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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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१०५ गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी एक भव्य व्यक्तित्व
- डॉ० मूलचन्द जैन शास्त्री
सनावद [म०प्र०]
३. क्रिया
परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी इस युग की उन महान् विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने वह कर दिखाया जो अन्यों ने आज तक नहीं किया और आगे भी शायद ही कोई कर सकेगा। मुझे तो अनेक बार उनके चरण सान्निध्य में रहकर बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला है।
उनका कहना है कि त्याग के बिना मानव जीवन का कोई उपयोग नहीं। मानव जीवन तो हमें संयम पालन के लिए मिला है। जो मानव देह प्राप्त कर उसे विषय कषायों में व्यर्थ ही गँवा देता है वह अमूल्य नररत्न की परीक्षा न कर सकने की अज्ञानता का दुष्परिणाम है।
पूज्य माताजी ने इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र आदि विधानों की रचना कर एक ऐसा कार्य कर दिया है, जो आज तक किसी ने नहीं किया था।
मुझे याद है- सनावद में मेरे तत्त्वावधान में लगातार पाँच वर्षों तक तीनलोक विधान हुआ, तब मैं भट्टारक विश्वभूषणजी द्वारा संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रचित हस्तलिखित प्रतियाँ प्रतिवर्ष इन्दौर के कांच मंदिर एवं मारवाड़ी मंदिर से लाया करता था । बोलने वालों में एक-दो सज्जन ही मेरा साथ दे पाते थे, शेष तो थोड़ा-बहुत अर्थ व भावार्थ सुनकर ही संतोष कर लेते थे; क्योंकि उन्हें यह समाधान अवश्य था कि "दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो।" सारा समाज तन्मयता से इस विधान को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता था, किन्तु जबसे ज्ञानमती माताजी ने तीनलोक विधान, इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम आदि विधानों की रचना कर दी है, तब से जैन समाज में नई लहर ही आ गई है।
इन कृतियों के अतिरिक्त माताजी द्वारा रचित न्याय और व्याकरण जैसे क्लिष्ट ग्रन्थों के सरल हिन्दी अनुवाद भी हैं, बालोपयोगी साहित्य भी है, उपन्यास जैसी साहित्यिक रचनाएँ भी हैं। मेरी समझ में उनकी शताधिक रचनाएँ आज प्रकाशित होकर जन-जन को प्रेरणा प्रदान कर रही हैं।
इनके अतिरिक्त माताजी की कुछ निजी विशेषताएँ हैं१. जम्बूद्वीप की रचना को साकार कर जैन भूगोल को साकार किया। २. त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना कर चारों अनुयागों के पठन-पाठन की व्यवस्था की।
क्रियाकांड के जानकार व प्रवचनकार विद्वानों को तैयार कर समाज को लाभान्वित किया। ४. अपने परिवार के भी कई सदस्यों को त्याग और संयम के मार्ग पर लगाया। ५. ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर की स्मृति को भव्य जिन मंदिरों के निर्माण द्वारा उजागर किया। ६. आर्षपरंपरा का पोषण कर विकृत साहित्य को जैन वाङ्मय में प्रविष्ट होने से यथासंभव बचाया।
जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का शुभारंभ तत्कालीन महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा कराकर सारे भारतवर्ष में निर्बाध ज्ञानज्योति का प्रकाश फैलाया। ८. रचनाओं में छन्द विधान की योजना अत्यधिक लोकप्रिय हुई। ९. अ०भा०दि० जैन शास्त्री परिषद् के विद्वानों का प्रशिक्षण कराकर उन्हें समाज सेवा के लिए प्रेरित किया। १०. शिविरों के विभिन्न स्थानों पर आयोजन किये-कराये, जो पूर्णतः ज्ञानवर्द्धक सिद्ध हुए। ११. विद्वानों का समाज में सम्मान बढ़े व उनकी योग्यता का समाज में मूल्यांकन हो, यह माताजी के मन में सदैव विचार उठते रहते हैं। १२. अष्टसहस्री जैसे ग्रंथ को सर हुकुमचंद, दि० जैन संस्कृत महाविद्यालय में जब हम लोग पं० बंशीधरजी न्यायालंकार इन्दौर, पं० जीवंधरजी
न्यायतीर्थ इन्दौर, व्याख्यानवाचस्पति, सिद्धान्त शास्त्री पं० देवकीनंदनजी कारंजा, पं० नाथूलालजी शास्त्री न्यायतीर्थ, संहितासूरि इन्दौर जैसे दिग्गज विद्वानों के पास प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री जैसे न्याय के ग्रन्थ अथवा शाकटायन व्याकरण जैसे व्याकरण के ग्रन्थ पढ़ते थे, तब हमारे मुख से कभी-कभी निकल जाया करता था कि यह अष्टसहस्री तो पूरी कष्टसहस्री ही है, ऐसे महानतम न्याय के विषय का संस्कृत से हिन्दी
में यथावत् अनुवाद करना माताजी की जैन वाङ्मय को बहुत बड़ी देन है। १३. नेहरूजी के सम्बन्ध में एक शेर पढ़ा जाता था
अपनी कुर्बानी से है मशहूर नेहरू खानदान ।
शमए महफिल देख ले, यह घर का घर परवाना है। उसी के अनुकरण पर माताजी के विषय में कहा जा सकता है
अपनी कृतियों से हुआ मशहूर ज्ञानमती खानदान ।
शमए महफिल देख ले यह घर का घर त्यागी हुआ। अन्त में परमपूज्य सिद्धान्त वाचस्पति, न्यायप्रभाकर, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शतशः नमन्।
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