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________________ ३९४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आगे इसी प्रकार मानो भगवान के प्रश्नों का उत्तर देकर नाना वैभव व अतिशयों से भी नमस्कार के योग्य न सिद्ध करते चौथी पांचवीं कारिका में कहते हैं- "दोष और आवरण ही हानि पूर्णतया हो जाने से कोई न कोई आत्मा शुद्ध हो जाती है पुनः सूक्ष्मादि पदार्थों का शता हो जाने से सर्वश हो जाता है।" आगे छठी कारिका में कहते हैं- "स त्वमेवासि निर्दोषो. ..." हे भगवन् ! वे निर्दोष आप ही हैं अतः आप हमारे स्तुति के योग्य हैं इत्यादि । इस प्रकार श्रीसमंतभद्रस्वामी ने आप्त सच्चे देव की मीमांसा- परीक्षा करते हुए उन्हें सच्चे देव सिद्ध किया है। इस ग्रंथ में दश परिच्छेद हैं। दश परिच्छेद के विषय : प्रत्येक परिच्छेद में मुख्य-मुख्य एकांतों के खंडन में उपयैकाल्य तथा अवाच्य एकांत का खंडन करते हुये "विचारोधानोभयैकाल्य स्वाद्वादन्यायविद्विषां अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति बुज्यते इस कारिका को प्रत्येक अध्याय में लिया है अतः यह कारिका दस बार आई है। प्रथम परिच्छेद में २३ कारिकायें हैं। इसमें मुख्यता से भावैकान्त और अभावैकान्त का खंडन करके स्याद्वाद प्रक्रिया में सप्तभंगी को घटित किया है। द्वितीय परिच्छेद में १३ कारिकाओं में एकत्व और पृथक्त्व को एकान्त से न मानकर प्रत्येक वस्तु कथंचित् एकत्व पृथक्त्वरूप ही है यह प्रगट किया है। तृतीय परिच्छेद में २४ कारिकाओं में नित्यानित्य को अनेकान्तरूप से दिखाया है। चतुर्थ परिच्छेद में १२ कारिका में एकांत से भेद - अभेद का निराकरण कर भोदाभेदात्मक वस्तु को सिद्ध किया है। पांचवें परिच्छेद में ३ कारिका में एकांत का निराकरण कर कथंचित् आपेक्षिक- अनापेक्षिकरूप वस्तु को सिद्ध किया है। छठे में ३ कारिकाओं में हेतुबाद और आगम को स्वाद्वाद से सिद्ध करके सप्तभंगी प्रक्रिया घटायी है। सातवें में ९ कारिका में अंतस्तत्त्व - बहिस्तत्त्व को अनेकांत से सिद्ध किया है। आठवें में ४ कारिकाओं में दैव- पुरुषार्थ को स्याद्वाद से प्रकट किया है। नवमें परिच्छेद में ४ कारिकाओं द्वारा पुण्य-पाप का अनेकांत उद्योतित किया है और दशवें परिच्छेद में १९ कारिकाओं द्वारा ज्ञान अज्ञान से मोक्ष और बंध की व्यवस्था को प्रकाशित किया है तथा स्याद्वाद और नयों का उत्तम रीति से वर्णन किया है। श्रीविद्यानन्दाचार्य ने स्वयं इस अष्टसहस्री की विशेषता को प्रकट करते हुये कहा है श्रोतव्याष्टसहस्त्री, श्रुतैः किमन्यैः सहस्वसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव, स्वसमय-परसमयसद्भावः ॥ इस एक अष्टसहस्त्री को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों ग्रंथों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्त्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है। आचार्यदेव की यह गर्वोक्ति नहीं है, प्रत्युत् स्वभावोक्ति ही है। अंत में इसमें "कष्टसहस्री सिद्धाः साष्टसहस्त्रीयमत्र मे पुण्यात्।" शश्वदभीष्टसहली, कुमारसेनोक्ति वर्द्धमानार्थी यह श्लोक लेकर इसको सहस्रों कष्ट से सिद्ध होने वाली ऐसी “कष्टसहस्री” यह विशेषण देकर इस ग्रंथ की क्लिष्टता को भी दिखा दिया है और ये हजारों मनोरथों को सफल करे ऐसी भावना व्यक्त की है। स्याद्वादचिन्तामणि टीका चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के तृतीय पट्टाचार्य श्रीधर्मसागरजी महाराज का चतुर्विध संघ सहित सन् १९६९ का चातुर्मास जयपुर शहर में हुआ था। उन दिनों संघ मुनियों, आर्थिकाओं, ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणियों को आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अनेक ग्रंथों का अध्ययन करा रही थीं। प्रातः अष्टसहली ग्रंथ के समय मुनिश्री अभिनंदनसागरजी (वर्तमान में छठे पटदाचार्य) मुनिश्री संभवसागरजी मुनि श्री वर्धमानसागरजी बैठते थे कई एक आर्थिकयें एवं ब्रह्मचारी मोतीचंद भी पढ़ते थे। मोतीचंदजी ने बंबई परीक्षालय से शास्त्री का एवं कलकते से न्यायतीर्थ परीक्षा का फार्म भरा था। मूल संस्कृत से अष्टसहस्री पढ़ते समय मोतीचंद बार-बार परीक्षा देने की असमर्थता व्यक्त किया करते थे । इधर माताजी को अष्टसहस्त्री पढ़ाने में बहुत ही आनंद आ रहा था अतः माताजी ने अष्टसहस्त्री का भुवाद प्रारंभ कर दिया। इस अनुवाद में लिखे गये सारांशों को पढ़कर संघस्थ विद्यार्थियों ने शास्त्री और न्यायतीर्थ की परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त की थी। माताजी का परिश्रम सन् १९६९ में श्रावणमास में इसका अनुवाद प्रारंभ किया था। उस समय माताजी की दिनचर्या ऐसी थी कि "प्रातः ७.०० बजे से ९.३० बजे तक साधु-साध्वियों को अष्टसहस्त्री तत्त्वार्थराजवार्तिक, आदि का अध्ययन कराना। मध्याह्न में १.०० बजे से ४.३० बजे तक गोम्मटसार, गद्यचिन्तामणि, व्याकरण आदि का अध्ययन कराना । पुनः रात्रि में सामायिक के बाद लगभग ८.०० बजे से प्राय: ११.०० बजे तक अष्टसहस्त्री ग्रन्थ का अनवाद, पुनः पिछली रात्रि में प्रायः ३.०० बजे से उठकर नित्य आवश्यक क्रियाओं को करके ६.०० बजे से ७.०० बजे तक अनुवाद करती थीं। यह अनुवाद कार्य सन् १९७० में टोडारायसिंह गांव में पौष शु० १२ के दिन पूर्ण किया है। टोंक में सन् १९७० में सर्दी के दिनों में प्रतिदिन प्रातः बाहर शौच के लिये जाती थीं तब वहां की बर्फ जैसी ठंडी-ठंडा रेत में एक-एक फुट पैर धंस जाते थे। उन दिनों की ठंडी ऐसी लगी कि माताजी को बहुत जोर से जुखाम, खांसी का प्रकोप इतना अधिक हो गया था कि वैद्यों द्वारा बतायी गयी कोई भी काढ़ा आदि औषधियां गुण नहीं कर रही थीं। डॉक्टर वैद्यों ने बहुत बार निवेदन किया कि माताजी बैठकर झुककर जो लिखाई कर रही हैं इससे यह नजला रोग बढ रहा है इन्हें दिन में भी घण्टे दो घण्टे विश्राम अवश्य करना चाहिये। किंतु माताजी ने किसी की भी न सुनकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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