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________________ ६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "माताजी का व्यक्तित्व, विरोध एवं परिहार के दृष्टिकोण में" - डॉ० दयाचन्द्र साहित्याचार्य, सागर १. श्री ज्ञानमती माताजी भौतिकरत्न न होने पर भी रत्न हैं। यह विरोध है। परिहार-माताजी भौतिकरत्न न होने पर भी आर्यिकारत्न हैं अर्थात् आर्यिकाओं में श्रेष्ठ हैं। २. ज्ञानमती माताजी यथार्थ में ज्ञानमती हैं अर्थात् विशिष्ट क्षायोपशमिक ज्ञान से सम्पन्न ज्ञानमती हैं। ३. ज्ञानमती, माता की माता हैं यह आश्चर्य है; क्योंकि माता की तो पुत्री होती है माता नहीं। पर कोई आश्चर्य नहीं । यतः यथार्थ में रत्नमती आर्यिका माता की परम्परा में ज्ञानमती आर्यिका माता हैं। ज्ञानमती, माता की माता हैं यह वैचित्र्य है। पर विचार करने पर कोई वैचित्र्य नहीं। कारण कि ज्ञानमती माता, भारत माता की आर्यिका माता हैं। ५. सन्तान रहित होने पर भी ज्ञानमती, माता कही जाती हैं, यह विरोध है। इसका परिहार है कि ज्ञानमती, पारिवारिक माता न होने पर भी लोक माता हैं, कारण कि लोक का हित करती हैं। ६. ज्ञानमती न केवल आर्यिकाओं में गणिनी हैं, अपितु आप भारतीय गणतंत्र की भी गणिनी हैं। ७. ज्ञानमती वह ज्ञान की तरंगिणी हैं, जिससे तत्त्वोपदेशरूप नहरें निकलकर भारत के प्रान्तों में बहती हैं, जिनमें अज्ञानी प्राणी अवगाहन कर ज्ञान प्राप्त करते हैं। ८. ज्ञानमती, सरस्वती माता की वह वरद सन्तति हैं, जिसने जैन शासन की शत-शत पुस्तकों को जन्म दिया है, जिनके मनन से मानव जिनवाणी के सच्चे उपासक बन जाते हैं। ज्ञानमती वह अपूर्व जननी हैं कि जिसने त्रिलोक शोध संस्थान को जन्म देकर तीनलोक की माता बनने का प्रयास किया है। १०. ज्ञानमती वह अनुपम विधात्री हैं, जिन्होंने विशाल जम्बूद्वीप में जम्बूद्वीप तीर्थ का आविष्कार किया है, जो जम्बूद्वीप अत्युनत मेरु रूप हस्तांगुलि के संकेत से मान लो यह मानवों के प्रति कह रहा है कि यदि आपके पास सम्यग्दर्शन रूप पाथेय (नाश्ता) है तो इससे स्वर्ग एवं अपवर्ग का मार्ग सरल (सीधा) हो जाता है। ज्ञानमती दिगंबर (अकिंचन) होते हुए भी रत्नों के तार से विभूषित हैं, यह विरोधाभास है। निराकरण यह है कि ज्ञानमती अकिंचन होते हुए भी आत्मिकरत्न सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र से विभूषित हैं। इन ग्यारह वाङ्मय मणिमाला को हस्तयुगल में समर्पित कर हम पूज्य ज्ञानमती माता को विनयांजलि अर्पित करते हैं। "दृढ़ संकल्प की साक्षात् प्रतिमूर्ति" - डॉ. अशोक कुमार जैन, पिलानी [ राज० ] बीसवीं शती में जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जिन आर्यिकाओं का उल्लेखनीय योगदान रहा है, उनमें प० पू० आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का स्थान अग्रगण्य है। उनके दर्शनों के सुयोग के साथ ही उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की अनेक विशेषताओं को जानने का अनक बार सुअवसर प्राप्त हुआ। श्रद्धा, ज्ञान और कर्म का समन्वित रूप उनमें विद्यमान तो है ही, साथ ही वह जिस भी कार्य को करने का संकल्प करती हैं उसमें अनेकानेक विघ्न-बाधाएँ आने पर भी निर्णय पर अडिग रहती हैं। जिन शासन की प्रभावना में उनका अप्रतिम योगदान है। उनके द्वारा सम्पादित. अनुवादित तथा मौलिक रूप में लिखे गये ग्रन्थ अपार वैदष्य के परिचायक हैं। मेरे लिए जिनवाणी के प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य हेतु उन्होंने कई बार प्रेरणा प्रदान की। आगम परम्परा की रक्षा के लिए वे दृढ़ संकल्प रखती हैं। गम्भीर से गम्भीर आकस्मिक विषयों को सरल से सरल तरीके से समझाना इनकी वक्तृत्व कला की विशेषता है। उनका अभिवंदन ग्रन्थ प्रकाशित कर समाज ने अपनी कृतज्ञता का अर्घ्य समर्पित कर स्तुत्य प्रयास किया है। ___ मैं इस अवसर पर उनके यशस्वी दीर्घ जीवन की मंगलकामना करते हुए यही प्रार्थना करता हूँ कि उनके द्वारा जिनशासन की प्रभावना होती रहे तथा समाज को मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे। मैं पू० माताजी के चरणों में विनम्र विनगालि सिनेदित करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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