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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ
तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी और शिखरी पर्वत के पुण्डरीक सरोवर के दक्षिण तोरण द्वार से सुवर्ण कूला नदी निकलती है। यहां पर नाभिगिरि का गंधवान नाम है उस पर 'प्रभास' नाम का देव रहता है।
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७- ऐरावत क्षेत्र
इस ऐरावत क्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के सदृश है। इसमें भी बीच में विजयार्थ पर्वत है उस पर नव कूट है। सिद्धकूट, उत्तरार्ध ऐरावत, तामिलगुह, माणिभद्र विजयार्थ कुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्थ, ऐरावत, और वैश्रवण यहां पर शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के पूर्व पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता-रक्तोदा नदियां निकलती है। जोकि विजयार्ध की गुफा से निकलकर क्षेत्र में बहती हुई पूर्व पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती है अतः यहां पर छह खंड हैं उसमें भी मध्य का आर्यखंड है। इस प्रकार संक्षेप में सातों क्षेत्रों का वर्णन हुआ है।
लवण समुद्र
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लवणसमुद्र जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रापृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचावने हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों ओर से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है।
समभूमि से आकाश में इसकी जल शिखा है यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊँची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १९०००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११.७/८ योजन प्रमाण है। गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है। इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई है। अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर ९५ प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिए। अमावस्या के दिन उक्त जल शिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है। अतः ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमशः प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है।
१६०००-११०००/१५=५०००/ १५, ५०००/ १५=३३३, १/३ योजन तीन सौ तैंतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है।
भूभ्रमण खण्डन
कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यही पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है हमेशा ही ऊपर नीचे घूमती रहती है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणारूप अवस्थित हैं, घूमते नहीं है। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि ।
दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पण्डित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरूद्ध कोई कोई विद्वान प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जलभाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं।
किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती है थोड़े ही दिनों में परस्पर एक दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विद्वान् या ज्योतिष यन्त्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वार बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे परिवर्तन तो दिन रात होते ही रहते हैं।
इसका उत्तर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं
भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध आता है।
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जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है। अतः भू अचला ही है। भ्रमण नहीं करती है। पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहाँ का तहाँ स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता । अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेंगे। घूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा।
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