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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
DIVINE LAMP IN COSMOS
- Dr. S.S. Lishk Govt. In-Service Teacher
Training Centre, Patiala
Per Holiness Aryikaratna Jnanamati Mataji signifies a divine lamp in unique glorifying the entire cosmos for the benefit of Tamas jivas who begin to tread upon the harmonious path of liberation after going through her invaluable literary and religious works, visiting the mount Meru, the real embodiment of Jaina philosophy, at Hastinapur and being blessed with the glamorous cosmic radiations at her holy audience. Pujya Mataji is a symbol of non-violence, knowledge and universal love. Her Holiness belongs to us all, in all of her infinite dimensions over the ages to come. Long live Pujya Mataji !
चिंतनधारा का रूपान्तरण
- डॉ राजेन्द्र कुमार बंसल अमलाई, जिला शहडोल [म०प्र०]
मई, वर्ष १९८८ की बात है, जब प्रसिद्ध हस्तिनापुर नगर आचार्य श्री दर्शनसागर महाराज एवं उनके समर्थकों द्वारा मन्दिर में कथित मारपीट की चर्चाओं से गर्म था। समाजसेवी श्री सुकुमारचंद जैन, मेरठ एवं अन्य व्यक्ति इस घटना के शिकार हुए थे। मेरठ जिले के धर्मावलम्बियों में बहुत ही उत्तेजना थी। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि आचार्यश्री का विहार पुलिस पहरे में हुआ और वे उपसर्ग-परिहारक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उसी समय मुझे हस्तिनापुर जाने का अवसर मिला। इस अवसर पर जम्बूद्वीप में विराजित आर्यिका ज्ञानमती माताजी एवं आचार्यश्री दर्शनसागरजी के दर्शन एवं चर्चा का अवसर मिला।
आत्म-कल्याण की चर्चा के साथ ही उक्त घटना के संदर्भ में श्रमणसंस्था की विकृतियों की चर्चा शुरू हो गयी। चर्चा से माताजी के मन में इन घटनाओं की प्रतिपीड़ा सहज ही दिखायी दे रही थी। वे इस बात से भी दुःखी थीं कि साधुगण सामाजिक आलोचना के विषय बन गये।
संभवतः वे पूर्व से मेरे नाम से परिचित थीं; अतः उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कम-से-कम ६ माह तक साधुओं की आलोचना तथा विद्यमान् श्रमण-संस्था की विकृतियों पर कुछ न लिखू।
___ मैंने माताश्री से कहा कि आत्मसाधक साधु-आर्यिका जैनशास्त्रों में वर्णित वीतरागता के प्रतीक या जीवंत-प्रतिनिधि हैं, जो दर्शन को जीवन में उतारते हैं। इस दृष्टि से उनका अंतर-बाह्य आचार आगम-सम्मत होना ही चाहिये अन्यथा श्रमण-मार्ग लांछित होता है। यदि गृह-त्यागी साधू सामाजिक एवं संस्थागत विवादों के पक्षकार बनकर शिथिलाचारी हो जाते हैं तो उससे वे सहज ही आलोचना का विषय बन जाते हैं। साथ ही दिगम्बर संस्कृति भी बदनाम होती है। यदि शिथिलाचार छिपाकर रखा गया और उसमें सुधार नहीं हुआ तो वह बढ़ता ही जावेगा और अन्त में घटनाएँ स्वयं बोलने लगेंगी, जो इतर-समाज की निन्दा का विषय बनेंगी। क्या यह जैन समाज के लिए हितकर होगा?
माताश्री ने मेरी आन्तरिक पीड़ा को समझा और आश्व्सत किया कि वे इस दिशा में सक्रिय प्रयास करेंगी, ताकि साधू-आर्यिका ऐसे विवादों में न फँसे, जो आलोचना का विषय बनें ! उनके इस आश्वासन के साथ ही मैंने उनको आश्वस्त किया कि मैं ६ माह की अवधि तक साधुओं के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखूगा। माताश्री को दिये गये आश्वासन के संदर्भ में हस्तिनापुर की उक्त घटना के निजी-सर्वेक्षण के सारे तथ्य फाड़कर फेंक दिये और मन के विकल्पों का शमन कर साधू-आलोचना से विरत रहा। यद्यपि साधू-शिथिलाचार एवं गृहस्थोचित-चर्या के सम्बन्ध में यदा-कदा प्रकाशित समाचारों से मन उद्वेलित अवश्य होता है; क्योंकि उससे जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग लांछित-दूषित होता है।
माताश्री के साथ उक्त चर्चा से मेरे मन में यह विचार आया कि मैं "जिनदीक्षा" के सम्बन्ध में तथ्यात्मक लेख लिख सकूँ। तदनुसार मैंने आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित साहित्य के संदर्भ में "जिनदीक्षा" नामक लेख लिखा, जिसमें मोक्षार्थो-आत्माओं के स्वरूप एवं आचार का आगम-सम्मत विवेचन हुआ है। आचार्य कुन्द-कुन्द की कृति अष्टपाहुड़ जैनसिद्धांत एवं आचार की महत्त्वपूर्ण कृति है; अतः मैंने उस पर विश्लेषणात्मक लेख लिखे, जो सामाजिक- धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए और हो रहे हैं। इस प्रकार मेरी चिंतनधारा में रूपान्तरण हुआ, जो आत्म-कल्याण
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