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"यस्य हानिरतिशयवती तस्य कुतश्चित्सर्वात्मना व्यावृत्ति, यथा बुद्धयादिगुणस्याम्नः
" जिसकी हानि अतिशयरूप से है उसका कहीं न कहीं परिपूर्णरूप से अभाव पाया ही जाता है। जैसे कि पाषाण में बुद्धि आदि (प्राणों) का सर्वथा अभाव पाया जाता है।
प्रथम भाग के पृ० ३०० पर जो भावार्थ है उसमें मिट्टी के ढेले को सर्वधा निर्जीव सिद्ध किया है। इसमें तत्त्वार्थवार्तिक के आधार से पृथ्वी पृथ्वीकाय, पृथ्वीकायिक एवं पृथ्वीजीव ऐसे प्रत्येक स्थावर के चार-चार भेद बतलाकर पृथ्वीकाय-मिट्टी के ढेले को निर्जीव बतलाया है। इससे जो पृथ्वी या पत्थर के कण-कण में जीव मानते हैं उनको अपनी श्रद्धा आगमानुकूल बनानी चाहिये ।
अभव्य जीवों में मिथ्यात्वादि का परम प्रकर्ष है
वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
(प्र०भा०१० ३१४)
इस प्रकरण में विशेषार्थ में माताजी ने तत्त्वार्थराजवार्तिक के प्रमाण उद्धृत कर अभव्यों में भी शक्तिरूप में मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान सिद्ध किया है हो इन अभव्यों में इनकी व्यक्ति प्रकटता नहीं हो सकती है यही भव्यों से अभव्यों में अंतर है, इत्यादि प्रथम भाग पृ० ३१९
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के भावार्थ में तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार के आधार से सर्वज्ञ भगवान धर्म को भी जानते है इत्यादि सिद्ध किया है।
द्वितीय भाग में पृ० ७६ पर विशेषार्थ में "प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव, इन चारों अभावों का अच्छा खुलासा किया है इसी ग्रन्थ में पृ० १५२ पर शब्दों को नित्य एवं सर्वव्यापी मानने वाले मीमांसक की मान्यता का अच्छा निराकरण है।
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सारांश में सरलीकरण
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सारांशों में विषय को बहुत ही सरल किया गया है। इन सारांशों को पढ़कर ही हम ब्रह्मचारी विद्यार्थियों ने अष्टसहस्त्री का रहस्य समझकर सोलापुर परीक्षालय के शास्त्रीखंड की परीक्षा देकर उत्तीर्णता प्राप्त की है। इसी से इन सारांशों का महत्त्व समझ में आ जाता है एक उदाहरण देखिये "नैयायिकाभिमते शब्दनित्यत्व का सारांश"
नैयायिक शब्द को अमूर्तिक आकाश का गुण अमूर्तिक ही मानता है। उनका कहना है कि शब्द पुद्गल का स्वभाव नहीं है क्योंकि उसका स्पर्श नहीं पाया जाता है . .। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि शब्द पुद्गल की ही पर्याय है अतः मूर्तिक हैं . शब्द से प्रतिघात भी देखा जाता है। कोई मोटी एवं कड़ी पूड़ी रखा रहा है उसके कुड़कुड़ शब्दों से प्रायः प्रतिघात देखा जाता है एवं भवन भित्ति आदि से भी प्रतिघात देखा जाता है । इत्यादि।" (अष्टसहस्री द्वितीय भाग पृ० १७३ )
इसी प्रकार "इतरेतराभाव के सारांश में सत्ता में भी "तिष्ठति" आदि प्रकार से ८१ भेद करने का स्पष्टीकरण है। पुनरपि 'इतरेतराभाव और अत्यंताभाव' की सिद्धि का जो सारांश है उसमें अतीव सरलता से "इतरेतराभाव" और "अत्यन्ताभाव" को दिखाया है (द्वि० भा० ० २१४ से २२० तक)
पद्यानुवाद
इस ग्रन्थ की मूल कारिकायें ११४ हैं, उनका पद्यानुवाद पूज्य माताजी ने सन् १९७१ में ब्यावर (राजस्थान) में किया था। फिर भी अष्टसहस्त्री प्रथम भाग के प्रथम संस्करण में जो कि सन् १९७२ से ही छपना शुरू हो गया था उसमें देना रह गया। पुनः अभी सन् १९८९ में प्रथम भाग का द्वितीय संस्करण एवं द्वितीय भाग छपा उसमें भी पद्यानुवाद देना रह गया। अतः दोनों ग्रंथों की प्रस्तावना में कारिका सहित पद्यानुवाद दे दिया है। तृतीय भाग में कारिकाओं के साथ ही पद्यानुवाद दे दिया है। यह पद्यानुवाद चौबोल छंद में है जो कि कारिका के मर्म को बहुत ही स्पष्ट कर रहा है। देखिये
यथा
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तीर्थकृत्समयानांच, परस्परविरोधतः ।
सर्वेषामापतता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरूः ॥ ३ ॥ सभी मतों में सभी तीर्थकृत्, के आगम में दिखे विरोध । सभी आप्त सच्चे परमेश्वर, नहिं हो सकते अतः जिनेश ।
मंगलश्लोक :
प्रत्येक परिच्छेद के प्रारंभ में माताजी ने मंगलाचरण हेतु संस्कृत श्लोक बनाया है। इसे श्री विद्यानंदसूरी के "मंगलश्लोक" के पहले दिया है।
इन सब में से कोई एक ही, आप्त- सत्यगुरू हो सकता । चित् सर्वज्ञदेव परमात्मा, सत्व हितंकर जग भर्ता ॥ ३ ॥
अद्वैतद्वैतनिर्मुक्तं, शुद्धात्मनि प्रतिष्ठितं ।
ज्ञानैकत्वं परं प्राप्त्यै नुमः स्याद्वादनायकम् ।। १ ।। [तृ०भा० पृ० १]
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