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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ सन् १९७४ में आपकी प्रेरणा से "सम्यग्ज्ञान" मासिक पत्रिका का प्रकाशन हुआ। इस पत्रिका में आपके मौलिक लेख नारियों तथा बालकों के लिए रोचक सामग्री का सदैव योगदान रहता है। आपकी प्रेरणा से सन् १९७२ में "वीरज्ञानोदय ग्रंथमाला" की स्थापना हुई, जिसने अद्यावधि लाखों की संख्या में ग्रंथ प्रकाशित करके उन्हें चिरस्मरणीय बनाया। शिक्षा प्रसार पूज्य ज्ञानमती माताजी ने अपने दीक्षागुरु के नाम को स्मरणीय बनाने हेतु "आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ" की स्थापना की। इस विद्यापीठ स्थापनक के पीछे आपका उद्देश्य था पुरानी संस्कृति के नये विद्वान् समाज में आयें। अतः उस विद्यापीठ में ऐसे ही छात्रों का प्रवेश आरंभ हुआ। फलस्वरूप आज अनेक विद्वान्, शास्त्री तथा आचार्य की उपाधियाँ प्राप्त कर विद्यापीठ के माध्यम से सभी प्रांतों में इंद्रध्वज आदि विधान कराने हेतु, वेदी प्रतिष्ठा तथा प्रवचन हेतु उन्हें भेजा जाता है। महत्कार्य :- सन् १९७४ में भगवान् महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के समय आपकी प्रेरणा से दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने हस्तिनापुर तीर्थस्थल पर जंबूद्वीप रचना निर्माण हेतु एक भूमि खरीदी। सन् १९७५ से जंबूद्वीप निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। सन् १९७९ तक ८४ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत का निर्माण कार्य पूर्ण होकर २८ अप्रैल से २ मई १९७९ तक उसके १६ चैत्यालयों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई पुनः सुमेरु पर्वत के चारों विदेह वक्षार, गजदंत आदि का निर्माण हुआ। यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं उस पुनीत प्रतिष्ठा में पंडित कोठारीजी के साथ और मित्र सहित सम्मिलित हो सका तथा आपके दर्शन का लाभ उठा सका। आपके जीवन की महान् उपलब्धि की और एक घटना ४ जून १९८२ में दिल्ली के लाल किला मैदान से आपका आशीर्वाद प्राप्त कर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने "जंबूद्वीप ज्ञानज्योति रथ" का उद्घाटन किया। इस पुनीत रथ ने १०४५ दिनों तक हिंदुस्तान के छोटे-बड़े गाँवों में जाकर जातीय एकता, नैतिकता, अहिंसा तथा जंबूद्वीप का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। २८ अप्रैल १९८५ को उस ऐतिहासिक ज्योति को तत्कालीन केंद्रीय रक्षा मंत्री श्री पी०वी० नरसिंह राव के कर कमलों से तथा श्री जे०के० जैन संसद सदस्य की अध्यक्षता में हस्तिनापुर में अखंड रूप में स्थापित कर दी गई। इसी प्रकार पूज्य माताजी की असीम कृपा से ६ मार्च से ११ मार्च १९८७ तक श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई ३ मई से ७ मई १९९० तक जंबूद्वीप का पंचवर्षीय महा महोत्सव आपके संघ सानिध्य में सुसंपन्न हुआ। इन पाँच वर्षों में पूज्य ज्ञानमती माताजी का मंगल आशीर्वाद ग्रहण करने श्रीमती इंदिरागांधी, श्री राजीव गाँधी, श्री पी०वी० नरसिंह राव, श्री नारायण दत्त तिवारी, श्री माधवराव सिंधिया, श्री अजित सिंह, श्री वी० सत्य नारायण रेड्डी जैसे मान्यवर राजनेता आये थे। पूज्य ज्ञानमतीजी ने साक्षात् सरस्वती ज्ञान का खजाना बनकर धर्म प्रसार का अनमोल कार्य अपने पुनीत जीवन में किया है, वह जैन धर्म अनुयायियों के लिए सदैव यादगार रहेगा। आप जैसे महानुभाव को मेरे शतशः प्रणाम ! आपके बारे में बस मैं इतना ही कहूँगा कि--- आपका विराट् रूप, मन में नहीं समाता । कितना भी कहूँ, शेष बहुत रह जाता ॥ "योगक्षेत्र में ज्ञानमती माताजी का वैशिष्ट्य " सरस कवि ने पूज्य माताजी के विषय में कहा है Jain Educationa International (२८१ 'जो कहते योगों में नारी नर के समान कम होती है। ऐसे लोगों को ज्ञानमती का जीवन एक चुनौती है ।' परम पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी के लिए कोई भी ऐसा क्षेत्र बाकी नहीं रहा, जिसका माताजी ने स्पर्श न किया हो। चाहे वह साहित्यक क्षेत्र हो, धार्मिक क्षेत्र हो, रचनात्मक क्षेत्र हो, या यौगिक क्षेत्र हो । - ब्र०कु० बीना जैन [संघस्थ] यौगिक क्षेत्र में पू० माताजी की विशेष उपलब्धि रही। बचपन से ही जब माताजी कु० मैना की अवस्था में शीलकथा दर्शनकथा पढ़कर और पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका का स्वाध्याय कर-कर अपना ज्ञान वृद्धिंगत कर रही थीं उसके साथ ही साथ यौगिक क्षेत्र में कैसे आगे आएं? कैसे घर वालों का मोह छुड़ा कर वैराग्य मार्ग अपनाएं इसके लिए प्रयत्नशील थीं 'अकलंक निकलंक' नाटक देखकर, उसमें अकलंक का पिता के प्रति संवाद सुनकर कि 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं । " For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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