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________________ २६८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला एक घटना इसी प्रकार की सन् १९६२ की है। पूज्य माताजी ने अपना पार शिष्याओं को साथ लेकर सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र के दर्शनार्थ राजस्थान से आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के संघ से प्रस्थान किया। जब माताजी कानपुर के आस-पास थीं तब सूचना मिली कि मुनि श्री अजितसागरजी ने किन्हीं अंतरंग निमित्तों से संघ छोड़कर अकेले अन्यत्र विहार कर दिया है। तभी माताजी ने विहार करते हुए मट्ठे का भी त्याग कर दिया, जबकि मट्ठा लेना माताजी के स्वास्थ्य के लिए अतिआवश्यक था। माताजी को पुरानी संग्रहणी है। ___ चूंकि मुनि श्री अजितसागरजी महाराज माताजी को मां से भी बढ़कर मानते थे इसलिए "संघ में रहना हितकारी है" इस भावना से माताजी ने मद्रुका त्याग किया था। माताजी के मढे त्याग की जानकारी सेठ हीरालालजी निवाई , पं० इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर तथा संघस्थ ब्र० लाड़मलजी ने मुनि श्री अजितसागरजी को दी। यह सुनते ही वे अवाक रह गये। कहने लगे कि इतनी दूर होकर भी माताजी ने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए मेरे संघ में वापस जाने के लिए मट्ठे का त्याग कर दिया है। तभी वे लौटकर वापस संघ में आ गये और इन्हीं तीनों महानुभावों से कहलाया कि "माताजी के पास शीघ्रातिशीघ्र फोन से सूचना भेजो कि मैं संघ में वापस आ गया हूँ, माताजी अब मट्ठा लेना प्रारंभ कर दें। माताजी को भी यह जानकर प्रसन्नता हुई, उनका प्रयत्न सफल हुआ। प० श्रुतसागरजी महाराज की तरह अजितसागरजी महाराज ने भी आ० श्री शिवसागरजी के रहते हुए संघ नहीं छोड़ा। यह था माताजी का बड़ों पर वात्सल्यपूर्ण अनुशासन। ऐसे और भी अनेको प्रसंग माताजी के जीवनकाल में आये। पूज्य माताजी ने अपने जीवन में कभी भी व्यर्थ की हँसी-मजाक न स्वयं की, न किसी को करने दी; क्योंकि हँसी-मजाक या गपशप से अशुभ कर्मों का बंध होता है तथा शक्ति का ह्रास होता है। इससे आपस में वैर-कलह की भी संभावना रहती है। हँसी-मजाक करने वालों को समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता। वे अविश्वास के पात्र बन जाते हैं। हँसी-मजाक करने वालों का दूसरों पर अच्छा प्रभाव भी नहीं पड़ता। हँसी-मजाक से किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं होता, मात्र समय की बरबादी होती है। पूज्य माताजी का संपर्क सदैव प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों से रहा। किन्हीं महिला-पुरुषों से भी केवल धर्म चर्चा या धर्म कार्यों के लिए ही बात की, घर गृहस्थी संबंधी बातों में अपना अमूल्य समय नहीं गँवाया। यदि माताजी ऐसा न करतीं तो ऐसे रुग्ण एवं कमजोर शरीर से इतना काम नहीं ले सकती थीं। मैंने तो यहाँ तक देखा है कि दर्शनार्थ आये अपने परिवार के लोगों से भी व्यर्थ की बातचीत न करके उन्हें भी कुछ न कुछ अध्ययन में लगा देती हैं। उन्हें भी गपशप का मौका ही नहीं देती हैं भले ही वे दो-चार दिन के लिए ही आये हों। इसी का नाम अनुशासन है। पूज्य माताजी का जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है। अनुशासन में रहकर ही अनुशासन किया जा सकता है। भोजन में अनुशासन स्वस्थता प्रदान करता है। वाणी में अनुशासन से वाक्सिद्धि प्राप्त होती है। गमनामन में अनुशासन से जीव दया का परिपालन होता है। जिस-जिस इन्द्रिय को अनुशासित रखा जाता है उसकी शक्ति बढ़ती है। आत्मानुशासन ग्रंथ में कहा है विकासयंति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः रवेरिवारविन्दस्य कठोरश्च गुरूक्तयः ॥ १४२ ॥ कठोर अर्थात् अनुशासनात्मक वचन भव्य जीवों के मन को उसी प्रकार से प्रफुल्लित (आनंदित) करते हैं, जैसे सूर्य की कठोर-तेज किरणें कमलों को खिला देती हैं। अतः जो गुरु शिष्य का हित करना चाहते हैं उन्हें शिष्य के मनरूपी कमल को प्रफुल्लित करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर दयाचित्त होकर कठोर वचनों का प्रयोग करने में हिचकिचाना नहीं चाहिये तथा आत्म हित चाहने वाले शिष्य को गुरु के कठोर वचनों को सुनकर खेदखिन्न नहीं होना चाहिये। यह नीति प्रसिद्ध है कि " मनोहारि च दुर्लभं वचः ।" जो वचन हितकारी होते हैं वे छद्मस्थ प्राणियों को प्रायः करके रुचिकर प्रतीत नहीं होते और जो वचन वाह्य में मनोहर प्रतीत होते हैं वे परिणाम में हितकारक नहीं होते हैं। पूज्य माताजी ने सदैव इसी सूक्ति का अनुशरण किया है, इसीलिए "कुशल अनुशासिका" का विशेषण उनके लिए सार्थक है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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