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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
जिनका पता भी नहीं चला। यही तो भक्ति का आनन्द है। माताजी ने अपने विधानों के माध्यमन से पूजा, अर्चना एवं जिनभक्ति की ओर जन सामान्य को मोड़ने में महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। कल्पद्रुम विधान के पश्चात् अभी माताजी ने सर्वतोभद्र विधान की रचना करके एक और यशस्वी कार्य कर डाला। इसमें तीनों लोकों के समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजाएँ हैं। ढाई द्वीप के पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं पाँच महाविदेहों के तीर्थंकरों की पूजाएँ हैं। यह विधान भी भक्ति रस से ओत-प्रोत है, इसमें ४० प्रकार के छन्दों का प्रयोग करके माताजी ने अपने रचनाकौशल का अपूर्व परिचय दिया है।
इस प्रकार माताजी ने सामान्य जैन समाज में भक्ति रस की गंगा प्रवाहित करने का जो महान् कार्य किया है, वह उनके चामत्कारिक व्यक्तित्व का परिचायक है। हम उनके प्रति श्रद्धावनत हैं तथा हार्दिक इच्छा होती है कि साहित्य निर्माण की जो शक्ति माताजी में है वह शक्ति हमें भी प्राप्त हो।
बहुश्रुत विदुषी लेखिका आ० ज्ञानमती माताजी
- डॉ० प्रेमसुमन जैन - उदयपुर
संस्कारों की प्रतिमूर्ति, संस्कृति की संवाहिका, श्रमण धर्म की साधिका, सरस्वती की आराधिका, संकल्पों को साकार रूप देने वाली, स्याद्वाद सिद्धान्त की विवेचिका, स्नेह और वात्सल्य की सागर तथा स्त्री समाज की मार्ग दर्शिका के समन्वित व्यक्तित्व का नाम है- पूज्य आर्यिकारत्न श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी। हस्तिनापुर में स्थापित जम्बूद्वीप-रचना और आर्यिका ज्ञानमती माताजी आज एक-दूसरे के नाम से जाने जाते हैं। जैन साधु साध्वियों में अनेक तपस्वी मुनि-आर्यिका हुए हैं। उनमें से अनेक विदुषी लेखक-लेखिका हुए हैं। कई के नाम शासन प्रभावक एवं समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। कुछ तीर्थ एवं कला-संस्थानों के संस्थापक व संरक्षक के रूप में भी जाने जाते हैं, किन्तु यदि व्यक्तित्व के ये सब आयाम किसी एक साधक-साधिका में सम्मिलित रूप से देखने हों तो तब एक ही नाम उभरकर सामने आता है, वह है- पूज्या आ० ज्ञानमती माताजी का नाम । यहाँ उनके विदुषी लेखिका रूप का ही संक्षिप्त दर्शन करने का प्रयत्न किया गया है।
सन् १९३४ में शरद् पूर्णिमा को उ०प्र० के टिकैतनगर में जन्मी एवं वैराग्य और ज्ञान को ध्येय बनाकर सारे देश को अपने पावन चरणों से नापने वाली आ० ज्ञानमती जी निरंतर लेखन और स्वाध्याय से जुड़ी हैं। आपने जितने शिष्य-शिष्याएँ, मुनि, आर्यिकाएँ निर्मित करने में अपना योगदान दिया है, उससे अधिक संख्या में आपने ग्रन्थों का प्रणयन किया है। लगभग १५० पुस्तकों की लेखिका होने का कारण वर्तमान शताब्दी में जैन समाज की साधक महिलाओं में आप प्रथम महिला साधिका हैं। देश के नारी समाज के लिए यह गौरव की बात है, प्रेरणा का पथ है। पुरुषार्थ के लिए चुनौती है।आ० ज्ञानमतीजी की रचनाएँ विविधता लिये हुए हैं। सभी स्तरों के पाठकों के लिए हैं। दार्शनिक जगत् और कर्मसिद्धान्त के क्षेत्र में प्रचलित ग्रन्थों का उन्होंने सम्पादन-अनुवाद किया है तो जैन धर्म और दर्शन पर स्वतंत्र प्रामाणिक पुस्तक भी लिखी है। प्रतिनिधि जैनपुराण ग्रन्थों के कथानकों को नयी शैली में प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर उन्होंने संस्कृत-प्राकृत के ग्रन्थों पर हिन्दी-संस्कृत में स्वतंत्र टीकाएँ भी लिखी हैं। नारी के उत्थान के लिए जहाँ नारीचारित्र प्रधान निबन्ध एवं संवाद को प्रस्तुत किये, वहाँ बालकों के विकास के लिए जैन बाल भारती और बाल विकास पुस्तकों की श्रृंखला भी प्रस्तुत की है। भक्ति से ओत-प्रोत स्तुतियाँ, पूजाएँ एवं विधान ग्रन्थों की रचनाएँ आपकी लेखनी से प्रसूत हुईं तो यात्रावृत्तान्त और संस्मरण साहित्य भी आपने लिखा है। जहाँ आप सशक्त गद्य लेखिका हैं, वहीं कल्पनाशील कवयित्री और प्रभावी नाटककार भी हैं। मूल्यांकन की दृष्टि से यदि आपके साहित्य के आधार पर कहा जाये तो आ० ज्ञानमती माताजी जैन समाज की महादेवी वर्मा हैं। जो चिन्तन, सर्जना और भक्ति की त्रिवेणी हैं। दार्शनिक लेखिका :- जैन दर्शन के आधारभूत ग्रन्थों का स्रोत भगवान् महावीर के सदुपदेश हैं। गणधरों एवं आचार्यों की परम्परा द्वारा जो षट्खण्डागम आदि ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं। उनके पारायण से जैनदर्शन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला जाता है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने सभी दार्शनिक एवं सिद्धान्तों के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। उनकी यह बहुश्रुतता उनके दार्शनिक ग्रन्थों में स्पष्ट झलकती है। आचार्य कुन्दकुन्द-प्रणीत समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थों का सम्पादन माताजी ने किया है। नियमसार पर माताजी द्वारा लिखित “स्याद्वादचन्द्रिका" संस्कृत टीका उनके दार्शनिक ज्ञान का निकष है। इस टीका की प्रशंसा करते हुए डॉ. लालबहादुर शास्त्री जी ने अपनी भूमिका में यह ठीक ही कहा है कि "किसी महिला साध्वी द्वारा की गई यह पहली ही टीका है, जो शब्द, अर्थ और अभिप्रायों से संपन्न है।" विद्वत्तापूर्ण एवं संश्लिष्ट संस्कृत भाषा में लिखी गयी यह टीका दार्शनिक जगत् का ज्ञानवर्द्धन करने वाली और प्रेरणादण्यक है। इतना ही नहीं माताजी ने नियमसार के अर्थ को आगमानुकूल सुरक्षित रखने और पाठकों को सरल मार्ग पर चलने के लिए इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद भी स्वतंत्र रूप से किया है, जो भावार्थ
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