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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [७३ एवं स्वान्तःसुखाय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। माताश्री का व्यक्तित्व बहुमुखी है। बहुआयामी साहित्य सृजन एवं जम्बूद्वीप रचना उनकी स्थायी कृतियाँ हैं। उनकी साधना का सुफललक्ष्य पक्षातीत-सहज- आत्मोपलब्धि ही है, जिससे वे स्वयं-को-उपकृत अनुभूत करती होंगी। मुझे विश्वस है कि माताश्री निर्दोष-श्रमण-संस्था एवं उसके लक्ष्य "वीतरागता" के पोषण हेतु जो भी शक्य है उसका समाधान करती रहेंगी भले ही उसमें कितनी ही बाधाएँ क्यों न आवें। मैं माताश्री के चैतन्य स्वभाव की निर्मल-वीतराग-परिणति एवं उसके सुफल की कामना करता हूँ एवं उनके श्री चरणों में अपनी विनयांजलि समर्पित करता हूँ। विलक्षण व्यक्तित्व -डॉ० उदयचन्द्र जैन सर्वदर्शनाचार्य, वाराणसी "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस उक्ति के अनुसार बाल्यावस्था में ही कु० मैना के अद्भुत व्यक्तित्व का आभास होने लगा था। १२ वर्ष की आयु में ही 'पद्मनन्दिपंचविंशतिका' नामक ग्रन्थ के स्वाध्याय से कु० मैना के हृदय में वैराग्य का बीजारोपण हुआ और १८ वर्ष की आयु में कुछ मैना ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। १९ वर्ष की आयु में कुछ मैना ने आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा धारण कर ली और 'वीरमती" नाम से विख्यात हुईं। तदनन्तर २२ वर्ष की आयु में आचार्य वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा धारण करके वे 'ज्ञानमती' के पवित्र नाम से अलंकृत हुईं। बालब्रह्मचारिणी आर्यिका ज्ञानमती माताजी के द्वारा विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। आचार्य विद्यानन्द की अष्टसहस्री का आपने हिन्दी अनुवाद करके यह सिद्ध कर दिया है कि न्याय तथा दर्शन के क्षेत्र में आपका पूर्ण अधिकार है। अष्टसहस्री दर्शनशास्त्र का बहुत ही क्लिष्ट ग्रन्थ है। इसी कारण इसे कष्टसहस्री भी कहा जाता है; क्योंकि इसमें उल्लिखित प्रमेयों का ज्ञान सरलता से नहीं होता है, किन्तु वह कष्ट साध्य (मानसिक परिश्रम साध्य) है। आपकी प्रेरणा से हस्तिनापुर में जैनागम के अनुसार जम्बूद्वीप की रचना हुई, जो एक अद्भुत दर्शनीय स्थल है। मुझे अपने जीवन में केवल एक बार पूज्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। सन् १९८१ के अफूटबर माह में आपकी जन्म जयन्ती के अवसर पर हस्तिनापुर में जैन भूगोल पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। उस सेमिनार में मैंने भाग लिया था और जैन भूगोल पर एक निबन्ध भी प्रस्तुत किया था। उस समय पूज्या माताजी के दर्शन कर तथा उनके प्रवचन को सुनकर अपूर्व आनन्द प्राप्त हुआ था। जैन-धर्म, जैन-साहित्य और जैन संस्कृति के उन्नयन में आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। आपका व्यक्तित्व विलक्षण और बहुआयामी है। आपकी चारित्रसाधना उत्कृष्ट है। नाम के अनुरूप आपकी प्रतिभा अद्वितीय है। आप ज्ञान की अनुपम निधि हैं। आप बालब्रह्मचारिणी हैं और सम्पूर्ण भारत में आपका नाम विख्यात है। अतः विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए भारत की समग्र दि० जैन समाज ने त्रिलोक शोध संस्थान के तत्त्वावधान में माताजी को एक अभिवन्दन ग्रन्थ समर्पण करने की जो योजना बनाई है वह अत्यावश्यक और प्रशंसनीय है। मैं इस शुभ अवसर पर पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी को अपनी सादर सविनय विनयाञ्जलि समर्पित करता हुआ श्री जिनेन्द्र देव से कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी चिरकाल तक स्वस्थ रह कर इसीप्रकार जैन धर्म, साहित्य और संस्कृति के उन्नयन में संलग्न रहें। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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