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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [२६ भक्ति - मार्ग प्रदर्शिका - डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल- जयपु आर्यिका ज्ञानमती माताजी के विविध रूपों में उनका एक रूप भक्ति-मार्ग प्रदर्शिका का भी है। जन सामान्य को जिनेन्द्र-पूजा-अर्चना एवं भक्ति । लगाने के लिए अब तक जितना साहित्य माताजी ने लिखा है, उतना किसी भी साधु-साध्वी अथवा विद्वान् लेखक ने नहीं लिखा। आपने तो नये-नरं पूजा विधानों को लिखकर पूरे समाज में एक नये वातावरण को जन्म दिया है। वैसे आप गणिनी आर्यिका के पद पर प्रतिष्ठित हैं, इसलिए सार समाज आपके सामने श्रद्धा से नत मस्तक है। पूरा समाज आपके त्यागमय जीवन एवं कठोर तप-साधना से प्रभावित है। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीर का निर्माण करवाकर आपने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है, जहाँ स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा, पूजा-पाठ एवं प्रवचन-श्रवण का लाभ वहाँ आने वारं यात्रियों एवं दर्शनार्थियों को मिलता रहता है। आर्यिका माताजी परम विदुषी साध्वी हैं। बचपन में ही पद्मनंदिपंचविंशतिका का स्वाध्याय करके वैराग्य की ओर मुड़ी थीं और फिर छोटी-सं उम्र में पहले ब्रह्मचर्य व्रत लिया और फिर आचार्य देशभूषणजी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी। व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया था औ फिर सिद्धान्त ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करके साहित्य निर्माण की ओर मुड़ी और कुछ ही वर्षों में शताधिक कृतियाँ लिखकर साहित्य जगत् में एव कीर्तिमान स्थापित कर दिया। जिन भक्ति की ओर आपका प्रारम्भ से ही झुकाव रहा। बचपन में आप पूजा-पाठ करती रहती थीं और इन ही भावं में वृद्धि करके आपने पूजा-पाठ विषयक ग्रन्थों की रचना करने का बीड़ा उठाया और एक के बाद एक दूसरी रचना आपकी लेखनी का स्पर्श पाक धन्य हो गयी। माताजी ने सर्वप्रथम अनेक भक्तियों एवं स्तोत्रों की रचना करके जन-सामान्य में उनके पठन-पाठन के प्रति अभिरुचि जाग्रत की, ऐसी रचनाअं में देवागम स्तोत्र, सामयिक पाठ, शान्ति भक्ति, समाधि भक्ति, निर्वाण भक्ति, आचार्य भक्ति, नन्दीश्वर भक्ति, चौबीस तीर्थंकर भक्ति, पंचगुरु भक्ति चैत्य भक्ति, शतोपदेश भक्ति के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त ३० से भी अधिक स्तोत्रों को निबद्ध करके पाठकों के लिए उनका हिन्द पद्यानुवाद भी सुलभ कर दिया। आपको इन स्तोत्रों एवं स्तुतियों से भी आत्म संतुष्टि नहीं हुई और १९७६ में इन्द्रध्वज विधान की हिन्दी रचना कर डाली। जैसे ही यह विधान श्रावकों के हाथ में आया तो चारों ओर इन्द्रध्वज विधान का आयोजन होने लगा और जनता को ऐसा लगा कि मानो उसकी जिन भक्ति में गोरे लगाने का एक नया मार्ग मिल गया हो, क्योंकि महापंडित टोडरमलजी के समय में जयपुर में इन्द्रध्वज विधान हुआ था, जिसकी प्रशंसा आज भी लोगों के मुख से सुनी जाती है। सामज में इस अत्यधिक लोकप्रिय विधान का चारों ओर आजोजन होने लगा। स्वयं लेखक ने जब सर्वप्रथा इन्द्रध्वज विधान का सीकर में आयोजन देखा तो अपार आनन्दनुभूति हुई। इसके पश्चात् इसी विधान को भागलपुर एवं सम्मेद शिखर में होते हुए देखा। बड़ा आनन्द आया और ऐसे विधानों को देखते रहने की हार्दिक अभिलाषा हुई। माताजी की भक्ति रचनाओं का क्रम कभी नहीं रुका। इन्द्रध्वज विधान की जब उन्होंने लोकप्रियता देखी तथा श्रावकों को भक्ति सरोवर डुबकी लगाते देखा तो उनके हृदय में उससे भी अधिक हृदयस्पर्शी एवं भक्ति संगीत से ओत-प्रोत एक ओर विधान की परिकल्पना मन में आय होगी और उन्होंने अपने मनोभावों को साकार रूप देने के लिए कल्पद्रुम विधान की रचना कर डाली। यह विधान चक्रवर्ती द्वारा करने योग्य विधा है। इसमें २५ पूजाओं का संग्रह है। समवशरण का मंडल माँडा जाता है। यह भी बहुत आकर्षक विधान है, जिसको करने से बिना माँगे ही नवनिर्माण एवं चौदह रत्नों की प्राप्ति होती है। प्रत्येक पूजा के अन्त में माताजी ने विधान करनेका निम्न फल बतलाया है - जो भव्य श्रद्धाभक्ति से यह कल्पद्रुम पूजा करें,, माँगे बिना ही वे नवोनिधि रत्न चौदह वश करें । फिर पंच कल्याणक अधिप हो धर्म चक्र चलावते निज ज्ञानमति केवल करे जिन गुण अनंतों पावते । कल्पद्रुम विधान का सर्वप्रथम सार्वजनिक आयोजन हस्तिनापुर में पू० माताजी के सानिध्य में हुआ; पुनः भीण्डर (राजस्थान) में श्री निर्म कुमार जी सेठी, अध्यक्ष- दि० जैन महासभा को करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुझे भी उसमें बैठने का सुअवसर प्राप्त हुआ। १०-११ दिन त खूब चहल-पहल रहती है। जो चक्रवर्ती बनता है वह बिना माँगे ही दान देता है। अभी कोटा में आचार्य सन्मति सागरजी महाराज के सानिध में दिनांक ११ मार्च से २० मार्च १९९२ तक विशालस्तर पर कल्पद्रुम विधान का आयोजन हुआ था। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त बाहर के व्यक्ति थे। प्रातः आचार्य श्री का प्रवचन, शास्त्र प्रवचन, रात्रि को जिन भक्ति, शास्त्र प्रवचन एवं अन्य कार्यक्रम होने से १०-११ दिन ऐसे निकल गर्न Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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