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________________ २७६] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला और विद्वत्ता के क्षेत्र में ही योगदान नहीं दिया, बल्कि अनेक मंत्रों का भी प्रणयन किया। सुलभा, गार्गी, मैत्रेयी आदि महिला ऋषियों की विलक्षण तर्कशक्ति और अद्भुत प्रतिभा का आज भी सम्मान किया जाता है। बौद्ध युगीन नारी चिन्तकों की भी एक सुसमृद्ध परम्परा रही है। घेरीगाथा के अनुसार ३२ आजीवन ब्रह्मचारिणी और १८ विवाहित भिक्षुणियों का लेखन, अध्यापन और साहित्य-सृजन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। इनमें भी भिक्षुणी खेमा एक ऐसी महान् विदुषी थी जिसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। भद्राकुण्डकेशा, सुभद्रा आदि बौद्ध भिक्षुणियाँ अपने युग की सर्वविद्या-पारंगत एवं व्याख्यान-कुशल विदुषियाँ मानी जाती थीं। जैन परम्परा में भी विदुषी स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। बौद्धजातक से ज्ञात होता है कि चार जैन विदुषी बहिनों ने देश का भ्रमण करते हुए लोगों को दर्शनशास्त्र पर खुला शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। कौशाम्बी नरेश की पुत्री जयन्ती ज्ञान और दर्शन में विशेष पारंगत थी। जैन सूत्रों में ब्राह्मी, सुंदरी, चंदना, मृगावती आदि ऐसी कितनी ही महिलाओं के उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने सांसारिक सम्बन्धों को त्याग कर सिद्धि प्राप्त की और लोक-कल्याण हेतु उपदेश दिया। भगवान् महावीर की प्रथम शिष्या आर्यिका चन्दना का श्रमणियों में सर्वोच्च स्थान था। अनेक साध्वियों ने उनके नेतृत्व में सम्यक् चारित्र का पालन करते हुए आत्मसिद्धि प्राप्त की। जयन्ती कौशाम्बी नरेश शतानीक की बहिन थी, जो ऐश्वर्य भोग को त्यागकर साध्वी बन गईं। पूज्य माताजी के सांसारिक वैराग्य का कारण 'पद्मनन्दि पंचविंशतिका' का स्वाध्याय था। वैराग्य का ऐसा सात्त्विक कारण ढूँढ़ पाना अत्यन्त दुर्लभ है। 'मेरी स्मृतियाँ' नामक अपने जीवन संस्मरण में माताजी ने लिखा है कि उनकी बाल्यावस्था में दीक्षा धारण का अवसर कितनी सामाजिक कुण्ठाओं और संकीर्ण विचारों से संघर्षशील रहा था। जन-सामान्य ब्राह्मी, सुन्दरी और चन्दना की कुंवारी दीक्षा का भ्रामक प्रचार कर रहा था, किन्तु आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने जब नारी स्वातत्र्य को मानवमात्र का एक निजी अधिकार उद्घोषित किया तो सामाजिक दबावों और भ्रामक संकीर्णताओं के बन्धन खुल गए और १७ वर्षीय बालिका मैना ने आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से सप्तम प्रतिमा रूप ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। बहुतों द्वारा समझाने-बुझाने, तरह-तरह के प्रलोभन देने के बाद भी स्वतन्त्रताप्रिय कुमारी मैना रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु आगे बढ़ गई। इस बालिका की वीरता को देखते हुए ही आचार्य श्री ने इन्हें 'वीरमती' नाम दिया। और वही वीर बालिका चार वर्ष के बाद आचार्य वीर सागर जी महाराज के संघ में दीक्षित हो गईं, किन्तु अब उनका नाम 'वीरमती' के स्थान पर 'ज्ञानमती' हो चुका था। भारतीय चिन्तकों ने उचित ही कहा है-कायर व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी नहीं है-"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" आर्यिका जी ने वीरता और ज्ञान की रश्मियों से अपना लक्ष्य खोजा है। महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमार संभव' नामक महाकाव्य में तपस्या के प्रति पार्वती के जिस दृढ़ संकल्प का उल्लेख किया है माताजी के दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व के साथ उसकी भी तुलना की जा सकती है। नीचे की ओर बहती जलधारा को और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति के इरादों को भला कौन मोड़ सकता है? ___"इति ध्रुवेच्छामनुशासती सुतान शशाक मैना न नियन्तुमुद्यमात् । क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुख प्रतीययेत् ॥” (कुमार., ५/५) पूज्य माताजी ने अपने शैशवकाल से ही जैन शास्त्रों का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया था। दीक्षा धारण करने के बाद उनके ज्ञानार्जन का दायरा विस्तृत होता गया। साहित्य सृजन की प्रतिभा प्रतिस्फुरित हुई और देखते ही देखते उनकी लेखनी से डेढ़ सौ से भी अधिक ग्रन्थ लिखे गये। इन सभी ग्रन्थों में 'अष्टसहस्री' जैसे दुरुह ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में अनुवाद और 'नियमसार' पर 'स्याद्वादचन्द्रिका' नामक संस्कृत टीका जैन दर्शन के इतिहास की बहुमूल्य रचनाएँ ही मानी जायेंगी। आपकी शिष्या आर्यिका श्री जिनमती माताजी तथा आदिमती माताजी ने आपके सानिध्य में रहते 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' और 'गोम्मटसार' जैसे महान् ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद करके न केवल जैन धर्म की विलक्षण सेवा की है, बल्कि एक तत्त्व चिन्तक साध्वी वर्ग द्वारा किये गये साहित्यिक योगदान का अभूतपूर्व उदाहरण भी प्रस्तुत किया है । समूचे जैन साहित्य के इतिहास का यदि सर्वेक्षण किया जाये तो शायद ही कोई ऐसा युग रहा होगा जब किसी जैन साध्वी ने अपने तपोमय जीवन से समय निकाल कर इतने विशाल स्तर पर साहित्य सृजन का भी कार्य किया हो। माताजी के साहित्यिक योगदान का क्षेत्र विशुद्ध शास्त्रीय वाङ्मय ही नहीं रहा है, बल्कि स्त्री-बालोपयोगी साहित्य लेखन को भी आपने विशेष प्रोत्साहन दिया है। कथा-उपन्यास आदि की शैली अपनाकर आम जनता को शिक्षित और सुसंस्कृत बनाना आपके लेखन का मुख्य उद्देश्य रहा है। जैन विद्या को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से आपने 'वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला' की स्थापना की और 'सम्यग्ज्ञान' पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। सिद्धान्त वाचस्पति न्याय प्रभाकर गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने एक सुप्रसिद्ध लेखिका, चिन्तक और साधिका के रूप में जो अपना विलक्षण स्थान बनाया है वह बीसवीं सदी की एक महान् घटना तो है ही, किन्तु वह जैन संघ के इतिहास का भी एक सुनहरा अध्याय है। धर्म प्रभावना की निर्मल सरिता को लोक मानस तक ले जाना आपके जीवन का परमार्थ प्रयोजन है। माताजी ने आर्यिका संघ को एक स्वतंत्र एवं अनुशासनशील संघ की चेतना दी है। उनका दृढ़ विश्वास है कि "जिन संघों में आर्यिकाओं का अनुशासन प्रमुख आर्यिका सँभालती है वहाँ शांति रहती है और समुचित मर्यादा बनी रहती है।" Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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