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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
आत्मबल से शरीर बल-प्राणवान् हो गया । मेरे मन को बड़ा चैन मिला और प्रेरणा भी । जनवरी का महीना था कड़ाके की शीतलहर प्रातः का झुटपुटा समय कोहरा ऐसा कि हाथ को हाथ नहीं दिखता था मैं वीतराग प्रभु के दर्शन कर चारित्र व संयम की जीवन्त जंगम प्रतिमा की वन्दना को अकेली बढ़ चली । धीरे से कमरे का दरवाजा दबाया कि, खुल गया सामने कोने में एक कृशकाय श्वेत वस्त्र में स्वनाम धन्य अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी निपट अकेली अपने अध्ययन में तल्लीन थी । पदचाप की तनिक-सी आहट से उसका ध्यान भंग हुआ मुझे ऐसा लगा, जैसे-मैंने व्यवधान पैदा कर दिया हो।
चर्चा हुई । मन को बड़ा अच्छा लगा । ज्ञानमय-चेतना से मिलना सुखदायी प्रतीत हुआ । मैं फिरउनकी चर्या में अधिक बाधक होना नहीं चाहती थी । मैं लौटी, कि वे अपनी साधना में पूर्ववत् पुनः तल्लीन हो गईं । दो वर्ष उपरांतएक दिन वर्षायोग के उपरांत हवा के साथ उस योगिनी के स्वास्थ्य के विषय में विकट सूचना दी । मन में एक स्फुरना हुई । मैं सरधना से दौड़ी गई । मैं सोच रही थी ज्ञान-ध्यान व तपोरत आत्मा एक ओर तो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं अन्तरात्मा है दूसरी ओर बाहरी जगत् में इतनी तीव्रगति अद्भुत निर्माण जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक धरोहर होगी । अन्तर और बाहर का यह समुच्चय सभी के लिए अभिवन्दनीय है।
उस तपस्विनी ने मुस्कराकर बड़े स्नेह से पास बिठाया। कुशल मंगल के साथ पौराणिक विश्व रचना पर
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