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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१५३ महाविभूति -उदयभान जैन, भरतपुर • संयोजक : अ०भा०दि० जैन युवा परिषद् राजस्थान प्रान्त परम पूज्य जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, आर्यिकारत्न, सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर श्री ज्ञानमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ का प्रकाशन ५८ वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् ५९वें वर्ष के प्रारम्भ में समर्पण करने की जो योजना त्रिलोक शोध संस्थान ने बनायी है, वास्तव में यह एक अत्यन्त राष्ट्र व विश्व को शुभ-सन्देश का द्योतक है। हम वीर प्रभु से यह कामना करते हैं कि ऐसी महान् विभूति का आगामी समय और उज्ज्वल हो तथा संसार को सही मार्गदर्शन उनसे मिलता रहे ताकि फैल रही हिंसा, युवा-वर्ग में जो विमुखता धर्म व गुरुओं के प्रति हो रही है उसका नाश हो। मैं ऐसे शुभ-अवसर पर युवा-सम्राट्, बाल ब्रह्मचारी, सप्तम व्रतधारी, परम आदरणीय रवीन्द्रजी को शुभकामनाएं अर्पित करता हूँ, जो ऐसे सुन्दर कार्यों का कुशल नेतृत्व कर रहे हैं। आज उनके नेतृत्व में अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन युवापरिषद् प्रगति की ओर बढ़ रही है, सम्यग्जञान मासिक पत्रिका, त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप आदि प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं। ज्ञानमती माताजी : एक अनूठा व्यक्तित्व - प्रमोद कुमार जैन छुरवाले, सरधना जिस अवध प्रान्त में ब्राह्मी और सुन्दरी जैस कन्याओं ने जन्म लेकर कुंवारी कन्या के आर्यिका दीक्षा का मार्ग प्रशस्त किया उसी अवध प्रान्त के टिकैतनगर गाँव में माँ मोहिनी के उदर से शरद् पूर्णिमा के दिन मैना ने जन्म लिया, जो आगे चलकर इस पंचम काल की पहली कुंवारी कन्या बनी, जिसने आर्यिका दीक्षा ली। साहित्य-सृजन माताजी की खुराक है, हर समय लिखते रहना, मानो माताजी अपने जीवन का एक क्षण भी बेकार नहीं होने देना चाहतीं, जितना भी समय बचता है ग्रन्थों की रचना करती रहती हैं। वास्तव में इतने बड़े-बड़े विधान एवं ग्रन्थों की रचना एक महान् कार्य है, भारतवर्ष में किसी भी दूसरी महिला द्वारा इतने ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं। पूज्या माताजी के संसर्ग में जो भी आ गया वो उनका भक्त बनकर रह गया, किसी भी विषय को सरलता से समझाना माताजी के लिए बहुत ही सहज है। माताजी बहुत ही अनुशासनप्रिय हैं, विगत चातुर्मास (सरधना १९९१) में पूज्या माताजी को नजदीक से देखने का मौका मिला। संघस्थ साधु हो, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी या श्रावक सभी पूर्ण अनुशासन में रहते थे। कभी-कभी मुझ जैसा अज्ञानी श्रावक किसी बात को जल्दी स्वीकार नहीं करता तो माताजी बड़े वात्सल्य से एकान्त में बैठाकर शास्त्रों के अनुसार उसकी शंका का निवारण करतीं। माताजी का हमेशा कहना रहा है "हमें अपने भाव खराब नहीं करने चाहियें।" धर्म और गुरु के प्रति माताजी की अगाध भक्ति रही है। धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा के कारण ही माताजी अपने परिवार से एक नहीं, दो नहीं चार भाई-बहनों को निकाल लायीं, जिनमें पूज्या अभयमती माताजी एवं चन्दनामती माताजी आर्यिका दीक्षा लेकर अपना व समाज का कल्याण कर रही हैं। कु० मालती शास्त्री व रवीन्द्र कुमार बाल ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कल्याण मार्ग में लगे हुए हैं। जम्बूद्वीप की रचना पूज्या माताजी की समाज को अद्भुत देन है। जिसे हम शास्त्रों में पढ़ते थे उसे माताजी ने हमारे सामने चित्रित किया है। हस्तिनापुर एक पौराणिक, ऐतिहासिक नगरी रही है, जम्बूद्वीप की रचना से तो इस नगरी का भाग्य ही खुल गया। समस्त भारतवर्ष के जैन यात्रियों का पूरे वर्ष मेला-सा लगा रहता है और बड़े-बड़े साधु संघों का आगमन भी इसी निमित्त होता रहा है। पूज्या माताजी का बाल्यकाल से अब तक का जीवन हम सब के लिए अनुकरणीय है। माताजी के ही सानिध्य में कोई और बड़ा निर्माण या रचना कार्य हो, ऐसी हम सब की भावना है। पूज्या माताजी की जन्म शताब्दी हम उनके सानिध्य में मनायें, यही वीर प्रभु से कामना है। जय वीर! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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