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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला प्राचीन आचार्य परम्परा की संवाहिका -डॉ० कमलेश कुमार जैन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ पूज्या आर्यिका ज्ञानमती माताजी इस शताब्दी की अद्वितीय परम विदुषी हैं। उन्होंने अपनी साहित्य-साधना के माध्यम से आबाल-वृद्धों को प्रभावित किया है। जहाँ बालकों एवं युवक-युवतियों के लिए पूज्या माताजी ने सरल एवं सरस साहित्य की रचना की है, वहीं विद्वानों को चमत्कृत करने वाले 'अष्टसहस्री' जैसे न्याय के गूढ़ ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद और 'नियमसार' की संस्कृत टीका की है, जो उन्हें प्राचीन आचार्यों की परम्परा से जोड़ती है। ये कार्य निश्चय ही पूज्या माताजी की विशिष्ट प्रतिभा और अटूट लगन के प्रतीक हैं। अभिवन्दन समारोह के इस पुनीत अवसर पर हम अन्तःकरण से उनके दीर्घायुष्य की मङ्गलकामना करते हैं। प्रखर प्रतिभा की प्रतिमूर्ति - डॉ० पुष्पलता जैन, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, एस.एफ.एस. कॉलेज, नागपुर यह प्रसन्नता का विषय है कि पूज्या ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया है। माताजी की प्रखर प्रतिभा और उनके अध्यवसाय ने उन्हें एक ओर सफल लेखिका के रूप में प्रतिष्ठित किया है, तो दूसरी ओर जम्बूद्वीप की कलात्मक रचना से उनकी कलाप्रियता का आभास होता है। माताजी ने जैन-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया है, मौलिक और अनूदित सैकड़ों ग्रंथों की रचना कर नारी समाज को जो उत्साहित किया है, वह अपने आप में अनूठा है। हमारी शुभकामना है कि वे स्वस्थ और निरामय रहकर अपने जीवन की शताब्दी मनाने का अवसर प्रदान करें। "मातरं वन्दे" -डॉ. प्रेमचंद रांवका-महापुरा [राज०] भारतीय संस्कृति के अध्यात्म-साधना क्षेत्र में श्रमण-परम्परा का प्रारम्भ से ही विशिष्ट एवं अपरिहार्य योगदान रहा है। अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर के पश्चात् अन्तिमश्रुतकेवली भद्रबाहु, आ० धरसेन के शिष्य द्वय पुष्पदन्त और भूतबली, आ० कुन्दकुन्द एवं आ० उमास्वामी से अद्यावधि जैनाचार्यों-सन्तों ने अपनी उत्कृष्ट आत्म-साधना के साथ उत्कृष्ट साहित्य का भी सृजन किया। इसी परम्परा में आर्यिकारत्न पूज्या श्री ज्ञानमती माताजी ने माँ भारती की आराधना में जो ग्रन्थरत्न प्रणीत किये हैं, वे सर्व संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से भारतीय वाङ्मय के अपरिहार्य अंग हैं। आत्म-साधना, ज्ञानाराधना और मानव-मात्र के हितार्थ सदुपदेश एवं साहित्य-सृजन आर्यिका श्री के महनीय व्यक्तित्व के परिचायक हैं। उनकी समग्र साधना जिनवाणी माता की आराधना में ही रहती है। बहुभाषी, विदुषी आर्यिकाश्री के प्रवचनों एवं ग्रन्थों को सुन-पढ़कर गृहस्थ, साधु-साध्वी, विद्वान्, शोधार्थी प्रभावित, उपकृत एवं नतमस्तक हुए बिना नहीं रहते। प्रत्येक जिज्ञासु आपसे निःशंक एवं सन्तुष्ट होते हैं। __ अनेक बार आपके दर्शनों का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। आप साक्षात् प्रज्ञावती-सरस्वती हैं। विभिन्न भाषाओं में विविध विधाओं में रचित आपका साहित्य 'साहित्य' की सार्थकता को व्यंजित करता है। आपके विशाल कृतित्व के प्रति अभिवन्दन-ग्रंथ का प्रकाशन माँ जिनवाणी की आराधना में प्रेरणा-प्रदीपयुक्त माँ भारती की आरती ही है। मातरं वन्दे !! Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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