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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ Jain Educationa International "चतुरनुयोग मार्गदर्शिका ज्ञानमती माताजी " [२७९ 1 अभिनंदन ग्रंथ के संपादक मण्डल की मीटिंग में मुझे सम्यग्ज्ञान के ऊपर लिखने को कहा गया तो मुझे यह महसूस हुआ कि मानो अचानक मुझसे ये प्रश्न कर दिया गया हो कि बताओ समुद्र की कौन सी लहर सबसे ऊँची है या संगीत का कौन सा सुर सबसे अधिक तेज बजता है। परंतु जिस प्रकार संगीत के समस्त स्वर एक ही सप्तक के झरने से झरे हैं। जिस प्रकार समुद्र की सभी लहरें एक ही केन्द्र बिन्दु से उठती हैं, चाहे कोई नीची हो या ऊँची । जिस प्रकार इस नभमंडल में व्याप्त समस्त प्रकाश सात रंगों का एक अनोखा मिश्रण है, उसी प्रकार पू० माताजी ने जैन दर्शन जो कि चतुरनुयोगों की चारों विधाओं से झरने के बहते जल के रूप में, संगीत के सुरों के रूप में, नभमंडल में व्याप्त प्रकाश के रूप में तथा समुद्र की लहरों के समान सम्यग्ज्ञान में अपनी लेखनी से अंकित किया है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर जिन्होंने पूरा जैन दर्शन उनसे पूछे गये सहस्रों प्रश्नों के उत्तर में उल्लेखित किया, जिसको गौतम गणधर के द्वारा लिपिबद्ध करवाया गया, जिसको कुन्दकुन्दाचार्य व अन्य आचार्यों के द्वारा पुनः संकलित किया गया, उन्हीं चतुरनुयोगों को पूज्य गणिनी आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा सर्वप्रथम पत्रिका "सम्यग्ज्ञान" के माध्यम से जन-जन के ज्ञानार्जन के लिए लिखा गया। पहले जैन समाज की जितनी भी पत्र-पत्रिकायें थीं उनमें किसी भी पत्रिका में चारों अनुयोगों को एक साथ नहीं लिया गया था पू० माताजी ने जब सभी पत्रिकाओं में इस कमी को पाया तो संगीत की सप्तक के समान स्याद्वाद सूर्य से आलोकित द्वादशांग वाणी रूप चारों अनुयोगों से युक्त सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाशन करवाने का बीड़ा उठाया, और स्वयं की लेखनी से जैन दर्शन की ज्ञान गंगा को अवतरित किया। सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका ने उस प्रकाश स्तंभ का कार्य किया है जो समुद्र के मध्य में खड़ा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम चारों दिशाओं के भटके हुए लोगों को रास्ता दिखाता है, किसी भी व्यक्ति चाहे वो किसी भी दिशा से आने वाला हो के साथ कोई पक्षपात नहीं करता है उसी प्रकार पूजनीय माताजी ने भी सम्यग्ज्ञान पत्रिका में जन-जन के जीवन को सार्थक करने के लिए चतुरनुयोगों को चारों दिशाओं के समान प्रकाशित किया है। " सम्यग्ज्ञान" प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों को पू० माताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा समझाते हुए प्रथमानुयोग के अन्दर पट्काल परिवर्तन, कुलकरों की उत्पत्ति, चौबीस तीर्थंकरों का इतिहास, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायणों की विशेषताओं का वर्णन किया है तो करणानुयोग में तीनों लोकों का पूर्ण वर्णन तथा उसमें अधोलोक, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, सुमेरु पर्वत, लवणसमुद्र, जम्बूद्वीप के अकृत्रिम चैत्यालय, मध्यलोक के अकृत्रिम चैत्यालय, तथा देवों के भेद जैसे-भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिवाँसी देव, कल्पवासी देव के भेदों को समझाते हुए जीव के पंच परिवर्तन, पल्यसागर का स्वरूप आदि विशेषताओं को समझाया है। वहीं चरणानुयोग में धर्म का लक्षण, श्रावक की क्रियायें, श्रावक के धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, मुनि धर्म एवं उनके २८ मूलगुण, मुनियों की दिनचर्या आदि का वर्णन करते हुए साक्षात् मोक्ष मार्ग के दर्शन कराये हैं। इसी प्रकार द्रव्यानुयोग में छः द्रव्यों का वर्णन, नय व प्रमाण का वर्णन, अनंत के भेद, मोक्ष मार्ग, कर्म सिद्धांत, कर्मों का आस्रव, बंध, संवर व निर्जरा का कारण एवं मुक्ति का कारण इत्यादि बताया है। वास्तव में पू० माताजी ने सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका के माध्यम से गागर में सागर भर दिया है। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय सम्यग्ज्ञान में समा गया है। पू० माताजी की सरस लेखनी जो सदैव एक नया आनंद एक नया वर प्रदान करती है, जिस प्रकार से आप जब किसी नदी में पांव रखकर एक क्षण पूर्व की छोड़ी हुई जल की धार छू नहीं सकते उसी प्रकार माताजी की वाणी, माताजी की लेखनी भी ज्ञान गंगा का वह प्रवाह है जिसको आप एक बार पढ़ना व सुनना भूल गये तो आपको सदैव यह अहसास होगा कि आपने कुछ खो दिया है और आप सदैव नदी की धार की बूंद के समान उसको ढूंढते ही रहेंगे। J पूजनीय माताजी ने सम्याज्ञान को अपने ज्ञान की गंगा से लबालब भर दिया है। संगीत के स्वर को इतनी ऊंचाईयों तक पहुँचा दिया है कि सम्यग्ज्ञान पत्रिका को देखने से ही मन वीणा के तार स्वयमेव ही बज उठते हैं और सातों रंगों के मिश्रण से बना प्रकाश मन मस्तिष्क में छा जाता है। पू० माताजी ने मात्र चारों अनुयोगों को ही नहीं इनके अलावा भी बहुत से विषयों को समय-समय पर सम्यग्ज्ञान में प्रतिपादित किया है, जिनके कारण ऐसे अंक सदैव के लिए अविस्मरणीय बन गये और भविष्य की अमूल्य ख्याति एवं सुनहरा इतिहास बन गये हैं। ठीक है, उन शब्दों को हम शायद नहीं समझ पायें, परन्तु आने वाला युग, आने वाली संतति सदैव माताजी की ऋणी रहेगी, और सदियों तक माताजी की अमरकृति गाई जाती रहेगी। जब तक ये नभ मंडल रहेगा, ये विश्व रहेगा, ये भारत रहेगा पू० माताजी की लेखनी अमर रहेगी । For Personal and Private Use Only - मनोजकुमार जैन, हस्तिनापुर www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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