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यदि मध्याह्न १२.१५ बजे सामायिक पूर्ण हो जाती तो अनुवाद लिखने बैठ जातीं। इसमें माताजी को नये विषयों को पढ़ने-लिखने में आनंद भी आता था और यह भावना थी कि इस अनुवाद को पूरा करके ही छोड़ना है बीच में अधूरा नहीं छोड़ना है। यही कारण है कि अपनी आवश्यक क्रियाओं को करते हुये, ४-५ घण्टे तक साधुवर्ग को ऊंचे-ऊंचे ग्रंथों का अध्ययन कराते हुए पुनः ४-५ घंटे अनुवाद कार्य करते हुए माताजी को थकान महसूस नहीं होती थी । वास्तव में "ज्ञानामृत" भोजन आत्मा को बहुत ही पुष्टि तुष्टि प्रदान करने वाला है। यह माताजी का स्वयं का अपना अनुभव है ।
गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
अष्टसहस्त्री प्रकाशन :
यह अष्टसहस्त्री ग्रन्थ अनुवाद सहित तीन भागों में प्रकाशित है। प्रथम भाग में ४४४ पृष्ठ हैं। छह कारिकायें हैं, एक सौ इक्यासी शीर्षक हैं, भावार्थ और विशेषार्थ एक सौ सत्रह हैं और सारांश तेरह हैं। द्वितीय भाग में ४२४ पेज हैं। इसमें प्रथम परिच्छेद पूर्ण किया गया है अतः इसमें सत्रह कारिकायें हैं, एक सौ चार शीर्षक हैं, एक सौ उनंचास भावार्थ - विशेषार्थ हैं और सत्रह सारांश हैं। तृतीय भाग में ६०८ पेज हैं। इसमें द्वितीय से दशम परिच्छेद तक ग्रंथ पूर्ण हो गया है, अतः इसमें इक्यानवें कारिकायें हैं, एक सौ साठ शीर्षक है, इक्यावन भावार्थ- विशेषार्थ हैं और इकतीस सारांश हैं। इस प्रकार इस पूरे ग्रन्थ में एक सौ चौदह कारिकायें हैं, चार सौ पैंतालीस शीर्षक तीन सौ सत्रह भावार्थ-विशेषार्थ और इकसठ सारांश है कारिकाओं का पद्यानुवाद भी चौबोल छंद में पूज्य माताजी द्वारा रचित है।
मंगलाचरण करते हुए चौबीस श्लोकों में माताजी ने भूमिका बनाई है जिसमें सत्रहवां श्लोक इस प्रकार है
स्याद्वादचिंतामणिनामधेया, टीका मयेयं क्रियतेऽल्पबुद्धया ।
चिंतामणिः चिंतितवस्तुदाने, सम्यक्त्वशुद्धयै भवतात् सदा मे ।। १७ ।।
पूज्य माताजी कई बार बतलाया करती हैं कि इस क्लिष्ट न्याय ग्रंथ का अनुवाद करते समय मुझे जितना आनंद प्राप्त हुआ है और जितनी सम्यक्त्व की विशुद्धि हुई है वह मेरे ही अनुभव गम्य है उसका वर्णन लेखनी द्वारा या वचनों द्वारा संभव ही नहीं है। इसमें जो शीर्षक हैं उन्हें माताजी ने प्रकरण के अनुसार बनाया है तथा कोष्ठक में इसीलिये रखा है कि जिससे वे मूल ग्रंथ के अंग न बन जावें ।
उसका एक नमूना देखिये, प्रथम भाग में पृ० २६० पर
श्री अकलंकदेव ने अहराती भाष्य में कहा है
(अधुना मीमांसकाभिमत सर्वशाभावस्य मीमांसां कुर्वन्ति जैनाचार्याः 1) कुछ भावार्थ आदि के नमूने देखिये "देवागमेत्यादिमंडलपुरस्सर श्रद्धागुणज्ञातालक्षणं प्रयोजनमाक्षिप्तं लक्ष्यते।" इसका भावार्थ देखिये -
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"इस ग्रंथ में आप्त- अर्हत भगवान की परीक्षा करने में श्रद्धा और गुणज्ञाता ये दो ही प्रयोजन मुख्य हैं। यदि हमारे में श्रद्धा और भगवान के गुणों का ज्ञान नहीं है तो कथमपि उनको परीक्षा नहीं की जा सकती है। यदि श्रद्धा या गुणज्ञाता इन दोनों गुणों में से एक गुण नहीं हो तो भी आप्त की परीक्षा नहीं हो सकती है। इस कथन से यह भी जाना जाता है कि श्री समंतभद्रस्वामी भगवान के गुणों में विशेष रूप से अनुरक्त हो करके ही व्यंग्यात्मक शैली से आप्त की परीक्षा के बहाने से उनके महान गुणों की स्तुति कर रहे हैं। इससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि जो व्यक्ति किसी देव शास्त्र या गुरुओं की परीक्षा को करने में रुचि रखते हैं उन्हें श्रद्धालु एवं गुणग्राही होना चाहिए, न कि अश्रद्धालु या दोषज्ञ।"
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वेद को अपौरुषेय मानने पर उसके खंडन का विस्तृत विशेषार्थ दिया गया है। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखो, "उन वेदों के व्याख्यान करने वाले अल्पज्ञ हैं या सर्वज्ञ ? सर्वज्ञरूप पक्ष तो आपको अनिष्ट ही है एवं अल्पज्ञ को वेद का व्याख्याता मानने से तो अन्यथा - विपरीत अर्थ की भी संभावना हो सकती है।" इत्यादि
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प्रथम भाग पृ० २३२ पर जो विशेषार्थ है उसमें विज्ञानाद्वैतवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्याद्वैतवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, शब्दाद्वैतवाद, इनके लक्षण दे-देकर इनका अच्छा खंडन किया गया है। किंचित् नमूना देखिये- "यदि आप जगत् को शब्दरूप मानते हो तब तो यह भी प्रश्न होता है कि यह शब्दब्रह्म जगत्रूप परिणत होता है, तब अपने स्वभाव को छोड़कर होता है या बिना छोड़े ? यदि छोड़कर कहो तो शब्दब्रह्म अनादिनिधन कहां रहा ? यदि शब्द अपने स्वभाव को छोड़े बिना भी जगत्रूप होता है तब तो बहिरे को, एकेन्द्रिय आदि को, और तो क्या पत्थर को भी सुनाई देना चाहिये,, क्योंकि सभी चेतन-अचेतन पदार्थ शब्दब्रहम से तन्मय हो तो हैं, किंतु ऐसा दिखता तो है नहीं इत्यादि ।
प्रथम भाग पृ० २५० के भावार्थ में इन्द्रियों के भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रियों के लक्षण को तत्त्वार्थसूत्र के आधार से खुलासा किया है। प्रथम भाग के पृ० २९२ पर भावार्थ में "अमूर्तिक आत्मा का मूर्तिमान कर्मों से पराजित होना स्पष्ट है इस बात को तत्त्वार्थराजवार्तिक, द्रव्यसंग्रह ग्रंथ से सिद्ध किया है।
मूल में अष्टशती पंक्ति देखिये
१- अष्टसहस्त्री भाग-१, पृष्ठ- १० २ अष्टसहस्त्री भाग-१, पृ० १७८
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