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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ धन्य मात तेरा जीवन - कु० किरणमाला जैन, टिकैतनगर भारतवर्ष की पावन वसुन्धरा पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। उन्हीं महापुरुषों में कुंवारी कन्याओं का मार्ग प्रशस्त करने वाली परम पूज्यागणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी भी हैं। जिस प्रकार गुलाब स्वयं काँटों में रहकर दूसरों को सुगन्ध प्रदान करता है। उसी प्रकार पूज्या माताजी स्वयं अनेक कष्टों को सहन करते हुए अनेक ग्रन्थों की रचना करके अपनी सुगन्ध रूपी वाणी को जन-जन तक पहुंचा रही हैं व जैनधर्म की सेवा तथा मानव कल्याण में निरन्तर अग्रसर हैं। Jain Educationa International पूज्या श्री माजी ने अपनी लेखन शैली द्वारा ऐसे भी आधुनिक शिक्षाप्रद अनेक अन्थ की रचना को व अनेक ग्रंथों की हिन्दी टीका करके प्रकाशित कराया है, जो कि इस युग के मानव के लिए सुलभता से ज्ञान प्राप्त करने का साधन बन गये हैं। ऐसी उन ज्ञान गुणों की खान पूज्या माँ श्री ज्ञानमती माताजी के विषय में कहना ही क्या ? यद्यपि उनके विषय में कुछ कहना सूर्य का दीपक दिखाने के समान है; फिर भी मैं टूटे-फूटे शब्दों में कुछ लिखने का प्रयास कर रही हूँ। बात उन दिनों की है, जब में तेरह वर्ष की थी। उस समय तक मैने अपनी स्मृति में किन्हीं साधुओं के दर्शन नहीं किये थे। घर में मैं अक्सर माँ व पिताजी आदि से पूज्या माताजी के वैराग्यपूर्ण जीवन के बारे में सुनती थी व मन में सोचा करती थी कि सम्पूर्ण विश्व जिनका गुणगान करता है, जिनके श्रीचरणों में सभी के मस्तक श्रद्धा से झुक जाते हैं, ऐसी जगज्जननी माँ ज्ञानमती माताजी के दर्शनों का सौभाग्य में कब प्राप्त कर सकूँगी ? क्या मुझे भी कभी उनके सानिध्य में रहने का अवसर मिल सकेगा ? आखिरकार ऐसा सुनहरा अवसर आ ही गया। मुझे स्मरण है, मेरी माधुरी बुआजी (जो कि उस समय पू० माताजी के पास बाल ब्रह्मचारिणी के रूप में रहती थी और आज परम पूज्या आर्यिका चन्दनामती माताजी बन चुकी हैं) कुछ दिनों के लिए घर आई हुई थीं। जाते समय मुझसे बोलीं मेरे साथ नयी दिल्ली चलोगी, वहाँ पृ० श्री ज्ञानमती माताजी, पू० रत्नमती माताजी व पू० शिवमती माताजी होंगी, उन सभी के दर्शनों का सौभाग्य तुम प्राप्त होगा। मेरा कहने पर बुआजा ने मेरे पिताजी से भी अनुमति ले ली। पिताजी की अनुमति मिल जाने पर मानो मेरे मन की मुराद पूरी हो गई। मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा। इस तरह मुझे प्रथम बार अपनी बुआजी के कारण पू० श्री माताजी के दर्शनों का एवं कुछ दिनों तक उनके सानिध्य में रहकर धर्म लाभ उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब से लेकर वर्ष दो वर्ष में निरन्तर पू० माताजी के दर्शनों का व उनके सानिध्य में महीना-पन्द्रह दिन रहकर उनकी सेवा करने व धर्मलाभ प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो जाया करता है। सच कहते हैं मेरे पिताजी कि पूर श्री माताजी में एक अद्भुत चुम्बकीय शक्ति है कि जो भी उनके पास जाता है लौटकर वापस आने का नाम नहीं लेता। मैं जब भी उनके पास दर्शनों के लिए जाती हूँ कभी भी मन से वापस नहीं आती हूँ, जबरन आना पड़ता है। पू० ज्ञानमती माताजी से व पू० चन्दनामती माताजी से हम सभी को इतना अधिक आशीर्वाद व स्नेह मिला है कि मेरे लिए उसे शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है। मैं जिनेन्द्र प्रभु से यही मंगल प्रार्थना करती है कि मुझमें भी इतनी शक्ति आ जाये कि पू० श्री माताजी के बताये पथ पर मैं भी चल सकूँ तथा आत्म-कल्याण कर सकूँ । परम पूजनीया १०५ प्रातः स्मरणीया, श्रद्धेया, जगज्जननी, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के श्री चरणों में मेरा शत शत वंदन | परोपकार माताजी के जीवन की सार्थकता : [ १६१ गणिनी आर्यिकारत्न जगत् विख्यात सम्यक्त्वशील आर्यिका श्री ज्ञानमतीजी ने परम पवित्र जिनवरों के चरणरज में अवतार लेकर जैनधर्म की प्रभावना पूर्वख अखण्ड सम्यग्ज्ञान की ज्योति जगाकर भव्यात्मा जीवों के लिए चिर स्मरणीय कुछ तथ्यों का प्रतिपादन किया है, जो निम्न प्रकार हैं जैन धर्म का आपने अपूर्व पठन-मनन कर चारों अनुयागों का लेखन करते हुए जम्बूद्वीप जैसी रचना का निर्माण कराया है। इसके साथ ही आपने अपने जीवन में शारदा माँ की पुत्री बनकर चारों अनुयोगों का अध्ययन कर भाग्यशाली जीवों के हाथ में निम्न प्रकार के ग्रन्थराज उपलब्ध कराये हैं समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्ट पाहुड़, पंचास्तिकाय आदि की अपूर्व गाथाओं का आधार लेकर उसमें भावों को ऐसा उड़ेला है, जो पढ़ने वाले भव्य जीवों को प्रत्यक्ष में निज आत्मानुभव का आनन्द प्राप्त कराते हैं। इसलिए आपकी परम दिव्य लेखनी इस भारत-भूमि पर चिरकाल तक रहती हुई गंगा नदी की तरह सदा बहती रहे। शान्तीसागरजी महाराज दक्षिण वाले की तरह जिनवाणी की सुरक्षा में आप सतत संलग्न हैं। For Personal and Private Use Only धूलचन्द्र जैन, चावंड [राज०] -- www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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