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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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ओर अग्रसर हो रही है तो क्यों रोका जाये ? इसके पूर्व भी तो आदि ब्रह्मा आदीश्वर प्रभु की कन्याएँ ब्राह्मी और सुन्दरी कौमार्यावस्था में ही दीक्षित हो गयी थीं।
इन्हीं प्रकरणों में मेरे नगरवासी माताजी के मामाश्री महीपालदासजी तरह-तरह के असंयत वाक्य बोले जा रहे थे। बड़े उत्तेजित और क्रोधित हो रहे थे। कह रहे थे- कुंवारी कन्याओं का यह मार्ग नहीं है, कहीं कोई कुमारिका इस तरह एकाकी मुनि संघ में रह सकती है। कहाँ लिखा है शास्त्र में ? गुरु (आचार्यश्री) को स्वयं समझना चाहिये। मैना को अभ्यास करने के लिए कहें फिर दृढ़ हो जाने पर व्रताचरण की ओर ले जायें। मैं कदापि ऐसा नहीं होने दूंगा। देखें कैसे लेती है अखण्ड अक्षय ब्रह्मचर्य व्रत। मैं अपनी शक्ति और परिवार के बल पर इसको अवश्य रोगा। इसमें मैना के प्रति महीपालदासजी की मोह भावना थी, उन्हें क्या मालूम था कि जिसे वे एक निर्बल बाला समझ रहे हैं उसमें संयम की प्रचण्ड भावना व्याप्त है। वे तो संसार की महान् विभूति हैं। मुझसे बोले! रोकिये पंडित जी! आप तो समझदार हैं, आपका साथ हम भी देंगे। मैं अन्तर्द्वन्द्र में जकड़ा विवश था। मैंने असमर्थता प्रकट कर दी। फिर क्या था ? मैना की माताजी के मामाजी श्री बाबूरामजी ने तो माताजी का हाथ ही पकड़ लिया। केशलुंचन करने से रोक दिया। उस समय माताजी की दृढ़ता देखते ही बनती थी। साधारण बालिका होती तो अपने संयमास्त्र रख देती और इन सभी के आगे विवश हो जाती। मगर धन्य है इस पराक्रमी पौरुषार्थिनी बाला को। निश्चय, निश्चय ही होता है। एक सिंह गर्जना हुई- मुझे सन्मार्ग पर चलने से परिवार क्या, विश्व की प्रचण्ड मोह आँधी-तूफान भी नहीं रोक पायेंगे।
अगर मुझे कल्याण मार्ग से च्युत करने की प्रक्रिया जारी रही तो मैं चतुराहार का त्याग कर दूँगी। शरीर से ममत्व भाव मुझमें शेष नहीं है। अगर आप लोग मेरा जीवित नहीं, मृत शरीर ही देखना चाहते हैं तो देख लो। और कर लो झूठी आत्मसंतुष्टि! बड़े दृढ़ भाव थे उस समय इस बालिका के। माँ की ममता टकरायी। क्या! सचमुच मेरी मैना प्राण त्याग देगी। सदा-सदा के लिए इसे मैं नहीं देख पाऊँगी! मेरा मातृ स्नेह क्या आज विराम ले लेगा। माँ मोहिनी की आँखों से अविरल अश्रुधारा फूट पड़ी। मत रोको! इसे जाने दो संयम के पथ पर। इसकी सशक्त प्रतिज्ञा मत तोड़ो। नहीं तो पुनः इसे मैं नहीं देख पाऊँगी। उस समय माँ मोहिनी देवी की इस वज्रमयी घोषणा से सभी स्तम्भित हो गये। किसे मालूम था कि उस समय की यह कुमारिका अपने स्वयं को ही नहीं! अनेक भव्यात्माओं को, अपने परिवारजनों को, भाई-बहिनों को, स्वयं अपनी माताजी को सच्चे आत्मरसी, अनंत सौख्य बल, दर्शन ज्ञान के मार्ग में आरूढ़ कर देगी। धन्य है! ऐसी पावन माताजी को। जिन्होंने नारी समाज को एक नई दिशा, प्रेरणा शक्ति, सम्यग्बोध और कल्याण मार्ग दिखाया। मैं तुच्छ प्राणी मातृश्री के पदारविंदों में अपना अनन्त भक्तिभाव लेकर शत-शत वंदामि करता हूँ।
सारा जीवन दे दिया, ज्ञानज्योति के हेतु
- पं० सुमति प्रकाश जैन, कुरावली
पुण्यात्मा धर्मात्मा ज्ञान प्रसार ही धेय । सारा जीवन दे दिया, ज्ञानज्योति के हेतु ॥ हे! ज्ञानमती माता तुम्हें, नमन करूँ धरि नेह ।
अभिनन्दन है आपका स्वीकर करो सस्नेह ।। पूज्या गणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐतिहासिक महिलारत्न हैं। इस शताब्दी के इतिहास में एक महिला होते हुए भी श्री दिगंबर जैन समाज के लिए जो चतुर्मुखी अलौकिक कार्य स्वयं करके दिखाये हैं, उसके लिए दिगंबर जैन समाज सदैव ऋणी रहेगा। अष्टसहस्री आदि शताधिक ग्रन्थों की सृजनकी, हस्तिनापुर की पावन भूमि पर निर्मित जम्बूद्वीप एवं कमल मंदिर रचना की प्रेरणादात्री, ज्ञानज्योति प्रवर्तन की प्रेरणा देने वाली इस महान् विभूति के बारे में किंचित् कहना भी सूर्य को दीपक दिखाना है। आपके द्वारा रचित इन्द्रध्वज विधान की सम्पूर्ण भारत में धूम मची हुई है। आपने ज्ञान-धर्म एवं साहित्य के क्षेत्र में जो कार्य किये हैं वह अन्य के लिए अत्यंत कठिन एवं दुःसाध्य हैं। ज्ञान-ध्यान में निरन्तररत, धर्म एवं धर्मायतनों तथा शरणागत की स्थितिकरण अपनी प्रमुख विशेषता है। ऐसी युग पुरुष पूज्या माताजी आर्यिकारत्न का अभिवन्दन कर मैं अपने को पुण्यशाली मानता हूँ।
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