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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ वात्सल्य मूर्ति Jain Educationa International पं० रतनचंद जैन शास्त्री, बामौर कलां [म०प्र० ] सन् १९७९ में होने वाले जम्बूद्वीप स्थित सुमेरु पर्वत पर विराजमान जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के अवसर पर गजरथ का कार्यक्रम सर्वप्रथम उत्तरप्रदेश की पावन भूमि हस्तिनापुर में आयोजित किया गया । इस कठिन कार्य को माताजी का वरद आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं हुआ, वरन् सर्वस्व समर्पण भाव से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ का संचालन हुआ । गजरथ का प्रचार-प्रसार इसके पूर्व बुन्देलखण्ड में ही होता आ रहा था। इस कार्य को सुलभ बनाने के लिए गजरथों का जिन्होंने सम्पादन संचालन किया हो, ऐसे आदमी की तलाश हुई और मेरा नाम सर्वश्री बाबूलालजी जमादार सा० जो शास्त्री परिषद् के प्राण थे, जिनकी देख-रेख में यह कार्य सम्पादन होना था, उनके द्वारा लिया गया और मुझे बुलाने के लिए आदमी भेज दिया, लिखा कि गजरथ लेकर शीघ्र चले आओ। जब मैं माताजी के सामने पहुँचा तो माताजी अपूर्व वात्सल्य भावना से बोलीं कि भैया तुम्हें रास्ते में बहुत कष्ट हुआ होगा, अब तुम पहले स्नान, ध्यान कर भोजन करो, विश्राम के बाद कार्यक्रम बनायेंगे। [१११ बस, जब मैं विश्राम के बाद माताजी के सम्मुख पहुँचा तो उन्होंने पथ निर्माण के लिए कहा- ऐसा मार्ग तैयार कराइयेगा जिससे रथ अबाध गति से संचालित होकर निर्विघ्न सम्पन्न होवे | कार्य आरंभ किया गया। वीधिकाओं के निर्माण के साथ पथ निर्माण का कार्य पूर्ण हो गया। मैं जब अपने काम में तन्मय होकर कार्यरत होता था तो माताजी के मन में मेरे खाने-पीने की चिंता एक मातृ-हृदय से कम नहीं थी। कार्य सम्पन्न हो गया, गजरथ भी सोल्लासपूर्वक सानंद निर्विघ्न संपन्न हो गया। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी अपूर्व ढंग से सम्पन्न हुई थी; क्योंकि पूज्य माताजी का आशीर्वाद और ज्ञान का उपयोग संलग्न था। चलते समय माताजी ने आदेश और निर्देश दिया कि भैया तुम्हारा काम सराहनीय रहा, जैसा पं० जमादार सा० ने कहा था, उससे कहीं अधिक श्रेष्ठ रहा, अब हमारी एक सीख मानकर जाओ, जीवन सफल हो जायेगा। वह यह कि तुमने अहार, पपौरा, थूवोनजी आदि स्थानों पर अनेक जिनबिम्बों के गजरथों का संचालन सफलतापूर्वक किया, यह तो ठीक है, पर "आत्मरथ" के संचालन का प्रयास करो, जिसकी सफलता के लिए जिनवाणी का स्वाध्याय नितप्रति देवदर्शन के साथ-साथ करो। बस, आत्म-कल्याण का एक प्रशस्त मार्ग यही है। यही आदेश लेकर चला आया । उनका स्नेह, वात्सल्य भाव परोपकारी निर्देश चिरकाल तक स्मृति पटल पर अंकित रहेगा। पू० माताजी १०५ गणिनी ज्ञानमतीजी के इस अभिवंदन ग्रंथ के माध्यम से मैं उनका कृतज्ञ होता हुआ माताजी की चिरायु होने की कामना के साथ श्रद्धा पुष्प श्रीचरणों में समर्पित कर अपने को धन्य मानता हूँ । "जम्बूद्वीप और ज्ञानमती माताजी " आर्यिकारत्न पूज्य ज्ञानमती माताजी ने समाज को जो जम्बूद्वीप की महान् देन दी है वह चिरकाल तक पूज्य माताजी का स्मरण कराती रहेगी। गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का जन्म वि०सं० १९९१ में उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले के अन्तर्गत टिकैतनगर में हुआ। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात' वाली कहावत को चरितार्थ करने वाली माताजी का बाल्यकाल से ही धार्मिक क्षेत्र में बहुत योगदान मिला, बाल्यकाल से ही धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन, जिन पूजादि में रुचि रही। देवशास्त्र, गुरु के प्रति श्रद्धान, गुरु सेवा, तत्त्वचर्चा में बाल्यकाल से ही रुचि रही स्वाध्याय और गुरूपदेश का ही परिणाम रहा कि आपने केवल १७ वर्ष की वय में ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। आगे बढ़ने की भावना बनी रही। फलस्वरूप १०८ आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से १९ वर्ष की आयु में क्षुल्लिका दीक्षा ले ली। मुनिसंघों का संयोग मिलता रहा। त्रिसं० २०२३ में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आपका ध्यान, अध्ययन, चारों प्रकार के अनुयोगों के ग्रंथों का मनन निरंतर चलता रहा, साथ ही लेखनी भी चलती रही, जो अब तक भी चल For Personal and Private Use Only - पं० लाडलीप्रसाद जैन 'नवीन' पापड़ीवाल, सवाईमाधोपुर www.jainelibrary.org.
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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