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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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माताजी का टोंक प्रवास दिव्य कीर्ति - विस्तार के प्रारम्भिक क्षण
- डॉ० गंगाराम गर्ग, एसोसियेट प्रोफेसर म०शी० नया स्वायत्तशासी महाविद्यालय, भरतपुर
राजस्थान की हृदय-स्थली में पुराना पिंडारी- राज्य टोंक साम्प्रदायिक सौहार्द का उल्लेखनीय स्थान रहा है। जैन विषयक पुरातत्त्व और हस्तलिखित ग्रन्थ दलों के वैभव को अपने आँचल में थामे रखने वाली इस पुण्य-भूमि ने कभी आचार्य सकलकीर्ति और इनके दीक्षा-गुरु भट्टारक पद्मनंदि दोनों यशस्वी पुरुषों के चरणामृत के आस्वादन का सौभाग्य भी पाया था।
सन् १९७० में चातुर्मास के बहाने पधारे आचार्य धर्मसागरजी महाराज और उनके संघस्थ त्यागीवृन्द के चरण चाँपने का सुयोग भी इस भूमि ने पाया। धर्मानुरागी श्रावकों के पुण्योदय से पचासों पीछियाँ माताजी ज्ञानमती सहित अन्य आर्यिकाएँ तथा कई मुनिजन एक साथ प्रकट हुए। टोंक नगर में स्थित नसियाँजी में; जहाँ के निकटवर्ती भूगर्भ में से आज से ६० वर्ष पूर्व तीर्थंकरों की २६ प्रतिमाएँ भी कभी उपलब्ध हुई थीं। ढूंढाड़
और हाड़ौती अंचल के सभी आबाल वृद्ध नागरिक हर्षातिरेक से धर्म-प्रभावना का लाभ लेते रहे महीनों तक। माता ज्ञानमतीजी के सहज बोधगम्य प्रवचनों में भी स्त्री-पुरुष, जैन-जैनेतर सभी सम्मिलित होकर अपने को धन्य समझते थे। पूज्य मुनि शीतलसागरजी महाराज के समाधिस्थ होने तथा फरवरी ७१ में पंचकल्याणक उत्सव आयोजित किये जाने के कारण टोंक नगर की जनता त्यागी-वृन्द के इस शुभ प्रवास की अवधि बढ़वाती रही।
इन्हीं दिनों टोंक नगरी में ही प्राप्त महाकवि पार्श्वदास की पदावली पर शोध कार्यरत होने के कारण जैन धर्म के तत्त्वों और विचारधारा को समझने तथा मुनिचर्या को निकटता से देखने के उद्देश्य से मैं माताजी के सान्निध्य में आया। माताजी का सरल स्वभाव, वत्सलता, स्वाध्याय वृत्ति तथा श्रद्धालु की ज्ञान-पिपासा को पहचान कर उसे शमन करने का उत्साह, यही सब चुम्बकीय शक्ति बनकर मुझे माताजी की चरण-सेवा में ले गया। सभी कुछ अनौपचारिक और आकस्मिक था। यह मेरा परम सौभाग्य था। माताजी के शुभाशीष भाव से रंगे अनेक स्मृति-चित्र मेरे मानस की रील में प्रतिष्ठापित होकर एक उत्तम निधि बन चुके हैं आज जिनकी कल्पनामात्र प्रेरणाप्रद होने के अतिरिक्त आनन्ददायी भी है।
जम्बूद्वीप रचना की योजना सम्भवतः उन दिनों भी माताजी के मानस स्थल में अंकुरित एवं पल्लवित थी। मुझे वह इससे सम्बन्धित साहित्य देतीं और कुछ पढ़ने को उत्साहित करतीं। जैन संस्कारों के अभाव में मुझे तब जम्बूद्वीप विषयक कोई जानकारी न थी; किन्तु माताजी की माधुर्यपूर्ण
और बोधगम्य व्याख्यान शैली ने इस विषय में जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न कर दी थी। तब मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि माताजी के मानस-स्थल में विद्यमान यह सामान्य दिखने वाला बीज कालान्तर में साकार होकर एक विशाल बरगद के रूप में प्रकट होगा तथा युग-युगों तक अपनी शीतल छाया से संतप्त विश्व-मन को शीतलता प्रदान करता रहेगा।
दृढ़ इच्छा शक्ति का मूर्तिमंत स्वरूप, निरन्तर साधना-लीन स्वाध्यायरत तथा सर्वलोक वंदित माताजी ज्ञानमती के सर्वसुलभ चरणों में मेरा कोटिशः वंदन।
श्रेष्ठ धर्मप्रभावक साध्वी
- डॉ० सुभाषचन्द्र अक्कोले निदेशक, अनेकान्त शोधपीठ, बाहुबली [कोल्हापुर] महा०
हमें इस साल चातुर्मास में प०पू० गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शन का सौभाग्य मिला। हमने हस्तिनापुर मे दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के अंतर्गत जम्बूद्वीप रचना देखो और वहाँ से सरधना जाकर पू० माताजी के आशीर्वाद प्राप्त किये। महाराष्ट्र और कर्नाटक के भक्तजनों के प्रति उनके हृदय में बड़ा वात्सल्यभाव देखा
_ विद्यमान् दिगम्बर जैन साध्वी परम्परा में वह एक अद्वितीय तेजपुंज "ज्ञानमती'' है। रत्नत्रय तेज से अपनी आत्मा की प्रभावना तो उन्होंने की हो है। अतिशय क्षेत्र जम्बूद्वीप की रचना, विद्वन्मान्य साहित्य निर्माण “सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्र, भारतभूमि की पद्यात्रा, संस्कृत विद्यापीठ का मंचालन वी गानोदय ग्रन्थमाला आदि का कार्य जैन समाज के इतिहास में अतुलनीय कहलायेगा।
पूज्य माताजी के aunt म हमारी विनयांजलि।
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