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________________ ११०] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आपने करीबन १५० छोटे-बड़े मौलिक ग्रन्थों का निर्माण कर साहित्य जगत् को समृद्ध बनाने में अपूर्व योगदान दिया है। जम्बूद्वीप का निर्माण आपके उर्वर मस्तिष्क की बेजोड़ उपज है। 1 ज्ञानज्योति की भारत यात्रा के द्वारा आपने भारत के जनमानस को अहिंसा एवं नैतिकता का पाठ पढ़ाया है सम्यग्ज्ञान पत्रिका के प्रकाशन द्वारा धार्मिक जगत् में अद्भुत क्रांति का शंखनाद किया है। वीरज्ञानोदय ग्रन्थमाला की स्थापना द्वारा उपलब्ध एवं अप्रकाशित ग्रंथों के प्रकाशन में अपूर्व सहयोग दिया है। आपके जीवन का एक कार्य आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना भी है, जहाँ से प्रतिवर्ष विद्वान् तैयार होकर धर्म एवं समाज की अपूर्व सेवा कर रहे हैं और करते रहेंगे । मेरी उत्कट भावना है कि माताजी चिरायु बनकर जिनशासन की सेवा करती रहें । अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी माताजी - - पं० रतनचन्द्र शास्त्री, रहली [ सागर] म०प्र० पूज्य श्री १०५ आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आगमानुकूल विद्वत्तापूर्ण प्रभावक प्रवचनों, लेखों, स्वतंत्र रचनाओं, अनुवादों के सरल सुबोध आर्ष परंपरा के साहित्य लेखन की अपूर्व धनी है। आपका पाण्डित्य एवं चारित्र असाधारण है, आपने सारे देश में बिहार करके देवशास्त्र गुरु के प्रति अवर्णवाद करने वाले एकान्तवादियों को ओजस्वी प्रवचनों द्वारा अवर्णवाद का खण्डन कर धर्म की अपूर्व प्रभावना की, उसे युगों-युगों तक नहीं भुलाया जा सकता । स्वभाव में सरलता, वाणी में मृदुलता, सिद्धांत में अडिगता, वाणी में ओजस्विता आदि विशेषताओं के कारण आपका स्थान गणिनी आर्यिकाओं में शीर्षस्थ है। आपने ज्ञान अंधकार को दूर करने के लिए अनेक कार्य किये और चारित्र को धारण करके यथानाम तथागुण के अनुसार अपने नाम को सार्थक किया। आप कुन्दकुन्द आचार्य के पद चिह्नों पर चलकर यथार्थ में अनेक धार्मिक योजनाओं, उपदेशों द्वारा समाज को सन्मार्ग दिखाकर स्व-पर कल्याण कर रही हैं, यह आपकी अगाध विद्वत्ता का परिचायक है। अभिवन्दन ग्रंथ समर्पण समारोह के अवसर पर मैं सिद्धांत वाचस्पति माताजी का हार्दिक अभिनन्दन करता हुआ उनके दीर्घ यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ । Jain Educationa International त्याग और साधना की अनुपम गाथा पं० दरबारीलाल शास्त्री, ललितपुर तपोमूर्ति, जैन साहित्य साधना में निरत, जैन भूगोल को हस्तामलकवत् दृश्यमान् करने वाली, आर्यिकारत्न माता ज्ञानमतीजी के चरणों में विनयांजलि अर्पित करूँ, यह मेरा परम सौभाग्य है। आपने अपने नाम के अनुरूप जैन-साहित्य साधना की चकाचौंध से जन-जन को चमत्कृत कर दिया है। त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम से विशाल और अद्भुत विस्तृत जम्बूद्वीप की रचना को लघु संस्करण के रूप में प्रस्तुत कर, हाथ पर रखे आँवले के समान दृष्टव्य कर अपनी अद्भुत चिन्तन क्षमता का परिचय दिया है। उनकी यह रचना युग-युग तक उनका कीर्तिगान करती रहेगी। इन्द्रध्वज मण्डल विधान के सम्बन्ध में बुन्देलखण्ड की एक घटना है कि एक श्रद्धालु जैनसेठ ने शास्त्रों में इन्द्रध्वज विधान का उल्लेख पाया। उसके अनुसार सेठ ने इन्द्रध्वज विधान कराने का निश्चय किया। विशाल और विस्तृत आयोजन के पश्चात् जब इस विधान की कोई पुस्तक नहीं प्राप्त हुई तब वह बहुत दुःखी हुआ। बहुत खोज के बाद संस्कृत की एक प्रति जो अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी, प्राप्त हुई, उसे कोई पड़ने वाला संस्कृत का विद्वान् नहीं मिला। निराश होकर सभी ने एक साथ "उदक, चन्दन, तन्दुल, पुष्पकै" पढ़कर समस्त द्रव्य समुच्चय अर्घ्य के द्वारा चढ़ा दिया गया। इस प्रकार यह विधान पूरा हुआ। वही विधान आज हिन्दी भाषा में जन-जन के हाथ में है और जगह-जगह गान-तान, स्वर-संगीत और नृत्य के साथ भारतवर्ष में हो रहा है। माताजी की कृपा से ऐसी और अनेक रचनाएँ अप्राप्त थीं, वे सहज प्राप्त हैं। मैं पूज्य माताजी के चरणों में शत-शत नमन करता हूँ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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