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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
आनन्दीलाल जीवराज दोशी, फलटण
भारत भूमि साधु-संतों की अनमोल खान है यहाँ एक से बढ़कर एक महानुभावों ने अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाकर हमें सुसंस्कृत, सुशिक्षित एवं सभ्य बनाया। जैन धर्म का इसमें सबसे बड़ा हाथ है। जैन धर्म ने ही "अहिंसा परमो धर्मः" का संदेश देकर मानवीय जीवन में सुख-शांति समाधान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जैन धर्म ने ही दुनिया को बताया कि
ज्ञान का भंडार ज्ञानमती जी
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में जिन महानुभावों ने अपना महान् योगदान दिया उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम है.
होनहार बिरवान के होत चिकने पात
"पुण्यस्य फलं मिच्छन्ति, पुण्यं नैच्छेति मानवाः । न पाप फलमिच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥
यह कहावत श्री ज्ञानमतीजी के बचपन को समझकर सिद्ध होती है। आपने वि०सं० १९९१ अर्थात् सन् १९३४ आश्विन् शुक्ला शरद् पूर्णिमा की रात्रि में ९ बजकर १५ मि० पर इस पृथ्वीलोक पर बाराबंकी जिले के टिकैतनगर नामक छोटे से गाँव में जन्म लिया। आपके माता-पिता ने प्यार से आपका नाम मैना रख दिया। आपने १२-१३ वर्ष की आयु में "पद्मनंदि पंचविंशतिका" नामक ग्रंथ पढ़ा। इस अनमोल ग्रंथ का इतना जबरदस्त प्रभाव आपके मन पर पड़ा कि आपके हृदय में दिन-प्रतिदिन चंद्र कलावत् वैराग्य भाव बढ़ने लगे। आपने उसी समय यह निश्चय किया कि गृहस्थ जीवन के माया जाल के बंधन में आप नहीं अटकेंगी।
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प्रथम चरण :- सन् १९५२ में बाराबंकी शहर में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज का चातुर्मास था उन्हीं के मौलिक आचार-विचारों से प्रेरित होकर आपने शरद् पूर्णिमा के दिन आचार्य श्री से सप्तम प्रतिमा रूप आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और एक आर्यिका की भाँति संघ के साथ ही पद विहार करने लगी।
द्वितीय चरण सन् १९५३ में महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर सोलह कारण पर्व के प्रथम दिन चैत कृष्ण प्रतिपदा को बाल ब्रह्मचारिणी मैना को क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर वीरमति नाम प्रदान किया ।
तृतीय चरण :- सन् १९५५ में कुंथलगिरि में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागरजी महाराज की सल्लेखना देखी तथा उन्हीं की आज्ञानुसार उनके प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में अपनी दो शिष्याओं के साथ जयपुर खानिया आ गईं। वहाँ पर आपकी उत्कृष्ट वैराग्य भावना तथा अलौकिक ज्ञान देखकर आचार्य श्री वीरसागरजी महाराजने माधोराजपुरा ( राजस्थान) में सन् १९५६ वैशाख कृष्ण दूज को आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ज्ञानमती नाम से अलंकृत करते हुए आशीर्वचन में कहा कि "मैंने जो ज्ञानमती नाम रखा है, उसका सदैव ध्यान रखना।" चरमोत्कर्ष :-सन् १९५२ से लौकिक परिवार से अलग होकर आपने अलौकिक गुरुसंघ के साथ अधिकतर समय राजस्थान में विहार किया । सन् १९६२ में अपनी पाँच आर्यिका शिष्याओं के साथ बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश तथा दक्षिण भारत की हजारों कि०मी० पदयात्रा में आपने सभी जगह जैन धर्म की महती कीर्ति फैलायी। दीक्षा लेने से लेकर आजतक आपके ३८ चातुर्मास विभिन्न स्थानों पर संपन्न हो चुके हैं।
श्री ज्ञानमती माताजी अपने क्षुल्लिका दीक्षा के पश्चात् से ही शिष्य-शिष्याओं का संग्रह कर उनसे पाठ पठन कराना तथा वयं आपने जैन धर्म के गूढ़तम ग्रंथों के अध्ययन का बीड़ा उठाया। आपके महान् पुनीत चरित्र से प्रेरणा लेकर लगभग ५० से अधिक शिष्य-शिष्याओं ने मुनि आर्यिका दीक्षा धारण की है।
श्री ज्ञानमती माताजी का !
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अनमोल साहित्य-सृजन: आपकी जैन साहित्य सेवा अपूर्व है। सन् १९५४ में जयपुर में केवल दो माह में कातंत्र व्याकरण का तलस्पर्शी अध्ययन किया था, जिससे वे किसी भी संस्कृतज्ञ के समक्ष संस्कृत वार्तालाप करने में पूर्ण सक्षम बनी। सन् १९५५ में महाराष्ट्र प्रांत के म्हसवड़ ग्राम में चातुर्मास में आपने सहस्रनाम स्तोत्र के एक हजार मंत्र स्वयं संस्कृत में रचे, जो एक लघु पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हो चुके हैं।
सन् १९६५ के श्रवणबेलगोल चातुर्मास में भगवान् बाहुबली के चरणसानिध्य से उनकी संस्कृत काव्यों, कन्नड़ बारह भावना आदि के द्वारा साहित्य सृजन का शुभारंभ हुआ। सन् १९६९ के जयपुर चातुर्मास में न्याय के सर्वोपरि ग्रंथ अष्टसहस्त्री का हिंदी में अनुवाद किया। आपने आजतक अपनी शुद्ध सरल-सुगम सुबोध प्रतिभासंपत्र लेखनी के द्वारा डेढ़ सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की।
सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में आपके मौलिक लेख नारियों तथा बालकों के लिए रोचक सामग्री का सदैव योगदान रहता है। आपकी प्रेरणा से सन् १९७२ में "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की स्थापना हुई, जिसने अद्यावधि
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