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________________ ११४] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला धर्म और संस्कृति प्रभावक - लक्ष्मीदेवी जैन अध्यापिका, श्री दि० जैन उत्तर प्रान्तीय गुरुकुल, हस्तिनापुर परम पूज्य प्रातः स्मरणीय गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, उनके शिष्य वर्ग में विद्वत्ता सरस्वती के तुल्य हैं। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि परमपूज्य आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी का अभिवन्दन ग्रन्थ छप रहा है। गुरुओं के जितने गुण गाये जायें, उतने ही कम हैं, आप बहुत ही सरल परिणामी हैं। आपके द्वारा अनेक जीव मोक्षमार्ग पर लगे हैं। आपने अनेक जीवों का उद्धार किया है। संसार रूपी मरुस्थल में भटकते हुए दुःखरूपी सूर्य की प्रखर किरणों के आतप से संत्रस्त मानव के लिए पंच महाव्रत रूम स्कन्ध से युक्त पंच समिति रूपी शाखाओं से व्याप्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी-गुण-कुसुमों से शोभित, तीन गुप्ति रूपी फलों के भार से नम्र, समता रूपी महान् छाया वाला सद्गुरु रूपी वृक्ष ही शांति प्रदायक है। संसार का वैभव दुर्गति में ले जाने वाला है। यदि कोई हिताहित ज्ञान करानेवाला कोई सच्चा गुरु है; तो सद्गुरु हैं। “यथा नाम तथा गुण" की धारक आर्यिका न श्री ज्ञानमती माताजी वास्तव में वीरता, साहस एवं दूरदर्शिता से परिपूर्ण हैं। उन की निर्भीक साधना जगत् प्रसिद्ध है। ऐसी धीर, वीर, चारित्र की साक्षात् मूर्ति गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में त्रिकाल वन्दना करती हुई अपनी विनयांजलि अर्पित करती हूँ कि जिनेश्वर माताजी को और दीर्घायु दें। संस्मरण - श्रीमती गीता जैन, स्यौहारा मैं भूल नहीं सकती वह दिन, जब मैंने जम्बूद्वीप के शिखर पर चढ़कर भगवान् का न्हवन किया था। मैं वैष्णव परिवार की बेटी विवाह के उपरांत जब जैन परिवार में आई, तब जैन धर्म के नियमों और सिद्धान्तों के प्रति मेरी पूर्ण आस्था हो गई। पर यह देखकर मेरा मन बड़ा ही व्याकुल होता था कि पुरुष ही सिर्फ भगवान का न्हवन कर सकते हैं, हम क्यों नहीं? मन में बड़ी हीन भावना आती थी, पर जब आठ अप्रैल १९८५ को स्यौहारा नगर में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति आई तब यह बताया गया-जो भी इस रथ में बैठना चाहे वह इस अवसर का लाभ उठा सकता है। उसे जम्बूद्वीप में जोड़े से भगवान् का न्हवन करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। जून के प्रथम सप्ताह में जब मैंने हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप में भगवान् महावीर का न्हवन किया तब मेरा मन मयूर खुशी से गद्गद हो नाच रहा था, साथ ही मेरे मन में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के लिए जो श्रद्धा भाव आ रहे थे मैं उनको लिखने में अपने को असमर्थ महसूस कर रही हूँ। मेरी जिन्दगी का यह सुनहरा दिन कभी भी भुलाये नहीं भूलेगा। सच्चाई तो यह है कि माताजी ने धर्म के साथ-साथ नारी मन को अपने हृदय से समझा और जाना है। मैं ऐसी महान् विभूति माताजी के चरणों में शत-शत नमन् करती हूँ, प्रणाम करती हूँ, वन्दन करती हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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