदाय ने ज्ञानज्योति की मंगल अगवानी की। भागलपुर के धर्मनिष्ठ कार्यकर्ताओं ने अपना नेतृत्व प्रदान कर कार्यक्रम को सफल बनाया। वाणीभूषण पं. बाबूलालजी जमादार एवं ब्र. मोतीचंदजी ने बिहार प्रान्त के प्रारंभ में ज्ञानज्योति को अपना कुशल संचालन प्रदान किया। भागलपुर की स्वागत सभा में इन लोगों के ओजस्वी प्रवचन हुए। पंडितजी ने अपने भाषण में बताया ___"जिन गंगा, सिंधु नदियों, हिमवान् आदि पर्वतों तथा भरत ऐरावत आदि क्षेत्रों का वर्णन आप तत्त्वार्थसूत्र में पढ़ते हैं, उन सबका ही अब साकार रूप हस्तिनापुर में निर्मित हो रहा है।" बिजली फौव्वारों से सहित उस अभूतपूर्व रचना को देखकर सारे देश की दृष्टियां हस्तिनापुर की ओर केन्द्रित होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। पंडितजी ने इटली से प्रकाशित "जैन कास्मोलॉजी' नामक दीर्घकाय पुस्तक को दिखाते हुए कहा कि आज विदेशों में हमारे धर्मग्रंथों पर रिचर्स हो रही है और हम अपनी संस्कृति को भूल रहे हैं। इसीलिए पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने हम लोगों को जम्बूद्वीप का विषय विभिन्न धर्मग्रंथों से खोजकर प्रदान किया है। उन्हें भी यह विषय श्रवणबेलगोला में बाहुबली भगवान् के चरणसानिध्य में ध्यान के बल पर प्राप्त हुआ था। लोग मुझसे पूछते हैं कि जम्बूद्वीप की प्रेरणास्रोत ज्ञानमती माताजी कैसी होंगी? मैं सबसे बड़ी पहचान उनकी यही बताता हूँ कि हस्तिनापुर पहुँचने पर जिनके हाथ की लेखनी सदैव चलती रहती हो, वे ही समझो ज्ञानमती माताजी हैं . . . . . इत्यादि। २ मार्च से २३ मार्च तक पं. जमादारजी एवं ब्र. मोतीचंदजी ने ज्योतिरथ का संचालन किया, उसके पश्चात् ब्र. रवीन्द्र कुमारजी एवं मालती शास्त्री ने बिहार प्रान्त में पहुँचकर अपने प्रवचनों से नगर-नगर में हजारों जन समुदाय को लाभान्वित किया। इस मध्य ४ मार्च को भगवान् वासुपूज्य की निर्वाणभूमि "चंपापुर" में ज्ञानज्योति का स्वागत हुआ। इस सिद्धक्षेत्र को “नाथनगर" के नाम से भी जाना जाता है। तीर्थकर महावीर के वास्तविक देशना स्थल पर ज्ञानज्योतिराजगही के विपुलाचल पर्वत पर भगवान् महावीर ने महाराजा श्रेणिक के ६० हजार प्रश्नों के उत्तर अपनी दिव्यध्वनि ने अन्तर्गत प्रदान किये थे। ८ मार्च को ज्ञानज्योति का पदार्पण यहाँ हुआ, तीर्थक्षेत्र की ओर से रथ का यथोचित सम्मान हुआ। यहाँ की नवीन संस्था "वीरायतन" (श्वेताम्बर सम्प्रदाय की संस्था) में भी रथ का पदार्पण हुआ। वहाँ "उपाध्याय अमरमुनि एवं साध्वी चन्दनाजी" ने प्रसन्नतापूर्वक ज्योतिवाहन का अवलोकन किया तथा वहाँ के कार्यकर्ताओं ने आरती उतारकर रथ का स्वागत किया। ___राजगृही'' बिहार प्रदेश का प्रसिद्ध तीर्थधाम है। यहाँ जैन, बौद्ध, हिन्दू, मुसलमान आदि सभी संप्रदाय अपनी श्रद्धा के अनुसार तीर्थ के रूप में इसकी उपासना करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ ] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ यहाँ की पवित्र वंदना के पश्चात् छोटे-बड़े कस्बों का स्वागत स्वीकार करती हुई ज्ञानज्योति का पटना सिटी, आरा, गया, चौपारन, रांची, डाल्टेनगंज, गोमिया, साइम आदि स्थानों पर पदार्पण हुआ। पुनः "फुसरों" नामक ग्राम का स्वागत विशेष स्मरणीय है। उत्साह का अनुकरणीय आदर्श दिनांक २५ मार्च को फुसरो के एक मात्र निवासी श्री मोतीरामजी जैन के पुत्र द्वय (श्रीपालजी एवं श्यामसुंदरजी) के विशेष आग्रह पर ज्योतिरथ का वहाँ मंगल आगमन हुआ। वहाँ बड़े उत्साहपूर्वक उन लोगों ने आरती करके ज्ञानज्योतिरथ का स्वागत किया तथा हस्तिनापुर में बन रही जम्बूद्वीप रचना के लिए दो देवभवनों की निर्माण राशि प्रदान की । इस ज्योति यात्रा के मध्य ऐसे अनेक स्थान आए, जहाँ का प्रोग्राम न होते हुए भी नगर निवासियों के आग्रह विशेष से अत्यल्प समय में भी उनका आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा है, फिर भी समयाभाव के कारण बिहार प्रान्त में भी अनेक गाँव छूट गये थे। अतः वहाँ के नर-नारियों ने आस-पास के शहरों में पहुँच कर अपनी श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया था । अनादि सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर की पावन रज से पवित्र हुई ज्योति २५ मार्च की सायंकाल मधुवन में ज्ञानज्योति का आगमन हुआ। होली के समय इस सिद्धक्षेत्र पर विशेष भीड़-भाड़ हुआ करती है। ज्योतिरथ पदार्पण के समय भी होली का मौसम चल रहा था, अतः बिहार प्रान्त के कार्यकर्ताओं ने रथ को वहाँ पर ६ दिन रोकने का कार्यक्रम बनाया। उस समय सम्मेदशिखरजी में परमपूज्य आचार्य श्री सुबलसागर महाराज ससंघ, पूज्य आर्यिका श्री इन्दुमती माताजी ससंघ तथा आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ससंघ विराजमान थीं । २९ मार्च को प्रमुख शोभायात्रा निकाली गई एवं आचार्य श्री सुबलसागर महाराज ने शोभायात्रा के बाद अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान करते हुए पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के चतुर्मुखी कार्यकलापों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस सम्मेदशिखर पर्वत पर जाकर अनादिकाल से अनन्त तीर्थंकरों एवं असंख्य मुनियों ने मोक्षधाम प्राप्त किया है तथा आगे भी अनन्तकाल तक जम्बूद्वीप भरतक्षेत्र में जन्म लेने वाले समस्त तीर्थकर वहाँ से ही मोक्ष प्राप्त करेंगे, इसीलिए इसे "शाश्वत सिद्धक्षेत्र" कहा जाता है। यहाँ का कण-कण पवित्र माना जाता है, इसी पवित्रता की गंगा में ज्ञानज्योति भी सचमुच पावन हो गई थी । देवघर के देवता भी जाग उठे देवघर (बैजनाथधाम ) हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ है। यहाँ एक विशाल दि. जैन मंदिर का उस समय निर्माण चल रहा था, अब तक वह सम्पन्न हो चुका होगा। स्वर्गीय आचार्य श्री ज्ञानसागर महाराज के गृहस्थावस्था के भतीजे श्री ताराचंद जैन यहाँ के उत्साही कार्यकर्ता थे। उन्होंने ज्ञानज्योति के स्वागत हेतु सुन्दर कार्यक्रम आयोजित किया, स्वागत हेतु वहाँ के चेयरमैन श्री प्रणवकुमारजी सिन्हा उपस्थित हुए । नगर भर में स्थान-स्थान पर तोरणद्वार बनाए गए तथा उत्साहपूर्वक ज्योतिरथ की यात्रा निकली। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि "देवघर " तीर्थक्षेत्र के देवगण भी जाग उठे हैं और ज्ञानज्योति का स्वागत कर रहे हैं। इसके पश्चात् अहिंसा एवं विश्वप्रेम का अलख जगाती हुई ज्ञानज्योति “झुमरीतलैया" पहुँची, यहाँ की ऐतिहासिक शोभा यात्रा ने समस्त जैन- अजैन जनता को आकर्षित कर लिया। चेयरमैन श्री एस.के. दास ने ज्योतिरथ का स्वागत किया तथा ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन ने प्रवर्तन के उद्देश्य पर प्रकाश डाला। बिहार प्रान्तीय प्रवर्तन समिति के अध्यक्ष श्री पूनमचंदजी गंगवाल तथा महामंत्री श्री उम्मेदमलजी शाह ने उपस्थित होकर इस प्रवर्तन को और भी शानदार बना दिया। "हजारी बाग" में कांग्रेस मैदान में सार्वजनिक सभा के द्वारा जनमानस को ज्ञानज्योति का महत्त्व बतलाया गया। यहाँ का समस्त कार्यक्रम बिहार प्रान्तीय प्रवर्तन समिति के कार्याध्यक्ष श्री स्वरूपचंदजी सोगानी के कुशल नेतृत्व में सम्पन्न हुआ । "गिरिडीह" शहर का प्रवर्तन आर्थिक दृष्टि से बिहार प्रदेश के ज्ञानज्योति के इतिहास में द्वितीय स्थान पर रहा। कु. मालती शास्त्री ने अपने ओजस्वी प्रवचन से जनसभा को संबोधित किया। "सरिया" नगर में प्रखण्ड विकास अधिकारी श्री रामबालक सिंह ने ज्योतिरथ का स्वागत किया और अपने सार्वजनिक भाषण में उन्होंने अहिंसा धर्म का व्यापक महत्त्व बतलाया। आचार्य श्री विद्यासागरजी का धर्मप्रेम बिहार प्रान्त में मानवता का अलख जगाती हुई जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति दिनांक ५ अप्रैल सन् ८३ को एक चेतन तीर्थ के अंचल में पहुंचती है, जहाँ युवा आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज अपने संघ सहित विराजे हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५८५ आचार्यश्री का अगाध धर्मप्रेम देखकर उस समय ईसरी बाजार की जनता भाव-विभोर हो उठी, जब ज्योतिरथ की प्रवचन सभा में उन्होंने आधा घंटे तक मार्मिक प्रवचन किया और ज्योति रथ की शोभायात्रा के साथ-साथ घंटों अपने संघ सहित चलते रहे। यह तो मुनिश्री का धार्मिक वात्सल्य ही कहना होगा। कवियों की उक्ति यहीं पर चरितार्थ हो जाती है-"न धर्मो धार्मिकैर्विना" अर्थात् धार्मिकों के बिना धर्म कैसे टिक सकता है ? ____ हालाँकि युवाचार्यजी से प्रभावित जनता एवं सामाजिक नेताओं ने पहले से यह शोर मचा रखा था कि आचार्य विद्यासागर महाराज तो जुलूस आदिकों में शामिल नहीं होते हैं; अतः उनसे निवेदन ही नहीं करना चाहिए, लेकिन ब्र. रवींद्रजी ने ज्यों ही ज्ञानज्योति आगमन की उन्हें सूचना प्रदान की, त्यों ही आचार्यश्री ने मुस्कराहट बिखेर कर उनकी भावनाओं को प्रफुल्लित किया तथा कार्यक्रम की रूपरेखा समझकर यथासमय अपने संघ सहित समस्त कार्यक्रमों में उपस्थित होकर ज्ञानज्योति प्रवर्तन के लिए अपना आशीर्वाद प्रदान किया। ईसरी बाजार (बिहार) में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की भव्य शोभायात्रा में आचार्य आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ज्योतिरथ क माडल का अवलोकन करते हुए। श्री विद्यासागर महाराज दरअसल जन साधुआ का वास्तावकता ता इसा म दृष्टिगत होती है कि वे वाह्यजगत् से वीतराग रहें और धर्मभावना तथा आत्मप्रभावना के कार्यों में सदैव सजग रहें। जैसा कि आचार्यश्री अमृतचंद्र सूरि ने "पुरुषार्थसिद्धि उपाय" ग्रंथ में कहा भी है-- आत्मा प्रभावनीयो, रत्नत्रयतेजसा सततमेव। दानतपोजिनपूजा, विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ इन्हीं पंक्तियों का अनुसरण करते हुए जहाँ-जहाँ जो भी साधुसंघ विराज रहे थे, उन सभी ने ज्ञानज्योति रथ को अन्तर्दिल से अपना सानिध्य एवं आशीर्वाद प्रदान किया था। यहाँ यह विषय ज्ञातव्य है कि आज जैन साधु जगत् में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज एवं गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ज्ञान और चारित्र के धुर्य माने जाते हैं। यह एक अद्भुत संयोग ही कहना होगा कि इन दोनों ही विभूतियों का जन्म शरद् पूर्णिमा को हुआ है। जहाँ ईसवी सन् १९३४ की शरद् पूर्णिमा ने ज्ञानमती माताजी को मैना के रूप में प्रदान किया, वहीं सन् १९४८ की आश्विन शु. पूर्णिमा को दक्षिण भारत ने विद्यासागरजी की प्रतिकृति लेकर विद्याधर को उत्पन्न किया। दोनों के पारिवारिक त्याग का सामंजस्य भी प्राप्त हुआवर्तमान युग से २०-२२ वर्ष पूर्व जहाँ साधु समाज में ज्ञानमती माताजी का एक मात्र नाम लिया जाता था कि इन्होंने अपने परिवार के अनेक सदस्यों को त्यागमार्ग में प्रवर्तित किया है। कोई-कोई तो यहाँ तक कह देते हैं कि माताजी का पूरा परिवार ही साधु बन गया है, किन्तु यह तो उनकी अनभिज्ञता ही माननी पड़ेगी; क्योंकि वास्तविकता तो यह है कि उनके परिवार में भाई-बहनों के मात्र एक तिहाई हिस्से ने त्याग मार्ग अंगीकार किया है, शेष भाई-बहन गृहस्थाश्रम का संचालन कर रहे हैं। इसी प्रकार से लगभग १५ वर्षों से आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का द्वितीय परिवार भी समाज की दृष्टि में आया है, जिसमें माता-पिता एवं भाइयों ने दीक्षा धारण कर वैराग्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। इन दो उदाहरणों ने ज्ञान और चारित्र का पारस्परिक सामंजस्य बनाकर उत्तर-दक्षिण के सेतुबंध का कार्य किया है। शरद पूर्णिमा के ये दोनों चाँद आकाश और धरती दोनों को आलोकित करते हुए चिरकाल तक इस धरातल पर विद्यमान रहें, यही जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी इस शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ महाराज की शिष्या हैं और विद्यासागर महाराज द्वितीय पट्टाधीश आचार्य श्री शिवसागर महाराज के शिष्य आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज के दीक्षित शिष्य हैं। उपर्युक्त संक्षिप्त परिचय तो मात्र पाठकों की दृष्टि इन दो महान् आत्माओं के पवित्र जीवन पर केन्द्रित करने एवं उनसे कुछ शिक्षा लेने हेतु ही दिया गया है। इनका वास्तविक विस्तृत परिचय तो साक्षात् दर्शन एवं जीवन्त कृतियों से प्राप्त किया जा सकता है। "रत्नत्रय के प्रतीक साधुसंघों का सानिध्य किसी भी कार्यक्रम को संबल प्रदान करता ही है" यह तो जनमानस के अनुभव एवं श्रद्धा की बात है। साधुवर्ग हमारे संसार का सदैव प्रेरणास्रोत रहा है, यदि उनमें धार्मिक आयोजनों के प्रति प्रसन्नता एवं उदारता नहीं होगी, तब धर्म का उत्थान भला कैसे संभव हो सकता है? झरिया में झरना बहा ज्ञानामृत का५ अप्रैल, १९८३ को ही बिहार प्रान्त के झरिया नगर में ज्ञानज्योति रथ ने प्रवेश किया। यहाँ के निवासी श्री पूनमचंदजी गंगवाल के सहयोग से जहाँ आर्थिक दृष्टि से बिहार प्रान्त में यहाँ का सबसे अच्छा नम्बर रहा, वहीं झरिया के इतिहास में ज्योतियात्रा का भी भव्य कार्यक्रम रहा। हजारों व्यक्तियों की जीमन व्यवस्था ने प्रीतिभोज का रूप धारण कर पारस्परिक प्रेम को सुदृढ़ बनाया। श्री गौरीशंकरजी अग्रवाल की अध्यक्षता में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में श्री महावीर प्रसाद पाटनी, ब्र. श्री रवीन्द्र कुमार जैन, मालती शास्त्री आदि वक्ताओं के ओजस्वी भाषण हुए। अपने अध्यक्षीय भाषण में श्री अग्रवालजी ने इस देशप्रेम एवं सामाजिक संगठन को मजबूत बनाने वाली ज्योति यात्रा की प्रशंसा करते हुए इसे अहिंसा तथा चरित्र-निर्माण का उद्घोषक बताया तथा अपने को सौभाग्यशाली मानते हुए उन्होंने समस्त जनसमूह एवं कार्यकर्ताओं को धन्यवाद दिया। धनबाद का धन और वचन अनमोल रहाअपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार बिहार प्रान्तीय ज्योतिप्रवर्तन समिति के पदाधिकारीगण रथ के साथ-साथ अनेक स्थान पर उपस्थित होते थे। उनके इस सक्रिय सहयोग से सभी जगह कार्यक्रम उत्साहपूर्वक सम्पन्न हुए। इसी श्रृंखला में दिनांक ६ अप्रैल को ऐतिहासिक ज्ञानज्योति धनबाद शहर में पहुंच गई। यहाँ भूतपूर्व मंत्री श्री योगेश कुमारजी योगेश के मुख्य आतिथ्य में एक आम सभा की गई, जिसमें अन्य वक्ताओं के अतिरिक्त मंत्री महोदय ने दिगम्बर जैन साधुओं के प्रति अत्यंत श्रद्धा व्यक्त करते हुए दिगम्बरत्व की अतिसूक्ष्म परिभाषा प्रस्तुत की, जिसे सुनकर समाज के उपस्थित लोग चकित रह गये। आपने अनेक उदाहरणों के माध्यम से दिगम्बरत्व की महिमा का दिग्दर्शन कराया तथा यह भी कहा कि दिगम्बर जैन धर्म और दिगम्बर जैन साधु समस्त आदर्शों से बहुत ऊँचे हैं . . . . . इत्यादि। आगे कतरासगढ़ होती हुई ज्ञानज्योति का "महेशपुर खरखरी" में मंगल पदार्पण हुआ, जहाँ श्री शिखरचंदजी जैन के कुशल नेतृत्व में ज्योतिरथ का भव्य स्वागत हुआ। जुलूस, आरती आदि के द्वारा समस्त जनसमूह ने अपनी श्रद्धांजलि, अर्थांजलि भेंट की। कलाकेन्द्र में कला का मूल्यांकन"बोकारो स्टीलसिटी' में कलाकेन्द्र नामक सभागार में आयोजित ज्ञानज्योति की स्वागत सभा का समापन होते ही समस्त जनसमूह ज्ञानमती माताजी की अभूतपूर्व कला का अवलोकन करने उमड़ पड़ा। ज्ञानज्योति रथ के दर्शनमात्र से सभी इतने प्रसन्न हुए, मानो उन्हें साक्षात् ज्ञानमती माताजी के ही दर्शन हो गए हों। देखने लायक स्थिति तो तब होती थी, जब समारोह में कहीं पर मालती शास्त्री अथवा माधुरी शास्त्री (मैं) पहुँच जाती, तब तो लोग उन्हीं को ज्ञानमती माताजी समझकर दर्शनार्थ दौड़ पड़ते। भक्ति में मानव सब कुछ भूल जाता है, उन्हें उस समय यह भी ज्ञान न रहता था कि पिच्छीधारी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी तो पद विहार करती हैं, वे भला इस रथ की गाड़ी में कैसे आ सकती हैं ? अतः संचालकों को जनता के बीच स्थिति स्पष्ट करनी पड़ती थी कि ज्ञानमती माताजी के दर्शन हेतु आपको हस्तिनापुर जाना पड़ेगा। (क्योंकि उन दिनों पूज्य माताजी संघ सहित हस्तिनापुर में विराजमान थीं) यहाँ पधारी हुई संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनें हैं। आर्यिका माता वाहन में नहीं चलतीं, वे पदविहार करती हैं . . . . इत्यादि। कुछ भी हो, हिन्दुस्तान की जनता उस समय ज्ञानमती माताजी के लिए असंख्य मंगल-कामनाएं प्रदर्शित करती हुई थकती नहीं थी; क्योंकि अपने समाज की ही एक नारी का यह चरमोत्कर्ष देखकर अब धरती माता की प्रसन्नता भीतर नहीं समा रही थी और वह अपने अंचल में पली सरस्वती की प्रतिकृति को कोटि-कोटि दुआएं प्रदान कर रही थी। इधर ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा से कोसों दूर ज्ञानमती माताजी हस्तिनापुर में शिष्य-शिष्याओं के पठन-पाठन तथा नियमसार ग्रंथ की "स्याद्वाद Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५८७ चन्द्रिका" संस्कृत टीका लिखने में व्यस्त रहती थीं। जब हम लोग ज्योतियात्रा में भ्रमण करके यहाँ आकर पूज्य माताजी से उत्साहपूर्वक प्रवर्तन की गाथा सुनाने लगते, तो उनके मुँह से एक ही शब्द निकलता कि "मेरी तो यही भावना है कि भगवान् महावीर का संदेश दिगदिगन्त व्यापी करती हुई ज्ञानज्योति की भारतयात्रा निर्विघ्न सफल हो तथा लोग अपनी जन्मभूमि जम्बूद्वीप का ज्ञान प्राप्त करें।" उनकी यह हार्दिक भावना आशातीत रूप में सफल भी हुई। जिस बोकारो स्टीलसिटी की मैं बात कर रही थी, वहाँ आज ज्ञानज्योति के आगमन पर श्री रामसिंहजी अधीक्षक ने पधारकर ज्योतिरथ का स्वागत किया। वक्ताओं ने रथ प्रवर्तन की महत्ता बतलाई तथा वह सभा एक जुलूस में परिवर्तित होकर पूरे शहर में बधाइयों के गीत गाती हुई भ्रमण करती रही, तभी संध्या रश्मियों ने अपनी लालिमा से इस चलते-फिरते समवशरण का अभिनंदन किया। जमशेदपुर टाटानगर में समापनयह शहर अपने नाम के अनुरूप ही भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति टाटा का उद्योग स्थल है। यहाँ लगभग ३० दिगम्बर जैन परिवार उस समय विद्यमान थे। ८ अप्रैल सन् १९८३ को टाटानगर अपने अतिथियों के स्वागत हेतु इस तरह सजाया गया था, मानो किसी कन्या की शादी ही होने जा रही थी। दिगम्बर, श्वेताम्बर के भेदभाव को भुलाकर वहाँ के समस्त जनसमुदाय ने एकत्रित होकर ज्ञानज्योति का अभूतपूर्व स्वागत किया। भगवान् महावीर, हस्तिनापुर और ज्ञानमती माताजी की जयकारों से शहर का कण-कण गूंज रहा था। लगभग २ कि.मी. दूर से ही स्वागत हेतु पधारे नर-नारियों ने विभिन्न नारों से आकाश गुंजायमान कर दिया। टाटानगर का उत्साह देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस बिहार प्रान्त में भगवान् महावीर के अमर सिद्धान्त अभी पूर्णरूपेण जीवन्त हैं, अथवा द्वितीय समवशरण ही भूले-भटके प्राणियों को चरित्रनिर्माण की प्रेरणा देने आया है। प्रातः ८ बजे यहाँ विस्टुपुर के जैनभवन में सभा का आयोजन किया गया, जिसमें हजारों की संख्या में जनसमूह एकत्रित था। सभा के मुख्य अतिथि कलेक्टर साहब थे तथा आज की सभा के मुख्य आकर्षण श्वेताम्बर मुनि श्री गिरीशचंद महाराज रहे, जिन्होंने अपने वक्तव्य में इस प्रवर्तन को विश्वशांति एवं जन एकता का ठोस कदम बताया। कलेक्टर साहब श्री विद्यानन्दजी मिश्रा ने ज्ञानज्योति की पावन प्रेरिका आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति अनन्य श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनके इस कार्य को देश की जनता के लिए महान् उपयोगी बतलाया तथा कहा कि इस प्रकार के नवीन धार्मिक कार्यों से ही आज की दुनिया को धर्ममार्गों पर लगाया जा सकता है। समारोह के अध्यक्ष श्री कमानी साहब, सचिव श्री एम.बी. जैन एवं भागचंदजी आदि महानुभावों ने अथक परिश्रम करके समारोह को भव्यरूप प्रदान किया। जुलूस की निराली छटारंग-बिरंगे मोतियों से जड़ित मंगलकलश टाटानगर के जुलूस को ऐतिहासिक बनाने में निमित्त रहे । १०८ कुमारियाँ जिस समय ज्ञानज्योति के आगे-आगे अपने मस्तक पर वे कलश उठाकर चल रही थीं, तब वह लम्बी कतार इन्द्रसेना सरीखी प्रतीत हो रही थी। इस प्रकार के मोतीजड़ित कलश प्रथमबार इसी शहर में देखे गये, जो कि जुलूस का विशेष आकर्षण थे।। बिहार के ज्ञानज्योति प्रवर्तन में टाटानगर का यह जुलूस सर्वाधिक सुन्दर माना गया। पूरे नगर में अनेक तोरणद्वार एवं स्वागत बैनर लगाकर सजावट की गई थी। इस प्रकार सभी का स्वागत स्वीकार करती हुई ज्ञानज्योति यात्रा टाटानगर के प्रमुख मार्गों से होती हुई जैन भवन साकची में जाकर सम्पन्न हुई। रात्रि में पुनः सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें अनेक वक्ताओं ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये तथा बिहार प्रवर्तन समिति के महामंत्री श्री महावीर प्रसादजी पाटनी ने बिहार प्रान्तीय भ्रमण का आज समापन घोषित किया। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही ज्योतिरथ में सहयोग प्रदान करने वाले कार्यकर्ताओं का स्वागत भी हुआ। इस बिहार प्रदेश के पश्चात् ज्योतिरथ का स्वागत उड़ीसा प्रान्त के "कटक" शहर में हुआ तथा वहाँ से खण्डगिरि-उदयगिरि की पावन रज से भी यात्रा सफल हुई। इस लघुयात्रा को अलग से स्थान न देकर बिहार प्रदेश में सम्मिलित किया गया है। बिहार प्रान्त के जैन तीर्थ१. चंपापुर, २. नवादा, ३. राजगृही, ४. पटना, ५. सम्मेदशिखरजी, ६. पावापुरी, ७. कुण्डलपुर, ८. गुणावा, ९. मन्दारगिरी, १०. भद्रिकापुरी, ११. कुलहा पहाड़, १२. वैशाली, १३. मिथिलापुरी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ साधु सानिध्य एक नजर में१. आचार्य श्री सुबलसागर महाराज ससंघ सम्मेदशिखर २. आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ससंघ ईसरी बाजार ३. आर्यिका श्री इन्दुमती माताजी ससंघ सम्मेदशिखर मधुबन ४. आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ससंघ सम्मेदशिखर मधुबन ५. मुनि श्री गिरीशचंद महाराज (श्वेताम्बर) टाटानगर ६. श्री जयंत मुनिजी (श्वेताम्बर) पेटरवार बिहार यात्रा कहाँ-कहाँ ? (२ मार्च, १९८३ से ८ अप्रैल, १९८३ तक) १. भागलपुर, २. नाथनगर (चम्पापुर), ३. सुल्तानगंज, ४. जमालपुर, ५. मुंगेर, ६. नवादा, ७. हसुआ (नवादा), ८. राजगृही, ९. इस्लामपुर, १०. एकंगसराय, ११. छपरा, १२. मीरगंज, १३. पटनासिटी, १४. पटना, १५. सुल्तानपुर, १६. आरा, १७. डालमिया नगर, १८. औरंगाबाद, १९. गया, २०. चौपारन, २१. इटखोरी, २२. चतरा, २३. डाल्टेनगंज, २४. रांची, २५. रामगढ़, २६. पेटरवार, २७. गोमियां,२८. साड़म, २९. जरंडी बाजार, ३०. फुसरो, ३१. सम्मेदशिखर, ३२. देवघर बैजनाथधाम, ३३. झुमरीतलैया, ३४. हजारीबाग, ३५. गिरिडीह, ३६. सरिया, ३७. ईसरीबाजार, ३८. झरिया, ३९. धनबाद, ४०. कतरासगढ़, ४१. महेशपुर खरखरी, ४२. बोकारो स्टील सिटी, ४३. जमशेदपुर टाटानगर। तर्ज- [यशोमति मैया से] [श्रीमती त्रिशला जैन, लखनऊ] ज्ञानमती माताजी से पूछे जग सारा। जम्बूद्वीप नाम का, ये कौन द्वीप प्यारा । बोली मुस्कराती मैया, सुनो भाई सारे । बीचोंबीच सुमेर पर्वत नदी कमल प्यारे । जम्बूवृक्ष से ये शोभित हो . . . . . जम्बूवृक्ष से ये शोभित द्वीप है निराला इसीलिए प्यारा । ज्ञानमती . . . . . वृक्ष पर जिनेन्द्र भवन बहुत है चमकता जिनके दर्श पीने को है यह नर तरसता । हिमवन आदि पर्वतों से हो . . हिमवन आदि पर्वतों से बहे गंगधारा . इसीलिए प्यारा । ज्ञानमती . . . . . मेरु शिखर पर अब तक कोई नर न पहुँचा। आज का ये मानव देखो उसपे भी आ पहुँचा । पांडुक शिला पर जाकर हो . . . . . पांडुक शिला पर जाकर करो प्रभु की धारा । इसीलिए प्यारा। ज्ञानमती . . . . . जम्बूद्वीप का ये वर्णन ग्रंथों में पाया। हस्तिनागपुर में इसको धरा पर बनाया। "त्रिशला" ऐसे पर्वत को है हो . . . . . त्रिशला ऐसे पर्वत को है वन्दन हमारा। इसीलिए प्यारा। ज्ञानमती . . . . . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला ज्ञानज्योति की महाराष्ट्र प्रान्तीय यात्रा सूरज निज किरणों के द्वारा जग का अंधेर भगाता है। सब सोये हुए प्राणियों को निद्रा से शीघ्र जगाता है। ऐसे ही ज्ञानसूर्य जग का मिथ्यात्व अंधेर भगाता है। वह मोह नींद में सोये जगवासी को शीघ्र जगाता है ॥१॥ जिनकी आत्मा इस ज्ञान सूर्य से आलोकित हो जाती है। उनमें ही निज पर के हित की स्वयमेव भावना आती है। वे ज्ञानज्योति का अलख जगा हम सबको मार्ग दिखाते हैं। अपनी आत्मा में भी रमकर परमात्म वही बन जाते हैं ॥ २ ॥ श्रीज्ञानमती माताजी इस बीसवीं सदी की नारी हैं। जो ब्राह्मी की प्रतिमूर्ति आर्यिका युग की पहली क्वाँरी हैं। निज ज्ञान की पावन गरिमा से अपनी पहचान बनाई है। उनकी पदरज से जनमन में बजने लगती शहनाई है ॥ ३ ॥ इनसे ही प्रगटी ज्ञानज्योति का भव्यरूप साकार हुआ। दिल्ली में ४ जून ब्यासी को इसका खूब प्रचार हुआ। इन्द्राजी ने आशीर्वाद ले किया प्रवर्तन इस रथ का। जन मन को आकर्षित करता चल दिया ज्ञानज्योति रथ था ॥ ४ ॥ कोने-कोने में इन्द्रप्रस्थ के ज्ञानमती की ज्योति चली। श्री महावीर प्रभु के पावन संदेश सुनाती गली-गली ॥ पहला था राजस्थान प्रान्त गुरुओं का जहाँ सानिध्य रहा। फिर बंगला देश विहार प्रान्त में सम्यग्ज्ञान प्रवाह बहा ॥ ५ ॥ चेतन व अचेतन तीर्थों के आशीषों से रथ धन्य हुआ। चल दिया उड़ीसा से सीधा महाराष्ट्र प्रान्त भी धन्य किया। सतरह अप्रैल तिरासी सन् बम्बई महानगरी आया। मुनिसंघों का सानिध्य जहाँ उद्घाटन का अवसर लाया ॥ ६ ॥ बोरीवल्ली पोदनपुर से महाराष्ट्र भ्रमण प्रारंभ हुआ। ब्रह्मचारी मोतीचंद भरतजी काला ने नेतृत्व किया ॥ गुजराती मराठी भाषा में माहात्म्य बताया जाता था। इस ज्योति प्रवर्तन का पावन उद्देश्य बताया जाता था ॥ ७ ॥ इस महानगर में बारह दिन तक ज्योति प्रवर्तन करवाया। दिल्ली से जे.के. जैन तथा कुछ मान्य अतिथि को बुलवाया ॥ बाम्बे मलाड़ की जनता ने उत्साह बहुत दिखलाया था। वहाँ मुख्य अतिथि सांसदजी ने प्रेरक प्रसंग बतलाया था॥ ८ ॥ साहू श्रेयांस प्रसाद जैन भी गोरे गाँव पधारे थे। कितने हि विशिष्ट अतिथियों ने ज्योति के मंत्र उचारे थे॥ शुभ गीत सुमन लेकर रवीन्द्रजी ज्योतिप्रवर्तन में आए। अपने संगीतों से जन मन को आह्लादित करने आए ॥ ९ ॥ भायन्दर, खार तथा वरली में भी स्वागत स्वीकार किया। फिर हीराबाग तथा मांटूगा, ठाणे का भी प्यार लिया । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ भीवंडी, डोम्बीवली, घाटकोपर में भी वह ज्योति जली। अपनी पौराणिक संस्कृति का संदेश सुनाती गली-गली ॥ यह जम्बूद्वीप इसी पृथ्वी मंडल का नक्शा बता रहा। भूगोल जो अब तक था अप्राप्त उसको यह मॉडल दिखा रहा ॥ १० ॥ कितने ही पंडित घर-घर में प्रतिदिन यह मंत्र सुनाते हैं। शुभ जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते को गाते हैं। पर उनको भी यह ज्ञात नहीं वह जम्बूद्वीप कहाँ पर है? कैसा है उसका रूप तथा उसमें हम लोग कहाँ पर हैं? ॥ ११ ॥ इस सत्य कथानक को बतलाने हेतु ज्योति रथ चलवाया। साकार रूप में हस्तिनागपुर में भी उसको बनवाया। इसलिए ज्ञानमति माता की प्रतिभा का अवलोकन करने। भारत की जनता उमड़ पड़ी, ज्योतिरथ के दर्शन करने ॥ १२ ॥ बाम्बे प्रवास के बाद दो मई को पूना रथ पहुँच गया। सांस्कृतिक झांकियों से वहाँ पर स्वागत सत्कार जुलूस हुआ ॥ महाराष्ट्र में "बारामती" शहर में ज्ञानज्योति आगमन हुआ। नातेपूते फल्टण आदिक नगरों में भी शुभ गमन हुआ ॥ १३ ॥ पंडित मोतीचंद कोठारी ने यह अमूल्यनिधि पहचानी। माँ ज्ञानमती की अमर कृती को आगम की प्रतिकृति मानी॥ वे पूर्व से भी इस प्रतिभा का सानिध्य प्राप्त कर पाये थे। सन् अट्ठत्तर के शिविर में वे कुलपति बन करके आये थे॥ १४ ॥ है जिला सतारा में "म्हसवड़" जब ज्ञानज्योति यहाँ पहुँची थी। मानो यहाँ ज्ञानमती अम्मा ही आई खुशियाँ ऐसी थीं। सत्ताइस वर्ष पूर्व यहां पर था अम्मा ने चौमास किया। इस पुण्यभूमि ने उनको जिनमति, पद्मावति दो शिष्य दिया ॥ १५ ॥ इसलिए वहाँ की जनता में अपनत्व विशेष झलकता था। उनके गीतों की अंजलि से कितना शुभराग छलकता था। श्री आबासाहब राजमानेजी द्वारा रथसम्मान हुआ। श्री शरद गुरुजी के सम्बोधन से उद्देश्य प्रमाण हुआ॥ १६ ॥ कितने ही शहरों में होकर पंढरपुर ज्योति पधारी थी। आचार्य विमलसागर मुनिवर की संघ सम्मती भारी थी॥ प्रवचन में उन्होंने बतलाया अन्दर में ज्योति जलाओ सब। इस वाह्य ज्ञान सामग्री से अन्तर में ज्ञान जगाओ सब ॥ १७ ॥ श्री उपाध्याय मुनिवर ने भी उद्बोधन वहाँ प्रदान किया। इस जम्बूद्वीप की रचना को सब जातिवर्ग में मिला दिया | सब वेद पुराणों की कथनी यह जम्बूद्वीप बताती है। अतएव ज्ञानमतीजी की कृति हम सबको राह दिखाती है ॥ १८ ॥ शोभायात्रा में भी चउविध संघ ने अपना सानिध्य दिया। मानो सचमुच के समवसरण ने पृथ्वीतल को तृप्त किया। जय-जयकारों के नारों से नगरी का कण-कण गूंज उठा। इस अमरकृती के दर्शन कर सबका अन्तर्मन झूम उठा ॥ १९ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५९१ करकम्ब जिला सोलापुर में जब ज्ञानज्योति आगमन हुआ। श्री आर्यनंदि मुनिवर के मंगल सन्निध में सम्पन्न हुआ। पं. श्री मनोहर आग्रेकर के व्याख्यानों में सभा जुड़ी। मुनिवर के आशीर्वाद हेतु जनता फिर उनकी ओर मुड़ी ॥ २० ॥ बतलाया मुनि ने यह ज्योति सबका हित करने आई है। माँ ज्ञानमती इस पृथ्वी पर बहुमूल्य वस्तु ले आई हैं। इस महाकार्य में हम सबको बहु योगदान देना होगा। धन के बदले इस प्रतिकृति का साकार लाभ लेना होगा ॥ २१ ॥ छोटे व बड़े सब नगरों को आलोकित करने आई है। यह ज्ञानज्योति मानवता का संदेश सुनाने आई है। बिन भेदभाव के सभी जातियों को ज्ञानामृत पिला रही। उपदेशों को सुन-सुन जनता स्वयमेव त्याग को निभा रही ॥ २२ ॥ कितनों ने मांसाहार छोड़ हिंसा करने का त्याग किया। बीड़ी सिगरेट व शराब जुआ का भी बहुतों ने त्याग किया। इस ज्योति प्रवर्तन अन्तराल में सबसे अधिक विकास हुआ। व्यसनी निर्व्यसनी बने अतः यह अमर ज्योति इतिहास हुआ ॥ २३ ॥ इस तरह भ्रमण करते-करते अकलूज नगर का क्रम आया। २७ मई तिरासी सन् आचार्यरत्न सानिध पाया । आचार्य देशभूषणजी ने अपना मंगल आशीष दिया। क्षुल्लिका अजितमतिजी ने भी अन्तर्मन से आशीष दिया ॥ २४ ॥ सानिध्य साधु का मिलते ही माहौल बदल ही जाता है। फिर इन गुरु का तो ज्ञानमती माता से धार्मिक नाता है । अपनी शिष्या की प्रगति देख वे फूले नहीं समाते थे। उनके चारित्र व ज्ञान की प्रतिभा जन-जन को बतलाते थे ॥ २५ ॥ पेनूर व पाटकूल में भी गुरुवर के दर्शन पुनः हुए। फिर ज्ञानज्योति ने सोलापुर की ओर कदम भी बढ़ा दिये ॥ सन्मार्ग दिवाकर विमलसिन्धु का संघ वहाँ भी प्राप्त हुआ। इस द्वितिय समागम से सोलापुर में भी अतिशय व्याप्त हुआ ॥ २६ ॥ सन् उन्निस सौ छयांसठ में सोलापुर में दो संघ आए थे। श्री विमलसिन्धु माँ ज्ञानमती के युगपत् दर्शन पाए थे॥ जब ज्ञानमती की ज्ञानज्योति आई है आज यहाँ पर ही। तब पुनः विमलसागर मुनिवर भी आये देखो संघसहित ॥ २७ ॥ यह अनहोना संयोग ही है या धर्मप्रेम इसको कह लें। क्योंकि पुरुषार्थ बिना यह सब धार्मिकता का संचार करे। शिक्षा के क्षेत्र में सोलापुर नगरी ने बहुत विकास किया। श्राविका नगर महिलाश्रम में नारी शिक्षा का वास हुआ ॥ २८ ॥ पण्डिता सुमतिबाईजी ने माँ ज्ञानमती जयकार किया। श्री विद्युल्लता शहा ने भी संस्मरण पूर्व का याद किया। श्री प्रभाचंद्रशास्त्री एवं डाक्टर दोसी भी आए थे। सबने मिलकर इस स्वागत के कार्यक्रम सफल बनाए थे॥ २९ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२] Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ महाराष्ट्र प्रान्त के सभी जिलों में ज्ञानज्योति का भ्रमण हुआ । दो जून तिरासी श्रीरामपुर में उसका आगमन हुआ ॥ विद्वानों के व्याख्यान हुए शोभायात्रा सानन्द हुई । फिर तीन जून को शिरडी के प्रांगण में ज्योति पहुँच गई ॥ ३० ॥ पर्यटक वित्तमंत्री प्रदेश के श्री सुशीलजी ने आकर। साईंबाबा की नगरी में कर लिया ज्योति पर माल्यार्पण ॥ अब ४ जून की वर्षगाँठ पर "कोपरगाँव ” में स्वागत था । इन्द्रा गाँधी ने एक वर्ष पहले जिसका किया स्वागत था ॥ ३१ ॥ फिर नासिक जिले के नांदगांव में एक प्रमुख आकर्षण था । जंबू नामक हाथी के संग यहाँ ज्ञानज्योति का भ्रमण हुआ इस जिले के प्रथम प्रवर्तन पर नगरी में खुशियाँ छाई थीं। जम्बू हाथी पर चढ़ने हेतु बोली यहाँ लगाई थी ॥ ३२ ॥ था सफल प्रवर्तन कितनों ने हस्तिनापुरी को दान दिया। वहाँ जम्बूद्वीप बनाने में कितने लोगों ने नाम दिया ॥ सबके मन में यह इच्छा थी कब जम्बूद्वीप मेला होगा। उस समय मेरुपर्वत ऊपर अभिषेक हमें करना होगा ॥ ३३ ॥ मनमाड़ व लासलगाँव चांदवड नगर में ज्ञानज्योति आई । प्रान्तीय शासकों ने आ-आकर माला रथ को पहनाई ॥ नासिक के मीठे अंगूरों ने अपना स्वागत दरशाया । बेले गुच्छों के थाल सजाकर ज्ञानज्योति दर्शन पाया ॥ ३४ ॥ मांगार्तुगीजी सिद्धक्षेत्र पर ज्योतिरथ आगमन हुआ। आचार्यकल्प श्रेयांससिन्धु का चउविध संघ विराज रहा ॥ दस जून तिरासी का वह दिन इतिहास पृष्ठ का अंक रहा । श्री चन्द्रसिन्धु के वंशज गुरु से छाया था आनंद वहाँ ॥ ३५ ॥ इक अनहोना संयोग यहाँ बतलाने का अवसर आया। दस जून को ही सन् नब्बे में पंचम आचार्य पट्ट पाया ॥ नव वर्षों के पश्चात् मिलन की बेला कैसी आई थी। श्रेयांससिन्धु ने गुरुपरम्परा से यह पदवी पाई थी ॥ ३६ ॥ यह ज्योति निरन्तर ज्ञानज्योति की दिव्यप्रभा फैलाती है। अनेकांत, अहिंसा तथा विश्वबंधुत्व पाठ सिखलाती है ॥ पहुँची वह मालेगाँव वहाँ से माल बहुत भरकर लाई । धूलिया, कुसुम्बा, कापड़ना, वेटावद, सोनगिरी आई ॥ ३७ ॥ सब शहर गाँव औ गली-गली से ज्योति भुसावल में आई। एदलाबाद सावदा जिला जलगाँव में ज्ञान लहर लाई ॥ जामनेर तथा नेरीपहूर शेंदूर्णी या चालीसगाँव । सबने ही ज्ञानज्योति रथ का सम्मान किया था गांव-गांव ॥ ३८ ॥ औरंगाबाद जिले के कमड़ शहर में खुशियाँ छाई थीं। चिरकाल प्रतीक्षित ज्ञानज्योति चूँकि उस नगर में आई थी ॥ महाराष्ट्र राज्यमंत्री अब्दुल अजीज अहमद ने नमन किया। स्वागत कर ज्ञानज्योति रथ का कर धन्य सफल निज जनम किया ॥ ३९ ॥ For Personal and Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला औरंगाबाद जिले में नौ जौलाई तक परिश्रमण हुआ। दस जौलाई सन् तेरासी औरंगाबाद आगमन हुआ। सब जैन अजैन समाजों ने मिलकर स्वागत सत्कार किया। श्री मोतीचंद महामंत्री ने प्रवचन धर्मप्रचार किया ॥ ४० ॥ प्रादेशिक मंत्री, राज्यपाल, सांसद सब जगह पधार रहे। कितने ही न्यायाधीश समय पर आ स्वागत सत्कार करें। उस्मानाबाद व बीड़ जिले के नगरों में भी ज्योति जली। कुंथलगिरि के दर्शन करके निश्चित शहरों की ओर चली ॥ ४१ ॥ कुलभूषण और देशभूषण की सिद्धभूमि कुंथलगिरि है। चारित्र चक्रवर्ती गुरु की अंतिम समाधि स्थलि भी है। इसलिए यहाँ के दर्शन से वह ज्ञान ज्योति भी धन्य हुई। आगे मराठवाड़ा में स्वागत की विधियाँ सम्पन्न हुई ॥ ४२ ॥ परभणी जिले के बहुत शहर आलोकित हुए ज्योतिरथ से। यह महाप्रवर्तन सफल हुआ सब देशवासियों के बल से॥ सांगली, नागपुर, अमरावति इन सभी जिलों में भ्रमण हुआ। कोल्हापुर के नांदणी, कोथली से कुंभोज भी पहुंच गया ॥ ४३ ॥ कुंभोज में एलाचार्य मुनी श्री विद्यानंद पधारे थे। निज कर्मभूमि में श्री समन्तभद्र मुनिराज विराजे थे॥ महाराष्ट्र मुख्यमंत्री बसंत दादा पाटिल यहाँ आए थे। गृहराज्यमंत्री, उद्योगराज्यमंत्री आदी भी आए थे॥ ४४ ॥ उद्योगपती लालचंद हीराचंद ब्रह्मचारी भिसिकर भी थे। सरयू दफ्तरी तथा कितने ही मान्य अतिथिगण आए थे। भिसिकर बोले यहाँ ज्ञानज्योति आगमन हुआ मंगलकारी। कुछ पूर्व विषम स्थितियों को कर दिया ज्योति ने शुभकारी ॥ ४५ ॥ निदय ने ज्ञानज्योति रथ का अवलोकन किया स्वयं जाकर। आशीर्वाद में कहा ज्ञानमति माता सचमुच रत्नाकर ॥ प्रभु वीर की दिव्यध्वनि से जम्बूद्वीप का है संबंध कहा। मुनिवर ने इसको ज्ञानमती की दृढ़ता का प्रतिरूप कहा ॥ ४६ ॥ यहां शोभायात्रा उद्घाटन श्रीमती कुसुमबाई द्वारा । ो गया तथा भिसिकरजी ने स्वागत किया माल्यार्पण द्वारा ॥ फिर विजयादशमी को ज्योतीरथ इचलकरंजी पहुंच गया। उद्योगराज्यमंत्री ने आकर पुनः ज्योति को नमन किया ॥ ४७ ॥ इन्द्रा कांग्रेस के स्थानीय अध्यक्ष श्री वाविस्कर आए। संचालकजी ने उनको भी उद्देश्य प्रमुख सब बतलाए । हज्जारों नरनारी ने उपस्थित हो धर्मामृत पान किया। महाराष्ट्र प्रान्त अध्यक्ष श्री चन्दू' भाई ने काम किया ॥ ४८ ॥ प्रान्तीय महामंत्री ताराचन्द शाह ने भी सहयोग किया। केन्द्रीय प्रवर्तन समिती के भी लोगों ने सहयोग दिया। १. सरदार चन्दूलाल शाह-बम्बई Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ इस दीर्घकाल का ज्योतिप्रवर्तन तभी सफल हो पाया है। लगभग छह महिने पन्द्रह दिन तक सबने समय लगाया है ॥ ४९ ॥ तेरासी तीन नवम्बर तक महाराष्ट्र प्रान्त में भ्रमण हुआ। फिर अन्त विदाई बेला में इक समारोह सम्पन्न हुआ। महाराष्ट्र निवासी अब उस क्षण के इन्तजार में आतुर हैं। माँ ज्ञानमती का जम्बुद्वीप देखें जाकर हस्तिनापुर में ॥ ५० ॥ मैंने यह जम्बूद्वीप ज्ञानज्योती का लघु इतिहास लिखा। महाराष्ट्र प्रवर्तन का किंचित दिग्दर्शन इसमें मात्र किया। इसको पढ़कर जो ज्ञानज्योति का अंश हृदय में धारेंगे। वे भी इक दिन "चन्दनामती" शुभ ज्ञानज्योति को पालेंगे॥ ५१ ॥ महाराष्ट्र यात्रा पर एक दृष्टि धर्मगुरुओं के वरदहस्त एवं राजनेताओं के सानिध्य को प्राप्त जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति ने १७ अप्रैल, १९८३ को महाराष्ट्र प्रान्त में प्रवेश किया। पुनः ३ नवम्बर, १९८३ तक लगभग साढ़े छह माह के प्रवास में महती धर्मप्रभावना हुई। सर्वप्रथम बम्बई महानगरी में १२ दिनों तक १२ स्थानों पर भ्रमण हुआ, उसके पश्चात् पुणे, सतारा, सांगली, सोलापुर, श्रीरामपुर, अहमदनगर, नासिक, औरंगाबाद, जालना, बीड, उस्मानाबाद, लातूर, परभणी, नांदेड, धूलिया, जलगांव, यवतमाल, अकोला, वुल्ढाणा, वर्धा, अमरावती, नागपुर, भंडारा, कोल्हापुर, रत्नागिरि आदि पच्चीस जिलों में कुल २६६ शहरों, कस्बों एवं ग्रामों में ज्ञानज्योति रथ ने अहिंसा धर्म का अलख जगाया। धन्य ज्योति जब गुरुवर आएबम्बई-श्री १०८ नेमसागर महाराज एवं आचार्य श्री संभवसागरजी ससंघ भिवंडी-मुनि श्री १०८ अजितसागर महाराज पंढरपुर (सोलापुर)-आचार्य श्री १०८ विमलसागर महाराज ससंघ करकंब (सोलापुर)-मुनि श्री १०८ आर्यनन्दी महाराज अकलूज (सोलापुर)-आचार्यरत्न श्री १०८ देशभूषण महाराज ससंघ एवं क्षल्लिका श्री अजितमती माताजी पेनूर (सोलापुर)-आचार्य श्री देशभूषण महाराज ससंघ पाटकूल (सोलापुर)-आचार्य श्री देशभूषण महाराज ससंघ सोलापुर-आचार्य श्री विमलसागर महाराज ससंघ अकलकोट (सोलापुर)-आर्यिका श्री १०५ जयमती माताजी कुंभोज बाहुबली (कोल्हापुर)-एलाचार्य श्री १०८ विद्यानन्दि महाराज एवं मुनि श्री १०८ समन्तभद्रजी महाराज कोल्हापुर-स्वस्ति श्री भट्टारक लक्ष्मीसेन स्वामीजी नांदणी-स्वस्ति श्री भट्टारक जिनसेन स्वामीजी गुरु प्रशस्त वाणी कल्याणीबम्बई बोगसी में १७ अप्रैल, १९८३ को श्री नेमसागर महाराज ने अपने मंगल प्रवचन में बतलाया कि "ज्ञानज्योति के चरम प्रकाश को तो केवली भगवान ही प्राप्त करते हैं, किन्तु इस ज्ञानज्योति के द्वारा कम से कम आप सभी लोगों को अपने मति, श्रुत का आवरण हटाकर ज्ञान का कुछ अश तो ग्रहण करना ही चाहिए।" श्री सम्भव वाणी"यह प्राणी अनादिकाल से अज्ञान के कारण ही संसार में भ्रमण कर रहे हैं, अतः उनका उद्धार करने हेतु ज्ञानमती माताजी ने साक्षात् ज्ञानज्योति का ही भ्रमण करवा दिया है। इसके प्रवर्तन के द्वारा निश्चित ही देशवासियों का ज्ञान विकसित होगा तथा विज्ञान अपनी नई खोज की ओर अग्रसर होगा।" पे विचार आचार्य श्री संभवसागरजी ने व्यक्त किये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५९५ HATHO मत विमलसिन्धु की विमल देशना२० मई, ८३ को पंढरपुर की सार्वजनिक सभा में आचार्य श्री विमलसागर महाराज ने अपनी देशना में कहा "इस ज्ञानज्योति से हमें अन्तरंग के ज्ञान को जाग्रत करना चाहिए। यह एक महान् कार्य ज्ञानमती माताजी कर रही हैं। जम्बूद्वीप का वर्णन हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि सभी पुराणों में मिलता है। जम्बूद्वीप का ज्ञान प्राप्त कर हमें अपनी आत्मा की ज्ञानज्योति को जगाना है।" आचार्य श्री के संघस्थ उपाध्याय १०८ श्री भरतसागर महाराज एवं आर्यिका श्री स्याद्वादमती माताजी ने अपने मंगल प्रवचन में इस ज्ञानज्योति प्रवर्तन को हस्तिनापुर का चक्ररत्न बतलाया। जैसे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ ने अपने चक्ररत्न से छह खण्ड पर विजय प्राप्त की थी, उसी प्रकार हस्तिनापुर से यह द्वितीय चक्ररत्न भारत यात्रा को निकला है, इससे निश्चित ही देशवासियों का ध्यान जम्बूद्वीप एवं हस्तिनापुर की ओर केन्द्रित होगा तथा अब हस्तिनापुर पुनः राजधानी के समान उभर कर सामने आएगा।" आर्यनन्दि की अमृतवाणी"ज्ञानज्योति के प्रवर्तन से समाज एवं देश का बड़ा हित हो रहा है। सारे विश्व के समक्ष पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रयत्न से एक बहुमूल्य निधि आ रही है। ऐसे महान् कार्य में हम सभी को उदारता से अपना योगदान देना है।" ये विचार करकंब में २१ मई सन् ८३ को मुनि श्री आर्यनन्दि महाराज ने व्यक्त किये। आचार्यरत्न का मंगल आशीषभारतगौरव आचार्यरत्न श्री १०८ देशभूषण महाराज का सानिध्य जयपुर (राज.) में तो प्राप्त हुआ ही था। महाराष्ट्र में अकलूज, पेनूर एवं पाटकूल इन तीन मुनि श्री आर्यनन्दि महाराज लातूर (महाराष्ट्र) में ज्ञानज्योति स्वागतसभा को संबोधित नगरों में भी ज्योतिरथ को आचार्य श्री का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। वे तो चूँकि करते हुए। प्रारंभ से ही ज्ञानमती माताजी की दृढ़ता एवं आगम कट्टरता से भलीभाँति परिचित थे, अतः हृदय की गुरुता को प्रकट किये बिना न रहते थे। अकलूज में उन्होंने अपने प्रवचन में कहा"भव्यात्माओ! ज्ञानज्योति रथ को तुम साक्षात् ज्ञानमती माताजी का रूप समझो और इसकी वाणी को ज्ञानमतीजी की आगमोक्त वाणी ही समझना। उन्होंने जो जंबूद्वीप बनाने का संकल्प उठाया है, वह आप सबके सहयोग से शीघ्र सम्पन्न होगा, ऐसा मुझे विश्वास है।" समन्तभद्रजी की भद्रता१४ अक्तूबर, १९८३ को ज्ञानज्योति के कुंभोज पदार्पण पर क्षेत्र के निर्माता, प्रेरणास्रोत मुनि श्री समन्तभद्र महाराज ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक ज्योतिरथ का अवलोकन किया तथा स्वागत सभा के मध्य अपने प्रवचन में कहा "पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का महान् उपकार व परिश्रम अप्रतिम है। उनका उपकार यह देश और समाज कभी नहीं भूल सकता है। उनके अलौकिक कार्य नारी जाति के लिए ही नहीं, प्रत्युत् पुरुषवर्ग के लिए भी वर्तमान में एक चुनौती बनकर सामने आए हैं। इस महान् निधि (माताजी) को आप लोगों को संभालकर रखना चाहिए . . . ." मुनि श्री समन्तभद्र महाराज कुम्भोज बाहुबली में ज्योतिरथ का अवलोकन करते हुए। विद्यानन्दिजी की अनमोल विद्या"जब भगवान आदिनाथ की दिव्यध्वनि खिरी, तब उन्होंने बताया कि छह द्रव्य जहाँ रहते हैं वह लोक है और जहाँ ये द्रव्य नहीं हैं, उसे अलोक कहा है। यह बहुत ही सूक्ष्म प्रतिपादन है। इस संसार में अनेक कल्पनाएं इस विश्व के संबंध में उपलब्ध हैं, उनका अन्वेषण, संशोधन होना आवश्यक है। उस दृष्टि से यह प्रवर्तन बहुत ही आवश्यक था, जिसे ज्ञानमती माताजी दृढ़ता के साथ कर रही हैं . . . .।" उपर्युक्त विचार पूज्य एलाचार्य श्री विद्यानन्दि महाराज ने १४ अक्टबर, १९८३ को कुम्भोज बाहुबली में प्रकट किए। कोल्हापुर में भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामी ने अपने प्रवचन में इस प्रवर्तन को जैनधर्म की प्रभावना का महान् अंग बतलाया तथा महाराष्ट्र प्रान्त को Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सौभाग्यशाली कहा, जहाँ ज्योति प्रवर्तन के द्वारा अनेक अहिंसात्मक कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। नांदणी में स्वस्ति श्री जिनसेन भट्टारकजी ने कहा"भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव पर सन् १९७४ में "धर्मचक्र" का प्रवर्तन हुआ और गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबली के सहस्राब्दि महोत्सव पर सन् १९८०-८१ में "जनमंगल कलश" का प्रवर्तन हुआ, किन्तु ये दोनों रथ हिन्दुस्तान भर के गली-कूचों में न पहुँच सके थे, क्योंकि इनका प्रवर्तन मात्र अल्पकालिक ही हुआ। उस कमी की पूर्ति आज "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ" कर रहा है। इस ज्योति के द्वारा जनमानस को अहिंसा धर्म की विशेषता ज्ञात हो रही है।" वे शहर-नगर जहाँ ज्ञानज्योति जली-(महाराष्ट्र प्रान्त के नगरों के स्वस्ति श्री भट्टारक लक्ष्मीसेन जी की उपस्थिति में कोल्हापुर में ज्ञानज्योति की आरती का दृश्य । नाम) १. बोरीवली (बम्बई), २. मलाड़ (बम्बई), ३. गोरेगांव (बम्बई), ४. भायन्दर (बम्बई), ५. खार (बम्बई), ६. वरलीनाका (बम्बई), ७. हीराबाग (बम्बई), ८. माढूंगा (बम्बई), ९. ठाणे (बम्बई), १०. भिवंडी (बम्बई), ११. डोम्बीवली (बम्बई), १२. घाटकोपर (बम्बई), १३. पूना, १४. बालचंदनगर (पुणे), १५. बारामती (पुणे), १६. नातेपुते (पुणे), १७. फल्टण (सतारा), १८. तरडगांव लोणद (सतारा), १९. म्हसवड़ (सतारा), २०. वडूल (सतारा), २१. कल्हाड़ (सतारा), २२. वारेगांव टाकवे (सतारा), २३. मंगलबेठा (सोलापुर), २४. महुद्द (सोलापुर), २५. पंढरपुर (सोलापुर), २६. करकम्ब (सोलापुर), २७. मोडनिम्ब (सोलापुर),.२८. कुडूवाडी (सोलापुर), २९. महादपुर (सोलापुर), ३०. माठा (सोलापुर), ३१. उपलाई (सोलापुर), ३२. अनगर (सोलापुर), ३३. वरोग (सोलापुर), ३४. बर्सी (सोलापुर), ३५. अकलूज (सोलापुर), ३६. पेनूर (सोलापुर), ३७. पाटकूल (सोलापुर), ३८. सोलापुर, ३९. अकलकोट (सोलापुर), ४०. करमाला (सोलापुर), ४१. अहमदनगर, ४२. बेलापुर (श्रीरामपुर), ४३. राहुरी (अहमदनगर), ४४. श्रीरामपुर, ४५. शिरडी, ४६. कोपरगांव, ४७. नांदगांव (नासिक), ४८. मनमाड (नासिक), ४९. लासलगांव (नासिक), ५०. चांदवड (नासिक), ५१. नासिक, ५२. ओद्दर , ५३. सराणा, ५४. मालेगांव (नासिक), ५५. कुसुम्बा (धूलिया), ५६. धूलिया, ५७. कापड़ना (धूलिया), ५८. वेटावद (धूलिया), ५९. सोनगिर (धूलिया), ६०. नन्दूवार (जलगांव), ६१. घटोला (जलगांव), ६२. धरणगांव (जलगांव), ६३. चौपड़ा (जलगांव), ६४. जलगांव, ६५. नसीराबाद (जलगांव), ६६. भुसावल (जलगांव), ६७. एदलाबाद (जलगांव),६८. सावदा (जलगांव), ६९. जामनेर (जलगांव),७०. नेरीपहूर (जलगांव),७१. शेंदूर्णी (जलगांव),७२. चालीसगांव (जलगांव),७३. कन्नड़ (औरंगाबाद),७४. चापानेर (औरंगाबाद),७५. हतनूर (औरंगाबाद), ७६. देवगांव (औरंगाबाद), ७७. बेलठाण (औरंगाबाद), ७८. शेऊरा (औरंगाबाद), ७९. खंडाला (औरंगाबाद), ८०. बैजापुर (औरंगाबाद), ८१. गंगापुर (औरंगाबाद), ८२. लासुर (औरंगाबाद), ८३. सज्जनपुर (औरंगाबाद), ८४. एलोरा (औरंगाबाद), ८५. बीडकीन (औरंगाबाद), ८६. पैठण (औरंगाबाद), ८७. पाचोड़ (औरंगाबाद), ८८. अम्बड (औरंगाबाद), ८९. जालना, ९०. देवुलगांव राजा (बुलढाणा), ९१. डोणगांव (जालना), ९२. भोकरदन (जालना), ९३. सिल्लौड़ (औरंगाबाद), ९४. फुलम्बी (औरंगाबाद), ९५. बालूज (औरंगाबाद), ९६. औरंगाबाद, ९७. उमापुर (बीड), ९८. गेवराई (बीड), ९९. बीड, १००. केज (बीड), १०१, धारूर (बीड), १०२. कलम (उस्मानाबाद), १०३. भूम (उस्मानाबाद), १०४. तुलजापुर (उस्मानाबाद), १०५. उस्मानाबाद (उस्मानाबाद), १०६. लातुर (मराठवाड़ा), १०७. कसार (लातुर), १०८. सिरसी (लातुर), १०९. कोवारी (लातुर), ११०. ननंद (लातुर), १११. उदगिर (लातुर), ११२. वाठेणा (अहमदपुर), ११३. हकी (अहमदपुर), ११४. अवेजोई (अहमदपुर), ११५. शिराडोन (अहमदपुर), ११६. मुरूद, ११७. परली बैजनाथधाम, ११८. गंगाखेड़, ११९. परभणी, १२०. माजलगांव (बीड), १२१. मानवत (परभणी), १२२. सेलू (परभणी), १२३. जितूर (परभणी), १२४. बोरी (परभणी), १२५. चार थाणा (परभणी), १५६. सेनगांव (परभणी), १२७. नरसी (परभणी), १२८. कलमनूरी (परभणी), १२९. हिंगोली (परभणी), १३०. औठा (नागनाथ परभणी), १३१. नांदेड़, १३२. विट्ठलवाड़ी लोहा (नांदेड), १३३. धमीवाद (नांदेड), १३४. डमरी (नांदेड), १३५. भोकर (नांदेड), १३६. तामसा (नांदेड), १३७. वारड (नांदेड), १३८. कुसुंबा (धूलिया), १३९. हदगांव (नांदेड), १४०. उमरखेड़ (नांदेड), १४१. मुलावा (युवतमाल), १४२. हर्षी (युवतमाल), १४३. पुसद (युवतमाल), १४४. अनसिंह (अकोला), १४५. वासिम (अकोला), १४६. शिरपुर (अकोला), १४७. रीसोड़ (अकोला), १४८. मेहकर चीखली (बुल्ढाणा), १४९. बुल्ढाणा, १५०. नादुरा (बुल्ढाणा), १५१. मलकापुर (बुल्ढाणा), १५२. खामगांव (बुल्ढाणा), १५३. अकोला, १५४. वारेगांव (अकोला), १५५. मुर्तिजापुर (अकोला), १५६. कारंजा (अकोला), १५७. यवतमाल, १५८. वणी (यवतमाल), Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला १५९. वरोरा (यवतमाल ), १६० भद्रावली, १६१. चन्द्रपुर, १६२. देवली (वर्धा), १६३. हिंगणघाट (वर्धा), १६४. वर्धा, १६५. पुलगांव, १६६. आर्वी, १६७. चाँदुर रेलवे, १६८. खोलापुर (अकोला), १६९. आकोट (अकोला), १७०. हीवरखेड (अकोला), १७१. अंजनगांव (अमरावती), १७२. सुरजी (अमरावती), १७३. परतवाड़ा (अमरावती), १७४ अमरावती, १७५. चांदुर बाजार (अमरावती), १७६. मोर्शा (अमरावती), १७७ जरूड़ (अमरावती), १७८. वरूड़ (अमरावती), १७९. शेंदूरजनाघाट (अमरावती) १८०. काटोल (अमरावती), १८१. सावनेर (नागपुर), १८२. गोदिया (भंडारा), १८३. भंडारा, १८४. तुमसर (भंडारा), १८५. कामठी (नागपुर), १८६. रामटेक, १८७. हींगनगांव (सांगली), १८८. भोसे (सांगली), १८९. कलंबी (सांगली), १९०. मिरजलेबी (सांगली), १९१. एरंडोली (सांगली), १९२. कोलवाड (सांगली), १९३. मालेगांव (सांगली), १९४. टाकली (सांगली), १९५. आरग (सांगली), १९६. म्हसाल (सांगली), १९७. ढवली (सांगली), १९८. धामणी (सांगली), १९९. वेडम, २००. सांगली, २०१. माधवनगर (सांगली), २०२. कवलापुर (सांगली), २०३. कवठे एकंद (सांगली), २०४. नान्द्रे (सांगली), २०५. बसगडे (सांगली), २०६. ब्रह्मनाल (सांगली), २०७. भिलवडी (सांगली), २०८. अंकलखोप, २०९. बालवा, २१०. इस्लामपुर, २११. आष्टक (सांगली), २१२. बागणी (सांगली), २१३. शावलबाड़ी (सांगली), २१४. दुधगांव (सांगली), २१५, कवठेपिरान (सांगली), २१६. तुंग (सांगली), २१७ डीन (सांगली), २१८. समडोली (सांगली), २१९. अंकली (सांगली), २२०. नांदणी (कोल्हापुर), २२१. उमलवाड (कोल्हापुर), २२२. दानोली (कोल्हापुर), २२३. कोवली (कोल्हापुर), २२४. कवठेसार (कोल्हापुर), २२५. हिगणगांव (कोल्हापुर), २२६. कुम्भोज बाहुबली (कोल्हापुर), २२७. कोरोची (कोल्हापुर), २२८. कबनूर (कोल्हापुर), २२९. इचलकरंजी (कोल्हापुर), २३०. शिरदवाड़ (कोल्हापुर), २३१. अब्दुललाट (कोल्हापुर), २३२. हेरड वाड (कोल्हापुर), २३३. कुरून्दवाड़ (कोल्हापुर), २३४. आलास (कोल्हापुर), २३५. बुबनाल (कोल्हापुर), २३६. गणेशवाडी (कोल्हापुर), २३७. शिरोल (कोल्हापुर), २३८. शिरठी (कोल्हापुर), २३९. कनवाड़ (कोल्हापुर), २४०. अर्जुनवाड (कोल्हापुर), २४१. मजरेवाड़ी (कोल्हापुर), २४२. अकीवाट (कोल्हापुर), २४३. टाकलीवाड़ी (कोल्हापुर), २४४. दत्तवाड़ (कोल्हापुर), २४५. दानवाड़ (कोल्हापुर), २४६. शिरढोण (कोल्हापुर), २४७. रूकड़ी (कोल्हापुर), २४८. माणगांव (कोल्हापुर), २४९. हेर्ले (कोल्हापुर), २५०. हालोंडी (कोल्हापुर), २५१. नागांव (कोल्हापुर), २५२. किन्नी (कोल्हापुर), २५३. एतवाडे बुजुर्ग (सांगली), २५४. कोल्हापुर, २५५. चिंचवड़ (कोल्हापुर), २५६. कलिवडे (कोल्हापुर), २५७. सांगवडे (कोल्हापुर), २५८. पट्टण कोडोली (कोल्हापुर), २५९. रांगोली (कोल्हापुर), २६०. हुपरी (कोल्हापुर), २६१. राधानगरी (कोल्हापुर), २६२. खारेपाटन (रत्नागिरि), २६३. देवरूख, २६४. अप्पाची वाडी (कोल्हापुर), २६५. कगनोली (बेलगांव) । परभणी (महाराष्ट्र) में कृषिफलोत्पादन व नियोजक राज्यमंत्री श्री मा.ना. रायसाहब जामकर । Jain Educationa International [५९७ " कुम्भोज बाहुबली में ज्ञानज्योति का स्वागत करते हुए सेठ लालचंद हीराचंद, बम्बई । महाराष्ट्र प्रदेश के तीर्थ क्षेत्र १. पोदनपुर तीनमूर्ति (बम्बई), २. कारंजा (अकोला), ३. रामटेक, ४. कोथली, ५. कोल्हापुर, ६ कुम्भोज बाहुबली, ७. औठा (नागनाथ परभणी) भ. मल्लिनाथ का अतिशय क्षेत्र, ८. गजपंथा, ९. मांगीतुंगी, १०. कुंथलगिरि ११. एलोरा १२. पैठण, १३. कचनेर, १४. मुक्तागिरी, १५. दहीगांव, १६. तेर, १७. सावरगांव, १८. नवागढ़, १९. जिन्तूर २०. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, २१. भातकुली, २२. औरंगाबाद, २३. शिरडशहापुर, २४. असेगांव, २५. आष्टा । For Personal and Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ । । । । । । । । । । । । । । स्वागत हेतु पधारे विशिष्ट अतिथि - वरलीनाका (बम्बई) - श्रीभाऊराव पाटिल (संसद सदस्य कांग्रेस आई) वरलीनाका (बम्बई) श्री रमणभाई अंकलेश्वरिया (एम.एल.ए.) हीराबाग (बम्बई) श्रीशरद दिगे (महाराष्ट्र विधानसभाध्यक्ष) बारामती (पुणे) श्री व्ही.डी. जगराव (कांग्रेस (स) के अध्यक्ष) फल्टण (सतारा) श्री वानखेड़े (प्रान्तप्रमुख) म्हसवड़ (सतारा) श्री बाबासाहब राज्यमाने महुद्द (सोलापुर) श्री गनपतराव देशमुख (विधानसभाध्यक्ष) पंढरपुर (सोलापुर) श्री बनपालजी प्रशासन डिटी कलेक्टर) पंढरपूर श्री यशवंतभाई पाटील (अध्यक्ष जिला परिषद्) कुडूवाड़ी (सोलापुर) श्री गणपतरावसाठे (विधान सभा सदस्य) करमाला (सोलापुर) श्री भिंगर (तहसीलदार) शिरडी श्री सुशील कुमारजी शिंदे (प्रान्तीय वित्त एवं पर्यटक मंत्री) कोपरगांव श्री रसाल (तहसीलदार) प्रशासक एन.एस. शेख, पी.एस. आय चांदवड (नासिक) श्री विश्वासराव नांदेडकर (सिविल जज) एदलाबाद (जलगांव) श्री किशनलाल संचेती (सदस्य विधान सभा) सावदा (जलगांव) श्री रावविष्णु पाटिल (अध्यक्ष नगर परिषद्) चालीसगांव (जलगांव) श्री डी.डी. चौहान (एम.एल.ए.) कन्नड़ (औरंगाबाद) श्री अब्दुल अजीज अहमद (राज्यमंत्री) गंगापुर (औरंगाबाद) श्री सम्राट डी. लंगावकर (सिविल जज) श्री ए.डी. इंगले (तहसीलदार) सज्जनपुर (औरंगाबाद) श्री रघुलताबाई (तहसीलदार) डोणगांव (जालना) श्री रंगनाथरावजी पाटिल (आमदार), श्री खांडरे साहब (तहसीलदार) उस्मानाबाद जिलाधीश जी कसार (लातुर) श्रीवाधमारे (रिटायर्ड डी.एस.पी.) ननंद (लातुर) श्री डुंगरीकर (कलेक्टर) परभणी श्री रावसाहब (कृषि राज्यमंत्री), श्री रामराव लोलीकर (एम.पी.) जिंतूर (परभणी) श्री गुलाब खालसी (सिविल मजिस्ट्रेट) कुंभोजबाहुबली (कोल्हापुर) श्री बसंत दादा पाटिल (महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री) श्री शिवाजीराव देशमुख (गृहराज्यमंत्री) श्री कलप्पाअवाडे (उद्योग राज्यमंत्री) इचलकरंजी - श्री वाविस्कर (इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष) नोट : यह तो मैंने अतिसंक्षिप्त स्वागत श्रृंखला दर्शाई है। महाराष्ट्र के लगभग प्रत्येक नगरों में सांसद, मजिस्ट्रेट, जज, विधान सभाध्यक्ष, सरपंच, ग्रामप्रमुख आदि ने पधार कर ज्योतिरथ का स्वागत किया है। । । । । । । । । । । । । । । कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं आंध्र प्रान्त में ज्ञानज्योति भ्रमण शंभु छन्दउत्तरभारत तीर्थंकर की जननी कहलाती है जग में। दक्षिण भारत आचार्यों की धरणी मानी जाती सच में॥ . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [५९९ क्या कुन्दकुन्द क्या शांतिसिन्धु ने जन्म लिया जब दक्षिण में। तब से ही मुनिचर्या धरती पर फैली है चारों दिश में॥ १ ॥ इस जम्बूद्वीप ज्ञानज्योती ने दिल्ली से प्रस्थान किया। राजस्थानादिक चार महा प्रान्तों में भ्रमण महान हुआ। महाराष्ट्र प्रदेश प्रवर्तन ने स्वर्णिम इतिहास बनाया है। अब कर्नाटक का शुभ प्रवेश मंगलमय अवसर लाया है॥ २ ॥ रुक जाओ पथिक! तुम कहाँ चले दल बल कैसा यह दिखता है। जहाँ देखो वहीं सजावट है क्या कोई नूतन रिश्ता है। केशरिया ध्वज मंगल तोरण को देखा मैंने गली-गली। हे पथिक! मुझे भी बतलाना यह टोली किसकी ओर चली ॥ ३ ॥ अनजाने राही क्या तुमने अब तक न सुनी पावन गाथा । इक ज्ञानज्योति नामक रथ को भेजा है ज्ञानमती माता ॥ जा रहे बधाई देने हम सब ज्योती रथ के स्वागत में। इस कारण नगरों में ध्वज तोरण आदि सजाए हैं हमने ॥ ४ ॥ यह ज्योति भले ही उत्तर भारत की प्रतिनिधि बन आई है। लेकिन दक्षिण भारत की ही रचना इसमें दर्शाई है। यह केवल भ्रम है पथिक तेरा यह तो उत्तर की रचना है। हस्तिनापुरी की धरती पर बन रही चैकि यह रचना है॥ ५ ॥ सुन मेरे अनजाने भ्राता इसकी भी एक कहानी है। श्री ज्ञानमती माता की मैंने सच्ची सुनी कहानी है। सन् उन्निस सौ पैसठ में उनका संघ आर्यिका आया था। कर्नाटक श्रवणबेलगुल में उनने चौमास रचाया था ॥ ६ ॥ वहाँ एक वर्ष तक बाहुबली के चरणों में विश्राम किया। पंद्रह दिन मौनसाधना से एकाग्रचित्त हो ध्यान किया। उनके उस ध्यान की धारा में शुभ जम्बुद्वीप रचना आई। मानो प्रभु बाहुबली ने ही उनको अमूल्य कृति दिखलाई ॥ ७ ॥ जब ज्ञानमती माताजी ने उस ध्यान को वचनों में बाँधा। हम सबने तब दक्षिण में उसे करने का किया इरादा था। लेकिन संयोग जहाँ जिसका हस्तिनापुरी का भाग्य खिला। दक्षिण की रचना से उत्तरवासी को कितना लाभ मिला ॥ ८ ॥ मत बुरा मानना राहगीर मेरा अपनापन इसीलिए। सारे दक्षिणवासी इसका स्वागत भी करेंगे खोल हिए ॥ हम तो उन ज्ञानमती अम्मा को अपनी अम्मा कहते हैं। उनकी कन्नड़ बारहभावना रचना हम प्रतिदिन पढ़ते हैं ॥ ९ ॥ मैं रोमांचित हो गया पथिक तेरी इन सत्य कथाओं से। सचमुच यह निधी तुम्हारी है प्रभु बाहुबली गाथाओं से ॥ जिन बाहुबली ने एक वर्ष तप कर केवल पद प्राप्त किया। माँ ज्ञानमती ने उनका सानिध एक वर्ष तक प्राप्त किया ॥ १० ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सोचो प्रभु बाहुबली ने उन्हें फल एक वर्ष के साधन का। देकर शुभ जम्बूद्वीप कृती संदेश दिया पावनता का ॥ यह कैस एक वर्ष साधन का दोनों को संयोग मिला। केवलपद उनको मिला ज्ञानमति माँ को जम्बूद्वीप मिला ॥ ११ ॥ सौभाग्य पथिक मानो इसको दक्षिण उत्तर का सेतु मिला। प्रभु बाहुबली के सदृश ही उत्तर में तीरथ एक बना ॥ तुम सबका हर्ष विशाल देख मेरा मन पंछी जाग उठा । बतलाऊंगा सारे जग को है जम्बूद्वीप सुदक्षिण का ॥ १२ ॥ यह चर्चा दो पथिकों की थी संभ्रान्त व्यक्ति इक आ पहुँचा। तुम चलो अभागों ज्ञानज्योति में कैसा हर्षोल्लास मया ॥ बोला है आठ नवम्बर तेरासी का आज सुखद अवसर । जब मेरे मागुर और निपाणी में छाई है हर्ष लहर ॥ १३ ॥ बेलगांव जिले के नगर-नगर में पुष्पों की हरियाली थी। रंग रांगोली ने घर-घर के आगे कर दी दीवाली थी ॥ कुप्पनवाड़ी कोथली शहर ने ज्ञानज्योति अर्चा कर ली । आचार्य देशभूषणजी ने वहाँ धर्मामृत वर्षा कर दी ॥ १४ ॥ आचार्यरन की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि कुप्पनवाड़ी। यहीं अन्तसमाधी भी उनकी इसलिए तीर्थभूमी मानी ॥ सिद्धनाल अकोल व शमनेवाड़ी में जनता का भाग्य जगा । इक ग्राम गलतगा था जहाँ पर मुनि सिद्धसेन का जन्म हुआ ॥ १५ ॥ शमनेवाड़ी में बैड ध्वनी ने सबके दिल को जीत लिया। आई बहार थी नगरी में जब बाहुबली का गीत दिया ॥ इस भव्य जुलूस में हज्जारों नर नारी स्वागत में आए। ब्रह्मचारी मोतीचंदजी ने उद्देश्य ज्योति के बतलाए॥ १६ ॥ अब गुरुओं के गुरु शान्तिसिन्धु की जन्मभूमि पर ज्योति गई। बेलगांव जिले के भोजगांव में स्वागत की थी लहर नई ॥ सबने अपने को धन्य किया गुरु जन्मभूमि दर्शन करके । वह भोजग्राम भी तीर्थ बना माँ सत्यवती के इस सुत से ॥ १७ ॥ ऐसे ही ग्राम सदलगा में विद्यासागर का जन्म हुआ। तारीख नवम्बर तेरह के दिन वहाँ पर ज्येति प्रवर्तन था। उस शहर की चेयरमैन श्रीमती बाई हनवर ने आकर । इक पुष्पहार को चढ़ा दिया शुभ ज्ञानज्योति पावन रथ पर ॥ १८ ॥ स्वागत भाषण में ज्ञानज्योति की निर्मात्री को धन्य कहा । खुद नारी होकर नारी के आदर्शों का माहात्म्य कहा ॥ जब इस धरती पर कलियुग में भी शनमती-सी माता है। तब बोलो कैसे अबला हो सकती यह भारतमाता है ॥ १९ ॥ अंकली और नश्लापुर शिरगुप्पी से कागवाड़ आई। शेडवाल नगर में ज्ञानज्योति आगमन की हर्ष लहर छाई ॥ For Personal and Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६०१ विद्यानंदी आचार्यप्रवर की जन्मभूमि यह कहलाती। ये जन्मभूमियाँ निज पुष्पों की सुरभि जगत में महकातीं ॥ २० ॥ ऐनापुर के उस प्रांगण में अब ज्ञानज्योति रथ आया है। जहाँ शांतिसिन्धु के शिष्य कुन्थुसागर ने जीवन पाया है। कर्नाटक का बेलगांव जिला सौभाग्यशालि सर्वाधिक है। जहां सदी बीसवीं के कितने आचार्य हुए उपदेशक हैं ॥ २१ ॥ कोन्नूर शहर में पहुँच ज्योति ने तपोभूमि का दर्श किया । श्री शांतिसिन्धु की काया का जहाँ सों ने स्पर्श किया ॥ विषधर गर्दन में लिपट गया पर गुरुवर ने नहिं ध्यान तजा। बस इसीलिए चारित्रचक्रवर्ती पद उनको शोभ रहा ॥ २२ ॥ गोकाक नगर आचार्य पायसागर का जन्मनगर भी है। जहाँ सैलटेक्स आफीसर जी स्वागत को आए ज्योती में | इक नारी के द्वारा प्रेरित इस सफल प्रवर्तन को पाकर । आश्चर्यचकित हो नमन किया ज्योतीरथ के सन्मुख आकर ॥ २३ ॥ चल पड़ी बहस दो कन्याओं में क्या यह सच हो सकता है। क्या ज्ञानमती माता द्वारा यह महाकार्य हो सकता है। इस एक प्रश्न के उत्तर में दूजी ने कहना शुरू किया। यह पहली कन्या कलियुग की जिसको नारी का गुरु कहा ॥ २४ ॥ इस ज्योतिप्रवर्तन से केवल नहिं ज्ञानमती जानी जातीं। सारे विद्वान जगत में वे विदुषी माँ पहचानी जाती॥ उनकी साहित्यिक कृतियों ने जग में इतिहास बनाया है। हस्तिनापुरी निज तपोभूमि में कैसा अलख जगाया है ॥ २५ ॥ सब गांव गली औ शहरों में यह ज्योति प्रवर्तन करती है। २९ नवम्बर को प्रातः बेलगांव में आन ठहरती है। हनवर हट्टी, अमटूर, शिवापुर कितने नाम गिनाऊँ मैं। यह इच्छा है माँ ज्ञानमती सम ज्ञान की प्रतिभा पाऊँ मैं ॥ २६ ॥ द्वेवर्षी मेहली, थिगडोली, देवालोली, कीत्तूर नगर। इसके पश्चात् प्रवेश हुआ धारवाड़ जिले के भी अन्दर । सत्तरह दिसम्बर तेरासी एस.पी. सुभाषवर्णी आकर । धारवाड़ नगर में अभिनंदन कर लिया ज्ञानज्योती रथ पर ॥ २७ ॥ हुबली की शोभायात्रा में जनता की भीड़ अपार हुई। इतिहास के पन्नों पर जिनकी श्रद्धाएं भी साकार हुईं। उस जिले के ग्राम गडम में श्री मुत्तीनपेंडीमठ जी आए। इन एम.एल.ए. के साथ श्री देवीन भी स्वागत को आए ॥ २८ ॥ श्री मदनकेशरी एम.बी. वत्री बागलकोट पधारे थे। बीजापुर जिले में ये दोनों अतिथी स्वागत को आए थे। जनता ने बोली लेकर अपने इन्द्रादिक का चयन किया। इस ज्ञानज्योति के रथ पर सबने अपना आसन ग्रहण किया ॥ २९ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२] गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ उन्नीस दिसम्बर को बीजापुर में स्वागत सत्कार हुआ। जनता पार्टी अध्यक्ष ने आ अर्पित पुष्पों का हार किया। इण्डी, आलन्द, बिदर, बासवकल्याण सभी का क्रम आया। इक्कीस दिसम्बर को गुलबर्ग जिले में था स्वागत पाया ॥ ३० ॥ तहसीलदार एम.पी. बालीगर ने मंगल आरति कर ली। बहुजनसमुदाय जुड़ा सब नर नारी ने पुष्पांजलि भर ली । गलियों में शोभायात्रा के मधि पुष्पवृष्टि वे करते थे। जय ज्ञानज्योति जय ज्ञानज्योति के शब्द निरन्तर चलते थे॥ ३१ ॥ हरलापुर गुड़गेरी हरिहर में वीर प्रभू संदेश मिला। दावणगेरे चित्रदुर्ग जिले में कुन्थुसिन्धु का संघ मिला ॥ आचार्य कुंथुसागरजी ने प्रवचन में खुशियां दर्शाई। उनका कहना इक नारी ने कैसी इच्छा शक्ती पाई ॥ ३२ ॥ उस समय ज्योति के दर्शन से उनके मन में भी भाव जगे। कब तीर्थ हस्तिनापुर में जाकर जम्बूद्वीप का दर्श करें। सन् उनिस सौ नवासी में उनका संघ हस्तिनापुर आया। श्री ज्ञानमती माताजी ने उस समय संघ था बुलवाया ॥ ३३ ॥ इस जिले से चिकमंगलूर चली वह ज्ञानज्योति मंगल यात्रा। भिंगेरी, कोप्पा और कालसा में निकली शोभा यात्रा ॥ नरसिंह राजपुर आदि नगर में जैन धर्म को बतलाया। नहि आदिनाथ ने नहीं वीर प्रभु ने है इसको चलवाया ॥ ३४ ॥ यह सार्वभौम शासन अनादि से पृथ्वीतल पर आया है। वृषभेश तथा महावीर ने धर्मप्रवर्तन मात्र कराया है। जो कर्मशत्रुओं को जीते उसको जिनेन्द्र माना जाता। जिनदेव उपासक जैनी है वह धर्म धर्मजिन कहलाता ॥ ३५ ॥ जैसे मिश्री हर प्राणी को अपनी मिठास ही देती है। जिनधर्म शरण भी ऐसे ही सबको पावन कर देती है। चाण्डाल ने भी धारा इसको यह बात ग्रंथ बतलाते हैं। इस ज्ञानज्योति के माध्यम से हम जग में ज्योति जलाते हैं ॥ ३६ ॥ इन व्यापक उपदेशों को ले यह रथ सीमोगा में पहुंचा। हुम्मच में भव्य प्रवर्तन कर पद्मावति मंदिर भी पहुँचा । देवेन्द्रकीर्ति भट्टारकजी ने स्वागत सभा बुलाई थी। कन्नड़ भाषा में प्रवचन कर सबको संतुष्टि कराई थी॥ ३७ ॥ दक्षिण कन्नड़ के तीर्थ मूडबिद्री में भी उत्सुकता थी। श्री चारुकीर्ति स्वामीजी के सनिध में वहाँ व्यवस्था थी॥ सबका स्वागत स्वीकार हुआ ज्योती ने पुनः विहार किया। रत्नों की प्रतिमा के दर्शन कर सबको हर्ष अपार हुआ ॥ ३८ ॥ वेन्नूर तथा मंगलौर बेलतंगड़ी की जनता जाग उठी। धर्मस्थल में प्रभु बाहुबली के निकट ज्ञानज्योती पहुँची। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६०३ धर्माधिकारि वीरेन्द्र हेगड़े ने स्वागत सत्कार किया। फिर केरल के परदूर और कलपट्टा में प्रस्थान हुआ ॥ ३९ ॥ जिलाधीश विश्वनाथन ने ज्योतीरथ को माला पहनाई। कलपट्टा में बहुतेक व्यक्तियों ने पुष्पांजलि बिखराई॥ मैसूर जिले में सालिग्राम श्रीरंगपट्टन का क्रम आया। चामराजनगर में एस.ए. धरणेन्द्रैया ने रथ चलवाया ॥ ४० ॥ इसवी सन् चौरासी बारह जनवरी दिवस पावन आया। जब कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में ज्योतीरथ आया ॥ अपने प्रभु बाहुबली चरणों की रज मस्तक पर चढ़ा लिया। माँ ज्ञानमतीजी का हार्दिक संदेश प्रभू को सुना दिया ॥ ४१ ॥ प्रान्तीय प्रवर्तन समिती के आयोजक सभी पधारे थे। केन्द्रीय समिति अध्यक्ष महामंत्री आदी भी आए थे। स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामी बोले यह ज्योति हमारी है। हस्तिनापुरी की रचना में हम सबकी सम्मति भारी है॥ ४२ ॥ नगरी में ऐसी धूम मची क्या ज्ञानमती अम्मा आई। हर्षाश्रू बरस पड़े सबके नयनों ने खुशियां छलकाई ॥ प्रभु बाहुबली भी विध्यगिरी से अपनी ज्योती देख रहे। निज मन्द मन्द मुस्कानों से मंगलआशीष बिखेर रहे ॥ ४३ ॥ इस रोमांचक क्षण का वर्णन नहिं मेरी लेखनी लिख सकती। लिखते क्षण भी वह मिलन सोच मेरी दोनों आंखें छलकीं ॥ संयोग वियोगों के प्रसंग सबको रोमांचित करते हैं। इस चिरस्थाई अवसर पर सब ज्योती का स्वागत करते हैं ॥ ४४ ॥ सबकी अँखियाँ यह कहती थीं यह ज्योति यहीं पर रह जावे। प्रभु बाहुबली के चरणों में ही रचना इसकी बन जावे॥ पर अब तो ज्योति सभी नगरों में अपनी ज्योति जलाएगी। हस्तिनापुरी में जम्बुद्वीप दर्शन को तुम्हें बुलाएगी ॥ ४५ ॥ दडगा, मंडया व कुनीगल से टुमकूर शहर में रथ आया। लक्ष्मी नरसिम्या एम.एल.ए. ने नगर प्रवर्तन करवाया । श्री वी. रष्णा डिप्टी स्वीकर ने माल्यार्पण आरति कर ली। ध्वज तोरण बैंड धुनों से युत शोभायात्राएं भी निकलीं ॥ ४६ ॥ पंद्रह जनवरी को बेंगलौर में ज्योति का आगमन हुआ। एम.सी. अनन्तराजैया के द्वारा रथ का परिभ्रमण हुआ। श्री श्रवणबेलगुल तीरथ से भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी। बेंगलोर प्रवर्तन में अपना सानिध्य दिया अरु गुरूवाणी ॥ ४७ ॥ थे मुख्य अतिथि मेयर साहब, बेंगलोर की स्वागत यात्रा में। निर्मल सेठी केन्द्रीय समिति अध्यक्ष भी थे उस यात्रा में। मोतीचंदजी ने बतलाया अब चरणसमापन का आया। कर्नाटक के पश्चात् तमिलनाडू वालों ने बुलवाया ॥ ४८ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सेलम में ज्ञानज्योति का शुभ आगमन हुआ मंगलकारी। सन् चौरासी जनवरी अठारह स्वागत करते नरनारी ॥ पांडीचेरी से थिंडिवनम में विश्वशांति संदेश दिया। इक समवशरण की भाँति सभी प्राणी को हित उपदेश दिया ॥ ४९ ॥ आर्यिका विजयमती माता का सेलम में संघ उपस्थित था। उनके पावन आशीषों से हर जनमानस भी हर्षित था। इस तमिलनाडु में गुरुओं के सानिध्य बहुत कम मिलते हैं। कुछ पुण्य उदय से गणिनी आर्या श्री के दर्शन उन्हें मिले ॥ ५० ॥ मेलचितामूर है तमिलनाडु का एक कलाकृति तीर्थ कहा। भट्टारक लक्ष्मीसेन स्वामि का था मंगल सानिध्य जहाँ ॥ प्रान्तीय तमिल भाषा में ही उपदेश सुनाया जनता को। अपनी भाषा में समझ ज्योति में दरसाई निज श्रद्धा को॥ ५१ ॥ इस तीरथ से चल वंदवासी नामक इक शहर और आया। जहाँ हज्जारों नरनारी ने स्वागत जुलूस भी निकलाया ॥ छब्बीस जनवरी को ज्योती मद्रास नगर में आई थी। श्रीमोहनमलजी चोरडिया ने माला वहाँ बढ़ाई थी॥ ५२ ॥ इस तमिलनाडु के बाद ज्योतिरथ आंध्र प्रान्त में भी आया। हैदराबाद में प्रादेशिक शिक्षामंत्री को बुलवाया ॥ पी. आनंद' गजपति राजू से स्वस्तिक बनवाया था रथ पर। बहुस्वागत सत्कारों के संग प्रान्तीय समापन था यहँ पर ॥ ५३ ॥ सन् उत्रिस सौ चौंसठ में यहाँ माताजी ने चौमास किया। ब्रह्मचारिणी मनोवती बाई की दीक्षा का शुभ कार्य हुआ। बन गई क्षुल्लिका अभयमती निज जीवन सफल बनाया था। श्री ज्ञानमती माताजी ने धार्मिक उत्सव मनवाया था ॥ ५४ ॥ श्री जयचंदजी लोहाड़े मांगीलाल पहाड़े आदि सभी। इस ज्ञानज्योति के स्वागत में मंगल आरति ले खड़े सभी । अम्मा के चातुर्मास संस्मरण खूब सभी ने याद किये। मोतीचंदजी ने वहाँ पहुँच सबके स्वागत स्वीकार किये ॥ ५५ ॥ कर्नाटक केरल तमिलनाडु आंध्रा प्रदेश में हुआ भ्रमण । मानवता के जागरण हेतु मानो आया था समवशरण ।। इस मध्य कार्य बहुतेक हुए नहिं जिन्हें लेखनी लिख पाई। संक्षेप मात्र में ही मैंने यह ज्योती यात्रा दर्शाई ॥ ५६ ॥ इन प्रान्तों में भट्टारक स्वामी गुरु का आशीर्वाद मिला। श्रीसिंह चन्द्र शास्त्रीजी का सक्रिय सहयोग अपार मिला ॥ केन्द्रीय प्रवर्तन समिति ने चउमुखी प्रचार प्रसार किया। बस इसीलिए "चन्दनामती" ज्योती ने कार्य अपार किया ॥ ५७ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६०५ ANGANA कर्नाटक में गणधराचार्य श्री कुंथुसागर महाराज ससंघ ज्ञानज्योति के पास । तमिलनाडू के सुप्रसिद्ध जैनमठ मेलचितामूर के समक्ष ज्ञानज्योति का स्वागत करते हुए भट्टारक जी massames . श्रवणबेलगोला में स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी जी ज्योतिरथ का अवलोकन करते हुए। कर्नाटक की राजधानी बेंगलोर में ज्ञानज्योति स्वागतसभा में मेयर तथा स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी जी श्रवणबेलगोल, निर्मल कुमार सेठी, एम.सी. अनंतराजैया, श्री मोतीचंद जी आदि। Over - Th engers ARGINJROWSE maaNRA meena - बेंगलोर की स्वागतसभा महापौर जी भाषण करते हुए। टूमकर में ज्ञानज्योति का अतिथियों को परिचय कराती हुई सौ. शांता सन्मतिकमार। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ म सरगुर (कर्नाटक) में ज्ञानज्योति स्वागत सभा को संबोधित करते हुए हुम्मच मठ' के भट्टारक स्वस्ति श्री देवेन्द्र कीर्ति स्वामी जी। आचार्य श्री पायसागर महाराज की जन्मभूमि गोकाक में कोल्हापुर जैनमठ के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन महाराज एवं नरसिंहराजपुर के भट्टारक जी HotSHOOC e leased आचार्य श्री विद्यासागर महाराज की जन्मभूमि सदलगा में उनके घर के सामनेसे ज्ञानज्योति रथ का निकलता हुआ जुलूस। T ANSE आचार्य श्री विद्यानंद महाराज का जन्मनगरी शेडवाल में उन्हीं के घर के सामने उनकी माता सरस्वती जी ज्ञानज्योति का स्वागत करने के लिए तत्पर है, साथ में हैं उनके परिवारीजन। जम्बूद्वीपज्ञान ज्योति स्वागत समारोह +- PRIOR - हैदराबाद में आंधप्रदेश के शिक्षामंत्री श्री ज्ञानज्योति स्वागत सभा को संबोधित करते हए। श्री मांगीलाल जी पहाड़े एवं तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री श्री जयचंद जी लोहाड़े एवं मोतीचंद जी। सेलम (तमिलनाडु) में ज्ञानज्योति रथ के समक्ष विराजमान गणिनी आर्यिकाश्री निगाजी जीगा। For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६०७ कर्नाटक एवं तमिलनाडु के तीर्थ क्षेत्र १. श्रवणबेलगोला (कर्नाटक), २. मूडबिद्री (कर्नाटक), ३. वेणूर (कर्नाटक), ४. बीजापुर (कर्नाटक), ५. हुम्मचपद्मावती (कर्नाटक), ६. मेलचितामूर (तमिलनाडु), ७. धर्मस्थल (दक्षिणी कन्नड़), ८. कारकल (दक्षिणी कनड़), ९. बेल्लूर (मंड्या), १०. वरंग, ११. हलेविड, १२. स्तवनिधि, १३. कोथली। ज्ञानज्योति से आलोकित कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश के शहर१. मगुर (बेलगांव), २. निपाणी (बेलगांव), ३. कोथली कुप्पावाड़ी (बेलगांव), ४. सिद्धनाल (बेलगांव), ५, अकोल (बेलगांव), ६. गलतगा (बेलगांव), ७. बेड़की हाल (बेलगांव), ८. शमनेवाड़ी (बेलगांव), ९. भोज (बेलगांव), १०. बोरगांव (बेलगांव), ११. सदलगा (बेलगांव), १२. अंकली (बेलगांव), १३. सौंदत्ती बुआ (बेलगांव), १४. नश्लापुर (बेलगांव), १५. शिरगुप्पी (बेलगांव), १६. कागवाड़ (बेलगांव), १७. शेडवाल (बेलगांव), १८. अथणी (बेलगांव), १९. दरूर (बेलगांव), २०. ऐनापुर (बेलगांव), २१. उगार वुदरूक (बेलगांव), २२. गुण्डवाड (बेलगांव), २३. खवटकोप (बेलगांव), २४. हारूगेरी (बेलगांव), २५. हिडकल (बेलगांव), २६. चिंचली (बेलगांव), २७. बेल्लदबागेबाड़ी (बेलगांव), २८. हेब्बाल (बेलगांव), २९. बस्तवाड (बेलगांव), ३०. हुक्केरी (बेलगांव), ३१. रायबाग (बेलगांव), ३२. घटप्रभा (बेलगांव), ३३. कोनूर (बेलगांव), ३४. गोकाक (बेलगांव), ३५. कणबर्गी (बेलगांव), ३६. मजगांव (बेलगांव), ३७. अनगोल (बेलगांव), ३८. बेलगांव, ३९. पीरनवाड़ी (बेलगांव),४०. अकरवाड (बेलगांव),४१. मुतगे (बेलगांव), ४२. हलगा (बेलगांव),४३. हनवरहट्टी (बेलगांव), ४४. सम्पगांव (बेलगांव), ४५. देवलापुर (बेलगांव), ४६. अमटूर (बेलगांव), ४७. बैलहंगल (बेलगांव), ४८. कड़वी (बेलगांव), ४९. शिवापुर (बेलगांव), ५०. गडीकोपा (बेलगांव), ५१. हटीहोल (बेलगांव), ५२. इटगी (बेलगांव), ५३. देवर्षीमेहली (बेलगांव), ५४. थिगडोली (बेलगांव), ५५. देवगांव (बेलगांव), ५६. देवालोली (बेलगांव), ५७. कीत्तूर (बेलगांव), ५८. धारवाड़ (बेलगांव), ५९. हुबली (धारवाड़), ६०. गडम (धारवाड़), ६१. बागलकोट (बीजापुर), ६२. बीजापुर (बीजापुर), ६३. इंडी (बीजापुर), ६४. आलन्द (बीजापुर), ६५. बासवकल्याण (बेलगांव), ६६. हलकेड (बेलगांव), ६७. बिदर, ६८. जहीराबाद (आंध्र प्रदेश), ६९. गुलबर्ग, ७०. सेडम (गुलबर्ग), ७१. शाहबाद (गुलबर्ग), ७२. मलगट्टी (गुलबर्ग),७३. यादगिरि (गुलबर्ग), ७४. रायचूर, ७५. अदोनी (आंध्र प्रदेश),७६. बेल्लारी, ७७. होसपेट (बेल्लारी), ७८. हरपन हल्ली (बेल्लारी), ७९. होविनहोडगली (बेल्लारी),८०. लक्ष्मीश्वर (धारवाड़), ८१. हरलापुर (धारवाड़), ८२. गुड़गेरी (धारवाड़),८३. हावेरी (धारवाड़), ८४. रानीवेनूर (धारवाड़), ८५. हरिहर (चित्रदुर्ग), ८६. दावणगेरे (चित्रदुर्ग), ८७. बेलचोदू (चित्रदुर्ग), ८८. चल्लाकरे (चित्रदुर्ग), ८९. चित्रदुर्ग, ९०. होलकेरी (चित्रदुर्ग), ९१. होसदुर्ग (चित्रदुर्ग), ९२. भद्रावती (शिमोगा), ९३. नरसिंहराजपुर (चिकमंगलूर), ९४. कालसा (चिकमंगलूर), ९५. कोप्पा (चिकमंगलूर), ९६. भिंगेरी (चिकमंगलूर), ९७. तीर्थहल्ली (शिमोगा), ९८. हुमचा (शिमोगा), ९९. शिमोगा, १००. कारकल (कन्नड़), १०१. मूडबिद्री (दक्षिणी कनड़), १०२. वेन्नूर (दक्षिणी कनड़), १०३. मंगलौर (दक्षिणी कनड़), १०४. बेलतंगड़ी (दक्षिणी कन्नड़), १०५. धर्मस्थल (दक्षिणी कनड़), १०६. सरगुर (मैसूर), १०७. परदूर (जि. बैनाड़) केरल), १०८. कलपट्टा (जि. वायनाड) केरल, १०९. चामराजनगर (मैसूर), ११०. मैसूर, १११. श्रीरंगपट्टन (मैसूर), ११२. सालिग्राम (मैसूर), ११३. हासन, ११४. श्रवणबेलगोला (हासन), ११५. मंडया, ११६. बेल्लूर (मंडया), ११७. दडगा (मंडया),११८. कुनीगल (टुमकुर),११९. टुमकुर, १२०.बेंगलोर, १२१. मधुगिरी (टुमकुर),१२२. कोटगिरी (टुमकुर), १२३. गौरीविडनुर (टुमकुर), १२४. सेलम (तमिलनाडु), १२५. पांडीचेरी, १२६. थिंडीवनम् (तमिलनाडु), १२७. मेलचितामूर (तमिलनाडु). १२८. बंदवासी (तमिलनाडु), १२९. मद्रास, १३०. हैदराबाद (आंध्र प्रदेश)। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की मध्यप्रदेशीय यात्रा मध्यप्रदेश की संस्कारधानी "जबलपुर" से १ फरवरी सन् १९८४ को जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का मंगल प्रवर्तन प्रारंभ हुआ। यहाँ की चिरपिपासु जनता ज्ञानज्योति आगमन की सूचना प्राप्त होते ही अपने-अपने घरों से स्वागत हेतु निकल पड़ी। किसी के हाथ में मंगल आरती, किसी के मस्तक पर मंगल कलश, नवयुवकों के हाथों में केशरिया झण्डे, स्वागत बैनर आदि ज्योतिरथ के भावभीने स्वागत को सूचित कर रहे थे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जैसा कि इस नगर के विषय में प्रसिद्धी है कि "किसी लघु आयोजन में . भी हजारों की जनता बिना परिश्रम किए ही एकत्रित हो जाती है," वही बात दृष्टिगत भी हुई। ज्ञानज्योति के मध्यप्रदेशीय उद्घाटन में हजारों नर-नारी जबलपुर में उस दिन इकट्ठे हुए, जबकि शीतकालीन ठण्डी रश्मियाँ अपना पूर्ण प्रभाव पृथ्वी तल पर दिखा रही थीं, सूर्य देवता भी छुप-छुप कर अपना दर्शन दे रहे थे, किन्तु धर्मप्राण जनता सर्दी-गर्मी की परवाह किये बिना हर पल धर्म कार्य हेतु कटिबद्ध रहती है, इसका साक्षात् दृश्य जबलपुर में दिखाई दे रहा था। सारी नगरी नई नवेली दुल्हन की भाँति सजी हुई थी, क्योंकि उसे अपने अतिथियों का सत्कार करना था। ज्ञानज्योति की शोभायात्रा में दस हजार लोग मध्यप्रदेश में ज्ञानज्योति प्रवेश के मंगल अवसर पर जबलपुर में मध्यप्रदेश कांग्रेस जब जय-जयकार करते हुए चल रहे थे, उस समय का दृश्य समवशरण के के अध्यक्ष श्री मोतीलाल जी बोर खरगोन निभाड़ क्षेत्र के सांसद श्री सुभाष यादव, सदृश प्रतीत हो रहा था। नगर निवासियों ने बतलाया कि "ऐसी भीड़ जबलपुर राज्य पर्यावरण मंत्री श्री चन्द्रकांत भानोट, वन मंत्री श्री अजयनारायण मुसरान प्रांतीय के किसी गजरथ में भी देखने को नहीं मिली।" प्रवर्तन समिति के पदाधिकारी श्री कैलाशचंद चौधरी, इंदौर। प्रशासन भी जाग्रत हुआभारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा प्रवर्तित ज्ञानज्योति का मध्यप्रदेश में आगमन जानकर प्रान्तीय शिक्षामंत्री श्री मोतीलालजी बोरा, वनमंत्री श्री अजय नारायण मुसरान, राज्य पर्यावरण मंत्री श्री चन्द्रकान्त भानोट तथा मध्य प्रदेश कांग्रेस आई के महामंत्री ललित श्रीवास्तव एवं सांसद श्री सुभाष यादव आदि महानुभावों ने उपस्थित होकर ज्ञानज्योति रथ पर स्वस्तिक बनाकर, पुष्पहार अर्पण कर आरती-पुष्पांजलि आदि द्वारा प्रान्तीय रथ प्रवर्तन का उद्घाटन किया। शासन अधिकारियों के साथ-साथ ज्ञानज्योति के केन्द्रीय महामंत्री ब्र. श्री मोतीचंदजी जैन एवं मध्यप्रदेशीय ज्ञानज्योति प्रवर्तन समिति के अध्यक्ष श्री देवकुमार सिंहजी कासलीवाल-इंदौर, उपाध्यक्ष श्री कैलाश चंदजी चौधरी-इंदौर, ज्ञानज्योति का स्वागत करते हुए जबलपुर के कार्यकर्तागण श्री सुरेशचंद जैन, श्री महामंत्री श्री इंदरचंद चौधरी-सनावद, प्रचारमंत्री श्री त्रिलोकचंद जैन-सनावद शीलचंद जैन, श्री निर्मलचंद जैन भू.पू. सांसद, श्री मोतीचंद जी, श्रीचंद जी, श्री तथा सनावद आदि सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने उपस्थित त्रिलोकचंद जी, श्री प्रकाशचंद जी। होकर कार्यक्रम को सफल बनाने में अपना अपूर्व योगदान दिया। सभी लोगों ने स्वागत सभा में अपने विचार व्यक्त किये कि "पूरे मध्यप्रदेश में यह ज्योतियात्रा निर्विघ्र रूप से विहार करे, इसके द्वारा जनमानस में राष्ट्रीय एकता, विश्वबंधुत्व एवं धार्मिक सहिष्णुता का संचार हो।" शिक्षामंत्रीजी ने अपने वक्तव्य में विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि “यह ज्योति मध्यप्रदेश की जनता में ज्ञान का अलख जगाएगी, गांव की अनपढ़, पिछड़ी जनता में अक्षर ज्ञान का भी संचार होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है।" । वन एवं राज्यपर्यावरण मंत्री ने आज यहाँ अपने वक्तव्य में जंगलों एवं पर्यावरण को सुरक्षित रखने हेतु वन्य जीवों के प्रति दयाभाव रखने की अपील की। उन्होंने कहा कि जैन धर्म की अहिंसक प्रवृत्तियों से हमारे शासन को भी सदैव बल मिलता है। इस जैन ज्योति के प्रवर्तन से समस्त प्राणियों में अहिंसा धर्म फैलेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। ब्र. श्री मोतीचंदजी ने ज्ञानज्योति प्रवर्तन के चहुंमुखी उद्देश्यों को अपने ओजस्वी भाषण में बतलाया। उन्होंने कहा कि दिल्ली, राजस्थान, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, आंध्रा आदि प्रदेशों का भ्रमण करती हुई जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति अब मध्यप्रदेश में पधारी है। यहाँ की सरकार, समाज एवं जनता का उत्साह देखकर ऐसा लगता है कि हमारा यह प्रादेशिक प्रवर्तन निश्चित ही ऐतिहासिक होगा। श्री देवकुमार सिंहजी कासलीवाल-इंदौर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के इस महत्तम कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बतलाया कि "इस जम्बूद्वीप रचना के निर्माण से हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र निश्चित ही उत्तर भारत का पर्यटन केन्द्र बनेगा तथा वैज्ञानिकों की दृष्टि भी नई खोज की ओर केन्द्रित होगी।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला श्री कैलाशचंदजी चौधरी -इंदौर उपाध्यक्ष प्रांतीय प्रवर्तन समिति ने जगह-जगह अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया तथा श्री इंदरचंद चौधरी सनावद महामंत्री प्रादेशिक समिति ने पूज्य ज्ञानमती माताजी को नारियों की मसीहा बतलाते हुए कहा कि "इस ढाई हजार वर्ष के इतिहास में इस नारीरत्न ने अपने अमर कार्यों के द्वारा संसार में जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह युगों-युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा।" इसी प्रकार यहाँ के 'लक्ष्मी अम्ब्रेला' व्यापार के संचालक श्री सुमेरचंद जैन (जिन्हें दादाजी के नाम से जाना जाता है) एवं श्री भूरमल जैन ने अपना सक्रिय सहयोग प्रदान किया। Jain Educationa International जबलपुर की मधुर स्मृतियों को अपने में संजोए हुए ज्योतिरथ का प्रस्थान जबलपुर संभाग की गली-कूचों में हुआ, जिसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जो महा आत्माएं होतीं युग परिवर्तन कर देती हैं। भारत माता उनको पाकर निज जन्म सफल कर लेती है ॥ है वर्तमान गौरवशाली जो ऐसी ज्ञान प्रदाता हैं। निज ज्ञानज्योति से आलोकित कर रहीं ज्ञानमति माता हैं ॥ १ ॥ उनके पुरुषार्थों का प्रतीक यह शनज्योति पावन रथ है। हस्तिनापुरी में निर्मित जम्बूद्वीप इसी का प्रतिफल है ॥ नै महिने से दक्षिण भारत जिस ज्येती से अलेक्ति था वह पुनः उत्तरापथ आई अब मध्य प्रदेश प्रवर्तन था ॥ २ ॥ पहले संभाग जबलपुर से उद्घाटन हुआ ज्योति रथ का । चौरासी सन् फरवरी एक प्रारंभिक काल प्रवर्तन का ॥ चल पड़ी ज्योति यात्रा आगे पूरे प्रदेश का हित करने। जिन ग्रामों के थे नाम नहीं वे भी आए स्वागत करने ॥ ३ ॥ इक नगर सिलौड़ी का मार्मिक संस्मरण याद आया मुझको । इक नारी ने कितने दिन से शुभ आश संजोई दर्शन को ॥ सोचा था अपने हाथों से कुछ दान यथाशक्ति दूंगी। हस्तिनापुरी की रचना में अर्थांजलि मैं अपनी दूंगी ॥ ४ ॥ लेकिन होनी को इस जग में नहिं टाल कोई भी सकता है। इस मरण काल के आगे क्या कोई का वश चल सकता है ॥ नगरी में ज्योति पहुँचने से पहले ही उसका मरण हुआ । पर ज्योति प्रवर्तन बिना किन्हीं भी विघ्नों के सम्पन्न हुआ ॥ ५ ॥ परिवार की धार्मिकता देखो सबने ही रथ में भाग लिया। मृतका नारी के पूर्व भाव अनुसार उन्होंने दान दिया ॥ यह धर्मप्रेम उस परिकर की वैराग्य भावना का फल था। जिनने ऐसे वियोग क्षण में भी प्रस्तुत किया उदाहरण था ॥ ६ ॥ [६०९ चल दिया ज्योति परिवार यहाँ से सभी अमरकंटक आए। नर्मदा नदी का उद्गम स्थल लख सबके मन हर्षाए ॥ बरगी व बरेला तथा कटंगी आदिक उन सब शहरों में। करते थे जहाँ प्रतीक्षा सब पहुँची ज्योती उन नगरों में ॥ ७ ॥ For Personal and Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ जब करकबेल से नरसिंहपुर की ओर ज्योति प्रस्थान हुआ। पथ में इक जगह बृहत् पदयात्रा संघ के साथ मिलान हुआ ॥ श्वेतांबर श्रावक साधु सहित पंद्रह सौ पदयात्री देखा। वह ज्ञानज्योति रथ रुकवा कर सबने बारीकी से देखा ॥ ८ ॥ इतना विशाल पदयात्रा संघ नहिं पूर्व में देखा गया कभी। भोजन पानी की सभी व्यवस्था उनके संग बाहन पर थी॥ 'नरसिंहपुर' में फरवरी की दस तारीख में ज्ञानज्योति आई। प्रादेशिक वनमंत्रीजी ने ज्योती पर माला पहनाई ॥ ९ ॥ 'सिवनी' के प्रांगण में बारह फरवरी ज्योति आगमन हुआ। श्रीमती प्रभा भार्गव एम.एल.ए. द्वारा रथ परिभ्रमण हुआ। पंडित श्री सुमेरचंद्र दिवाकर ने आकर उपदेश दिया। निज जन्मभूमि में ज्ञानज्योति के स्वागत में संदेश दिया ॥ १० ॥ चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर की परम्परा वृद्धिंगत हो। श्री ज्ञानमती जैसी माता को पाकर तुम जीवन्त रहो॥ इस ज्ञानज्योति की दिव्य प्रभा गुरु का संदेश सुनाती है। कुछ संयम पालो जीवन में मत डरो यही बतलाती है ॥ ११ ॥ पंडितजी बोले यह ज्योती युग-युग तक ज्ञान प्रकाश करे। अनमोल ज्ञान का यह मोती इक सचमुच का इतिहास अरे॥ इसकी शीतलता का दर्शन साक्षात हमें करना होगा। गुरु वाणी को अब इन मुख से स्वयमेव हमें सुनना होगा ॥ १२ ॥ बहु स्वागत सत्कारों के संग ज्योतीरथ छिन्दवाड़ा पहुँचा । केशरिया ध्वज से सजे हुए स्कूटर का इक दल पहुँचा। दो तीन किलोमीटर पहले नवयुवकों ने सम्मान किया। छिन्दवाड़ा आयोजन करके सबने आगे प्रस्थान किया ॥ १३ ॥ प्रोफेसर लक्ष्मीचंद जैन ने भी स्वागत में भाग लिया। हज्जारों नरनारी को निज मंगल प्रवचन का लाभ दिया । मोतीचंद ब्रह्मचारीजी ने अपने भाषण में बतलाया। यह जम्बूद्वीप हस्तिनापुर की धरती पर है बनवाया ॥ १४ ॥ छिन्दवाड़ा से चोरई नगर में बारह बजे ज्योति पहुँची। जनता ने स्वागत हेतु बड़ी रुचि दिखलाई रात्री में भी॥ दीवाली मानो सजी हुई नगरी में विद्युत दीप जले। नर नारी केशरिया ध्वज मंगल घट ले जुलूस के साथ चले॥ १५ ॥ वरघाट लालबर्रा व नैनपुर जिला मंडला में आई। कहीं न्यायाधीश व जिलाधीश ने रथ को माला पहनाई ॥ डिंडोरी और पनागर गोसलपुर का प्रांगण महक उठा। इस ज्योति प्रवर्तन को पाकर शहरी जनमानस चहक उठा ॥ १६ ॥ भगवानदास गुप्ता ने सलेमनाबाद में रथ को नमन किया। तिवरी यात्रा ने एक नये संचालकजी का चयन किया ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६११ पंडित सुधर्मचन्दजी शास्त्री का जन्मग्राम कहलाता है। इस नगरी से जुड़ गई नये संचालकजी की गाथा है ॥ १७ ॥ कटनी में एक विधायकजी का भाग्य खिल गया था उस दिन। बैंडों की मधुर ध्वनी ने ज्योतीरथ सत्कार किया जिस दिन ॥ रीठी के भीष्म सहाय विधायक ने पुष्पों का हार लिया। अपनी नगरी में आई ज्ञान ज्योति का खूब प्रचार किया ॥ १८ ॥ बड़गांव तथा सिहुड़ी बाकल से बहुरीबन्द तीरथ पहुंची। श्री शांतिनाथ के अतिशय स्थल के दर्शन कर ज्योति जगी॥ संभाग जबलपुर का यह सफल प्रवर्तन यहीं समाप्त हुआ। सागर संभाग चली ज्योती सहयोग सभी का प्राप्त हुआ॥ १९ ॥ [२] सन् चौरासी के चार मार्च को जिला दमोह सिंगरामपुरा । मंगल प्रवेश से ज्ञानज्योति के मानो हुआ सवेरा था । सिंगरामपुरा व जवेरा में सरपंचों ने सत्कार किया। संचालकजी के प्रवचन में जनता ने जय-जयकार किया ॥ २० ॥ विद्युत प्रकाश फौव्वारों का जब हुआ प्रदर्शन रात्री में। तब नगर अभाना का विशाल मेला उमड़ा था रात्री में ॥ हस्तिनापुरी का लघु रूपक ही इस रथ में दर्शाया है। जिसने अपने आकर्षण से शुभ ज्ञानामृत वर्षाया है ॥ २१ ॥ लक्ष्मी भंडार जबलपुर के दादा सुमेरचंद संग रहे। श्री सेठ भूरमलजी भी अब इस ज्ञानज्योति के अंग बने। मोतीचंदजी शास्त्री सुधर्मचंद पंडित जी भी रहते थे। सब समय-समय पर ज्योति सभा को ही संबोधन करते थे॥ २२ ॥ छह मार्च दमोह ज्योति आई सारा जनमानस उमड़ पड़ा। बांदकपुर, हटा, पटेरा में नैतिकता का सम्मान बढ़ा। अनुभागीय अधिकारी निर्मलजी जैन हटा में आए थे। श्री भागचंद भागेन्दू ने बासा में दर्शन पाए थे ॥ २३ ॥ रात्री के ग्यारह बजे गढ़ाकोटा कार्यक्रम भव्य हुआ। इस ज्ञानज्योति में रात्री दिन का मानो भेद समाप्त हुआ। कितने शहरों में पूर्ण रात्रि तक भव्य जुलूस निकलते थे। बहुसंख्या में नरनारी इन स्वागत जुलूस में चलते थे॥ २४ ॥ जिनके मन में सम्यक्त्व ज्योति की शिखा सुदीपित रहती है। उनकी आत्माएं अंधकार में भी उद्दीपित रहती हैं। इस ज्ञानज्योति ने आशातीत सफलता जग में पाई है। इसके द्वारा बहुतों ने अपनी अन्तज्योति जलाई है ॥ २५ ॥ रहली सागर के एस.डी.ओ. साहब एवं नायकजी ने। स्वागत कर निज को धन्य किया ढाना के भी नर नारी ने ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२] Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ इस ज्ञानज्योति ने आशातीत सफलता जग में पाई है। इसके द्वारा बहुतों ने अपनी अन्तज्योंति जलाई है ॥ २५ ॥ रहली सागर के एस.डी.ओ. साहब एवं नायकजी ने। स्वागत कर निज को धन्य किया ढाना के भी नर नारी ने ॥ राहतगढ़ में विद्युत प्रकाश से नगरी खूब सजाई थी । माँ ज्ञानमती की ज्ञानज्योति अब इस नगरी में आई भी ॥ २६ ॥ डी. एस. ओ. श्री रघुवीर सिंह से रथ उद्घाटन करवाया। इस नगरी के मंगल जुलूस ने कीर्तीमान बनाया था । केशरिया ध्वज ले स्कूटर रथ आगे-आगे चलते थे। केशरिया कपड़ों में मंगल घट ले समूह कुछ चलते थे॥ २७ ॥ इक नगर गौरझामर में ज्योति प्रवर्तन हुआ बहुत भारी श्री परसरामजी साडू नगर विधायक एवं नर नारी ॥ स्वागत कर सबने मिल शोभायात्रा निकलाई नगरी में। देवरीकला महाराजपुरा क्षुल्लक चारितसागरजी थे ॥ २८ ॥ सागर खिमलासा नगरी में थी तेरह मार्च भाग्यशाली । इस ज्ञानज्योति ने जहाँ पहुँच कर सबकी ज्योति जला डाली। आचार्यकल्प श्री पार्श्वसिन्धु ने मंगल आशिर्वाद दिया। केन्द्रीय महामंत्री रवीन्द्रजी ने आगे का काम सम्हाल लिया ॥ २९ ॥ मंडी बामोरा में उनका प्रवचन जनता को प्राप्त हुआ। इस ज्योति प्रवर्तन उद्देश्यों से हर्षित सभी समाज हुआ। खुरई गुरुकुल के प्रांगण में तिल भर भी जगह न दिखती थी। धार्मिक कार्यों में यहाँ सदा केशरिया धूल बिखरती थी ॥ ३० ॥ श्रीमंत सेठ श्री ऋषभ जैन ने ज्ञानज्योति सत्कार किया । मुनिवर निर्वाण सिन्धु ने अपना आशिर्वाद प्रदान किया | भाई रवीन्द्र ने बतलाया यह जम्बूद्वीप पुराना है। श्री ज्ञानमती माताजी से हम सबने इसको जाना है॥ ३१ ॥ सागर में पंद्रह मार्च को जम्बूद्वीप ज्योतिरथ आया था। कटरा मंदिर के पास वहाँ स्वागत का मंच बनाया था ॥ डाक्टर श्री पन्नालाल ने भौगोलिक उपदेश सुनाया था । माँ ज्ञानमती की साहित्यिक रचनाओं को बतलाया था ॥ ३२ ॥ पंडित श्री दयाचंदजी ने इक तीरथ इसको बतलाया । इस जम्बूद्वीप में चूँकि महापुरुषों ने यहीं जनम पाया। ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्रजी ने पिछले संस्मरण सुनाये थे। जो ज्योति प्रवर्तन मध्य उन्हें अपने अनुभव में आये थे ॥ ३३ ॥ शोभा यात्रा में ब्राह्मी आश्रम की बालाएं चलती थीं। सब श्वेत साटिका सहित ज्ञानमति में की स्मृति करती थ मानो इस ज्ञानज्योति से उनके मन में सम्यग्ज्ञान खिला । आकृतियाँ बोल रहीं उनकी माँ मुझ को ज्ञान प्रभात मिला ॥ ३४ ॥ For Personal and Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६१३ कर्रापुर, बंडा, दलपतपुर से नैनागिरि प्रस्थान हुआ। इस तीर्थक्षेत्र के दर्शन से सबके मन हर्ष महान हुआ। हीरापुर से आगे बकस्वाहा जिला छतरपुर ज्योति चली। श्री वली मोहम्मद नगरपालिकाध्यक्ष चले थे गली-गली ॥ ३५ ॥ श्री कुंवर प्रताप सिंह ठाकुर बम्होरी नगर पधारे थे। आगे फिर बड़ा मलहरा में शर्माजी विधायक आए थे। शोभायात्रा का संचालन श्री हेमचंदजी के द्वारा। हो गया प्रवर्तन नगरी में सबने बोली थी जयकारा ॥ ३६ ॥ मध्यप्रदेश भ्रमण के कतिपय स्वानुभविक संस्मरण जंबूद्वीप ज्ञानज्योति के मध्यप्रदेश प्रवर्तन के मध्य कुछ समय मुझे भी (आर्यिका चंदनामती) ब्रह्मचारिणी अवस्था में ज्योति के साथ भ्रमण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिसके कतिपय अनुभवों को मैंने उसी समय लेखनीबद्ध किया था, वे ज्यों की त्यों यहाँ प्रस्तुत हैं २३ मार्च, १९८४, मध्यप्रदेश के द्रोणगिरी सिद्धक्षेत्र पर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का पदार्पण हुआ। मेरा भी इस सिद्धक्षेत्र से ही ज्योतिभ्रमण प्रारंभ हुआ। ज्ञानज्योति के साथ आए हुए समस्त कार्यकर्ता, संचालक ब्र. श्री पं. सुधर्मचंदजी शास्त्री तिवरी और हम सभी लोगों ने यहाँ के पर्वत की वंदना की। पर्वत पर २२५ सीढ़ियाँ हैं, ऊपर जाकर बहुत से प्राचीन मंदिर हैं। यहाँ की खास विशेषता यह रही कि पर्वत के ऊपर मैंने देखा महामुनि गुरुदत्त की प्रशस्ति लिखी हुई है, उन्होंने द्रोणगिरी से मोक्ष प्राप्त किया। प्राचीन इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि गुरुदत्त राजकुमार ने हस्तिनापुर में जन्म लिया था और हस्तिनापुर ही उनकी राजधानी थी। यहीं पर राज्य संचालन करके जैनेश्वरी दीक्षा धारण की थी। अन्त में उपसर्ग पर विजय प्राप्त करके द्रोणगिरी पर्वत से सिद्ध पद प्राप्त किया। वास्तव में ऐसे सिद्धक्षेत्रों की वंदना करके असीम आनन्द की अनुभूति होती है। बुंदेलखंड तो यूं भी तीर्थों की प्रसिद्ध भूमि है। ज्ञानज्योति भ्रमण के साथ-साथ लोगों को ऐसे कितने ही तीर्थों की वंदना का सौभाग्य मिलता रहा है, जो कि प्रत्येक प्राणी के लिए सहज सुलभ नहीं होते। यहाँ एक उदासीन आश्रम है, जहाँ ब्रह्मचारीगण धर्मध्यान और आत्मसाधना करते हैं। पर्वत के नीचे एक जिन मंदिर है तथा एक नवनिर्मित चौबीसी मंदिर भी है। इन तीर्थक्षेत्रों पर ज्ञानज्योति पदार्पण का प्रमुख उद्देश्य तीर्थवंदना का ही रहता है। यहाँ पर आस-पास के ग्रामवासियों ने तथा सिद्धक्षेत्र कमेटी अध्यक्ष, महामंत्री और सदस्यों ने ज्ञानज्योति का भावभीना स्वागत किया। सभा का आयोजन हुआ। क्षेत्र कमेटी की ओर से ज्योति संचालकों तथा कार्यकर्ताओं का पुष्पहार से स्वागत किया गया, जिसके लिए संचालक महोदय ने ज्योति प्रवर्तन की ओर से आभार प्रकट किया। यहाँ पर एक विशेष बात यह उल्लेख कर देना उचित होगा कि २१ मार्च से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के साथ केन्द्र सरकार की सूचना से मध्यप्रदेश राज्य सरकार की ओर से ९ पुलिस अधिकारियों सहित एक पुलिस वाहन भी रहा, जिनकी सुरक्षा में ज्ञानज्योति रथ का रात-दिन निर्बाध रूप से विहार जारी रहा। समस्त कार्यकर्ता सर्वआतंक मुक्त रहे। छतरपुर, टीकमगढ़ जिले के सभी ग्रामों में दिनांक ४-४-८४ चंद्रनगर तक इस सुरक्षा विभाग से अपूर्व सहयोग एवं आत्मीय भाव प्राप्त हुआ, जिसके लिए जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन और दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान की ओर से मध्यप्रदेश पुलिस विभाग को हार्दिक बधाई दी गई तथा सम्मानित भी किया गया। अपने पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार ज्ञानज्योति का मध्याह्न २ बजे द्रोणागिरि सिद्धक्षेत्र पर ज्ञानज्योति का अवलोकन करते हुए मुनि श्री नेमिसागर जी महाराज। द्रोणगिरी से मंगल विहार होकर भगवाँ आए। यहाँ जैन अजैन जनता ने काफी दूरी से ही ज्ञानज्योति का स्वागत किया। आम सभा हुई। मेरे तथा पं. सुधर्मचंदजी, भूरमलजी (जबलपुर) आदि के भाषण हुए। इन्द्रों की बोलियाँ हुईं और गाँव में ज्योति रथ का जुलूस निकाला गया। यहाँ पर २ जैन मंदिर हैं, जिनके दर्शन हम सभी ने किये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सर्प भी आया स्वागत करनेसायं भोजन तथा सामायिक से निवृत्त होकर आगे घुवारा के लिए प्रस्थान हुआ। कई बार ज्ञानज्योति संचालक विद्वानों के मुँह से मैंने सुना था कि इस ज्ञानरथ का स्वागत केवल मनुष्य ही नहीं, पशु भी करते हैं। यहाँ पर दृष्टिगोचर भी हुआ कि घुवारा शहर के अंदर प्रवेश करने से पूर्व २ मीटर लम्बे कृष्ण वर्ण के सर्पराज ने अपना फण फैलाकर स्वागत किया। हम सभी ने अपनी आँखों से इस दृश्य को देखा। लगभग २ मिनट के बाद सर्प झाड़ी में प्रविष्ट हो गया और ज्ञानज्योति अपने गन्तव्य की ओर चल दी। घुवारा में मेन बाजार में प्रोग्राम हुआ। यहाँ के एक कविराज महोदय ने कविता के माध्यम से सबका स्वागत किया। शांतिनाथ दिगंबर जैन विद्यालय की बालिकाओं ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। सभी विद्वानों के समयोचित भाषण हुए, बोलियाँ हुईं और रात्रि में १२ बजे तक जुलूस निकाला गया। जो कि उस नगर के लिए अविस्मरणीय दृश्य था। जगह-जगह बिजली और स्वागत वैनर्स के द्वारा पूरे नगर को सजाया गया था। रात्रि विश्राम यहीं हुआ। २४ मार्च, १९८४ प्रातः ७ बजे घुवारा से स्नान पूजन आदि से निवृत्त होकर आगे बड़ा गाँव आए। यहाँ की जैन समाज काफी उत्साही है। २ कि.मी. दूर जाकर ज्ञानज्योति रथ का स्वागत किया और नगर पदार्पण में अनेक तोरणद्वार लगाकर शोभा बढ़ाई। बड़ागाँव के युवा वर्ग उत्साही कार्यकर्ता हैं। यहाँ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ही २ मंदिर हैं। यह एक नवीन अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रकाश में आया है। पहाड़ी पर ही एक प्राचीन गुफा भी है, जहाँ चरण स्थापित हैं, जिसकी खुदाई का कार्य भी चल रहा था। संभव है कि कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई होगी। इस पहाड़ी से ही सामने की ओर एक पर्वत दिखता है, जिसके बारे में यहाँ के लोगों ने बताया कि यह शास्त्रों में वर्णित कोटिशिला नाम का पर्वत है। जिसके बारे में हम निर्वाणकांड में पढ़ते हैं-"कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूँ जोड़ जुगपान ।" शायद इस कोटिशिला पर से एक करोड़ मुनिराजों ने मोक्ष प्राप्त किया, इसीलिए इसे कोटिशिला के नाम से जाना जाता है। फिलहाल यह शोधकर्ताओं की खोज का विषय है। इस बड़ागाँव में बाजार में पंडाल बनाकर ज्ञानज्योति का कार्यक्रम हुआ। लोगों के उत्साह के अनुसार अच्छी बोलियाँ हुईं और कालेज के प्राचार्य महोदय की अध्यक्षता में आयोजन सफल हुआ। उन्होंने भी अपने अध्यक्षीय भाषण में जम्बूद्वीप और आधुनिक भूगोल पर अच्छा प्रकाश डाला । परम पू. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित साहित्य का भी बहुमात्रा में लोगों ने लाभ उठाया। जैन अजैन सभी लोगों ने ज्ञानज्योति रथ पर माल्यार्पण करके पुण्य लाभ लिया। मध्याह्न २ बजे सामायिक से निवृत्त होकर समर्रा आए। यहाँ एक जैन मंदिर है। हमने पं. सुधर्मचंदजी और हमारे साथ सोनागिरी से आई हुई सागर की ब्र. कु. सविता आदि सभी ने इसी मंदिर में प्रतिक्रमण किया। यहाँ १०-१२ जैन घर हैं। लोगों में उत्साह अच्छा रहा। सबने ज्ञानज्योति का माल्यार्पण द्वारा स्वागत किया और सायंकाल सामायिक के अनंतर हम सभी ज्ञानज्योति के साथ रात्रि ८ बजे पठा आ गए। यहाँ दो जैन मंदिर हैं, लेकिन जीर्णशीर्ण हालत में हैं, जिनकी सुरक्षा के विषय में हमने व पं. जी ने अपने वक्तव्य में प्रकाश डाला। जैन समाज के ८-१० घर हैं। सड़क पर ही सार्वजनिक सभा हुई, जिसमें अजैन जनता ने अधिक मात्रा में लाभ लिया। ज्ञानज्योति के साथ चल रहे समस्त विद्वानों के विचार सुने । जबलपुर दि. जैन पंचायत के महामंत्री श्री भूरमलजी ने पू. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अच्छा प्रकाश डाला। सभी लोगों ने ज्योति के ऊपर माल्यार्पण करके स्वागत किया। यहाँ पर एक सज्जन श्री शीलचंदजी से भेंट हुई, जो कि पूर्व में डा. भागचंद भागेन्दु के साथ हस्तिनापुर पधारे थे, जो माताजी और हम लोगों से परिचित थे, उन्होंने मुझे आहारजी क्षेत्र के दर्शनों के लिए आग्रह किया, जिसके फलस्वरूप मुझे ज्ञानज्योति के साथ ही २८ मार्च को आहारजी क्षेत्र के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दि. २४ मार्च की रात्रि में पठा का आयोजन होने के बाद रात्रि विश्राम यहाँ से १० कि.मी. दूर पपौराजी तीर्थक्षेत्र में हुआ। यहाँ पर मात्र एक मूल मंदिर के दर्शनों के पश्चात् हम सभी ने विश्राम किया। प्रातःकाल से यहाँ की क्रिया प्रारंभ होती है। २५ मार्च, १९८४, प्रातः ७ बजे भगवान आदिनाथ के मंदिर में हम लोगों ने अभिषेक पूजन किया। यह चैत्र वदी नवमी ऋषभ जयन्ती का पुण्य दिवस था। संयोगवश तीर्थक्षेत्र और ऋषभदेव के चरणसानिध्य में ही यह जन्मोत्सव मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूजन के अनंतर ज्ञानज्योति के साथ आए हुए समस्त लोगों ने, पुलिस विभाग वालों ने भी हम लोगों के साथ सारे मंदिरों की वंदना की। यहाँ एक ही विशाल परकोटे के अंदर ७६ मंदिर हैं, ११० वेदियाँ हैं, जिनके दर्शनों में लगभग २ घंटे का समय अवश्य लगता है। भगवान् बाहुबली का एक विशाल मंदिर है, जिसके चारों तरफ चौबीसी प्रतिमाओं की वेदियाँ हैं। यहाँ विशेष बात यह है कि तीर्थक्षेत्र के मुख्य दरवाजे पर एक रथ मंदिर है, जो कि बिल्कुल रथ के आकार का बना हुआ सुन्दर वाहन से युक्त प्रतीत होता है। यहाँ मेरु के आकार वाले भी त्रयप्रदक्षिणा युक्त ३-४ मंदिर हैं, जिनमें मूल शिखर पर ही एक-एक प्रतिमाएं विराजमान हैं, हाँ, इनमें कल्पना अवश्य मेरुपर्वत को ही लेकर मंदिर रचना की गई होगी। विभिन्न डिजाइन व आकार में से इन मंदिरों में से अधिकांश के मूल दरवाजे बहुत ही छोटे बने हुए हैं। जैसा कि शायद बुंदेलखंड के तीर्थों में छोटे दरवाजे वाले ही मंदिर होते थे। मन्तव्य ज्ञात करने पर पता लगा कि लोगों को झुककर मंदिर में प्रवेश करना चाहिए। आधुनिक सभ्यता के अनुसार बड़े दरवाजे ही मंदिर और मकानों में बनाने की परंपरा है। अतः लोगों को असुविधा के साथ-साथ चोट लगने की भी संभावनाएं रहती हैं। मुझे भी कई जगह सिर में चोटें आईं, किन्तु ईश्वर की कृपा से कहीं जोर की चोट नहीं आई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६१५ मध्याह्न २ बजे पपौराजी से टीकमगढ़ में ज्ञानज्योति का आगमन हुआ। यहाँ पर बहु मात्रा में जैन समाज है। दिगंबर जैन मझार के मंदिर के प्रांगण में सभा का आयोजन हुआ, उत्साहपूर्वक बोलियों और जुलूस का कार्यक्रम हुआ। स्थानीय पं. श्री विमल कुमारजी सोरया का भी वक्तव्य हुआ तथा ज्ञानज्योति के साथ उनका अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ। रात्रि में भी आम सभा हुई, जिसमें श्री भूरमलजी, पं. सुधर्मचंदजी और भी स्थानीय विद्वानों एवं श्रेष्ठियों के ज्ञानज्योति तथा पू. आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के विषय में वक्तव्य हुए। २५ ता. को टीकमगढ़ सभा आयोजन के पश्चात् रात्रि विश्राम पपौराजी में ही हुआ। इस प्रकार हमें भी पपौराजी के दुबारा दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। २६ मार्च, १९८४, प्रातः ६ बजे पपौराजी से रवाना होकर दिगौड़ा आए। टीकमगढ़ शहर की अपेक्षा कहीं अधिक उत्साह इन नगरवासियों में दृष्टिगत हुआ। एक मील दूर से ज्ञानज्योति का स्वागत यहाँ की जैन अजैन जनता ने किया। दिगौड़ा में एक प्राचीन किला है। इस किले के समीप ही मेन सड़क पर पंडाल बना था, जहाँ ज्ञानज्योति सभा का आयोजन हुआ। गाँव में जैन समाज के ८-१० घर हैं, किन्तु आस-पास के वर्माताल आदि गाँवों के लोगों ने भी आकर उत्साहपूर्वक आयोजन में भाग लिया। बोलियाँ भी बहुत अच्छी हुईं। हम सभी के, पं. सुधर्मचंदजी के ओजस्वी भाषण हुए। यहाँ पास में ही विद्यालय था, उसके भी अध्यापकगण तथा छात्रों ने रुचिपूर्वक वक्तव्य सुनकर अहिंसा धर्म के प्रति आकर्षित होकर ज्ञानमती माताजी का आधुनिक शैली वाला साहित्य प्राप्त किया। सभा की अध्यक्षता श्री विधायक महोदयजी ने की, जिनके द्वारा भी समाज को उचित दिशा निर्देश मिला। इंद्र-इंद्राणियों के सहित ज्ञानज्योति रथ का जुलूस इस नगर के लिए एक अद्भुत दृश्य था। लोगों ने नगर को शादी-विवाह की भाँति बहुत से तोरणद्वारों से सुसज्जित किया और चिरप्रतीक्षित ज्ञानज्योति का जी भरकर स्वागत किया, जिसके लिए संचालक महोदय ने ज्योतिप्रवर्तन की ओर से साभार स्नेह प्रकट किया। भविभागन वश जोगे वशायमध्याह्न २ बजे यहाँ से आगे लिधौरा के लिए ज्ञानज्योति का प्रस्थान हुआ। यह चारित्र का रथ जिनेन्द्र भगवान् के समवशरण के समान महावीर की वाणी का सिंहनाद करता हुआ अपनी गति से आगे बढ़ रहा है। "बहुजनहिताय सबजनसुखाय" के उदार भावों से ओत-प्रोत प्रत्येक जनमानस इसे हृदय से नमस्कार करता है। लिधौरा ग्राम में पहुँचने से पूर्व ही अजनौर एक छोटा-सा कस्बा है, उसकी सीमा पर ही कुछ नौजवान ध्वजा लिए हुए ज्योति के सन्मुख खड़े हो गए। पूर्व निर्धारित प्रोग्राम न होने के बावजूद भी हमें वहाँ ज्योति वाहन को उनके विशेष आग्रह पर रोकना पड़ा। अहिंसामयी इस केशरियाध्वज के समक्ष तो चक्रवर्ती भी झुक गए थे, एल खारवेल जैसे सम्राट् ने भी मस्तक झुका दिया था। हमें भी उन भाक्तिक सहृदय बंधुओं के लिए रुकना पड़ा। उनकी इच्छा थी कि आप गाँव के अन्दर ले चलें, हम लोग अच्छा स्वागत करेंगे, किन्तु आगे ३ बजे के प्रोग्राम के कारण उन्हें अधिक समय नहीं दिया जा सका। संक्षेप में १०-१५ मिनट के अंदर आगन्तुक नर-नारियों ने ज्ञानज्योति के दर्शन करके माल्यार्पण किया और अपनी-अपनी सामर्थ्यानुसार दान दिया। नगर के मान्य व्यक्तियों ने जम्बूद्वीप रचना की योजनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करके उचित धनराशि देकर रचना के समीप लगने वाले शिलापट्ट पर अपना नाम अंकित कराने का भाव प्रकट किया। यहाँ के इस स्वागत कार्यक्रम को हमने यहीं तक सम्पन्न करके लोगों से आगे की अनुमति चाही और अपने निर्धारित समय से १५ मिनट विलम्ब से ज्ञानज्योति का रथ लिधौरा पहुँचा, जहाँ एक घंटे पूर्व से ही लोगों ने स्वागत की तैयारियाँ कर रखी थीं। सभा मंच सार्वजनिक रूप से बाजार में ही बनाया गया था। पूर्व के एम.एल.ए. महोदय को यहाँ पर भी लोगों ने ज्योति के स्वागतार्थ आमंत्रित किया था, फलस्वरूप उनके सभापतित्व में कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। ज्ञानज्योति कार्यकर्ताओं का, विद्वानों का यहाँ की समाज ने पुष्पहार से स्वागत किया। पंडाल का स्थान छोटा होने के कारण जनता दोपहर की कड़ी धूप में भी निश्चिन्त होकर आयोजन देख रही थी। जैन और अजैन सभी लोगों ने बड़े उत्साहपूर्वक विद्वानों के भाषण और योजनाएं सुनीं । बोलियाँ हुई और रथ का जुलूस नगर के विभिन्न मार्गों से निकलता हुआ समस्त नगरवासियों के लिए दर्शनों का अवसर प्रदान किया। सभी ने जाति का भेदभाव छोड़कर अपने-अपने घरों के सामने ज्ञानज्योति की आरती और स्वागत करके यथाशक्ति सहयोग प्रदान किया। सायंकाल ८ बजे लिधौरा से पृथ्वीपुर में ज्ञानज्योति का आगमन हुआ। डाक विभाग की गड़बड़ी के कारण यहाँ पूर्व से कोई समाचार नहीं ज्ञात हो सका था। किन्तु कार्यकर्ताओं ने सौहार्द और उदारता का परिचय दिया। बड़े ही उल्लास से सारे जैन अजैन समाज को सूचित करके रामलीला मैदान में जन समूह एकत्रित किया। उत्साहपूर्वक रात्रि १.३० बजे तक सभा का आयोजन हुआ, लोगों ने इन्द्रों की बोलियाँ ली और शोभा यात्रा प्रातः ७ बजे से ८ बजे तक निकली। यहाँ २ मंदिर हैं और लगभग ६० जैन घर हैं। ९ बजे ज्ञानज्योति पृथ्वीपुर से निवाड़ी के लिए रवाना हुई। निवाड़ी की जनता ने ज्योति का भावभीना स्वागत किया। ३०-४० जैन घर हैं। एक जैन मंदिर है। लगभग २ बजे तक यहाँ का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मध्याह्न ३ बजे यहाँ से मऊरानीपुर पहुंचे। यहाँ के लोग ३-४ कि.मी. दूर ज्ञानज्योति की अगवानी करने आए। गाँव में २ विशाल मंदिर हैं, जहाँ धातु के बने हुए पांच मेरु पर्वत गजदंतों सहित प्रतिमाओं युक्त विराजमान हैं। मंदिर में ही सभा का आयोजन हुआ, जहाँ छोटे-छोटे बालकों को लौकांतिक देवों की बोलियाँ प्राप्त हुई और रथ पर बैठे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सायं ७ बजे यहाँ से रवाना होकर जतारा पहुँचे। २-३ दिन पूर्व से ही जतारा में पं. श्री गुलाबचंदजी पुष्प टीकमगढ़ वालों के आचार्यत्व में सिद्धचक्र मंडल विधान चल रहा था। २-३ कि.मी. दूर से ही लोगों ने विशाल भीड़ के साथ ज्योतिरथ का स्वागत किया। भिन्न-भिन्न तोरणद्वार बिजली आदि से पूरे नगर को सजाया गया था। सभा का आयोजन विद्यालय के बाहर प्रांगण में था, जहाँ पर हजारों की संख्या में नर-नारियों ने भाग लिया। बोलियों में असीम उत्साह नजर आया। पं. गुलाबचंदजी पुष्प का भी अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ। एक बजे रात तक शहर में शोभा यात्रा निकाली गई। ज्ञानज्योति के इस भ्रमण में मानो रात-दिन का भेद ही समाप्त हो गया था। यहाँ के मंदिर का जीर्णोद्धार तात्कालिक समय में ही हुआ है। नीचे भौरे में प्राचीन प्रतिमाएं हैं और एक मुनि की पिच्छी कमंडलु सहित पौराणिक प्रतिमा भी विराजमान है। हम लोगों ने भी समस्त प्रतिमाओं के दर्शन किए। रात्रि विश्राम भी यहीं रहा। २८ मार्च प्रातः ७ बजे जतारा से ज्ञानज्योति मवई पहुँची। यहाँ एक राजकीय विद्यालय में प्रोग्राम था। ३०-३५ जैन घर वाले इस गाँव में लोगों का उत्साह सराहनीय रहा। दिन में एक बजे तक जुलूस निकला, पश्चात् भोजन के अनंतर २ बजे आहारजी तीर्थक्षेत्र के लिए रवाना हुए। दोपहर ३ बजे ज्योति आहारजी तीर्थक्षेत्र में आई । यहाँ से एक प्राचीन इतिहास जुड़ा हुआ है। भ. शांति, कुंथु, अरहनाथ की विशाल खड्गासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। शांतिनाथ की प्रतिमा अत्यन्त सौम्य और श्रवणबेलगोला के भ. बाहुबली के समान ही शांतिप्रद है। यहाँ आकर मुझे भी अपूर्वशांति प्राप्त हुई। कहते हैं कि पानाशाह जो एक वैश्य व्यापारी था, उसका खरीदा हुआ सारा रांगा यहाँ चाँदी में बदल गया था। इस चमत्कार से आकर्षित होकर ही उसने यहाँ इन प्रतिमाओं का निर्माण कराया। जिनके ऊपर हीरे और पन्ने की पॉलिस की गयी थी। आज भी प्रतिमा बहुत दूर से ही चमकती है। मुस्लिम शासन में औरंगजेब के अत्याचारों से यह क्षेत्र अछूता न रह पाया और अरहनाथ की प्रतिमा पूर्ण भग्न हो गई, जिसके अवशेष यहाँ के संग्रहालय में आज भी मौजूद हैं। बाकी दोनों प्रतिमाओं में भी कुछ दोष आए थे, लेकिन आस-पास के शुभचिन्तकों ने वैसा ही पाषाण मंगाकर प्रतिमा की पूर्ण अवस्था प्राप्त कराई है तथा जयपुर के महाराजा द्वारा दिए गए हीरे और पन्ने की पॉलिश भी करवाई गई है। उत्तर भारत में शायद ऐसी सौम्य और सुडौल प्रतिमा कहीं नजर में नहीं आती है। हम सभी लोगों को भगवान का मस्तकाभिषेक भी करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस मूल मंदिर के अतिरिक्त और भी कई मंदिर हैं तथा थोड़ी-सी दूर पर पंचपहाड़ी नाम से टोकें हैं, जहाँ मुनिराजों के चरण स्थापित हैं। इस प्राकृतिक रम्य तीर्थक्षेत्र में आस-पास के कई गांवों से लोग ज्ञानज्योति के स्वागतार्थ आए और आयोजन सफल रहा। विद्वानों के वक्तव्य हुए, बोलियाँ हुई और रथ का जुलूस भी निकला। २८ ता. का रात्रि विश्राम भी यहीं पर रहा। २९ मार्च प्रातः ८ बजे आहारजी के समस्त मंदिरों के दर्शन करके आगे बल्देवगढ़ आए। यहाँ १०-१५ जैन घर हैं। प्रोग्राम एक विद्यालय के प्रांगण में हुआ। एक जैन मंदिर है तथा एक बहुत प्राचीन किले में कुछ अवशेष तथा युद्ध के अस्त्र-शस्त्र आज भी विद्यमान हैं। दिन में २ बजे यहाँ से निकल कर भेलसी आए। यहाँ एक मंदिर है। मंदिर के बाहर चौक में सभा हुई। जैन स्कूल की छात्राओं ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। विशाल संख्या में जैन अजैन जनता ने ज्ञानज्योति का स्वागत किया। शाम ७ बजे भेलसी से निकलकर खरगापुर आए। यहाँ गाँव के बाहर ही मेन बाजार में लोगों ने स्वागत किया और वहीं बोलियाँ हुई, पश्चात् गाँव के अन्दर तक जुलूस गया। जहाँ पर विशाल सभा का आयोजन हुआ। रात्रि १२ बजे तक प्रोग्राम चला। लोगों ने बड़े वात्सल्य एवं आग्रहपूर्वक मुझे यहाँ की महिला समाज में जागरूकता के लिए बोलने को कहा। जिसके ऊपर मैंने कुछ प्रकाश डाला। एक जैन मंदिर है, जिसका दर्शन किया। इसी बीच यहाँ से लगभग ३० कि.मी. दूर हटा के कुछ गणमान्य व्यक्तियों के विशेष आग्रह पर रात्रि २ बजे हम लोग वहाँ पहुँचे। यहाँ का पहले से कोई प्रोग्राम नहीं था, फिर भी भक्तों के आग्रह को स्वीकार करके प्रातः ७ बजे वहाँ समारोह हुआ। हटा में ५ जिन मंदिर हैं। प्रथम मूलमंदिर १७५ फुट ऊँचा शिखर वाला है, शायद बुंदेलखंड का सबसे ऊँचा मंदिर यही होगा। लगभग सभी मंदिर ऊँचे शिखर वाले हैं, जिनमें भव्य जिन प्रतिमाएं पंचमेरु आदि स्थापित हैं। यहाँ के निवासी पं. गोकुलचंद “मधुर" ने भी अपने काव्य प्रस्तुत किए। ज्ञानज्योति कालोनी का उद्घाटन-९ बजे यहाँ से अपनी योजनानुसार गुलगंज में ज्ञानज्योति का भावभीना स्वागत हुआ। यहाँ केवल ३-४ जैन घर हैं, किन्तु अजैन जनता का भी अच्छा सहयोग प्राप्त हुआ। विशेष बात यह रही कि यहाँ पर "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति" के नाम से एक जैन कालोनी का उद्घाटन उसी दिन मेरे द्वारा सम्पन्न कराया, जहाँ लगभग १५ कमरे बन चुके थे और उनमें लोग निवास करने के लिए आने वाले थे। यहाँ एक जैन मंदिर है, जहाँ १०वीं शताब्दी की भ. वृषभदेव की प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। मध्याह्न २ बजे बिजावर आए। यहाँ पर भी एक मंदिर है, २०-२५ जैन घर हैं। डी.एम., एस.डी.एम. ने पधार कर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का पुष्पहार से स्वागत किया। पं. सुधर्मचंदजी, वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ हस्तिनापुर के विद्यार्थी श्री नरेश चंदजी, ब्र. कु. माधुरी शास्त्री, श्री भूरमलजी जबलपुर वालों के ओजस्वी वक्तव्य हुए। बोलियों में बहुत अच्छा उत्साह रहा। शाम ७ बजे यहाँ से सटई पहुँचे। यहाँ भी एक मंदिर है, प्रोग्राम सफल रहा, लोगों ने रुचिपूर्वक भाग लिया। १५-२० जैन घर हैं। सभी का रात्रि-विश्राम यहीं हुआ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६१७ ३१ मार्च प्रातः ७ बजे सटई से निकल कर ८.३० बजे छतरपुर में ज्ञानज्योति का पदार्पण हुआ। छतरपुर से ३ कि.मी. दूर डेरापहाड़ी नामक अतिशय क्षेत्र है, जहाँ ३ मंदिर हैं, वहाँ के दर्शन किए। यहीं से विशाल जनसमूह का एक स्वागत जुलूस प्रारंभ हुआ। १०.३० बजे जुलूस छतरपुर के चौराहे पर आया, जहाँ आम सभा हुई। स्थानीय विद्वान् पं. श्री सुधर्मचंदजी द्वारा सभा का संचालन हुआ। यहाँ की समस्त जनता ने ज्ञानज्योति के भारत भ्रमण के उद्देश्यों को बारीकी से समझा और पू. ज्ञानमती माताजी के उदार विचारों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक अप्रैल का अवकाश रहा, जिसमें यहाँ की समाज ने हम लोगों से पूरा-पूरा लाभ प्राप्त किया। शहर में ५ मंदिर हैं, यहाँ छोटी-छोटी लड़कियों ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। २ अप्रैल प्रातः ७ बजे छतरपुर से नोरगाँव आए। ३ अप्रैल प्रातः ७ बजे यहाँ से रवाना होकर खजुराहो पहुँचे, जो जैनतीर्थ के अतिरिक्त हिन्दुओं का भी इतिहास प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यहाँ पर चंदेला होटल के पास ज्ञानज्योति तथा समस्त विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का पुष्पहार द्वारा भावभीना स्वागत हुआ। यह एक कलात्मक केन्द्र होने से यहाँ विदेशी पर्यटक हर वक्त आया करते हैं। उनके रहने के लिए बड़े-बड़े होटल बने हुए हैं, पुरातत्त्व विभाग का म्यूजियम भी है। जैन तीर्थक्षेत्र पर बड़े-बड़े कई मंदिर हैं, जिनके अभिषेक-पूजन का भी लाभ मिला। यहाँ से सीधे दिल्ली आदि स्थानों के लिए हवाई अड्डे से हवाई जहाजों की भी पूर्ण सुविधा प्राप्त है। यहाँ पर भी अन्य स्थानों के अनुसार सभा और बोलियों का आयोजन हुआ। जुलूस के मध्य जगह-जगह विदेशियों ने वीडियो फिल्में भी खींची। दिनांक २३ मार्च से ३ अप्रैल तक मैंने ज्ञानज्योति भ्रमण का यह आँखों देखा अनुभव प्रस्तुत किया है। इस मध्य मध्यप्रदेश पुलिस विभाग के समस्त कार्यकर्ताओं का अविस्मरणीय सहयोग प्राप्त हुआ। मेरे प्रति भी असीम श्रद्धा व स्नेह रहा, जिसके लिए मैं उन सभी लोगों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करती हूँ। यदि इसी प्रकार देश तथा राज्य के समस्त विभाग अपने कर्तव्यों को प्रधानता देकर देश की सेवा करें तो निश्चित ही हमारा देश आतंक का शिकार न बनकर सुरक्षित रह सकता है। आगे चलते हैं 'राजनगर' जहाँ ज्ञानज्योति का रथ आया। श्री आर.के. लहरी एस.डी.ओ. ने नगर प्रवर्तन करवाया। पन्ना में जिलाधीश एवं मजिस्ट्रेट जैन साहब आए। मोतीचंदजी ने उन्हें प्रवर्तन के रहस्य भी बतलाए ॥ १ ॥ इस पन्ना जिले के शहर अजयगढ़ में उपजिलाधीश आए। ज्योतीवाहन पर स्वस्तिक लिखकर उसके दर्शन कर पाए। पवई का भव्य प्रवर्तन उस नगरी के लिए अपूर्व बना। अध्यक्ष नगरपालिका दयाशंकरजी में उत्साह घना ॥ २ ॥ देवेन्द्रनगर का रोम रोम पुलकित था ज्ञान ज्योति पाकर। प्रान्तीय उड्डयन मंत्री श्री कैप्टन जयपाल सिंह आकर ॥ होकर प्रसन्न मस्तक टेका अपना सौभाग्य सराह लिया। श्री बाबूलाल जैन ने ज्योती रथ पर स्वस्तिक बना दिया ॥ ३ ॥ नागौद जिला सतना में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योती आई। नौ ऐप्रिल को अध्यक्ष नगरपालिका ने माला पहनाई ॥ यहाँ मुख्यअतिथि श्री बृजकिशोरजी एडवोकेट पधारे थे। शोभायात्रा में गली-गली जयज्ञानज्योति के नारे थे॥ ४ ॥ सतना में स्वागत सभा और शोभायात्रा का क्रम आया। श्री नीरज जैन ने भाषण में इतिहास पुराना बतलाया ॥ रीवां संभाग प्रतीक्षा में कब से स्वागत को तरस रहा। मंगल प्रवेश की घड़ियों में वहाँ पर धर्मामृत बरस रहा ॥ ५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ दिल्ली के लालकिले से निकली ज्योति भ्रमण कर रही यहाँ। शहडोल जिले एवं विलासपुर जिले में प्रभु संदेश कहा ॥ फिर जिला रायपुर से विहार कर दुर्ग भिलाई में आई। मुनि पुष्पदंत सागरजी के सानिध्य में ज्योती जलवाई ॥ ६ ॥ राजनांदगांव से चली ज्योति बैतूल जिले का भाग्य खिला। मुलताई और आमला बैतुल से मुक्तागिरि तीर्थ मिला। यद्यपि मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र को महाराष्ट्र में माना है। बैतूल जिले का यह तीरथ दोनों सीमा ने जाना है॥ ७ ॥ श्री काकू भाई विधायक ने नगरी इटारसी में आकर । पुष्पों की माल चढ़ाई थी जनता का आमंत्रण पाकर ॥ होशंगाबाद जिला रोशन कर रायसेन को चमकाया। सिलवानी में सरपंच वहीद मियां ने मंगल दिन पाया ॥ ८ ॥ पी.डब्ल्यू.डी. के एस.डी.ओ. ने गैरतगंज के प्रांगण में। इन जैन महोदय ने आकर जैनत्व बताया जन जन में ॥ तामोट, शाहगंज, हरदा और टिमरनी का माहौल जगा। ओवेदुल्लागंज, बानापुर, सुल्तानपुरा का शोक भगा ॥ ९ ॥ नौ मई के बाद खिरकिया से हरसूद नगर में रथ आया। इंदौर के इस संभाग में खण्डवा जिले में खूब आदर पाया ॥ श्री मौर्यसगे एस.डी.ओ. से उद्घाटन रथ का करवाया। खंडवा में श्रीनिवास बड़जात्या ने ज्योतीरथ चलवाया ॥ १० ॥ क्रम से चलकर खरगोन जिले में ज्ञानज्योति यात्रा आई। श्री गजानंद सोनी व कुमारी स्वर्णलता रावल आईं ॥ श्री स्वर्णलताजी तत्कालीन कलेक्टर बनकर आई थीं। उनने जीवन में प्रथम बार यह मंगल ज्योति जलाई थी॥ ११ ॥ शुभ तीर्थ ऊन के भी दर्शन इस ज्योतीरथ ने पाए थे। लोनारा के बाजारों में ध्वजतोरण आदि सजाए थे। तहसीलदारजी ने उद्घाटन किया ज्योति को जला दिया। श्री दीप कुमार महाजन ने आकर ज्योतीरथ चला दिया ॥ १२ ॥ बलवन्त राव मंडलोई कसरावद में मुख्य अतिथि आए। कातोरा, पीपलगोन और भोगावां ने दर्शन पाए । बेडियां नगर में प्रातः पंद्रह मई ज्ञान अमृत बरसा। श्रीबाबूलाल ने किया प्रवर्तन जनता का भी मन हरषा ॥ १३ ॥ दोहा नगर सनावद को चली, ज्ञानज्योति अभिराम। उसका कुछ वर्णन करूँ, लेकर प्रभु का नाम ॥ १४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६१९ शंभुछंदश्री सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट के निकट सनावद नगरी है। श्री गुरुओं की पावन पदरज पाती रहती यह नगरी है। सन् उन्निस सौ सड़सठ में माता ज्ञानमती जी आई थीं। निज संघ आर्यिका सहित ज्ञान की उज्ज्वल ज्योति जलाई थी॥ १५ ॥ इस चातुर्मास काल में दो शिष्यों का उनको लाभ मिला। ब्रह्मचारी मोतीचंद तथा यशवंत कुमार का भाग्य खिला ॥ जैसे जन्ती से खींच खींच कर तार निकाला जाता है। यूं ही गृह जन्ती से गुरु द्वारा शिष्य निकाला जाता है ॥ १६ ॥ निज कठिन परिश्रम के द्वारा दोनों को संग में ले आई। इक कुशल शिल्पि की कला ज्ञानमति माताजी ने दर्शाई ॥ जिनधर्म की घंटी पिला-पिला यशवन्त को मुनिवर बना दिया। श्री धर्मसिन्धु के करकमलों से उनको दीक्षा दिला दिया ॥ १७ ॥ मोतीचंदजी ने मातृभक्ति गुरुभक्ति जगत को दिखलाई। हस्तिनापुरी की वसुन्धरा ने तभी अमिट रचना पाई ॥ प्रतिकूल तथा अनुकूल सभी अवसर पर गुरु के संग रहे। इस कर्मभूमि के इसीलिए ये प्रथम कीर्तिस्तंभ रहे ॥ १८ ॥ इस ज्ञानज्योति की प्रभा देख इतिहास याद आ जाता है। दो सहस वर्ष लगभग का घटनाक्रम स्मृति में आता है। धरसेन गुरु के पुष्पदन्त अरु भूतबली दो शिष्य बने । सिद्धान्त ग्रन्थ की परम्परा अक्षुण्ण बनाने हेतु चले ॥ १९ ॥ यूँ ही माँ ज्ञानमती के मोतीचंद रवीन्द्र दो शिष्य बने। इस जम्बूद्वीप की रचना में ये दोनों कीर्तिस्तम्भ बने ॥ माँ की भक्ती में उभयसमर्पण चिर इतिहास बनाएगा। सूरज चन्दा सम इनका श्रम दिनरात बताया जाएगा ॥ २० ॥ लाती हूँ अपना विषय पुनः था ज्ञानज्योति का रथ आया। मोतीचंदजी की जन्मभूमि पर महामहोत्सव मनवाया । था तीन दिनों का कार्यक्रम अतिथी बहुतेक पधारे थे। शास्त्री परिषद औ महासभा के नेता सभी पधारे थे॥ २१ ॥ संस्थान हस्तिनापुर से मंत्री श्री रवीन्द्रजी भी पहुंचे। कितने पदाधिकारी दिल्ली कोटा आदी से भी पहुँचे ॥ अधिवेशन सब संस्थाओं के दो दिन तक हुए सनावद में। शास्त्री परिषद के नये चुनाव हुए महामंत्री नये बने ॥ २२ ॥ लम्बे विश्राम के बाद यहाँ श्रीजमादारजी आए थे। अपने महामंत्री पद पर श्री श्रेयांस कुमार को लाए थे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ वहाँ के ओजस्वी प्रवचन से लगता नहि उन्हें बुढ़ापा था। विद्वान जगत में सिंहनाद करने वाला वह वक्ता था ॥ २३ ॥ प्रान्तीय प्रवर्तन समिती के सारे पदाधिकारी आए। नगरी की गरिमा देख सभी के मनमयूर भी हर्षाये ॥ पंद्रह से सत्रह मई हुई जब ज्योति प्रवेश नगर में था। प्रातः से ही चल पड़े सभी नहिं कोई शेष नगर में था ॥ २४ ॥ मोटर साइकिलों पे केशरिया झण्डे लेकर सौ युवक चले। दुल्हन-सी सजी उस नगरी में हैं आज असंख्यों दीप जले॥ पाण्डाल विशाल बना जिसमें ज्योती की स्वागत सभा हुई। शोभायात्रा के लिए इन्द्र और इन्द्राणी की बोलियाँ हुईं ॥ २५ ॥ अर्थाञ्जलि के संग भावाञ्जलि अर्पण करने का दिन आया। नगरी की जनता को पुष्पांजलि करने का अवसर आया । केन्द्रीय प्रवर्तन समिति के लोगों का भी सम्मान हुआ। प्रान्तीय समिति ने सफल प्रवर्तन कर सबका सम्मान लिया ॥ २६ ॥ इस शुभ अवसर पर नगर विधायक श्री कैलाशचन्द आए। बहुमान्य अतिथियों ने आकर निज भाव पुष्प भी बिखराए । बाजों की मधुर ध्वनी व भजन मंडलियों से नगरी गूंजी। शोभायात्रा में द्वार-द्वार स्वागत करने जनता पहुँची ॥ २७ ॥ इतिहास अमर हो गया यहाँ का युग युग तक बतलाएगा। माँ ज्ञानमती की ज्योति यहाँ आई थी यह बतलाएगा ॥ इंदरचंदजी चौधरी सनावद का यह अथक परिश्रम था। मोतीचंद के लघुभ्रात प्रकाशचंद का कठिन परिश्रम था ॥ २८ ॥ श्री विमलचंद व त्रिलोकचंद, श्रीचंद, नवलचंद आदि सभी। आयोजन सफल बनाने में गणमान्य व्यक्ति की कमी नहीं ॥ मोतीचंदजी के पिता अमोलकचंद माता रूपाबाई। इस घर में आज विशेष रूप से थी मानो खुशियाँ छाई ॥ २९ ॥ बाहर से आये अतिथियों ने तीरथयात्रा का लाभ लिया। सिद्धवरकूट, बड़वानी, पावागिरी, ऊन का दर्श किया। इस यात्रा के पश्चात् अतिथि गण अपने घर की ओर चले। अपनत्व के ये मधुरिम क्षण जीवन में सदैव संस्मरण बने ॥ ३० ॥ इस कार्यक्रम के बाद ज्योतिरथ ने बड़वाह विहार किया। स्वागत बैनर, ध्वज, तोरण से युत नगरी ने सत्कार किया ॥ सिद्धवरकूट श्री सिद्धक्षेत्र उन्नीस मई को रथ आया। सब आस-पास के शहरों से स्वागत को जनसमूह आया ॥ ३१ ॥ इंदौर में उद्घाटनकर्ता श्री देव कुमार सिंहजी थे। श्री लालचंदजी मित्तल महापौरजी नगर निगम भी थे। श्री बाबूलालजी पाटोदी कार्यक्रम के संयोजक थे। यहाँ बने काँच मंदिर का दर्शन कर सबके मन हर्षित थे॥ ३२ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२१ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला गुजरी, धामनोद, महेश्वर, मंडलेश्वर में भी ज्योति जली। खरगोन जिले के बालसमुन्द के बाद धार की ओर चली॥ बड़वानी तीर्थक्षेत्र पर एक जून चौरासी रथ पहुँचा। बावन गज ऊँची आदिनाथ प्रतिमा का है इतिहास जहाँ ॥ ३३ ॥ आष्टा, इच्छावर आदि अनेकों नगरों में परिभ्रमण हुआ। नौ जून सिहोर नगर में इस ज्योतीरथ का आगमन हुआ ॥ श्री शिवभानूसिंह सोलंकी उपमुख्यमंत्रिजी ने आकर । इस ज्योतीरथ को नमन किया स्वस्तिक भी बनाया था रथ पर ॥ ३४ ॥ अपने ओजस्वी भाषण में मंत्रीजी ने बतलाया था। सब धर्म समन्वय का लक्षण निज भाषा में समझाया था। णमोकार मंत्र जो मूलमंत्र इस जैन धर्म का वाचक है। जन जन का हित करने वाला यह आत्मा का उपकारक है ॥ ३५ ॥ जिनधर्म कथित प्रवचन का इस रथ से था बहुत प्रचार हुआ। मंत्रीजी के इक घंटे तक भाषण से हर्ष अपार हुआ ॥ भोपाल में अर्जुनसिंह मुख्यमंत्री प्रान्तीय पधारे थे। उद्योगमंत्रि राजेन्द्र जैनजी मुख्यअतिथि भी सारे थे॥ ३६ ॥ मंत्रीजी बोले भारत ही इक ऐसा देश कहाता है। जहाँ धर्म और आध्यात्मिकता का राजनीति से नाता है। हर बच्चा-बच्चा है स्वतंत्र हर धर्म यहाँ रह सकता है। इस सार्वभौम शासन की तो प्राचीन काल से सत्ता है ॥ ३७ ॥ इस ज्ञानज्योति में वर्तमान शासन ने रुचि दिखलाई है। यह धर्म समन्वय का प्रतीक सबको दे रही बधाई है। बेरसिया और सलामतपुर विदिशा नगरी के प्रांगण में। ओडेर, बहादुरपुर, कुरुवाई से सिरोंज के आंगन में ॥ ३८ ॥ एस.डी.ओ. श्री गुप्ताजी ने आकर सिरोंज में किया नमन। कुरुवाई में स्वागत को आए मजिस्ट्रेट श्री ऋषभ जैन ॥ डाक्टर श्री शिशिरकान्त पांडेजी नगर बहादुरपुर आए। इस ज्ञानज्योति के सम्मुख अपने भाव अहिंसक दर्शाए ॥ ३९ ॥ अब मुंगावली से पुनः मेरा इस यात्रा में आगमन हुआ। मुझ ब्रह्मचारिणी के संग में दो बहनों ने भी' नमन किया । श्रीमतीजी तथा कुमुदनी दोनों ज्योती दर्शन को आई थीं। ऐसा रथ स्वागत देख-देख वे फूली नहीं समाई थीं ॥ ४० ॥ इस यात्रा मध्य थुवोन, चंदेरी आदि कई तीरथ आए। सेरोन, देवगढ़ और बानपुर के सबने दर्शन पाए । पंद्रह जून से सत्ताइस तक तेरह दिन का यह भ्रमण मेरा। इस मध्य प्रदेश प्रवर्तन में अवसर द्वितीय था यह मेरा ॥ ४१ ॥ श्री सिद्धक्षेत्र सोनागिरि पर ज्योतीरथ दर्शन को आया। गुप्ता श्री मनोहरलाल कलेक्टर साहब ने दर्शन पाया ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ लश्कर में ऊर्जा राज्यमंत्रिजी मध्य प्रदेश के आये थे। गणमान्य पुरुष भी जनता के संग स्वागत करने आए थे॥ ४२ ॥ आगे के भिण्ड शहर में कलेक्टर श्री हुशियार सिंह आए। मेहगांव में एस.डी.ओ. गोहद में नगर पालिकाध्यक्षजी थे। एस.एस. कुलश्रेष्ठ विकास खण्ड अधिकारी के मन ज्योति जली। इसलिए अटेर नगर में आकर चले ज्योति संग गली-गली ॥ ४३ ॥ वह नगर मुरैना आया जो विद्वानों का गढ़ कहलाया। श्री सुमतिचंद शास्त्री ने विद्यालय प्रांगण में ठहराया। प्रान्तीय लोकनिर्माण मंत्रि बालेन्दू शुक्ला ने आकर । बोले चरित्र निर्माण जगत में होगा ज्ञानज्योति पाकर ॥ ४४ ॥ जौरा, मोहना, शिवपुरी और नरवर में स्वागत तैयारी। मगरौनी, कोलारस, रुठियाई में आई ज्योती प्यारी ॥ शाजापुर में भूतपूर्व वित्तमंत्री प्रान्तीय पधारे थे। उद्घाटन करने जिलाधीश श्री बी.एल. खरे भी आए ॥ ४५ ॥ उज्जैन में स्वागत हेतु जिला अध्यक्ष महोदयजी आए। जावद, मल्हारगढ़, मंदसौर, रतलाम कई अतिथी आए॥ उपमुख्यमंत्रि सोलंकीजी फिर धार नगर में मुख्य अतिथि। श्री बाबूलालजी पाटोदी इंदौर से आए स्वागत हित ॥ ४६ ॥ इस नगरी में ही पाँच अगस्त को ज्ञानज्योति सम्पन्न हुई। इस धार नगर में ज्ञानज्योति की किरणें भी उत्पन्न हुईं। इस मध्यप्रदेश प्रवर्तन का संक्षिप्त सार लिख पाई हूँ। स्वागत की अमिट श्रृंखला में शब्दांजलि लेकर आई हूँ॥ ४७ ॥ मंत्री, उपमंत्री, जिलाधीश आदिक शासन के अधिकारी । सब जगह पधारे ज्ञानज्योति का शुभ स्वागत करने भारी॥ ज्योती का चिरसंस्मरण सभी का मन आह्लादित करता है। आगे को अब प्रस्थान "चन्दनामती" ज्योतिरथ करता है ॥ ४८ ॥ अदिबिक्लिोन शावरियाबहरतनापूर अधिवेशनांक 16 भोपाल में म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह रथ पर माल्यार्पण करते हुए सनावद में ज्ञानज्योति, स्वागत सभा का मंच। श्री गणेशीलाल रानीवाला.. मोतीचंद जैन, ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन, पं. नाबूलाल जमादार, जिनेन्द्र प्रसाद जैन, ठेकेदार, निर्मल कुमार सेठी, इंदरचंद चौधरी आदि । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६२३ वे नगर जहाँ पर ज्योति जली- (मध्य प्रदेश के ३४ जिले) १. जबलपुर, २. पाटन (जबलपुर), ३. शहपुरा (जबलपुर), ४. सहजपुर (जबलपुर), ५. गढ़ा पुरवा (जबलपुर), ६. रांझी (जबलपुर), ७. बघराजी (जबलपुर), ८. सिलौड़ी (जबलपुर), ९. खितौला बाजार (जबलपुर), १०. सिहोरा (जबलपुर), ११. मंझौली (जबलपुर), १२. बचैया (जबलपुर), १३. कटंगी (जबलपुर), १४. बरगी (जबलपुर), १५. बरेला (जबलपुर), १६. गोटे गाँव (नरसिंहपुर), १७. करकबेल (जबलपुर), १८. नरसिंहपुर, १९. करेली (नरसिंहपुर), २०. घनोरा सिवनी, २१. लखनादौन (सिवनी), २२. छपारा (सिवनी), २३. सिवनी, २४. छिन्दवाड़ा, २५. चोरई (छिन्दवाड़ा), २६. बरघाट (सिवनी), २७. लालबर्रा (बालाघाट), २८. बारासिवनी (बालाघाट), २९. बालाघाट, ३०. नैनपुर (मंडला), ३१. पिंडरई (मंडला), ३२. धंसोर (सिवनी), ३३. महाराजपुर (मंडला), ३४. मंडला, ३५. डिंडोरी (मंडला), ३६. पनागर (जबलपुर), ३७. गोसलपुर (जबलपुर), ३८. सलेमनाबाद (जबलपुर), ३९. तिवरी (जबलपुर), ४०. कटनी (जबलपुर), ४१. रीठी (जबलपुर), ४२. बड़गांव (जबलपुर), ४३. सिहुड़ी (जबलपुर), ४४. बाकल (जबलपुर), ४५. बहुरीबंद (जबलपुर)। सागर संभाग : ४६. सिंगरामपुर (दमोह), ४७. जवेरा (दमोह), ४८. नोहटा (दमोह), ४९. अभाना (दमोह), ५०. तेन्दुखेड़ा (दमोह), ५१. तारादेही (दमोह), ५२. तेजगढ़ (दमोह), ५३. खमरिया (दमोह), ५४. दमोह, ५५. बांदकपुर (दमोह), ५६. पटेरा (दमोह), ५७. हटा (दमोह), ५८. बनगांव (दमोह), ५९. बासा (तारखेड़ा) दमोह, ६०. गढ़ाकोटा (सागर), ६१. पथरिया (दमोह), ६२. रहली (सागर), ६३. ढाना (सागर), ६४. सिहोरा (सागर), ६५. राहतगढ़ (सागर), ६६. जैसीनगर (सागर), ६७. गौरझामर (सागर), ६८. देवरीकला (सागर), ६९. महाराजपुर (सागर),७०. सहजपुर (सागर),७१. बांदरी (सागर), ७२. बरोदिया (सागर), ७३. रंजबास (सागर), ७४. मालथोन (सागर), ७५. खिमलासा (सागर), ७६. मंडी बामोरा (सागर), ७७. बीना (सागर), ७८. खुरई (सागर), ७९. नरयावली (सागर), ८०. सागर, ८१. कर्रापुर (सागर), ८२. बंडा (सागर), ८३. दलपटपुर (सागर), ८४. नैनागिर (सागर), ८५. शाहगढ़ (सागर), ८६. हीरापुर (सागर), ८७. वकस्वाहा (छतरपुर), ८८. सुववाहा (छतरपुर), ८९. बम्होरी (छतरपुर), ९०. बड़ा मलहरा (छतरपुर), ९१. द्रोणागिरि, ९२. भगवा (छतरपुर), ९३. धुवारा (छतरपुर), ९४. बड़ागांव (टीकमगढ़), ९५. अजनौर (टीकमगढ़), ९६. सर्मरा (टीकमगढ़), ९७. पपौराजी (टीकमगढ़), ९८. टीकमगढ़, ९९. दिगौड़ा (टीकमगढ़), १००. लिधौरा (टीकमगढ़), १०१. पृथ्वीपुर (टीकमगढ़), १०२. निवाड़ी (टीकमगढ़), १०३. मऊरानी (झांसी) उत्तर प्रदेश, १०४. जतारा (टीकमगढ़) म.प्र., १०५. मवई (टीकमगढ़) मध्य प्रदेश, १०६. अहारजी सिद्धक्षेत्र (टीकमगढ़) म.प्र., १०७. बलदेवगढ़ (टीकमगढ़) म.प्र., १०८. भेलसी (टीकमगढ़) म.प्र., १०९. खरगापुर (टीकमगढ़) म.प्र., ११०. हटा (टीकमगढ़) म.प्र., १११. गुलगंज (छतरपुर) म.प्र., ११२. बिजावर (छतरपुर) म.प्र., ११३. सटई (छतरपुर) म.प्र., ११४. छतरपुर (म.प्र.), ११५. नौगांव (छतरपुर) म.प्र., ११६. हरपालपुर (छतरपुर) म.प्र., ११७. बमीठा (छतरपुर) म.प्र., ११८. खजुराहो (छतरपुर) म.प्र., ११९. राजनगर (छतरपुर) म.प्र., १२०. लौंडी (छतरपुर) म.प्र., १२१. चन्द्रनगर (छतरपुर) म.प्र., १२२. पन्ना (म.प्र.), १२३. अजयगढ़ (पन्ना) म.प्र., १२४. बृजपुर (पन्ना) म.प्र., १२५. अजयगढ़ (पन्ना) म.प्र., १२६. पवई (पन्ना) म.प्र., १२७. अमानगंज (पन्ना) म.प्र., १२८. महेबा (पन्ना) म.प्र., १२९. गुनौर (पन्ना) म.प्र., १३०. सलेहा (पन्ना) म.प्र., १३१. सीरगिर (पन्ना) म.प्र., १३२. देवेन्द्र नगर (पत्रा) म.प्र., १३३. नागौद (सतना) म.प्र., १३४. सतना (म.प्र.), १३५. मैहर (सतना) म.प्र., १३६. अमरपाटन (सतना) म.प्र., १३७. रीवा (म.प्र.), १३८. देवलोंद (शहडोल) म.प्र., १३९. ब्योहारी (शहडोल), १४०. शहडोल, १४१. बुढार (शहडोल), १४२. कोतमा (शहडोल), १४३. जैतहरी (शहडोल), १४४. गोरेला (बिलासपुर), १४५. पेंड्रा (बिलासपुर), १४६. महेन्द्रगढ़ (सरगुजा), १४७. चिरमिरी (सरगुजा), १४८. कोरवा (बिलासपुर), १४९. अकलतरा (बिलासपुर), १५०. बिलासपुर, १५१. भाटापारा (रायपुर), १५२. बलोदा बाजार (रायपुर), १५३. सिमगा (रायपुर), १५४. नेबरा (रायपुर), १५५. रायपुर, १५६. नवापारा (रायपुर), १५७. धमतरी (रायपुर), १५८. सोनारपाल (बस्तर), १५९. जगदलपुर (बस्तर), १६०. गोढम (बस्तर), १६१. भिलाई (दुर्ग), १६२. दुर्ग, १६३. राजनांदगांव, १६४. डोंगरगा (राजनांदगांव), १६५. डोंगरगढ़ (राजनांदगांव), १६६. घुई खदान (राजनांदगांव), १६७. मुलताई (बैतुल), १६८. आमला (बैतुल) म.प्र., १६९. बैतुल (म.प्र.), १७०. मुक्तागिरी (बैतूल), १७१. भेंसहेट्टी (बैतुल), १७२. सांवला मैढ़ा (बैतुल), १७३. इटारसी, १७४. बाबई (होशंगाबाद), १७५. आरी (होशंगाबाद), १७६. सोहागपुर (होशंगाबाद), १७७. शोभापुर (होशंगाबाद), १७८. पिपरिया (होशंगाबाद), १७९. बरेली (रायसेन), १८०. बाड़ी (रायसेन), १८१. सिलवानी (रायसेन), १८२. गैरतगंज (रायसेन), १८३. गढ़ी (रायसेन), १८४. देहगांव (रायसेन), १८५. रायसेन (म.प्र.), १८६. सुलतानपुर (रायसेन), १८७. तामोट (रायसेन), १८८. ओवेदुल्लागंज (रायसेन) म.प्र., १८९. शाहगंज (रायसेन) म.प्र., १९०. होशंगाबाद (म.प्र.), १९१. बानापुरा (होशंगाबाद) म.प्र., १९२. टिमरनी (होशंगाबाद) म.प्र., १९३. हरदा (होशंगाबाद) म.प्र., १९४. खिरकिया (होशंगाबाद) म.प्र., १९५. हरसूद (खंडवा), १९६. खण्डवा, १९७. बरहानपुर (खंडवा), १९८. भीकनगांव (खरगोन), १९९. खरगोन (म.प्र.), २००. ऊन (खरगोन), २०१. लोनारा (खरगोन), २०२. कसरावद (खरगोन), २०३. पिपलगोन (खरगोन), २०४. कातोरा (खरगोन), २०५. भोगावां (खरगोन), २०६. बेड़ियां (खरगोन), २०७. सनावद, २०८. बड़वाह (खरगोन), २०९. सिद्धवरकूट (सिद्धक्षेत्र), Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ २१०. इंदौर (म.प्र.), २११. गुजरी (धार), २१२. धामनोद (धार) म.प्र., २१३. महेश्वर (खरगोन), २१४. मंडलेश्वर (खरगोन), २१५. बालसमुन्द (खरगोन), २१६. धरमपुरी (धार) म.प्र. २१७. बाकानेर (धार) म.प्र. २१८. मनावर (धार) म.प्र. २१९. गंधवानी (धार) म.प्र. २२०. सुसारी (धार) म.प्र., २२१. कुक्षी (धार) म.प्र., २२२. बड़वानी (म.प्र.), २२३. अंजड़ (खरगोन) म.प्र. २२४. चापड़ा (देवास) म.प्र., २२५. कन्नोद (देवास) म.प्र., २२६. खातेगांव (देवास) म.प्र., २२७. अजनास (देवास) म.प्र., २२८. लोहारदा (देवास) म.प्र., २२९. हाटपिपल्या (देवास) म.प्र., २३०, सोनकच्छ (देवास) म.प्र. २३१. जावर (सिहोर) म.प्र. २३२. मेहतवाड़ा (सिहोर) म.प्र. २३३. आष्टा (सिहोर) म.प्र. २३४. कोठरी (सिहोर म.प्र. २३५. इच्छावर (सिहोर) म.प्र. २३६. शुजालपुर (शाजापुर) म.प्र. २३७. अकोदिया मंडी (शाजापुर) म.प्र. २३८. शुजालपुर मंडी (शाजापुर) म.प्र., २३९. कालापीपल (शाजापुर) म.प्र., २४० सिहोर (म.प्र.), २४१. पिपलानी (भोपाल) म.प्र. २४२. भोपाल (म.प्र.), २४३. वेरसिया (भोपाल) म.प्र. २४४. सलामतपुर (रायसेन) म.प्र. २४५. विदिशा (म.प्र.) २४६. गंजबासोदा ( विदिशा) म.प्र. २४७. सिरोंज (विदिशा) म.प्र. २४८. कुरुवाई (विदिशा) म.प्र., २४९. ओडेर (गुना) म.प्र., २५०. बहादुरपुर (गुना) म.प्र., २५१. मुंगावली (गुना) म.प्र., २५२. शेहराई (गुना) म.प्र., २५३. अजलगढ़ (गुना) म.प्र. २५४. धुवोनजी (गुना) म.प्र. २५५. चंदेरी (गुना) म.प्र. २५६. ईसागढ़ (गुना) म.प्र. २५७. सादोणा (गुना) म.प्र. " मध्य प्रदेश के जैन तीर्थस्थल १. सोनागिरि (दतिया), २. नैनागिरि, ३. द्रोणगिरि (छतरपुर), ४. पपौराजी (टीकमगढ़), ५. अहारजी (टीकमगढ़), ६. खजुराहो (छतरपुर), ७. चंदेरी (गुना), ८. सिद्धवरकूट (खरगोन), ९. बड़वानी, १०. ऊन पावागिरि (खरगोन), ११. थुवोनजी ( गुनाजी), १२. सेरोनजी, १३. बड़ागांव ( टीकमगढ़), १४. सिहोर १५, बनेड़ियाजी (खरगोन) । Jain Educationa International जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति सर्वोदय, सम्यक्त्व, समन्वय का स्वरूप है ज्ञान ज्योति । तिमिराछिन्न में नव प्रभात सी उज्ज्वलता है ज्ञान ज्योति ॥ नूतन पथ आलोकित करती दिग्दर्शक है ज्ञान ज्योति ॥ आत्म बोध का ज्ञान कराती मोक्ष दिलाती ज्ञान ज्योति ॥ 'ज्ञानमती' सी समता देती शोर मचाती ज्ञान ज्योति ॥ नगर नगर में डगर डगर में आभा बिखराती ज्ञान ज्योति ॥ - मांगीलाल जैन 'मृगेश' गुजरात प्रान्तीय ज्योति यात्रा इस देश की आजादी का जहाँ से पौराणिक इतिहास जुड़ा। महावीर अहिंसा वाणी का गांधी ने किया समर्थन था। गुजरात की पावन धरती पर अब ज्ञान ज्योति रथ आया है। पुनरेव अहिंसा नारों ने पूरा प्रदेश गुंजाया है ॥ गुजरात प्रान्त के नाम मात्र से मानव शरीर को संचालित करने वाले हृदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं, परतंत्रयुगीन भारत का वीभत्स रूप आंखों For Personal and Private Use Only . Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६२५ के समक्ष झलकने लगता है तथा उसके साथ ही स्वतंत्र भारत की पृष्ठभूमि में छिपे अहिंसा रूपी अस्त्र का स्मरण भी आये बिना नहीं रहता। एक कवि ने भारत के नागरिकों को अपने अमर शहीदों की स्मृति दिलाते हुए भविष्य में इस देश की रक्षा का भार उन पर डालते हुए ही मानो कहा है "हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकालके, इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के।" गुजरात की उस ऐतिहासिक धरा पर राजधानी दिल्ली से प्रवर्तित ज्ञानज्योति लगभग ८०० दिनों की भारत यात्रा के पश्चात् अहिंसा की मंगल ज्योति जलाने पहुंचती है। ९ अगस्त, १९८४ को दाहोद नगर से उसका प्रान्तीय प्रवर्तन प्रारंभ हुआ, जिसका उद्घाटन करने हेतु आदिम जाति कल्याण विभाग मंत्री श्री नायकजी एवं गुजरात राज्यमंत्री श्री ललित भाई पटेल पधारे। आज की स्वागत सभा में मुख्य अतिथि बने-श्री एस.के. नंदा, आई.ए.एस. कलेक्टर पंचमहाल। आशातीत सफलताओं के साथ दाहोद की शोभायात्रा सम्पन्न हुई। श्री कन्नूभाई ने भी पधारकर ज्योति का स्वागत किया और प्रांतीय प्रवर्तन समिति के तत्त्वावधान में ज्योति यात्रा आगे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चली। अहमदाबाद में अभूतपूर्व स्वागतमध्यप्रदेश प्रवर्तन के समय से ही अहमदाबाद के धर्मबंधु जिस ज्ञानज्योति के स्वागत की बेसब्री से इंतजारी कर रहे थे, सो वह १२ अगस्त, १९८४ की रविवार को वहाँ पहुँची। पूरा शहर तोरण द्वारों, केशरिया झण्डों एवं विभिन्न प्रचारात्मक वस्तुओं से सजाया गया था। टाउन हॉल में आयोजित विशाल जन सभा में उस दिन पुण्ययोग से मुनि श्री निजानन्दसागरजी महाराज एवं क्षुल्लक गुजरात प्रांत में दाहोद से ज्ञानज्योति के प्रांतीय प्रवर्तन का उद्घाटन श्री धवलसागरजी का मंगल सानिध्य भी प्राप्त हो गया, जिससे जीते-जागते समवशरण सदृश ही दृश्य उपस्थित हो रहा था। नेता भी स्वागत को आएगुजरात सरकार के गृहराज्य एवं शिक्षामंत्री श्री प्रबोध भाई रावल ने पधारकर ज्योतिरथ का सूक्ष्मता से अवलोकन किया तथा सभा में मुख्य अतिथि का पद सुशोभित किया। श्री चिमनभाई पटेल दैनिक अखबार 'संदेश' के मैनेजिंग डायरेक्टर ने अहमदाबाद में ज्योतिरथ का उद्घाटन किया। पचासों हजार नर-नारी पुष्पवृष्टि, गर्वानृत्य, लोकनृत्य आदि करते एवं देखते हुए शोभा याग में चल रहे थे। सार्थक ये क्षण मेरे अपने श्री रावलजी ने विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि "आप लोग अहमदाबाद में ज्ञानज्योति की विशाल सभा को संबोधित करते हुए मुनि श्री निजानंद तो सौभाग्यशाली हैं ही, क्योंकि हृदय से आपने इस ज्योति का सत्कार किया सागर महाराज एवं क्षुल्लक श्री धवलसागर जी। है। आपके आमंत्रण पर यहाँ आकर मैं भी आज के इन क्षणों को अपने जीवन के सर्वाधिक अमूल्य क्षण समझता हूँ। शिक्षा के प्रचार में ज्ञानमती माताजी का जो योगदान देश को मिल रहा है, उससे उनकी कीर्ति सदैव अमर रहेगी। श्री चिमनभाई पटेल ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा ___"यद्यपि मैंने इस ज्ञानज्योति की प्रेरणास्रोत ज्ञानमती माताजी के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं किए हैं, किन्तु इस ज्योति रथ का अवलोकन करने से संचालकों से प्रवर्तन के प्रभावी उद्देश्य जानकर स्वयमेव उनकी महान् प्रतिभा का अनुमान लग जाता है। वे हमारे देश की एक महिलारत्न हैं। उनके व्यापक दृष्टिकोण से देशवासियों में निश्चित ही एकता तथा ज्ञान की लहर आयेगी।...." Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ DITORIAL चन्द्रकिरण सम शीतल वाणी- । आज की सभा के प्रमुख आकर्षण परमपूज्य १०८ मुनि श्री निजानंदसागर महाराज ने विशाल जनसभा को एवं ज्ञानज्योति को अपना मंगल आशीर्वाद देते हुए कहा "ज्ञानज्योति की गूंज तो बहुत दिनों से कानों में सुनाई दे रही थी, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर आज ही प्राप्त हुआ है। पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने नाम के अनुसार काम करके आज बड़े-बड़े मुनियों को भी पीछे कर दिया है। मैंने अपने गुरु दयासागर महाराज (आचार्य श्री धर्मसागरजी के शिष्य) से कई बार ज्ञानमती माताजी की प्रशंसा के संस्मरण सुने हैं। यूं तो माताजी द्वारा रचित विशाल साहित्य ही उनकी ज्ञानप्रतिभा को अहमदाबाद में प्रादेशिक गृहमंत्री श्री प्रबोध भाई रावल को तिलक करते हुए संचालक पं. श्री सुधर्मचंद जी शास्त्री। दर्शाता है, किन्तु इस ज्ञानज्योति रथ ने देश भर में एक नया विषय लेकर सभी का ध्यान अब हस्तिनापुर की ओर केन्द्रित कर दिया है . . . . . मेरा तो आप सबके लिए भी यही कहना है कि अपने नाम को काम के द्वारा सार्थक कर संसार में एक कीर्तिमान स्थापित करें। पूरे गुजरात प्रान्त में खूब उत्साहपूर्वक रथ का भ्रमण कराएं और जन-जन में ज्ञान चेतना फैलाएं, यही मेरा आप सभी के लिए मंगल आशीर्वाद है। ___अहमदाबाद ज्ञानज्योति प्रवर्तन के समय कोबा आश्रम से श्री आत्मानंदजी सोनी, श्री मीठालालजी कोठारी, संरक्षक, गुजरात प्रांतीय समिति, कार्याध्यक्ष श्री सौभागमलजी कटारिया, महामंत्री, श्री अमृतलालजी दोषी तथा केन्द्रीय समिति के महामंत्री ब्र. श्री मोतीचंद जैन, श्री त्रिलोकचंद जैन सनावद, पं. सुधर्मचंद शास्त्री (संचालकजी), श्री अनोपचंदजी बड़वाह एवं नवल चंदजी चौधरी सनावद आदि महानुभाव भी उपस्थित थे। तलोद में ज्योतिनरोडा, दहेगांव और रखियाल होती हुई ज्ञानज्योति तलोद (साबरकांठा) में १५ अगस्त, १९८४ को पहुँचती है। पं. श्री कोदरलाल जी के धार्मिक उपदेशों से गुजरात प्रवर्तन समिति के समर्पित कार्यकर्तागण श्री मीठालाल जी कोठारी, श्री सौभागमल प्रशिक्षित इस नगरी में देवशास्त्र, गुरु भक्त समाज की बहुलता है। यहाँ की अमृतलाल दोषी । साथ में है-श्री त्रिलोकचंद जैन सर्राफ, मोतीचंद जैन, श्री अनोपचंद जी नवलचंद चौधरी, सनावद आदि। दीर्घकाय भीड़ अपनी श्रद्धा भक्ति का आज भरपूर प्रदर्शन कर रही थी। श्री अम्बूभाई देसाई ने यहाँ ज्योति यात्रा का उद्घाटन किया। इस प्रवर्तन को लिखते हुए मुझे स्मरण आया कि मैं ब्रह्मचारिणी (कु. माधुरी) अवस्था में हस्तिनापुर से आचार्यरत्न श्री विमलसागर महाराज के संघ को हस्तिनापुर पधारने हेतु निमंत्रण देने गई थी। संघ उस समय गिरनारजी सिद्धक्षेत्र पर चातुर्मास में ठहरा हुआ था। मेरे साथ में संघस्थ कु. बीना जैन एवं श्री जिनेन्द्र कुमार जैन, शाहपुर (जि. मुजफरनगर, उ.प्र.) भी थे। अहमदाबाद से टैक्सी द्वारा गिरनारजी जाते समय रास्ते में ज्ञानज्योति रथ देखकर हम लोग तलोद उतरे और वहीं सायंकालीन जलपान भी लिया था। पुनः शाम को ही चलकर रात्रि में १२ बजे हम लोग गिरनारजी पहुंचे और दूसरे दिन आचार्यसंघ के चरणों में श्रीफल चढ़ाकर सन् १९८५ में होने वाले हस्तिनापुर के विशाल जम्बूद्वीप पंचकल्याणक महोत्सव में पधारने हेतु निवेदन किया, किन्तु उस समय संघ हस्तिनापुर न पहुँच सका, अतः उसके पश्चात् मार्च सन् १९८७ में उस संघ का हस्तिनापुर आगमन हुआ तथा उसी समय ब्र. मोतीचंदजी ने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर मोतीसागर नाम प्राप्त किया। गुजरात प्रान्तीय ज्योती यात्रा की इस स्वागत श्रृंखला में हिम्मतनगर में १७ अगस्त को श्री जिलाधीश महोदय ने पधारकर रथ का उद्घाटन किया। टाकाटूका में १९ अगस्त, ८४ को मुनिराज श्री वीरसागर महाराज का सानिध्य प्राप्त हुआ। २२ अगस्त को ईडर नगर में अभूतपूर्व स्वागत सभा एवं शोभायात्रा सम्पन्न हुई। तारंगाजी सिद्धक्षेत्र के २३ अगस्त को दर्शन हुए। ज्योतीरथ के साथ पधारे समस्त महानुभावों ने पर्वतराज की सामूहिक वंदना की। दाता, सुदासणा, मेहसाणा आदि स्थानों में भ्रमण करती हुई ज्ञानज्योति २७ अगस्त, ८४ को कलोल पहुँची। यहाँ सभा को सम्बोधित करने Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६२७ तथा ज्योतिरथ की वंदना करने हेतु गुजरात राज्यसभा सदस्य श्री शंकर सिंह वघेला, कलोल यूनिवर्सिटी के प्रिंसिपल श्री आर.एच. व्यास एवं नगरपालिका के चेयरमैन श्री भानु कुमार छोटेलाल बखारिया पधारे । ज्योतिरथ के संचालक पं. श्री सुधर्मचंद शास्त्री ने इन सभी अतिथियों एवं उपस्थित जनसमूह को बतलाया "जम्बूद्वीप रचना के साथ प्रत्येक जनमानस की अपनत्व भावनाओं को जोड़ने हेतु पूज्य ज्ञानमती माताजी ने इस रथ का प्रवर्तन कराया है। माताजी की इस मानसिक विचारधारा से भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी जी भी अत्यधिक प्रभावित हुई और आज भी केन्द्र सरकार की ओर से उनका पूरा निर्देशन तथा सहयोग हमारे प्रवर्तन को प्राप्त हो रहा है।" गुजरात की राजधानी२८ अगस्त, १९८४ को लोक निर्माण विभाग गुजरात के मंत्री श्री खोड़ीदान ने गुजरात की राजधानी गांधीनगर में ज्योतिरथ का स्वागत किया तथा पूरे प्रान्त में अपने सक्रिय सहयोग का आश्वासन प्रदान किया। प्रान्तीय प्रवर्तन समिति के पदाधिकारियों ने भी कई स्थानों पर पहुँच कर संचालक की प्रत्येक गतिविधियों में सहयोग देकर अपने कर्तव्य का पालन किया। इस प्रवर्तन के पश्चात् पर्युषण पर्व में ज्योतियात्रा स्थगित रही, पुनः तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथ की निर्वाण भूमि जूनागढ़ गिरनार से यात्रा का शुभारंभ होता हैगुजरात प्रवर्तन का द्वितीय चरण तीर्थद्वय के सानिध्य में सिद्ध क्षेत्र गिरनार जो में आ. श्री विमल सागर महाराज का जन्मजयंती के दिन आचार्यरत्न श्री विमलसागर महाराज की जन्मजयन्ती का उल्लासमयी वातावरण ज्ञानज्योति की स्वागत सभा। मंच पर आसीन आचार्यश्री विमलसागर महाराज प्राचीन तीर्थक्षेत्र को नई नवेली की भाँति सजाने में व्यस्त था, मानो राजकुमार एवं आचार्य श्री निर्मलसागर महाराज ससंघ। नेमिनाथ की बारात ही आने वाली हो। यहाँ आज अचेतन और चेतन उभय तीर्थों के संगम में ज्ञानज्योति रथ का पदार्पण सचमुच ही त्रिवेणी संगम का दृश्य उपस्थित कर रहा था। महाराष्ट्र में भी तो कई स्थानों पर ज्ञानज्योति प्रवर्तन में आचार्य श्री विमल सागर महाराज के संघ का सानिध्य प्राप्त हुआ था तथा पुण्ययोग से इस गुजरात यात्रा में सिद्धक्षेत्र गिरनारजी में भी उनके संघ सानिध्य ने प्रवर्तन का महत्त्व और अधिक बढ़ा दिया था। यहाँ आचार्य श्री निर्मलसागर महाराज भी अपने संघ सहित “निर्मल ध्यान केन्द्र" में विराजमान थे। अतः उभय आचार्य संघों के मंगल सानिध्य में ज्ञानज्योति स्वागत सभा का आयोजन हुआ। दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अनेक प्रतिनिधियों सहित ब्र. रवीन्द्र कुमारजी गिरनारजी सिद्धक्षेत्र पर पधारे थे, क्योंकि ज्योतियात्रा के साथ ही सिद्धक्षेत्र की वंदना एवं आचार्य श्री की जन्मजयंती, साधुदर्शन आदि अनेकों लाभ यहाँ प्राप्त हुए थे। किस्सा कुर्ते काइस इतिहास को लिखते समय ब्र. रवीन्द्रजी ने मुझे बताया कि वहाँ पर मुझे बड़ी तकलीफ का सामना करना पड़ा। तकलीफ के नाम से हमारे पाठक भी चिंतित होंगे कि कौन-सी तकलीफ हुई, सो कोई शारीरिक या प्रवास की तकलीफ नहीं, बल्कि उन्होने बतलाया कि रात्री में टैक्सी से चलकर हम लोग गिरनारजी पहुँचे, वहाँ प्रातः स्नान करके जब कपड़े पहनने के लिए अटैची खोली तो अटैची में पानी आ जाने के कारण मेरे . सभी कुर्ते खराब हो गए थे, उन पर दाग-धब्बे पड़ गए थे, किन्तु अब मेरे पास कोई चारा नहीं था। अतः जैसे-तैसे उन्हीं कुर्तों से चार दिन तक काम चलाना पड़ा। गंदे कपड़े कभी न पहनने के कारण वह स्मृति उनके मस्तिष्क में कभी-कभी आ जाती है। ___ज्योति प्रवर्तन का कार्यक्रम तो अपनी योजनानुसार सफल हुआ ही, साथ में आचार्य श्री के चरणों में हस्तिनापुर पधारने हेतु श्रीफल भी अर्पित किए गए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ श्वेताम्बर जैन मुनि श्री अभयसागरजी की भावाञ्जलि पालीताना सिद्धक्षेत्र जो दि. जैन ग्रंथों में "शत्रुञ्जय गिरि" के नाम से जाना जाता है, यहाँ से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन ये तीन पांडव तथा आठ करोड़ द्रविड़ राजाओं ने मोक्ष पद प्राप्त किया है। जैसा कि निर्वाण काण्ड में पढ़ते हैं पांडव तीन द्रविड़ राजान, आठ कोटि मुनि मुक्ति पयान । श्री शत्रुञ्जय गिरि के शीश, मुक्ति गए वन्दो निशदीस ॥ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति १९ सितम्बर को यहाँ पधारने पर मुनि श्री अभयसागरजी ने बड़ी आतुरता एवं अपनत्वपूर्वक उसका स्वागत किया। इस सिद्धक्षेत्र पर श्वेताम्बरों का ही विशेष रूप में आधिपत्य चल रहा है। पालीताना में श्वेताम्बर मुनि श्रा अभयसागर जा क तत्त्वावधान म ज्यात स्वागत समा पता नहीं क्यों, दिगम्बर सम्प्रदाय के लोग इस क्षेत्र के पुनरुद्धार में आगे नहीं को संबोधित करते हुए श्री कपिल भाई कोटडिया (वर्तमान में भल्लक चितसागर जी)। आए हैं। शहर के बीच में मात्र एक दिगम्बर जैन मंदिर है, जो वि.सं. १९४८ में तैयार हुआ तथा उसकी प्रतिष्ठा सं. १९५१ में भट्टारक कनककीर्तिजी के द्वारा कराई गई थी। पर्वतराज के ऊपर अनेक श्वेताम्बर मंदिरों के मध्य एक भव्य दिगम्बर जैनों का अति प्राचीन मंदिर है। कुछ भी हो, यहाँ आने पर ज्योति यात्रा के सहयोगी महानुभावों ने अपने को धन्य माना और विशाल स्वागत सभा तथा जुलूस के साथ यहाँ का प्रवर्तन सम्पन्न हुआ। भावनगर का भाव जगा थापूज्य मुनिराज श्री वैरागसागरजी एवं मुनि श्री सिद्धान्तसागरजी के पावन सानिध्य को पाकर भावनगर तो यूं ही वैराग्य भावों में डूबा हुआ था। ज्ञानज्योति रथ के वहाँ पदार्पण होने पर वह भाव और भी वृद्धिंगत हो उठा। इस कृत्रिम समवशरण के पहुंचते ही प्रत्येक नगर में न मालूम कहाँ से जनता की अपार भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। भावनगर में भी यही हुआ, देखते ही देखते नगर निवासियों का समूह एक विशाल सभा में परिवर्तित हो गया। ज्योतिरथ के संचालक पंडित श्री सुधर्मचंदजी शास्त्री ने अपने प्रवचन में प्रवर्तन के उद्देश्य बतलाये तथा मुनिद्वय ने मंगल आशीर्वाद में जनसमूह को संबोधित किया। शोभायात्रा में हजारों नर-नारी का केशरिया लिबास इन्द्रपुरी सदृश दृश्य उपस्थित कर रहा था। भावनगर में ज्ञानज्योति जलस के साथ मुनि श्री विरागसागर जी एवं मुनिश्री सिद्धांतसागर जी। इसी मांगलिक प्रसंग पर मुनिराजों के चरणों में हस्तिनापुर पधारने हेतु श्रीफल भी अर्पित किये गए। इसी भावनगर जिले के सोनगढ़ नगर में भी २१ सितम्बर को ज्योतिरथ पहुँचा, जो कानजी भाई की चर्चित कर्मभूमि है। यहाँ कानजी भाई की प्रेरणा से निर्मित अनेक निर्माण स्थल हैं। ज्योतिरथ के पधारने पर यहाँ के सभी आश्रमवासियों सहित ब्र. चंपा बहन ने ज्योतिरथ का अवलोकन किया, पश्चात् ज्योति यात्रा अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ी। मुख्यमंत्रीजी आए२३ सितम्बर को बड़ौदा (गुजरात) में गुजरात प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री माधव सिंह सोलंकी ने पधार कर भारत की प्रधानमंत्री द्वारा प्रवर्तित ज्ञानज्योति का सोनगढ़ में ज्ञानज्योति का अवलोकन करती हुई वहाँ के आश्रम की बहनें। भावभीना स्वागत किया तथा अपने स्वागत भाषण में उन्होंने कहा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६२९ "जब से मैं इस ज्योतिरथ के गुजरात आगमन के समाचार सुन रहा था, तभी से मन में जिज्ञासा थी कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने जिसका उद्घाटन किया है, वह अवश्य ही कोई महान् चीज होगी, क्योंकि इंदिराजी किसी साधारण वस्तु में तो इतनी दिलचस्पी नहीं ले सकती हैं।" बड़ोदा में गुजरात प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री माधवसिंह सोलंकी ज्ञानज्योति स्वागत गुजरात के सुप्रसिद्ध कार्यकर्ता ब. श्री कपिलभाई कोट में स्वागत । सभा में "आर्यिका रत्नमती" पुस्तक का विमोचन करते हुए। आज प्रत्यक्ष में इस यात्रा को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। लेकिन मुझे हैरानी हो रही है कि ज्ञानमती माताजी ने कैसे इस मॉडल को बनवाया होगा। उनका कितना महान् ज्ञान होगा, जिसके द्वारा हम सभी से विस्मृत इस विषय को पुराणों से निकालकर देश को प्रदान किया है ....।" नोट : सन् १९८८ के पयूषण पर्व में ब्र. कु. माधुरी के रूप में मुझे बड़ौदा कॉरेलीबाग में प्रवचन हेतु जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। खेड़ा जिले के पेटलाद शहर में डी.एस.पी. श्री नटवर सिंहजी आणंद ने ज्योतिरथ का उद्घाटन किया तथा कॉलेज ऑफ एजूकेशन के प्रिंसिपल श्री उपेन्द्रभाई बी. पाठक स्वागत सभा में मुख्य अतिथि थे। पावागढ़मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र के पुत्रद्वय अनंगलवण (लव) और मदनांकुश (कुश) की निर्वाण भूमि पावागढ़ में २६ सितम्बर को ज्ञानज्योति का पदार्पण हुआ। यहाँ बड़ौदा आदि आस-पास के शहरों से भी महानुभावों ने पधारकर स्वागत सभा तथा जुलूस निकालकर ज्योतिरथ का सम्मान किया। यह हिन्दुओं का भी एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल माना जाता है। पर्वत के ऊपर जाने के लिए अब वहाँ उड़नखटोला (लिफ्ट) की सुन्दर व्यवस्था है। सन् १९८८ में मुझे यहाँ के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भरूच में डिटी कलेक्टरश्री एम.ओ. झाला, डिप्टी कलेक्टर ने भरूच के ज्योति आगमन पर वहाँ पधार कर स्वस्तिक बनाकर रथ का नगर प्रवर्तन कराया तथा अपने स्वागत भाषण में वहाँ की जैन समाज को बधाई दी। बड़ौदा पर्युषण पर्व के मध्य ही में एक दिन श्री विनोद भाई शाह के आग्रह पर भरूच गई, वहाँ दिन में मेरा मंगल प्रवचन हुआ। सिद्धान्त ग्रन्थ स्थल अंकलेश्वरसूरत और बड़ौदा के मध्य स्थित अंकलेश्वर नामक अतिशय क्षेत्र पर ज्ञानज्योति की यात्रा २९ सितम्बर को सायंकाल में पहुँची। यहाँ एक भौरे में चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्राचीन अतिशय सम्पन्न मूर्ति विराजमान है। लोगों की धारणा है कि इस प्रतिमा के दर्शन से समस्त चिन्ताएं दूर होती हैं तथा मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इसीलिए इसे अतिशय क्षेत्र माना जाता है। एक इतिहास यहाँ से सिद्धान्त ग्रंथ संबंधी भी जुड़ा है। आचार्य श्री धरसेन स्वामी द्वारा प्राप्त अंग और पूर्व ज्ञान के धारी पुष्पदंत और भूतबलि मुनिराज ने यहाँ अपने वर्षायोग के मध्य सिद्धान्त ग्रंथों का लेखन किया था। जिस समय सन् १९८८ में मैं बड़ौदा से पर्युषण पर्व के मध्य अंकलेश्वर के दर्शन करने गई, तब लोगों ने एक छोटी-सी गुफा दिखाकर प्राचीन इतिहास बतलाया कि इसी स्थान पर बैठकर आचार्य द्वय सिद्धांत ग्रंथों का लेखन किया करते थे। स्थान देखकर मन में अद्भुत आह्लाद हुआ, ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो मैंने उन मुनि श्री को लेखन करते हुए साक्षात् ही देख लिया है। उस पावन धरती के रजकण मस्तक पर स्पर्श करके मैंने अपना सौभाग्य सराहा और यह भावना भाई कि हे प्रभो! आचार्यों की उस पवित्र वाणी को हृदयंगम करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हो। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ प्रत्येक नगरों की भांति इस अंकलेश्वर तीर्थक्षेत्र पर भी उत्साहपूर्वक ज्योतिरथ का प्रवर्तन हुआ। सूरत में ज्ञान ज्योतिगुजरात प्रान्त का प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र सूरत शहर में ३० सितम्बर, १९८४, रविवार को ज्ञानज्योति का चिरस्मरणीय स्वागत हुआ। ___इतिहासकारों ने इतिहास में बतलाया है कि कभी इस नगर का नाम सूर्यपुर था, किन्तु इसकी समृद्धि, उन्नति देखकर सन् १५२१ में बादशाह मुजफरशाह ने इसका नाम 'सूरत' रखा और इसका विकास उसके बाद निरन्तर बढ़ता ही गया। ज्ञानज्योति के आगमन पर सूरत के साप्ताहिक पत्र 'जैन मित्र' ने भी अपन अखबारों में उसका खूब प्रचार-प्रसार किया। श्री काशीरामजी राणा मेयर, श्री अशोक कुमार कटारिया, म्यु. कमिश्नर एवं श्री मनमोहन मेहता, पुलिस कमिश्नर ने पधारकर अपने कर-कमलों से रथ का नगर प्रवर्तन कराया। अतिशय क्षेत्र महुवाडॉ. श्री चिमनलालजी शाह बारडोली की अध्यक्षता में आयोजित स्वागत सभा में संचालकजी ने ज्योति प्रवर्तन का महत्त्व बतलाया तथा सभी लोगों ने इस अतिशय क्षेत्र का परिचय प्राप्त किया। सूरत जिले का यह क्षेत्र "विघ्नहर श्री पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र-महुवा" के नाम से प्रसिद्धी को प्राप्त है। इस तीर्थ के इतिहास के साथ एक रोचक विषय ज्ञात हुआ, जिसका उल्लेख करना मैं आवश्यक समझती हूँ भगवान् पार्श्वनाथ को यहाँ के अबोध भक्तजन संकल्प सिद्धि के देवता कहते हैं। अतः लोग यहाँ तरह-तरह की मनौतियाँ मानते और चढ़ावा चढ़ाते देखे जाते हैं। जिन लोगों को पुत्र प्राप्ति की कामना होती है, वे चांदी का पालना चढ़ाते हैं। नेत्र रोगी चाँदी के नेत्र, पंगु व्यक्ति चांदी की वैशाखी आदि चढ़ाते हैं। इसी प्रकार अन्य रोगी भी चांदी की कोई वस्तु स्वेच्छा से बनवाकर यहाँ चढ़ाते हैं। ___ज्ञानज्योति यात्रा में केवल एक ही मनौती मानी जा रही थी कि जन-जन को ज्ञानलाभ प्राप्त हो तथा अहिंसा धर्म एवं जम्बूद्वीप का व्यापक प्रचार-प्रसार हो। भगवान पार्श्वनाथ की कृपा से यह मनोरथ सिद्ध हो ही रहा था। 'महुवा' के दर्शन करके उसने और भी अतिशय प्राप्त कर लिया और आगे अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार गंतव्य की ओर चल पड़ी। गुजरात यात्रा समापन मांडवी में२ अक्टूबर, १९८४ को गुजरात के गली-कूचों में भ्रमण करता हुआ ज्ञान ज्योतिरथ मांडवी (सूरत) पहुँचता है। श्री नवलचंद भाई शाह ने रथ का नगर प्रवर्तन कराया तथा प्रान्तीय प्रवर्तन समिति के पदाधिकारियों ने यहाँ पधारकर गुजरात यात्रा के समापन की घोषणा कर दी। ज्ञानज्योति की जय-जयकारों से शहर गूंज उठा और पं. श्री सुधर्मचंद शास्त्री ने अपने भाषण में पूरे गुजरात प्रान्तीय प्रवर्तन का संक्षिप्त सार बताया। गुजरात प्रान्त के वे नगर जहाँ ज्ञानज्योति का भ्रमण हुआ१. दाहोद (पंचमहाल) गुजरात, २. संतरामपुर (पंचमहाल) गुजरात, ३. जहरे (खेड़ा) गुजरात, ४. अहमदाबाद गुजरात, ५. नरोडा (अहमदाबाद) गुजरात, ६. दहेगांव (अहमदाबाद) गुजरात, ७. रखियाल (अहमदाबाद) गुजरात, ८. तलोद (सावरकांठा) गुजरात, ९. सलाल (सावरकांठा) गुजरात, १०. सोनासन (सावरकांठा) गुजरात, ११. हिम्मतनगर (सावरकांठा) गुजरात, १२. पोशिना (गुजरात), १३. मऊ (सावरकांठा) गुजरात, १४. भिलोड़ा (सावरकांठा) गुजरात, १५. टाकाटूका (सावरकांठा) गुजरात, १६. विजयनगर (सावरकांठा) गुजरात. १७. चोरीवाड़ (सावरकांठा) गुजरात, १८. कडियादरा (सावरकांठा) गुजरात, १९. ईडर (सावरकांठा) गुजरात, २०. तारंगा (सिद्धक्षेत्र) (बनासकांठा) गुजरात, २१. नवावांस (बनासकांठा) गुजरात, २२. दाता (बनासकांठा) गुजरात, २३. सुदासणा (मेहसाणा) गुजरात, २४. मेहसाणा (गुजरात), २५. कलोल (मेहसाणा) गुजरात, २६. गांधीनगर (गुजरात), २७. जूनागढ़ (गिरनारजी), २८. पालीताणा (गुजरात), २९. भावनगर (गुजरात), ३०. घोंघा धधूका (गुजरात), ३१. सोनगढ़ (भावनगर) गुजरात, ३२. सोजिता (खेड़ा) गुजरात, ३३. करमसद (खेड) गुजरात, ३४. बड़ौदा (गुजरात), ३५, पेटलाद (खेड़ा) गुजरात, ३६. बोरसद (खेड़ा) गुजरात, ३७. पावागढ़ (पंचमहाल) गुजरात, ३८. पादरा (बड़ौदा) गुजरात, ३९. बडू (बड़ौदा) गुजरात, ४०. आमोद (भडुच) गुजरात, ४१. भडुच (गुजरात), ४२. अंकलेश्वर (भडुच) गुजरात, ४३. सूरत ( त), ४४. महुवा (सूरत) गुजरात, ४५. बुहारी (सूरत) गुजरात, ४६. ब्यारा (सूरत) गुजरात, ४७. मांडवी (सूरत) गुजरात। गुजरात प्रान्त के तीर्थस्थल१. तारंगाजी, २. पालीताना, ३. पावागढ़, ४. जूनागढ़ गिरनारजी, ५. अंकलेश्वर, ६. महुवा। १. भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (चतुर्थ भाग) पं. बलभद्र जैन (लेखक) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६३१ ज्ञानज्योति का आसाम भ्रमण (गोहाटी से उद्घाटन) १४ अक्टूबर, १९८४ को आसाम की राजधानी गोहाटी में ज्ञानज्योति का उद्घाटन समारोह मनाया गया। श्री निर्मल कुमार सेठी (केन्द्रीय ज्ञानज्योति अध्यक्ष) महामंत्री श्री ब्र. मोतीचन्द्रजी एवं ब्र. रवीन्द्र कुमारजी, पं. सुधर्मचन्द्रजी शास्त्री, कु. मालती शास्त्री एवं कु. माधुरी शास्त्री आदि सभी लोग उद्घाटन समारोह में गोहाटी पधारे। शानदार कार्यक्रमों के साथ प्रवर्तन प्रारंभ हुआ। ४ जून, १९८२ से प्रवर्तित होकर यह ज्ञानज्योति का रथ सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपने कार्यक्रमों को सुनियोजित ढंग से सम्पन्न करता रहा। इस शुभ अवसर पर श्री गणपतजी पांड्या ने अपने पिता श्री चांदमलजी पांड्या की स्मृति में हस्तिनापुर में एक भवन निर्माण की स्वीकृति भी प्रदान की। गोहाटी के महावीर भवन में विशाल सभा का आयोजन हुआ, जिसमें अनेक वक्ताओं ने ज्ञानज्योति प्रवर्तन के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासभा के भूतपूर्व अध्यक्ष श्री लखमीचन्दजी छावड़ा ने अपने भाषण में पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के गुणों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए इस ज्ञानज्योति प्रवर्तन को उनके अदम्य ज्ञान का प्रतिफल बताया। इसके साथ ही श्री गणपतजी पांड्या, श्री हुकमीचंदजी पांड्या, श्री झूमरमलजी पहाड़िया, (अमरचंदजी पहाड़िया के भाई) एवं डीमापुर से पधारे श्री चैनरूपजी बाकलीवाल एवं श्री राजकुमारजी सेठी आदि महानुभावों के विशेष सहयोग से यहाँ ज्ञानज्योति का उद्घाटन कार्यक्रम अप्रतिम सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। थोड़ी-थोड़ी वर्षा होने के बावजूद भी ज्योतिरथ की शोभायात्रा शानदार ढंग से निकली। लगभग १ किलोमीटर लम्बे जुलूस में हजारों नर-नारी साथ-साथ चल रहे थे। आश्चर्य तो यह था कि जुलूस के आगे-पीछे वर्षा हो रही थी और जुलूस के साथ चल रहे किसी भी नर-नारी के ऊपर बारिश की एक बूंद भी नहीं पड़ रही थी। ज्योतिरथ के ऊपर स्थित अतिशयकारी सुमेरुपर्वत का ही यह प्रभाव माना गया। गोहाटी प्रवर्तन के पश्चात् ज्ञानज्योति का पावन रथ आसाम की वसुंधरा को पवित्र करता हुआ खारू पेटिया, तेजपुर, विश्वनाथचाराली, उत्तर लखीमपुर, शिलापथार से डिब्रूगढ़ पहुँचता है। ब्रह्मपुत्र नदी की यात्राज्ञानज्योति के शिलापथार प्रवर्तन के पश्चात् डिब्रूगढ़ जाने के मार्ग में विशाल ब्रह्मपुत्र नदी (स्टीमर) के द्वारा पार की गई। उस पानी के जहाज पर ज्ञानज्योति का रथ और ज्योति प्रवर्तन की सारी मंडली के द्वारा भक्ति संगीत का वह मनोरम दृश्य भी एक अभूतपूर्व था। निरन्तर ५ घंटे की लम्बी समुद्र यात्रा करके हम सभी डिब्रूगढ़ नगर में गए और वहाँ की जनता का भावभीना स्वागत स्वीकार किया गया। फिर उस दिन हम लोगों के एकाशन थे। शाम को देर से पहुंचने पर जल्दी-जल्दी सबने भोजन किया। फिर रात्रि में ऑडिटोरियम में विशाल सभा का आयोजन हुआ और सफल आयोजनों के साथ प्रातः शोभायात्रा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। तिनसुकिया का धर्मप्रेमडिब्रूगढ़ कार्यक्रम के पश्चात् ज्योतीयात्रा तिनसुकिया पहुँचती है। श्री निर्मल कुमारजी सेठी की जन्मभूमि होने के कारण वे यहाँ अपने भाइयों के साथ विशेष रूप से ज्योतिरथ का स्वागत करने हेतु पधारे। सेठीजी के घर में ही सभी अतिथियों का आतिथ्य सत्कार हुआ। मुझे ध्यान है कि उस दिन किसी कारणवश वहाँ उनके घर में कोई महिला उपस्थित नहीं थी, फिर भी निर्मलजी सेठी तथा उनके भाई हुलासचंदजी आदि ने हम लोगों के खाने-पीने तथा किसी भी व्यवस्था में कोई कमी नहीं रखी, यह उनका धर्मप्रेम ही कहना होगा। ज्ञानज्योति प्रवर्तन की श्रृंखला में तिनसुकिया के स्वागत कार्यक्रम ने भी अपनी अविस्मरणीय छाप डाली। शोभायात्रा के पश्चात् सेठीजी हम सभी आसाम के,तिनसुकिया नगर में जानज्योति रथ के साथ श्रीनिर्मलकुमार सेठी, पत्रालाल अतिथियों को अपनी पुरानी फैक्ट्री दिखाने ले गए। उस दिन रात्रि विश्राम के । सेठी, त्रिलोकचंद कोठारी, हुलासचंद सेठी एवं जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की पूरी टीम। पश्चात् दूसरे दिन ज्योतियात्रा ने अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान किया। वीज्ञान-योति S taguA Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२] & A शिवसागर (आसाम) में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री श्री अंटकेश्वर डिहींगिया एवं सभाध्यक्ष श्री एस. आर. खेमका, ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन के साथ में। गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ झरने तथा घाटियों के मनोरम दृश्य रामीण विकास मंत्री द्वारा ज्ञानज्योति का स्वागत शिवसागर नगर में विद्यालय में हुई जनसभा में ग्रामीण विकास मंत्री श्री टंकेश्वर डिहींगिया ने ज्ञानज्योति का स्वागत किया तथा विशाल जनसभा को संबोधित किया। पुनः जोरहाट, मरियानी, डेरगांव, बोकाखात, गोलाघाट को प्रकाशित करती हुई ज्योतियात्रा नागालैंड में प्रवेश करती है। आगे केले के पत्तों के सुन्दर तोरणद्वारों का सुन्दर दृश्य तथा प्रत्येक घरों के समक्ष सुन्दर मंगल कुंभों पर जलते दीपक नगर की शोभा में चार चांद लगा रहे थे । यहाँ के निवासी श्री चैनरूपजी बाकलीवाल, राजकुमारजी सेठी, पन्नालाल सेठी आदि महानुभावों के विशेष सहयोग से बोलियों में तो नहीं, किन्तु कमरे निर्माण हेतु स्वीकृतियां प्रदान कर डीमापुर ने अन्य शहरों को भी अर्थाञ्जलि में पीछे छोड़ दिया । ज्योति प्रवर्तन में पं. सुधर्मचन्दजी शास्त्री, श्री मोतीचंदजी, रवीन्द्र कुमारजी तथा कु. मालती एवं कु. माधुरी द्वारा भी जनता को जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर, ज्ञानमती माताजी तथा ज्ञानज्योति की विस्तृत जानकारियाँ प्राप्त हुईं। ज्योति प्रवर्तन से सबसे बड़ा लाभ अहिंसा और धर्म सहिष्णुता के प्रचार का हुआ है। आसाम की साधारण जनता धर्म ज्ञान से सर्वथा शून्य होने के कारण वहाँ हिंसा अधिक मात्रा में दृष्टिगत होती है। ज्योति प्रवर्तन के द्वारा लोगों में अहिंसा की भावनाएं जापत हुई। अनेकों स्थानों पर लोगों ने व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में हिंसा के धंधे का त्याग किया। यह इस प्रवर्तन की मैं अप्रतिम सफलता मानती हूँ । --- मंत्री महोदय ने भी दान दिया डीमापुर में प्रान्तीय वित्तमंत्री श्री टी.ए. नुली ने भी ज्ञानज्योति के व्यापक उद्देश्यों से प्रभावित होकर गुप्तदान में ५००१ रुपये की राशि अर्पित की तथा विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए ज्ञानज्योति को महान् यज्ञ की उपमा दी और कहा कि इसके भ्रमण से देशवासियों को असीम शांति की प्राप्ति हो रही है। Jain Educationa International - ज्ञानज्योति डीमापुर में डीमापुर नागालैंड की राजधानी मानी जाती है। यहाँ पर भी बहुमात्रा में जैन घर है। मंदिर सुंदर एवं कलात्मक है। २४ अक्टूबर, १९८४ दीपावली पर्व में यहाँ ज्ञानज्योति और निर्वाणज्योति दोनों के द्वारा पूरे शहर में अपूर्व प्रकाश की लहर दौड़ गई । घर-घर में बिजली की झालरें लटक रही थीं। हर घर के डीमापुर से मणिपुर इम्फाल का लम्बा रास्ता तय करना होता है। यह मणिपुर एक अलग ही स्टेट है जो कि विदेशी सीमा वर्मा के बार्डर के समीपस्थ है। डीमापुर से मणिपुर के लिए एयरलाइन्स के साधन भी नहीं है, अतः ७-८ घंटे की यात्रा तय करके सड़क मार्ग से ही वहाँ पहुँचना होता है। इस यात्रा के मध्य गोल-गोल चक्करदार रास्तों में हम सभी लोग ज्योतिरथ में बैठे हुए उन प्राकृतिक दृश्यों को देख रहे थे। पहाड़ों से बहते हुए जल के स्वच्छ झरने तथा हरियाली से परिपूर्ण खेतों के मनोरम दृश्य इस यात्रा को सुखद बना रहे थे। इसी बीच एक झरने के पास रुक कर हम सभी लोगों ने भोजन किया और झरने का ठंडा जल पिया । ज्ञानज्योति के सम्पूर्ण भारत भ्रमण के मध्य यह आसाम भ्रमण में प्रथम अवसर था कि जब हम चारों लोग (मोतीचंद, रवीन्द्र, मालती, माधुरी) एक साथ ज्योति प्रवर्तन में भ्रमण कर रहे थे। इसका मुख्य कारण था कि आसामवासियों का विशेष आमंत्रण तथा हम लोगों के दिल में भी प्रान्त देखने की इच्छा से यह विशेष संयोग बना। खैर! उस आठ घंटे की यात्रा के पश्चात् इम्फाल में ज्योति का प्रवेश रात्रि ८.३० हुआ और अगले दिन २६ अक्टूबर को प्रातः काल सभा का आयोजन हुआ। जे आसाम के मुख्यमंत्री तथा स्वास्थ्यमंत्री आए जैसा कि हर प्रान्त में राजनेताओं द्वारा ज्योति का भावभीना स्वागत हुआ। उसी श्रृंखला में यहाँ भी मुख्यमंत्री श्री रिसांगक्रेसिंग तथा स्वास्थ्य मंत्री श्री राधा विनोदजी सपत्नीक पधारे। सर्वप्रथम कु. मालती शास्त्री के मंगलाचरण से सभा का शुभारम्भ हुआ। मंत्री महोदय ने मणिपुरी भाषा में ज्ञानज्योति तथा भगवान महावीर के संदेशों के बारे में बतलाया कि ये सिद्धान्त हर मानव के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। For Personal and Private Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [E33 विजय के लिए घोड़ा छोड़ा गयास्वास्थ्य मंत्री ने अपनी मणिपुरी भाषा में ज्ञानमती माताजी को देश की महान् साध्वी बताते हुए कहा कि जिस प्रकार रामचंद्रजी ने विजय प्राप्त करने के लिए घोड़ा छोड़ा था, उसी प्रकार से ज्ञानमती माताजी ने देश में धर्म की दिग्विजय के लिए यह ज्योतिरथ छोड़ा है। ज्योति के महामंत्री श्री मोतीचंदजी ने ज्ञानज्योति के उद्देश्यों को बताया। ब्र. श्री रवीन्द्रजी ने अंग्रेजी में त्रिलोक शोध संस्थान तथा ज्ञानज्योति के बारे में सबको जानकारी दी। कु. माधुरी शास्त्री ने अपने वक्तव्य में देश की महान् नारियों के अस्तित्व के अन्तर्गत ज्ञानमती माताजी के संबंध में बताते हुए कहा सच तो इस नारी की शक्ति नर ने पहचान न पाई है। मंदिर में मीरा है तो वह रण में भी लक्ष्मीबाई है। है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती नारी की कला निराली है। सच पूछो नारी के कारण यह धरती गौरवशाली है। ब्र. रवीन्द्रजी ने अपने अंग्रेजी भाषण में मुख्यमंत्रीजी को ज्ञानज्योति के उद्देश्य बतलाए। उनके भाषण का अंश यहाँ उपस्थित हैRespected Chief Minister Sri Resong Kresing, Health Minister Sri Radha Vinod and all the gentle man! Jamboodweep Gyan Jyoti was inaugrated by the Prime Minister Smt. Indira Gandhi on 4th June, 1982 at Red Fort Ground, Delhi by the blessings Holiness Jain Saint Sri Gyanmati Mataji. Mataji is a renowned Author, meditator and devotee of the Jain Society. Her intire life right from the childhood has been spent in the reading of Literature. From 4th June, 1982 upto now Gyan Jyoti has gone in all over India Rajasthan, Bengal, Bihar, Maharastra, Karnataka, Tamilnadu, Madhya Pradesh and Gujrat also. From 14th date of this month Gyan Jyoti came in Assam and first function was held in Gauhati. Now we want to know what is Jamboodweep Gyan Jyoti. The name of the fore most ‘island' in this central world is Jamboodweep. This island has explained over one lakh yojanas-means forty crores miles and in this one part is Bharat Khetra is 190th part of Jamboodweep comprising an area of 526 yojanas only. And present total world is a little part of Bharat Khetra. Now this Institution wants to research in this subject that is unknown from present human beings. Only for this the construction of Jamboodweep is created in Hastinapur Holy and Historical Place which is establish only 100 km. away from Delhi and in this Gyan Jyoti a small model of that Jamboodweep which is created in Hastinapur, has fixed to understand the peoples in all over India. Looking at this map one can easily have knowledge the size and shape of the Globe. The aims of Gyan Jyoti Pravartan first to give the knowledge and philosphy of Jamboodwecp to all the country men. Secondly to help establish an atmosphere of religious toleration among the different religions. Third aim to propogate the tenets of Anuvrat like non-violence, truth, non-stealing, celibacy and non attachment for the happiness, peace and prosperity of all and other aim to inspire charactor-building. The description of Jamboodweep has not only been given by the Jaina Scholars since two thousands years in their various scripture like Triloksar, Lok Bibhag, Tiloyparranthi, Moksha Shastra but also by the vedic religious books like Agni Purana, Vayu Purana, Vishnu Purana, Shrimad Bhagwat, Yogdarshan and Bodha religious books Nikaya Majihima-Nikaya and Sut Nikin. It is for the first time that such a geographical map is being created in India. In the middle of this erection, 84 feet high the Sumeru Parvat is already constructed on which stand 16 Jain idols. Stairs have been provided from inside to reach the top of the Sumeru. The remaining construction work is going to completed all the work of Jamboodweep within 6 months after that the Jamboodweep Panchkalyanaka Function will be held on 28 April of 1985. Hastinapur Pilgrimage has been the centre of many historical events. In all over India, Gyan Jyoti was welcomed by the Governors, Chief Ministers and Ministers. Today in Imphal, Manipur State honourable Chief Minister and Health Minister welcomed Gya : ! We are Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ very happy and giving many thanks by the central committee of Gyan Jyoti Pravartan, Hastinapur and by all the Jain society of Manipur State. Now we will very happy by your immediate visit to this sacred place of Jamboodweep at Hastinapur. Thanking you, सिल्वर में जली ज्योति२६ अकूटबर को इम्फाल प्रवर्तन के पश्चात् सिल्चर शहर का क्रम आया, जहाँ बहुत दिन पूर्व से ही ज्ञानज्योति आगमन की प्रतीक्षा चल रही थी। २९ अकूटबर, १९८४ को प्रातः रथ का मंगल पदार्पण होते ही शहर में खुशियों की लहर दौड़ पड़ी। मैं एवं ब्र. रवीन्द्र कुमारजी और मालतीजी तीन लोग इम्फाल कार्यक्रम के पश्चात् वहीं से हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गये। अब ब्र. मोतीचंदजी के प्रमुख निर्देशन में एवं पं. श्री सुधर्मचंदजी के संचालकत्व में ज्ञानज्योति की आगे यात्रा चल रही थी। प्रातः ९ बजे सिल्चर की स्वागत सभा में श्री ए.के. नाथ एडीशनल डिप्टी कमिश्नर एवं श्री विश्वनाथजी उपाध्याय ने पधारकर प्रवर्तन उद्देश्यों को समझा तथा ज्ञानज्योति का उद्घाटन कर नगर भ्रमण कराया। आसाम की कोमल धरती पर जहाँ प्राकृतिक हरियाली के सुन्दर कालीन बिछे हुए थे, वहीं सभी नगर एवं शहरों ने अपनी सजावट में कोई कमी नहीं छोड़ी थी, क्योंकि उन्हें अपने चिरप्रतीक्षित अतिथियों का स्वागत जो करना था। यह प्रान्त आदिवासियों की हिंस्य प्रवृत्तियों से प्रायः सर्वाधिक प्रभावित प्रतीत हुआ, अतः यहाँ प्रमुख रूप से अहिंसा और सदाचार विषयों पर वक्ताओं के प्रवचन हुए। धर्मज्ञान से अनभिज्ञ जनता ने इन प्रवचनों से प्रभावित होकर पर्याप्त मात्रा में माँसाहार का त्याग किया तथा कितने लोगों ने सीमित समय तक के लिए शराब, मांसादि का त्याग किया। सुख-दुःख उभय स्मृतियों का दिवस ३१ अकूटबर, १९८४ज्योतिरथ आगमन की सूचना से ही "शिलांग" नगर का कण-कण मुखरित हो उठा था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्वागत सभा, रथयात्रा, बैंडों की धुन, नगर सजावट और अतिथि सत्कार आदि वहाँ की सारी विधाएं खुशियों का परिचय दे रही थीं। प्रातःकाल की सूर्यलालिमा से जो स्वागत शृंखला प्रारंभ हुई, वह दिन के १२ बजे ही सम्पन्न हुई। सब लोग भोजन पान से निवृत्त होकर आगे के मंगल विहार का विचार बना ही रहे थे कि तभी रेडियो समाचारों से एक दुःखद समाचार ज्ञात हुआ___ "प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की उनके निवास स्थान पर हत्या कर दी गई है।" कानों से सुने गए इन कटु शब्दों पर विश्वास न होने के बावजूद भी देशवासियों को यह वियोग स्वीकार करना ही पड़ा। ज्योतिरथ भी चूँकि इंदिराजी की उदार भावनाओं से जुड़ा हुआ था, अतः संचालकों को दुःख होना भी स्वाभाविक था। जहाँ राजधानी दिल्ली तथा अनेक प्रदेश अपने प्रिय नेता के वियोग की प्रतिशोधाग्नि में भड़क उठे थे, वहीं शिलांग में ज्ञानज्योति के सानिध्य में शान्ति के विविध उपाय किए जा रहे थे। इधर हस्तिनापुर में भी देश के प्रधानमंत्री के असामयिक निधन पर धार्मिक, सैद्धान्तिक ग्रंथों का स्वाध्याय बन्द करके णमोकार मंत्र का पाठ प्रारंभ कर दिया गया था। इंदिराजी के निधन पर उनके पुत्र राजीव गाँधी को देश ने अपना नया प्रधानमंत्री चुना और उस ३१ अक्टूबर को शहीदी दिवस के रूप में घोषित किया। __ संघर्षों के इन आकस्मिक क्षणों में ज्योति प्रवर्तन का ४ दिनों का कार्यक्रम आगे बढ़ा दिया गया। गोहाटी में रथ खड़ा रहा, पश्चात् स्थिति में कुछ शांति होने पर कामरूप जिले के विजयनगर शहर में पहुँचा। लघुसमवशरण रचना से सुशोभित इस विजयनगर में ३ नवम्बर, १९८४ को ज्ञानज्योति का मंगल पदार्पण हुआ और गमगीन वातावरण के कारण ज्योति संचालक के निर्देशानुसार जुलूस स्थगित कर दिया गया। इसके पश्चात् रंगिया, नलवाड़ी, टिट्ट, बरपेटा रोड, बंगाई गांव, गौरीपुर, धुवड़ी होती हुई ज्ञानज्योति ९ नवंबर, १९८४ को दीनहट्टा से सिलीगुड़ी (दार्जिलिंग) पहुँची। यहीं पर आसाम प्रवर्तन का समापन घोषित कर दिया गया। आसाम ज्ञानज्योति प्रवर्तन में केन्द्रीय प्रवर्तन समिति के महानुभावों के साथ-साथ प्रान्तीय समिति का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। श्री हुकमीचन्दजी पांड्या प्रान्तीय कार्याध्यक्ष, श्री राजकुमारजी सेठी-महामंत्री, श्री चैनरूपजी बाकलीवाल-उपाध्यक्ष, श्री पत्रालालजी सेठी-संयोजक आदि कार्यकर्ताओं के अथक परिश्रम से यह प्रवर्तन पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६३५ आसाम, नागालैंड एवं इम्फाल के प्रमुख नगर१. गोहाटी (आसाम), २. खारूपेटिया (दरंग) आसाम, ३. तेजपुर (सोनितपुर) आसाम, ४. विश्वनाथ चाराली (सोनितपुर), ५. उत्तर लखीमपुर, ६. शिलापथार, ७. डिब्रूगढ़ (आसाम), ८. तिनसुकिया (डिब्रूगढ़), ९. शिवसागर (आसाम), १०. जोरहाट (आसाम), ११. मरियानी (जोरहाट), १२. डेरगांव (आसाम), १३. बोकाखात (जोरहाट), १४. गोलाघाट (जोरहाट), १५. डीमापुर (नागालैंड), १६. इम्फाल (मणिपुर), १७. सिल्चर, १८. शिलांग, १९. विजयनगर (कामरूप), २०. रंगिया (कामरूप), २१. नलवाड़ी (आसाम), २२. टिहू (कामरूप), २३. बरपेटा रोड, २४. बंगाई गांव (ग्वालपाड़ा), २५. गौरीपुर (धुवड़ी), २६. धुवड़ी, २७. दीनहट्टा (कूचविहार), २८. सिलीगुड़ी (दार्जिलिंग)। जन्मभूमि से प्रारंभ हुई उत्तरप्रदेशीय यात्रा श्री ऋषभदेव की जन्मभूमि से पावन जो कहलाती है। साकेतपुरी के कण-कण की पावन सुगन्धि मन भाती है। यहीं पर अनंत तीर्थङ्कर भी जन्मे थे सतयुग में आकर । इस प्रांगण में ही रत्नवृष्टि करता कुबेर अवसर पाकर ॥ १ ॥ ब्राह्मी माता की इस धरती ने फिर से ब्राह्मी माँ पाई। जब अवध प्रांत की ही टिकैतनगरी में इक मैना आई ॥ ईसवी सन् चौतिस शरदपूर्णिमा मोहिनी माता ने पाया। इक दूजा चाँद देखकर मानो नभ का चन्दा शरमाया ॥ २ ॥ श्री छोटेलाल पिताजी क्या तब यह विचार कर सकते थे? पुत्री मैना में जगमाता का रूप कहाँ लख सकते थे? लेकिन सन् बावन में कन्या ने ब्राह्मी पथ स्वीकार लिया। संघर्षों में विजयी बन कर निज नाम को भी साकार किया ॥ ३ ॥ सम्प्रति वह गणिनी ज्ञानमती जग को संदेश सुनाती हैं। तप त्याग की अनुपम शक्ती को निज काया से दर्शाती हैं। जीवन का हर क्षण है अमूल्य उसका उपयोग बताती हैं। पुरुषार्थ के बल पर वृहद् ज्ञान अर्जन की कला सिखाती हैं ॥ ४ ॥ उनके इन कार्यकलापों से वह जन्मभूमि भी तीर्थ बनी। कलियुग की इस ब्राह्मी माता से नगरी पावन पूज्य बनी ॥ उनकी साहित्यिक कृतियों ने जग को इतिहास बताया है। नारी ने सब क्षेत्रों में अपना सदा विकास दिखाया है ॥ ५ ॥ जब ज्ञानज्योति यात्रा का क्रम उत्तर प्रदेश में आया था। सबने मिलकर माँ ज्ञानमती का जन्मस्थान बताया था। उद्घाटन ज्योति प्रवर्तन का इस जन्मभूमि से होना है। लग गये सभी तैयारी में स्वागत अपूर्व ही होना है ॥ ६ ॥ चौबीस नवंबर चौरासी सन् मुकुट बांध कर नगर खड़ा। अपनी कन्या की ज्योति देखने सजधज कर वह निकल पड़ा। हर्षाश्रू बरसाती नगरी मानो शब्दों में बोल रही। बेटी तू ना आई पर तेरी ज्योती ही अनमोल सही ॥ ७ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ कब से मैं तुझे देखने को तरसी थी पर तू ना आई। क्या अपनी मातृभूमि के प्रति सब ममता तूने बिसराई ॥ सुन रक्खा है बेटी मैंने तू तो अब जग की माता है। तेरा अपनी इस मातृभूमि से रहा न कोई नाता है॥ ८ ॥ क्या करूँ किन्तु यह मोह मेरा जब कभी उमड़ ही पड़ता है। अपनी पुत्री जगमाता के दर्शन का भाव उमड़ता है। जननी और जन्मभूमि अपनी बेटी तुम कभी न बिसराना। कर्तव्य भूल यदि जाऊँ मैं तो याद दिलाने आ जाना ॥ ९ ॥ नगरी की मौन किन्तु मुखरित वाणी ही मानो कहती थी। तुमने तो मेरा नाम अमर कर दिया ज्ञानमती माताजी ॥ अब मैं गौरव से कह सकती मैंने भी दी इक माता हैं। जिसने कलियुग को दिखा दिया सतयुग सी ब्राह्मी माता है ॥ १० ॥ मैं पहले तेरी माता थी पर तू अब मेरी माता है। मोहिनि माता ने भी जब तुझको स्वयं नमाया माथा है। उनको भि बनाकर रत्नमती आर्यिका नाम साकार किया। माता पुत्री की जगह शिष्य गुरु का नाता स्वीकार किया ॥ ११ ॥ माँ रत्नमती की कर्मभूमि का भाग्योदय हो आया था। श्री ज्ञानमती की जन्मभूमि में ज्ञानज्योति रथ आया था। आर्यिका अभयमतिजी की कुछ स्मतियाँ ताजी हो आईं। सबकी जय जय के साथ यहाँ मानो अगणित खुशियाँ छाई ॥ १२ ॥ आबाल वृद्ध सब भक्ति पुष्प ले स्वागत करने उमड़ पड़े। माँ ज्ञानमती की ज्ञानज्योति के दर्शन करने निकल पड़े। यहाँ पर भी एक बार हम सबके संगम का अवसर आया। हस्तिनापुरी से ज्ञानमती माता ने सबको भिजवाया ॥ १३ ॥ इक आवश्यक संस्मरण यहाँ बतलाना भी आवश्यक है। गुरुमुख से मुझको ज्ञात हुआ सुनने में भी रोमांचक है। जिस समय टिकैतनगर में ज्योती का हो रहा प्रवर्तन था। हस्तिनापुरी में नियमसार टीका का हुआ समापन था ॥ १४ ॥ यह घटना कुछ इस तरह सुनो माँ ज्ञानमती की साहित्यिक । श्री कुन्दकुन्द के नियमसार की संस्कृत टीका लेखन की। स्याद्वादचन्द्रिका टीका की अन्तिम प्रशस्ति लेखन क्रम था। माँ रत्नमती के साथ हस्तिनापुर में ज्ञानमती संघ था॥ १५ ॥ उस ग्रंथ प्रशस्ती में माताजी संस्कृत में यह लिखती हैं। मैं हूँ प्रसन्न जब मेरी जन्मभूमि पर ज्योती जलती है। इस सुखद सुहानी बेला में मैंने यह ग्रंथ प्रशस्ति लिखी। श्री रत्नमती माताजी के मुख पर प्रसन्नता लहर दिखी॥ १६ ॥ संयोग सुखद कैसा बैठा लेखन औ ज्योति प्रवर्तन का। जब जन्मभूमि पर ज्योति जली तब कर्मभूमि पर लेखन था। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६३७ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रि नारायणदत्त तिवारीजी। हेलीकॉप्टर से आकर उद्घाटन की ज्योति जलाई थी॥ १७ ॥ मंत्री श्री वासुदेव सिंहजी अध्यक्ष आज के नायक थे। ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र भाई कार्यक्रम के संचालक थे॥ केन्द्रीय समिति के कई कार्यकर्ताओं का आगमन हुआ। खुश होकर नगर वासियों ने इस उत्सव को सम्पन्न किया ॥ १८ ॥ मंत्रीजी की अभिलाषा थी उस जन्मभूमि के दर्श करूँ। जिस जगह मात ने जन्म लिया उस माटी का संस्पर्श करूँ॥ कैलाश, प्रकाश, सुभाष सभी मंत्रीजी को घर लाए थे। दर्शन कर जन्मभूमि के आज तिवारीजी हर्षाए थे॥ १९ ॥ कुछ आँखों देखा हाल यहाँ इस कार्यक्रम का प्रस्तुत है। मंत्रीजी एवं कुछ अन्यों के भाषण अंश उपस्थित हैं। स्वागत अभिनन्दन पत्र आदि का किञ्चित् परिचय देती हूँ। निज मातृभूमि को वंदन कर आशीष मात का लेती हूँ॥ २० ॥ चमत्कार ही कहना होगाटिकैतनगर से ज्ञानज्योति का उद्घाटन करने हेतु उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी की स्वीकृति पहले से प्राप्त हो ही चुकी थी, अतः गांव की जनता में अपूर्व आह्लाद था। इस गाँव के इतिहास में प्रथम बार किसी मुख्यमंत्री के आने की स्वीकृति तो यूँ भी सबके लिए ही आनन्ददायक थी। २४ नवंबर, १९८४ को ज्ञानज्योति के विस्तृत स्वागत की तैयारियाँ टिकैतनगर में चल रही थीं कि बीच में एक विघ्र आकर खड़ा हो गया। हुआ यह कि २२ नवंबर की रात्रि में १२ बजे मुख्यमंत्री कार्यालय से समाचार आ गया-"आवश्यक मीटिंग के कारण तिवारीजी को दिल्ली में प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने बुला लिया है, अतः टिकैतनगर के कार्यक्रम में मंत्रीजी नहीं आ सकेंगे। इस स्थगन समाचार को सुनते ही एक बार तो सबके हाथ-पैर ढीले पड़ गए, क्योंकि अब मात्र २३ नवंबर (१ दिन) का समय शेष था, उसमें किसी अन्य राजनेता की स्वीकृति लेना भी संभव नहीं था। रात्रि में यह समाचार पाते ही रात्रि १२.३० बजे ही ब्र. श्री रवीन्द्र कुमारजी अपने बड़े भाई कैलाशचंदजी के साथ तुरन्त लखनऊ चल दिए और सीधे लखनऊ के एनेक्सी भवन पहुंचे। वहाँ से दिल्ली टेलीफोन करके मुख्यमंत्रीजी के निजी सचिव से सारी स्थिति बताई कि मंत्रीजी की यह अस्वीकृति ग्रामवासियों के लिए अत्यन्त दुःखद वार्ता है . . . . आदि । वैसे अब स्वीकृति की कोई स्थिति नजर नहीं आ रही थी, किन्तु रवीन्द्रजी हिम्मत नहीं हारे और बराबर प्रयास करते रहे। ___इधर हस्तिनापुर से हम और ब्र, मोतीचंदजी दिल्ली के कुछ महानुभावों के संग २३ नवंबर को लखनऊ पहुँचे तो वहाँ ज्ञात हुआ कि "कल टिकैतनगर में प्रोग्राम है और रवीन्द्रजी अभी लखनऊ के एनेक्सी भवन में ही बैठे हैं।" हम लोग भी लखनऊ में ही रुक गए, सब तरफ से टेलीफोन की घंटिया बज रही थीं-कोई कहता कि प्रोग्राम कुछ दिन बढ़ा देना चाहिए, किसी का सुझाव मिला कि मंत्रीजी के बिना ही कार्यक्रम सम्पन्न कर लेना चाहिए . . . . इत्यादि । तभी शाम को लगभग ५ बजे होंगे कि रवीन्द्रजी का टेलीफोन श्री सुमेरचन्द पाटनी के यहाँ आया कि मुख्यमंत्रीजी की स्वीकृति मिल चुकी है। वे कल दिल्ली से सीधे हेलीकॉप्टर द्वारा टिकैतनगर पहुंचेंगे। सुनकर एक बार तो किसी को विश्वास नहीं हुआ, किन्तु आधा घंटे के अन्दर ही ब्रह्मचारी रवीन्द्रजी एनेक्सी भवन से लिखित स्वीकृति पत्र लेकर हम लोगों के पास आ गए। सबके बुझे चेहरों पर अब दुगुनी प्रसन्नता झलकने लगी। हम सभी लोग भाईजी के साथ ही रात्रि में टिकैतनगर पहुंच गए। वहाँ रातोंरात पूरा नगर सजाया गया, क्योंकि इस नगर में प्रथम बार प्रदेश के मुख्यमंत्री का पदार्पण होने वाला था। उनकी इस पुनः स्वीकृति को नगरवासियों ने ज्ञानज्योति का चमत्कार ही माना। सड़क का भी उद्धार हुआटिकैतनगर में मंत्रीजी के पदार्पण हेतु वहाँ की पचीसों वर्ष पुरानी ऊँचे-नीचे गड्ढों वाली कच्ची सड़क का उद्धार हो गया। उस एक किलोमीटर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ SENTARNAFR विशनपENNETSAगतसमारोह सड़क को पी.डब्ल्यू.डी. वालों ने मात्र दो दिन में पक्का डामर रोड बना दिया, जिससे ग्रामवासियों ने भी राहत की साँस ला। टिकैतनगर के विशाल एवं भव्य सभा मंडप में सुसज्जित मंच पर २४ नवंबर, सन् १९८४ को ठीक ११ बजे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी अपने वरिष्ठतम सहयोगी प्रो. वासुदेव सिंह (आबकारी मंत्री) के साथ पधारे। "धरती का तुम्हें नमन है, अंबर का तुम्हें नमन है। चंदा सूरज करें आरती, छुटते जनम मरण हैं। सौ-सौ बार नमन है, ज्ञानमती माता को युग का सौ-सौ बार नमन है।" इत्यादि सुभाष जैन के विनयांजलि गीत के साथ कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। दोनों अतिथियों का विभिन्न संस्थाओं की ओर से माल्यार्पण द्वारा स्वागत हुआ। आज के समारोह में भाग लेने हेतु संसद सदस्य श्री राणावीर सिंहजी, क्षेत्रीय विधायक श्री मदनमोहन सिंहजी एवं विधायक श्री गजेन्द्र सिंहजी भी पधारे थे। __ हस्तिनापुर से पधारे ज्ञानज्योति प्रवर्तन के महामंत्री श्री मोतीचंदजी ने जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के भारत भर में ढाई साल के भ्रमण की जानकारी दी और कहा कि इस ज्योति ने सारे देश में विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, भाषाओं की पजानव्यतिरRIEND विभिन्नता होते हुए भी खूब सम्मान प्राप्त किया है तथा इसके द्वारा सभी को शांति, अहिंसा एवं धर्म सहिष्णुता का संदेश प्राप्त हुआ है। ___ कु. मालती शास्त्री ने अवध की महिमा एवं आज के कार्यक्रम से संबंधित एक सुन्दर कविता प्रस्तुत की, तत्पश्चात् माननीय मुख्यमंत्रीजी ने ब्रह्मचारी श्री मोतीचंदजी एवं ब्र. श्री रवीन्द्रजी को प्रशस्ति पत्र भेंट कर तथा शाल उढ़ाकर अभिनंदन किया। कु. माधुरी शास्त्री ने परमपूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा प्रेषित आशीर्वाद मंत्रीजी के लिए पढ़कर सुनाया। इसके बाद श्री निर्मल पूज्य गणिना आयका श्रा ज्ञानमता माताजा का जन्मभाम टिकैतनगर में उत्तरप्रदेश कुमारजी सेठी का ओजस्वी भाषण हुआ। ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभारंभ।। संसद सदस्य एवं विधायकों के वक्तव्य अंशसंसद सदस्य श्री राणावीर सिंह ने कहा कि “इस ज्ञानज्योति में हमें दो ज्योतियों के दर्शन होते हैं- एक तो पूजनीया ज्ञानमती माताजी हैं ही, जिनकी प्रेरणा से इसका प्रवर्तन हुआ, दूसरी ज्योति इंदिरा गाँधी की भी इसमें दिखती है, जो देश के लिए अमर शहीद हो गई।" श्री कृष्णमोहन सिंहजी ने इस ज्योति प्रवर्तन को धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक बताया तथा श्री गजेन्द्र सिंह ने पूज्य ज्ञानमती माताजी के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा कि अवध की धरती ऐसी नारीरत्न को पाकर धन्य हो गई है, जिन्होंने सारे देश में अहिंसा एवं विश्वबंधुत्व का पाठ पढ़ाने हेतु इस रथ का प्रवर्तन कराया है . . . . इत्यादि। माननीय मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी का उद्बोधन भाषण “आज मुझ जैसे सेवक के लिए यह बड़े ही सौभाग्य का अवसर है कि जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के उत्तर प्रदेश में प्रवर्तन शुभारंभ में मुझे टिकैतनगर आकर ज्योति को प्रज्वलित कर देश के कोटि-कोटि लोगों तक ज्ञान का प्रकाश पहुँचाने का सौभाग्य मिल रहा है। मैं आप सभी का बहुत ही आभारी हूँ कि आपने मुझे यह अवसर प्रदान किया। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मेरे लिए आशीर्वाद भिजवाया, इसके लिए मैं उन्हें आभार व्यक्त करता हुआ परोक्ष में ही उनको नमन करता हूँ। आज पहली बार टिकैतनगर आकर मैं अपने को धन्य मानता हूँ। यहाँ के इतिहास के बारे में मुझे पहले से पता है और यह भी मालूम है कि अंग्रेजों के शासन काल में इन्कलाब एवं क्रांति में यहाँ के लोगों ने विशेष भाग लिया था . . . . . उत्तर प्रदेश शासन इस ज्योति के उत्तर प्रदेश भ्रमण में तथा अप्रैल-मई में हस्तिनापुर में होने वाले "जम्बूद्वीप प्रतिष्ठापना महोत्सव" में पूरा-पूरा सहयोग प्रदान करेगा। यह समारोह आपका ही नहीं, बल्कि हमारा भी होगा। आप हमें आज से ही बताएं कि हमें क्या-क्या करना है, ताकि देर न हो। मैं अपने वरिष्ठतम सहयोगी श्री वासुदेव सिंहजी को आज ही नामांकित करता हूँ और आग्रह करता हूँ कि उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पूरी देखभाल करने का कष्ट करें। मैं तो यही चाहूँगा कि कर्नाटक सरकार को श्रवणबेलगोला के मस्तकाभिषेक महोत्सव में यदि ९० नम्बर मिले हों तो हमें जम्बूद्वीप महोत्सव ज्येतिसमारोह Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला में ९१ नम्बर मिल जाएं। अतः यह कोशिश करूँगा कि कर्नाटक सरकार से उत्तर प्रदेश सरकार एक कदम आगे हो तो अच्छा है .... इत्यादि ।” उत्तर प्रदेश प्रवर्तन समिति के अध्यक्ष श्री सुमेरचंदजी पाटनी ने मंत्री महोदय के प्रति आभार प्रकट किया। आज के इस समारोह में बाहर से पधारने वाले विशिष्ट महानुभावों में श्री निर्मलजी सेठी, श्री त्रिलोकचंदजी कोठारीकोटा, श्री उम्मेदमल पांड्या दिल्ली, श्री सुमेरचंद पाटनी-लखनऊ, श्री कैलाशचंद जैन, खदर वाले सरधना, श्री अजित प्रसाद जैन- लखनऊ, श्री निर्वाणचंद जैन- लखनऊ, डॉ. कैलाशचंद जैन-दिल्ली, कैलाशचंद जैन करोलबाग, दिल्ली, श्री अनंतप्रकाशजी जैन-लखनऊ आदि थे। स्वागत सभा के पश्चात् मंत्री द्वय ने ज्ञानज्योति रथ पर स्वस्तिक बनाकर एवं श्रीफल चढ़ाकर उसका नगर भ्रमण के लिए उद्घाटन किया, उसके बाद उन्हें नगर के प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर का दर्शन कराया गया, पुनः सभी लोगों ने पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की जन्मस्थली के दर्शन कर उसी पुराने घर में जलपान ग्रहण किया । बाहर से पधारे सभी अतिथियों के लिए श्री छोटीशाह जैन सर्राफ एवं श्री कैलाशचंद जैन सर्राफ के यहाँ नाश्ते एवं भोजन की सुन्दर व्यवस्था थी । श्री प्रकाशचंद जैन ने मुख्यमंत्रीजी एवं आबकारी मंत्रीजी को आर्यिका श्री रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ की प्रतियां भेंट की, श्री प्रेमचंद जैन महमूदाबाद वालों ने स्वलिखित "अवध में ज्ञानज्योति” नामक पुस्तक मंत्रीजी को भेंट की । ज्ञानज्योति उद्घाटन के एक शिलालेख का अनावरण भी मंत्रीजी के कर कमलों से मंदिरजी के बाहर करवाया गया तथा जिस गली से होकर ज्ञानमती माताजी की जन्मभूमि तक पहुँचा जाता है, उस गली में "ज्ञानमती मार्ग" का पत्थर भी लगाया गया। [६३९ ANORAMA Jain Educationa International यांति मुख्यमंत्रीजी के कर-कमलों में उत्तरप्रदेशीय ज्ञानज्योति समिति की ओर से एक अभिनंदन पत्र भी भेंट किया गया, जिसमें निम्न शब्दों में मंगलभावना न शेोनिष्णा व्यक्त की गई टिकैतनगर में स्वागत सभा के मध्य "अवध में ज्ञानज्योति" नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए प्रो. वासुदेव सिंह जी, पुस्तक भेंटकर्ता श्री प्रकाशचंद जैन। मंगल कामना महानुभाव! आज आपके कर कमलों से उद्घाटित होकर यह जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति उत्तर प्रदेश के लगभग ४०० नगरों में भ्रमण करेगी तथा इसी प्रदेश की ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर जहाँ पर इस जम्बूद्वीप का विशाल निर्माण हो रहा है, उस निर्माण की सम्पूर्ति पर अप्रैल, १९८५ में इस ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना आपके संरक्षण में ही हो, इसी भावना एवं आशा के साथ हम सब नागरिक आपके स्वस्थ एवं दीर्घायु की कामना करते हुए आपका हार्दिक अभिनंदन करते हैं। For Personal and Private Use Only मध्याह में ज्ञानज्योति की विशाल शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें हाथी, घोड़े, इन्द्राणियों, झण्डे बैनर एवं हजारों की संख्या में नर-नारियों ने भाग लिया। रात्रि में उसी पण्डाल में पुनः सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ ही ज्योति रथ के संचालक पं. श्री सुधर्मचंद शास्त्री, प्रचारमंत्री श्री त्रिलोक वंद जैन, सनावद आदि का प्रशस्ति पत्र भेंट करके टिकैतनगर जैन समाज की ओर से स्वागत किया गया तथा ज्योतिरथ के अन्य व्यवस्थापकों का भी वस्त्रादि भेंट करके सम्मान किया गया । टिकैतनगर जैन समाज के वयोवृद्ध लाला श्री पन्नालालजी जैन, साहबलालजी जैन, शांतिप्रसादजी जैन, छोटीशाहजी, मुत्रालालजी, बच्चूलालजी एवं देवेन्द्र कुमार आदि ने ज्ञानज्योति का स्वागत किया। आज के इस समारोह में लगभग बीस हजार जनसमुदाय एकत्रित हुआ, जिसमें २०० गाँवों से स्त्री-पुरुषों ने पधार कर आयोजन की शोभा बढ़ाई। टिकैतनगर की रानी साहिबा श्रीमती मुत्री देवी ने समारोह का पण्डाल बनाने हेतु भूमि प्रदान कर पुण्यार्जन किया तथा यहाँ की समस्त लघु-वृहद् संस्थाओं ने अपना सहयोग प्रदान करके ज्ञान लाभ प्राप्त किया। Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ FIRRORMER जाबादपज मुख्यमंत्री जी को अपनी भजन कैसेट भेंट करते हुए श्री सुभाषचंद जैन, टिकैतनगर । मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी टिकैतनगर में ज्ञानज्यात का विशाल स्वागत सभा का संबोधित करते हुए। मानाAkannoled ONLINE गया मज्ञानज्योतिसा टिकैतनगर सभा मंच पर आसीन श्री अनंतप्रकाश जैन लखनऊ, छोटीशाह जैन टिकैतनगर, क्षेत्रीय सांसद राणा जी, निर्मल कुमार सेठी. मुख्यमंत्री जी, प्रो. वासुदेव सिंह एवं अन्य मुख्यमंत्री जी को प्रदान किया जाने वाला अभिनंदन पत्र पढ़ते हुए श्री कैलाश चंद जैन । ज्योति मंच पर एवं बैठे हुए क. मंज. माधुरी, मालती, टिकैतनगर की चेयरमैन रानी। साहिबा मुन्नी देवी आदि। तमपलबELES RAMAN टिकैतनगर में श्री छोटीशाह जी मुख्यमंत्री जी का स्वागत करते हुए। मुख्यमंत्री जी आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ भेंट करते हुए श्री त्रिलोकचंद कोठारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला टिकैतनगर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति उद्घाटन के शुभ अवसर पर पठित धन्यधरा यह अवध प्रान्त की आदिप्रभू ने जन्म लिया था । उनकी पुण्य अयोध्या में ही रामचन्द्र अवतार हुआ था ॥ आदि विधाता आदिनाथ ने इस जग को जीना सिखलाया। भगवन रामचन्द्र ने दुष्टों का निग्रह करके दिखलाया ॥ १ ॥ | पूज्या माता ज्ञानमती ने इस नगरी में जन्म लिया है। "मैना " कहकर आप सभी ने कितना उनको प्यार दिया है । हंसने की जब उम्र हुई तो तज वैभव हम सबको छोड़ा। ऐसी ज्ञान पुजारन बन गई नेहा धर्म गुरु से जोड़ा ॥ २ ॥ विश्व झुकाता उनको माथा एक नया इतिहास मिल गया। ज्ञानमती की प्रतिभा लखकर सरस्वती का रूप खिल गया ॥ जग की बनी विभूति ऐसी सौ से अधिक ग्रंथ को लिखकर । सृष्टी का सौंदर्य बताया जम्बूद्वीप सृजन करवाकर ॥ ३ सबको इसका ज्ञान कराने 'जम्बूद्वीप' कहाँ धरती पर इंदिराजी ने इसे चलाया 'ज्ञानज्योति' का रूपक देकर ॥ शान्ति एकता और अहिंसा की यह ज्योति जला गई वो । स्वयं हुईं बलिदान किन्तु इस भारत को पथ सिखा गईं वो ॥ ४ ॥ राजनीति हो न्यायनीति हो विजय तभी उसको मिलती है। सभी नीतियों में पहले जब धर्मनीति आगे रहती है । आदिनाथ भगवान राम माँ ज्ञानमती आदर्श इसी के । इंदिरा गाँधी जैसी नेता गौरव है उत्तर भारत के ॥ ५ ॥ १. ब्रहमचारिणी माधुरी की अवस्था में आज हमारे आदर्शों में 'नारायण' खुद को तिवारी। भारत गौरव बढ़ता जाए इसकी ले लो जिम्मेवारी ॥ मुख्यमंत्री हैं इस उत्तर के उन्हें 'मालती' का अभिनन्दन। उनके सपनों के भारत में जैन जगत का है सब अर्पण ॥ ६ ॥ उद्घाटन के इस मांगलिक कार्यक्रम के पश्चात् ज्योतिरथ अपने गंतव्य की ओर बढ़ता अन्तिम प्रणाम कर जन्मभूमि को ज्योतीरथ प्रस्थान हुआ। फिर दरियाबाद के प्रांगण में रथ का स्वागत सम्मान हुआ । निकटस्थ सुमेरगंज कस्बे में भी कार्यक्रम सफल हुआ। छब्बीस नवंबर की प्रातः बाराबंकी आगमन हुआ ॥ १ ॥ उत्तर प्रदेश के प्रथम चरण में मैं भी कुछ दिन साथ रही। बाराबंकी तो माताजी की कर्मभूमि भी खास रही। श्री जिलाधीशजी के सम्मुख भाषण में सबने बतलाया। इस भूमी पर ही मैना ने आजीवन ब्रह्मचर्य पाया ॥ २ ॥ For Personal and Private Use Only है— [६४१ - कु. मालती शास्त्री Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ श्री ज्ञानमतीजी की गाथा प्रारंभ यहीं से होती है। यह नगरी मानो आज तलक उनके वियोग में रोती है। पर हंसना रोना तो जग में संयोग वियोगों के क्षण हैं। माँ ज्ञानमती की गौरव गाथा से पावन हर रजकण है ॥ ३ ॥ थी जगह वहीं जहाँ सन् बावन में मुनिवर का चौमास हुआ। उन केशलोंच लख मैना ने निज केशलोंच प्रारंभ किया | कुछ पूर्व जन्म संस्कारों वश ही साहस ऐसा आया था। संघर्षों के पश्चात् उन्होंने जीवन सफल बनाया था ॥ ४ ॥ माँ बेटी का इक रात्रि वहाँ वैराग राग संग्राम हुआ। अपने वैरागी प्रवचन से मैना ने माँ को शान्त किया। मोहिनी बनी कुछ निमोंही तब बेटी ने निज कार्य किया। कागज पेन देकर भोली माँ से स्वीकृति पत्रक लिखा लिया ॥ ५ ॥ नेत्रों से आंसू टपक रहे सारा शरीर भी काँप रहा। कागज पर कलम न चलती थी फिर भी लिखना आवश्यक था। माता का स्वीकृति पत्रक ले बेटी गुरुवर के पास गई। आश्विन शुक्ला पूर्णिमा जन्म तिथि को सप्तम प्रतिमा ले ली ॥ ६ ॥ इस त्याग दिवस के कारण जन्म दिवस की सार्थक तिथी हुई। बन श्वेत वस्त्र धारिणी आर्यिकामाता सम ही व्रती हुई। यदि बस चलता तो उसी समय ये दीक्षा धारण कर लेतीं। पर संघर्षों में इससे आगे और भला क्या कर लेतीं ॥ ७ ॥ इन इतिहासों से जिलाधीशजी भी अत्यन्त प्रभावित थे। इक नारी की इतिहास भूमि पर आकर स्वयं सुवासित थे। घटनाओं के इस प्रांगण में ही आज ज्ञान ज्योती आई। इसलिए पूर्व के कथा भाग पर मेरी दृष्टि उभर आई॥ ८ ॥ अपनी ज्योती में जनता ने माँ ज्ञानमतीजी को पाया। शोभायात्रा के बाद ज्योतिरथ ने आगे पथ अपनाया ।। पैतेपुर और बेलहरा से तहसील फतेहपुर क्रम आया। परगनाधिकारी रघुवंशी सत्येन्द्र से स्वस्तिक बनवाया ॥ ९ ॥ राजेन्द्र सिंह विधायकजी नगरी त्रिलोकपुर में आए। श्री मानवेन्द्रपतिजी गनेशपुर में ज्योतीरथ में आए ॥ एस.डी.एम. जी ने जरवल रोड का कार्यक्रम सम्पन्न किया। जिलाधीश महोदय ने बहराइच में स्वागत सम्पन्न किया ॥ १० ॥ श्रावस्ती तीर्थ पहुँच कर हम सबने पूजा अर्चना किया। श्री संभवनाथ की जन्मभूमि पर ज्योती ने वंदना किया ॥ आगे के इटियाथोक नगर में जिलाधिकारी ने अपना । कर्तव्य निभाया तथा तिवारी का साकार हुआ सपना ॥ ११ ॥ तीरथ की पूज्य श्रेखला में साकेतपुरी का क्रम आया। उत्सव कर फैजाबाद शहर वृषभेश चरण सम्मुख आया ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६४३ षट्खंड का एक छत्र शासन भरतेश यहीं से करते थे। फिर दीक्षा ले वे महापुरुष केवलज्ञानी भी बनते थे॥ १२ ॥ वृषभेश्वर की उत्तुंग मूर्ति तीरथ की कीर्ति बढ़ाती है। भरतेश बाहुबलि प्रतिमाएं वैराग्य हृदय में लाती है। बीसों टोकों के दर्शन कर मन में प्रसन्नता आती है। सरयू के तट पर बैठ हृदय की सुप्त कली खिल जाती है॥ १३ ॥ इस तीर्थ अनादी पर आकर ज्योतीरथ मानो धन्य हुआ। अपनी ज्योती को और बढ़ाने हेतु यहाँ कटिबद्ध हुआ। अब चार दिसम्बर चौरासी को गोरखपुर जगमगा उठा। संसद सदस्य हरकेष बहादुर ने आकर उत्सव देखा ॥ १४ ॥ गाजीपुर, शहर बनारस में प्रभु पार्श्वनाथ का दर्श किया। श्री चन्द्रपुरी औ सिंहपुरी ने तीर्थङ्कर आदर्श दिया । मैंने इस नगर बनारस से हस्तिनापुरी प्रस्थान किया। आगे संचालकजी के निर्देशन में रथ प्रस्थान हुआ॥ १५ ॥ आगे के इलाहाबाद, पपौसा, कौशाम्बी का भाग्य जगा। जायस, बछरावा, रायबरेली, घाटमपुर में रथ पहुँचा ॥ जसवन्तनगर, सिरसागंज, शौरीपुर का स्वागत स्वीकारा । टूंडला, फिरोजाबाद, आगरा बहुत हुई जयजयकारा ॥ १६ ॥ मथुरा व हाथरस के नन्तर जनवरी पचासी सन् आया। उत्तर प्रदेश के शहर अलीगढ़ में नववर्षोत्सव पाया ॥ एटा, कुरावली, मैनपुरी, कन्नौज, कानपुर का स्वागत। चल रही ज्योति निर्विघ्न रूप से आया मानो मंगल रथ ॥ १७ ॥ बारह जनवरी राजधानी लखनऊ का कण-कण जाग उठा। पुनरपि उत्तर प्रदेश शासन का एक बार सौभाग्य जगा ॥ नारायणदत्त तिवारी एवं वासुदेव सिंह ने आकर। उत्साह बहुत दिखलाया जम्बूद्वीप ज्योति का स्वागत कर ॥ १८ ॥ ब्रह्मचारीणी मालती शास्त्री भी लखनऊ महोत्सव में पहुँची। श्री मुख्यमंत्रि का केन्द्र समिति की ओर से शुभ स्वागत करती ॥ इक रजत प्रशस्ती पत्र दिया मंत्रीजी के करकमलों में। सारी जनता आकर्षित थी ज्योती के शुभ उद्देश्यों से ॥ १९ ॥ हस्तिनापुरी की सड़कों का शासन ने फिर उद्धार किया। श्री जम्बूद्वीप प्रतिष्ठा हेतू प्रारंभिक अब कार्य हुआ। इस मध्य तिवारीजी आए हस्तिनापुरी में मीटिंग की। उत्सव में चार चाँद हेतू खुद पर भी जिम्मेदारी ली ॥ २० ॥ इस समारोह में एक शिष्टमंडल ने नई अपील किया। तीर्थों के अन्य विकास हेतु शासन ने उसमें भाग लिया । मंत्रीजी ने पच्चीस लाख रुपये घोषित अनुदान किया। ज्योती उत्सव कार्यक्रम में सचमुच यह कार्य महान हुआ॥ २१ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ लखनऊ शहर के बाद ज्योतिरथ अपने पथ की ओर चला। • माँ रत्नमती की जन्मभूमि महमूदाबाद प्रवास मिला। हस्तिनापुरी से कोई भी नहिं पहुँच सका उस नगरी में। क्योंकी माँ रत्नमतीजी की चल रही समाधी उस क्षण में ॥ २२ ॥ पंद्रह जनवरी को जब ज्योती का सीतापुर में स्वागत था। हस्तिनापुरी में रत्नमती माताजी का अंतिम क्षण था। प्रातः से ज्ञानमती माता संबोधन में थीं लगी हुई। निज माता एवं शिष्या की अंतिम परिचर्या स्वयं करी ॥ २३ ॥ छवि शांत सौम्य मुद्रा माँ की अब तक स्मृति में आती है। ऐसी सुन्दर समाधि बिरले मानव को ही मिल पाती है। माता पुत्री के संगम का वह भी इक रोमांचक क्षण था। जिसने भी देखा उस क्षण को सचमुच उसका मन पावन था ॥ २४ ॥ जनता की आँखों में आँसू पर ज्ञानमती माता दृढ़ थीं। अपना कर्तव्य पूर्ण कर के उनके मन में संतुष्टी थी॥ जग की नश्वरता का चिन्तन प्रवचन भी उनका मिलता था। असली तो इस क्षण में ही उनका धैर्य अपरिमित दिखता था ॥ २५ ॥ श्री रत्नमती माताजी ने तेरह रत्नों को जन्म दिया। तेरह विध चारित पालन कर तेरह वर्षों को धन्य किया। उनकी यह वैरागी गाथा नारी आदर्श बताती है। गार्हस्थिक जीवन में भी संयम का संदेश सुनाती है ॥ २६ ॥ यह कार्य इधर सम्पन्न हुआ ज्योतीरथ उधर प्रगति पर है। इस समाचार के मिलते ही रुक गया वहीं ज्योतीरथ है। सोचा सबने यह जम्बूद्वीप महोत्सव अब टल जाएगा। पर ज्ञानमती माताजी बोली ऐसा नहिं बन पाएगा ॥ २७ ॥ माँ रत्नमती जम्बूद्वीप को हमसे पहले देखेंगी। मेरे संबोधन को वे मन में याद अवश्य ही रक्खेंगी। वे नेत्र खोलकर खुश होकर मेरा संबोधन सुनती थीं। जीवन भर की निर्दोष तपश्चर्या को मानो गुनती थीं ॥ २८ ॥ यह धर्मकार्य तो अपनी गति अनुसार किया ही जाएगा। ज्योतीरथ निज यात्रा पूरी कर हस्तिनापुर आएगा ॥ हाँ इतना कुछ मन में आया यदि शीघ्र महोत्सव हो जाता। तो रत्नमती माताजी का सानिध्य प्राप्त भी हो जाता ॥ २९ ॥ पर कर्मों की गति है विचित्र अनहोनी भी किसने जानी। माँ रत्नमती की शीघ्र समाधी की स्थिति नहिं पहचानी ।। वे तो अब असली जम्बूद्वीप का दर्शन कर संतृप्त हुई। उनके अतिशय से गजपुर की धरती भी मानो तृप्त हुई ॥ ३० ॥ कुछ दिनों बाद ही यहाँ महोत्सव तैय्यारी प्रारम्भ हुई। रथ ज्ञानज्योति से यू.पी. में भी परमशांति आरंभ हुई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संभल, बिलासपुर, हल्द्वानी, काशीपुर आदि नगर आए। निज शक्ती के अनुसार सभी ज्योती स्वागत कर हर्षाए ॥ ३१ ॥ खुर्जा, शिकारपुर, बड़ा गांव, गाजियाबाद, हापुड़ आया। कांधला, शामली और बाबली में उत्सव का क्षण आया ॥ हरियाणा में पानीपत सोनीपत गन्नौर ज्योति पहुँची । रोहतक स्वागत में जनता के आमंत्रण पर मैं भी पहुंची ॥ ३२ ॥ हांसी-हिसार, कुरुक्षेत्र और करनाल प्रवर्तन क्रम आया। अम्बाला शहर छावनी से उत्तर प्रदेश में फिर आया ॥ नौ मार्च पचासी हरिद्वार में मैं ज्योती के संग पहुँची। इक घटनाक्रम बतलाती हूँ जो वहाँ पे मेरे संग घटी ॥ ३३ ॥ हरिद्वार में ऋषीकेश के कुछ सज्जन रात्री में आए थे। प्रोग्राम स्थगित करने को कुछ प्लान बनाकर लाए थे ॥ बोले कि बहन जी कारणवश ऋषिकेश भ्रमण नहिं हो सकता। इसलिए निवेदन करने हम आए हैं क्या रथ रुक सकता ? ॥ ३४ ॥ मैं बोली यह कार्यक्रम सब केन्द्रीय समिति बनवाती है। इसलिए ज्ञानज्योती अपनी सब जगह प्रभा फैलाती है ॥ तुम स्वागत चाहे मत करना ऋषिकेश ज्योति रथ जाएगा। महावीर प्रभू का सर्वोदय उपदेश वहाँ बतलाएगा ॥ ३५ ॥ वे चले गए फिर कुछ ही क्षण में फिर विचार करके आए। अपनी मजबूरी के अनेक कारण भी उनने बतलाए || बोले यदि स्वागत नहीं हुआ अपमान हमें सहना होगा। हम सबके वहाँ न रहने से सम्मान भला कैसे होगा ? ॥ ३६ ॥ इससे तो श्रेष्ठ यही कि आप ज्योतीरथ वहाँ न ले जाएं। मैं बोली चिन्ता छोड़ आप अपने-अपने घर को जाएं। "यह नहीं प्रवर्तन रुका कभी नहि आगे भी रुक सकता है। इन कतिपय विघ्नों के समक्ष नहिं धर्म कभी झुक सकता है ॥ ३७ ॥ कुछ व्यंग्य हंसी में हँसे और गंभीरमना कुछ चले गए। लगता था कुछ एकान्त पक्ष के बहकाने से आए थे | हमने संचालकजी से फिर गंभीर विचार विमर्श किया। माँ ज्ञानमती की जय बोली प्रातः ज्योतीरथ चला दिया ॥ ३८ ॥ आश्चर्य किन्तु हो रहा सभी को तीन किलोमीटर पहले। केशरिया झण्डे ले लेकर ऋषिकेश के नर-नारी पहुँचे। इतना विशाल समुदाय देख हम स्वयं न स्थिति समझ सके । रात्री के वे सब सज्जन भी हँस हँस कर ज्योति समक्ष झुके ॥ ३९ ॥ नगरी के भीतर जाते ही कितना सुन्दर माहौल दिखा। सरकारी पार्टी के अनेक नेताओं का यहाँ जोर दिखा ॥ सबने आ-आकर ज्ञानज्योति का स्वागत करके नमन किया। इन्द्राजी द्वारा जली ज्योति दर्शन कर जीवन सफल किया ॥ ४० ॥ For Personal and Private Use Only [६४५ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६] Jain Educationa International गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ हरिद्वार से भी आकर्षक कार्यक्रम की यहाँ व्यवस्था थी। पुष्पाञ्जलि के संग अर्थाञ्जलि दे रही यहाँ की जनता थी ॥ आखिर मैंने इक सज्जन से कल का वह कारण पूछ लिया । उनने हँसकर इस ज्ञानज्योति का स्वागत परिचय खूब दिया ॥ ४१ ॥ बोले कि बहनजी मात्र आपकी एक परीक्षा लेनी थी। कुछ क्रोध आपमें दिखे अगर तो वैसी शिक्षा देनी थी॥ लेकिन हम सभी प्रभावित होकर हरिद्वार से लौटे थे। हम सब तो कब से किये प्रतीक्षा ज्ञानज्योति की बैठे थे ॥ ४२ ॥ अब तक भी समझ न पाई मैं उनकी इस सरल परीक्षा को । अपने ही बंधुओं की मुझको लगती थी सहज समीक्षा वो ॥ कुछ भी हो खैर वहाँ का कार्यक्रम अच्छा सम्पन्न हुआ। मैंने तो केवल कौतुकवश उस घटनाक्रम का कथन किया ॥ ४३ ॥ फिर देहरादून प्रवर्तन के पश्चात् मसूरी रथ पहुँचा । प्राकृतिक छटाओं वाले इस पर्वतीय क्षेत्र पर शोर मचा ॥ हिम से आच्छादित पर्वतराज हिमालय यहाँ से दिखता था। इसलिए वहाँ जाने हेतु हम सबका हृदय ललचता था ॥ ४४ ॥ इक शहर विकास नगर से होकर प्रान्त हिमाचल पहुँच गए। नाहन में पी. सी. डोवरा श्री जिलाधीश महोदय पहुँच गए ॥ प्रोफेसर श्री कैलाशचन्दजी भारद्वाज पधारे थे। सुन्दर सुनियोजित स्वागत में नरनारी सभी पधारे थे॥ ४५ ॥ धार्मिक आयोजन से प्रदेश यह सूना अधिक रहा करता । इस ज्ञानज्योति के स्वागत में सबने सम्मान किया अच्छा ॥ श्री जिलाधीशजी बोले यह रथ हमें जगाने आया है। इसके पवित्र दर्शन का मैंने भी शुभ अवसर पाया है ॥ ४६ ॥ संचालक तथा माधुरीजी के प्रवचन वहाँ सुने सबने । मानवतावादी संदेशों को धारा जीवन में अपने ॥ जब सदाचार नैतिकता से उद्धार देश का बतलाया । पिछड़े वर्गों ने इक स्वर से तब धर्म अहिंसा अपनाया ॥ ४७ ॥ अम्बाला जिले के साढौरा में भी अच्छा सम्मान हुआ । फिर जगाधरी का क्रम आया जहाँ उत्सव खूब महान हुआ | एस.डी.एम. साहब ने आकर आभार सभी का माना था। क्योंकी इस सफल प्रवर्तन के उद्देश्य उन्होंने जाना था ॥ ४८ ॥ धार्मिक भावना से ओतप्रोत था यमुनानगर प्रतीक्षा में । स्वागत के क्रम में अपना भी नामांकन हो इस इच्छा से || सम्मान किया स्वीकार वहाँ का पुनः चल दिया रथ आगे । पश्चिम यू.पी. के जिला सहारनपुर के नर नारी जागे ॥ ४९ ॥ बेहट, चिलकाना, नकुड़ और सरसावा में नव ज्योति जली । जिनधर्म के पावन सिद्धान्तों का शोर मचाती गली गली ॥ For Personal and Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आगे फिर अम्बेहटा, रामपुर मनिहारन में जज आए । दिल्ली न्यायालय से रमेशचंद जैन ज्योति लख हर्षाए ॥ ५० ॥ रुड़की, झबरेड़ा और ननौता, पुरकाजी का क्रम आया। फिर शहर मुजफरनगर में मैंने ज्ञानज्योति रथ को पाया ॥ श्री जे.वी. श्रीवास्तव जिलाधिकारी ने स्वस्तिक बना दिया। स्वागत मण्डप में हम सबने उद्देश्य ज्योति के बता दिया ॥ ५१ ॥ श्रेष्ठी श्री गुलशनराय ने ज्योतीरथ को साधुवाद दिया । श्री जिलाधिकारीजी ने निज सहयोग हेतु आश्वस्त किया || माँ ज्ञानमती की अमरकृती को सभी देखने निकल पड़े। हस्तिनापुरी की रचना हेतू अर्थाञ्जलि ले स्वयं बढ़े ॥ ५२ ॥ पुरवालियान मंसूरपुर से दादरी सकौती में स्वागत । प्लानिंग आफीसर के.सी. जैन ने किया सलावा में स्वागत | रारधना से इकतिस मार्च पचासी को ज्योती सरधना गई। वहाँ विस्तृत जनसमुदाय बीच में अच्छी स्वागत सभा हुई ॥ ५३ ॥ संसद सदस्य श्री जे. के. जैन आये विशिष्ट अतिथी बनकर । लम्बे अरसे के बाद प्रसन्न हुए अपनी ज्योती लख कर ॥ उद्योगमंत्र आरिफ मोहम्मद खान भी स्वागत को आए । श्री जे.के. जैन ने उन्हें प्रवर्तन के रहस्य थे बतलाए ॥ ५४ ॥ सांस्कृतिक अनेकों कार्यक्रम के संग शोभायात्रा निकली। जानसठ में श्री कोतवाल साहब वर्मा ने भी आरति कर ली ॥ मीरापुर, ककरौली, कबाल अप्रैल तीन बिजनौर शहर । आया था ज्ञानज्योति का रथ महावीर जयन्ती अवसर पर ॥ ५५ ॥ डॉक्टर रमेशचंद जैन दर्शनाचार्य यहाँ पर रहते हैं। इस महामहोत्सव में आकर सबको संबोधित करते हैं। वे बोले माता ज्ञानमती की प्रतिभाशक्ती पहचानो । उनकी वाणी से वीरप्रभू के संदेशों को भी जानो ॥ ५६ ॥ यहाँ जैन जिलाजज श्री सुरेन्द्रजी मुख्य अतिथि बनकर आए। श्री बालकृष्ण खन्ना एडवोकेट सभाध्यक्ष पद को पाए ॥ डॉक्टर श्री जयकुमारजी डाक्टर प्रेमचंद ने भी आकर। बतलाया हम सब धन्य हुए इस ज्ञानज्योति रथ को पाकर ॥ ५७ ॥ मैंने भी यहाँ पहुँचकर कृत्रिम समवशरण अतिशय देखा। शोभायात्रा में नगरी को दुल्हन सम सजी धजी देखा ॥ यहाँ चन्द्रप्रभ जिनमंदिर में इक महावीर की प्रतिमा है। निकटस्थ ग्राम प्राचीन किले से प्राप्त हुई यह प्रतिमा है ॥ ५८ ॥ फिर शेरकोट के पार्श्वनाथ मंदिर में स्वागत सभा हुई। प्राचीन शास्त्र भण्डार मिला जहाँ हस्तलिखित प्रति भरी हुई ॥ अफ़जलगढ़ में महमूद अली अन्सारी एम. एल. ए. आए। माँ ज्ञानमतीजी द्वारा प्रेरित रथ को पाकर हर्षाए ॥ ५९ ॥ For Personal and Private Use Only [६४७ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International ६४८ ] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ स्वागतयात्रा व सभा के बाद इक खंडहर किला दिखाया था । जो कभी खान अफ़जल ने आकर शेरकोट में बनाया था | आगे के ग्राम "नगीना' में एस.डी.एम. डी. एन. वर्मा ने । उद्घाटन किया तथा अध्यक्ष बने विरेन्द्र लाहोटी थे ॥ ६० ॥ कुछ दूर यहाँ से पार्श्वनाथ नामक प्राचीन किला भी है। प्रतिमाएं कई मिलीं यहाँ से ऐसा इसका इतिहास भी है ॥ लगता है यहाँ खुदाई में प्रतिमा अनेक मिल सकती है। प्राचीन जैन संस्कृति उससे कुछ वृद्धिंगत हो सकती है ॥ ६१ ॥ कोरतपुर में श्री जिलाधीश दर्शन सिंह वैश्य पधारे थे श्रेयांस जैन शास्त्री यहाँ के विद्वान भी बने हमारे थे। बिजनौर से भी आए रमेशचंद एवं जिलाधीशजी का । भाषण हो गया तथा प्रवचन भी हुआ ज्योति संचालक का ॥ ६२ ॥ महावीर बाल विद्यामंदिर बिजनौर के बच्चों ने आकर । सबके मन को आकृष्ट किया सुन्दर कार्यक्रम दिखलाकर ॥ शोभायात्रा भी शानदार हो गई नगर में धूम मची। बैनर, तोरणद्वारों, बन्दनवारों से नगरी खूब सजी ॥ ६३ ॥ आगे के नजीबाबाद शहर में नगर विधायक कुंवर सिंह। आचार्य रामनारायण से रथ पर बनवाया स्वस्ति चिह्न ॥ रविवार सात अप्रैल पचासी को घर-घर में दीप जले । रथ स्वागत कर सबने सोचा जल्दी ही जम्बूद्वीप चलें ॥ ६४ ॥ साहू परिवार पुराना इसी नजीबाबाद में रहता था । यह परिचय आज भी उनके कुछ परिवारजनों से मिलता था ॥ डिग्री कालेज है साहु जैन का तथा कई संस्थाएं हैं। सब संस्थाओं के अधिकारी ज्योती स्वागत को आए हैं ॥ ६५ ॥ नहटौर, धामपुर, स्योहारा से जिला मुजफ्फरनगर चली। तावली, शाहपुर, चरथावल से कुटेसरा में ज्योति जली ॥ राजी में बिजली फौव्वारों का दृश्य मनोरम दिखता था। हर गाँव शहर में नया नया उत्साह सभी में मिलता था ॥ ६६ ॥ बारह नहटौर से चार किलोमीटर पर वृषभदेव की प्रतिमा है। भूगर्भ से निकली इसीलिए इस अतिशय क्षेत्र की महिमा है। यहाँ गंगनदी से पाँच बलपति की प्रतिमाएं प्राप्त हुई। उत्तर पश्चिमी इलाके में ये जिन प्रतिमाएं ख्यात हुई ॥ ६७ ॥ अप्रैल बुढ़ाना में जब ज्ञानज्योति आगमन हुआ। दो सहस वर्ष प्राचीन मूर्ति श्री पार्श्वनाथ को नमन किया ॥ जौला में ज्ञानज्योति माध्यम से जैनधर्म जयकार हुआ। अतिशययुत चन्द्रप्रभ प्रतिमा का दर्शन भी साकार हुआ ॥ ६८ ॥ आगे के नगर खतौली में ब्रहाचारी मोतीचंद पहुंचे। इस ज्योति प्रवर्तन के कतिपय संस्मरण सुनाये थे उनने ॥ For Personal and Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर ज्ञानोदय फममा [६४९ सन् उन्निस सौ छीयत्तर में आर्यिकारत्न माताजो ने। निज संघ सहित आकर उनने चौमास किया इस नगरी में ॥ ६९ ॥ इन्द्रध्वज मंडल की रचना भूमी इतिहास प्रसिद्ध हुई। अतिशयकारी इस पूजन से यह पृथ्वी परम पवित्र हुई। पहले के सब संस्मरण आज ज्योतीयात्रा के अंग बने। अतएव खूब स्वागत करके सहयोग किया तन मन धन से ॥ ७० ॥ चल पड़ी ज्योति आगे इक ग्राम सरायरसूलपुरा आया। लघु जैन समाज तथापि सभी ने स्वागत म प बनवाया। मंदिर विशाल जो शिखरयुक्त पौराणिकता : लाता है। बिन बोले ही सांस्कृतिक धरोहर का इतिहा । सुनाता है । ७१ ॥ स्वागत का यह क्रम नगर महलका के प्रांगण में पहुँच गया। चौदह अप्रैल पचासी को वहाँ ज्ञानज्योति रथ पहुँच गया ॥ बतलाते हैं इस मंदिर में जो चन्द्रप्रभ की प्रतिमा है। हस्तिनापुरी जाते-जाते यहाँ अचल हुई यह महिमा है॥ ७२ ॥ इसलिए यहीं पर उस प्रतिमा का मंदिर बना दिया सबने। कुछ अतिशय देख इसे चतुर्थकालिक माना है भक्तों ने॥ दौराला में भी आज ज्योति आगमन हुआ मंगलकारी। श्री नेमिनाथ के मंदिर का दर्शन कर पुण्य मिला भारी॥ ७३ ॥ करनावल के नरनारी केशरिया झण्डे ले निकल पड़े। जिनने न कभी देखा पहले वे स्वागत करने उमड़ पड़े। पांचली जिला मेरठ के इस कस्बे में रथ आगमन हुआ। कुछ जैन समस्त अजैनों को शिक्षा हेतू रथ भ्रमण हुआ ॥ ७४ ॥ छोटे से ग्राम डहार में भी महावीर दिगम्बर मंदिर है। वहाँ पर भी धर्म मार्ग बतलाने पहुँचा ज्ञानज्योति रथ है। अब्दुल वहीद एम.एल.ए. ने आकर के ज्योति जलाई है। वे बोले मानवता का पाठ पढ़ाने ज्योती आई है॥ ७५ ॥ जिनमंदिर तथा जैन के इक दो भी घर जहाँ उपस्थित थे। वे नगर ज्ञानज्योती के मंगल रथ से हुए सुशोभित थे। इस क्रम में ग्राम मुल्हेड़ा ने भी प्राप्त किया सौभाग्य यही। जब ज्ञानज्योति यात्रा निकली जनता की भीड़ अपार रही॥ ७६ ॥ सत्तरह अप्रैल पचासी को बरनावा अतिशय क्षेत्र ज्योति । चन्द्र प्रभु की अतिशयकारी प्रतिमा से भूमि पवित्र पूति ॥ इतिहास बताता यहीं कौरवों ने लाक्षागृह बनवाया। पांडव के संग अन्याय किया उसका फल घोर नरक पाया ॥ ७७ ॥ कुछ पुरातत्त्व अवशेष नहीं पर अन्वेषक बतलाते हैं। इक खण्डहर किले व बन्द गुफा से यही बात समझाते हैं। सम्प्रति यह अतिशय क्षेत्र नाम से पूज्य हुआ इक तीरथ है। सन्तों की पदरज से इसकी बढ़ रही आज बहु कीरत है॥ ७८ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५०] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ बस पांच जैनघर वाले मुलसम नगर में ज्योति प्रवर्तन था। हज्जारों जनसमुदाय मध्य मानव एकता प्रदर्शन था। श्रेयांसनाथ तीर्थंकर का मंदिर प्राचीन सुनिर्मित है। अपने पूर्वज का पुण्यकर्म कहता पर विषम परिस्थिति में ॥ ७९ ॥ दो जिनमंदिर से शोभित नगर बिनौली में शुभ स्वागत है। ज्योतीरथ में राजेन्द्र विधायकजी सबके अभ्यागत हैं। डाक्टर श्रेयांस बड़ौत तथा कुछ अन्य अतिथि भी आते हैं। प्रवचन में ज्ञानमतीजी की यह अमरकृती बतलाते हैं ॥ ८० ॥ जिनमंदिर बहुत विशाल बना छपरौली के यमुना तट पर। सैकड़ों दिगम्बर जैन घरों ने किया ज्योति रथ का स्वागत ।। बढ़ रही ज्ञानज्योति अपने परिभ्रमण के अंतिम चरणों में। पश्चिम यू.पी. का महानगर आया बड़ौत इस ही क्रम में॥ ८१ ॥ सांसद श्री जे.के. जैन तथा बलरामजी जाखड़ भी आए। मैंने एवं रवीन्द्र भाई ने अपने अनुभव बतलाए॥ श्री जमादारजी बाबूलाल पंडित की कर्मभूमि यह है। संचालक प्रथम ज्ञानज्योति के थे कर्मठ पर आज नहीं थे वे॥ ८२ ॥ उनकी यह कमी आज सबको उनका स्मरण दिलाती है। संचालन अनुशासन की शैली याद स्वयं आ जाती है। यहाँ जैन दिगम्बर डिग्री कॉलेज इंटर कॉलेज आदि कई। शिक्षण संस्थाएं सामाजिक संस्थाएं स्वागत हेतु खड़ीं ॥ ८३ ॥ गुरुओं, सन्तों के चरणों से सर्वदा भूमि यह पावन है। गुरु भक्त विशाल जैन जनता कर रही ज्योति आराधन है। शोभा यात्रा में आज यहाँ सी भीड़ न देखी गई कहीं। सांसद द्वय के ओजस्वी भाषण की बड़ौत में धूम रही। ८४ ॥ निरपुड़ा टीकरी से होकर वह प्रभापुञ्ज मेरठ आई। एल.आर. सिंह डी.एम. साहब ने गौरव गाथा बतलाई ॥ बोले इस मेरठ कमिश्नरी का भाग्य उदित होने वाला। जम्बूद्वीपोत्सव में हमने यदि महाकार्य कुछ कर डाला ॥ ८५ ॥ रेलवे रोड की जैन धर्मशाला में स्वागत कार्यक्रम । शोभायात्रा में बैंड और झांकी का देखा सुन्दर क्रम ॥ तेरह जिनमंदिर सहित नगर यह गुरुचरणों से पावन है। हस्तिनापुरी की यात्रा में यह नगर प्रमुख मनभावन है॥ ८६ ॥ चौबिस अप्रैल सराय पहुँच कर ज्ञानज्योति यात्रा निकली। इस अमीनगर के प्रांगण में नारी शिक्षा की ज्योति जली ॥ कुछ दूर यहाँ से जाने पर इक अतिशय क्षेत्र के दर्शन हैं। उस "बड़ागांव" के दर्शन को प्रतिदिन आते यात्रीगण हैं । ८७ ॥ हस्तिनापुरी का दरवाजा जिसका कभी नाम मुहाना था। जहाँ ज्ञानज्योति रथ आ पहुँचा पर अब वह नगर मवाना था । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६५१ एस.डी.एम. सुरेन्द्र बहादुर सिंह ने आ ज्योति सम्मान किया। हस्तिनापुरी के कारण इस तहसील ने भी खुब नाम लिया ॥ ८८ ॥ हस्तिनापुरी की वसुंधरा ज्योती स्वागत को आतुर है। अपनी ज्योती के अवलोकन को उसका कण-कण व्याकुल है। नजदीक कुएं के आने पर ज्यों पथिक प्यास बढ़ जाती है। यूं ही नगरी की इच्छा शक्ती और प्रबल हो जाती है। ८९ ॥ हस्तिनापुरी से पहले ज्ञानज्योति बहसूमा क्षेत्र गई। चन्द्रप्रभ की प्राचीन मूर्ति से अतिशयकारी भूमि हुई ॥ अग्रवाल दिगम्बर जैन के छह परिवार यहाँ पर रहते हैं। धार्मिक सामाजिक कार्यों में वे ही अग्रेसर रहते हैं ॥ ९० ॥ आखिर वे इन्तजार घड़ियाँ अब पूरक बनकर प्रकट हुई। माँ ज्ञानमतीजी ज्ञानज्योति को देख बहुत संतुष्ट हुईं। मानो अपनी बिछुड़ी कन्या से तीन वर्ष पश्चात् मिलीं। निर्विघ्नं भ्रमण की कथा सुनाती ज्योती को निज मात मिली ॥ ९१ ॥ हस्तिनापुरी की भूमि आज संगम का दृश्य दिखाती है। श्री आदिनाथ औ शान्तिनाथ युग का संदर्श कराती है। मंदिर परिसर से लेकर सेंट्रल टाउन तक सब सजी गली। दुल्हन की अगवानी करने मानो सजधज बारात चली ॥ ९२ ॥ आचार्य धर्मसागरजी के संघस्थ साधु भी शामिल थे। कुछ अन्य साधु संघों के भी आगमन हुए उस ही दिन थे। खुशियों के थे अम्बार लगे माँ ज्ञानमती के उपवन में। भारत के कोने कोने से उमड़ा था जनसागर इसमें ॥ ९३ ॥ पी.वी. नरसिंहराव केन्द्र के रक्षामंत्री ने आकर। वह पावन ज्योति जलाई इन्द्राजी की गजपुर में लाकर ॥ श्री जे.के. जैन के संग ज्ञानमति माता का आशीष लिया। सम्प्रति प्रधानमंत्री बनकर भारत का ऊँचा शीश किया॥ ९४ ॥ वह ज्योति हस्तिनापुर की एक धरोहर है अनमोल कृती। मेरु पर्वत के ठीक सामने जलती है विद्युत ज्योती॥ कोड़ाकोड़ी वर्षों पहले का स्वप्न यहाँ साकार हुआ। माँ ज्ञानमती की दृढ़ता से संघर्षों का संहार हुआ॥ ९५ ॥ युग युग तक जम्बूद्वीप कृती अपना इतिहास बताएगी। यह ज्ञानज्योति माँ ज्ञानमती की कीर्ति अखंडित गाएगी। नारी की नारायणी शक्ति जग को संदेश सुनाएगी। . कलियुग की यह ब्राह्मी माता सबको उपदेश सुनाएगी॥ ९६ ॥ इस यात्रा की उपलब्धि यही जग जम्बूद्वीप को जान सका। हस्तिनापुरी में जम्बूद्वीप निर्माण हुआ पहचान सका ॥ सबसे सुन्दर उपलब्धि अहिंसा का जग में संचार हुआ। भगवान वीर के शासन का कलियुग में खूब प्रचार हुआ॥ ९७ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सन् ब्यासी चार जून से अठ्ठाइस अप्रैल पचासी तक। दिल्ली से चलकर भारत के सब तीर्थ और पुरवासी तक ॥ इस ज्ञानज्योति में पहुँच सभी को मानवता पथ बतलाया। माँ ज्ञानमती के संकल्पों ने तभी पूर्ण फल को पाया ॥ ९८ ॥ इस ज्ञानज्योति भारत यात्रा का लघु इतिहास लिखा मैंने। प्रत्यक्ष प्राप्त संस्मरणों का कतिपय उल्लेख किया मैंने ॥ इसको पढ़ पुनः ज्ञानज्योती की याद हृदय में आएगी। "चन्दनामती" तब अन्तर में भी ज्ञानज्योति जल जाएगी ॥ ९९ ॥ पुरुदेव युगादि पुरुष आदीश्वर प्रथम पारणा स्थल पर। संप्रति शुभ तीर्थ हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप सुस्थल पर ॥ अपने दीक्षागुरु गणिनी माता ज्ञानमती की छाया में। अक्षय तृतिया के पावन दिन इस कृति को पूर्ण बनाया मैं ॥ १०० ॥ यहाँ तीनमूर्ति मंदिर में जब इथूरस का अभिषेक हुआ। प्रभु आदिनाथ का इक सौ अठ कलशों से महाभिषेक हुआ। पच्चीस शतक अट्ठारहवां निर्वाण वर्ष चल रहा आज। ज्योतीयात्रा लेखन मैंने सम्पन्न किया प्रभु चरण पास ।। १०१ ॥ दोहा-जब तक जम्बूद्वीप कृति, जग में करे निवास। ज्ञानज्योति जलती रहे, जम्बूद्वीप के पास ॥ १०२ ॥ यात्रा का इतिहास भी, मुझको दे वरदान । करूँ "चन्दनामती" स्वयं, निज पर का कल्याण ॥ १०३ ॥ पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के जन्मगृह में जलपान ग्रहण करते हुए मुख्यमंत्री जी कानपुर में जिलाधीश श्री विजेन्द्र जी ज्योतिरथ का स्वागत करते हुए। मैनपुरी में उ.प्र. के विद्युतमंत्री श्री घुवीरसिंह जी ज्ञानज्योति रथ पर स्वस्तिक बनाते हुए लखनऊ शहर में ज्ञानज्योति रथ के ऊपर स्वागतार्थ पधारे मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी जी का तिलक कर रहे हैं श्री सुमेरचंद जी पाटनी लखनऊ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला [६५३ तिल 10 ॐ45esulturarimanch मैनपुरी में ज्ञानज्योति स्वागत सभा के मंच पर आसीन विद्युत मंत्री जी एवं स्थानीय कार्यकर्ता हरियाणा के फिरोजपुर झिरका नगर में ज्ञानज्योति स्वागत सभा में श्री ताराचंद जी प्रेमी। स लपि amavside at: जम्न होप जानत्यादि २८ अप्रैल, १९८५ को हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर ज्ञानज्योति का मंगल पदार्पण एवं हस्तिनापुर में ज्ञानज्योति की अखण्ड स्थापना करते हुए रक्षामंत्री श्री पी.वी. नरसिंहाराव प्रवर्तन समापन/पूज्य माताजी आदि। साथ में हैं श्री जे.के. जैन, सांसद। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का स्वागत बारम्बार -आशुकवि कल्याण कुमार 'शशि' रामपुर (रामपुर मथुरा में पठित) इंदिराजी के कर कमलों से इसका हुआ प्रवर्तन पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का इसे प्राप्त पथ दर्शन, यह भारत के विविध प्रान्त का करके भ्रमण चिरंतन अब उत्तर प्रदेश में इसका हुआ पुनीत पदार्पण, सबसे बड़े प्रान्त में सबसे, बड़ा करें सत्कार । यू.पी. भर में ज्ञानज्योति का स्वागत शत-शत बार ॥ फहर रहा है धर्मकेतु सर्वत्र ज्योति के द्वारा, शून्य थलों तक हो आई यह जैन धर्म की धारा, धर्म, अहिंसा विश्वप्रेम का पथ इसने विस्तारा बिना धर्म के सुगम नहीं है संकट से छुटकारा, यह प्रकाश की शिखा, ज्ञान की सक्रिय भागीदार । ऐसे आयोजन अपनी महिमा के पहरेदार ॥ ज्ञानज्योति के बढ़ते पग को आओ और बढ़ाएं, इसका शानदार स्वागत कर, अक्षय पुण्य कमाएं, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४] गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ इसको योगदान देकर जीवन उपवन महकाएं, हम भी समझें औरों को. इसका महत्त्व समझाएं, यह प्राचीन संस्कृति को मानस्तम्भी आधार । हम भी लें औरों को बांटें. यह अमूल्य उपहार ॥ जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की उत्तर-प्रदेशीय, हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेशीय यात्रा१. टिकैतनगर (बाराबंकी) उ.प्र., २. दरियाबाद (बाराबंकी) उ.प्र.. ३. सुमेरगंज (बाराबंकी) उ.प्र., ४. बाराबंकी उ.प्र., ५. पैतेपुर (बाराबंकी) उ.प्र., ६. बेलहरा (बाराबंकी) उ.प्र., ७. फतेहपुर (बाराबंकी) उ.प्र., ८. त्रिलोकपुर (बाराबंकी) उ.प्र., ९. गनेशपुर (बाराबंकी) उ.प्र., १०. जरवल रोड (बहराइच) उ.प्र., ११. बहराइच उ.प्र., १२. श्रावस्ती (बहराइच) उ.प्र.. १३. इटियाथोक (गोंडा) उ.प्र., १४. फैजाबाद उ.प्र., १५. अयोध्याजी (फैजाबाद), १६. गोरखपुर, १७. गाजीपुर, १८. बनारस, १९. इलाहाबाद. २०. पपौसा कोसाम्बी (इलाहाबाद), २१. प्रतापगढ़, २२. कटरा मेदनीगंज (प्रतापगढ़), २३. सुल्तानपुर (प्रतापगढ़), २४. जायस (रायबरेली). २५. रायबरेली. २६. बछरावा (रायबरेली), २७. फतेहपुर, २८. बांदा, २९. अतरा (बांदा), ३०. कबरई (हमीरपुर), ३१. घाटमपुर (कानपुर), ३२. कोड़ाजहानाबाद (फतेहपुर), ३३. इटावा, ३४. जसवंतनगर (इटावा), ३५. सिरसागंज (मैनपुरी), ३६. घिरोर (मैनपुरी), ३७. शिकोहाबाद (मैनपुरी), ३८. सौरीपुर बटेश्वर (आगरा), ३९. फिरोजाबाद (आगरा), ४०. टूंडला (आगरा), ४१. एतमादपुर (आगरा), ४२. आगरा, ४३. सिकन्दराराऊ (अलीगढ़), ४४. सासनी (अलीगढ़), ४५. हाथरस (अलीगढ़), ४६. मथुरा, ४७. अलीगढ़, ४८. जलेसर (एटा), ४९. अवागढ़ (एटा), ५०. निधौलीकलां (एटा), ५१. कासगंज (एटा), ५२. एटा, ५३. कुरावली (मैनपुरी), ५४. मैनपुरी, ५५. करहल (मैनपुरी), ५६. कायमगंज (फर्रुखाबाद), ५७. फर्रुखाबाद, ५८. कन्नौज (फर्रुखाबाद), ५९. कानपुर, ६०. लखनऊ, ६१. महमूदाबाद (सीतापुर), ६२. सिधौली (सीतापुर), ६३. बिसवां (सीतापुर), ६४. सीतापुर, ६५. हरदोई, ६६. शाहजहांपुर, ६७. लखीमपुर खीरी, ६८. बरेली, ६९. उझियानी (बदायूं), ७०. विल्सी (बदायूं), ७१. बहजोई (मुरादाबाद), ७२. संभल (मुरादाबाद), ७३. चंदौसी (मुरादाबाद),७४. बिलारी (मुरादाबाद), ७५. कुंदरकी (मुरादाबाद),७६. रामपुर, ७७. बिलासपुर (रामपुर),७८. हल्द्वानी (नैनीताल),७९. बाजपुर (नैनीताल), ८०. मसवासी (रामपुर), ८१. काशीपुर (नैनीताल), ८२. मुरादाबाद, ८३. कोसीकलां (मथुरा), ८४. सिकन्दराबाद (बुलंदशहर), ८५. बिलासपुर (बुलंदशहर), ८६. जेवर (बुलंदशहर), ८७. खुर्जा (बुलंदशहर), ८८. बुलंदशहर, ८९. शिकारपुर (बुलंदशहर), ९०. हापुड़ (गाजियाबाद), ९१. पिलखुआ (गाजियाबाद), ९२. सरूरपुर (मेरठ), ९३. खेकड़ा (मेरठ), ९४. बड़ागांव (मेरठ), ९५. बाबली (मेरठ), ९६. गाजियाबाद, ९७. कांधला (मुजफ्फरनगर), ९८. शामली (मुजफ्फरनगर), ९९. पानीपत करनाल हरियाणा, १००. केराना (मुजफरनगर)। हरियाणा : १. गन्नौर (सोनीपत), २. सोनीपत (हरियाणा), ३. बहादुरगढ़ (रोहतक), ४. झज्जर (रोहतक), ५. गोहाना (सोनीपत), ६. रोहतक (हरियाणा), ७. नारनोल (महेन्द्रगढ़), ८. भिवानी (हरियाणा), ९. हिसार (हरियाणा), १०. हांसी (हिसार), ११. जिन्द, १२. कैथल (कुरुक्षेत्र), १३. कुरुक्षेत्र, १४. करनाल, १५. अम्बाला छावनी (अम्बाला), १६. अम्बाला शहर (अम्बाला)। पश्चिमी उत्तर प्रदेश : १. हरिद्वार (सहारनपुर), २. ज्वालापुर (सहारनपुर), ३. ऋषिकेश (देहरादून), ४. देहरादून, ५. मंसूरी (देहरादून), ६. विकास नगर (देहरादून)। हिमाचल-हरियाणा : १. नाहन (सिरमौर) हिमाचल प्रदेश, २. साढौरा (अम्बाला) हरियाणा, ३. जगाधरी (अम्बाला) हरियाणा, ४. यमुना नगर (अम्बाला) हरियाणा। उत्तर प्रदेश : १. सरसावा (सहारनपुर), २. सहारनपुर, ३. बेहट (सहारनपुर), ४. चिलकाना (सहारनपुर), ५. नकुड़ (सहारनपुर), ६. अम्बेहटा (सहारनपुर), ७. रामपुर मनिहारान (सहारनपुर), ८. ननौता (सहारनपुर), ९. रुड़की (सहारनपुर), १०. झवरेड़ा (सहारनपुर), ११. पुरकाजी (मुजफ्फरनगर), १२. मुजफरनगर, १३. पुरवालियान (मुजफ्फरनगर), १४. मंसूरपुर (मुजफ्फरनगर), १५. दादरी सकौती (टांडा) (मेरठ), १६. सलावा (मेरठ), १७. सरधना (मेरठ), १८. जानसठ (मुजफ्फरनगर) उ.प्र., १९. मीरापुर (मुजफ्फरनगर), २०. कवाल (मुजफ्फरनगर), २१. ककरौली (मुजफरनगर), २२. बिजनौर (उत्तर प्रदेश), २३. शेरकोट (बिजनौर), २४. अफजलगढ़ (बिजनौर), २५. नगीना (बिजनौर), २६. कीरतपुर (बिजनौर), २७. नजीबाबाद (बिजनौर), २८. स्योहारा (बिजनौर), २९. धामपुर (बिजनौर), ३०. नटहौर (बिजनौर), ३१. शाहपुर (मुजफ्फरनगर), ३२. तावली (मुजफरनगर), ३३. चरथावल (मुजफरनगर), ३४. कुटेसरा (मुजफरनगर), ३५. बुढ़ाना (मुजफरनगर), ३६. जौला (मुजफरनगर), ३७. खतौली (मुजफरनगर), ३८. सरायरसूलपुर (मुजफ्फरनगर), ३९. महलका (मेरठ), ४०. दौराला (मेरठ), ४१. करनावल (मेरठ), ४२. पाँचली (मेरठ), ४३. गोटका (मेरठ), ४४. डाहर (मेरठ), ४५. मुल्हेड़ा (मेरठ), ४६. बरनावा (मेरठ), ४७. मुलसम (मेरठ), ४८. बिनौली (मेरठ), ४९. छपरौली (मेरठ), ५०. बड़ौत (मेरठ), ५१. निरपुड़ा (मेरठ), ५२. टीकरी (मेरठ), ५३. मेरठ, ५४. अमीनगर सराय (मेरठ), ५५. मवाना (मेरठ), ५६. बहसूमा (अ. क्षेत्र) (मेरठ), ५७. हस्तिनापुर (मेरठ)। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६५५ जम्बूद्वीप -ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर "जम्बूद्वीप" शब्द को सुनकर सभी के मस्तिष्क में एक जिज्ञासा भरा प्रश्न उभरकर आता है कि यह जम्बूद्वीप क्या है, कहां है, किस देश में स्थित है? अथवा पृथ्वी पर है या आकाश में है। इत्यादि प्रकार से अनेक प्रकार के प्रश्न मन को आन्दोलित करते हैं। इन सभी जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए जम्बूद्वीप के संबंध में हम आपको विस्तृत जानकारी प्रदान कर रहे हैं। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे...देशे...नगरे... मासोत्तम मासे...पक्षे...दिवसे... । इस मंत्र का उच्चारण प्राचीन काल से विद्वान् पंडित लोग धार्मिक क्रियाओं में करते आ रहे हैं। आज भी इस मंत्र के उच्चारण की परंपरा भारतीय संस्कृति की प्रमुख धारा श्रमण (जैन) एवं वैदिक दोनों में चली आ रही है। भगवान का अभिषेक करते समय, हवन करते समय, गृहप्रवेश एवं विवाह आदि की मांगलिक क्रियाओं में इस मंत्र के उच्चारण को आप देख व सुन सकते हैं। इस मंत्र में सर्वप्रथम जम्बूद्वीपे शब्द का प्रयोग किया गया है, यह सप्तमी विभक्ति के प्रथमा का रूप है इसका अभिप्राय है जम्बूद्वीप में। इसी प्रकार आगे भी भरतक्षेत्रे आर्यखंडे आदि शब्दों में भी सप्तमी का प्रयोग किया गया है। अर्थात् जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र में आर्य खंड में । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जम्बूद्वीप के अंतर्गत भरत क्षेत्र है व भरतक्षेत्र में आर्यखंड है। यह जम्बूद्वीप संपूर्ण पृथ्वी मंडल का एक प्रथम द्वीप है जो कि बहुत ही विस्तृत है, आज का उपलब्ध समस्त विश्व इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्य खंड में स्थित है, अर्थात् आर्यखंड का भी बहुत-सा क्षेत्र अभी उपलब्ध नहीं है। फिर तो जम्बूद्वीप का तो 99 प्रतिशत क्षेत्र वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। प्रश्न-यह तो समझ में आया कि पृथ्वी मंडल के मध्य का नाम जम्बूद्वीप है और जम्बूद्वीप का विस्तार बहुत लम्बा-चौड़ा है। लेकिन आप हमें यह तो बतायें कि इसका विस्तृत वर्णन कहाँ उपलब्ध होता है? उत्तर-जैन परंपरा के तिलोयपण्णत्ति जम्बूद्वीप पण्णति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, श्लोकवार्तिक एवं तत्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों में जम्बूद्वीप का वर्णन विस्तार से देखा जा सकता है। यह ग्रंथ भगवान महावीर के पश्चात् प्राचीन आचार्यों के द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में लिखे हुये हैं जिनका हिंदी रूपांतर भी हो चुका है। इन्हीं ग्रथों के आधार से पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने संक्षेप में त्रिलोकभास्कार, जैन भूगोल एवं जम्बूद्वीप नामक पुस्तकों की रचना की है। जिससे संक्षेप में जम्बूद्वीप को समझा जा सकता है। प्रश्न-आपने बताया कि जैनाचार्यों ने जम्बूद्वीप का वर्णन अनेक ग्रंथों में किया है। कृपया हमें यह भी बतायें कि जैन धर्म के अलावा क्या अन्य धर्मों में भी जम्बूद्वीप का उल्लेख मिलता है? उत्तर-आपका यह प्रश्न भी प्रासंगिक है। वैदिक पंरपरा के अनेक ग्रंथों में जम्बूद्वीप का विस्तार से वर्णन पाया जाता है। यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, अरण्यक, वायु पुराण, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत्, ब्रह्मांड पुराण, गरुड़ पुराण तथा मत्स्यपुराण आदि में जम्बूद्वीप का वर्णन पाया जाता है। बौद्ध परंपरा में अभी धर्म को दीर्घनिकाय, मज्झिमनिकाय, पपंचसुरणी, विसुहीमघ महावघ, अट्ठशालिनी आदि ग्रंथों में जम्बूद्वीप का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में भी जम्बूद्वीप का किसी न किसी रूप में वर्णन अवश्य पाया जाता है। इससे इसकी प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को निश्चित रूप से स्वीकार किया जा सकता है। प्रश्न-जैन धर्म में हमने सुना है कि तीन लोक होते हैं, कृपया वे लोक कौन-कौन से हैं तथा जम्बूद्वीप किस लोक में पाया जाता है? उत्तर-जैनाचार्यों ने लोक के तीन भाग किये हैं, अधोलोक, मध्य लोक, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक में नरक, ऊर्ध्वलोक में स्वर्ग व मोक्ष और मध्यलोक में असंख्यातद्वीप समुद्र हैं जो कि थाली के समान गोलाई लिये हुये एक-दूसरे को घेरे हुये हैं। अर्थात् द्वीप के बाद समुद्र, समुद्र के बाद पुनः द्वीप तथा द्वीप के बाद पुनः समुद्र इस प्रकार से एक-दूसरे को घेरकर असंख्यात द्वीप समुद्र माने गये हैं। जिसमें सबसे बीचोंबीच में पहला जम्बूद्वीप है, जम्बूद्वीप के चारों तरफ लवणसमुद्र है तथा आखिरी द्वीप का नाम स्वयंभूरमणद्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र हैं? प्रश्न-हम सब लोग किस द्वीप में रहते हैं? उत्तर-हम सभी लोगों का निवास स्थान जम्बूद्वीप है तथा इसके चारों तरफ लवणसमुद्र नाम का समुद्र है। इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखंड में ही चौबीस तीर्थकरों का जन्म होता है तथा भरत चक्रवर्ती, राम, हनुमान, कृष्ण आदि महापुरुषों ने भी इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्य खंड में जन्म लेकर संसार प्रसिद्ध यश को प्राप्त किया है। भारत जैसे समस्त लगभग १५० देश इसी आर्यखंड में माने गये हैं। यह आर्यखंड भी पूरा उपलब्ध नहीं है। प्रश्नः-ग्रंथों में जम्बूद्वीप को कितना बड़ा माना है? उत्तर-जैनाचार्यों ने जम्बूद्वीप का विस्तार अर्थात् व्यास एक लाख योजन माना है। दो हजार कोस का एक महायोजना माना गया है। इस प्रकार से जम्बूद्वीप का व्यास ४० करोड़ मील का माना गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाइस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है। अर्थात् एक अरब छब्बीस करोड़ उनचास लाख आठ हजार छः मील के लगभग जम्बूद्वीप की परिधि बैठती है। जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है, अर्थात् तीन नील सोलह खरब बाईस अरब सत्ततर करोड़ छ्यासठ लाख मील जम्बूद्वीप के भूमंडल का क्षेत्रफल है। प्रश्न-आपने जम्बूद्वीप का परिमाण बहुत लम्बा-चौड़ा बताया, कृपया आप यह बताने का कष्ट करें कि ग्रंथों में पाये जाने वाले इस जम्बूद्वीप का नक्शा या मॉडल या इस रचना का निर्माण कहीं पर उपलब्ध है क्या? उत्तर-आपका यह प्रश्न भी अति उत्तम है। जम्बूद्वीप की रचना का निर्माण पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश के अंतर्गत हस्तिनापुर नामक तीर्थ पर किया गया है। यह हस्तिनापुर दिल्ली से १०० कि०मी० तथा मेरठ से ४० कि०मी० दूरी पर है। __ पूज्य माताजी की प्रेरणा से दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान नामक एक संस्था का निर्माण सन् १९७२ में दिल्ली में किया गया जिसके अंतर्गत जैन शास्त्रों के आधार से हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप का निर्माण कराया गया है। वर्तमान में हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप एक दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित हो चुका है। जिसे देखने के लिये देश-विदेश तथा सभी जातियों के व धर्मों के लोग प्रतिदिन आते रहते हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप निर्माण के लिये पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर को ही क्यों चुना? उत्तर-हस्तिनापुर को चुनने के कई उद्देश्य हो सकते हैं जिसमें सर्वप्रथम तो यह जैनधर्म का अतिप्राचीन तीर्थ है। भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ जैन धर्म के इन तीन तीर्थंकरों ने इसी हस्तिनापुर में जन्म लेकर ६ खंड की पृथ्वी का शासन किया था। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का एक वर्ष के उपवास के पश्चात् इसी हस्तिनापुर तीर्थ पर प्रथम पारणा हुई थी। उस समय की एक और रोचक घटना इस निर्माण से जुड़ जाती है जिसके बारे में मैं यहां आपको बताना आवश्यक समझता हूँ। आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हस्तिनापुर में सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार नाम के इतिहास प्रसिद्ध राजा हुए हैं। एक समय रात्रि के अंतिम भाग में राजा श्रेयांस ने ७ स्वप्न देखे। उन स्वप्नों में सर्वप्रथम सुमेरु पर्वत देखा था। जिसका फल यह बताया गया था कि सुमेरु पर्वत पर जिनका जन्माभिषेक हुआ है और जो सुमेरु पर्वत के समान महान् हैं, ऐसे महापुरुष का आपको दर्शन मिलने वाला है। प्रातः होते ही युगादि ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर में मंगल आगमन होता है। उनके दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को अपने आठवें भ्व पूर्व का जाति स्मरण हो आता है। जिससे उन्हें आहार दान की विधि ज्ञात हो जाती है। भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षा लेते ही छ: माह का योग ले लिया था और पिछले छः माह से उन्हें आहार की विधि नहीं मिल रही थी, जिससे एक वर्ष के उपवास के पश्चात् आज राजा श्रेयांस व सोमप्रभ को यह पुण्ययोग प्राप्त होता है। अतः विधिवत् नवधा भक्ति से पड़गाहन कर भगवान् ऋषभदेव को राजा श्रेयांस व सोमप्रभ इक्षु रस का आहार देते हैं, वह दिन वैशाख शुक्ला तीज का था, इसीलिए यह तिथि आज अक्षय तृतीया के नाम से जगप्रसिद्ध हो गई है और अत्यंत शुभ तिथि मानी जाती है। इसी आहार के निमित्त से अक्षय तृतीया पर्व का शुभारंभ इसी हस्तिनापुर से हुआ है। कैसा सुंदर योग इस जम्बूद्वीप के निर्माण को प्राप्त हुआ कि जिस सुमेरुपर्वत के दर्शन राजा श्रेयांस ने करोड़ों वर्ष पूर्व इसी हस्तिनापुर में स्वप्न में किये थे, उसी सुमेरु पर्वत को साकार रूप देने का श्रेय पूज्य ज्ञानमती माताजी को इसी हस्तिनापुर में प्राप्त हुआ और पूज्य माताजी की प्रेरणा से केवल सुमेरु पर्वत ही नहीं, बल्कि जिसके मध्य में सुमेरु पर्वत है, ऐसे सुमेरु से सहित सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का निर्माण हस्तिनापुर में कराया गया है, जिसमें चौरासी फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत बना है। जम्बूद्वीप के चारों तरफ लवण समुद्र, नदियाँ, बाग-बगीचे, फौव्वारे आदि प्राकृतिक दृश्यों को भी निर्मित किया गया है तथा जम्बूद्वीप के अंतर्गत ७८ अकृत्रिम जिनचैत्यालयों में विराजमान जिनप्रतिमाओं के दर्शन से दर्शकों को आध्यात्मिक शांति का अनुभव प्राप्त होता है। इसके साथ ही जैनाचार्यों द्वारा मान्य भूगोल के विषय में शोधार्थियों एवं वैज्ञानिकों के लिए यह एक दिशा-निर्देश भी है। प्रश्न : जम्बूद्वीप के अंतर्गत जो सुमेरु पर्वत बनाया गया है, क्या इसकी कुछ खास विशेषता है? उत्तर : जैन सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक चतुर्थ काल में चौबीस तीर्थंकर जन्म लेते हैं। हम और आप जैसे क्षुद्र प्राणियों में से ही कोई भी प्राणी सोलह कारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर सकता है और अगले भव में ीर्थंकर जैसे महापुरुष के रूप में जन्म लेकर अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकता है। ऐसे-ऐसे अवतारी तीर्थंकरों का जब-जब जन्म होता है, तब-तब इंद्रों के आसन कंपित हो जाते हैं और वे भक्ति में विभोर होकर स्वर्ग से इस मनुष्य लोक में ऐरावत हाथी पर चढ़कर आते हैं तथा उस नवजात तीर्थंकर शिशु को प्रसूति गृह से लाकर सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं, जहाँ असंख्य देवों के महावैभव के साथ भगवान् का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। एक हजार आठ (१००८) कलशों से भगवान् का जन्माभिषेक करके अपने को धन्य करते हैं। इस चतुर्थकाल में भगवान् ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर व भगवान् महावीर अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर हो चुके हैं। इन सभी तीर्थंकरों का जन्माभिषेक इसी सुमेरु पर्वत पर इंद्रों के द्वारा किया गया था। इसीलिए यह असंख्यातों तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पवित्र सर्वोत्कृष्ट एवं त्रैलोक्य पूज्य पर्वत माना गया है। यह पर्वत देव, इन्द्र, मनुष्य, विद्याधर एवं महामुनि सभी से वंदनीय है। वर्तमान भारतवर्ष से लगभग २० करोड़ मील की दूरी पर यह सुमेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के अंतर्गत विद्यमान है। तीनों लोकों में सबसे ऊँचा यही पर्वत है, इसी के प्रतीक में इक्यानवे फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत हस्तिनापुर में बनाया गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम खण्ड MITTER दीप रचना आधुनिक एवम Meena-tgfaipatenepal पौराणिक परिप्रेक्ष्य में. Jan Educationa international For Personal and Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६५७ प्रश्न : ग्रंथों के अनुसार इस सुमेरु पर्वत की चौड़ाई, ऊँचाई आदि क्या है? उत्तर : ग्रंथों के आधार से इस सुमेरु पर्वत की ऊँचाई एक लाख चालीस योजन है। अर्थात् यह सुमेरु पर्वत भी जम्बूद्वीप के विस्तार के समान लगभग चालीस करोड़ मील ऊँचा है। इस पर्वत की नींव पृथ्वी में एक हजार योजन है तथा पृथ्वी पर इसकी चौड़ाई दस हजार योजन है और सबसे ऊपर चूलिका अर्थात् चोटी का अग्रभाग मात्र चार योजन व्यास का है। इस पर्वत के चारों तरफ पृथ्वी तल पर भद्रसाल वन है। इस वन से पाँच सौ योजन ऊपर जाकर नंदन वन है। नंदन वन से बासठ हजार पाँच सौ योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है और सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाकर पांडुक वन है। इस पांडुक वन के ठीक बीच में चालीस योजन ऊँची चूलिका है। पांडुक वन में चारों ही विदिशाओं में चार शिलायें हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-पांडुक, पांडुकंबला, रक्ता, रक्तकंबला। पांडुकशिला पर भरतक्षेत्र के जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक किया जाता है। पांडुकंबला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ताशिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का और रक्तकंबला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इसीलिए इस पर्वत को पूज्य माना गया है। प्रश्न : हस्तिनापुर में जो जम्बूद्वीप का निर्माण किया गया है, उसमें कहीं पर्वतों के नाम, कहीं नदियों के नाम, कहीं क्षेत्रों के नाम दिये गये हैं तो शास्त्रों में जम्बूद्वीप के अंतर्गत क्या इसका उल्लेख मिलता है। कृपया हमें जानकारी देने का कष्ट करें? उत्तर : जम्बूद्वीप में प्रमुख रूप से छः कुलाचल, सात क्षेत्र, छः सरोवर, चौदह नदियां व चार गोपुर द्वार हैं। १. पर्वतों की संख्या-हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छ: कुलाचल अर्थात् पर्वत हैं। २. क्षेत्र की संख्या-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। ३. सरोवर-पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुंडरीक और पुंडरीक ये छः सरोवर हैं। ४. नदियाँ-गंगा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्या, हरित, हरिकाता, सीता, सीतोदा नारी नरकांता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला और रक्ता रक्तोदा ये चौदह नदियाँ हैं । ५. गोपुर द्वार-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित ये चार गोपुर द्वार हैं। प्रश्न : क्या उपर्युक्त ६ पर्वतों के अलावा जम्बूद्वीप में और भी कोई पर्वत है? उत्तर : जम्बूद्वीप में कुल ३११ पर्वत हैं, जो कि निम्न प्रकार हैंसुमेरु कुलाचल गजदंत वक्षार विजयार्ध वृषभाचल नाभिगिरि यमकगिरि दिग्गजेन्द्र कांचनगिरि ܗ ܐ ܃ ܃ ܐ ܐ ܐ ...३११ प्रश्न : ये सभी पर्वत जम्बूद्वीप में कहाँ-कहाँ पाये जाते हैं? उत्तर : सुमेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के मध्य में है। ६ कुलाचल ७ क्षेत्रों की सीमा करते हैं। ४ गजदंत मेरु की विदिशा में हैं। १६ वक्षार विदेह क्षेत्र में हैं। ३२ विजया ३२ विदेह क्षेत्र में हैं और २ विजया भरत और ऐरावत में एक-एक हैं। अतः ३४ विजयार्ध हैं। ३२ विदेह के ३२, भरत-ऐरावत के २, इस प्रकार ३४ वृषभाचल हैं। हैमवत, हरि, रम्यक् और हैरण्यवत में १-१ नाभिगिरि ऐसे ४ नाभिगिरि हैं। सीता नदी के पूर्व-पश्चिम तट पर १-१ ऐसे ४ यमकगिरि हैं। देवकुरु उत्तरकुरु में २-२ और पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में २-२ ऐसे ८ दिग्गज पर्वत हैं। सीता-सीतोदा इन दो नदियों के बीच २० सरोवर हैं तथा प्रत्येक सरोवर के २-२ तट हैं। इस प्रकार २० x २ = ४० तट हैं। प्रत्येक तट संबंधी पाँच-पाँच कांचनगिरि हैं। इस प्रकार ४० x ५ = २०० कांचनगिरि हैं। ये सीता और सीतोदा नदी में हैं। इस प्रकार इन सभी पर्वतों की संख्या मिलकर ३११ होती है। प्रश्न-क्या जम्बूद्वीप में १४ नदियां हैं? उत्तर-जम्बूद्वीप में गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हिरत-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्याकला और रक्ता-रक्तोदा ये १४ महानदियाँ हैं तथा इनकी परिवार-सहायक नदियों को मिलाकर कुल नदियों की संख्या १७ लाख, ९२ हजार, ९० नदियां हैं, १७,९२०९० । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला भरतक्षेत्र की गंगा-सिन्धु २+ इनकी सहायक नदियां - २८००० हैमवतक्षेत्र की रोहित-रोहितास्या २+ इनकी सहायक नदियां = ५६००० हरिक्षेत्र की हरित-हारिकान्ता २+ इनकी सहायक नदियां - १,१२००० विदेह क्षेत्र की सीता-सीतोदा २+ इनकी सहायक नदियां = १,६८००० (८४०००४२) विदेह क्षेत्र की विभंगा नदी १२+ इनकी सहायक नदियां - ३,३६००० (२८०००४१२) ३२ विदेह देशों की गंगा-सिन्धु और रक्ता रक्तोदा नाम की ६४+ इनकी सहायक नदियां ८,९६००० (१४०००४६४) रम्यकक्षेत्र की नारी, नरकान्ता २+ इनकी सहायक नदियां - १,१२००० हैरण्यवत क्षेत्र की सुवर्णकूला-रूप्यकूला २+ इनकी सहायक नदियां ५६००० ऐरावत क्षेत्र की रक्ता-रक्तोदा २+ इनकी सहायक नदियां - २८००० २ १२ २६४ २८००० ५६००० ११२००० १६८००० ३३६००० ८९६००० ११२००० ५६००० २८००० १७९२००० १% ७६+ १७९२००० - १७९२०९० अर्थात सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में १७ लाख, ९२ हजार, ९० नदियां १७९२०९० हैं। इनमें विदेह क्षेत्र की नदियां १४ लाख, ७८ हजार (१४०००७८) हैं। सीता-सीतोदा की जो परिवार नदियां हैं, वे देवकुरु-उत्तरकुरु में ही बहती हैं। आगे पूर्व विदेह-पश्चिम विदेह में विभंगा और गंगा-सिन्धु तथा रक्ता-रक्तोदा हैं। उपरोक्त सभी परिवार नदियां अपने-अपने कुण्डों से निकलती हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप में कर्मभूमियां कितनी हैं? उत्तर-भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की एक कर्मभूमि तथा ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड की एक कर्मभूमि तथा विदेह क्षेत्र के ३२ आर्यखण्ड की ३२ कर्मभूमि इस प्रकार जम्बूद्वीप में कुल ३४ कर्मभूमि हैं। इनमें से भरत-ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तन होने से ये २ अशाश्वत कर्मभूमि हैं एवं विदेह में सदा ही कर्मभूमि की व्यवस्था होने से वे ३२ शाश्वत कर्मभूमि हैं। ____इन्हीं ३४ कर्मभूमियों में ६३ शलाका पुरुषों का जन्म होता है और भरतक्षेत्र में २४, ऐरावत में २४ तीर्थकर प्रत्येक चतुर्थकाल में जन्म लेकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। विदेह क्षेत्र की ३२ कर्मभूमियों में चार तीर्थंकरों का शाश्वत निवास रहता है। प्रश्न-जम्बूद्वीप में आर्यखंड और म्लेच्छखंड कितने-कितने हैं? उत्तर-भरतक्षेत्र में एक आर्यखण्ड, ऐरावत क्षेत्र में एक आर्यखंड एवं ३२ विदेहों में ३२ आर्यखण्ड ऐसे कुल ३४ आर्यखण्ड सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में हैं। इन आर्यखण्डों में ही महापुरुषों का जन्म होता है तथा म्लेच्छखण्ड १७० हैं जो कि इस प्रकार हैं- भरतक्षेत्र के ५, ऐरावत के ५ और ३२ विदेह में प्रत्येक के ५, ५ (३२४५-१६०) -५+५+१६०- १७०, जम्बूद्वीप में कुल १७० म्लेच्छखण्ड हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप में भोगभूमि कहां-कहां पाई जाती हैं? उत्तर-जम्बूद्वीप में शाश्वत भोगभूमि ६ हैं जो इस प्रकार हैं- हैमवत,-हैरण्यवत, हरि एवं रम्यक, देवकुरु एवं उत्तरकुरु । हैमवत- हैरण्यवत में जघन्त भोग भूमि की व्यवस्था है। वहां पर मनुष्यों की शरीर की ऊंचाई एक कोस है। आयु एक पल्य है और युगल जन्म लेते हैं- युगल ही मरते हैं। इस प्रकार वे कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। हरि क्षेत्र एवं रम्यक् क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। वहां पर दो कोस ऊँचे तथा दो पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये भी भोग सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त करते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६५९ - - Aman देवकुरु- उत्तरकुरु क्षेत्र में उत्तम भोग भूमि को व्यवस्था है। यहां पर तीन कोस ऊँचे, तीन पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं इनमें कभी षट्काल परिवर्तन नहीं होता है आज भी ये छहों भोगभूमियां यथास्थान विद्यमान हैं। प्रश्न-हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप में हमने दो सुन्दर-सुन्दर वृक्ष बने हुए देखे हैं। क्या इनका भी आगम में वर्णन है? उत्तर-आगम के अनुसार जम्बूद्वीप के उत्तर कुरु की ईशान दिशा में जम्बूवृक्ष एवं देवकुरु की नैऋत्य दिशा में शाल्मलि वृक्ष हैं। इन वृक्षों की एक-एक शाखा पर जिनमंदिर भी बने हुए हैं उसी के प्रतीक रूप में हस्तिनापुर में भी इन वृक्षों पर १-१ जिनमंदिर बनाये गये हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप में कुल अकृत्रिम चैत्यालय कितने हैं? उत्तर-जम्बूद्वीप में कुल ७८ चिनचैत्यालय हैं जिनका स्थान निम्न प्रकार है सुमेरुपर्वत के = १६ छह कुलाचल के - ६ चार गजदन्त के सोलह वक्षार के चौंतीस विजयार्ध के - ३४ जम्बूशाल्मलिवृक्ष - २ 78 संपूर्ण जम्बूद्वीप में ये ७८ जिनचैत्यालय, अकृत्रिम एवं शाश्वत हैं। प्रत्येक चैत्यालय में १०८-१०८ जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं। प्रश्न-आपने बताया था कि जम्बूद्वीप में ६ सरोवर हैं तथा इनके अलावा भी कुछ सरोवर हैं, कृपया इनके नाम, स्थान आदि बताने का कष्ट करें। उत्तर-जम्बूद्वीप में प्रमुख ६ कुलाचल है। हिमवान, महाहिमवान, निषध-नील, रुक्मि और शिखरी। इन सभी कुलाचलों पर प्रत्येक पर १-१ सरोवर हैं जिनके नाम क्रमशः पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केशरी, महापुण्डरीक, पुण्डरीक इस प्रकार हिमवान पर्वत पर पद्म नाम का सरोवर है। महाहिमवान पर्वत पर महापद्म नाम का सरोवर है, । निषध पर्वत पर तिगिंछ नाम का सरोवर है । नीलपर्वत पर केशरी नाम का सरोवर है। रुक्मि पर्वत पर महापुण्डरीक नाम का सरोवर है तथा शिखरी पर्वत पर पुण्डरीक नाम का सरोवर है। इन्हीं सरोवरों से गंगा-सिन्धु आदि १४ नदियां निकलकर ७ क्षेत्रों में प्रवेश करके बहती हुई लवणसमुद्र में चली जाती है। अन्य २० सरोवर- इन प्रमुख ६ सरोवरों के अतिरिक्त विदेहक्षेत्र में सीता-सीतोदा नदी के मध्य २० सरोवर हैं। प्रश्न-गोपुर द्वार कितने तथा कहां हैं? , उत्तर-इस जम्बूद्वीप के चारों तरफ वेदिका अर्थात् “परकोटा" है। पूर्व, दक्षिण पश्चिम, उत्तर इन चारों दिशाओं में एक-एक महाद्वार हैं जिनके नाम - विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित हैं। प्रश्न-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत जो ६ मुख्य पर्वत आपने बताये हैं उनकी नाप तथा उनको विस्तृत वर्णन जानने की इच्छा है? उसर-हिमवान आदि ६ कुलाचलों का वर्णन आगम में निम्न प्रकार से पाया जाता है१- हिमवान पर्वत- हिमवान पर्वत का विस्तार अर्थात् चौड़ाई 105212योजन (42084211 मील) प्रमाण है । लम्बाई भरतक्षेत्र की तरफ 1447110 योजन एवं हैमवत क्षेत्र की तरफ 249321 योजन है। ऊँचाई १०० योजन है। हिमवान पर्वत का वर्ण सुवर्णमय है। हिमवानपर्वत पर सिद्धायत्तन, हिमवत, भरत, इली, गंगा, श्रीकूट, रोहितास्या, सिंधु, सुरादेवी, हैमवत और वैश्रवण ये ११ कूट हैं। प्रथम सिद्धायतन कूट पूर्व दिशा में है इस पर जिनमंदिर है। बाकी १० कूटों में से स्त्रीलिंग मामवाची कूटों पर व्यंतर देवियां एवं शेष कूटों पर व्यंतरदेव रहते हैं सभी कूट पर्वत की ऊँचाई के प्रमाण से चौथाई प्रमाण वाले हैं। जैसे हिमवान पर्वत की १०० योजन ऊँचाई है तो कूट २५ योजन ऊंचे हैं। कूटों की चौड़ाई मूल अर्थात् नीचे २५ योजन, मध्य में 183 योजन और ऊपर 121योजन है। इन कूटों पर देवों के व देवियों के भवन बने हुए हैं। २- महाहिमवान् पर्वत- महाहिमवान् पर्वत की चौड़ाई 42010 योजन है। लम्बाई हैमवत क्षेत्र की तरफ 3767416योजन है और हरिक्षेत्र की तरफ इसकी लम्बाई 539319-योजन है। ऊँचाई २०० योजन है यह चांदी के वर्ण का है। . . महाहिमवान पर्वत पर सिद्धकूट; महाहिमवत् हैमवत् रोहित ही कूट, हरिकांता, हरिवर्ष और वैडूर्य ये ८ कूट हैं। ये ५० योजन ऊँचे हैं। सिद्ध कूट पर जिनमंदिर एवं ७ कूटों पर देव-देवियों के भवन हैं। ३- निषध पर्वत- निषध पर्वत की चौड़ाई 168422-योजन है। लम्बाई हरिक्षेत्र की तरफ 73901 17योजन एवं विदेह की तरफ 94156 2. योजन है। इस पर्वत की ऊँचाई ४०० योजन है। “यह पर्वत तपाये हुए सुवर्ण वर्ण का है। निषध पर्वत पर सिंद्धकूट, निषध, हरिवर्ष, पूर्वविदेह, हरित धृति, सीतोदा, अपर-विदेह और रुचक ये ९ कूट हैं। ये १०० योजन ऊँचे हैं। इनका Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० ] विस्तार अर्थात् चौड़ाई नीचे १०० योजन मध्य में ७५ तथा ऊपर ५० योजन है। प्रथम सिद्धकूट में जिनमंदिर तथा शेष ८ कूटों में देव देवियों के भवन हैं। ४- नील पर्वत- नील पर्वत का समस्त प्रमाण निषेध पर्वत के समान है। यह पर्वत वैडूर्यमणि के समान वर्ण वाला है। इस पर्वत पर सिद्ध. नील, पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति, नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और अपदर्शन ये ९ कूट है। कूटों को ऊँचाई १०० योजन है। नौहाई मूल अनी १०० योजन मध्य में ७५ योजन एवं ऊपर ५० योजन विस्तृत है। इसमें सिद्धकूट पर जिनमंदिर एवं शेष ८ कूटों पर देव देवियों के भवन हैं। ५- रुक्मि पर्वत- इस पर्वत का समस्त प्रमाण महाहिमवान के समान है। इसका वर्ण चांदी के सदृश है। इस पर्वत पर सिद्धकूट, रुक्मिकूट, रम्यक् नारी, बुद्धि, रूप्यकूला, हैरण्यवत् और मणिकांचन ये ८ कूट हैं। प्रथम कूट में जिनमंदिर तथा शेष कूटों पर देव-देवियों के भवन बने हुए हैं। इन कूटों की ऊँचाई ५० योजन है। चौड़ाई मूल में ५० योजन ऊपर २५ योजन है। ६ शिखरी पर्वत इस पर्वत का प्रमाण हिमवान पर्वत के समान है। इसका वर्ण सुवर्ण सदृश है तथा इस पर कूट ११ १ सिटकूट शिखरो - - रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, सुवर्ण, रक्तवती, गंधवती, ऐरावत और मणिकांचन इसमें प्रथम कूट पर जिनमंदिर तथा शेष कूटों पर देव देवियों के भवन बने हुए हैं। इन कूटों की ऊँचाई २५ योजन है। चौड़ाई नीचे २५ योजन तथा ऊपर 122 योजन है। विशेष- ये सभी पर्वत ऊपर एवं नीचे समान विस्तार वाले है एवं इनके पार्श्वभाग चित्र-विचित्र मणियों से निर्मित है। प्रश्न- जम्बूद्वीप में ६ सरोवर आपने बताये हैं इनका विस्तार आदि कितना है? उत्तर - सरोवरों का वर्णन निम्न प्रकार से है १- पद्म सरोवर- यह सरोवर हिमवान पर्वत के मध्य में है। यह ५०० योजन चौड़ा है इसमें एक योजन का १ कमल है। इस कमल के १०११ पत्र हैं। इसकी नाल ४२ कोश ऊँची १ कोश मोटी है। यह वैडूर्यमणि की है। इसका मृणाल ३ कोश मोटा रूप्यमयश्वेत वर्ण का है। इसका नाल ४२ कोश अर्थात् 10 योजन प्रमाण है अतः १० योजन नाल जल में है और २ कोश जल के ऊपर है। कमल की कर्णिका २ कोश ऊँची और १ कोश चौड़ी है। इस कर्णिका के ऊपर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है। यह भवन १ कोश लम्बा, 1⁄2 कोश चौड़ा और कोश ऊँचा है। इस भवन में श्रीदेवी निवास करती है इसकी आयु १ पल्य प्रमाण है। श्रीदेवी के परिवार कमल- श्रीदेवी के परिवार कमलों की संख्या १ लाख ४० हजार ११५ (१४०११५) है कमल भी इसी सरोवर में हैं। इन परिवार कमलों की नाल १० योजन प्रमाण है। अर्थात् इनकी नाल जल से २ कोश ऊपर नहीं है, जल के बराबर है। इन कमलों का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा-आधा है। इनमें रहने वाले परिवार देवों के भवनों का प्रमाण भी श्रीदेवी के भवन से आधा है। २- महापद्म सरोवर यह सरोवर महाहिमवान पर्वत पर है। इसकी चौड़ाई १०० योजन, लम्बाई २००० योजन और गहराई २० योजन है। इसके मध्य में मुख्य कमल का विस्तार २ योजन है। इसकी कर्णिका २ कोश की है इसमें ह्री देवी का भवन है। भवन २ कोश लम्बा, [1] कोश ऊँचा १ कोश चौड़ा है इस पर ही देवी निवास करती है। इसकी आयु १. पल्य प्रमाण है। इसके परिवार कमलों की संख्या २ लाख ८० हजार २०३ (२८०२०३) है। इन परिवार कमलों का एवं इनके भवनों का प्रमाण मुख्य कमल से आधा-आधा है। - वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला - ३- तिगिंछ सरोवर:- यह सरोवर निषध पर्वत के मध्य में है। यह २००० योजन चौड़ा, ४००० योजन लम्बा एवं ४० योजन गहरा है। इस सरोवर के मध्य में मुख्य कमल ४ योजन विस्तृत है। इसकी कर्णिका ४ कोश की है। इस पर धृति देवी का भवन बना हुआ है। जिसकी लम्बाई ४ कोश, चौड़ाई २ कोश एवं ऊंचाई ३ कोश है। इसमें धृति देवी निवास करती है इसकी आयु १ पल्य है। इसके परिवार कमलों की संख्या ५ लाख ६० हजार ४६० (५६०४६०) है। इन परिवार कमलों का प्रमाण एवं इन पर भवनों का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा-आधा है। 1 ४- केसरी सरोवर:- इस सरोवर का सार वर्णन प्रमाण-संख्या आदि तिगिंछ सरोवर के सदृश है। अन्तर इतना ही है कि यहां बुद्धि नाम की देवी निवास करती है। Jain Educationa International ५- महापुण्डरीक सरोवर: इस सरोवर का सारा वर्णन महापद्म के सदृश है। अंतर इतना ही है कि इसमें कीर्ति देवी निवास करती है। ६- पुण्डरीक सरोवर- इस सरोवर का सारा वर्णन पद्मसरोवर के सदृश है। यहां लक्ष्मी नाम की देवी रहती है। विशेष - सरोवर के चारों ओर वेदिका से वेष्टित वनखण्ड हैं वे योजन चौड़े हैं सरोवर के कमल पृथ्वी कायिक हैं वनस्पतिकायिक नहीं हैं फिर भी इनमें बहुत ही उत्तम सुगन्धि आती है। ये क्षेत्र जम्बूद्वीप में कहां-कहां हैं तथा इनका प्रमाण कितना-कितना है ? जिनमंदिर- इन सरोवरों में जितने कमल कहे हैं वे महाकमल हैं इनके अतिरिक्त क्षुद्र कमलों की संख्या बहुत है। इन सब कमलों के भवन में एक-एक जिनमंदिर है इसलिए जितने कमल हैं उतने ही जिनमंदिर हैं। प्रश्न- आपने कुलाचल एवं सरोवर के साथ ही ७ क्षेत्र बताये थे-सात क्षेत्रों को जानने की आपने इच्छा व्यक्त की है। प्रत्येक का है। यह १ लाख योजन विस्तृत है इसके १९०वां भाग अर्थात् 526 भरतक्षेत्र के छह खण्ड भरतक्षेत्र के मध्य में विजयार्थ पर्वत एवं गंगा-सिन्धु नदियों के निमित्त से भरतक्षेत्र के ६ खन्ड हो गये हैं। इसमें ५ म्लेच्छ उत्तर वर्णन क्रम-२ से किया जा रहा है। मध्यलोक के सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप 6 -योजन प्रमाण भरतक्षेत्र है। इस भरतक्षेत्र के ६ खण्ड हैं। 19 For Personal and Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६६१ खण्ड हैं एवं मध्य का एक आर्यखण्ड है। इसी आर्यखण्ड में आज का उपलब्ध सारा विश्व है। विजया के बीच में होने से एक ओर उत्तर भरत एवं दूसरी ओर दक्षिण भरत ऐसे भी २ विभाग हो गये हैं। दोनों भागों में ३-३ खण्ड हो गये हैं। विजया पर्वत- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बा दोनों ओर लवण समुद को स्पर्श करता हुआ विजयार्ध पर्वत है। यह ५० योजन चौड़ा एवं २५ योजन ऊँचा है। यह रजतमयी है। इसमें ३ कटनी हैं अन्तिम कटनी पर कूट और जिनमंदिर सद्धकूट, भरतकूट, खंड प्रपात, मणिभद्र, विजया कुमार, पूर्णभद्र, तिमिश्रगुहकूट, भरतकूट और वैश्रवणकूट ऐसे ९ कूट हैं। सिद्धकट में जिनमत व शेष में देव-देवियों के निवास हैं। विजया पर्वत में दो महागुफाएं- इस विजयार्ध पर्वत में ८ योजन ऊँची ५० योजन लम्बी और १२ योजन चौड़ी ऐसी दो गुफायें हैं। गुफाओं के नाम तमिस्र गुफा एवं खण्डप्रपात गुफा है। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट ८ योजन ऊँचे, ६ योजन चौड़े हैं। गंगा सिन्धु नदियां इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। इन गुफाओं के दरवाजों को चक्रवर्ती अपने दण्डरत्न से खोलते हैं और गुफाओं के भीतर काकिणी रत्न से प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छों में जाते हैं। चक्रवर्ती द्वारा इस पर्वत तक इधर के ३ खण्ड जीत लेने से आधी विजय हो जाती है अतः इस पर्वत का विजयार्ध यह नाम सार्थक है ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी विजयार्ध पर्वत है। गंगा-सिन्धु नदी- हिमवान् पर्वत के पद्म सरोवर की चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार हैं। उनमें पूर्व तोरणद्वार से गंगानदी निकलती है और विजयार्ध की गुफा में प्रवेश करती हुई लवण समुद्र में चली जाती है। इसी प्रकार पद्म सरोवर के पश्चिम तोरणद्वार से सिन्धुनदी निकलती है जो कि पश्चिम की ओर लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती है। वृषभाचल पर्वत- उत्तर भरत के मध्य के खण्ड में एक पर्वत है जिसका नाम वृषभ है। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा है। इसकी चौड़ाई नीचे १०० योजन, बीच में ७५ योजन, ऊपर ५० योजन विस्तार वाला गोल है। इस पर्वत पर वृषभ नाम से प्रसिद्ध व्यंतर देव का भवन है जिसमें जिनमंदिर है। चक्रवर्ती छह खण्ड को जीतकर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर अपनी विजय की प्रशस्ति लिखना चाहता है उस समय देखता है कि यह तो सब तरफ से प्रशस्तियों से भरा हुआ है तब चक्रवर्ती का मान भंग हो जाता है कि अरे!मेरे समान तो अनंत चक्रवर्ती इस वसुधा पर हो गये हैं जिन्होंने ६ खण्ड पृथ्वी को जीतकर इस पर अपनी प्रशस्ति लिखी है। अतः अभिमान से रहित होकर दण्डरत्न से एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम इस पर्वत पर अंकित करता है। आर्यखंड और म्लेच्छखंड की व्यवस्था:- भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडों में सुषमा सुषमा से लेकर षट्काल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में यहां भोग भूमि की व्यवस्था रहती है और चतुर्थ काल में कर्मभूमि की व्यवस्था में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण ऐसे ६३ शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इस बार यहां हुण्डावसर्पिणी के दोष से ९ नारद और ९ रुद्र भी उत्पन्न हुए हैं। पुनः पंचम काल और छठा काल आता है । आज कल इस आर्यखंड में पंचमकाल चल रहा है जिसके २५०० वर्ष लगभग व्यतीत हो चुके हैं १८५०० वर्ष शेष हैं। आर्यखण्ड कितना बड़ा है:- यह भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग (५२६, ६/१९) योजन है। इसके बीच में ५० योजन विस्तृत विजयार्ध है। उसे घटाकर आधा करने से दक्षिण भरत का प्रमाण आता है। यथा (५२६, ६/१९-५०)+ २ = २३८, ३/१९ योजन है। हिमवान पर्वत पर पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है, गंगा सिन्धु नदियाँ पर्वत पर पूर्व-पश्चिम में ५-५ सौ योजन बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। अतः यह आर्यखण्ड पूर्व-पश्चिम में १०००+५००+५००= २००० योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में २३८ योजन चौड़ा है। इनको आपस में गुणा करने पर २३८ योजन २०००= ४७६००० योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हुआ। इसके मील बनाने से ४७६०००x४०००= १९०४०००००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल होता है। आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है और पश्चिम में इतनी दूसरी पर ही सिन्धु नदी की तट वेदी है। अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर में विजया, पूर्व में गंगा नदी एवं पश्चिम में सिन्धु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में (११९४४०००= ४७६०००) चार लाख छियत्तर हजार मील जाने पर लवण समुद्र है। इतना ही उत्तर जाने पर विजयार्ध पर्वत है। ऐसे ही अयोध्या से पूर्व में (१०००x४००= ४००००००) चालीस लाख मील जाने पर गंगा नदी एवं पश्चिम में इतना ही जाने पर सिन्धु नदी है। ___ आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। जम्बूद्वीप, उसके अन्तर्गत पर्वत, नदी, सरोवर, क्षेत्र आदि के माप योजन २००० कोश का माना गया है। जम्बूद्वीपपण्णत्ति की प्रस्तावना में भी इसके बारे में अच्छा विस्तार है। जिसके कुछ अंश देखिये इस योजन की दूरी आज कल के रैखिक माप में क्या होगी? यदि हम २ हाथ = १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से एक योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम एक कोस को आजकल के २ मील के बराबर मान लें तो एक योजन ४००० मील के बराबर प्राप्त होता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२] . वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला निष्कर्ष यह निकलता है कि जम्बूद्वीप में जो भी सुमेरु हिमवान् आदि पर्वत हैमवत, हरि, विदेह आदि क्षेत्र, गंगा आदि नदियाँ, पद्म आदि सरोवर हैं ये सब आर्यखंड के बाहर हैं। आर्यखण्ड में क्या-क्या है-इस युग की आदि में प्रभु श्री ऋषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की रचना की थी तथा स्वयं प्रभु श्री ऋषभदेवजी ने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्षों की व्यवस्था बनाई थी, जिसका विस्तार आदिपुराण में है। उस समय के बनाये गये बहुत कुछ ग्राम, नगर, देश आज भी उपलब्ध हैं। यथा “अथानन्तर प्रभु के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये। इन्द्र ने शुभ मुहूर्त में अयोध्या पुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। पुनः पूर्व आदि चारों दिशाओं में भी जिनमंदिर बनाये। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित गाँध तथा खेड़ों आदि की रचना की। सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्डू, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुम, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचा, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, कराहट, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, आभिर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चौण, केरल, दारु, अभीसार सौवीर, शूरसेन, अप्रांतक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदी, पल्लव, काम्बोज़, आरट्ट, बाल्हिक, तरुष्क, शक और केकय, इन देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया। २- हैमवत क्षेत्र रोहित-रोहितास्या नदी- पद्मसरोवर के उत्तरतोरणद्वार से रोहितास्या नदीं निकल कर तथा महापद्म सरोवर के दक्षिण तोरण द्वार से रोहित नदी निकलकर हैमवत् क्षेत्र में गिरती हुई पूर्व पश्चिम लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती है। नाभिगिरिपर्वत- हैमवत क्षेत्र के बीचोंबीच में एक नाभिगिरि पर्वत है यह गोल है। इसकी ऊंचाई १००० योजन तथा विस्तार नीचे व ऊपर सभी जगह १००० योजन है। यह पर्वत श्वेत वर्ण का है इसका नाम श्रद्वावान, है। इस पर स्वाति नामक व्यंतर देव का भवन है तथा उसमें जिनमंदिर भी है। ३- हरिक्षेत्रहरित-हरिकांता नदी- महापद्म सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से हरिकांता नदी तथा निषध पर्वत के तिगिंछ सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से हरित नदी निकलकर हरिक्षेत्र में बहती हुई पूर्व-पश्चिम लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती है। नाभिगिरि- हरिक्षेत्र में विजयवान नाम का नाभिगिरि पर्वत १००० योजन ऊँचा तथा १००० योजन विस्तार वाला श्वेतवर्ण का है। इस पर धारण नामक व्यंतर देव का भवन जिनमंदिर सहित है। ४. विदेह क्षेत्र सीता-सीतोदा नदी- सीतोदा नदी निषध पर्वत पर तिगिंछ सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से निकलती है तथा सीता नदी नीलपर्वत के केसरी सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से निकल कर विदेह क्षेत्र में मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा के समान प्रवाह करती हुई पूर्व पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। सीता नदी पूर्व विदेहक्षेत्र में और सीतोदानदी पश्चिम विदेह क्षेत्र में प्रवेश करके बहती हुई पश्चिम लवण समुद्र में प्रवेश करती है। विदेह क्षेत्र का विस्तार:- इस विदेह क्षेत्र का विस्तार336844- योजन है। इस क्षेत्र के मध्य की लम्बाई १ लाख योजन है। सुमेरु पर्वतः विदेह क्षेत्र के बीचों-बीच में सुमेरु पर्वत है। इसका वर्णन पीछे कर आये हैं। गजदन्त पर्वतः- विदेह क्षेत्र में स्थिर सुमेरु पर्वत की चारों विदिशाओं में ४ गजदंत पर्वत हैं ये हाथी के दांत के समान आकार वाले हैं इसीलिए इन्हें गजदन्त यह सार्थक नाम प्राप्त है। भद्रसाल वन में मेरु की ईशान दिशा में माल्यवान गजदन्त, आग्नेय दिशा में महासौमनस गजदंत, नैऋत्य दिशा में विद्युत्प्रभ गजदंत और वायव्य दिशा में गंधमादन गजदंत पर्वत है। दो गजदंत एक ओर मेरु तथा दूसरी तरफ निषध पर्वत का स्पर्श करते हैं। इसी प्रकार दो गजदंत एक ओर मेरु दूसरी ओर नील पर्वत का स्पर्श करते हैं। ये गजदंत सर्वत्र ५०० योजन चौड़े हैं और निषध-नील पर्वत के पास ४०० योजन ऊँचे, तथा मेरु के पास ५०० योजन ऊँचे हैं इनकी लम्बाई 3020960 योजन है। माल्यवंत और विद्युत्प्रभ इन दो गजदंतों में सीता-सीतोदा नदी निकलने की गुफा है। गजदंतों के वर्ण:- माल्यवान पर्वत का वर्ण वैडूर्य मणि जैसा है। महासौमनसं का रजतमय, विद्युत्प्रभ का तपाये सुवर्ण सदृश और गंधमादन का सुवर्ण सदृश है। माल्यवान गजदंत पर नव कूट- सिद्धकूट, माल्यवान, उसरकौरव, कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता, और हरिसह ये ९ कूट हैं। सुमेरु के पास वाला १. आदिपुराण पृष्ठ ३६० Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६६३ सिद्धकूट है, यह १२५ योजन ऊँचा, मूल में १२५ योजन विस्तृत तथा ऊपर 621 योजन विस्तृत है। इस पर जिनमंदिर है। शेष कूटों पर देव-देवियों के आवास हैं। महा सौमनस पर्वत पर ७ कूट- सिद्धकूट, सौमनस कूट, देवकुरुकूट, मंगलकूट, विमलकूट, कांचनकूट, वशिष्ठ कूट ये ७ कूट हैं। विद्युत्प्रभ के ९ कूटों के नाम- सिद्धकूट, विद्युत्प्रभ, देवकुरु, पद्म, तपन, स्वस्तिक, शतज्वाल, सीतोदा और हरिकूट। गंधमादन के ७ कूटों के नाम- सिद्ध कूट, गंधमादन, उत्तरकुरु, गंध मालिनी, लोहित, स्फटिक, और आनंद ये ७ कूट हैं। इन सभी पर्वतों पर सिद्धकूट में जिनमंदिर हैं शेष कूटों पर देव-देवियों के भवन हैं। बत्तीस विदेहःमेरु की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है। पूर्व विदेह के बीच में सीता नदी है। पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों के दक्षिण-उत्तर तट होने से चार विभाग हो जाते हैं। इन एक-एक विभाग में आठ-आठ विदेह देश हैं। पूर्व पश्चिम में भद्रसाल की वेदी है उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे देवारण्य व भूतारण्य की वेदी ये ९ हुए। इन ९ के बीच-बीच में एक-एक विदेह देश ऐसे ८ विदेह देश हैं। इस प्रकार सीता-सीतोदा नदी के उत्तर-दक्षिण तट संबंधी ३२ विदेह हो जाते हैं। सोलह वक्षार पर्वत और बारह विभंगा नदी वक्षार पर्वतों के नाम- चित्रकूट, पद्मकूट, नलिनकूट और एक शैल, त्रिकूट, वैश्रवण, अंजनात्मा, अंजन, श्रद्धावान, विजटावान, आशीविष, सुखावह, चन्द्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल और देवमाल ये १६ वक्षार पर्वत हैं। वक्षार पर्वत का वर्णन:- ये सभी वक्षार पर्वत सुवर्णमय हैं। प्रत्येक वक्षार पर्वतों का विस्तार ५००० योजन और लम्बाई 16592-योजन है तथा ऊँचाई निषध नील पर्वत के पास ४०० योजन एवं सीता-सीतोदा नदी के पास ५०० योजन है। प्रत्येक वक्षार पर चार-चार कूट हैं। नदी के तरफ सिद्धकूट हैं उन पर जिन चैत्यालय है। शेष तीन-तीन कूटों पर देव-देवियों के भवन हैं। विभंगा नदियों के नामः- गंधवती, द्रहवती, पंकवती, तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला, क्षारोदा, सीतोदा, स्रोतोवाहिनी, गंभीरमालिनी, फेनमालिनी और ऊर्मिमालिनी ये १६ विभंगा नदियां हैं। देवारण्यभूतारण्यवन- पूर्व विदेह के अंत में सीता नदी के दक्षिण-उत्तर दोनों तट में दो देवारण्य नाम के वन हैं और पश्चिमविदेह के अंत में सीतोदा नदी के दक्षिण-उत्तर तट पर दो भूतारण्य नाम के वन हैं। विदेह के ३२ देशों के नाम:- कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ती, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया, मंगलावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद, सरित,-वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी ये ३२ देश हैं। कच्छा विदेह का वर्णन:- यह कच्छा विदेह क्षेत्र पूर्व-पश्चिम में 22127योजन विस्तृत है और दक्षिण उत्तर में 165922 योजन लम्बा है। इस क्षेत्र के बीचोंबीच में ५० योजन चौड़ा २५ योजन ऊँचा 22127 योजन लम्बा विजयार्ध पर्वत है। इस विजयार्ध में भी भरतक्षेत्र के विजया के समान दोनों पार्श्व भागों में दो-दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं। इन दोनों श्रेणियों पर विद्याधर मनुष्यों की ५५-५५ नगरियाँ हैं। इस विजयार्ध पर्वत पर ९ कूट हैं। इनमें से। कूट पर जिनमंदिर और शेष ८ कूटों पर देवों के भवन हैं। नील पर्वत की तलहटी में गंगा-सिन्धु नदियों के निकलने के लिए २ कुण्ड बने हैं। इन कुण्डों से ये दोनों नदियाँ निकलकर सीधी बहती हुई विजयार्ध पर्वत की तिमिस्त्र गुफा और खंडप्रपात गुफा में प्रवेश कर बाहर निकलकर क्षेत्र में बहती हुई आगे आकर सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस कच्छा देश में विजयार्ध और गंगा-सिन्धु के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं इनमें से नदी के पास के मध्य में आर्य खंड है अरौ शेष ५ म्लेच्छ खंड हैं। इस आर्यखण्ड के बीचों बीच में 'क्षेमा' नाम की नगरी है जो इसकी मुख्य राजधानी है। यह एक कच्छा विदेह देश का वर्णन है। इसी प्रकार से महाकच्छा आदि अन्य ३१ देशों की भी व्यवस्था है। एक-एक देश के छह-छह खण्ड:- भरत-ऐरावत क्षेत्र के समान यहां पर भी प्रत्येक देश के ६-६ खण्ड हैं। यहां भी प्रत्येक देश के मध्य विजयार्ध पर्वत हैं। ये विदेह देश पूर्वापर 22127 योजन विस्तृत हैं। प्रत्येक क्षेत्र के दक्षिण-उत्तर लम्बाई 165922 योजन प्रमाण है। इन विदेह देशों के मध्य विजयार्ध पर्वत ५० योजन चौड़ा और देश के समान 2212 योजन लम्बा है। इन विजयों में भी दोनों पार्श्व भागों में २-२ श्रेणियां हैं। अन्तर इतना ही है कि इनमें विद्याधर श्रेणियों में दोनों तरफ ५५-५५ नगरियाँ हैं। इन विजयाओं पर भी ९-९ कूट हैं और २-२ महागुफाएं हैं। विदेह की गंगा-सिन्धु नदियाँ-सीता-सीतोदा के दक्षिण तट के देशों में २-२ नदियाँ हैं उनके नाम गंगा-सिंधु हैं। वे नीलपर्वत के पास जो कुंड हैं उनसे Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४] नीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला निकलकर सीधे दक्षिण दिशा में आती हुई विजयाध की गुफा से निकलकर आगे आकर सीता-सीतोदा नदी में मिल जाती है इनके उद्गम स्थान में तोरणद्वार 6योजन चौड़ा और प्रवेश स्थान में तोरणद्वार 621 योजन चौड़ा है। विदेह देश की रक्ता-रक्तोदा नदियां- सीता-सीतोदा के उत्तर तट में २-२ नदियां हैं। उनके नाम रक्ता-रक्तोदा हैं। ये नदियां निषधपर्वत के पास कुंडों से निकलकर उत्तरदिशा में जाती हुई विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर आगे निकलकर सीता-सीतोदा नदियों में मिल जाती हैं इनके भी उद्गम प्रवेश के तोरणद्वार पूर्वोक्त गंगा-सिन्धु के समान हैं। प्रत्येक देश में एक-एक विजयाई और दो-दो नदियों के निमित्त से छह-२ खण्ड हो जाते हैं। इनमें एक आर्यखंड और पांच म्लेच्छ खंड कहलाते हैं। ___पूर्वोक्त कक्षा आदि विदेह देशों की मुख्य-मुख्य राजधानी इन आर्यखंडों में हैं। वृषभाचल पर्वत- इन 32 विदेह के प्रत्येक के पांच-पांच म्लेच्छ खण्ड हैं जिसमें मध्य के म्लेच्छ खण्ड में १-१ वृषभाचल पर्वत हैं। अतः विदेह क्षेत्र में ३२ वृषभाचल पर्वत हो गये हैं। इन पर वहां के चक्रवर्ती अपनी-अपनी प्रशस्तियां लिखते हैं। यमकगिरि- सीता-सीतोदा नदियों के तट पर चित्र-विचित्र एवं यमक और मेघ नाम के ४ गोल पर्वत हैं। जिन्हें यमकगिरि संज्ञा है। ये पर्वत १००० योजन ऊँचे तथा नीचे १००० योजन विस्तृत व ऊपर ५०० योजन विस्तृत हैं। इन पर्वतों पर अपने-अपने नाम वाले व्यंतर देवों के भवन हैं। सीता-सीतोदा नदी के २० सरोवरः- सीता-सीतोदा नदी के मध्य २० सरोवर हैं इनकी लम्बाई १००० योजन एवं चौड़ाई ५०० योजन है। इन सरोवरों में एक-एक मुख्य कमल एक-एक योजन विस्तृत प्रमाण वाले हैं। शेष परिवार कमल १४०११५ हैं। इन कमलों पर नागकुमारी देवियां अपने-अपने परिवार सहित रहती हैं। कांचनगिरी:- इन २० सरोवरो के दोनों तटों पर पंक्तिरूप से पांच-पांच कांचगगिरी हैं। एक तट सम्बन्धी २०४५=१०० दूसरे तट संबंधी २०४५=१०० ऐसे २०० कांचनगिरि हैं ये पर्वत १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत एवं ऊपर ५० योजन विस्तृत हैं। इन पर्वतों पर अपने-अपने पर्वत के नाम वाले देवों के भवन हैं। इनमें रहने वाले देव शुक (तोता) के वर्ण वाले हैं। देवों के भवनों के द्वार सरोवरों के सन्मुख हैं। दिग्गजपर्वतः- देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि में और पूर्व पश्चिम भद्रसाल वन में सीता-सीतोदा महानदी हैं। उनके दोनों तटों पर दो-दो दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। ये पर्वत आठ हैं। १०० योजन ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत एवं ऊपर ५० योजन विस्तृत गोल हैं। इनके नाम पद्मोत्तर, नील, देवकुरु में स्वस्तिक, अंजन, पश्चिम भद्रसाल में कुमुद, पलाश उत्तरकुरु में अवतंस, रोचन हैं। इन पर्वतों पर दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि- सुमेरु और निषध पर्वत के मध्य में देवकुरु और सुमेरु तथा नील पर्वत के मध्य में उत्तरकुरु है। कुरु क्षेत्र का विस्तार 118426-योजन है। कुरुक्षेत्रों का वृत्त विस्तार 71143 -योजन है। इसमें उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। जम्बूवृक्षः- सुमेरु पर्वत के ईशान कोण में नील पर्वत के पास जम्बूनाम का वृक्ष है। यह ८ योजन ऊँचा है। इसकी वज्रमय जड़ दो कोस गहरी है। इस वृक्ष का स्कन्ध २ कोस मोटा एवं २ योजन ऊँचा है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में ४ महा शाखाएं हैं इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन लम्बी और इतने ही अन्तर से है। इनके अतिरिक्त क्षुद्र शाखाएं अनेकों हैं। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है। जामुन के वृक्ष के समान इसमें फल लटकते हैं अतः यह जम्बूवृक्ष कहलाता है। जम्बूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनमंदिर है। शेष ३ शाखाओं पर आदर-अनादर नाम के व्यंतर देवों के भवन है। इस वृक्ष के चारों तरफ बारह पद्म वेदिकाएं हैं प्रत्येक वेदिका में चार-चार तोरणद्वार हैं उनमें इस जम्बूवृक्ष के परिवार वृक्ष हैं उनकी संख्या १४०११९ है। इनमें चार देवांगनाओं के ४ वृक्ष अधिक हैं। अर्थात् पदमद्रह के परिवार की संख्या १४०११५ थी। इस वृक्ष के परिवार वृक्षों का प्रमाण मुख्य वृक्ष से आधा-आधा है। शाल्मली वृक्षः- इसी प्रकार निषध कुलाचल के पास सुमेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा में देवकुरु क्षेत्र में रजतमयी स्थल पर शाल्मलि वृक्ष है। इसका सारा वर्णन जम्बूवृक्ष के समान है। इसकी दक्षिण शाखा पर जिनमंदिर है शेष ३ शाखाओं पर वेणु और वेणुधारी देवों के भवन हैं। इनके परिवार वृक्ष भी पूर्वोक्त समान हैं। इस प्रकार विदेह क्षेत्र के सुमेरुपर्वत, गजदंत, वक्षारपर्वत, विभंगानदी, बत्तीस देश, विजयार्ध, वृषभाचल, गंगा सिन्धु आदि नदियां, यमकगिरि, नदी के मध्य सरोवर, दिग्गज और जम्बू-शाल्मलिवृक्ष का वर्णन संक्षेप से किया गया है। ५- रम्यकक्षेत्र नारी नरकांता नदीः इस रम्यक क्षेत्र का सारा वर्णन हरिक्षेत्र के समान है। यहां पर नील पर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकांता नदी निकली है और रुक्मि पर्वत के महा पुण्डरीक सरोवर के दक्षिण तोरण द्वार से नारी नदी निकलती है। ये नदियां नारी-नरकांता कुंड में गिरती हैं। यहां के नाभिगिरि का नाम पद्मवान है। इस पर 'पद्म' नाम का व्यंतर देव रहता है। ६- हैरण्यवत क्षेत्र सुवर्णकूला-रूप्यकूला नदी:- इस हैरण्यवत क्षेत्र का सारा वर्णन हैमवत क्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर रुक्मि पर्वत के महापुण्डरीक सरोवर के उत्तर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी और शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर के दक्षिण तोरण द्वार से सुवर्ण कूला नदी निकलती है। यहां पर नाभिगिरि का गंधवान नाम है उस पर 'प्रभास' नाम का देव रहता है। ६६५ ७- ऐरावत क्षेत्र इस ऐरावत क्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के सदृश है। इसमें भी बीच में विजयार्थ पर्वत है उस पर नव कूट है। सिद्धकूट, उत्तरार्ध ऐरावत, तामिलगुह, माणिभद्र विजयार्थ कुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्थ, ऐरावत, और वैश्रवण यहां पर शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के पूर्व पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता-रक्तोदा नदियां निकलती है। जोकि विजयार्ध की गुफा से निकलकर क्षेत्र में बहती हुई पूर्व पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती है अतः यहां पर छह खंड हैं उसमें भी मध्य का आर्यखंड है। इस प्रकार संक्षेप में सातों क्षेत्रों का वर्णन हुआ है। लवण समुद्र 1 लवणसमुद्र जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रापृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचावने हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों ओर से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है। समभूमि से आकाश में इसकी जल शिखा है यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊँची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १९०००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११.७/८ योजन प्रमाण है। गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है। अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिए। अमावस्या के दिन उक्त जल शिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है। अतः ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमशः प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है। १६०००-११०००/१५=५०००/ १५, ५०००/ १५=३३३, १/३ योजन तीन सौ तैंतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है। भूभ्रमण खण्डन कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यही पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है हमेशा ही ऊपर नीचे घूमती रहती है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणारूप अवस्थित हैं, घूमते नहीं है। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि । दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पण्डित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरूद्ध कोई कोई विद्वान प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जलभाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं। किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती है थोड़े ही दिनों में परस्पर एक दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विद्वान् या ज्योतिष यन्त्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वार बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे परिवर्तन तो दिन रात होते ही रहते हैं। इसका उत्तर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध आता है। Jain Educationa International जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है। अतः भू अचला ही है। भ्रमण नहीं करती है। पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहाँ का तहाँ स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता । अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेंगे। घूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा। For Personal and Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] दूसरी बात यह है कि पृथ्वी स्वयं भारी है। अधःपतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहाँ के तहाँ बने रहें यह बात असंभव है। यहाँ पुनः कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहाँ के तहाँ ही स्थिर बने रहते हैं। इस पर जैनाचार्यों का उत्तर है कि जो प्रेरक वायु इस पृथ्वी को सर्वदा घुमा रही है, वह वायु इन समुद्र आदि को रोकने वाली वायु का घात नहीं कर देगी क्या? वह बलवान् प्रेरक वायु तो इस धारक वायु को घुमाकर कहीं की कहीं फेंक देगी। सर्वत्र ही देखा जाता है कि यदि आकाश में मेघ छाये है और हवा जोरों से चलती है तब उस मेघ को धारण करने वाली वायु को विध्वंस करके मेघ को तितर-बितर कर देती है, ये बेचारे मेघ नष्ट हो जाते हैं, या देशांतर में प्रयाण कर जाते हैं। उसी प्रकार अपने बलवान वेग से हमेशा भूगोल को सब तरफ से घुमाती हुई जो प्रेरक वायु है, वह वहाँ पर स्थिर हुए समुद्र, सरोवर आदि को धारने वाली वायु को नष्ट भ्रष्ट कर ही देगी। अतः बलवान् प्रेरक वायु भूगोल को हमेशा घुमाती रहे और जल आदि की धारक वायु वहां बनी रहे, यह नितान्त असंभव है। पुनः भूभ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। अतएव सभी भारी पदार्थ भूमि के अभिमुख होकर ही गिरते हैं। यदि भूगोल पर से जल गिरेगा तो भी वह पृथ्वी की ओर ही गिरकर वहां का वहां ही ठहरा रहेगा। अतः वह समुद्र आदि अपने-अपने स्थान पर ही स्थिर रहेंगे। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपका कथन ठीक नहीं है। भारी पदार्थों का तो नीचे की ओर गिरना ही दृष्टिगोचर हो रहा है। अर्थात् पृथ्वी में एक हाथ का लम्बा चौड़ा गड्ढा करके उस मिट्टी को गड्डे की एक ओर ढलाऊ ऊँची कर दीजिये। उस पर गेंद रख दीजिये, वह गेंद नीचे की ओर गड्ढे में लुढ़क जायेगी। जबकि ऊपर भाग में मिट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति के होने से गेंद को ऊपर देश में ही चिपकी रहना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं होता है। अतः कहना पड़ता है कि भले ही पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होवे, किन्तु उस आकर्षण शक्ति को सामर्थ्य से समुद्र के उलादिकों का घूमती हुई पृथ्वी से तिरछा या दूसरी ओर गिरना नहीं रुक सकता है। 1 जैसे कि प्रत्यक्ष में नदी, नहर आदि का जल ढलाऊ पृथ्वी की ओर ही यत्र-तत्र किधर भी बहता हुआ देखा जाता है और लोहे के गोलक, फल आदि पदार्थ स्वस्थान से च्युत होने पर गिरने पर नीचे की ओर गिरते हैं। इस प्रकार जो लोग आर्यभट्ट या इटली, यूरोप अदि देशों के वासी विद्वानों की पुस्तकों के अनुसार पृथ्वी का भ्रमण स्वीकार करते हैं और उदाहरण देते हैं कि जैसे अपरिचित स्थान में नौका में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नदी पार कर रहा है। उसे नौका तो स्थिर लग रही है और तीरवर्ती वृक्ष मकान आदि चलते हुए दिख रहे हैं। परन्तु यह भ्रम मात्र है, तद्वत् पृथ्वी की स्थिरता की कल्पना भी भ्रममात्र है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि साधारण मनुष्य को भी थोड़ा सा ही घूम लेने पर आंखों में घूमनी आने लगती हैं, कभी-कभी खंड देश में अत्यल्प भूकम्प आने पर भी शरीर में कँपकँपी, मस्तक में भ्रांति होने लग जाती है तो यदि रेल गाड़ी के वेग से भी अधिक वेगरूप पृथ्वी की चाल मानी जायेगी, तो ऐसी दशा में मस्तक शरीर, पुराने गृह, कूपजल आदि की क्या व्यवस्था होगी? बुद्धिमान् स्वयं इस बात पर विचार कर सकते हैं। तात्पर्य यह निकला जैनागम के अनुसार पृथ्वी स्थिर है और सूर्यचन्द्र आदि भ्रमणशील है। इस प्रकार संक्षेप से यह जंबूद्वीप का वर्णन किया गया है। हस्तिनापुर में आगम आधार से जो जम्बूद्वीप रचना का निर्माण किया गया है उसमें उक्त प्रकरण में से कतिपय रचना दर्शाई गई है। यहाँ ७८ अकृत्रिम चैत्यालय और २०१ देवभवन बने हैं जो अकृत्रिम चैत्यालयों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। इस जम्बूद्वीप का दर्शन कर आप सभी अपने मानवजन्म को सफल करें तथा आगमोक्त जम्बूद्वीप का ज्ञान प्राप्त करें यही मंगल भावना है। क्षेत्र और पर्वत क्षेत्र भरत पर्वत हिमवान क्षेत्र हैमवत Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला विस्तार दक्षिण-उत्तर 526 योजन 19 105214129 21059 लम्बाई ऊँचाई भोगभूमि या कर्मभूमि वर्ण पर्वत पूर्व-पश्चिम पर्वत की क्षेत्रों में के 14471 24931 37674 5 19 18 19 16 19 100 कर्मभूमि भोगभूमि अशाश्वत भोगभूमि जघन्य सुवर्णमय For Personal and Private Use Only कूट संख्या कूटों की पर्वतों पर ऊँचाई 11. 25 योजन चौड़ाई मूल में अंत में 25 12, 1/2 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६६७ रजतमय 85050 25 पर्व-महाहिमवान क्षेत्र-हरि पर्वत-निषध क्षेत्र-विदेह _421010 _842118 168427 33684 19 9 100 10050 पर्वत-नील 5393160 200 7390117 भोगभूमिमध्यम 941567, 400 तप्तसुवर्ण 10000 कर्मभूमि (पू.प.में शाश्वत भोगभूमि (द.उ.में) उत्कृष्ट __941567, 400 वैडूर्यमणि 7290117 भोगभूमिमध्यम 53931 6 200 रजतमय भोगभूमिजघन्य 2493118 100 सुवर्णमय 114715 कर्मभूमि और भोगभूमि अशाश्वत 9 100 100 50 क्षेत्र-रम्यक पर्वत-रूक्मी क्षेत्र-हैरण्यत पर्वत-शिखरी ____8 50 168427 842118 421010 210512 105210 5269 50 25 11 25 25 12,1/2 क्षेत्र-ऐरावत JAMBŪDVĪPA IN JAINA GEOGRAPHY -Dr. S.S. LISHK M.A. (Maths.), Ph.D. (Jaina Astronomy) Govt. In-Service Training Centre, ___Patiala-147001 (Pb.) Jambūdvipa, an isle of Jambū, is the circular land mass alternately surrounded by ocean rings and land masses, with the mount Meru located at its centre. Jambūdvīpa is divided into seven regions namely Bharata, Haimavata, Hari, Videha, Ramyaka, Hairanyavata and Airāvata. These regions are the natural creations due to the placement of six mountains viz. Himavāna, Mahāhimavāna, Nisadha, Nila, Rukmi, and Siķhari. The North-Southern stretch of Bharata region is 526 6/19 yojanas. The stretch goes on doubling till we reach Videha region after which it goes on reducing by one-half. Two rivers flow in each region. Various mathematical descriptions of Jambūdvipa and its contents represent a very beautiful picture of the geographical world as depicted by Her Holiness Aryikaratna Sri Jnanamati Mataji in her learned work *Jaina Geography'. Jaina Geography is a unique field for deep scientific research. The concept of Jambūdvipa is the fundamental key to unlock the glorious mysteries of Jaina Geography Here it is worth-mentioning that geographical knowledge as extant in Jaina canonical literature is not merely a piece of fiction as it may appear to an amateur scholar. As a matter of fact, in order to make out the underlying sense implied in the Jaina geographical texts, attention should be focussed on several points such as given below: Firstly, the terminology used in the agamas has to be, of course, understood with reference to the time of compilation of the texts. Secondly, different systems of length units should be kept in view while Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E&C] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला converting the length of a yojana into the number of British miles. Time and place have to be kept in view while dealing with any length unit. Thirdly, while locating the different places on earth, thc phenomenon of continual change over the surface of the earth due to earthquakes and volcanic eruptions has to be observed seriously. Fourthly, some geographical descriptions have multiple meanings. For example, mount Meru located at the centre of Jambūdvipa not only represents a Jaina geographical site on one hand but its dimensions also represent, on the other hand, such a consistent mathematical picture implying the astronomical notion of obliquity of ecliptic in it. Fifthly, many of the geographical descriptions have been observed through extra-sensory perception through the divine approach by the holy Jainacharyas. For example, some of the towns of Nagakumara devas as located in celestial space at a distance of 700 yojanas from coast and at a height of 700 1/2 yojanas top of lavanasamudra, cannot be observed through the physical eye we have. In the light of aforesaid discussion, much care has to be taken in observation while understanding the concept of Jambūdvipa in Jaina geography. Jambūdvīpa appears to represent real geographical situations in remote antiquity. But at the same time geographical situations implying a consistent picture of dimensions of Jambūdvipa appear to have been extended to the realms of metaphysical world. Thus Jainacharyas seem to have contemplated to trace the path of spiritual growth and development in terms of solid physical parameters. Several mountains and rivers may represent several hurdles in the path of spiritual uplift. Her holiness Aryikaratna Jnanamati Mataji has very aptly attempted to delve deep into the secrets of Jaina geography, representing both physical and metaphysical worlds in their true perspectives. A marvellous creation of Sumeru at the centre of Jambūdvipa with all its descriptive contents has glorified the land of Hastinapur charged with the spiritual radiations of Her holiness Aryikaratna Jnanamati Mataji for years together. Her Holiness has solidified the path of liberation through the various mountains and rivers spread over Jambūdvīpa leading to the spiritual uplift towards the heights of various goals at the mount Meru. Apart from physical and spiritual implications of Jaina geography, its social, psychological and economic implications deserve a separate account. It is the high time when Digambar Jaina Institute of Cosmographical Research, Hastinapur should be developed as an academically research oriented institution with a camp office at Delhi as well under the kind patronage of Her Holiness Pujya Jnanamati Mataji. Long live Jambudvipa! Long live Pujya Jnanamati Mataji! FURTHER READING 1. Jaina Geography by Pujya Jnanamati Mataji, original in Hindi. Translated in English by Dr. S.S. LISHK, DJICR, Hastinapur. 2. Jaina Astronomy by Dr. S.S. LISHK, Vidyasagar Publications, B-5/262, Yamuna Vihar, Delhi-110053. 3. Psycho-Social aspects of Jaina Mathematics, by Dr. Amarjit Kaur and Dr. S.S. Lishk, published in JAINA JOURNAL, Vol. 22, No. 2, pp. 70-74. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६६९ Sugarcane and its correlation with Hastinapur -Dr. Radha Jain M.Sc., Ph.D. (Botany) 488/14, JI Behind Jain Mandir, Dali Ganj, Lucknow. Hastinapur teerth kshetra is a million years old historical place in U.P. (India). According to Jain religions, it is a place of four kalyanakas on ree to thankars; Shanti, Kunth and Arahnath. Besides its, at the start of Karambhumi, first teerthankar Bhagvan Rishabhdev in Muni condition had taken cane juice as his first ahaar (food). The king of Kutinapur, Shriyans had given him this ahaar after a year and thirty nine days. Teerthankar Adinath was a brave person so he had not suffered by any corporeal problem after a year fast (Upwas). To reau this brief story you will be suspected in your mind that how it is possible and why he had not received ahaar for long duration. About it, a brief consolation had been written in Jain puranas that nobody knew this Ahaarcharya at the surface of the earth at that time. Due to memory recollection of race of former eight existences, the king of Hastinapur, Sri Shryans knew this Ahaarcharya, and he had given ahaar of cane-juice to Muni Adinath at his palace after calling him with perfect means. The above given history of Hastinapur informed that the farming of sugarcane in our country (India) was so good from innumerable years too. Now-a-days the production of sugarcane was also seeing in large scale in all the regions of Hastinapur. It appears that its production will continue till the end of Kalyug (indefinite years) by the influence of Bhagvan Adinath. In Hastinapur, when Bhagvan Adinath had taken cane-juice ahaar, people named that day as Akshya Treetiya. It means that like sugarcane that date (Teethi) had become Akshya. It addition to above these informations, I also want to tell you something more about sugarcane as my research study was on sugarcane for Ph.D. degree. Sugarcane is a economically important cash crop of India grown in tropical and subtropical areas. It is cultivated for sugar production. It belongs to family Graminae and its botanical name is Sacchanum Officinarum. Besides sugarcane, sugarbeet is also a sugar producing crop but it is highly sensitive to adverse climatic conditions viz. higher temperature, sunlight and draught and sugar processing is also very difficult as compared to sugarcane. Sucrose content was found maximum in cane-juice. In addition to sucrose, all essential elements are found in cane-juice viz. K, P, N, Ca, S, P, Zn, Cu, Mn, Fe, Ni, Co and Mo in minute quantities. Growth, yield and quality of crops is affected by various factors such as, light, temperature, water, essential nutrients and nutrient imbalance. Plants can not grow normally in absence of essential nutrients in growing medium. There are various essential nutrients such as, N, P, K, S, Ca, Mg, Mn, Cu, Zn, Mo, Ni and CO. Nutrient imbalance is a important limiting factor which affect growth, yield and quality of crops. Nutrient interaction occurs when one element affect the absorption, uptake and functioning of other element. It will be positive or negative. During the course of my study I found maximum millable cane production and sucrose content in cane-juice when all the essential nutrients were supplied adequately. Deficiency and toxicity of any essential nutrient adversely affect crop production and crop quality. Minimum cane fresh weight and sucrose content in cane juice was found when more than one element was deficient together. Similarly combined toxicity of two elements affect crop yield more adversely as compared to single toxicity. So, these results suggested that nutrient balance in field is necessary for proper crop production and crop quality. Like cane-juice sweetness, Hastinapur Teerth-Kshetra is also very sweet because here, handsome place Jamboodweep and Karma Bhumi of Vidushi Aryika Ratna Gyanmati Mataji have increased its sweetness. It is my great desire that I also get sweetness in my life like sugarcane by which I can develop my soul like Teerth by moving on the way of Gyanmati Mataji. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EVO] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला JAINA COSMOGRAPHY AND PERFECT NUMBERS By R.C. GUPTA, M.Sc. (Double Gold Medalist) Ph.D. (Hist. of Math), Hon. Doct. (Hist. Sci.), F.N.A.Sc., (Member, International Commission of History of Mathematics) Professor of Mathematics, Birla Institute of Technology P.O. Mesra, RANCHI-835 215 According to Jaina cosmography, Jambūdvīpa ("Jambū Island") is situated in the Madhyaloka. It is circular in shape and has a diameter D equal to one lakh yojanas. It is surrounded by an unenumerable number of concentric circular rings of sea and land alternately (see Fig. 1). Acara Islan ka se bak 16D FIG. 1 (nor to scale) The width of the nth ring (whether sea or land) is given by W. = 21 D ..... (1) Thus the width (valaya-vyāsa or vistāra) of the Lavaņa Sea (n = 1) will be 2 lakh yojanas, that of the Dhātaki Land will be 4 lakh yojanas, etc. The width of the Jambu Island, should be taken as D, and may be denoted by Wo. The diameters of the outer boundaries of the various rings will be as follows (see FIG. 2): For Lavana Sea, D = D + 2 W = D + 4D = 5D. For Dhătaki Land, D2 = D + 2 W. + 2W2 = 5D + 8D = 13D. For Kálodaka Sea, D3 = D + 2W + 2W2 + 2W = 13D + 16D = 29D and so on 0010101010 FIG. 2 (net to scale) In general the diameter of the outer boundary suci-vyāsa or sūcī) of the nth ring, whether sea or land will be given by D. = D + 2 (W; + W2 + .............. + W) = D + 2 (2 + 22 + 23 + .......... + 2n)D D + 2 (2n+1 - 2) D = 2n+2 – 3) D = 4W. - 3D .. . (3) " (2) Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६७१ by using (1). Actually three types of Suci have been defined for any ring: (i) Adima or Adya Sūci which is the diameter of the inner boundary of the ring. (ii) Madhyama Suci which is the diameter of the central circle that lies exactly in the middle of the inner and outer boundaries of the ring. (iii) Bāhya Súci which is the diameter of the outer boundary of any ring. This is often called Suci only and has been denoted above by D. Let the Adima Suci be denoted by I, and the Madhyama Suci by C, fo the nth ring. Then we will have In = D + 2W, + 2W2 + ........ + 2W.-1 = 2n+1 - 3) D = 2 W. - 3D .. ..(5) by following a process similar to (2) and (3). Also we have .CD + 2W, + 2W2 + ........ + 2W.-1 + W. = I. + W. = (21+1 – 3) D + 2"D, by (1) and (4) = 3(21 - 1) D (6) = 3W, - 3D The Tiloyapannatti, Chapter IV, gätha 2601 (vol. II, p. 693) as well as chapter V, gäthä 34 (Vol. III, p. 9), states the formulas (3), (5) and (7) in a remarkably concise way as (taking D = 1 lakh) In, C, D = (2, 3, 4) W.-3 lakh yojanas .. (8) It should be noted that for any ring the madhyama diameter is, as the name implies, the mean of its inner and outer diameters. That is, Co = (1, + D.)/2 .. (9) Now the area of the nth ring will be given by A (1/4). D? - 13) = (1/4). (D, + 1) (D. - In) = (1/4). (6 W. - 6D) 2 W,, by (3) and (5) = 3 7 (W. - D) W .. (10) For quick calculation of the area approximately the value of 77 was often taken to be 3 in ancient times. With this value and D = 1, the area will be given by A, = 9 (W. - 1) W, units .. (11) In fact this elegantly simple form of the formula is found stated in the Tiloyapannatti, chapter V, gāthā 244, in the following words (vol. III, P. 56): लक्खेणूणं रुंदं णवहि गुणं इच्छियस्स आयामो। तं रुंदेण य गुणिदं, खेत्तफलं दीव-उवहीणं ॥२४४ ॥ 'The width as diminished by a lakh (yojana) and then multiplied by nine, is the ayāma (effective length) of a desired ring. That (āyāma) multiplied by the width is the area of the Island or Sea.' Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ €92) वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला .. (16) That is, (W. - 1) X 9 = āyāma (12) And then A, = (ayāma). W.. (13) which will give (11) exactly. We also know that for finding the area of a ring or annulus, the effective length L, will be the circumference of the circle which lies exactly in the middle of the inner and outer boundaries. Thus L. = 7 C .. (14) = 37 (W.-D), by (7) = 9 (W. - 1) (15) which the text calls āyāma, and rightly so because it is the effective length (with 7 = 3 and D = 1). We have given a simple derivation of the formula (10), or (11) which looks slightly unusual. Prof. L.C. Jain considers the implid rule to be 'new' whose origin is worth finding according to him. Instead of the above simple exposition, he gave a different treatment based on the next gåtha of the text and needed rationale is wanting? By using the relations (1) to (9), the area A, is given by (10) or (11) can be put in some other forms which are found in Tiloyapannatti, Chapter V, gāthās, 245 and 246 (vol. III, p. 56), Gathās 2561 and 2562 of chapter IV (vol. II, pp. 682-683) use the usual Jaina value 7 = V10, and the given rule can also be derived similarly, Here we are concerned with another significant matter which we now take up. Tiloyapannatti, chapter V, gāthā, 36 (vol. III, p. 12) defines the Khandas (say Kn) of any ring by the relation K, = (D2 - P.)/D2 where D is to be taken as 1 lakh yojanas. Like An, we can easily simplify the above to get (with D = 1), KA = 3(W. – 1) 4 W. .. (17) which is exactly what is given in gātha 263 of chapter V (vol. III, p. 87). Now by using the basic relation (1) with D = 1, we get K = 12 (2n-1) 2n .. (18) from which the required number of Khandas of various rings can be found. For example, by taking n = 1, 2, 3, we get the first three Khandas to be 24, 144, and 672 as given in the text itself under V, 36 (vol. III p. 12). The values of K, in terms of K, will be given by K/K = (2n – 1) 2n-1 = P., say (19) For various rings the values of K, and P. are shown in Table I. TABLE - I Remark on P. normalised unit 144 1st perfect number 672 2nd perfect number 2880 120 Ist multiply-perfect no. 11904 496 3rd perfect number 48384 2016 195072 8128 4th perfect number Vīrasenācārya (early 9th century A.D.) in his Dhavală commentary has given not only K, but also the values of P. (upto n = 7)). And it is clear that his method of generating the numbers P, is general, and can be extented to any n without difficulty. The noteworthy thing is that the numbers P, also include the so-called perfect numbers. PA Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ . Uz A positive integer N is called a perfect number if it is the sum of its proper divisors (including 1). Thus 6 is a perfect number because it is the sum of its proper divisors 1, 2 and 3. The next perfect number is 28 because 1 + 2 + 4 + 7 + 14 = 28. In fact it is known that the numbers P, given by (1) will be perfect whenever the factor fn = (21 - 1) is a prime number (that is, a number which has no proper divisor except 1). Table II depicts values of f, for some n. TABLE III n = 1 2 3 4 5 6 7 8 fo = 1 3 7 15 31 63 127 255. it can be checked that the numbers 3, 7, 31 and 127 are primes. Hence P, will be perfect for the corresponding values of n as mentioned in Table I. Also it should be noticed that, starting witht the Jambudvipa itself, the numbers f, are nothing but the successive sums of the widths (in lakhs yojanas) of the various islands and seas as one crosses them in one direction. Thus the discussion of ancient Jaina cosmography and the related calculations involve not only sums of geometrical progression but also examples of perfect numbers. It is said that the first four perfect numbers were also known to the ancient Greeks. The fifth perfect number corresponds to n = 13 for which f13 = 213 - 1 = 8191 which is prime, and P13 = 213 – 1). 212 = 3355, 0336 which is perfect. The next three perfect numbers will come by taking n = 17, 19, and 31, (the last of which will give a perfect number consisting of 19 digits). In 1757 the great Swiss Mathematician Leonhard Euler proved mathematically that every even perfect number must be in the form P. No other type of perfect number has ever been found. We can say almost safely that all perfect numbers represent the number of Khandas (in terms of those of Lavana Sea) of some Island or Sea in Jaina cosmography in which the number of rings of such Islands and Seas are stated to be asamkhyåta ('unenumerable'). REFERENCES AND NOTES: 1. Tilovapannatti Chapter V. gåthá 32, states that the diameter of the Jambů Island is one lakh yojanas and the viskambha (vistara or width) of rings from Lavana Sea to Svayambhuramana Sea are successively double (each time), that is, W. = 2W-1, n = 1, 2, 3, .... We are using the new edition by C.P. Patni of the text which is published along with the Hindi translation of Aryikā Visud dhamatí, Kota, 1984 (vol. I), 1986 (vol. II) and 1988 (vol. III). For V, 32, see vol. II, p.7. 2. L.C. Jain, 'Mathematics of Tiloyapannatti in Hindi), essay attached to Jambudiva Pannatti Sangaho (Sholapur, 1958), intro ductory pp. 69-70. It should be noted that the factor 9 in formula (11) is the value of 37, and not of ? 3. Şarkhandägama (with Dhavala) edited with Hindi translation by Hiralal Jain, Vol. IV, Amraoti, 1942, pp. 195-196. 4. M.L. Nankar, "History of Perfect Numbers", Ganita Bharati, Vol. I (1979), pp. 7-8. It may be pointed out that (see Table 1) although 120 is not perfect, it is a multiply-perfect number because the sum of its proper divisors. 1+2+3+4+5+6+8+10+12+15+20+24+30+40+60 = 2 x 120 Also, 672 is another such number Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला जम्बूद्वीप की अस्मिता है हस्तिनापुर तीर्थ स्थान प्रत्येक धर्म, संस्कृति व सभ्यता के इतिहास को संरक्षित व चिरंजीवी बनाते हैं। ये राष्ट्रीय इतिहास के अमूल्य धरोहर भी हैं, क्योंकि विभिन्न संस्कृतियों व विचार परंपराओं का इतिहास इन्हीं की बदौलत लिखा गया है। सोवियत प्राच्य विद्या विदुषी अ. कोरोत्स्काया ने अपने ग्रंथ 'भारत के नगर' में इस तथ्य को रेखांकित किया है कि प्राचीन काल से ही अयोध्या, हस्तिनापुर, अहिच्छत्रा, वाराणसी आदि उत्तर भारत के नगरों का सांस्कृतिक व राजनैतिक महत्व इसलिए बड़ा है, क्योंकि समय-समय पर तीर्थ यात्रियों का यहाँ समागम होता ही रहता था। आधुनिक दृष्टि से इन तीर्थ क्षेत्रों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि यहाँ के पुरातात्विक अवशेष साझी संस्कृति की सद्भावना का एक ठोस सबूत पेश करते हैं। Jain Educationa International - डॉ. मोहन चंद रीडर, संस्कृत विभाग, रामजस कालेज, दिल्ली हस्तिनापुर जम्बूद्वीपीय भूगोल का एक प्रधान क्षेत्र रहा है। इसे मात्र एक नगर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की प्रवह स्थली मानना चाहिए। वैदिक युग में हस्तिनापुर को राजधानी बना कर गंगा घाटी में कुरु-पांचाल जनों का राजनैतिक इतिहास संघटित हुआ और महाभारत युद्ध के बाद तक चन्द्रवंशी कौरव - पौरव हस्तिनापुर के इतिहास से जुड़े रहे। पुरातत्त्व इस तथ्य की पुष्टि कर चुका है कि महाभारत युद्ध के बाद पाँचवीं पीढ़ी में हुए निचक्षु के राज्यकाल यानी ईसवी पूर्व नवीं शताब्दी में गंगा की भयंकर बाढ़ से हस्तिनापुर का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह गया था, तब निचक्षु ने पौरव राजधानी को कौशाम्बी में स्थानान्तरित कर दिया था। पुरातात्त्विक अवशेषों के अलावा महाभारत, पुराण आदि ग्रंथ भी हस्तिनापुर की उपर्युक्त घटनाओं का समर्थन करते हैं। पौराणिक काल की गणना पर यदि विश्वास किया जाए तो २३वीं शताब्दी ईसवी पूर्व में हस्तिनापुर का ऐतिहासिक अस्तित्व आ चुका था। बौद्ध परम्परा के अनुसार जम्बूद्वीप के चक्रवर्ती राजा मांधाता ने जब 'कुरुरदुम' को बसाया तो अपनी राजधानी 'हत्थिपुर' (हस्तिनापुर) बनाई। इस प्रकार बौद्ध अनुश्रुतियों में हस्तिनापुर की प्राग्बौद्धकालीन नगर के रूप में पुष्टि हुई है। 'दिव्यावदान' कुरुराष्ट्र की पूर्व राजधानी हस्तिनापुर बताता है। बाद में इस देश के दक्षिण भाग की राजधानी इन्द्रप्रस्थ हुई और कुम्भजातक के अनुसार बौद्धकाल में कांपिल्ल भी बनी। जैन परम्परा का इतिहास हस्तिनापुर से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है। जिनप्रभ सूरि रचित 'विविध तीर्थकल्प' में 'हस्तिनापुर कल्प' भी लिखा गया है। इस कल्प के अनुसार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्र कुरु को कुरुक्षेत्र का राज्य दिया था । इन्हीं कुरु के पुत्र हस्तिन् ने हस्तिनापुर को भागीरथी के किनारे बसाया था । वसुदेव हिंदी में एक ऐसी पौराणिक अनुश्रुति का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जब अपने पुत्रों को राज्य बाँटा तो बाहुबली को तक्षशिलों और हस्तिनापुर का राज्य सौंपा था। जैन आगमों के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव अपनी साधु चर्या में बहली, अंबड आदि स्थानों की यात्रा करते हुए जब हस्तिनापुर पहुँचे तो वहाँ राजा श्रेयांस ने उन्हें अक्षय तृतीया के दिन इक्षुरस का आहार दान कराया था। हस्तिनापुर जैन समाज के लिए तीर्थ स्थान इसलिए भी है, क्योंकि सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ, सत्तरहवें कुंथुनाथ और अठारहवें अरनाथ का जन्म व चारों कल्याणक इसी पवित्र भूमि में हुए थे। पाँचवें, छठे और सातवें तीर्थंकरों की यह 'केवलज्ञान' भूमि है तो चौथे, छठे तथा आठवें चक्रवर्ती की जन्मभूमि भी । विष्णु कुमार नामक जैन साधु भी हस्तिनापुर निवासी थे, जिन्होंने नमुचि नामक दैत्य को वश में किया। पाँच पांडव, रक्षाबंधन पर्व मनोवृत्ति की दर्शन प्रतिष्ठा, द्रौपदी शील-महिमा, राजा अशोक व रोहिणी कथा, अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनियों का उपसर्ग, गजकुमार मुनि-उपसर्ग, महापद्म व परशुराम आख्यान आदि अनेक पौराणिक प्रसंग हस्तिनापुर के धार्मिक व सांस्कृतिक महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। यतिवृषभ, रविषेण, जटा सिंह नन्दि, जिनसेन, गुणभद्र, जिनप्रभ सूरि, उदय कीर्ति, गुणकीर्ति, मेघराज, ज्ञानसागर आदि अनेक जैनाचार्यों ने इस तीन तीर्थंकरों की जन्म नगरी को तीर्थ क्षेत्र के रूप में महामंडित किया है। चौदहवीं शताब्दी ईसवी में आचार्य जिन प्रसूरि ने संघ सहित हस्तिनापुर की यात्रा की और उसके पुरातन इतिहास को संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाओं में निबद्ध किया। सोलह सौ ईसवी में कविवर बनारसी दास ने भी सपरिवार इस तीर्थ क्षेत्र की यात्रा की और अपने 'अर्धकथानक' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में यहाँ मंदिर, नशिया और स्तूप होने का आँखों देखा विवरण दिया है, किन्तु आज ये प्राचीन अवशेष नष्ट हो चुके हैं। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा सन् १९५० से १९५२ के दौरान हस्तिनापुर के एक भाग का उत्खनन किया गया तो श्री बी. बी. लाल के अनुसार इसके पाँच विभिन्न काल खंडों के इतिहास का पता चला। इसका प्रारंभिक इतिहास ईसवी पूर्व १२वीं शती से बहुत पहले अस्तित्व में आ गया था। उसके बाद हस्तिनापुर नगर चार बार उजड़ा और उतनी ही बार उसका पुनर्निर्माण हुआ। आठवीं नौंवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में गंगा की बाढ़ से नष्ट होने वाली हस्तिनापुर सभ्यता लाल के अनुसार 'चित्रित धूसर मृद्भांड' (पी. जी. डब्ल्यू.) परम्परा से सम्बद्ध थी, जिसका समय ११०० ई.पू. से ८०० ई.पू. के मध्य निर्धारित किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कुरुवंशी इतिहास का साम्राज्य काल था । लगभग २०० वर्षों के अंतराल के बाद हस्तिनापुर पुनः बसा. तो यहाँ पी. जी. डब्ल्यू. के स्थान पर 'उत्तरापथ के काले भांडो' (एन.बी.पी.) का प्रचलन हो गया था। हस्तिनापुर तृतीय का यह काल खंड For Personal and Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६७५ ६०० ई.पू. से ३०० ई.पू. के बीच माना जाता है। जैन परम्परा के अनुसार इस समयावधि में कुरुवंश के स्थान पर नाग जाति का हस्तिनापुर में आधिपत्य हो गया था। संभावना यह भी की जाती है कि हस्तिनापुर तृतीय के इतिहास काल में ही यहाँ २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ और २४वें तीर्थंकर भगवान् महावीर का समवशरण आया था और भगवान् महावीर के उपदेशों को सुनकर यहाँ के राजा शिवराज ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। इसी अवसर पर यहाँ एक जैन स्तूप का भी निर्माण किया गया था। यह बस्ती ३०० ई.पू. में किसी भीषण अग्निदाह से नष्ट हो गई। हस्तिनापुर चतुर्थ लगभग सौ वर्षों बाद २०० ई.पू. से ३०० ईसवी तक फिर से बसा । जैन अनुश्रुतियों के अनुसार जैन सम्राट् सम्पति ने इसे बसाया था। यह राजा अशोक का पौत्र था तथा जैन धर्म का अनुयायी भी। इसके राज्यकाल में हस्तिनापुर में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण भी हुआ। लगभग सात-आठ सौ वर्षों के अंतराल के बाद हस्तिनापुर पंचम की बस्ती फिर से बसनी प्रारंभ हुई तथा पंद्रहवीं शताब्दी ईसवी तक यहाँ 'ग्लेज्ड वेयर' मृद्भाण्ड परंपरा का विस्तृत प्रचलन हो चुका था। तत्कालीन इतिहास के संदर्भ में भारवंशी राजा हरदत्त राय के राज्यकाल में इस नगर का चौथी बार पुनर्निर्माण हुआ। श्री बी.बी. लाल को हस्तिनापुर की इस बस्ती से सुल्तान गियासुद्दीन बलबन (१२६७-८७ ई.) तथा सुल्तान महमूदशाह द्वितीय (१३९२-१४१२ ईसवी) के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इसी काल से सम्बद्ध दो जैन मूर्तियां भी उपलब्ध हुई हैं। श्री लाल के अनुसार बलुआ पत्थर से बनी आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा (एच.एस.टी. १-७२९) ध्यानमुद्रा में अवस्थित हैं, जिसके दाएं भाग का ऊपरी कोना खंडित है तथा बाईं ओर ऊपर अशोक वृक्ष की शाखाएं उकेरी गई हैं। दूसरी जैन प्रतिमा अभय मुद्रा में अंकित जैन देव की प्रतीत होती है। इस टैराकोटा देव प्रतिमा (एच.एस.टी-१-४५२) ने गोल कण्ठाहार तथा बड़े-बड़े कर्णाभूषण धारण किए हुए हैं। हस्तिनापुर से जैन परंपरा का जितना प्राचीन संबंध है, उस दृष्टि से प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेषों का न मिलना आश्चर्यपूर्ण लगता है, किन्तु इस संबंध में यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण हैं कि गंगा की बाढ़, अग्निकांड आदि प्राकृतिक प्रकोपों से अनेक जैन अवशेष नष्ट हो गए होंगे और दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अभी तक हस्तिनापुर के अनेक प्राचीन टीलों का उत्खनन नहीं हुआ है, संभवतः इन टीलों के गर्भ में जैन ऐतिहासिक अवशेष भी दबे पड़े हों। दरअसल, हस्तिनापुर गंगा घाटी के इतिहास को आलोकित करने वाला एक अति प्राचीन नगर है। स्वतंत्रता पूर्व के पुरातात्त्विक सर्वेक्षण और उत्खनन सिंधु घाटी की सभ्यता का ही महामंडन करते रहे। हस्तिनापुर आदि गंगाघाटियों के पुरातत्त्व की घोर उपेक्षा की गई। जनरल कनिंघम ने पहली बार जब हस्तिनापुर का सर्वेक्षण किया तो उनके लिए इस स्थान का कोई विशेष महत्त्व नहीं था, किन्तु उसके ७५ वर्ष बाद पुरातत्त्वविद् श्री अमृत पांड्या ने सन् १९४८ ईसवी में हस्तिनापुर का भ्रमण किया तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि “यहाँ इस समय स्थायी बस्ती नहीं है। दो बड़ी जैन धर्मशालाएं और मंदिर हैं। ये मंदिर न होते तो आज हस्तिनापुर को हम न पाते । जैन यात्रीगण यहाँ आते जाते हैं।" हस्तिनापुर के ध्वंशावशेष की दुर्दशा का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि "हस्तिनापुर के ध्वंशावशेष यहाँ से लगभग बाईस मील दूर गढ़मुक्तेश्वर तक बूढ़ी गंगा के किनारे-किनारे फैले हुए हैं। टीलों के शिखरों के आस-पास के ढाल वर्षा के जल से कट रहे हैं और इससे यहाँ सतह के नीचे की प्राचीन वस्तुएं यत्र-तत्र पड़ी दिखाई देती हैं। वर्षा के पश्चात् शीघ्र ही चरवाहे यहाँ से प्राचीन वस्तुएँ उठा ले जाते हैं।" सन् १९५५ में प्रकाशित हस्तिनापुर उत्खनन संबंधी रिपोर्ट में श्री लाल ने दो जैन मंदिरों तथा तीर्थंकर श्री शांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ और श्री अरनाथ की तीन नशियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। मवाना लतीफपुर रोड के उस पार स्थित दो जैन मंदिरों में से एक जैन मंदिर दिगम्बर सम्प्रदाय का है, जो ऊँचे टीले पर बनाया गया है। १८वीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण हुआ था। लाल को इस मंदिर के उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित बाह्य परिसर से प्राचीन बर्तनों के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। श्वेताम्बर मंदिर निचली जमीन की सतह पर बना है। इसका निर्माण काल सन् १८७० ई. बताया जाता है। दिगम्बर जैन मंदिर की विशाल वेदी में मूलनायक भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। यह श्वेत पाषाण की लगभग एक हाथ ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। इसके बाईं ओर अरनाथ और दाईं ओर कुंथुनाथ की मूर्ति है। वेदी में पंच बाल यति का प्रतिमा फलक बहुत प्राचीन माना जाता है, किन्तु इसके दाएं ओर की दो प्रतिमाएं गायब हैं। यह प्रतिमाफलक मुजफ्फरनगर के जंगल से मिला था और वहीं से यहाँ लाया गया है। मूर्तिकला की दृष्टि से इसका काल १०-११वीं शताब्दी आंका जाता है। इसके अलावा इस मंदिर में नीले और हरे पाषाण की दो पद्मासन मूर्तियां तथा पीतल की अनेक जैन मूर्तियां भी दर्शनीय हैं। इस मंदिर के पीछे एक दूसरा मंदिर भी बना है, जो बाद में बनाया गया था। इसमें भगवान् शांतिनाथ की ५ फुट ११ इंच परिमाण वाली खड्गासन प्रतिमा स्थापित है। हस्तिनापुर के एक टीले की खुदाई से यह मूर्ति प्राप्त हुई थी। इसके मूर्ति लेख के अनुसार सन् ११७४ ईसवी में देवपाल सोनी नामक किसी अजमेर निवासी ने इस भगवान् शांतिनाथ की प्रतिमा को हस्तिनापुर में प्रतिष्ठित करवाया था। पुरातत्त्व संबंधी खोजों तथा वर्तमान में विद्यमान जैन प्रतिमाओं के स्थापत्य और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर इतना तो स्पष्ट है कि हस्तिनापुर इतिहास का मध्यकालीन चरण जैन धर्म की गतिविधियों से अपना विशेष महत्त्व बनाए हुए था। चौदहवीं शताब्दी ई. में तथा उससे भी बहुत पहले और बाद तक अनेक जैन धर्माचार्य, तीर्थयात्रीगण और अन्य श्रद्धालु जन हस्तिनापुर की तीर्थ यात्रा पर प्रायः आते थे। अयोध्या के बाद दूसरे स्थान पर इसी तीर्थस्थान का महत्त्व था। पिछली दो दशाब्दियों में जैन तीर्थ क्षेत्र के रूप में हस्तिनापुर का तेजी से विकास हुआ है। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती जी की सद्प्रेरणा से जैन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला त्रिलोक शोध संस्थान ने यहाँ सारस्वत अनुष्ठान और नव निर्माण का जो सिलसिला चलाया है, उसके परिणामस्वरूप यहाँ आज अनेक जैन मंदिर, तीर्थंकरों की भव्य प्रतिमाएं और धर्मशालाएं आदि निर्मित हो चुकी है। किन्तु इन सभी निर्माण कार्यों में हस्तिनापुर का मुख्य आकर्षण है चौरासी फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत से आवृत्त एक भव्य जम्बूद्वीप का स्थापत्य । आर्यिका ज्ञानमती जी ने जैन शास्त्रानुसारी जम्बूद्वीप का जो मॉडल यहाँ स्थापित करवाया है, उसमें छह कुलाचल, चार गजदंत, सोलह वक्षार, चौंतीस विजयार्ध, जम्बू-शाल्मलि वृक्ष, गंगा-सिन्धु आदि नब्बे नदियां और तीन सौ के लगभग तोरणद्वार सहज में ही यह अहसास करवा देते हैं कि अतात में भारतीय संस्कृति का फलक कितना विशाल और व्यापक था। सन् १९८२ में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस मॉडल का 'जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति' के रूप में भारतभ्रमण के लिए प्रवर्तन किया था तो उन्होंने कहा, "जम्बूद्वीप का वर्णन हमारे सभी शास्त्रों में है, जैसे बौद्ध, जैन और वैदिक धर्म में जो-जो वर्णन है, वह केवल भारतवर्ष का ही नहीं है, बल्कि उससे बहुत बड़ा है। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जो यह मॉडल बनवाया है तथा जो हस्तिनापुर में इसको बनाया जा रहा है, इससे लोग इस जम्बूद्वीप के बारे में ज्यादा से ज्यादा ठीक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और जहाँ-जहाँ यह रास्ते में जाएगी, वहाँ भी इसके द्वारा एक नई धार्मिक भावना जगेगी।" दरअसल, जम्बूद्वीप-निर्माण से हस्तिनापुर अपने सुदूर अतीत की अस्मिता से जुड़ा है। प्राकृतिक प्रकोपों के कारण जब-जब यह उजाड़ बना है, तब-तब समकालीन इतिहास नए सनिवेश से इसे बसाता आया है। पुरातत्त्व वेत्ता श्री बी.बी. लाल कहते हैं कि हस्तिनापुर पंचम की बस्ती पंद्रहवीं शती में विनष्ट हो चुकी थी किन्तु आर्यिका जी द्वारा स्थापित जम्बूद्वीप साक्षी है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हस्तिनापुर षष्ठ का नव-निर्माण जारी है। दानतीर्थ हस्तिनापुर -क्षुल्लक मोतीसागर भगवान आदिनाथ का प्रथम आहार____ हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थों का राजा है। यह धर्म प्रचार का आद्य केन्द्र रहा है। यहीं से धर्म की परम्परा का शुभारम्भ हुआ। यह वह महातीर्थ है, जहाँ से दान की प्रेरणा संसार ने प्राप्त की। भगवान् आदिनाथ ने जब दीक्षा धारण की, उस समय उनके देखा-देखी चार हजार राजाओं ने भी दीक्षा धारण की। भगवान् ने केशलोंच किये, उन सबने भी केशलोंच किए, भगवान् ने वस्त्रों का त्याग किया, उसी प्रकार से उन सब राजाओं ने भी नग्न दिगम्बर अवस्था धारण कर ली। भगवान् हाथ लटकाकर ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये, वे सभी राजागण भी उसी प्रकार से ध्यान करने लगे, किन्तु तीन दिन के बाद उन सभी को भूख-प्यास की बाधा सताने लगी। वे बार-बार भगवान् की तरफ देखते, किन्तु भगवान् तो मौन धारण करके नासाग्र दृष्टि किए हुए अचल खड़े थे, एक-दो दिन के लिए नहीं, पूरे छह माह के लिए। अतः उन राजाओं ने बेचैन होकर जंगल के फल खाना एवं झरनों का पानी पीना प्रारंभ कर दिया। उसी समय वन देवता ने प्रकट होकर उन्हें रेका कि “मुनि वेश में इस प्रकार से अनर्गल प्रवृत्ति मत करो।" यदि भूख-प्यास का कष्ट सहन नहीं हो पाता है तो इस जगत् पूज्य मुनि पद को छोड़ दो, तब सभी राजाओं ने मुनि पद को छोड़कर अन्य वेश धारण कर लिए। किसी ने जटा बढ़ा ली, किसी ने बल्कल धारण कर लिए, किसी ने भस्म लपेट ली, कोई कुटी बनाकर रहने लगे इत्यादि। भगवान् ऋषभदेव का छह माह के पश्चात् ध्यान विसर्जित हुआ। वैसे तो भगवान् का बिना आहार किये भी काम चल सकता था, किन्तु भविष्य में भी मुनि बनते रहें, मोक्षमार्ग चलता रहे, इसके लिए आहार हेतु निकले। किन्तु उनको कहीं पर भी विधिपूर्वक एवं शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिल पा रहा था, उनसे पूर्व में भोग भूमि की व्यवस्था थी। लोगों को जीवन यापन की सामग्री-भोजन, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि सब कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते थे। जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हुई, तब कर्मभूमि में कर्म करके जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने की कला भगवान् के पिता नाभिराय ने एवं स्वयं भगवान् ऋषभदेव ने सिखाई। असि. मसि, कृषि, सेवा, शिल्प एवं वाणिज्य करके जीवन जीने का मार्ग बतलाया । सब कुछ बतलाया किन्तु दिगम्बर मुनियों को किस विधि से आहार दिया जावे, इस विधि को नहीं बतलाया। जिस इन्द्र ने भगवान् ऋषभदेव के गर्भ में आने से छह माह पहले से रत्नवृष्टि प्रारंभ कर दी थी, पाँचों कल्याणकों में स्वयं इन्द्र प्रतिक्षण उपस्थित रहता था, किन्तु जब भगवान् प्रासुक आहार प्राप्त करने के लिए भ्रमण कर रहे थे, तब वह भी नहीं आ पाया। सम्पूर्ण प्रदेशों में भ्रमण करने के पश्चात् हस्तिनापुर आगमन से पूर्व रात्रि के पिछले प्रहर में यहाँ के राजा श्रेयांस को सात स्वप्न दिखाई दिये, जिसमें प्रथम स्वप्न में सुदर्शन मेरु पर्वत दिखाई दिया। प्रातःकाल में उन्होंने ज्योतिषी को बुलाकर उन स्वप्रों का फल पूछा । तब बताया कि जिनका मेरु पर्वत पर अभिषेक हुआ है, जो सुमेरु के समान महान् हैं, ऐसे तीर्थंकर भगवान के दर्शनों का लाभ प्राप्त होगा। ___कुछ ही देर बाद भगवान् ऋषभदेव का हस्तिनापुर नगरी में मंगल पदार्पण हुआ। भगवान् का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जाति स्मरण हो गया। उन्हें आठ भव पूर्व का स्मरण हो आया। जब भगवान् ऋषभदेव राजा वज्रजंघ की अवस्था में व स्वयं राजा श्रेयांस वज्रजंघ की पत्नी रानी श्रीमती Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६७७ की अवस्था में थे और उन्होंने चारण ऋद्धिधारी मुनियों को नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान दिया था। तभी राजा श्रेयांस समझ गये कि भगवान् आहार के लिए निकले हैं। यह ज्ञान होते ही वे अपने राजमहल के दरवाजे पर खड़े होकर मंगल वस्तुओं को हाथ में लेकर भगवान् का पड़गाहन करने लगे। हे स्वामी! नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्र तिष्ठ तिष्ठ-विधि मिलते ही भगवान् राजा श्रेयांस के आगे खड़े हो गये। राजा श्रेयांस ने पुनः निवेदन किया-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि आहार जल शुद्ध है भोजनशाला में प्रवेश कीजिए। चौके में ले जाकर पाद प्रक्षाल करके पूजन की एवं इक्षुरस का आहार दिया। आहार होते ही देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि की। चार प्रकार के दानों में से केवल आहार दान के अवसर पर ही पंचाश्चर्य की वृष्टि होती है। भगवान् जैसे पात्र का लाभ मिलने पर राजा श्रेयांस की भोजनशाला में उस दिन भोजन अक्षय हो गया। शहर के सारे नर-नारी भोजन कर गये, तब भी भोजन जितना था, उतना ही बना रहा। एक वर्ष के उपवास के बाद हस्तिनापुर में जब भगवान् का प्रथम आहार हुआ तो समस्त पृथ्वी मंडल पर हस्तिनापुर के नाम की धूम मच गई, सर्वत्र राजा श्रेयांस की प्रशंसा होने लगी। अयोध्या से भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस का भव्य समारोह पूर्वक सम्मान किया तथा उन्हें दानतीर्थकर की पदवी से अलंकृत किया। प्रथम आहार की स्मृति में उन्होंने यहाँ एक विशाल स्तूप का निर्माण भी कराया। दान के कारण ही भगवान् आदिनाथ के साथ राजा श्रेयांस को भी याद करते हैं। जिस दिन यहाँ प्रथम आहार दान हुआ, वह दिन बैशाख सुदी तीज का था। तबसे आज तक वह दिन प्रतिवर्ष पर्व के रूप में मनाया जाता है। अब उसे आखा तीज या अक्षय तृतीया कहते हैं। इस प्रकार दान की परम्परा हस्तिनापुर से प्रारंभ हुई। दान के कारण ही धर्म की परंपरा भी तबसे अब तक बराबर चली आ रही है। क्योंकि मंदिरों का निर्माण, मूर्तियों का निर्माण, शास्त्रों का प्रकाशन, मुनि संघों का विहार दान से ही संभव है और यह दान श्रावकों के द्वारा ही होता है। श्रवणबेलगोल में एक हजार साल से खड़ी भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा भी चामुण्डराय के दान का ही प्रतिफल है, जो कि असंख्य भव्य जीवों को दिगम्बरत्व का, आत्मशांति का पावन संदेश बिना बोले ही दे रही है। यहाँ बनी यह जम्बूद्वीप की रचना भी सम्पूर्ण भारतवर्ष के लाखों नर-नारियों के द्वारा उदार भावों से प्रदत्त दान के कारण ही मात्र दस वर्ष में बनकर तैयार हो गई, जो कि सम्पूर्ण संसार के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गई है। जम्बूद्वीप की रचना सारी दुनियां में अभी केवल यहाँ हस्तिनापुर में ही देखने को मिल सकती है। नंदीश्वर द्वीप की रचना, समवसरण की रचना तो अनेक स्थलों पर बनी है और बन रही है। यह हमारा व आप सबका परम सौभाग्य है कि हमारे जीवन काल में ऐसी भव्य रचना बनकर तैयार हो गई और उसके दर्शनों का लाभ सभी को प्राप्त हो रहा है। भगवान आदिनाथ के प्रथम आहार के उपलक्ष्य में वह तिथि पर्व के रूप में मनाई जाने लगी। वह दिन इतना महान् हो गया कि कोई भी शुभ कार्य उस दिन बिना किसी ज्योतिषी के पूछे कर लिया जाता है। जितने विवाह अक्षय तृतीया के दिन होते हैं, उतने शायद ही अन्य किसी दिन होते हों। और तो और, जब से भगवान् का प्रथम आहार इक्षुरस का हुआ, तबसे इस क्षेत्र में गन्ना भी अक्षय हो गया, जिधर देखो, उधर गन्ना ही गन्ना नजर आता है। सड़क पर गाड़ी में आते-जाते बिना मिष्ठान्न खाये ही मुँह मीठा हो जाता है। कदम-कदम पर गुड़, शक्कर बनता दिखाई देता है। हस्तिनापुर में आने वाले प्रत्येक यात्री को जम्बूद्वीप प्रवेश द्वार पर भगवान के आहार के प्रसाद रूप में यहाँ लगभग बारह महीने इक्षुरस पीने को मिलता है। भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ के चार-चार कल्याणक भगवान् आदिनाथ के पश्चात् अनेक महापुरुषों का इस पुण्य धरा पर आगमन होता रहा है। भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ के चार-चार कल्याणक यहाँ हुए हैं। तीनों तीर्थंकर चक्रवर्ती एवं कामदेव पद के धारी भी थे। तीनों तीर्थंकरों ने यहाँ से समस्त छह खंड पृथ्वी पर राज्य किया, किन्तु उन्हें शांति की प्राप्ति नहीं हुई। छियानवे हजार रानियाँ भी उन्हें सुख प्रदान नहीं कर सकी, अतएव उन्होंने सम्पूर्ण आरम्भ परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर अवस्था धारण की-मुनि बन गये। बारह भावनाओं में पढ़ते हैं "कोटि अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लख हाथी, इत्यादिक सम्पति बहुतेरी जीरण तृण सम त्यागी।" भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ ने महान् तपश्चर्या करके यहीं पर दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति की। उनकी ज्ञान ज्योति के प्रकाश से अनेकों भव्य जीवों का मोक्ष मार्ग प्रशस्त हुआ। अंत में उन्होंने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त किया। आज हजारों लोग उन तीर्थंकरों की चरण रज से पवित्र इस पुण्य धरा की वंदना करने आते हैं। उस पुनीत माटी को मस्तक पर चढ़ाते हैं। कौरव पांडव की राजधानी महाभारत की विश्व विख्यात घटना भगवान् नेमीनाथ के समय में यहाँ घटित हुई। यह वही हस्तिनापुर है, जहाँ कौरव-पांडव ने राज्य किया। सौ कौरव भी पाँच पांडवों को हरा नहीं सके। क्या कारण था? कौरव अनीतिवान् थे, अन्यायी थे, अत्याचारी थे, ईर्ष्यालु थे, द्वेषी थे। उनमें अभिमान बाल्यकाल से कूट-कूटकर भरा हुआ था। पांडव प्रारंभ से धीर-वीर-गम्भीर थे। सत्य आचरण करने वाले थे। न्याय-नीति से चलते थे। सहिष्णु थे। इसीलिए पांडवों ने विजय प्राप्त की। यहाँ तक कि पांडव भी सती सीता की तरह अग्नि परीक्षा में सफल हुए। कौरवों के द्वारा बनाये गये जलते हुए लाक्षागृह से भी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला णमोकार महामंत्र का स्मरण करते हुए एक सुरंग के रास्ते से बच निकले। वे एक बार पुनः अग्नि परीक्षा में सफल हुए। जब "शत्रुजय" में नग्न दिगम्बर मुनि अवस्था में ध्यान में लीन थे, उस समय दुर्योधन के भानजे कुर्यधर ने लोहे के आभूषण बनवाकर गरम करके पहना दिये। जिसके फलस्वरूप बाहर से उनका शरीर जल रहा था और भीतर से कर्म जल रहे थे। उसी समय सम्पूर्ण कर्म जलकर भस्म हो गये और अंतकृत केवली बनकर तीन पांडवों ने निर्वाण प्राप्त किया और नकुल, सहदेव उपशम श्रेणी का आरोहण करके ग्यारहवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त करके सर्वार्थसिद्धि गये। कौरव-पांडव तो आज भी घर-घर में देखने को मिलते हैं। यदि विजय प्राप्त करना है तो पांडवों के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। सदैव न्याय नीति से चलना चाहिए। तभी पांडवों की तरह यश की प्राप्ति होगी। धर्म की सदा जय होती है। रक्षाबंधन पर्व एक समय हस्तिनापुर में अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का संघ आया हुआ था। उस समय यहाँ महापद्म चक्रवर्ती के पुत्र राजा पद्म राज्य करते थे। कारणवश बलि मंत्री ने वरदान के रूप में उनसे सात दिन का राज्य माँग लिया। राज्य लेकर बली ने अपने पूर्व अपमान का बदला लेने के लिए जहाँ सात सौ मुनि विराजमान थे, वहाँ उनके चारों ओर यज्ञ के बहाने अग्नि प्रज्वलित कर दी। उपसर्ग समझकर सभी मुनिराज शान्त परिणाम से ध्यान में लीन हो गये। दूसरी तरफ उज्जयिनी में विराजमान विष्णुकुमार मुनिराज को मिथिला नगरी में चातुर्मास कर रहे मुनि श्री श्रुतसागर जी के द्वारा भेजे गये क्षुल्लक श्री पुष्पदंत से सूचना प्राप्त हुई कि हस्तिनापुर में मुनियों पर घोर उपसर्ग हो रहा है और उसे आप ही दूर कर सकते हैं। यह समाचार सुनकर परम करुणामूर्ति विष्णुकुमार मुनिराज के मन में साधर्मी मुनियों के प्रति तीव्र वात्सल्य की भावना जाग्रत हुई। तपस्या से उन्हें विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई थी। वे वात्सल्य भावना से ओत-प्रोत होकर उज्जयिनी से चातुर्मास काल में हस्तिनापुर आते हैं। अपनी पूर्व अवस्था के भाई वहाँ के राजा पद्म को डांटते हैं। राजा उनसे निवेदन करते हैं-हे मुनिराज! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं। तब मुनि विष्णु कुमार ने वामन का वेष बनाकर बलि से तीन कदम जमीन दान में मांगी। बलि ने देने का संकल्प किया। मुनिराज ने विक्रिया ऋद्धि से विशाल शरीर बनाकर दो कदम में सारा अढ़ाई द्वीप नाप लिया, तीसरा कदम रखने की जगह नहीं मिली। चारों तरफ त्राहिमाम् होने लगा। रक्षा करो, क्षमा करो की ध्वनि गूंजने लगी। बलि ने भी क्षमा मांगी। मुनिराज तो क्षमा के भंडार ही होते हैं। उन्होंने बलि को क्षमा प्रदान की। उपसर्ग दूर होने पर विष्णु कुमार ने पुनः दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की। सभी ने मिलकर मुनि श्री विष्णुकुमार की बहुत भारी पूजा की। अगले दिन श्रावकों ने भक्ति से मुनियों को खीर-सिवई का आहार दिया और आपस में एक-दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधे । यह निश्चय किया कि विष्णुकुमार मुनिराज की तरह वात्सल्य भावना पूर्वक धर्म एवं धर्मायतनों की रक्षा करेंगे। तभी से वह दिन प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व के रूप में श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। इसी दिन बहनें भाइयों के हाथ में राखी बाँधती हैं। ___अब आगे से रक्षाबंधन के दिन हस्तिनापुर का स्मरण करें। देव गुरु शास्त्र के प्रति तन-मन-धन न्यौछावर कर दें। साधर्मी के प्रति वात्सल्य की भावना रखें। तभी रक्षाबंधन पर्व मनाना सार्थक हो सकता है। दर्शन प्रतिज्ञा में प्रसिद्ध मनोवती गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शन कर भोजन करने का अटल नियम निभाने वाली इतिहास प्रसिद्ध महिला मनोवती भी इसी हस्तिनापुर की थी। यह नियम उसने विवाह के पूर्व लिया था। विवाह के पश्चात् जब ससुराल गई तो वहाँ संकोचवश कह नहीं पाई। तीन दिन तक उपवास हो गया। जब उसके पीहर में सूचना पहुँची तो भाई आया, उसे एकान्त में मनोवती ने सब बात बता दी। उसके भाई ने मनोवती के श्वसुर को बताया । तो उसके श्वसुर ने कहा कि हमारे यहाँ तो गजमोती का कोठार भरा है। तभी मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शन करके भोजन किया। इसके बाद मनोवती को तो उसका भाई अपने घर लिवा ले गया। इधर उन मोतियों के चढ़ाने से इस परिवार पर राजकीय आपत्ति आ गई। जिसके कारण मनोवती के पति बुधसेन के छहों भाइयों ने मिलकर उन दोनों को घर से निकाल दिया। घर से निकलने के बाद मनोवती ने तब तक भोजन नहीं किया, जब तक गजमोती चढ़ाकर भगवान् के दर्शनों का लाभ नहीं मिला। जब चलते-चलते थक गये तो रास्ते में सो गये। पिछली रात्रि में उन्हें स्वप्न होता है कि तुम्हारे निकट ही मंदिर है, शिला हटाकर दर्शन करो। उठकर संकेत के अनुसार शिला हटाते ही भगवान के दर्शन हुए। वहीं पर चढ़ाने के लिए गजमोती मिल गये। दर्शन करके भोजन किया। आगे चलकर पुण्ययोग से बुधसेन राजा के जमाई बन गये। इधर वे छहों भाई अत्यन्त दरिद्र अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। गाँव छोड़कर कार्य की तलाश में घूमते-घूमते छहों भाई, उनकी पत्नियाँ व माता-पिता सभी वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ बुधसेन जिन मंदिर का निर्माण करा रहे थे। लोगों ने उन्हें बताया कि आप बुधसेन के वहाँ जाओ, आपको वे काम पर लगा लेंगे। वे सभी वहाँ पहुँचे, उनको काम पर लगाया, बुधसेन मनोवती उन्हें पहचान गये, अंत में सबका मिलन हुआ। सभी भाइयों, भौजाइयों तथा माता-पिता Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६७९ ने क्षमा याचमा की। धर्म की जय हुई। इस घटना से यही शिक्षा मिलती है कि आपस में सबको मिलकर रहना चाहिए। न मालूम किसके पुण्ययोग से घर में सुख शांति समृद्धि होती है। सुलोचना जयकुमार महाराजा सोम के पुत्र जयकुमार भरत चक्रवर्ती के प्रधान सेनापति हुए । उनकी धर्म परायणा शील शिरोमणि ध.प. सुलोचना की भक्ति के कारण गंगा नदी के मध्य आया हुआ उपसर्ग दूर हुआ। रोहिणी व्रत रोहिणी व्रत की कथा का घटना स्थल भी यही हस्तिनापुर तीर्थ है। जम्बूद्वीप की रचना अनेक घटनाओं की श्रृंखला के क्रम में एक और मजबूत कड़ी के रूप में जुड़ गई जम्बूद्वीप की रचना । इस रचना ने विस्मृत हस्तिनापुर को पुनः संसार के स्मृति पटल पर अंकित कर दिया । न केवल भारत के कोने-कोने में अपितु विश्व भर में जम्बूद्वीप रचना के दर्शन की चर्चा रहती है। जैन जगत में ही नहीं, प्रत्युत् वर्तमान दुनिया में पहली बार हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का विशाल खुले मैदान पर भव्य निर्माण हुआ है। जो कि आर्यिका ज्ञानमती माताजी के ज्ञान व उनकी प्रेरणा का प्रतिफल है। सन् १९६५ में श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् बाहुबली के चरणों में ध्यान करते हुए पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी को जिस रचना के दिव्य दर्शन हुए थे, उसे बीस वर्ष के पश्चात् यहाँ हस्तिनापुर में साकार रूप प्राप्त हुआ । वर्तमान में जम्बूद्वीप रचना दर्शन के निमित्त से ही सन् १९७६ से अब तक लाखों जैन जैनेतर दर्शनार्थियों को हस्तिनापुर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रतिदिन आने वाले दर्शनार्थियों में अधिकतम ऐसे होते हैं, जो कि यहाँ पहली बार आने वाले होते हैं। सभी दर्शनार्थियों के मुख से एक स्वर से यही कहते हुए सुनने में आता है कि हमें तो कल्पना भी नहीं थी कि इतनी आकर्षक जम्बूद्वीप की रचना बनी होगी। हस्तिनापुर आने वाले दर्शकों को जम्बूद्वीप रचना के साथ ही उसकी प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का एवं उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का भी स्वर्णिम अवसर सहज में प्राप्त हो जाता है। पूज्य माताजी ने जंबूद्वीप रचना की प्रेरणा तो की ही, साहित्य निर्माण के क्षेत्र में भी अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया। अढ़ाई हजार वर्ष में दिगम्बर जैन समाज में ज्ञानमती माताजी पहली महिला हैं, जिन्होंने ग्रंथों की रचना की। अब से पहले के लिखे जितने भी ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, वे सब पुरुष वर्ग के द्वारा लिखे गये हैं-आचार्यों ने लिखे, मुनियों ने लिखे या पंडितों ने लिखे। किसी श्राविका अथवा आर्यिका द्वारा लिखा एक भी ग्रंथ कहीं के भी ग्रंथ भंडार में देखने में नहीं आया। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने त्याग और संयम को धारण करते हुए एक दो नहीं, डेढ़ सौ छोटे-बड़े ग्रंथों का निर्माण किया । न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, अध्यात्म आदि विविध विषयों के ग्रंथों की टीका आदि की। भक्तिपरक पूजाओं के निर्माण में उल्लेखनीय कार्य किया है। इंद्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विंधान, सर्वतोभद्र विधान, जम्बूद्वीप विधान जैसी अनुपम कृतियों का सृजन किया। सभी वर्ग के व्यक्तियों को दृष्टि में रखकर माताजी ने विभिन्न रुचि के साहित्य की रचनाएं कीं। प्राचीन धार्मिक कथाओं को उपन्यास की शैली में लिखा। अब तक माताजी की एक सौ दस कृतियों का प्रकाशन विभिन्न भाषाओं में दस लाख से अधिक मात्रा में प्रकाशित हुआ है। पूज्य माताजी की लेखनी अभी भी अविरल गति से चल रही है। आचार्य कुंदकुंद द्विसहस्राब्दि महोत्सव के इस पावन प्रसंग पर अभी-अभी समयसार की आचार्य अमृतचंद्र एवं आचार्य जयसेनकृत टीकाओं का हिन्दी अनुवाद किया, जिसका पूर्वार्ध छपकर जन-जन के हाथों में पहुंच चुका है। ग्रंथों का प्रकाशन कार्य अभी भी सतत् चल रहा है। महान् दानतीर्थ हस्तिनापुर क्षेत्र का दर्शन महान् पुण्य फल को देने वाला है। यह तीर्थक्षेत्र युगों-युगों तक पृथ्वी तल पर धर्म की वर्षा करता रहे, यही मंगल भावना है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८०] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला आर्यिका चर्या-आगम के आलोक में लेखिका-आर्यिका चंदनामती इस कर्मयुग के प्रारंभ में जिस प्रकार से तीर्थङ्कर आदिनाथ ने दीक्षा लेकर मुनि परंपरा और मोक्ष परंपरा को प्रारंभ किया, उसी प्रकार उनकी पुत्री ब्राह्मी-सुंदरी ने दीक्षा लेकर आर्यिका परंपरा का शुभारंभ किया है। किंवदंती में ऐसा लोग कह देते हैं कि भगवान् आदिनाथ को अपने जमाइयों के समक्ष मस्तक झुकः ।। पड़ता, इसलिए उनकी कन्याओं ने विवाहबंधन ठुकराकर दीक्षा धारण की थी। किन्तु यह बात कुछ युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होती, न ही इतिहास इस तथ्य को स्वीकार करता है। तीर्थङ्कर की तो प्रत्येक क्रिया ही अद्वितीय होती है, वे शैशव अवस्था से ही अपने माता-पिता एवं दिगम्बर मुनि को भी नमस्कार नहीं करते हैं, इसमें उनका अहंकार नहीं, बल्कि तीर्थङ्कर प्रकृति का माहात्म्य प्रगट होता है। माता-पिता या दिगम्बर मुनिराज उनकी इस क्रिया का प्रतिरोध भी नहीं करते हैं, प्रत्युत् तीर्थङ्कर के पुण्य की सराहना करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मी सुंदरी कन्याओं ने उत्कट वैराग्य भावना से आर्यिका दीक्षा आदिनाथ के समवसरण में धारण की थी तथा तीन लाख पचास हजार आर्यिकाओं में प्रधान "गणिनी" पद को प्राप्त किया था। "सार्वभौम जैनधर्म प्राणीमात्र का हित करने वाला है" यह सोचकर हृदय में संसार समुद्र से पार होने की भावना को लेकर कोई महिला साधुसंघ में प्रवेश करती है, पुनः उसके वैराग्य भावों में वृद्धि प्रारंभ होती है। चतुर्विध संघ के नायक आचार्य उसे समुचित शिक्षाएं प्रदान कर संघ की प्रमुख आर्यिका या गणिनी के सुपुर्द कर देते हैं, क्योंकि आर्यिकाएं ही महिलाओं की सुरक्षा एवं पोषण कर सकती हैं। जिस प्रकार से बालक माता के प्रति पूर्ण समर्पित होता है, उसी प्रकार वैराग्यभाव युक्त महिला भी आर्यिका माता के शिष्यत्व को स्वीकार करके स्वयं को उनके प्रति समर्पित कर देती है और उनसे निवेदन करती है कि हे मातः! मैं अपने अनन्त संसार को समाप्त करने हेतु स्त्रीलिंग के छेदन हेतु दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ, अतः आप मुझे हस्तावलंबन देकर मेरी आत्मा का कल्याण कीजिए। इन औपचारिकताओं के पश्चात् गणिनी आर्यिका उस नववैराग्यशालिनी महिला को कुछ दिन अपने पास रखती हैं और उसके मन की दृढ़ता को, शारीरिक क्षमता को एवं उसमें आर्यिका दीक्षा की योग्यता देखती हैं तथा धार्मिक अध्ययन भी कराती हैं। साधुसंघ में प्रवेश करते ही वह दीक्षा धारण ही कर लेवे, यह कोई आवश्यक नहीं है। सर्वप्रथम तो उसमें साधुओं की वैयावृत्ति करने की एवं आहारदान की भावना होनी चाहिए तथा भिन्न-भिन्न प्रदेशों की, भित्र-भित्र प्रकृति वाली संघस्थ आर्यिकाओं व ब्रह्मचारिणियों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, ताकि संघ में किसी प्रकार की अशांति का वातावरण न उपस्थित होने पाये। ___ संघ के बीच में एवं गणिनी गुर्वानी के अनुशासन में रहकर विद्याभ्यास करने से ब्रह्मचारिणियों के जीवन में अनर्गल क्रियाओं की संभावनाएं प्रायः नहीं रहती हैं। अतः आर्यिकाओं की प्रशस्त परंपरा इन्हीं से चलती है। जब संघ संरक्षण में रहती हुई ये विद्या-शिक्षा में निपुण हो जाती हैं एवं व्यवहारिक ज्ञान आदि का अनुभव भी प्राप्त कर लेती हैं, तभी वे दीक्षा के योग्य माने जाते हैं। संघ के आचार्य अथवा गणिनी आर्यिका जी जब उस वैराग्यशील महिला का पूर्ण रूप से परीक्षण कर लेती हैं, तब उसकी दीक्षा का मंगल मुहूर्त निकालकर घोषणा करते हैं। औपचारिकता के नाते दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से भी आज्ञा मंगानी होती है ताकि दीक्षा जैसा पुनीत कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो सके। दीक्षार्थी महिला की इच्छानुसार तीर्थयात्राएं भी उसे करवा दी जाती हैं, पुनः जिन धर्म प्रभावना हेतु दीक्षार्थी की शोभा यात्राएं भी सम्पन्न होती हैं। यह कार्य गृहस्थ श्रावकों एवं दीक्षार्थी के परिवार वालों पर निर्भर रहता है। यह क्रियायें वर्तमान काल में लोक व्यवहार की दृष्टि से और धार्मिक प्रभावना के लक्ष्य से ही की जाती हैं, इससे आत्मकल्याण का कोई विशेष संबंध नहीं है। पूर्वकाल के उदाहरण भी अपने समक्ष है कि वैराग्य होने के बाद पुनः किसी घड़ी की प्रतीक्षा नहीं की जाती, क्योंकि असली वैराग्य ही सर्वोत्तम माना जाता है। आदिपुराण के पृ. ५९२ पर श्री जिनसेन आचार्य ने लिखा है भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्। गणिनी पदमार्यायां सा भेजे पूजितामरैः ॥ हरिवंशपुराण पृष्ठ १८३ पर भी प्रकरण है ब्राह्मी च सुंदरी चोमे कुमार्यो धैर्य संगते। प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ अर्थात् ब्राह्मी सुंदरी दोनों कन्याओं ने प्रभु आदिनाथ के समवशरण में आर्यिका दीक्षा धारण की थी और ब्राह्मी आर्थिका समस्त आर्यिकाओं में गणिनी स्वामिनी थीं। इस युग की प्रथम आर्यिका ने भगवान् के समवशरण में दीक्षा ली थी। उसके पश्चात् महिलाओं के लिए गणिनी से दीक्षा प्राप्त करने के अनेकों उदाहरण देखे जाते हैं—आदिपुराण द्वितीय भाग में पृ. ५०३ पर आया है "भरत के सेनापति जयकुमार की दीक्षा के बाद सुलोचना ने भी ब्राह्मी आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली।" अन्यत्र हरिवंश पुराण में भी कहा है - "दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ श्वेत साड़ी धारण कर ब्राह्मी तथा सुंदरी के पास दीक्षा धारण कर ली। इसके साथ हरिवंश पुराण में आर्यिका सुलोचना को ग्यारह अंग की धारिणी भी माना है। कुबेरमित्र की स्त्री धनवती ने संघ की स्वामिनी आर्यिका अमितमति के पास दीक्षा धारण कर ली और उन यशस्वती तथा गुणवती आर्यिकाओं की माता कुबेर सेना ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली। पद्मपुराण में भी वर्णन आता है " रावण के मरने के बाद मंदोदरी ने शशिकांता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग और उत्तम गुणों को प्राप्त हुई गृहस्थ की वेशभूषा को छोड़कर श्वेत साड़ी से आवृत हुई आर्यिका हो गई। उस समय अड़तालीस हजार स्त्रियों ने संयम धारण किया था, इन्हीं में रावण की बहन जो कि खरदूषण की पत्नी थी, उस चन्द्रनखा (सूर्पणखा) ने भी दीक्षा ले ली थी । माता कैकेयी भरत की दीक्षा के बाद विरक्त एक सफेद साड़ी से युक्त होकर तीन सौ त्रियों के साथ "पृथ्वीमती" आर्यिका के पास दीक्षित हो गई थीं। अग्नि परीक्षा के पश्चात् रामचंद्र ने सीता से घर चलने को कहा, तब सीता ने कहा कि अब मैं "जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगी" वहीं केशलोंच करके पुनः शीघ्र जाकर पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो गई। उनके बारे में लिखा है कि सीताजी वस्त्र मात्र परिग्रह धारिणी महाव्रतों से पवित्र अंग वाली महासंवेग को प्राप्त थीं। इसी प्रकार से पद्मपुराण में श्री रविषेणाचार्य कहते हैं हनुमान की दीक्षा के पश्चात् उसी समय शील रूपी आभूषणों को धारण करने वाली राजस्त्रियों ने "बंधुमती" आर्थिका के पास दीक्षा ले ली। श्री रामचंद्र के मुनि बनने के बाद सत्ताईस हजार प्रमुख स्त्रियाँ "श्रीमती" नामक आर्यिका के पास आर्यिका हुई। हरिवंश पुराण में राजुल के विषय में बताया है ६८.१ षट्सहस्त्रनृपस्त्रीभिः सह राजीमती सदा प्रव्रज्याग्रेसरी जाता सार्यिकाणां गणस्य तु ॥ १४६ ॥ छह हजार रानियों के साथ राजीमती ने भगवान् नेमिनाथ के समवशरण में आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गई। हरिवंशपुराण में ही आगे Jain Educationa International राजा चेटक की पुत्री चंदना कुमारी, एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर भगवान महावीर के समवशरण में आर्यिकाओं में प्रमुख हो गईं। राजा श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् रानी चेलना गणिनी आर्यिका चंदना के पास दीक्षित हो गईं, जो कि चंदना की बड़ी बहन थीं। ऐसा उत्तरपुराण में कथन आया है तथा गुणरूपी आभूषण को धारण करने वाली कुन्ती, सुभद्रा तथा द्रौपदी ने भी राजमती गणिनी के पास उत्कृष्ट दीक्षा ले ली थी। और भी पुराणों में कितने ही उदाहरण है, जिनसे स्पष्ट होता है कि एक प्रमुख गणिनी आर्यिका समवशरण में तीर्थंकर की साक्षीपूर्वक दीक्षित होकर अन्य आर्यिकाओं को दीक्षा प्रदान करती थीं । आज भी गणिनी आर्यिकाओं के द्वारा आर्यिका क्षुल्लिका की दीक्षाएं प्रदान की जाती हैं, यह प्रसन्नता की बात है। इसी श्रृंखला में वर्तमान की सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के कर कमलों द्वारा मुझे भी आर्यिका चंदनामती बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वर्तमान युग में आचार्य और गणिनी दोनों के द्वारा महिलाओं की आर्यिका क्षुल्लिका दीक्षा परंपरा चल रही है। अतः स्वेच्छा से वैराग्यशालिनी महिला जिनके श्रीचरणों में दीक्षा की याचना करती है, वे जिम्मेदारी पूर्वक दीक्षा देकर अनुग्रह आदि करते हुए उसे नवजीवन में प्रवेश कराते हैं। दीक्षा दिवस से पूर्व तक उसे श्राविका के समस्त कर्त्तव्य पालन करने होते हैं। जैसे- जिनेन्द्र पूजा विधान, उत्तम आदि पात्रों को शक्ति अनुसार चतुर्विध दान देकर अपने मन को पवित्र बनाती हैं। 1 दीक्षा का दृश्य अपने आप में एक रोमांचक दृश्य होता है आपकी पुत्री का विवाह अपने घर के छोटे से मंडप में हो जाता है और दीक्षा का महान् कार्य विशाल मंडप में सम्पन्न होता है, जहाँ एक परिवार को छोड़कर "वसुधैव कुटुम्बकम्" अर्थात् सारे संसार को अपना कुटुम्ब समझा जाता है। परन्तु वास्तविकता तो यह है कि न एक परिवार अपना है और न ही समस्त संसार अपना हो सकता है, अपना तो केवल आत्मा है, उसे पाने के लिए ही For Personal and Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला दीक्षा धारण की जाती है। जैसा कि कुंदकुंद स्वामी ने कहा है आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं । . . . . इत्यादि । आत्महित की प्रमुखता से ही दीक्षा लेना सर्वोत्तम कार्य है, परहित उसके साथ हो जावे तो ठीक है, किन्तु मात्र परहित का ही लक्ष्य रखना आत्महित में बाधक हो सकता है। जैसी कि वर्तमान परंपरा चल रही है पश्चात् सभामंडप में पूर्वमुख या उत्तर मुख उसे बैठाकर गणिनी आर्यिका सर्वप्रथम केशलोंच प्रतिष्ठापन में सिद्ध भक्ति योगभक्ति पढ़कर दीक्षार्थी का केशलोंच प्रारंभ कर देती हैं। देखते ही देखते सभामंडप में असीम वैराग्य का दृश्य उपस्थित हो जाता है। कई बार देखने में आता है कि वह बहन स्वयं भी वीरतापूर्वक अपना केशलोंच करती हैं। वह ममता जिसने बालिका को दुग्धपान के साथ अपने आंचल की छाँव दी थी, वे कलाइयाँ जिन्होंने सदा बहन के रक्षासूत्र को अंगीकार किया था, वह गोद जिसने कन्यारत्न को झूले की भाँति झुलाया था, वह स्नेहिल परिवार जिसने सदैव उसके सुख-दुःख में हाथ बंटाया था, सभी उस क्षण वैराग्य की मोहिनी मुद्रा के प्रति नतमस्तक हो जाते हैं तथा कोई-कोई चिरकालीन मोहवश अश्रुधारा से अपना मलिन हृदय भी निर्मल करते हैं। मानव जीवन की दुर्लभता का चिन्तन करने पर ही संसार से वैराग्य होता है और दीक्षा के शुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं। महान् पुण्योदय से जब कोई महिला दीक्षा के लिए अग्रसर होती है, तब उसकी सर्वप्रथम परीक्षा केशलोंच की क्रिया से प्रारंभ होती है। जब पांडाल में गणिनी आर्यिका जी एवं अन्य आर्यिकाओं के द्वारा केशलुश्चन सम्पन्न कर दिया जाता है, तभी उसके आगे दीक्षा की क्रिया प्रारंभ होती है। केशलोंच के पश्चात् उस श्राविका को सौभाग्यवती महिलाएं मंगल स्नान के लिए ले जाती हैं, जहाँ मंगल स्नान कराकर मात्र एक साड़ी जैसा कि उन्हें अब जीवन भर एक साड़ी ही धारण करनी है, उसे पहनाकर पुनः मंगल गीत गाती हुईं महिलाएं उस श्राविका को पुनः स्टेज पर लाती हैं। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की संघ परम्परानुसार दीक्षा से पूर्व मंच पर वह श्राविका जिनेन्द्र भगवान का पंचामृत अभिषेक पूजन करती है, पुनः श्रीफल लेकर गुरु चरणों में समस्त जनता की साक्षी पूर्वक दीक्षा के लिए निवेदन करती है। जिन्हें भाषण देने का अभ्यास होता है, वे मंच पर खड़ी होकर दीक्षा की प्रार्थना हेतु वैराग्यप्रद भांवों से युक्त कुछ भाषण भी करती हैं और अपने परिवारजनों एवं प्राणिमात्र से क्षमा याचना करती हुई सभी के प्रति स्वयं का क्षमाभाव भी प्रकट करती हैं। गुरु की पुनः पुनः स्वीकृति प्राप्त होने के पश्चात् वे आचार्य अथवा गणिनी सौभाग्यवती महिलाओं के द्वारा पूरे गए मंगल चौक पर दीक्षार्थी महिला को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठा देते हैं। दीक्षा प्रदान करने वाली गणिनी आर्यिका अथवा आचार्य पहले उस दीक्षार्थी से कहते हैं कि तुम्हें हमारे संघ की मर्यादा और अनुशासन में रहना होगा, एकाकी विहार नहीं करना एवं ख्याति, लाभ, पूजा में पड़कर अपनी गुरु परम्परा को नहीं तोड़ना इत्यादि बातें तुम्हें मंजूर हैं तो मैं दीक्षा के संस्कार प्रारम्भ करता हूँ। जब वह दीक्षार्थी महिला गुरु की सभी बातों को स्वीकार कर लेती है, तब गुरुवर्य अपने संघस्थ सभी साधुओं से, दीक्षार्थी के कुटुम्बियों से एवं वहाँ पर उपस्थित समस्त जन समूह से पूछते हैं कि क्या इसे दीक्षा दी जावे? तब सभी साधुवर्ग भी धर्म वृद्धि से हर्षितमना होते हुए सहर्ष स्वीकृति देते हैं और श्रावकगण व दीक्षार्थी के कुटुम्बीवर्ग भी दुःखमिश्रित हर्षपूर्वक जय-जयकार की ध्वनि से सभा को गुंजायमान करते हुए स्वीकृति देते हैं। बस फिर क्या है, शास्त्रों में वर्णित दीक्षा विधि के अनुसार गणिनी के द्वारा दीक्षार्थी के मस्तक पर बीजाक्षर लिखकर पीले तंदुल और लवंग से मंत्रों का आरोपण किया जाता है। उसके हाथ में बीजाक्षर लिखकर तथा दोनों हाथों की अंजुलि में तंदुल भरकर उसमें श्रीफल आदि मंगल द्रव्य रखकर पुनः उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्रदान करती हैं। पुनः अपनी गुरु परम्परानुसार गुर्वावली को पढ़कर मंत्रों द्वारा गणिनी स्वयं संयम का उपकरण मयूर पंख की पिच्छिका, शौच के लिए उपकरण स्वरूप नारियल का कमंडलु और ज्ञान का उपकरण शास्त्र प्रदान करती हैं। शिष्या भी विनयपूर्वक दोनों हाथों से पिच्छिका को, बाएं हाथ से कमंडलु को और दोनों हाथों से शास्त्र को ग्रहण करती हैं। इन्हीं संस्कारों के साथ ही गुरु द्वारा उस नवदीक्षिता का नवीन नामकरण भी किया जाता है, तभी नये नाम वाली आर्यिका माताजी की जयकारों से पंडाल गूंजने लगता है। सारी वेशभूषा और क्रियाओं के परिवर्तन के साथ ही नाम भी परिवर्तित हो जाने से अब वह पूर्ण रूप से नवजीवन में प्रवेश कर जाती है। पुनः नवदीक्षिता आर्यिका सर्वप्रथम भक्तिपूर्वक दीक्षागुरु को नमोऽस्तु-वंदामि करके अन्य साधु-साध्वियों को नमोस्तु-वंदामि करके साधु श्रेणी में ही बैठ जाती हैं। उस नवदीक्षिता आर्यिका को सर्वप्रथम कुछ दम्पति श्रीफल आदि चढ़ाकर "वंदामि" कहकर नमस्कार करते हैं। यह विशेष ज्ञातव्य है कि दीक्षा के दिन उस दीक्षार्थी महिला का उपवास रहता है। द्वितीय दिवस पारणा के लिए गणिनी आर्यिका के पीछे श्रावकों के घर में आहार हेतु जाती हैं। वहाँ पर श्रावक विधिवत् पड़गाहन करके नवधा भक्ति से आहार दान देकर अपना जन्म सफल समझते हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ जैनधर्म अनादि निधन है! "उत्तमे सुखे धरतीति धर्मः" अर्थात् जो संसार के दुःखों से निकालकर संसारी प्राणियों को उत्तम सुख में पहुँचाता है, वह "धर्म" कहलाता है तथा 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी प्रकार की गई है - "कर्मारातीन् जयतीति जिनः" अर्थात् कर्म शत्रुओं को जिन्होंने जीत लिया है, वे 'जिन' कहे जाते हैं एवं "जिनो देवता यस्यासौ जैनः” इसका अर्थ है कि जिनेन्द्र भगवान् जिनके देवता हैं, अर्थात् जो जिनेन्द्र की उपासना करते हैं वे "जैन" कहलाते हैं। इस प्रकार जैन और धर्म का समुच्चय रूप 'जैनधर्म' है। इस जैनधर्म का सीधा संबंध व्यक्ति के आचरण एवं आत्मा से है न कि "जाति" या "सम्प्रदाय" से। आज जैनधर्म को जातिवाचक व्यक्तिगत धर्म बना दिया गया है, किन्तु जैनधर्म जहाँ प्रत्येक मानव पालन कर सकता है, वहीं तिर्य पशु-पक्षी भी उसे अनादिकाल से धारण करते आए हैं, जिनके अनेक उदाहरण पुराणों में देखे जाते हैं। इस धर्म की व्यापकता के साथ-साथ इसके अनादिनिधनत्व पर भी ध्यान देना परमावश्यक है। इसे न तो भगवान् वृषभदेव ने चलाया और न तीर्थङ्कर महावीर ने वह अनादिकाल से इस सृष्टि के साथ समाहित रहा है। तीर्थङ्करों ने तो समय-समय पर इस धर्म का प्रवर्तन प्रचार किया है, न कि चलाया है। इसी प्रकार यह धर्म कभी समाप्त भी नहीं होता है, इसीलिए इसे "अनन्तता" प्राप्त है। जो धर्म किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा प्रारंभ किये जाते हैं, उनका कभी नाश भी संभव है, किन्तु जैसे प्रकृति को कोई नष्ट नहीं कर सकता, उसी प्रकार जैनधर्म भी चूँकि प्राकृतिक धर्म है, इसलिए उसका नाश संभव नहीं है। ६८३ जैन सिद्धान्त के अनुसार संसार की सृष्टि भी प्राकृतिक और अनादि निधन है, उसे न कोई विधाता ब्रह्मा बनाता है और न कोई महेश्वर उसका संहार करता है। यहाँ सृष्टि की रचना में 'कर्म' को मूलस्रोत माना है। यूँ तो सृष्टि का रहस्य जानने की जिज्ञासा मनुष्य की बहुत पुरानी जिज्ञासा है। मानव को कल्याण का मार्ग बताने वाले प्रायः सभी विचारकों ने इस रहस्य को समझने-समझाने के प्रयास किये हैं। उनके समाधान चाहे जितने भिन्न रहे हों, परन्तु एक तथ्य पर वे सभी प्रायः एकमत हो जाते हैं कि यह सारी सृष्टि मूलतः जड़ और चेतन इन दो तत्वों के मेल से बनी है। विश्व में सारा खेल इन्हीं दो तत्त्वों का है । चेतन का मतलब तो आत्मतत्त्व है ही और जड़ का तात्पर्य पुद्गल से है। इन जड़ और चेतन का पारस्परिक संबंध ही कर्म कहलाता है, जो कि संसार का विराट् रूप बना हुआ है। कर्म आठ हैं - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । वास्तव में तो ये कर्म ही हम सबके विधाता ब्रह्मा हैं, जिनसे हमारी अनादिकालीन सृष्टि रची जा रही है। इन कर्मों के ही बंध, उदय आदि से गतियों का निर्माण चलता है। 1 जैन सिद्धान्तानुसार गतियाँ चार है— देवगति, मनुष्यगति, नरकगति और तिर्यञ्चगति। इनमें से शुभ कर्मों से 'देवगति' प्राप्त होती है, शुभ-अशुभ दोनों कर्मों से 'मनुष्यगति' मिलती है, पाप कर्म के कारण जीवों को तिर्यञ्च गति में जाना पड़ता है और तीव्र पाप कर्मों से "नरकगति" की प्राप्ति होती है। इन गतियों में भ्रमण करते-करते कभी यह जीव काललब्धिवश सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन क्या है? आत्मा में जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बताए गए तत्त्वों के प्रति रुचि जाग्रत हो जाने का नाम ही "सम्यग्दर्शन" है। यह मनुष्यों में आठ वर्षों के बाद और शेष तीनों गतियों में भी अपने-अपने समयानुसार उत्पन्न हो सकता है। संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो जो मनुष्य जैनेश्वरी दीक्षा धारण करते हैं, संसार से पार कराने वाले सम्यग्ज्ञान का अर्जन करते है, तब वे शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। मोक्ष किसे कहते हैं? आठ कर्मों के उत्तर भेद १४८ हैं। इन्हें पूर्ण रूप से नष्ट कर देने का नाम ही "मोक्ष" है। इस मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने के बाद कोई जीव संसार में पुनः वापस नहीं आता, वह वहीं सिद्धशिला पर अनन्त काल तक आत्म सुख का उपभोग करता रहता है। इस मोक्ष अवस्था को पाने हेतु ही दैगम्बरी दीक्षा धारण की जाती है। Jain Educationa International -- जैन परम्परा में दीक्षा की विविध श्रेणियाँ हैं जिनमें पुरुषों की तीन श्रेणी हैं मुनि, ऐलक और क्षुल्लक तिल-तुष मात्र भी परिग्रह का त्याग कर दिगम्बर हो जाने का नाम मुनि दीक्षा है। इन्हें अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करना होता है। शरीर पर एक लंगोटी मात्र धारण करने वाले "ऐलक" होते हैं। इनकी ग्यारह प्रतिमाएं होती है तथा समस्त चर्या मुनि के समान ही होती है, किन्तु लंगोटी धारण करने के कारण पंचमगुणस्थान से ऊपर नहीं पहुँच सकते। ये बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करते हैं तीसरी श्रेणी क्षुल्लक की है, जिसमें पुरुष लंगोट और चादर का परिग्रह रखते हैं। ये ऐलक और क्षुल्लक दोनों उत्तम आवक की कोटि में आते हैं और क्षुल्लक जी कटोरी या थाली में एक बार भोजन ग्रहण करते हैं। | इसी प्रकार स्त्रियों में दीक्षा की दो श्रेणियाँ होती है— आर्यिका और क्षुल्लिका इनका वर्णन पहले किया ही जा चुका है। For Personal and Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मोक्ष व्यवस्था दिगम्बर मुनि विशेष तपश्चरण के द्वारा उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। विदेह क्षेत्र से सतत और भरतक्षेत्र से चतुर्थ काल में साक्षात् मोक्षपरम्परा चालू रहती है। वर्तमान में यहाँ पंचमकाल चल रहा है, अतः मोक्ष नहीं है, शुक्लध्यान नहीं है, किन्तु मोक्ष का मार्ग चल रहा है। इस काल में उत्तम संहनन का अभाव है, इसीलिए ये सभी चीजें सुलभ नहीं हैं। हाँ, इस भव से मुनिगण उत्कृष्ट धर्मध्यान के बल पर इन्द्रत्व एवं लोकान्तिक देव के पद को प्राप्त कर वहाँ से च्युत होकर अगले मनुष्य भव में मुनि अवस्था धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा श्री कुंदकुंद देव ने मोक्षपाहुड़ में कहा है अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इन्दत्तं । लोयन्तियदेवत्तं तंत्थचुदा णिव्वुदि जन्ति ॥ ७७ ॥ यह तो हुई मुनिवेश से मोक्ष व्यवस्था तथा क्षुल्लक-ऐलक बिना मुनि बने मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। दिगम्बर जैन परंपरानुसार द्रव्य पुरुषवेदी ही मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं, स्त्री अथवा नपुंसक नहीं। धवला की प्रथम पुस्तक में इस विषय का स्पष्ट खुलासा आया है कि भाव से तीनों वेदों के द्वारा मोक्ष मिल सकता है, किन्तु द्रव्य से बाह्य में पुरुष वेदी होना आवश्यक है। कर्मभूमि की स्त्रियों के उत्तम संहनन नहीं होते, इसलिए वे चतुर्थकाल में भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती हैं। आज पंचम काल में मुनि के समान आर्यिकाएं भी अट्ठाईस मूलगुण धारण कर एवं उपचार महाव्रती बनकर अपना कल्याण मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। ये भी अपने व्रतों का दृढ़ता पूर्वक पालन करके स्वर्ग में इंद्रादि पदवी पाकर अगले मनुष्य भव में पुरुषपर्याय के द्वारा मुनिव्रत धारण कर निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं। अतः स्त्रीलिंग छेदन एवं दो-तीन भवों में मोक्ष प्राप्त करने के लिए ही मुख्य रूप से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की जाती है। लोकानुरञ्जन अथवा ख्याति, लाभ, पूजा आदि के निमित्त से ली गई दीक्षा जीवन में कभी सारभूत तत्त्व को प्राप्त नहीं करा सकती है। जिस प्रकार से मूल-जड़ के बिना वृक्ष नहीं ठहरता, मूल-नींव के बिना मकान नहीं बनता। उसी प्रकार मूल-प्रधान आचरण के बिना श्रावक और साधु दोनों की सार्थकता नहीं होती है। यहाँ पर आर्यिकाओं की चर्या का प्रकरण चल रहा है, अतः उनके मूलगुणों का ही कथन किया जा रहा है। मुख्यरूप से मुनियों के मूलगुण २८ होते हैं। जैसा कि प्रतिक्रमण पाठ में स्थान-स्थान पर कथन आता है वदसमिदिदिय रोधो, लोचो आवासयमचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं, ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ १ ॥ एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थ पमादकदादो, अइचारादो णियत्तोहं ॥ २ ॥ पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निदोध, षट् आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, अनान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एक भक्त । ये २८ मूलगुणों के नाम हैं। इन्हें तीर्थंकर आदि महापुरुष भी मुनि अवस्था में पालन करते हैं एवं ये स्वयं महान् हैं, अतः इन व्रतों को महाव्रत भी कहते हैं। इन २८ मूलगुणों के अलग-अलग नाम और लक्षण यहाँ पर प्रस्तुत हैं। १. अहिंसा महाव्रत-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छह काय हैं, इन छहकायिक जीवों की हिंसा का मन-वच-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत वाले सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि होते हैं और एक साड़ी मात्र परिग्रह वाली आर्यिकायें होती हैं। २. सत्यमहाव्रत-रागद्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से भरे हुए वचनों का त्याग करना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात होता हो, सो सत्य महाव्रत है। ३. अचौर्य महाव्रत-ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के दिए बिना योग्य वस्तु को भी नहीं लेना अचौर्य महाव्रत है। ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत-रागभाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना, बालिका युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना त्रैलोक्य पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पुरुषों में वृद्ध, युवा और बालक में पिता, भाई और पुत्र का भाव रखते हुए पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना यह आर्यिकाओं के लिए ब्रह्मचर्य महाव्रत है। ५. परिग्रह त्याग महाव्रत-धन, धान्य आदि दश प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्ववेद आदि चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग करना, वस्त्राभूषण अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना यहाँ तक कि लंगोट मात्र भी नहीं रखना अपरिग्रह महाव्रत है। आर्यिकाओं के लिए दो साड़ी रखने का विधान है। यही उनका अपरिग्रह महाव्रत है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८५ आगम में कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। इसके भी पाँच भेद हैं-ईया, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग। ६. ईर्यासमिति-निर्जंतुक मार्ग से सूर्योदय होने पर चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्त करके तीर्थ यात्रा, गुरु वंदना आदि धर्म कार्यों के लिए गमन करना ईर्यासमिति है। ७. भाषा समिति-चुगली, हँसी, कर्कश, पर-निंदा आदि से रहित हित, मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है। ८. एषणा समिति-छियालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक निर्दोष पवित्र करपात्र में आहार लेना एषणा समिति है। ९. आदान निक्षेपण समिति-पुस्तक कमंडलु आदि को रखते उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना, तृण-घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना, आदान निक्षेपण समिति है। १०. उत्सर्ग समिति-हरी, घास, चिंवटी आदि जीवजन्तु से रहित प्रासुक, ऐसे एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति है। स्पर्श रसना आदि पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, इनको शुभ ध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँच इन्द्रियों की अपेक्षा से पाँच भेद होते हैं। ११. स्पर्शन इंद्रिय निरोध-निरोध सुखदायक, कोमल स्पर्शादि में या कोठोर कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनन्द या खेद नहीं करना। १२. रसनेंद्रिय निरोध-सरस मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष विषाद नहीं करना। १३. घ्राणेंद्रिय निरोध-सुगन्धित पदार्थ में या दुर्गन्धित वस्तु में रागद्वेष नहीं करना। १४. चाइंद्रिय निरोध-स्त्रियों के सुन्दर रूप या विकृतवेष आदि में राग भाव नहीं करना और द्वेष भाव भी नहीं करना। १५. कर्णेन्द्रिय निरोध-सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर-निन्दा, गाली आदि के वचनों में हर्ष विषाद नहीं करना । यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो तो उसे राग भाव से नहीं सुनना। जो अवश-जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है, वह आवश्यक कहलाता है। उसके छः भेद हैं-समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याखान और कायोत्सर्ग । १६. समता-जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसी का नाम सामायिक है। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिक व्रत है। प्रातः मध्याह्न और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त-४८ मिनिट तक सामायिक करना होता है। १७. स्तुति-वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तुति नाम का आवश्यक है। १८. वंदना- अरिहंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमा को जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्म पूर्वक नमस्कार करना वंदना है। १९. प्रतिक्रमण-अहिंसादि व्रतों में जो अतिचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनकी निंदा गर्दा पूर्वक शोधन करना-दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके भी सात भेद हैं-ऐर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ । __गमनागमन से हुये दोषों को दूर करने के लिये पडिक्कमामि भंते इरियावहियाए विराहणाए" इत्यादि दण्डकों का उच्चारण करके कार्योत्सर्ग करना ऐपिथिक प्रतिक्रमण है। दिवस सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिये सायंकाल में "जीवे प्रमादजनिता" इत्यादि पाठ करना दैवसिक, रात्रि सम्बन्धी दोषों के निराकरण हेतु रात्रि के अंत में प्रतिक्रमण करना रात्रिक, प्रत्येक मास की चतुर्दशी या पूर्णिमा या अमावस्या को करना पाक्षिक, कार्तिक और फाल्गुन मास के अंत में करना चातुर्मासिक, आषाढ़ी अन्तिम चतुर्दशी या पूर्णिमा को करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है एवं समाधि के समय उत्तमार्थ प्रतिक्रमण किया जाता है। २०. प्रत्याख्यान-मन वचन काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण करने के अनंतर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो लघुसिद्दयोगभक्ति पूर्वक चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है। २१- दैवसिक-, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छवास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वास पूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना । काय-शरीर से उत्सर्ग-ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। यहां तक इक्कीस मूलगुण हुए हैं अब शेष सात को भी स्पष्ट करते हैं। २२- (१) लोच- अपने हाथ से अपने सिर, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ना केशलोंच मूलगुण है। केश में जूं आदि जीव पड़ जाने से हिंसा होगी या उन्हें संस्कारित करने के लिये तेल, साबुन आदि की जरूरत होगी जो टि साधु पद के विरुद्ध होगा। अतः दीनता, याचना परिग्रह अपमान आदि दोषों से बचने के लिये यह क्रिया है। लोच के दिन उपवास करना होता है और लोच करते या कराते समय मौन रखना होता है। इसके उत्तम, मध्यम और जघन्य ऐसे तीन भेद हैं- दो महीने पूर्ण होने पर उत्तम, तीन महीने में मध्यम और चार महीने पूर्ण होने पर जघन्य । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ ] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला केशलोंच कहलाता है। चार महीने के ऊपर हो जाने पर साधु प्रायश्चित का भागी होता है। २३- अचेलकत्व सूती, रेशमी, आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेश धारण करना अचेलकत्व है। यह महापुरुषों द्वारा ही स्वीकार किया जाता है, तीनों जगत् में वंदनीय महान् पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं, अतः निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है। २४- अस्नानव्रत-स्त्रान उबटन आदि से शरीर के संस्कारों का त्याग करना, अस्नान व्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को धो डालते हैं। चांडालादि अस्पर्श्यजन का हड्डी का चर्म, विष्ठा आदि का स्पर्श हो जाने से वे मुनि दंड स्नान करके गुरु से प्रायश्चित ग्रहण करते हैं। २५- भूमिशयन- निर्जंतुक भूमि में घास या पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमि शयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से स्वल्प निद्रा लेना होता है। २६ अदंतधावन नीम की लकड़ी, बुश आदि से दातौन नहीं करना। दाँतों को नहीं घिसने से इंद्रिय संयम होता है, शरीर से विरागता प्रक होती है और सर्वज्ञ देव की आज्ञा का पालन होता है। २७. स्थिति भोजन - खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थिति भोजन है। २८. एक भक्त - सूर्योदय के अंनंतर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल के सिवाय कभी भी एक बार आहार ग्रहण करना एक भक्त है। आजकल प्रायः ९ बजे से ग्यारह बजे तक साधु जन आहार को जाते हैं। कदाचित् कुछ कारणवश सुबह चर्या में नहीं उठे हैं तो एक बजे के बाद भी जा सकते हैं। दिन में एक बार ही आहार को निकलना चाहिये। कदाचित् लाभ न मिलने पर उस दिन पुनः आहारार्थ नहीं जाना चाहिये। आर्यिकाओं के ये २८ मूलगुण कैसे होते है? इस बात का खुलासा परमपूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित "आर्यिका” नामक पुस्तक में है। यथा प्रायश्चित ग्रंथ में आर्यिकाओं के लिए आज्ञा प्रदान की है कि "आर्यिकाओं को अपने पहनने के लिए दो साड़ी रखना चाहिए। इन दो वस्त्रों के सिवाय तीसरा वस्त्र रखने पर उसके लिए प्रायश्चित होता है।" इन दो वस्त्रों का ऐसा मतलब है कि दो साड़ी लगभग १६-१६ हाथ की रखती हैं। एक बार में एक ही पहनना होता है दूसरी धोकर सुखा देती है जो कि द्वितीय दिवस बदली जाती है। सोलह हाथ की साड़ी के विषय में आगम में कहीं वर्णन नहीं आता है, मात्र गुरु परम्परा से यह व्यवस्था चली आ रही है। आगम में तो केवल दो साड़ी मात्र का उपदेश है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज (ज्ञानमती माताजी के दीक्षा गुरु) करते थे कि दो साड़ी रखने से आर्यिका का "आचेलक्य" नामक मूलगुण कम नहीं होता है किन्तु उनके लिए आगम की आज्ञा होने से यही मूलगुण है। हां! तृतीय साड़ी यदि कोई आर्यिका रखती है तो उसके मूलगुण में दोष अवश्य आता है। इसी प्रकार से “स्थितिभोजन" मूलगुण में मुनिराज खड़े होकर आहार करते हैं और आर्यिकाओं को बैठकर आहार लेना होता है। यह भी शास्त्र की आज्ञा होने से उनका मूलगुण ही है। यदि कोई आर्थिका आगमाशा उल्लंघन कर खड़ी होकर आहार ले लेवे तो अवश्य उसका मूलगुण भंग होता है इसीलिए उनके भी अट्ठाईस मूलगुण मानने में कोई बाधा नहीं है। यही कारण है कि आर्यिकाओं को उपचार से महाव्रती संज्ञा दी गई है। आर्यिकाएं साड़ी मात्र परिग्रह धारण करते हुए भी लंगोटी मात्र अल्पपरिग्रह धारक ऐलक के द्वारा पूज्य हैं। जैसाकि सागारधर्मामृत में पू. ५१८ पर प्रकरण आया है Jain Educationa International कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वान्नार्हत्याम महावतं । अपिभाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्थिकार्हति ॥ ३६ ॥ श्री आशाधर जी कहते हैं कि अहो आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है किन्तु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने के कारण उपचार से महाव्रती कहलाती हैं। क्योंकि ऐलक तो लंगोटी का त्याग कर सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किए है, किन्तु आर्थिका तो साड़ी त्याग करने में असमर्थ है। उनकी यह साड़ी बिना सिली हुई होनी चाहिए अर्थात् सिले हुए वस्त्र पहनने का उनके लिए निषेध है। आचारसार ग्रन्थ में भी वर्णन आया है देशव्रतान्वितैस्तासामारोप्यते बुधैस्ततः । महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारतः ।। ८९ ।। For Personal and Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८७ __ अर्थात् गणधर आदि देवों ने उन आर्यिकाओं की सज्जाति आदि को सूचित करने के लिए उनमें उपचार से महाव्रत का आरोपण करना बतलाया है। साड़ी धारण करने से आर्यिकाओं में देशव्रत ही होते हैं परन्तु सज्जाति आदि कारणों से गणधर आदि देवों ने उनके देशव्रतों में उपचार से महाव्रतों का आरोपण किया है। प्रायश्चित्त ग्रन्थ में भी आर्यिकाओं को मुनियों के बराबर प्रायश्चित का विधान है तथा क्षुल्लक आदि को उनसे आधा इत्यादि रूप से है साधुनां यद्वदुद्दिष्ट मवेमार्यागणस्य च। दिनस्थान त्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते ।।१४ ।। जैसा प्रायश्चित्त मुनियों के लिए कहा गया है वैसा ही आर्यिकाओं के लिए कहा गया है। विशेष इतना है कि दिन प्रतिमा योग, त्रिकालयोग चकार शब्द से अथवा अन्य ग्रन्थों के अनुसार पर्यायच्छेद (दीक्षा छेद) मूलस्थान तथा परिहार ये प्रायश्चित्त भी आर्यिकाओं के लिए नहीं हैं। आर्यिकाओं के लिए दीक्षावधि भी अलग से नहीं है। मुनिदीक्षा विधि से ही उन्हें दीक्षा दी जाती है। इन सभी कारणों से स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के व्रत, चर्या आदि मुनियों के सदृश हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि एक-एक मूलगुण को अतिचार रहित पालन करने वाली आर्यिकाएं मुक्तिपथ की अनुगामिनी होती हैं। यही व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। वर्तमान में भी यही व्यवस्था देखने में आती है कि ये आर्यिकाएं एक साड़ी पहनती हैं जिससे उनका सम्पूर्ण शरीर ढका रहता है, हाथ में मयूर पंख की पिच्छी रखती हैं तथा शौच का उपकरण काठ या नारियल का कमंडलु रखती हैं। आर्यिकाओं के २८ कायोत्सर्ग- मुनि आर्यिकाओं के दैनिक २८ कायोत्सर्ग होते हैं जो कि प्रातःकाल से रात्रि विश्राम के पूर्व तक किए जाते हैं। उन्हीं का स्पष्टीकरण किया जाता है सर्वप्रथम प्रातःकाल से इन कायोत्सर्गों का शुभारम्भ होता है। यूं तो साधु जीवन में प्रतिक्षण स्वाध्याय-अध्ययन आदि की प्रमुखता होने से शुभोपयोग ही रहता है तथापि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कृतिकर्म विधि पूर्वक उन्हीं क्रियाओं को करने का आदेश दिया है जिनमें कायोत्सगों की गणना हो जाती है। यहां एक कायोत्सर्ग का अभिप्राय सत्ताईस स्वासोच्छ्वास में नौ बार णमोकार मंत्र जपना है। रात्रि एक बजे के पश्चात् से लेकर सूर्योदय से २ घड़ी पूर्व तक यथाशक्ति स्वाध्याय करना चाहिए। इसे अपररात्रिक स्वाध्याय कहते हैं। स्वाध्याय प्रारंभ करने से पूर्व स्वाध्याय प्रतिष्ठापन हेतु लघु श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति सम्बन्धी दो कायोत्सर्ग होते हैं, पुनः स्वाध्याय के पश्चात् स्वाध्याय निष्ठापन हेतु श्रुतभक्ति सम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है। ऐसे एक स्वाध्याय करने में तीन कायोत्सर्ग होते हैं। यद्यपि यह विधि अधिक प्रचलन में नहीं है प्रायः नौ बार गणोकार मंत्र मात्र पढ़कर लोग स्वाध्याय प्रारम्भ कर देते, हैं और अन्त में भी नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर स्वाध्याय समापन कर देते हैं,किन्तु आगमानुसार उपर्युक्त विधि आवश्यक होती है। पुनः रात्रि सम्बन्धी दोषों का शोधन करने हेतु गणिनी के पास रात्रिक प्रतिक्रमण करना होता है, जिसमें सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, वीरभक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति इन चार भक्ति सम्बन्धी ४ कायोत्सर्ग होते हैं पुनः रात्रियोग निष्ठापन करने हेतु योगभक्ति सम्बन्धी एक कायोत्सर्ग होता है। इसके अनंतर सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व और दो घड़ी पश्चात् तक के सन्धिकाल में पौर्वाहिक सामायिक की जाती है। इस सामायिक में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति सम्बन्धी दो कायोत्सर्ग होते हैं। अनंतर पौर्वाहिक स्वाध्याय सूर्योदय के दो घड़ी बाद होता है उसमें भी पूर्वोक्त अपररात्रिक सदृश तीन कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः आहारचर्या सम्पन्न होती है। उसके पश्चात् आर्यिकाएं मध्याह्न की सामायिक करती हैं जिसमें २ कायोत्सर्ग होते हैं। सामायिक का जघन्य काल २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट होता है। इससे अधिक घण्टे दो घण्टे भी सामायिक की जा सकती है। अनंतर मध्याह्न की चार घड़ी बीत जाने पर अपराण्हिक स्वाध्याय किया जाता है जिसमें तीन कायोत्सर्ग होते हैं। इसके पश्चात् दिवस संबंधी दोषों के क्षालन हेतु सभी आर्यिकाएं सामूहिक रूप से दैवसिक प्रतिक्रमण करती हैं। जिसमें चार कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः अपनी वसतिका में आकर सामायिक के पूर्व रात्रियोग प्रतिष्ठापन के लिए योग भक्ति करती हैं जिसका एक कायोत्सर्ग होता है। रात्रि योग का मतलब यह है कि "मैं आज रात्रि में इस वसतिका में ही निवास करूंगी।" क्योंकि साधुजन रात्रि में यत्र-तत्र विचरण नहीं करते हैं। मल-मूत्रादि विसर्जन के लिए भी दिन में ही स्थान देख लेते हैं जो कि वसतिका के आस-पास हो होता है। अनंतर आर्यिकाएं सायंकालिक (देववंदना) करती हैं उसमें उपर्युक्त दो कायोत्सर्ग होते हैं। पुनः पूर्वरात्रिक स्वाध्याय के तीन कायोत्सर्ग करती हुई अपने अहोरात्रि के अट्ठाईस कायोत्सर्ग प्रतिदिन पूर्ण सावधानी पूर्वक करती हैं। पुनः महामंत्र का स्मरण करते हुए रात्रि विश्राम करती हैं। यही चर्या मुनि आर्यिकाओं की प्राचीनकाल से चली आ रही है अतः समस्त आर्यिकाओं को इन्हीं क्रियाओं का पालन करना चाहिए। अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन करते हुए यदि कोई आर्यिका विदुषी हैं तो समय निकालकर भव्य प्राणियों को धर्म प्रवचन सुनाकर लाभान्वित भी करती हैं। इस प्रकार संक्षेप में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में दीक्षित आर्यिकाओं के २८ कायोत्सर्ग का वर्णन मैंने किया है। आर्यिकाओं के लिए न करने योग्य कार्य कौन से हैं आर्यिकाओं को मुनियों की वंदना करने के लिए अकेले नहीं जाना चाहिए। गणिनी आर्यिका के साथ अथवा दो-चार मिलकर जाना चाहिए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ ] अकेले बैठकर दिगम्बर मुनियों से या किसी पुरुष से वार्तालाप नहीं करना चाहिए तथा मुनियों की सेवा, वैयावृत्ति भी नहीं करना चाहिए। मुख्य रूप से स्त्रीलिंग का छेद करने हेतु ही आर्यिका दीक्षा धारण की जाती है अतः इस आर्यिका दीक्षा को प्राप्त करके सदैव जीवन को वैराग्यमयी बनाना चाहिए। गृहस्थियों की किन्हीं रागजनित बातों में उन्हें रुचि नहीं लेनी चाहिए। क्योंकि गृह सम्बन्धी समस्त कार्य उनके लिए त्याज्य हो जाते हैं। बीमार होने पर स्वयं अपने हाथ से किसी प्रकार की औषधि भी वे नहीं बनाती हैं। अपनी गणिनी गुरु से ही अपना दुःख बालकवत् बताना चाहिये तब गुरु स्वयं उसके योग्य औषधि श्रावकों के द्वारा बनवाकर आहार में दिलवाती हैं। मुनियों के समान ही ये आर्यिकाएं श्रावक के घर में पड़गाहन विधि से जाकर बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं उसके पश्चात् श्रावक इनके कमण्डलु में गरम जल भर देते हैं। बिना गरम किया हुआ कच्चा जल वे नहीं छूती हैं। श्राविकाएं छने हुए प्रासुक जल से इनकी साड़ी धोकर सुखा देती है अथवा ये स्वयं कमण्डलु के जल से साड़ी धोकर सुखा सकती हैं आर्यिकाएं साबुन आदि का प्रयोग नहीं कर सकती है। वे दो, तीन या चार महीने में अपने सिर के बालों का लॉच करती हैं मुनियों की वसतिका में आर्यिकाओं का रहना, लेटना आदि वर्जित है। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मासिक धर्म की अवस्था में आर्यिकाएं तीन दिन तक मौन से रहती हैं तथा जिनमन्दिर से अलग वसतिका में रहकर मानसिक रूप स महामत्र का एवं बारह भावनाओं का चिन्तवन करती हैं। सामायिक प्रतिक्रमण आदि भी केवल मन में चिन्तवन करती हैं। ओष्ठ, जिव्हा आदि न हिलने पाये ऐसा मंत्र स्तोत्रादि का चिंतन भी चलता है। वे इस अवस्था में किसी का स्पर्श भी नहीं करती हैं। आचारसार ग्रन्थ में वर्णन आया है ऋतौ स्नात्वा तु तुन्हि शुद्धंल्यरसमुक्तयः । कृत्वा त्रिरात्रमेकांतरं वा सज्जपसंयुताः ((९०)) अर्थात् रजस्वला अवस्था में तीन दिनों तक यदि उपवास की शक्ति नहीं है तो छहों रस का त्याग कर नीरस आहार करती हैं तथा चौथे दिन कोई श्राविका इन्हें गरम जल से स्नान करा देती हैं तब वह आर्यिका शुद्ध होकर अपनी गणिनी के पास जाकर प्रायश्चित ग्रहण करती है। आर्यिकाओं के छह आवश्यक - अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं। वे आवश्यक क्रियायें छह होती हैं जिन्हें मुनियों तथा आर्यिकाओं को प्रतिदिन करना चाहिए। छह आवश्यक के नाम - सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । सामायिक आवश्यक - सम्पूर्ण इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं का रागद्वेष छोड़कर समताभाव में लीन होना सामायिक है यह जिनकल्पी मुनि कुछ नियत काल तक अथवा जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण करते हैं। सामायिक के दो भेद हैं-नियतकाल, अनियतकाल । नियत काल सामायिक तीनों सन्ध्याओं में की जाती है। मूलाचार टीका में आचार्य श्री वसुनन्दि ने सामायिक व्रत का लक्षण बताते हुए कहा है "त्रिकालदेववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवति" अर्थात् प्रतिदिन प्रातः मध्याह्न और सायं को तीनों संध्याओं में त्रिकाल देवबन्दना करना सामायिक है जैसा कि वर्तमान में सभी साधु साध्वियाँ करते हैं। इसी सामायिक को देववन्दना भी कहते हैं। देववन्दना करने के लिए छह बातों का ध्यान देना आवश्यक है। 1 वन्दना करने वाले की स्वाधीनता 2 तीन प्रदक्षिणा 3- तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग 4 तीन निषद्या 5 चार शिरोनति 6- बारह आवर्त Jain Educationa International आगमविधि पूर्वक सामायिक (देववन्दना) करने हेतु चार प्रकार की मुद्रायें मानी गई हैं। १- जिनमुद्रा, २- योगमुद्रा, ३- वन्दनामुद्रा, ४- मुक्ताशुक्तिमुद्रा । दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर दोनों भुजाओ को नीचे लटका कर कायोत्सर्ग रूप से खड़े होना जिनमुद्रा है। पदमासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों से बैठकर गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित्त रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं । दोनों हाथों को मुकुलित कर और उनकी कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होना वन्दना मुद्रा है। For Personal and Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६८९ दोनों हाथों की हथेली मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े होने को मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहते हैं। चरणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार सामायिक में ईर्यापथशुद्धि, चैत्यभक्ति, पंचगुरूभक्ति एवं समाधिभक्ति का पाठ पढ़कर जाप्य अथवा ध्यान किया जाता है। इस पूरे सामायिक पाठ का पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद होकर भी प्रकाशित हो चुका है जिसे पढ़ने से सामायिक का पूर्ण अर्थ हृदयगंम हो जाता है। अर्थ को समझते हुए अपनी दैनिक क्रिया करने पर कर्मनिर्जरा भी विशेष रूप से होती है। यहां तक सामायिक नामक प्रथम आवश्यक का संक्षिप्त वर्णन हुआ। 2- स्तुति आवश्यक-चतुर्विंशति तीर्थंकरों के नाम का स्तवन करना, उनकी प्रतिमाओं की स्तुति करना, उनके शरीर के वर्ण, ऊँचाई आदि के वर्णन से स्तुति करना, उनके शरीर के वर्ण, ऊँचाई आदि के वर्णन से स्तुति करना, उनके पंचकल्याणक क्षेत्रों की स्तुति करना आदि स्तुति आवश्यक है। 3- वंदना आवश्यकः- एक तीर्थंकर की या किन्हीं एक गुरू आदि की वंदना करना वंदना आवश्यक है। जिस आचार्य या गणिनी के पास आर्यिकाएं निवास करती हैं उन्हें उन गुरू के पास कृतिकर्म पूर्वक वंदना करनी चाहिए। जैसे प्रातः और मध्याहू की सामायिक के अनंतर लघु सिद्ध, आचार्यभक्ति पढ़कर गुरू की वंदना की जाती है तथा दैवसिक प्रतिक्रमण के पश्चात् गुरूवंदना की जाती है। गुरू यदि बहुश्रुत ज्ञानी हैं तो लघु सिद्ध, श्रुत और आचार्य भक्ति पढ़कर गुरुवंदना की जाती है। आशीर्वाद व्यवस्था आचार्य या मुनि को जब आर्यिका नमोस्तु करती हैं तो वे उन्हें “समाधिरस्तु" आशीर्वाद देते हैं तथा गणिनी को या दीक्षा में बड़ी आर्यिकाओं को वंदामि करने पर वे लोग वंदामि बोल कर उन्हें प्रतिवंदना करती हैं। आर्यिकाओं को जब क्षुल्लक, क्षुल्लिका या व्रती लोग वंदामि करते हैं तो आर्यिकाएं उन्हें “समाधिररस्तु" कह कर आशीर्वाद प्रदान करती हैं। सामान्य श्रावक श्राविकाओं के द्वारा नमस्कार किये जाने पर आर्यिकाएं “सद्धर्मवृद्धिरस्तु" आशीर्वाद प्रदान करती हैं। 4- प्रतिक्रमण आवश्यक- अपने द्वारा किये हुये भूतकालीन दोषों के निराकरण हेतु प्रतिक्रमण किया जाता है। जैसा कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है सपडिक्कमणो छम्मो पुरिमस्स य पच्छिमजिणस्स। अबराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ अर्थात् भगवान आदिनाथ और महावीर स्वामी ने "अपराध हो चाहे न हो" अपने शिष्यों को प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है किन्तु अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरों ने अपराध होने पर प्रतिक्रमण करने की आज्ञा दी है। क्योंकि आदिनाथ के युग में शिष्य अति सरल जड़मति वाले होने से उनमें दोषों की संभावना अधिक रहती थी तथा भगवान महावीर के शासनकाल में शिष्य अतिकुटिल वक्रजड़मति वाले होते हैं अतः दोषों की मात्रा अधिक होने के कारण उन्हें प्रतिक्रमण करना जरूरी है। इस प्रतिक्रमण के सात भेद हैं-दैवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ । आर्यिका संघ की गणिनी के सान्निध्य में समस्त आर्यिकाओं को समय-समय पर वे प्रतिक्रमण करना चाहिए तथा गणिनी द्वारा अथवा आचार्य द्वारा प्रायश्चित भी लेना चाहिए। 5- प्रत्याख्यान आवश्यक- अपने वर्तमान तथा भविष्यत् कालीन अतिचार-दोषों का गुरु के सामने त्याग करना प्रत्याख्यान कहलाता है। और आहार के पश्चात् अगले चौबीस घन्टे तक चतुर्विध आहार का त्याग, उपवास, बेला-तेला आदि ग्रहण करना भी प्रत्याख्यान है। 6- कायोत्सर्ग आवश्यक- काय का त्याग अर्थात् शरीर से ममत्त्व का त्याग करना कयोत्सर्ग है। खड़े होकर या बैठकर एकाग्रता पूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए निश्चल रहना कायोत्सर्ग है। अपनी शक्ति के अनुसार इसका अभ्यास करना चाहिए। जैसे- २७ स्वासोच्छ्वास पूर्वक नव बार णमोकार मंत्र पढ़ने को भी एक कायोत्सर्ग कहा जाता है। आर्यिकाओं की दैनिक क्रिया में प्रतिदिन २८ कायोत्सर्ग तो अतिआवश्यक ही माने गए हैं। आर्यिकाओं की १३ क्रियाएं कौन-कौन सी हैं? छह आवश्यक क्रियाएं, पंचपरमगुरु की वंदना तथा असही-निसही ये तेरह क्रियाएं आर्यिकाएं प्रतिदिन करती हैं। इनमें से आवश्यक क्रियाओं का वर्णन तो अभी हो ही चुका है, ऐसे ही पृथक्-पृथक् या एक साथ पंचपरमेष्ठी की वंदना भी की जाती है। असही और निसही का मतलब यह है कि वसतिका से बाहर जाते समय आर्यिकाएं नौ बार "असही" शब्द का उच्चारण करती हैं तथा वसतिका में प्रवेश करते समय नौ बार "निसही" शब्द का उच्चारण करती हैं। __ आर्यिकाएं अपनी आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए शेष समय निरन्तर शास्त्र स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन में लगाती हैं। वे सूत्र ग्रन्थों का भी अध्ययन कर सकती हैं। जैसाकि आचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामी ने मूलाचार ग्रन्थ में स्पष्ट किया है "अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिकाओं को सूत्रग्रन्थों का अध्ययन नहीं करना चाहिए किन्तु साधारण अन्य ग्रन्थ अस्वाध्याय काल में भी पढ़ प्रतिदिन करती और निसही का सही" श Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९०] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला सकते हैं।" इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि आर्यिकाएं भी स्वाध्याय काल में सिद्धांत ग्रन्थों को पढ़ सकती हैं। दूसरी बात यह है कि आर्यिकाएं द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत ग्यारह अंगों का भी अध्ययन कर सकती हैं, जैसाकि हरिवंश पुराण में कथना आया है द्वादशांगधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरो गणी। एकादशांगभृज्जातः सार्यिकापि सुलोचना ॥ अर्थात् मेघेश्वर-जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान् के गणधर हो गए और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गई। वर्तमान में दिगम्बर संप्रदाय में ग्यारह अंग और चौदह पूर्व की उपलब्धि नहीं है, उनका अंश मात्र उपलब्ध है अतः उन्हीं का अध्ययन करना चाहिए। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के अनुसार साध्वियों के दो भेद हैं-आर्यिका और क्षुल्लिका। अभी तक संक्षेप से आर्यिका का स्वरूप बतलाया है। क्षुल्लिकाएं ग्यारह प्रतिमा के व्रतों को धारण कर दो धोती और दो दुपट्टे का परिग्रह रखती हैं। इनकी समस्त चर्या क्षुल्लक के सदृश होती है। ये केशलोंच करती हैं अथवा कैंची से दो तीन या चार महीने में सिर के केश निकालती हैं। ये भी आर्यिकाओं के पास में रहती हैं उनके पीछे आहार को निकलकर पड़गाहन विधि से श्रावकों के यहां पात्र में भोजन ग्रहण करती हैं। इस प्रकार से स्त्रियों में साध्वीरूप में आर्यिका और क्षुल्लिका ये दो भेद ही होते हैं। दोनों के पास मयूर पिच्छिका रहती है। पहचानने के लिए क्षुल्लिका के पास चादर रहती है और पीतल या स्टील का कमण्डलु रहता है। प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि पूर्व में अधिकतर आर्यिकाएं ही आर्यिका दीक्षा प्रदान करती थीं। तीर्थंकरों के समवशरण में भी जो आर्यिका सबसे पहले दीक्षित होती थीं वे ही गणिनी के भार को संभालती थीं। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त किन्हीं आचार्यों द्वारा आर्यिका दीक्षा देने के उदाहरण प्रायः कम मिलते हैं। इन आर्यिकाओं की दीक्षा के लिए जैनेश्वरी दीक्षा शब्द भी आया है। इन्हें महाव्रत पवित्रांगा भी कहा है और संयमिनी संज्ञा भी दी है। जब आर्यिकाओं के व्रत को उपचार से महाव्रत कहा है और सल्लेखना काल में उपचार से निर्ग्रन्थता का आरोपण किया है इसीलिए वे मुनियों के सदृश वंदनीय होती हैं। ऐसा समझकर आगम की मर्यादा को पालते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान देना चाहिए और समयानुसार यथोचित भक्ति करना, उन्हें पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि दान भी देना चाहिए। वर्तमान की आर्यिकाएं प्राचीनकाल में जैसे आर्यिकाएं आचार्यों के संघ में भी रहती थीं और पृथक् भी आर्यिका संघ बनाकर विचरण करती थीं उसी प्रकार वर्तमान में भी आचार्य श्री विमलसागर महाराज, आचार्य श्री अभिनंदनसागर महाराज आदि बड़े-बड़े संघों में भी आर्यिकाएं क्षुल्लिकाएं रहती हैं तथा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी, गणिनी आर्यिका श्री विजयमती माताजी, गणिनी आर्यिका श्री विशुद्धमती माता जी आदि अनेकों विदुषी आर्यिकाएं अपने-अपने पृथक् संघों के साथ भी विचरण करती हई धर्म की ध्वजा फहरा रही हैं। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान में समस्त आर्यिकाओं में सर्वप्राचीन दीक्षित सबसे बड़ी आर्यिका हैं जिन्होंने चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की आज्ञा से उनके पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के कर कमलों से आर्यिका दीक्षा धारण कर "ज्ञानमती" इस सार्थक नाम को प्राप्त किया है तथा शताब्दी के प्रथम आचार्य से लेकर अद्यावधि समस्त आचार्यों के विषय में अनुभव ज्ञान प्राप्त किया है। हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप रचना एवं डेढ़ सौ से अधिक ग्रन्थों का सृजन पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की प्रमुख स्मृतियां हैं। इसी प्रकार से अन्य विदुषी आर्यिकाएं भी यथाशक्ति साहित्य सृजन में संलग्न हैं यह आर्यिकाओं के लिए गौरव का विषय है। संघ की सभी आर्यिकाएं गणिनी आर्यिका के या किसी प्रमुख आर्यिका के अनुशासन में रहती हैं, प्रमुख आर्यिकाएं उन्हें धर्म ग्रन्थों का अध्ययन भी कराती हैं। इनके स्वाध्याय के लिए या लेखन कार्य के लिए ग्रन्थ, स्याही, कलम, कागज आदि की व्यवस्था श्रावक श्राविकाएं करते हैं। वस्त्र फटने पर भक्तिपूर्वक उन्हें वस्त्र (सफेद साड़ी) प्रदान करते हैं। पिच्छी के लिए मयूर पंख लाकर देते हैं। आर्यिकाएं भी अपने पद के अनुरूप साधुचर्या का पालन करती हैं, पद के विरुद्ध श्रावकोचित कार्यों को नहीं करती हैं तभी उनकी आत्मा का कल्याण और स्त्री लिंग का छेदन संभव हो पाता है। ध्यान, अध्ययन के साथ-साथ इस युग में भी महीने-महीने तक का उपवास करने वाली तपस्विनी आर्यिकाएं भी हो चुकी हैं । सन् 1971 के चातुर्मास में अजमेर नगरी में आर्यिका की पद्मावती माताजी (ज्ञानमती माताजी की शिष्या) ने भादों के महीने में सोलह कारण के बत्तीस उपवास करते हुए उत्कृष्ट समाधि प्राप्त कर चुकी हैं जिनके दर्शन मुझे भी करने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। इसी प्रकार से आठ-दस, सोलह आदि उपवास करने वाली आर्यिकाएं आज भी विद्यमान हैं जो सम्यक्त्व सहित निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए निश्चित ही स्त्री पर्याय से छूट कर क्रम से देव पर्याय प्राप्त करेंगी। आर्यिकाओं की उत्कृष्ट चर्या चतुर्थकाल में ब्राह्मी चन्दना आदि पालन करती थीं तथा पंचमकाल के अन्त तक भी ऐसी चर्या का पालन करने वाली आर्यिका होती रहेंगी। जब पंचमकाल के अन्त में वीरांगज नाम के मुनिराज, सर्वश्री नाम की आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका इस प्रकार चतुर्विध संघ होगा तब कल्की द्वारा मुनिराज के आहार का प्रथम ग्रास टैक्स के रूप में मांगने पर अन्तराय करके चतुर्विध संघ सल्लेखना धारण कर लेगा तभी धर्म, अग्नि और राजा तीनों का अन्त हो जाएगा। अतः भगवान महावीर के शासन में आज तक २५१४ वर्षों तक अक्षुण्ण जैन शासन चला आ रहा है। मुनि आर्यिकाओं की परम्परा भी इसी प्रकार चलती हुई १८४३८ वर्षों तक चलती रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ संघस्थ साधुवर्ग एवं सम्पादक मण्डल का पूज्य माताजी से एक साक्षात्कार दिनाँक १२ मई १९९२ समस्त संपादकश्री ज्ञानमती माताजी- डा० श्रेयांसमाताजीडॉ. श्रेयांसमाताजी डा० कस्तूरचंद जीमाताजी डा. कस्तूरचंद जीमाताजी प्रस्तुति-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत वंदामि, माताजी! सद्धर्मवृद्धिरस्तु! पूज्य माताजी! साहित्य रचना के क्रम में आपकी प्रथमकृति कौन सी है। मेरी प्रथम कृति जिनसहस्रनाममंत्र है। इसे आपने कब और कहाँ रचा? सन् १९५५ में मैंने दक्षिण में म्हसवड़ ग्राम (महाराष्ट्र) में चातुर्मास किया था। साथ में क्षु. विशालमती माताजी थीं। उस समय मैं भी क्षुल्लिका वीरमती थी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने यमसल्लेखना लेने के लिये निश्चय करके कुंथलगिरि क्षेत्र पर चातुर्मास किया हुआ था। हम दोनों क्षल्लिकाओं ने भी उनकी सल्लेखना को देखने के लिये ही क्षेत्र के निकट लगभग 40 किलोमीटर दूर ग्राम में चातुर्मास किया था। मैं श्री जिनसेनाचार्य प्रणीत जिनसहस्रनाम का नित्य हीपाठ किया करती थी। वहां कई बालिकाओं को कातंत्र व्याकरण भी पढ़ाया करती थी। एक दिन मंदिर में भगवान् के सामने बैठे हुये मन में सहसा यह भाव आया कि “मैं इस जिनसहस्रनाम स्तोत्र से श्रीजिनेंद्रदेव के एक हजार आठ मंत्र बनाऊं।" तभी मैंने जीवन में सर्वप्रथम यह मंत्र रचना प्रारंभ कर दी। वह हस्तलिखित मेरी कॉपी आज भी यहां सुरक्षित विद्यमान है। सहस्रनाम स्तोत्र में तो भगवान के १००८ नामों द्वारा भगवान् की स्तुति की गई है। हां, उन्हीं १००८ नामों में से प्रत्येक नाम में मैंने चतुर्थी विभक्ति लगाकर नमः शब्द जोड़ दिया है। जैसे-"श्रीमान् स्वयंभूवृषभः" इनको "ऊँ ह्रीं श्रीमते नमः" ॐ ह्रीं स्वयंभूवेः, ॐ ह्रीं वृषभाय नमः । इत्यादि । इसका मतलब उन दिनों छोटी उम्र में भी आपका व्याकरण ज्ञान बहुत अच्छा था। हां, ठीक था। केवल दो माह में मैंने सन् १९५४ में कातंत्र व्याकरण पढ़ी थी, उसी व्याकरण ज्ञान के सदुपयोग की भावना से ही मैंने ये मंत्र बनाये थे। इसका प्रकाशन कब हुआ था? वहीं क्षु. श्रीविशालमती माताजी ने उन मंत्रों की पुस्तक को "जिनसहस्रनाम मंत्र" नाम से छपवा दिया था। उसकी दो तीन प्रतियां यहां जबूद्वीप पुस्तकालय में आज भी विद्यमान हैं। अभी उसका द्वितीय संस्करण भी छपाया गया है। आपने सबसे पहले जिनेंद्रदेव के १००८ नाम मंत्र लिखे हैं इसीलिये आपकी लेखनी से लिखित ग्रंथ अत्यधिक लोकप्रिय हो रहे हैं। मुझे जिनेंद्रदेव के नाम मंत्र और उनकी स्तुति आदि में बहुत श्रद्धान है। मैं स्वयं यह समझती हूँ कि उन मंत्रों को प्रथम बनाने से ही मुझे सरस्वती माता का विशेष कृपा प्रसाद मिला है। माताजी! आपने काव्यसृजन जिस भाषा में और कब प्रारंभ किया? मैंने सन् १९५९ के अजमेर चातुर्मास में अपने दीक्षागुरु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की स्तुति संस्कृत भाषा में बनाई थी। यह "उपजाति छंद' में है। उसका प्रथम श्लोक क्या है? स्वात्मैकनिष्ठं नृसुरादिपूज्यं । षड्जीवकायेषु दयाचित्तं ॥ श्री वीरसिंधुं भववार्धिपोत-माचार्यवयं त्रिविधं नमामि ॥ काव्य रचना में किस कारण की प्रधानता आपके जीवन में रही? जिनेंद्रदेव की भक्ति और गुरुभक्ति के साथ अपनी व्याकरण तथा छन्द विद्या के उपयोग की प्रवृत्ति ही प्रधान कारण है। मैंने तो एक बार यही सुना था कि आपने श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की संस्कृत स्तुति बनाकर ही लेखनी को प्रारम्भ किया है, किंतु आपने तो उसके पूर्व उपर्युक्त दो रचनायें बनाई हैं। डा० शेखर जैनमाताजी चन्दनामती माताजी डा. शेखर जैनमाताजी डा. शेखर जैनमाताजी चन्दनामतीमाताजीडा. अनुपम Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला माताजी (हंसकर) बात यह है कि उपर्युक्त दोनों रचनायें प्रसिद्धि में नहीं रहीं हैं। यही कारण है कि क्षु. मोतीसागर जी कई बार सभा में ऐसा बोल देते हैं। इसमें भी प्रमुख कारण यह है कि सन् १९५६ में खानिया चातुर्मास में मैंने ज्ञानार्णव ग्रंथ का स्वाध्याय करते समय बारह भावना के कुछ श्लोकों पर संस्कृत टीका बनाई थी। उन दिनों पं० खूबचंद जी शास्त्री वहीं आये हुये थे। मैंने उन्हें वह रचना दिखाई वे बहुत ही प्रसन्न हुये और मेरी कापी लेकर आचार्य श्री वीरसागर जी के पास पहुंच कर उन्हें वह रचना सुनाकर बहुत ही प्रशंसा करने लगे। मुझे भी साथ ले गये थे। आचार्यश्री ने देखा, किंचित् मुस्कराये" और बोले- आगम के अनुकूल ही लेखनी चलाना चाहिये। मेरे मस्तिष्क में यह पंक्ति घूमती रही। तभी मैंने मन में यह निर्णय किया कि मैं स्वयं चारों अनुयोगों के अनेक ग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन कर लूंगी तभी कुछ लिखूगी... । यही कारण था कि मेरी लेखनी में सन् १९६५ तक का लंबा व्यवधान पड़ गया। हां, श्रवणबेलगोल से जबसे मैंने अपनी लेखनी चलाई है तबसे आज तक वह अविरल चलती आ रही है। डा. लालबहादुर शास्त्री- हमने सुना है कि आपने सभी ग्रंथों का अध्ययन स्वयं ही किया है। माताजी मैंने गोम्मटसार जीवकांड, कर्मकांड, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रंथ स्वयं पढें हैं और अनेक मुनियों को, आर्यिकाओं को, अनेक शिष्य-शिष्याओं को पढ़ाये हैं। कई एक ग्रंथ तो मैंने पढ़ाकर ही पढ़ें हैं। धवला की सोलहों पुस्तकों का मैंने स्वयं स्वाध्याय किया है। डा. लाल बहादुर- बिना किसी से पढ़े आपने सभी ग्रंथों के अर्थ को कैसे समझ लिया? अष्टसहस्री ग्रंथ का, जैनेंद्र प्रक्रिया व्याकरण का आपने बिना किसी से पढ़े ही सुंदर हिंदी अनुवाद कर दिया। यह सब कैसे संभव हुआ है? माताजी कई एक ग्रथों को पढ़ते समय मुझे ऐसा लगता कि मानों इसे मैंने पहले कभी पढ़ा है। इन बातों से क्षु. विशालमती जी कहा करती थीं कि तुमने पूर्वजन्म में ये सब ग्रंथ व्याकरण आदि भी पढ़े हैं ऐसा लगता है। मुझे ऐसी प्रतीति होती रही है कि पूर्वजन्म के संस्कारों से ही मुझे अनेक ग्रंथों को पढ़ते समय अर्थ प्रतिभास स्पष्ट हो जाता था । उदाहरण के लिये- सन् ५५ के चातुर्मास में मैंने "चारित्रसार" ग्रंथ का स्वाध्याय किया उसमें लिखित सामायिक-देववंदना की विधि को हृदयंगम कर मैं मंदिर में विधिवत् सामायिक करने लगी। सन् १९५८ में ब्यावर चातुर्मास में जब पं. पन्नालाल जी सोनी ने मेरी यह सामायिक विधि देखी तब वे प्रसन्न होकर पूछने लगे-माताजी! आपने यह विधि कैसे सीखी? मैंने चारित्रसार ग्रंथ का प्रकरण दिखा दिया। तभी वे "क्रियाकलाप" ग्रंथ लाये। उसमें उन्होंने हस्तलिखित क्रियाकलाप गुटका व अनगारधर्मामृत के आधार से देववंदना विधि आदि छपाई हुई थी। मुझे भी यह सब देखकर प्रसन्नता हुई कि मेरी क्रियायें सभी आगमोक्त हैं। इत्यादि। डा. श्रेयांस प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास ये तीन चीजें काव्य के लिये प्रमुख कारण हैं। प्रतिभा आपको जन्म से प्राप्त है किंतु व्युत्पत्ति और अभ्यास में आपके क्या प्रयत्न रहे? माताजी व्युत्पत्ति के लिये मैंने कातंत्र व्याकरण के साथ ही जैनेंद्र व्याकरण एवं छंदशास्त्रों का भी अध्ययन किया । एवं संघ में मुनियों को आर्यिकाओं आदि को अध्ययन कराया। अभ्यास में स्वयं रचनायें बनाई--- | डा. श्रेयांस व्याकरण जैसे नीरस विषय में आपने प्रवीणता कैसे प्राप्त की? माताजी मैंने सर्वप्रथम कातंत्र व्याकरण पढ़ी है पुनः अनेक साधुओं को पढ़ाई है। यह बहुत ही सरल है। लोग व्याकरण को "लोहे के चने चबाना" कहते हैं परंतु मुझे इससे विपरीत बहुत ही सरस लगती थी और पढ़ाने में भी आंनद आता था। पश्चात् मैंने जैनेंद्र प्रक्रिया को संघ में पढ़ाया है। इसका भी मैंने हिंदी अनुवाद सन् ७५ में किया था। दैवयोग से कुछ प्रकरण का अनुवाद रह गया था सो वह अपूर्ण ही है। मैंने श्री पूज्यपाद स्वामी के जैनेंद्र व्याकरण पर जो श्रीसोमदेव सूरि द्वारा शब्दार्णव चन्द्रिका है उसे भी पढ़ाया है। इसी व्याकरण का "जैनेन्द्रमहावृत्ति" नामक महाभाष्य भी छप चुका है। उसका कुछ अध्ययन मैंने कराया है। मुझे ये व्याकरण शास्त्र कभी नीरस नहीं प्रतीत हुये थे। डा. श्रेयांस कातंत्र व्याकरण जैनाचार्य विरचित है और जैनेंद्रव्याकरण भी। आपने इन्हीं जैन व्याकरण को ही पढ़ा-पढ़ाया है ऐसा क्यों? हम सभी विद्वानों ने तो पाणिनी व्याकरण ही पढ़ी है। माताजी व्याकरण के नियमों में कोई अंतर नहीं है फिर भी जैन व्याकरण में कई एक नियम बहुत ही विशेष हैं जो कि स्याद्वाद और जैनसिद्धांत को पुष्ट करते हैं। उनके कुछ उदाहरण देखिये-कातंत्र व्याकरण का पहला सूत्र है "सिद्धो वर्णसमाम्नायः" वर्गों का समुदाय अन्मदिकाल से सिद्ध है। इसमें "सिद्ध" पद से सिद्धभगवान" का नामस्मरण रूप नमस्कार भी हो गया है। ऐसे ही इसमें एक सूत्र है “वा विरामे" पद के अंत में मकार को अनुस्वार विकल्प से होता है। यह नियम अन्य पाणिनीय आदि व्याकरणों में नहीं है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९३ डा. शेखर जैनमाताजी क्षु. मोतीसागरमाताजी जैनेंद्र व्याकरण में भी सबसे पहला सूत्र है। "सिद्धिरनेकांतात्।" इसका अर्थ है अनेकांत से ही सिद्धि होती है।" यह अर्थ व्याकरण के शब्दों के लिये भी है और सर्वकार्य की सिद्धि और मोक्ष प्राप्ति के लिये भी घटित हो जाता है। इसमें भी “सिद्धि" शब्द का उच्चारण करने से सिद्धि पद को प्राप्त सिद्धों को नाम उच्चारणरूप से नमस्कार किया गया समझना चाहिये। इस व्याकरण में समास में एक नियम विशेष है। वह यह कि जैसे "वृक्ष" शब्द है उसमें एक वचन, द्विवचन, बहुवचन आदि रूप अनेकश: पंक्तियां विद्यमान हैं जैसे-जैसे प्रत्यय लगते हैं उसी के अनुसार उसका अर्थ अलग-अलग हो जाता है। वृक्ष जस् है वृक्षाः बनकर बहुत से वृक्ष तो क्या अनंत वृक्षों का वाचक बहुवचन हो गया है। पाणिनीय व्याकरण एकशेष समास है। वे कहते हैं वृक्षश्च वृक्षश्च वृक्षश्च इति वृक्षाः। किंतु जैन व्याकरणकार तो स्वभाव से ही प्रकृति में अनेक शक्तियां मानते हैं। श्री समंतमद्रस्वामी ने भी इसी प्रकरण को स्वयंभूस्तोत्र में लिया है- “अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या'। ऐसे ही एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जो कि सज्जाति को स्पष्ट कर रहा है"वर्णेनार्हद्पायोग्यानाम्" ((९७)) वर्ण से-जाति विशेष से जो अहंत रूप के-निग्रंथमुद्रा के अयोग्य हैं उनमें द्वंद्व समास में एकवचन हो जाता है। जैसे-"तक्षायस्कार" आदि । वर्णेन ऐसा क्यों कहा? तो जैसे "मूकवधिरौ" में द्विवचन हो गया। अहंदूपायोग्यानामिति किं? "ब्राह्मणक्षत्रियौ" अर्थात् ब्राह्मण और क्षत्रिय अहतरूप के योग्य हैं अतः उसमें द्विवचन होता है। आपने अपनी अधीत विद्याओं का सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या किया? भगवान् की स्तुति रचना ही पढ़ी हुई विद्याओं का सुफल है। मैंने सन् ६५ के चातुर्मास से सन् ७५ तक प्रत्येक चातुर्मास में भगवान् की एक-एक स्तुति अवश्य बनाई हैं। सन् ७५ में तो "कल्याणकल्पतरु" स्तोत्र नाम से संस्कृत में चौबीस तीर्थंकरों की चौबीस स्तुतियाँ बनाईं। इनमें छंदशास्त्र के अनुसार २१३ श्लोकों में १४४ छंदों का प्रयोग किया है। आपने कन्नड भाषा में भी तो पद्य रचना की है। श्रवणबेलगोल पहुंचने के मार्ग में ही मैंने “त्रिभाषा शिक्षक" पुस्तक के आधार से कनड़ भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और संघस्थ साध्वियों को भी पढ़ाया । पुनः श्रवणबेलगोल में कन्नड़ भाषा में भगवान बाहुबली की स्तुति, आचार्य श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली की स्तुति और “द्वादश अनुप्रेक्षा" बनाई थी। यह द्वादशानुप्रेक्षा तो उधर कर्नाटक से आने वाले प्रायः सभी यात्रीगण यहां सुनाया करते हैं। मेरी सदा यही भावना रहती है कि जो विद्या पढ़ें उसका उपयोग भगवान् की स्तुति आदि में अवश्य करें। आपने श्रावकों की क्रियारूप, पूजा विधान आदि क्यों बनायें? पद्मनंदिपंचविंशतिका ग्रंथ में श्रीपद्मनंदि आचार्य ने एक पूजा का अष्टक लिखा है। श्रीपूज्यपाद स्वामी ने "पंचामृत अभिषेक पाठ" बनाया है। श्री अभयनंदिसूरि, श्रीगुणभद्रसूरि आदि अनेक आचार्यों ने पंचामृत अभिषेक पाठ आदि रचे हैं। श्रीवसुनंदि आचार्य ने "प्रतिष्ठापाठ" ग्रंथ बनाया है। जब बड़े-बड़े आचार्य पूजा ग्रंथों की रचना कर सकते हैं तो हम जैसी आर्यिकाओं के लिये भला क्या दोष है? यह तो गुण ही है। श्री कुंदकुंददेव ने भी प्रवचनसार ग्रंथ में कहा है दसणणाणुवदेसो, सिस्सरहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं, जिणिंदपूजोवदेसो य। इसमें महान आचार्यों को भी जिनेंद्रदेव की पूजा करने के लिये उपदेश देने का आदेश दिया है। इत्यादि । इन पूजा विधानों से आपको क्या लाभ मिला? इस पंचमकाल में ध्यान आदि तो संभव नहीं है भक्तिमार्ग ही सबके लिए सुलभ है। इससे तमाम कर्मों की निर्जरा होती है पूजा के पद्यों को बनाते समय मन की कितनी एकाग्रता होती है यह तो अनुभवगम्य ही है। उस समय कैसे-कैसे भक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं उससे जो परिणामविशुद्धि होती है और जो आनंद आता है वह भी वचन से नहीं कहा जा सकता है। आपको अधिक मैं क्या बताऊं, जब मुझे टाइफाइड बुखार हुआ था बाद में पीलिया हो गया था। उस समय मैं इतनी कमजोर हो गई कि करवट बदलना भी मुश्किल सा था। उन दिनों में इन्द्रध्वज विधान की जयमालायें बहुत ही रुचि से सुना करती थी। एक-एक जयमालाओं में कहीं पंचपरिवर्तन का स्वरूप वर्णित है कहीं चतुर्गति के दुःखों का वर्णन है तो कहीं अध्यात्म भावना भरी हुई हैं। इन जयमाला स्तुतियों ने तो मुझे जैसे जीवनदान ही दिया है। अतः मुझे इन स्तुति रचना व पूजा विधान रचनाओं से जितना लाभ मिला है वह वचन व मन के भी परे ही है। पूज्य माताजी! आपकी जिनेन्द्रभक्ति एवं गुरुभक्ति अत्यन्त सराहनीय एवं अनुकरणीय है। आपके चरणों में शतशः नमन । ब्र.रवीन्द्र जीमाताजी ब्र.रवीन्द्र जैनमाताजी संपादकगण Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला नियमसार प्राभृत ग्रन्थ की स्याद्वादचन्द्रिका संस्कृत टीका पर पूज्य माताजी से सम्पादक मंडल की एक वार्ता दिनाँक १३ मई १९९२ लेखक-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत समस्त संपादक- वंदामि, माताजी! माताजी सद्धर्मवृद्धिरस्तु। डा. लालबहादुर शास्त्री- माताजी! आपने लगभग डेढ़ सौ ग्रंथ लिखे हैं उनमें से आपकी अपनी कौन सी ऐसी कृति है जो कि आपको सर्वाधिक प्रिय है? माताजी (मुस्कराकर व कुछ सोचकर) यह तो कहना कठिन सा लग रहा है क्योंकि उच्चतम ग्रंथ अष्टसहस्री, समयासार, नियमसार आदि अनुवादित ग्रंथ और छोटी से छोटी बालविकास आदि पुस्तकें सभी मुझे प्रिय हैं। सभी का अपना-अपना महत्त्व है।---फिर भी अपने सभी ग्रंथों में “नियमसार प्राभृत" जिसकी मैंने "स्याद्वादचन्द्रिका" नाम से संस्कृत टीका लिखी है वह मुझे अत्यधिक प्रिय है। डा. लालबहादुर- इस टीका को आपने कब और किस उद्देश्य से लिखा है? माताजी समयसार ग्रंथ की श्री अमृतचन्द्रसूरि विरचित आत्मख्याति टीका और जयसेनाचार्य कृत तात्पर्यवृत्ति टीका दोनों को लेकर समयसार ग्रंथ पर दोनों टीकाओं का समन्वय करते हुये एक तृतीय संस्कृत टीका लिखने का मेरा अभिप्राय था। पुनः श्रीजयसेनाचार्य की अत्यर्थसरल टीका से सारे संघर्ष के विषयों का समाधान हो ही जाता है ऐसा सोचकर मैंने उन दोनों टीकाओं की हिंदी भाषा में टीका करने का विचार बनाया था। इसी बीच सन् १९७८ में “अक्षयतृतीया" के दिन मैंने नियमसार प्राभृत की संस्कृत टीका लिखना शुरू कर दिया। डा. कस्तूरचंद कासलीवाल- नियमसार ग्रंथ को ही आपने टीका के लिये क्यों चुना? माताजी मुझे यह अत्यधिक प्रिय रहा है मैंने इसकी गाथाओं का पद्यानुवाद भी किया था पुनः इसकी श्री पद्मप्रभमलधारीदेव की संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद भी किया था। इसमें व्यवहार रत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय इन दोनों का ही वर्णन किया गया है। बात यह है कि मूलाचार आदि ग्रंथों में व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है। समयसार में निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प ज्ञान या ध्यान का वर्णन है। किंतु नियमसार में ४ अध्याय तक व्यवहार रत्नत्रय को बताकर आगे ५ वीं अध्याय से लेकर ११वीं अध्याय तक निश्चय रत्नत्रय स्वरूप उत्कृष्ट अध्यात्म भावना का वर्णन है। आगे रत्नत्रय के फलस्वरूप अहैत,सिद्ध अवस्था का कथन है। इसीलिए मुझे यह ग्रंथ अत्यधिक प्रिय रहा है। प्रारंभ में मंगलाचरण के प्रकरण में मैंने लिखा है भेदाभेदत्रिरत्नाना, व्यक्त्यर्थमचिरान्मयि । सेयं नियमसारस्य, वृत्तिर्विवियते मया ॥५॥ मुझमें यह भेद और अभेद रत्नत्रय शीघ्र ही प्रगट हो इसलिये मेरे द्वारा यह नियमसार ग्रंथ की वृत्ति-टीका रची जा रही है। "अंत में भी मैंने अपने भाव व्यक्त किये हैं- "अस्य ग्रंथस्य रचयितार:---गुरूणां गुरवः श्रीकुंदकुंददेवाः क्व? तेषामेव शास्त्रेभ्यः ईषल्लवमात्र शब्दज्ञानं संप्राप्याल्पज्ञाह? तथापि या मया टीका रचना कृता, सा निजात्मतत्त्वभावनायै एव । अनया निजभावनया जीवनमरण---निंदाप्रशंसादिषु भावितः समभावः स्थैर्य लभेत--- । ईदृग्भावनयैवेयं रचना, न च ख्यातये विद्धत्ताप्रदर्शनार्थ वा।" डा. कस्तूरचंद- इस टीका में आपने किस टीका की पद्धति का अनुसरण किया है? माताजी मैंने श्रीजयसेनाचार्य की टीका की पद्धति के अनुसार ही पातनिका, उत्थानिका आदि बनाई हैं और यथास्थान गाथाओं की संख्या भी दे दी हैं। डा. शेखर चंद्र इसमें आपने निश्चय और व्यवहार का समन्वय तो स्थल-स्थल पर दिखलाया ही है। और कौन-कौन से महत्वपूर्ण विषय लिये है? माताजी इस ग्रंथ में मैंने अनेक ग्रंथों के सारभूत प्रकरणों को देते हुये उन-उन पंक्तियों को उद्धृत कर दिया है। मेरी मनमत कोई भी १- नियमसार प्राभृत ग़ाथा-५५, पृ. १७२, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९५ डा. शेखरचन्द्रमाताजी डा. श्रेयांस जैनमाताजी कल्पना इसमें नहीं है। इसी बात को मैंने इन पंक्तियों में दिया है। “पूर्वाचार्याणां शास्त्रमहार्णवात् वचनामृतकणान् उद्धत्योद्धत्य निजनीरसवचनेषु मध्ये मध्ये मिश्रयित्वा कानिचित् वर्णपदवाक्यानि मया योजितानि ।" रही महत्त्व पूर्ण विषयों की बात, ऐसे तो बहुत से विषय हैं। उनमें से एक दो उदाहरण आप सुनेंगे आचार्य श्रीविद्यानंदमहोदय ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक नाम के महाभाष्य में लिखा है कि "निश्चय नय से,अयोगकेवली भगवान् के चरम समय का रत्नत्रय ही मुक्ति का हेतु है।" गाथा ४ की टीका में मैंने इस विषय की अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। आज जो चौथे गुणस्थान में ही मोक्षमार्ग मान रहे हैं उनके लिए आपका क्या अभिप्राय है? प्रवचनसार की २३७ वी गाथा देकर मैंने स्पष्ट किया है, चौथे गुणस्थान में मोक्षमार्ग के दो ही अवयव हैं चारित्र नहीं है। पांचवें गुणस्थान में एक देश चारित्र है अतः यहां से कथंचित् मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है। वास्तव में मोक्षमार्ग तो छठे गुणस्थान सकल चारित्र रूप संयम से प्रारंभ होकर चौदहवें गुणस्थान के अंत तक माना गया है। इस विषय में भी आपने कुछ खुलासा किया है क्या? गाथा टीका के अंत में अधिकांश तात्पर्यार्थ दिया गया है। उसमें असंयम सम्यग्दृष्टि तक के कर्तव्य को दिखलाया गया है। जैसे कि गाथा ५५ के अंत में देखें "तात्पर्यमेतत्-असंयतसम्यग्दृष्टिर्व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग श्रद्धत्ते।... अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार और निश्चय ऐसे दोनों ही मोक्षमार्ग की श्रद्धा करते हैं। देशव्रती श्रावक एकदेश चारित्र का अवलंबन लेकर सकलचारित्र रूप महाव्रतों की इच्छा करते हैं। पुनः पुरुषार्थ के बल से सकल संयम को ग्रहण करके सरागसंयमी मुनि हो जाते हैं। तब वे व्यवहार तपश्चरण, व्यवहार आवश्यक क्रियादि का अनुष्ठान करते हैं। इसी व्यवहार चारित्र के बल से जब निश्चय चारित्र का अवलंबन ले लेते हैं तब निश्चय तपश्चरण, निश्चय आवश्यक आदि रूप परमसमाधि में स्थित होकर अंतमुर्हत काल में मोहनीय कर्म का नाश करके परमवीतरागी होकर सर्वज्ञ हो जाते हैं ऐसा जानकर निश्चय चारित्र को ध्येय बनाकर व्यवहार चारित्र का अवलंबन लेना चाहिए।" इस ग्रंथ में मध्य में ही आपने वीर नि. संवत् ले ली है जिससे भविष्य में इस टीका रचना का समय निश्चित करना कठिन नहीं हो सकता है। हां, गाथा १७६ की टीका में “केवली भगवान् शेष ८५ प्रकृतियों को नष्ट कर सिद्ध हो जाते हैं।... और मुक्त हुये जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करते हैं" यह प्रकरण चल रहा था। इस वर्ष भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस प्रातः निर्वाण लाडू चढ़ने के बाद मैंने प्रशस्त बेला में ये पंक्तियां लिखीं-- "निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्र-पंचशतदशवर्षाणि अभूवन्। तस्य प्रभोर्निर्वाणकल्याणपूजा कृत्वा देवेन्द्रैः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता ।"--- आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंघाय सर्वभव्यजनेभ्यश्च मंगलप्रदानि भूयांसुः ।"२ स्त्रियां सर्वथा अर्थात् एकांत से निंद्य ही हों ऐसा नहीं है यह प्रकरण भी आपने गा. १७५ की टीका में सुंदर लिया है। वह क्या है? अरहंत भगवान के श्रीविहार धमोपदेश आदि क्रियायें स्वभाव से ही होती हैं जैसे कि स्वभाव से स्त्रियों में मायाचार । ऐसा प्रकरण आने पर मैंने प्रश्न रखा कि "ननु स्त्रीणां यदि मायाचारः स्वभावेन जायते, तर्हि कथं पूज्यास्ताः आर्यिका पदव्याम्? यदि स्त्रियों में मायाचार स्वभाव से ही होता है तो पुनः वे आर्यिका की पदवी में भी कैसे पूज्य होंगी?" इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मैंने लिखा है-कि यह कथन बहुलता की अपेक्षा से है न कि सर्वथा, देखो ब्राह्मी, सुंदरी, चंदना आदि आर्यिकायें और मरुदेवी आदि जिनमातायें इन्द्रादि देवों से और भरत, सागर, रामचंद्र आदि महापुरुषों से भी वंदनीय हुई हैं। श्री शुभचंद्राचार्य ने ज्ञानार्णव ग्रंथ में तीन श्लोक दिये हैं जिसे मैंने वहीं उद्धृत कर दिये हैं यमिभिर्जन्मनिर्विण्णैर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः। तथाप्येकांततस्तासां, विद्यते नाद्यसंभवः ((५६)) चंदनामती माताजी चंदनामतीडा. श्रेयांसमाताजी २- नियमसार प्राभृत गा. १७६, पृ. ५१२. १-नियमसार प्राभृत गाथा १८७, पृ. ५४७, २- नियमसार प्राभृत पृ. ५४७ । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला क्षुल्लक मोतीसागरमाताजी क्षुल्लक मोतीसागरमाताजी ननु संति जीवलोके, काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः, श्रुतसत्यसमन्विता नार्यः ((५७)) सतीत्वेन महत्त्वेन, वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रियः काश्चित्, भूषयंति धरातलम् ((५८)) इन श्लोकों से बहुत ही स्पष्ट है कि महिलायें सर्वथा निंद्य नहीं है। आर्यिकायें और तीर्थंकर की मातायें आदि इंद्रों से भी वंद्य है! पूज्य हैं। श्रीरामचंद्र ने भी श्री वरधर्मा गणिनी आर्यिका की पूजा की थी और सीता ने जब आर्यिका दीक्षा ले ली तब उन्हें "भगवती" कहकर नमस्कार किया था। आर्यिकायें अध्यात्म ग्रंथ एवं सिद्धांत ग्रंथ आदि का पठन-पाठन आदि कर सकती हैं क्या? कुछ साधुवर्ग तो विरोध करते हैं? गाथा १८७ की टीका में इस विषय पर मैंने प्रकाश डाला है। यद्यपि आर्यिकाओं के पंचम गुणस्थान ही है फिर भी वे एक कौपीन मात्रधारी ऐसे ऐलक से भी पूज्य हैं। उपचार महाव्रती हैं, संयतिका आदि शब्दों के प्रयोग प्रथमानुयोग में इनके लिये आये हैं। मुनियों के समान ही इनके २८ मूलगुण हैं और ये ग्यारह अंग तक भी पढ़ने की अधिकारिणी हैं। इसमें मूलाचार की ३ गाथायें देकर उसकी टीका की पंक्ति भी दी है- "तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य-संयतसमूहस्य स्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य च।" अर्थात् अस्वाध्याय काल-अकाल में संयमीमुनियों को और आर्यिकाओं को सूत्रग्रंथ पढ़ना उचित नहीं है। इसका अर्थ हो जाता है कि मुनि के समान आर्यिकाएं भी स्वाध्याय काल में सूत्रग्रंथों को पढ़ सकती हैं। हरिवंशपुराण में भी आया है"एकादशांगभृज्जाता सार्यिकापि सुलोचना।" सुलोचना आर्यिका ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। आपके अभिप्राय से श्रावक भी अध्यात्म ग्रंथ पढ़ सकते हैं क्या? गाथा १८७ की टीका में मैंने इस विषय को लिया है। कि "यदि इस ग्रंथ के पढ़ने वाले श्रोता या विद्वान, श्रावक और श्राविका भी अध्यात्म भावना को भाते हुये अपने पद के अनुकूल पूजा, दान, शील और उपवास को करते हुये-गृहस्थ के योग्य क्रियाओं को करते हुये जिनकल्पी मुनियों के आज नहीं मिलने पर स्थविरकल्पी मुनियों की भक्ति करते रहते हैं। दिगंबर मुनियों को देखकर अपमान नहीं करते हैं तो कोई दोष नहीं हैं। क्योंकि श्रावकों को भी इष्टवियोग आदि निमित्तों से जब मन में अशांति होती है तब अध्यात्म भावना से ही मन में शांति होती है इत्यादि। आपका कहना है कि इन अध्यात्म ग्रंथों में कहीं श्रावक शब्द का प्रयोग नहीं आया है सर्वत्र यति, मुनि, श्रमण आदि शब्दों के प्रयोग ही आये हैं? हां, समयसार में तो किसी भी गाथा में श्रावक शब्द नहीं है, किंतु मुनिवाचक शब्द तो बहुत गाथाओं में हैं। किंतु यहां नियमसार ग्रंथ में भक्ति अधिकार में एक गाथा में "श्रावक" शब्द का प्रयोग आया है इससे स्पष्ट है कि भक्ति में श्रावक को भी अधिकार है।" सम्मत्तणाणचरणे, जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती, होदित्ति जिणेहि णिद्दिटठं ((५३४)) जो श्रावक या मुनि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र में भक्ति करते हैं उनके निर्वाण भक्ति होती है ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है। आपने इस ग्रंथ में कहीं भूगोल का प्रकरण भी लिया है? हाँ, गाथा १४० की टीका में मैंने जंबूद्वीप के भरत ऐरावत क्षेत्र का एवं ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर कर्मभूमियां हैं ऐसा उल्लेख किया है। गाथा १७ की टीका में भी आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों का तथा भोग-भूमिज और कुभोगभूमिज मनुष्यों का वर्णन करते हुये ये सब भोग भूमि, कुभोगभूमि कहां है? संक्षिप्त खुलासा किया है। आज निर्विकल्प ध्यान होता है या नहीं? श्री कुंदकुंददेव ने गाथा १५४ में कहा है कि यदि शक्ति है तो प्रतिक्रमण आदि क्रियायें निर्विकल्प ध्यानरूप करे और शक्ति ब्र.रवीन्द्र जी माताजी डा. अनुपममाताजी ब्र० रवीन्द्र जीमाताजी १- ज्ञानार्णव, सर्ग १२, २- नियमसार प्राभृत, गा. १७५ पृ. ५०३-५०४. १- नियमसारप्राभृत, पृ. ५४४ से ५४६. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९७ नहीं हो तो श्रद्धान ही करे। श्रीपद्मप्रभमलधारी मुनि ने अपनी टीका में स्पष्ट कहा है कि आज अध्यात्म ध्यान नहीं है अतः श्रद्धान ही करना चाहिए। उसे ही देखो असारे संसारे कलि विलसिते पापबहुले। न मुक्तिर्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति ॥ अतोऽध्यात्मध्यानं कथमिह भवेनिर्मलधियां । निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्॥ अभिप्राय यही है कि आज दुःषमकाल में मुनियों को भी अध्यात्मध्यान संभव नहीं है उन्हें अपनी आत्मा का श्रद्धान ही करना चाहिए। बात यह है कि "शुद्धोऽहं बुद्धोऽहं" ऐसी भावना शब्दरूप है वह निर्विकल्प ध्यान नहीं है ऐसा निश्चित है। क्षु० मोतीसागर - आपने इस ग्रंथ की टीका में मध्य में भी अपने दीक्षागुरु का नाम दे दिया है। यह भविष्य में प्रमाणिकता से लिये अच्छा है क्योंकि "ज्ञानमती" इस नाम साम्य से आज ही शंका का विषय हो रहा है। बहुत से लोग कह देते हैं"- माताजी! मैंने अभी एक माह पूर्व आपको सोनागिरि में देखा है, कोई कह देते हैं मैंने अभी कल ही सुना था आप दिल्ली में हैं इत्यादि। माताजी हां, आज कई ज्ञानमती नाम से आर्यिकायें हैं, क्षुल्लिकायें भी हैं। उनसे आज प्रत्यक्ष में मेरे रहते हुये भी लोग भ्रमित हो रहे हैं। अस्तु, मैंने परमसमाधि" नामक नवमें अधिकार को पूर्ण करते हुये "गुरूणां गुरु" ऐसे चारित्रचक्रवर्ती शांतिसागरजी महाराज को नमस्कार किया है। आगे ग्यारहवें अधिकार को पूर्ण करते हुये चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री के प्रथम पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज जो कि मेरे आर्यिका दीक्षा गुरु हैं उन्हें नमस्कार किया है। डा. कस्तूरचंद जी- आपने अपने द्वारा रचित इस टीका का “स्याद्वादचंद्रिका" नाम दिया है। इसमें आपका क्या अभिप्राय रहा है? माताजी इस टीका में हर गाथा में निश्चय व्यवहार का समन्वय किया गया है, अतः स्याद्वाद यह नाम सार्थ है। पुनः मैंने अंत में पृ. ५५३ पर इसको स्पष्ट किया है। "यह नियमरूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए चंद्रमा का उदय है। . . . इसकी टीका चंद्रमा के उदय की चांदनी के समान शोभित हो रही है, इसलिए इसका "स्याद्वादचन्द्रिका" यह सार्थक नाम है। डा. शेखरचंद इस ग्रंथ की प्रशस्ति में आपने बहुत ही सुंदर गुर्वावली देकर टीका लिखने का अभिप्राय भी व्यक्त किया है। माताजी हां, मैंने लिखा है"घर में आठ वर्ष की उम्र से लेकर अठारह वर्ष की उम्र तक और दीक्षित जीवन में बत्तीस वर्ष तक जो भी मैंने ज्ञानाराधना से अमृत प्राप्त किया है, उस सबको इसमें एकत्र करके रख दिया है। मैंने अपने आत्मा की "तुष्टयै पुष्ट्रयै मनः शुद्ध्यै, शान्त्यै सिद्ध्यै च स्वात्मनः ।। तुष्टि, पुष्टि, मन की शुद्धि, शांति और सिद्धि के लिए यह टीका रची है। डा. श्रेयांस जैन- आपने इसमें तत्कालीन शासकों के नाम दे दिये हैं। माताजी हां, इससे समय की प्रमाणिकता बनी रहेगी। इसी भावना से मैंने "राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह" और "प्रधानमंत्री राजीव गाँधी" का नाम रख दिया है। दूसरी बात यह भी रही थी कि उन दिनों "जंबूद्वीप ज्ञानज्योति" का प्रवर्तन चल रहा था। यह ज्योति प्रवर्तन श्रीमती “प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी" के करकमलों से हुआ था। उसी वर्ष दिल्ली में जंबूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन "राजीव गांधी" द्वारा हुआ था। इन्हीं निमित्तों से मैंने प्रशस्ति में यह प्रकरण और इन भारत देश के शासकों के नाम दे दिये हैं। डा. अनुपम आपने प्रशस्ति में लिखा है कि आर्यिका श्री रत्नमती जी माताजी मेरे पास बैठी हुई हैं। माताजी को आपके लेखन आदि कार्य बहुत अच्छे लगते होंगे? माताजी हाँ, मैं ग्रंथों का लेखन किया करती थी, वे बहुत ही प्रसन्न होती थीं। पुत्री के अच्छे-अच्छे कार्यकलापों को देखकर माता-पिता को कितनी खुशी होती है, यह तो आप सभी जानते हैं और फिर जब वे स्वयं धर्ममूर्ति हों तो पुनः संतान के धर्मकार्यों की उन्नति को देख-देखकर उनकी प्रसन्नता को भला कौन माप सकता है? .... हां, सन् १९८४ में दीपावली से पहले रवींद्र, मोतीचंद, माधुरी ये सभी ज्ञानज्योति प्रवर्तन में आसाम गये हुए थे। उन दिनों मैं इस टीका को लिखने में बहुत ही व्यस्त थी। एक दिन जरूरत से अधिक लेखन कर लिया। सायंकाल से सिर में बहुत दर्द हो गया। इससे बेचैनी बढ़ गई। रात्रि १- नियमसार प्राभृत, पृ. ४०८, २- नियमसार प्रा.पृ. ५७ से ५८, ३- नियमसार प्रा.पृ. ३८४,४- नियमसार प्रा.पृ. ४५९. Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. शेखरचंदमाताजी डा. श्रेयांस जीमाताजी डा. अनुपममाताजी डा. श्रेयांसक्षुल्लक मोतीसागर ब्र. रवीन्द्र सामायिक के बाद मुझे वमन हो गया। रत्नमती माताजी ने उठकर मुझे संभाला और अगले दिन जब मैं लिख रही थी, तब वे समझाने लगीं. "ताजी! शरीर को संभालकर ही काम करना चाहिए, अभी तुम्हें बहुत काम करना है। शरीर से इतनी जबरदस्ती करोगा ता कैसे काम चलेगा इत्यादि।" उनकी प्रेरणा रहती थी कि तुम बैठकर लिखती हो तो पीठ में, गर्दन में, कमर में दर्द हो जाता है, कभी-कभी तेल की मालिश करा लिया करो। किंतु उस समय मैं उनकी नहीं सुनती थी। का पहले भी कभी आपको ऐसा सिर दर्द होकर वमन होना आदि कष्ट होता था? हां, सन् ७७-७८ से ऐसा कई बार होता था कि जब मैं लेखन या अध्यापन या उपदेश आदि में अधिक श्रम कर लेती थी तो ऐसे ही भयंकर सिर दर्द हो जाता था और कभी-कभी वमन भी हो जाता था। अब भी कभी आपको ऐसा होता है क्या? हां, अधिक बोलना या अधिक लेखन कर लेने से ऐसी घबराहट और सिर दर्द हो जाती है कि दो-तीन दिन सब काम बंद करना पड़ता है। पं. फूलचंद जी सिद्धांत शास्त्री ने आपको नियमसार प्राभृत का स्वाध्याय सुनाया था। उस समय उनका क्या उद्देश्य था? मुझे जब सन् १९८५ में मियादी बुखार हुआ था, उसके बाद लीवर कमजोर होकर पीलिया हो गया था। उन दिनों मैं उठने, चलने में असमर्थ हो गई थी। उन दिनों बड़े मंदिर से पं. फूलचंद जी शास्त्री आते रहते थे, वे कहते थे"माताजी! मैं आपको कुछ स्वाध्याय सुनाना चाहता हूँ।" एक दिन यह निर्णय हुआ कि नियमसार प्राभृत सुनाया जाये। वे केवल धर्मवात्सल्य की भावना से ही माघ, पौष की ठंड में बड़े मंदिर से यहाँ आकर बड़े प्रेम से मुझे इस ग्रंथ को पढ़कर अर्थ करके सुनाते रहते थे। ब्र. मोतीचंद और रवीन्द्र भी उसमें बैठते थे। साढ़े पांच महीने में उन्होंने मुझे यह पूरा ग्रंथ सुनाया है। इस ग्रंथ का अर्थ करते समय वे कैसे भाव व्यक्त करते थे? पंडित जी कभी-कभी इतने गद्गद् हो जाते थे कि माताजी के ज्ञान की प्रशंसा करते नहीं थकते थे। वे कहते-माताजी! आपने अनेक ग्रंथों से ये कैसे-कैसे अनमोल वाक्यरत्न इकट्ठे किये हैं और उन्हें यथोचित स्थलों पर रखे हैं। . पंडित जी ने एक दिन कहा-पूरा का पूरा ग्रंथ आगम के अनुकूल है। हाँ, शुद्ध आत्मानुभूति के बारे में दो धारायें हैं। माताजी ने एक धारा का आश्रय लिया है। उस समय मैंने पंडित जी से कहा-एक धारा के तो उद्धरण मैंने अनेक शास्त्रों में से लेकर दे दिये हैं। दूसरी धारा के शास्त्रों के नाम आप बता दीजिए? तब उन्होंने अनगार धर्मामृत का एक प्रकरण बताया। मैंने निकालकर देखा और उन्हें भी दिखाया, वह प्रकरण तो हमारे ही अनुकूल था। वह क्या है? सरागी ज्ञानी जीव का सम्यग्दर्शन सराग है, वह असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्म सांपराय नामक दशवें गुणस्थान तक होता है और वीतरागी मुनि के-अर्थात् उपशांत मोह और क्षीणमोह मुनि के वीतराग सम्यग्दर्शन होता है, यह आत्मा की विशुद्धिमात्र है। (अनगारधर्मा. अ. २ श्लोक ५१-५२-५३) बात यह है कि आज कल कुछ विद्वान् चौथे गुणस्थान में ही आत्मा की अनुभूति रूप वीतराग या निश्चय सम्यग्दर्शन मान लेते हैं। तब पंडित जी क्या बोले? पंडित जी मौन रहे। आपने भगवान् शांतिनाथ को तीनलोक के चक्रवर्ती कहा है? इसमें क्या बाधा है। तीर्थकर भगवान् तीनलोक के चक्रवर्ती हैं ही। श्लोक ऐसा है "त्रैलोक्यचक्रवर्तिन् हे शांतीश्वर! नमोऽस्तु ते। त्वन्नामस्मृतिमात्रण, शांतिर्भवति मानसे ॥ पूज्य माताजी! आज हम लोगों ने आपका बहुत सा समय लिया है। इसमें हमने बहुत से महत्त्वपूर्ण विषय इस महान् आपकी प्रिय रचना टीका ग्रंथ के बारे में समझा है । सो बहुत प्रसन्नता है। अच्छा है, श्रावकवर्ग, विद्वद्वर्ग और शिष्यवर्ग जितना भी मेरे से लाभ ले लें अच्छी बात है। वंदामि, माताजी! सद्धर्मवृद्धिरस्तु। माताजी डा. श्रेयांसमाताजी डा. श्रेयांसमाताजीडा. श्रेयांसमाताजी संपादकगण माताजीसंपादकगणमाताजी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आयिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६९९ अभिवंदन ग्रंथ के सम्पादक मण्डल एवं संघस्थ साधुओं द्वारा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से "मूलाचार" ग्रंथ के संबंध में हुई एक चर्चा (दिनांक १४ मई, १९९२) लेखक-डा. श्रेयांस जैन, बड़ौत संपादक माताजी! वंदामि, वंदामि, वंदामि। माताजी सद्धर्मवृद्धिरस्तु। चंदनामती पूज्य माताजी! आपने मूलाचार ग्रंथ का हिंदी अनुवाद किया है, उसमें आपको क्या-क्या विशेषतायें अनुभव में आई हैं? माताजी इसमें बहुत सी विशेषतायें हैं। यह तो साधुओं का संहिताग्रंथ है। मुनियों और आर्यिकाओं की जीवनचर्या इसी ग्रंथ के आधार से होनी चाहिए। डा. श्रेयांस कुछ विशेष बातें हम आपसे सुनना चाहते हैं? माताजी हां हां, क्यों नहीं, मैंने “मूलाचार" में बहुत सारे विशेष प्रकरण देखे हैं। इसमें पहले अधिकार में अठारह मूलगुणों का वर्णन है। चौथे अधिकार में साधुओं की समाचार चर्या है-इसके औधिक और पदविभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। इसमें द्वितीय पदविभागी समाचारी चर्या का वर्णन करते हुए कहा है कि उत्तम तीन संहनन के धारी, तप और श्रुत आदि में कुशल ऐसे मुनि ही एकल बिहारी हो सकते हैं। आगे कहा है कि जो स्वच्छंद गमनागमन आदि प्रवृत्ति करने वाले हैं, ऐसे साधु मेरे शत्रु भी एकाकी विहार न करें अर्थात् संघ में ही रहें। चंदनामती माताजी! आर्यिकाओं की चर्या का मूलाचार में क्या उल्लेख आता है? माताजी इसी मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में आचार्य के लक्षण बतलाकर यह स्पष्ट किया है कि आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त आदि देने वाले आचार्य प्रौढ़ होवें, इत्यादि । पुनः कहा है एसो अजाणंपि असामाचारो जहक्खिओ पुव्वं । सव्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्यो जधाजोगं ॥ १८७ ॥ अर्थात् पूर्व में इस ग्रंथ में जैसा समाचार मुनियों के लिए कहा गया है, आर्यिकाओं को अहोरात्र यथायोग्य-अपने अनुरूप-वृक्षमूल, आतापन, अभावकाश आदि योगों से रहित वही संपूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए। यहाँ गाथा में जो "जहाजोगं" पद है, उसमें टीकाकार ने कहा है"जहाजोग-यथायोग्य आत्मानुरूपो वृक्षमूलादिरहितः।" इससे बहुत ही स्पष्ट हो जाता है कि सारी मुनि की चर्या ही आर्यिका की चर्या है मात्र आतापन योग आदि का निषेध है। आर्यिकाओं की दीक्षाविधि भी अलग से नहीं है मुनि की दीक्षा विधि से ही दीक्षा दी जाती है। अतः आर्यिकाओं के २८ मूलगुण माने गये हैं। दो साड़ी रखना और बैठकर करपात्र में आहार लेना ये उनके मूलगुण ही हैं। प्रायश्चित्त ग्रंथ में भी मुनि और आर्यिकाओं के लिए एक समान ही प्रायश्चित्त हैं, क्षुल्लकों, क्षुल्लिकाओं के लिए इससे आधा है और ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणियों के लिए इससे भी आधा है। इत्यादि। डा. श्रेयांस आहार में क्या आर्यिकाओं की नवधाभक्ति होती है? माताजी हां, चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी की आज्ञा से उनकी परंपरा में सभी आर्यिकाओं के पाद प्रक्षालन, अष्टद्रव्य से पूजा आदि नवधाभक्ति होती आ रही है। डा. अनुपम क्या कहीं आर्यिका की पूजा के प्रमाण भी मिलते हैं? माताजी हां, पद्मपुराण में लिखा है कि श्रीरामचंद्र जी ने सीता के साथ जाकर एक मंदिर जी में विराजमान गणिनी आर्यिका श्री "वरधर्मा" जी की पूजा की थी। यथा वरधर्मापि सर्वेण, संघेन सहितापरम्। राघवेण ससीतेन, नीता तुष्टेन पूजनम् ॥ १. मूलाचार गाथा १४९ । २. मूलाचार गाथा १५० Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७००] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. कस्तूरचंदमाताजी क्षु. मोतीसागरमाताजी व्र. रवीन्द्रमाताजीडा. कस्तूरचंद माताजी पूज्य माताजी! आपने इस ग्रंथ में किस-किस विषय में विशेषार्थ दिये हैं? गाथा २७३ में दिक् शुद्धि का विधान है। यथा-पूर्वाह्न, अपराह्न और प्रदोषकाल-पूर्वरात्रिक काल के स्वाध्याय करने में दिशा विभाग की शुद्धि के लिए नव, सात और पाँच गाथा प्रमाण णमोकार मंत्र जपें। इसके विशेषार्थ में मैंने धवला की नवमी पुस्तक के भी उद्धरण देकर अच्छा खुलासा कर दिया है। जैसे "पच्छिमरत्तियसज्झायं खमाविय बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे ....।" अर्थात् साधु पिछली रात्रि के स्वाध्याय को समापन करके वसतिका से बाहर निकलकर प्रासुक भूमि प्रदेश में कायोत्सर्गमुद्रा से पूर्वदिशा की तरफ मुँह करके खड़े होकर नवबार णमोकार मंत्र को सत्ताईस उच्छ्वास में पढ़कर पूर्वदिशा की शुद्धि करके दक्षिण दिशा में घूम जावें, ऐसे कायोत्सर्ग मुद्रा से २७ उच्छ्वास में नवबार णमोकार मंत्र जपें । ऐसे पश्चिम और उत्तर दिशा की दिक्शुद्धि करें। यह दिक्शुद्धि पूर्वाह्न के स्वाध्याय के लिए होती है। इस दिक्शुद्धि के बाद साधु रात्रिक प्रतिक्रमण करके पूर्वाह्न कालीन देववंदना अर्थात् सामायिक करते हैं। पुनः पूर्वाह्न स्वाध्याय करते हैं। ऐसे ही पूर्वाह्न स्वाध्याय के बाद अपराह्न स्वाध्याय के लिए दिक्शुद्धि की जाती है। यह दिक्शुद्धि किन-किन ग्रंथों के लिए है? यह सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए है। आज वर्तमान काल में श्रुतकेवली, अंग-पूर्वधारी आदि मुनियों द्वारा विरचित ग्रंथ तो हैं नहीं, पुनः सिद्धांत ग्रंथ कौन-कौन से माने जाते हैं? चा.च.आ. श्री शांतिसागर जी महाराज ने षट्खंडागम, कसायपाहुड और महाबंध इन तीन ग्रंथों को सिद्धांत ग्रंथ कहा था और सिद्धांतग्रंथों के लिए कालशुद्धि आदि का नियम इन्हीं में लगाने का आदेश दिया था। जैसे कि अष्टमी, चतुर्दशी को भी स्वाध्याय नहीं करना आदि। माताजी, षट्खंडागम ग्रंथ तो धवला टीका सहित सोलह पुस्तकों में छपा है? हां, ऐसे ही कसायपाहुड ग्रंथ भी जयधवला टीका समेत सोलह पुस्तकों में छप चुका है। क्या समयसार आदि ग्रंथ सिद्धांत ग्रंथ नहीं है? हैं, ऐसे तो तत्त्वार्थवार्तिक गोम्मटसार आदि ग्रंथ भी सिद्धांत ग्रंथ से संबंधित हैं। फिर भी सिद्धांत ग्रंथ के स्वाध्याय के लिए जितनी द्रव्य क्षेत्र काल भाव शुद्धि वर्णित है, उतनी उन्हीं उपर्युक्त ग्रंथों के लिए आचार्यश्री की आज्ञा से चली आ रही है। अन्य समयसार आदि ग्रंथों को भी सामायिक काल-तीनों संध्या काल को छोड़कर ही पढ़ना चाहिए। क्या सभी बड़े संघों में यह दिक्शुद्धि की जाती है? प्रायः परंपरा नहीं है, कोई साधु करते हों तो पता नहीं। मैंने "मुनिचर्या' पुस्तक जो अभी मुनि-आर्यिकाओं के लिए नित्यक्रिया-नैमित्तिक क्रियाओं की संकलित की है, उसमें इस दिक् प्रकरण को सप्रमाण दे दिया है। यह तो एक विशेषार्थ का मैंने नमूना दिया है, ऐसे अनेक भावार्थ-विशेषार्थ हैं। कृतिकर्म विधि क्या है? साधु के अहोरात्र के २८ कायोत्सर्ग या कृतिकर्म माने हैं। उनमें प्रत्येक भक्ति के पढ़ने में जो विधि की जाती है, वही कृतिकर्म है। इसमें दो नमस्कार, चार शिरोनति और बारह आवर्त होते हैं। मैंने गाथा ६०३ के विशेषार्थ में इसे अच्छी तरह स्पष्ट किया है। ऐसे ही गाथा ६९० में आये हुए आसिका और निषिद्यका को भी विशेषार्थ में आचारसार और अनगार धर्मामृत के उद्धरण देकर खुलासा कर दिया है। ऐसे ही गाथा २०५ में विशेषार्थ में पृथ्वी के चार भेदों में पृथ्वीकाय को निर्जीव सिद्ध किया है। और कोई महत्त्वपूर्ण प्रकरण बताइये? धवला पुस्तक १३ (पृ. ७४-७५) में जब यह प्रकरण आया कि धर्मध्यान दशवें गुणस्थान तक है और शुक्लध्यान ग्यारहवें गुणस्थान से होते हैं, तब साधुओं और विद्वानों को एक नई बात जैसी लगती है, किन्तु इस मूलाचार में भी यही विषय है। गाथा ४०४ और ४०५ में कहा है-उपशांतकषाय मुनि पृथक्त्व विर्तक वीचार शुक्लध्यान को, क्षीणकषायमुनि एकत्व वितर्क अवीचार को, सयोगीजिन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान को एवं अयोगी जिन भगवान समुच्छिन्न-व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान चन्दनामतीमाताजीडा. शेखरमाताजी क्षु, मोतीसागरमाताजी ब्र. रवीन्द्रमाताजी डा. श्रेयांसमाताजी १. मूलाचार गा. १८७ । पद्मपुराण पर्व २७ । ३. मूलाचार गा. २७३, पृ. २२८ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७०१ डा. अनुपममाताजी चंदनामती माताजी डा. शेखरमाताजी को ध्याते हैं। इसके विशेषार्थ में मैंने श्रीअमृतचंद्रसूरि के "तत्त्वार्थसार" के श्लोक भी दिये हैं। । “भगवती आराधना" एवं "उत्तरपुराण" ग्रंथ में भी यह प्रकरण है। आपने तो इस मूलाचार को श्रीकुंदकुंददेवकृत माना है। उसके बारे में कोई एक प्रकरण आप बतायेंगी क्या? हां, देखो भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्यपावं च। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ २०३ ॥ यही गाथा समयसार में नं. १३ पर है। इसमें नव तत्त्वों या पदार्थों के क्रम तत्त्वार्थसूत्र से भिन्न हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षे। यही क्रम श्री गौतमस्वामी विरचित मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में दिया है। यथा-"जीवाजीव उवलद्धपुण्णपाव आसवसंवरणिज्जर बंध मोक्खमहिकुसले।" इत्यादि। माताजी, आजकल तो इस प्रतिक्रमण में इस सूत्र दण्डक को ही बदल दिया है, उसमें तत्त्वार्थसूत्र के क्रम से "श्रमणचर्या" पुस्तक में ऐसा बदला है-"जीवाजीव उवलद्ध पुण्णपाव आसव बंधसंवरणिज्जरमोक्ख महिकुसले।" आप इस गाथा के क्रम को समयसार में नहीं बदल सकते हैं। वहाँ तो अधिकार भी इसी क्रम से लिये गये हैं। पहले जीवाजीव अधिकार पुनः पुण्यपाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन अधिकारों को तो आप नहीं बदल सकते। समझ में नहीं आता कि यह ऐसा पाठ परिवर्तन आज क्यों किया जा रहा है? मुझे तो बहुत ही दुःख होता है। महान् गणधर श्रीगौतमस्वामी द्वारा रचित प्रतिक्रमण दण्डकों में यह परिवर्तन बहुत ही अतिसाहस का कार्य है। आप और भी देखें-उस पाक्षिक प्रतिक्रमण में बाह्य छह तपों में “कायक्लेश" तप को पांचवें नंबर पर और अभ्यंतर तपों में ध्यान तप को पांचवें नंबर पर लिया है। यही क्रम इस मूलाचार में लिया है। देखो गाथा ३४६ में कायक्लेश के बाद ही विविक्तशयनासन को लिया है। ऐसे ही गाथा नं. ३६० में ध्यान को पांचवें नंबर पर पुनः व्युत्सर्ग तप को लिया है। मुझे तो इन प्रकरणों से ऐसा लगता है कि श्री कुंदकुंददेव ने सभी विषयों में श्रीगौतमस्वामी और श्री भूतबलि, पुष्पदंत आचार्यों का अनुसरण किया है। इन्हीं सब आधारों से बारह भावना के क्रम आदि अनेक प्रकरणों से मैंने इस मूलाचार ग्रंथ को श्री कुंदकुंददेव की ही रचना मानी है। दूसरी बात यह है कि श्री मेघचन्द्राचार्य ने इसी मूलाचार ग्रंथ की कर्नाटक भाषा में टीका लिखी है, उसमें उन्होंने सर्वत्र इसे श्री कुंदकुंददेव कृत ही लिखा है। इन सब विषयों को मैंने मूलाचार की प्रस्तावना में स्पष्ट कर दिया है। इस ग्रंथ के अनुवाद के पश्चात् आपने कौन-कौन से ग्रंथ लिखे? एक "आर्यिका" पुस्तक लिखी, संस्कृत के श्लोकों में "आराधना" पुस्तक लिखी है और एक "दिगंबरमुनि" पुस्तक भी लिखी है। ऐसे तीन ग्रंथ लिखे हैं, इन तीनों का मूल आधार तो "मूलाचार" ही है। शेष आचारसार, धवला पुस्तक ९, अनगारधर्मामृत, भगवती आराधना, चारित्रसार आदि अनेक ग्रंथों के भी उद्धरण दिये हैं। ये तीनों पुस्तकें मुनि आर्यिकाओं के लिए विशेष पठनीय हैं। अनेक ग्रंथों का सार इनमें भरा हुआ है। माताजी! इस मूलाचार ग्रंथ का प्रकाशन "ज्ञानपीठ" से क्यों कराया गया? सन् १९७२ में जब अष्टसहस्री ग्रंथ का प्रथम भाग दिल्ली में छप रहा था, उसे देखकर पं. कैलाशचंद सिद्धांतशास्त्री ने कई बार यह कहा कि यह गौरवपूर्ण ग्रंथ हमारे ज्ञानपीठ को दे दीजिए। उस समय ब्र. मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार आदि ने “वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला" स्थापित की थी और उसका प्रथम पुष्प बना रहे थे, अतः इस ग्रंथ को उन्हें नहीं दे सके थे। जब मूलाचार का अनुवाद पूर्ण हआ, तब पं. कैलाशचंद जी की भावना के अनुसार यह ग्रंथ ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराने का निर्णय लिया गया। ऐसा सुना है कि डा. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, पं. कैलाशचंद जी शास्त्री इन तीन विद्वानों ने इसका संशोधन किया है? (हंसकर) संशोधन तो नहीं हां, वाचना अवश्य की थी। संशोधन इसलिए नहीं कह सकते कि इन विद्वानों ने इसके हिंदी अनुवाद में एक भी गलती नहीं निकाली। हां, इन विद्वानों ने कई एक स्थल पर विशेषार्थ लिखने के लिए सुझाव अवश्य दिये थे। मैंने उन सुझावों के अनुसार कुछ विशेषार्थ बढ़ाये भी थे। डा. अनुपममाताजी डा. कस्तूरचंदमाताजी डा. श्रेयांस माताजी १. मूलाचार गाथा ६०२-६०३, पृ. ४४२ से। २. मूलाचार गा. २०५, पृ. १७२ । ३. मूलाचार गाथा ४०४, पृ. ३१९ । ४. मूलाचार पृ. १६८ से। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. अनुपम माताजी आपके द्वारा रचित "दिगंबर मुनि", "आराधना" और "आर्यिका" ये तीनों पुस्तकें साधुओं के लिए संहिताशास्त्र है। बड़े-बड़े ग्रंथों के साररूप हैं। अतः मेरी समझ में तो इन्हें सभी साधुवर्गों को अवश्य पढ़ना ही चाहिए तथा विद्वानों को भी पढ़ना चाहिए। हां, "दिगंबर मुनि" पुस्तक में तो मैंने तृतीय खंड में सामयिक अनेक प्रश्नों को रखकर आगम के आधार से उनके उत्तर दिये हैं। अतः साधु वर्गों के साथ विद्वानों और श्रावकों के लिए भी पठनीय है। इसमें मेरा तो क्या है, केवल आगम के ही उद्धरण संकलित हैं। पूज्य माताजी! आज आपसे मूलाचार ग्रंथ के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर बहुत ही प्रसन्नता हुई । आपके ही चरणों में वंदामि। संपादक मंडल सम्पादक मण्डल की पूज्य माताजी से एक सामयिक चर्चा १४ मई १९९२ लेखक-डा० श्रेयांस जैन, बड़ौत श्रेयांस कुमार वंदामि माताजी! माताजी सद्धर्मवृद्धिरस्तु। श्रेयांस कुमार- माताजी! आपका अधिकांश समय जंबूद्वीप पर ही क्यों व्यतीत होता है? क्षु. मोतीसागर- अभी सन् १९९१ का चातुर्मास तो सरधना हुआ था। इससे पहले भी सन् ८९ में शीतकाल के चार महीने तक माताजी ने बड़ौत, मोदीनगर, मेरठ आदि नगरों में बिहार किया था। श्रेयांस कुमार इसीलिये तो मैंने अधिकांश शब्द का प्रयोग किया है। माताजी बात यह है कि सन् १९८२ तक तो हस्तिनापुर, दिल्ली, खतौली, मुजफ्फरनगर आदि में बिहार होता रहता था। सन् ८३ से आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य विहार के लायक नहीं रहा था। पुनः १९८५-८६ की लंबी बीमारी के बाद मेरा भी शरीर स्वास्थ्य अब अधिक विहार के योग्य नहीं है। सन् १९८९ में हिम्मत भी किया तो पदविहार से सरधना में स्वास्थ्य पुनः बिगड़ गया। तब मुझे सभी के आग्रह से जबरदस्ती डोली में बैठकर बिहार करना पड़ा। अनुपम माताजी! आपने तो दिगंबर मुनि पुस्तक में मुनियों को डोली में बैठने के लिये आगम का प्रमाण दिया है। माताजी हां, प्रायश्चित ग्रंथ में लिखा है- "डोली आदि में बैठकर गमन करने पर आचार्य उस मंद, रोगी आदि साधु को जानकर उसके दोष को दूर करने वाली मार्गशुद्धि से दूनी शुद्धि दें। अर्थात् मार्ग गमन का जो सामान्य प्रायश्चित है, डोली पर बैठने से उससे दूना प्रायश्चित्त देवें।" सन् १९५७ में आ. शिवसागर जी महाराज के संघ में गिरनार क्षेत्र यात्रा के प्रसंग में आर्यिकायें डोली में बैठती थीं। आचार्य संघ में मुनि भा डोली में बैठे हैं। सभी संघों में अस्वस्थता के प्रसंग में आचार्य, मुनि, आर्यिकायें, डोली में बैठते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है फिर भी मेरी इच्छा इस तरह बिहार करने की कम रहती है। दूसरी बात यह है कि तीर्थक्षेत्र पर एक स्थान में अधिक दिन रहना विरुद्ध भी नहीं है । चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी ने कुंभोज (दक्षिण) में मुनि श्री समंतभद्र महाराज के लिये वहीं क्षेत्र पर रहने की और भगवान् बाहुबली की मूर्ति विराजमान कराने की प्रेरणा भी दी थी। देखिये एक प्रशस्त विकल्पवर्षों से एक प्रशस्त संकल्प चित्त में था। जैसे मां के पेट में बच्चा हो। यह करुणा कोमल चित्त की उद्भट चेतना थी। महाराष्ट्र की जैन जनता प्रायः कास्तकार (किसान) है धर्मविषयक अज्ञान की भी उनमें बहुलता है। आचार्य श्री का समाज के मानस का गहरा अध्ययन तो अनुभूति पर आधारित था ही। “शास्त्रज्ञान और तत्त्वविचार" की ओर इनका मुड़ना बहुत ही कठिन है। प्रथमानुयोगी जन-मानस के लिए एक भगवान का दर्शन ही अच्छा निमित्त हो सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर किसी अच्छे स्थान पर विशालकाय श्री बाहुबली भगवान की विशालमूर्ति कम से कम २५ फीट की खड़ी कराने का प्रशस्त विकल्प जहां कहीं भी आचार्यश्री पहुँचते थे, प्रकट करते थे। परन्तु सिलसिला बैठा नहीं। "भावावश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते" । होनहार होकर ही रहती है। योगायोग से इसी समय अतिशय क्षेत्र बाहुबली (कुंभोज) में वार्षिकोत्सव होने वाला था। "सम्भव है सत्य संकल्प की पूर्ति हो जाय" इसी सदाशय से आचार्यश्री के चरण बाहुबली की ओर यकायक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७०३ बढ़े। १८ मील का विहार वृद्धावस्था में पूरा करते हुए नांद्रे से महाराज श्रीक्षेत्र पर संध्या में पहुँचे । पवित्र आनन्दोल्लास का वातावरण पैदा हुआ। संस्था के मंत्री श्री सेठ बालचन्द देवचन्द जी और मुनि श्री समंतभद्र जी से संबोधन करते हुए भरी सभा में आचार्यश्री का निम्न प्रकारं समयोचित और समुचित वक्तव्य हुआ। जो आचार्यश्री की पारगामी दृष्टि-सम्पन्नता का पूरा सूचक था। "तुमची इच्छा येथे हजरो विद्यार्थ्यांनी राहावे शिकावे अशी पवित्र आहे हे मी ओळखतो, हा कल्पवृक्ष उभा करुन जाते। भगवंताचे दिव्य अधिष्ठान सर्व घडवून आणील। मिळेल तितका मोठा पाषाण मिळवा व लवकर हे पूर्ण करा । मुनिश्री समन्तभद्राकडे वळून म्हणाले, "तुझी प्रकृति ओळखतो, हे तीर्थक्षेत्र आहे । मुनींनी विहार करावयास पाहिजे असा सर्वसामान्य नियम असला तरी विहार करूनहो जे करावयाचे ते येथेच एके ठिकाणी राहून करणे । क्षेत्र आहे । एके ठिकाणी राहाण्यास काहीच हरकत नाही, विकल्प करू नको, काम लवकर पूर्ण करून घे। काम पूर्ण होईल! निश्चित होईल!! हा तुम्हा सर्वाना आशीर्वाद आहे।" आपकी आंतरिक पवित्र इच्छा है कि यहां पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँ। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है यथासंभव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिये।" मुनि श्री समन्तभद्र जी की ओर दृष्टि कर संकेत किया-"आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थभूमि है। मुनियों को विहार करते रहना चाहिये इस प्रकार सर्वसामान्य नियम है। फिर भी विहार करते हुये जिस प्रयोजन की पूर्ति करना है उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थक्षेत्र है एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। विकल्प की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार से कार्य शीघ्र पूरा हो सके पूरा प्रयत्न करना । कार्य अवश्य ही पूरा होगा। सुनिश्चित पूरा होगा। आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।" ___पूर्णिमा का शुभ मंगल दिन था। शुभ संकेत के रूप से पच्चीस हजार रुपयों की स्वीकृति भी तत्काल हुई। काम लाखों का था। यथाकाल सब काम पूर्ण हुआ। “पयसा कमलं कमलेन पयः पयसा कमलेन विभाति सरः।" पानी से कमल, कमल से पानी और दोनों से सरोवर की शोभा बढ़ती है। ठीक इस कहावत के अनुसार भगवान् की मूर्ति से संस्था का अध्यात्म वैभव बढ़ा ही है। अतिशय क्षेत्र की अतिशयता में अच्छी वृद्धि ही हुई। अब तो मूर्ति के प्रांगण में और सिद्धक्षेत्रों की प्रतिकृतियां बनने से यथार्थ में अतिशयता या विशेषता आयी है। महाराज का आशीर्वाद ऐसे फलित हुआ। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि मैंने भी जो जंबूद्वीप निर्माण और जंबूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की प्रेरणा दी है और अब विहार करने की शक्ति न होने से यहां क्षेत्र पर रह रही हूँ । इन सब कार्यों में मुझे चा.च. आचार्यश्री का आदेश और आशीर्वाद परोक्षरूप में है ऐसा मैं समझती हूँ। डा. शेखर आपने यहां संस्थान में क्षुल्लक मोतीसागर जी को “पीठाधीश" बनाया, इसमें आपका क्या उद्देश्य है? माताजी बड़ी-बड़ी धार्मिक संस्थाओं में मार्गदर्शन के लिये कोई साधु, साध्वी या पिच्छीधारी उत्कृष्ट श्रावक यानी क्षुल्लक रहते हैं तो धर्मपरंपरा, व व्यवस्था अच्छी बनी रहती है। इसी ऊहापोह में मैंने “महोत्सवदर्शन" पुस्तक में जो कि श्रीनीरज जैन द्वारा लिखित है उसमें पढ़ा था "परंपरागत गुरुपीठ के पीठाधीश भट्टारक या महंत स्वामी इन मठों के अधिपति होते हैं। ...जनश्रुतियों के अनुसार महामात्य चामुंडराय ने गोम्मटस्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा के उपरांत, अपने गुरु सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य को श्रवणबेलगोल के मठ के मठाधीश पर विराजमान किया था। यह भी कहा जाता है कि वहां इसके बहुत पहले से गुरुपरंपरा चली आ रही थी। अनेक अभिलेख भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। ___चा.च. आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने भी कुंभोज के ब्रह्मचारी जी को क्षुल्लक पद में संस्था संचालन का अधिकार देकर उन्हें क्षुल्लक दीक्षा दी थी। देखिये शास्त्रशुद्ध व्यापक दृष्टिकोण ईस्वी सन् १९३३ का चातुर्मास आचार्य संघ का ब्यावर (राजस्थान) में था महाराज जी का अपना दृष्टिकोण हर समस्या को सुलझाने के लिए मूल में व्यापक ही रहता था। योगायोग की घटना है इसी चौमासे में कारंजा गुरुकुल आदि संस्थाओं के संस्थापक और अधिकारी पू० ब्र० देवचन्द जी दर्शनार्थ ब्यावर पहुंचे। पू० आचार्यश्री ने क्षुल्लक दीक्षा के लिए १. आचार्य शांतिसागर शताब्दी स्मृति ग्रंथ पृ. १- महोत्सव दर्शन, पृ.८५ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला डा. श्रेयांसमाताजी पुनः प्रेरणा की। ब्रह्मचारी जी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो इसीलिए ब्यावर पहुंचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि यदि संस्था संचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचार्यश्री देने को तैयार हों तो हमारी लेने की तैयारी है।" इस प्रकार अपना हार्दिक आशय ब्रह्मचारी जी ने प्रगट किया। 5-6 दिन तक उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितो का कहना था कि क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते। आचार्य श्री का कहना था कि पूर्व में मुनि संघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबन्ध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत श्रावक के व्रत हैं। अन्त में आचार्य महाराज ने शास्त्राधारों के आधार से अपना निर्णय सिद्ध किया। फलतः श्री ब्र० देवचन्द जी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूर्ण उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचार्य श्री ने स्वयं अपनी आन्तरिक भावनाओं को प्रगट करते हुए दीक्षा के समय “समंतभद्र" इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया और पूर्व के समंतभद्र आचार्य की तरह आपके द्वारा धर्म की व्यापक प्रभावना हो इस प्रकार के शुभाशीर्वादों की वर्षा की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी-छोटी सी बातों की जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचार्यश्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूर-दृष्टिता? मुनियों के संघ और आर्यिकाओं के संघ यदि अलग-अलग रहें, अच्छी व्यवस्था है, इसमें आपका क्या अभिप्राय है? ऐसा एकांत नहीं है। मूलाचार ग्रंथ में आर्यिकाओं का आचार्य कैसा हो? अच्छा वर्णन किया है अर्थात् वे चारित्र में, ज्ञान में, तप में और उम्र में भी प्रौढ़ हो तभी वे आर्यिकाओं को प्रायश्चित आदि देने के अधिकारी हो सकते हैं। जैसाकि आपने आचार्यश्री वीरसागरजी आदि को देखा है, सुना है। मूलाचार में तो मुनि को एकलविहारी होने का पूर्ण विरोध किया है। ऐसे छोटी उम्र में मुनि-आर्यिका का एक साथ रहना भी लोक विरुद्ध है। ___ सच पूछा जाय तो आर्यिकाओं के संघ अलग रहें और प्रधान आर्यिकायें ही आर्यिका दीक्षा देवें। यह परंपरा आगम सम्मत भी हैं, बहुत ही स्वस्थ है। मैंने जो चालीस वर्ष में अनुभव किया है उसके अनुसार आज इसे ही अच्छा समझती हूँ। वर्तमान में कई साधु वर्गों में शिथिलाचार देखा जाता है उसका क्या कारण है? कुछ विद्वान् या श्रावक वर्तमान के सभी मुनियों को शिथिलाचारी कह देते हैं। यह भी गलत है, रही बात किन्हीं साधु में कुछ कमी की, तो इस विषय को उन साधु को एकांत में समझाना चाहिये। या उनके गुरु को जाकर कहना चाहिये। बात यह है आचार्यों को ही साधुसाध्वियों पर अनशासन करने का अधिकार है। आप एक छोटी सी साधु संहिता बना दें जिससे साधु संघों में सुधार का मार्ग प्रशस्त हो जाय? सन् १९६६ में श्री भंवरीलाल जी बाकलीवाल महासभा के अध्यक्ष ने दो तीन बार यह विषय मेरे सामने रखा था। और भी अनेक विद्वानों ने यह बात कही किंतु मैं समझती हूँ कि मूलाचार में श्रीकुंदकुंददेव ने जो कुछ भी लिखा है वही तो "मुनिसंहिता" है उसी के अनुसार हम सभी की प्रवृत्ति होनी चाहिये। पुनः मैंने इन मुनियों के चरणानुयोग संबंधी अनेक ग्रंथों के उद्धरण देकर मूलाचार ग्रंथ के आधार से "आराधना", दिगंबर मुनि" और "आर्यिका" पुस्तकें लिखी हैं ये भी मुनि-आर्यिकाओं के लिये विधान ग्रंथ हैं। तीसरी बात-चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने जो मुनि परंपरा को पुनजीवित करके जो भी चर्या स्वयं पाली है और जो भी चर्या अपने संघस्थ मुनि-आर्यिकाओं से पालन करायी हैं। उन्हीं को आधार बनाना चाहिये। हम सभी विद्वान व श्रावकों के लिये आपका क्या आदेश है? जिनवाणी के स्वाध्याय को बढ़ाना, जन-जन में उसका प्रचार करना और अपने जीवन में कम से कम भी पंच अणुव्रत अवश्य धारण करना । देवपूजा, गुरुभक्ति, गुरुओं को आहारदान आदि देना। यही आप विद्वानों का कर्तव्य है। दान-पूजन के बिना विद्वानों की विद्वत्ता कोरा शब्दज्ञान ही है। यही श्रीमंतों का कर्तव्य है। आज पंचमकाल में जिनेंद्रदेव की भक्ति और गुरुभक्ति ही मोक्ष के लिये कारण है। इन्हीं कर्तव्यों के पालन से गृहस्थों का जीवन और धन सफल है। वंदामि, माताजी! डा. अनुपममाताजी श्रेयांसकुमारमाताजी संपादकमाताजी संपादक मंडल १- आचार्य श्री शांतिसागरजी जन्म शताब्दी स्मृति ग्रंथ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७०५ णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगल एवं सरस्वती की प्रतिमा वंदनीय है या नहीं? प्रस्तुति-आर्यिका चन्दनामती [कुछ आगम एवं सामयिक विषयों पर पू० गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से हुई चर्चाः-] चन्दना- पूज्य माता जी। जिस णमोकार महामन्त्र को सभी जैन लोग उच्चारण करते हैं उसके बारे में मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ। श्री ज्ञानमती माताजी- पूछो, क्या पूछना है? चन्दना- णमोकर मन्त्र के प्रथम पद को कोई तो "णमो अरिहंताणं" पढ़ते हैं तथा कुछ लोगों को "णमो अरहताणं" भी पढ़ते देखा है। इस विषय में आगम का क्या प्रमाण है? श्री ज्ञानमती भानाजी- आगम-सूत्रग्रन्थ/धवला की प्रथम पुस्कत में इस विषय का अच्छा खुलासा है। उसी के आधार पर मैं तुम्हें बाताती हूँ। "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ___ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्साहूणं ।। धवला के मूल मंगलाचरण में यही मन्त्र आया है जिसमें "अरिहंताणं" पाठ ही लिया है। आगे टीकाकार श्री वीरसेन स्वामी ने और टिप्पणकार ने "अरहंताणं" पद को भी शुद्ध माना है। इसी का स्पष्टीकरण १- "अरिहननादरिहंता" अर्थात् केवलज्ञानादि सम्पूर्ण आत्म गुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ होने से मोह प्रधान अरि/शत्रु है और उस शत्रु के नाश करने से “अरिहंत" यह संज्ञा प्राप्त होती है। २- "रजो हननाद्वा अरिहंता" अथवा रज अर्थात् आवरण कर्मों के नाश करने से अरिहंत हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मधूलि की तरह बाह्य और अन्तरंग स्वरूप समस्त त्रिकाल गोचर अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं, उनका नाश करने वाले अरिहन्त हैं। ३- "रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता" अथवा रहस्य के अभाव से भी अरिहन्त होते हैं। रहस्य अंतराय कर्म को कहते हैं। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है" और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। ऐसे अन्तराय कर्म के नाश से अरिहंत होते हैं। णमोअरहताणं पद भी ठीक है। जैसा कि धवला ग्रन्थ के अनुसार ४- "अतिशयपूजाईत्वाद्वार्हन्तः" अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजाएं देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात महान् है, इसलिए इन अतिशयों के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं। यहाँ “अर्ह" धातु पूजा अर्थ में है उससे "अरहन्त" बना है। इस प्रकार आगम के आधार से तो णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं दोनों ही पद ठीक हैं इनके उच्चारण में कोई दोष नहीं है। फिर भी मूल पाठ अरिहंताणं है अतः हम लोग अरिहन्ताणं ही पढ़ते हैं। चन्दना- णमोकार मंत्र में कितनी मात्रायें हैं? श्री ज्ञानमती माताजी-महामंत्री णमोकार मंत्र में 58 मात्रायें हैं णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झयाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।5।।555 15 155 1551155 15 15555 15 55 s। 555 विशेष- छंदशास्त्र में ह्रस्व की एक मात्रा और दीर्घ की दो मात्रा लेते हैं, इस दीर्घ को द्विखंडाकार से लिखते हैं। इस तरह प्रथम पद में ११ मात्रा, द्वितीय पद में ८, तृतीय पद में ११, चतुर्थ पद में १२ एवं पंचम पद में १६ मात्रायें, ऐसे सब मिलकर ११+८+११+१२+१६८.५८ मात्रायें हैं। व्याकरण के नियम से संयुक्ताक्षर के पूर्व को दीर्घ मानने से उवज्झायाणं के "व" और सव्व के "स" को दीर्घ लिया है किन्तु सिद्धाणं के "सि" को ह्रस्व की रखा है क्योंकि संयुक्त के पूर्व वर्ण पर यदि स्वराघात न हो तो छंदशास्त्र में उसे ह्रस्व मानते हैं ऐसा वर्णन आया है। चन्दना- इसका समाधान तो हो गया। एक दूसरा प्रश्न भी आज हम सबके सामने है कि जो चत्तारि मंगल का पाठ पढ़ा जाता है उसमें बहुत सारे लोग तो विभक्तियां लगाकर पढ़ते हैं। जैसे- अरहन्ता मंगलं, सिद्धा मंगलं, अरहन्ता लोगुत्तमा या अरहन्ते सरणं पव्वज्जामि इत्यादि । आप तो बिना विभक्ति का पाठ पढ़ती हैं तथा हम लोगों को भी बिना विभक्ति वाला पाठ ही पढ़ने को कहती हैं, किन्तु इसमें आगम प्रमाण क्या है? कृपया बताने का कष्ट करें। श्री ज्ञानमती माताजी- इस विषय में आगम प्रमाण जो मेरे देखने में आया वह क्रियाकलाप नामक ग्रन्थ है। जिसे पण्डित श्री पन्नालाल जी सोनी ब्यावर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला वालों ने सम्पादित करके छपवाया था। उस क्रियाकलाप की उन्हें कई हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां भी उपलब्ध हुई थीं। उन प्रतियों के आधार पर पण्डित जी ने क्रियाकलाप ग्रन्थ के पृ. ८९ पर पाक्षिक प्रतिक्रमण का दंडक दिया है जिसमें बिना विभक्ति वाला पाठ ही छपा है जो कि बहुत प्राचीन माना जाता है। इसी क्रियाकलाप में सामायिक दण्डक की टीका में श्री प्रभाचंद्राचार्य ने बिना विभक्ति का ही पाठ लिखा है। जैसे- चत्तारिमंगलं- अरहन्त मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुना। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि- अरहंतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरणं पव्वजामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरणं अर्थ-चार ही मंगल हैं- अहरंत मंगल है, सिद्ध मंगल हैं, साधु मंगल हैं और केवली भगवान के द्वारा कथित धर्म मंगल है। चार ही लोक में उत्तम हैं - अरहंत लोक में उत्तम हैं, सिद्ध लोक में उत्तम है,साधु लोक में उत्तम है और केवली प्रणीत धर्म लोक में उत्तम है। चार की ही मैं शरण लेता हूं- अरहंत की शरण लेता हूं, सिद्ध की शरण लेता हूं साधु की शरण लेता हूं और मैं केवली भगवान के द्वारा प्रणीत धर्म की शरण लेता हूं। इससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रंथ के टीकाकार को भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही ठीक लगा था। इसी प्रकार ज्ञानार्णव, प्रतिष्ठातिलक, प्रतिष्ठासारोद्धार आदि ग्रंथों में भी बिना विभक्ति के ही पाठ देखे जाते हैं। चन्दना-माताजी। पहले एक बार आपने मुझसे (ब्रह्मचारिणी अवस्था में) चत्तारिमंगलं विषयक कुछ पत्राचार भी कराये थे। उसमें विद्वानों के क्या अभिमत आए थे? श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, सन् 1983 में तुम्हारे द्वारा किये गये पत्राचार के उत्तर में विद्वानों के उत्तर आये थे जिन्हें मैंने "मेरी स्मृतियाँ" में दिया भी है। पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने लिखा था कि 'श्वेताम्बरों के यहाँ विभक्ति सहित पाठ प्रचलित है उसमें व्याकरण की दृष्टि से कोई अशुद्धि नहीं है अतः उसे दिगंबर जैनियों ने भी अपना लिया है। . ब्र० सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य एवं पं० शिखरचन्द प्रतिष्ठाचार्य ने भी बिना विभक्ति वाले प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी है। श्री पं० मोतीचंद जी कोठारी फल्टण वालों से एक बार दरियागंज दिल्ली में मेरी चर्चा हुई थी, उन्होंने प्राचीन विभक्ति रहित पाठ को प्रामाणिक कहा था। पं० सुमेरचन्द दिवाकर सिवनी वालों से दिल्ली में सन् 1974 में इस विषय पर वार्ता हुई थी तब उन्होंने भी प्राचीन पाठ को ही मान्यता दी थी। चन्दना-माताजी। यदि व्याकरण से विभक्ति सहित पाठ शुद्ध है तो उसे पढ़ने में क्या बाधा है? श्रीज्ञानमती माताजी- बात यह है कि मन्त्र शास्त्र का व्याकरण अलग हो होता है, आज उसको जानने वाले विद्वान् नहीं हैं। अतः मेरी मान्यता तो यही है कि प्राचीन पाठ में अपनी बुद्धि से परिवर्तन, परिवर्द्धन नहीं करना चाहिए। सन् 1985 में ब्यावर चातुर्मास में मैंने पं० पन्नालाल जी सोनी से इस विषय में चर्चा की थी, तब उन्होंने कहा था कि हमारे यहां सरस्वती भवन में बहुत प्राचीन यन्त्रों में भी बिना विभक्ति वाला प्राचीन पाठ ही है, हस्तलिखित प्रतियों में भी वही पाठ मिलता है।' विभक्ति सहित चत्तारिमंगलं का पाठ शास्त्रों में देखने को नहीं आया है अतः प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिये। आजकल के विद्वानों द्वारा संशोधित पाठ नहीं अपनाना चाहिए। उन्होंने भी इस बात पर जोर दिया था कि मन्त्रों का व्याकरण अलग ही होता है, आज हम लोगों को उसका ज्ञान नहीं है। अतः मूलमंत्रों में अपने मन से विभक्तियाँ नहीं लगानी चाहिए। एक पत्र सन् 1983 में क्षुल्लक श्री सिद्धसागर जी का मौजमाबाद से प्राप्त हुआ था, उससे मुझे बहुत सन्तोष हुआ था। उन्होंने लिखा था "अ आ इ उ ए तथा ओ' को व्याकरण सूत्र के अनुसार समान भी माना जाता है। “एदे छ च समाणा" इस प्राकृत सूत्र के अनुसार अरहंता मंगलं के स्थान पर अरहंत मंगलं, सिद्धा मंगलं के स्थान पर सिद्ध मंगलं तथा साहू मंगलं के स्थान में साहू मंगलं और केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं है। "आ" तथा "अ" को समान मानकर अरहंत के "आ" के स्थान में "अ" पाठ रखा गया है यह व्याकरण से शुद्ध है। इसी प्रकार "अरहंत लोगुत्तमा" इत्यादि पाठ भी शुद्ध हैं। "अरहन्ते सरणं पव्वज्जामि" के स्थान पर "अरहंत सरणं पव्वजमि" पाठ शुद्ध है क्योंकि "एदे छ च समाणा" इस व्याकरण सूत्र के अनुसार "ए" तथा "अ" को समान मानकर "ए" के स्थान में "अ" पाठ शुद्ध है। षट् खण्डागम ग्रंथ की प्रथम पुस्तक में चौथा सूत्र है"गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमें दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि "४" इसमें लेस्सा से आहार ए तक विभक्ति नहीं है। इस विषय में टीकाकार आचार्यदेव श्रीवीरसेन ने कहा हैसूत्रोक्त जिन पदों में विभक्ति नहीं पाई जाती है वहां भी- "आइमझंतवण्णसरलोवो।" अर्थात् आदि मध्य और अंत के वर्ण और स्वर का लोप हो जाता है। इस प्राकृत व्याकरण के सूत्र के नियमानुसार विभक्ति का लोप हो गया है फिर भी उसका अस्तित्व समझ लेना चाहिये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ यहां मेरा कहना यह है कि 'आइमन्झतवणणसरलोवो, सूत्र इस चतारिमंगल पाठ में भी लगा लेना चाहिये। इससे विभक्ति लोप होने पर विभक्ति का अस्तित्तव मान कर बिना विभक्ति का पाठ भी शुद्ध ही मानना चाहिये । इसलिए जो चत्तारि मंगल पाठ विभक्ति रहित है प्राचीनकाल से चल आ रहा है वह शुद्ध है। शास्त्रों और यन्त्रों में भी विभक्ति रहित ही जो पाठ देखे जाते हैं वे शुद्ध हैं और लाघवयुक्त है। चन्दना — इससे निष्कर्ष क्या निकालें ? - श्रीज्ञानमती माताजी - निष्कर्ष तो यही निकलता है कि प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिए क्योंकि खोज करने से यही प्रतीत होता है कि समस्त पूर्वाचार्य प्राचीन पद्धति के अनुसार बिना विभक्ति वाला पाठ ही पढ़ते और लिखते आए हैं। अतः हम लोगों को इस विषय में अपनी बुद्धि न लगाकर प्राचीन पाठको ही प्रामाणिक मानना चाहिए। पूज्य माताजी! एक विषय और है कि कई जगह मन्दिरों में सरस्वती देवी की प्रतिमा वेदी में विराजमान देखी जाती हैं। तो क्या सरस्वती की मूर्ति बनाने का आगम में विधान है? श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, प्रतिष्ठा ग्रंथों में तो श्रुतदेवी की प्रतिमा बनाने का कथन आया है। मैंने दक्षिण प्रान्त में भी कई मंदिरों में सरस्वती माता की प्रतिमा देखी है। चन्दना - लेकिन सरस्वती तो जिनवाणी माता का ही दूसरा नाम है और जिनवाणी शास्त्र रूप ही देखी जाती है उसे अंगोपांग से सहित देवी का रूप देना कहाँ तक उचित है? ७०७ श्री ज्ञानमती माताजी - जिनवाणी को द्वादशांग रूप भी तो माना है। जिन्हें सरस्वती पूजा की जयमाला में सभी लोग पढ़ते हैं। उन बारहों अंगादि से समन्वित श्रुतदेवी की स्थापना करने का विधान बताया है। धवला में एक श्लोक आया है बारह अंगग्गिज्झा वियलिय- मल-मूढ - दंसणुत्तिलया । विविह- वर-चरण-भूसा पसियउ सुय देवया सुइरं ॥ अर्थः- जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य है, अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्व प्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यदर्शन रूप उन्नत तिलक से विराजमान और और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिसके आभूषण हैं ऐसे भगवती श्रुत देवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो। इसी प्रकार जयधवला में भी कहा है अंगगणिमी अणाइमज्झतणिम्मलंगाए । सुयदेवयअंबाए णमो सया चक्तुमइवाए (४) अर्थः- जिसका आदि मध्य और अन्त से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जागृत चक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो । चन्दनाः- क्या उस श्रुतदेवी की वस्त्र भी पहना सकते हैं? श्रीज्ञानमती माताजी - हाँ, एक जगह सरस्वती स्त्रोत में भी श्वेत वस्त्र का कथन आया है। Jain Educationa International “चन्द्रार्ककोटिघटितोज्वलदिव्यमूर्ते, श्री चन्द्रिका कलितनिर्मलशुभ्रवासे । कामार्थ दे च कलहंस समाधिरुढ, वागीश्वरि प्रतिदिन मम रक्षदेवि (१) इस श्लोक में "शुभ्रवासे" शब्द से यह स्पष्ट होता है कि सरस्वती की प्रतिमा श्वेतवस्त्र से युक्त होती है। चन्दना — क्या वस्त्र सहित सरस्वती की मूर्ति को नमस्कार किया जा सकता है? श्री ज्ञानमती माताजी शास्त्र- जिनवाणी ग्रंथों के ऊपर भी कपड़े का वेस्टन 1 लपेटा होता है जैसा उस वस्त्र सहित ग्रन्थ को नमस्कार करने में कोई दोष नहीं है वैसे ही वस्त्र युक्त श्रुतदेवी की प्रतिमा भी नमस्कार के योग्य है। अरे भाई! वह श्रुतदेवी कोई भवनवासी या व्यंतरी देवी तो हैं नहीं। उनका श्वेत वस्त्र तो ज्ञान की उज्ज्वलता-निर्मलता का प्रतीक है। ज्ञान के विभिन्न विशेषणों को श्रुतदेवी के विभिन्न अंगों की उपमा दी गई है इसीलिए उनकी प्रतिमा बनाने की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। प्रतिष्ठा तिलक ग्रंथ में सरस्वती माता की एक बड़ी सुन्दर स्तुति है जो यहाँ दी जा रही है। यह स्तुति मुझे प्रारम्भ से ही अत्यन्त प्रिय है। इसे सभी शनेच्छु भव्य जीवों को कंठस्थ कर लेना चाहिए तथा सरस्वती प्रतिमा अथवा जिनवाणी के समक्ष प्रतिदिन पढ़ना चाहिए। जिससे अतिशय ज्ञान की वृद्धि होगी। सरस्वती स्तोत्र बारह अंगगिजा देसणतिलया चरितवत्थहरा। चोदसपुव्याहरणा ठावे दव्बाव सुयदेवी (१) आचारशिरसं सूत्रकृतवक्त्रां सुकंठिकाम् । स्थानेन समवायांगव्याख्याप्रज्ञप्तिदोताम् (२) For Personal and Private Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला वाग्देवतां ज्ञातृकथोपासकाध्ययनस्तनीम्। अंतकृद्दशसत्राभिमनुत्तरदशांगतः (३) सुनितंबां सुजघनां प्रश्नव्याकरणश्रुतात्। विपाकसूत्रदृग्वादचरणां चरणांबराम् (४) सम्यक्त्वतिलकां पूर्वचतुर्दशविभूषणाम्। तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण- चारूपत्रांकुरश्रियम् (५) आप्तदृष्टप्रवाहौघद्रव्यभावाधिदेवताम्। परब्रह्मपथादृप्तां स्यादुक्तिं भुक्तिमुक्तिदाम् (६) निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, न्यक्षेण सर्वजगदुजवलनैकतानम्। सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि नूनं, प्राचीमतो जयसि देवी तदल्पसूतिम्॥ आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम्। जायतेद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहांब नमस्ते ।। चेतश्चमत्कारकरा जनानां, महोदयाश्चाभ्युदयाः समस्ताः । हस्ते कृताः शस्तजनैः प्रसादात्, तवैव लोकांब नमोस्तु तुभ्यम्। सकलयुवतिसृष्टेरंब! चूड़ामणिस्त्वं, त्वमसि गुणसुपुष्टेधर्मसृष्टेश्च मूलम्। त्वमसि च जिनवाणि! वेष्टमुक्त्यंगमुख्या, तदिह तव पदाब्ज भूरि भक्त्या नमामः ॥ सरस्वती स्तोत्र (द्वादशांग जिनवाणी स्तुति) अर्थः- श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदह पूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए। बारह अंगों में से प्रथम जो (आचाराँग" है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, "सूत्रकृतांग" मुख है, “स्थानांग" कंठ है, “समवायांग" और "व्याख्याप्रज्ञप्ति" ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजायें हैं, ज्ञातकथांग" और "उपासकाध्ययनांग" ये दोनों अंग उस सरस्वती देवी के दो स्तर है, "अंतकृद्दशांग" यह नाभि है, "अनुत्तरदशांग" श्रुतदेवी का नितंब है, "प्रश्नव्याकरणांग" यह जघनभाग है, "विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग" ये दोनों अंग उन सरस्वती के दोनों पैर हैं। “सम्यक्त्व" यह उनका तिलक है चौदहपूर्व ये अलंकार हैं और "प्रकीर्णक श्रुत" सुन्दर बेल सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहां पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है। श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्वपदार्थों की संपूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह "श्रुतदेवता" अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व-अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परम ब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगों के लिये यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिये भक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है। जो चिन्मय ज्योति संपूर्ण मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने वाली है और सर्वजगत् को प्रकाशित करने वाली है। हे जिनवाणि मातः! हे सरस्वति देवि! ऐसी चिन्मय ज्योति को आप उत्पन्न करने वाली हो इसलिये आपने अल्प प्रकाश धारक सूर्य को जन्म देने वाली ऐसी पूर्व दिशा को जीत लिया है। अनादि काल से संसार में दुर्लभ ऐसा अचिन्त्य और अनंत मोक्ष सुख है, आपके प्रसाद से वह मनुष्यों को प्राप्त हो जाता है इसलिये हे मातः! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। नातः! अन्तरंग को आश्चर्यचकित करने वाले जो स्वर्गादि के जो समस्त अभ्युदयऐश्वर्य हैं वे सब आपके प्रसाद से लोगों को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिये प्रमुख कारण हो, इसलिये मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरण कमलों में नमस्कार करता हूँ। चन्दना- आज आपसे कई आगम के विषय ज्ञात हुए हैं। अब लेखनी को विराम देती हुई आपके श्रीचरणों में वंदामि करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर का परिचय ७०९ - बाल ० रवीन्द्र जैन, अध्यक्ष, दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान जिस प्रकार से किसी देश का, राष्ट्र का अथवा समाज का इतिहास अपने आप में महत्व रखता है उसी प्रकार से किसी संस्था का इतिहास भी अपना विशिष्ट महत्व रखता है। इसीलिए संस्थान की संक्षिप्त झलकी यहां पर लोगों की जानकारी एवं इतिहास की दृष्टि से दी जा रही है। Jain Educationa International संस्थान का जन्म: चारित्र चक्रवर्ती १०८ आ० श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की शिष्या अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का अजमेर चातुर्मास के बाद राजस्थान से विहार होकर सन् १९७२ में देश की राजधानी दिल्ली में मंगल पदार्पण होता है और पूज्य माताजी के प्रथम चातुर्मास कराने का गौरव पहाड़ीधीरज दिल्ली को प्राप्त होता है। इसी दिल्ली के प्रथम चातुर्मास के मध्य पूज्य माताजी ने एक भौगोलिक निर्माण जम्बूद्वीप रचना के लिये दिल्ली के महानुभावों से विचार-विमर्श करके इस कार्य को प्रारंभ करने हेतु एक पंजीकृत कमेटी बनाने का निर्णय लिया और सर्वप्रथम इस कमेटी के नामकरण तथा कमेटी के स्वरूप पर विचार-विमर्श करने के लिये पूज्य माताजी के सानिध्य में एक बैठक रखी संस्थान निर्माण के लिये यह प्रथम ऐतिहासिक बैठक पहाड़ीधीरज दिल्ली की जैनधर्मशाला में १७ अक्टूबर १९७२ मध्यान्ह ४.०० बजे संपन्न हुई जिसमें प्रमुख रूप से दिल्ली के मुनिभक्त एवं प्रसिद्ध उद्योगपति डॉ० कैलाशचंद जैन, राजा टॉयज दिल्ली, लाला श्यामलालजी ठेकेदार, वैद्य शांतिसागर जैन, फर्म- राजवैद्य शीत प्रसाद एंड संस, श्री महावीर प्रसाद जैन पनामा वाले, पहाड़ीधीरज दिल्ली, ब्र० मोतीचंद जैन संघस्थ, श्री कैलाशचंद जैन, करोल बाग, नई दिल्ली तथा श्री कर्मचंद जैन पहाड़ी धीरज दिल्ली आदि महानुभाव सम्मिलित हुए। इस प्रथम बैठक में ही संस्थान का नामकरण जैन त्रिलोक शोध संस्थान" रखना तय हो गया। तथा आगे की व्यवस्थाओं को संचालित करने के लिये एक कार्यवाहक कमेटी का भी गठन कर लिया गया। इस प्रथम बैठक में ही यह निर्णय किया गया कि जैन त्रिलोक शोध संस्थान का एक संविधान बनाकर सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट दिल्ली के आधीन रजिस्ट्रार सोसायटीज एक्ट दिल्ली कार्यालय से पंजीकृत करा लिया जाये और इस कार्य का उत्तरदायित्व श्री कैलाशचंद जैन करोल बाग दिल्ली पर डाला गया। श्री कैलाशचंद जैन की सूझबूझ, लगन एवं परिश्रम से शीघ्र ही "जैन त्रिलोक शोध संस्थान" के नाम से संस्थान का रजिस्ट्रेशन हो गया। अब इस रजिस्टर्ड संस्थान के प्रथम अध्यक्ष डा० श्री कैलाशचंद जैन राजा टायज, दिल्ली, उपाध्यक्ष लाला श्री श्यामलाल जैन ठेकेदार-दिल्ली महामंत्री वैद्य श्री शांतिप्रसाद जैन, दिल्ली, कोषाध्यक्ष श्री मोतीचंद जैन सर्राफ संघस्थ, मंत्री श्री कैलाशचंद जैन, करोलबाग नई दिल्ली, उपमंत्री श्री ० रवीन्द्र कुमार जैन आदि पदाधिकारी तथा सदस्यगण मनोनीत किये गये। इसके साथ ही संस्थान की गतिविधियाँ धीरे-धीरे आगे बढ़ती हैं और जम्बूद्वीप निर्माण के लिये जमीन की खोज प्रारंभ हो जाती है। पूज्य माताजी के आशीर्वाद से दिल्ली, नजफगढ़ जैन समाज की ओर से जमीन भी उपलब्ध करा दी गई। फलस्वरूप वहां पर जम्बूद्वीप शिलान्यास १५ फरवरी १९७३ को एक समारोह पूर्वक सम्पन्न हुआ और निर्माण कार्य भी प्रारंभ हो गया। पूज्य माताजी का सघ सन् १९७३ का चातुर्मास भी नजफगढ़ दिल्ली में ही सम्पन्न हुआ। 44 " श्रेयांसि बहु विघ्नानि" अच्छे कार्यों में विघ्नों का आना भी स्वाभाविक है। इस नीति के अनुसार यहां पर कुछ प्रतिकूल वातावरण उत्पन्न होने लगे जिससे संस्थान के पदाधिकारियों ने यह अनुभव किया कि यहां निर्माण कार्य में लाखों रुपया लगाना उचित नहीं दिखता है ऐसी परिस्थितियों में पूज्य माताजी से संस्थान के पदाधिकारियों ने अनुरोध किया कि यह स्थान इस निर्माण कार्य के लिये अनुकूल नहीं पड़ रहा है। तथा अकूलता के प्रयास बावजूद सफलता नहीं मिली रही है। फलस्वरूप संस्थान द्वारा नजफगढ़ का निर्माण कार्य रोक दिया गया। योगायोग से कुछ महानुभावों ने पूज्य माताजी से हस्तिनापुर तीर्थ के दर्शन के लिए निवेदन किया और बताया कि हस्तिनापुर की जलवायु बहुत ही अच्छी है। पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर के लिए बिहार कर दिया। यह बात मार्च / अप्रैल १९७४ की है। पूज्य माताजी का ससंघ हस्तिनापुर पदार्पण होता है। कौन जानता था कि पूज्य माताजी का यह प्रथम आगमन हस्तिनापुर के लिए वरदान बन जायेगा? एक कहावत है- "संतन के पांव जहां पड़ते, माटी चंदन बन जाती है" वास्तव में यह उक्ति सत्य ही चरितार्थ हुई और हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र का सौभाग्य उदय में आ ही गया। पूज्य माताजी को वहाँ का शांत वातावरण, शीतल जलवायु बहुत पसन्द आई और जमीन की खोज प्रारंभ कर दी गई। तथा जमीन खरीदने का निर्णय भी कर लिया गया। पूज्य माताजी को हस्तिनापुर इसलिये भी अधिक पसन्द आया क्योंकि दिल्ली के कोलाहल पूर्ण एवं अत्यंत व्यस्त वातावरण में पूज्य माताजी का लेखन पठन-पाठन आदि सन्तोषपूर्वक हो नहीं पाता था। इसलिये हस्तिनापुर जैसे पावन तीर्थ स्थल पर यह सब कार्य अत्यंत सुलभ रहेंगे, मैं अपना लेखन आदि कार्य शांतिपूर्वक करती रहूंगी और कमेटी के लोग निर्माण करते रहेंगे। ऐसा सोचकर माताजी की आज्ञा हस्तिनापुर के लिये प्राप्त हो गई। कुछ दिन प्रवास For Personal and Private Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१०] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला के पश्चात् पूज्य माताजी का वापस दिल्ली की ओर प्रस्थान हो जाता है। क्योंकि जम्बूद्वीप निर्माण के अलावा एक और महान कार्य सामने था-भगवान् महावीर स्वामी का २५०० वां निर्वाण महोत्सव । इस कार्य में भी दिल्ली की जैन समाज पूज्य माताजी का आशीर्वाद, मार्गदर्शन एवं सानिध्य की इच्छा रखती थी। अतः पूज्य माताजी का पुनः दिल्ली में पदार्पण हो जाता है। दिल्ली में संस्थान की एक बैठक करके यह निर्णय लिया जाता है कि आगे का समस्त कार्य हस्तिनापुर पावन तीर्थ पर संस्थान के नाम से जमीन खरीदकर किया जायेगा। यह बैठक ५ मई १९७४ को अपरान्ह ३.०० बजे आचार्य श्री नमीसागर औषधालाय कूचा सेठ दिल्ली में संपन्न हुई थी। संस्थान के निर्णय के पश्चात् हस्तिनापुर में लगभग २ एकड़ भूमि एक कृषक से खरीदकर "दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" के नाम से बैनामा रजिस्ट्री कराई गई। जिस पर जम्बूद्वीप का निर्माण प्रारम्भ करना था। पुनः पूज्य माताजी ससंघ दिल्ली से हस्तिनापुर की ओर जून के महीने में ही विहार कर देती हैं और २२ जून १९७४ के शुभ दिन हस्तिनापुर की इस पावन भूमि पर जम्बूद्वीप के अंतर्गत सुमेरू पर्वत का शिलान्यास सादे समारोह के साथ सम्पन्न हो जाता है। चातुर्मास का समय बिल्कुल निकट आ रहा था। दिल्ली के भक्तगण पूज्य माताजी के पास हस्तिनापुर पहुंचते हैं और निवेदन करते हैं कि निर्वाण महोत्सव के सारे राष्ट्रीय कार्यक्रम दिल्ली में रखे गये हैं इस कार्यक्रम में आपका मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद हम दिल्ली वासियों को अवश्य चाहिये। अतः चातुर्मास दिल्ली में होना चाहिये। भक्तजनों के अत्यंत आग्रह पर पूज्य माताजी ने २२ जून को ही हस्तिनापुर से दिल्ली के लिये मंगल विहार कर दिया। और मवाना, सरधना, बिनौली, बड़ौत होते हुए चातुर्मास स्थापना के दिन २९ जून १९७४ को पुनः पूज्य माताजी का ससंघ आगमन दिल्ली हो जाता है। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ससंघ के साथ ही दिगंबर जैन लाल मंदिर चांदनी चौक दिल्ली में पूज्य माताजी चातुर्मास स्थापित करती हैं। अब इस चातुर्मास के मध्य विशेष रूप से अधिकतम समय निर्वाण महोत्सव की सफलता के लिए व्यतीत होने लगा। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के पट्टाचार्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज की अपूर्व छाप दिल्ली समाज पर पड़ी और निर्वाण महोत्सव के राष्ट्रीय समिति में साधुओं की श्रृंखला में आ० श्री धर्मसागर जी महाराज का नाम सर्वोपरि रखा गया। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के अतिरिक्त महान् विद्वान आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज, एलाचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज एवं पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के मार्गदर्शन में निर्वाणमहोत्सव के अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रम राजधानी दिल्ली में सम्पन्न हुये, तथा माननीया प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी भगवान महावीर स्वामी के २५०० वें निर्वाण महोत्सव को भारत सरकार की ओर से सहयोग प्रदान करते हुये राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम मनाने में अपनी धार्मिक भावना का परिचय दिया था। संस्थान की कार्यकारिणी: ऊपर हम उल्लेख कर आये हैं कि संस्थान के पंजीकृत होते ही संस्थान की कार्यकारिणी का प्रत्येक तीन वर्ष में संस्थान के संविधान के अनुसार चुनाव होता रहा। इस चुनाव का कार्य पूज्य माताजी की आज्ञा से संस्थान की कार्यकारिणी द्वारा ही किया जाता है। ____संस्थान की कार्यकारिणी के प्रथम अध्यक्ष होने का गौरव प्राप्त किया डा० श्री कैलाशचंद जैन राजा टायज दिल्ली ने, उसके बाद लाला. श्री श्यामलाल जैन ठेकेदार, उसके बाद श्री मदनलाल चांदवाड़, रामगंज मंडी राज०, उसके बाद श्री अमरचंद पहाड़िया कलकत्ता तथा उसके बाद बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन (मुझे) संस्थान के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया गया। इसी प्रकार संस्थान के संरक्षक पद को सुशोभित करने में कुछ नाम उल्लेखनीय हैं। सरसेठ श्री भागचंद सोनी-अजमेर, साहू श्री श्रेयांसकुमार जैन बॉम्बे, साहू श्री अशोक कुमार जैन-कलकत्ता, श्री मिश्रालाल जैन काला कलकत्ता , श्री पूनमचंद जैन गंगवाल, झरिया, श्री हरकवंद सरावगी-कलकत्ता, श्री शिखरचंद जैन, रानी मिल मेरठ, श्री लखमीचंद छावड़ा-गौहाटी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में संस्थान के संरक्षक पद पर साहू श्री अशोक कुमार जैन-दिल्ली, श्री अमरचंद जैन पहाड़िया-कलकत्ता, एवं श्री निर्मल कुमार सेठी, लखनऊ हैं। संस्थान के उपाध्यक्ष पद पर ला. श्री सुमत प्रकाश जैन-शाहदरा दिल्ली, श्री रमेशचंद जैन पी.एस.जैन मोटर्स, दिल्ली, श्री मोतीचंद कासलीवाल, दिल्ली, श्री प्रेमचंद अहिंसा मंदिर, दिल्ली, श्री त्रिलोकचंद कोठारी, दिल्ली आदि अनेक गणमान्य महानुभाव सुशोभित कर चुके हैं। इसी प्रकार संस्थान के प्रथम महामंत्री वैद्य श्री शांतिप्रसाद जैन, दिल्ली मनोनीत किये गये थे, उसके बाद श्री कैलाशचंद जैन, खद्दर वाले, सरधना, पश्चात् श्री गणेशीलाल रानीवाला कोटा एवं वर्तमान में श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार दिल्ली मनोनीत किये गये हैं। संस्थान के मंत्री पद पर सर्वप्रथम श्री कैलाशचंद जैन करोल बाद दिल्ली पश्चात् बाल ब्र० श्री मोतीचंद जैन सर्राफ, पश्चात् बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन, पश्चात् कु० माधुरी जैन, पश्चात् श्री अनंतवीर जैन, हस्तिनापुर एवं वर्तमान में श्री अमरचंद जैन, होम ब्रेड, मेरठ इस पद को संभाल रहे हैं। संस्थान के कोषाध्यक्ष पद पर सर्वप्रथम बाल ब्र० श्री मोतीचंद जैन को मनोनीत किया गया था, उसके बाद पिछले १५ वर्षों से श्री कैलाशचंद जैन, करोल बाग, नई दिल्ली संस्थान के कोषाध्यक्ष पद पर मनोनीत होते आ रहे हैं। इसी प्रकार संस्थान के संयुक्त मंत्री या उपमंत्री पद पर बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन (मुझे) पश्चात् श्री हेमचंद जी जैन पहाड़गंज, नई दिल्ली को एवं वर्तमान में श्री मनोजकुमार जैन हस्तिनापुर को मनोनीत किया गयाहै। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७११ संस्थान के संरक्षक, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री, मंत्री, उपमंत्री एवं कोषाध्यक्ष आदि पदाधिकारियों के अतिरिक्त अनेक गणमान्य महानुभाव इस संस्थान के सदस्य बनकर संस्थान की सेवा करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं। संस्थान की वर्तमान कार्यकारिणी में पदाधिकारी एवं सदस्यों की संख्या frefer यहाँ पर एक बात बताना मैं आवश्यक समझता हूँ कि संस्थान की कार्यकारिणी का प्रत्येक तीन वर्ष में जो गठन किया जाता है उसमें अनेक प्रांतों के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखा जाता है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, कलकत्ता, आसाम आदि प्रदेशों के महानुभावों को भी कमेटी में मनोनीत किया जाता है। इस मनोनयन में संस्थान के प्रति सहयोग, निष्ठा एवं पूज्य माताजी के प्रति श्रद्धा को अवश्य ध्यान में रखा जाता है। उपसमितियों का निर्माण: संस्थान के अंतर्गत समय-समय पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहते हैं। उन आयोजनों के लिये संस्थान के अंतर्गत उपसमितियों का गठन किया जाता रहा है। जैसे पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें आदि । पंचकल्याणकों के अलावा संस्थान के अंतर्गत सन् १९८२ से १९८५ तक एक वृहद् आयोजन किया गया। जिसका नाम था "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन" यह देश व्यापी आयोजन सम्पूर्ण भारतवर्ष में अहिंसा, सदाचार, धार्मिक सहिष्णुता एवं जम्बूद्वीप के प्रचार-प्रसार का था। इस ज्ञानज्योति के अध्यक्ष पद पर श्री निर्मल कुमार सेठी को मनोनीत किया गया था तथा ब्र० श्री मोतीचंद जैन व ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन प्रवर्तन के महामंत्री रहे हैं। केन्द्रीय समिति के अलावा समस्त प्रांतों में अलग-अलग प्रांतीय समितियों का गठन किया गया था जिनके द्वारा लगभग ३ वर्ष तक ज्ञानज्योति का सफल संचालन हुआ है। संस्थान का प्रमुख कार्य जम्बूद्वीप रचना का निर्माण: इस संस्थान का उद्भव जिन प्रमुख उद्देश्यों के लिये हुआ था उसमें सर्वप्रमुख उद्देश्य तो जम्बूद्वीप रचना का निर्माण ही था। इस संबंध में हम ऊपर बता आये हैं कि संस्थान के निर्माण कार्य हेतु हस्तिनापुर तीर्थ स्थल का चयन किया और सम्पूर्ण गतिविधियां यहीं से संचालित की जाने लगीं। जम्बूद्वीप निर्माण के लिये सुदर्शन मेरु के निर्माण का शिलान्यास २२ जून १९७४ को कर दिया गया था लेकिन निर्माण कार्य सन् १९७५ में प्रारंभ किया जा सका। निर्वाण महोत्सव के बाद पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का ससंघ मंगल विहार दिल्ली से हस्तिनापुर की ओर हो जाता है और पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का भी ससंघ विहार हस्तिनापुर तीर्थ के दर्शन हेतु दिल्ली से हस्तिनापुर के लिये हो जाता है। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का संघ एवं पूज्य ज्ञानमती माताजी का संघ दोनों संघ हस्तिनापुर दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र के प्राचीन बड़ा मंदिर में ही ठहरते हैं, क्योंकि तबतक कोई भी कमरे आदि का निर्माण जम्बूद्वीप स्थल पर नहीं हुआ था। भगवान महावीर स्वामी की प्रतिमा को विराजमान करने का उपक्रम: जनवरी १९७५ में पूज्य माताजी का हस्तिनापुर तीर्थ पर आगमन होता है। इधर दिगंबर जैन मंदिर के अंतर्गत नवनिर्मित जल मंदिर एवं भगवान बाहुबली का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव फरवरी १९७५ में होने का निर्णय हो गया। दिगंबर जैन तीर्थ हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री श्री सुकुमारचंद जैन एवं अन्य पदाधिकारियों ने प्रतिष्ठाचार्य के संबंध में पूज्य माताजी से निवेदन किया पूज्य माताजी ने सोलापुर निवासी पं० वर्धमानपार्श्वनाथ शास्त्री का नाम बताया। पूज्य माताजी के परामर्श के अनुसार क्षेत्र कमेटी ने पं० वर्धमानपार्श्वनाथ शास्त्री को आमंत्रित किया और प्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त फाइनल हो गया। इधर जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान कराने के लिये भगवान् महावीर स्वामी की सवा नौ फुट ऊंची अत्यंत मनोज्ञ प्रतिमा जी दिल्ली के एक श्रेष्ठी श्री संतोष कुमार जैन, ज्योति इम्पेक्स की ओर से प्राप्त हुई थी। अतः पूज्य माताजी की यह भावना हुई कि भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा भी इसी अवसर पर करा दी जाये। चाहे एक छोटा सा ही कमरा बन सके। - पूज्य माताजी ने ब्र० मोतीचंद जी व मुझे आज्ञा दी कि एक छोटा सा कमरा बनाकर भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिमा विराजमान करना है और प्रतिमाजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराना है। हम लोग असमंजस में पड़ गये कि संस्थान के पास अभी कुछ भी धनराशि बैंक में नहीं है। इधर प्रतिष्ठा में मात्र २०-२५ दिन शेष हैं। लेकिन पूज्य माताजी की आज्ञा शिरोधार्य कर लगभग २५०००/- रु. की लागत से मंदिर कमरा निर्माण का कार्य प्रारंभ कर दिया गया। मंदिर निर्माण की बात करते ही एक प्रतिष्ठित महानुभाव ने कहा कि इतनी जल्दी मंदिर का बनना अ...अ...अ... असंभव है। असंभव शब्द वैसे तो कान में बार-बार गूंजता रहा लेकिन मन में इस बात का विश्वास था कि पूज्य माताजी की भावना अवश्य फलवती होगी और भगवान् महावीर स्वामी निश्चित रूप से विराजमान होंगे। इन्हीं भावनाओं को संजोये हुये हम लोग निर्माण कराने में जुट गये। जनवरी के महीने में हस्तिनापुर में सर्दी अधिक पड़ती है। किसी किसी दिन तो इतना कोहरा पड़ता है कि कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, फिर भी रात में रजाई ओढ़कर और खुले मैदान में बैठकर गैस के उजाले में निर्माण चलाया गया। क्योंकि स्थल पर कोई कमरा नहीं, बिजली नहीं, कोई साधन नहीं। केवल खेत का एक भूखण्ड जंगल Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] I के समान। मंदिर की दीवारें उठने लगीं। अब नंबर आया छत डालने का। कारीगरों ने बताया कि छत के कार्य में कम से कम १५ दिन लगेगा, क्योंकि छत डलने के बाद १२ दिन बाद छत खुलेगी, उसके बाद प्लास्टर आदि होगा। इसमें हम जल्दी नहीं कर सकते। अब असंभव वाला शब्द कान में और गूंजने लगा और सोचने लगे कि क्या हम भगवान् महावीर को इस मुहूर्त में विराजमान नहीं कर पायेंगे लेकिन इन्हीं ऊहापोह के मध्य मानों भगवान् महावीर स्वामी ने ही एक महाशय को भेज दिया और उसने सुझाव दिया कि छत में गाटर डालकर लाल पत्थर डाल दिया जाये तो छत एक-दो दिन में ही तैयार हो जायेगी । इस विषय पर गंभीरता से विचार किया गया, तथा इससे उत्तम और कोई उपाय समझ में नहीं आया। पत्थर आदि लाया गया और पूज्य माताजी के आशीर्वाद से छत का संकट भी टल गया। अर्थात् छत भी समय से तैयार की गई। अब एक और विशेष चिन्ता का विषय सामने आया कि इतनी बड़ी प्रतिमा जी को वेदी में कैसे विराजमान किया जाये? चिन्ता का समाधान भी हुआ कि चैनकुप्पी के द्वारा प्रतिमाजी को विराजमान करना पड़ेगा। उसका भी साधन किया गया और देखते ही देखते भगवान् महावीर स्वामी वेदी के ऊपर बहुत ही सरलता के साथ पहुंच गये। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज व उपाध्याय श्री विद्यानंद जी महाराज भी इस शुभ समय वेदी के सामने ही विराजमान थे। मुनि विद्यानंद जी के मुख से सहसा निकला कि प्रतिमा जी का मुखमंडल इस बात को भाषित कर रहा है कि प्रतिमा जी बहुत चमत्कारी हैं एवं मंदिर के दरवाजे की नाप व वेदी भी ही शुभ है। भगवान महावीर स्वामी की जय जय कार के साथ ही इस असंभव कार्य को संभव करके बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव हुआ। 'बहुत आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ने अपने करकमलों से प्रतिमा जी के नीचे अचल यंत्र रखा और प्रतिमाजी को सूरि मंत्र दिये। इस प्रकार यह प्रथम निर्माण एवं प्रथम पंचकल्याणक की जानकारी संक्षेप में दी गई। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला पंथवाद में माताजी द्वारा समन्वय की नीतिः कार्य में विनों का आना तो स्वाभाविक ही है। यहाँ भी कुछ विघ्न डालने के प्रयास किये गये और अनेक प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न की जाने लगी। लेकिन पूज्य माताजी का अविचल स्वभाव, दृढ निश्चय, और भगवान् की भक्ति इन भावनाओं के द्वारा हम लोगों में कार्यशक्ति का संचार होता रहता था। जिससे शनैः शनैः सफलता मिलती गई और सुमेरू पर्वत का निर्माण कार्य प्रारंभ करा दिया गया। कुछ समय पश्चात् ही तेरहपंथ एवं बीसपंथ का विषय कुछ महानुभावों ने पूज्य माताजी के समक्ष प्रस्तुत किया। पूज्य माताजी ने उन सभी से स्पष्ट कहा कि हम साधुगण तो चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के हैं और शांतिसागर जी महाराज आगम के प्रकांड विद्वान एवं आगमनिष्ठ थे। उनका आदेश ही हमारे लिये आगम है आगम के संबंध में मैं किसी भी विषय में कभी भी कोई समझौता नहीं कर सकती है। वैसे हम सभी साधुगण पंथ से रहित हैं। हमें पंथ से कुछ भी लेना देना नहीं यह तो श्रावकों की पूजा पद्धति का विषय है लेकिन जम्बूद्वीप स्थल पर तेरहपंथ व बीसपंथ का मतभेद नहीं रखा जायेगा। आज जबकि सर्वत्र समन्वय का युग है। ऐसे समन्वयवादी समय में हम अपने को तेरहपंथी या बीसपंथी कहकर एक दूसरे को पृथक्-पृथक् करें यह बात समाज के हित में नहीं है। अतः संस्थान की एक बैठक में इस संबंध में पूज्य माताजी की आज्ञानुसार निम्न प्रस्ताव पारित किया गया । 1 संस्थान की बैठक १५-४-७५ प्रस्ताव नं०-९: "दिगबंर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा निर्मित मंदिर एवं जम्बूद्वीप रचना में अभिषेक व पूजन दिगंबर जैन आय के अनुकूल होगा। इस समय दिगंबर आम्राय में तेरहपंथ एवं बीसपंथ दो आन्नाव प्रचलित है। दोनों आनाय वाले अपनी-अपनी परंपरानुसार अभिषेक व पूजन कर सकते हैं।" इस प्रकार जम्बूद्वीप स्थल पर तेरहपंथ या बीसपंथ का भेदभाव न रखकर दिगंबर समाज के सभी महानुभावों को उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम के सभी यात्रियों को अपनी-अपनी श्रद्धा एवं परंपरानुसार अभिषेक पूजन करने का अधिकार दिया गया है। सामाजिक दृष्टिकोण: वैसे तेरहपंथ व बीसपंथ में कोई विशेष मतभेद नहीं है कोई तो हरे फलफूल चढ़ाते हैं कोई सूखे फल चढ़ाते हैं, कोई पंचामृताभिषेक करते हैं तो कोई जल से करते हैं। कहीं स्त्रीपुरुष दोनों को अभिषेक करने का अधिकार है कहीं केवल पुरुषों को ही है। यही मात्र पूजन पद्धति में थोड़ा अंतर है। समाज में आगम परंपरा जिसे बीसपंथ के नाम से कहा जा रहा है वह प्राचीन समय से चली आ रही है। पिछले ४०० वर्षों से तेरहपंथ के नाम पर एक नई परंपरा प्रारंभ हुई ऐसा जयपुर के इतिहास से पता लगता है। इस संबंध में हमारा तो समाज से यही निवेदन है कि जहां जो परंपरा चल रही है। वह चलनी चाहिये। इस विषय में अनावश्यक विवाद करके छोटी से जैन समाज के टुकड़े नहीं करना चाहिये । 'हमें तो जम्बूद्वीप स्थल पर आने वाले यात्रियों से यही अनुभव हुआ है कि इस समन्वय की नीति से सभी प्रांतों के दर्शनार्थी एवं यात्रियों को स्वतंत्र रूप से पूजा अभिषेक का अधिकार होने से यात्री प्रसन्न रहते हैं। अन्य क्षेत्रों पर भी यदि इस समन्वय नीति का अनुकरण होवे तो यात्री निश्चित रूप से प्रसन्न रहेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७१३ निर्माण की प्रगतिः मध्य धीरे-धीरे ८४ फुट ऊँचे सुदर्शनमेरू का निर्माण प्रारंभ हुआ। इसमें मकराना का गुलाबी संगमरमर लगाया गया। ऊपर तक जाने के लिये अंदर में सीढ़ियां बनाई गईं। एवं सुमेरू के चारों वनों में चार-चार अकृत्रिम चैत्यालय ऐसे सोलह चैत्यालयों में १६ अकृत्रिम प्रतिमायें विराजमान की गईं। यह कार्य लगभग ४ वर्ष में सम्पन्न हुआ। अतः सन् १९७९ में अप्रैल-मई में इन प्रतिमाओं का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके बाद जम्बूद्वीप की नदियाँ, पर्वत, चैत्यालय, देवभवन एवं लवण समुद्र आदि के निर्माण प्रारंभ किये गये जो कि सन् १९८५ में पूरे हुए। अतः इन प्रतिमाओं का पंचकल्याणक अप्रैल-मई १९८५ में सम्पन्न हुआ। जम्बूद्वीप के साथ ही अन्य निर्माण कार्य भी चलते रहे। जिसमें यात्रियों की सुविधा के लिये कमरे व फ्लेट के निर्माण, साधुओं को ठहराने के लिये रत्नत्रय निलय का निर्माण, तीनमूर्ति मंदिर का निर्माण, भोजनशाला का निर्माण, कार्यालय भवन का निर्माण आदि कार्य सम्पन्न होते रहे। वर्तमान में हस्तिनापुर संस्थान की भूमि पर जम्बूद्वीप का भव्य अतिशय पूर्ण निर्माण संपन्न हो चुका है। भगवान् महावीर की प्रतिमाजी जो सन् १९७५ में एक छोटे से मंदिर या कमरे में विराजमान की गई थीं उस स्थान पर भव्य कमल मंदिर का निर्माण हो चुका है। यह कमलमंदिर भी जैन समाज में एक अपने आप में अलौकिक है। यात्रियों की सुविधा के लिये लगभग १५० कमरे, २० फ्लेट व एक कोठी का निर्माण संपन्न हो चुका है। पानी की सुविधा के लिये टंकी एवं कुआं के निर्माण भी हो चुके हैं तथा नये निर्माण में वर्तमान में मेडीटेशन टेम्पिल (ध्यान मंदिर) का निर्माण चल रहा है, नये फ्लेटों का निर्माण कार्य चल रहा है। इसके साथ ही संस्थान की भूमि पर मुख्यद्वार मेन गेट एवं इन्द्रध्वज मंदिर का कार्य शीघ्र ही होने वाला है। ये समस्त निर्माण कार्य दिगंबर जैन समाज के प्रत्येक प्रांतों के दर्शनार्थी महानुभावों के उदार सहयोग से संपन्न हुआ है। इंजीनियर आचिंटेक्टः ___ यहाँ पर आने वाले अनेक महानुभाव यह प्रश्न किया करते हैं कि आपके इंजीनियर व आर्चिटेक्ट कौन है? जिनके सहयोग से यहाँ का इतना सुंदर निर्माण कार्य हुआ है। इस संबंध में आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि इस निर्माण के सर्वप्रमुख इंजीनियर तो पूज्य ज्ञानमती माताजी ही हैं। उन्होंने ही जम्बूद्वीप का समस्त नक्शा ग्रंथों के आधार से हम लोगों को बतलाया। जिसमें आवश्यकतानुसार हम इंजीनियर व आचिंटेक्ट से परामर्श व सहयोग लेते रहते हैं। सुमेरू पर्वत के निर्माण में भारत के ख्याति प्राप्त रुड़की विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष एवं दिल्ली आई.आई.टी. के डायरेक्टर डा० ओ०पी० जैन का सहयोग हमें प्राप्त हुआ। जो कि वर्तमान में रिटायर्ड हो चुके हैं तथा दिल्ली ही रहते हैं। उनके अलावा दिल्ली के स्व० श्री के०सी० जैन इंजीनियर का सहयोग प्राप्त हुआ। बिजली कार्य के लिये नई दिल्ली नगर महापालिका के रिटायर्ड चीफ इंजीनियर श्री एस०एस० गोयल एवं उनके सुपुत्र श्री अरुण गोयल का सहयोग लिया जाता है। कार्य की देखरेख के लिये मेरठनिवासी श्री के०सी० जैन रिटायर्ड इंजीनियर संस्थान को निशुल्क सेवाये देते हैं। इसी प्रकार जम्बूद्वीप स्थल पर लगाये गये समस्त पत्थर के निर्णय एवं खरीदने में श्री जैन नरेश बंसल-दिल्ली का सहयोग संस्थान की सेवाओं में उल्लेखनीय है। हम इन समस्त सहयोगी इंजीनियर व आचिंटेक्ट के आभारी हैं। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला द्वारा ग्रंथों का प्रकाशन: निर्माण कार्य के अलावा ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ा प्रचार-प्रसार इस संस्थान द्वारा किया जा रहा है। इसके लिये सन् १९७२ में वीर-ज्ञानोदय ग्रंथमाला की स्थापना की गई थी। इस ग्रंथमाला से पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ग्रंथों एवं पुस्तकों का प्रकाशन विशेष रूप से किया जाता है। १९७२ से लेकर वर्तमान में १९९२ तक लगभग १३६ ग्रन्थ, पुस्तकें लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुके हैं। बड़े ग्रंथों में अष्टसहस्री तीन भाग, समयसार, नियमसार, कातंत्र व्याकरण, जैन भारती ज्ञानामृत आदि के प्रकाशन किये गये हैं। पूजन विधानों में इंद्रध्वज मंडल विधान, कल्पद्रुम मंडल विधान, सर्वतोभद्र मंडल विधान, तीनलोक मंडल विधान, त्रैलोक्य मंडल विधान, जम्बूद्वीप मंडल विधान, शांतिनाथमंडल विधान, ऋषिमंडल विधान आदि प्रमुख हैं। कथा साहित्य एवं बाल साहित्य में बाल विकास, जीवनदान, परीक्षा, आटे का मुर्गा, सतीअंजना, भक्ति, भरत का भारत, रोहिणी नाटक आदि अनेक लघु प्रकाशन महत्वपूर्ण रहे हैं। ये सभी ग्रंथ समाज में अत्यंत लोकप्रिय हो चुके हैं। सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन: जुलाई १९७४ से सम्यग्ज्ञान हिंदी मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया गया जिसके प्रथम अंक का विमोचन आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों से दिगंबर जैन लाल मंदिर दिल्ली में १ जुलाई १९७४ वीरशासन जयंति के शुभ दिन किया गया था। यह सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका १८ वर्षों से लगाकर प्रतिमाह प्रकाशित हो रही है। इस समय इस पत्रिका के परम संरक्षक- आजीवन, संरक्षक-आजीवन, स्थायी सदस्य-आजीवन, त्रैवार्षिक एवं वार्षिक सदस्यों की संख्या लगभग ४५०० हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला इस पत्रिका की यह विशेषता रही है कि इसमें स्वाध्यायोपयोगी चारों अनुयोगों के लेख दिये जाते हैं। जिसका लेखन पूज्य ज्ञानमती माताजी के द्वारा स्वयं किया जाता रहा है। अब पिछले दो वर्षों से पूज्य ज्ञानमती माताजी की आज्ञा से पूज्य आर्यिका चंदनामती माताजी, पू० क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज एवं बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन के द्वारा इसके स्थाई स्तम्भों का लेखन किया जाता है। समय-समय पर विशेष विशेषांक भी प्रकाशित किये गये हैं। आज हम गौरव के साथ कह सकते हैं कि सम्यग्ज्ञान हिन्दी मासिक पत्रिका जैन समाज में स्वाध्याय केलिये अपना विशिष्ट स्थान रखे हये है। आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना:सन् १९७९ में पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से समाज में विद्वान तैयार करने के दृष्टिकोण से एक संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना की गई। जिसका नामकरण आ० श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ रखा गया । इस विद्यापीठ द्वारा विधिविधान एवं प्रवचन हेतु विद्वान तैयार किये गये हैं। विद्वानों में पं. नरेश कुमार जैन, पं. प्रवीणचंद जैन, पं. कमलेश कुमार जैन आदि के नाम प्रमुख हैं। जम्बूद्वीप पारमार्थिक औषधालयः जम्बूद्वीप स्थल पर यात्रियों, कर्मचारियों एवं गांव वालों की सुविधा के लिये एक आयुर्वेदिक औषधालय की स्थापना सन् १९८५ में की गई, जिसमें मरीजों को निशुल्के औषधियां दी जाती हैं। आयुर्वेदिक औषधियों राजवैद्य शीतल प्रसाद एण्ड संस दिल्ली से प्राप्त होती है तथा पिछले वर्ष से कुछ औषधियाँ तीनमूर्ति फार्मेसी बीकानेर (राज.) से भी उपलब्ध होती रहती हैं। जम्बूद्वीप भोजनालयः जिस दिन से संस्थान की नीवं हस्तिनापुर में डाली गई है उसी दिन से यात्रियों की सुविधा के लिए भोजनशाला का निर्माण किया गया है पहले कच्चे कमरे से इसका शुभारम्भ १९७५ में किया गया था। पश्चात् डायनिंग हाल एवं अच्छी फर्नीचर बना कर यह व्यवस्था संस्थान द्वारा चल रही है। इस भोजनालय में प्रतिदिन कन्दमूल एवं अभक्ष्य पदार्थों से रहित शुद्ध भोजन यात्रियों को बिना किसी चार्ज लिये उपलब्ध होता है। इस योजना में स्थायी सदस्य सहयोग के लिए बनाये जाते हैं। जम्बूद्वीप पुस्तकालयः ___ संस्थान के अंतर्गत शोध कार्य हेतु एक वृहद् लायब्रेरी का निर्माण किया जा रहा है, जिसका नाम जम्बूद्वीप पुस्तकालय रखा गया है। इस लायब्रेरी में जैन धर्म के चारों अनुयोगों के ग्रंथों का संग्रह तो किया जा ही रहा है साथ ही अन्य भूगोल-खगोल संबंधी ग्रंथ तथा अन्य साप्ताहिक मासिक जैन पत्र-पत्रिकाओं का भी संग्रह किया जाता है। इस समय लाइब्रेरी में लगभग ६००० ग्रंथ का संग्रह किया जा चुका है। संस्थान के हिसाब एवं धन की व्यवस्था:संस्थान का आय व्यय प्रतिवर्ष संस्थान की कार्यकारिणी में पास करके आडिटर से आडिट कराया जाता है। तथा धन के संबंध में संस्थान की सम्पर्ण आय रसीद एवं कूपन से होती है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया हस्तिनापुर एवं न्यू बैंक ऑफ इंडिया हस्तिनापुर तथा बैंक ऑफ बड़ौदा दिल्ली में संस्थान के नाम से खाते हैं जिनका संचालन संस्थान के संविधान के नियमानुसार अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष इन तीन में से किन्हीं दो हस्ताक्षरों से किया जाता है। संस्थान के अंतर्गत जमीन: हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप परिसर में सन् १९७४ से लेकर अब तक अनेक कृषकों से जमीनें खरीदी गई जो कि इस समय लगभग १७ एकड़ भूमि जम्बूद्वीप परिसर में है। इसके अलावा नसिया मार्ग पर नहर के किनारे १० एकड़ भूमि संस्थान से सन् १९८६ में क्रय की थी। इन समस्त जमीनों की रजिस्ट्री बैनामा "दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान" के नाम से कराया गया है। संस्थान द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें:प्रथम पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सन् १९७५: संस्थान के अंतर्गत प्रथम पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भगवान् महावीर स्वामी की प्रतिमाजी का फरवरी १९७५ में सम्पन्न हुआ था। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का तो सानिध्य था ही, सौभाग्य से आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के विशाल संघ एवं उपाध्याय श्री विद्यानंद जी महाराज का भी सानिध्य प्राप्त हुआ था। इसका विस्तृत उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७१५ द्वितीय पंचकल्याणक १९७९ में: ___जम्बूद्वीप के मध्य ८४ फुट ऊंचे सुदर्शन मेरु (सुमेरू पर्वत) का निर्माण अप्रैल १९७९ में सम्पन्न हुआ। इसमें विराजमान १६ जिनप्रतिमाओं का प्रतिष्ठा महोत्सव "श्री सुदर्शनमेरू जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव" इस नाम से २९ अप्रैल से ३ मई १९७९ तक सम्पन्न हुआ। इस महोत्सव को सानिध्य प्रदान किया पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने एवं सौभाग्य से आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से दीक्षित वरिष्ठ मुनिराज आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज का ससंघ सानिध्य प्राप्त हुआ। ये ही श्रेयांससागर जी महाराज चारित्र चक्रवर्ती आचार्य १०८ श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के पंचमपट्टाचार्य पद पर १० जून १९९० को प्रतिष्ठापित हुये थे। सन् १९७९ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी ब्र० सूरजमल बाबाजी, निवाई थे। तथा इसमें उत्तर प्रदेश शासन के मंत्री श्री रेवतीरमण ने पधारकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई थी। तृतीय पंचकल्याणक १९८५: २८ अप्रैल १९८५ से २ मई १९८५ तक जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव के नाम से यह कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में भारतवर्ष के सभी प्रांतों से भक्तगण लगभग १५००० की संख्या में सुदूरवर्ती प्रदेशों से आये तथा आसपास के नगरों से कुल मिलाकर ५०००० लोग प्रतिष्ठा में सम्मिलित हुए। जिनके ठहरने एवं भोजन आदि का सम्पूर्ण प्रबंध अत्यंत कुशलता के साथ किया गया था। इस प्रतिष्ठा में पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ साथ ही आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के संघ से कुछ मुनिगण एवं आर्यिकायें, मुनि श्री निर्मलसागर जी महाराज के नेतृत्व में आये। इन साधुओं का एवं आ० श्री सुबाहुसागर जी महाराज का सानिध्य पंचकल्याणक को प्राप्त हुआ। इस आयोजन के भी प्रतिष्ठाचार्य संहितासूरी ब्र० श्री सूरजमल जी बाबाजी निवाई थे। इस कार्यक्रम की एक विशेषता यह रही है कि उत्तर प्रदेश सरकार एवं प्रशासन की ओर से भरपूर सहयोग महोत्सव को प्रदान किया गया। उत्तरप्रदेश के मुख्य मंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी एवं खाद्य मंत्री प्रो० श्री वासुदेव सिंह स्वयं इस महोत्सव की प्रभावना के लिये सहयोगी रहे। अन्य मंत्री एवं सांसदों की उपस्थिति भी समारोह के लिये गरिमापूर्ण रही। इस प्रतिष्ठा में जम्बूद्वीप के सुदर्शन मेरू के अतिरिक्त शेष ६२ चैत्यालयों में विराजमान ६२ अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं एवं १२३ देवभवनों में विराजमान जिनप्रतिमाओं का पंचकल्याणक संपन्न हुआ। इस महोत्सव की विशेषता में एक और कड़ी जुड़ती है, जब तीन वर्ष के अखंड प्रवर्तन के पश्चात् ज्ञानज्योति का मंगल आगमन २८ अप्रैल १९८५ को हस्तिनापुर में होता है और इस ज्ञानज्योति की अखंड स्थापना के लिए तत्कालीन रक्षामंत्री (वर्तमान प्रधानमंत्री) श्री पी.वी. नरसिंहाराव ने पधारकर जम्बूद्वीप परिसर में ही इस ज्ञानज्योति की अपने करकमलों से अखंड स्थापना की। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता राज्य सभा के सांसद श्री जे०के० जैन (कांग्रेस) ने की थी। चतुर्थ पंचकल्याणक १९८७ ६ मार्च १९८७ से ११ मार्च १९८७ तक यह कार्यक्रम संपन्न हुआ। भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान् नेमीनाथ इन दो पद्मासन विशाल प्रतिमाओं का पंचकल्याणक महोत्सव संपन्न हुआ। इस प्रतिष्ठा का नाम भगवान् पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव रखा गया। इसमें पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञातमती माताजी के अतिरिक्त आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज एवं उपाध्याय श्री भरतसागर जी महाराज के संघ का सानिध्य प्राप्त हुआ। प्रतिष्ठाचार्य पं० शिखरचंद जैन भिण्ड ने यह कार्यक्रम संपन्न कराया। इसी शुभ अवसर पर ११ मार्च को सुमेरू पर्वत पर स्वर्ण कलशारोहण भी किया गया तथा ८ मार्च को बाल ब्र० श्री मोतीचंद जी की क्षुल्लक दीक्षा संपन्न हुई। दीक्षा समारोह के शुभ अवसर पर कार्यक्रम की अध्यक्षता संसद सदस्य श्री जे०के० जैन ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में माननीय श्री माधवराव सिंधिया केन्द्रीय रेल मंत्री ने मंच को सुशोभित किया। पंचम पंचकल्याणक एवं प्रथम महामहोत्सव १९९० ३ मई से ७ मई १९९० तक जम्बूद्वीप महामहोत्सव एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह के नाम से संस्थान द्वारा यह पंचकल्याणक कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस पंचकल्याणक में इन्द्रध्वज मंदिर में विराजमान करने हेतु ४५८ जिनप्रतिमाओं का पंचकल्याणक महोत्सव किया गयातथा नूतन कमल मंदिर पर कलशारोहण संपन्न हुआ। इस महामहोत्सव में ४ मई को केन्द्रीय उद्योग मंत्री श्री अजित सिंह का मंगल आगमन हुआ एवं ६ मई १९९० दिन रविवार को उत्तरप्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री बी० सत्यनारायण रेड्डी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। इस कार्यक्रम में पंचकल्याणक के अतिरिक्त महामहोत्सव की एक और प्रमुखता थी वह इस प्रकार थी कि संस्थान द्वारा यह निर्णय लिया गया था कि जम्बूद्वीप का पंचकल्याणक महोत्सव १९९५ में संपन्न हुआ था। उसके बाद प्रत्येक पांच वर्ष में जम्बूद्वीप महामहोत्सव के नाम से एक वृहद् समारोह जम्बूद्वीप स्थल पर किया जायेगा। अतः यह प्रथम महामहोत्सव १९९० में किया गया। आगे आने वाले सन् १९८५ व २००० आदि में द्वितीय, तृतीय महोत्सव भी संपन्न होंगे, ऐसा निर्णय कमेटी द्वारा किया गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला इस पंचकल्याणक एवं महामहोत्सव को सानिध्य प्रदान किया पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने तथा इसके प्रतिष्ठाचार्य पं० श्री फतेहसागर जी शास्त्री उदयपुर निवासी थे। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन एवं अखंड स्थापना:___संस्थान द्वारा धर्म प्रचार हेतु जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रवर्तन सारे भारतवर्ष में ४ जून १९८२ से २८ अप्रैल १९८५ तक किया गया। इस प्रवर्तन का उद्घाटन पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में भारतरत्न प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के करकमलों से लाल किला मैदान दिल्ली में ४ जून १९८२ के दिन किया गया था, उसके बाद देश के सभी प्रांतों के नगर-नगर में इस ज्ञानज्योति द्वारा धर्म की प्रभावना हुई। जिसका विष्तृत विवरण इसी अभिवंदन ग्रंथ में ज्ञानज्योति प्रवर्तन के खण्ड में किया गया है। ___ संक्षेप में यहां इतना बताना पर्याप्त है कि इसका प्रवर्तन माननीया प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के करकमलों से हुआ था। इसके समापन पर हस्तिनापुर में इसकी अखंड स्थापना श्री पी.वी. नरसिंह राव के करकमलों से २८ अप्रैल १९८५ को हुई थी। इस ज्ञानज्योति में श्री जे०के० जैन संसद सदस्य का काफी सहयोग संस्थान को प्राप्त हुआ। संस्थान उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती है। ज्ञानज्योति के संचालक स्व. पं० बाबूलालजी जमादार एवं उनके बाद द्वितीय संचालक पं० सुधर्मचंद श्री शास्त्री तिवरी की सेवाओं को कभी नहीं भुलाया जा सकता! ज्ञानज्योति का आय व्ययः जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के प्रवर्तन में ४ जून १९८२ से २८ अप्रैल १९८५ तक ५६३४३७.५२ (छप्पन लाख चोंतीस हजार आठ सौ सैतीस रूपये बावन नये पैसे) का आर्थिक सहयोग दिगंबर जैन समाज से बोलियों द्वारा प्राप्त हआ तथा प्रवर्तन की विभिन्न व्यवस्थाओं में १३०५०४४.३१) तेरह लाख, पांच हजार, चवालीस रूपये, इक्तीस नये पैसे (खर्च हुये अतः ४३२८७९३.२१) तेंतालीस लाख अट्ठाईस हजार सात सौ तिरानवे रुपये इक्कीस नये पैसे) की शुद्ध बचत हुई, जिसका उपयोग जम्बूद्वीप के निर्माण कार्य में किया गया। ज्ञानज्योति प्रवर्तन में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज, आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज आदि लगभग सभी आचार्यों, मुनिराजों, आर्यिकाओं एवं भट्टारकों का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त हुआ। तथा राजनेताओं का भी सानिध्य व सहयोग प्राप्त हुआ। इसकी विस्तृत जानकारी ज्ञानज्योति प्रवर्तन खंड में दी गई है। शैक्षणिक गतिविधियाँ: संस्थान द्वारा समय-समय पर सम्यग्ज्ञान, शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर, ज्ञानज्योति शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर, जम्बूद्वीप सेमिनार, जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान पर अंतराष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किये जा चुके हैं। हस्तिनापुर के अतिरिक्त अनेक नगरों व शहरों में भी संस्थान के विद्वानों द्वारा स्थानीय एवं प्रांतीय स्तर पर शिविर लगाये जा चुके है। ३१ अक्टूबर १९८२ को इसी प्रकार के एक सेमिनार का उद्घाटन पूज्य माताजी के सानिध्य में माननीय श्री राजीव गांधी ने फिक्की आडिटोरियम दिल्ली में किया था। तथा सन् १९८५ में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन उत्तर प्रदेश के खाद्य मंत्री प्रो० वासुदेवसिंह ने तथा समापन श्री पी.वी. नरसिंह राव के करकमलों से हुआ था। हस्तिनापुर में विद्वानों का प्रशिक्षण शिविर पूज्यमाताजी के सानिध्य एवं दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान तथा सिद्धांत संरक्षिणी सभा के तत्वावधान में हस्तिनापुर में आयोजित विद्वानों का प्रशिक्षण शिविर इस शताब्दी का एक अनूठा शिविर था- जिसमें पं० मोतीलालजी कोठारी, लालबहादुरजी शास्त्री, पं० मक्खन लाल जी, पं० बाबूलाल जमादार आदि सभी मूर्धन्य विद्वानों सहित लगभग ८० विद्वानों ने सम्मिलित हुए थे- सभी विद्वानों ने पूर्ण अनुशासन बद्ध एवं पूज्य माताजी के निर्देशन में शिक्षण प्राप्त किया था। उस समय शिविर के लिए जम्बूद्वार स्थल पर कमरे नही थे अतः श्वेतांबर जैन बाल आश्रम के भवन में यह शिविर सम्पन्न किया गया था। इस शिविर का उद्घाटन श्री जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार दिल्ली ने किया था। गुजरात का शिविर- संस्थान के माध्यम से जून सन् १९८७ में सप्तदिवसीय ज्ञानज्योति शिक्षण प्रशिक्षण शिविर का आयोजन प्रांतीय स्तर पर अहमदाबाद (गुज०) में किया गया था। जिसमें संस्थान की ओर से १२ विद्वान भेजे गये। इस शिविर में लगभग १४०० की संख्या में विद्यार्थियों ने शिक्षण प्राप्त किया तथा १०७८ विद्यार्थियों ने परीक्षा देकर प्रमाण पत्र हासिल किये थे। इस शिविर में गुजरात के ३२ गांवों के स्त्री-पुरुष एवं बालक-बालिकायें सम्मिलित हुये। जम्बूद्वीप पर दीक्षा समारोह: जम्बूद्वीप स्थल पर अनेक गतिविधियों के साथ ही दीक्षायें संपन्न करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस श्रृंखला में सर्वप्रथम जम्बूद्वीप निर्माण के एक कर्णधार, पूज्य गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शिष्य, बाल ब्र० श्री मोतीचंद जैन सर्राफ ने ८ मार्च १९८७ को आचार्य श्री विमलसागर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी, और क्षुल्लक श्री मोतीसागर नाम प्राप्त किया था। इसके पश्चात् १३ अगस्त १९८९ को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या एवं गृहस्थावस्था की छोटी बहिन कु० माधुरी शास्त्री ने पूज्य ज्ञानमती माताजी के करकमलों से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर आर्यिका चंदनामती नाम प्राप्त किया। इसके बाद पूज्य माताजी की वयोवृद्ध शिष्या ब्र० श्यामाबाई की सुल्लिका दीक्षा पूज्य ज्ञानमती माताजी के करकमलों से कार्तिक वदी एकम १५ अक्टूबर १९८२ में ही सम्पन्न हुई। जिनकी नाम श्रद्धामती रखा गया। उपरोक्त तीनों दीक्षा सम्पन्न साधु पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के संघ में ही विराजमान है। संस्थान के विद्वानों द्वारा विधिविधानों के आयोजन संस्थान के अंतर्गत संचालित आचार्यश्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ हस्तिनापुर से जो विद्वान तैयार हुये हैं तथा अन्य जो विद्वान जम्बूद्वीप से जुड़े हुये है उन्हें समाज के आमंत्रण पर सिद्धचक मंडल विधान, इंद्रध्वज मंडल विधान, कल्पदुम मंडल विधान आदि मंडल विधानों एवं वेदी प्रतिष्ठा, गृहप्रवेश, शिलान्यास आदि धार्मिक आयोजनों के लिये भेजा जाता है। पूजन के उपकरण यथा इन्द्रध्वज विधान के ४५८ मंदिर, कल्पद्रुम विधान के लिये धातु के उपकरण संस्थान के पास उपलब्ध हैं, जिन्हें समाज में आयोजनों की संपन्नता के लिये दिया जाता है। उपसंहार ७१७ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के हस्तिनापुर प्रथम प्रवेश से लेकर जम्बूद्वीप निर्माण से अब तक हस्तिनापुर का काफी कायापलट होगया है सन् १९७५ में जब हम लोग यहाँ पर जम्बूद्वीप का निर्माण करने के लिये आये उस समय से दर्शनार्थियों की संख्या वर्तमान समय में कम से कम १० गुनी हो चुकी है। उसका कारण है कि जम्बूद्रीय निर्माण के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है। ज्ञानज्योति प्रवर्तन से सारे देश की समाज में हस्तिनापुर का प्रचार-प्रसार हुआ है। ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित ग्रंथों व पुस्तकों से हस्तिनापुर का नाम लोगों के मस्तिष्क में पहुंचा है, तथा प्रतिमाह प्रकाशित होने वाली सम्यग्ज्ञान पत्रिका के माध्यम से लोगों में हस्तिनापुर आने की रुचि बड़ी है। यह सब पूज्य गणिनी आर्थिकारण श्री ज्ञानमती माताजी की तपस्या एवं उनके आशीर्वाद का ही सुफल कहना चाहिये, जो आज हस्तिनापुर के जंगल में मंगल सा वातावरण हो गया है। आज जम्बूद्वीप स्थल पर प्रतिदिन कम से कम ५०० से १००० तक दर्शनार्थियों का आवागमन होता है जिसमें जैन जैनेतर सभी वर्ग के लोग जम्बूद्वीप दर्शन के लिये आते हैं। दिल्ली से हस्तिनापुर आने के लिये सीधी बस सेवा नहीं थी। संस्थान के प्रयास से सन् १९७९ में दिल्ली से हस्तिनापुर उत्तरप्रदेश रोडवेज की दो बसें प्रारंभ हुई और अब इन बसों की संख्या १० हो गई है। अब सीधे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय बस अड्डे से जम्बूद्वीप हस्तिनापुर के लिये बसें आती और जाती हैं, तथा मेरठ के रोडवेज बस अड्डे से एवं प्राइवेट बसें मेरठ में मवाना बस अड्डे से प्रातः से सायं तक लगभग २० बसें आती हैं। रेलवे लाइन के लिए भी संस्थान का केन्द्रीय सरकार से प्रयास जारी है। इसी प्रकार सरकार से प्रयास करके नसियां मार्ग जो लगभग तीन कि०मी० पड़ता है उसे डामर पक्का रोड सन् १९८५ में मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी से संस्थान के प्रयास से कराया गया है। पूज्य माताजी के प्रयास से पिछले वर्षों में अनेक आचार्य संघों का एवं अनेक साधुओं का आगमन जम्बूद्वीप स्थल पर हो चुका है, जिससे दिल्ली एवं उत्तरप्रदेश को साधुओं के आगमन एवं चातुर्मास कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार संस्थान के जन्म से लेकर वर्तमान युवा अवस्था तक की संक्षिप्त झलकी पाठकों की जानकारी के लिये मैंने यहाँ प्रस्तुत की है जिसे संस्थान का एक संक्षिप्त इतिहास समझना चाहिये। आभार Jain Educationa International जिन-जिन महानुभावों ने जम्बूद्वीप के निर्माण में तन-मन-धन से किसी भी प्रकार का सहयोग प्रदान किया है उन सभी के प्रति संस्थान की ओर से मैं इस शुभअवसर पर हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं जिनके सहयोग से यह जम्बूद्वीप का निर्माण जैन संस्कृति एवं भारतीय संस्कृति की एक विशाल सांस्कृतिक धरोहर के रूप में आने वाले वर्षों में विश्व में ख्याति का स्थान प्राप्त करेगी, ऐसा मुझे विश्वास है । उपरोक्त समस्त कार्यों में पूज्य गणिनी आर्यिकारत श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के लिये हम कृतज्ञ है। संस्थान की वर्तमान कार्यकारिणी (अप्रैल, १९९१ से मार्च १९९४ तक) निम्न है-. For Personal and Private Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के पदाधिकारीगण ५३- श्राप सदस्य १- साहू श्री अशोक कुमार जैन, नई दिल्ली-संरक्षक श्री अमरचन्द पहाड़िया, कलकत्ता-संरक्षक ३- श्री निर्मल कुमार सेठी, लखनऊ-संरक्षक ४- ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर-अध्यक्ष ५- श्री गणेशीलाल रानीवाला, कोटा-कार्याध्यक्ष ६- डॉ० श्री कैलाशचंद जैन (राजा टॉयज), नई दिल्ली-उपाध्याय ७- श्री उम्मेदमल पांड्या, दिल्ली-उपाध्यक्ष ८- श्री वैद्यराज शांतिप्रसाद जैन, दिल्ली-उपाध्यक्ष ९- श्री रमेशचंद जैन (पी.एस. जैन मोटर्स), दिल्ली-उपाध्यक्ष श्री मोतीचंद जैन, सहारनपुर-उपाध्यक्ष ११- श्री विशालचंद जैन, सहारनपुर-उपाध्यक्ष 1२- श्री ला. लखमीचंद जैन आड़ती, मवाना-उपाध्यक्ष १३- श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार, नई दिल्ली-महामंत्री १४- श्री कैलाशचंद जैन, करोल बाग, नई दिल्ली-कोषाध्यक्ष १५- श्री अमरचंद जैन, होम ब्रेड, मेरठ-मंत्री १६- श्री मनोज कुमार जैन, हस्तिनापुर-संयुक्त मंत्री १७- पं० श्री सुधर्मचंद शास्त्री, तिवरी-प्रचार मंत्री १८- श्री गजराज जैन गंगवाल, नई दिल्ली१९- श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन, कम्मोजी, नई दिल्ली२०- श्री आनद प्रकाश जैन, सौरम वाले, दिल्ली---- २१- श्री नरेश कुमार बंसल, नई दिल्ली२२- श्री जिनेश कुमार बाकलीवाल, नई दिल्ली२३- श्री विजय कुमार जैन, पहाड़गंज, नई दिल्ली२४- श्री पुष्पेन्द्र कुमार जैन, नई दिल्ली२५- श्री कमलचंद जैन, खारी बावली, दिल्ली श्री भूपेन्द्र कुमार जैन, शाहदरा, दिल्ली२७- श्री जयकुमार जैन, तिमारपुर, दिल्ली. श्री विजेश्वर प्रसाद जैन, नई दिल्ली श्री विजेन्द्र कुमार जैन, शालीमार बाग, दिल्ली३०- श्री त्रिलोकचंद कोठारी, कोटा श्री महेन्द्र कुमार रानीवाला, कोटा ३२- श्री मांगीलाल पहाड़े, हैदराबाद३३- श्री पन्नालाल सेठी, डीमापुर ३४- श्री ताराचंद एम. शाह, बम्बई श्री श्रीनिवास बड़जात्या, मद्रास३६- श्री देवेन्द्र कुमार शाह, भोपाल श्री हीरालाल जैन शाह, अहमदाबाद३८- श्री विनोद हर्ष, अहमदाबाद ३९- श्री बाबू भाई जैन, तलोद४०- श्री शिखरचंद जैन, हापुड़४१- श्री पुरुषोत्तमदास जैन, जगाधरी४२- श्री कैलाशचंद जैन सर्राफ, टिकैतनगर४३- श्री छोटी शाह जैन, टिकैतनगर४४- श्री प्रकाशचंद जैन, टिकैतनगर४५- श्री इन्दरचंद जैन चौधरी, सनावद श्री प्रकाशचंद जैन सर्राफ, सनावद४७- श्री विमलचंद जैन, सनावद४८- श्री श्रीचन्द जैन, सनावद४९- श्री कैलाशचंद जैन, सनावद५०- श्री नरेशचन्द जैन, बड़ौत५१- श्री जगदीश प्रसाद जैन सर्राफ, बड़ौत५२- श्री डा० श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत श्री पवन कुमार जैन, खद्दर वाले, सरधना५४- श्री सतीश चंद जैन, सरधना५५- श्री देवेन्द्र कुमार जैन, सरधना५६. श्री रमेशचन्द जैन, सरधना५७- श्री हकीम आदिश्वर प्रसाद जैन, सरधना श्री अमरचन्द जैन सर्राफ, खतौली५९- श्री महेन्द्र कुमार जैन, खतौली६०. श्री गुलशनराय जैन, खतौली६१- श्री चिमनलाल जैन, खतौली६२- श्री प्रेमचंद जैन, तेल वाले, मेरठ६३- श्री के०सी० जैन इंजीनियर, मेरठ६४- श्री वीरेन्द्र कुमार जैन, मेरठ६५- श्री अरविन्द कुमार जैन, होम ब्रेड, मेरठ६६- श्री बाबूराम जैन इंजीनियर, मेरठ श्री सुशील कुमार जैन, मोदीनगरश्री मुकेश कुमार जैन, अमीनगरसरायश्री राकेश कुमार जैन, मवानाश्री श्रीपाल जैन भगतजी, मवानाश्री जुगमंदर दास जैन आइती, मवानाश्री पवन कुमार जैन (गैस वाले), मवाना श्री सेठ नाथूलाल जैन, लोहारिया७४- श्री मगनलाल जैन सर्राफ, लोहारिया श्री सुखवीर सिंह जैन,मुजफरनगर७६- श्री भागचंद जैन पाटनी, मुजफ्फरनगर ६७ ७० ७१ ७२ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रेमचंद जैन, महमूदाबाद - श्री सरोज कुमार जैन, तहसील फतेहपुर श्री धरणेन्द्र कुमार जैन, लखनऊ श्री मोहनलाल सेठ, लखनऊ श्री अजित जैन टोंग्या, बड़नगर श्री गुणवंत जैन टोंग्या, बड़नगर८३- श्री नंदलाल जैन टोंग्या, इन्दौर नारायण दत्त तिवारी ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ कृष्ण स्वरूप वैश्य राज्य मंत्री पंचायती राज, क्षेत्रीय विकास एवं प्रान्तीय विकास दल, उ०प्र० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ 33 Jain Educationa International राज्य उत्तर मंत्री ८४ ८५ - ८६ ८७ ८८ ८९ - ९० - संदेश यह परम सौभाग्य एवं प्रसन्नता का विषय है कि हस्तिनापुर में निर्मित जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका पूज्य गणिनी आर्यिकाल श्री ज्ञानमती माताजी के सम्मान में एक अभिवंदन ग्रन्थ के प्रकाशन का निर्णय दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा लिया गया है। ज्ञानमती माता जी के संबंध में कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाने की भाँति ही है। एक महान् आदर्श संजोये ज्ञानमती माताजी हम सभी का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। धर्म, नीति, बाल साहित्य आदि के रूप में माता जी के सम्मान में ग्रन्थ का प्रकाशन सभी श्रद्धालु समुदाय को एक व्यावहारिक जीवन हेतु संदेश प्रदान करता रहेगा। माँ ज्ञानमती हमें राष्ट्र निर्माण के पथ पर अग्रसर रहने का दीर्घकाल तक दिशा-निर्देश प्रदान करती रहेंगी, ऐसी मेरी मनोकामना है। मैं अभिवंदन ग्रन्थ के सफल प्रकाशन हेतु अपनी शुभकामनायें प्रेषित करता हूँ। प्रदेश श्री महावीर प्रसाद नृपत्या, जयपुर श्री ऋषभ कुमार जैन, जयपुर श्री सुरेन्द्र कुमार जैन वैद, जयपुर श्री हरीश चन्द जैन, आगरा श्रीमती आदर्श जैन, हस्तिनापुर- ब्र० कु० आस्था जैन, हस्तिनापुरब्र०कु० बीना जैन, हस्तिनापुर - For Personal and Private Use Only — फोन : 247868, 231521 1-ए, माल एवेन्यू लखनऊ-226001 सूची ७१९ संदेश मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि "गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ" का प्रकाशन होने जा रहा है। इस ग्रंथ के सफल प्रकाशन के लिये मेरी हार्दिक शुभ कामनायें । ( नारायण दत्त तिवारी) आवास 248662 फोन : कार्या 242896 C.H.: 8202 विधान भवन लखनऊ pis (कृष्ण स्वरूप वैश्य) Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२०] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला "श्रीज्ञानमती मातः कुसुमाञ्जलिः " १. विक्रम संवत् १९९१ में । - रचयिता शर्मोपाह्नः रामकिशोरः, खुरजास्थ श्रीराधाकृष्णसंस्कृतमहाविद्यालयप्रधानाचार्यः 'प्राक्कथनम्' मेरठजनपदान्तर्गत 'बड़ौत' नगर स्थितदिगम्बरजैनमहाविद्यालये स्नातकोत्तर संस्कृतविभागाध्यक्ष पदजुषा, वैदुष्यावाप्तयशसा, सुमनसा आचार्यश्रीसोबरनसिंहविदुषा साग्रहं विनिवेदितोऽहं जैनसमाजसमादृताया अपि स्वाविदिताया अदृष्टायाश्वार्यिकारत्रोपाधिभूषितायास्तपः पूताया मातुर्ज्ञानमत्या विषये श्लोकशतं निर्मातुं सहर्षमंगीकृतवानिति विचित्रः संयोगः । कस्यचिदपि विषये कविताकरणात्पूर्वं तद्विषयकं ज्ञानमावश्यकं भवतीति सामान्यनियमानुसारं आचार्यश्रीसोबरनसिंहसमर्पितं साहित्यं मयावगाहितम् । जैनदर्शन सर्वथानभिज्ञेन, कविताकलानवाप्तसमज्ञेन, तत्साहित्यावगाहनेन यदवगतं मातुर्वैशिष्ट्यं तदवाप्तविश्वासेन, विश्वासबर्धितोत्साहेन च प्रत्यवायपटलमवधूय यदिदं श्लोकशतं मया विरचितंतंत्र कारणमस्ति केवलं प्रभुकृपा मातुर्महत्त्वञ्च । युवावस्थायां विषयविरागो मुक्त्यनुरागः गुरुजनभक्तिः, धर्मप्रसक्तिः, भ्रमापहरणं सत्याचरणं, परोपकरणं ज्ञानवितरण शुद्धाहारः श्रेष्ठविहारः, धर्मप्रचारश्चारुविचारः विद्याव्यसनं मोहनिरसनं शताधिकग्रन्थविरचनं पीयूषवचनं भव्यभावना कल्याणकामना, लोकरक्षणं श्रेष्ठशिक्षणं सर्वसम्मता इमे विशिष्टगुणाः सर्वयापरिचितमपि मामाकृष्टवन्तो नात्र संशीतिलेशः । Jain Educationa International भौतिकं वैभवं नानुगतं नानुगच्छति नानुगमिष्यति कमपि जनमिति जानन्तोऽपि जना अविद्यावशान्तदर्थमेवाहर्निशं महान्तमपि क्लेशमविगणय्य यतमाना दुर्गति भजन्ति तानेव दुर्गतिभाजो जनानुवाचरण भाषणाभ्यामुद्धर्तुमेवायान्ति भूतले महात्मानो मातृतुल्याः। इदमेव पवित्रलक्ष्यमधिगन्तुं सर्वविधं प्रयासं विदधाना "माता ज्ञानमती शतं वर्षाणि जीवतात्" एवं प्रभुं प्रार्थये । 1 जीवन्मुक्ता अपि महात्मानः 'कर्मणामनुकरणेन नोऽनुकरणशीलो लोकः स्वकल्याणं करोतु' - दिव्ययानया भावनया कल्याणकारीणि कर्माणि कुर्वन्ति योगिराज श्रीकृष्णस्य - 'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । ' स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥' 1 अपि च मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः । इति वचनमुक्तार्थं प्रमाणयति एवमेव माता ज्ञानमती स्वजीवनेऽनुकरणीयानि यानि कृतवती करोति चकर्माणि तेषां फलमपि प्रत्यक्षं प्रतिभाति कुसुमाञ्जलिरियं सन्तोषयिष्यति सुधिय इत्याशासे । | अवेदं प्रारभ्यते - देवेन्द्रादिभिरर्च्यमानमनिशं विद्याधरोपासितम् सम्मान्यैर्ऋषिभिस्तथा मुनिवरैः शश्वत्समाराधितम् । ध्यानावाप्तविभूतिभूषिततनुं तीव्रव्रतं बोधदम्, संसन्मध्यविराजमानमरुजं श्रीमज्जिनेन्द्रं नुमः 11 यत्रासावृषभो बभूव भगवान् आद्यः सुतीर्थकर, तत्पुत्रः प्रथमश्चकार भरतो राज्यञ्च निष्कण्टकम् । साधुस्तोमतपः स्थली च सरयूनद्यापि या सेविता, सायोध्यानगरी तनोति सततं प्रान्तं पवित्रं हि यम् ॥ १ ॥ For Personal and Private Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७२१ श्रीमद्रामसुजन्मविश्वविदिते तत्रावधाख्ये वरे, छोटेलालपितुः पवित्रभवने ग्रामे टिकैताभिधे । चन्द्रांकांकसुधांशुसंख्यकशुभे संवत्सरे वैक्रमे, मासे चाश्विनसंज्ञकेऽतिसुखदे पक्षे सिते शोभने ॥ २ ॥ प्रज्ञाशालिसुकार्यशंसिततमे श्रीपूर्णिमापर्वणि, सर्वोत्कृष्टसुधांशुशुभ्रकिरणैरालोकितायांनिशि मोहिन्या महनीयकुक्षिगगनात् सम्भूतभव्योत्सवा, जाता जैनचकोरपुञ्जसुखदा मैनामहाकौमुदी ॥ ३ ॥ मोहिन्याः श्वसुरः स्वभावसरलः श्वश्रूस्तथा तादृशी, ह्यासीदन्यसमेऽपि सौम्यमतयश्चासन् सदस्या गृहे । ते प्रातर्नियमेन भक्तिसहिता गत्वा सदा मन्दिरम्, गृह्णन्ति स्म जलं कुलञ्च सकलं रात्रौ न भुंक्ते स्म तत् ॥ ४ ॥ एकैवात्र करोति कापि घटना पुण्यात्मनः प्राणिनः, संयोगादवितर्कितापि घटिता नूनं नवं जीवनम् । तेनैवात्र विधाय धर्म्यमखिलं कार्य हि लोकोत्तरम्, लोकेऽस्मिन् कमनीयकीर्तिकलिकां मुक्तिंतथाप्नोति सः ॥ ५ ॥ श्रीबुद्धादिवदेव वीक्ष्य विमला मैनात्मजा नाटकम्, संसारं ह्यवगत्य साररहितं तस्माद्विरक्ताभवत् । वन्दयं चाष्टदशाब्दमात्रवयसि श्रीब्रह्मचर्य व्रतम्, देशानन्तरभूषणाद् धृतवती ह्याचार्यपादादियम् ॥ ६ ॥ कार्येऽस्मिन्नवधूय विघ्नविपदं भव्यंभजन्ती व्रतम्, प्राप्ता चारुचरित्रतुष्टमनसश्चैत्राख्यमासे ततः । वर्षाम्यन्तरमेव पूर्वगुरुतो दीक्षानया क्षुल्लिका, दत्तं वीरमतीति नाम गुरुणा चांगीकृतं सादरम् ॥ ७ ॥ मान्याचार्यमनांसि तीव्रतपसा, सन्तोषयन्ती सदा, जैनाचारविचारपालनपरा, प्रज्ञावती क्षुल्लिका । राजस्थानगते वरिष्ठविदुषां विद्याविभाभास्वरे, माधौराजपुराख्यपुण्यनगरे वर्षत्रयानन्तरम् ॥ ८ ॥ श्रीवीराद्य पदस्य सागरमुनेः श्री शान्तिसूर्याज्ञया, संघं साधुप्रविश्य पूर्णविधिना, जाता पुनश्चार्यिका । दीक्षान्ते गुरुणा विचार्य विहितं ज्ञानानुरूपं पुनः, प्राप्तं ज्ञानमतीति नाम विमलं येनास्ति बोध्याधुना ॥ ९ ॥ स्वल्पे चायुषि सावधानमनसा संसेव्यमाना गुरुम्, ज्ञानं प्राप्य प्रशस्तमाशु विदुषी वृन्दे विशिष्टाभवत् । १. आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज २. चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागरजी की आज्ञा से । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२] Jain Educationa International वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला हावर्थ प्रविधाय नाम नियतं नम्बुधौ मजिता, माता ज्ञानमती गुणाद्यगणिता विभ्राजते भूतले ॥ १० ॥ सौम्य श्रशिवपूर्वसागरगुरोः संघे विशिष्टा पुनः, ध्यानस्याध्ययनं विधाय विधिना धैर्यं धियोऽदर्शयत् । आज्ञामेत्य ततः स्वसंघसहिता सम्यक्त्वसम्मानिता, यात्रां नाना तीर्थकस्य सुमुखी सानन्टमेवाकरोत् ॥ ११ ॥ ध्यान्तध्वंसविधानलब्धयशसो दीपाद् यथा दीपकः, भव्यालोकमुपेत्य तस्य तमसो ध्वंसं विधतेतराम् । ज्ञानं शनमतीमुपास्य हि तथा शिष्या इमा आर्थिकाः, प्राप्याज्ञानमिहाशु भक्ताजगतः कुर्वन्ति नष्टं मुदा ॥ १२ ॥ नो सामान्यजनस्य बोधविषये दृष्टा विशिष्टा गतिः, संसारेऽपि विरक्तिरल्पवयसो लोकेऽस्ति नो सम्भवा । वैशिष्ट्यं द्विविधं करोति वसति श्री ज्ञानमत्यामिदम्, तेनेयं प्रतिभातिभूमिवलये नूनं विशिष्टा कृतिः ॥ १३ ॥ पूर्व ब्रह्मपदाद्यचर्यमतुलं छत्वा तं यौवने, दीक्षामेत्य ततः प्रसन्नमनसा भव्याभवत्क्षुल्लिका । तत्पश्चात्पुनरायिकेति पदवी प्राप्ता तपस्या बलात् प्राप्तैवं क्रमशः समुत्रतिमियं मैना महामानवी ॥ १४ ॥ तद्धन्यत्वमितं टिकैतनगरं धन्या च सा पूर्णिमा, धन्यं श्रेष्ठिकुलं सुकर्मकुशलं तत्सा च धन्या निशा । धन्यः सः समयोऽस्ति यत्र सुमतिः साधुत्व संरक्षिका, माता ज्ञानमतीह प्रादुरभवद् भद्रात्मके भारते ॥ १५ ॥ श्रीजैनेन्द्रविशेषभक्ति विभवा विद्यार्थिवर्गादृता, धर्मोद्वारनिबद्धबुद्धिरमला धीराधरा धार्मिकी 1 विद्वत्ताद्वितया पवित्रप्रतिभा व्याख्यान विद्योत्तमा, माता ज्ञानमती स्वभावसरला लोके महत्त्वं गता ॥ १६ ॥ क्वैश्वर्यादिसमन्विताद्यसदनं चैत्यालये व स्थितिः, क्वासौ भूरिपरिश्रमः प्रपठने क्वाल्पायुधो बालिका । क्वीवं मदु सर्वबोध्यसहजं क्वेदश तीव्रं तपः, निर्वोढुं सममेतदस्ति न जनः सामान्यशक्तिः क्षमः ॥ १७ ॥ नूनं पूर्वभवेऽनपातिकठिन सम्पादितं सत्तपः, ज्ञानज्ञापि परिश्रमेण महता सम्पूर्णमासादितम् । नो चेदत्र विनानुकूलसमयं ज्येष्ठा सुता सत्यपि, ज्ञानादानतपोविभूतिविषये जाता प्रवृत्ता कथम् ॥ १८ ॥ जैनाचारविचारचारुचारिता सच्चितचिन्तामणिः, शिष्या सार्थसहर्षशिक्षणपरा सन्तोषशुद्धाशया । For Personal and Private Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७२३ सभ्यासौम्यसमूहसंगसुरतिः सम्मानवारांनिधिः, मान्या ज्ञानमती मनांसि महतामामोदयन्ती स्थिता ॥ १९ ॥ गुण्योद्गीतगुणा गुणज्ञगणिनी गंगेव गेया गणैः, शान्ता शुभ्रपरिच्छदा च शुचिता शीलादिभिश्शोभिताः । न्यायज्ञा नियमादिनीतिनिपुणा नम्रा प्रणम्या समैः, माता ज्ञानमती महाव्रतवती केषां न वन्द्या भुवि ॥ २० ॥ आत्मोद्धाररतापि सर्वजगतः सन्मार्गसंदर्शिका, सर्वेषामुपकारदत्त धिषणा धर्मध्वजोत्तोलिका । रागद्वेषविमुक्तमुक्तिनिरता निर्धान्तचित्ता तथा, नूनं ज्ञानमतीह भूमिवलये धत्ते विशिष्टं पदम् ॥ २१ ॥ छोटेलालमहोदयेन विहितं यच्चातितीव्र तपः, साधूनां संघोऽपि शुद्धमनसा सम्यक्समाराधितः । जैनेन्द्रोऽपि च पूर्वजन्मनि मुदा सश्रद्धमासेवितः, सत्सर्वस्य फलं विशिष्टतनया तेनेयमासादिता ॥ २२ ॥ धन्योऽभूद् भुवनेषु भद्रजनको वंशो वरः श्रेष्ठिनः, धर्मोपान्तधनस्य धीरमनसो जैनेन्द्रसेवाजुषः । छोटेलालमहोदयस्य सुधियः श्री पितृपादस्य च, धन्यस्यापि सुयोग्य सूनुसुतया श्रीज्ञानमत्या ध्रुवम् ॥ २३ ॥ छोटेलालसुतं प्रसूय सुधिया धन्यं कृतं जीवनम्, धन्यायेन सुकर्मधर्मयशसा पश्चात्कुमारेण च । तस्यैवात्र सुतस्य सन्ततितपः प्रत्यक्षमेवैधते, मुक्तेस्तत्तपसैव तस्य धनिनो द्वारं समुद्घाटितम् ॥ २४ ॥ लोके शुभ्रतमा निगद्यत इयं या शारदी पूर्णिमा, तस्याः कारणमस्ति तत्र शशिनः सर्वोत्तमा चन्द्रिका । श्रद्धाभक्तितपोभवैस्त्वगणितैः श्रीज्ञानमत्या गुणैः, तद्भूतैश्च यशोभिरद्य नियतं भूता विशिष्टास्ति सा ॥ २५ ॥ सौम्या श्रीसुखपाल दासतनुजा पित्रापि संपोषिता, मान्या मोहमदादिदोषरहिता संस्कारयुक्ता तथा । शिक्षां दत्तवती सहव पयसा यस्यै प्रसूमोहिनी, सा नो ज्ञानमती भवेन्नहि कथं ज्ञानात्मिका ज्ञानदा ॥ २६ ॥ छोटेलालमुपेत्य पावनपतिं चित्तानुरूपं सती, सत्तीर्थादिविलोकनादिमुदिता स्वाध्यायशीला तथा । साध्वी सत्पुरुषानुतोषणपरा सत्संगसेवोत्तमा, यस्याः स्याज्जननी भवेन्न तनया सा सर्वसेव्या कथम् ॥ २७ ॥ १. धन्यकुमार सेठ छोटेलालजी के पिता थे। २. सुखपालदासजी मां मोहिनी के पिता थे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मायामोहतमोऽभिभूतजगतः कल्याणकामा कलौ, हर्तुं तत्तिमिरं स्वरत्नविभया या स्त्रीत्वमत्रागता । तज्जन्ये रमणीयरत्ननिचये ज्ञान प्रभाभास्वरम् माता ज्ञानमती तु रत्नमतुलं विद्योतते भारते ॥ २८ ॥ पूर्वस्मिन् जनने स्वकर्मकलितं संस्कारमाचिन्वती, दक्षत्वञ्च दयादमादिविषये सन्दर्शयन्ती सदा । ज्येष्ठयं तनुजानुजादिविषये दत्तावधाना सती, साहाय्यं व्यदधाद् विवेकसहितं कार्येषु मातुर्मुदा ॥ २९ ॥ प्रातः कृत्यमियं गृहश्च विमलं कृत्वा पवित्रा स्वयम्, भूत्वास्नानविधेश्च शुद्धवसनं धृत्वा शरीरे ततः । गत्वा मन्दिरमाशुपूर्णविधिना पूजाञ्च कृत्वा पुनः, स्वाध्यायञ्च विधाय कार्यकरणे भूयः प्रवृत्ताभवत् ॥ ३० ॥ सायं साधु समाप्य भोजनविधिं गत्वा पुनर्मन्दिरम, श्रद्धाप्रेम समन्वितेन मनसा कृत्वा च नीराजनम् । नित्य शास्त्रसभाञ्च सेवितवती चागत्यभूयस्ततः, । मातापितृसहोदराञ्च सुकथा अश्रावयत्सादरम् ॥ ३१ ॥ कुर्वन्ती गृहकार्यमत्र सकलं जैनागमे सुदृढा, पिथ्यात्वं परिहर्तुमात्मजननीं प्राबोधयत् सन्ततम् । संरुद्धापि समेत्य पुण्यसमयं वाराद्यबंकी पुरे, दीक्षामेत्य पुरः समस्तजगतामादर्शमस्थापयत् ॥ ३२ ॥ नो शिक्षामपि यत्नपूर्वकमियं बाला समासादयत्, याता नो पठितुं प्रसिद्धनगरे कुत्रापि शिक्षालयम् । वैराग्यञ्च तथापि ज्ञानममलं जातञ्च यद्यौवने, सत्सर्व प्रथमे कृतस्य जनने पुण्यस्य भव्यं फलम् ॥ ३३ ॥ माता शिक्षयतीह सन्ततिचयं शिक्षानुरूपं निजम्, सर्वत्रैव समान एव नियमो भूमण्डले वर्तते । किन्त्वेषा तु सदैव शिक्षितवती धर्म निजां मातरम्, पुण्यं चेत् प्रथमं न तर्हि तनया जाता कथं शिक्षिका ॥ ३४ ॥ वैदुष्यं विशदं विशिष्ट विनयं धर्मेऽतिरिक्तां गतिम्, विद्याया व्यसनं विशुद्धमशनं शुभ्राम्बराच्छादनम् । मायाया हरणञ्च मुक्तिवरणं द्राक्षेव सम्भाषणम, दृष्टैः सर्वगुणैः प्रतीयत इदं मैनास्ति वैशारदा ॥ ३५ ॥ द्वारस्थं समवीक्ष्य भिक्षुकमियं श्रद्धामयी मोहिनी, चास्मै भोजय पुत्रि ! पायय जलं मैनां यदाज्ञापयत् । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७२५ तस्मिन्नेव क्षणे स भिक्षुरनया सश्रद्धमाभोजितः, पश्चात्प्रस्फुटिता दया परिचयं नैनं तदैवाददात् ॥ ३६ ॥ धर्मस्याचरणेन दोषरहिते सद्भाव संशोभिते, शास्त्राभ्याससुसाधुसेवनसुधा संप्लाविते पावने । कस्मिंश्चित्कमनीयकीर्तिकलिते कान्ते कुले भूतले, कश्चित्किल महनीयमानवमणिः संजायते पुण्यतः ॥ ३७ ॥ पूर्वे यत्नसमर्जितेन जनने लोकोत्तरेणात्मनः, पुण्येनात्र विना न जन्म लभते पुण्ये कुले मानवः । भूयः पुण्यमुपास्य पुण्यसदनं कृत्वा कुलं प्रोज्ज्वलम्, वैराग्यं समवाप्य मुक्तिसरणिं संयाति सः सर्वथा ॥ ३८ ॥ एको यत्र गुणैः समस्तभुवनं जेतुं समुत्पद्यते, कीर्ति स्वस्य पवित्रतां च तनुते लोकोत्तर तत्कुलम् । यस्मिन् किन्त्वभवन् क्रमेण बहवो वैराग्यवन्तो जनाः, साम्यं तस्य कुलस्य नैवभुवने कुत्रापि संदृश्यते ॥ ३९ ॥ माता ज्ञानमती तथाभयमती निर्मत्सरा चन्दना, मोहस्थाशु निरस्य पाशमसमं विभाजिता मालती । ताता च रवीन्द्रनाम विदितो रत्नानि यत्राभवन, रत्नरेभिरिदं शरण्यसदनं जातोऽस्ति रत्नाकरः ॥ ४० ॥ आज्ञा श्रीशिवसागरस्य झटिति संप्राप्य माता मुदा, प्रान्ते आन्ध्रपवित्रभव्यनगरे पक्षे सिते श्रावणे । सप्तम्याञ्च तिथौ प्रघोषितवती दीक्षा दिनं मोददम, तस्मिन्नेव मनोवती प्रमुदिता मात्रा कृता क्षुल्लिका ॥ ४१ ॥ ज्ञानालोक निरस्तमोहतिमिरं दिव्यप्रभाभासितम्, श्रीमैनादिमनोज्ञरत्ननिकरं सृष्ट्वाप्यतुष्टा सती । दीक्षामेत्य च धर्मसागरगुरोः सन्तोषमेषा गता, संज्ञां रत्नमतीति रत्नजननी योग्यामिता सादरम् ॥ ४२ ॥ मोहिन्या महनीय सन्ततिचये साध्वी सुता द्वादशी, प्रात्रासाकमुपाश्रिता जयपुरं दृष्टं निजामग्रजाम् । नेपथ्यं समवीक्ष्य साधुशिविरे मन्दस्मिता माधुरी, सम्बुद्धा सह सोदरेण सहसा मातुः समीपं गता ॥ ४३ ॥ कस्मिंश्चिदिवसे तया स्वनिकटे सस्नेहमाकारिता, पृष्टा चाध्ययनादि वृत्तमखिलं सानन्दमावेदयत् । मातुः साधुपरीक्षितापठदियं श्लोकद्वयं सादरम्, कण्ठस्थं च विधाय बोधितवती धर्म प्रवृत्ति निजाम् ॥ ४४ ॥ अन्यस्मिन् खलु जीवनेऽपि विहिता तीव्रा तपस्यानया, वैराग्यादिविधानदक्षविवुधाः सम्यक् समाराधिताः । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला तत्सर्वस्य फलं त्रयोदशतमं वर्ष नयन्त्यानया, लब्धं प्रौढजनोपलभ्यमवनं वैराग्यरूपं धनम् ॥ ४५ ॥ वैदुष्यं भवभोगरोगविरतिजैनागमे सुस्थितिः, काव्योल्लासपटुत्वमीड्यचरितं यच्चापि लोकोत्तरम् । माधुर्या प्रतिभाति तस्य वरदा सेव्यास्ति वै कारणम्, माता ज्ञानमती तपोधनवती लोके गुणैरीड्यते ॥ ४६ ॥ हिन्दीसंस्कृतभाषयोरनुपमा यस्या गतिर्विद्यते, माधुर्यं कवितासु वीक्ष्य सुमनाः को नो नरो मोदते । विख्यातं किल कर्मकाण्डविषये यस्याः परं कौशलम्, सा लोके सर्वत्र याति विजयं मैनानुगा माधुरी ॥ ४७ ॥ छोटेलालमहात्मनः कुलमणिः पुत्रः कनिष्ठः कृती, मैनाबोधितनामकामविमुखः श्रीमद्रवीन्द्रः सुधीः । सोत्साहं समधीत्य लक्ष्मणपुरे सद्विश्वविद्यालये, वर्षेऽयं जननस्य विंशतितमे सुनातकः संवृतः ॥ ४८ ॥ माता तत्प्रतिभां च धर्मममतां तस्या समां शीलताम्, दृष्ट्वा धार्मिकशिक्षणादिविषये बीजं समारोपयत् । येनास्योरसि धार्मिकी पिपठिषा तत्कालमेवोदिता, तस्या एव फलं स्वधर्मविषये या दृश्यतेऽस्योन्नतिः ॥ ४९ ॥ माता ज्ञानमती तथाभयमती द्वेऽप्यार्यिके मालती, सम्मान्यश्च रवीन्द्रनामसुमतिर्मुक्ताशया माधुरी । यं वंशं नररत्नपञ्चकमिदं प्राभूषयजन्मना, वंशस्यास्य समानतां त्रिभुवने कर्तुं क्षमः कोऽन्वयः ॥ ५० ॥ श्रद्धाकेन्द्रजिनेन्द्रशास्त्रविदुषी वैराग्यविद्योतिता, सत्यासत्यविवेकशीलसदनं सत्संगसुप्ताशया । मान्यां ज्ञानमतीमुपास्य ससुखं भूत्वा प्रशस्तार्यिका, दीक्षामेत्य च चन्दनादिममती माता भवन्माधुरी ॥ ५१ ॥ मातृ स्वसृषु कामिनी कुमुदिनी शान्तिस्तथा श्रीमती, कैलाशश्च सुभाषसंज्ञक सुधीः भ्राताप्रकाशस्तथा । सर्वेषु त्रिशलायुतेषु सततं सत्सु गृहस्थाश्रमे, ज्ञानज्योतिरिहैधतेऽघहरणं श्रीज्ञानमातुर्महत् ॥ ५२ ॥ यस्या प्रेरणया समेत्य सुमना आचार्यसंघं मुदा, दीक्षामेत्य सुरेश आत्मगुरुतः सद्योऽभवत् क्षुल्लकः । तस्या मातुरधीत्य साधु सुचिरं शमी श्रद्धया, भूत्वा संभवसागराभिध मुनिः सम्मानितः साम्प्रतम् ॥ ५३ ॥ । माता प्रातरुपस्थितं प्रतिदिनं भक्तौद्यमाबोधयत्, मध्याह्ने च तथैव पाठितवती पाठार्थिनः श्रावकान् । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ७२७ सश्रद्धं त्रिशलाकलादिसहितः श्रीवर्धमानो मुनिः, माता चादिमती सहर्षमपठत् श्रीमज्जिनेन्द्रागमम् ॥ ५४ ॥ निर्वाणाख्यमहोत्सवस्य समये दिल्यां भवत्या ध्रुवम्, भाव्यं चादंमलादिभक्तविहितं मत्वेति भव्याग्रहम् । माता मान्यमुनिद्वयेन सहिता संघार्यिकाभिः सह, शीघ्रं व्यावरतो विहारमकरोद् धर्मप्रचारेच्छया ॥ ५५ ॥ जम्बूद्वीपनिमित्तधानन्यने गा दधाना रुचिम्, सर्वे सक्रियतामिता सुमनसः श्री श्यामलालादयः । विद्वत्तापरिपूर्णभापणमियं तत्त्वार्थसूत्रोपरि, माता दत्तवती मनोरमपदैहोरात्रयं प्रत्यहम् ॥ ५६ ॥ धर्मस्थान विलोकनं प्रवचनं स्वाध्यायध्यानादिकं, विद्याभेषजभक्तशोकशमनं संस्थानसंस्थापनम् । भक्तान् तोषयितुश्च पाठनपरं धर्मार्थमुद्बोधनम्, दिल्यामेवाहर्निशं कृतवती माता प्रशस्तं तपः ॥ ५७ ॥ वेदद्वीपनिधीन्दुमानसुखदे श्रीख्रिष्टसंवत्सरे, मासे फाल्गुननाम्नि संघ सहिता मान्या मुनिभ्यां समम् । मायामोहमलं विवेकपयसा प्रक्षालयन्ती नृणाम्, तीर्थ स्वं प्रियहस्तिनापुरमियं दिल्ली पुरादागता ॥ ५८ ॥ तीर्थक्षेत्रविलोकनेन मुदिताः सर्वेऽभवन् साधवः, संघस्थान्यवसन् सुपर्वसमये भक्तास्तथान्ये जनाः । क्षेत्रीयः सचिवोऽपि साकमितरैः साध्यक्षमासीदिह, भक्तैमेरठमण्डलस्य महती संघस्य सेवा कृता ॥ ५९ ॥ चित्रं चारु समीक्ष्य सौम्यमनसस्तत्र स्थिताः श्रावकाः, स्यादेषा रचनात्र शीघ्रमखिला एकस्वरेणावदन् । सूत्साहं समवीक्ष्य धाम च तथा निर्माणयोग्यं महत्, सर्वेषामनुमोदनं कृतवती मादा मुदा तत्क्षणम् ॥ ६० ॥ वाणर्वङ्कखवत्सरे गतवती ख्रिष्टस्य कर्नाटकम्, चातुर्मासनिवाससक्तमनसा पञ्चार्यिकाभिः सह । ध्यानं विन्ध्यगिरौ कृतं यदनया मात्रार्द्धमासात्मकम्, जम्बूद्वीपविचित्ररचना तत्यैव भव्यं फलम् ॥ ६१ ॥ वेदlङ्कखवत्सरेऽतिरुचिरं ख्रिष्टस्य दिल्लीपुरे, श्रीवीरप्रभुभक्तिभावितजनैः सामोदमायोजितः । तनिर्वाणमहोत्सवः समभवत् श्रीरामलीलाङ्गणे, यनामावलोकितः सनियतं पुण्योत्तमः संवृतः ॥ ६२ माताज्ञानमती ततः प्रचलिता मान्यार्यिका संगता, दिव्यं धाम च हस्तिनापुरमिता कर्तुं निजामीप्सितम् । मिण, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८] वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला मूर्तीनां विधिपूर्वकं समभवत् तत्र प्रतिष्ठा पुरे, मातुर्मन्द्रबलं समस्तसुजनैः प्रत्यक्षमालोकितम् ॥ ६३ ॥ साहित्यसृजनेऽनयावनितले या कीर्तिरासादिता, स्वीकुर्वन्ति समेऽपि साधु विबुधा सान्यार्यिकादुर्लभा । ग्रन्थासार्द्धशताधिका बहुविधा विद्वत्सु लब्धादराः, अस्याः संप्रथयन्ति बुद्धिविभवं मातुर्महत्त्वं तथा ॥ ६४ ॥ साहित्य सृजनं समाजभजनं शिष्यौध सम्पादनम्, मोहस्याहरणं प्रकाश करणं मुक्त्यध्वसम्बोधनम् । निर्माणेऽपि रतिश्च भोगविरतिः सर्वे विशिष्टा गुणाः, मातुर्व्यक्तमिदं वदन्ति भुवनं लोकोत्तरत्वं न किम् ॥ ६५ ॥ यस्याः प्रेरणया श्रमेण तपस्या भक्त्या तथा शिक्षया, सान्निध्येन विधानभव्यविधिभिस्तीथै विशिष्टं भवत् । श्री गङ्गातटहस्तिनापुरमिदं नूनं यशो गास्थति, सेयं वर्षशतं सुखं विजयतामित्थं प्रभुं प्रार्थये ॥ ६६ ॥ अथायं संक्षेपतः कविपरिचयः - एटाजनपदे गङ्गातीरे गऊपुराभिधः । प्रामस्तत्राभवद्विप्रो, जोखीरामो महोदयः ॥ १ ॥ तस्य ज्येष्ठः सुतो जातश्चुन्नीलालो महामनाः । सन्ति तस्य सुताः पञ्च, विद्याविनयभूषिताः ॥ २॥ शिक्षकः सुरभाषायाः, प्राचार्य पदमाश्रितः । रामकिशोरशर्माहं, तेषु ज्येष्ठोऽस्मि पञ्चसु ॥ ३ ॥ श्री सोबरनसिंहाख्यः, प्राध्यापकप्रचोदितः । कविताशक्तिहीनोऽपि, साहसं कृतवान् महत् ॥ ४ ॥ तस्यैवास्ति फलं भव्यं श्रीमातुःकुसुमाञ्जलिः । भक्तानां सुखदा भूयाद्, एतदर्थं प्रभुं भजे ॥ ५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "युग की प्रथम साहित्य निर्मात्री" सन् १९७४, लालमंदिर दिल्ली में आचार्यश्री धर्मसागर महाराज संघ के साथ चातुर्मास स्थापना करती हुई पूज्य माताजी। सन् १९७४ जैन बालाश्रम दरियागंज दिल्ली में अष्टसहस्री ग्रंथ का विमोचन करते हुए दिल्ली के उपराज्यपाल श्री कृष्णचंद्र जी। उन्हें ग्रंथ भेंट किया ग्रंथ के द्रव्य प्रदाता श्री सुरेन्द्र कुमार रानीवाला । बाई तरफ बैठे हैं-राज्यपाल श्री जयसुखलाल हाथी एवं पीछे दिख रहे हैं-श्री प्रेमचंद जैन होटल शाकाहार। विमोचित कृति अष्टसहस्री को आचार्यश्री धर्मसागर महाराज के करकमलों में भेंट करती हुई ज्ञानमती माताजी। सन् १९७३, जैसिंहपुरा राजाबाजार दि. जैन मंदिर नई दिल्ली में पूज्य माताजी से प्रभावित होकर पधारे श्री कानजी भाई। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ऐतिहासिक प्रशिक्षण शिविर जिसमें चोटी के विद्वानों ने भाग लिया" ये पुज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जौ । क सानिध्य में, हस्तिनापुर में | शिविर भव्य आयोजन अक्टूबर से १६ अक्टूबर ७८ तक अक्टूबर, १९७८ हस्तिनापुर में ऐतिहासिक प्रशिक्षण शिविर। शिविर के उद्घाटन में दीप प्रज्वलित कर रहे श्री जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार, दिल्ली तथा समापन अवसर पर भाषण करते हुए श्री नीरज जैन, सतना। अक्टूबर सन् १९८० दरियागज जैन बालाश्रम में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर के उद्घाटन का एक दृश्य। मंच पर बैठे हैं बाएं से दाएं- लाला श्री श्यामलाल ठेकेदार, लाला सुमत प्रकाश जी, सेठ श्री हीरालाल रानीवाला, श्री शीलचंद जौहरी, पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, श्री पन्नालाल गंगवाल तथा प्रवचन करते हुए पं. मोतीचंद कोठारी । श्री शरद जैन केपी सानिध्य में हमें प्रशिक्षण शिविर भव्य आयोजन प्रशिक्षण शिविर में पधारे विद्वानों का समूह। पंडित श्री मक्खनलाल शास्त्री, मोरेना, पं. श्री मोतीचंद कोठारी, फलटण, पं. श्री बाबूलाल जी जमादार, पं. श्री विमलकुमार सोरया आदि । For Personal and Private Use Only Jain Educationa International . Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी के सानिध्य में दिल्ली में सम्पन्न कार्यक्रमों की झलकियाँ २७ मई, १९८० कूचा बुलाकी बेगम दिल्ली में सम्यग्ज्ञान शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर के उद्घाटन में दीप प्रज्वलित कर रहे हैं सुरेश चंद जैन, डिरीगंज, दिल्ली। सामने बैठे हैं शिविर के कुलपति पं. श्री हेमचंद जैन, अजमेर। शिविर उद्घाटन के समय पूज्य माताजी द्वारा रचित "रत्नकरण्ड पद्यावली" का विमोचन करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार श्री लखमीचंद जैन भारतीय ज्ञानपीठ। सभा में बैठी हैं-दिल्ली की जानी-मानी कर्मठ महिला श्रीमती जयमाला जैन मातेश्वरी डा. एस.के. जैन, नेत्र विशेषज्ञ । नवम्बर, १९८० दरियागंज जैन बालाश्रम दिल्ली में इन्द्रध्वज विधान करते हुए श्री राजेन्द्र प्रसाद जैन कम्मोजी सपत्नीक श्री चक्रेश कुमार जैन, सुरेशचंद जैन आदि सपरिवार । अगस्त १९८०, कूचा बुलाकी बेगम दिल्ली की जैन धर्मशाला में इन्द्रध्वज विधान करते हुए श्री पन्नालाल सेठी सपत्नीक एवं श्री विपिन चंद जैन सप्तनीक पहाड़ी धीरज। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ज्ञानमती बन ज्योति जलाई जिनने सम्यग्ज्ञान की" State श्री भारतवर्षीय शांतिवीर दिल्जैन सिद्धान्त संरक्षिणीसभाकेतत्वावधान एवं सिद्धान्त वावपति न्यायपमानन आधिकारन श्रीज्ञानमती मातानीके सानिध्य में आयोजित शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर BOY23 सि०से 30 सितक) जैन बाल आश्रम दरिया गंज नई दिल्ली शिविर में भाग लेने वाली कतिपय महिलाओं एवं बालिकाओं का समूह। श्री भारतवर्षयि शांतिवीर दिल्जैन सिद्धान्तसंरक्षिणीसभाकेतत्वावधान स्वं सिद्धान्त वावपति न्यायशाकर आर्यिकारलश्रीज्ञानमती माता के सानिध्य में आयोजित शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर 28 सि०से 30 सितक) जैन बाल आश्रम दरियागंज नई दिल्ली दरियागंज नई दिल्ली में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाले विद्वान तथा श्रेष्ठियों का ग्रुप। बीच में हैं पूज्य माताजी ससंघ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सुदर्शनमेरु पंचकल्याणक की कुछ झलकियाँ" अप्रैल, मई १९७९ सुदर्शनमेरु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर परम पूज्य आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर महाराज अपना आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के साथ आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज की संघस्थ आर्यिका श्री अरहमती माताजी एवं आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में प्रथम बार गजरथ महामहोत्सव सन् १९७९ पंचकल्याणक महोत्सव के पश्चात् हस्तिनापुर में निकाला गया। प्रतिष्ठा के सौधर्म इन्द्र श्री हरखचंद जी सरावगी सुमेरु पर्वत पर जन्माभिषेक के लिए श्रीजी को ले जाते हुए। उनके आजू-बाजू हैं श्री विजेन्द्र कुमार जैन, दिल्ली एवं श्री जिनेन्द्र प्रसाद जैन ठेकेदार, दिल्ली। सुमेरु पर्वत की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय पूजन कर रहे इन्द्र-इन्द्राणी। मंडल के दाईं ओर खड़े हैं प्रतिष्ठा के सौधर्म इन्द्र श्री हरकचंद जी, सरावगी, सपत्नीक-कलकत्ता एवं उनकी पुत्र वधुएं । बाईं ओर खडणे हैं श्री नागरमल जी जैन कलकत्ता सपत्नीक एवं श्री मदनलाल जी चाँदवाड़-सपत्नीक, रामगंज मंडी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "विविध समारोह की झलकियाँ" प्रतिष्ठा महोत्सव का उद्घाटन करने हेतु पधारे उत्तरप्रदेश के विद्युतमंत्री श्री रेवतीरमण जी। बाएं से बैठे हैं श्री कैलाशचंद जैन, सरधना, महामंत्री जम्बूद्वीप, श्री हुकुमचंद जैन, सरधना, श्री हरीन्द्र अग्रवाल एवं श्री शिखरचंद, ११ नवम्बर सन् १९७९ जैनबालाश्रम दरियागंज दिल्ली में जैन अनाथाश्रम के हीरक जयंती के अवसर पर भाजपा नेता श्री अटलबिहारी बाजपेयी पूज्य माताजी से आशीर्वाद लेते हुए। हीरक जयंती के अवसर पर श्री केदारनाथ साहनी महापौर दिल्ली. पूज्य माताजी से आशीर्वाद लेते हुए। पूज्य पिकातरवज्ञानमते मत है। दयाराम विधानमनै मलाई Crimegranth orm.rettes मिन्स पद उद्योगपति साह श्री श्रेयांस प्रसाद जैन एवं श्री अशोक कुमार जैन के कर कमलों से सम्पय। मी १६०० 6. 4 rana उद्योगपति माह श्री पेयर प्रमाद जैन एड रोक कुमार जैन के कर कमलों में सम्पन्न । Neer- n. ३१ जनवरी, १९८० को हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना के द्वितीय चरण का शिलान्यास करते हुए साहू श्री अशोक कुमार जैन, प्रसिद्ध उद्योगपति साहू श्री श्रेयांस प्रसाद जैन, दिल्ली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jamenorary.org Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिनकी प्रेरणा वरदान बन गई" दिनांक १२.२.७६ को हस्तिनापुर में सुमेरु पर्वत की नींव में लगाए गए भारी लौह जाल का अवलोकन करती हुई पूज्य माताजी। सन् १९७९ में सुमेरु पर्वत की चोटी पर पहुँचने के लिए आधुनिक शैली में बनाई गई ऊँची मचान का एक दृश्य । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मेरु सुदर्शन महातीर्थ को नितप्रति शीश झुकाते हैं" सन् १९८५ में जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव के समय उत्तरप्रदेश सरकार के द्वारा अभिषेक करने वालों की सुविधा के लिए बनाई गई सुंदर पैड। चिंतन मुद्रा में खड़ी पूज्य माताजी सुमेरु पर्वत की छाँव में। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International श्री ज्ञानमती माताजी युग की पहली बालसती आर्यिका सन् १९६९ में पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी For Personal and Private Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कु. मैना एवं उनके माता-पिता) Jain Educationa International ब्र. कु. मैना के रूप में श्री ज्ञानमती माताजी, ८ नवम्बर, १९५२ को बाराबंकी में । माता मोहिनी देवी श्री ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री। पिता श्री छोटेलाल जी श्री ज्ञानमती माताजी के जनक । For Personal and Private Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सब छोड़ कुटुम्ब परिवार अथिरसंसार मोह का नाता" ८ नवम्बर, १९५२ बाराबंकी ब्र. कु, मैना के साथ उनके पारिवारिकजन बाएं से दाएं है-कु, मनोवती (वर्तमान में आर्यिका श्री अभयमती जी), दो वर्षीय भाई रवीन्द्र जैन, माँ मोहिनी गोद में कन्या मालती को लिए हुए, पिता छोटेलाल जी, कु. शांती देवी, कु, श्रीमती, कु. कुमुदनी, प्रकाशचंद एवं सुभाष चंद जैन। HIMINA सन् १९६९ श्री महावीरजी क्षेत्र पर श्री अभयमती माताजी की आर्यिका दीक्षा के पश्चात् पूर्व परिवार के मध्य बीचोंबीच विराजमान हैं—पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी एवं अभयमती माताजी उनके आजू-बाजू हैं-पिता श्री छोटेलाल जी एवं माता मोहिनी जी। पीछे पंक्ति में बाएं से दाएं हैं-सौ. कुमुदनी जैन (बहन), कु, मालती (बहन), श्री कैलाशचंद जी (भाई), जम्बकुमार (भतीजा), सौ. चंदारानी (भाभी) दोनों माताओं के बीच में है बालिका अंजू (भतीजी), किनारे खड़ा है बालक संजय (भानजा)। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International "आंध्र प्रदेश में प्रथम दीक्षा" SEAR (90) सन् १९६४ में दीक्षार्थी ब्र. मनोवती जी के स्वागत का जुलूस, साथ में हैं गाँधी टोपी वाले भाई कैलाशचंद जी । 000 क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान करने हेतु ब्र. मनोवती का सभा में केशलोंच करती हुई श्री ज्ञानमती माताजी। For Personal and Private Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "माताओं के लिए अनुकरणीय आदर्श" सन् १९७१ अजमेर में माता मोहिनी की दीक्षा के समय उपस्थित समस्त परिवार । दो अन्य दीक्षार्थी के मध्य में दीक्षार्थी माता मोहिनी जी एक शोभायात्रा में। For Personal and Private Use Only Jain Educationa international Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आर्यिका संघ विभिन्न नगरों में " टिकैतनगर दिगम्बर जैन मंदिर का सिंहद्वार। सन् १९६६ सोलापुर (महाराष्ट्र) के श्राविकाश्रम में आर्यिका संघ का चातुर्मास दाएं खड़ी हैं - ब्र. पद्मश्री १९६२ में सम्मेदशिखर यात्रा के मध्य पटना में आर्यिका संघ सहित श्री ज्ञानमती माताजी । सुमतिबाई शहा और दाहिने हैं— पं. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री । Jain Educationa International सन् १९६७ सनावद (म.प्र.) चातुर्मास में आर्यिका संघ बाएं से हैं— क्षुल्लिका श्री श्रेयांसमती जी, आर्यिका श्री जिनमती जी, आर्यिका श्री पद्मावती जी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती जी एवं क्षुल्लिका श्री अभयमती जी। For Personal and Private Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "माता की माता बनीं ज्ञानमती जी मात" अपनी माता का केशलोंच करती हुई श्री ज्ञानमती माताजी । Jain Educationa International अजमेर में मृगशिर कृ. तीज सन् १९७१ को माता मोहिनी को आर्यिका दीक्षा प्रदान करते हुए पूज्य आचार्य : धर्मसागर महाराज । अजमेर में नवदीक्षित आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के साथ पूज्य ज्ञानमती माताजी एवं अभयमती माताजी। सन् १९७३ दिल्ली नजफगढ़ चातुर्मास में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के साथ श्री रत्नमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती माताजी एवं आर्यिका श्री श्रेष्ठमती माताजी। For Personal and Private Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ददाति यत्तुयस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः" सन् १९७२, नागौर (राज.) में ब्र. श्री रवीन्द्र जी पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के द्वारा आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करते हुए। पहाड़ी धीरज दिल्ली में सन् १९७२ में शरदपूर्णिमा को माताजी के ३९वें जन्मदिवस पर आरती करती हुई संघस्थ ब्र. सुशीला एवं ब्र.छुहारा देवी। सन् १९७३ में श्री दिगम्बर जैन लाल मंदिर चांदनी चौक दिल्ली में माताजी संघ सानिध्य में श्री जितेन्द्र कमार जैन सिद्धचक्र मंडल विधान करते हुए। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नारी की गरिमा नारायण से बढ़कर बतलाई" भगवान बाहुबली सहस्राब्दी महामस्तकाभिषेक महोत्सव के मध्य श्रवणबेलगोला में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अधिवेशन में साहू श्रेयांस प्रसाद जी जैन अपने विचार व्यक्त करते हए. मंच पर बैठे हैं श्री रमेशचंद जैन, पी.एस. जैन मोटर्स दिल्ली, ताराचंद प्रेमी, श्री अमरचंद पहाड़िया, श्री पूनमचंद गंगवाल, श्री उम्मेदमल पांड्या, श्री पन्नालाल सेठी, श्री त्रिलोकचंद कोठारी, श्री हरखचंद सरावगी, श्री माणिकचंद गांधी, श्री सरसेठ भागचंद सोनी, श्री निर्मल कुमार सेठी आदि तथा अपना आशीर्वाद देने पधारे थे आचार्यरत्न श्री विमलसागर जी महाराज, आचार्य सीमंधर सागर जी महाराज, स्वस्ति श्री भट्टारक जी एवं अनेक त्यागीगण-२३ फरवरी, १९८१ । जम्बूद्वीप स्थल पर १० मई, १९८२ रत्नत्रयनिलय का शिलान्यास करते हुए लाला उग्रसेन हेमचंद जैन, नई दिल्ली। यादव अर्यिकार : श्रीजामती माताजीकावा जन्मदिवसलाके शरद पूर्णिमा-८-१0-7000 माताजी का ४३वां जन्मजयंती समारोह खतौली में ८.१०.१९७६ । हस्तिनापूर तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री श्री सुकुमार चंद जैन पूज्य माताजी से चर्चा वार्ता करते हुए तीर्थकर मासिक पत्रिका के संपादक श्री नेमीचंद जैन, इंदौर पूजन के विषय पर पूज्य माताजी का साक्षात्कार कर रहे हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.iainelibrary.org Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जिनकी तपोभूमि में खिलता रहता सदा चमन है" अक्टूबर सन् १९८२ में दिल्ली में आयोजित जम्बूद्वीप सेमिनार में पधारे देश विदेश के विद्वान् प्रोफेसर । २७ नवम्बर, १९८५ को जम्बूद्वीप पारमार्थिक औषधालय के उद्घाटन अवसर पर दीप प्रज्वलित करती हुई डा. विनीता गर्ग, मवाना । जम्बूद्वीप औषधालय के प्रथम वैद्य श्री सुखवीरदत्त शर्मा का स्वागत करते हुए ब. रवीन्द्र जी। पूज्य माताजी को जाहार देते हुए श्री सुभाषचंद जैन सपत्नीक, टिकैतनगर शास्त्री परिषद की ओर से डा. लालबहादुर शास्त्री को श्रीफूलचंद सेठी पुरस्कार प्रदान करते हुए पं. श्री बाबूलाल जी जमादार। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद बने दो प्रधानमंत्री " Jain Educationa International फिक्की ऑडीटोरियम दिल्ली में आयोजित जम्बूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन करने पधारे श्री राजीव गांधी पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए ३१ अक्टूबर, १९८२ । €) श्री पी. वी. नरसिंहाराव २८ अप्रैल, १९८५ को हस्तिनापुर में आयोजित जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के अवसर पर पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करते हुए। For Personal and Private Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “विभिन्न समारोह में पधारे राजनेता' जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मंच पर भारत सरकार के तत्कालीन रक्षामंत्री श्री पी.वी. नरसिंहाराव जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की अखंड स्थापना के लिए पधारे पी.वी. नरसिंहाराव। प्रथम पंक्ति में खड़े हैं बाएं से दाएं श्री गणेशीलाल जी रानीवाला कोटा, टिकैतनगर, ब्र. मोतीचंद जैन, श्री जे.के. जैन, मंत्रीजी, दीपकुमार-रोहतक, विजेन्द्र कुमार सर्राफ जैन, दिल्ली-२८ अप्रैल, १९८५. को जम्बूद्वीप अंकित रजत प्लेट प्रदान की जा रही है-२८.४.१९८५ । प्रत्यगणिनी आर्थिकारलीज्ञानमती माताजी एवं पीताधीश मुत्तकधी मोतीसागर जी केमि कमल मंदिर का उद्घाट उ.प्र.के महामहिम राज्यपाल श्री बी सत्यनारा करकमलों से जम्बूद्वीय सहामहोत्सव के शुभ अवसर पर बजुक्ला र वि.सं.काय विचौक मई 186- सम इ.स्वीन्द्र कुमार जैनग शीलाल सनीच दिगम्बर जैन सिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) कमल मंदिर का उद्घाटन करते हुए उत्तर प्रदेश के महामहिम राज्यपाल श्री बी, सत्यनारायण रेड्डी पूज्य माताजी के ५८वें जन्मदिवस पर सरधना में आयोजित समारोह में आशीर्वाद लेते हुए डा. मुरली मनोहर जोशी, राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी–२३.१०.१९९१ । पूज्य माताजी के ५६वें जन्मदिवस पर समारोह में पधारे सांसद श्री रामचन्द्र विकल जम्बूद्वीप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी द्वारा अनुवादित अष्टसहस्री का हस्तलेख सन् १९७० - टोडारायसिंह ॐ नम: सिरन्यः कापी अ. 236 नं. अघ अष्ठ-परिच्छेदः कारिका पुष्यदकलंकवृत्ति समंतमद्रप्रणीत वाम । निर्जितदुर्णघनादा-मष्टसाप्तीमवैति सदृायः ॥ अप- अकलंक- निषअको पुष्ट कले लाली अघवा अनलंब देनले द्वारा रचित अष्ट शती कामक्रीटीया को पुष्ट कानेवाली एवं समंत भद केल्याणस्वरूप तल्लोअर्धमागधन कानेवाली अपना श्रीसमंतभद्रस्वामी द्वारा रचित देवाशन लोन सेतो जय का प्रतिपादन नेवाली इस अष्टमहसी नामकी टीका सो सम्माष्टिजा दुर्णधबाद को जीतने वाती समान है। कारिक वी. सिक देवत: सर्वन प्रत्यवादितो गतिः । तिबेदागमात्सर्व विरूदाधमतान्यपि ॥er Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी द्वारा रचित सहस्रनाम स्तोत्र के मंत्र का हस्तलेख ८१. ॐ मनमः . ॐ महा नौनिने -भः (32महाभानिने मः . ॐहीमचा भाभनमः (५) ॐ दक्ष माय म: (ईमा लामन्म: (७) ॐ महायजामनमः (* महा मरणासनमः (६) ॐ मदतपतम नमः ८९. मरमाथ-भ: ( ११ ॐ का कातिचरायनमः ८१) अधिपामन्म (207ॐनभित्री मधामनमः०४* मधाम -भ: ८१५ महेपत्मायनः ८१८ म मा नाम: ( १७ मा कारूणिकायनमः(१८) ॐईन ( १६ मात्रामनमः ८२. 28 मता मतम नम: (२. ॐ महानाया मनमः (०३ श्रीमदा घोषामनमः (२३) ॐदी महेज्यामनमः ८२४ ॐ सांपत नं: ( २५) ॐ महावर मनमः ८२६) ॐदी मन: (१०हामहो दार्माभनमः २८ॐ'मोटाम 1. २१. ॐ दानदात्मने नम: ८३०-ॐ भासा भर (33) महर्षभः ८323ॐीमहि तो मा भन्भ: (37ीनमालाकु शशाधनमा ८२५ शूरामभ ( 343 ॐ महा मत पत्येनमः (३६) ॐ हरये नमः (31008 महा पराकमाय नम: (32) ॐ अनन्य नम: 134 नहीच रिपवे नमः (५५. ॐ शिने नम: Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पद्रुम मण्डल विधान की रचना का पूज्य माताजी का हस्तलेख १५ - ७ -- ८६ १९८६ हस्तिनापुर भा. १) 1-10 . (इ) - 14 27 -। अप्रस्यापा .५५ - प्रास14011ncी , qicnic । पा-- 4-1 प्रसाए 3a, rana, " _chalant at 11 से ये जिते । जि.4 0 प्रतिnishal, 100 पूजें ॥१॥ ही विशतितीसावताणाप्राहा finiबाम जिन दिएजिन प्रतितासमूह। 11 जब अ tival ही . . . मत्र तिष्ठ तिष्ठ 6: 8: भाप । ही . . अब मान सन्निहितो rama Ae लालची | । मष्टक भुमा प्रय।। ६८ पयो 12 को Live । It Duel i) बदाम ॥ जयं भवा ।।५।१ । inा । स hai ( ?.. ॐही प्रrinainaC प्रतितायो .ci... लिसा लिया है। -au/add tv सोय हो है ॥ जज ॥2॥ ॐ ही माता भूबिय निज प्रतिय: चंदन.. यू लि त दल १५ भाल लाया । 16पुंज सन्मुल प्रभू को शिघ्रा " जणू . ॥3॥ ही .... अात... Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी द्वारा रचित नियमासार प्राभृत की संस्कृत टीका का हस्तलेख सन् १९७८ हस्तिनापुर चैत2.१२ ५.४ अय सूत्रस्य पूर्वाधन सनद जीवच रुपं उत्तरार्धन -च शालोपभागमा विरूपयितुसामा बुवन्त्या चाया: --- जीवो उवमोगमओ उवओगो णा) 41ो हो । "णाणुवजोगो दुनिचे सहावणाण विभाव Cror ति? जीवो जवसागभो-जीवः उपयो । उवलोमणे णाणदसणे टो-उपयोग: शाददगं भवति । णाणुवसओगो विधे सहाव गाणं विधावणाण ति-ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञान विभाव झानं इति तावत डियाकााक संबंधः । ... तनया -- आफ्याभ्यन्ताहय सन्निप्याने यमाप्तमा भुपाब्येतन्यानीधा - यी पीणा उपयोग, सजीवस्य हामणं वो पय इति । परम्पाव्यति को सति येनान्यत्वं लक्ष्य ते तल्लामणं' स्वादात्मभूतं बवि अमेरीप्रयमिव । वो गुणी धर्माचा अयं उपयोगो गुणो यो वा इति राज्ययोग ट्रेप्पा जाटोपयशो दर्शनोपयोगश्य, । अत्र ज्ञानोपयोगो मुख्यरूपेण विविधः, स्वावविभावभेदाता । अनमोलवण सूत्रह भेग सूचन्ति स्वमं गन्यमाः । मनपि 'आ निगोदजीवात सिदाशि मावत सर्व जीवा: सामान्मेव ज्ञालदर्शवावभावास्तप्रापि विशेषापतया मिक्यात्व गणयालझत पीणचाय पर्धन्ता विभावतान निवन्त: , दात: पो स्वभाव हावदर्शणनगत एव ।अपवा निम्यन्येन सवे जीवा : स्वभावदागपशनिपयोगमया: सन्तोऽपि अशान्येन संसारिणो' विप्रावतार दशना - म्या परिणता एव तप्ताया पिवतः । Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educatioina International For Po www.anebry.org Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationalitematica rary.org