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गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ
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श्रीमात के दरश से आनन्द आज छाया
- द्रौपदीबाई जैन-आरा
तर्ज - दिन-रात मेरे स्वामी मैं भावना ये भाऊं .... श्रीमात के दरश से आनंद आज छाया । अज्ञान तम हटाकर सत्पथ हमें बताया ॥
कैसी विरागी अनपम शांति छवि निराली ।
करके कठिन तपस्या तन से ममत्व भगाया ॥ श्रीमात० ॥१॥ जिन भाग्य की परीक्षा करने खड़ी थी द्वारे। सौभाग्य आज मेरा अनमोल निधि को पाया ॥ श्रीमात० ॥२॥
है शुद्ध अन्न जल है हे मात ! तिष्ठो-तिष्ठो ।
देकर परिक्रमा त्रय आसन पैजा निठाया ॥ श्रीमात० ॥ ३ ॥ मस्तक विषे लगाया प्रक्षाल कर चरण का। वसु द्रव्य लेय पूजे चरणों में सिर झुकाया ॥ श्रीमात० ॥ ४ ॥
मन, वचन, तन की शुद्धि कह ग्रास जब दिया है। मानो कर्म जलाएँ नर भव सफल बनाया ॥ श्रीमात० ॥ ५॥
शाप को वरदान तुमने कर दिया
-ब्र० कैलाशवतीजी, सरधना
रो रही थी जिन्दगी जो आँसुओं में । आँसुओं को गान तुमने कर दिया।
सोचती होगी नियति, आहत हुई तुम,
मूर्त मानो वेदना का, व्रत हुई तुम । अब शिथिलता व्यापी, सूनापन निरन्तर
मौन का आह्वान तुमने कर दिया,
शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ १ ॥ स्नेह कुंठित रह गया था, राह दी तुमने, कर्म निज भावना की थाह ली तुमने। कह चुके थे सब कठिन पत्थर कि जिसको,
मूर्ति को भगवान् तुमने कर दिया,
शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ २ ॥ रह गया हारा थका-सा चाँद ऊपर, कौन “चन्दा" दूसरा यह आज भूपर,
शुभ्र ज्योत्स्ना से तुमने आलोक भर दिया। शाप को वरदान तुमने कर दिया ॥ ३ ॥
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