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________________ १०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला एक अविस्मरणीय संस्मरण -पं० भैयालाल शास्त्री आयुर्वेदाचार्य शिवपुरी [म०प्र०] पूज्य माताजी के चरण सान्निध्य में अनेक बार मुझे बैठने का, सुनने का, समझने का अवसर मिला है। एक अविस्मरणीय-संस्मरण पाठकों की सेवा में रख रहा हूँ, यदि एक भी संज्ञी मानव ने इस संक्षिप्त संस्मरण से लाभ उठाया तो वह धन्य हो जायेगा और मैं अपने को धन्य समझेंगा। सन् १९८९ में जब समूचे देश के शीर्षस्थ विद्वान् शास्त्रियों का एक विशाल शिविर सेमिनार पूज्य माताजी ने आयोजित किया था, तब मैं भी उपस्थित था। माताजी ने निरन्तर सप्ताहान्तक अपने प्रवचनों के माध्यम से विद्वानों को उद्बोधित किया, उनके द्वारा दिया गया कुन्दकुन्द देव की वाणी का प्रवचन मानव मन को मंत्रमुग्ध कर देता था, इस अवसर पर विभिन्न प्रान्तों से श्रेष्ठिवर्ग तथा विद्वत् वर्ग तो उपस्थित थे ही, पर अभूतपूर्व सम्मेलन जिनागम, जिनवाणी के चलते-फिरते तीर्थस्वरूप गणधराचार्य कुन्थुसागरजी महाराज आदि ऋषियों ने पदार्पण किया, उनके प्रवचन उद्बोधन का लाभ भी विद्वानों को मिला। अपूर्व दिशा निर्देशन के साथ समयसार की वाचना, शंका-समाधान आदि का कार्यक्रम अनूठा ही था, पूज्य माताजी ने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि कुन्दकुन्द देव के ग्रन्थों में से अनुपम ग्राह्य सिद्धान्त रत्नों का चयन करके १०८ गाथाओं की एक "कुन्दकुन्द मणिमाला" साधारण से लेकर विद्वानों तक एक आगम ज्ञानदिशा आध्यात्मिक आहार के रूप में प्रदान की। पूज्य माताजी का कहना था कि जो इस "मणिमाला" को कण्ठस्थ कर कंठ में धारण करेगा वह ऐहिक और पारलौकिक सुखों को भोग कर चिरसुखी हो जायेगा। पू० माताजी का तत्त्वचिन्तन, प्रवचन शैली विद्वान् जिज्ञासुओं के लिए अनुग्राह्य है। उनका कहना है कि आत्म शुद्धि के लिए स्वाध्याय नितान्त आवश्यक है, ध्यान की एकाग्रता श्रुताराधन के चिंतन, मनन से ही होती है। श्रुत आराधन से कर्मों की निर्जरा होती है निर्वाण पद प्राप्त होता है; अतः विद्वानों को स्वाध्याय हेतु कुन्दकुन्द देव के रचे हुए चौरासी पाहुड़ों में जो उपलब्ध है, उनमें से गाथाओं को चुन-चुनकर "मणिमाला" का सृजन किया है। जो विद्वान् पाठक स्याद्वाद नीति के द्वारा श्रावकों को सही और उचित दिशा का दिग्दर्शन करायेंगे वे सम्यग्दृष्टि होकर अणु-महाव्रती बनकर मोक्ष भाजन होंगे। यथार्थ में ज्ञानमूर्ति हैं ज्ञानमतीजी -पं० बच्चूलाल जैन शास्त्री, कानपुर इस भोग प्रधान युग में चारित्र मार्ग पर आरूढ़ होने वाली सिद्धान्त वाचस्पति न्यायप्रभाकर विद्यावारिधि आर्यिकारत्न पूज्या ज्ञानमती माताजी यथार्थ में ज्ञानमूर्ति हैं। आपकी कृतियों में सरस माधुर्य, कविता की कोमलता व त्याग-तपस्या का तेज दोनों ही पूर्णतया व्याप्त हैं। मुझे आपके दर्शनों का जब-जब भी शुभावसर प्राप्त हुआ तब हमेशा अपूर्व वात्सल्य, आगम के असाधारण ज्ञान के साथ चारित्र के उत्कृष्ट समागम की छाप मेरे हृदय पर पड़ती रही। सत्य, संयम, शील का बाना पहनकर अपनी विवेकपूर्ण लेखनी द्वारा अनेक प्रामाणिक ग्रंथों का सरल भाषा में अनुवाद व अनेक स्व-पर कल्याणकारी ग्रंथों को गद्य व पद्य रूप में लिखकर हमें जो निधि प्रदान की है, वह आज एकांत ध्वान्त को चीरती हुई आर्षमार्ग की ज्योति को अक्षुण्ण रीति से जन-साधारण को प्रकाश देने में अपना अद्वितीय स्थान रखती है। धन्य है ऐसी ज्ञान और चारित्र पर अपना समान अधिकार रखने वाली कर्तव्यनिष्ठ महिला रत्न को, जिनके द्वारा निर्मित करणानुयोग ग्रथों में वर्णित जम्बूद्वीप सुमेरु पर्वत जैसी भौगोलिक कृतियों को हमारा समाज ही नहीं, बल्कि इस ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर में आने वाले जन साधारण को गौरव प्रदान करती रहेंगी व सभी के आत्मोत्थान के लिए प्रेरणास्रोत बनेंगी। मैं श्री जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना करता हूँ कि उनके चरणों का प्रभाव पूज्य माताजी को दीर्घायु प्राप्ति में सहायक हो। इस सद्भावना के साथ पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में मैं अपनी विनयांजलि अर्पण करता हूँ। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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