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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [६९ "माताजी एक पावन तीर्थ हैं" -डॉ० गंगानन्द सिंह झा, विनोदपुर [ बिहार ] भारतवर्ष हिमालय से लेकर हिन्दमहासागरपर्यन्त महर्षियों, महात्माओं, संतों, सिद्धों एवं अवतारों का विलक्षण राष्ट्र है। यहाँ ये अपनी वाणी का अमृत- जल बरसाते रहे हैं। इन्होंने यहाँ के मनुष्यों से लेकर पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों तक को पवित्र बनाया है। भारतभूमि ही विश्व में ऐसा गौरव प्राप्त कर सकी है। ___ भारत की इन्हीं अध्यात्म-विभूतियों में श्री ज्ञानमती माताजी भी एक हैं। ये भारतीय संस्कृति के मूर्तरूप हैं। अध्यात्म-विभूतियों कीवाणी आत्मा को पवित्र करती है। यही गुण माताजी की वाणी में भी है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। ये स्वयं में अपार-तेजस्वी व्यक्तित्व रखती हैं। महती साधना और तपस्या के अतिरिक्त इन्होंने प्रभूत आध्यात्मिक साहित्य समाज को प्रदान किया है जिसकी निप्तान्त उपादेयता एवं महत्ता को अस्वीकारा नहीं जा सकता। इनके ग्रंथ "जैनभारती" "ज्ञानामृत" "जिनस्तवनमाला" "इन्द्रध्वज विधान" आदि के अवलोकन से इनके अनल्प परिश्रम के अतिरिक्त इनकी मर्मग्राहिणी दृष्टि तथा ज्ञान-प्रौढ़ता का सहज परिचय होता है। माताजी अपने आप में एक पावन तीर्थ हैं। ऐसे तीर्थ का निरन्तर साहचर्य-सानिध्य प्राप्तकर मैं अपने को धन्य बनाऊँ- यह मेरी हार्दिक कामना रहती है। पर पारिवारिक और सामाजिक उलझनें यह सुयोग नहीं प्राप्त होने देती हैं। माताजी अपना संदेश, उपदेश एवं आशीष देती रहें यही उनसे प्रार्थना है। उनकी अमृतवर्षिणी वाणी सारे भारत में गूंजती रहे, जिससे यह धरती अपने सभी जीवों के साथ ऐसी माताको स्मरण करती रहे। चलती-फिरती इनसाइक्लोपीडिया - डॉ० अनुपम जैन, स० प्राध्यापक-गणित संपादक- अर्हत्वचन [इन्दौर] म०प्र० "जैन गणित, भूगोल एवं खगोल के विषय में यदि जानना है तो आप पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के पास हस्तिनापुर जाओ, क्योंकि उनकी सानी का कोई दूसरा विद्वान् इस विषय में नहीं है।" ये शब्द हैं- धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री जयचन्द जैन, मेरठ के, जो उन्होंने सितम्बर-८० में मुझसे कहे थे। उनकी प्रेरणा से हस्तिनापुर आने पर मुझे पूज्य आर्यिका माताजी के रूप में एक ऐसे दैदीप्यमान सूर्य के दर्शन हुए जिससे ज्ञान-विज्ञान के अनेकों क्षेत्रों सहित धर्म एवं समाज के विविध क्षेत्र दीप्तिमान हैं। निर्माणाधीन जम्बूद्वीप रचना के मध्य में बना ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत, एक छोटे से कमरे में विराजमान भगवान महावीर की खड्गासन मनोहारी प्रतिमा। आ० वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ के भवन में चल रहा संस्थान का कार्यालय, ब्रह्मचारी निवास, स्वाध्याय भवन, अतिथिगृह एवं १०-१२ कमरों की एक धर्मशाला जिसका आर्यिका संघ निवास, सरस्वती भंडार, भोजनशाला, भण्डार गृह, यात्री निवास आदि में उपयोग किया जाता था। बस यही था १९८० में संस्थान का परिसर । आज १९९२ में यह परिसर १६ एकड़ में विस्तीर्ण होकर विश्व की अद्वितीय, जम्बूद्वीप रचना, उसमें किया गया लाइट, फव्वारों का मनोहारी संगम, भव्य कमल मन्दिर, विस्तृत सभागार युक्त तीन मूर्ति मन्दिर, रत्नत्रय निलय,जम्बूद्वीप पुस्तकालय, इतिहास का ज्ञान कराने वाला कला मन्दिर, सुविस्तीर्ण जम्बूद्वीप उद्यान तथा २०० फ्लैट्स एवं कमरों से युक्त है। प्रत्येक पर्यटक एवं तीर्थयात्री यही कहता है कि पूज्य माताजी ने जम्बूद्वीप के रूप में जैन समाज ही नहीं, अपितु देश को एक अद्वितीय चीज दी है। सभी उनकी दूरदृष्टि के प्रति विनयावनत हो जाते हैं, किन्तु क्या यही पूज्य माताजी का सम्पूर्ण कृतित्व है ? नहीं। वस्तुतः यह तो उसका शतांश है। पूज्य माताजी ने सम्पूर्ण देश की पदयात्रा, निरन्तर व्रत-उपवास, तपश्चरण के माध्यम से जो अपरिमित शक्ति अर्जित की है उसका ही यह प्रतिफल है कि उनके सम्मुख पहुँचने वाला प्रत्येक आबाल-वृद्ध नर-नारी सहज ही अपने दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों को विस्मृत कर नतमस्तक हो जाता है। उनके सामने अन्तर्मन में त्याग एवं संयमित जीवन की धारा प्रवाहित होने लगती है। अंग्रेजी में एक उक्ति है If you do not understand my silence, you can't understand my words. इसमें निहित भाव के अनुरूप शब्द से अधिक प्रभावी मौन से प्रेरणा ग्रहण कर सहज ही अनेक पुवक-युवती संयम पथ की ओर अग्रसर हो अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से रात्रि भोजन त्याग, शीलवत, चर्मत्याग एवं व्रत-उपवासादि ग्रहण करने वाले तो अगणित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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