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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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अष्टसहस्त्री ग्रंथराज है !
समीक्षक- बाल ब्र० रवीन्द्र कुमार जैन, हस्तिनापुर
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये ॥ आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र के प्रारंभ में इस "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगलाचरण को किया था। इस “महाशास्त्र" के ऊपर "महाभाष्य" लिखते हुए श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इस एक मंगलाचरण श्लोक की व्याख्या करते हुए “आप्तमीमांसा' नाम से एक ग्रंथ ही रच दिया। जैसाकि अष्टसहस्री ग्रन्थ के टिप्पणीकार श्री लघु समंतभद्र ने भी इसे स्पष्ट किया है। यथा
"इह हि खलु पुरा . . . . . . उमास्वामिपादाचार्यवरासूत्रितस्य तत्त्वाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमुपनिबन्धन्तः . . . . . श्रीस्वामिसमंतभद्राचार्यवर्यास्तत्र मंगलपुरस्सर-स्तवविषयपरमाप्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिप्तवंतो देवागमाभिधानस्य प्रवचनतीर्थस्य सृष्टिमापूरयांचक्रिरे।"
तत्त्वार्थाधिगमरूप मोक्षशास्त्र के ऊपर "गंधहस्ति" नामसे महाभाष्य लिखते हुए श्रीसमंतभद्र स्वामी ने मंगलाचरण में स्तुति के विषय को प्राप्त परम आप्त के गुणों के अतिशयों की परीक्षा करते हुए देवागमस्तोत्र नामक प्रवचनतीर्थ की सृष्टि को बनाया है
अष्टसहस्री ग्रंथ के कर्तास्वयं श्रीविद्यानंद महोदय ने अंतिम एक सौ चौदहवीं कारिका की टीका में कहा है
"शास्त्रारम्भे भिष्टतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभृद्भेत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरा परीक्षेयं विहिता।"
शास्त्र के आरम्भ में स्तुति को प्राप्त जो आप्त हैं, वे मोक्षमार्ग के प्रेणेता, कर्मपर्वत के भेत्ता और विश्वतत्त्व के ज्ञाता, इन तीन विशेषणों से युक्त भगवान अहंत सर्वज्ञ ही हैं अन्य कोई नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार अन्य योग का निराकरण करके भगवान अहंत में ही इन विशेषणों की व्यवस्था को करने में तत्पर यह परीक्षा की गई है।
इस उद्धरण से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह मंगलाचरण श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा ही रचित है और इस मंगलाचरण पर ही "आप्तमीमांसा" बनी है। ऐसे ही अनेक प्रकरण अष्टसहस्री ग्रंथ में हैं ही, “तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक" आप्तपरीक्षा आदि ग्रंथों में भी हैं जो कि इस "मोक्षमार्गस्य" आदि श्लोक को श्री उमास्वामी आचार्यकृत सिद्ध कर रहे हैं। अतः इस विषय को यहां अधिक नहीं लेना है।
ये श्री उमास्वामी आचार्य "नंदिसंघ" की पट्टावली के अनुसार श्रीकुंदकुंदाचार्य के पट्ट पर वि०सं० १०१ में आसीन हुये हैं, ऐसा उल्लेख है।
आप्तमीमांसा- श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इस मंगलाचरण पर आप्त की मीमांसापरीक्षा करते हुये ११४ कारिकायें बनाई हैं और उसका नाम "आप्तमीमांसा" दिया है इसके प्रारंभ में “देवागम" पद आ जाने से इसका “देवागमस्तोत्र" यह नाम भी प्रसिद्ध है। ये ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी में माने गये हैं।
अष्टशती- इनके इस स्तोत्र पर श्री अकलंकदेव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण में "अष्टशती" नाम से भाष्य लिखा है। ये आचार्य श्री ईस्वी सन् की ६२० से ६८० में हुये हैं ऐसा पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने सिद्ध किया है।
अष्टसहस्री- इसके बाद ईस्वी सन् ८०० में श्रीविद्यानंद आचार्य हुये हैं जिन्होंने “अष्टशती" समेत इस आप्तमीमांसा पर आठ हजार श्लोकप्रमाण “अष्टसहस्री' नाम से टीका लिखी है। अतः यह अष्टसहस्री ग्रंथ चार महान् आचार्यों की अद्भुत रचना है। वर्तमान में पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने "स्याद्वादचिंतामणि" नाम से हिंदी टीका लिखी है। अष्टसहस्त्री ग्रन्थ का विषय- श्री समंतभद्रस्वामी ने पहली कारिका में कहा है
देवागमनभोयान- चामरादिविभूतयः ।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ।।१॥ इसकी उत्थानिका में श्री विद्यानन्दाचार्य उत्प्रेक्षालंकार में कहते हैं- "कस्मद् देवागमादिविभूतितोऽहं महान्नामिष्टुत इति स्फुट पृष्टा इव स्वामिसमन्तभद्राचार्या : प्राहुः"
मानो भगवान ने प्रश्न ही किया कि हे समन्तभद्र ? देवागम, आदि विभूति से मैं महान् हूं पुनः आप मेरी स्तुति क्यों नहीं करते हैं ? इस प्रकार स्पष्टतया भगवान के प्रश्न करने पर ही मानो श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं
___ आपके जन्म कल्याणक आदिकों में देवों का आगमन, आपका आकाशमार्ग में गमन एवं समवशरण में चामर-छत्र आदि अनेक विभूतियों का होना, यह सब बाह्य वैभव मायावी-विद्याधर, मस्करी आदि में भी पाया जा सकता है, अतः हे भगवन् ! हम लोगों के लिये आप महान नहीं हैं- स्तुति के योग्य नहीं हैं।
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