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वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला
की मंजिलों पर मुक्ति की मंगल यात्रा में पग बढ़ाती हुई श्रावकानुकूल लोक मंगलमयी "साधना की प्रार्थना" का हृदयस्पर्शी विवेचन किया गया है। अंतिम अंक में सन् १९८१-८२ के गोम्मट के ईश्वर, अर्थात् चामुण्डराय के आराध्य गोम्मटेश बाहुबली का अद्भुत चित्रण किया है। आज मानव के नैतिक मूल्यों के बिखराव के जो श्यामल सघन बादल मनुष्य की चेतना पर मंडरा रहे हैं, वे वस्तुतः प्रलय के मेघ हैं। जहाँ एक ओर हिंसा के घृणित नग्न तांडव एवं दूसरी ओर भौतिकता की बढ़ती तृषा ने सब ओर से आबाल वृद्ध को अपने विषाक्त पंजों में धर दबोचा हो । जहाँ मानव-मानव का दुश्मन बना हुआ हो, वहाँ ऐसी विषम परिस्थितियों में बाहुबली नाटक जिन्होंने "राज पथ छोड़ विराग पथ चुना, उसे ही सर्वस्व माना/समझा" की नितांत आवश्यकता है। प्रथम पृष्ठ खोलते ही मंगल भाव मुखरित हो उठता है। यथा-मिट जाये अज्ञान अंधेरा, प्रकटे ज्ञान प्रभात उजेला।
द्वितीय दृश्य में पहुँचकर पाठक/दर्शक एक स्थल पर अचानक अपनी श्वांस रोक लेता है। अब क्या होगा? जब ६०००० वर्ष पश्चात् चक्ररत्न अपने ही घर के आंगन में आकर रुक जाता है। जिज्ञासा बढ़ जाती है और यहीं से इस नाटक का सूत्रपात हो जाता है। सम्राट् की निस्पृहता एवं आत्मीयता का विरोधाभास क्रमशः राज्य और भ्राता के प्रति स्पष्टरूपेण झलक रहा है। इन शब्दों के साथ मंत्रियों राज्य वैभव की सफलता तो यही है कि भाई-भाई मिलकर उसका उपयोग करें।
"पुनश्च : भाइयों के प्रति कड़ा कदम उठाना मुझे अच्छा नहीं लगता।" आर्यिका श्री ने इन पंक्तियों में भ्रातृत्व भाव को पूर्णतः सुरक्षित रखा है। तृतीय दृश्य में आर्यिका श्री ने अपने कितने सुंदर वाक्चातुर्य से दूत के वाक्चातुर्य को प्रकट किया है, जिसमें दूत की स्वामी भक्ति इष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए बाहुबली के मंतव्य का रहस्योद्घाटन की कुशलता दिखलाई पड़ती है। एक झलक देखिए
दूत-प्रभो! आपके शब्द रूप दर्पण में ही उनका आगे का कार्य स्पष्ट झलक रहा है।
वह आगे कहता है आप दोनों भाइयों से सारा जगत् मिलकर रहेगा। संगठन में प्रेम और विनय पाये जाते हैं। संगठन विघटित होते हैं। दोनों समाप्त हो जाते हैं।
जब तक धर्मनीति है, तभी तक सब कुछ सुव्यवस्थित रहता है। जैसे ही धननीति प्रवेश पाती है, सब कुछ मृतप्राय जैसा होने लगता है। भ्रातृप्रेम घुटने टेक देता है। लोभ जब अन्तस में रुधिर की तरह व्याप्त हो जाता है, तब व्यक्ति का ह्रास विनाश नियामक हो जाता है। बाहुबली दूत को सचेत करते हुए कहते हैं।
'हे पूज्य पिता भगवान् वृषभदेव द्वारा दी गई भूमि को जो छीनना चाहता है, उस महालोभी का तिरस्कार करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं दिखता।
संसारी प्राणी विडम्बना युक्त है। भरत चक्री का मन दोलायित है। चक्रवर्तित्व प्राप्त करने की अदम्य अतृप्त लालसा तथा प्राप्त हुए को एकाकी नहीं भोगने की अक्षम्य व्यथा । निस्पृही तरंगों ने भरत के विशाल मन सरोवर को मथ डाला। भरत कहते हैं-छोटी-सी बात रह-रह कर चुभती है ओह! इतने विशाल वैभव को अपने भाइयों में बाँट न सका।
द्वितीय अंक की अपनी अलग पहचान है, जो समग्र काव्य की चमक आभा लिए हुए है। जन श्रुतियाँ हैं कि दीक्षितोपरान्त बाहुबली को संवत्सर तक कैवल्य बोध नहीं हुआ, जिसका मूल कारण है कि उनके मन में शल्य थी कि "मैं भरत भूमि पर खड़ा हूँ।" समझ में नहीं आता कैसा मन गढन्त गणित है दुनिया का। सर्वार्थ सिद्धि से अवतरित क्षायिक क्षम्यदृष्टि बाहुबली जिनका सम्यक्त्व अडिग है, वे चतुर्थ गुणस्थान से नीचे कैसे उतर सकते थे। शल्य उन्हें कैसे चुभन पैदा कर सकती थी। क्योंकि शल्य की भूमिका प्रथम गुणस्थान तक ही सीमित है, जो बाहुबली को अनंतकाल तक स्पर्श नहीं कर सकती। किसी ने कहा, उनका मन मान से पीड़ित था, पर श्रमणी श्रेष्ठा आ इन तमाम भ्रमों का पर्दाफाश कर महापुराण कार का अनुकरण कर एवं उनकी बात को पुष्ट करते हुए बाहुबली को मान मुक्त बतलाया है। द्रष्टव्य है इन्द्र-कुबेर का वार्तालाप-कुबेर । बाहुबली को योग साधना करते हुए आज एक वर्ष पूर्ण हो चुका है। दीक्षा लेते ही एक वर्ष का उपवास ग्रहण किया था और एक ही स्थान पर निश्चय योग में आरूढ़ हो गये थे। उनके मन में कदाचित् यह विकल्प उठ जाया करता था कि 'भरत को मुझसे क्लेश हो गया है।" यही कारण था, वे निर्विकल्प शुक्ल ध्यान में नहीं पहुँच सके। मणि कांचन योग भरत के पूजा कर रहे हैं। मन से विकल्प निकल चुका है और प्रभु को कैवल्य लाभ हो रहा है। कितना सुंदर सामयिक तर्कसंगत समाधान है। इसमें वीतराग साधु की गरिमा प्रतिष्ठित है यथावत्।
तृतीय अंक-गोम्मट के ईश्वर अर्थात् चामुण्डसय के आराध्य गोम्मेटेश्वर बाहुबली का चित्रण किया है। यह अंक त्याग, संकल्प एवं भक्ति की त्रिवेणी का संगम स्थल है। त्याग और संकल्प एक-दूसरे के पूरक हैं। किसी इच्छा की पूर्ति बिना त्याग एवं संकल्प के संभव नहीं है। इच्छा पूर्ति एवं त्याग यद्यपि एक-दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, किन्तु अद्भुत समागम है इन दोनों का । चामुण्डराय की माता को गुरुमुख से बाहुबली का माहात्म्य सुन दर्शनेच्छा जाग्रत हुई, तभी से जब तक उनका दर्शन नहीं होगा। इच्छा पूर्ति नहीं होगी, दूध का त्याग। इस इच्छा, संकल्प और त्याग ने विंध्यगिरी के पाषाण खंड को मूर्ति का रूप दे दिया।
इस अंक में आर्यिकाजी ने कई जनोपयोगी बातों का समावेश किया है। यथा१. मुनि देवों द्वारा आहार नहीं लेते हैं। यदि अज्ञातावस्था में आहार लेने में आ जाये तो पश्चात् प्रायश्चित करते हैं। २. उपासना में अहं बाधक है। यहाँ वस्तु का नहीं, वरन् भावों का महत्त्व है। भक्ति का फल अलौकिक होता है।
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