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________________ गणिनी आर्यिकारण श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ रत्नत्रयपूर्णा- गणिनी ज्ञानमती माताजी - प्रो० टीकमचन्द जैन, नवीन शाहदरा, दिल्ली इस भोगप्रधान युग में, जबकि मानव कभी न तृप्त होनेवाली इच्छाओं के पोषण में ही लगा है तथा आत्मसाधना, त्याग व संयम से विमुख होता जा रहा है, ऐसे निकृष्ट समय में भी इच्छा निरोध की पराकाष्ठा पर पहुँची परम तपस्विनी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, परम विदुषी, साधु संस्था की निर्मात्री, परोपकारी, सर्वोपयोगी विपुल साहित्य की सृजनकर्त्री, जम्बूद्वीप रचना की पावन प्रेरिका पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी सर्वत्र सम्यक् ज्ञानज्योति का प्रसार कर अशान्त व क्लान्त मानव को शाश्वत सुख शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं। भगवान् महावीर के शासन काल की आप एक अपूर्व लेखिका हैं जिनकी दिव्य लेखनी २० वीं शताब्दी से २१वीं शताब्दी तक अनवरत चलकर उससे निःसृत ज्ञान प्रवाह से शताब्दियों तक भव्य जीवों को आत्म कल्याण का मार्ग निर्देशित करती रहेगी। [२७५ विश्ववंद्य इस महान् विभूति के प्रथम दर्शनों का सौभाग्य मुझे अपने गृह नगर पचेवर में प० पू० स्व० आचार्य श्री धर्मसागरजी के संघ के साथ हुआ। इन्द्रध्वज मण्डल विधान के आयोजन पर आपके नवीन शाहदरा पधारने पर विशेष सान्निध्य मिला और तब ही आपने मुझे जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के संचालक के रूप में राजस्थान जाने को कहा। आपके आशीर्वाद से लोहारिया तक ज्ञान ज्योति रथ के साथ जाकर मैंने अपूर्व धर्म लाभ प्राप्त किया। जन-जन में आपके प्रति अपूर्व भक्ति व निष्ठा देखकर मैं दंग रह गया, जिसके प्रभाव से सबने जम्बूद्वीप रचना हेतु सहर्ष योगदान दिया। फलस्वरूप आज यह विश्व की अनुपम रचना प्रसिद्ध दानतीर्थ हस्तिनापुर में स्थित है और आधुनिक वैज्ञानिकों को चुनौती देकर सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाणित कर उठी है। 1 Jain Educationa International आप सच्चे देवशास्त्र गुरु की दृढ़ श्रद्धानी, असीम ज्ञान की भण्डार तथा निरतिचार संयम पालने वाली होने के कारण रत्नत्रयपूर्णा हैं। बाल्यावस्था से ही न केवल आपने अपने आपको मोक्षपथ पर लगाया, वरन् अपने परिजनों को भी त्याग के इस दुर्लभ मार्ग पर लगाकर अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। आपको निस्पृहता और निर्मोह का अपूर्व उदाहरण उस दिन भी देखने को मिला जब आपकी गृहस्थावस्था की लघु बहन माधुरी जी आपसे दीक्षित होकर पूज्या आर्यिका चन्दनामतीजी बनीं उनके घने केशलोंचन का दृश्य देखकर जहाँ उपस्थित विशाल जनसमुदाय की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी, वहीं आप लम्बे बालों को घास के समान उखाड़ती जा रही थीं। भेद विज्ञान से प्राप्त पूर्ण वैराग्य की अवस्था में ही ऐसी स्थिति हो सकती है। अपनी दृढ़ता, ज्ञान एवं कृतित्व के कारण समस्त विश्व में आपकी प्रसिद्धि होना स्वाभाविक था । इसीलिए देश-विदेश के अनेक गणमान्य व्यक्ति, राजनेता, श्रीमन्त एवं विद्वान् आपके चरणों में नतमस्तक होकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, किन्तु ऐसी अपूर्व प्रसिद्धि भी आपके अहं को नहीं जगा सकी; क्योंकि आप जलते भित्र कमल के समान सब बातों से निर्लिप्त रहती हैं। प्रस्तुत अभिवन्दन ग्रन्थ आपके अहं को तुष्टि हेतु नहीं, वरन् स्वं अहं को नष्टकर आपके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु है, ताकि हम आपके अनुगामी बनकर आत्म कल्याण कर सकें। हम सबकी मंगल कामना है कि आप रत्नत्रय की निर्बाध साधना करती हुई दीर्घकाल तक हमें रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का बोध कराती हुई स्व-पर कल्याण में रत रहें ।. माताजी साध्वी ही नहीं, महान् धर्म प्रभाविका भी हैं सुमत प्रसाद जैन, १६१७, दरीबाकलाँ, दिल्ली-६ जब भी पूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी के तपोमय, ज्ञानमय और साधनामय जीवन दर्शन के सन्मुख नमोऽस्तु करने का अवसर मिला है तो परम पूज्य आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज के ये वचन स्मरण हो आते हैं: “पारस मणि तो लोहे को सोना बनाता है, पारस रूप नहीं बनाता, किन्तु ज्ञानमती माताजी वह पारस हैं जो लोहे को सोना ही नहीं, बल्कि पारस बना देती है। | दरअसल, आर्यिका ज्ञानमती माताजी का प्रातःस्मरणीय आत्मचरित नारी जाति के गौरवपूर्ण इतिहास का भी अभिवन्दन है प्राचीन काल से ही भारत की तत्त्वचिन्तक विदुषियों ने ज्ञान तप तथा धर्म साधना के क्षेत्र में जो अपना महनीय योगदान दिया है, वही परम्परा आज भी माताजी जैसी ज्ञानविभूतियों से धन्य हुई है। वैदिक युग में भी लोपा मुद्रा, विश्ववारा, सिक्ता, घोषा आदि ऐसी पंडिता स्त्रियाँ हुई थीं, जिन्होंने शिक्षा, ज्ञान For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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