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________________ २१२] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला आत्मबल से शरीर बल-प्राणवान् हो गया । मेरे मन को बड़ा चैन मिला और प्रेरणा भी । जनवरी का महीना था कड़ाके की शीतलहर प्रातः का झुटपुटा समय कोहरा ऐसा कि हाथ को हाथ नहीं दिखता था मैं वीतराग प्रभु के दर्शन कर चारित्र व संयम की जीवन्त जंगम प्रतिमा की वन्दना को अकेली बढ़ चली । धीरे से कमरे का दरवाजा दबाया कि, खुल गया सामने कोने में एक कृशकाय श्वेत वस्त्र में स्वनाम धन्य अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी निपट अकेली अपने अध्ययन में तल्लीन थी । पदचाप की तनिक-सी आहट से उसका ध्यान भंग हुआ मुझे ऐसा लगा, जैसे-मैंने व्यवधान पैदा कर दिया हो। चर्चा हुई । मन को बड़ा अच्छा लगा । ज्ञानमय-चेतना से मिलना सुखदायी प्रतीत हुआ । मैं फिरउनकी चर्या में अधिक बाधक होना नहीं चाहती थी । मैं लौटी, कि वे अपनी साधना में पूर्ववत् पुनः तल्लीन हो गईं । दो वर्ष उपरांतएक दिन वर्षायोग के उपरांत हवा के साथ उस योगिनी के स्वास्थ्य के विषय में विकट सूचना दी । मन में एक स्फुरना हुई । मैं सरधना से दौड़ी गई । मैं सोच रही थी ज्ञान-ध्यान व तपोरत आत्मा एक ओर तो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी हैं अन्तरात्मा है दूसरी ओर बाहरी जगत् में इतनी तीव्रगति अद्भुत निर्माण जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक धरोहर होगी । अन्तर और बाहर का यह समुच्चय सभी के लिए अभिवन्दनीय है। उस तपस्विनी ने मुस्कराकर बड़े स्नेह से पास बिठाया। कुशल मंगल के साथ पौराणिक विश्व रचना पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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