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________________ १००] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हमारी पथप्रदर्शिका आर्थिका ज्ञानमती माताजी : संसार में जन्मे प्रायः सभी व्यक्ति घर-परिवार, समाज में मात्र अपना फर्ज निभाने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें स्वकल्याण का ध्यान ही नहीं रहता। ऐसे व्यक्ति कम होते हैं जो अपना कल्याण करते हुए दूसरों के कल्याणार्थ सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं। ये व्यक्ति महान् होते हैं पू० माताजी भी ऐसी ही महान् आत्मा हैं, जो निरन्तर आत्मसाधनारत रहते हुए हमारे लिये सत्पथ प्रदर्शित कर रही हैं। बाराबंकी जिले के टिकैतनगर में जन्मी बालिका मैना ने बाल्यकाल से ही स्वाध्याय किया, परिणामस्वरूप उनमें वैराग्य के अंकुर उदित हुए। ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर वैराग्यांकुर को परिपुष्ट करना प्रारम्भ किया। निरन्तर ज्ञान-ध्यान में रत रहने से उनके आत्मिकबल में वृद्धि हुई और क्रमशः क्षुल्लिका एवं आर्यिका दीक्षा ग्रहण की इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पुत्रियाँ ब्राह्मी सुन्दरी के पथ का अनुसरण करके अपने को धन्य बनानेवाली माताजी का त्याग तपस्यामय जीवन कुमारिकाओं के लिए पथ-प्रदर्शक है। महिला समाज एवं पुरुष वर्ग के लिए भी अनुकरणीय है। माताजी ने स्वधर्म और युगधर्म को पहचान कर 'स्वान्तः सुखाय सर्वजनहिताय' के लक्ष्य से सत्साहित्य का सृजन किया है, जो वर्तमान में तो मानव को दिशाबोध कराता ही है, युगों-युगों तक कल्याण का संदेश देता रहेगा। पू० माताजी अपने त्याग तपस्यायुक्त आत्मसाधनारत जीवन, अमृतमय वाणी एवं यशस्वी लेखनी के द्वारा हमारी सन्मार्ग निर्देशिका है। वे शतायु हों तथा जन-जन को आत्म-कल्याण की पावन प्रेरणा देती रहें, यही मंगलकामना है। माताजी का चमत्कार Jain Educationa International शैलेश डाह्याभाई कापड़िया सम्पादक जैनमित्र, सूरत मेरी कलम इतनी सामर्थ्यवान् नहीं है जो कि माताजी के विषय में कुछ व्यक्त कर सकूँ फिर भी एक विशेष अनुभव लिख रहा हूं, जो मुझे माताजी से प्राप्त हुआ है, जिससे मैं सच्चे अर्थों में जैन धर्म को समर्पित हो सका हूँ । • पं० योगीराज फूलचन्द जैन, संचालक : श्री स्याद्वाद योग संस्थान, छतरपुर [म०प्र० ] सन् १९७८ में सोना गिरीजी सिद्ध क्षेत्र पर परमादरणीय पूज्य आचार्य श्री १०८ श्री विमलसागरजी महाराज द्वारा मुझे जैन योगदर्शन का परिचय मिला था, तबसे ही मैंने जैन योग प्रन्थों का विधिवत् अध्ययन एवं मनन किया और पाया कि वास्तव में भगवान आदिनाथ (जिन्हें जैनेतर हिरण्यगर्भ के नाम से मानते हैं) ही योग के आदिप्रणेता हैं। तब से ही मेरी अन्य धारणाएँ समाप्त हुईं, योग की सही दिशा मुझे प्राप्त हुई; फिर भी मेरा परिधान तथावत् ही बना रहा, लेकिन मार्च १९८८ में जब रवीन्द्रजी ने मुझे योग शिविर के संचालन हेतु पुण्य भूमि हस्तिनापुर बुलाया था। वह मेरे लिए बड़ा ही शुभ मुहूर्त था, जब पूजनीया माता श्री के दर्शनों का मुझे लाभ मिला था। साथ ही आश्चर्यकारी चमत्कार का अनुभव हुआ था। हुआ यूँ कि जब मैं परमादरणीय पूज्या माताजी के सानिध्य से, उन्हें नमन कर, आशीर्वाद प्राप्त कर, अपने विश्रामस्थल (जहाँ आपने मुझे शरण दी थी) विश्राम हेतु वापिस आकर बन्द कमरे में ध्यान को बैठा, जैसे ही प्राणायाम के बाद ध्यानस्थ हो समाधि की दशा को प्राप्त हो रहा था, तभी मुझे माताजी का साक्षात्कार हुआ, साथ ही कल्याणकारी सम्बोधन प्राप्त हुआ। तत्काल मुझे मेरे बाह्य परिधान, ( भगवा कपड़े, रुद्राक्ष की माला, खूँटी वाली खड़ाऊँ एवं लम्बे बाल दाढ़ी आदि) से अरुचि जाग्रत हो गयी। फिर मैं दोपहर बाद जब पुनः माताजी के चरणों में बदले हुए परिधान में उपस्थित हुआ, नमोस्तु किया, माताजी ने मुझे एक निगाह देखा और मुस्करा दिया, कहा कुछ भी नहीं, परन्तु आशर्य तब हुआ जब माताजी के पास बैठी ब्रह्म० बहिन माधुरी की वाणी मुखरित हुई कि "अरे यह क्या? हमने और माताजी ने ऐसा विचार ही किया था कि योगीराजजी को अपना परिधान बदल कर जैन धर्मानुकूल परिधान ही धारण करना श्रेयस्कर होगा और योगीराजजी सही परिधान में आ ही गये।" यह है माताजी की साधना, जोकि मात्र विचार करने से ही मनुष्य का हृदय परिवर्तन कर उसे सन्मार्ग में लगा देती है। यह माताजी का ही प्रभाव है कि मेरा उन भगवा वस्त्रों, रुद्राक्ष की माला से तो मोह टूट ही चुका है साथ ही जटाजूट, लम्बी-चौड़ी दाढ़ी For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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