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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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माताजी की धर्म प्रभावनाओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के पौराणिक विधानों का अनुष्ठान जैनसमाज में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ है। पूरे देश में आजकल इन्द्रध्वज विधान, कल्पद्रुम विधान, पंचमेरु विधान आदि की धूम मची है। माताजी ने हस्तिनापुर, बनारस, राजस्थान आदि अनेक प्रान्तों में जैनशास्त्रानुसारी विधानों का विशाल स्तर पर आयोजन करवाया तथा जैन पूजा विधि को एक परम्परागत दिशा प्रदान की। आपने सर्वतोभद्र महाविधान, तीनलोक विधान, त्रैलोक्य विधान, तीस चौबीसी विधान, ऋषि मंडल पूजा विधान, जम्बूद्वीप विधान आदि अनेक जैन विधानों की शास्त्रीय विधि पर पुस्तकें लिखी हैं और विभिन्न पौं त्यौहारों के अवसर पर इनका सामाजिक स्तर पर भी अनुष्ठान करवाया है। प्रायः ऐसा देखने में आया है कि जहाँ जहाँ माताजी ने इन विधानों का अनुष्ठान करवाया, श्रद्धा एवं धर्मप्रभावना की एक निरछल आस्था जनमानस में बहती चली गई।
प्रतिमा प्राणप्रतिष्ठा जैन धर्म का अत्यन्त लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान रहा है। प्राचीन काल से ही प्राणप्रतिष्ठा की विधियाँ शास्त्रों में बताई गई हैं, किन्तु तरह तरह के पाठभेदों और स्थानीय परंपराओं के अनुसार इनमें विविधता भी देखने को मिलती है। इसी महत्त्वपूर्ण समस्या पर १५ अकूटबर १९८९ को माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में देश के विभिन्न प्रतिष्ठाचार्यों की त्रिदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में प्रतिष्ठाचार्य विद्वानों ने सर्वसम्मति से यह निर्णय भी लिया कि एक नये प्रतिष्ठापाठ ग्रन्थ बनाने की अपेक्षा यह अधिक समीचीन होगा कि किसी एक प्रतिष्ठा को आधार मानकर अनुष्ठान किये जाएं। माताजी का इस सम्बन्ध में स्पष्ट मत था कि “पाषाण को भगवान् बनाने के लिए प्रतिष्ठाचार्यों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी रहती है, अतः प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित जितने भी प्रतिष्ठा पाठ हैं उनमें से ही किसी एक को लेकर प्रतिष्ठाविधि करानी चाहिये।" इसी संगोष्ठी में प्रतिष्ठापना की एक सर्वसम्मत नियमावलि भी बनाई गई तथा प्रतिष्ठापकाचार्य के लिए संस्कृत, व्याकरण, सिद्धान्त, शिल्प एवं ज्योतिष का ज्ञान आवश्यक योग्यता माना गया।
जैन धर्म की दृष्टि से हस्तिनापुर एक आदि तीर्थ क्षेत्र रहा है, यहाँ की पावन भूमि में तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणक सम्पन्न हुए। यही वह पवित्र भूमि है जहां आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को अक्षय तृतीया के दिन राजा श्रेयांस ने इक्षुरस का आहार दान दिया था। पूज्य माताजी ने 'हस्तिनापुर' नामक पुस्तक में यह बताया है कि रक्षाबन्धन पर्व, पाँच पाण्डवों की कथा आदि अनेक पौराणिक प्रसंगों की दृष्टि से भी जैन समाज के लिए हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र का कितना महत्त्व है ? सन् १९७४ तक यहाँ एक प्राचीन मन्दिर, तीन छोटे जिनालय और तीन नशियाएँ ही विद्यमान थीं और चारों ओर निर्जनता छाई हुई थी, किन्तु उसके बाद जैसे ही माताजी के चरण इस क्षेत्र में पड़े, केवल १०-१५ वर्षों के अल्प समय में ही हस्तिनापुर विश्व के एक दर्शनीय तीर्थक्षेत्र के रूप में विकसित हो गया।
माताजी ने यहाँ जम्बूद्वीप की भव्य स्थापना की। ८४ फुट ऊँचा सुमेरु पर्वत बनवाया, अनेक जिन-मन्दिरों की पंच कल्याणक प्रतिष्ठा का समायोजन किया और देखते ही देखते १९८५ तक यहाँ जैनशास्त्रानुसारी जम्बूद्वीप का पूरा मॉडल ही प्राणप्रतिष्ठित कर दिया गया। सन् १९८२ में प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने 'जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति' का भारत-भ्रमण के लिए प्रवर्तन किया था तो पूरे देश में एक जम्बूद्वीप इतिहास चेतना का पुनर्जागरण-सा हो गया था। आर्यिका जी के द्वारा हस्तिनापुर जैसे गौरवशाली तीर्थक्षेत्र का जीर्णोद्धार हुआ यह केवल जैन समाज के लिए ही गौरवास्पद नहीं, अपितु समूची भारतीय संस्कृति का ही अभिमण्डन है। हस्तिनापुर जम्बूद्वीपीय भूगोल का एक प्रधान केन्द्र रहा था, आधुनिक हस्तिनापुर का जम्बूद्वीप इसी की अभिव्यक्ति है।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र रत्नत्रय की धारिका पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने निवृत्ति मार्ग में रहते हुए भी जैन समाज को पुनर्जागृत करने, धर्म, इतिहास तथा तीर्थक्षेत्रों का पुनरुद्धार करने के उद्देश्य से लोक मंगल के जो नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं, उनसे जैन धर्म के इतिहास का एक नया अध्याय उद्घाटित हुआ है। आर्यिका चन्दना के समान उनका नाम भी इतिहास में अमर रहेगा।
कलियुग की ब्राह्मी माता - ज्ञानमतीजी
- ब्र०कु० आस्था शास्त्री, संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी
ब्राह्मी माता के सदृश, ज्ञानमतीजी मात ।
सदी बीसवीं की प्रथम, कुंवारी कन्या आप ॥ आज कौन नहीं जानता कि गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिकारत्न हैं। सर्वप्रथम जब इन्होंने त्यागमार्ग की ओर कदम बढ़ाया तब तक किसी क्वारी कन्या ने दीक्षा नहीं ली थी। इसीलिए शुरू में सभी लोग इनके विरोध में थे। इन्हें खूब समझाते, लेकिन
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