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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०९ भगवान महावीर कैसे बने? समीक्षक-अरविन्द कुमार जैन, इंदौर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित "भग महावार कैसे हो?" पुस्तक का पूर्णरूपेण अवलोकन किया, जिसके प्रारंभ में भगवान महावीर का जीव पुरूरवा नील से लेकर मरीचि, विश्नंदी, त्रिपृष्ठ, मृगेन्द्र, मरीचि कुमार आदि अनेक भव धारण कर नरक में अनंत दुःख व स्वर्ग के सुखों को भोगता हुआ बारंबार जैनेश्वरी दीक्षा धारण करता हुआ तीर्थकर प्रकृति को धारण कर २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर बना। भगवान भगवान महावीर बनने से पूर्व उस जीव ने कितने ही भवों को धारण किया। अनेक बार नरकों के दुःखों को सहन किया, वैभव व स्वर्ग का सुख प्राप्त किया और अंत में किस तरह सातिशय तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर मोक्ष प्राप्त किया, का वर्णन सुबोध व सरल भाषा शैली में किया गया है। इसकी भाषा इतनी मधुर है कि एक बार अवलोकन करने पर बारंबार मन-मस्तिष्क उन स्थितियों के गूढ़ रहस्यों की ओर मुड़ जाता कैसबने है। इस चालीस पृष्ठीय पुस्तक पर यदि शोध ग्रंथ लिखें तो अनेकों ग्रंथों की रचना की जा सकती है। लेखन कला ने पुस्तक में वह रोचकता प्रदान की है कि धर्म से विमुख व्यक्ति भी यदि एक बार उसका अवलोकन कर ले तो वह इस जीवन में तो जैन धर्म से विमुख नहीं हो सकता। एक ओर तो मुनि दिग्दर्शन, नरक गति के दुःखों का वर्णन, संसार परिभ्रमण, स्वर्ग के सुखों का वर्णन किया गया है, वहीं दूसरी ओर क्रूर जीव का भी हृदय परिवर्तन व जैनेश्वरी दीक्षा का मार्मिक वर्णन निहित है। पुस्तक को सांगोपांग बनाने में चित्रों का चयन भी आकर्षणीय है, प्रसंगानुसार चित्र भी मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ते हैं। अज्ञानी व्यक्ति को जैन धर्म का मर्म समझाने में चित्रों की अहम् भूमिका है, जो इसमें विद्यमान है। वास्तविकता यह है कि पुस्तक के नाम की सार्थकता में पूज्य आर्यिका गणिनीजी ने वह सब इसमें लिखने का प्रयास किया, जो भगवान बनने में सहायक है। जिसका वर्णन सूक्ष्म, सरल व मृदु भाषा में है। बाहुबली नाटक समीक्षिका-ब्र. सुमन शास्त्री, पटेरा बाहुबली नाटक परम विदुषी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की अपनी नाट्य शैली की प्रेरणा स्रोतस्विनी एक विशिष्ट कृति है, जिसमें "स्वात्म जागरण" की अनेकानेक संभावनाएं सन्निहित हैं। बाहुबली यह संज्ञा श्रवणपुर का विषय बनते ही आबाल वृद्ध के चित्तपट पर "तन लिपटी माधवी लता" वाला चित्र उभर आता है। साथ ही जिन्हें दर्शन के पावन प्रसंग प्राप्त हुए हैं, उनके मन-मस्तिष्क पर श्रवणबेलगुल के बाहुबली तरंगायित हो जाते हैं। काव्य की दो प्रमुख विधाएँ हैं । दृश्य काव्य एवं श्रव्य काव्य । दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाटक की गणना की गई है। श्रव्य काव्य की अपेक्षा दृश्य काव्य अधिक प्रभावकारक हुआ करते हैं। अपढ़, ग्रामीण बालक भी नाटक में प्रस्तुत की गई भाव-भंगिमाओं द्वारा वस्तुस्थिति समझ जाते हैं। उनकी मनोभूमि पर वे अभिव्यक्त भाव अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। प्रस्तुत कृति श्रव्य काव्य के साथ-साथ दृश्य काव्य की वह विधा है, जो कामदेव बाहुबली से मृत्युमयी बाहुबली का दर्शन कराती हुई गोम्मटेश बाहुबली एवं बुढ़िया की लुटिया तक पाठक/दर्शक को ले जाती है। बाहुबली नाटक तीन क्रमवर्ती अंकों में विवृत है। प्रथम दो अंकों में पाठक/दर्शक/श्रोता को बाहुबली की चरम भव्यता दृष्टिगोचर होती है। मुख्य पात्र की वृद्धिंगत आत्म विशुद्धि के साथ-साथ आत्मीय विशुद्धि Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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