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________________ ७०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हैं, किन्तु शताधिक को आपने एक से ग्यारह प्रतिमा तक के व्रत अंगीकार कराये हैं एवं कई को मुनिपद एवं आर्यिका पद हेतु सफल प्रेरणा भी दी है। मूल जिनधर्म के प्रति उनकी यह अविस्मरणीय सेवा है। जिनधर्म की प्रभावना हेतु उनके श्रम को जैन बन्धु युगों-युगों तक याद करेंगे। पूज्य माताजी का ज्ञान अगाध है। भक्ति-काव्यों की श्रृंखला में रचित दशाधिक पूजन-विधान, बाल एवं नारी साहित्य, उपन्यास एवं कथा साहित्य में भावों की अनुगामिनी भाषा एवं सरल-सहज प्रवाह पूर्ण शैली उनके भाषा पर अधिकार को परिलक्षित करती है। अध्यात्म, न्याय, व्याकरण, भूगोल एवं खगोल पर लिखे गये ग्रंथ एवं टीकायें उनके ज्ञान की विविधता एवं गाम्भीर्य को प्रकट करती है। इन टीका ग्रन्थों में गूढ़ विषयों की व्याख्या तथा अनुवादों के मध्य लिखे विशेषार्थ विद्वत्जनों के लिए प्रकाश स्तम्भ हैं। नियमित प्रातःकालीन स्वाध्याय एवं शंका समाधान के समय एक विषय के विवेचन में विभिन्न आगमों/टीकाओं से मूल प्राकृत गाथाओं एवं उनकी संस्कृत छायाओं को सहज ही स्मरण के आधार बताना तथा उनकी पुष्टि/विरोध को सप्रमाण प्रस्तुत करते आज भी उन्हें देखा जा सकता है। १९८५ में आयोजित इण्टर नेशनल सेमिनार के मध्य समागत विद्वानों की अनेक जिज्ञासाओं को माताजी ने मंच पर ही सप्रमाण सुलझा दिया था। उनकी इस विलक्षण प्रतिभा को देखकर उन्हें चलती-फिरती इनसाइक्लोपीडिया कहना उचित ही है। स्वयं का गम्भीर अध्ययन, निर्माण कार्यों की प्रेरणा, शिष्यों को विद्यादान एवं देश की पदयात्राओं के बावजूद १२५ से अधिक प्रकाशित एवं २५ से अधिक अप्रकाशित ग्रन्थों का सृजन ५८ वर्ष की कुल अवस्था में आपने किया है। इससे लगता है कि पूज्य माताजी ग्रन्थ सृजन में आत्मानुभूति का आनन्द लेती हैं, वरना इतना लेखन संभव ही नहीं है। जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जीवन में आत्मसात् करने वाली पूज्य माताजी सच्चे अर्थों में विद्वान् हैं; क्योंकि शास्त्राणि अधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । अभिवन्दन ग्रंथ के प्रकाशन की बेला में मैं उनके चरणों में शतशः वन्दन करता हूँ एवं स्वयं को इस हेतु गौरवान्वित अनुभव करता हूँ कि मुझे इस महत्त्वपूर्ण अभिवंदन ग्रंथ के संपादक मण्डल में चुना गया। वस्तुतः ऐसे कार्य में ही लौकिक विद्याध्ययन की सार्थकता है। शतशः नमन्। वन्दन। स्मृतियों के झरोखे से -प्रो० पं० निहालचंद जैन, बीना जीवन के एक लम्बे अन्तराल के बाद सन् १९८७ में जब पूज्य माताजी के पुण्य दर्शनों का लाभ हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र जाकर किया तो अपने अतीत की कड़ी से जुड़े होने की बात कहकर मन भावोद्रेक से अभिभूत हो उठा। अनन्त चतुर्दशी का दिन था और माताजी मौन थीं, लेकिन माताजी की मुस्कराती आँखें सब कुछ मेरी स्वीकृति में थीं और थी उनके वरद-हस्त की पिच्छी मेरे सिर पर । मैंने मन ही मन अपनी तुलना माताजी से करनी चाही। सोचने लगा- कहाँ यह कोल्हू के बैल-सा अपने व्यामोह के खूटे में बँधा, बस चक्करों की दूरियाँ नाप रहा है और दूसरी ओर टिकैतनगर की यह लाड़ली बेटी आज इस पुण्य धर्ममय देश की माँ बन गई। अपनी प्रखर ज्ञान के आलोक में ऐसी माँ, जिस पर अनन्त माँओं का सौभाग्य भी न्यौछावर है। जीवन की अप्रतिम ऊँचाइयो को हासिल करके एक साध्वी बनी बैठी यह महान् आत्मन न केवल अध्यात्म की दुंदुभि बजा रही है, अपितु अपनी सृजनशील विद्या से हस्तिनापुर के एक भूखण्ड को जम्बूद्वीप का आयाम देकर देश-विदेश के पर्यटकों और वन्दनार्थियों के लिए जैन-भूगोल साकार कर दिया। चाहे राजनेता हो या अभिनेता, चाहे पंडित हो या श्रेष्ठिवर्ग, चाहे जैनेतर श्रद्धालु हों या जनमानस, सभी को अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर देने वाली आर्यिका ज्ञानमती माताजी का व्यक्तित्व विलक्षण है और यह सब उनकी योग साधना का अविकल इतिहास है। त्रिलोक शोध संस्थान की सर्वांगीण गतिविधियाँ पूज्य माताजी की मेधारूपी केन्द्र की परिधि बनी हुई हैं। ब्र० स्त्रीन्द्र कुमारजी के कुशल नेतृत्व में प्रगतिशील यह अनुपम तीर्थ क्षेत्र-कई सदियों तक पूज्य ज्ञानमती माताजी के आत्म-गौरव । भखरित करता रहेगा। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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