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________________ ११२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला रही है। आपने संस्कृत, प्राकृत के ग्रंथों का अध्ययन, अनुवाद, टीका आदि करना प्रारंभ किया। फलस्वरूप आपको सिद्धान्त वाचस्पति, न्याय प्रभाकर, गणितज्ञ आदि अनेक पदवियों से विभूषित किया गया। आपके जीवन का प्रभाव आपके सारे परिवार पर पड़ा और गृहस्थ जीवन के भाई और बहनों ने भी इसी मार्ग को अपनाया। आपकी कई योजनाएँ समाज के हितार्थ चल रही हैं। आधुनिक शैली में ग्रंथों और पूजाओं की रचना, बालोपयोगी पुस्तकों का प्रकाशन, त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना, संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना आदि । __आपके मन में भावना हुई कि आज से करोड़ों वर्ष पूर्व राजा सोमप्रभ और श्रेयांस कुमार ने स्वप्र में देखा कि इसी हस्तिनापुर में विशाल सुमेरु पर्वत बना है और उस पर जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक हो रहा है आदि, यदि ऐसे ही सुमेरु पर्वत की रचना जैन भूगोल के आधार पर की जावे तो इससे जैनाजैन सभी विद्वानों को लाभ होगा और विदेशी पर्यटकों को भी। सन् १९४८ में भारत के स्व० प्रधानमंत्री पं० जवाहरलालजी नेहरू ने इसी क्षेत्र में हस्तिनापुर टाउन का शिलान्यास किया था। यह पवित्र भूमि १००८ भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक का पवित्र तीर्थस्थल है। यहां जम्बूद्वीप रचना का कार्य तीव्रगति से प्रारंभ हुआ और परिणामस्वरूप केवल ४-५ वर्ष में विशाल भव्य ८४ फुट उत्तुंग सुदर्शन मेरु, चारों दिशाओं में १६ चैत्यालय तैयार हो गये; उनमें विराजमान् करने हेतु विशाल मनोज्ञ प्रतिमाएँ आ गईं और दिनांक २९ अप्रैल १९७९ से ३ मई १९७९ तक भव्य समारोह के साथ विशाल स्तर पर अनेक आयोजनों के साथ भारत के सुप्रसिद्ध संहितासूरि प्रतिष्ठाचार्य ब्र० श्री सूरजमलजी बाबाजी के द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।जम्बूद्वीप की रचना सारे विश्व में एक अद्वितीय रचना है। जैन भूगोल का साक्षात्कार इस रचना से स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। पूज्य माताजी की सप्रेरणा से इस स्थल की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति हो रही है। चारों अनुयोगों से युक्त निकलने वाली पत्रिका "सम्यग्ज्ञान" बेजोड़ पत्रिका साबित हो रही है। लगभग १२५ ग्रंथ यहाँ से प्रकाशित हो चुके हैं तथा निरंतर माताजी की लेखनी चल रही है। वर्तमान में आपके पथ का अनुसरण पूज्या आर्यिका चन्दनामती माताजी (जो आपकी छोटी बहिन हैं) भी कर रही हैं। सम्पादन का कार्य बाल ब्र० श्री रवीन्द्र कुमार जैन बहुत ही कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। पूज्य माताजी की सप्रेरणा से ज्ञानज्योति के द्वारा सारे देश में जैन धर्म का प्रचार और प्रसार हुआ। जो भी हस्तिनापुर गया है और त्रिलोक शोध संस्थान पहुँचा है वह वहाँ की रचना को भूल नहीं सकता। कमल मंदिर भी अपनी छवि का निराला ही है। पूज्य माताजी ने जो जैन समाज को देन दी है और दे रही हैं वह युग-युगान्तर तक माताजी की स्मृति दिलाती रहेगी। हम पूज्य माताजी के चरणों में नमन् करते हैं तथा वीर प्रभु से प्रार्थना है कि वे चिरकाल तक इसी प्रकार धर्म देशना के माध्यम से नयी रचनाएँ कराती रहें और जैन धर्म की प्रभावना करती रहें। पूर्ण आरोग्यपूर्वक रत्नत्रय की आराधना करती रहें। पू० माताजी जयवंत हों। आदर्श जीवन की एक उत्कृष्ट परिणति -पं० बाबूलाल शास्त्री, महमूदाबाद जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जो सदैव चित्रपट की भाँति स्मृति पटल पर अंकित रहती हैं। सौभाग्य से सन् १९५२ ई० में परमपूज्य आचार्य श्री १०८ देशभूषणजी महाराज का चातुर्मास बाराबंकी में हुआ था। बाराबंकी समाज सदैव से दिगंबर साधुओं में आस्थावान् रहा है। महाराज श्री का चातुर्मास एक धार्मिक मेला से कम नहीं था। इस पंचमकाल में भी चौथा काल जैसा धार्मिक वातावरण बना हुआ था। मैं भी सपरिवार आचार्यश्री के दर्शनार्थ गया था। साथ में बहुत से श्रावक भी थे। सभी धार्मिक जन आचार्यश्री के सानिध्य में रुचि से तत्त्व चर्चाओं में भाग ले रहे थे। इसी पावन अवसर पर टिकैतनगर से कु० मैना भी अपने परिवार सहित पधारी थीं और आचार्यश्री की प्रत्येक मुनि क्रियाओं का बड़े ध्यान से अवलोकन कर रही थीं। आचार्यश्री के पादमूल में सारा समय बिता रही थीं। ऐसा लगता था कि स्वयं उस विरक्ति मार्ग पर चलना चाहती हैं। सहसा आसोज शुक्ला १५ शरद् पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) ८ नवम्बर १९५२ का वह स्वर्णिम दिवस भी आ गया। मैना ने सोचा क्या नारो जीवन पराधीनता की बेड़ी ही है ? और प्रातःकालीन सूर्योदय के साथ ही आत्मप्रकाश और आत्मविकास के ज्ञानोदय की अखण्ड प्रकाश पुंज के हृदयावतरण की पावन बेला आ गई। फिर क्या था ? आचार्यश्री के पाद कमल का सानिध्य पाकर उखड़ने लगे-सौंदर्य केश। फिर क्या था ? हराम मच गया। हलचल मच गयी। पारिवारिकजनों ने शोर मचाना शुरू कर दिया। अनेकों लोग विरोध में थे। मेरे अन्तःकरण में भी द्वंद्व भाव बना हुआ था। एक ओर मेरा मन कह रहा था कि किसी को संयम के पथ से विचलित नहीं करना चाहिये। स्वतः से आत्मकल्याण की Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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