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________________ १५२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागरजी, बाल ब्र० रवीन्द्र कुमारजी एवं पूज्या आर्यिका श्री चंदनामती माताजी जैसे प्रज्ञावान् शिष्यों को समाज को देकर आपने ज्ञानगंगा का प्रवाह और भी प्रबल कर दिया है। अंत में जब तक पूरे संसार में से मिथ्यात्व का तिमिर दूर न हो जाये, तब तक माँ ज्ञानमती आपकी ज्ञानज्योति सदा प्रज्वलित रहे। आपके चरणों में अपनी भावना के दीप समर्पित करते हुए यही भावना भाता हूँ कि मेरा अंतर दीप आपकी ज्ञानज्योति से प्रज्वलित हो उठे। इसी कामना के साथ ज्ञान गंगा माँ ज्ञानमती के चरण कमल में मेरा अगणित वंदन । विनयांजलि - उत्तमचंद निर्जी, कोटा उपाध्यक्ष : अ०भा०दि० जैन युवा परिषद् प्राचीन काल से ही हम देखते हैं कि भगवान महावीर के बाद सैकड़ों महापुरुषों का इस पवित्र धरा पर अवतरण होता रहा है जिन्होंने अपनी ज्ञान गंगा से जनमानस को समय-समय पर आप्लावित किया। उत्कृष्ट सांस्कृतिक परम्परा में ही ऐसे महापुरुषों का अवतरण संभव होता है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रृंखला में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का उल्लेख किया जा सकता है। (ई० सन् १९३४) आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को बाराबंकी जिले के टिकैतनगर नामक ग्राम में श्रीमती मोहिनी देवी ने ज्ञानमतीजी को जन्म दिया। इनके पिता श्री छोटेलालजी ने अपनी पुत्री का नाम मैना रखा था। मैना में बचपन से ही भौतिक जीवन से विरक्ति दिखाई देने लगी। उन्होंने बाल्यकाल में ही अनेक धर्मग्रन्थों का अध्ययन किया एवं वे इस निष्कर्ष पर पहुंची कि जीवन के अन्तिम सत्य की प्राप्ति इस सांसारिक जीवन में रह कर संभव नहीं हो सकती। इस तरह १९५२ में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के सानिध्य में ब्रह्मचर्यव्रत लेकर संघ में प्रवेश किया। यह घटना महावीर स्वामी के महाप्रयाण का स्मरण कराती है। सन् १९५३ में महावीरजी अतिशय क्षेत्र में क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें अब वीरमतीजी के नाम अभिहित किया जाने लगा। वीरमती जी, सीमित ग्रंथों के अध्ययन से सन्तुष्ट नहीं होती थीं। विविध ग्रंथों के अध्ययन एवं लेखन में अभिरुचि को देखकर ही वीरसागरजी महाराज ने माधोराजपुरा में सन् १९५६ में आर्यिका दीक्षा प्रदान की और उन्हें ज्ञानमतीजी कहा जाने लगा। ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनी से लगभग १५० से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया। कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की टीकायें की, जैसेअष्टसहस्त्री (तीन भागों में), समयसार, नियमसार, मूलाचार, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि । - आपके द्वारा ग्रंथों के प्रकाशन के साथ-साथ ही भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर आपकी प्रेरणा से त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर में एक भूमि खरीदी और वहाँ प्राचीन ग्रंथों की रचना के आधार पर जम्बूद्वीप का निर्माण किया गया, जिसमें ८४ फुट ऊंचे सुमेरु पर्वत, १६ चैत्यालय, समुद्र आदि का निर्माण बरबस ही देखने वाले का ध्यान आकर्षित कर लेता है। उक्त कृति आज भारत की ही नहीं, बल्कि विश्व की प्रमुख कलाकृतियों में है। इतना ही नहीं, युवा शक्ति को संगठित करने हेतु आपकी प्रेरणा से १९७९ में युवा परिषद् का गठन किया गया जो आज देश का एक मात्र युवा संगठन है। जीवित तीर्थ के रूप में माताजी ने देश में सर्वत्र विहार करके ज्ञान, धर्म, त्याग, तपस्या की जो मिसाल कायम की है वैसी मिसाल सदियों में कभी-कभी ही देखने में आती है। आपके ज्ञान प्रकाश से समाज आलोकित हुआ है और आज हमें धर्मचर्चामय वातावरण की झलक जगह-जगह दिखाई देने लगी है। ५९ वर्ष की उम्र में आज भी आपकी निरतिचार साधना दूसरों के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य कर रही है। यह समस्त श्रावकों के लिए परम गौरव और हर्ष की बात है। मुझे प्रसन्नता है कि आज समाज ने वीतरागी की शक्ति के प्रति नमन भाव के रूप में अभिवन्दन ग्रंथ समर्पित करने की योजना को साकार रूप देने का निश्चिय किया है। मेरी शुभ-कामना है कि यह प्रयास शीघ्र सफल हो। इस अवसर पर सम्पूर्ण समाज एवं राजस्थान के जैन बन्धुओं की ओर से ज्ञानमती माताजी का शत-शत नमन करते हुए अभिवन्दन करता हूँ और आशा करता हूँ कि पूज्य माताजी शत-शत वर्षों तक अपनी ज्ञान गंगा से समाज व राष्ट्र को प्लावित करती रहे। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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